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धम्मगिरि-पालि-गन्थमाला
[ देवनागरी]
दीघनिकाये
लीनत्थप्पकासना
पठमो भागो
सीलक्खन्धवग्गटीका
गन्थकारो
भदन्ताचरियो धम्मपालत्थेरो
विपश्यना विशोधन विन्यास
इगतपुरी १९९८
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धम्मगिरि - पालि - गन्थमाला -७ [ देवनागरी ]
दीघनिकाय एवं तत्संबंधित पालि साहित्य ग्यारह ग्रंथों में प्रकाशित किया गया है।
प्रथम आवृत्ति : १९९८
ताइवान में मुद्रित, १२०० प्रतियां
मूल्य : अनमोल
यह ग्रंथ निःशुल्क वितरण हेतु है, विक्रयार्थ नहीं ।
सर्वाधिकार मुक्त | पुनर्मुद्रण का स्वागत 1
इस ग्रंथ के किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन के लिए लिखित अनुमति आवश्यक नहीं ।
ISBN 81-7414-056-5
यह ग्रंथ छट्ट संगायन संस्करण के पालि ग्रंथ से लिप्यंतरित है ।
इस ग्रंथ को विपश्यना विशोधन विन्यास के भारत एवं म्यंमा स्थित पालि विद्वानों ने देवनागरी में लिप्यंतरित कर संपादित किया। कंप्यूटर में निवेशन और पेज- सेटिंग का कार्य विपश्यना विशोधन विन्यास, भारत में हुआ ।
प्रकाशक :
विपश्यना विशोधन विन्यास
धम्मगिरि, इगतपुरी, महाराष्ट्र- ४२२४०३, भारत
फोन : (९१-२५५३) ८४०७६, ८४०८६ फैक्स: (९१-२५५३) ८४१७६
सह-प्रकाशक, मुद्रक एवं दायक :
दि कारपोरेट बॉडी ऑफ दि बुद्ध एज्युकेशनल फाउंडेशन
११ वीं मंजिल, ५५ हंग चाउ एस. रोड, सेक्टर १, ताइपे, ताइवान आर. ओ. सी. फोन : (८८६-२) २३९५-१९९८, फैक्स : ( ८८६-२) २३९१-३४१५
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Dhammagiri-Pāli-Ganthamālā
[Devanāgari]
Dighanikāye Līnatthappakāsanā
Pathamo Bhāgo
Sīlakkhandhavagga-Tīkā
Ganthakāro Bhadantācariyo Dhammapalatthero
Devanāgari edition of the Pāli text of the Chattha Sangāyana
Published by Vipassana Research Institute Dhammagiri, Igatpuri -422403, India
Co-published, Printed and Donated by The Corporate Body of the Buddha Educational Foundation 11th Floor, 55 Hang Chow S. Rd. Sec 1, Taipei, Taiwan R.O.C.
Tel: (886-2)23951198, Fax: (886-2)23913415
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Dhammagiri-Pāli-Ganthamālā—7 [Devanāgari]
The Digha Nikāya and related literature is being published together in eleven volumes.
First Edition: 1998 Printed in Taiwan, 1200 copies
Price: Priceless This set of books is for free distribution, not to be sold. No Copyright-Reproduction Welcome. All parts of this set of books may be freely reproduced without prior permission.
ISBN 81-7414-056-5
This volume is prepared from the Pāli text of the Chattha Sargāyana edition. Typing and typesetting on computers have been done by Vipassana Research Institute, India. MS was transcribed into Devanāgari and thoroughly examined by the scholars of Vipassana Research Institute in Myanmar and India.
Publisher: Vipassana Research Institute Dhammagiri, Igatpuri, Maharashtra - 422 403, India Tel: (91-2553) 84076, 84086, 84302 Fax: (91-2553) 84176
Co-publisher, Printer and Donor: The Corporate Body of the Buddha Educational Foundation 11th Floor, 55 Hang Chow S. Rd. Sec 1, Taipei, Taiwan R.O.C. Tel: (886-2)23951198, Fax: 886-23913415
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विसय-सूची
प्रस्तुत ग्रंथ Present Text संकेत-सूची
१५९ १६० १६० १६१ १६४
१६६
१६८ १६८ १६९
१६९ १७०
५६
१११
१७१
परितस्सितविष्फन्दितवारवण्णना। फस्सपच्चयवारवण्णना नेतंठानविज्जतिवारवण्णना दिट्ठिगतिकाधिट्ठानवट्टकथावण्णना विवट्टकथादिवण्णना पकरणनयवण्णना सोळसहारवण्णना देसनाहारवण्णना विचयहारवण्णना युत्तिहारवण्णना पदट्ठानहारवण्णना लक्खणहारवण्णना चतुब्यूहहारवण्णना आवत्तहारवण्णना विभत्तिहारवण्णना परिवत्तहारवण्णना वेवचनहारवण्णना पञत्तिहारवण्णना ओतरणहारवण्णना सोधनहारवण्णना अधिट्ठानहारवण्णना परिक्खारहारवण्णना समारोपनहारवण्णना पञ्चविधनयवण्णना
गन्थारम्भकथावण्णना निदानकथावण्णना
पठममहासङ्गीतिकथावण्णना १. ब्रह्मजालसुत्तवण्णना परिब्बाजककथावण्णना चूळसीलवण्णना मज्झिमसीलवण्णना महासीलवण्णना पुब्बन्तकप्पिकसस्सतवादवण्णना एकच्चसस्सतवादवण्णना अन्तानन्तवादवण्णना अमराविक्खेपवादवण्णना अधिच्चसमुप्पन्नवादवण्णना अपरन्तकप्पिकवादवण्णना सञ्जीवादवण्णना असञी नेवसञीनासञ्जीवादवण्णना उच्छेदवादवण्णना दिठ्ठधम्मनिब्बानवादवण्णना
१७१
११५ ११७ १३४ १४१
१४३
१७४ १७५ १७६ १७६ १७७ १७८ १७९ १७९
१४६ १५०
१५०
१५२ १५३ १५५
१८० १८०
१८१
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१८१ १८१ १८२ १८३ १८३ १८४ १८४ १९०
१९२
२६४
२६४ २६५
नन्दियावट्टनयवण्णना तिपुक्खलनयवण्णना सीहविक्कीळितनयववण्णना दिसालोचनअङ्कुसनयद्वयवण्णना
सासनपट्ठानवण्णना २. सामञफलसुत्तवण्णना
राजामच्चकथावण्णना कोमारभच्चजीवककथावण्णना सामञफलपुच्छावण्णना पूरणकस्सपवादवण्णना मक्खलिगोसालवादवण्णना अजितकेसकम्बलवादवण्णना पकुधकच्चायनवादवण्णना निगण्ठनाटपुत्तवादवण्णना सञ्चयबेलट्ठपुत्तवादवण्णना पठमसन्दिट्ठिकसामञफलवण्णना दुतियसन्दिट्ठिकसामञफलवण्णना पणीततरसामञफलवण्णना चूळमज्झिममहासीलवण्णना इन्द्रियसंवरकथावण्णना सतिसम्पजञकथावण्णना सन्तोसकथावण्णना नीवरणप्पहानकथावण्णना पठमज्झानकथावण्णना दुतियज्झानकथावण्णना ततियज्झानकथावण्णना चतुत्थज्झानकथावण्णना विपस्सनाजाणकथावण्णना मनोमयिद्धिञाणकथावण्णना
१९५ १९७ २०० २०२ २०३ २०४ २०४ २०५ २०६ २१४ २१४
इद्धिविधज्ञाणादिककथावण्णना २३७ आसवक्खयाणकथावण्णना २३८ अजातसत्तुउपासकत्तपटिवेदनाकथावण्णना
२४१ सरणगमनकथावण्णना
२४५ ३. अम्बट्ठसुत्तवण्णना
२५३ अद्धानगमनवण्णना
२५३ पोक्खरसातिवत्युवण्णना
२५५ अम्बट्ठमाणवकथावण्णना
२५७ पठमइब्भवादवण्णना
२६२ दुतियइब्भवादवण्णना ततियइब्भवादवण्णना दासिपुत्तवादवण्णना अम्बट्ठवंसकथावण्णना
२६८ खत्तियसेट्ठभाववण्णना
२६९ विज्जाचरणकथावण्णना
२७० चतुअपायमुखकथावण्णना २७१ पुब्बकइसिभावानुयोगवण्णना २७२ द्वेलक्खणदस्सनवण्णना
२७४ पोक्खरसातिबुद्धूपसङ्कमनवण्णना। २७५ पोक्खरसातिउपासकत्तपटिवेदनाकथावण्णना
२७६ ४. सोणदण्डसुत्तवण्णना
२७७ सोणदण्डगुणकथावण्णना
२७७ बुद्धगुणकथावण्णना
२८० सोणदण्डपरिवितक्कवण्णना ब्राह्मणपत्तिवण्णना सीलपञकथावण्णना सोणदण्डउपासकत्तपटिवेदनाकथावण्णना
२८३
२१५
२२५
२
my my my ura Mod
२८२
२८२
२३६
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३४२
३४४
३०१
३४५
५. कूटदन्तसुत्तवण्णना
महाविजितराजयञकथावण्णना चतुपरिक्खारवण्णना अट्ठपरिक्खारवण्णना चतुपरिक्खारादिवण्णना निच्चदानअनुकुलयञ्जवण्णना कूटदन्तउपासकत्तपटिवेदनाकथा
वण्णना ६. महालिसुत्तवण्णना ब्राह्मणदूतवत्थुवण्णना ओट्ठद्धलिच्छवीवत्थुवण्णना एकंसभावितसमाधिवण्णना चतुअरियफलवण्णना अरियअट्ठङ्गिकमग्गवण्णना
द्वेपब्बजितवत्थुवण्णना ७. जालियसुत्तवण्णना
द्वेपब्बजितवत्थुवण्णना ८. महासीहनादसुत्तवण्णना
अचेलकस्सपवत्थुवण्णना समनुयुजापनकथावण्णना अरियअट्ठङ्गिकमग्गवण्णना तपोपक्कमकथावण्णना तपोपक्कमनिरत्थकथावण्णना सीलसमाधिपासम्पदावण्णना सीहनादकथावण्णना तित्थियपरिवासकथावण्णना ९. पोट्ठपादसुत्तवण्णना पोट्ठपादपरिब्बाजकवत्थुवण्णना अभिसानिरोधकथावण्णना
२८५ अहेतुकसअप्पादनिरोधकथावण्णना ३२४ २८५ साअत्तकथावण्णना
३३० २८७
चित्तहत्थिसारिपुत्तपोट्टपादवत्थुवण्णना ३३३ २८८ एकंसिकधम्मवण्णना
३३४ २८९ तयोअत्तपटिलाभवण्णना
३३५ २९२ १०. सुभसुत्तवण्णना
३४० सुभमाणवकवत्थुवण्णना
३४० २९७ सीलक्खन्धवण्णना
३४२ २९८
समाधिक्खन्धवण्णना २९८ ११. केवट्टसुत्तवण्णना २९८ केवट्टगहपतिपुत्तवत्थुवण्णना ३४४ ३०० इद्धिपाटिहारियवण्णना
३४५ आदेसनापाटिहारियवण्णना ३४५ ३०१ अनुसासनीपाटिहारियवण्णना
भूतनिरोधेसकवत्थुवण्णना ३४६
१२. लोहिच्चसुत्तवण्णना ३०५ लोहिच्चब्राह्मणवत्थुवण्णना ३५० ३०८ लोहिच्चब्राह्मणानुयोगवण्णना ३५१ ३०८ तयोचोदनारहवण्णना
३५१ नचोदनारहसत्थुवण्णना
३५२ ३१२ १३. तेविज्जसुत्तवण्णना
३५४ ३१३ मग्गामग्गकथावण्णना
३५४ अचिरवतीनदीउपमाकथावण्णना ३५६ ३१५ संसन्दनकथावण्णना
३५८ ३१६ ब्रह्मलोकमग्गदेसनावण्णना ३५९ ३१८ सद्दानुक्कमणिका
[१] ३२० गाथानुक्कमणिका
[४३] ३२० संदर्भ-सूची
[४५] ३२२
३०३
३०५
३११
३१५
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चिरं तिट्ठतु सद्धम्मो ! चिरस्थायी हो सद्धर्म !
बेमे, भिक्खवे, धम्मा सद्धम्मस्स ठितिया असम्मोसाय अनन्तरधानाय संवत्तन्ति । कतमे द्वे ? सुनिक्खित्तञ्च पदव्यञ्जनं अत्थो च सुनीतो । सुनिक्खित्तस्स, भिक्खवे, पदव्यञ्जनस्स अत्थोपि सुनयो होति ।
अ० नि० १.२.२१, अधिकरणवग्ग
भिक्षुओ, दो बातें हैं जो कि सद्धर्म के कायम रहने का, उसके विकृत न होने का, उसके अंतर्धान न होने का कारण बनती हैं। कौनसी दो बातें ? धर्म वाणी सुव्यवस्थित, सुरक्षित रखी जाय और उसके सही, स्वाभाविक, मौलिक अर्थ कायम रखे जांय । भिक्षुओ, सुव्यवस्थित, सुरक्षित वाणी से अर्थ भी स्पष्ट, सही कायम रहते हैं ।
... ये वो मया धम्मा अभिज्ञा देसिता, तत्थ सब्बेहेव सङ्गम्म समागम्म अत्थेन अत्थं व्यञ्जनेन ब्यञ्जनं सङ्गायितब्बं न विवदितब्बं, यथयिदं ब्रह्मचरियं अनियं अस्स चिरद्वितिकं... ।
दी० नि० ३.१७७, पासादिकसुत्त
... जिन धर्मों को तुम्हारे लिए मैंने स्वयं अभिज्ञात करके उपदेशित किया है, उसे अर्थ और ब्यंजन सहित सब मिल-जुल कर बिना विवाद किये संगायन करो, जिससे कि यह धर्माचरण चिर स्थायी हो... ।
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प्रस्तुत ग्रंथ
दीघनिकाय साधना की दृष्टि से महत्वपूर्ण ग्रंथ है । यह भगवान बुद्ध के चौंतीस दीर्घाकार उपदेशों का संग्रह है जो कि तीन खंडों में विभक्त है - सीलक्खन्धवग्ग, महावग्ग, पाथिकवग्ग । इन उपदेशों में शील, समाधि तथा प्रज्ञा पर सरल ढंग से प्रचुर सामग्री उपलब्ध है । व्यावहारिक जीवन में आगत वस्तुओं एवं घटनाओं से जुड़ी हुई उपमाओं के सहारे इसमें साधना के विभिन्न अंगों पर प्रकाश डाला गया है ।
बुद्ध की देशना सरल तथा हृदयस्पर्शी हुआ करती थी । उनकी यह शैली व्याख्यात्मिका थी पर कभी-कभी धर्म को सुबोध बनाने के लिये 'चूळनिद्देस' एवं 'महानिद्देस' जैसी अट्ठकथाओं का उन्होंने सृजन किया। प्रथम धर्मसंगीति में बुद्धवचन के संगायन के साथ इनका भी संगायन हुआ । तदनंतर उनके अन्य वचनों पर भी अट्ठकथाएं तैयार हुईं। जब स्थविर महेन्द्र बुद्धवचन को लेकर श्रीलंका गये, तो वे अपने साथ इन अट्ठकथाओं को भी ले गये । श्रीलंकावासियों ने इन अट्ठकथाओं को सिंहली भाषा में सुरक्षित रखा। पांचवी सदी के मध्य में बुद्धघोष ने उनका पालि में पुनः परिवर्तन किया ।
दीघनिकाय के अर्थों को प्रकाश में लाते हुए बुद्धघोष ने 'सुमङ्गलविलासिनी' नामक दीघनिकाय - अट्ठकथा का प्रणयन किया । यह भी तीन भागों में विभक्त है ।
इन अट्ठकथाओं की पुनः व्याख्या करते हुए भदंत आचार्य धम्मपाल थेर ने 'लीनत्थप्पकासना' नामक दीघनिकाय अट्ठकथा - टीका तीन भागों में लिखी । इसके प्रथम भाग सीलक्खन्धवग्गटीका का मुद्रित संस्करण आपके सम्मुख प्रस्तुत है । हमें पूर्ण विश्वास है कि यह प्रकाशन विपश्यी साधकों और विशोधकों के लिए अत्यधिक लाभदायक सिद्ध होगा ।
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निदेशक,
विपश्यना विशोधन विन्यास
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Dighanikaye
Līnatthappakāsanā Pathamo Bhago
Silakkhandhavagga-Ṭikā
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Ciram Titthatu Saddhammo!
May the Truth-based Dhamma
Endure for A Long Time !
hoti.”
“Doeme, Bbikebabe, Dhammã saddhammassa thitiyā asammosāya anantaradhānāya samvattanti. Katame dve? Sunikkhittañca padabyanjanam attho ca sunito. Swnikkbittassa, Bhikkhace, padabyañjanassa atthopi sunayo
“There are two things, O monks, which A. N. 1. 2. 21, Adhikaraṇavagga make the Truth-based Dhamma endure
for a long time, without any distortion and without (fear of) eclipse. Which two? Proper placement of words and their natural interpretation. Words properly placed help also in their natural interpretation."
...ye vo mayā dhammā abhiññā desitā, tattha sabbebeva sangamma samāgamma atthena attham byañjanena byañjanam sangāyitabbam na vivaditabbam, yathayidam brahmacariyam addhaniyam assa ciratthitikam...
...the dhammas (truths) which I have D. N. 3.177, Pasādikasutta,
taught to you after realizing them with my super-knowledge, should be recited by all, in concert and without dissension, in a uniform version collating meaning with meaning and wording with wording. In this way, this teaching with pure practice will last long and endure for a long time...
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Present Text
Linatthappakāsanā Vol. I (Silakkhandhavagga-Țīkā) The Digha Nikāya is an important collection from the perspective of meditation practice. It contains thirty-four important long discourses of the Buddha, divided into three sections the Sīlakkhandhavagga, Mahāvagga and Pathikavagga. In these discourses a lot of material related to sīla, samādhi and pañña is available. Various aspects of practice have been elucidated by means of similes drawn from familiar objects and the everyday life of the times.
The Buddha's teachings were simple and endearing. His distinctive style was self-explanatory but, still, in order to make the Dhamma all the more lucid, he introduced the use of atthakathā (commentaries), such as the Culaniddesa and the Mahāniddesa. These were recited, along with the discourses of the Buddha, at the first Dhamma Council. In time the other atphakathā commenting on all his discourses came into being.
When Ven. Mahinda conveyed the words of the Buddha to Sri Lanka he also took the atthakathā with him. The Sinhalese monks preserved these atthakathā in their own language. Later on, when they had been lost in India, Ven. Buddhaghosa was able to translate them back to Pāli, during the middle of the fifth century A.D. He then compiled the commentary on the Digha Nikāya in three volumes to help clarify the meaning of the Digha Nikāya. To furthur explain and clarify some of the points, Ven. Dhammapāla wrote a sub-commentary (fikā) on Buddhaghosa's work known as Līnatthappakāsanā in three volumes.
We sincerely hope that this publication Līnatthappakāsanā volume one: Silakkhandhavagga-Tīkā will provide immense benefit to practitioners of Vipassana as well as research scholars.
Director, Vipassana Research Institute,
Igatpuri, India.
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The Pali alphabets in Devanagari and Roman characters:
Vowels:
अ a
आ
इ
i
Consonants with Vowel अ ( a ) :
क ka ख kha
च ca
छ cha
ट
ta
3 tha
त
ta
थ tha
प
pa
फ pha
य
र ra
ya One nasal sound (niggahita) :
अं
am
Vowels in combination with consonants “k” and “kh”: ( exceptions: रुru, रूrū) ka का ka कि ki की ki
कु
ku कू kū
के ke
kha
खा kha fan khi đi khi
khu
खू
khū
खे khe
क
ख
र 18 Noo र टि
Conjunct-consonants: ach kka
ख्य khya
ग्व च्च
ञ्च
ण्य
त्व द्व
न्द
न्ह
ब्भ
म्भ
यह स्त्र
ह्म
१ 1
gva cca ñca dda
ā
nya tva
dva
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nha
bbha
mbha
yha
stra
hma
२ 2
ल la
ग ga
ज ja
3 da
द da
ब ba
प्प ppa
ब्य bya
म्म
ल्ल lla स्र
mma
sna
ह्यhya
३ 3
व
क्ख kkha
क्य kya ग्ग gga nkha ज्ज jja ञ ñja
ख्व khva nka च्छ ccha
क्र kra घggha वय nkhya
क्ल kla Tagya ङ्ग nga
55
ñña
ज्झ jjha झnjha ntha
ञ्छ ñcha ddha
दृ tta ण्ड nda
ण्ट nta
ON
त्थ ttha
त्य tya
त्त
U nha
tta
ddha
dma
य dya
द्द dda ध्यdhya
ध्व dhva
न्त nta
न्त्व
ntva न्य nya
न्द्र ndra
न्ध ndha
न nna
प्फ ppha
प्ल pla
प्य pya म्प mpa
ब्र
bra
म्फ mpha
म्य mya
म्ह mha
ल्य lya स्य sya
ल्हlha स्स ssa
hva
ha
४4
घ gha
झ jha
dha
ध dha
भ
bha
va
i
५ 5
उ u
19
स sa
खु
६ 6
ऊ
3 na
ञ ña
ण na
न
म
na
ma
ह ha
७ 7
ū
एओ
ळ la
28
य्य yya
व्ह vha स्म
sma
को ko
खो kho
९ १
क्व kva ग्र
gra
ngha
ñha ttha UUT nņa
त्र
tra
द्र dra
Ferntha
न्व
nva
ब्ब bba
म्ब
व्य vya sta
स्त स्व
mba
sva
००
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Notes on the pronunciation of Pāli
Pāli was a dialect of northern India in the time of Gotama the Buddha. The earliest known script in which it was written was the Brahmi script of the third century B.C. After that it was preserved in the scripts of the various countries where Pali was maintained. In Roman script, the following set of diacritical marks has been established to indicate the proper pronunciation.
The alphabet consists of forty-one characters: eight vowels, thirty-two consonants and one nasal sound (niggahita).
Vowels (a line over a vowel indicates that it is a long vowel): a - as the "a" in about
as the "a" in father
1
as the "i" in mint
- as the "ee" in see
u as the "u" in put
as the "oo" in cool
ū
e is pronounced as the "ay" in day, except before double consonants when it is pronounced as the "e" in bed: deva, metta;
o is pronounced as the "o" in no, except before double consonants when it is pronounced slightly shorter: loka, photṭhabba.
Consonants are pronounced mostly as in English.
go - as the "g" in get
C
v a very soft -v- or -w
All aspirated consonants are pronounced with an audible expulsion of breath following the normal unaspirated sound.
soft like the "ch" in church
th
not as in 'three'; rather 't' followed by 'h' (outbreath) ph- not as in 'photo'; rather 'p' followed by 'h' (outbreath)
-
a
i
The retroflex consonants: t, th, d, dh, n are pronounced with the tip of the tongueturned back; and I is pronounced with the tongue retroflexed, almost a combined 'rl' sound.
The dental consonants: t, th, d, dh, n are pronounced with the touching the upper front teeth.
The nasal sounds:
-
n- guttural nasal, like -ng- as in singer
ñ - as in Spanish señor
n
m- as in hung, ring
with tongue retroflexed
Double consonants are very frequent in Pali and must be strictly pronounced as long consonants, thus -nn- is like the English 'nn' in "unnecessary".
20
tongue
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संकेत-सूची
अ० नि० = अङ्गुतरनिकाय अट्ट० = अट्ठकथा अनु टी० = अनुटीका अप० = अपदान अभि० टी० = अभिनवटीका इतिवु० = इतिवुत्तक उदा० = उदान का० टी० = कलावितरणी टीका कथाव० = कथावत्यु खु० नि० = खुद्दकनिकाय खु० पा० = खुद्दकपाठ चरिया० पि० = चरियापिटक चूळनि० = चूळनिद्देस चूळव० = चूळवग्ग जा० = जातक टी० = टीका थेरगा०=थेरगाथा थेरीगा० =थेरीगाथा दी० नि० = दीघनिकाय ध०प० = धम्मपद ध० स० = धम्मसङ्गणी धातु० धातुकथा नेत्ति० = नेत्तिपकरण पटि० म० = पटिसम्भिदामग्ग
पट्टा० = पठ्ठान परि० = परिवार पाचि० = पाचित्तिय पारा० = पाराजिक पु० टी० = पुराणटीका पु० प० = पुग्गलपत्ति पे० व० = पेतवत्थु पेटको० = पेटकोपदेस बु० वं० = बुद्धवंस म०नि० = मज्झिमनिकाय महाव० = महावग्ग महानि० = महानिद्देस मि० प० = मिलिन्दपह मूल टी० = मूलटीका यम० = यमक वि० व० = विमानवत्थु वि० वि० टी० = विमतिविनोदनी टीका वि० सङ्ग० अट्ठ० = विनयसङ्गह अट्ठकथा विनय वि० टी० = विनयविनिच्छय टीका विभं० = विभङ्ग विसुद्धि० = विसुद्धिमग्ग सं० नि० = संयुत्तनिकाय सारस्थ० टी० = सारत्थदीपनी टीका सु० नि० = सुत्तनिपात
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दीघनिकाये
लीनत्थप्पकासना
पठमो भागो सीलक्खन्धवग्गटीका
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।। नमो तस्स भगवतो अरहतो सम्मासम्बुद्धस्स ।।
दीघनिकाये
सीलक्खन्धवग्गटीका
गन्थारम्भकथावण्णना
संवण्णनारम्भे रतनत्तयवन्दना संवण्णेतब्बस्स धम्मस्स पभवनिस्सयविसुद्धिपटिवेदनत्थं, तं पन धम्मसंवण्णनासु विझूनं बहुमानुप्पादनत्थं, तं सम्मदेव तेसं उग्गहधारणादिक्कमलद्धब्बाय सम्मापटिपत्तिया सब्बहितसुखनिप्फादनत्थं । अथ वा मङ्गलभावतो, सब्बकिरियासु पुब्बकिच्चभावतो, पण्डितेहि सम्माचरितभावतो, आयतिं परेसं दिहानुगतिआपज्जनतो च संवण्णनायं रतनत्तयपणामकिरिया । अथ वा रतनत्तयपणामकरणं पूजनीयपूजापुञ्जविसेसनिब्बत्तनत्थं, तं अत्तनो यथालद्धसम्पत्तिनिमित्तकस्स कम्मस्स बलानुप्पादनत्थं, अन्तरा च तस्स असङ्कोचनत्थं, तदुभयं अनन्तरायेन अट्ठकथाय परिसमापनत्थं । इदमेव च पयोजनं आचरियेन इधाधिप्पेतं । तथा हि वक्खति - "इति मे पसन्नमतिनो...पे०... तस्सानुभावेना''ति । वत्थुत्तयपूजा हि निरतिसयपुञ्जक्खेत्तसम्बुद्धिया
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गटीका
अपरिमेय्यप्पभावो पुतिसयोति बहुविधन्तरायेपि लोकसन्निवासे अन्तरायनिबन्धनसकलसंकिलेसविद्धंसनाय पहोति, भयादिउपद्दवञ्च निवारेति । यथाह -
___ “पूजारहे पूजयतो, बुद्धे यदि व सावके"तिआदि (ध० प० १.१९५; अप० १.१०.१), तथा
__“ये भिक्खवे बुद्धे पसन्ना, अग्गे ते पसन्ना । अग्गे खो पन पसन्नानं अग्गो विपाको होती"तिआदि (अ० नि० १.४.३४; इतिवु० ९०)।
"बुद्धोति कित्तयन्तस्स, काये भवति या पीति । वरमेव हि सा पीति, कसिणेनपि जम्बुदीपस्स ।। धम्मोति...पे०... सङ्घोति...पे०... दीपस्सा'ति ।। (दी० नि० अट्ठ० १.६)
तथा
“यस्मिं, महानाम, समये अरियसावको तथागतं अनुस्सरति, नेवस्स तस्मिं समये रागपरियुट्टितं चित्तं होति, न दोस...पे०... न मोहपरियुट्टितं चित्तं होती'तिआदि (अ० नि० २.६.१०; ३.११.११),
"अरचे रुक्खमूले वा...पे०... भयं वा छम्भितत्तं वा, लोमहंसो न हेस्सती''ति ।। (सं० नि० १.१.२४९) च
तत्थ यस्स वत्थुत्तयस्स वन्दनं कत्तुकामो, तस्स गुणातिसययोगसन्दस्सनत्थं "करुणासीतलहदय"न्तिआदिना गाथत्तयमाह । गुणातिसययोगेन हि वन्दनारहभावो, वन्दनारहे च कता वन्दना यथाधिप्पेतप्पयोजनं साधेतीति । तत्थ यस्सा देसनाय संवण्णनं कत्तुकामो, सा न विनयदेसना विय करुणाप्पधाना, नापि अभिधम्मदेसना विय पाप्पधाना, अथ खो करुणापाप्पधानाति तदुभयप्पधानमेव ताव सम्मासम्बुद्धस्स थोमनं कातुं तंमूलकत्ता सेसरतनानं “करुणासीतलहदय"न्तिआदि वुत्तं ।
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गन्थारम्भकथावण्णना
तत्थ किरतीति करुणा, परदुक्खं विक्खिपति, अपनेतीति अत्थो। अथ वा किणातीति करुणा, परदुक्खे सति कारुणिकं हिंसति, विबाधतीति अत्थो, परदुक्खे सति साधूनं कम्पनं हदयखेदं करोतीति वा करुणा । अथ वा कमिति सुखं, तं रुन्धतीति करुणा। एसा हि परदुक्खापनयनकामतालक्खणा, अत्तसुखनिरपेक्खताय कारुणिकानं सुखं रुन्धति विबन्धतीति । करुणाय सीतलं करुणासीतलं, करुणासीतलं हदयं अस्साति करुणासीतलहदयो, तं करुणासीतलहदयं। तत्थ किञ्चापि परेसं हितोपसंहारसुखादिअपरिहानिच्छनसभावताय, ब्यापादारतीनं उजुविपच्चनीकताय च सत्तसन्तानगतसन्तापविच्छेदनाकारप्पवत्तिया मेत्तामुदितानम्पि चित्तसीतलभावकारणता उपलब्भति, तथापि दुक्खापनयनाकारप्पवत्तिया परूपतापासहनरसा अविहिंसाभूता करुणा विसेसेन भगवतो चित्तस्स चित्तपस्सद्धि विय सीतीभावनिमित्तन्ति वुत्तं "करुणासीतलहदय"न्ति । करुणामुखेन वा मेत्तामुदितानम्पि हदयसीतलभावकारणता वुत्ताति दट्ठब् ।
अथ वा असाधारणजाणविसेसनिबन्धनभूता सातिसयं निरवसेसञ्च सब्ब तञाणं विय सविसयब्यापिताय महाकरुणाभावं उपगता करुणाव भगवतो अतिसयेन हदयसीतलभावहेतूति आह "करुणासीतलहदयन्ति । अथ वा सतिपि मेत्तामुदितानं सातिसये हदयसीतीभावनिबन्धनत्ते सकलबुद्धगुणविसेसकारणताय तासम्पि कारणन्ति करुणाव भगवतो हदयसीतलभावकारणं वुत्ता। करुणानिदाना हि सब्बेपि बुद्धगुणा । करुणानुभावनिब्बापियमानसंसारदुक्खसन्तापस्स हि भगवतो परदुक्खापनयनकामताय अनेकानिपि असङ्घय्यानि कप्पानं अकिलन्तरूपस्सेव निरवसेसबुद्धकरधम्मसम्भरणनियतस्स समधिगतधम्माधिपतेय्यस्स च सन्निहितेसुपि सत्तसङ्घारसमुपनीतहदयूपतापनिमित्तेसु न ईसकम्पि चित्तसीतीभावस्सञथत्तमहोसीति । एतस्मिञ्च अत्थविकप्पे तीसुपि अवत्थासु भगवतो करुणा सङ्गहिताति दट्ठब् ।
पजानातीति पञा, यथासभावं पकारेहि पटिविज्झतीति अत्थो। पञ्जाव नेय्यावरणप्पहानतो पकारेहि धम्मसभावावजोतनटेन पज्जोतोति पापज्जोतो, सवासनप्पहानतो विसेसेन हतं समुग्घाटितं विहतं, पञापज्जोतेन विहतं पञापज्जोतविहतं । मुव्हन्ति तेन, सयं वा मुय्हति, मोहनमत्तमेव वा तन्ति मोहो,
अविज्जा, स्वेव विसयसभावपटिच्छादनतो अन्धकारसरिक्खताय तमो वियाति तमो, . पापज्जोतविहतो मोहतमो एतस्साति पापज्जोतविहतमोहतमो, तं
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गटीका
पञापज्जोतविहतमोहतमं। सब्बेसम्पि हि खीणासवानं सतिपि पञापज्जोतेन अविज्जान्धकारस्स विहतभावे सद्धाधिमुत्तेहि विय दिटिप्पत्तानं सावकेहि, पच्चेकसम्बुद्धेहि च सवासनप्पहानेन सम्मासम्बुद्धानं किलेसप्पहानस्स विसेसो विज्जतीति सातिसयेन अविज्जाप्पहानेन भगवन्तं थोमेन्तो आह “पञापज्जोतविहतमोहतम"न्ति ।
अथ वा अन्तरेन परोपदेसं अत्तनो सन्ताने अच्चन्तं अविज्जान्धकारविगमस्स निब्बत्तितत्ता, तत्थ च सब्ब ताय, बलेसु च वसीभावस्स समधिगतत्ता, परसन्ततियञ्च धम्मदेसनातिसयानुभावेन सम्मदेव तस्स पवत्तितत्ता भगवाव विसेसतो मोहतमविगमेन थोमेतब्बोति आह "पापज्जोतविहतमोहतम"न्ति । इमस्मिञ्च अत्थविकप्पे "पञापज्जोतो"ति पदेन भगवतो पटिवेधपञ्जा विय देसनापञापि सामञ्जनिद्देसेन एकसेसनयेन वा सङ्गहिताति दट्ठब्बं ।
अथ वा भगवतो जाणस्स नेय्यपरियन्तिकत्ता सकलनेय्यधम्मसभावाबोधनसमत्थेन अनावरणञाणसङ्घातेन पञापज्जोतेन सब्बजेय्यधम्मसभावच्छादकस्स मोहन्धकारस्स विधमितत्ता अन साधारणो भगवतो मोहतमविनासोति कत्वा वुत्तं “पञापज्जोतविहतमोहतम"न्ति । एत्थ च मोहतमविधमनन्ते अधिगतत्ता अनावरणजाणं कारणूपचारेन सकसन्ताने मोहतमविधमनं दट्ठब्बं । अभिनीहारसम्पत्तिया सवासनप्पहानमेव हि किलेसानं "ञय्यावरणप्पहान"न्ति, परसन्ताने पन मोहतमविधमनस्स कारणभावतो अनावरणजाणं “मोहतमविधमन'"न्ति वुच्चतीति ।
किं पन कारणं अविज्जाविग्घातो येवेको पहानसम्पत्तिवसेन भगवतो थोमनानिमित्तं गम्हति, न पन सातिसयनिरवसेसकिलेसप्पहानन्ति ? तप्पहानवचनेनेव तदेकट्ठताय सकलसंकिलेसगणसमुग्घातजोतितभावतो। न हि सो तादिसो किलेसो अस्थि, यो निरवसेसअविज्जाप्पहानेन न पहीयतीति । अथ वा विज्जा विय सकलकुसलधम्मसमुप्पत्तिया निरवसेसाकुसलधम्मनिब्बत्तिया, संसारप्पवत्तिया च अविज्जा पधानकारणन्ति तब्बिग्घातवचनेन सकलसंकिलेसगणसमुग्घातो वुत्तोयेव होतीति वुत्तं "पञापज्जोतविहतमोहतम"न्ति ।
नरा च अमरा च नरामरा, सह नरामरेहीति सनरामरो, सनरामरो च सो लोको चाति सनरामरलोको, तस्स गरुति सनरामरलोकगरु, तं सनरामरलोकगळं। एतेन
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गन्थारम्भकथावण्णना
देवमनुस्सानं विय तदवसिट्ठसत्तानम्पि यथारहं गुणविसेसावहतो भगवतो उपकारितं दस्सेति । न चेत्थ पधानापधानभावो चोदेतब्बो । अञ्ञो हि सद्दक्कमो, अञ्ञो अत्थक्कमो । एदिसेसु हि समासपदेसु पधानम्पि अप्पधानं विय निद्दिसीयति यथा - "सराजिकाय परिसाया" ति (अप० अट्ठ० १.८२ ) । कामञ्चेत्थ सत्तसङ्घारभाजनवसेन तिविधो लोको, गरुभावस्स पन अधिप्पेतत्ता गरुकरणसमत्थस्सेव युज्जनतो सत्तलोकस्सवसेन अत्थो गहेतब्बो । सो हि लोकियन्ति एत्थ पुञ्ञपापानि तब्बिपाको चाति "लोको "ति वुच्चति । अमरग्गहणेन चेत्थ उपपत्तिदेवा अधिप्पेता ।
अथ वा समूहत्थो लोक - सद्दो समुदायवसेन लोकीयति पञ्ञापीयतीति । सह नरेहीति सनरा, सनरा च ते अमरा चेति सनरामरा, तेसं लोकोति सनरामरलोकोति पुरिमनयेनेव योजेतब्बं । अमर-सद्देन चेत्थ विसुद्धिदेवापि सङ्गय्हन्ति । ते हि मरणाभावतो परमत्थतो अमरा। नरामरानंयेव च गहणं उक्कट्ठनिद्देसवसेन, यथा- “सत्था देवमनुस्सान "न्ति (दी० नि० १.१५७)। तथा हि सब्बानत्थपरिहरणपुब्बङ्गमाय निरवसेसहितसुखविधानतप्पराय निरतिसयाय पयोगसम्पत्तिया सदेवमनुस्साय पजाय अच्चन्तुपकारिताय, अपरिमितनिरुपमप्पभावगुणविसेससमङ्गिताय च सब्बसत्तुत्तमो भगवा अपरिमाणासु लोकधातूसु अपरिमाणानं सत्तानं उत्तमं गारवट्ठानं तेन वुत्तं - “सनरामरलोकगरु "न्ति ।
सोभनं गतं गमनं एतस्साति सुगतो । भगवतो हि वेनेय्यजनुपसङ्कमनं एकन्तेन तेसं हितसुखनिप्फादनतो सोभनं तथा लक्खणानुब्यञ्जन (दी० नि० २.३३, ३.१९८-२००; म० नि० २.३८५, ३८६) पटिमण्डितरूपकायतायदुतविलम्बितखलितानुकड्डूननिप्पीळनुक्कुटिककुटिलाकुलतादिदोसरहितं विलासितराजहंसवसभवारणमिगराजगमनं कायगमनं आणगमनञ्च विपुलनिम्मलकरुणासतिवीरियादिगुणविसेससहितमभिनीहारतो याव महाबोधि अनवज्जताय सोभनमेवाति ।
अथ वा सयम्भुञाणेन सकलम्पि लोकं परिञाभिसमयवसेन परिजानन्तो आणेन सम्मा गतो अवगतोति सुगतो । तथा लोकसमुदयं पहानाभिसमयवसेन पजहन्तो अनुप्पत्तिधम्मतं आपादेन्तो सम्मा गतो अतीतोति सुगतो । लोकनिरोधं निब्बानं सच्छिकिरियाभिसमयवसेन सम्मा गतो अधिगतोति सुगतो । लोकनिरोधगामिनिपटिपदं भावनाभिसमयवसेन सम्मा गतो पटिपन्नोति सुगतो । सोतापत्तिमग्गेन ये किलेसा पहीना, ते किलेसे न पुनेति, न पच्चेति, न पच्चागच्छतीति सुगतोतिआदिना नयेन अयमत्थो
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विभावेतब्बो । अथ वा सुन्दरं ठानं सम्मासम्बोधिं निब्बानमेव वा गतो अधिगतोति सुगतो। यस्मा वा भूतं तच्छं अत्थसहितं विनेय्यानं यथारहं कालयुत्तमेव च धम्मं भासति, तस्मा सम्मा गदतीति सुगतो, द-कारस्स त-कारं कत्वा । इति सोभनगमनतादीहि सुगतो, तं सुगतं।
पुञपापकम्मेहि उपपज्जनवसेन गन्तब्बतो गतियो, उपपत्तिभवविसेसा। ता पन निरयादिवसेन पञ्चविधा, ताहि सकलस्सापि भवगामिकम्मस्स अरियमग्गाधिगमेन अविपाकारहभावकरणेन निवत्तितत्ता भगवा पञ्चहिपि गतीहि सुट्ट मुत्तो विसंयुत्तोति आह - "गतिविमुत्त"न्ति । एतेन भगवतो कत्थचिपि गतिया अपरियापन्नतं दस्सेति, यतो भगवा “देवातिदेवो"ति वुच्चति, तेनेवाह -
"येन देवूपपत्यस्स, गन्धब्बो वा विहङ्गमो । यक्खत्तं येन गच्छेय्यं, मनुस्सत्तञ्च अब्बजे । ते मय्हं आसवा खीणा, विद्धस्ता विनळीकता''ति ।। (अ० नि० १.४.३६)
तंतंगतिसंवत्तनकानहि कम्मकिलेसानं अग्गमग्गेन बोधिमूलेयेव सुप्पहीनत्ता नत्थि भगवतो गतिपरियापन्नताति अच्चन्तमेव भगवा सब्बभवयोनिगतिविज्ञाणट्ठितिसत्तावाससत्तनिकायेहि सुपरिमुत्तो, तं गतिविमुत्तं। वन्देति नमामि, थोमेमीति वा अत्थो ।
अथ वा गतिविमुत्तन्ति अनुपादिसेसनिब्बानधातुप्पत्तिया भगवन्तं थोमेति । एत्थ हि द्वीहाकारेहि भगवतो थोमना वेदितब्बा - अत्तहितसम्पत्तितो, परहितपटिपत्तितो च । तेसु अत्तहितसम्पत्ति अनावरणञाणाधिगमतो, सवासनानं सब्बेसं किलेसानं अच्चन्तप्पहानतो, अनुपादिसेसनिब्बानप्पत्तितो च वेदितब्बा । परहितपटिपत्ति लाभसक्कारादिनिरपेक्खचित्तस्स सब्बदुक्खनिय्यानिकधम्मदेसनातो, विरुद्धेसुपि निच्चं हितज्झासयतो, आणपरिपाककालागमनतो च । सा पनेत्थ आसयतो पयोगतो च दुविधा परहितपटिपत्ति, तिविधा च अत्तहितसम्पत्ति पकासिता होति । कथं ? "करुणासीतलहदय"न्ति एतेन आसयतो परहितपटिपत्ति, सम्मा गदनत्थेन सुगत-सद्देन पयोगतो परहितपटिपत्ति, “पञापज्जोतविहतमोहतमं गतिविमुत्त"न्ति एतेहि चतुसच्चपटिवेधत्थेन च सुगत-सद्देन
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गन्थारम्भकथावण्णना
तिविधापि अत्तहितसम्पत्ति, अवसिट्ठेन, “पञ्ञापज्जोतविहतमोहतम”न्ति एतेन च सब्बापि अत्तहितसम्पत्तिपरहितपटिपत्ति पकासिता होतीति ।
अथ वा तीहाकारेहि भगवतो थोमना वेदितब्बा - हेतुतो, फलतो, उपकारतो च । तत्थ हेतु महाकरुणा, सा पठमपदेन निदस्सिता । फलं चतुब्बिधं - ञणसम्पदा, पहानसम्पदा, आनुभावसम्पदा, रूपकायसम्पदा चाति । तासु ञाणप्पहानसम्पदा दुतियपदेन सच्चप्पटिवेधत्थेन च सुगत सद्देन पकासिता होन्ति । आनुभावसम्पदा ततियपदेन, रूपकायसम्पदा यथावुत्तकायगमनसोभनत्थेन सुगत सद्देन, लक्खणानुब्यञ्जनपारिपूरिया (दी० नि० २.३३; ३.१९८-२०० म० नि० २.३८५-३८६) विना तदभावतो । उपकारो अन्तरं अबाहिरं करित्वा तिविधयानमुखेन विमुत्तिधम्मदेसना, सो सम्मा गदनत्थेन सुगत सद्देन पकासितो होतीति वेदितब्बं ।
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तत्थ “करुणासीतलहदय’न्ति एतेन सम्मासम्बोधिया मूलं दस्सेति । महाकरुणासञ्चोदितमानसो हि भगवा संसारपङ्कतो सत्तानं समुद्धरणत्थं कताभिनीहारो अनुपुब्बेन पारमियो पूरेत्वा अनुत्तरं सम्मासम्बोधि अधिगतोति करुणा सम्मासम्बोधिया मूलं । “पञ्ञापज्जोतविहतमोहतमन्ति एतेन सम्मासम्बोधि दस्सेति ।
अनावरणञाणपदट्ठानञ्हि मग्गञाणं, मग्गञणपदट्ठानञ्च अनावरणत्राणं " सम्मासम्बोधी " ति वुच्चतीति । सम्मा गदनत्थेन सुगत सद्देन सम्मासम्बोधिया पटिपत्तिं दस्सेति, लीनुद्धच्चपतिट्ठानायूहनकामसुखल्लिकत्तकिलमथानुयोगसस्सतुच्छेदाभिनिवेसादिअन्तद्वयरहिताय करुणापञ्ञापरिग्गहिताय मज्झिमाय पटिपत्तिया पकासनतो सुगत- सद्दस्स । इतरेहि सम्मासम्बोधिया पधानाप्पधानभेदं पयोजनं दस्सेति । संसारमहोघतो सत्तसन्तारणञ्चेत्थ पधानं पयोजनं, तदञ्ञमप्पधानं । तेसु पधानेन परहितप्पटिपत्तिं दस्सेति, इतरेन अत्तहितसम्पत्तिं, तदुभयेन अत्तहिताय पटिपन्नादीसु ( पु० प० २४, १७३) चतूसु पुग्गलेसु भगवतो चतुत्थपुग्गलभावं दस्सेति । तेन च अनुत्तरदक्खिणेय्यभावं उत्तमवन्दनीयभावं, अत्तनो च वन्दनकिरियाय खेत्तङ्गतभावं दस्सेति ।
एत्थ च करुणाग्गहणेन लोकियेसु महग्गतभावप्पत्तासाधारणगुणदीपनतो भगवतो सब्बलोकियगुणसम्पत्ति दस्सिता होति, पञ्ञारगहणेन सब्बञ्ञतञ्ञणपदट्ठानमग्गआणदीपनतो सब्बलोकुत्तरगुणसम्पत्ति । तदुभयग्गहणसिद्धो हि "सनरामरलोकगरु"न्तिआदिना विपञ्चीयतीति । करुणा गहन
च
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अत्थो
उपगमनं
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गटीका
निरुपक्किलेसं दस्सेति, पञ्जाग्गहणेन अपगमनं । तथा करुणाग्गहणेन लोकसमझानुरूपं भगवतो पवत्तिं दस्सेति, लोकवोहारविसयत्ता करुणाय, पञ्जाग्गहणेन समझायानविधावनं । सभावानवबोधेन हि धम्मानं समजं अतिधावित्वा सत्तादिपरामसनं होतीति । तथा करुणाग्गहणेन महाकरुणासमापत्तिविहारं दस्सेति, पञ्जाग्गहणेन तीसु कालेसु अप्पटिहतञाणं, चतुसच्चजाणं, चतुप्पटिसम्भिदाजाणं, चतुवेस्सारज्जजाणं । करुणाग्गहणेन महाकरुणासमापत्तिाणस्स गहितत्ता सेसासाधारणाणानि, छ अभिजा, अट्ठसु परिसासु (म० नि० १.१५१) अकम्पनजाणानि, दस बलानि, चुद्दस बुद्धञाणानि, सोळस आणचरिया, अट्ठारस बुद्धधम्मा, (दी० नि० अट्ठ०. ३.३०५; विभं० मूल० टी० गन्थारम्भवण्णनाय) चतुचत्तारीस आणवत्थूनि, (सं० नि० १.२.३४) सत्तसत्तति आणवत्थूनीति (सं० नि० १.२.३४) एवमादीनं अनेकेसं पञाप्पभेदानं वसेन आणचारं दस्सेति ।
तथा करुणाग्गहणेन चरणसम्पत्तिं, पाग्गहणेन विज्जासम्पत्तिं । करुणाग्गहणेन सत्ताधिपतिता, पञ्जाग्गहणेन धम्माधिपतिता । करुणाग्गहणेन लोकनाथभावो, पञ्जाग्गहणेन अत्तनाथभावो। तथा करुणाग्गहणेन पुब्बकारिभावो, पञाग्गहणेन कतञ्जता । तथा करुणाग्गहणेन अपरन्तपता, पञ्जाग्गहणेन अनत्तन्तपता । ' करुणाग्गहणेन वा बुद्धकरधम्मसिद्धि, पञाग्गहणेन बुद्धभावसिद्धि । तथा करुणाग्गहणेन परेसं तारणं, पञ्जाग्गहणेन सयं तारणं । तथा करुणाग्गहणेन सब्बसत्तेसु अनुग्गहचित्तता, पञ्जाग्गहणेन सब्बधम्मेसु विरत्तचित्तता दस्सिता होति। सब्बेसञ्च बुद्धगुणानं करुणा आदि, तन्निदानभावतो। पञ्जा परियोसानं, ततो उत्तरिकरणीयाभावतो। इति आदिपरियोसानदस्सनेन सब्बे बुद्धगुणा दस्सिता होन्ति। तथा करुणाग्गहणेन सीलक्खन्धपुब्बङ्गमो समाधिक्खन्धो दस्सितो होति । करुणानिदानव्हि सीलं, ततो पाणातिपातादिविरतिप्पवत्तितो, सा च झानत्तयसम्पयोगिनीति । पञ्जावचनेन पञ्जाक्खन्धो । सीलञ्च सब्बबुद्धगुणानमादि, समाधि मझे, पञ्जा परियोसानन्ति । एवम्पि आदिमज्झपरियोसानकल्याणा सब्बे बुद्धगुणा दस्सिता होन्ति, नयतो दस्सितत्ता। एसो एव हि निरवसेसतो बुद्धगुणानं दस्सनुपायो, यदिदं नयग्गाहणं । अञथा को नाम समत्थो भगवतो गुणे अनुपदं निरवसेसतो दस्सेतुं । तेनेवाह -
"बुद्धोपि बुद्धस्स भणेय्य वणं,
__ कप्पम्पि चे अञ्जमभासमानो ।
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गन्थारम्भकथावण्णना
खीयेथ कप्पो चिरदीघमन्तरे,
वण्णो न खीयेथ तथागतस्सा''ति ।। (दी० नि० अट्ठ० १.३०४; दी० नि० अट्ठ० ३.१४१; म० नि० अट्ठ० ३.४२५, उदा० अट्ठ० ५३; बु० वं० अठ्ठ० ४.४; चरिया० पि० अट्ठ० निदानकथायं, पकिण्णककथायं; अप० अट्ठ० २.६.२०)
तेनेव च आयस्मता सारिपुत्तत्थेरेनापि बुद्धगुणपरिच्छेदनं पति अनुयुत्तेन "नो हेतं भन्ते''ति (दी० नि० २.१४५) पटिक्खिपित्वा, “अपि च मे भन्ते धम्मन्वयो विदितो"ति (दी० नि० २.१४६) वुत्तं ।
एवं सङ्केपेन सकलसब्ब गुणेहि भगवन्तं अभित्थवित्वा इदानि सद्धम्मं थोमेतुं "बुद्धोपी"तिआदिमाह । तत्थ बुद्धोति कत्तुनिद्देसो। बुद्धभावन्ति कम्मनिद्देसो। भावेत्वा, सच्छिकत्वाति च पुब्बकालकिरियानिद्देसो। यन्ति अनियमतो कम्मनिद्देसो। उपगतोति अपरकालकिरियानिद्देसो | वन्देति किरियानिदृसो, तन्ति नियमनं । धम्मन्ति वन्दनकिरियाय कम्मनिद्देसो । गतमलं, अनुत्तरन्ति च तब्बिसेसनं ।
तत्थ बुद्ध-सद्दस्स ताव "बुज्झिता सच्चानीति बुद्धो, बोधेता पजायाति बुद्धो"तिआदिना (महानि० १९२; चूळनि० ९५-९७; पटि० म० १.१६२) निद्देसनयेन अत्थो वेदितब्बो। अथ वा सवासनाय अाणनिहाय अच्चन्तविगमतो, बुद्धिया वा विकसितभावतो बुद्धवाति बुद्धो, जागरणविकसनत्थवसेन । अथ वा कस्सचिपि जेय्यधम्मस्स अनवबुद्धस्स अभावेन अय्यविसेसस्स कम्मभावेन अग्गहणतो कम्मवचनिच्छाय अभावेन अवगमनत्थवसेनेव कत्तुनिद्देसो लब्भतीति बुद्धवाति बुद्धो, यथा “दिक्खितो न ददाती"ति, अत्थतो पन पारमितापरिभावितो सयम्भूजाणेन सह वासनाय विहतविद्धस्तनिरवसेसकिलेसो महाकरुणासब्ब ताणादिअपरिमेय्य गुणगणाधारो खन्धसन्तानो बुद्धो । यथाह -
"बुद्धोति यो सो भगवा सयम्भू अनाचरियको पुब्बे अननुस्सुतेसु धम्मसु सामं सच्चानि अभिसम्बुज्झि, तत्थ च सब्बञ्जतं पत्तो, बलेसु च वसीभावन्ति (महानि० १९२; चूळनि० ९५-९७; पटि० म० १.१६२) ।
अपि-सद्दो सम्भावने, तेन “एवं
गुणविसेसयुत्तो सोपि नाम भगवा''ति
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वक्खमानगुणे धम्मे सम्भावनं दीपेति । बुद्धभावन्ति सम्मासम्बोधिं | भावत्वाति उप्पादेत्वा, वड्हेत्वा च । सच्छिकत्वाति पच्चक्खं कत्वा । उपगतोति पत्तो, अधिगतोति अत्थो, एतस्स "बुद्धभाव"न्ति एतेन सम्बन्धो । गतमलन्ति विगतमलं, निद्दोसन्ति अत्थो । वन्देति पणमामि, थोमेमि वा । अनुत्तरन्ति उत्तररहितं, लोकुत्तरन्ति अत्थो । धम्मन्ति यथानुसिटुं पटिपज्जमाने अपायतो च, संसारतो च अपतमाने कत्वा धारयतीति धम्मो ।
___ अयव्हेत्थ सङ्खपत्थो - एवं विविधगुणसमन्नागतो बुद्धोपि भगवा यं अरियसङ्खातं धम्म भावेत्वा, फलनिब्बानसङ्खातं पन सच्छिकत्वा अनुत्तरं सम्मासम्बोधिं अधिगतो, तमेतं बुद्धानम्पि बुद्धभावहेतुभूतं सब्बदोसमलरहितं अत्तनो उत्तरितराभावेन अनुत्तरं पटिवेधसद्धम्मं नमामीति | परियत्तिसद्धम्मस्सापि तप्पकासनत्ता इध सङ्गहो दट्ठब्बो | अथ वा "अभिधम्मनयसमुदं भावेत्वा अधिगच्छि, तीणि पिटकानि सम्मसी"ति च अट्ठकथायं वुत्तत्ता परियत्तिधम्मस्सापि सच्छिकिरियासम्मसनपरियायो लब्भतीति सोपि इध वुत्तो येवाति दट्ठब्बो। तथा “यं धम्मं भावेत्वा, सच्छिकत्वा'"ति च वुत्तत्ता बुद्धकरधम्मभूताहि पारमिताहि सह पुब्बभागे अधिसीलसिक्खादयोपि इध धम्म-सद्देन सङ्गहिताति वेदितब्बा । तापि हि विगतपटिपक्खताय विगतमला, अनञसाधारणताय अनुत्तरा चाति । तथा हि सत्तानं सकलवट्टदुक्खनिस्सरणाय कतमहाभिनीहारो महाकरुणाधिवासपेसलज्झासयो पञ्जाविसेसपरियोदातनिम्मलानं दानदमसञ्जमादीनं उत्तमधम्मानं सतसहस्साधिकानि कप्पानं चत्तारि असोय्यानि सक्कच्चं निरन्तरं निरवसेसं भावनापच्चक्खकरणेहि कम्मादीसु अधिगतवसीभावो, अच्छरियाचिन्तेय्यमहानुभावो, अधिसीलअधिचित्तानं परमुक्कंसपारमिप्पत्तो भगवा पच्चयाकारे चतुवीसतिकोटिसतसहस्समुखेन महावजिरजाणं पेसेत्वा अनुत्तरं सम्मासम्बोधिं अभिसम्बुद्धोति ।
एत्थ च "भावेत्वा'"ति एतेन विज्जासम्पदाय धम्मं थोमेति, ‘सच्छिकत्वाति एतेन विमुत्तिसम्पदाय । तथा पठमेन झानसम्पदाय, दुतियेन विमोक्खसम्पदाय | पठमेन वा समाधिसम्पदाय, दुतियेन समापत्तिसम्पदाय | अथ वा पठमेन खयजाणभावेन, दुतियेन अनुप्पादत्राणभावेन । पुरिमेन वा विज्जूपमताय, दुतियेन वजिरूपमताय । पुरिमेन वा विरागसम्पत्तिया, दुतियेन निरोधसम्पत्तिया। तथा पठमेन निय्यानभावेन, दुतियेन निस्सरणभावेन । पठमेन वा हेतुभावेन, दुतियेन असङ्खतभावेन | पठमेन वा दस्सनभावेन, दुतियेन विवेकभावेन । पठमेन वा अधिपतिभावेन, दुतियेन अमतभावेन धम्मं थोमेति । अथ वा “यं धम्मं भावेत्वा बुद्धभावं उपगतो"ति एतेन स्वाक्खातताय धम्मं थोमेति,
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" सच्छिकत्वा"ति एतेन सन्दिट्ठिकताय । तथा पुरिमेन अकालिकताय, पच्छिमेन एहिपस्सिकताय । पुरिमेन वा ओपनेय्यिकताय, पच्छिमेन पच्चत्तं वेदितब्बताय धम्मं थोमेति ।
" गतमल "न्ति इमिना
संकिलेसाभावदीपनेन धम्मस्स परिसुद्धतं दस्सेति, " अनुत्तर "न्ति एतेन अञ्ञस्स विसिट्ठस्स अभावदीपनेन विपुलपरिपुण्णतं । पठमेन वा पहानसम्पदं धम्मस्स दस्सेति, दुतियेन पभावसम्पदं । भावेतब्बताय वा धम्मस्स गतमलभावो योजेब्ब । भावनागुणेन हि सो दोसानं समुग्घातको होतीति । सच्छिकातब्बभावेन अनुत्तरभाव योजेब्ब । सच्छिकिरियानिब्बत्तितो हि तदुत्तरकरणीयाभावतो अनञ्ञसाधारणताय अनुत्तरोति । तथा " भावेत्वा' ति एतेन सह पुब्बभागसीलादीहि सेक्खा सीलसमाधिपञक्खन्धा दस्सिता होन्ति, " सच्छिकत्वा" ति एतेन सह असङ्घताय धातुया असेक्खा सीलसमाधिपञाक्खन्धा दस्सिता होन्तीति ।
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एवं सङ्क्षेपेनेव सब्बधम्मगुणेहि सद्धम्मं अभित्थवित्वा, इदानि अरियस थोमेतुं “सुगतस्सा''तिआदिमाह । तत्थ सुगतस्साति सम्बन्धनिद्देसो, तस्स “पुत्तान "न्ति एतेन सम्बन्धी | ओरसानन्ति पुत्तविसेसनं । मारसेनमथनानन्ति ओरसपुत्तभावे कारणनिद्देसो, तेन किलेसप्पहानमेव भगवतो ओरसपुत्तभावकारणं अनुजानातीति दस्सेति । अनन्त गणनपरिच्छेदनिद्देसो, तेन च सतिपि तेसं सत्तविसेसभावेन अनेकसतसहस्ससङ्ख्यभावे इमं गणनपरिच्छेदं नातिवत्तन्तीति दस्सेति, मग्गट्ठफलट्ठभावानतिवत्तनतो । समूहन्ति समुदायनिद्देसो । अरियसङ्घन्ति गुणविसिट्ठसङ्घातभावनिद्देसो, तेन असतिपि अरियपुग्गलानं कायसामग्गियं अरियसङ्घभावं दस्सेति, दिट्ठिसीलसामञ्ञेन संहतभावतो । तत्थ उरसि भवा जाता, संवद्धा च ओरसा । यथा हि सत्तानं ओरसपुत्ता अत्तजातताय पितुसन्तकस्स दायज्जस्स विसेसेन भागिनो होन्ति, एवमेतेपि अरियपुग्गला सम्मासम्बुद्धस्स सवनन्ते अरियाय जातिया जातताय भगवतो सन्तकस्स विमुत्तिसुखस्स, अरियधम्मरतनस्स च एकन्तभागिनोति ओरसा विय ओरसा । अथ वा भगवतो धम्मदेसनानुभावेन अरियभूमिं ओक्कममाना, ओक्कन्ता च अरियसावका भगवतो उरोवायामजनिताभिजातताय निप्परियायेन " ओरसपुत्ता' ति वत्तब्बतं अरहन्ति । सावकेहि पवत्तियमानापि हि धम्मदेसना भगवतो " धम्मदेसना" इच्चेव वुच्चति, तंमूलकत्ता, लक्खणादिविसेसाभावतो च ।
यदिपि अरियसावकानं अरियमग्गाधिगमसमये भगवतो विय तदन्तरायकरणत्थं
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देवपुत्तमारो, मारवाहिनी वा न एकन्तेन अपसादेति, तेहि पन अपसादेतब्बताय कारणे विमथिते तेपि विमथिता एव नाम होन्तीति आह - " मारसेनमथनान "न्ति । इमस्मिं पनत्थे 'मारमारसेनमथनान 'न्ति वत्तब्बे "मारसेनमथनान "न्ति एकदेससरूपेकसेसो कतोति दट्ठब्बं । अथ वा खन्धाभिसङ्घारमारानं विय देवपुत्तमारस्सापि गुणमारणे सहायभावूपगमनतो किलेसबलकायो “सेना" ति वुच्चति । यथाह - “कामा ते पठमा सेना "तिआदि (सु० नि० ४३८; महानि० २८, ६८, चूळनि० ४७ ) । सा च तेहि दियड्डुसहस्सभेदा, अनन्तभेदा वा किलेसवाहिनी सतिधम्मविचयवीरियसमथादिगुणपहरणेहि ओधिसो विमथिता, विहता, विद्धस्ता चाति मारसेनमथना, अरियसावका । एतेन तेसं भगवतो अनुजातपुत्ततं दस्सेति ।
आरकत्ता किलेसेहि, अनये न इरियनतो, अये च इरियनतो अरिया, निरुत्तिनयेन । अथ वा सदेवकेन लोकेन "सरण "न्ति अरणीयतो उपगन्तब्बतो, उपगतानञ्च तदत्थसिद्धितो अरिया, अरियानं सङ्घोति अरियसङ्घो, अरियो च सो, सङ्घो चाति वा अरियसङ्घो, तं अरियसङ्कं । भगवतो अपरभागे बुद्धधम्मरतनानम्पि समधिगमो सङ्घरतनाधीनोति अस्स अरियसङ्घस्स बहूपकारतं दस्सेतुं इधेव “ सिरसा वन्दे "ति वुत्तन्ति दब्बं ।
एत्थ च ‘“सुगतस्स ओरसानं पुत्तान "न्ति एतेन अरियसङ्घस्स पभवसम्पदं दस्सेति, "मारसेनमथनान "न्ति एतेन पहानसम्पदं, सकलसंकिलेसप्पहानदीपनतो । “अट्ठन्नम्पि समूह "न्ति एतेन ञाणसम्पदं, मग्गट्ठफलट्ठभावदीपनतो । “अरियसङ्घन्ति एतेन पभवसम्पदं दस्सेति, सब्बसङ्घानं अग्गभावदीपनतो। अथ वा "सुगतस्स ओरसानं पुत्तान "न्ति अरियसङ्घस्स विसुद्धनिस्सयभावदीपनं, “मारसेनमथनान "न्ति सम्माउजुआयसामीचिप्पटिपन्नभावदीपनं, “अट्ठन्नम्पि समूह "न्ति आहुनेय्यादिभावदीपनं, "अरियसङ्घ "न्ति अनुत्तरपुञ्ञक्खेत्तभावदीपनं । तथा "सुगतस्स ओरसानं पुत्तान "न्ति एतेन अरियसङ्घस्स लोकुत्तरसरणगमनसब्भावं दीपेति । लोकुत्तरसरणगमनेन हि ते भगवतो ओरसपुत्ता जाता । "मारसेनमथनान "न्ति एतेन अभिनीहारसम्पदासिद्धं पुब्बभागे सम्मापटिपत्तिं दस्सेति । कताभिनीहारा हि सम्मा पटिपन्ना मारं, मारपरिसं वा अभिविजिनन्ति । “अट्ठन्नम्पि समूह "न्ति एतेन विद्धस्तविपक्खे सेक्खासेक्खधम्मे दस्सेति, पुग्गलाधिट्ठानेन मग्गफलधम्मानं पकासितत्ता । “अरियसङ्घ "न्ति अग्गदक्खिणेय्यभावं दस्सेति । सरणगमनञ्च सावकानं सब्बगुणानमादि, सपुब्बभागप्पटिपदा सेक्खा सीलक्खन्धादयो मज्झे, असेक्खा
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गन्थारम्भकथावण्णना
सीलक्खन्धादयो परियोसानन्ति आदिमज्झपरियोसानकल्याणा सङ्क्षेपतो सब्बे अरियसङ्घगुणा पकासिता होन्ति ।
एवं गाथात्तयेन सङ्क्षेपतो सकलगुणसङ्कित्तनमुखेन रतनत्तयस्स पणामं कत्वा, इदान तं निपच्चकारं यथाधिप्पेते पयोजने परिणामेन्तो " इति मे "तिआदिमाह । तत्थ रतिजननट्टेन रतनं, बुद्धधम्मसङ्घा । तेसञ्हि "इतिपि सो भगवा 'तिआदिना यथाभूतगुणे आवज्जन्तस्स अमताधिगमहेतुभूतं अनप्पकं पीतिपामोज्जं उप्पज्जति । यथाह -
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" यस्मिं, महानाम, समये अरियसावको तथागतं अनुसरति, नेवस्स तस्मिं समये रागपरियुट्ठितं चित्तं होति, न दोसपरियुट्ठितं चित्तं होति, न मोहपरियुट्ठितं चित्तं होति, उजुगतमेवस्स तस्मिं समये चित्तं होति तथागतं आरम्भ । उजुगतचित्तो खो पन, महानाम, अरियसावको लभति अत्थवेदं लभति धम्मवेदं, लभति धम्मूपसंहितं पामोज्जं, पमुदितस्स पीति जायती 'तिआदि (अ० नि० २.६.१०; अ० नि० ३.११.११) ।
चित्तीकतादिभावो वा रतनट्ठी । वुत्तहेतं -
"चित्तीकतं महग्घञ्च, अतुलं दुल्लभदस्सनं ।
अनोमसत्तपरिभोगं, रतनं तेन वुच्चती 'ति । । (खु० पा० अट्ठ० ६.३; दी० नि० अट्ट० २.३३; सु० नि० अट्ठ० १.२२६; महानि० अट्ठ० ५०)
चित्तीकतभावादयो च अनञ्ञसाधारणा बुद्धादीसु एव लब्भन्तीति । वन्दनाव वन्दनामयं, यथा “दानमयं सीलमय "न्ति ( दी० नि० ३.३०५; इतिवु० ६०; नेत्ति० ३४) । वन्दना चेत्थ कायवाचाचित्तेहि तिण्णं रतनानं गुणनिन्नता, थोमना वा । पुज्जभवफलनिब्बत्तनतो पुञ्ञ, अत्तनो सन्तानं पुणातीति वा । सुविहतन्तरायोति सु विहतन्तरायो, एतेन अत्तनो पसादसम्पत्तिया, रत्तनत्तयस्स च खेत्तभावसम्पत्तिया तं पु अत्थप्पकासनस्स उपघातकउपद्दवानं विहनने समत्थन्ति दस्सेति । हुत्वाति पुब्बकालकिरिया, तस्स ‘“अत्थं पकासयिस्सामी "ति एतेन सम्बन्धो । तस्साति यं रतनत्तयवन्दनामयं पुञ्ञ, तस्स । आनुभावेनाति बलेन ।
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एवं रतनत्तयस्स निपच्चकारकरणे पयोजनं दस्सेत्वा, इदानि यस्सा धम्मदेसनाय अत्थं संवण्णेतुकामो, तस्सा ताव गुणाभित्थवनवसेन उपञापनत्थं "दीघस्सा"तिआदि वुत्तं । तत्थ दीघसुत्तङ्कितस्साति दीघप्पमाणसुत्तलक्खितस्स, एतेन “दीघो''ति अयं इमस्स आगमस्स अत्थानुगता समाति दस्सेति । ननु च सुत्तानियेव आगमो, कस्स पन सुत्तेहि अङ्कनन्ति ? सच्चमेतं परमत्थतो, सुत्तानि पन उपादायपञत्तो आगमो। यथा हि अत्थब्यञ्जनसमुदाये “सुत्तन्ति वोहारो, एवं सुत्तसमुदाये “आगमोति वोहारो। पटिच्चसमुप्पादादिनिपुणत्यसब्भावतो निपुणस्स। आगमिस्सन्ति एत्थ, एतेन, एतस्मा वा अत्तत्थपरत्थादयोति आगमो, आगमो च सो वरो चाति आगमवरो, आगमसम्मतेहि वा वरोति आगमवरो, तस्स । बुद्धानं अनुबुद्धा बुद्धानुबुद्धा, बुद्धानं सच्चपटिवेधं अनुगम्म पटिविद्धसच्चा अग्गसावकादयो अरिया । तेहि अत्थसंवण्णनावसेन, गुणसंवण्णनावसेन च संवण्णितस्स । अथ वा बुद्धा च अनुबुद्धा च बुद्धानुबुद्धाति योजेतब्बं । सम्मासम्बुद्धेनेव हि तिण्णम्पि पिटकानं अत्थवण्णनाक्कमो भासितो, या “पकिण्णकदेसना'"ति वुच्चति, ततो सङ्गायनादिवसेन सावकेहीति आचरिया वदन्ति ।
___सद्धावहगुणस्साति बुद्धादीसु पसादावहसम्पत्तिकस्स | अयहि आगमो ब्रह्मजालादीसु (दी० नि० १.५-७, २६-२८) सीलदिट्ठादीनं अनवसेसनिद्देसादिवसेन, महापदानादीसु (दी० नि० २.३-५) पुरिमबुद्धानम्पि गुणनिद्देसादिवसेन, पाथिकसुत्तादीसु (दी० नि० ३.३,४) तित्थिये निमद्दित्वा अप्पटिवत्तियसीहनाद नदनादिवसेन, अनुत्तरियसुत्तादीसु (अ० नि० २.६.८) च विसेसतो बुद्धगुणविभावनेन रतनत्तये सातिसयप्पसादं आवहति । संवण्णनासु चायं आचरियस्स पकति, या तंतंसंवण्णनासु आदितो तस्स तस्स संवण्णेतब्बस्स धम्मस्स विसेसगुणकित्तनेन थोमना। तथा हि पपञ्चसूदनीसारत्थप्पकासिनीमनोरथपूरणीसु अट्ठसालिनीआदीसु च यथाक्कम “परवादमथनस्स आणप्पभेदजननस्स धम्मकथिकपुङ्गवानं विचित्तप्पटिभानजननस्स तस्स गम्भीरञाणेहि ओगाळहस्स अभिण्हसो नानानयविचित्तस्स अभिधम्मस्सा"तिआदिना थोमना कता ।
__ अत्थो कथीयति एतायाति अत्थकथा, सा एव अट्ठकथा, त्थ-कारस्स दु-कारं कत्वा, यथा "दुक्खस्स पीळनट्ठो''ति (पटि० म० २.८)। आदितो तिआदिम्हि पठमसङ्गीतियं । छळभिञ्जताय परमेन चित्तवसीभावेन समन्नागतत्ता, झानादीसु पञ्चविधवसितासब्भावतो च वसिनो, थेरा महाकस्सपादयो । तेसं सतेहि पञ्चहि । याति या अट्ठकथा । सङ्गीताति अत्थं पकासेतुं युत्तट्ठाने “अयं एतस्स अत्थो, अयं एतस्स अत्थो''ति सङ्गहेत्वा वुत्ता।
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गन्थारम्भकथावण्णना
अनुसङ्गीता च यसत्थेरादीहि पछापि दुतियततियसङ्गीतीसु, इमिना अत्तनो संवण्णनाय आगमनसुद्धिं दस्सेति ।
सीहस्स लानतो गहणतो सीहळो, सीहकुमारो। तंवंसजातताय तम्बपण्णिदीपे खत्तियानं, तेसं निवासताय तम्बपण्णिदीपस्स च सीहळभावो वेदितब्बो। आभताति जम्बुदीपतो आनीता। अथाति पच्छा । अपरभागे हि असङ्करत्थं सीहळभासाय अट्ठकथा ठपिताति। तेनस्स मलट्रकथा सब्बसाधारणा न होतीति इदं अत्थप्पकासनं एकन्तेन करणीयन्ति दस्सेति । तेनेवाह - "दीपवासीनमत्थाया"ति । तत्थ दीपवासीनन्ति जम्बुदीपवासीनं । दीपवासीनन्ति वा सीहळदीपवासीनं अत्थाय सीहळभासाय ठपिताति योजना।
अपनेत्वानाति कञ्चुकसदिसं सीहळभासं अपनेत्वा । ततोति अट्ठकथातो। अहन्ति अत्तानं निद्दिसति । मनोरमं भासन्ति मागधभासं । सा हि सभावनिरुत्तिभूता पण्डितानं मनं रमयतीति। तेनेवाह - "तन्तिनयानुच्छविक"न्ति, पाळिगतिया अनुलोमिकं पाळिभासायानुविधायिनिन्ति अत्थो । विगतदोसन्ति असभावनिरुत्तिभासन्तररहितं ।
समयं अविलोमेन्तोति सिद्धन्तं अविरोधेन्तो, एतेन अत्थदोसाभावमाह । अविरुद्धत्ता एव हि थेरवादापि इध पकासियिस्सन्ति । थेरवंसपदीपानन्ति थिरेहि सीलक्खन्धादीहि समन्नागतत्ता थेरा, महाकस्सपादयो। तेहि आगता आचरियपरम्परा थेरवंसो, तप्परियापन्ना हुत्वा आगमाधिगमसम्पन्नत्ता पञापज्जोतेन तस्स समुज्जलनतो थेरवंसपदीपा, महाविहारवासिनो थेरा, तेसं । विविधेहि आकारेहि निच्छीयतीति विनिच्छयो, गण्ठिट्ठानेसु खीलमद्दनाकारेन पवत्ता विमतिच्छेदकथा। सुटु निपुणो सण्हो विनिच्छयो एतेसन्ति सुनिपुणविनिच्छया। अथ वा विनिच्छिनोतीति विनिच्छयो, यथावुत्तविसयं जाणं । सुटु निपुणो छेको विनिच्छयो एतेसन्ति सुनिपुणविनिच्छया, एतेन महाकस्सपादिथेरपरम्पराभतो, ततोयेव च अविपरीतो सण्हसुखुमो महाविहारवासीनं विनिच्छयोति तस्स पमाणभूततं दस्सेति ।
सुजनस्स चाति च-सद्दो सम्पिण्डनत्थो, तेन न केवलं जम्बुदीपवासीनमेव अत्थाय, अथ खो साधुजनतोसनत्थञ्चाति दस्सेति, तेन च तम्बपण्णिदीपवासीनम्पि अत्थायाति अयमत्थो सिद्धो होति, उग्गहणादिसुकरताय तेसम्पि बहुपकारत्ता। चिरद्वितत्थन्ति
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गटीका
चिरट्ठितिअत्थं, चिरकालट्ठितियाति अत्थो। इदहि अत्थप्पकासनं अविपरीतब्यञ्जनसुनिक्खेपस्स अत्थसुनयस्स च उपायभावतो सद्धम्मस्स चिरद्वितिया संवत्तति । वुत्तज्हेतं भगवता -
"द्वेमे, भिक्खवे, धम्मा सद्धम्मस्स ठितिया असम्मोसाय अनन्तरधानाय संवत्तन्ति । कतमे द्वे ? सुनिक्खत्तञ्च पदब्यञ्जनं, अत्थो च सुनीतो"ति (अ० नि० १.२.२१)।
यं अत्थवण्णनं कत्तुकामो, तस्सा महत्तं परिहरितुं "सीलकथा"तिआदि वुत्तं । तेनेवाह - "न तं इध विचारयिस्सामी"ति । अथ वा यं अट्ठकथं कत्तुकामो, तदेकदेसभावेन विसुद्धिमग्गो च गहेतब्बोति कथिकानं उपदेसं करोन्तो तत्थ विचारितधम्मे उद्देसवसेन दस्सेति “सीलकथा" तिआदिना। तत्थ सीलकथाति चारित्तवारित्तादिवसेन सीलवित्थारकथा । धुतधम्माति पिण्डपातिकङ्गादयो (विसुद्धि० १.२२; थेरगा० अट्ठ० २.८४५, ८४९) तेरस किलेसधुननकधम्मा | कम्मट्ठानानि सब्बानीति पाळियं आगतानि अट्ठतिंस, अट्ठकथायं द्वेति निरवसेसानि योगकम्मस्स भावनाय पवत्तिहानानि । चरियाविधानसहितोति रागचरितादीनं सभावादिविधानेन सहितो। झानानि चत्तारि रूपावचरज्झानानि, समापत्तियो चतस्सो अरूपसमापत्तियो । अट्ठपि वा पटिलद्धमत्तानि झानानि, समापज्जनवसीभावप्पत्तिया समापत्तियो। झानानि वा रूपारूपावचरज्झानानि, समापत्तियो फलसमापत्तिनिरोधसमापत्तियो ।
लोकियलोकुत्तरभेदा छ अभिजायो सब्बा अभिज्ञायो। आणविभङ्गादीसु आगतनयेन एकविधादिना पाय सङ्कलेत्वा सम्पिण्डेत्वा निच्छयो पञासङ्कलननिच्छयो।
पच्चयधम्मानं हेतादीनं पच्चयुप्पन्नधम्मानं हेतुपच्चयादिभावो पच्चयाकारो, तस्स देसना पच्चयाकारदेसना, पटिच्चसमुप्पादकथाति अत्थो। सा पन घनविनिब्भोगस्स सुदुक्करताय सण्हसुखुमा, निकायन्तरलद्धिसङ्कररहिता, एकत्तनयादिसहिता च तत्थ विचारिताति आह - "सुपरिसुद्धनिपुणनया"ति। पटिसम्भिदादीसु आगतनयं अविस्सज्जेत्वाव विचारितत्ता अविमुत्ततन्ति मग्गा ।
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गन्थारम्भकथावण्णना
इति पन सब्बन्ति इति-सद्दो परिसमापने, पन-सद्दो वचनालङ्कारे, एतं सब्बन्ति अत्थो । इधाति इमिस्सा अट्ठकथायं । न विचारयिस्सामि, पुनरुत्तिभावतोति अधिप्पायो ।
इदानि तस्सेव अविचारणस्स एकन्तकारणं निद्धारेन्तो "मज्झे विसुद्धिमग्गो"तिआदिमाह । तत्थ "मज्झे ठत्वा"ति एतेन मज्झेभावदीपनेन विसेसतो चतुन्नं आगमानं साधारणट्ठकथा विसुद्धिमग्गो, न सुमङ्गलविलासिनीआदयो विय असाधारणट्ठकथाति दस्सेति । “विसेसतो"ति इदं विनयाभिधम्मानम्पि विसुद्धिमग्गो यथारहं अत्थवण्णना होति येवाति कत्वा वुत्तं ।
इच्चेवाति इति एव । तम्पीति विसुद्धिमग्गम्पि । एतायाति सुमङ्गलविलासिनिया । एत्थ च “सीहळदीपं आभता"तिआदिना अत्थप्पकासनस्स निमित्तं दस्सेति, “दीपवासीनमत्थाय, सुजनस्स च तुट्ठत्थं, चिरहितत्थञ्च धम्मस्सा''ति एतेन पयोजनं, अवसिटेन करणप्पकारं । सीलकथादीनं अविचारणम्पि हि इध करणप्पकारो एवाति ।
गन्थारम्भकथावण्णना निहिता।
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निदानकथावण्णना
विभागवन्तानं सभावविभावनं विभागदस्सनवसेनेव होतीति पठमं ताव वग्गसुत्तवसेन विभागं दस्सेतुं “तत्थ दीघागमो नामा"तिआदिमाह । तत्थ तत्थाति “दीघस्स आगमवरस्स अत्थं पकासयिस्सामी"ति यदिदं वुत्तं, तस्मिं वचने। यस्स अत्यं पकासयिस्सामीति पटिञातं, सो दीघागमो नाम वग्गसुत्तवसेन एवं विभागोति अत्थो । अथ वा तत्थाति “दीघागमनिस्सितमत्थ"न्ति एतस्मिं वचने । यो दीघागमो वुत्तो, सो वग्गादिवसेन एदिसोति अत्थो । अत्तनो संवण्णनाय पठममहासङ्गीतियं निक्खित्तानुक्कमेनेव पवत्तभावदस्सनत्थं "तस्स वग्गेसु...पे०... वुत्तं निदानमादी"ति आह । कस्मा पन चतूसु आगमेसु दीघागमो पठमं सङ्गीतो, तत्थ च सीलक्खन्धवग्गो आदितो निक्खित्तो, तस्मिञ्च ब्रह्मजालन्ति ? नायमनुयोगो कत्थचिपि न पवत्तति, अपि च सद्धावहगुणतो दीघनिकायो पठमं सङ्गीतो । सद्धा हि कुसलधम्मानं बीजं । यथाह – “सद्धा बीजं तपो वुट्ठी"ति, (सं० नि० १.१.१९७; सु० नि० ७७) सद्धावहगुणता चस्स दस्सितायेव । किञ्च कतिपयसुत्तसङ्गहतो, अप्पपरिमाणतो च गहणधारणादिसुखतो। तथाहेस चतुत्तिंससुत्तसङ्गहो चतुसट्ठिभाणवारपरिमाणो च । सीलकथाबाहुल्लतो पन सीलक्खन्धवग्गो पठमं निक्खित्तो । सीलहि सासनस्स आदि, सीलपतिट्ठानत्ता सब्बगुणानं । तेनेवाह - "तस्मा तिह, त्वं भिक्खु, आदिमेव विसोधेहि कुसलेसु धम्मेसु | को चादि कुसलानं धम्मानं ? सीलञ्च सुविसुद्ध"न्तिआदि (सं० नि० ३.५.३९५)। एतेन चस्स वग्गस्स अन्वत्थसञता वुत्ता होति । दिट्ठिविनिवेठनकथाभावतो पन सुत्तन्तपिटकस्स निरवसेसदिट्ठिविभजनं ब्रह्मजालं पठमं निक्खित्तन्ति दट्ठब्बं । तेपिटके हि बुद्धवचने ब्रह्मजालसदिसं दिट्ठिगतानि निग्गुम्बं निज्जटं कत्वा विभत्तसुत्तं नत्थीति ।
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पठममहासङ्गीतिकथावण्णना
पठममहासङ्गीतिकथावण्णना
यस्सा पठममहासङ्गीतियं निक्खित्तानुक्कमेन संवण्णनं कत्तुकामो, तं, तस्सा च तन्तिआरुळ्हाय इध वचने कारणं दस्सेन्तो " पठममहासङ्गीति... पे०... वेदितब्बा "ति आह । तत्थ यथापच्चयं तत्थ तत्थ देसितत्ता, पञ्ञत्तत्ता च विप्पकिण्णानं धम्मविनयानं सङ्ग्रहेत्वा गायनं कथनं सङ्गीति, एतेन तंतंसिक्खापदानं सुत्तानञ्च आदिपरियोसानेसु, अन्तरन्तरा च सम्बन्धवसेन ठपितं सङ्गीतिकारवचनं सङ्ग्रहितं होति । महाविसयत्ता, पूजनीयत्ता च महती सङ्गीति महासङ्गीति, पठमा महासङ्गीति पठममहासङ्गीति, तस्सा पवत्तिकालो पठममहासङ्गीतिकालो, तस्मिं पठममहासङ्गीतिकाले । निदानन्ति च देसनं देसकालादिवसेन अविदितं विदितं कत्वा निदस्सेतीति निदानं । सत्तानं दस्सनानुत्तरियसरणादिपटिलाभ हेतुभूतासु विज्जमानासुपि अञ्ञासु भगवतो किरिया सु "बुद्धो बोधेय्य "न्ति (बुद्ध० वं० अट्ठ० रतनचङ्कमनकण्डवण्णना; चरिया० पि० उद्धानंगाथावण्णना) पटिञ्ञाय अनुलोमतो वेनेय्यानं मग्गफलप्पत्तीनं हेतुभूता किरिया निप्परियायेन बुद्धकिच्चन्ति आह- “धम्मचक्कप्पवत्तनहि आदि कत्वा" ति । तत्थ सद्धिन्द्रियादिधम्मोयेव पवत्तनट्टेन चक्कन्ति धम्मचक्कं । अथ वा चक्कन्ति आणा, धम्मो अनपेतत्ता धम्मञ्च तं चक्कञ्चाति धम्मचक्कं, धम्मेन जयेन चक्कन्तिपि धम्मचक्कं ।
यथाह
“धम्मञ्च पवत्तेति चक्कञ्चाति धम्मचक्कं चक्कञ्च पवत्तेत धम्मञ्चाति धम्मचक्कं, धम्मेन पवत्तेतीति धम्मचक्कं, धम्मचरियाय पवत्तेतीति धम्मचक्क "न्तिआदि (पटि० म०२, ३९, ४१) ।
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" कतबुद्धकिच्चे "ति एतेन बुद्धकत्तब्बस्स कस्सचिपि असेसितभावं दस्सेति । ननु च सावकेहि विनीतापि विनेय्या भगवतायेव विनीता होन्ति, यतो सावकभासितं सुत्तं "बुद्धवचन "न्ति वुच्चति, सावकविनेय्या च न ताव विनीताति नायं दोसो तेसं विनयनुपायस्स सावकेसु ठपितत्ता । तेनेवाह -
"न तावाहं, पापिम, परिनिब्बायिस्सामि, याव मे भिक्खू न सावका भविसन्ति वियत्ता विनीता विसारदा बहुस्सुता धम्मधरा... पे०... उप्पन्नं परप्पवादं
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गटीका
सह धम्मेन सुनिग्गहितं निग्गहेत्वा सप्पाटिहारियं धम्मं देसेस्स "न्तिआदि (दी० नि० २.१६८; सं० नि० ३.५.८२२; उदा० ५१) ।
"कुसिनाराय "न्तिआदि भगवतो परिनिब्बुतदेसकालविसेसदस्सनं “ अपरिनिब्बुतो भगवा "ति गाहस्स मिच्छाभावदस्सनत्थं, लोके जातसंवद्धभावदस्सनत्थञ्च । तथा हि मनुस्सभावस्स सुपाकटकरणत्थं महाबोधिसत्ता चरिमभवे दारपरिग्गहादीनिपि करोन्तीति । उपादीयते कम्मकिलेसेहीति उपादि, विपाकक्खन्धा कटत्ता च रूपं । सो पन उपादि किलेसाभिसङ्घारमारनिम्मथनेन निब्बानप्पत्तियं अनोस्सट्ठी, इध खन्धमच्चुमारनिम्मथनेन ओस्सट्ठो निस्सेसितोति अयं अनुपादिसेसा, निब्बानधातु । निब्बानधातूति चेत्थ निब्बुतिमत्तं अधिप्पेतं इत्थम्भूतलक्खणे चायं करणनिद्देसो । “धातुभाजनदिवसेति इदं न “सन्निपतितान "न्ति एतस्स विसेसनं, उस्साहजननस्स पन विसेसनं, “ धातुभाजनदिवसे भिक्खूनं उस्साहं जनेसी 'ति । धातुभाजनदिवसतो हि पुरिमपुरिमतरदिवसेसु भिक्खू समागताति । अथ वा धातुभाजनदिवसे सन्निपतितानं कायसामग्गीवसेन सहितानन्ति अत्थो । " सत्तन्नं सङ्घस्स थेरो सङ्घत्थेरो, सो पन सङ्घो किं परिमाणानन्ति आहभिक्खुसतसहस्सान "न्ति । निच्चसापेक्खताय हि एदिसेसु समासो होतियेव, यथा" देवदत्तस्स गरुकुल' ”न्ति ।
आयस्मा महाकस्सपो पुन दुल्लभभावं मञ्ञमानो भिक्खूनं उत्साहं जनेसीति सम्बन्धो । “धातुभाजनदिवसे सन्निपतितान "न्ति इदं “भिक्खुनं उत्साहं जनेसी 'ति एत्थ “भिक्खून "न्ति इमिनापि पदेन सम्बन्धनीयं । सुभद्देन वुड्डपब्बजितेन वुत्तवचनमनुस्सरन्तोति सम्बन्धो । तत्थ अनुसरन्तो धम्मसंवेगवसेनाति अधिप्पायो । “सद्धम्मं अन्तरधापेय्युं सङ्गायेय्यं...पे०... चिरट्टितिकं तस्स किमञ्ञ आणण्यं भविस्सती 'ति एतेसं पदानं " इति चिन्तयन्तो 'ति एतेन सम्बन्धो । तथा ' यञ्चाह "न्ति एतस्स " अनुग्गहितो पसंसितो "ति एतेन सम्बन्धी | यं पापभिक्खूति एत्थ यन्ति निपातमत्तं, कारणनिद्देसो वा, येन कारणेन अन्तरधापेय्युं, तदेतं कारणं विज्जतीति अत्थो, अद्धनियन्ति अद्धानमग्गगामि अद्धानक्खमन्ति अत्थो ।
यञ्चाहन्ति एत्थ यन्ति यस्मा, येन कारणेनाति वुत्तं होति, किरियापरामसनं वा एतं तेन " अनुग्गहितो पसंसितो 'ति एत्थ अनुग्गण्हनं पसंसनञ्च परामसति । " चीवरे साधारणपरिभोगेना" ति एत्थ “ अत्तना समसमट्ठपनेना "ति इध अत्तना - सद्दं आनेत्वा चीवरे
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पठममहासङ्गीतिकथावण्णना
अत्तना साधारणपरिभोगेनाति योजेतब्बं । यस्स येन हि सम्बन्धो दूरट्ठम्पि च तस्स तन्ति अथ वा भगवता चीवरे साधारणपरिभोगेन भगवता अनुग्गहितोति योजनीयं एतस्सापि हि करणनिद्देसस्स सहयोगकत्तुत्थजोतकत्तसम्भवतो । यावदेति यावदेव यत्तकं कालं यत्त वा समापत्तिविहारे, अभिज्ञाविहारे वा आकङ्क्षन्तो विहरामि चेव वोहरामि च, तथा कस्सपोपीति अत्थो । इदञ्च नवानुपुब्बविहारछळभिञ्ञभावसामञ्ञेन थुतिमत्तं वुत्तन्ति दट्टब्बं । न हि आयस्मा महाकस्सपो भगवा विय देवसिकं चतुवीसतिकोटिसतसहस्ससङ्ख्या समापत्तियो समापज्जति, यमकपाटिहारियादिवसेन वा अभिज्ञायो वळञ्जेतीति । तेनेवाह - "नवानुपुब्बविहारछळभिञ्ञाप्पभेदे 'ति । तस्स किमञ्ञ आणण्यं भविस्सति, अञ्ञत्र धम्मविनयसङ्गायनाति अधिप्पायो । “ननु मं भगवा "तिआदिना वुत्तमेवत्थं उपमावसेन विभावेति ।
ततो परन्ति ततो भिक्खून उत्साहजननतो परतो । पुरे अधम्मो दिप्पतीति अपिनाम दिब्बति, याव अधम्मो धम्मं पटिबाहितुं समत्थो होति, ततो पुरेतरमेवाति अत्थो । आसन्ने अनिच्छिते हि अयं पुरे - सद्दो । दिप्पतीति च दिप्पिस्सति । पुरेसद्दसन्नियोगेन हि अनागतत्थे अयं वत्तमानप्पयोगो, यथा- “पुरा वस्सति देवो 'ति ।
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“सकलनवङ्गसत्थुसासनपरियत्तिधरे... पे०... एकूनपञ्चसते परिग्गहेसी "ति एतेन सुक्खविपस्सकखीणासवपरियन्तानं यथावुत्तपुग्गलानं सतिपि आगमाधिगमसब्भावे सह पटिसम्भिदाहि पन तेविज्जादिगुणयुत्तानं आगमाधिगमसम्पत्तिया उक्कंसगतत्ता सङ्गीतिया बहुपकारतं दस्सेति । इदं वुत्तं सङ्गीतिक्खन्धके, (पारा० ४३७) अपच्चक्खं नाम नत्थि पगुणप्पवत्तिभावतो, समन्तपासादिकायं पन " असम्मुखा पटिग्गहितं नाम नत्थी' 'ति (पारा० अट्ठ० पठममहासङ्गीतिकथा) वुत्तं तं "द्वे सहस्सानि भिक्खुतो "ति वुत्तम्पि भगवतो सन्तिके पटिग्गहितमेवाति कत्वा वृत्तं । चतुरासीतिसहस्सानीति धम्मक्खन्धे सन्धायाह । पवत्तिनोति पगुणानि । आनन्दत्थेरस्स नवप्पायाय परिसाय विब्भमनेन महाकरसपत्थेरो एवमाह- "न वायं कुमारको मत्तमञ्ञासीति । तत्थ मत्तन्ति पमाणं । छन्दा आगमनं वियाति पदविभागो । “किञ्चापि सेक्खो "ति इदं न सेक्खानं अगतिगमनसब्भावेन वुत्तं, असेक्खानमेव पन उच्चिनितत्ताति दट्ठब्बं । पठममग्गेनेव हि चत्तारि अगतिगमनानि पहीयन्तीति । “अभब्बो छन्दा... पे०... अगतिं गन्तु "न्ति च धम्मसङ्गीतिया तस्स योग्यभावदस्सनेन विज्जमानगुणकथनं । परियत्तोति अधीतो ।
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गटीका
गावो चरन्ति एत्थाति गोचरो, गोचरो विय गोचरो, भिक्खाचरणट्ठानं । विसभागपुग्गलो सुभद्दसदिसो । सत्तिपञ्जरन्ति सत्तिखग्गादिहत्थेहि पुरिसेहि मल्लराजूनं भगवतो धातुआरक्खकरणं सन्धायाह । तं पलिबोधं छिन्दित्वा तं करणीयं करोतूति सङ्ग्राहकेन छिन्दितब्बं छिन्दित्वा एकन्तकरणीयं करोतूति अत्थो । महाजनन्ति बहुजनं । गन्धकुटिं वन्दित्वा परिभोगचेतियभावतोति अधिप्पायो । यथा तन्ति यथा अञ्ञोपि यथावुत्तसभावो, एवन्ति अत्थो । संवेजेसीति “ननु भगवता पटिकच्चेव अक्खातं - 'सब्बेव पियेहि मनापेहि नानाभावो विनाभावो' "तिआदिना (दी० नि० २.१८३; सं० नि० ३.५.३७९; अ० नि० ३.१०.४८; चूळव० ४३७) संवेगं जनेसि । उस्सन्नधातुकन्ति उपचितदोसं । भेसज्जमत्ताति अप्पकं भेसज्जं । अप्पत्थो हि अयं मत्ता - सद्दो, ‘“मत्तासुखपरिच्चागो’तिआदीसु (ध० प० २९०) विय । दुतियदिवसेति देवताय संवेजितदिवसतो, जेतवनविहारं पविट्ठदिवसतो वा दुतियदिवसे । आणाव चक्कं आणाचक्कं ।
एतदग्गन्ति एसो अग्गो । लिङ्गविपल्लासेन हि अयं निद्देसो । यदिदन्ति च यो अयं, यदिदं खन्धपञ्चकन्ति वा योजेतब्बं । “पठमं आवुसो उपालि पाराजिकं कत्थ पञ्ञत्त "न्ति कस्मा वुत्तं, ननु तस्स सङ्गीतिया पुरिमकाले पठमभावो न युत्तोति ? नो न युत्तो, भगवता पञ्ञत्तानुक्कमेन पातिमोक्खुद्देसानुक्कमेन च पठमभावस्स सिद्धत्ता । भुय्येन ि तीणि पिटकानि भगवतो धरमानकाले ठितानुक्कमेनेव सङ्गीतानि, विसेसतो विनयाभिधम्मपिटकानीति दट्ठब्बं । “ वत्थुम्पि पुच्छी "तिआदि 'कत्थ पञ्ञत्त 'न्तिआदिना दस्सि सह तदवसिट्ठम्पि सङ्ग्रहेत्वा दस्सनवसेन वुत्तं । पठमपाराजिकेति पठमपाराजिकपाळियं (पारा० २४), तेनेवाह - " न हि तथागता एकव्यञ्जनम्पि निरत्थकं वदन्तीति ।
जातकादिके खुद्दकनिकायपरियापन्ने, येभुय्येन च धम्मनिद्देसभूते तादिसे अभिधम्मपिटके सङ्गण्हितुं युत्तं न पन दीघनिकायादिप्पकारे सुत्तन्तपिटके, नापि पञ्ञत्तिनिद्देसभूते विनयपिटकेति दीघभाणका “ जातकादीनं अभिधम्मपिटके सङ्ग्रहो "ति वदन्ति । चरियापिटकबुद्धवंसानञ्चेत्थ अग्गहणं, जातकगतिकत्ता । मज्झिमभाणका पन “अड्डप्पत्तिवसेन देसितानं जातकादीनं यथानुलोमदेसनाभावतो तादिसे सुत्तन्तपिटके सङ्गहो युत्तो, न पन सभावधम्मनिद्देसभूते यथाधम्मसासने अभिधम्मपिटके 'ति जातकादीनं सुत्तन्तपिटकपरियापन्नतं कथयन्ति । तत्थ च युत्तं विचारेत्वा गतब्बं ।
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पठममहासङ्गीतिकथावण्णना
एवं निमित्तपयोज़नकालदेसकारककरणप्पकारेहि पठमं सङ्गीतिं दस्सेत्वा इदानि तत्थ ववत्थापितसिद्धेसु धम्मविनयेसु नानप्पकारकोसल्लत्थं एकविधादिभेदे दस्सेतुं "एवमेत"न्तिआदिमाह। तत्थ विमुत्तिरसन्ति विमुत्तिगुणं, विमुत्तिसम्पत्तिकं वा, अग्गफलनिष्फादनतो, विमुत्तिकिच्चं वा, किलेसानं अच्चन्तं विमुत्तिसम्पादनतो । केचि पन “विमुत्तिअस्साद"न्ति वदन्ति |
किञ्चापि अविसेसेन सबम्पि बुद्धवचनं किलेसविनयनेन विनयो, यथानुसिटुं पटिपज्जमाने अपायपतनादितो धारणेन धम्मो, इधाधिप्पेते पन धम्मविनये निद्धारेतुं "तत्थ विनयपिटक"न्तिआदिमाह । अवसेसं बुद्धवचनं धम्मो, खन्धादिवसेन सभावधम्मदेसनाबाहुल्लतो । अथ वा यदिपि धम्मोयेव विनयोपि, परियत्तियादिभावतो, विनयसद्दसन्निधाने पन भिन्नाधिकरणभावेन पयुत्तो धम्म-सद्दो विनयतन्तिविधुरं तन्तिं दीपेति यथा "पुञञाणसम्भारा, गोबलिबद्ध"न्ति च ।।
"अनेकजातिसंसार"न्ति अयं गाथा भगवता अत्तनो सब्ब तत्राणपदट्ठानं अरहत्तप्पत्तिं पच्चवेक्खन्तेन एकूनवीसतिमस्स पच्चवेक्खणाणस्स अनन्तरं भासिता । तेनाह "इदं पठमबुद्धवचन"न्ति । इदं किर सब्बबुद्धेहि अविजहितं उदानं । अयमस्स सङ्खपत्थो - अहं इमस्स अत्तभावगेहस्स कारकं तण्हावड्डकिं गवेसन्तो येन आणेन तं दटुं सक्का, तस्स बोधिज्ञाणस्सत्थाय दीपङ्करपादमूले कताभिनीहारो एत्तकं कालं अनेकजातिसंसारं अनेकजातिसतसहस्ससङ्ख्यं संसारवटें अनिब्बिसं तं आणं अविन्दन्तो अलभन्तोयेव सन्धाविस्सं संसरिं । यस्मा जराव्याधिमरणमिस्सताय जाति नामेसा पुनप्पुनं उपगन्तुं दुक्खा, न च सा तस्मिं अदिढे निवत्तति, तस्मा तं गवेसन्तो सन्धाविस्सन्ति अत्थो । दिट्ठोसीति इदानि मया सब्ब तञाणं पटिविज्झन्तेन दिट्ठो असि । पुन गेहन्ति पुन इमं अत्तभावसङ्खातं मम गेहं । न काहसि न करिस्ससि । तव सब्बा अवसेसाकिलेसफासुका मया भग्गा। इमस्स तया कतस्स अत्तभावगेहस्स कूटं अविज्जासङ्खातं कण्णिकमण्डलं विसङ्घत्तं विद्धंसितं । विसङ्खारं निब्बानं आरम्मणकरणवसेन गतं अनुपविटुं इदानि मम चित्तं, अहञ्च तण्हानं खयसङ्खातं अरहत्तमग्गं अज्झगा अधिगतो पत्तोस्मीति । अयं मनसा पवत्तितधम्मानमादि । “यदा हवे पातुभवन्ति धम्मा"ति (उदा० १, २, ३) अयं पन वाचाय पवत्तितधम्मानं आदीति वदन्ति । अन्तोजप्पनवसेन किर भगवा "अनेकजातिसंसार''न्तिआदिमाह (ध० प० १५३)। "पाटिपददिवसे'ति इदं
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गटीका
“सब्ब भावप्पत्तस्सा'"ति न एतेन सम्बन्धितब्, “पच्चवेक्खन्तस्स. उप्पन्ना"ति एतेन पन सम्बन्धितब्बं । विसाखपुण्णमायमेव हि भगवा पच्चूससमये सब्बञ्जतं पत्तोति । .
वयधम्माति अनिच्चलक्खणमुखेन दुक्खानत्तलक्खणम्पि सङ्घारानं विभावेति "यदनिच्चं तं दुक्खं, यं दुक्खं तदनत्ता"ति (सं० नि० २.३.१५; पटि० म० २.१०) वचनतो। लक्खणत्तयविभावननयेनेव च तदारम्मणं विपस्सनं दस्सेन्तो सब्बतित्थियानं अविसयभूतं बुद्धावेणिकं चतुसच्चकम्मट्ठानाधिट्टानं अविपरीतं निब्बानगामिनिप्पटिपदं पकासेतीति दट्टब्बं । इदानि तत्थ सम्मापटिपत्तियं नियोजेति "अप्पमादेन सम्पादेथा"ति । अथ वा "वयधम्मा सकारा"ति एतेन सङ्केपेन संवेजेत्वा "अप्पमादेन सम्पादेथा"ति सङ्केपेनेव निरवसेसं सम्मापटिपत्तिं दस्सेति। अप्पमादपदहि सिक्खात्तयसङ्गहितं केवलपरिपुण्णं सासनं परियादियित्वा तिकृतीति ।
पठमसङ्गीतियं असङ्गीतं सङ्गीतिक्खन्धककथावत्थुप्पकरणादि । केचि पन “सुभसुत्तम्पि (दी० नि० १.४४४) पठमसङ्गीतियं असङ्गीत"न्ति वदन्ति, तं पन न युज्जति । पठमसङ्गीतितो पुरेतरमेव हि आयस्मता आनन्देन जेतवने विहरन्तेन सुभस्स माणवस्स भासितन्ति ।
दव्हिकम्मसिथिलीकरणप्पयोजना यथाक्कम पकतिसावज्जपण्णत्तिसावज्जेसु सिक्खापदेसु । तेनाति विविधनयत्तादिना। एतन्ति विविधविसेसनयत्ताति गाथावचनं । एतस्साति विनयस्स।
___ अत्तत्थपरत्थादिभेदेति यो तं सुत्तं सज्झायति, सुणाति, वाचेति, चिन्तेति, देसेति च, सुत्तेन सङ्गहितो सीलादिअत्थो तस्सापि होति, तेन परस्स साधेतब्बतो परस्सापि होतीति, तदुभयं तं सुत्तं सूचेति दीपेति । तथा दिठ्ठधम्मिकसम्परायिकं लोकियलोकुत्तरञ्चाति एवमादिभेदे अत्थे आदि-सद्देन सङ्गण्हाति । अत्थ-सद्दो चायं हितपरियायवचनं, 'न भासितत्थवचनं, यदि सिया, सुत्तं अत्तनोपि भासितत्थं सूचेति, परस्सापीति अयमत्थो वुत्तो सिया । सुत्तेन च यो अत्थो पकासितो सो तस्सेव होतीति, न तेन परत्थो सूचितो होति, तेन सूचेतब्बस्स परत्थस्स निवत्तेतब्बस्स अभावा अत्थगहणञ्च न कत्तब्बं । अत्तत्थपरत्थविनिम्मुत्तस्स भासितत्थस्स अभावा आदिग्गहणञ्च न कत्तब्बं । तस्मा यथावुत्तस्स हितपरियायस्स अत्थस्स सुत्ते असम्भवतो सुत्तधारस्स पुग्गलस्स वसेन अत्तत्थपरत्था वुत्ता ।
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पठममहासङ्गीतिकथावण्णना
"न
अथ वा सुत्तं अनपेक्खित्वा ये अत्तत्थादयो अत्थप्पभेदा वृत्ता हञ्ञदत्थत्थिपसंसलाभा’" ति एतस्स पदस्स निद्देसे ( महानि० ६३; चूळनि० ८५ ) " अत्तत्थो, परत्थो, उभयत्थो, दिट्ठधम्मिको अत्थो, सम्परायिको अत्थो, उत्तानो अत्थो, गम्भीरो अत्थो, गूळहो अत्थो, परिच्छन्नो अत्यो, नेय्यो अत्थो, नीतो अत्थो, अनवज्जो अत्थो, निक्किलेसो अत्थो, वोदानो अत्थो, परमत्थो 'ति ते सुत्तं सूचेतीति अत्थो । इमस्मिं अत्थविकप्पे अत्थ-सद्दो भासितत्थपरियायोपि होति । एत्थ हि पुरिमका पञ्च अत्थप्पभेदा हितपरियाया, ततो परे छ भासितत्थभेदा, पच्छिमका पन उभयसभावा । तत्थ दुरधिगमताय विभावने अलद्धगाधो गम्भीरो । न विवटो गूळहो । मूलुदकादयो विय पंसुना अक्खरसन्निवेसादिना तिरोहितो पटिच्छन्नो । निद्धारेत्वा त्रापेतब्बो नेय्यो । यथारुतवसेन वेदितब्बो नीतो । अनवज्जनिक्किलेसबोदाना परियायवसेन वुत्ता, कुसलविपाककिरियाधम्मवसेन वा । परमत्थो निब्बानं, धम्मानं अविपरीतसभावो एव वा । अथ वा " अत्तना च अप्पिच्छो होती " ति अत्तत्थं, “अप्पिच्छाकथञ्च परेसं कत्ता होती 'ति परत्थं सूचेति । एवं " अत्तना च पाणातिपाता पटिविरतो होती "तिआदि (अ० नि० १.४.९९, २६५) सुत्तानि योजेतब्बानि । विनयाभिधम्मेहि च विसेसेत्वा सुत्त - सद्दस्स अत्थो वत्तब्बी । तस्मा वेनेय्यज्झासयवसप्पवत्ताय देसनाय अत्तहितपरहिततादीनि सातिसयं पकासितानि होति तप्परभावतो, न आणाधम्मसभाववसप्पवत्तायाति इदमेव च " अत्थानं सूचनतो सुत्तन्ति वृत्तं ।
सुत्ते च आणाधम्मसभावा च वेनेय्यज्झासयं अनुवत्तन्ति, न विनयाभिधम् वि वेनेय्यज्झासयो आणाधम्मसभावे । तस्मा वेनेय्यानं एकन्तहितपटिलाभसंवत्तनिका सुत्तन्तदेसना होतीति "सुबुत्ता चेत्था" तिआदि वृत्तं । पसवतीति फलति । " सुत्ताणा" एतस्स अत्थं पकासेतुं “सुड्डु च ने तायती "ति वृत्तं । अत्तत्थादिविधानेसु च सुत्रस पमाणभावो, अत्तत्थादीनञ्च सङ्गाहकत्तं योजेतब्बं तदत्थप्पकासनपधानत्ता सुत्तस्स । विनयाभिधम्मेहि विसेसनञ्च योजेतब्बं । एतन्ति “ अत्थानं सूचनतो' 'तिआदिकं अत्थवचनं । एतस्साति सुत्तस्स ।
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अभिक्कमन्तीति एत्थ अभि- सद्दो कमनकिरियाय बुद्धिभावं अतिरेकतं दीपेति, अभिज्ञाता अभिलक्खिताति एत्थ आणलक्खणकिरियानं सुपाकटताविसेसं, अभिक्कन्तेनाति एत्थ कन्तिया अधिकत्तं विसितन्ति युत्तं किरियाविसेसकत्ता उपसग्गस्स । अभिराजा अभिविनयेति पन पूजितपरिच्छिन्नेसु राजविनयेसु अभि- सद्दो पवत्ततीति कथमेतं
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युज्जेय्याति ? पूजनपरिच्छेदनकिरियादीपनतो, ताहि च किरियाहि राजविनयानं युत्तत्ता । एत्थ हि अतिमालादीसु अति-सद्दो विय, अभि-सद्दो यथा सह साधनेन किरियं वदतीति अभिराजअभिविनय-सद्दा सिद्धा, एवं अभिधम्मसद्दे अभि-सद्दो सह साधनेन बुड्डियादिकिरियं दीपेतीति अयमत्थो दस्सितोति दट्ठब्बो ।
भावनाफरणवुड्डीहि वुड्डिमन्तोपि धम्मा वुत्ता। आरम्मणादीहीति आरम्मणसम्पयुत्तकम्मद्वारपटिपदादीहि । अविसिट्ठन्ति अञमाविसिढेसु विनयसुत्ताभिधम्मसु अविसिटुं समानं । तं पिटकसद्दन्ति अत्थो । यथावुत्तेनाति “एवं दुविधत्थेना"तिआदिना वुत्तप्पकारेन ।
कथेतब्बानं अत्थानं देसकायत्तेन आणादिविधिना अतिसज्जनं पबोधनं देसना। सासितब्बपुग्गलगतेन यथापराधादिसासितब्बभावेन अनुसासनं विनयनं सासनं। कथेतब्बस्स संवरासंवरादिनो अत्थस्स कथनं वचनपटिबद्धताकरणं कथा। कथीयति वा एत्थाति कथा। संवरासंवरस्स कथा संवरासंवरकथा। एस नयो इतरेसुपि । भेद-सद्दो विसुं विसुं योजेतब्बो "देसनाभेदं सासनभेदं कथाभेदञ्च यथारहं परिदीपये''ति । भेदन्ति च नानत्तन्ति अत्थो । सिक्खा च पहानानि च गम्भीरभावो च सिक्खाप्पहानगम्भीरभावं, तञ्च परिदीपये। एत्थ यथाति उपारम्भनिस्सरणधम्मकोसरक्खणहेतुपरियापुणनं सुप्पटिपत्ति दुप्पटिपत्तीति एतेहि पकारेहि । आणं पणेतुं अरहतीति आणारहो सम्मासम्बुद्धत्ता । वोहारपरमत्थानम्पि सब्भावतो आह आणाबाहुल्लतोति । इतो परेसुपि एसेव नयो । पचुरापराधा सेय्यसकादयो । अज्झासयो आसयोव अत्थतो दिट्टि, आणञ्च । वुत्तञ्चेतं -
“सस्सतुच्छेददिट्ठि च, खन्ति चेवानुलोमिके । यथाभूतञ्च यं आणं, एतं आसयसद्दित''न्ति ।। (विसुद्धि० टी० १.१३६)
अनुसया कामरागभवरागदिट्ठिपटिघविचिकिच्छामानाविज्जावसेन सत्त अनागता किलेसा, अतीता पच्चुप्पन्ना च तथेव वुच्चन्ति। न हि कालभेदेन धम्मानं सभावभेदो अत्थीति । चरियाति छ मूलचरिया, अन्तरभेदेन अनेकविधा, संसग्गवसेन तेसट्टि होन्ति । ते पन अम्हेहि असम्मोहन्तरधानसुत्तटीकायं विभागतो दस्सिता, अत्थिकेहि ततो गहेतब्बा । अथ वा चरियाति चरितं, तं सुचरितदुच्चरितवसेन दुविधं । अधिमुत्ति नाम सत्तानं पुब्बपरिचयवसेन अभिरुचि, सा दुविधा हीनपणीतभेदेन । घनविनिब्भोगाभावतो
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दिट्ठिमानतण्हावसेन “अहं ममा"ति सञिनो। महन्तो संवरो असंवरो। बुद्धिअत्थो हि अय'मकारो यथा “असेक्खा धम्मा'"ति (ध० स० ११)।
तीसुपि चेतेसु एते धम्मत्थदेंसना पटिवेधाति एत्थ तन्तिअत्थो तन्तिदेसना तन्तिअत्थपटिवेधो च तन्तिविसया होन्तीति विनयपिटकादीनं अत्थदेसनापटिवेधाधारभावो युत्तो, पिटकानि पन तन्ति येवाति तेसं धम्माधारभावो कथं युज्जेय्याति ? तन्तिसमुदायस्स अवयवतन्तिया आधारभावतो | अवयवस्स हि समुदायो आधारभावेन वुच्चति, यथा - “रुक्खे साखा'ति । धम्मादीनञ्च दुक्खोगाहभावतो तेहि विनयादयो गम्भीराति विनयादीनञ्च चतुबिधो गम्भीरभावो वुत्तो। तस्मा धम्मादयो एव दुक्खोगाहत्ता गम्भीरा, न विनयादयोति न चोदेतब्बमेतं समुखेन, विसयविसयीमुखेन च विनयादीनंयेव गम्भीरभावस्स वुत्तत्ता। धम्मो हि विनयादयो, तेसं विसयो अत्थो, धम्मत्थविसया च देसनापटिवेधोति । तत्थ पटिवेधस्स दुक्करभावतो धम्मत्थानं, देसनाञाणस्स दुक्करभावतो देसनाय च दुक्खोगाहभावो वेदितब्बो, पटिवेधस्स पन उप्पादेतुं असक्कुणेय्यत्ता, तब्बिसयञाणुप्पत्तिया च दुक्करभावतो दुक्खोगाहता वेदितब्बा ।
"हेतुम्हि आणं धम्मपटिसम्भिदाति एतेन वचनेन धम्मस्स हेतुभावो कथं आतब्बोति ? “धम्मपटिसम्भिदा"ति एतस्स समासपदस्स अवयवपदत्थं दस्सेन्तेन "हेतुम्हि आण"न्ति वुत्तत्ता । “धम्मे पटिसम्भिदा"ति एत्थ हि "धम्मे''ति एतस्स अत्थं दस्सेन्तेन "हेतुम्ही''ति वुत्तं, “पटिसम्भिदा''ति एतस्स च अत्थं दस्सेन्तेन "आण''न्ति । तस्मा हेतुधम्म-सद्दा एकत्था, आणपटिसम्भिदा-सद्दा चाति इममत्थं वदन्तेन साधितो धम्मस्स हेतुभावो, अत्थस्स हेतुफलभावो च एवमेव दट्ठब्बो ।
यथाधम्मन्ति चेत्थ धम्म-सदो हेतुं हेतुफलञ्च सब् सङ्गण्हाति । सभाववाचको हेस, न परियत्तिहेतुभाववाचको, तस्मा यथाधम्मन्ति यो यो अविज्जासङ्घारादिधम्मो, तस्मिं तस्मिन्ति अत्थो। धम्मानुरूपं वा यथाधम्म। देसनापि हि पटिवेधो विय अविपरीतसविसयविभावनतो धम्मानुरूपं पवत्तति, यतो 'अविपरीताभिलापो'ति वुच्चति । धम्माभिलापोति अत्थब्यञ्जनको अविपरीताभिलापो, एतेन "तत्र धम्मनिरुत्ताभिलापे जाणं निरुत्तिपटिसम्भिदा''ति (विभं० ७१८) एत्थ वुत्तं सभावधम्मनिरुत्तिं दस्सेति, सद्दसभावत्ता देसनाय । तथा हि निरुत्तिपटिसम्भिदाय परित्तारम्मणादिभावो पटिसम्भिदाविभङ्गपाळियं (विभं० ७४९) वुत्तो। अट्ठकथायञ्च "तं सभावनिरुत्तिं सदं आरम्मणं कत्वा''तिआदिना
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(विभं० अट्ठ० ६४२) सद्दारम्मणता दस्सिता । “इमस्स अत्थस्स अयं सद्दो वाचको"ति वचनवचनीये ववत्थपेत्वा तंतवचनीय विभावनवसेन पवत्तितो हि सद्दो देसनाति । "अनुलोमादिवसेन वा कथन"न्ति एतेन तस्सा धम्मनिरुत्तिया अभिलापं कथनं तस्स वचनस्स पवत्तनं दस्सेति । “अधिप्पायो"ति एतेन “देसनाति पञत्ती'ति एतं वचनं धम्मनिरुत्ताभिलापं सन्धाय वुत्तं, न तब्बिनिमुत्तं पञत्तिं सन्धायाति दस्सेति।
ननु च “धम्मो तन्ती''ति इमस्मिं पक्खे धम्मस्स सदसभावत्ता धम्मदेसनानं विसेसो न सियाति ? न, तेसं तेसं अत्थानं बोधकभावेन जातो, उग्गहणादिवसेन च पुब्बे ववत्थापितो सद्दप्पबन्धो धम्मो, पच्छा परेसं अवबोधनत्थं पवत्तितो तदत्थप्पकासको सद्दो देसनाति । अथ वा यथावुत्तसद्दसमुट्ठापको चित्तुप्पादो देसना, मुसावादादयो विय । "वचनस्स पवत्तन"न्ति च यथावुत्तचित्तुप्पादवसेन युज्जति । सो हि वचनं पवत्तेति, तञ्च तेन पवत्तीयति देसीयति । “सो च लोकियलोकुत्तरो''ति एवं वुत्तं अभिसमयं येन पकारेन अभिसमेति, यं अभिसमेति, यो च तस्स सभावो, तेहि पाकटं कातुं "विसयतो असम्मोहतो च अत्थानुरूपं धम्मेसू"तिआदिमाह । तत्थ हि विसयतो अत्यादिअनुरूपं धम्मादीसु अवबोधो अविज्जादिधम्मसङ्खारादिअत्थतदुभयपञापनारम्मणो लोकियो अभिसमयो, असम्मोहतो अत्यादिअनुरूपं धम्मादीसु अवबोधो निब्बानारम्मणो मग्गसम्पयुत्तो यथावुत्तधम्मत्थपञ्जत्तीसुसम्मोहविद्धंसनो लोकुत्तरो अभिसमयोति । अभिसमयतो अझम्पि पटिवेधत्थं दस्सेतुं “तेसं तेसं वा"तिआदिमाह । 'पटिवेधनं पटिवेधोति इमिना हि वचनत्थेन अभिसमयो, 'पटिविज्झीयतीति पटिवेधोति इमिना तंतंरूपादिधम्मानं अविपरीतसभावो च “पटिवेधोति वुच्चतीति ।
यथावुत्तेहि धम्मादीहि पिटकानं गम्भीरभावं दस्सेतुं "इदानि यस्मा एतेसु पिटकेसू"तिआदिमाह । यो चेत्थाति एतेसु तंतंपिटकगतेसु धम्मादीसु यो पटिवेधो, एतेसु च पिटकेसु तेसं तेसं धम्मानं यो अविपरीतसभावोति योजेतब् । दुक्खोगाहता च अविज्जासङ्खारादीनं धम्मत्थानं दुष्पटिविज्झताय, तेसं पञापनस्स दुक्करभावतो तंदेसनाय, पटिवेधनसङ्घातस्स पटिवेधस्स उप्पादनविसयिकरणानं असक्कुणेय्यत्ता, अविपरीतसभावसङ्घातस्स पटिवेधस्स दुविज्ञेय्यताय एव वेदितब्बा ।
___ यन्ति यं परियत्तिदुग्गहणं सन्धाय वुत्तं । अत्यन्ति भासितत्थं, पयोजनस्थञ्च । न उपपरिक्खन्तीति न विचारेन्ति । न निल्झानं खमन्तीति निज्झानपझं नक्खमन्ति,
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निज्झायित्वा पञ्ञाय दिस्वा रोचेत्वा गहेतब्बा न होन्तीति अधिप्पायो । इतीति एवं एताय परियत्तिया । वादप्पमोक्खानिसंसा अत्तनो उपरि परेहि आरोपितवादस्स निग्गहस्स पमोक्खप्पयोजना हुत्वा धम्मं परियापुणन्ति, वादप्पमोक्खा वा निन्दापमोक्खा । यस्स चत्थायाति यस्स च सीलादिपूरणस्स अनुपादाविमोक्खस्स वा अत्थाय धम्मं परियापुणन्ति जयेन परियापुणन्तीति अधिप्पायो । अस्साति अस्स धम्मस्स । नानुभोन्तीति न विन्दन्ति । तेसं ते धम्मा दुग्गहितत्ता उपारम्भमानदब्बमक्खपलासादिहेतुभावेन दीघरतं अहिताय दुक्खाय संवत्तन्ति । भण्डागारे नियुत्तो भण्डागारिको, भण्डागारिको विय भण्डागारिको, अञ्ञत्थं धम्मरतनानुपालको । अनपेक्खित्वा भण्डागारिकसेव सतो परियत्ति भण्डागारिकपरियत्ति ।
“तासंयेवा”ति अवधारणं पापुणितब्बानं छळभिञ्ञाचतुप्पटिसम्भिदादीनं विनये पभेदवचनाभावं सन्धाय वृत्तं । वेरञ्जकण्डे (पारा० १२ ) हि तिस्सो विज्जाव विभत्ता । दुतिये पन " तासंयेवा" ति अवधारणं चतस्सो पटिसम्भिदा अपेक्खित्वा कतं, न तिस्सो विज्जा । ता हि छसु अभिज्ञासु अन्तोगधाति सुत्ते विभत्ता येवाति ।
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दुग्गतिं गण्हाति, " तथाहं भगवता धम्मं देसितं आजानामि, यथा तदेविदं विञ्ञणं सन्धावति संसरति अनञ्ञ"न्तिआदिना (म० नि० १.३९६) । धम्मचिन्तन्ति धम्मसभावविचारणं, “चित्तुप्पादमत्तेनेव दानं होति, सयमेव चित्तं अत्तनो आरम्मणं होति, सब्बं चित्तं असभावधम्मारम्मण' 'न्ति च एवमादि । तेसन्ति तेसं
पिटकानं ।
एतन्ति एतं बुद्धवचनं । अत्थानुलोमतो अनुलोमिको । अनुलोमिकतंयेव विभावेतुं " कस्मा पना "तिआदि वृत्तं । एकनिकायम्पीति एकसमूहम्पि । पोणिका चिक्खल्लिका च खत्तिया, तेसं निवासो पोणिकनिकायो चिक्खल्लिकनिकायो च ।
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नवप्पभेदन्ति एत्थ कथं नवप्पभेदं ? सगाथकहि सुत्तं गेय्यं निग्गाथकञ्च सुतं वेय्याकरणं, तदुभयविनिमुत्तञ्च सुत्तं उदानादिविसेससञ्जरहितं नत्थि, यं सुत्तङ्गं सिया, मङ्गलसुत्तादीनञ्च (खु० पा० ५.२; सु० नि० २२५) सुत्तङ्गसङ्गहो न सिया, गाथाभावतो, धम्मपदादीनं विय, गेय्यङ्गसङ्गहो वा सिया, सगाथकत्ता, सगाथवग्गस्स विय, तथा उभतोविभङ्गादीसु सगाथकप्पदेसानन्ति ? वुच्चते -
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"सुत्तन्ति सामञविधि, विसेसविधयो परे। सनिमित्ता निरुळहत्ता सहताजेन नाचतो"।। (सारत्थ० टी० १.पठममहासङ्गीतिकथावण्णना)
सब्बस्सापि हि बुद्धवचनस्स सुत्तन्ति अयं सामञविधि। तेनेवाह आयस्मा महाकच्चानो नेत्तियं - "नवविधसुत्तन्तपरियेट्टी"ति (नेत्ति० सङ्गहवार)। “एत्तकं तस्स भगवतो सुत्तागतं सुत्तपरियापनं, (पाचि० २५५, १२४२) सकवादे पञ्चसुत्तसतानी''ति (ध० स० अठ्ठ० निदानकथा; कथाव० अट्ट० निदानकथा) एवमादि च एतस्स अत्थस्स साधकं ।
विसेसविधयो परे सनिमित्ता तदेकदेसेसु गेय्यादयो विसेसविधयो तेन तेन निमित्तेन पतिट्ठिता। तथा हि गेय्यस्स सगाथकत्तं तब्भावनिमित्तं । लोकेपि हि ससिलोकं सगाथकं (नेत्ति० अट्ठ० १३) चुण्णियगन्थं 'गेय्य'न्ति वदन्ति । गाथाविरहे पन सति पुच्छं कत्वा विस्सज्जनभावो वेय्याकरणस्स तब्भावनिमित्तं । पुच्छाविस्सज्जनहि 'ब्याकरण'न्ति वुच्चति, ब्याकरणमेव वेय्याकरणं । एवं सन्ते सगाथकादीनम्पि पुच्छं कत्वा विस्सज्जनवसेन पवत्तानं वेय्याकरणभावो आपज्जतीति ? नापज्जति, गेय्यादिसञानं अनोकासभावतो, 'गाथाविरहे सती'ति विसेसितत्ता च । तथा हि धम्मपदादीसु केवलं गाथाबन्धेसु, सगाथकत्तेपि सोमनस्सञाणमयिकगाथायुत्तेसु, 'वुत्तञ्हेत'न्तिआदिवचनसम्बन्धेसु, अब्भुतधम्मपटिसंयुत्तेसु च सुत्तविसेसेसु यथाक्कम गाथाउदानइतिवृत्तकअब्भुतधम्मसञा पतिहिता, तथा सतिपि गाथाबन्धभावे भगवतो अतीतासु जातीसु चरियानुभावप्पकासकेसु जातकसा , सतिपि पञ्हाविस्सज्जनभावे, सगाथकत्ते च केसुचि सुत्तन्तेसु वेदस्स लभापनतो वेदल्लसम्रा पतिहिताति एवं तेन तेन सगाथकत्तादिना निमित्तेन तेसु तेसु सुत्तविसेसेसु गेय्यादिसा पतिहिताति विसेसविधयो सुत्तङ्गतो परे गेय्यादयो । यं पनेत्थ गेय्यङ्गादिनिमित्तरहितं, तं सुत्तङ्गं विसेससञपरिहारेन सामञ्जसाय पवत्तनतोति । ननु च सगाथकं सुत्तं गेय्यं, निग्गाथकं सुत्तं वेय्याकरणन्ति सुत्तमं न सम्भवतीति चोदना तदवत्था वाति ? न तदवत्था, सोधितत्ता। सोधितहि पुब्बे गाथाविरहे सति पुच्छाविस्सज्जनभावो वेय्याकरणस्स तब्भावनिमित्तन्ति ।
यञ्च वुत्तं - "गाथाभावतो मङ्गलसुत्तादीनं (खु० पा० ५.१, २, ३) सुत्तङ्गसङ्गहो न सिया"ति, तं न, निरुळ्हत्ता। निरुळहो हि मङ्गलसुत्तादीनं सुत्तभावो । न हि तानि
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धम्मपदबुद्धवंसादयो विय गाथाभावेन पञातानि, अथ खो सुत्तभावेन । तेनेव हि अट्ठकथायं "सुत्तनामक"न्ति नामग्गहणं कतं। यञ्च पन वुत्तं- “सगाथकत्ता गेय्यङ्गसङ्गहो सिया"ति, तदपि नत्थि, यस्मा सहताञ्जेन । सह गाथाहीति हि सगाथकं । सहभावो नाम अत्थतो अजेन होति, न च मङ्गलसुत्तादीसु कथाविनिमुत्तो कोचि सुत्तपदेसो अस्थि, यो ‘सह गाथाही'ति वुच्चेय्य, न च समुदायो नाम कोचि अस्थि, यदपि वुत्तं- “उभतोविभङ्गादीसु सगाथकप्पदेसानं गेय्यङ्गसङ्गहो सिया"ति तदपि न, अञतो। अञा एव हि ता गाथा जातकादिपरियापन्नत्ता। अतो न ताहि उभतोविभङ्गादीनं गेय्यमभावोति । एवं सुत्तादीनं अङ्गानं अञमञसङ्कराभावो वेदितब्बो ।
"अयं धम्मो...पे०... अयं विनयो, इमानि चतुरासीति धम्मक्खन्धसहस्सानी"ति बुद्धवचनं धम्मविनयादिभेदेन ववत्थपेत्वा सङ्गायन्तेन महाकस्सपप्पमुखेन वसिगणेन अनेकच्छरियपातुभावपटिमण्डिताय सङ्गीतिया इमस्स दीघागमस्स पठममज्झिमबुद्धवचनादिभावो ववत्थापितोति दस्सेति, “एवमेतं अभेदतो"तिआदिना।
निदानकथावण्णना निहिता।
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१. ब्रह्मजालसुत्तवण्णना
परिब्बाजककथावण्णना
एवं पठममहासङ्गीतिं दस्सेत्वा यदत्थं सा इध दस्सिता, इदानि तं निगमनवसेन दस्सेतुं “इमिस्सा"तिआदिमाह ।
१. एत्तावता च ब्रह्मजालस्स साधारणतो बाहिरनिदानं दस्सेत्वा इदानि अब्भन्तरनिदानं संवण्णेतुं "तत्थ एव"न्तिआदि वुत्तं । अथ वा छहि आकारेहि संवण्णना कातब्बा सम्बन्धतो पदतो पदविभागतो पदस्थतो अनुयोगतो परिहारतो चाति । तत्थ सम्बन्धो नाम देसनासम्बन्धो । यं लोकिया “उम्मुग्घातो''ति वदन्ति । सो पन पाळिया निदानपाळिवसेन, निदानपाळिया पन सङ्गीतिवसेन वेदितब्बोति पठममहासङ्गीतिं दस्सेन्तेन निदानपाळिया सम्बन्धस्स दस्सितत्ता पदादिवसेन संवण्णनं करोन्तो "एवन्ति निपातपद"न्तिआदिमाह । “मेतिआदीनी"ति एत्थ अन्तरा-सद्द-च-सदानं निपातपदभावो, वत्तब्बो, न वा वत्तब्बो तेसं नयग्गहणेन गहितत्ता, तदवसिट्ठानं आपटि-सद्दानं आदि-सद्देन सङ्गण्हनतो। “पदविभागो"ति पदानं विसेसो, न पन पदविग्गहो । अथ वा पदानि च पदविभागो च पदविभागो, पदविग्गहो च पदविभागो च पदविभागोति वा एकसेसवसेन पदपदविग्गहापि पदविभाग सद्देन वुत्ताति वेदितब् । तत्थ पदविग्गहो “भिक्खूनं सङ्घो''तिआदिभेदेसु पदेसु दट्ठब्बो।।
__ अत्थतोति पदत्थतो। तं पन पदत्थं अत्थुद्धारक्कमेन पठमं एवं-सद्दस्स दस्सेन्तो "एवंसदो तावा"तिआदिमाह। अवधारणादीति एत्थ आदि-सद्देन इदमत्थपुच्छापरिमाणादिअत्थानं सङ्गहो दट्टब्बो। तथा हि "एवंगतानि, एवंविधो, एवमाकारो''तिआदीसु इदं-सद्दस्स अत्थे एवं सद्दो । गत-सद्दो हि पकारपरियायो, तथा
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(१.१-१)
परिब्बाजककथावण्णना
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विधाकार - सद्दा च । तथा हि विधयुत्तगत सद्दे लोकिया पकारत्थे वदन्ति । “ एवं नु खो, न नु खो, किं नु खो, कथं नु खो"ति, "एवं सु ते सुन्हाता सुविलित्ता कप्पितकेसमस्सु, आमुत्तमालाभरणा ओदातवत्थवसना पञ्चहि कामगुणेहि समप्पिता समङ्गीभूता परिचारेन्ति, सेय्यथापि त्वं एतरहि साचरियकोति ? नो हिदं भो गोतमा "ति च आदीसु पुच्छायं । “ एवं लहुपरिवत्तं एवं आयुपरियन्तो 'ति च आदीसु परिमाणे । ननु च "एवं नु खो, एवं सु ते, एवं आयुपरियन्तो 'ति एत्थ एवं सद्देन पुच्छनाकारपरिमाणाकारानं वुत्तत्ता आकारत्थो एव एवं सद्दो ति ? न विसेससब्भावतो । आकारमत्तवाचको हेत्थ आकारत्थोति अधिप्पेतो, यथा “ एवं ब्याखोतिआदीसु पन न आकारविसेसवाचको एवञ्च कत्वा “एवं जातेन मच्चेना "तिआदीनि उपमादीसु उदाहरणानि उपपन्नानि होन्ति । तथा हि "यथापि ...पे०... बहु 'न्ति ? एत्थ पुप्फरासिट्ठानियो मनुस्सुपपत्तिसप्पुरिसूपनिस्सयसद्धम्मसवनयोनिसोमनसिकारभोगसम्पत्तिआदिदानादिपुञ्जकिरियाहेतुसमुदायतो सोभासुगन्धतादिगुणयोगतो मालागुणसदिसियो पहूता पुञ्ञकिरिया मरितब्बसभावताय मच्चेन सत्तेन कत्तब्बाति जोदितत्ता पुप्फरासिमालागुणाव उपमा, तेसं उपमाकारो यथा-सन अनियमतो वुत्तोति एवं सद्दो उपमाकारनिगमनत्थत वत्तुं युत्तं । सो पन उपमाकारो नियमियमानो अत्थतो उपमाव होतीति आह “उपमायं आगतो" ति ।
तथा एवं इमिना आकारेन “अभिक्कमितब्ब"न्ति आदिना उपदिसियमानाय समणसारुप्पाय आकप्पसम्पत्तिया यो तत्थ उपदिसनाकारो, सो अत्थतो उपदेसोयेवातिवृत्तं " एवं ते... पे०... उपदेसे "ति । तथा एवमेतं भगवा, एवमेतं सुगताति एत्थ च भगवता यथावुत्तमत्थं अविपरीततो जानन्तेहि कतं तत्थ संविज्जमानगुणानं पकारेहि हंसनं उदग्गताकरणं सम्पहंसनं, यो तत्थ सम्पहंसनाकारोति योजेतब्बं । एवमेवं पनायन्ति एत्थ गरहणाकारोति योजेतब्बं । सो च गरहणाकारो " वसली" तिआदि खुसनसद्दसन्निधानतो इध एवं सद्देन पकासितोति विञ्ञायति । यथा चेत्थ एवं उपमाकारादयोपि उपमादिवसेन वृत्तानं पुप्फरासिआदिसद्दानं सन्निधानतोति दट्ठब्बं । एवञ्च वदेहीति " यथाहं वदामि, एवं समणं आनन्दं वदेही "ति वदनाकारो इदानि वत्तब्बो एवं सद्देन निदस्सीयतीति निदस्सनत्थो वुत्तो। एवं नोति एत्थापि तेसं यथावुत्तधम्मानं अहितदुक्खावभावे सन्निट्ठानजननत्थं अनुमतिग्गहणवसेन “संवत्तन्ति, नो वा, कथं वा एत्थ होती 'ति पुच्छाय कताय " एवं नो एत्थ होती "ति वुत्तत्ता तदाकारसन्निट्टानं एवं सद्देन विभावितन्ति विञ्ञायति, सो पन तेसं धम्मानं अहिताय दुक्खाय संवत्तनाकारो नियमियमानो
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गटीका
(१.१-१)
अवधारणत्थो होतीति आह "एवं नो एत्थ होतीति आदीसु अवधारणे'ति । एवं भन्तेति पन धम्मस्स साधुकं सवनमनसिकारे सन्नियोजितेहि भिक्खूहि अत्तनो तत्थ ठितभावस्स पटिजाननवसेन वुत्तत्ता एत्थ एवं-सद्दो वचनसम्पटिच्छनत्थो वुत्तो, तेन एवं भन्ते, साधु भन्ते, सुट्ठ भन्तेति वुत्तं होति ।
नानानयनिपुणन्ति एकत्तनानत्तअब्यापारएवंधम्मतासङ्घाता, नन्दियावट्ट तिपुक्खलसीहविक्कीळितअङ्कुसदिसालोचनसङ्खाता वा आधारादिभेदवसेन नानाविधा नया नानानया, नया वा पाळिगतियो, ता च पञत्तिअनुपञत्तिआदिवसेन संकिलेसभागियादिलोकियादितदुभयवोमिस्सतादिवसेन कुसलादिवसेन खन्धादिवसेन सङ्गहादिवसेन समयविमुत्तादिवसेन ठपनादिवसेन कुसलमूलादिवसेन तिकपट्टानादिवसेन च नानप्पकाराति नानानया, तेहि निपुणं सण्हसुखुमन्ति नानानयनिपुणं । आसयोव अज्झासयो, ते च सस्सतादिभेदेन, तत्थ च अप्परजक्खतादिवसेन अनेका, अत्तज्झासयादयो एव वा समुट्ठानं उप्पत्तिहेतु एतस्साति अनेकज्झासयसमुट्ठानं। अत्थव्यञ्जनसम्पन्नन्ति अत्थब्यञ्जनपरिपुण्णं उपनेतब्बाभावतो, सङ्कासनपकासनविवरणविभजनउत्तानीकरणपत्तिवसेन छहि अत्थपदेहि, अक्खरपदब्यञ्जनाकारनिरुत्तिनिद्देसवसेन छहि ब्यञ्जनपदेहि च समन्नागतन्ति वा अत्थो दट्ठब्बो।
विविधपाटिहारियन्ति एत्थ पाटिहारियपदस्स वचनत्थं “पटिपक्खहरणतो रागादिकिलेसापनयनतो पाटिहारियन्ति वदन्ति । भगवतो पन पटिपक्खा रागादयो न सन्ति, ये हरितब्बा। पुथुज्जनानम्पि विगतूपक्किलेसे अट्ठगुणसमन्नागते चित्ते हतपटिपक्खे इद्धिविधं पवत्तति, तस्मा तत्थ पवत्तवोहारेन च न सक्का इध “पाटिहारिय"न्ति वत्तुं । सचे पन महाकारुणिकस्स भगवतो वेनेय्यगता च किलेसा पटिपक्खा, तेसं हरणतो "पाटिहारियन्ति वत्तं. एवं सति यत्तमेतं । अथ वा भगवतो च सासनस्स च पटिपक्खा तित्थिया, तेसं हरणतो पाटिहारियं। ते हि दिट्ठिहरणवसेन, दिट्ठिप्पकासने असमत्थभावेन च इद्धिआदेसनानुसासनीहि हरिता अपनीता होन्तीति । “पटी"ति वा अयं सद्दो “पच्छा''ति एतस्स अत्थं बोधेति "तस्मिं पटिपविठ्ठम्हि, अञ्जो आगच्छि ब्राह्मणो''तिआदीसु विय, तस्मा समाहिते चित्ते, विगतूपक्किलेसे च कतकिच्चेन पच्छा हरितब्बं पवत्तेतब्बन्ति पटिहारियं, अत्तनो वा उपक्किलेसेसु चतुत्थज्झानमग्गेहि हरितेसु पच्छा हरणं पटिहारियं । इद्धिआदेसनानुसासनियो च विगतूपक्किलेसेन, कतकिच्चेन च सत्तहितत्थं पुन पवत्तेतब्बा, हरितेसु च अत्तनो उपक्किलेसेसु परसत्तानं
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(१.१-१)
परिब्बाजककथावण्णना
उपक्किलेसहरणानि होन्तीति पटिहारियानि भवन्ति । पटिहारियमेव पाटिहारियं। पटिहारिये वा इद्धिआदेसनानुसासनीसमुदाये भवं एकेकं “पाटिहारिय"न्ति वुच्चति । पटिहारियं वा चतुत्थज्झानं मग्गो च पटिपक्खहरणतो, तत्थ जातं, तस्मिं वा निमित्तभूते, ततो वा आगतन्ति पाटिहारियं। तस्स पन इद्धिआदिभेदेन विसयभेदेन च बहुविधस्स भगवतो देसनाय लब्भमानत्ता आह “विविधपाटिहारियन्ति ।
न अथाति भगवतो सम्मुखा सुताकारतो न अञथाति अत्थो, न पन भगवतो देसिताकारतो । अचिन्तेय्यानुभावा हि भगवतो देसना । एवञ्च कत्वा “सब्बप्पकारेन को समत्थो विज्ञातु"न्ति इदं वचनं समत्थितं होति । धारणबलदस्सनञ्च न विरुज्झति सुताकाराविरज्झनस्स अधिप्पेतत्ता। न हेत्थ अत्थन्तरतापरिहारो द्विन्नम्पि अत्थानं एकविसयत्ता, इतरथा थेरो भगवतो देसनाय सब्बथा पटिग्गहणे समत्थो असमत्थो चाति आपज्जेय्याति ।
“यो परो न होति, सो अत्ताति एवं वुत्ताय नियकज्झत्तसङ्घाताय ससन्ततियं वत्तनतो तिविधोपि मे-सद्दो किञ्चापि एकस्मिंयेव अत्थे दिस्सति, करणसम्पदानसामिनिद्देसवसेन पन विज्जमानभेदं सन्धायाह "मे-सद्दो तीसु अत्थेसु दिस्सती'ति ।
किञ्चापि उपसग्गो किरियं विसेसेति, जोतकभावतो पन सतिपि तस्मिं सुत-सद्दो एव तं तमत्थं अनुवदतीति अनुपसग्गस्स सुत-सद्दस्स अत्थुद्धारे सउपसग्गस्स गहणं न विरुज्झतीति दस्सेन्तो "सउपसग्गो च अनुपसग्गो चा"ति आह । अस्साति सुत-सद्दस्स । कम्मभावसाधनानि इध सुत-सद्दे सम्भवन्तीति वुत्तं "उपधारितन्ति वा उपधारणन्ति वा अत्थो"ति । मयाति अत्थे सतीति यदा मेसद्दस्स कत्तुवसेन करणनिद्देसो, तदाति अत्थो । ममाति अत्थे सतीति यदा सम्बन्धवसेन सामिनिद्देसो, तदा ।
सुतसद्दसन्निधाने पयुत्तेन एवंसद्देन सवनकिरियाजोतकेन भवितब्बन्ति वुत्तं "एवन्ति सोतविजाणादिविज्ञाणकिच्चनिदस्सन"न्ति । आदि-सद्देन सम्पटिच्छनादीनं पञ्चद्वारिकविज्ञाणानं तदभिनिहटानञ्च मनोद्वारिकविाणानं गहणं वेदितब्बं । सब्बेसम्पि वाक्यानं एवकारत्थसहितत्ता "सुत"न्ति एतस्स सुतं एवाति अयमत्थो लब्भतीति आह "अस्सवनभावपटिक्खेपतो"ति, एतेन अवधारणेन निराकतं दस्सेति । यथा च सुतं सुतं
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गटीका
एवाति नियमेतब्बं, तं सम्मा सुतं होतीति आह “अनूनाधिकाविपरीतग्गहणनिदस्सन "न्ति । अथ वा “सद्दन्तरत्थापोहनवसेन सद्दो अत्थं वदतीति सुतन्ति असुतं न होतीति अयमेतस्स अत्थोति वृत्तं "अस्सवन भावपटिक्खेपतो "ति, इमिना दिट्ठादिविनिवत्तनं करोति । इदं वृत्तं होति । न इदं मया दिट्ठ, न सयम्भुञाणेन सच्छिकतं, अथ खो सुतं, तञ्च खो सम्मदेवाति । तेनेवाह " अनूनाधिकाविपरीतग्गहणनिदस्सन "न्ति । अवधारणत्थे वा एवं सद्दे अयं अत्थयोजना करीयतीति तदपेक्खस्स सुत - सद्दस्स अयमत्थो वुत्तो “अस्सवनभावपटिक्खेपतो 'ति । तेनेव आह “अनूनाधिकाविपरीतग्गहणनिदस्सन "न्ति । सवनसद्दो चेत्थ कम्मत्थो वेदितब्बो सुय्यतीति ।
एवं सवनहेतुसुणन्तपुग्गलसवनविसेसवसेन पदत्तयस्स एकेन पकारेन अत्थयोजनं दस्सेत्वा इदानि पकारन्तरेहिपि तं दस्सेतुं “तथा एव ' "न्तिआदि वृत्तं । तत्थ तस्सा सा भगवतो सम्मुखा धम्मस्सवनाकारेन पवत्ता मनोद्वारविञ्ञाणवीथि, तस्सा । साहि नानप्पकारेन आरम्मणे पवत्तितुं समत्था । तथा च वृत्तं "सोतद्वारानुसारेना "ति । नानप्पकारेनाति वक्खमानानं अनेकविहितानं ब्यञ्जनत्थग्गहणानानाकारेन, एतेन इमिस्सा योजनाय आकारत्थो एवं सद्दो गहितोति दीपेति । पवत्तिभावप्पकासनन्ति पवत्तिया अत्थिभावप्पकासनं । “सुतन्ति धम्मप्पकासन "न्ति यस्मिं आरम्मणे वृत्तप्पकारा विञ्ञाणवीथि नानप्पकारेन पवत्ता, तस्स धम्मत्ता वुत्तं, न सुतसद्दस्स धम्मत्थत्ता । वुत्तस्सेवत्थस्स पाकटीकरणं "अयञ्हेत्था "तिआदि । तत्थ विञ्ञाणवीथियाति करणत्थे करणवचनं । मयाति थुत्थे ।
( १.१ - १)
“एवन्ति निद्दिसितब्बप्पकासन "न्ति निदरसनत्थं एवं सद्दं गत्वा वुत्तं निदस्सेतब्बस्स निद्दिसितब्बत्ताभावाभावतो, तेन एवं सद्देन सकलम्पि सुत्तं पच्चामट्ठन्ति दस्सेति । सुत - सद्दस किरियासद्दत्ता, सवनकिरियाय च साधारणविञ्ञाणप्पबन्धपटिबद्धत्ता तत्थ च पुग्गलवोहारोति वृत्तं “सुतन्ति पुग्गलकिच्चप्पकासन "न्ति । न हि पुग्गलवोहाररहिते धम्मप्पबन्धे सवनकिरिया लब्भतीति ।
“यस्स चित्तसन्तानस्सा "तिआदिपि आकारत्थमेव एवं सद्दं गत्वा पुरिमयोजनाय अञ्ञथा अत्थयोजनं दस्सेतुं वृत्तं । तत्थ आकारपञ्ञत्तीति उपादापञ्ञत्ति एव, धम्मानं पवत्तिआकारुपादानवसेन तथा वृत्ता । " सुतन्ति विसयनिद्देसो" ति सोतब्बभूतो धम्मो सवनकिरियाकत्तुपुग्गलस्स सवनकिरियावसेन तं ।
पवत्तिट्ठानन्ति
कत्वा
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(१.१-१)
परिब्बाजककथावण्णना
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चित्तसन्तानविनिमुत्तस्स परमत्थतो. कस्सचि कत्तु अभावेपि सद्दवोहारेन बुद्धिपरिकप्पितभेदवचनिच्छाय चित्तसन्तानतो अनं विय तंसमङ्गिं कत्वा वुत्तं "चित्तसन्तानेन तंसमङ्गिनो"ति । सवनकिरियाविसयोपि सोतब्बधम्मो सवनकिरियावसेन पवत्तचित्तसन्तानस्स इध परमत्थतो कत्तुभावतो, सवनवसेन चित्तप्पवत्तिया एव वा सवनकिरियाभावतो तंकिरियाकत्तु च विसयो होतीति कत्वा वुत्तं "तंसमङ्गिनो कत्तु विसये"ति । सुताकारस्स च थेरस्स सम्मानिच्छितभावतो आह "गहणसनिद्वान"न्ति, एतेन वा अवधारणत्थं एवं-सदं गहेत्वा अयं अत्थयोजना कताति दट्ठब्बं ।
पुब्बे सुतानं नानाविहितानं सुत्तसङ्घातानं अत्थब्यञ्जनानं उपधारितरूपस्स आकारस्स निदस्सनस्स अवधारणस्स वा पकासनसभावो एवं-सद्दोति तदाकारादिउपधारणस्स पुग्गलपञत्तिया उपादानभूतधम्मप्पबन्धब्यापारताय वुत्तं "एवन्ति पुग्गलकिच्चनिद्देसो"ति । सवनकिरिया पन पुग्गलवादिनोपि विज्ञाणनिरपेक्खा नत्थीति विसेसतो विज्ञाणब्यापारोति आह "सुतन्ति विज्ञाणकिच्चनिद्देसो'ति । मेति सद्दप्पवत्तिया एकन्तेनेव सत्तविसयत्ता, विज्ञाणकिच्चस्स च तत्थेव समोदहितब्बतो "मेति उभयकिच्चयुत्तपुग्गलनिदेसो"ति वुत्तं । अविज्जमानपञत्तिविज्जमानपञत्तिसभावा यथाक्कम एवं-सद्द सुत-सद्दानं अत्थाति ते तथारूपपञत्तिउपादानब्यापारभावेन दस्सेन्तो आह "एवन्ति पुग्गलकिच्चनिद्देसो। सुतन्ति विज्ञाणकिच्चनिद्देसो"ति । एत्थ च करणकिरियाकत्तुकम्मविसेसप्पकासनवसेन पुग्गलब्यापारविसयपुग्गलब्यापारनिदस्सनवसेन गहणाकारगाहकतब्बिसयविसेसनिद्देसवसेन कत्तुकरण ब्यापारकत्तुनिद्देसवसेन च दुतियादयो चतस्सो अत्थयोजना दस्सिताति दट्ठब्बं ।
सब्बस्सापि सद्दाधिगमनीयस्स अत्थस्स पत्तिमुखेनेव पटिपज्जितब्बत्ता, सब्बपञत्तीनञ्च विज्जमानादिवसेन छसु पञत्तिभेदेसु अन्तोगधत्ता तेसु “एव"न्तिआदीनं पञ्ञत्तीनं सरूपं निद्धारेन्तो आह "एवन्ति च मेति चा"तिआदि । तत्थ एवन्ति च मेति च वुच्चमानस्स अत्थस्स आकारादिनो, धम्मानञ्च असल्लक्खणभावतो अविज्जमानपञत्तिभावोति आह “सच्चिकट्ठपरमत्थवसेन अविज्जमानपञत्ती"ति । तत्थ सच्चिकट्ठपरमत्थवसेनाति भूतत्थउत्तमत्थवसेन । इदं वुत्तं होतियो मायामरीचिआदयो विय अभूतत्थो, अनुस्सवादीहि गहेतब्बो विय अनुत्तमत्थो च न होति, सो रूपसद्दादिसभावो रुप्पनानुभवनादिसभावो वा अत्थो “सच्चिकट्ठो, परमत्थ चा"ति वुच्चति, न तथा एवं मेति पदानमत्थोति, एतमेवत्थं पाकटतरं कातुं "किव्हेत्थ त"न्तिआदि वुत्तं । सुतन्ति पन सद्दायतनं सन्धायाह "विज्जमानपञत्ती"ति । तेनेव हि "यहि तमेत्थ सोतेन उपलद्ध"न्ति
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गटीका
वुत्तं, "सोतद्वारानुसारेन उपलद्ध "न्ति पन वुत्ते अत्थब्यञ्जनादिसब्बं लब्भति । तं तं उपादाय वत्तब्बतोति सोतपथं आगते धम्मे उपादाय तेसं उपधारिताकारादिनो पच्चामसनवसेन “ एव"न्ति, ससन्ततिपरियापन्ने खन्धे उपादाय "मे" ति वत्तब्बत्ताति अत्थो । दिट्ठादिभावरहिते सद्दायतने पवत्तमानोपि सुतवोहारो “दुतियं ततियन्तिआदिको विय पठमादीनि दिट्ठमुतविञ्ञाते अपेक्खित्वा पवत्तोति आह “ दिट्ठादीनि उपनिधाय वत्तब्बतो 'ति । असुतं न होतीति हि " सुत "न्ति पकासितो यमत्थोति ।
अत्तना पटिविद्धा सुत्तस्स पकारविसेसा " एव "न्ति थेरेन पच्चामट्ठाति आह “ असम्मोहं दीपेती" ति । "नानप्पकारपटिवेधसमत्थो होती "ति एतेन वक्खमानस्स सुत्तस्स नानप्पकारतं दुप्पटिविज्झतञ्च दस्सेति । “सुतस्स असम्मोसं दीपेती "ति सुताकारस्स याथावतो दस्सियमानत्ता वृत्तं । असम्मोहेनाति सम्मोहाभावेन, पञ्ञाय एव वा सवनकालसम्भूताय तदुत्तरकालपञ्ञसिद्धि एवं असम्मोसेनाति एत्थापि वत्तब्बं । ब्यञ्जनानं पटिविज्झितब्बो आकारो नातिगम्भीरो, यथासुतधारणमेव तत्थ करणीयन्ति सतिया ब्यापारो अधिको, पञ्ञा तत्थ गुणीभूताति वुत्तं " पञ्ञपुब्बङ्गमाया' "तिआदि पञ्ञाय पुब्बङ्गमाति कत्वा । पुब्बङ्गमता चेत्थ पधानभावो "मनोपुब्बङ्गमा 'तिआदीसु विय, पुब्बङ्गमताय वा चक्खुविञणादीसु आवज्जनादीनं विय अप्पधानत्ते पञ्ञ पुब्बङ्गमा एतिस्साति अयम्प अत्थो युज्जति, एवं “सतिपुब्बङ्गमाया " ति एत्थापि वृत्तनयानुसारेन यथासम्भवमत्थो वेदितब्बो | अत्थब्यञ्जनसम्पन्नस्साति अत्थब्यञ्जनपरिपुण्णस्स, सङ्कासनपकासनविवरणविभजनउत्तानीकरणपञ्ञत्तिवसेन छहि अत्थपदेहि, अक्खरपदब्यञ्जनाकारनिरुत्तिनिद्देसवसेन छहि ब्यञ्जनपदेहि च समन्नागतस्साति वा अत्थो दट्ठब्बो ।
( १.१ - १)
योनिसोमनसिकारं दीपेतीति एवं सद्देन वुच्चमानानं आकारनिदस्सनावधारणत्थानं अविपरीतसद्धम्मविसयत्ताति अधिप्पायो । “अविक्खेपं दीपेतीति "ब्रह्मजालं कत्थ भासित ''न्तिआदि पुच्छावसेन पकरणप्पत्तस्स वक्खमानस्स सुत्तस्स सवनं समाधानमन्तरेन न सम्भवतीति कत्वा वृत्तं । “विक्खित्तचित्तस्सा" तिआदि तस्सेवत्थस्स समत्थनवसेन वृत्तं । सब्बसम्पत्तियाति अत्थब्यञ्जनदेसकपयोजनादिसम्पत्तिया । अविपरीतसद्धम्मविसयेहि विय आकारनिदस्सनावधारणत्थेहि योनिसोमनसिकारस्स, सद्धम्मस्सवनेन विय च अविक्खेपस्स यथा योनिसोमनसिकारेन फलभूतेन अत्तसम्मापणिधिपुब्बेकतपुञ्ञतानं सिद्धि वुत्ता तदविनाभावतो, एवं अविक्खेपेन फलभूतेन कारणभूतानं सद्धम्मस्सवनसप्पुरिसूपनिस्सयानं सिद्धि दस्सेतब्बा सिया अस्सुतवतो, सप्पुरिसूपनिस्सयरहितस्स च तदभावतो ।
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(१.१-१)
परिब्बाजककथावण्णना
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"न हि विक्खित्तचित्तो'तिआदिना समत्थनवचनेन पन अविक्खेपेन कारणभूतेन सप्पुरिसूपनिस्सयेन च फलभूतस्स सद्धम्मस्सवनस्स सिद्धि दस्सिता । अयं पनेत्थ अधिप्पायो युत्तो सियासद्धम्मस्सवनसप्पुरिसूपनिस्सया न एकन्तेन अविक्खेपस्स कारणं बाहिरङ्गत्ता, अविक्खेपो पन सप्पुरिसूपनिस्सयो विय सद्धम्मस्सवनस्स एकन्तकारणन्ति । एवम्पि अविक्खेपेन सप्पुरिसूपनिस्सयसिद्धिजोतना न समत्थिताव, नो न समत्थिता विक्खित्तचित्तानं सप्पुरिसपयिरुपासनाभावस्स अत्थसिद्धत्ता । एत्थ च पुरिमं फलेन कारणस्स सिद्धिदस्सनं नदीपूरेन विय उपरि वुट्ठिसब्भावस्स, दुतियं कारणेन फलस्स सिद्धिदस्सनं दट्ठब्बं एकन्तेन वस्सिना विय मेघवुट्ठानेन वुट्टिप्पवत्तिया।
भगवतो वचनस्स अत्थव्यञ्जनपभेदपरिच्छेदवसेन सकलसासनसम्पत्तिओगाहनाकारो निरवसेसपरहितपारिपूरिकारणन्ति वुत्तं "एवं भद्दको आकारो"ति । यस्मा न होतीति सम्बन्धो । पच्छिमचक्कद्वयसम्पत्तिन्ति अत्तसम्मापणिधिपुब्बेकतपुञतासङ्खातं गुणद्वयं । अपरापरं वुत्तिया चेत्थ चक्कभावो, चरन्ति एतेहि सत्ता सम्पत्तिभवेसूति वा। ये सन्धाय वुत्तं "चत्तारिमानि भिक्खवे चक्कानि, येहि समन्नागतानं देवमनुस्सानं चतुचक्कं वत्तती"तिआदि। पुरिमपच्छिमभावो चेत्थ देसनाक्कमवसेन दट्टब्बो । पच्छिमचक्कद्वयसिद्धियाति पच्छिमचक्कद्वयस्स अत्थिताय । सम्मापणिहितत्तो पुब्बे च कतपुञो सुद्धासयो होति तदसुद्धिहेतूनं किलेसानं दूरीभावतोति आह "आसयसुद्धि सिद्धा होती"ति । तथा हि वुत्तं “सम्मापणिहितं चित्तं, सेय्यसो नं ततो करे"ति, “कतपुओसि त्वं आनन्द, पधानं अनुयुज खिप्पं होहिसि अनासवोति च । तेनेवाह “आसयसुद्धिया अधिगमव्यत्तिसिद्धी"ति । पयोगसुद्धियाति योनिसोमनसिकारपुब्बङ्गमस्स धम्मस्सवनपयोगस्स विसदभावेन। तथा चाह "आगमब्यत्तिसिद्धीति | सब्बस्स वा कायवचीपयोगस्स निदोसभावेन | परिसुद्धकायवचीपयोगो हि विप्पटिसाराभावतो अविक्खित्तचित्तो परियत्तियं विसारदो होतीति ।
"नानप्पकारपटिवेधदीपकेना''तिआदिना अत्थब्यञ्जनेसु थेरस्स एवं-सद्द सुत-सद्दानं असम्मोहासम्मोसदीपनतो चतुपटिसम्भिदावसेन अत्थयोजनं दस्सेति। तत्थ "सोतब्बप्पभेदपटिवेधदीपकेना"ति एतेन अयं सुत-सद्दो एवं सद्दसन्निधानतो, वक्खमानापेक्खाय वा सामञ्जेनेव सोतब्बधम्मविसेसं आमसतीति दस्सेति । मनोदिट्टिकरणापरियत्तिधम्मानं अनुपेक्खनसुप्पटिवेधा विसेसतो मनसिकारपटिबद्धाति ते वुत्तनयेन योनिसोमनसिकारदीपकेन एवं-सद्देन योजेत्वा, सवनधारणवचीपरिचया
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गटीका
(१.१-१)
परियत्तिधम्मानं विसेसेन सोतावधानपटिबद्धाति ते अविक्खेपदीपकेन सुत-सद्देन योजेत्वा दस्सेन्तो सासनसम्पत्तिया धम्मस्सवने उस्साहं जनेति । तत्थ धम्माति परियत्तिधम्मा । मनसानुपेक्खिताति “इध सीलं कथितं, इध समाधि, इध पञा, एत्तका एत्थ अनुसन्धियो'"तिआदिना नयेन मनसा अनुपेक्खिता। दिदिया सुष्पटिविद्धाति निज्झानक्खन्तिभूताय, आतपरिज्ञासङ्घाताय वा दिट्ठिया तत्थ तत्थ वुत्तरूपारूपधम्मे “इति रूपं, एत्तकं रूप''न्तिआदिना सुटु ववत्थपेत्वा पटिविद्धा ।
"सकलेन वचनेना"ति पुब्बे तीहि पदेहि विसुं विसुं योजितत्ता वुत्तं । असप्पुरिसभूमिन्ति अकत तं “इधेकच्चो पापभिक्खु तथागतप्पवेदितं धम्मविनयं परियापुणित्वा अत्तनो दहती"ति एवं वुत्तं अनरियवोहारावत्थं । सा एव अनरियवोहारावत्था असद्धम्मो। ननु च आनन्दत्थेरस्स “ममेदं वचन"न्ति अधिमानस्स, महाकस्सपत्थेरादीनञ्च तदासङ्काय अभावतो असप्पुरिसभूमिसमतिक्कमादिवचनं निरत्थकं ति? नयिदं एवं “एवं मे सुत''न्ति वदन्तेन अयम्पि अत्थो विभावितोति दस्सनतो । केचि पन “देवतानं परिवितक्कापेक्खं तथावचनन्ति एदिसी चोदना अनवकासा''ति वदन्ति । तस्मिं किर खणे एकच्चानं देवतानं एवं चेतसो परिवितक्को उदपादि "तथागतो च परिनिब्बुतो, अयञ्च आयस्मा देसनाकुसलो, इदानि धम्मं देसेति, सक्यकुलप्पसुतो तथागतस्स भाता चूळपितुपुत्तो, किं नु खो सयं सच्छिकत धम्म देसेति, उदाहु भगवतोयेव वचनं यथासुत"न्ति । एवं तदासङ्कितप्पकारतो असप्पुरिसभूमिसमोक्कमादितो अतिक्कमादि विभावितन्ति । अत्तनो अदहन्तोति “ममेत''न्ति अत्तनि अट्ठपेन्तो। अप्पेतीति निदस्सेति | दिठ्ठधम्मिकसम्परायिकपरमत्थेसु यथारहं सत्ते नेतीति नेत्ति, धम्मोयेव नेत्ति धम्मनेत्ति ।
___ दळहतरनिविट्ठा विचिकिच्छा कसा। नातिसंसप्पनं मतिभेदमत्तं विमति। अस्सद्वियं विनासेति भगवतो देसितत्ता, सम्मुखा चस्स पटिग्गहितत्ता, खलितदुरुत्तादिग्गहणदोसाभावतो च। एत्थ च पठमादयो तिस्सो अत्ययोजना आकारादिअत्थेसु अग्गहितविसेसमेव एवं-सदं गहेत्वा दस्सिता, ततो परा तिस्सो आकारत्थमेव एवं-सदं गहेत्वा विभाविता। पच्छिमा पन तिस्सो यथाक्कम आकारत्थं निदस्सनत्थं अवधारणत्थञ्च एवं सदं गहेत्वा योजिताति दट्टब्बं ।
एक-सद्दो अञसेट्ठासहायसङ्ख्यदीसु दिस्सति । तथाहेस “सस्सतो अत्ता च लोको
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परिब्बाजककथावण्णना
च, इदमेव सच्चं मोघमञन्ति इत्थेके अभिवदन्ती"तिआदीसु अञ्जत्थे दिस्सति, “चेतसो एकोदिभाव"न्तिआदीसु सेट्ठत्थे, "एको वूपकट्ठो"तिआदीसु असहाये, “एकोव खो भिक्खवे खणो च समयो च ब्रह्मचरियवासाया"तिआदीसु सङ्ख्ययं, इधापि सङ्ख्ययन्ति दस्सेन्तो आह "एकन्ति गणनपरिच्छेदनिद्देसो"ति । कालञ्च समयञ्चाति युत्तकालञ्च पच्चयसामग्गिञ्च । खणोति ओकासो। तथागतुप्पादादिको हि मग्गब्रह्मचरियस्स ओकासो तप्पच्चयपटिलाभहेतुत्ता। खणो एव च समयो। यो “खणो"ति च “समयो'"ति च वुच्चति, सो एको वाति हि अत्थो । महासमयोति महासमूहो । समयोपि खोति सिक्खापदपूरणस्स हेतुपि। समयप्पवादकेति दिट्ठिप्पवादके। तत्थ हि निसिन्ना तित्थिया अत्तनो अत्तनो समयं पवदन्तीति । अत्थाभिसमयाति हितपटिलाभा। अभिसमेतब्बोति अभिसमयो, अभिसमयो अत्थोति अभिसमयटोति पीळन आदीनि अभिसमेतब्बभावेन एकीभावं उपनेत्वा वुत्तानि । अभिसमयस्स वा पटिवेधस्स विसयभूतभावो अभिसमयट्ठोति तानेव तथा एकत्तेन वुत्तानि । तत्थ पीळनं दुक्खसच्चस्स तं समझीनो हिंसनं अविप्फारिकताकरणं | सन्तापोदुक्खदुक्खतादिवसेन सन्तापनं परिदहणं ।
तत्थ सहकारीकारणं सन्निज्झ समेति समवेतीति समयो, समवायो। समेति समागच्छति मग्गब्रह्मचरियमेत्थ तदाधारपुग्गलेहीति समयो, खणो। समेति एत्थ, एतेनव संगच्छति सत्तो, सभावधम्मो वा सहजातादीहि, उप्पादादीहि वाति समयो, कालो। धम्मप्पवत्तिमत्तताय अत्थतो अभूतोपि हि कालो धम्मप्पवत्तिया अधिकरणं, करणं विय च कप्पनामत्तसिद्धेन रूपेन वोहरीयतीति । समं, सह वा अवयवानं अयनं पवत्ति अवट्ठानन्ति समयो, समूहो, यथा “समुदायो"ति । अवयवसहावट्ठानमेव हि समूहोति । अवसेसपच्चयानं समागमे एति फलं एतस्मा उप्पज्जति पवत्तति चाति समयो, हेतु यथा "समुदयो"ति। समेति संयोजनभावतो सम्बन्धो एति अत्तनो विसये पवत्तति, दळहग्गहणभावतो वा संयुत्ता अयन्ति पवत्तन्ति सत्ता यथाभिनिवेसं एतेनाति समयो, दिट्ठि। दिट्ठिसंयोजनेन हि सत्ता अतिविय बज्झन्तीति । समिति सङ्गति समोधानन्ति समयो, पटिलाभो । समस्स यानं, सम्मा वा यानं अपगमोति समयो, पहानं | अभिमुखं जाणेन एतब्बो अभिसमेतब्बोति अभिसमयो, धम्मानं अविपरीतो सभावो। अभिमुखभावेन सम्मा एति गच्छति बुज्झतीति अभिसमयो, धम्मानं यथाभूतसभावावबोधो । एवं तस्मिं तस्मिं अत्थे समय-सद्दस्स पवत्ति वेदितब्बा। समय-सद्दस्स अत्थुद्धारे अभिसमय-सद्दस्स उदाहरणं वुत्तनयेनेव वेदितब्बं । अस्साति समय-सद्दस्स । कालो अत्थो समवायादीनं
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गटीका
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(१.१-१)
अत्थानं इध असम्भवतो देसदेसकपरिसानं विय सुत्तस्स निदानभावेन कालस्स अपदिसितब्बतो च।
कस्मा पनेत्थ अनियामितवसेनेव कालो निद्दिवो, न उतुसंवच्छरादिवसेन नियमेत्वाति आह "तत्थ किञ्चापी"तिआदि । उतुसंवच्छरादिवसेन नियमं अकत्वा समय-सद्दस्स वचने अयम्पि गुणो लद्धो होतीति दस्सेन्तो “ये वा इमे"तिआदिमाह । सामञ्चजोतना हि विसेसे अवतिकृतीति । तत्थ दिट्ठधम्मसुखविहारसमयो देवसिकं झानसमापत्तीहि वीतिनामनकालो, विसेसतो सत्तसत्ताहानि। पकासाति दससहस्सिलोकधातुया पकम्पनओभासपातुभावादीहि पाकटा । यथावुत्तप्पभेदेसुयेव समयेसु एकदेसं पकारन्तरेहि सङ्गहेत्वा दस्सेतुं “यो चाय"न्तिआदिमाह। तथा हि आणकिच्चसमयो अत्तहितपटिपत्तिसमयो च अभिसम्बोधिसमयो। अरियतुण्हिभावसमयो दिट्ठधम्मसुखविहारसमयो। करुणाकिच्चपरहितपटिपत्तिधम्मिकथासमयो देसनासमयेव ।
करणवचनेन निद्देसो कतो यथाति सम्बन्धो । तत्थाति अभिधम्मविनयेसु । तथाति भुम्मकरणेहि । अधिकरणत्थ आधारत्थो । भावो नाम किरिया, किरियाय किरियन्तरलक्खणं भावेनभावलक्खणं। तत्थ यथा कालो सभावधम्मपरिच्छिन्नो सयं परमत्थतो अविज्जमानोपि आधारभावेन पञातो तङ्खणप्पवत्तानं ततो पुब्बे परतो च अभावतो "पुब्बण्हे जातो, सायन्हे गच्छती''ति, च आदीसु, समूहो च अवयवविनिमुत्तो अविज्जमानोपि कप्पनामत्तसिद्धो अवयवानं आधारभावेन पापीयति “रुक्खे साखा, यवरासियं सम्भूतो"तिआदीसु, एवं इधापीति दस्सेन्तो आह "अधिकरणव्हि...पे०... धम्मान"न्ति । यस्मिं काले, धम्मपुजे वा कामावचरं कुसलं चित्तं उप्पन्नं होति, तस्मिंयेव काले, धम्मपुजे च फस्सादयोपि होन्तीति अयहि तत्थ अत्थो । यथा च गावीसु दुय्हमानासु गतो, दुद्धासु आगतोति दोहनकिरियाय गमनकिरिया लक्खीयति, एवं इधापि “यस्मिं समये, तस्मिं समयेति च वुत्ते सतीति अयमत्थो विज्ञायमानो एव होति पदत्थस्स सत्ताविरहाभवतोति समयस्स सत्ताकिरियाय चित्तस्स उप्पादकिरिया, फस्सादीनं भवनकिरिया च लक्खीयति । यस्मिं समयेति यस्मिं नवमे खणे, योनिसोमनसिकारादिहेतुम्हि, पच्चयसमवाये वा सति कामावचरं कुसलं चित्तं उप्पन्नं होति, तस्मिंयेव खणे, हेतुम्हि, पच्चयसमवाये च सति फस्सादयोपि होन्तीति उभयत्थ समय-सद्दे भुम्मनिद्देसो कतो लक्खणभूतभावयुत्तोति दस्सेन्तो आह "खण...पे०... लक्खीयती"ति ।
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( १.१ - १)
परिब्बाजककथावण्णना
1
हेतु अत्थो करणत्थो च सम्भवति " अन्नेन वसति, अज्झेनेन वसति, फरसुना छिन्दति, कुदालेन खणती "तिआदीसु विय । वीतिक्कमहि सुत्वा भिक्खुस सन्निपातापेत्वा ओतिण्णवत्थुकं पुग्गलं पटिपुच्छित्वा विगरहित्वा च तं तं वत्युं ओतिण्णकालं अनतिक्कमित्वा तेनेव कालेन सिक्खापदानि पञ्ञपेन्तो भगवा विहरति सिक्खापदपञ्ञत्तिहेतुञ्च अपेक्खमानो ततियपाराजिकादीसु वियाति ।
अच्चन्तमेव
आरम्भतो पट्ठाय याव देसनानिट्ठानं परहितपटिपत्तिसङ्घातेन करुणाविहारेन । तदत्थजोतनत्थन्ति अच्चन्तसंयोगत्थजोतनत्थं । उपयोगवचननिद्देसो कतो यथा " मासं अज्झेती 'ति ।
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तेन
पोराणाति अट्ठकथाचरिया । अभिलापमत्तभेदोति वचनमत्तेन विसेसो | सुत्तविनयेसु विभत्तिब्यतयो कतोति दस्सेति ।
सेट्ठन्ति सेट्ठवाचकं वचनं सेट्ठन्ति वृत्तं सेट्ठगुणसहचरणतो । तथा उत्तमन्ति एत्थापि । गारवत्तोति गरुभावयुत्तो गरुगुणयोगतो, गरुकरणारहताय वा गारवयुत्तो ।
बुत्तोयेव न पन इध वत्तब्बो विसुद्धिमग्गस्स इमिस्सा अट्ठकथाय एकदेसभावतो ति अधिप्पायो ।
अपिच भगे वनि, वमीति वा भगवा, भगे सीलादिगुणे वनि भजि सेवि, ते वा विनेय्यसन्तानेसु “कथं नु खो उप्पज्जेय्यु "न्ति वनि याचि पत्थयीति भगवा, भगं वा सिरिं, इस्सरियं, यसञ्च वमि खेलपिण्डं विय छड्डयीति भगवा । तथा हि भगवा हत्थगतं सिरिं, चतुद्दीपिस्सरियं, चक्कवत्तिसम्पत्तिसन्निस्सयञ्च सत्तरतनसमुज्जलं यसं अनपेक्खो परिच्चजीति । अथ वा भानि नाम नक्खत्तानि तेहि समं गच्छन्ति पवत्तन्तीति भगा, सिनेरुयुगन्धरादिगता भाजनलोकसोभा । ते भगवा वमि तप्पटिबद्धछन्दरागप्पहानेन पजहतीति एवम्पि भगे वमीति भगवा |
“धम्मसरीरं पच्चक्खं करोती"ति “यो वो आनन्द मया धम्मो च विनयो च देसितो पञ्ञत्तो, सो वो ममच्चयेन सत्था "ति वचनतो धम्मस्स सत्थुभावपरियायो विज्जतीति कत्वा वृत्तं ।
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गटीका
(१.१-१)
वजिरसङ्घातसमानकायो परेहि अभेज्जसरीरत्ता। न हि भगवतो रूपकाये केनचि अन्तरायो सक्का कातुन्ति । देसनासम्पत्तिं निद्दिसति वक्खमानस्स सकलसुत्तस्स “एव"न्ति निद्दिसनतो। सावकसम्पत्तिं निद्दिसति पटिसम्भिदाप्पत्तेन पञ्चसु ठानेसु भगवता एतदग्गे ठपितेन मया महासावकेन सुतं, तञ्च खो मयाव सुतं, न अनुस्सवितं, न परम्पराभतन्ति इमस्सत्थस्स दीपनतो । कालसम्पत्तिं निद्दिसति “भगवा''ति पदस्स सन्निधाने पयुत्तस्स समय-सद्दस्स कालस्स बुद्धप्पादपटिमण्डितभावदीपनतो। बुद्धप्पादपरमा हि कालसम्पदा । तेनेतं वुच्चति
"कप्पकसाये कलियुगे, बुद्धप्पादो अहो महच्छरियं । हुतावहमज्झे जातं, समुदितमकरन्दमरविन्दन्ति ।।
भगवाति देसकसम्पत्तिं निद्दिसति गुणविसिट्ठसत्तुत्तमगारवाधिवचनतो।
विज्जन्तरिकायाति विज्जुनिच्छरणक्खणे। अन्तरतोति हदये । अन्तराति आरब्भ निष्फत्तीनं वेमज्झे । अन्तरिकायाति अन्तराळे । एत्थ च “तदन्तरं को जानेय्य, एतेसं अन्तरा कप्पा, गणनातो असङ्खिया, अन्तरन्तरा कथं ओपातेती"ति च आदीसु विय कारणवेमज्झेसु वत्तमाना अन्तरा-सद्दा एव उदाहरितब्बा सियुं, न पन चित्तखणविवरेसु वत्तमाना अन्तरन्तरिका-सद्दा । अन्तरा-सद्दस्स हि अयं अत्थुद्धारोति । अयं पनेत्थ अधिप्पायो सिया- येसु अत्थेसु अन्तरा-सद्दो वत्तति, तेसु अन्तरसद्दोपि वत्ततीति समानत्थत्ता अन्तरा-सद्दत्थे वत्तमानो अन्तर-सद्दो उदाहटो, अन्तरा-सद्दो एव वा “यस्सन्तरतो"ति एत्थ गाथासुखत्थं रस्सं कत्वा वुत्तोति दट्ठब्बं । अन्तरा-सद्दो एव पन इक-सद्देन पदं वड्डेत्वा “अन्तरिका"ति वुत्तोति एवमेत्थ उदाहरणोदाहरितब्बानं विरोधाभावो दट्ठब्बो । अयोजियमाने उपयोगवचनं न पापुणाति सामिवचनस्स पसङ्गे अन्तरा-सद्दयोगेन उपयोगवचनस्स इच्छितत्ता । तेनेवाह "अन्तरासद्देन युत्तत्ता उपयोगवचनं कत"न्ति ।
"नियतो सम्बोधिपरायणो, अट्ठानमेतं भिक्खवे अनवकासो, यं दिट्ठिसम्पन्नो पुग्गलो सञ्चिच्च पाणं जीविता वोरोपेय्य, “नेतं ठानं विज्जती" तिआदिवचनतो दिट्ठिसीलानं नियतसभावत्ता सोतापन्नापि अञमधे दिट्ठिसीलसामओन संहता, पगेव सकदागामिआदयो । “तथारूपाय दिट्ठिया दिट्ठिसामञ्जगतो विहरति, तथारूपेसु सीलेसु
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(१.१-१)
परिब्बाजककथावण्णना
सीलसामञ्जगतो विहरतीति वचनतो पुथुज्जनानम्पि दिविसीलसामञ्चेन संहतभावो लब्भतियेव।
सुप्पियोपि खोति एत्थ खो-सद्दो अवधारणत्यो “अस्सोसि खो"तिआदीसु विय । तेन अद्धानमग्गपटिपन्नो अहोसियेव, नास्स मग्गपटिपत्तिया कोचि अन्तरायो अहोसीति अयमत्थो दीपितो होति । तत्राति वा कालस्स पटिनिद्देसो। सोपि हि "एकं समयन्ति पुब्बे अधिकतो। यहि समयं भगवा अन्तरा राजगहञ्च नाळन्दञ्च अद्धानमग्गपटिपन्नो, तस्मिंयेव समये सुप्पियोपि तं मग्गं पटिपन्नो अवण्णं भासति, ब्रह्मदत्तो च वण्णं भासतीति । परियायति परिवत्ततीति परियायो, वारो । परियायेति देसेतब्बमत्थं पटिपादेतीति परियायो, देसना | परियायति अत्तनो फलं परिग्गहेत्वा पवत्ततीति परियायो, कारणन्ति एवं परियाय-सद्दस्स वारादीसु पवत्ति वेदितब्बा । कारणेनाति कारणपतिरूपकेन । तथा हि वक्खति “अकारणमेव कारणन्ति वत्वा"ति । कस्मा पनेत्थ “अवण्णं भासती"ति, “वण्णं भासती"ति च वत्तमानकालनिद्देसो कतो, ननु सङ्गीतिकालतो सो अवण्णवण्णानं भासितकालो अतीतोति ? सच्चमेतं, “अद्धानमग्गपटिपन्नो होती"ति एत्थ होति-सद्दो विय अतीतकालत्थो भासति-सद्दो च दट्टब्बो । अथ वा यस्मिं काले तेहि अवण्णो वण्णो च भासीयति, तं अपेक्खित्वा एवं वुत्तं । एवञ्च कत्वा “तत्राति कालस्स पटिनिद्देसो''ति इदञ्च वचनं समत्थितं होति ।
__ अकारणन्ति अयुत्तिं, अनुपपत्तिन्ति अत्थो । न हि अरसरूपतादयो दोसा भगवति संविज्जन्ति, धम्मसङ्घानञ्च दुरक्खातदुप्पटिपन्नतादयोति । अकारणन्ति वा युत्तकारणरहितं, पटिञआमत्तन्ति अधिप्पायो । इमस्मिञ्च अत्थे कारणन्ति वत्वाति कारणं वाति वत्वाति अत्थो। अरसरूपादीनञ्चेत्थ जातिवुड्डेसु अभिवादनादिसामीचिकम्माकरणं कारणं, तथा उत्तरिमनुस्सधम्मालमरियाणदस्सनाभावस्स सुन्दरिकामगुणादिनवबोधो, संसारस्स आदिकोटिया अपायनपटिआ, अब्याकतवत्थुब्याकरणन्ति एवमादयो, तथा असब्ब तादीनं कमावबोधादयो यथारहं निद्धारेतब्बा। तथा तथाति जातिवुड्डानं अनभिवादनादिआकारेन ।
अवण्णं भासमानोति अवण्णंभासनहेतु । हेतुअत्थो हि अयं मान-सद्दो। अनयव्यसनं पापुणिस्सति एकन्तमहासावज्जत्ता रतनत्तयोपवादस्स । तेनेवाह -
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गटीका
(१.१-१)
“यो निन्दियं पसंसति,
तं वा निन्दति यो पसंसियो। विचिनाति मुखेन सो कलिं,
कलिना तेन सुखं न विन्दती''ति ।।
"अम्हाकं आचरियो"तिआदिना ब्रह्मदत्तस्स संवेगुप्पत्तिं, अत्तनो आचरिये कारुञप्पवत्तिञ्च दस्सेत्वा किञ्चापि अन्तेवासिना आचरियस्स अनुकूलेन भवितबं, अयं पन पण्डितजातिकत्ता न एदिसेसु तं अनुवत्ततीति, इदानि तस्स कम्मस्सकतञाणप्पवत्तिं दस्सेन्तो “आचरिये खो पना"तिआदिमाह। वणं भासितुं आरद्धो “अपिनामायं एत्तकेनापि रतनत्तयावण्णतो ओरमेय्या"ति। वण्णीयतीति वण्णो, गुणो। वण्णनं गुणसङ्कित्तनन्ति वण्णो, पसंसा। संजूळ्हाति गन्थिता, निबन्धिताति अत्थो। अतित्थेन पक्खन्दो धम्मकथिकोति न वत्तब्बो अपरिमाणगुणत्ता बुद्धादीनं, निरवसेसानञ्च तेसं इध पकासनं पाळिसंवण्णनायेव सम्पज्जतीति । अनुस्सवादीति एत्थ आदि-सद्देन आकारपरिवितक्कदिट्ठिनिज्झानक्खन्तियो सङ्गण्हाति । अत्तनो थामेन वण्णं अभासि, न पन बुद्धादीनं गुणानुरूपन्ति अधिप्पायो। असङ्ख्यय्यापरिमितप्पभेदा हि बुद्धादीनं गुणा । वुत्तऽहेतं -
"बुद्धोपि बुद्धस्स भणेय्य वण्णं,
कप्पम्पि चे अञमभासमानो । खीयेथ कप्पो चिरदीघमन्तरे,
वण्णो न खीयेथ तथागतस्सा"ति ।।
इधापि वक्खति “अप्पमत्तकं खो पनेत"न्तिआदि ।
इति ह तेति एत्थ इतीति वुत्तप्पकारपरामसनं । ह-कारो निपातमत्तन्ति आह "एवं ते"ति ।
इरियापथानुबन्धनेन अनुबन्धा होन्ति, न पन सम्मापटिपत्तिअनुबन्धनेनाति अधिप्पायो । तस्मिं कालेति यस्मिं संवच्छरे उतुम्हि मासे पक्खे वा भगवा तं अद्धानमग्गं पटिपन्नो, तस्मिं काले । तेनेव हि किरियाविच्छेददस्सनवसेन "राजगहे पिण्डाय चरती"ति
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(१.२-२)
परिब्बाजककथावण्णना
वत्तमानकालनिद्देसो कतो । सोति एवं राजगहे वसमानो भगवा । तं दिवसन्ति यं दिवसं अद्धानमग्गपटिपन्नो, तं दिवसं । तं अद्धानं पटिपन्नो नालन्दायं वेनेय्यानं विविध हितसुखनिप्फत् आकङ्क्षमानो मिस्सा च अप्पत्तिया तिविधसीलालङ्कतं नानाविधकुहनलपनादिमिच्छाजीवविद्धंसनं द्वासट्ठिदिट्ठिजालविनिवेठनं दससहस्सिलोकधातुपकम्पनं ब्रह्मजालसुत्तन्तं देसेस्सामीति । एत्तावता " कस्मा पन भगवा तं अद्धानं पटिपन्नो”ति चोदना विसोधिता होति । " कस्मा च सुप्पियो अनुबन्धो 'ति अयं पन चोदना "भगवतो तं मग्गं पटिपन्नभावं अजानन्तो 'ति एतेन विसोधिता होति । न हि सो भगवन्तं दट्टुमेव इच्छतीति । तेनेवाह “सचे पन जानेय्य, नानुबन्धेय्या "ति ।
नीलपीतलोहितोदातमञ्जिट्ठपभस्सरवसेन " छब्बण्णरस्मियो । "समन्ता असीतिहत्थप्पमाणे”ति तासं रस्मीनं पकतिया पवत्तिट्ठानवसेन वुत्तं । " तस्मिं किर समये”ति च तस्मिं अद्धानगमनसमये बुद्धसिरिया अनिगूहितभावदस्सनत्थं वृत्तं । न हि तदा तस्सा निगूहने पक्कुसातिअभिगमनादीसु विय किञ्चिपि कारणं अत्थीति । रतनावेळ रतनवटंसकं । चीनपिट्ठचुण्णं सिन्धनणं
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ब्यामप्पभापरिक्खेपविलासिनी च अस्स भगवतो लक्खणमालाति महापुरिसलक्खणानि अञ्ञमञ्ञपटिबद्धत्ता एवमाह । द्वत्तिंसाय चन्दमण्डलानं माला केनचि गन्थेत्वा ठपिता यदि सियाति परिकप्पनवसेनाह “गन्थेत्वा ठपितद्वत्तिंसचन्दमालाया "ति । सिरिं अभिभवन्ती इवाति सम्बन्धो । एस नयो सूरियमालायाति आदीसुपि । महाथेराति महासावके सन्धायाह । एवं गच्छन्तं भगवन्तं भिक्खू च दिस्वा अथ अत्तनो परिसं अवलोकेसीति सम्बन्धी | " यस्मा पनेसा "तिआदिना "कस्मा च सो रतनत्तयस्स अवण्णं भासती "ति चोदनं विसोधेति । इतीति एवं वुत्तप्पकारेनाति अत्थो । इमेहि द्वीहीति लाभपरिवारहानं निगमनवसेन दस्सेति। भगवतो विरोधानुनयाभाववीमंसनत्थं एते अवण्णं वण्णञ्च भासन्तीति अपरे । “ मारेन अन्वाविट्ठा एवं करोन्तीति च वदन्ति ।
२. अम्बलट्टिकाय अविदूरे भवत्ता उय्यानं अम्बलट्ठिका यथा “वरुणानगरं, गोदागामो 'ति । केचि पन " अम्बलठ्ठिकाति यथावुत्तनयेनेव एकगामी 'ति वदन्ति । तेसं मते अम्बलट्ठिकायन्ति समीपत्थे भुम्मवचनं । राजागारकं वेस्सवणमहाराजदेवायतनन्ति एके । बहुपरिस्सयोति बहुपद्दवो । “सद्धिं अन्तेवासिना ब्रह्मदत्तेन माणवेना "ति वृत्तं सीहळट्ठकथायं । तञ्च खो पाळि आरुळहवसेनेव न पन तदा सुप्पियस्स परिसाय अभावतो । कस्मा
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गटीका
(१.३-३)
पनेत्थ ब्रह्मदत्तोयेव पाळि आरुळहो, न सुप्पियस्स परिसाति ? पयोजनाभावतो। यथा चेतं, एवं अझम्पि एदिसं पयोजनाभावतो सङ्गीतिकारेहि न सङ्गहितन्ति दट्ठब् । केचि पन “वृत्तन्ति पाळियं वुत्त''न्ति वदन्ति, तं न युज्जति पाळिआरुळहवसेन पाळियं वुत्तन्ति आपज्जनतो। तस्मा यथावुत्तनयेनेवेत्थ अत्थो गहेतब्बो। परिवारेत्वा निसिन्नो होतीति सम्बन्धो।
३. कथाधम्मोति कथासभावो, कथाधम्मो उपपरिक्खाविधीति केचि । नीयतीति नयो, अत्थो। सद्दसत्थं अनुगतो नयो सद्दनयो। तत्थ हि अनभिण्हवुत्तिके अच्छरिय-सद्दो इच्छितो। तेनेवाह “अन्धस्स पब्बतारोहणं विया"ति। अछरायोग्गन्ति अच्छरियन्ति निरुत्तिनयो, सो पन यस्मा पोराणट्ठकथायं आगतो, तस्मा आह “अट्ठकथानयोति । यावञ्चिदं सुप्पटिविदिताति सम्बन्धो, तस्स यत्तकं सुट्ठ पटिविदिता, तं एत्तकन्ति न सक्का अम्हेहि पटिविज्झितुं, अक्खातुं वाति अत्थो। तेनेवाह "तेन सुष्पटिविदितताय अप्पमेय्यतं दस्सेती"ति।
पकतत्थपटिनिद्देसो तं-सद्दोति तस्स "भगवता"तिआदीहि पदेहि समानाधिकरणभावेन वुत्तस्स येन अभिसम्बुद्धभावेन भगवा पकतो सुपाकटो च होति, तं अभिसम्बुद्धभावं सद्धिं आगमनपटिपदाय अत्थभावेन दस्सेन्तो “यो सो...पे०... अभिसम्बुद्धो"ति आह । सतिपि आणदस्सन-सद्दानं इध पञ्जावेवचनभावे तेन तेन विसेसेन नेसं सविसयविसेसप्पवत्तिदस्सनत्थं असाधारणआणविसेसवसेन विज्जत्तयवसेन विज्जाभिञानावरणवसेन सब्ब ताणमंसचक्खुवसेन पटिवेधदेसनाजाणवसेन च तदत्थं योजेत्वा दस्सेन्तो “तेसं तेस"न्तिआदिमाह। तत्थ आसयानुसयं जानता आसयानुसयाणेन। सब्बत्रेय्यधम्मं पस्सता सब्ब तानावरणजाणेहि ।
पुब्बेनिवासादीहीति पुब्बेनिवासासवक्खयजाणेहि। पटिवेधपञ्जायाति अरियमग्गपञ्जाय। अरीनन्ति किलेसारीनं, पञ्चविधमारानं वा, सासनपच्चत्थिकानं वा अतिथियानं, तेसं हननं पाटिहारियेहि अभिभवनं, अप्पटिभानताकरणं, अज्झुपेक्खनञ्च । केसिविनयसुत्तञ्चेत्थ निदस्सनं ।
___ तथा ठानाठानादीनि जानता, यथाकम्मूपगे सत्ते पस्सता, सवासनानं आसवानं खीणत्ता अरहता, अभिनेय्यादिभेदे धम्मे अभिनेय्यादितो अविपरीतावबोधतो
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(१.४–४)
परिब्बाजककथावण्णना
सम्मासम्बुद्धेन । अथ वा तीसु कालेसु अप्पटिहतञाणताय जानता, तिण्णम्पि कम्मानं आणानुपरिवत्तितो निसम्मकारिताय पस्सता, दवादीनम्पि अभावसाधिकाय पहानसम्पदाय अरहता, छन्दादीनं अहानिहेतुभूताय अपरिक्खयपटिभानसाधिकाय सब्बञ्जुताय सम्मासम्बुद्धेनाति एवं दसबलट्ठारसावेणिकबुद्धधम्मेहिपि योजना वेदितब्बा ।
यदिपि हीनकल्याणभेदेन दुविधाव अधिमुत्ति पाळियं वुत्ता, पवत्तिआकारवसेन पन अनेकभेदभिन्नाति आह " नानाधिमुत्तिकता "ति । सा पन अधिमुत्ति अज्झासयधातु, तदपि तथा तथा दस्सनं खमनं रोचनञ्चाति आह " नानाज्झासयता... पे०... रुचिता "ति । नानाधिमुत्तिकतञाणेनाति चेत्थ सब्बञ्ञतञाणं अधिप्पेतं न दसबलञाणन्ति आह "सब्बञ्जतञाणेना" ति । इति ह मेति एत्थ एवं सद्दत्थो इति- सद्दो, ह-कारो निपातमत्तं सरलोपो च कतोति दस्सेतुं वुत्तं “एवं इमे”ति ।
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४. अरहत्तमग्गेन समुग्धातं कतं, यतो “नत्थि अब्यावटमनी 'ति बुद्धधम्मेसु वुच्चति । वीतिनामेत्वा फलसमापत्तीहि । निवासेत्वा विहारनिवासनपरिवत्तनवसेन । "कदाचि एकको "तिआदि तेस तेसं विनेय्यानं विनयनानुकूलं भगवतो उपसङ्कमदस्सनं । पादनिक्खेपसमये भूमिया समभावापत्ति सुप्पतिट्ठितपादताय निस्सन्दफलं न इद्धिनिम्मानं । "ठपितमत्ते दक्खिणपादे' " ति बुद्धानं सब्बदक्खिणताय वृत्तं । अरहत्ते पतिहन्तीति सम्बन्धो ।
दुल्लभा सम्पत्तीति सतिपि मनुस्सत्तपटला पतिरूपदेसवासइन्द्रियावेकल्लसद्धापटिलाभादयो गुणा दुल्लभाति अत्थो । चातुमहाराजिकभवनन्ति चातुमहाराजिकदेवलोके सुञविमानानि गच्छन्तीति अत्थो । एस नयो तावतिंसभवनादीसुपि । कालयुत्तन्ति इमिस्सा वेलाय इमस्स एवं वत्तब्बन्ति तंतंकालानुरूपं । समययुत्तन्ति तस्सेव वेवचनं, अट्टुप्पत्तिअनुरूपं वा । अथ वा समययुत्तन्ति हेतूदाहरणसहितं । कालेन सापदेसह भगवा धम्मं देसेति । उतुं गण्हपेति, न पन मलं पक्खालेतीति अधिप्पायो । न हि भगवतो काये रजोजल्लं उपलिम्पतीति ।
किलासुभावो किलमथो । सीहसेय्यं कप्पेति सरीरस्स किलासुभावमोचनत्थन्ति योजेब्बं । "बुद्धचक्खुना लोकं वोलोकेती इदं पच्छिमयामे भगवतो बहुल आचिण्णवसेन वुत्तं । अप्पेकदा अवसिट्ठबलत्राणेहि सब्बञ्ञतञाणेन च भगवा तमत्थं साधेतीति । “इमे दिट्टिट्ठाना' 'तिआदिदेसना सीहनादो । तेसं "वेदनापच्चया तण्हा"
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गटीका
(१.४-४)
तिआदिना पच्चयाकारं समोधानेवा। "सिनेरु उक्खिपन्तो विय नभं पहरन्तो विय चा"ति इदं ब्रह्मजालदेसनाय अनञसाधारणत्ता सुदुक्करतादरसनत्थं वुत्तं । एतन्ति “येन, तेना''ति एतं पदद्वयं । येनाति वा हेतुम्हि करणवचनं, येन कारणेन सो मण्डलमाळो उपसमितब्बो, तेन कारणेन उपसङ्कमीति अत्थो, कारणं पन “इमे भिक्खू"तिआदिना अट्ठकथायं वुत्तएव । कट्ठन्ति निसीदनयोग्यं दारुक्खन्धं ।
पुरिमोति “कतमाय नु भवथा''ति एवं वुत्तो अत्थो । का च पन वोति एत्थ च-सद्दो ब्यतिरेके । तेन यथापुच्छिताय कथाय वक्खमानं विप्पकतभावं जोतेति । पन-सद्दो वचनालङ्कारो । याय हि कथाय ते भिक्खू सन्निसिन्ना, सा एव अन्तराकथाभूता विप्पकता विसेसेन पुन पुच्छीयतीति । अज्ञाति अन्तरासद्दस्स अस्थमाह । अञ्जत्थे हि अयं अन्तरा-सद्दो “भूमन्तरं समयन्तरन्तिआदीसु विय । अन्तराति वा वेमज्झेति अत्थो । ननु च तेहि भिक्खूहि सा कथा यथाधिप्पायं “इति ह मे''तिआदिना निट्ठपिता येवाति ? न निट्ठापिता भगवतो उपसङ्कमनेन उपच्छिन्नत्ता । यदि हि भगवा तस्मिं खणे न उपसङ्कमेय्य भिय्योपि तप्पटिबद्धायेव कथा पवत्तेय्यु, भगवतो उपसङ्कमनेन पन न पवत्तेसुं। तेनेवाह अयं खो...पे०... अनुष्पत्तो"ति | कस्मा पनेत्थ धम्मविनयसङ्गहे करियमाने निदानवचनं, नन् भगवतो वचनमेव सङ्गहेतब्बन्ति ? वच्चतेदेसनाय ठितिअसम्मोससद्धेय्यभावसम्पादनत्थं । कालदेसदेसकवत्थुधम्मपटिग्गाहकपटिबद्धा हि देसना चिरट्ठितिका होति, असम्मोसधम्मा सद्धेय्या च। देसकालकत्तुसोतुनिमित्तेहि उपनिबन्धो विय वोहारविनिच्छयो, तेनेव चायस्मता महाकस्सपेन "ब्रह्मजालं आवुसो आनन्द कत्थ भासित''न्तिआदिना देसादिपुच्छासु कतासु तासं विस्सज्जनं करोन्तेन धम्मभण्डागारिकेन निदानं भासितन्ति तयिदमाह "काल...पे०... निदानं भासित"न्ति ।
अपिच सत्थुसिद्धिया निदानवचनं । तथागतस्स हि भगवतो पुब्बरचनानुमानागमतक्काभावतो सम्मासम्बुद्धत्तसिद्धि। सम्मासम्बुद्धभावेन हिस्स पुब्बरचनादीनं अभावो सब्बत्थ अप्पटिहतत्राणचारताय, एकप्पमाणत्ता च त्रेय्यधम्मेसु । तथा आचरियमुट्ठिधम्ममच्छरियसत्थुसावकानुरोधाभावतो खीणासवत्तसिद्धि । खीणा सवताय हिस्स आचरियमुट्ठिआदीनं अभावो, विसुद्धा च परानुग्गहप्पवत्ति । इति देसकदोसभूतानं दिह्रिचारित्तसम्पत्तिदूसकानं अविज्जातण्हानं अभावसूचकेहि, आणप्पहानसम्पदाभि ब्यञ्जनकेहि च सम्बुद्धविसुद्धभावेहि पुरिमवेसारज्जद्वयसिद्धि, ततो एव च अन्तरायिकनिय्यानिकधम्मेसु सम्मोहाभावसिद्धितो पच्छिमवेसारज्जद्वयसिद्धीति भगवतो
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(१.५-५)
परिब्बाजककथावण्णना
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चतुवेसारज्जसमन्नागमो, अत्तहितपरहितप्पटिपत्ति च पकासिता होति निदानवचनेन सम्पत्तपरिसाय अज्झासयानुरूपं ठानुप्पत्तिकप्पटिभानेन धम्मदेसनादीपनतो, "जानता पस्सता''तिआदि वचनतो च । तेन वुत्तं “सत्थुसिद्धिया निदानवचन"न्ति ।
तथा सत्थुसिद्धिया निदानवचनं । आणकरुणापरिग्गहितसब्बकिरियस्स हि भगवतो नत्थि निरत्थिका पवत्ति, अत्तहितत्था वा, तस्मा परेसंयेव अत्थाय पवत्तसब्बकिरियस्स सम्मासम्बुद्धस्स सकलम्पि कायवचीमनोकम्मं सत्थुभूतं, न कब्यरचनादिसासनभूतं । तेन वुत्तं "सत्थुसिद्धिया निदानवचन''न्ति । अपिच सत्थुनो पमाणभूतताविभावनेन सासनस्स पमाणभावसिद्धिया निदानवचनं। “भगवता"ति हि इमिना तथागतस्स गुणविसिट्ठसत्तुत्तमादिभावदीपनेन, “जानता"तिआदिना आसयानुसयाणादिपयोगदीपनेन च अयमत्थो साधितो होति । इदमेत्थ निदानवचनपयोजनस्स मुखमत्तदस्सनं । को हि समत्थो बुद्धानुबुद्धेन धम्मभण्डागारिकेन भासितस्स निदानस्स पयोजनानि निरवसेसतो विभावेतुन्ति ।
निदानवण्णना निविता।
५. निक्खित्तस्साति देसितस्स। देसनापि हि देसेतब्बस्स सीलादिअत्थस्स विनेय्यसन्तानेसु निक्खिपनतो “निक्खेपो''ति वुच्चति । तत्थ यथा अनेकसतअनेकसहस्सभेदानिपि सुत्तन्तानि संकिलेसभागियादिसासनप्पट्ठाननयेन सोळसविधतं नातिवत्तन्ति, एवं अत्तज्झासयादिसुत्तनिक्खेपवसेन चतुब्बिधभावन्ति आह "चत्तारो सुत्तनिक्खेपा"ति । कामञ्चेत्थ अत्तज्झासयस्स, अट्ठप्पत्तिया च परज्झासयपुच्छाहि सद्धिं संसग्गभेदो सम्भवति अज्झासयपुच्छानुसन्धिसब्भावतो, अत्तज्झासयअट्ठप्पत्तीनं पन अञमधे संसग्गो नत्थीति नयिध निरवसेसो वित्थारनयो सम्भवति, तस्मा “चत्तारो सुत्तनिक्खेपा''ति वुत्तं । अथ वा यदिपि अट्ठप्पत्तिया अज्झासयेन सिया संसग्गभेदो, तदन्तोगधत्ता पन सेसनिक्खेपानं मूलनिक्खेपवसेन चत्तारोव दस्सिताति दट्ठब् । सो पनायं सुत्तनिक्खेपो सामञभावतो पठमं विचारेतब्बो, तस्मिं विचारिते यस्सा अट्ठप्पत्तिया इदं सुत्तं निक्खित्तं, तस्सा विभागवसेन “ममं वा भिक्खवे"तिआदिना (दी० नि० १.५, ६), "अप्पमत्तकं खो पनेत"न्तिआदिना (दी० नि० १.७), “अस्थि भिक्खवे"तिआदिना (दी० नि० १.२८) च पवत्तानं सुत्तानं सुत्तपदेसानं वण्णना वुच्चमाना
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गटीका
तंतंअनुसन्धिदस्सनसुखताय सुविज्ञेय्या होतीति आह “सुत्तनिक्खेपं विचारेत्वा बुच्चमाना पाकटा होती 'ति ।
"सुत्तनिक्खेपा ''तिआदीसु निक्खिपनं निक्खेपो, सुत्तस्स निक्खेपो सुत्तस्स कथनं सुत्तनिक्खेपो, सुत्तदेसनाति अत्थो । निक्खिपीयतीति वा निक्खेपो, सुत्तंयेव निक्खेपो सुत्तनिक्खेषो। अत्तनो अज्झासयो अत्तज्झासयो, सो अस्स अत्थि सुत्तदेसनाकारणभूतो अत्तज्झासयो । अत्तनो अज्झासयो एतस्साति वा अत्तज्झासयो । परज्झासयोति एत्थापि एसेव नयो । पुच्छाय वसो पुच्छावसो, सो एतस्स अत्थीति पुच्छवसिको । अरणीयतो अत्थो, सुत्तसनाय वत्थु । अत्थस्स उप्पत्ति अत्थुप्पत्ति, अत्थुप्पत्तियेव अड्डप्पत्ति, सा एतस्स अत्थीति अप्पत्तिको । अथ वा निक्खिपीयति सुत्तं एतेनाति सुत्तनिक्खेपो, अत्तज्झासयादि एव । एतस्मिं पन अत्थविकप्पे अत्तनो अज्झासयो अत्तज्झासयो, परेसं अज्झासयो परज्झासयो, पुच्छीयतीति पुच्छा, पुच्छितब्बो अत्थो । सोतब्बवसप्पवत्तं धम्मप्पटिग्गाहकानं वचनं पुच्छावसिका, तदेव निक्खेपसद्दापेक्खाय पुल्लिङ्गवसेन वुत्तं " पुच्छावसिको "ति । तथा अट्टुप्पत्तियेव “अड्डप्पत्तिको "ति एवम्पेत्थ अत्थो वेदितब्बो ।
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(१.५-५)
एत्थ च परेसं इन्द्रियपरिपाकादिकारणनिरपेक्खता अत्तज्झासयस्स विसुं निक्खेपभावो युत्तो । तेनेवाह "केवलं अत्तनो अज्झासयेनेव कथेती 'ति । परज्झासयपुच्छावसिकानं पन परेसं अज्झासयपुच्छानं देसनानिमित्तभूतानं उप्पत्तियं पवत्तितानं कथं अट्टप्पत्तियं अनवरोधो, पुच्छावसिकअड्डप्पत्तिकानं वा परज्झासयानुरोधेन पवत्तितदेसनत्ता कथं परज्झासये अनवरोधोति न चोदेतब्बमेतं । परेसञ्हि अभिनीहारपरिपुच्छादिविनिमुत्तस्सेव सुत्तदेसनाकारणुप्पादस्स अड्डप्पत्तिभावेन गहितत्ता परज्झासयपुच्छावसिकानं विसुं गहणं । तथा हि धम्मदायादसुत्तादीनं (म० नि० १.२९) आमिसुप्पादादिदेसनानिमित्तं "अड्डप्पत्तीति वुच्चति । परेसं पुच्छं विना अज्झासयमेव निमित्तं कत्वा देसितो परज्झासयो, पुच्छावसेन देसितो पुच्छावसिकोति पाकटो यमत्थोति । अत्तनो अज्झासयेनेव कथेसि धम्मतन्तिठपनत्थन्ति दट्ठब्बं । सम्मप्पधानसुत्तन्तहारकोति अनुपुब्बेन निद्दिट्ठानं संयुत्तके सम्मप्पधानपटिसंयुक्त्तानं सुत्तानं आवळि, तथा इद्धिपादहारकादि । विमुत्तिपरिपाचनीया धम्मा सद्धिन्द्रियादयो । अभिनीहारन्ति पणिधानं ।
वण्णावणेति एत्थ “अच्छरियं आवुसो "तिआदिना भिक्खुसन वुत्तो वण्णोपि सङ्गहितो, तं पन अट्टुप्पत्तिं कत्वा " अत्थि भिक्खवे अञ्ञे च धम्मा' 'तिआदिना उपरि
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(१.५-५)
परिब्बाजककथावण्णना
देसनं आरभिस्सतीति । “ममं वा भिक्खवे परे वण्णं भासेय्यु''न्ति इमिस्सा देसनाय ब्रह्मदत्तेन वुत्तवण्णो अट्ठप्पत्तीति कत्वा वुत्तं “अन्तेवासी वणं। इति इमं वण्णावण्णं अटुप्पत्तिं कत्वा'ति । वा-सद्दो उपमानसमुच्चयसंसयववस्सग्गपदपूरणविकप्पादीसु बहूसु अत्थेसु दिस्सति । तथा हेस “पण्डितो वापि तेन सो''तिआदीसु (ध० प० ६३) उपमाने दिस्सति, सदिसभावेति अत्थो । “तं वापि धीरा मुनि वेदयन्ती'"तिआदीसु (सु० नि० २०३) समुच्चये, “के वा इमे, कस्स वा"तिआदीसु (पारा० २९६) संसये, “अयं वा इमेसं समणब्राह्मणानं सब्बबालो सब्बमूळ्हो"तिआदीसु ववस्सग्गे, “न वायं कुमारको मत्तमञासी"तिआदीसु (सं० नि० १.२.१५४) पदपूरणे, “ये हि केचि भिक्खवे समणा वा ब्राह्मणा वा'"तिआदीसु (म० नि० १.१७०) विकप्पे, इधायं विकप्पेयेवाति दस्सेन्तो आह "वा-सद्दो विकप्पनत्थो"ति । पर-सद्दो अत्थेव अञ्जत्थे “अहञ्चेव खो पन धम्मं देसेय्यं, परे च मे न आजानेय्यु"न्तिआदीसु (दी० नि० २.६४, ६५; म० नि० १.२८१; म० नि० २.२२३; सं० नि० १.१.१७२; महाव० ४, ८) अस्थि अधिके "इन्द्रियपरोपरियत्तत्राण"न्तिआदीसु (पटि० म० मातिका ६८, १.१११) अस्थि पच्छाभागे “परतो आगमिस्सती"तिआदीसु । अत्थि पच्चनीकभावे "उप्पन्नं परप्पवादं सह धम्मेन सुनिग्गहितं निग्गहेत्वा''तिआदीसु (दी० नि० २.१६८)। इधापि पच्चनीकभावेति दस्सेन्तो आह "परेति पटिविरुद्धा"ति ।
ईदिसेसुपीति एत्थ पि-सद्दो सम्भावने, तेन रतनत्तयनिमित्तम्पि अकुसलचित्तप्पवत्ति न कातब्बा, पगेव वट्टामिसलोकामिसनिमित्तन्ति दस्सेति । सभावधम्मतो अञस्स कत्तुअभावजोतनत्थं आहनतीति कत्तुअत्थे आघातसई दस्सेति, तत्थ आहनतीति हिंसति विबाधति, उपतापेति चाति अत्थो। आहनति एतेन, आहननमत्तं वा आघातोति करणभावत्थापि सम्भवन्तियेव । एवं अवयवभेदनेन आघात-सद्दस्स अत्थं वत्वा इदानि तत्थ परियायेनपि अत्थं दस्सेन्तो "कोपस्सेतं अधिवचन"न्ति आह । अयञ्च नयो “अप्पच्चयो अनभिरद्धी"तिआदीसुपि यथासम्भवं वत्तब्बो। अप्पतीता होन्ति तेनाति पाकटपरियायेन अप्पच्चय-सद्दस्स अत्थदस्सनं, तंमुखेन पन न पच्चेति तेनाति अप्पच्चयोति दट्ठबं । अभिराधयतीति साधयति । द्वीहीति आघातअनभिरद्धिपदेहि । एकेनाति अप्पच्चयपदेन । सेसानन्ति सञआविचाणक्खन्धानं, सञ्जाविञाणअवसिट्ठसङ्खारक्खन्धसङ्घातानं वा । करणन्ति उप्पादनं । आघातादीनहि पवत्तिया पच्चयसमवायनं इध “करण"न्ति वुत्तं, तं पन अत्थतो उप्पादनमेव । अनुप्पादनहि सन्धाय भगवता “न करणीया"ति वुत्तन्ति । पटिक्खित्तमेव एकुप्पादेकवत्थुकेकारम्मणेकनिरोधभावतो ।
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गटीका
तत्थाति तस्मिं मनोपदोसे । तुम्हन्ति "तुम्हाक"न्ति इमिना समानत्थो एको सद्दो "यथा अम्हाक''न्ति इमिना समानत्थो “अम्ह"न्ति अयं सद्दो । यथाह, "तस्मा हि अम्हं दहरा न मिय्यरे"ति (जा० १.९.९३, ९९)। “अन्तरायो"ति इदं मनोपदोसस्स अकरणीयताय कारणवचनं । यस्मा तुम्हाकंयेव च भवेय्य तेन कोपादिना पठमज्झानादीनं अन्तरायो, तस्मा ते कोपादिपरियायेन वुत्ता आघातादयो न करणीयाति अत्थो । तेन नाहं "सब्ब "ति इस्सरभावेन तुम्हे ततो निवारेमि, अथ खो इमिना नाम कारणेनाति दस्सेति । तं पन कारणवचनं यस्मा आदीनवविभावनं होति, तस्मा आह "आदीनवं दस्सेन्तो"ति । “अपि नु तुम्हे"तिआदिना मनोपदोसो न कालन्तरभाविनोयेव हितसुखस्स अन्तरायकरो, अथ खो तङ्खणप्पवत्तिरहस्सपि हितसुखस्स अन्तरायकरोति मनोपदोसे आदीनवं दळहतरं कत्वा दस्सेति । येसं केसञ्चि "परे"तिआदीसु विय न पटिविरुद्धानंयेवाति अत्थो । तेनेवाह "कुपितो"तिआदि ।
अन्धतमन्ति अन्धभावकरतमं । यन्ति यत्थ | भुम्मत्थे हि एतं पच्चत्तवचनं । यस्मिं काले कोधो सहते नरं, अन्धतमं तदा होतीति सम्बन्धो । यन्ति वा कारणवचनं, यस्मा कोधो उप्पज्जमानो नरं अभिभवति, तस्मा अन्धतमं तदा होति, यदा कोधोति अत्थो यंतंसद्दानं एकन्तसम्बन्धिभावतो। अथ वा यन्ति किरियाय परामसनं । कोधो सहतेति यदेतं कोधस्स सहनं अभिभवनं, एतं अन्धकारतमभवनन्ति अत्थो । अथ वा यं नरं कोधो सहते अभिभवति, तस्स अन्धतमं तदा होति, ततो च कुद्धो अत्थं न जानाति, कुद्धो धम्म न पस्सतीति । अन्तरतोति अब्भन्तरतो, चित्ततो वा ।
___ "इदञ्चिदञ्च कारण"न्ति इमिना सब्बञ्जू एव अम्हाकं सत्था अविपरीतधम्मदेसनत्ता, स्वाक्खातो धम्मो एकन्तनिय्यानिकत्ता, सुप्पटिपन्नो सङ्घो संकिलेसरहितत्ताति इममत्थं दस्सेति । "इदञ्चिदञ्च कारण"न्ति एतेन च “न सब्बञ्जू"तिआदिवचनं अभूतं अतच्छन्ति निब्बेठितं होति । दुतियं पदन्ति “अतच्छन्ति पदं । पठमस्साति “अभूत''न्ति पदस्स । चतुत्थञ्चाति “न च पनेतं अम्हेसु संविज्जतीति पदं । ततियस्साति "नत्थि चेतं अम्हेसूति पदस्स । अवण्णेयेवाति कारणपतिरूपकं वत्वा दोसपतिठ्ठापनवसेन निन्दने एव । न सब्बत्थाति केवलं अक्कोसनढुसनवम्भनादीसु न एकन्तेन निब्बेठनं कातब्बन्ति अत्थो । वुत्तमेवत्थं “यदि ही"तिआदिना पाकटं कत्वा दस्सेति ।
६. आनन्दन्ति पमोदन्ति एतेन धम्मेन तंसमङ्गिनो सत्ताति आनन्द-सद्दस्स करणत्थतं
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( १.६-६)
परिब्बाजककथावण्णना
दस्सेति । सोभनं मनो अस्साति सुमनो, सोभनं वा मनो सुमनो, तस्स भावो सोमनस्सन्ति तदञ्ञधम्मानम्पि सम्पयुक्त्तानं सोमनस्सभावो आपज्जतीति ? नापज्जति रुहीसद्दत्ता यथा “पङ्कज "न्ति दस्सेन्तो “चेतसिकसुखस्सेतं अधिवचन "न्ति आह । उब्बलयतीति उब्बिलं, भिन्दति पुरिमावत्थाय विसेसं आपज्जतीति अत्थो । उब्बिलमेव उब्बिलावितं, तस्स भावो उब्बिलावितत्तं । याय उप्पन्नाय कायचित्तं वातपूरितभस्ता विय उद्घमायनाकारप्पत्तं होति, तस्सा गेहस्सिताय ओदग्गियपीतिया एतं अधिवचनं । तेनेवाह “उद्धच्चावहाया’”तिआदि । इधापि “किञ्चापि तेसं भिक्खूनं उब्बिलावितमेव नत्थि, अथ खो आयतिं कुलपुत्तानं एदिसेसुपि ठानेसु अकुसलुप्पत्तिं पटिसेधेन्तो धम्मनेत्तिं ठपेतीति, " द्वीहि पदेहि सङ्घारक्खन्धो, एकेन वेदनाक्खन्धो वुत्तो" ति एत्थ "तेसं वसेन सेसानम्पि सम्पयुत्तधम्मानं करणं पटिक्खित्तमेवा "ति च अट्ठकथायं, “पि सद्दो सम्भावने "तिआदिना इध च वृत्तनयेन अत्थो यथासम्भवं वेदितब्बो । “तुम्हंयेवस्स तेन अन्तरायो” ति एत्थापि “अन्तरायोति इद”न्तिआदिना हेट्ठा अवण्णपक्खे वुत्तनयेन अत्थो वेदितब्बी ।
कस्मा पनेतन्ति च वक्खमानंयेव अत्थं मनसि कत्वा चोदेति । आचरियो “सच्चं वणितन्ति तमत्थं पटिजानित्वा "तं पन नेक्खम्मनिस्सित "न्ति आदिना परिहरति । तत्थ एतन्ति आनन्दादीनं अकरणीयतावचनं । ननु भगवता वण्णितन्ति सम्बन्धो । कसिणेनाति कसिणताय सकलभावेन । केचि पन " जम्बुदीपस्साति करणे सामिवचन "न्ति वदन्ति, तेसं मतेन कसि जम्बुदीप-सद्दानं समानाधिकरणभावो दट्ठब्बो । तस्मात यस्मा गेहस्सितपीतिसोमनस्सं झानादीनं अन्तरायकरं तस्मा । वुत्तहेतं भगवता "सोमनस्सं पाहं देवानं इन्द दुविधेन वदामि सेवितब्बम्पि असेवितब्बम्पी ति ( दी० नि० २.३५९) । " अयही 'तिआदि येन सम्पयुत्ता पीति अन्तरायकरी, तं दस्सनत्थं वृत्तं । तत्थ " इहि लोभसहगतं पीतिसोमनस्सन्ति वत्तब्बं सिया, पीतिग्गहणेन पन सोमनस्सम्पि गहितमेव होति सोमनस्सरहिताय पीतिया अभावतोति पीतियेव गहिताति दट्ठब्बं । अथ वा सेवितब्बासेवितब्बविभागवचनतो सोमनस्सस्स पाकटो अन्तरायकरभावो न तथा पीतियाति पीतियेव लोभसहगतत्तेन विसेसेत्वा वुत्ता । " लुद्धो अत्थ "न्तिआदिगाथानं “कुद्धो अत्थ' 'न्तिआदि गाथासु विय अत्थो दट्टब्बो |
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“ममं वा भिक्खवे परे वण्णं भासेय्युं, धम्मस्स वा वण्णं भासेय्युं, सङ्घस्स वा वणं भासेय्युं, तत्र चे तुम्हे अस्सथ आनन्दिनो सुमना उब्बिलाविता, अपि नु तुम्हे परेसं सुभासितदुब्भासितं आजानेय्याथाति । नो हेतं भन्ते" ति अयं ततियवारो, सो
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गटीका
(१.७-७)
देसनाकाले नीहरित्वा देसेतब्बपुग्गलाभावतो देसनाय अनागतोपि तदत्थसम्भवतो अत्थतो आगतोयेवाति दट्ठब्बो यथा तं कथावत्थुपकरणं वित्थारवसेनाति अधिप्पायो । “अत्थतो आगतो येवा"ति एतेन संवण्णनाकाले तथा बुज्झनकसत्तानं वसेन सो वारो आनेत्वा वत्तब्बोति दस्सेति । “यथेव ही"तिआदिना तमेवत्थसम्भवं विभावेति । वुत्तनयेनाति “तत्र तुम्हेहीति तस्मिं वण्णे तुम्हेही''तिआदिना, “दुतियं पदं पठमस्स पदस्स, चतुत्थञ्च ततियस्स वेवचन''न्तिआदिना च वुत्तनयेन ।
चूळसीलवण्णना
७. निवत्तो अमूलकत्ता विस्सज्जेतब्बताभावतो। अनुवत्ततियेव विस्सज्जेतब्बताय अधिकतभावतो। अनुसन्धिं दस्सेस्सति “अस्थि भिक्खवे"तिआदिना। ओरन्ति वा अपरभागो “ओरतो भोगं, ओरं पार"न्तिआदीसु विय । अथ वा हेट्टाअत्थो ओर-सद्दो "ओरं आगमनाय ये पच्चया, ते ओरम्भागियानि संयोजनानी"तिआदीसु विय | सीलहि समाधिपायो अपेक्खित्वा अपरभागो, हेट्ठाभूतञ्च होतीति । सीलमत्तकन्ति एत्थ मत्त-सद्दो अप्पकत्थो वा “भेसज्जमत्ता"तिआदीसु (दी० नि० १.४४७) विय । विसेसनिवत्तिअत्थो वा "अवितक्कविचारमत्ता धम्मा (ध० स० तिकमातिका ६), मनोमत्ता धातु मनोधातू'ति च आदीसु विय । “अप्पमत्तकं, ओरमत्तक"न्ति पदद्वयेन सामञतो वुत्तोयेव हि अत्थो सीलमत्तकन्ति विसेसवसेन वुत्तो। अथ वा सीलेनपि तदेकदेसस्सेव सङ्गहणत्थं अप्पकत्थवाचको, विसेसनिवत्तिअत्थो एव वा “सीलमत्तक"न्ति एत्थ मत्त-सद्दो वुत्तो। तथा हि इन्द्रियसंवरपच्चयसन्निस्सितसीलानि इध देसनं अनारुळहानि। न हि तानि पातिमोक्खआजीवपारिसुद्धिसीलानि विय सब्बपुथुज्जनेसु पाकटानीति । “उस्साहं कत्वा"ति एतेन “वदमानो"ति एत्थ सत्तिअत्थं मान-सई दस्सेति ।
___ अलङ्करणं विभूसनं अलङ्कारो, कुण्डलादिपसाधनं वा। ऊनट्ठानपूरणं मण्डनं। मण्डनेति मण्डनहेतु । अथ वा मण्डतीति मण्डनो, मण्डनजातिको पुरिसो। बहुवचनत्थे च इदं एकवचनं, मण्डनसीलेसूति अत्थो । परिपूरकारीति एत्थ इति-सदो आदिअत्थो, पकारत्थो वा, तेन सकलम्पि सीलथोमन सुत्तं दस्सेति । चन्दनन्ति चन्दनसहचरणतो चन्दनगन्धो, तथा तगरादीसुपि | सतञ्च गन्धोति एत्थ गन्धो वियाति गन्धोति वुत्तो सीलनिबन्धनो थुतिघोसो । सीलहि कित्तिया निमित्तं । यथाह “सीलवतो सीलसम्पन्नस्स कल्याणो कित्तिसद्दो
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(१.७-७)
चूळसीलवण्णना
अब्भुग्गच्छती''ति (दी० नि० २.१५०; अ० नि० २.५.२१३; महाव० २८५)। पवायतीति पकासति । गन्धाव गन्धजाता।
“अप्पकं बहुक''न्ति इदं पारापारं विय अञमनं उपनिधाय वुच्चतीति आह "उपरिगुणे उपनिधाया"ति । सीलहीति एत्थ हि-सद्दो हेतुअत्थो, तेन इदं दस्सेति “यस्मा सीलं किञ्चापि पतिट्ठाभावेन समाधिस्स बहुकारं, पभावादिगुणविसेसे पनस्स उपनिधाय कलम्पि न उपेति, तथा समाधि च पञ्जाया"ति । तेनेवाह "तस्मा"तिआदि । इदानि "कथ''न्ति पुच्छित्वा समाधिस्स आनुभावं वित्थारतो विभावेति । “अभि...पे०... मूले"ति इदं यमकपाटिहारियस्स सुपाकटभावदस्सनत्थं, अओहि बोधिमूलञातिसमागमादीसु कतपाटिहारियेहि विसेसनत्थञ्च वुत्तं । यमकपाटिहारियकरणत्थाय हि भगवतो चित्ते उप्पन्ने तदनुच्छविकं ठानं इच्छितब्बन्ति रतनमण्डपादि सक्कस्स देवरो आणाय विस्सकम्मुना निम्मितन्ति वदन्ति, भगवताव निम्मितन्ति अपरे । “यो कोचि एवरूपं पाटिहारियं कातुं समत्थो अस्थि चे, आगच्छतू"ति चोदनासदिसत्ता वुत्तं “अत्तादानपरिदीपन"न्ति । तत्थ अत्तादानं अनुयोगो, तित्थियानं तथा कातुं असमत्थत्ता, “करिस्सामा"ति पुब्बे उद्वितत्ता तिथियपरिमद्दन।
उपरिमकायतोतिआदि पटिसम्भिदामग्गे (पटि० म० १.११६) ।
तत्थायं पाळिसेसो
"हेट्ठिमकायतो अग्गिक्खन्धो पवत्तति, उपरिमकायतो उदकधारा पवत्तति । पुरथिमकायतो अग्गि, पच्छिमकायतो उदकं । पच्छिमकायतो अग्गि, पुरथिमकायतो उदकं । दक्खिणअक्खितो अग्गि, वामअक्खितो उदकं । वामअक्खितो अग्गि, दक्खिणअक्खितो उदकं । दक्षिणकण्णसोततो अग्गि, वामकण्णसोततो उदकं । वामकण्णसोततो अग्गि, दक्खिणकण्णसोततो उदकं । दक्खिणनासिकासोततो अग्गि, वामनासिकासोततो उदकं । वामनासिकासोततो अग्गि , दक्खिणनासिकासोततो उदकं । दक्षिणअंसकूटतो अग्गि, वामअंसकूटतो उदकं । वामअंसकूटतो अग्गि, दक्खिणअंसकूटतो उदकं । दक्खिणहत्थतो अग्गि, वामहत्थतो उदकं । वामहत्थतो अग्गि, दक्खिणहत्थतो उदकं । दक्खिणपस्सतो अग्गि, वामपस्सतो उदकं । वामपस्सतो अग्गि, दक्षिणपस्सतो उदकं । दक्खिणपादतो
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गटीका
(१.७-७)
अग्गि, वामपादतो उदकं । वामपादतो अग्गि, दक्खिणपादतो उदकं । अङ्गुलगुलेहि अग्गि, अङ्गुलन्तरिकाहि उदकं । अङ्गुलन्तरिकाहि अग्गि, अङ्गुलगुलेहि उदकं । एकेकलोमतो अग्गि, एकेकलोमतो उदकं । लोमकूपतो लोमकूपतो अग्गिक्खन्धो पवत्तति, लोमकूपतो लोमकूपतो उदकधारा पवत्तती"ति (पटि० म० १.११६)।
अट्ठकथायं पन “एकेकलोमकूपतो"ति आगतं ।
___"छन्नं वण्णानन्ति आदिनयप्पवत्त"न्ति एत्थापि नीलानं पीतकानं लोहितकानं ओदातानं मजिट्टानं पभस्सरानन्ति अयं पाळिसेसो । “सुवण्णवण्णा रस्मियो"ति इदं तासं येभुय्यताय वुत्तं । वित्थारेतब्बन्ति एत्थापि “सत्था तिट्ठति, निम्मितो चङ्कमति वा निसीदति वा सेय्यं वा कप्पेती''तिआदिना चतूसु इरियापथेसु एकेकमूलका सत्थुवसेन चत्तारो, निम्मितवसेन चत्तारोति सब्बेव अट्ट वारे वित्थारेतब्बं ।
मधुपायासन्ति मधुसित्तं पायासं। अत्ता मित्तो मज्झत्तो वेरीति चतूसु सीमसम्भेदवसेन चतुरङ्गसमन्नागतं मेत्ताकम्मट्ठानं। "चतुरङ्गसमन्नागत''न्ति इदं पन “वीरियाधिट्ठान"न्ति एतेनापि योजेतब्बं । तत्थ “कामं तचो च न्हारु चा''तिआदिपाळि (म० नि० २.१८४; सं० नि० १.२.२२; अ० नि० १.२.५; अ० नि० ३.८.१३; महानि० १९६) वसेन चतुरङ्गसमन्नागतता वेदितब्बा। "किच्छं वतायं लोको आपन्नो"तिआदिना (दी० नि० २.५७; सं० नि० १.२.४) जरामरणमुखेन पच्चयाकारे आणं ओतारेत्वा। आनापानचतुत्थज्झानन्ति एत्थापि “सब्बबुद्धानं आचिण्ण"न्ति पदं विभत्तिविपरिणामं कत्वा योजेतब्बं । तम्पि हि सब्बबुद्धानं आचिण्णमेवाति वदन्ति । छत्तिंसकोटिसतसहस्समुखेन . महावजिराणगब्भं गण्हापेन्तो विपस्सनं वड्डत्वा। द्वत्तिंसदोणगण्हनप्पमाणं कुण्डं कोलम्बो। दरिभागो कन्दरो। चक्कवाळपादेसु महासमुद्दो चक्कवाळमहासमुद्दो।
"दुवे पुथुज्जना"तिआदि पुथुज्जने लब्भमानविभागदस्सनत्थं वुत्तं, न मूलपरियायवण्णनादीसु विय पुथुज्जनविसेसनिद्धारणत्थं । सब्बोपि हि पुथुज्जनो भगवतो उपरि गुणे विभावेतुं न सक्कोति, तिठ्ठतु पुथुज्जनो, सावकपच्चेकबुद्धानम्पि अविसया बुद्धगुणा | तथा हि वक्खति “सोतापन्ना''तिआदि (दी० नि० अट्ठ० १.८)। वाचुग्गतकरणं उग्गहो। अत्थपरिपुच्छनं परिपुच्छा। अट्ठकथावसेन अत्थस्स सवनं सवनं ।
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(१.७-७)
चूळसीलवण्णना
ब्यञ्जनत्थानं सुनिक्खेपसुदस्सनेन धम्मस्स परिहरणं धारणं। एवं सुतधातपरिचितानं मनसानुपेक्खनं पच्चवेक्षणं। बहूनं नानप्पकारानं किलेसानं सक्कायदिट्ठिया च अविहतत्ता ता जनेन्ति, ताहि वा जनिताति पुथुज्जना। अविघातमेव वा जन-सद्दो वदति । पुथु सत्थारानं मुखुल्लोकिकाति एत्थ पुथू जना सत्थुपटिञा एतेसन्ति पुथुज्जनाति वचनत्थो । पुथु...पे०... अबुद्विताति एत्थ जनेतब्बा, जायन्ति वा एत्थाति जना, गतियो । पुथू जना एतेसन्ति पुथुज्जना। इतो परे जायन्ति एतेहीति जना, अभिसङ्घारादयो । ते एतेसं पुथू विज्जन्तीति पुथुज्जना। अभिसङ्खरणादि अत्थो एव वा जन-सद्दो दट्ठब्बो । कामरागभवरागदिट्ठिअविज्जा ओघा। रागग्गिआदयो सन्तापा। तेयेव, सब्बेपि वा किलेसा परिळाहा। पुथु पञ्चसु कामगुणेसु रत्ताति एत्थ जायतीति जनो, रागो गेधोति एवं आदिको । पुथु जनो एतेसन्ति पुथुज्जना, पुथूसु वा जना जाता रत्ताति एवं रागादिअत्थो एव वा जन-सद्दो दट्ठब्बो। पलिबुद्धाति सम्बुद्धा, उपटुता वा। "पुथून गणनपथमतीतान"न्तिआदिना पुथू जना पुथुज्जनाति दस्सेति ।
येहि गुणविसेसेहि निमित्तभूतेहि भगवति तथागत-सद्दो पवत्तो, तंदस्सनत्थं “अहि कारणेहि भगवा तथागतो"तिआदिमाह । गुणनेमित्तकानेव हि भगवतो सब्बानि नामानि । यथाह
"असङ्ख्येय्यानि नामानि, सगुणेन महेसिनो । गुणेन नाममुद्धेय्यं, अपि नामसहस्सतो"ति ।। (ध० स० अट्ठ० १३१३; उदा० अट्ठ० ५३; पटि० म० अट्ठ० १.१.७६)
तथा आगतोति एत्थ आकारनियमनवसेन ओपम्मसम्पटिपादनत्थो तथा-सद्दो । सामञ्जजोतनाय विसेसावट्ठानतो पटिपदागमनत्थो आगत-सद्दो, न जाणगमनत्थो "तथलक्खणं आगतो"तिआदीसु (दी० नि० अट्ठ० १.७; म० नि० अट्ठ० १.१२; सं० नि० अट्ठ० २.४.७८; अ० नि० अट्ठ० १.१.१७०; उदा० अट्ठ० १८; पटि० म० अट्ठ० १.१.३७, थेरगा० अट्ठ० १.३; इतिवु० अट्ठ० ३८; महानि० अट्ठ० १४) विय, नापि कायगमनादिअत्थो “आगतो खो महासमणो, मागधानं गिरिब्बजन्तिआदीसु (महाव० ६२) विय । तत्थ यदाकारनियमनवसेन ओपम्मसम्पटिपादनत्थो तथा-सद्दो, तं करुणापधानत्ता महाकरुणामुखेन पुरिमबुद्धानं आगमनपटिपदं उदाहरणवसेन सामञतो दस्सेन्तो यंतंसद्दानं एकन्तसम्बन्धभावतो "यथा सब्बलोक...पे०... आगता"ति आह । तं
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गटीका
(१.७-७)
पन पटिपदं महापदानसुत्तादीसु (दी० नि० २.४) सम्बहुलनिद्देसेन सुपाकटानं आसन्नानञ्च विपस्सीआदीनं छन्नं सम्मासम्बुद्धानं वसेन निदस्सेन्तो “यथा विपस्सी भगवा"तिआदिमाह। तत्थ येन अभिनीहारेनाति मनुस्सत्तलिङ्गसम्पत्तिहेतुसत्थारदस्सनपब्बज्जाअभिज्ञादिगुणसम्पत्तिअधिकारछन्दानं वसेन अट्ठङ्गसमन्नागतेन कायप्पणिधानमहापणिधानेन । सब्बेसहि बुद्धानं कायप्पणिधानं इमिनाव अभिनीहारेन समिज्झतीति । एवं महाभिनीहारवसेन "तथागतो"ति पदस्स अत्थं दस्सेत्वा इदानि पारमीपूरणवसेन दस्सेतुं “यथा विपस्सी भगवा...पे०... कस्सपो भगवा दानपारमिं पूरेत्वा"तिआदिमाह ।
एत्थ च सुत्तन्तिकानं महाबोधियानपटिपदाय कोसल्लजननत्थं पारमीसु अयं वित्थारकथा - का पनेता पारमियो ? केनटेन पारमियो ? कतिविधा चेता? को तासं कमो ? कानि लक्खणरसपच्चुपट्टानपदट्ठानानि ? को पच्चयो ? को संकिलेसो ? किं वोदानं ? को पटिपक्खो? का पटिपत्ति ? को विभागो? को सङ्गहो ? को सम्पादनूपायो ? कित्तकेन कालेन सम्पादनं ? को आनिसंसो ? किं चेतासं फलन्ति ?
तत्रिदं विस्सज्जनं- का पनेता पारमियोति। तहामानादीहि अनुपहता करुणूपायकोसल्लपरिग्गहिता दानादयो गुणा पारमियो ।
केनटेन पारमियोति दानसीलादिगुणविसेसयोगेन सत्तुत्तमताय परमा महासत्ता बोधिसत्ता, तेसं भावो, कम्मं वा पारमी, दानादिकिरिया । अथ वा परतीति परमो, दानादिगुणानं पूरको पालको च बोधिसत्तो | परमस्स अयं, परमस्स वा भावो, कम्मं वा पारमी, दानादिकिरियाव । अथ वा परं सत्तं अत्तनि मवति बन्धति गुणविसेसयोगेन, परं वा अधिकतरं मज्जति सुज्झति संकिलेसमलतो, परं वा सेढें निब्बानं विसेसेन मयति गच्छति, परं वा लोकं पमाणभूतेन आणविसेसेन इधलोकं विय मुनाति परिच्छिन्दति, परं वा अतिविय सीलादिगुणगणं अत्तनो सन्ताने मिनोति पक्खिपति, परं वा अत्तभूततो धम्मकायतो अनं, पटिपक्खं वा तदनत्थकरं किलेसचोरगणं मिनाति हिंसतीति परमो, महासत्तो। “परमस्स अय''न्तिआदि वुत्तनयेनेव योजेतब्बं । पारे वा निब्बाने मज्जति सुज्झति सत्ते च सोधेति, तत्थ वा सत्ते मवति बन्धति योजेति, तं वा मयति गच्छति गमेति च, मुनाति वा तं याथावतो, तत्थ वा सत्ते मिनोति पक्खिपति, किलेसारिं वा
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(१.७–७)
यथा चाह
सत्तानं तत्थ मिनाति हिंसतीति पारमी, महापुरिसो । तस्स भावो, कम्मं वा पारमिता, दानादिकिरियाव । इमिना नयेन पारमीनं सद्दत्थो वेदितब्बो ।
कतिविधाति सङ्क्षेपतो दसविधा, ता पन पाळियं सरूपतो आगतायेव । यथाह -
"विचिनन्तो तदा दक्खिं, पठमं दानपारमि "न्तिआदि (बु० वं० ११६)
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चूळसीलवण्णना
“कति नु खो भन्ते बुद्धकारका धम्मा ? दस खो सारिपुत्त बुद्धकारका धम्मा । कतमे दस ? दानं खो सारिपुत्त बुद्धकारको धम्मो, सीलं नेक्खम्मं पञ्ञा वीरियं खन्ति सच्चमधिट्टानं मेत्ता उपेक्खा बुद्धकारको धम्मो, इमे खो सारिपुत्त दस बुद्धकारका धम्माति । इदमवोच भगवा, इदं वत्वान सुगतो अथापरं एतदवोच
सत्था -
'दानं सीलञ्च नेक्खम्मं, पञ्ञा वीरियेन पञ्चमं । खन्ति सच्चं अधिट्ठानं, मेत्तुपेक्खाति ते दसा 'ति” । ।
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केचि पन "छब्बिधा " ति वदन्ति तं एतासं सङ्गहवसेन वृत्तं । सो पन सङ्गहो परतो आविभविस्सति ।
को तासं कमोति एत्थ कमो नाम देसनाक्कमो सो च पठमसमादानहेतुको, समादानं पविचयहेतुकं, इति यथा आदिम्हि पविचिता समादिन्ना च, तथा देसिता । तत्थ च दानं सीलस्स बहूपकारं सुकरञ्चाति तं आदिम्ह वृत्तं । दानं सीलपरिग्गहितं महफ्फलं होति महानिसंसन्ति दानानन्तरं सीलं वृत्तं । सीलं नेक्खम्मपरिग्गहितं, नेक्खम्मं पञ्ञपरिग्गहितं, पञ्ञा वीरियपरिग्गहिता, वीरियं खन्तिपरिग्गहितं, खन्ति सच्चपरिग्गहिता, सच्चं अधिट्ठानपरिग्गहितं, अधिट्ठानं मेत्तापरिग्गहितं, मत्ता उपेक्खापरिग्गहिता महफ्फला होति महानिसंसाति मेत्तानन्तरं उपेक्खा वृत्ता । उपेक्खा पन करुणापरिग्गहिता, करुणा च उपेक्खापरिग्गहिताति वेदितब्बा । कथं पन महाकारुणिका बोधिसत्ता सत्तेसु उपेक्खका होन्तीति ? उपेक्खितब्बयुत्तेसु कञ्चि कालं उपेक्खका होन्ति,
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गटीका
(१.७-७)
न पन सब्बत्थ, सब्बदा चाति केचि । अपरे पन न सत्तेसु उपेक्खका, सत्तकतेसु पन विप्पकारेसु उपेक्खका होन्तीति ।
अपरो नयो - पचुरजनेसुपि पवत्तिया सब्बसत्तसाधारणत्ता, अप्पफलत्ता, सुकरत्ता च आदिम्हि दानं वुत्तं । सीलेनदायकपटिग्गाहकसुद्धितो, परानुग्गहं वत्वा परपीळानिवत्तिवचनतो, किरियधम्मं वत्वा अकिरियधम्मवचनतो, भोगसम्पत्तिहेतुं वत्वा भवसम्पत्तिहेतुवचनतो च दानस्स अनन्तरं सीलं वुत्तं । नेक्खम्मेन सीलसम्पत्तिसिद्धितो, कायवचीसुचरितं वत्वा मनोसुचरितवचनतो, विसुद्धसीलस्स सुखेनेव झानसमिज्झनतो, कम्मापराधप्पहानेन पयोगसुद्धिं वत्वा किलेसापराधप्पहानेन आसयसुद्धिवचनतो, वीतिक्कमप्पहानेन चित्तस्स परियुट्ठानप्पहानवचनतो च सीलस्स अनन्तरं नेक्खम्मं वुत्तं । पञाय नेक्खम्मस्स सिद्धिपरिसुद्धितो, झानाभावे पञ्जाभाववचनतो । समाधिपदट्ठाना हि पञ्जा, पञआपच्चुपट्टानो च समाधि। समथनिमित्तं वत्वा उपेक्खानिमित्तवचनतो, परहितज्झानेन परहितकरणूपायकोसल्लवचनतो च नेक्खम्मस्स अनन्तरं पञ्जा वुत्ता । वीरियारम्भेन पञ्जाकिच्चसिद्धितो, सत्तसुञताधम्मनिज्झानक्खन्तिं वत्वा सत्तहिताय आरम्भस्स अच्छरियतावचनतो, उपेक्खानिमित्तं वत्वा पग्गहनिमित्तवचनतो, निसम्मकारितं वत्वा उट्ठानवचनतो च । निसम्मकारिनो हि उट्टानं फलविसेसमावहतीति पञाय अनन्तरं वीरियं वुत्तं ।
वीरियेन तितिक्खासिद्धितो। वीरियवा हि आरद्धवीरियत्ता सत्तसङ्खारेहि उपनीतं दुक्खं अभिभुय्य विहरति वीरियस्स तितिक्खालङ्कारभावतो। वीरियवतो हि तितिक्खा सोभति । पग्गहनिमित्तं वत्वा समथनिमित्तवचनतो, अच्चारम्भेन उद्धच्चदोसप्पहानवचनतो । धम्मनिज्झानक्खन्तिया हि उद्धच्चदोसो पहीयति। वीरियवतो सातच्चकरणवचनतो । खन्तिबहुलो हि अनुद्धतो सातच्चकारी होति । अप्पमादवतो परहितकिरियारम्भे पच्चुपकारतण्हाभाववचनतो। याथावतो धम्मनिज्झाने हि सति तण्हा न होति । परहितारम्भे परमेपि परकतदुक्खसहनभाववचनतो च वीरियस्स अनन्तरं खन्ति वुत्ता। सच्चेन खन्तिया चिराधिट्ठानतो, अपकारिनो अपकारखन्तिं वत्वा तदुपकारकरणे अविसंवादवचनतो, खन्तिया अपवादवाचाविकम्पनेन भूतवादिताय अविजहनवचनतो, सत्तसुझताधम्मनिज्झानक्खन्तिं वत्वा तदुपब्रहिताणसच्चवचनतो च खन्तिया अनन्तरं सच्चं वुत्तं । अधिट्ठानेन सच्चसिद्धितो। अचलाधिट्ठानस्स हि विरति सिज्झति । अविसंवादितं वत्वा तत्थ अचलभाववचनतो। सच्चसन्धो हि दानादीसु पटिञानुरूपं
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निच्चलोव पवत्तति । आणसच्चं वत्वा सम्भारेसु पवत्तिनिट्ठापनवचनतो । यथाभूतञाणवा हि बोधिसम्भारेसु अधितिट्ठति, ते च निट्ठापेति पटिपक्खेहि अकम्पियभावतोति सच्चस्स अनन्तरं अधिद्वानं वुत्तं । मेत्ताय परहितकरणसमादानाधिट्ठानसिद्धितो, अधिट्ठानं वत्वा हितूपसंहारवचनतो । बोधिसम्भारे हि अधितिट्ठमानो मेत्ताविहारी होति । अचलाधिट्ठानस्स समादानाविकोपनतो, समादानसम्भवतो च अधिट्ठानस्स अनन्तरं मेत्ता वुत्ता। उपेक्खाय मेत्ताविसुद्धितो, सत्तेसु हितूपसंहारं वत्वा तदपराधेसु उदासीनतावचनतो, मेत्ताभावनं वत्वा तन्निस्सन्दभावनावचनतो, “हितकामसत्तेपि उपेक्खको''ति अच्छरियगुणभाववचनतो च मेत्ताय अनन्तरं उपेक्खा वुत्ताति एवमेतासं कमो वेदितब्बो।
कानि लक्खणरसपच्चुपवानपदवानानीति ? एत्थ अविसेसेन ताव सब्बापि पारमियो परानुग्गहलक्खणा, परेसं उपकारकरणरसा, अविकम्पनरसा वा, हितेसितापच्चुपट्टाना, बुद्धत्तपच्चुपट्टाना वा, महाकरुणापदट्ठाना, करुणूपायकोसल्लपदट्ठाना वा।
विसेसेन पन यस्मा करुणूपायकोसल्लपरिग्गहिता अत्तुपकरणपरिच्चागचेतना दानपारमिता। करुणूपायकोसल्लपरिग्गहितं कायवचीसुचरितं अत्थतो अकत्तब्बविरति, कत्तब्बकरणचेतनादयो च सीलपारमिता। करुणूपायकोसल्लपरिग्गहितो आदीनवदस्सनपुब्बङ्गमो कामभवेहि निक्खमनचित्तुप्पादो नेक्खम्मपारमिता। करुणूपायकोसल्लपरिग्गहितो धम्मानं सामञविसेसलक्खणावबोधो पञापारमिता। करुणूपायकोसल्लपरिग्गहितो कायचित्तेहि परहितारम्भो वीरियपारमिता। करुणूपायकोसल्लपरिग्गहितं सत्तसङ्खारापराधसहनं अदोसप्पधानो तदाकारप्पवत्तो चित्तुप्पादो खन्तिपारमिता। करुणूपायकोसल्लपरिग्गहितं विरतिचेतनादिभेदं अविसंवादनं सच्चपारमिता। करुणूपायकोसल्लपरिग्गहितं अचलसमादानाधिट्टानं तदाकारप्पवत्तो चित्तुप्पादो अधिद्वानपारमिता। करुणूपायकोसल्लपरिग्गहितो लोकस्स हितूपसंहारो अत्थतो अब्यापादो मेत्तापारमिता। करुणूपायकोसल्लपरिग्गहिता अनुनयपटिघविद्वंसिनी इट्टानिढेसु सत्तसङ्खारेसु समप्पवत्ति उपेक्खापारमिता।
तस्मा परिच्चागलक्खणं दानं, देय्यधम्मे लोभविद्धंसनरसं, अनासत्तिपच्चुपट्टानं, भवविभवसम्पत्तिपच्चुपट्टानं वा, परिच्चजितब्बवत्थुपदट्ठानं । सीलनलक्खणं सीलं, समाधानलक्खणं, पतिट्ठानलक्खणञ्चाति वुत्तं होति । दुस्सील्यविद्धंसनरसं, अनवज्जरसं वा, सोचेय्यपच्चुपट्टानं, हिरोत्तप्पपदट्ठानं । कामतो भवतो च निक्खमनलक्खणं नेक्खम्मं,
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वीरियं,
तदादीनवविभावनरसं, ततो एव विमुखभावपच्चुपट्ठानं, संवेगपदट्ठानं । यथासभावपटिवेधलक्खणा पञ्ञा, अक्खलितपटिवेधलक्खणा वा कुसलिस्सासखित्तउसुपटिवेधो विय, विसयोभासनरसा पदीपो विय, असम्मोहपच्चुपट्ठाना अरञ्ञगतसुदेसको विय, समाधिपदट्ठाना, चतुसच्चपदट्ठाना वा । उस्साह लक्खणं उपत्थम्भनरसं, असंसीदनपच्चुपट्ठानं, वीरियारम्भवत्थु (अ० नि० ३.८.८०) पदट्ठानं, संवेगपदट्ठानं वा । खमनलक्खणा खन्ति, इट्ठानिट्ठसहनरसा, अधिवासनपच्चुपट्ठाना, अविरोधपच्चुपट्ठाना वा, यथाभूतदस्सनपदट्ठाना । अविसंवादनलक्खणं सच्च, याथावविभावनरसं [यथासभावविभावनरसं चरिया० पि० अट्ठ० पतिण्णककथाय ) ], साधुतापच्चुपट्ठानं, सोरच्चपदट्ठानं । बोधिसम्भारेसु अधिट्ठानलक्खणं अधिट्ठानं, तेसं पटिपक्खाभिभवनरसं, तत्थ अचलतापच्चुपट्ठानं, बोधिसम्भारपदट्ठानं । हिताकारप्पवत्तिलक्खणा मेत्ता, हितूपसंहाररसा, आघातविनयनरसा वा, सोम्मभावपच्चुपट्ठाना, सत्तानं मनापभावदस्सनपदट्ठाना । मज्झत्ताकारप्पवत्तिलक्खणा उपेक्खा, समभावदस्सनरसा, पटिघानुनयवूपसमपच्चुपट्ठाना, कम्मस्सकतापच्चवेक्खणपदट्ठाना । एत्थ च करुणूपायकोसल्लपरिग्गहितता दानादीनं परिच्चागादिलक्खणस्स विसेसनभावेन वत्तब्बा, यतो तानि पारमीसङ्ख्यं लभन्तीति ।
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को पच्चयोति अभिनीहारो पच्चयो । यो हि अयं “ मनुस्सत्तं लिङ्गसम्पत्ती' 'तिआदि ( बुद्ध० वं० २.५९) अट्ठधम्मसमोधानसम्पादितो “तिण्णो तारेय्यं, मुत्तो मोचेय्यं, बुद्धो बोधेय्यं, सुद्धो सोधेय्यं, दन्तो दमेय्यं, सन्तो समेय्यं, अस्सत्थो अस्सासेय्यं, परिनिब्बुतो परिनिब्बापेय्य 'न्तिआदिना (चरिया० पि० अट्ठ० पकिण्णककथाय) पवत्तो अभिनीहारो, सो अविसेसेन सब्बपारमीनं पच्चयो । तप्पवत्तिया हि उद्धं पारमीनं पविचयुपट्ठानसमादानाधिट्ठाननिप्फत्तियो महापुरिसानं सम्भवन्ति ।
यथा च अभिनीहारो, एवं महाकरुणा, उपायकोसल्लञ्च । तत्थ उपायकोसल्लं नाम दानादीनं बोधिसम्भारभावस्स निमित्तभूता पञ्ञा, याहि करुणूपायकोसल्लताहि महापुरिसानं अत्तसुखनिरपेक्खता, निरन्तरं परहितकरणपसुतता, सुदुक्करेहिपि महाबोधिसत्त विसादाभावो, पसादसम्बुद्धिदस्सनसवनानुस्सरणावत्थासुपि सत्तानं हितसुखपटिलाभहेतुभावो च सम्पज्जति । तथा हि पञ्ञाय बुद्धभावसिद्धि, करुणाय बुद्धकम्मसिद्धि । पञ्ञाय सयं तरति, करुणाय परे तारेति । पञ्ञाय परदुक्खं परिजानाति, करुणाय परदुक्खपटिकारं आरभति । पञ्ञाय च दुक्खे निब्बिन्दति, करुणाय दुक्खं सम्पटिच्छति । तथा पञ परिनिब्बानाभिमुखो होति, करुणाय तं न पापुणाति । तथा करुणाय संसाराभिमुखो
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होति, पञ्जाय तत्र नाभिरमति । पाय च सब्बत्थ विरज्जति, करुणानुगतत्ता न च न सब्बेसं अनुग्गहाय पवत्तो, करुणाय सब्बेपि अनुकम्पति, पञानुगतत्ता न च न सब्बत्थ विरत्तचित्तो। पाय च अहंकारममंकाराभावो, करुणाय आलसियदीनताभावो । तथा पाकरुणाहि यथाक्कम अत्तपरनाथता, धीरवीरभावो, अनत्तन्तपअपरन्तपता, अत्तहितपरहितनिप्फत्ति, निब्भयाभिंसनकभावो, धम्माधिपतिलोकाधिपतिता, कतञ्जपुब्बकारिभावो, मोहतण्हाविगमो, विज्जाचरणसिद्धि, बलवेसारज्जनिष्फत्तीति सब्बस्सापि पारमिताफलस्स विसेसेन उपायभावतो पञआकरुणा पारमीनं पच्चयो। इदञ्च द्वयं पारमीनं विय पणिधानस्सापि पच्चयो ।
तथा उस्साहउम्मङ्गअवत्थानहितचरिया च पारमीनं पच्चयोति वेदितब्बा, या बुद्धभावस्स उप्पत्तिट्ठानताय "बुद्धभूमियो"ति पवुच्चन्ति । यथाह -
“कति पन भन्ते बुद्धभूमियो ? चतस्सो खो सारिपुत्त बुद्धभूमियो। कतमा चतस्सो ? उस्साहो. च होति वीरियं, उमङ्गो च होति पञआभावना, अवत्थानञ्च होति अधिट्ठानं, मेत्ताभावना च होति हितचरिया । इमा खो सारिपुत्त चतस्सो बुद्धभूमियो''ति (सु० नि० अट्ठ० १.खग्गविसाणसुत्तवण्णनायम्पि)।
तथा नेक्खम्मपविवेकअलोभादोसामोहनिस्सरणप्पभेदा छ अज्झासया । वुत्तव्हेतं -
"नेक्खम्मज्झासया च बोधिसत्ता कामे दोसदस्साविनो, पविवेक...पे०... सङ्गणिकाय, अलोभ...पे०... लोभे, अदोस...पे०... दोसे, अमोह...पे०... मोहे, निस्सरणज्झासया च बोधिसत्ता सब्बभवेसु दोसदस्साविनो''ति (विसुद्धि० अट्ठ० १.४९ वाक्यखन्धेपि)।
तस्मा एते बोधिसत्तानं छ अज्झासया दानादीनं पच्चयाति वेदितब्बा। न हि लोभादीसु आदीनवदस्सनेन, अलोभादिअधिकभावेन च विना दानादिपारमियो सम्भवन्ति । अलोभादीनहि अधिकभावेन परिच्वागादिनिन्नचित्तता अलोभज्झासयादिताति । यथा चेते, एवं दानज्झासयतादयोपि । यथाह -
“कति पन भन्ते बोधाय चरन्तानं बोधिसत्तानं अज्झासया ? दस खो
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गटीका
सारिपुत्त बोधाय चरन्तानं बोधिसत्तानं अज्झासया । कतमे दस ? दानज्झासया सारिपुत्त बोधिसत्ता मच्छेरे दोसदस्साविनो, सील...पे०... उपेक्खज्झासया सारिपुत्त बोधिसत्ता सुखदुक्खेसु दोसदस्साविनो 'ति ।
एतेसु हि मच्छेर असंवरकामविचिकिच्छाकोसज्ज अक्खन्तिविसंवादअनधिट्ठानब्यापादसुखदुक्खसङ्घातेसु आदीनवदरसनपुब्बङ्गमा दानादिनिन्नचित्ततासङ्घाता दानज्झासयतादयो दानादिपारमीनं निब्बत्तिया कारणन्ति । तथा अपरिच्चागपरिच्चागादीसु यथाक्कमं आदीनवानिसंसपच्चवेक्खणा दानादिपारमीनं पच्चयो ।
तत्थायं पच्चवेक्खणाविधि -
खेत्तवत्थुहिरञ्ञसुवण्णगोमहिंसदासिदासपुत्तदारादिपरिग्गहब्यासत्तचित्तानं सत्तानं खेत्तादीनं वत्थुकामभावेन बहुपत्थनीयभावतो, राजचोरादिसाधारणभावतो, विवादाधिट्टानतो, सपत्तकरणतो, निस्सारतो, पटिलाभपरिपालनेसु परविहेठनहेतुतो, विनासनिमित्तञ्च सोकादिअनेकविहितब्यसनावहतो, तदासत्तिनिदानञ्च मच्छेरमलपरियुट्ठितचित्तानं अपायूपपत्तिसम्भवतोति एवं विविधविपुलानत्थावहा ते अत्था नाम, तेसं परिच्चागोयेवेको सोत्थिभावोति परिच्चागे अप्पमादो करणीयो ।
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अपिच “याचको याचमानो अत्तनो गुहस्स आचिक्खनतो मय्हं विस्सासिको' 'ति च " पहाय गमनीयं अत्तनो सन्तकं गहेत्वा परलोकं याहीति मय्हं उपदेसको "ति च 'आदित्ते विय अगारे मरणग्गिना आदित्ते लोके ततो मय्हं सन्तकस्स अपवाहकसहायो’ति च 'अपवाहितस्स चस्स निज्झायनिक्खेपट्ठानभूतो "ति च ‘“दानसङ्घाते कल्याणकम्मस्मिं सहायभावतो, सब्बसम्पत्तीनं अग्गभूताय परमदुल्लभाय बुद्धभूमिया सम्पत्तिहेतुभावतो. च परमो कल्याणमित्तो" ति च पच्चवेक्खितब्बं ।
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तथा “उळारे कम्मनि अनेनाहं सम्भावितो, तस्मा सा सम्भावना अवितथा कातब्बा "ति च “एकन्तभेदिताय जीवितस्स अयाचितेनपि मया दातब्बं पगेव याचितेना”ति च ‘“उळारज्झासयेहि गवेसित्वापि दातब्बो, सयमेवागतो मम पुञ्ञेनाति च " याचकस्स दानापदेसेन मय्हमेवायमनुग्गहो" ति च " अहं विय अयं सब्बोपि लोको मया अनुग्गहेतब्बो "ति च 'असति याचके कथं मय्हं दानपारमी पूरेय्या "ति च “याचकानमेवत्थाय मया सब्बो परिग्गहेतब्बो "ति च " अयाचित्वा मम सन्तकं याचका सयमेव कदा गण्हेय्यु "न्ति च " कथमहं याचकानं पियो चस्सं मनापो 'ति च " कथं वा
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ते मय्हं पिया चस्सु मनापा''ति च "कथं वाहं ददमानो, दत्वापि च अत्तमनो अस्सं पमुदितो पीतिसोमनस्सजातो"ति च "कथं वा मे याचका भवेय्यु, उळारो च दानज्झासयो''ति च "कथं वाहमयाचितोयेव याचकानं हदयमाय ददेय्य"न्ति च “सति धने याचके च अपरिच्चागो महती मरहं वञ्चना"ति च "कथं वाहं अत्तनो अङ्गानि जीवितं वापि याचकानं परिच्चजेय्य"न्ति च पच्चवेक्खितब् ।
अपिच “अत्थो नामायं निरपेक्खं दायकं अनुगच्छति यथा तं निरपेक्खं खेपकं किटको'"ति अत्थे निरपेक्खताय चित्तं उप्पादेतब्बं | याचमानो पन यदि पियपुग्गलो होति, "पियो मं याचती"ति सोमनस्सं उप्पादेतब्बं । अथ उदासीनपुग्गलो होति, “अयं मं याचमानो अद्धा इमिना परिच्चागेन मित्तो होती"ति सोमनस्सं उप्पादेतब्बं । ददन्तोपि हि याचकानं पियो होतीति । अथ पन वेरीपुग्गलो याचति, “पच्चत्थिको मं याचति, अयं मं याचमानो अद्धा इमिना परिच्चागेन वेरीपि पियो मित्तो होती"ति विसेसतो सोमनस्सं उप्पादेतब्बं । एवं पियपुग्गले विय मज्झत्तवेरीपुग्गलेसुपि मेत्तापुब्बङ्गमं करुणं उपट्ठपेत्वाव दातब्बं ।
सचे पनस्स चिरकालपरिभावितत्ता लोभस्स देय्यधम्मविसया लोभधम्मा उप्पज्जेय्यु, तेन बोधिसत्तपटिओन इति पटिसञ्चिक्खितब्बं “ननु तया सप्पुरिस सम्बोधाय अभिनीहारं करोन्तेन सब्बसत्तानं उपकारत्थाय अयं कायो निस्सट्ठो, तप्परिच्चागमयञ्च पुञ्ज, तत्थ नाम ते बाहिरेपि वत्थुस्मिं अतिसङ्गप्पवत्ति हत्थिसिनानसदिसी होति, तस्मा तया न कत्थचि सङ्गो उप्पादेतब्बो । सेय्यथापि नाम महतो भेसज्जरुक्खस्स तिट्ठतो मूलं मूलत्थिका हरन्ति, पपटिकं, तचं, खन्धं, विटपं, सारं, साखं, पलासं, पुष्पं, फलं फलत्थिका हरन्ति, न तस्स रुक्खस्स 'मय्हं सन्तकं एते हरन्ती"ति वितक्कसमुदाचारो होति, एवमेव सब्बलोकहिताय उस्सुक्कमापज्जन्तेन मया महादुक्खे अकत के निच्चासुचिम्हि काये परेसं उपकाराय विनियुज्जमाने अणुमत्तोपि मिच्छावितक्को न उप्पादेतब्बो, को वा एत्थ विसेसो अज्झत्तिकबाहिरेसु महाभूतेसु एकन्तभेदनविकिरणविद्धंसनधम्मेसु, केवलं पन सम्मोहविजम्भितमेतं, यदिदं 'एतं मम, एसोहमस्मि, एसो मे अत्ताति अभिनिवेसो । तस्मा बाहिरेसु विय अज्झत्तिकेसुपि करचरणनयनादीसु, मंसादीसु च अनपेक्खेन हुत्वा 'तंतदस्थिका हरन्तू'ति निस्सट्ठचित्तेन भवितब्बन्ति । एवं पटिसञ्चिक्खतो चस्स बोधाय पहितत्तस्स कायजीवितेसु निरपेक्खस्स अप्पकसिरेनेव कायवचीमनोकम्मानि सुविसुद्धानि होन्ति । सो विसुद्धकायवचीमनोकम्मन्तो विसुद्धाजीवो जायपटिपत्तियं ठितो,
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आयापायुपायकोसल्लसमन्नागमेन भिय्योसो मत्ताय देय्यधम्मपरिच्चागेन, अभयदानसद्धम्मदानेहि च सब्बसत्ते अनुग्गण्हितुं समत्थो होतीति । अयं ताव दानपारमियं पच्चवेक्षणानयो ।
सीलपारमियं पन एवं पच्चवेक्खितब्बं - इदहि सीलं नाम गङ्गोदकादीहि विसोधेतुं असक्कुणेय्यस्स दोसमलस्स विक्खालनजलं, हरिचन्दनादीहि विनेतुं असक्कुणेय्यरागादिपरिळाहविनयनं, हारमकुटकुण्डलादीहि पचुरजनालङ्कारेहि असाधारणो साधूनं अलङ्कारविसेसो, सब्बदिसावायनतो अकित्तिमो, सब्बकालानुरूपो च सुरभिगन्धो, खत्तियमहासालादीहि देवताहि च वन्दनीयादिभावावहनतो परमो वसीकरणमन्तो, चातुमहाराजिकादि देवलोकारोहनसोपानपन्ति, झानाभिञानं अधिगमुपायो, निब्बानमहानगरस्स सम्पापकमग्गो, सावकबोधिपच्चेकबोधिसम्मासम्बोधीनं पतिट्ठानभूमि, यं यं वा पनिच्छितं पत्थितं, तस्स तस्स समिज्झनूपायभावतो चिन्तामणिकप्परुक्खादिके च अतिसेति । वुत्तज्हेतं भगवता “इज्झति भिक्खवे सीलवतो चेतोपणिधि विसुद्धत्ता"ति (अ० नि० ३.८.३५)। अपरम्पि वुत्तं “आकङ्ग्रेय्य चे भिक्खवे भिक्खु सब्रह्मचारीनं पियो च अस्सं मनापो च गरु च भावनीयो चाति, सीलेस्वेवस्स परिपूरकारी"तिआदि (म० नि० १.६१), तथा “अविप्पटिसारत्थानि खो आनन्द कुसलानि सीलानी''ति (अ० नि० ३.१०.१; ११.१), "पञ्चिमे गहपतयो आनिसंसा सीलवतो सीलसम्पदाया"ति (दी० नि० २.१५०; उदा० ७६; महाव० १८५) सुत्तानञ्च वसेन सीलस्स गुणा पच्चवेक्खितब्बा, तथा अग्गिक्खन्धोपमसुत्तादीनं (अ० नि० २.७.७२) वसेन सीलविरहे आदीनवा।
पीतिसोमनस्सनिमित्ततो, अत्तानुवादपरानुवाददण्डदुग्गतिभयाभावतो, विहि पासंसभावतो, अविप्पटिसारहेतुतो, सोत्थिट्ठानतो, अभिजनसापतेय्याधिपतेय्यायुरूपट्ठानबन्धुमित्तसम्पत्तीनं अतिसयनतो च सीलं पच्चवेक्खितब्बं । सीलवतो हि अत्तनो सीलसम्पदाहेतु महन्तं पीतिसोमनस्सं उप्पज्जति “कतं वत मया कुसलं, कतं कल्याणं, कतं भीरुत्ताण''न्ति । तथा सीलवतो अत्ता न उपवदति, न परे विञ्जू, दण्डदुग्गतिभयानं सम्भवोयेव नत्थि, “सीलवा पुरिसपुग्गलो कल्याणधम्मोति विझूनं पासंसो होति । तथा सीलवतो स्वायं “कतं वत मया पापं, कतं लुई, कतं किब्बिस"न्ति दुस्सीलस्स विप्पटिसारो उप्पज्जति, सो न होति। सीलञ्च नामेतं अप्पमादाधिट्ठानतो, भोगब्यसनादिपरिहारमुखेन महतो अत्थस्स साधनतो, मङ्गलभावतो च परमं सोत्थिट्टानं,
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चूळसीलवण्णना
निहीनजच्चोपि सीलवा खत्तियमहासालादीनं पूजनीयो होतीति कुलसम्पत्तिं अतिसेति सीलसम्पदा, "तं किं मञ्जसि महाराज, इध ते अस्स पुरिसो दासो कम्मकरो"तिआदि (दी० नि० १.१८३) वचनञ्वेत्थ साधकं । चोरादीहि असाधारणतो, परलोकानुगमनतो, महप्फलभावतो, समथादिगुणाधिट्ठानतो च बाहिरधनं अतिसेति सीलं, परमस्स चित्तिस्सरियस्स अधिट्ठानभावतो खत्तियादीनं इस्सरियं अतिसेति सीलं। सीलनिमित्तहि तंतसत्तनिकायेसु सत्तानं इस्सरियं वस्ससतदीघप्पमाणतो जीविततो एकाहम्पि सीलवतो जीवितस्स विसिट्ठतावचनतो, सति च जीविते सिक्खानिक्खेपस्स मरणतावचनतो सीलं जीविततो विसिठ्ठतरं । वेरीनम्पि मनुञभावावहनतो, जरारोगविपत्तीहि अनभिभवनीयतो च रूपसम्पत्तिं अतिसेति सीलं। पासादहम्मियादिवानविसेसे, राजयुवराजसेनापतिआदिवानविसेसे च अतिसेति सीलं सुखविसेसाधिट्ठानभावतो। सभावसिनिः सन्तिकावचरेपि बन्धुजने मित्तजने च अतिसेति एकन्तहितसम्पादनतो, परलोकानुगमनतो च । “न तं माता पिता कयिरा"तिआदि (ध० प० ४३) वचनञ्चेत्थ साधकं। तथा हत्थिअस्सरथादिभेदेहि, मन्तागदसोत्थानप्पयोगेहि च दुरारक्खं अत्तानं आरक्खभावेन सीलमेव विसिट्टतरं अत्ताधीनतो, अपराधीनतो, महाविसयतो च । तेनेवाह "धम्मो हवे रक्खति धम्मचारिन्तिआदि (जा० १.९.१०२)। एवमनेकगुणसमन्नागतं सीलन्ति पच्चवेक्खन्तस्स अपरिपुण्णा चेव सीलसम्पदा पारिपूरिं गच्छति अपरिसुद्धा च पारिसुद्धिं ।
सचे पनस्स दीघरत्तं परिचयेन सीलपटिपक्खा धम्मा दोसादयो अन्तरन्तरा उप्पज्जेय्यु, तेन बोधिसत्तपटिओन एवं पटिसञ्चिक्खितब्बं “ननु तया सम्बोधाय पणिधानं कतं, सीलविकलेन च न सक्का लोकियापि सम्पत्तियो पापुणितुं, पगेव लोकुत्तरा, सब्बसम्पत्तीनं पन अग्गभूताय सम्मासम्बोधिया अधिट्ठानभूतेन सीलेन परमुक्कंसगतेन भवितब्बं । तस्मा 'किकीव अण्ड'न्तिआदिना (विसुद्धि० १.१९; दी० नि० अट्ठ० १.७) वुत्तनयेन सम्मा सीलं परिरक्खन्तेन सुटु तया पेसलेन भवितब् । अपि च तया धम्मदेसनाय यानत्तये सत्तानं अवतारणपरिपाचनानि कातब्बानि, सीलविकलस्स च वचनं न पच्चेतबं होति असप्पायाहारविचारस्स विय वेज्जस्स तिकिच्छनं, तस्मा कथाहं सद्धेय्यो हत्वा सत्तानं अवतारणपरिपाचनानि करेय्य'न्ति सभावपरिसुद्धसीलेन भवितब्बं । किञ्च "झानादिगुणविसेसयोगेन मे सत्तानं उपकारकरणसमत्थता, पञापारमीआदिपरिपूरणञ्च, झानादयो च गुणा सीलपारिसुद्धिं विना न सम्भवन्तीति सम्मदेव सील परिसोधेतब्बं ।
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(१.७-७)
तथा “सम्बाधो घरावासो रजोपथो"तिआदिना (दी० नि० १.१९१; म० नि० १.२९१; सं० नि० १.२.१५४; म० नि० २.१०) घरावासे “अट्ठिकङ्कलूपमा कामा"तिआदिना (म० नि० १.२३४; पाचि० ४१७; महानि० ३, ६), "मातापि पुत्तेन विवदती"तिआदिना (म० नि० १.१६८, १७८) च कामेसु “सेय्यथापि पुरिसो इणं आदाय कम्मन्ते पयोजेय्या'तिआदिना (दी० नि० १.२१८) कामच्छन्दादीसु आदीनवदस्सनपुब्बङ्गमा वुत्तविपरियायेन "अब्भोकासो पब्बज्जा"तिआदिना (दी० नि० १.१.९१; सं० नि० १.१५४) पब्बज्जादीसु आनिसंसपटिसङ्खावसेन नेक्खम्मपारमियं पच्चवेक्खणा वेदितब्बा। अयमेत्थ सङ्खपत्थो, वित्थारो पन दुक्खक्खन्ध (म० नि० १.१६३) वीमंससुत्तादि (म० नि० १.४८७) वसेन दुक्खक्खन्धआसिविसोपमसुत्तादिवसेन (चरिया० पि० अट्ठ० पकिण्णककथाय) वेदितब्बो ।
तथा “पाय विना दानादयो धम्मा न विसुज्झन्ति, यथासकं ब्यापारसमत्था च न होन्तीति पागुणा मनसि कातब्बा । यथेव हि जीवितेन विना सरीरयन्तं न सोभति, न च अत्तनो किरियासु पटिपत्तिसमत्थं होति, यथा च चक्खादीनि इन्द्रियानि विज्ञाणेन विना यथासकं विसयेसु किच्चं कातुं नप्पहोन्ति, एवं सद्धादीनि इन्द्रियानि पञआय विना सकिच्चपटिपत्तियं असमत्थानीति परिच्चागादिपटिपत्तियं पञआ पधानकारणं । उम्मीलितपञाचक्खुका हि महासत्ता अत्तनो अङ्गपच्चङ्गानिपि दत्वा अनत्तुक्कंसका, अपरवम्भका च होन्ति, भेसज्जरुक्खा विय विकप्परहिता कालत्तयेपि सोमनस्सजाता । पावसेन उपायकोसल्लयोगतो परिच्चागो परहितप्पवत्तिया दानपारमिभावं उपेति । अत्तत्थहि दानं वुड्डिसदिसं होति ।
तथा पञ्जाय अभावेन तण्हादिसंकिलेसावियोगतो सीलस्स विसुद्धियेव न सम्भवति, कुतो सब्ब गुणाधिट्ठानभावो । पञवा एव च घरावासे कामगुणेसु संसारे च आदीनवं, पब्बज्जाय झानसमापत्तियं निब्बाने च आनिसंसं सुट्टु सल्लक्खेन्तो पब्बजित्वा झानसमापत्तियो निब्बत्तेत्वा निब्बाननिन्नो, परे च तत्थ पतिठ्ठपेतीति ।
वीरियञ्च पारहितं यदिच्छितमत्थं न साधेति दुरारम्भभावतो। वरमेव हि अनारम्भो दुरारम्भतो, पञ्जासहितेन पन वीरियेन न किञ्चि दुरधिगमं उपायपटिपत्तितो । तथा पञवा एव परापकारादिअधिवासकजातियो होति, न दुप्पो । पञ्जाविरहितस्स च परेहि उपनीता अपकारा खन्तिया पटिपक्खमेव अनुब्रूहेन्ति, पञवतो पन ते
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चूळसीलवण्णना
खन्तिसम्पत्तिया परिब्रूहनवसेन अस्सा थिरभावाय संवत्तन्ति । पञ्ञवा एव ती सच्चा तेसं कारणानि परिपक्खे च यथाभूतं जानित्वा परेसं अविसंवादको होति । तथा पञ्ञाबलेन अत्तानं उपत्थम्भत्वा धितिसम्पदाय सब्बपारमीसु अचलसमादानाधिट्ठानो होति, पञ्ञवा एव च पियमज्झत्तवेरीविभागं अकत्वा सब्बत्थ हितूपसंहारकुसलो होति । तथा पञ्ञवसेन लाभादिलोकधम्मसन्निपाते निब्बिकारताय मज्झत्तो होति । एवं सब्बासं पारमीनं पञ्ञव पारिसुद्धिहेतूति पञ्ञगुणा पच्चवेक्खितब्बा ।
(१.७-७)
अपिच पञ्ञाय विना न दस्सनसम्पत्ति, अन्तरेन च दिट्ठिसम्पदं न सीलसम्पदा, सीलदिट्ठिसम्पदारहितस्स न समाधिसम्पदा, असमाहितेन च न सक्का अत्तहितमत्तम्पि साधेतुं, पगेव उक्कंसगतं परहितन्ति परहिताय पटिपन्नेन " ननु तया सक्कच्चं पञ्ञपारिसुद्धियं आयोगो करणीयो "ति बोधिसत्तेन अत्ता ओवदितब्बो । पञ्ञानुभावेन ि महासत्तो चतुरधिट्ठानाधिट्ठितो चतूहि सङ्ग्रहवत्थूहि (दी० नि० ३.२१०, ३१३; अ० नि० १.१०.३२) लोकं अनुग्गण्हन्तो सत्ते निय्यानिकमग्गे अवतारेति, इन्द्रियानि च नेसं परिपाचेति । तथा पञ्ञबलेन खन्धायतनादीसु पविचयबहुलो पवत्तिनिवत्तियो याथावतो परिजानन्तो दानादयो गुणे विसेसनिब्बेधभागियभावं नयन्तो बोधिसत्तसिक्खाय परिपूरकारी होतीति एवमादिना अनेकाकारवोकारे पञ्ञगुणे ववत्थपेत्वा पञ्ञापारमी अनुब्रूहेतब्बा
तथा दिस्समानपारानिपि लोकयानि कम्मानि निहीनवीरियेन पापुणितुं असक्कुणेय्यानि, अगणितखेदेन पन आरद्धवीरियेन दुरधिगमं नाम नत्थि । निहीनवीरियो हि “संसारमहोघतो सब्बसत्ते सन्तारेस्सामी' 'ति आरभितुमेव न सक्कुणोति । मज्झिमो आरभित्वा अन्तरावोसानमापज्जति । उक्कट्ठवीरियो पन अत्तसुखनिरपेक्खो आरम्भपारं अधिगच्छतीति वीरियसम्पत्ति पच्चवेक्खितब्बा । अपिच " यस्स अत्तनोयेव संसारपङ्कतो समुद्धरणत्थमारम्भो, तस्सापि वीरियस्स सिथिलभावेन मनोरथानं मत्थकप्पत्ति न सक्का सम्भावेतुं, पगेव सदेवकस्स लोकस्स समुद्धरणत्थं कताभिनीहारेना " ति च " रागादीनं दोसगणानं मत्तमहागजानं विय दुन्निवारयभावतो, तन्निदानानञ्च कम्मसमादानानं उक्खित्तासिकवधकसदिसभावतो, तन्निमित्तानञ्च दुग्गतीनं सब्बदा विवटमुखभावतो, तत्थ नियोजकानञ्च पापमित्तानं सदा सन्निहितभावतो, तदोवादकारिताय च बालस्स पुथुज्जनभावस्स सति सम्भवे युत्तं सयमेव संसारदुक्खतो निस्सरितु "न्ति च "मिच्छावितक्का वीरियानुभावेन दूरी भवन्तीति च "यदि पन सम्बोधि अत्ताधीनेन
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वीरियेन सक्का समधिगन्तुं, किमेत्थ दुक्कर''न्ति च एवमादिना नयेन वीरियस्स गुणापच्चवेक्खितब्बा।
तथा “खन्ति नामायं निरवसेसगुणपटिपक्खस्स कोधस्स विधमनतो गुणसम्पादने साधूनमप्पटिहतमायुधं, पराभिभवने समत्थानं अलङ्कारो, समणब्राह्मणानं बलसम्पदा, कोधग्गिविनयनी उदकधारा, कल्याणस्स कित्तिसद्दस्स सञ्जातिदेसो, पापपुग्गलानं वचीविसवूपसमकरो मन्तागदो, संवरे ठितानं परमा धीरपकति, गम्भीरासयताय सागरो, दोसमहासागरस्स वेला, अपायद्वारस्स पिधानकवाट, देवब्रह्मलोकानं आरोहणसोपानं, सब्बगुणानं अधिवासनभूमि, उत्तमा कायवचीमनोविसुद्धी"ति मनसि कातब् । अपि च "एते सत्ता खन्तिसम्पत्तिया अभावतो इध चेव तपन्ति, परलोके च तपनीयधम्मानुयोगतो"ति च “यदिपि परापकारनिमित्तं दुक्खं उप्पज्जति, तस्स पन दुक्खस्स खेत्तभूतो अत्तभावो, बीजभूतञ्च कम्मं मयाव अभिसङ्खत"न्ति च "तस्स दुक्खस्स आणण्यकारणमेत"न्ति च “अपकारके असति कथं महं खन्तिसम्पदा सम्भवतीति च “यदिपायं एतरहि अपकारको, अयं नाम पुब्बे अनेन मय्हं उपकारो कतो''ति च “अपकारो एव वा खन्तिनिमित्तताय उपकारो"ति च "सब्बेपिमे सत्ता मव्हं पुत्तसदिसा, पुत्तकतापराधेसु च को कुज्झिस्सती"ति च "येन कोधभूतावेसेन अयं महं अपरज्झति, सो कोधभूतावेसो मया विनेतब्बो'"ति च “येन अपकारेन इदं महं दुक्खं उप्पन्नं, तस्स अहम्पि निमित्त"न्ति च “येहि धम्मेहि अपराधो कतो, यत्थ च कतो, सब्बेपि ते तस्मिंयेव खणे निरुद्धा, कस्सिदानि केन कोधो कातब्बो''ति च "अनत्तताय सब्बधम्मानं को कस्स अपरज्झती''ति च पच्चवेक्खन्तेन खन्तिसम्पदा ब्रूहेतब्बा।
यदि पनस्स दीघरत्तं परिचयेन परापकारनिमित्तको कोधो चित्तं परियादाय तितुय्य, इति पटिसञ्चिक्खितब्बं "खन्ति नामेसा परापकारस्स पटिपक्खपटिपत्तीनं पच्चुपकारकारण"न्ति च "अपकारो च मय्हं दुक्खुप्पादनेन दुक्खुपनिसाय सद्धाय, सब्बलोके अनभिरतिसञाय च पच्चयो''ति च “इन्द्रियपकतिरेसा, यदिदं इट्ठानिट्ठविसयसमायोगो, तत्थ अनिट्ठविसयसमायोगो मय्हं न सियाति तं कुतेत्थ लब्भा"ति च “कोधवसिको सत्तो कोधेन उम्मत्तो विक्खित्तचित्तो, तत्थ किं पच्चपकारेना'"ति च “सब्बे पिमे सत्ता सम्मासम्बुद्धेन ओरसपुत्ता विय परिपालिता, तस्मा न तत्थ मया चित्तकोपोपि कातब्बो''ति च "अपराधके च सति गुणे गुणवति मया न कोपो कातब्बो"ति च "असति गुणे विसेसेन करुणायितब्बो"ति च "कोपेन च मय्हं
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चूळसीलवण्णना
गुणयसा निहीयन्ती"ति च "कुज्झनेन मय्हं दुब्बण्णदुक्खसेय्यादयो सपत्तकन्ता आगच्छन्ती''ति च “कोधो च नामायं सब्बाहितकारको सब्बहितविनासको बलवा पच्चत्थिको'ति च “सति च खन्तिया न कोचि पच्चत्थिको"ति च “अपराधकेन अपराधनिमित्तं यं आयतिं लद्धब्बं दुक्खं, सति च खन्तिया महं तदभावो"ति च “चिन्तनेन कुज्झन्तेन च मया पच्चत्थिकोयेव अनुवत्तितो होती"ति च “कोधे च मया खन्तिया अभिभूते तस्स दासभूतो पच्चत्थिको सम्मदेव अभिभूतो होती"ति च "कोधनिमित्तं खन्तिगुणपरिच्चागो मय्हं न युत्तो"ति च “सति च कोधे गुणविरोधिनि (गुणविरोधपच्चनीधम्मे चरिया० पि० अट्ठ० पकिण्णककथाय) किं मे सीलादिधम्मा पारिपूरिं गच्छेय्युं, असति च तेसु कथाहं सत्तानं उपकारबहुलो पटिञानुरूपं उत्तमं सम्पत्तिं पापुणिस्सामी"ति च "खन्तिया च सति बहिद्धा विक्खेपाभावतो समाहितस्स सब्बे सङ्खारा अनिच्चतो दुक्खतो सब्बे धम्मा अनत्ततो निब्बानञ्च असङ्खतामतसन्तपणीतादिभावतो निज्झानं खमन्ति 'बुद्धधम्मा च अचिन्तेय्यापरिमेय्यपभावा'ति", ततो च “अनुलोमियं खन्तियं ठितो 'केवला इमे च अत्तत्तनियभावरहिता धम्ममत्ता यथासकं पच्चयेहि उप्पज्जन्ति वयन्ति, न कुतोचि आगच्छन्ति, न कुहिञ्चि गच्छन्ति, न च कत्थचि पतिट्ठिता, न चेत्थ कोचि कस्सचि ब्यापारो'ति अहंकारममंकारानधिट्ठानता निज्झानं खमति, येन बोधिसत्तो बोधिया नियतो अनावत्तिधम्मो होती"ति एवमादिना खन्तिपारमियं पच्चवेक्खणा वेदितब्बा।
तथा "सच्चेन विना सीलादीनं असम्भवतो, पटिञानुरूपं पटिपत्तिया अभावतो च सच्चधम्मातिक्कमे च सब्बपापधम्मानं समोसरणतो, असच्चसन्धस्स अप्पच्चयिकभावतो, आयतिञ्च अनादेय्यवचनतावहनतो, सम्पन्नसच्चस्स च सब्बगुणाधिट्ठानभावतो, सच्चाधिट्ठानेन सब्बबोधिसम्भारानं पारिसुद्धिपारिपूरिसमन्वायतो, सभावधम्माविसंवादनेन सब्बबोधिसम्भारकिच्चकरणतो, बोधिसत्तपटिपत्तिया च परिनिप्फत्तितो''तिआदिना सच्चपारमिया सम्पत्तियो पच्चवेक्खितब्बा ।
तथा “दानादीसु दळहसमादानं, तम्पटिपक्खसन्निपाते च नेसं अचलावत्थानं, तत्थ च थिरभावं विना न दानादिसम्भारा सम्बोधिनिमित्ता सम्भवन्ती"तिआदिना अधिटाने गुणा पच्चवेक्खितब्बा।
तथा “अत्तहितमत्ते अवतिद्वन्तेनापि सत्तेसु हितचित्ततं विना न सक्का
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गटीका
(१.७-७)
इधलोकपरलोकसम्पत्तियो पापुणितुं, पगेव सब्बसत्ते निब्बानसम्पत्तियं पतिठ्ठापेतुकामेना''ति च “पच्छा सब्बसत्तानं लोकुत्तरसम्पत्तिं आकयन्तेन इदानि लोकियसम्पत्तिं आकङ्खा युत्तरूपा''ति च “इदानि आसयमत्तेन परेसं हितसुखूपसंहारं कातुं असक्कोन्तो कदा पयोगेन तं साधेस्सामी''ति च “इदानि मया हितसुखूपसंहारेन संवद्धिता पच्छा धम्मसंविभागसहाया मय्हं भविस्सन्ती'"ति च “एतेहि विना न मय्हं बोधिसम्भारा सम्भवन्ति, तस्मा सब्बबुद्धगुणविभूतिनिप्फत्तिकारणत्ता मय्हं एते परमं पुञ्जक्खेत्तं अनुत्तरं कुसलायतनं उत्तमं गारवट्ठान'"न्ति च "सविसेसं सत्तेसु सब्बेसु हितज्झासयता पच्चुपट्टपेतब्बा, किञ्च करुणाधिट्ठानतोपि सब्बसत्तेसु मेत्ता अनुब्रूहेतब्बा। विमरियादीकतेन हि चेतसा सत्तेसु हितसुखूपसंहारनिरतस्स तेसं अहितदुक्खापनयनकामता बलवती उप्पज्जति दळहमूला, करुणा च सब्बेसं बुद्धकारकधम्मानमादि चरणं पतिट्ठा मूलं मुखं पमुख"न्ति एवमादिना मेत्ताय गुणा पच्चवेक्खितब्बा ।
तथा “उपेक्खाय अभावे सत्तेहि कता विप्पकारा चित्तस्स विकारं उप्पादेय्यु, सति च चित्तविकारे दानादिसम्भारानं सम्भवोयेव नत्थी'"ति च “मेत्तासिनेहेन सिनेहिते चित्ते उपेक्खाय विना सम्भारानं पारिसुद्धि न होती''ति च "अनुपेक्खको सम्भारेसु पुञ्जसम्भारं तब्बिपाकञ्च सत्तहितत्थं परिणामेतुं न सक्कोती"ति च "उपेक्खाय अभावे देय्यपटिग्गाहकेसु विभागं अकत्वा परिच्चजितुं न सक्कोती"ति च “उपेक्खारहितेन जीवितपरिक्खारानं जीवितस्स च अन्तरायं अमनसिकरित्वा संवरविसोधनं कातुं न सक्का''ति च "उपेक्खावसेन अरतिरतिसहस्सेव नेक्खम्मबलसिद्धितो, उपपत्तितो इक्खनवसेनेव सब्बसम्भारकिच्चनिप्फत्तितो, अच्चारद्धस्स वीरियस्स अनुपेक्खने पधानकिच्चाकरणतो, उपेक्खतोयेव तितिक्खानिज्झानसम्भवतो, उपेक्खावसेन सत्तसङ्खारानं अविसंवादनतो, लोकधम्मानं अज्झुपेक्खनेन समादिन्नधम्मेसु अचलाधिट्ठानसिद्धितो, परापकारादीसु अनाभोगवसेनेव मेत्ताविहारनिप्फत्तितोति सब्बबोधिसम्भारानं समादानाधिट्ठानपारिपूरिनिप्फत्तियो उपेक्खानुभावेन सम्पज्जन्ती"ति एवं आदिना नयेन उपेक्खापारमी पच्चवेक्खितब्बा। एवं अपरिच्चागपरिच्चागादीसु यथाक्कमं आदीनवानिसंसपच्चवेक्खणा दानादिपारमीनं पच्चयोति वेदितब्बा ।
तथा सपरिक्खारा पञ्चदस चरणधम्मा पञ्च च अभिज्ञायो । तत्थ चरणधम्मा नाम सीलसंवरो, इन्द्रियेसु गुत्तद्वारता, भोजने मत्तञ्जता, जागरियानुयोगो, सत्त सद्धम्मा, चत्तारि झानानि च। तेसु सीलादीनं चतुन्नं तेरसपि धुतधम्मा, अप्पिच्छतादयो च
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(१.७-७)
चूळसीलवण्णना
परिक्खारो। सद्धम्मेसु सद्धाय बुद्धधम्मसङ्घसीलचागदेवतूपसमानुस्सतिलूखपुग्गलपरिवज्जनसिनिद्धपुग्गलसेवनपसादनीयधम्मपच्चवेक्खणतदधिमुत्तता परिक्खारो, हिरोत्तप्पानं अकुसलादीनवपच्चवेक्खणअपायादीनवपच्चवेक्खणकुसलधम्मपत्थम्भनभावपच्चवेक्खणहिरोत्तप्प रहितपुग्गलपरिवज्जनहिरोत्तप्पसम्पन्नपुग्गलसेवनतदधिमुत्तता,
बाहुसच्चस्स पुब्बयोगपरिपुच्छकभावसद्धम्माभियोगअनवज्जविज्जाहानादिपरिचयपरिपक्किन्द्रियताकिलेसदूरीभावअप्पस्सुतपरिवज्जनबहुस्सुतसेवनतदधिमुत्तता, वीरियस्स अपायभयपच्चवेक्खणगमनवीथिपच्चवेक्खणधम्ममहत्तपच्चवेक्खणथिनमिद्धविनोदनकुसीतपुग्गलपरिवज्जनआरद्धवीरियपुग्गलसेवनसम्मप्पधानपच्चवेक्खणतदधिमुत्तता, सतिया सतिसम्पजमुट्ठस्सतिपुग्गलपरिवज्जनउपट्ठितस्सतिपुग्गलसेवनतदधिमुत्तता, पाय परिपुच्छकभाववत्थुविसदकिरियाइन्द्रियसमत्तपटिपादनदुप्पञ्चपुग्गलपरिवज्जनपञवन्तपुग्गलसेवनगम्भीरञाणचरियपच्च-वेक्षणतदधिमुत्तता, चतुन्नं झानानं सीलादिचतुक्कं अट्ठतिसाय आरम्मणेसु पुब्बभागभावना, आवज्जनादिवसीभावकरणञ्च परिक्खारो। तत्थ सीलादीहि पयोगसुद्धिया सत्तानं अभयदाने, आसयसुद्धिया आमिसदाने, उभयसुद्धिया च धम्मदाने समत्थो होतीतिआदिना चरणादीनं दानादिसम्भारानं पच्चयभावो यथारहं निद्धारेतब्बो, अतिवित्थारभयेन न निद्धारयिम्ह । एवं सम्पत्तिचक्कादयोपि दानादीनं पच्चयोति वेदितब्बा।
को संकिलेसोति अविसेसेन तण्हादीहि परामट्ठभावो पारमीनं संकिलेसो, विसेसेन देय्यपटिग्गाहकविकप्पा दानपारमिया संकिलेसो, सत्तकालविकप्पा सीलपारमिया, कामभवतदुपसमेसु अभिरतिअनभिरतिविकप्पा नेक्खम्मपारमिया, “अहं ममा''ति विकप्पा पञापारमिया, लीनुद्धच्चविकप्पा वीरियपारमिया, अत्तपरविकप्पा खन्तिपारमिया, अदिट्ठादीसु दिट्टादिविकप्पा सच्चपारमिया, बोधिसम्भारतब्बिपक्खेसु दोसगुणविकप्पा अधिट्ठानपारमिया, हिताहितविकप्पा मेत्तापारमिया, इट्ठानिट्ठविकप्पा उपेक्खापारमिया संकिलेसोति वेदितब्बो ।
किं वोदानन्ति तण्हादीहि अनुपघातो, यथावुत्तविकप्पविरहो च एतासं वोदानन्ति वेदितब्बं । अनुपहता हि तण्हामानदिट्ठिकोधूपनाहमक्खपलासइस्सामच्छरियमायासाठेय्यथम्भसारम्भमदपमादादीहि किलेसेहि देय्यपटिग्गाहकविकप्पादिरहिता च दानादिपारमियो परिसुद्धा पभस्सरा भवन्तीति ।
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गटीका
(१.७-७)
को पटिपक्खोति अविसेसेन सब्बेपि किलेसा सब्बेपि अकुसला धम्मा एतासं पटिपक्खो, विसेसेन पन पुब्बे वुत्ता मच्छेरादयोति वेदितब्बा। . अपिच देय्यपटिग्गाहकदानफलेसु अलोभादोसामोहगुणयोगतो लोभदोसमोहपटिपक्खं दानं, कायादिदोसवकापगमनतो लोभादिपटिपक्खं सीलं, कामसुखपरूपघातअत्तकिलमथपरिवज्जनतो दोसत्तयपटिपखं नेक्खम्मं, लोभादीनं अन्धीकरणतो, आणस्स च अनन्धीकरणतो लोभादिपटिपक्खा पञ्जा, अलीनानुद्धतञायारम्भवसेन लोभादिपटिपक्खं वीरियं, इट्ठानिट्ठसुञतानं खमनतो लोभादिपटिपक्खा खन्ति, सतिपि परेसं उपकारे अपकारे च यथाभूतप्पवत्तिया लोभादिपटिपक्खं सच्चं, लोकधम्मे अभिभुय्य यथासमादिन्नेसु सम्भारेसु अचलनतो लोभादिपटिपक्खं अधिट्टानं, नीवरणविवेकतो लोभादिपटिपक्खा मेत्ता, इट्ठानिद्वेसु अनुनयपटिघविद्धंसनतो, समप्पवत्तितो च लोभादिपटिपक्खा उपेक्खाति दट्टब्बं ।
का पटिपत्तीति सुखूपकरणसरीरजीवितपरिच्चागेन भयापनूदनेन धम्मोपदेसेन च बहुधा सत्तानं अनुग्गहकरणं दाने पटिपत्ति । तत्थायं वित्थारनयो – “इमिनाहं दानेन सत्तानं आयुवण्णसुखबपटिभानादिसम्पत्तिं रमणीयं अग्गफलसम्पत्तिं निप्फादेय्य"न्ति अन्नदानं देति, तथा सत्तानं कम्मकिलेसपिपासवूपसमाय पानं देति, तथा सुवण्णवण्णताय, हिरोत्तप्पालङ्कारस्स च निप्फत्तिया वत्थानि देति, तथा इद्धिविधस्स चेव निब्बानसुखस्स च निप्फत्तिया यानं देति, तथा सीलगन्धनिप्फत्तिया गन्धं, बुद्धगुणसोभानिप्फत्तिया मालाविलेपनं, बोधिमण्डासननिष्फत्तिया आसनं, तथागतसेय्यानिप्फत्तिया सेय्यं, सरणभावनिप्फत्तिया आवसथं, पञ्चचक्खुपटिलाभाय पदीपेय्यं देति । ब्यामप्पभानिप्फत्तिया रूपदानं, ब्रह्मस्सरनिप्फत्तिया सद्ददानं, सब्बलोकस्स पियभावाय रसदानं, बुद्धसुखुमालभावाय फोठुब्बदानं, अजरामरणभावाय भेसज्जदानं, किलेसदासब्यविमोचनत्थं दासानं भुजिस्सतादानं, सद्धम्माभिरतिया अनवज्जखिड्डारतिहेतुदानं, सब्बेपि सत्ते अरियाय जातिया अत्तनो पुत्तभावूपनयनाय पुत्तदानं, सकलस्स लोकस्स पतिभावूपगमनाय दारदानं, सुभलक्खणसम्पत्तिया सुवण्णमणिमुत्तापवाळादिदानं, अनुब्यञ्जनसम्पत्तिया नानाविधविभूसनदानं, सद्धम्मकोसाधिगमाय वित्तकोसदानं, धम्मराजभावाय रज्जदानं, झानादिसम्पत्तिया आरामुय्यानादिवनदानं, चक्कङ्कितेहि पादेहि बोधिमण्डूपसङ्कमनाय चरणदानं, चतुरोघनित्थरणाय सत्तानं सद्धम्महत्थदानत्थं हत्थदानं, सद्धिन्द्रियादिपटिलाभाय कण्णनासादिदानं, समन्तचक्खुपटिलाभाय चक्खुदानं, “दस्सनसवनानुस्सरणपारिचरियादीसु सब्बकालं सब्बसत्तानं हितसुखावहो, सब्बलोकेन च उपजीवितब्बो मे कायो भवेय्या"ति मंसलोहितादिदानं, “सब्बलोकुत्तमो भवेय्य''न्ति उत्तमङ्गदानं देति ।
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चूळसीलवणना
एवं ददन्तो च न अनेसनाय देति, न परोपघातेन, न भयेन, न लज्जाय, न दक्खिणेय्यरोसनेन, न पणीते सति लूखं न अत्तुक्कंसनेन, न परवम्भनेन, न फलाभिकङ्क्षाय, न याचकजिगुच्छाय, न अचित्तीकारेन देति, अथ खो सक्कच्चं देति, सहत्थेन देति, कालेन देति, चित्तिं कत्वा देति, अविभागेन देति, तीसु कालेसु सोमनस्तिो देति । ततोयेव दत्वा न पच्छानुतापी होति, न पटिग्गाहकवसेन मानावमानं करोति, पटिग्गाहकानं पियसमुदाचारो होति वदञ्जू याचयोगो सपरिवारदायी । तञ्च दानसम्पत्तिं सकललोकहितसुखाय परिणामेति, अत्तनो च अकुप्पाय विमुत्तिया, अपरिक्खयस्स छन्दस्स, अपरिक्खयस्स वीरियस्स, अपरिक्खयस्स समाधानस्स, अपरिक्खयस्स आणस्स, अपरिक्खयाय सम्मासम्बोधिया परिणामेति । इमञ्च दानपारमिं पटिपज्जन्तेन महासत्तेन जीविते, भोगेसु च अनिच्चसञ्ञा पच्चुपट्ठपेतब्बा, सत्तेसु च महाकरुणा । एवहि भोगे गहेतब्बसारं गण्हन्तो आदित्तस्मा विय अगारस्मा सब्बं सापतेय्यं, अत्तानञ्च बहि नीहरन्तो न किञ्चि सेसेति, निरवसेसतो निस्सज्जतियेव । अयं ताव दानपारमिया पटिपत्तिक्कमो ।
(१.७-७)
सीलपारमिया पन यस्मा सब्बञ्जुसीलालङ्कारेहि सत्ते अलङ्करितुकामेन अत्तनोयेव ताव सीलं विसोधेतब्बं, तस्मा सत्तेसु तथा दयापन्नचित्तेन भवितब्बं यथा सुपिनन्तेनपि न आघातो उप्पज्जेय्य । परूपकारनिरतताय परसन्तको अलगद्दो विय न परामसितब्बो । अब्रह्मचरियतोपि आराचारी, सत्तविधमेथुन संयोगविरतो, पगेव परदारगमनतो । सच्चं हितं पियं परिमितमेव च कालेन धम्मिं कथं भासिता होति, अनभिज्झालु अब्यापन्नो अविपरीतदस्सनो सम्मासम्बुद्धे निविट्ठसद्धो निविट्ठपेमो । इति चतुरापायवट्टदुक्ख अकुसलकम्मपथेहि, अकुसलधम्मेहि च ओरमित्वा सग्गमोक्खपथेसु कुसलकम्मपथेसु पतिट्ठितस्स सुद्धासयपयोगताय यथाभिपत्थिता सत्तानं हितसुखूपसहिता मनोरथा सीघं अभिनिप्फज्जन्ति ।
तत्थ हिंसानिवत्तिया सब्बसत्तानं अभयदानं देति, अप्पकसिरेनेव मेत्ताभावनं सम्पादेति, एकादस मेत्तानिसंसे अधिगच्छति, अप्पाबाधो होति अप्पातङ्को दीर्घायुको सुखबहुलो, लक्खणविसेसे पापुणाति, दोसवासनञ्च समुच्छिन्दति । तथा अदिन्नादाननिवत्तिया चोरादिअसाधारणे उळारे भोगे अधिगच्छति, अनासङ्कनीयो पियो मनापो विस्ससनीयो, विभवसम्पत्तीसु अलग्गचित्तो परिच्चागसीलो, लोभवासनञ्च समुच्छिन्दति । अब्रह्मचरियनिवत्तिया अलोभो होति सन्तकायचित्तो, सत्तानं पियो होति
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गटीका
मनापो अपरिसङ्कनीयो, कल्याणो चस्स कित्तिसद्दो अब्भुग्गच्छति, अलग्गचित्तो होति मातुगामेसु अलुद्धासयो, नेक्खम्मबहुलो, लक्खणविसेसे अधिगच्छति, लोभवासनञ्च समुच्छिन्दति ।
मुसावादनिवत्तिया सत्तानं पमाणभूतो होति पच्चयिको थेतो आदेय्यवचनो देवतानं पियो मनापो सुरभिगन्धमुखो आरक्खियकायवचीसमाचारो, लक्खणविसेसे च अधिगच्छति, किलेसवासनञ्च समुच्छिन्दति । पेसुञ्ञनिवत्तिया परूपक्कमेहि अभेज्जकायो होति अभेज्जपरिवारो, सद्धम्मे च अभिज्जनकसद्धो, दहमित्तो भवन्तरपरिचितानम्पि सत्तानं एकन्तपियो, असंकिलेसबहुलो । फरुसवाचानिवत्तिया सत्तानं पियो होति मनापो सुखसीलो मधुरवचनो सम्भावनीयो, अट्ठङ्गसमन्नागतो चस्स सरो (म० नि० २.३८७) निब्बत्तति । सम्फप्पलापनिवत्तिया च सत्तानं पियो होति मनापो गरुभावनीयो च आदेय्यवचनो च परिमितालापो, महेसक्खो च होति महानुभावो, ठानुप्पत्तिकेन पटिभानेन पञ्हानं ब्याकरणकुसलो, बुद्धभूमियञ्च एकाय एव वाचाय अनेकभासानं सत्तानं अनेकेसं पञ्हानं ब्याकरणसमत्थो होति ।
(१.७-७)
अनभिज्झाता इच्छितलाभी होति, उळारेसु च भोगेसु रुचिं पटिलभति, खत्तियमहासालादीनं सम्मतो होति, पच्चत्थिकेहि अनभिभवनीयो, इन्द्रियवेकल्लं न पापुणाति, अप्पटिपुग्गलो च होति । अब्यापादेन पियदस्सनो होति सत्तानं सम्भावनीयो, परहिताभिनन्दिताय च सत्ते अप्पकसिरेनेव पसादेति, अलूखसभावो च होति मेत्ताविहारी, महेसक्खो च होति महानुभावो । मिच्छादस्सनाभावेन कल्याणे सहाये पटिलभति, सीसच्छेदम्पि पापुणन्तो पापकम्मं न करोति, कम्मस्सकतादस्सनतो अकोतूहलमङ्गलिको च होति, सद्धम्मे चस्स सद्धा पतिट्ठिता होति मूलजाता, सद्दहति च तथागतानं बोधिं, समयन्तरेसु नाभिरमति उक्कारट्ठाने विय राजहंसो, लक्खणत्तयपरिजाननकुसलो होत अन्ते च अनावरणञाणलाभी, याव बोधिं न पापुणाति, ताव तस्मिं तस्मिं सत्तनिकाये उक्क टुक्कट्ठो च होति, उळारुळारसम्पत्तियो पापुणाति ।
“इति हिदं सीलं नाम सब्बसम्पत्तीनं अधिट्ठानं, सब्बबुद्धगुणानं पभवभूमि, सब्बबुद्धकरधम्मानमादि चरणं मुखं पमुख "न्ति बहुमानं उप्पादेत्वा कायवचीसंयमे, इन्द्रियदमने, आजीवसम्पदाय, पच्चयपरिभोगे च सतिसम्पजञ्ञबलेन अप्पमत्तेन लाभसक्कारसिलोकं मित्तमुखपच्चत्थिकं विय सल्लक्खेत्वा "किकीव अण्ड "न्तिआदिना
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(१.७-७)
चूळसीलवण्णना
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(विसुद्धि० १.१९; दी० नि० अट्ठ० १.७) वुत्तनयेन सक्कच्चं सीलं सम्पादेतब्बं । अयमेत्थ सङ्खपो, वित्थारो पन विसुद्धिमग्गे (विसुद्धि० १.६) वुत्तनयेन वेदितब्बो । तञ्च पनेतं सीलं न अत्तनो दुग्गतिपरिकिलेसविमुत्तिया, सुगतियम्पि, न रज्जसम्पत्तिया, नचक्कवत्ति-नदेव-नसक्क-नमार-नब्रह्मसम्पत्तिया, नापि अत्तनो तेविज्जतादिहेतु, न पच्चेकबोधिया, अथ खो सब्ब भावेन सब्बसत्तानं अनुत्तरसीलालङ्कारसम्पादनत्थमेवाति परिणामेतब्बं ।
तथा सकलसंकिलेसनिवासट्ठानताय, पुत्तदारादीहि महासम्बाधताय, कसिवणिज्जादिनानाविधकम्मन्ताधिट्ठानब्याकुलताय च घरावासस्स नेक्खम्मसुखादीनं अनोकासतं, कामानञ्च “सत्थधारालग्गमधुबिन्दु विय च अवलेय्हमाना परित्तस्सादा विपुलानत्थानुबन्धा"ति च "विज्जुलतोभासेन गहेतब्बं नच्चं विय परित्तकालोपलब्भा, उम्मत्तकालङ्कारो विय विपरीतसञ्जाय अनुभवितब्बा, करीसावच्छादनसुखं विय पटिकारभूता, उदकतेमितङ्गुलिया उस्सावकोदकपानं विय अतित्तिकरा, छातज्झत्तभोजनं विय साबाधा, बलिसामिसं विय ब्यसनसन्निपातकारणा, अग्गिसन्तापो विय कालत्तयेपि दुक्खुप्पत्तिहेतुभूता, मक्कटालेपो विय बन्धनिमित्ता घातकावच्छादनकिमिलयो विय अनत्थच्छादना, सपत्तगामवासो विय भयट्ठानभूता, पच्चत्थिकपोसको विय किलेसमारादीनं आमिसभूता, छणसम्पत्तियो विय विपरिणामदुक्खा, कोटरग्गि विय अन्तोदाहका, पुराणकूपावलम्बबीरणमधुपिण्डं विय अनेकादीनवा, लोणूदकपानं विय पिपासहेतुभूता, सुरामेरयं विय नीचजनसेविता, अप्पस्सादताय अट्ठिकङ्कलूपमा''तिआदिना च नयेन आदीनवं सल्लक्खेत्वा तब्बिपरियायेन नेक्खम्मे आनिसंसं पस्सन्तेन नेक्खम्मपविवेकउपसमसुखादीसु निन्नपोणपब्भारचित्तेन नेक्खम्मपारमी पूरेतब्बा ।।
तथा यस्मा पञ्जा आलोको विय अन्धकारेन, मोहेन सह न वत्तति, तस्मा मोहकारणानि ताव बोधिसत्तेन परिवज्जितब्बानि । तत्थिमानि मोहकारणानि - अरति तन्दी विजम्भिता आलसियं गणसङ्गणिकारामता निदासीलता अनिच्छयसीलता आणस्मिं अकुतूहलता मिच्छाधिमानो अपरिपुच्छकता कायस्स न सम्मापरिहारो असमाहितचित्तता दुप्पञानं पुग्गलानं सेवना पचवन्तानं अपयिरुपासना अत्तपरिभवो मिच्छाविकप्पो विपरीताभिनिवेसो कायदळहीबहुलता असंवेगसीलता पञ्च नीवरणानि । सर्वोपतो ये वा पन धम्मे आसेवतो अनुप्पन्ना पञा न उप्पज्जति, उप्पन्ना परिहायति, इति इमानि सम्मोहकारणानि परिवज्जन्तेन बाहुसच्चे झानादीसु च योगो करणीयो ।
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गटीका
(१.७-७)
___ तत्थायं बाहुसच्चस्स विसयविभागो - पञ्च खन्धा द्वादसायतनानि, अट्ठारस धातुयो चत्तारि सच्चानि बावीसतिन्द्रियानि द्वादसपदिको पटिच्चसमुप्पादो, तथा सतिपट्टानादयो कुसलादिधम्मप्पकारभेदा च। यानि च लोके अनवज्जानि विज्जट्ठानानि, ये च सत्तानं हितसुखविधानयोग्या ब्याकरणविसेसा। इति एवं पकारं सकलमेव सुतविसयं उपायकोसल्लपुब्बङ्गमाय पञाय सतिवीरियुपत्थम्भकारणाय साधुकं उग्गहणसवनधारणपरिचयपरिपुच्छाहि ओगाहेत्वा तत्थ च परेसं पतिट्ठपनेन सुतमया पञ्जा निब्बत्तेतब्बा, तथा खन्धादीनं सभावधम्मानं आकारपरिवितक्कनमुखेन ते निज्झानं खमापेन्तेन चिन्तामया, खन्धादीनंयेव पन सलक्खणसामञलक्खणपरिग्गहवसेन लोकियं परिनं निब्बत्तेन्तेन पुब्बभागभावनापा सम्पादेतब्बा । एवन्हि "नामरूपमत्तमिदं यथारहं पच्चयेहि उप्पज्जति चेव निरुज्झति च, न एत्थ कोचि कत्ता वा कारेता वा, हुत्वा अभावढेन अनिच्चं, उदयब्बयपटिपीळनटेन दुक्खं, अवसवत्तनतुन अनत्ता'ति अज्झत्तिकबाहिरे धम्मे निब्बिसेसं परिजानन्तो तत्थ आसङ्गं पजहित्वा, परे च तत्थ तं जहापेत्वा केवलं करुणावसेनेव याव न बुद्धगुणा हत्थतलं आगच्छन्ति, ताव यानत्तये सत्ते अवतारणपरिपाचनेहि पतिट्ठापेन्तो, झानविमोक्खसमाधिसमापत्तियो च वसीभावं पापेन्तो पञ्जाय अतिविय मत्थकं पापुणातीति ।
तथा सम्मासम्बोधिया कताभिनीहारेन महासत्तेन “को नु अज्ज पुञञआणसम्भारो उपचितो, किञ्च मया कतं परहित"न्ति दिवसे दिवसे पच्चवेक्खन्तेन सत्तहितत्थं उस्साहो करणीयो, सब्बेसम्पि सत्तानं उपकाराय अत्तनो कायं जीवितञ्च ओस्सज्जितब्बं, सब्बेपि सत्ता अनोधिसो मेत्ताय करुणाय च फरितब्बा, या काचि सत्तानं दुक्खुप्पत्ति, सब्बा सा अत्तनि पाटिकङ्कितब्बा, सब्बेसञ्च सत्तानं पूज़ अब्भनुमोदितब्बं, बुद्धमहन्तता अभिण्हं पच्चवेक्खितब्बा, यञ्च किञ्चि कम्मं करोति कायेन वाचाय वा, तं सब्बं बोधिनिन्नचित्तपुब्बङ्गमं कातब्बं । इमिना हि उपायेन बोधिसत्तानं अपरिमेय्यो पुञभागो उपचीयति। अपिच सत्तानं परिभोगत्थं परिपालनत्थञ्च अत्तनो सरीरं जीवितञ्च परिच्चजित्वा खुप्पिपासासीतुण्हवातातपादिदुक्खपटिकारो परियेसितब्बो। यञ्च यथावुत्तदुक्खपटिकारजं सुखं अत्तना पटिलभति, तथा रमणीयेसु आरामुय्यानपासादतलादीसु, अरञायततेसु च कायचित्तसन्तापाभावेन अभिनिब्बुतत्ता सुखं विन्दति, यञ्च सुणाति बुद्धानुबुद्धपच्चेकबुद्धबोधिसत्तानं दिट्ठधम्मसुखविहारभूतं झानसमापत्तिसुखं, तं सब्बं सत्तेसु अनोधिसो उपसंहरति । अयं ताव असमाहितभूमियं नयो।
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(१.७-७)
चूळसीलवण्णना
समाहितो पन अत्तना यथानुभूतं विसेसाधिगमनिब्बत्तं पीतिपस्सद्धिसुखं सब्बसत्तेसु अधिमुच्चति, तथा महति संसारदुक्खे, तन्निमित्तभूते च किलेसाभिसङ्खारदुक्खे निमुग्गं सत्तनिकायं दिस्वा तत्थपि छेदनभेदनफालनपिसनग्गिसन्तापादिजनिता दुक्खा तिब्बा खरा कटुका वेदना निरन्तरं चिरकालं वेदियन्ते नारके, अचमचं कुज्झनसन्तापनविहेठनहिंसनपराधीनतादीहि दुक्खं अनुभवन्ते तिरच्छाने, जोतिमाला'कुलसरीरे उद्धबाहुविरवन्ते उक्कामुखे खुप्पिपासादीहि डरहमाने च वन्तखेळादिआहारे च महादुक्खं वेदयमाने पेते च परियेट्ठिमूलकं महन्तं अनयब्यसनं पापुणन्ते हत्थच्छेदादिकारणयोगेन दुब्बण्णदुद्दसिकदलिद्दतादिभावेन खुप्पिपासादियोगेन बलवन्तेहि अभिभवनीयतो, परेसं वहनतो, पराधीनतो च नारके पेते तिरच्छाने च अतिसयन्ते अपायदुक्खनिब्बिसेसं दुक्खं अनुभवन्ते मनुस्से च तथा विसयविसपरिभोगविक्खित्तचित्तताय रागादिपरियुट्ठानेन डरहमाने वायुवेगसमुट्ठितजालासमिद्धसुक्खकट्ठसन्निपाते अग्गिक्खन्धे विय अनुपसन्तपरिळाहवुत्तिके अनिहतपराधीने कामावचरदेवे च महता वायामेन विदूरमाकासं विगाहितसकुन्ता विय, बलवन्तेहि खित्तसरा विय च . “सतिपि चिरप्पवत्तियं अनच्चन्तिकताय पातपरियोसाना अनतिक्कन्तजातिजरामरणा एवा"ति रूपावचरारूपावचरदेवे च पस्सन्तेन मेत्ताय करुणाय च अनोधिसो सत्ता फरितब्बा। एवं कायेन वाचाय मनसा च बोधिसम्भारे निरन्तरं उपचिनन्तेन उस्साहो पवत्तेतब्बो ।
अपिच “अचिन्तेय्यापरिमितविपुलोळारविमलनिरुपमनिरुपक्किलेसगुणनिचयनिदानभूतस्स बुद्धभावस्स उस्सक्कित्वा सम्पहंसनयोग्यं वीरियं नाम अचिन्तेय्यानुभावमेव । यं न पचुरजना सोतुम्पि सक्कुणन्ति, पगेव पटिपज्जितुं। तथा हि तिविधा अभिनीहारचित्तुप्पत्ति, चतस्सो बुद्धभूमियो, चत्तारि सङ्गहवत्थूनि (दी० नि० ३.२१०, ३१३; अ० नि० १.४.३२), करुणोकासता, बुद्धधम्मेसु निज्झानक्खन्ति, सब्बधम्मसु निरुपलेपो, सब्बसत्तेसु पुत्तसञ्जा, संसारदुक्खेहि अपरिखेदो, सब्बदेय्यधम्मपरिच्चागो, तेन च निरतिमानता, अधिसीलसिक्खादिअधिट्ठानं, तत्थ च अचलता, कुसलकिरियासु पीतिपामोज्ज, विवेकनिन्नचित्तता, झानानुयोगो, अनवज्जसुतेन अतित्ति, यथासुतस्स धम्मस्स परेसं हितज्झासयेन देसना, सत्तानं आये निवेसनं, आरम्भदळ्हता, धीरवीरभावो, परापवादपरापकारेसु विकाराभावो, सच्चाधिट्टानं, समापत्तीसु वसीभावो, अभिज्ञासु बलप्पत्ति, लक्खणत्तयावबोधो, सतिपट्टानादीसु अभियोगेन लोकुत्तरमग्गसम्भारसम्भरणं, नवलोकुत्तरावक्कन्ती''ति एवमादिका सब्बा बोधिसम्भारपटिपत्ति वीरियानुभावेनेव
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गटीका
(१.७-७)
समिज्झतीति अभिनीहारतो याव महाबोधि अनोस्सज्जन्तेन सक्कच्चं निरन्तरं वीरियं सम्पादेतब् । सम्पज्जमाने च वीरिये खन्तिआदयो दानादयो च सब्बेपि बोधिसम्भारा तदधीनवुत्तिताय सम्पन्ना एव होन्तीति । खन्तिआदीसुपि इमिना नयेन पटिपत्ति वेदितब्बा ।
इति सत्तानं सुखूपकरणपरिच्चागेन बहुधा अनुग्गहकरणं दानेन पटिपत्ति, सीलेन तेसं जीवितसापतेय्यदाररक्खअभेदपियहितवचनाविहिंसादिकरणानि, नेक्खम्मेन नेसं आमिसपटिग्गहणधम्मदानादिना अनेकधा हितचरिया, पञाय तेसं हितकरणूपायकोसल्लं, वीरियेन तत्थ उस्साहारम्भअसंहीरानि, खन्तिया तदपराधसहनं, सच्चेन तेसं अवञ्चनतदुपकारकिरियासमादानाविसंवादनादि, अधिट्ठानेन तदुपकारकरणे अनत्थसम्पातेपि अचलनं, मेत्ताय तेसं हितसुखानुचिन्तनं, उपेक्खाय तेसं उपकारापकारेसु विकारानापत्तीति एवं अपरिमाणे सत्ते आरब्भ अनुकम्पितसब्बसत्तस्स बोधिसत्तस्स पुथुज्जनेहि असाधारणो अपरिमाणो पुञञाणसम्भारूपचयो एत्थ पटिपत्तीति वेदितब्बं । यो चेतासं पच्चयो वुत्तो, तस्स च सक्कच्चं सम्पादनं ।
को विभागोति दस पारमियो, दस उपपारमियो, दस परमत्थपारमियोति समत्तिंस पारमियो। तत्थ कताभिनीहारस्स बोधिसत्तस्स परहितकरणाभिनिन्नआसयप्पयोगस्स कण्हधम्मवोकिण्णा सुक्कधम्मा पारमियो, तेहि अवोकिण्णा सुक्का धम्मा उपपारमियो, अकण्हा असुक्का परमत्थपारमियोति केचि | समुदागमनकालेसु पूरियमाना पारमियो, बोधिसत्तभूमियं पुण्णा उपपारमियो, बुद्धभूमियं सब्बाकारपरिपुण्णा परमत्थपारमियो । बोधिसत्तभूमियं वा परहितकरणतो पारमियो, अत्तहितकरणतो उपपारमियो, बुद्धभूमियं बलवेसारज्जसमधिगमेन उभयहितपरिपूरणतो परमत्थपारमियोति एवं आदिमज्झपरियोसानेसु पणिधानारम्भपरिनिट्ठानेसु तेसं विभागोति अपरे । दोसुपसमकरुणापकतिकानं भवसुखविमुत्तिसुखपरमसुखप्पत्तानं पुञ्जूपचयभेदतो तब्बिभागोति अझे ।।
___ लज्जासतिमानापस्सयानं लोकुत्तरधम्माधिपतीनं सीलसमाधिपजागरुकानं तारिततरिततारयितूनं अनुबुद्धपच्चेकबुद्धसम्मासम्बुद्धानं पारमी, उपपारमी, परमत्थपारमीति बोधित्तयप्पत्तितो यथावुत्तविभागोति केचि । चित्तपणिधितो याव वचीपणिधि, ताव पवत्ता सम्भारा पारमियो, वचीपणिधितो याव कायपणिधि, ताव पवत्ता उपपारमियो, कायपणिधितो पभुति परमत्थपारमियोति अपरे । अञ पन “परपुञानुमोदनवसेन पवत्ता सम्भारा पारमियो, परेसं कारापनवसेन पवत्ता उपपारमियो, सयं करणवसेन पवत्ता
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(१.७-७)
सीव
परमत्थपारमियो'ति वदन्ति । तथा भवसुखावहो पुञ्ञञणसम्भारो पारमी, अत्तनो निब्बानसुखावहो उपपारमी, परेसं तदुभयसुखावहो परमत्थपारमीति एके ।
पुत्तदारधनादिउपकरणपरिच्चागो पन दानपारमी, अत्तनो अङ्गपरिच्चागो दानउपपारमी, अत्तनो जीवितपरिच्चागो दानपरमत्थपारमी । तथा पुत्तदारादिकस्स तिविधस्सपि हेतु अवीतिक्कमनवसेन तिस्सो सीलपारमियो, तेसु एव तिविधेसु वत्थूसु आलयं उपच्छिन्दित्वा निक्खमनवसेन तिस्सो नेक्खम्मपारमियो, उपकरणङ्गजीविततण्हं समूहनित्वा सत्तानं हिताहितविनिच्छयकरणवसेन तिस्सो पञ्ञापारमियो, यथावुत्तभेदानं परिच्चागादीनं वायमनवसेन तिस्सो वीरियपारमियो, उपकरणङ्गजीवितन्तरायकरानं खमनवसेन तिस्सो खन्तिपारमियो, उपकरणङ्गजीवितहेतु सच्चापरिच्चागवसेन तिस्सो सच्चपारमियो, दानादिपारमियो अकुप्पाधिट्ठानवसेनेव समिज्झन्तीति उपकरणादिविनासेपि अचलाधिट्ठानवसेन तिस्सो अधिट्ठानपारमियो, उपकरणादिउपघातकेसुपि सत्तेसु मेत्ताय अविजहनवसेन तिस्सो मेत्तापारमियो, यथावुत्तवत्थुत्तयस्स उपकारापकारेसु सत्तसङ्घारेसु मज्झत्ततापटिलाभवसेन तिस्सो उपेक्खापारमियोति एवमादिना एतासं विभागो वेदितब्बो ।
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को सङ्गहोति एत्थ पन यथा एता विभागतो तिंसविधापि दानपारमीआदिभावतो दसविधा, एवं दानसीलखन्तिवीरियझानपञ्ञासभावेन छब्बिधा । एतासु हि नेक्खम्मपारमी सीलपारमिया सङ्गहिता तस्सा पब्बज्जाभावे, नीवरणविवेकभावे पन झानपारमिया, कुसलधम्मभावे छहप सङ्गहिता । सच्चपारमी सीलपारमिया एकदेसोयेव वचीसच्चविरतिसच्चपक्खे, आणसच्चपक्खे पन पञ्ञापारमिया सङ्गहिता । मेत्तापारमी झानपारमिया एव, उपेक्खापारमी झानपञ्ञापारमीहि, अधिट्ठानपारमी सब्बाहिपि सङ्ग्रहिताति ।
एतेसञ्च दानादीनं छन्नं गुणानं अञ्ञमञ्ञ सम्बन्धानं पञ्चदसयुगळादीनि पञ्चदसयुगळादिसाधकानि होन्ति सेय्यथिदं ? दानसीलयुगळेन परहिताहितानं करणाकरणयुगळसिद्धि, दानखन्तियुगळेन अलोभादोसयुगळसिद्धि, दानवीरिययुगळेन चागसुतयुगळसिद्धि, दानझानयुगळेन कामदोसप्पहानयुगळसिद्धि, दानपञायुगळेन अरिययानधुरयुगळसिद्धि, सीलखन्तिद्वयेन पयोगासयसुद्धिद्वयसिद्धि, सीलवीरियद्वयेन भावनाद्वयसिद्धि, सीलझानद्वयेन दुस्सील्यपरियुट्ठानप्पहानद्वयसिद्धि, सीपञ्ञाद्वयेन दानद्वयसिद्धि, खन्तिवीरिययुगळेन खमातेजद्वयसिद्धि, खन्तिझानयुगळेन
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गटीका
(१.७-७)
विरोधानुरोधप्पहानयुगळसिद्धि, खन्तिपञायुगळेन सुञताखन्तिपटिवेधदुकसिद्धि, वीरियझानदुकेन पग्गाहाविक्खेपदुकसिद्धि, वीरियपादुकेन सरणदुकसिद्धि, झानपञ्जादुकेन यानदुकसिद्धि। दानसीलखन्तित्तिकेन लोभदोसमोहप्पहानत्तिकसिद्धि, दानसीलवीरियत्तिकेन भोगजीवितकायसारादानत्तिकसिद्धि, दानसीलझानत्तिकेन पुञ्जकिरियवत्थुत्तिकसिद्धि, दानसीलपातिकेन आमिसाभयधम्मदानत्तिकसिद्धीति एवं इतरेहिपि तिकेहि चतुक्कादीहि च यथासम्भवं तिकानि चतुक्कादीनि च योजेतब्बानि ।
एवं छब्बिधानम्पि पन इमासं पारमीनं चतूहि अधिट्टानेहि सङ्गहो वेदितब्बो । सब्बपारमीनं समूहसङ्गहतो हि चत्तारि अधिट्ठानानि । सेय्यथिदं - सच्चाधिट्टानं, चागाधिट्टानं, उपसमाधिट्ठानं, पञाधिट्ठानन्ति । तत्थ अधितिट्ठति एतेन, एत्थ वा अधितिट्ठति, अधिट्ठानमत्तमेव वा तन्ति अधिट्टानं । सच्चञ्च तं अधिट्ठानञ्च, सच्चस्स वा अधिट्टानं, सच्चं अधिट्टानं एतस्साति वा सच्चाधिट्टानं । एवं सेसेसुपि । तत्थ अविसेसतो ताव लोकुत्तरगुणे कताभिनीहारस्स अनुकम्पितसब्बसत्तस्स महासत्तस्स परिञानुरूपं सब्बपारमिपरिग्गहतो सच्चाधिट्टानं, तेसं पटिपक्खपरिच्चागतो चागाधिट्टानं, सब्बपारमितागुणेहि उपसमतो उपसमाधिट्टानं, तेहियेव परहितोपायकोसल्लतो पञ्जाधिट्टानं । विसेसतो पन “अत्थिकजनं अविसंवादेत्वा दस्सामी''ति पटिजानतो, पटिलं अविसंवादेत्वा दानतो, दानं अविसंवादेत्वा अनुमोदनतो, मच्छरियादिपटिपक्खपरिच्चागतो, देय्यपटिग्गाहकदानदेय्यधम्मक्खयेसु लोभदोसमोहभयवूपसमतो, यथारहं यथाकालं यथाविधानञ्च दानतो, पञ्जत्तरतो च कुसलधम्मानं चतुरधिट्ठानपदट्ठानं दानं । तथा संवरसमादानस्स अवीतिक्कमतो, दुस्सील्यपरिच्चागतो, दुच्चरितवूपसमतो, पञ्जत्तरतो च चतुरधिट्ठानपदट्ठानं सीलं। यथापटिझं खमनतो, परापराधविकप्पपरिच्चागतो, कोधपरियुट्ठानवूपसमतो, पञ्जुत्तरतो च चतुरधिवानपदट्ठाना खन्ति । पटिञानुरूपं परहितकरणतो, विसादपरिच्चागतो, अकुसलधम्मानं वूपसमतो, पञ्जत्तरतो च चतुरधिट्ठानपदट्ठानं वीरियं । पटिञानुरूपं लोकहितानुचिन्तनतो, नीवरणपरिच्चागतो, चित्तवूपसमतो, पञ्जत्तरतो च चतुरधिट्ठानपदट्ठानं झानं । यथापटिओं परहितूपायकोसल्लतो, अनुपायकिरियापरिच्चागतो, मोहजपरिळाहवूपसमतो, सब्ब तापटिलाभतो च चतुरधिट्ठानपदट्ठाना पञ्जा ।
तत्थ त्रेय्यपटिञानुविधानेहि सच्चाधिट्टानं, वत्थुकामकिलेसकामपरिच्चागेहि चागाधिट्ठानं, दोसदुक्खवूपसमेहि उपसमाधिट्टानं, अनुबोधपटिवेधेहि पञआधिट्ठानं ।
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चूळसीलवण्णना
तिविधसच्चपरिग्गहितं दोसत्तयविरोधि सच्चाधिट्ठानं, तिविधचागपरिग्गहितं दोसत्तयविरोधि चागाधिट्टानं, तिविधवूपसमपरिग्गहितं दोसत्तयविरोधि उपसमाधिट्ठानं, तिविधज्ञाणपरिग्गहितं दोसत्तयविरोधि पञ्जाधिट्टानं । सच्चाधिट्टानपरिग्गहितानि चागूपसमपञाधिट्टानानि अविसंवादनतो, पटिञानुविधानतो च । चागाधिट्ठानपरिग्गहितानि सच्चूपसमपाधिट्टानानि पटिपक्खपरिच्चागतो, सब्बपरिच्चागफलत्ता च । उपसमाधिट्ठानपरिग्गहितानि सच्चचागपञाधिट्ठानानि किलेसपरिळाहूपसमतो, काम्पसमतो, कामपरिळाहूपसमतो च । पाधिट्टानपरिग्गहितानि सच्चचागूपसमाधिट्टानानि आणपुब्बङ्गमतो, आणानुपरिवत्तनतो चाति एवं सब्बापि पारमियो सच्चप्पभाविता चागपरिब्यञ्जिता उपसमोपब्रूहिता पजापरिसुद्धा। सच्चन्हि एतासं जनकहेतु, चागो परिग्गाहकहेतु, उपसमो परिवुड्डिहेतु, पञा पारिसुद्धिहेतु। तथा आदिम्हि सच्चाधिट्टानं सच्चपटिञत्ता, मज्झे चागाधिट्टानं कतपणिधानस्स परहिताय अत्तपरिच्चागतो, अन्ते उपसमाधिट्टानं सब्बूपसमपरियोसानत्ता, आदिमज्झपरियोसानेसु पञाधिट्टानं तस्मिं सति सम्भवतो, असति अभावतो, यथापटिञञ्च भावतो।
तत्थ महापुरिसा अत्तहितपरहितकरेहि गरुपियभावकरेहि सच्चचागाधिट्ठानेहि गिहिभूता आमिसदानेन परे अनुग्गण्हन्ति । तथा अत्तहितपरहितकरेहि गरुपियभावकरेहि उपसमपञाधिट्ठानेहि च पब्बजितभूता धम्मदानेन परे अनुग्गण्हन्ति ।
तत्थ अन्तिमभवे बोधिसत्तस्स चतुरधिट्ठानपरिपूरणं । परिपुण्णचतुरधिट्ठानस्स हि चरिमकभवूपपत्तीति एके। तत्र हि गब्भोक्कन्तिठितिअभिनिक्खमनेसु पचाधिट्ठानसमुदागमेन सतो सम्पजानो सच्चाधिट्ठानपारिपूरिया सम्पतिजातो उत्तराभिमुखो सत्तपदवीतिहारेन गन्त्वा सब्बा दिसा ओलोकेत्वा सच्चानुपरिवत्तिना वचसा “अग्गोहमस्मि लोकस्स, जेट्टो...पे०... सेट्ठोहमस्मि लोकस्सा"ति (दी० नि० २.३१; म० नि० ३.२०७) तिक्खत्तुं सीहनादं नदि, उपसमाधिट्ठानसमुदागमेन जिण्णातुरमतपब्बजितदस्साविनो चतुधम्मपदेसकोविदस्स योब्बनारोग्यजीवितसम्पत्तिमदानं उपसमो, चागाधिट्टानसमुदागमेन महतो आतिपरिवट्टस्स हत्थगतस्स च चक्कवत्तिरज्जस्स अनपेक्खपरिच्चागोति ।
दुतिये ठाने अभिसम्बोधियं चतुरधिट्ठानं परिपुण्णन्ति केचि । तत्थ हि यथापटिझं सच्चाधिट्ठानसमुदागमेन चतुन्नं अरियसच्चानं अभिसमयो, ततो हि सच्चाधिट्ठानं परिपुण्णं ।
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गटीका
चागाधिट्ठानसमुदागमेन सब्बकिलेसोपक्किलेसपरिच्चागो, ततो हि चागाधिट्ठानं परिपुण्णं । उपसमाधिट्ठानसमुदागमेन परमूपसमसम्पत्ति, ततो हि उपसमाधिट्ठानं परिपुण्णं । पञ्ञाधिट्ठानसमुदागमेन अनावरणञाणपटिलाभो, ततो हि पञ्ञाधिट्ठानं परिपुण्णन्ति, तं असिद्धं अभिसम्बोधियापि परमत्थभावतो ।
ततिये ठाने धम्मचक्कप्पवत्तने (सं० नि०३.५.१०८१; महाव० १३; पटि० म० २.३० ) चतुरधिट्ठानं परिपुण्णन्ति अञ्ञे । तत्थ हि सच्चाधिट्ठानसमुदागतस्स द्वादसहि आकारे ह अरियसच्चदेसनाय सच्चाधिट्ठानं परिपुण्णं चागाधिट्ठानसमुदागतस्स सद्धम्ममहायागकरणेन चागाधिट्ठानं परिपुण्णं । उपसमाधिट्ठानसमुदागतस्स सयं उपसन्तस्स उपसमनेन उपसमाधिट्ठानं परिपुण्णं पञ्ञाधिट्ठानसमुदागतस्स विनेय्यानं आसयादिपरिजाननेन पञ्ञाधिट्ठानं परिपुण्णन्ति, तदपि असिद्धं अपरियोसितत्ता बुद्धकिच्चस्स ।
परेसं
(१.७–७)
चतुत्थे ठाने परिनिब्बाने चतुरधिट्ठानपरिपुण्णन्ति अपरे । तत्र हि परिनिब्बुतत्ता परमत्थसच्चसम्पत्तिया सच्चाधिट्ठानपरिपूरणं, सब्बूपधिपटिनिस्सग्गेन चागाधिट्ठानपरिपूरणं, सब्बसङ्ग्रारूपसमेन उपसमाधिट्ठानपरिपूरणं, पञ्ञपयोजन परिनिट्ठानेन धिट्ठानपरिपूरणन्ति ।
तत्र महापुरिसस्स विसेसेन मेत्ताखेत्ते अभिजातियं सच्चाधिट्ठानसमुदागतस्स सच्चाधिट्ठानपरिपूरणमभिब्यत्तं, विसेसेन करुणाखेत्ते अभिसम्बोधियं पञ्ञाधिट्ठानसमुदागतस्स पञ्ञाधिट्टानपरिपूरणमभिब्यत्तं, विसेसेन मुदिताखेत्ते धम्मचक्कप्पवत्तने (सं० नि० ३.५.१०८१; महाव० १३; पटि० म० २.३०) चागाधिट्ठानसमुदागतस्स चागाधिट्ठानपरिपूरणमभिब्यत्तं, विसेसेन उपेक्खाखेत्ते परिनिब्बाने उपसमाधिट्ठानसमुदागतस्स उपसमाधिट्ठानपरिपूरणमभिब्यत्तन्ति दट्ठब्बं ।
तत्रपि सच्चाधिट्ठानसमुदागतस्स संवासेन सीलं वेदितब्बं, चागाधिट्ठानसमुदागतस्स संवोहारेन सोचेय्यं वेदितब्बं, उपसमाधिट्ठानसमुदागतस्स आपदासु थामो वेदितब्बो, पञ्ञाधिट्ठानसमुदागतस्स साकच्छाय पञ्ञा वेदितब्बा । एवं सीलाजीवचित्तदिट्ठिविसुद्धियो वेदितब्बा ।
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पञ्ञा
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(१.७-७)
चूळसीलवण्णना
तथा सच्चाधिट्ठानसमुदागमेन दोसा अगतिं न गच्छति अविसंवादनतो, चागाधिट्ठानसमुदागमेन लोभा अगतिं न गच्छति अनभिसङ्गतो, उपसमाधिट्ठानसमुदागमेन भया अगतिं न गच्छति अनपराधतो, पञाधिट्ठानसमुदागमेन मोहा अगतिं न गच्छति यथाभूतावबोधतो।
तथा पठमेन अदुट्ठो अधिवासेति, दुतियेन अलुद्धो पटिसेवति, ततियेन अभीतो परिवज्जेति, चतुत्थेन असम्मूळ्हो विनोदेति । पठमेन नेक्खम्मसुखप्पत्ति, इतरेहि पविवेकउपसमसम्बोधिसुखप्पत्तियो होन्तीति दट्ठब्बा। तथा विवेकजपीतिसुखसमाधिजपीतिसुखअप्पीतिजकायसुखसतिपारिसुद्धिजउपेक्खासुखप्पत्तियो एतेहि चतूहि यथाक्कम होन्तीति । एवमनेकगुणानुबन्धेहि चतूहि अधिट्ठानेहि सब्बपारमिसमूहसङ्गहो वेदितब्बो। यथा च चतूहि अधिट्ठानेहि सब्बपारमिसङ्गहो, एवं करुणापचाहिपीति दट्टब्बं । सब्बोपि हि बोधिसम्भारो करुणापञआहि सङ्गहितो। करुणापआपरिग्गहिता हि दानादिगुणा महाबोधिसम्भारा भवन्ति बुद्धत्तसिद्धिपरियोसानाति एवमेतासं सङ्गहो वेदितब्बो ।
को सम्पादनूपायोति सकलस्सापि पुञआदिसम्भारस्स सम्मासम्बोधिं, उद्दिस्स अनवसेससम्भरणं अवेकल्लकारितायोगेन, तत्थ च सक्कच्चकारिता आदरबहुमानयोगेन, सातच्चकारिता निरन्तरपयोगेन, चिरकालादियोगो च अन्तरा अवोसानापज्जनेनाति चतुरङ्गयोगो एतासं सम्पादनूपायो । अपिच समासतो कताभिनीहारस्स अत्तनि सिनेहस्स परियादानं, परेसु च सिनेहस्स परिवड्ढनं एतासं सम्पादनूपायो । सम्मासम्बोधिसमधिगमाय हि कतमहापणिधानस्स महासत्तस्स याथावतो परिजाननेन सब्बेसु धम्मेसु अनुपलित्तस्स अत्तनि सिनेहो परिक्खयं परियादानं गच्छति, महाकरुणासमायोगवसेन पन पिये पुत्ते विय सब्बसत्ते सम्पस्समानस्स तेसु मेत्तासिनेहो परिवड्वति। ततो च तंतदावत्थानुरूप'मत्तपरसन्तानेसु लोभदोसमोहविगमेन विदूरीकतमच्छरियादिबोधिसम्भारपटिपक्खो महापुरिसो दानपियवचनअत्थचरियासमानत्ततासङ्खातेहि चतूहि सङ्गहवत्थूहि (दी० नि० ३.२१०; अ० नि० १.४.३२) चतुरधिट्ठानानुगतेहि अच्चन्तं जनस्स सङ्गहकरणवसेन उपरि यानत्तये अवतारणं परिपाचनञ्च करोति । महासत्तानव्हि महापञ्जा महाकरुणा च दानेन अलङ्कता; दानं पियवचनेन; पियवचनं अत्थचरियाय; अत्थचरिया समानत्तताय अलङ्कता सङ्गहिता च । सब्बभूतत्तभूतस्स हि बोधिसत्तस्स सब्बत्थ समानसुखदुक्खताय समानत्ततासिद्धि । बुद्धभूतो पन तेहेव सङ्गहवत्थूहि चतुरधिट्ठानपरिपूरिताभिबुद्धेहि जनस्स अच्चन्तिकसङ्गहकरणेन अभिविनयनं करोति ।
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दानञ्हि सम्मासम्बुद्धानं चागाधिट्ठानेन परिपूरिताभिबुद्धं पियवचनं सच्चाधिट्ठानेन; अत्थचरिया पञाधिट्ठानेन समानत्तता उपसमाधिट्ठानेन परिपूरिताभिबुद्धा । तथागतान सब्बसावकपच्चेकबुद्धेहि समानत्तता परिनिब्बाने । तत्र हि तेसं अविसेसतो एकीभावो । तेनेवाह “नत्थि विमुत्तिया नानत्त "न्ति ।
होन्ति चेत्थ -
"सच्चो चागी उपसन्तो, पञ्ञवा अनुकम्पको, सम्भतसब्बसम्भारो, कं नामत्थं न साधये ।
महाकारुणिको सत्था, हितेसी च उपेक्खको, निरपेक्खो च सब्बत्थ, अहो अच्छरियो जिनो ।।
विरत्तो सब्बधम्मेसु, सत्तेसु च उपेक्खको, सदा सत्तहिते युत्तो, अहो अच्छरियो जिनो । ।
(१.७-७)
सब्बदा सब्बसत्तानं हिताय च सुखाय च,
"
उय्युत्तो अकिलासू च, अहो अच्छरियो जिनो 'ति । । (चरिया० पि० अट्ठ० ३२० पकिण्णककथा)
कित्तकेन कालेन सम्पादनन्ति हेट्टिमेन ताव परिच्छेदेन चत्तारि असङ्ख्येय्यानि कप्पसतसहस्सञ्च, मज्झिमेन अट्ठासङ्ख्येय्यानि कप्पसतसहस्सञ्च, उपरिमेन सोळसासङ्क्षयेय्यानि कप्पसतसहस्सञ्च, एते च भेदा यथाक्कमं पञ्ञाधिकसद्धाधिकवीरियाधिकवसेन ञतब्बा । पञ्ञाधिकानहि सद्धा मन्दा होति, पञ्जा तिक्खा। सद्धाधिकानं पञ्ञा मज्झिमा होति, वीरियाधिकानं पञ्ञा मन्दा । पञ्ञानुभावेन च सम्मासम्बोधि अभिगन्तब्बाति अट्ठकथायं वुत्तं । अविसेसेन पन विमुत्तिपरिपाचनीयानं धम्मानं तिक्खमज्झिममुदुभावेन तयोपेते भेदा युत्ताति वदन्ति । तिविधा हि बोधिसत्त अभिनीहारक्खणे भवन्ति उग्घटितञ्जूविपञ्चितञ्जूनेय्यभेदेन । सु उग्घटितञ्जू सम्मासम्बुद्धस्स सम्मुखा चतुप्पदिकं गाथं सुणन्तो ततियपदे अपरियोसितेयेव छअभिहि सह पटिसम्भिदाहि अरहत्तं पत्तुं समत्थुपनिस्सयो होति, दुतियो सत्थु सम्मुखा चतुप्पदिकं
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(१.७-७)
चूळसीलवण्णना
गाथं सुणन्तो अपरियोसितेयेव चतुत्थपदे छहि अभिञाहि अरहत्तं पत्तुं समत्थुपनिस्सयो होति, इतरो भगवतो सम्मुखा चतुप्पदिकं गाथं सुत्वा परियोसिताय गाथाय छहि अभिज्ञाहि अरहत्तं पत्तुं समथुपनिस्सयो भवति । तयोपेते विना कालभेदेन कताभिनीहारलद्धब्याकरणा पारमियो पूरेन्ता यथाक्कम यथावुत्तभेदेन कालेन सम्मासम्बोधिं पापुणन्ति । तेसु तेसु पन कालभेदेसु अपरिपुण्णेसु ते ते महासत्ता दिवसे दिवसे वेस्सन्तरदानसदिसं दानं देन्तापि तदनुरूपे सीलादिसब्बपारमिधम्मे आचिनन्तापि अन्तरा बुद्धा भविस्सन्तीति अकारणमेतं । कस्मा ? आणस्स अपरिपच्चनतो । परिच्छिन्नकालनिष्पादितं विय हि सस्सं परिच्छिन्नकाले परिनिप्फादिता सम्मासम्बोधि | तदन्तरा पन सब्बुस्साहेन वायमन्तेनापि न सक्का पापुणितुन्ति पारमिपारिपूरी यथावुत्तकालविसेसं विना न सम्पज्जतीति वेदितब्बं ।
को आनिसंसोति ये ते कताभिनीहारानं बोधिसत्तानं -
"एवं सब्बङ्गसम्पन्ना, बोधिया नियता नरा । संसरं दीघमद्धानं, कप्पकोटिसतेहिपि । अवीचिम्हि नुप्पज्जन्ति, तथा लोकन्तरेसु चा'ति ।। आदिना (अभि० अट्ठ० १.निदानकथा; अप० अट्ठ० १.दूरेनिदानकथा; जा० अट्ठ० १.दूरेनिदानकथा; बु० वं० अठ्ठ० २७.दूरेनिदानकथा; चरिया० पि० अट्ठ० पकिण्णककथा) -
अट्ठारस अभब्बठ्ठानानुपगमनप्पकारा आनिसंसा संवण्णिता। ये च “सतो सम्पजानो आनन्द बोधिसत्तो तुसिताकाया चवित्वा मातुकुच्छिं ओक्कमी''तिआदिना (म० नि० ३.१९९) सोळस अच्छरियब्भुतधम्मप्पकारा, ये च “सीतं ब्यपगतं होति, उण्हञ्च उपसम्मती"तिआदिना (बु० ० ८३), "जायमाने खो सारिपुत्त बोधिसत्ते अयं दससहस्सिलोकधातु सङ्कम्पति सम्पकम्पति सम्पवेधती''तिआदिना च द्वत्तिंस पुब्बनिमित्तप्पकारा, ये वा पन पि “बोधिसत्तानं अधिप्पायसमिज्झनं कम्मादीसु वसीभावो''ति एवमादयो तत्थ तत्थ जातकबुद्धवंसादीसु दस्सितप्पकारा आनिसंसा, ते सब्बेपि एतासं आनिसंसा, तथा यथानिदस्सितभेदा अलोभादोसादिगुणयुगळादयो चाति वेदितब्बा।
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किं फलन्ति समासतो ताव सम्मासम्बुद्धभावो एतासं फलं वित्थारतो पन द्वत्तिंसमहापुरिस लक्खण- ( दी० नि० २.२४ आदयो; ३.१६८ आदयो; म० नि० २.३८५) असीतिअनुब्यञ्जनब्यामप्पभादि अनेकगुणगणसमुज्जलरूपकायसम्पत्तिअधिट्ठाना दसबलचतुवेसारज्जछअसाधारणञाणअट्ठारसावेणिकबुद्धधम्म- (दी० नि० अट्ठ० ३.३०५; मूलटी० २. सुत्तन्तभाजनीयवण्णना) -पभुतिअनेकसतसहस्सगुणसमुदयोपसो भनी धम्मकायसिरी, यावता पन बुद्धगुणा ये अनेकेहिपि कप्पेहि सम्मासम्बुद्धेनापि वाचाय परियोसापेतुं न सक्का, इदं एतासं फलन्ति अयमेत्थ सङ्क्षेपो, वित्थारो पन बुद्धवंसचरियापिटकजातकमहापदानसुत्तादीनं वसेन वेदितब्बो ।
गहणं,
यथावुत्ताय पटिपदाय यथावुत्तविभागानं पारमीनं पूरितभावं सन्धायाह " समतिंस पारमियो पूरेत्वा "ति । सतिपि महापरिच्चागानं दान पारमिभावे परिच्चागविसेसभावदस्सनत्थञ्चैव सुदुक्करभावदस्सनत्थञ्च “पञ्च महापरिच्चागे" ति विसुं ततोयेव च अङ्गपरिच्चागतो विसुं नयनपरिच्चागग्गहणं, परिग्गहपरिच्चागभावसामञ्ञपि धनरज्जपरिच्चागतो पुत्तदारपरिच्चागग्गहणञ्च कतं । गतपच्चागतिकवत्तसङ्घाताय पुब्बभागपटिपदाय सद्धिं अभिज्ञासमापत्तिनिप्फादनं पुब्बयोगो । दानादीसुयेव सातिसयपटिपत्तिनिप्फादनं पुब्बचरिया, या चरियापिटकसङ्गहिता । अभिनीहारो पुब्बयोगो, दानादिपटिपत्ति, कायविवेकवसेन एकचरिया वा पुब्बचरियाति केचि । दानादीनञ्चेव अप्पिच्छतादीनञ्च संसारनिब्बानेसु आदीनवानिसंसादीनञ्च विभावनवसेन सत्तानं बोधित्तये पतिट्ठापनपरिपाचनवसेन पवत्ता कथा धम्मक्खानं । जतीनं अत्थचरिया आतत्थचरिया, सापि करुणायनवसेनेव । आदि-सद्देन लोकत्थचरियादयो सङ्गण्हाति । कम्मस्सकताञाणवसेन, अनवज्जकम्मायतनविज्जाट्ठानपरिचयवसेन, खन्धायतनादिपरिचयवसेन, लक्खणत्तयतीरणवसेन च ञणचारो बुद्धिचरिया, सा पन अत्थतो पञ्ञापारमीयेव, आणसम्भारदस्सनत्थं विसुं गहणं । कोटिन्ति परियन्तो, उक्कंसोति अत्थो । चत्तारो सतिपट्टाने भावेत्वा ब्रूहेत्वाति सम्बन्धो । तत्थ भावेत्वाति उप्पादेत्वा । ब्रूहेत्वाति वड्ढेत्वा । सतिपट्ठानादिग्गहणेन आगमनपटिपदं मत्थकं पापेत्वा दस्सेति, विपस्सनासहगता एव वा सतिपट्ठानादयो दट्ठब्बा । एत्थ च "येन अभिनीहारेना "तिआदिना आगमनपटिपदाय आदि दस्सेति, " दानपारमी 'तिआदिना " चत्तारो सतिपट्ठाने''तिआदिना परियोसानन्ति वेदितब्बं ।
मज्झं,
सम्पतिजातोति हत्थतो मुच्चित्वा मुहुत्तजातो, न मातुकुच्छितो निक्खन्तमत्तो ।
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चूळसीलवण्णना
निक्खन्तमत्तञ्हि महासत्तं पठमं ब्रह्मानो सुवण्णजालेन पटिग्गण्हिंसु, तेसं हत्थतो चत्तारी महाराजानो अजिनप्पवेणिया, तेसं हत्थतो मनुस्सा दुकूलचुम्बटकेन पटिग्गव्हिंसु, मनुस्सानं हत्थतो मुञ्चित्वा पथवियं पतिट्ठितोति यथाह भगवा महापदानदेसनायं । सेतम्हि छत्त दिब्बसेतच्छत्ते । अनुहीरमानेति धारियमाने । एत्थ च छत्तग्गहणेनेव खग्गादीनि पञ्च ककुधभण्डानिपि (जा० २.१९.७२) वुत्तानेवाति वेदितब्बं । खग्गतालवण्टमोरहत्थकवाळबीजनी उण्हीसपट्टापि हि छत्तेन सह तदा उपट्ठिता अहेसुं । छत्तादीनियेव च तदा पञ्ञायिंसु, न छत्तादिगाहका । सब्बा च दिसाति दसपि दिसा । नयिदं सब्बदिसाविलोकनं सत्तपदवीतिहारुत्तरकालं दट्टब्बं । महासत्तो हि मनुस्सानं हत्थतो मुच्चित्वा पुरत्थिमदिसं ओलोकेसि, तत्थ देवमनुस्सा गन्धमालादीहि पूजयमाना " महापुरिस इध तुम्हेहि सदिसोपि नत्थि, कुतो उत्तरितरो " ति आहंसु । एवं चतस्सो दिसा, चतस्सो अनुदिसा, हेट्ठा, उपरीति सब्बा दिसा अनुविलोकेत्वा सब्बत्थ अत्तना सदिसं अदिस्वा " अयं उत्तरा दिसाति तत्थ सत्तपदवीतिहारेन अगमासि । आसभिन्ति उत्तमं । अग्गोति सब्बपठमो । जेट्ठो सेट्ठोति च तस्सेव वेवचनं । अयमन्तिमा जाति, नत्थि दानि पुनब्भवोति इमस्मिं अत्तभावे पत्तब्बं अरहत्तं ब्याकासि ।
“ अनेकेसं विसेसाधिगमानं पुब्बनिमित्तभावेना "ति सङ्घित्तेन वुत्तमत्थं “यही "तिआदिना विथारो दस्सेति । तत्थ एत्थाति -
" अनेकसाखञ्च सहस्समण्डलं,
छत्तं मरू धारयुमन्तलिक्खे । सुवण्णदण्डा वीतिपतन्ति चामरा,
न दिस्सरे चामरछत्तगाहका "ति ।। (सु० नि० ६९३)
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इमिस्सा गाथाय । सब्बञ्जतञ्ञणमेव सब्बत्थ अप्पटिहतचारताय अनावरणञाणन्ति आह "सब्बञ्जतानावरणञाणपटिलाभस्सा ''ति । " तथा अयं भगवापि गतो... पे०... पुब्बनिमित्तभावेना" ति एतेन अभिजातियं धम्मतावसेन उप्पज्जनविसेसा सब्बबोधिसत्तानं साधारणाति दस्सेति । पारमितानिस्सन्दा हि तेति ।
विक्कमति अगमासि । मरुति देवा । समाति विलोकनसमताय समा सदिसियो । महापुरिसो हि यथा एकं दिसं विलोकेसि, एवं सेसा दिसापि, न कत्थचि विलोकने
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गटीका
विबन्धो तस्स अहोसीति । समाति वा विलोकेतुं युत्ताति अत्थो । न हि तदा बोधिसत्तस्स विरूपबीभच्छविसमरूपानि विलोकेतुं अयुत्तानि दिसासु उपट्टहन्तीति ।
" एवं तथागतो"ति कायगमनट्ठेन गत- सद्देन तथागत सद्दं निद्दिसित्वा इदानि आणगमनद्वेन तं दस्सेतुं “अथ वा "तिआदिमाह । तत्थ नेक्खम्मेनाति अलोभप्पधानेन कुलचित्तुप्पादेन । कुसला हि धम्मा इध नेक्खम्मं, न पब्बज्जादयो, “पठमज्झानेना’ति च वदन्ति । पहायाति पजहित्वा । गतो अधिगतो, पटिपन्नो उत्तरिविसेसन्ति अत्थो । पहायाति वा पहानहेतु, पहानलक्खणं वा । हेतुलक्खणत्थो हि अयं पहाय- सद्दो । "कामच्छन्दादिप्पहानहेतुकं गतो 'ति हेत्थ वृत्तं गमनं अवबोधो, पटिपत्ति एव वा । कामच्छन्दादिप्पहानेनं च तं लक्खीयति । एस नयो “पदालेत्वा "तिआदीसुपि । अब्यापादेनाति त्ताय । आलोकसञयाति विभूतं कत्वा मनसिकरणेन उपट्टितआलोकसञ्जाननेन | अविक्खेपेनाति समाधिना । धम्मववत्थानेनाति कुसलादिधम्मानं याथावविनिच्छयेन, “सप्पच्चयनामरूपववत्थानेना" तिपि वदन्ति ।
(१.७–७)
एवं कामच्छन्दादिनीवरणप्पहानेन “अभिज्झं लोके पहाया "तिआदिना (विभं० ५०८) वृत्ताय पठमज्झानस्स पुब्बभागपटिपदाय भगवतो तथागतभावं दस्सेत्वा इदानि सह उपायेन अट्ठहि समापत्तीहि, अट्ठारसहि च महाविपस्सनाहि तं दस्सेतुं " ञाणेना 'तिआदिमाह । नामरूपपरिग्गहकावितरणानहि विबन्धभूतस्स मोहस्स दूरीकरणेन जातपरिज्ञायं ठितस्स अनिच्चसञ्ञदयो सिज्झन्ति, तथा ज्ञानसमापत्ती अभिरतिनिमित्तेन पामोज्जेन, तत्थ अनभिरतिया विनोदिताय झानादि समधिगमोति समापत्तिविपस्सनानं अरतिविनोदनअविज्जापदालनादि उपायो, उप्पटिपाटिनिद्देसो पन नीवरणसभावाय अविज्जाय नीवर सुप सङ्गहदस्सनत्थन्ति दट्टब्बं । समापत्तिविहारप्पवेसविबन्धनेन नीवरणानि कवाटसदिसानीति आह "नीवरणकवाटं उग्घाटेत्वा”ति । “रत्तिं वितक्केत्वा विचारेत्वा दिवा कम्पन्ते पयोजेती 'ति त्तट्ठाने विय वितक्कविचारा धूमायनाति अधिप्पेताति आह "वितक्कविचारधूम "न्ति । किञ्चापि पठमज्झानूपचारेयेव च दुक्खं, चतुत्थज्झानूपचारेयेव सुखं पहीयति, अतिसयप्पानं पन सन्धायाह “चतुत्थज्झानेन सुखदुक्खं पहाया "ति |
अनिच्चस्स, अनिच्चन्ति अनुपस्सना अनिच्चानुपस्सना, तेभूमकधम्मानं अनिच्चतं गत्वा पवत्ताय विपस्सनायेतं नामं । निच्चसञ्ञन्ति सङ्घतधम्मे "निच्चा, सस्सता "ति एवं
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चूळसीलवण्णना
पवत्तमिच्छासनं, सञ्जासीसेन दिविचित्तानम्पि गहणं दट्टब्बं । एस नयो इतो परेसपि । निबिदानुपस्सनायाति सङ्खारेसु निब्बिज्जनाकारेन पवत्ताय अनुपस्सनाय । नन्दिन्ति सप्पीतिकतण्हं । तथा विरागानुपस्सनायाति विरज्जनाकारेन पवत्ताय अनुपस्सनाय । निरोधानुपस्सनायाति सङ्घारानं निरोधस्स अनुपस्सनाय । “ते सङ्घारा निरुज्झन्तियेव, आयतिं समुदयवसेन न उप्पज्जन्तीति एवं वा अनुपस्सना निरोधानुपस्सना । तेनेवाह “निरोधानुपस्सनाय निरोधेति, नो समुदेती''ति । मुञ्चितुकम्यता हि अयं बलप्पत्ताति । पटिनिस्सज्जनाकारेन पवत्ता अनुपस्सना पटिनिस्सग्गानुपस्सना। पटिसङ्खा सन्तिट्टना हि अयं । आदानन्ति निच्चादिवसेन गहणं । सन्ततिसमूहकिच्चारम्मणानं वसेन एकत्तग्गहणं घनसञ्जा। आयूहनं अभिसङ्खरणं। अवत्थाविसेसापत्ति विपरिणामो। धुवसन्ति थिरभावग्गहणं । निमित्तन्ति समूहादिघनवसेन, सकिच्चपरिच्छेदताय च सङ्घारानं सविग्गहग्गहणं । पणिधिन्ति रागादिपणिधिं, सा पनत्थतो तण्हानं वसेन सङ्घारेस निन्नता ।
अभिनिवेसन्ति अत्तानुदिढेि । अनिच्चदुक्खादिवसेन सब्बधम्मतीरणं अधिपञ्जाधम्मविपस्सना। सारादानाभिनिवेसन्ति असारे सारग्गहणविपल्लासं । "इस्सरकुत्तादिवसेन लोको समुप्पन्नो''ति अभिनिवेसो सम्मोहाभिनिवेसो। केचि पन "अहोसिं नु खो अहमतीतमद्धानन्तिआदिना पवत्तसंसयापत्ति सम्मोहाभिनिवेसो"ति वदन्ति । सङ्खारेसु लेणताणभावग्गहणं आलयाभिनिवेसो। “आलयरता आलयसमुदिता''ति वचनतो आलयो तण्हा, सायेव चक्खादीसु रूपादीसु च अभिनिविसनवसेन पवत्तिया आलयाभिनिवेसोति केचि । “एवंविधा सङ्खारा पटिनिस्सज्जीयन्ती"ति पवत्तं जाणं पटिसङ्घानुपस्सना। वट्टतो विगतत्ता विवढं निब्बानं, तत्थ आरम्मणकरणसङ्घातेन अनुपस्सनेन पवत्तिया विवानपस्सना गोत्रभ । संयोगाभिनिवेसन्ति संयज्जनवसेन सङ्घारेस अभिनिविसनं । दिवेकडेति दिट्ठिया सहजातेकडे, पहानेकटे च । “ओळारिके"ति उपरिमग्गवज्झे किलेसे अपेक्खित्वा वृत्तं, अञथा दस्सनपहातब्बापि दतियमग्गवज्झेहि ओळारिकाति । अणसहगतेति अणभते. इदं हेट्रिममग्गवज्झे अपेक्खित्वा वत्तं। सब्बकिलेसेति अवसिट्ठसब्बकिलेसे । न हि पठमादिमग्गेहि पहीना किलेसा पुन पहीयन्तीति ।
___ कक्खळतं कठिनभावो । पग्धरणं द्रवभावो । लोकियवायुना भस्तस्स विय येन तंतंकलापस्स उद्घमायनं, थम्भभावो वा, तं वित्थम्भनं। विज्जमानेपि कलापन्तरभूतानं कलापन्तरभूतेहि असम्फुट्ठभावे, तंतंभूतविवित्तता रूपपरियन्तो आकासोति येसं यो परिच्छेदो, तेहि सो असम्फुट्ठोव, अञथा भूतानं परिच्छेदसभावो न सिया
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गटीका
(१.७-७)
।
ब्यापीभावापत्तितो। अब्यापिता हि असम्फुट्ठताति । यस्मिं कलापे भूतानं परिच्छेदो, तेहि असम्फुट्ठभावो असम्फुट्ठलक्खणं। तेनाह भगवा आकासधातुनिइसे “असम्फुटुं चतूहि महाभूतेही"ति (ध० स० ६३७)।
विरोधिपच्चयसन्निपाते विसदिसुप्पत्ति रुप्पनं। चेतनापधानत्ता सङ्खारक्खन्धधम्मानं चेतनावसेनेतं वुत्तं "सकारानं अभिसरणलक्खण"न्ति । तथा हि सुत्तन्तभाजनीये सङ्घारक्खन्धविभङ्गे “चक्खुसम्फस्सजा चेतना'तिआदिना (विभं० ९२) चेतनाव विभत्ता, अभिसङ्घरणलक्खणा च चेतना । यथाह “तत्थ कतमो पुञाभिसङ्खारो ? कुसला चेतना कामावचरा''तिआदि (विभं० २२६) । फरणं सविप्फारिकता। अस्सद्धियेति अस्सद्धियहेतु, निमित्तत्थे भुम्मं । एस नयो "कोसज्जे"तिआदीसु। वूपसमलक्खणन्ति कायचित्तपरिळाहूपसमलक्खणं । लीनुद्धच्चरहिते अधिचित्ते पवत्तमाने पग्गहनिग्गहसम्पहंसनेसु अब्यावटताय अज्झुपेक्खनं पटिसङ्घानं पक्खपातुपच्छेदतो ।
__मुसावादादीनं विसंवादनादिकिच्चताय लूखानं अपरिग्गाहकानं पटिपक्खभावतो परिग्गाहिका सम्मावाचा सिनिद्धभावतो सम्पयुत्तधम्मे, सम्मावाचापच्चयसुभासितानं सोतारञ्च पुग्गलं परिग्गण्हातीति सा परिग्गहलक्खणा सम्मावाचा । कायिककिरिया किञ्चि कत्तब्बं समुट्ठापेति । सयञ्च समुद्रुहनं घटनं होतीति सम्माकम्मन्तसङ्खाता विरति समुट्ठानलक्खणा दट्ठब्बा, सम्पयुत्तधम्मानं वा उक्खिपनं समुट्ठापनं कायिककिरियाय भारुक्खिपनं विय । जीवमानस्स सत्तस्स, सम्पयुत्तधम्मानं वा जीवितिन्द्रियवुत्तिया, आजीवस्सेव वा सुद्धि वोदानं । ससम्पयुत्तधम्मस्स चित्तस्स संकिलेसपक्खे पतितुं अदत्वा सम्मदेव पग्गण्हनं पग्गहो।
“सङ्घारा''ति इध चेतना अधिप्पेताति वुत्तं "सङ्घारानं चेतनालखण"न्ति । नमनं आरम्मणाभिमुखभावो। आयतनं पवत्तनं । आयतनानं वसेन हि आयसङ्घातानं चित्तचेतसिकानं पवत्ति। तण्हाय हेतुलक्खणन्ति वट्टस्स जनकहेतुभावो, मग्गस्स पन निब्बानसम्पापकत्तन्ति अयमेव तेसं विसेसो ।
तथलक्खणं अविपरीतसभावो। एकरसो अञमञानतिवत्तनं अनूनाधिकभावो । युगनद्धा समथविपस्सनाव, “सद्धापा पग्गहाविक्खेपा'"तिपि वदन्ति ।
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(१.७-७)
चूळसीलवण्णना
खिणोति किलेसेति खयो, मग्गो । अनुप्पादपरियोसानताय अनुप्पादो, फलं । पस्सद्धि किलेसवूपसमो।
छन्दस्साति कत्तुकम्यताछन्दस्स। मूललक्खणं पतिट्ठाभावो। समुट्ठापनलक्खणं आरम्मणपटिपादकताय सम्पयुत्तधम्मानं उप्पत्तिहेतुता। समोधानं विसयादिसन्निपातेन गहेतब्बाकारो, या “सङ्गती"ति वुच्चति । समं सह ओदहन्ति अनेन सम्पयुत्तधम्माति वा समोधानं, फस्सो । समोसरन्ति सन्निपतन्ति एत्थाति समोसरणं । वेदनाय विना अप्पवत्तमाना सम्पयुत्तधम्मा वेदनानुभवननिमित्तं समोसटा विय होन्तीति एवं वुत्तं । गोपानसीनं कूटं विय सम्पयुत्तानं पामोक्खभावो पमुखलक्खणं। ततो, तेसं वा सम्पयुत्तधम्मानं उत्तरि पधानन्ति तदुत्तरि। पञ्जत्तरा हि कुसला धम्मा । विमुत्तियाति फलस्स। तहि सीलादिगुणसारस्स परमुक्कंसभावेन सारं । अयञ्च लक्खणविभागो छधातुपञ्चझानङ्गादिवसेन तंतंसुत्तपदानुसारेन, पोराणट्ठकथाय आगतनयेन च कतोति दट्ठब् । तथा हि वुत्तोपि कोचि धम्मो परियायन्तरप्पकासनत्थं पुन दस्सितो, ततो एव च “छन्दमूलका कुसला धम्मा मनसिकारसमुट्ठाना, फस्ससमोधाना, वेदनासमोसरणा''ति, “पञ्जत्तरा कुसला धम्मा"ति, “विमुत्तिसारमिदं ब्रह्मचरिय"न्ति, “निब्बानोगधहि आवुसो ब्रह्मचरियं निब्बानपरियोसान"न्ति च सुत्तपदानं वसेन “छन्दस्स मूललक्खण"न्तिआदि
वुत्तं ।
तथधम्मा नाम चत्तारि अरियसच्चानि अविपरीतसभावत्ता । तथानि तंसभावत्ता । अवितथानि अमुसासभावत्ता । अनञथानि अज्ञाकाररहितत्ता ।
जातिपच्चयसम्भूतसमुदागतद्वोति जातिपच्चया सम्भूतं हुत्वा सहितस्स अत्तनो पच्चयानुरूपस्स उद्धं उद्धं आगतभावो, अनुपवत्तत्थोति अत्थो । अथ वा सम्भूतठ्ठो च समुदागतठ्ठो च सम्भूतसमुदागतट्ठो, न जातितो जरामरणं न होति, न च जातिं विना अञतो होतीति जातिपच्चयसम्भूतहो। इत्थञ्च जातितो समुदागच्छतीति जातिपच्चयसमुदागतहो । या या जाति यथा यथा पच्चयो होति, तदनुरूपं पातुभावोति अत्थो । अविज्जाय सङ्घारानं पच्चयट्ठोति एत्थापि न अविज्जा सङ्खारानं पच्चयो न होति, न च अविज्जं विना सङ्खारा उप्पज्जन्ति । या या अविज्जा येसं येसं सङ्खारानं यथा यथा पच्चयो होति, अयं अविज्जाय सङ्घारानं पच्चयट्ठो, पच्चयभावोति अत्थो ।
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गटीका
(१.७-७)
भगवा तं जानाति पस्सतीति सम्बन्धो। तेनाति भगवता । तं विभज्जमानन्ति योजेतब्बं । तन्ति रूपायतनं । इट्ठानिट्ठादीति आदि-सद्देन मज्झत्तं सङ्गण्हाति, तथा अतीतानागतपच्चुप्पन्नपरित्तअज्झत्तबहिद्धातदुभयादिभेदं । लन्भमानकपदवसेनाति "रूपायतनं दिटुं सद्दायतनं सुतं गन्धायतनं रसायतनं फोटब्बायतनं मुतं, सब् रूपं मनसा विज्ञात'"न्ति (ध० स० ९६६) वचनतो दिट्ठपदञ्च विजातपदञ्च रूपारम्मणे लब्भति ।
"रूपारम्मणं इटुं अनिलृ मज्झत्तं परित्तं अतीतं अनागतं पच्चुप्पन्नं अज्झत्तं बहिद्धा दिटुं विज्ञातं रूपं रूपायतनं रूपधातु वण्णनिभा सनिदस्सनं सप्पटिघं नीलं पीतक"न्ति एवमादीहि अनेकेहि नामेहि। "तेरसहि वारेही"ति रूपकण्डे (ध० स० ६१४ आदयो) आगते तेरस निद्देसवारे सन्धायाह । एकेकस्मिञ्च वारे चतुन्नं चतुन्नं ववत्थापननयानं वसेन "द्विपञासाय नयेही"ति आह। तथमेव अविपरीतदस्सिताय, अप्पटिवत्तियदेसनताय च । जानामि अभञासिन्ति वत्तमानातीतकालेसु आणप्पवत्तिदस्सनेन अनागतेपि आणप्पवत्ति वुत्तायेवाति दट्ठब्बा। विदित-सद्दो अनामट्ठकालविसेसो वेदितब्बो, “दिटुं सुतं मुत"न्तिआदीसु (ध० स० ९६६) विय । न उपट्ठासीति अत्तत्तनियवसेन न उपगच्छि । यथा रूपारम्मणादयो धम्मा यसभावा यंपकारा च, तथा ने पस्सति जानाति गच्छतीति तथागतोति एवं पदसम्भवो वेदितब्बो। केचि पन “निरुत्तिनयेन पिसोदरादिपक्खेपेन वा दस्सी-सद्दस्स लोपं, आगत-सद्दस्स चागमं कत्वा तथागतो"ति वण्णेन्ति ।
निदोसताय अनुपवज्ज। पक्खिपितब्बाभावेन अनूनं। अपनेतब्बाभावेन अनधिकं । अत्थब्यञ्जनादिसम्पत्तिया सब्बाकारपरिपुण्णं। नो अञथाति "तथेवा'"ति वुत्तमेवत्थं ब्यतिरेकेन सम्पादेति । तेन यदत्थं भासितं, एकन्तेन तदत्थनिष्फादनतो यथा भासितं भगवता, तथेवाति अविपरीतदेसनतं दस्सेति । “गदत्थो"ति एतेन तथं गदतीति तथागतोति द-कारस्स त-कारो कतो निरुत्तिनयेनाति दस्सेति ।
तथा गतमस्साति तथागतो, गतन्ति च कायस्स वाचाय वा पवत्तीति अत्थो । तथाति च वुत्ते यंत-सद्दानं अव्यभिचारिसम्बन्धिताय “यथा"ति अयमत्थो उपट्टितोयेव होति । कायवचीकिरियानञ्च अञमानुलोमेन वचनिच्छायं, कायस्स वाचा, वाचाय च कायो सम्बन्धीभावेन उपतिद्वतीति इममत्थं दस्सेन्तो आह "भगवतो ही"तिआदि । इमस्मिं पन अत्थे तथावादिताय तथागतोति अयम्पि अत्थो सिद्धो होति । सो पन पुब्बे पकारन्तरेन दस्सितोति आह "एवं तथाकारिताय तथागतो"ति ।
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(१.७-७)
चूळसीलवण्णना
__ "तिरियं अपरिमाणासु लोकधातूसू"ति एतेन यदेके “तिरियं विय उपरि अधो च सन्ति लोकधातुयो''ति वदन्ति, तं पटिसेधेति । देसनाविलासोयेव देसनाविलासमयो यथा "पुञमयं, दानमय"न्तिआदीसु ।
उपसग्गनिपातानं वाचकसद्दसन्निधाने तदत्थजोतनभावेन पवत्तनतो गत-सद्दोयेव अवगतत्थं अतीतत्थञ्च वदतीति आह "गतोति अवगतो अतीतो"ति । अथ वा अभिनीहारतो पट्ठाय याव सम्बोधि, एत्थन्तरे महाबोधियानपटिपत्तिया हानठानसंकिलेसनिवत्तीनं अभावतो यथा पणिधानं, तथा गतो अभिनीहारानुरूपं पटिपन्नोति तथागतो। अथ वा महिद्धिकताय, पटिसम्भिदानं उक्कंसाधिगमेन अनावरणताय च कत्थचि पटिघाताभावतो यथा रुचि, तथा कायवचीचित्तानं गतानि गमनानि पवत्तियो एतस्साति तथागतो। यस्मा च लोके विधयुत्तगतपकार-सद्दा समानत्था दिस्सन्ति, तस्मा यथा विधा विपस्सीआदयो भगवन्तो, अयम्पि भगवा तथा विधोति तथागतो। यथा युत्ता च ते भगवन्तो अयम्पि भगवा तथा युत्तोति तथागतो। अथ वा यस्मा सच्चं तच्छं तथन्ति आणस्सेतं अधिवचनं, तस्मा तथेन आणेन आगतोति तथागतोति । एवम्पि तथागत-सद्दस्स अत्थो वेदितब्बो
“पहाय कामादिमले यथा गता,
समाधिजाणेहि विपस्सिआदयो । महेसिनो सक्यमुनी जुतिन्धरो,
तथागतो तेन तथागतो मतो ।।
तथञ्च धातायतनादिलक्खणं,
सभावसामञविभागभेदतो । सयम्भुञाणेन जिनो समागतो,
तथागतो वुच्चति सक्यपुङ्गवो ।।
तथानि सच्चानि समन्तचक्खुना,
तथा इदप्पच्चयता च सब्बसो । अनञ्जनेय्येन यतो विभाविता,
याथावतो तेन जिनो तथागतो।।
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९८
दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गटीका
(१.७-७)
अनेकभेदासुपि लोकधातुसु,
जिनस्स रूपायतनादिगोचरे । विचित्तभेदं तथमेव दस्सनं,
तथागतो तेन समन्तलोचनो ।।
यतो च धम्मं तथमेव भासति,
___करोति वाचायनुलोम मत्तनो । गुणेहि लोकं अभिभुय्य इरियति,
तथागतो तेनपि लोकनायको ।।
यथाभिनीहारमतो यथारुचि,
पवत्तवाचातनुचित्तभावतो। यथाविधा येन पुरा महेसिनो,
तथाविधो तेन जिनो तथागतो"ति ।। (इतिवु० अट्ठ० ३८) सङ्गहगाथा मुखमत्तमेव । कस्मा ? अप्पमादपदं विय सकलधम्मपटिपत्तिया सब्बबुद्धगुणानं सङ्गाहकत्ता । तेनेवाह "सब्बाकारेना"तिआदि ।
"तं कतमन्ति पुच्छती"ति एतेन “कतमञ्च तं भिक्खवे"तिआदिवचनस्स सामञतो पुच्छाभावो दस्सितो अविसेसतो हि तस्स पुच्छाविसेसभावज्ञापनत्थं महानिद्देसे आगता सब्बाव पुच्छा अत्थुद्धारनयेन दस्सेति "तत्थ पुच्छा नामा"तिआदिना । तत्थ तत्थाति "तं कतमन्ति पुच्छती'ति एत्थ यदेतं सामञतो पुच्छावचनं, तस्मिं ।
लक्खणन्ति आतुं इच्छितो यो कोचि सभावो । “अआत"न्ति येन केनचि आणेन अज्ञातभावमाह, “अदिट्ट"न्ति दस्सनभूतेन आणेन पच्चक्खं विय अदिट्टतं । "अतुलित"न्ति “एत्तकमेत"न्ति तुलनभूतेन अतूलिततं, “अतीरित"न्ति तीरणभूतेन अकतजाणकिरियासमापनतं, "अविभूत"न्ति आणस्स अपाकटभावं, "अविभावित"न्ति जाणेन अपाकटीकतभावं । अदिटुं जोतीयति एतायाति अदिट्ठजोतना। दिलृ संसन्दीयति एतायाति दिवसंसन्दना, साकच्छावसेन विनिच्छयकरणं । विमति छिज्जति एतायाति विमतिच्छेदना। अनुमतिया पुच्छा अनुमतिपुच्छा । "तं किं मचथ भिक्खवे''तिआदि
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(१.८–८)
सवण्णा
पुच्छाय हि " का तुम्हाकं अनुमती 'ति अनुमति पुच्छिता होति । कथेतुकयताति कथेतुकम्याय ।
८. सरसेनेव पतनसभावस्स अन्तरा एव अतीव पातनं अतिपातो, सणिकं पतितुं अदत्वा सीघं पातनन्ति अत्थो । अतिक्कम्म वा सत्थादीहि अभिभवित्वा पातनं अतिपातो । सत्तोति खन्धसन्तानो । तत्थ हि सत्तपञ्ञत्ति । जीवितिन्द्रियन्ति रूपारूपजीवितिन्द्रियं । रूपजीवितिन्द्रिये हि विकोपिते इतरम्पि तंसम्बन्धताय विनस्सति । कस्मा पनेत्थ “ पाणस्स अतिपातो, पाणोति चेत्थ वोहारतो सत्तो 'ति च एकवचननिद्देसो कतो, ननु निरवसेसानं पाणानं अतिपाततो विरति इध अधिप्पेता । तथा हि वक्खति " सब्बपाणभूतहितानुकम्पीति सब्बे पाणभूते 'ति आदिना (दी० नि० अट्ठ० १. चूळसीलवण्णना) बहुवचननिद्देसन्ति ? सच्चमेतं, पाणभावसामञ्ञवसेन पनेत्थ एकवचननिद्देसो कतो, सब्बसद्दसन्निधानेन तत्थ पुथुत्तं विञ्ञायमानमेवाति सामञ्ञनिद्देसं अकत्वा भेदवचनिच्छावसेन बहुवचननिद्देसो कतोति । किञ्च भिय्योसामञ्ञतो संवरसमादानं, तब्बिसेसतो संवरभेदोति इमस्स विसेसस्स आपनत्थं अयं वचनभेदो कतोति वेदितब्बो । याय चेतनाय वत्तमानस्स जीवितिन्द्रियस्स निस्सयभूतेसु महाभूतेसु उपक्कमकरणहेतु तं महाभूतप्पच्चया उपज्जनक महाभूता नुप्पज्जिस्सन्ति सा तादिसप्पयोगसमुट्ठापिका चेतना पाणातिपाती । लद्धपक्कमानि हि भूतानि इतरभूतानि विय न विसदानीति समानजातियानं कारणं न होन्तीति । " कायवचीद्वारान ' "न्ति एतेन मनोद्वारे पवत्ताय वधकचेतनाय पाणातिपातभावं पटिक्खिपति ।
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पयोगवत्थुमहन्ततादीहि महासावज्जता तेहि पच्चयेहि उप्पज्जमानाय चेतनाय बलवभावतो वेदितब्बा । यथाधिप्पेतस्स हि पयोगस्स सहसा निप्फादनवसेन किच्चसाधिकाय बहुक्खत्तुं पवत्तजवनेहि लद्धासेवनाय च सन्निट्ठापकचेतनाय वसेन पयोगस्स महन्तभावो । सतिपि कदाचि खुद्दके चेव महन्ते च पाणे पयोगस्स समभावे महन्तं हनन्तस्स चेतना तिब्बतरा उप्पज्जतीति वत्थुस्स महन्तभावो । इति उभयं पेतं चेतनाय बलवभावेनेव होति । तथा हि हन्तब्बस्स महागुणभावेन तत्थ पवत्तउपकारचेतना विय खेत्तविसेसनिब्बत्तिया अपकारचेतनापि बलवती, तिब्बतरा च उप्पज्जतीति तस्सा महासावज्जता दट्ठब्बा। तस्मा पयोगवत्थुआदिपच्चयानं अमहत्तेपि महागुणतादिपच्चयेहि चेतनाय बलवभावादिवसेनेव महासावज्जभावो वेदितब्बो ।
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गटीका
सम्भारा,
सम्भरीयन्ति एतेहीति अङ्गानि । तेसु पाणसञ्ञितावधकचित्तानि पुब्बभागिय निप होन्ति । उपक्कमो वधकचेतनासमुट्ठापितो । पञ्चसम्भारवती पाणातिपातचेतनाति सा पञ्चसम्भारविनिमुत्ता दट्टब्बा । विज्जामयो मन्तपरिजप्पनपयोगी अथब्बणिकादीनं विय । इद्धिमयो कम्मविपाकजिद्धिमयो दाठाकोटकादीनं विय। अतिविय पपञ्चोति अतिमहावित्थारो ।
एत्थाह – खणे खणे निरुज्झनसभावेसु सङ्घारेसु को हन्ति, को वा हञ्ञति, यदि चित्तचेतसिकसन्तानो, सो अरूपताय न छेदनभेदनादिवसेन विकोपनसमत्थो, नापि विकोपनीयो, अथ रूपसन्तानो, सो अचेतनताय कट्ठकलिङ्गरूपमोति न तत्थ छेदनादिना पाणातिपातो लब्भति यथा मतसरीरे, पयोगोपि पाणातिपातस्स पहरणप्पकारादि अतीसु वा सङ्घारेसु भवेय्य अनागतेसु वा पच्चुप्पन्नेसु वा, तत्थ न ताव अतीतानागते सु सम्भवति तेसं अभावतो, पच्चुन्ने च सङ्घारानं खणिकत्ता सरसेनेव निरुज्झनसभावताय विनासाभिमुखेसु निप्पयोजनो पयोगो सिया, विनासस्स च कारणरहितत्ता न पहरणप्पकारादिपयोगहेतुकं मरणं, निरीहकताय च सङ्घारानं कस्स सो पयोगो, खणिकत्ता वधाधिप्पायसमकालभिज्जनकस्स किरियापरियोसानकालानवट्ठानतो कस्स वा पाणातिपातकम्मबद्धोति ।
( १.८ - ८)
वुच्चते - यथावुत्तवधकचेतनासहितो सङ्घारानं पुञ्जो सत्तसङ्घातो हन्ता, तेन पवत्तितवधकपयोगनिमित्तं अपगतुस्माविञ्ञाणजीवितिन्द्रियो मतवोहारप्पवत्तिनिबन्धो यथावुत्तवधप्पयोगाकरणे उप्पज्जनारहो रूपारूपधम्मसमूहो हञ्ञति, केवलो वा चित्तचेतसिकसन्तानो । वधप्पयोगाविसयभावेपि तस्स पञ्चवोकारभवे रूपसन्तानाधीनवृत्तिताय रूपसन्ताने परेन पयोजितजीवितिन्द्रियुपच्छेदकपयोगवसेन तन्निब्बत्तिविबन्धकविसदिसरूपुप्पत्तिया विहते विच्छेदो होतीति न पाणातिपातस्स असम्भवो, नापि अहेतुको पाणातिपातो, न च पयोगो निप्पयोजनो पच्चुप्पन्नेसु सङ्घारेसु कतपयोगवसेन तदनन्तरं उप्पज्जनारहस्स सङ्घारकलापस्स तथा अनुप्पत्तितो, खणिकानं सङ्घारानं खणिकमरणस्स इध मरणभावेन अनधिप्पेतत्ता, सन्ततिमरणस्स च यथावुत्तनयेन सहेतुकभावतो न अहेतुकं मरणं, न च कत्तुरहितो पाणातिपातप्पयोगो निरीहकेसुपि सङ्घारेसु सन्निहिततामत्तेन उपकारकेसु अत्तनो अनुरूपफलुप्पादननियतेसु कारणेसु कत्तुवोहारसिद्धितो यथा “पदीपो पकासेति निसाकरो चन्दिमा ति च, न. च केवलस्स वधाधिप्पायसहभुनो चित्तचेतसिककलापस्स पाणातिपातो इच्छितो सन्तानवसेन अवट्ठितस्सेव पटिजाननतो,
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(१.८-८)
चूळसीलवण्णना
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सन्तानवसेन पवत्तमानानञ्च पदीपादीनं अत्थकिरियासिद्धि दिस्सतीति अत्थेव पाणातिपातेन कम्मबद्धो । अयञ्च विचारो अदिन्नादानादीसुपि यथासम्भवं विभावेतब्बो ।
“पहीनकालतो पट्ठाय विरतोवा"ति एतेन पहानहेतुका इधाधिप्पेता समुच्छेदविरतीति दस्सेति । कम्मक्खयजाणेन हि पाणातिपातदुस्सील्यस्स पहीनत्ता भगवा अच्चन्तमेव ततो पटिविरतोति वुच्चति समुच्छेदवसेन पहानविरतीनं अधिप्पेतत्ता । किञ्चापि पहानविरमणानं पुरिमपच्छिमकालता नत्थि, मग्गधम्मानं पन सम्मादिद्विआदीनं सम्मावाचादीनञ्च पच्चयपच्चयुप्पन्नभावे अपेक्खिते सहजातानम्पि पच्चयपच्चयुप्पन्नभावेन गहणं पुरिमपच्छिमभावेनेव होतीति गहणप्पवत्तिआकारवसेन पच्चयभूतेसु सम्मादिठ्ठिआदीसु पहायकधम्मेसु पहानकिरियाय पुरिमकालवोहारो, पच्चयुप्पन्नासु च विरतीसु विरमणकिरियाय अपरकालवोहारो च होतीति एवमेत्थ अत्थो दट्टब्बो । पहानं वा समुच्छेदवसेन, विरति पटिप्पस्सद्धिवसेन. योजेतब्बा। अथ वा पाणो अतिपातीयति एतेनाति पाणातिपातो, पाणघातहेतुभूतो धम्मसमूहो। को पनेसो ? अहिरिकानोत्तप्पदोसमोहविहिंसादयो किलेसा। ते हि भगवा अरियमग्गेन पहाय समुग्घाटेत्वा पाणातिपातदुस्सील्यतो अच्चन्तमेव पटिविरतोति वुच्चति किलेसेसु पहीनेसु किलेसनिमित्तस्स कम्मस्स अनुप्पज्जनतो। “अदिन्नादानं पहाया'तिआदीसुपि एसेव नयो। विरतोवाति अवधारणेन तस्सा विरतिया कालादिवसेन अपरियन्ततं दस्सेति । यथा हि अजे समादिन्नविरतिकापि अनवट्ठितचित्तताय लाभजीवितादिहेतु समादानं भिन्दन्ति, न एवं भगवा। भगवा पन सब्बसो पहीनपाणातिपातत्ता अच्चन्तविरतो एवाति । वीतिक्कमिस्सामीति अनवज्जधम्मेहि वोकिण्णा अन्तरन्तरा उप्पज्जनका दुब्बलाकुसला । यस्मा पन कायवचीपयोगं उपलभित्वा "इमस्स किलेसा उप्पन्ना''ति विञ्जना सक्का आतुं, तस्मा ते इमिना परियायेन "चक्खुसोतविज्ञेय्या"ति वुत्ताति दट्ठब्बा । कायिकाति पाणातिपातादिनिप्फादके बलवाकुसले सन्धायाह ।
गोत्तवसेन लद्धवोहारोति सम्बन्धो। दीपेतुं वदृति ब्रह्मदत्तेन भासितवण्णस्स अनुसन्धिदस्सनवसेन इमिस्सा देसनाय आरद्धत्ता । तत्थायं दीपना - “पाणातिपातं पहाय पाणातिपाता पटिविरतो समणस्स गोतमस्स सावकसङ्घो निहितदण्डो निहितसत्थो''ति वित्थारेतब्बं । ननु च धम्मस्सापि वण्णो ब्रह्मदत्तेन भासितो? सच्चं भासितो, सो पन सम्मासम्बुद्धपभवत्ता, अरियसङ्घाधारत्ता च धम्मस्स धम्मानुभावसिद्धत्ता च तेसं तदुभयदीपनेनेव दीपितो होतीति विसुं न उद्धटो। सद्धम्मानुभावेनेव हि भगवा
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( १.८ - ८)
भिक्खुसङ्घो च पाणातिपातादिप्पहानसमत्थो अहोसि, देसना पन आदितो पट्ठाय एवं आगताति ।
दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गटीका
एत्थायं अधिप्पायो – “अस्थि भिक्खवे अञ्ञे च धम्मा' तिआदिना अनञ्ञसाधारणे बुद्धगुणे आरम्भ उपरि देसनं वड्डेतुकामो भगवा आदितो पट्ठाय “ तथागतस्स वणं वदमानो वदेय्या”तिआदिना बुद्धगुणवसेनेव देसनं आरभि, न भिक्खुसङ्घवसेनाति । सा हि भगवतो देसनाय पकति, यं एकरसेनेव देसनं दस्सेतुं लब्भमानस्सापि कस्सचि अग्गहणं। तथा हि रूपकण्डे दुकादीसु तन्निद्देसेसु च हृदयवत्थु न गतिं । इतरव असमानगतिकत्ता देसनाभेदो होतीति । यथा हि चक्खुविज्ञाणादीनि एकन्ततो चक्खादिनिस्सयानि, न एवं मनोविञ्ञणं एकन्तेन हृदयवत्थुनिस्सयं निस्सितवसेन च वत्थुदुकादिदेसना पवत्ता “ अत्थि रूपं चक्खुविञ्ञणस्स वत्थु, अत्थि रूपं न चक्खुविञ्ञाणस्स वत्थू' 'तिआदिना । यम्पि एकन्ततो हृदयवत्थुनिस्सयं, तस्स वसेन "अस्थि रूपं मनोविञ्ञणस्स वत्थू' 'तिआदिना दुकादीसु वुच्चमानेसुपि न तदनुरूपा आरम्मणदुकायो सम्भवन्ति । न हि " अत्थि रूपं मनोविञ्ञाणस्स आरम्मणं, अत्थि रूपं न मनोविञ्ञणस्स आरम्मण "न्ति सक्का वत्तुन्ति वत्थारम्मणदुका भिन्नगतिका सिन्ति न एकरसा देसना भवेय्याति । तथा निक्खेपकण्डे चित्तुप्पादविभागेन अवुच्चमानत्ता अवितक्क अविचारपदविस्सज्जने "विचारो चाि वत्तुं न सक्काति अवितक्कविचारमत्तपदविस्सज्जने लब्भमानोपि वितक्को न उद्धटो, अञ्ञथा "वितक्को चा" ति वत्तब्बं सिया ।
दण्डनसङ्घातस्स दण्डस्स परविहेठनस्स विवज्जितभावदीपनत्थं दण्डसत्थानं निक्खेपवचनन्ति आह "परूपघातत्थाया" तिआदि । विहेठनभावतोति विहिंसनभावतो । “भिक्खुसङ्घवसेनापि दीपेतुं वट्टतीति वुत्तत्ता तम्पि एकदेसेन दीपेन्तो “यं पन भिक्खू'तिआदिमाह |
लज्जीत एत्थ वुत्तलज्जाय ओत्तप्पम्पि वुत्तमेवाति दट्ठब्बं । न हि पापजिगुच्छनं पापुत्तासनरहितं, पापभयं वा अलज्जनं अत्थीति । धम्मगरुताय वा बुद्धानं, धम्मच अत्ताधीनत्ता अत्ताधिपतिभूता लज्जाव वुत्ता, न पन लोकाधिपति ओत्तप्पं । “दयं मेत्तचित्ततं आपन्नो "ति कस्मा वुत्तं ननु दया- सद्दो " दयापन्नो "तिआदीसु करुणाय पवत्ततीति ? सच्चमेतं, अयं पन दया-सद्दी अनुरक्खणमत्थं अन्तोनीतं कत्वा पत्ता
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(१.८-८)
चूळसीलवण्णना
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मेत्ताय करुणाय च पवत्ततीति इध मेत्ताय पवत्तमानो वुत्तो । मिदति सिनिव्हतीति मेत्ता, मेत्ता एतस्स अत्थीति मेत्तं, मेत्तं चित्तं एतस्साति मेत्तचित्तो, तस्स भावो मेत्तचित्तता, मेत्ता इच्चेव अत्थो । “सब्बपाणभूतहितानुकम्पी"ति एतेन तस्सा विरतिया सत्तवसेन अपरियन्ततं दस्सेति। पाणभूतेति पाणजाते। अनुकम्पकोति करुणायनको । यस्मा पन मेत्ता करुणाय विसेसपच्चयो होति, तस्मा वुत्तं "ताय एव दयापन्नताया"ति । एवं येहि धम्मेहि पाणातिपाता विरति सम्पज्जति, तेहि लज्जामेत्ताकरुणाहि समझीभावो दस्सितो । विहरतीति एवंभूतो हुत्वा एकस्मिं इरियापथे उप्पन्नं दुक्खं अञ्जेन इरियापथेन विच्छिन्दित्वा हरति पवत्तेति, अत्तभावं वा यापेतीति अत्थो । तेनेवाह "इरियति यति यापेति पालेती"ति ।
आचारसीलमत्तकन्ति साधुजनाचारसीलमत्तकं, तेन इन्द्रियसंवरादिगुणेहिपि लोकियपुथुज्जनो तथागतस्स वण्णं वत्तुं न सक्कोतीति दस्सेति। तथा हि इन्द्रियसंवरपच्चयपरिभोगसीलानि इध सीलकथायं न विभत्तानि ।
परसंहरणन्ति परस्स सन्तकहरणं । थेनो वुच्चति चोरो, तस्स भावो थेय्यं । इधापि खुद्दके परसन्तके अप्पसावज्जं, महन्ते महासावज्ज । कस्मा ? पयोगमहन्तताय, वत्थुगुणानं पन समभावे सति किलेसानं उपक्कमानञ्च मुदुताय अप्पसावज्जं, तिब्बताय महासावज्जन्ति अयम्पि नयो योजेतब्बो ।
साहत्थिकादयोति एत्थ मन्तपरिजप्पनेन परसन्तकहरणं विज्जामयो, विना मन्तेन कायवचीपयोगेन परसन्तकस्स आकड्डनं तादिसइद्धानुभावेन इद्धिमयो पयोगो।
सेसन्ति “पहाय पटिविरतो"ति एवमादिकं । तहि पुब्बे वुत्तनयं । किञ्चापि नयिध सिक्खापदवोहारेन विरति वुत्ता, इतो अनेसु पन सुत्तपदेसेसु विनयाभिधम्मेसु च पवत्तवोहारेन विरतियो चेतना च अधिसीलसिक्खादीनं अधिट्ठानभावतो, तेसु अञतरकोट्ठासभावतो च सिक्खापदन्ति आह “पठमसिक्खापदे"ति । कामञ्चेत्थ “लज्जी दयापन्नो''ति न वुत्तं, अधिकारवसेन पन अत्थतो वा वुत्तमेवाति वेदितब्बं । यथा हि लज्जादयो पाणातिपातप्पहानस्स विसेसप्पच्चयो, एवं अदिन्नादानप्पहानस्सापीति, तस्मा सापि पाळि आनेत्वा वत्तब्बा। एसेव नयो इतो परेसुपि । अथ वा “सुचिभूतेना''ति
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गटीका
(१.९-९)
एतेन हिरोत्तप्पादीहि समन्नागमो, अहिरिकादीनञ्च पहानं वुत्तमेवाति "लज्जी"तिआदि न वुत्तन्ति दट्ठब्बं ।
___ असेट्ठचरियन्ति असेट्ठानं हीनानं, असेहूँ वा लामकं निहीनं वुत्तिं, मेथुनन्ति अत्थो । "ब्रह्म सेहूँ आचार"न्ति मेथुनविरतिमाह । “आराचारी मेथुना"ति एतेन “इध ब्राह्मण एकच्चो...पे०... न हेव खो मातुगामेन सद्धिं द्वयंद्वयसमापत्तिं समापज्जति, अपिच खो मातुगामस्स उच्छादनपरिमद्दनन्हापनसम्बाहनं सादियति, सो तं अस्सादेति, तं निकामेति, तेन च वित्तिं आपज्जती''तिआदिना (अ० नि० २.७.५०) वुत्ता सत्तविधमेथुनसंयोगापि पटिविरति दस्सिताति दट्ठब्बा। इधापि असद्धम्मसेवनाधिप्पायेन कायद्वारप्पवत्ता मग्गेनमग्गपटिपत्तिसमुट्ठापिका चेतना अब्रह्मचरियं, मिच्छाचारे पन अगमनीयट्ठानवीतिक्कमचेतनाति योजेतब्बं । तत्थ अगमनीयट्ठानं नाम पुरिसानं मातुरक्खितादयो दस, धनक्कीतादयो दसाति वीसति इथियो। इत्थीसु पन दसन्नं धनक्कितादीनं सारक्खसपरिदण्डानञ्च वसेन द्वादसनं अञ्चे पुरिसा। गुणविरहिते विप्पटिपत्ति अप्पसावज्जा, महागुणे महासावज्जा। गुणरहितेपि च अभिभवित्वा पवत्ति महासावज्जा, उभिन्नं समानच्छन्दभावेपि किलेसानं उपक्कमानञ्च मुदुताय अप्पसावज्जा, तिब्बताय महासावज्जाति वेदितब्बा। तस्स द्वे सम्भारा सेवेतुकामताचित्तं, मग्गेनमग्गपटिपत्तीति । मिच्छाचारे पन अगमनीयट्ठानता, सेवनाचित्तं मग्गेनमग्गपटिपत्ति, सादियनञ्चाति चत्तारो । “अभिभवित्वा वीतिक्कमने मग्गेनमग्गपटिपत्तिअधिवासने सतिपि पुरिमुप्पन्नसेवनाभिसन्धिपयोगाभावतो अभिभुय्यमानस्स मिच्छाचारो न होती"ति वदन्ति | सेवनाचित्ते सति पयोगाभावो न पमाणं इत्थिया सेवनापयोगस्स येभुय्येन अभावतो, इत्थिया पुरेतरं उपट्ठापितसेवनाचित्तायपि मिच्छाचारो न सियाति आपज्जति पयोगाभावतो। तस्मा पुरिसस्स वसेन उक्कंसतो चत्तारो वुत्ताति दट्ठबं, अञथा इत्थिया पुरिसकिच्चकरणकाले पुरिसस्सपि सेवनापयोगाभावतो मिच्छाचारो न सियाति एके। इदं पनेत्थ सन्निट्ठानं - अत्तनो रुचिया पवत्तितस्स तयो, बलक्कारेन पवत्तितस्स तयो, अनवसेसग्गहणेन पन चत्तारोति । एको पयोगो साहत्थिकोव ।
९. कम्मपथप्पत्तं दस्सेतुं “अत्थभजनको"ति वुत्तं । वचीपयोगो कायपयोगो वाति मुसा-सद्दस्स किरियापधानतं दस्सेति । विसंवादनाधिप्पायो पुब्बभागक्खणे तङ्खणे च । वुत्तहि "पुब्बेवस्स होति 'मुसा भणिस्स'न्ति, भणन्तस्स होति 'मुसा भणामी'ति" (पारा० २०५)। एतहि द्वयं अङ्गभूतं, इतरं पन होतु वा मा वा, अकारणमेतं । अस्साति
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चूळसीलवण्णना
विसंवादकस्स। यथावुत्तं पयोगभूतं मुसा वदति विज्ञापेति, समुट्ठापेति वा ता चेतना मुसावादो ।
(१.९-९)
पुरिमनये लक्खणस्स अब्यापितताय, मुसा - सद्दस्स च विसंवदितब्बत्थवाचकत्तसम्भवतो परिपुण्णं कत्वा मुसावादलक्खणं दस्सेतुं “मुसाति अभूतं अतच्छं वत्थू "तिआदिना दुतियनयो आरद्ध । इमस्मिञ्च नये मुसा वदीयति वुच्चति एतायाति चेतना मुसावादो । “यमत्थं भञ्जती"ति वत्थुवसेन मुसावादस्स अप्पसावज्जमहासावज्जतमाह । यस्स अत्यं भञ्जति, तस्स अप्पगुणताय अप्पसावज्जो, महागुणताय महासावज्जोति अदिन्नादाने विय गुणवसेनापि योजेतब्बं । किलेसानं मुदुतिब्बतावसेनापि अप्पसावज्जमहासावज्जता
लब्भतियेव ।
अत्तनो सन्तकं अदातुकामताय, पूरणकथानयेन च विसंवादनपुरेक्खारस्सेव मुसावादो । तत्थ पन चेतना बलवती न होतीति अप्पसावज्जता वृत्ता । अप्पताय ऊनस्स अत्थस्स पूरणवसेन पवत्ता कथा पूरणकथा ।
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तज्जोति तस्सारुप्पो, विसंवादनानुरूपोति अत्थो । “वायामो "ति वायामसीसेन पयोगमाह । विसंवादनाधिप्पायेन पयोगे कतेपि परेन तस्मिं अत्थे अविज्ञाते विसंवादनस्स असिज्झनतो परस्स तदत्थविजाननं एको सम्भारो वुत्तो । केचि पन "अभूतवचनं विसंवादनचित्तं परस्स तदत्थविजाननन्ति तयो सम्भारा ति वदन्ति । किरियासमुट्ठापकचेतनाक्खणेयेव मुसावादककम्मुना बज्झति सन्निट्ठापकचेतनाय निब्बत्तत्ता, सचेपि दन्ताय विचारेत्वा परो तमत्थं जानातीति अधिप्पायो ।
"सच्चतो थेततो”तिआदीसु (म० नि० १.१९ ) विय थेत सद्दो थिरपरियायो, थिरभावो च सच्चवादिताय अधिकतत्ता कथावसेन वेदितब्बोति आह “ थिरकथोति अत्थो”ति । नथिरकथोति यथा हलिद्दिरागादयो अनवट्ठितसभावताय न थिरा, एवं न थिरा कथा यस्स सो न थिरकथोति हलिद्दिरागादयो यथा कथाय उपमा होन्ति, एवं योजेतब्बं । एस नयो “पासाणलेखा विया "तिआदीसुपि ।
सद्धा अयति पवत्तति एत्थाति सद्धायो, सद्धायो एव सद्धायिको यथा
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गटीका
“वेनयिको"ति (अ० नि० ३.८.११; पारा० ८)। सद्धाय वा अयितब्बो सद्धायिको, सद्धेय्योति अत्थो । वत्तब्बतं आपज्जति विसंवादनतोति अधिप्पायो ।
सुञभावन्ति पीतिविरहितताय रित्ततं । सा पिसुणवाचाति यायं यथावुत्ता सद्दसभावा वाचा, सा पियसुञकरणतो पिसुणवाचाति निरुत्तिनयेन अत्थमाह । पिसतीति वा पिसुणा, समग्गे सत्ते अवयवभूते वग्गे भिन्ने करोतीति अत्थो ।
फरुसन्ति सिनेहाभावेन लूखं । सयम्पि फरुसाति दोमनस्ससमुट्ठितत्ता सभावेनपि कक्कसा। एत्थ च फरुसं करोतीति फलूपचारेन, फरुसयतीति वा वाचाय फरुस-सद्दप्पवत्ति वेदितब्बा। सयम्पि फरुसाति परेसं मम्मच्छेदवसेन पवत्तिया एकन्तनिठुरताय सभावेन, कारणवोहारेन च वाचाय फरुस-सद्दप्पवत्ति दळुब्बा । ततोयेव च नेव कण्णसुखा। अत्थविपन्नताय न हदयङ्गमा।
येन सम्र्फ पलपतीति येन पलापसङ्खातेन निरत्थकवचनेन सुखं हितञ्च फलति विदरति विनासेतीति “सम्फ'"न्ति लद्धनामं अत्तनो परेसञ्च अनुपकारकं यं किञ्चि पलपति ।
संकिलिट्ठचित्तस्साति लोभेन दोसेन वा विबाधितचित्तस्स, उपतापितचित्तस्स वा, दूसितचित्तस्साति अत्थो । चेतना पिसुणवाचा पिसुणं वदन्ति एतायाति । यस्स यतो भेदं करोति, तेसु अभिन्नेसु अप्पसावज्जं, भिन्नेसु महासावज्जं, तथा किलेसानं मुदुतिब्बताविसेसेसु।
यस्स पेसुधे उपसंहरति, सो भिज्जतु वा मा वा, तस्स अत्थस्स विज्ञापनमेव पमाणन्ति आह "तदत्थविजानन"न्ति, कम्मपथप्पत्ति पन भिन्ने एव ।
अनुप्पदाताति अनुबलप्पदाता, अनुवत्तनवसेन वा पदाता। कस्स पन अनुवत्तनं पदानञ्च ? “सहितान''न्ति वुत्तत्ता "सन्धानस्सा"ति विज्ञायति । तेनेवाह "सन्धानानुप्पदाता"ति । यस्मा पन अनुवत्तनवसेन सन्धानस्स पदानं आधानं, रक्खणं वा दळहीकरणं होति, तेन वुत्तं “दळहीकम्मं कत्ताति अत्थो"ति । आरमन्ति एत्थाति आरामो,
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(१.९-९)
चूळसीलवण्णना
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रमितब्बट्टानं । यस्मा पन आकारेन विनापि अयमेवत्थो लब्भति, तस्मा वुत्तं "समग्गरामोतिपि पाळि, अयमेवेत्थ अत्थो"ति ।
मम्मानि विय मम्मानि, येसु फरुसवाचाय छुपितमत्तेसु दुट्ठारूसु विय घट्टितेसु चित्तं अधिमत्तं दुक्खप्पत्तं होति । कानि पन तानि ? जातिआदीनि अक्कोसवत्थूनि । तानि छिज्जन्ति, भिज्जन्ति वा येन कायवचीपयोगेन, सो मम्मच्छेदको। एकन्तेन फरुसचेतना फरुसवाचा फरुसं वदति एतायाति । कथं पन एकन्तफरुसचेतना होति ? दुट्ठचित्तताय । तस्साति एकन्तफरुसचेतनाय एव फरुसवाचाभावस्स । मम्मच्छेदको सवनफरुसतायाति अधिप्पायो । चित्तसण्हताय फरुसवाचा न होति कम्मपथ'प्पत्तत्ता, कम्मभावं पन न सक्का वारेतुन्ति। एवं अन्वयवसेन चेतनाफरुसताय फरुसवाचं साधेत्वा इदानि तमेव पटिपक्खनयेन साधेतुं "वचनसण्हताया"तिआदि वुत्तं । सा फरुसवाचा । यन्ति यं पुग्गलं | एत्थापि कम्मपथभावं अप्पत्ता अप्पसावज्जा, इतरा महासावज्जा, तथा किलेसानं मुतिब्बताभावे । केचि पन “यं उद्दिस्स फरुसवाचा पयुज्जन्ति, तस्स सम्मुखाव सीसं एती"ति, एके “परम्मुखापि फरुसवाचा होतियेवा"ति वदन्ति । तत्थायमधिप्पायो युत्तो सिया - सम्मुखा पयोगे अगारवादीनं बलवभावतो सिया चेतना बलवती, परस्स च तदत्थजाननं, न तथा असम्मुखाति । यथा पन अक्कोसिते मते आळहने कता खमना उपवादन्तरायं निवत्तेति, एवं “परम्मुखा पयुत्तापि फरुसवाचा होतियेवा"ति सक्का विज्ञातुन्ति । कुपितचित्तन्ति अक्कोसाधिप्पायेनेव कुपितचित्तं, न मरणाधिप्पायेन । मरणाधिप्पायेन हि चित्तकोपे सति ब्यापादोयेव होतीति । एत्थाति
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"नेलङ्गो सेतपच्छादो, एकारो वत्तती रथो। अनीघं पस्स आयन्तं, छिन्नसोतं अबन्धन''न्ति ।। (सं० नि० २.४.३४७; उदा० ६५)
इमिस्सा गाथाय । सीलव्हेत्थ “नेलङ्ग"न्ति वुत्तं । तेनेवाह चित्तो गहपति “नेलङ्गन्ति खो भन्ते सीलानमेतं अधिवचन"न्ति (सं० नि० २.४.३४७)। सुकुमाराति अफरुसताय मुदुका। पुरस्साति एत्थ पुर-सद्दो तन्निवासीवाचको दट्ठब्बो “गामो आगतो''तिआदीसु विय। तेनेवाह "नगरवासीन"न्ति । मनं अप्पायति वड्डेतीति मनापा। तेन वुत्तं “चित्तबुड्डिकरा"ति । आसेवनं भावनं बहुलीकरणं । यं गाहयितुं पवत्तितो, तेन अग्गहिते
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गटीका
(१.१०-१०)
अप्पसावज्जो गहिते महासावज्जोति, इधापि किलेसानं मुदुतिब्बतावसेनापि अप्पसावज्जमहासावज्जता लब्भतियेव ।
"कालवादी"तिआदि सम्पप्पलापा पटिविरतस्स पटिपत्तिदस्सनं। यथा हि "पाणातिपाता पटिविरतो''तिआदि पाणातिपातप्पहानपटिपत्तिदस्सनं । “पाणातिपातं पहाय विहरतीति हि वुत्ते कथं पाणातिपातप्पहानं होतीति ? अपेक्खासब्भावतो “पाणातिपाता पटिविरतो होती"ति वुत्तं, सा पन विरति कथन्ति आह "निहितदण्डो निहितसत्थो"ति, तञ्च दण्डसत्थनिधानं कथन्ति वुत्तं “लज्जी''तिआदि, एवं उत्तरुत्तरं पुरिमस्स पुरिमस्स उपायसन्दस्सनं, तथा अदिन्नादानादीसु यथासम्भवं योजेतब्बं । तेन वुत्तं "कालवादीतिआदि सम्फप्पलापा पटिविरतस्स पटिपत्तिदस्सन'"न्ति । अत्थसहितापि हि वाचा अयुत्तकालप्पयोगेन अत्थावहा न सियाति अनत्थविज्ञापनवाचं अनुलोमेति, तस्मा सम्फप्पलापं पजहन्तेन अकालवादिता परिवज्जेतब्बाति वुत्तं "कालवादी"ति। कालेन वदन्तेनापि उभयानत्थसाधनतो अभूतं परिवज्जेतब्बन्ति आह "भूतवादी"ति । भूतञ्च वदन्तेन यं इधलोकपरलोकहितसम्पादकं, तदेव वत्तब्बन्ति दस्सेतुं "अथवादी"ति वुत्तं । अत्थं वदन्तेनापि न लोकियधम्मसन्निस्सितमेव वत्तब्द, अथ खो लोकुत्तरधम्मसन्निस्सितं पीति दस्सेतुं "धम्मवादी"ति वुत्तं । यथा च अत्थो लोकुत्तरधम्मसन्निस्सितो होति, तं दस्सनत्थं "विनयवादी"ति वुत्तं । पातिमोक्खसंवरो सतिसंवरो आणसंवरो खन्तिसंवरो वीरियसंवरोति हि पञ्चन्नं संवरानं, तदङ्गविनयो विक्खम्भनविनयो समुच्छेदविनयो पटिप्पस्सद्धिविनयो निस्सरणविनयोति पञ्चन्नं विनयानञ्च वसेन वुच्चमानो अत्थो निब्बानाधिगमहेतुभावतो लोकुत्तरधम्मसन्निस्सितो होतीति ।
एवं गुणविसेसयुत्तो च अत्थो वुच्चमानो देसनाकोसल्ले सति सोभति, किच्चकरो च होति, नाञथाति दस्सेतुं "निधानवतिं वाचं भासिता"ति वुत्तं । इदानि तं देसनाकोसल्लं विभावेतुं "कालेना"तिआदिमाह । अज्झासयटुप्पत्तीनं पुच्छाय च वसेन ओतिण्णे देसनाविसये एकंसादिब्याकरणविभागं सल्लक्खेत्वा ठपनाहेतुदाहरणसंसन्दनानि तंतंकालानुरूपं विभावेन्तिया परिमितपरिच्छिन्नरूपाय विपुलतरगम्भीरुदारपहूतत्थवित्थारसङ्गाहकाय देसनाय परे यथाज्झासयं परमत्थसिद्धियं पतिठ्ठापेन्तो “देसनाकुसलो"ति वुच्चतीति एवमेत्थ अत्थयोजना वेदितब्बा ।
१०. एवं पटिपाटिया सत्त मूलसिक्खापदानि विभजित्वा सतिपि
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(१.१०-१०)
चूळसीलवण्णना
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अभिज्झादिप्पहानस्स संवरसीलसिक्खासङ्गहे उपरिगुणसङ्गहतो, लोकियपुथुज्जनाविसयतो च उत्तरदेसनाय सङ्गण्हितुं तं परिहरित्वा पचुरजनपाकटं आचारसीलमेव विभजन्तो भगवा "बीजगामभूतगामसमारम्भा"तिआदिमाह । तत्थ गामोति समूहो । ननु च रुक्खादयो चित्तरहितताय न जीवा, चित्तरहितता च परिप्फन्दाभावतो, छिन्ने विरुहनतो, विसदिसजातिकभावतो, चतुयोनिअप्परियापन्नतो च वेदितब्बा, वुड्डि पन पवाळसिलालवणानम्पि विज्जतीति न तेसं जीवभावे कारणं, विसयग्गहणञ्च परिकप्पनामत्तं सुपनं विय चिञ्चादीनं, तथा दोहळादयो, तत्थ कस्मा बीजगामभूतगामसमारम्भा पटिविरति इच्छिताति? समणसारुप्पतो, सन्निस्सितसत्तानुरक्खणतो च। तेनेवाह "जीवसचिनो हि मोघपुरिसा मनुस्सा रुक्खस्मिन्तिआदि (पाचि० ८९)। नीलतिणरुक्खादिकस्साति अल्लतिणस्स चेव अल्लरुक्खादिकस्स च । आदि-सद्देन ओसधिगच्छलतादयो वेदितब्बा ।
एकं भत्तं एकभत्तं, तं अस्स अत्थीति एकभत्तिको, एकस्मिं दिवसे एकवारमेव भुञ्जनको । तयिदं रत्तिभोजनोपि सियाति तन्निवत्तनत्थमाह "रत्तूपरतो"ति । एवम्पि अपरण्हभोजीपि सिया एकभत्तिकोति तदासानिवत्तनत्थं "विरतो विकालभोजना"ति वुत्तं । अरुणुग्गमनतो पट्टाय याव मज्झन्हिका, अयं बुद्धानं आचिण्णसमाचिण्णो भोजनस्स कालो नाम, तदओ विकालो । अट्ठकथायं पन दुतियपदेन रत्तिभोजनस्स पटिक्खित्तत्ता अपरण्हो “विकालो''ति वुत्तो।
सोपतो “सब्बपापस्स अकरण''न्तिआदि (दी० नि० २.९०; ध० प० १८३; नेत्ति० ३०, ५०, ११६, १२४) नयप्पवत्तं भगवतो सासनं अच्चन्तछन्दरागप्पवत्तितो नच्चादीनं दस्सनं न अनुलोमेतीति आह "सासनस्स अननुलोमत्ता"ति । अत्तना पयोजियमानं, परेहि पयोजापियमानञ्च नच्चं नच्चभावसामञतो पाळियं एकेनेव नच्च-सद्देन गहितं, तथा गीतवादित-सद्देन चाति आह "नच्चननच्चापनादिवसेना'ति । आदि-सद्देन गायनगायापनवादनवादापनानि सङ्गण्हाति। दस्सनेन चेत्थ सवनम्पि सङ्गहितं विरूपेकसेसनयेन । आलोचनसभावताय वा पञ्चन्नं विज्ञाणानं सवनकिरियायपि दस्सनसङ्केपसब्भावतो “दस्सना" इच्चेव वुत्तं । अविसूकभूतस्स गीतस्स सवनं कदाचि वट्टतीति आह "विसूकभूता दस्सना"ति । तथा हि वुत्तं परमत्थजोतिकाय खुद्दकपाठट्ठकथाय (खु० पा० अट्ट० पच्छिमपञ्चसिक्खापदवण्णना) “धम्मूपसंहितम्पि चेत्थ गीतं वट्टति, गीतूपसंहितो धम्मो न वट्टती''ति ।
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गटीका
(१.१०-१०)
उच्चाति उच्चसद्देन समानत्थं एकं सद्दन्तरं, सेति एत्थाति सयनं। उच्चासयनं महासयनञ्च समणसारुप्परहितं अधिप्पेतन्ति आह “पमाणातिक्कन्तं, अकप्पियत्थरण"न्ति । आसन्दादिआसनञ्चेत्थ सयनेन सङ्गहितन्ति दट्ठबं । यस्मा पन आधारे पटिक्खित्ते तदाधारकिरिया पटिक्खित्ताव होति, तस्मा “उच्चासयनमहासयना" इच्चेव वुत्तं, अत्थतो पन तदुपभोगभूत निसज्जानिपज्जनेहि विरति दस्सिताति दट्टब्बा । उच्चासयनसयनमहासयनसयनाति वा एतस्मिं अत्थे एकसेसनयेन अयं निद्देसो कतो यथा "नामरूपपच्चया सळायतन''न्ति (म० नि० ३.१२६: सं० नि० १.२.१: उदा० १)। आसनकिरियापुब्बकत्ता सयनकिरियाय सयनग्गहणेनेव आसनं गहितन्ति वेदितब्बं ।
अञ्चेहि गाहापने उपनिक्खित्तसादियने च पटिग्गहणत्थो लब्भतीति आह "न उग्गण्हापेति, न उपनिखित्तं सादीयती"ति । अथ वा तिविधं पटिग्गहणं कायेन वाचाय मनसा। तत्थ कायेन पटिग्गहणं उग्गण्हनं, वाचाय पटिग्गहणं उग्गहापनं. मनसा पटिग्गहणं सादियनन्ति तिविधम्पि पटिग्गहणं सामञनिद्देसेन, एकसेसनयेन वा गहेत्वा “पटिग्गहणा"ति वुत्तन्ति आह "नेव नं उग्गण्हाती"तिआदि । एस नयो "आमकधअपटिग्गहणा"तिआदीसुपि । नीवारादिउपधास्स सालियादिमूलधचन्तोगधत्ता वुत्तं "सत्तविधस्सा'ति । “अनुजानामि भिक्खवे पञ्च वसानि भेसज्जानि अच्छवसं मच्छवसं सुसुकावसं सूकरवसं गद्रभवस"न्ति (महाव० २६२) वुत्तत्ता इदं ओदिस्स अनुज्ञातं नाम, तस्स पन “काले पटिग्गहित"न्ति (महाव० २६२) वुत्तत्ता पटिग्गहणं वट्टतीति आह "अञत्र ओदिस्स अनुज्ञाता"ति ।
अक्कमतीति निप्पीळेति। पुब्बभागे अक्कमतीति सम्बन्धो। हदयन्ति नाळिआदिमानभाजनानं अब्भन्तरं । तिलादीनं नाळिआदीहि मिननकाले उस्सापितसिखायेव सिखा, तस्सा भेदो हापनं । केचीति सारसमासाचरिया, उत्तरविहारवासिनो च ।
वधोति मुट्ठिप्पहारकसाताळनादीहि हिंसनं, विहेठनन्ति अत्थो । विहेठनत्थोपि हि वधसद्दो दिस्सति “अत्तानं वधित्वा वधित्वा"तिआदीसु (पाचि० ८८०)। यथा हि अप्पटिग्गहभावसामचे सतिपि पब्बजितेहि अप्पटिग्गहितब्बवत्थुविसेसभावसन्दस्सनत्थं इत्थिकुमारिदासिदासादयो विभागेन वुत्ता, एवं परस्सहरणभावतो अदिन्नादानभावसामने सतिपि तुलाकूटादयो अदिन्नादानविसेसभावदस्सनत्थं विभागेन वुत्ता, न एवं पाणातिपातपरियायस्स वधस्स पुनग्गहणे पयोजनं अस्थि । “तत्थ सयङ्कारो, इध परंकारो'"ति
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(१.११-११)
मज्झिमसीलवण्णना
१११
च न सक्का वत्तुं “कायवचीपयोगसमुट्ठापिका चेतना छप्पयोगा''ति च वुत्तत्ता । तस्मा यथावुत्तोयेव अत्थो सुन्दरतरो । अट्ठकथायं पन “वधोति मारण''न्ति वुत्तं, तम्पि पोथनमेव सन्धायाति च सक्का विज्ञातुं मारण-सद्दस्स विहिंसनेपि दिस्सनतो ।
एत्तावताति “पाणातिपातं पहाया''तिआदिना “छेदन...पे०... सहसाकारा पटिविरतो''ति एतपरिमाणेन पाठेन । अन्तराभेदं अग्गहेत्वा पाळियं आगतनयेन छब्बीसतिसिक्खापदसङ्गहं येभुय्येन सिक्खापदानं अविभत्तत्ता चूळसीलं नाम । देसनावसेन हि इध चूळमज्झिमादिभावो अधिप्पेतो, न धम्मवसेन । तथा हि इध सङित्तेन उद्दिवानं सिक्खापदानं अविभत्तानं विभजनवसेन मज्झिमसीलदेसना पवत्ता । तेनेवाह "मज्झिमसीलं वित्थारेन्तो"ति।
चूळसीलवण्णना निट्टिता।
मज्झिमसीलवण्णना ११. तत्थ यथाति ओपम्मत्थे निपातो। वाति विकप्पनत्थे । पनाति वचनालङ्कारे । एकेति अञ्चे। भोन्तोति साधूनं पियसमुदाहारो | साधवो हि परे “भोन्तो''ति वा, "देवानं पिया''ति वा “आयस्मन्तो"ति वा समालपन्ति । यं किञ्चि पब्बज्जं उपगता समणा। जातिमत्तेन ब्राह्मणा। इदं वुत्तं होति - उस्साहं कत्वा मम वण्णं वदमानोपि पुथुज्जनो “पाणातिपातं पहाय पाणातिपाता पटिविरतो''तिआदिना परानुद्देसिकनयेन वा यथा पनेके भोन्तो समणब्राह्मणभावं पटिजानमाना, परेहि च तथासम्भावियमाना तदनुरूपपटिपत्तिं अजाननतो, असमत्थतो च न अभिसम्भुणन्ति, न एवमयं, अयं पन समणो गोतमो सब्बथापि समणसारुप्पपटिपदं पूरेसियेवाति एवं अक्षुद्देसिकनयेन वा सब्बथापि आचारसीलमत्तमेव वदेय्युं, न तदुत्तरिन्ति ।
बीजगामभूतगामसमारम्भपदे सद्दक्कमेन अप्पधानभूतोपि बीजगामभूतगामो निद्दिसितब्बताय पधानभावं पटिलभति । अञ्जो हि सद्दक्कमो अझो अत्थक्कमोति आह "कतमो सो बीजगामभूतगामो"ति । तस्मिहि विभत्ते तब्बिसयताय समारम्भोपि विभत्तोव
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११२
दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गटीका
(१.१२-१३)
होतीति । तेनेवाह भगवा "मूलबीज"न्तिआदि । मूलमेव बीजं मूलबीजं, मूलं बीजं एतस्सातिपि मलबीजं। सेसेसपि एसेव नयो। फळबीजन्ति पब्बबीजं । पच्चयन्तरसमवाये सदिसफलुप्पत्तिया विसेसकारणभावतो विरुहणसमत्थे सारफले निरुळ्हो बीज-सद्दो तदत्थसंसिद्धिया मूलादीसुपि केसुचि पवत्ततीति मूलादितो निवत्तनत्थं एकेन बीज-सद्देन विसेसेत्वा वुत्तं "बीजबीज"न्ति । "रूपरूपं, दुक्खदुक्ख''न्ति (सं० नि० २.४.३२७) च यथा । कस्मा पनेत्थ बीजगामभूतगामं पुच्छित्वा बीजगामो एव विभत्तोति ? न खो पनेतं एवं दट्ठब्बं । ननु अवोचुम्ह "मूलमेव बीजं मूलबीजं, मूलं बीजं एतस्सातिपि मूलबीजन्ति'। तत्थ पुरिमेन बीजगामो निद्दिट्ठो, दुतियेन भूतगामो, दुविधोपेस सामञ्जनि(सेन, मूलबीजञ्च मूलबीजञ्च मूलबीजन्ति एकसेसनयेन वा पाळियं निद्दिट्ठोति वेदितब्बो । तेनेवाह "सब्बहेत"न्तिआदि।।
१२. "सन्निधिकतस्सा"ति एतेन “सन्निधिकारपरिभोग"न्ति एत्थ कार-सहस्स कम्मत्थतं दस्सेति । यथा वा “आचयंगमिनो"ति वत्तब्बे अनुनासिकलोपेन “आचयगामिनो''ति (ध० स० १०) निद्देसो कतो, एवं “सन्निधिकारं परिभोग"न्ति वत्तब्बे अनुनासिकलोपेन “सन्निधिकारपरिभोग"न्ति वुत्तं, सन्निधिं कत्वा परिभोगन्ति अत्थो ।
सम्मा किलेसे लिखतीति सल्लेखो, सत्तन्तनयेन पटिपत्ति । परियायति कप्पीयतीति परियायो, कप्पियवाचानुसारेन पटिपत्ति । किलेसेहि आमसितब्बतो आमिस, यं किञ्चि उपभोगारहं वत्थु । तेनेवाह “आमिसन्ति वुत्तावसेस"न्ति । नयदस्सनन्हेतं सन्निधिवत्थूनं । उदककद्दमेति उदके च कद्दमे च । अच्छथाति निसीदथ । गीवायामकन्ति गीवं आयमित्वा, यथा च भुत्ते अतिभुत्तताय गीवा आयमितब्बाव होति, एवन्ति अत्थो । चतुभागमत्तन्ति कुडुबमत्तं । "कप्पियकुटिय"न्तिआदि विनयवसेन वुत्तं ।
१३. एत्तकम्पीति विनिच्छयविचारणावत्थुकित्तनम्पि। पयोजनमत्तमेवाति पदत्थयोजनमत्तमेव । यस्स पन पदस्स वित्थारकथं विना न सक्का अत्थो विज्ञातं. तत्थ वित्थारकथापि पदत्थसङ्गहमेव गच्छति । कुतूहलवसेन पेक्खितब्बतो पेक्खा, नटसत्थविधिना नटानञ्च पयोगो। नटसमूहेन पन जनसमूहे करणवसेन "नटसमज्ज"न्ति वुत्तं, सारसमासे “पेक्खा मह''न्ति वुत्तं । घनताळं नाम दण्डमयताळं, सिलासलाकताळं वा । एकेति सारसमासाचरिया. उत्तरविहारवासिनो च । यथा चेत्थ, एवं इतो परेसपि "एके"ति आगतछानेसु । चतुरस्सअम्बणकताळं नाम रुक्खसारदण्डादीसु येन केनचि चतुरस्सअम्बणकं
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(१.१४-१६)
मज्झिमसीलवण्णना
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कत्वा चतूसु पस्सेसु चम्मेन ओनन्धित्वा कतवादितं । अब्भोक्किरणं रङ्गबलीकरणं, या "नन्दी"ति वच्चति | सोभनकरन्ति सोभनकरणं, "सोभनघरक"न्ति सारसमासे वृत्तं । चण्डालानमिदन्ति चण्डालं। साणे उदकेन तेमेत्वा अजमलं आकोटनकीळा साणधोवनं। इन्दजालेनाति अट्ठिधोवनमन्तं परिजप्पित्वा यथा परे अट्ठीनियेव पस्सन्ति, एवं तचादीनं अन्तरधापनमायाय | सकटब्यूहादीति आदि-सद्देन चक्कपदुमकळीरब्यूहादिं सङ्गण्हाति ।
१४. पदानीति सारीनं पतिट्टानहानानि । दसपदं नाम द्वीहि पन्तीहि वीसतिया पदेहि कीळनजूतं । पासकं वुच्चति छसु पस्सेसु एकेकं याव छक्कं दस्सेत्वा कतकीळनकं, तं वड्डेत्वा यथालद्धं एककादिवसेन सारियो अपनेन्ता उपनेन्ता च कीळन्ति । घटेन कीळा घटिकाति एके। बहूसु सलाकासु विसेसरहितं एकं सलाकं गहेत्वा तासु पक्खिपित्वा पुन तस्सेव उद्धरणं सलाकहत्थन्ति एके। पण्णेन वंसाकारेन कता नाळिका। तेनेवाह "तं धमन्ता"ति | "पूच्छन्तस्स मुखागतं अक्खरं गहेत्वा नट्ठमत्ति लाभालाभादिजाननकीळा अक्खरिका"तिपि वदन्ति । "वादितानुरूपं नच्चनं गायनं वा यथावज्ज" तिपि वदन्ति । “एवं कते जयो भविस्सति, अञथा पराजयोति जयपराजये पुरक्खत्वा पयोगकरणवसेन परिहारपथादीनम्पि जूतपमादवानभावो वेदितब्बो । पङ्गचीरादीहिपि वंसादीहि कातब्बकिच्चसिद्धिअसिद्धिजयपराजयावहो पयोगो वुत्तोति दट्ठब्बं । "यथावज्ज"न्ति च काणादीहि सदिसताकारदस्सनेहि जयपराजयवसेन जूतकीळितभावेन वुत्तं । .
वाळरूपानीति आहरिमानि वाळरूपानि । “अकप्पियमञ्चोव पल्लङ्को"ति सारसमासे । वानविचित्तन्ति भित्तिच्छदादिवसेनवानेन विचित्रं । रुक्खतूललतातूलपोटकीतूलानं वसेन तिण्णं तूलानं। उद्दलोमियं केचीति सारसमासाचरिया, उत्तरविहारवासिनो च। तथा एकन्तलोमियं । कोसेय्यकट्टिस्समयन्ति कोसेय्यकस्सटमयं । सुद्धकोसेय्यन्ति रतनपरिसिब्बनरहितं । “उपेत्वा तूलिक"न्ति एतेन रतनपरिसिब्बनरहितापि तूलिका न वट्टतीति दीपेति । "रतनपरिसिब्बितानी"ति इमिना यानि रतनपरिसिब्बितानि, तानि भूमत्थरणवसेन, यथानुरूपं मञ्चपीठादीसु च उपनेतुं वट्टतीति दीपितं होति । अजिनचम्मेहीति अजिनमिगचम्मेहि । तानि किर चम्मानि सुखुमानि, तस्मा दुपट्टतिपट्टानि कत्वा सिब्बन्ति । तेन वुत्तं “अजिनप्पवेणी"ति । वुत्तनयेनाति विनये वुत्तनयेन ।
१६. अलङ्कारञ्जनमेव न भेसज्जं मण्डनानुयोगस्स अधिप्पेतत्ता । माला-सद्दो सासने
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गटीका
(१.१७-२०)
सुद्धपुप्फेसुपि निरुळ्होति आह "बद्धमाला वा"ति । मत्तिककक्कन्ति ओसधेहि अभिसङ्घतं योगमत्तिककक्कं । चलितेति कुपिते । लोहिते सन्निसिनेति दुट्ठलोहिते खीणे ।
१७. दुग्गतितो संसारतो च निय्याति एतेनाति निय्यानं, सग्गमग्गो मोक्खमग्गो च । तं निय्यानं अरहति, निय्याने वा नियुत्ता, निय्यानं वा फलभूतं एतिस्सा अत्थीति निय्यानिका, वचीदुच्चरितसंकिलेसतो निय्यातीति वा ई-कारस्स रस्सत्तं, य-कारस्स च क-कारं कत्वा निय्यानिका, चेतनाय सद्धिं सम्फप्पलापा वेरमणि । तप्पटिपक्खतो अनिय्यानिका, तस्सा भावो अनिय्यानिकत्तं, तस्मा अनिय्यानिकत्ता। तिरच्छानभूताति तिरोकरणभूता । कम्मट्ठानभावेति अनिच्चतापटिसंयुत्तचतुसच्चकम्मट्ठानभावे | सह अत्थेनाति सात्थकं, हितपटिसंयुत्तन्ति अत्थो । विसिखाति घरसन्निवेसो, विसिखागहणेन च तन्निवासिनो गहिता “गामो आगतो''तिआदीसु विय । तेनेवाह "सूरा समत्था''ति, “सद्धा पसन्ना'"ति च। कुम्भट्ठानापदेसेन कुम्भदासियो वुत्ताति आह “कुम्भदासीकथा वा"ति । उप्पत्तिठितिसम्भारादिवसेन लोकं अक्खायतीति लोकक्खायिका।
१८. सहितन्ति पुब्बापराविरुद्धं ।
१९. दूतस्स कम्मं दूतेय्यं, तस्स कथा दूतेय्यकथा।
२०. तिविधेनाति सामन्तजप्पनइरियापथसन्निस्सितपच्चयपटिसेवनभेदतो तिप्पकारेन । विम्हापयन्तीति “अहो अच्छरियपुरिसो"ति अत्तनि परेसं विम्हयं उप्पादेन्ति । लपन्तीति अत्तानं, दायकं वा उक्खिपित्वा यथा सो किञ्चि ददाति, एवं उक्काचेत्वा कथेन्ति । निमित्तेन चरन्ति, निमित्तं वा करोन्तीति नेमित्तिका निमित्तन्ति च परेसं पच्चय दानसओप्पादकं कायवचीकम्मं वुच्चति । निप्पिंसन्तीति निप्पेसा, निप्पेसायेव निप्पेसिका, निप्पेसोति च सठपुरिसो विय लाभसक्कारत्थं अक्कोसट्ट्सनुप्पण्डनपरपिट्ठिमंसिकतादि ।
मज्झिमसीलवण्णना निद्विता ।
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(१.२१-२५)
महासीलवण्णना
महासीलवण्णना
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पन
२१. अङ्गानि आरब्भ पवत्तत्ता अङ्गसहचरितं सत्यं “ अङ्ग "न्ति वुत्तं । निमित्तन्ति एत्थापि एसेव नयो । केचि पन "अङ्गन्ति अङ्गविकार "न्ति वदन्ति, परेसं अङ्गविकारदस्सनेनापि लाभालाभादिविज्जाति । पण्डुराजाति दक्खिणामधुराधिपति । " महन्तान "न्ति एतेन अप्पकं निमित्तं, महन्तं निमित्तं उप्पातोति दस्सेति । इदं नाम परसतीति यो वसभं कुञ्जरं पासादं पब्बतं वा आरुळ्हं सुपिने अत्तानं परसति, तस्स इदं नाम फलं होतीति । सुपिनकन्ति सुपिनसत्थं । अङ्गसम्पत्तिविपत्तिदस्सनमत्तेन आदिसनं वृत्तं इमिना, 'अङ्ग "न्ति " लक्खण "न्ति इमिना महानुभावतानिप्फादकअङ्गलक्खणविसेसदस्सनेनाति अयमेतेसं विसेसोति । अहतेति नवे । इतो पट्ठायाति देवरक्खसमनुस्सादिभेदेन विविधवत्थभागे इतो वा एत्तो वा सञ्छिन्ने इदं नाम भोगादि होतीति । दब्बिहोमदीनि होमस्सुपकरणादिविसेसेहि फलविसेसदस्सनवसेन पवत्तानि । अग्गिहोमं वृत्तावसेससाधनवसेन पवत्तं होमं । अङ्गलट्ठिन्ति सरीरं । अमिनो सत्थं अब्भेय्यं, मासुरक्खेन कतो गन्थो मासुरक्खो । भूरिविज्जा सस्सबुद्धिकरणविज्जाति सारसमासे । सपक्खक... पे०... चतुप्पदानन्ति पिङ्गलमक्खिकादिसपक्खक घरगोलिकादिअपक्खकदेवमनुस्सकोञ्चादिद्विपदककण्टकजम्बुकादिचतुप्पदानं ।
२३. “ असुकदिवसे” ति “ पक्खस्स दुतिये ततिये "तिआदि तिथिवसेन वृत्तं । असुकनक्खत्तेनाति रोहिणीआदिनक्खत्तयोगवसेन ।
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२४. उक्कानं पतनन्ति उक्कोभासानं पतनं । वातसङ्घातेसु हि वेगेन अञ्ञमञ सङ्घट्टेन्तेसु दीपकोभासो विय ओभासो उप्पज्जित्वा आकासतो पतति, तत्थायं उक्कापात वोहारो । अविसुद्धता अब्भमहिकादीहि ।
२५. धारानुपवेच्छनं वस्सनं । हत्थेन अधिप्पेतविञ्ञापनं हत्थमुद्दा, तं पन अङ्गुलिसङ्कोचनेन गणनायेव । पारसिक मिलक्खकादयो विय नवन्तवसेन गणना अच्छिद्दकगणना । टुप्पादनात आदि-सन वोकलनभागहारादिके सङ्गहाति । चिन्तावसेनाति वत्युं अनुसन्धिञ्च सयमेव चिरेन चिन्तेत्वा करणवसेन चिन्ताकवि वेदितब्बो, किञ्चि सुत्वा सुतेन अस्सुतं अनुसन्धेत्वा करणवसेन सुतकवि, कञ्चि अत्थं उपधारेत्वा
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गटीका
(१.२६-२७)
तस्स सङ्खिपनवित्थारणादिवसेन अत्थकवि, यं किञ्चि परेन कतं कब्बं नाटकं वा दिस्वा तं सदिसमेव अझं अत्तनो ठानुप्पत्तिकपटिभानेन करणवसेन पटिभानकवि वेदितब्बो ।
२६. परिग्गहभावेन दारिकाय गण्हापनं आवाहनं। तथा दापनं विवाहनं। देसन्तरे दिगुणतिगुणादिगहणवसेन भण्डप्पयोजनं पयोगो। तत्थ वा अञत्थ वा यथाकालपरिच्छेदं वड्डिगहणवसेन पयोजनं उद्धारो। “भण्डमूलरहितानं वाणिज्जं कत्वा एत्तकेनुदयेन सह मूलं देथाति धनदानं पयोगो, तावकालिकदानं उद्धारो"ति च वदन्ति । तीहि कारणेहीति एत्थ वातेन, पाणकेहि वा गब्भे विनस्सन्ते न पुरिमकम्मुना ओकासो कतो, तप्पच्चया कम्म विपच्चति । सयमेव पन कम्मुना ओकासे कते न एकन्तेन वातो पाणका वा अपेखितब्बाति कम्मस्स विसुं कारणभावो वुत्तोति दट्टब्बं । निब्बापनीयन्ति उपसमकरं । पटिकम्मन्ति यथा ते न खादन्ति, तथा पटिकरणं । परिवत्तनत्थन्ति आवुधादिना सह उक्खित्तहत्थस्स उक्खिपनवसेन परिवत्तनत्थं | इच्छितत्थस्स देवताय कण्णे कथनवसेन जप्पनं कण्णजप्पनन्ति। आदिच्चपारिचरियाति करवीरमालाहि पूजं कत्वा सकलदिवसं आदिच्चाभिमुखावट्ठानेन आदिच्चस्स परिचरणं । “सिरव्हायन''न्ति केचि पठन्ति, तस्सत्थोमन्तं परिजप्पित्वा सिरसा इच्छितस्स अत्थस्स अव्हायनन्ति ।
२७. समिद्धिकालेति आयाचितस्स अस्थस्स सिद्धिकाले। सन्तिपटिस्सवकम्मन्ति देवतायाचनाय या सन्ति पटिकत्तब्बा, तस्सा पटिञापटिस्सवकम्मकरणं, सन्तिया आयाचनप्पयोगोति अत्थो । तस्मिन्ति पटिस्सवफलभूते यथाभिपत्थितकम्मस्मिं, यं “सचे मे इदं नाम समिज्झिस्सती''ति वुत्तं । तस्साति सन्तिपटिस्सवस्स, यो “पणिधी"ति च वुत्तो । यथापटिस्सवहि उपहारे कते पणिधि आयाचना कता निय्यातिता होतीति । अच्छन्दिकभावमत्तन्ति इत्थिया अकामकभावमत्तं । लिङ्गन्ति पुरिसलिङ्गं । बलिकम्मकरणं उपद्दवपटिबाहनत्थञ्चेव वड्विआवहनत्थञ्च । दोसानन्ति पित्तादिदोसानं । एत्थ च वमनन्ति पच्छट्टनं अधिप्पेतं । उद्धंविरेचनन्ति वमनं "उद्धं दोसानं नीहरण"न्ति वुत्तत्ता । तथा विरेचनन्ति विरेचनमेव। अधोविरेचनन्ति पन सुद्धिवत्थिकसावत्थिआदि वत्थिकिरियापि अधिप्पेता “अधो दोसानं नीहरण"न्ति वुत्तत्ता। सीसविरेचनं सेम्हनीहरणादि । पटलानीति अक्खिपटलानि । सलाकवेज्जकम्मन्ति अक्खिवेज्जकम्मं, इदं वुत्तावसेससालाकियसङ्गहणत्थं वुत्तन्ति दट्टब्बन्ति । तप्पनादयोपि हि सालाकियानेवाति । मूलानि पधानानि रोगूपसमे समत्थानि भेसज्जानि मूलभेसज्जानि, मूलानं वा ब्याधीनं भेसज्जानि मूलभेसज्जानि । मूलानुबन्धवसेन हि दुविधो ब्याधि । मूलरोगे च तिकिच्छिते येभुय्येन इतरं वूपसमतीति ।
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(१.२८-२८)
पुब्बन्तकप्पिकसस्सतवादवण्णना
“कायतिकिच्छनं दस्सेती "ति इदं कोमारभच्चसल्लकत्तसालाकियादिकरणविसेसभूततन्तीनं तत्थ तत्थ वृत्तत्ता पारिसेसवसेन वुत्तं, तस्मा तदवसेसाय तन्तियापि इध सङ्गहो दट्ठब्बो | सब्बानि चेतानि आजीवहेतुकानियेव इधाधिप्पेतानि "मिच्छाजीवेन जीविकं कप्पेन्तीति वृत्तत्ता । यं न तत्थ तत्थ पाळियं " इति वा "ति वृत्तं, तत्थ इतीति पकारत्थे निपातो, बा- इति विकप्पनत्थे । इदं वृत्तं होति इमिना पकारेन, इतो अञ्ञे न वाति । तेन यानि इतो बाहिरकपब्बजिता सिप्पायतनविज्जाट्ठानादीनि जीविकोपायभूतानि आजीवपकता उपजीवन्ति, ते परिग्गहो कतोति वेदितब्बो ।
महासीलवण्णना निट्ठिता ।
पुब्बन्तकप्पिकसस्सतवादवण्णना
न
२८. भिक्खुसङ्गेन बुत्तवण्णो नाम “यावञ्चिदं तेन भगवता "तिआदिना वृत्तवण्णो । एत्थायं सम्बन्धो न भिक्खवे एत्तका एव बुद्धगुणा, ये तुम्हाकं पाकटा, अपाकटा पन " अस्थि भिक्खवे अञ्ञे धम्मा" ति वित्थारो । तत्थ " इमे दिट्ठट्ठाना एवं गहिता "तिआदिना सस्सतादिदिट्ठिट्ठानानं यथागहिताकारसुञ्ञतभावप्पकासनतो, "तञ्च जाननं परामसती'ति सीलादीनञ्च अपरामासनिय्यानिकभावदीपनेन निच्चसारादिविरहप्पकासनतो, यासु वेदनासु अवीतरागताय बाहिरकानं एतानि दिट्टिविप्फन्दितानि सम्भवन्ति, तेसं पच्चयभूतानञ्च सम्मोहादीनं वेदककारकसभावाभावदस्सनमुखेन सब्बधम्मानं अत्तत्तनियताविरहदीपनतो, अनुपादापरिनिब्बानदीपनतो च अयं देसना सुञ्ञताविभावनप्पधानाति आह “सुञ्ञतापकासनं आरभी 'ति । परियत्तीति विनयादिभेदभिन्ना तन्ति । देसनाति तस्सा तन्तिया मनसाववत्थापिताय विभावना, यथाधम्मं धम्माभिलापभूता वा पञ्ञापना, अनुलोमादिवसेन वा कथनन्ति परियत्तिदेसनानं विसेसो पुब्बेयेव ववत्थापितोति आह “देसनायं परियत्तियन्ति । एवं आदीसूति एत्थ आदि- सद्देन सच्चसभावसमाधिपञ्ञापकतिपुञ्ञआपत्तिञेय्यादयो सङ्गय्हन्ति । तथा हि अयं धम्म- सद्दो "“चतुन्नं भिक्खवे धम्मानं अननुबोधा 'तिआदीसु (दी० नि० २.१८६, अ० नि० १.४.१) सच्चे वत्तति, “कुसला धम्मा अकुसला धम्मा' 'तिआदीसु (ध० स० १) सभावे, " एवंधम्मा ते भगवन्तो अहेसु "न्तिआदीसु (सं० नि० ३.५.३७८) समाधिम्हि, “सच्चं
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गटीका
(१.२८-२८)
धम्मो धिति चागो, स वे पेच्च न सोचती"तिआदीसु (सु० नि० १९०) पाय, "जातिधम्मानं भिक्खवे सत्तानं एवं इच्छा उप्पज्जती''तिआदीसू (म० नि० ३.३७३; पटि० म० १.३३) पकतियं, “धम्मो सुचिण्णो सुखमावहाती"तिआदीसु (सु० नि० १८४; थेरगा० ३०३; जा० १.१०.१०२) पुछे, “चत्तारो पाराजिका धम्मा"तिआदीसु (पारा० २३३) आपत्तियं, “सब्बे धम्मा सब्बाकारेन बुद्धस्स भगवतो आणमुखे आपाथं आगच्छन्ती'तिआदीसु (महानि० १५६; चूळनि० ८५; पटि० म० ३.६) जेय्ये वत्तति (म० नि० अट्ठ० १.सुत्तनिक्खेपवण्णना; अभि० अट्ठ० १.तिकमातिकापदवण्णना; बु० वं० अट्ठ० रतनचङ्कमनकण्डवण्णना)। धम्मा होन्तीति सुञा धम्ममत्ता होन्तीति अत्थो ।
"दुइसा"ति एतेनेव तेसं धम्मानं दुक्खोगाहता पकासिता होति । सचे पन कोचि अत्तनो पमाणं अजानन्तो आणेन ते धम्मे ओगाहितुं उस्साहं करेय्य, तस्स तं जाणं अप्पतिट्टमेव मकसतण्डसूचि विय महासमद्देति आह "अलब्भनेय्यपतिट्ठा"ति । अलब्भनेय्या पतिट्ठा एत्थाति अलब्भनेय्यपतिठ्ठाति पदविग्गहो वेदितब्बो। अलब्भनेय्यपतिद्वानं ओगाहितुं असक्कुणेय्यताय “एत्तका एते ईदिसा चाति पस्सितुं न सक्काति वुत्तं “गम्भीरत्ता एव दुद्दसा"ति । ये पन दट्ठमेव न सक्का, तेसं ओगाहित्वा अनुबुज्झने कथा एव नत्थीति आह "दुद्दसत्ता एव दुरनुबोधा"ति। सब्बपरिळाहपटिप्पस्सद्धिमत्थके समुप्पन्नत्ता, निब्बुतसब्बपरिळाहसमापत्तिसमोकिण्णत्ता च निब्बुतसब्बपरिळाहा। सन्तारम्मणानि मग्गफलनिब्बानानि अनुपसन्तसभावानं किलेसानं सङ्खारानञ्च अभावतो। अथ वा समूहतविक्खेपताय निच्चसमाहितस्स मनसिकारस्स वसेन तदारम्मणधम्मानं सन्तभावो वेदितब्बो कसिणुग्घाटिमाकासतब्बिसयविज्ञाणानं अनन्तभावो विय। अविरज्झित्वा निमित्तपटिवेधो विय इस्सासानं अविरज्झित्वा धम्मानं यथाभूतसभावबोधो सादुरसो महारसो च होतीति आह अतित्तिकरणद्वेनाति । पटिवेधप्पत्तानं, तेसु च बुद्धानंयेव सब्बाकारेन विसयभावूपगमनतो न तक्कबुद्धिया गोचराति आह "उत्तमञाणविसयत्ता"तिआदि । "निपुणा"ति ज्ञेय्येसु तिक्खविसदवुत्तिया छेका । यस्मा पन सो छेकभावो आरम्मणे अप्पटिहतवुत्तिताय सुखुमञय्यगहणसमत्थताय सुपाकटो होति, तेन वुत्तं "सण्हसुखुमसभावत्ता"ति ।
अपरो नयो- विनयपण्णत्तिआदिगम्भीरनेय्यविभावनतो गम्भीरा। कदाचि असङ्खयेय्यमहाकप्पे अतिक्कमित्वापि दुल्लभदस्सनताय दुइसा। दस्सनञ्चेत्थ पञाचक्खुवसेनेव वेदितब्बं । धम्मन्वयसङ्घातस्स अनुबोधस्स कस्सचिदेव सम्भवतो
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(१.२८-२८)
पुब्बन्तकप्पिकसस्सतवादवण्णना
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दुरनुबोधा। सन्तसभावतो, वेनेय्यानञ्च गुणसम्पदानं परियोसानत्ता सन्ता। अत्तनो च पच्चयेहि पधानभावं नीतताय पणीता। समधिगतसच्चलक्खणताय अतक्केहि, अतक्केन वा आणेन अवचरितब्बताय अतक्कावचरा। निपुणं, निपुणे वा अत्थे सच्चप्पच्चयाकारादिवसेन विभावनतो निपुणा। लोके अग्गपण्डितेन सम्मासम्बुद्धेन वेदीयन्ति पकासीयन्तीति पण्डितवेदनीया। अनावरणञाणपटिलाभतो हि भगवा “सब्बविदू हं अस्मि, (ध० प० ३५३; महाव० ११; कथाव० ४०५) दसबलसमन्नागतो भिक्खवे तथागतो''तिआदिना (सं० नि० १.२.२१) अत्तनो सब्बञ्जतादिगुणे पकासेति । तेनेवाह "सयं अभिज्ञा सच्छिकत्वा पवेदेती"ति ।
तत्थ किञ्चापि सब्ब तञाणं फलनिब्बानानि विय सच्छिकातब्बसभावं न होति, आसवक्खयाणे पन अधिगते अधिगतमेव होतीति तस्स पच्चक्खकरणं सच्छिकिरियाति आह "अभिविसिटेन आणेन पच्चक्खं कत्वा"ति | अभिविसिटेन जाणेनाति च हेतुअत्थे करणवचनं, अभिविसिठ्ठाणाधिगमहेतूति अत्थो । अभिविसिट्ठाणन्ति वा पच्चवेक्खणाणे अधिप्पेते करणवचनम्पि युज्जतियेव। पवेदनञ्चेत्थ अञाविसयानं सच्चादीनं देसनाकिच्चसाधनतो, “एकोम्हि सम्मासम्बुद्धो"तिआदिना (महाव० ११; कथाव० ४०५) पटिजाननतो च वेदितब्बं । वदमानाति एत्थ सत्तिअत्थो मान-सद्दो, वत्तुं उस्साहं करोन्तोति अत्थो । एवंभूता च वत्तुकामा नाम होन्तीति आह “वणं वत्तुकामा"ति | सावसेसं वदन्तोपि विपरीतं वदन्तो विय “सम्मा वदती''ति न वत्तब्बोति आह "अहापेत्वा"ति, तेन अनवसेसत्थो इध सम्मा-सद्दोति दस्सेति । "वत्तुं सक्कुणेय्यु"न्ति इमिना “वदेय्यु"न्ति सकत्थदीपनभावमाह । एत्थ च किञ्चापि भगवतो दसबलादित्राणानिपि अनञसाधारणानि, सप्पदेसविसयत्ता पन तेसं आणानं न तेहि बुद्धगुणा अहापेत्वा गहिता नाम होन्ति, निप्पदेसविसयत्ता पन सब्ब ताणस्स तस्मिं गहिते सब्बेपि बुद्धगुणा गहिता एव नाम होन्तीति इममत्थं दस्सेति “येहि...पे०... वदेप्यु"न्ति । पुथूनि आरम्मणानि एतस्साति पुथुआरम्मणं, सब्बारम्मणत्ताति अधिप्पायो । अथ वा पुथुआरम्मणारम्मणतोति एतस्मिं अत्थे "पुथुआरम्मणतो''ति वुत्तं, एकस्स आरम्मण-सद्दस्स लोपं कत्वा “ओट्ठमुखो कामावचरन्ति आदीसु विय, तेनस्स पुथुञाणकिच्चसाधकतं दस्सेति । तथा हेतं तीसु कालेसु अप्पटिहतञाणं, चतुयोनिपरिच्छेदकजाणं, पञ्चगतिपरिच्छेदकाणं, छसु असाधारणञाणेसु सेसासाधारणञाणानि, सत्तअरियपुग्गलविभावकञाणं, अट्ठसुपि परिसासु अकम्पनजाणं, नवसत्तावासपरिजाननजाणं, दसबलञाणन्ति एवमादीनं अनेकसतसहस्सभेदानं जाणानं यथासम्भवं किच्चं साधेतीति । "पुनप्पुनं उप्पत्तिवसेना"ति
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गटीका
एतेन सब्बञ्जतञ्जणस्स कमवृत्तितं दस्सेति । कमेनापि हि तं विसयेसु पवत्तति, न सकिंयेव यथा बाहिरका वदन्ति “सकिंयेव सब्बञ्जू सब्बं जानाति, न कमेनाति ।
यदि एवं अचिन्तेय्यापरिमेय्यभेदस्स जेय्यस्स परिच्छेदवता एकेन आणेन निरवसेसतो कथं पटिवेधोति को वा एवमाह “परिच्छेदवन्तं बुद्धञाण ''न्ति । अनन्तञ्हि तं जाणं जेय्यं विय । वृत्तहेतं " यावतकं जेय्यं तावतकं आणं । यावतकं जाणं, तावतकं जेय्यन्ति (महानि० १५६; चूळनि० ८५ पटि० म० ३.५) । एवम्पि जातिभूमिसभावादिवसेन दिसादेसकालादिवसेन च अनेकभेदभिन्ने भेय्ये कमेन गय्हमाने अनवसेसपटिवेधो न सम्भवति येवाति, नयिदमेवं । कस्मा ? यं किञ्चि भगवता जतुं इच्छितं सकलं एकदेसो वा । तत्थ अप्पटिहतचारताय पच्चक्खतो जाणं पवत्तति, विक्खेपाभावतो च भगवा सब्बकालं समाहितोव जतुं, इच्छितस्स पच्चक्खभावो न सक्का निवारेतुं “आकङ्क्षापटिबद्धं बुद्धस्स भगवतो जाण' न्तिआदि ( महानि० १५६; चूळनि० ८५ पटि० म० ३.५) वचनतो, न चेत्थ दूरतो चित्तपटं पस्सन्तानं विय, "सब्बे धम्मा अनत्ता "ति विपस्सन्तानं विय च अनेकधम्मावबोधकाले अनिरूपितरूपेन भगवतो जाणं पवत्ततीति गहेतब्बं अचिन्तेय्यानुभावताय बुद्धञाणस्स । तेनेवाह “बुद्धविसयो अचिन्तेय्यो ति ( अ० नि० १.४.७७) । इदं पनेत्थ सन्निट्ठानंसब्बाकारेन सब्बधम्मावबोधनसमत्थस्स आकङ्क्षापटिबद्धवुत्तिनो अनावरणञाणस्स पटिलाभेन भगवा सन्तानेन सब्बधम्मपटिवेधसमत्थो अहोसि सब्बनेय्यावरणस्स पहानतो, तस्मा सब्बञ्जू, न सकिंयेव सब्बधम्मावबोधतो, यथा सन्तानेन सब्बइन्धनस्स दहनसमत्थताय पावको "सब्बभूति वुच्चतीति ।
( १.२८-२८)
ववत्थापनवचनन्ति सन्निट्ठापनवचनं, अवधारणवचनन्ति अत्थो । अज्ञे वाति एत्थ अवधारणेन निवत्तितं दस्सेति "न पाणातिपाता वेरमणिआदयो"ति, अयञ्च एव - सद्दो अनियतदेसताय च-सद्दो विय यत्थ वुत्तो, ततो अञ्ञत्थापि वचनिच्छावसेन उपि आह " गम्भीरा वा "तिआदि । सब्बपदेहीति याव " पण्डितवेदनीया "ति इदं पदं, ताव सब्बपदेहि । सावकार मित्राणन्ति सावकानं दानादिपरिपूरिया निप्फन्नं विज्ञत्तयछळभिञ्ञाचतुप्पटिसम्भिदादिभेदं आणं । ततोति सावकपारमिञाणतो । तत्थाति सावकपारमित्राणे । ततोपीति अनन्तरनिद्दिट्ठतो पच्चेकबुद्धआणतोपि को पन वादो सावकपारमिञाणतोति अधिप्पायो । एत्थायं अत्थयोजना- किञ्चापि सावकपारमिञाणं हेट्ठिमसेक्खञाणं पुथुज्जनञाणञ्च उपादाय गम्भीरं, पच्चेकबुद्धञाणं उपादाय न तथा
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(१.२८-२८)
पुब्बन्तकप्पिकसस्सतवादवण्णना
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गम्भीरन्ति “गम्भीरमेवाति न सक्का वत्तुं । तथा पच्चेकबुद्धञाणम्पि सब्बञ्जतञाणं उपादायाति तत्थ ववत्थानं न लब्भति, सब्ब ताणधम्मा पन सावकपारमित्राणादीनं विय किञ्चि उपादाय अगम्भीरभावाभावतो गम्भीरा वाति । यथा चेत्थ ववत्थानं दस्सितं, एवं सावकपारमित्राणं दुद्दसं, पच्चेकबुद्धआणं पन ततो दुद्दसतरन्ति तत्थ ववत्थानं नत्थीतिआदिना ववत्थानसब्भावो नेतब्बो । तेनेवाह "तथा दुद्दसाव...पे०... वेदितब्ब"न्ति ।
कस्मा पनेतं एवं आरद्धं ति एत्थायं अधिप्पायो - भवतु ताव निरवसेसबुद्धगुणविभावनूपायभावतो सब्ब तञाणं एकम्पि पुथुनिस्सयारम्मणजाणकिच्चसिद्धिया “अस्थि भिक्खवे अ व धम्मा''तिआदिना बहुवचनेन उद्दिटुं, तस्स पन विस्सज्जनं सच्चपच्चयाकारादिविसेसवसेन अनञसाधारणेन विभजननयेन अनारभित्वा सनिस्सयानं दिट्ठीनं विभजनवसेन कस्मा आरद्धन्ति । तत्थ यथा सच्चपच्चयाकारादीनं विभजनं अनञसाधारणं, सब्ब तञाणस्सेव विसयो, एवं निरवसेसेन दिट्टिगतविभजनम्पीति दस्सेतुं “बुद्धानही"तिआदि आरद्धं । तत्थ ठानानीति कारणानि । गज्जितं महन्तं होतीति देसेतब्बस्स अत्थस्स अनेकविधताय, दुविज्ञेय्यताय च नानानयेहि पवत्तमानं देसनागज्जितं महन्तं विपुलं, बहुभेदञ्च होति । आणं अनुपविसतीति ततो एव च देसनाजाणं देसेतब्बधम्मे विभागसो कुरुमानं अनुपविसति, ते अनुपविस्स ठितं विय होतीति अत्थो ।
बुद्धञाणस्स महन्तभावो पञआयतीति एवंविधस्स नाम धम्मस्स देसकं पटिवेधकञ्चाति बुद्धानं देसनाञाणस्स पटिवेधाणस्स च उळारभावो पाकटो होति । एत्थ च किञ्चापि "सब्बं वचीकम्मं बुद्धस्स भगवतो आणपुब्बङ्गमं आणानुपरिवत्ती"ति (महानि० ६९; चूळनि० ८५; पटि० म० ३.५; नेत्ति० १४) वचनतो सब्बापि भगवतो देसना जाणरहिता नत्थि, सीहसमानवृत्तिताय च सब्बत्थ समानुस्साहप्पवत्ति देसेतब्बधम्मवसेन पन देसना विसेसतो आणेन अनुपविठ्ठा गम्भीरतरा च होतीति दट्ठब्बं । कथं पन विनयपण्णत्तिं पत्वा देसना तिलक्खणाहता सुञतापटिसंयुत्ता होतीति ? तत्थापि च सत्रिमित्रपरिसाय अज्यासयानरूपं पवत्तमाना देसना सकारानं अनिच्चतादिविभावनी. सब्बधम्मानं अत्तत्तनियताभावप्पकासनी च होति । तेनेवाह "अनेकपरियायेन धम्मिं कथं कत्वा"तिआदि।
भूमन्तरन्ति
धम्मानं
अवत्थाविसेसञ्च
ठानविसेसञ्च।
तत्थ
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गटीका
(१.२८-२८)
अवत्थाविसेसोसतिआदिधम्मानं सतिपट्ठानिन्द्रियबलबोज्झङ्गमग्गङ्गादिभेदो। ठानविसेसो कामावचरादिभेदो। पच्चयाकारपदस्स अत्थो हेट्ठा वुत्तोयेव । समयन्तरन्ति दिह्रिविसेसा, नानाविहिता दिट्ठियोति अत्थो, अञसमयं वा। एवं ओतिण्णे वत्थुस्मिन्ति एवं लहुकगरुकादिवसेन तदनुरूपे ओतिण्णे वत्थुस्मिं सिक्खापदपञापन।
यदिपि कायानुपस्सनादिवसेन सतिपट्टानादयो सुत्तन्तपिटकेपि (दी० नि० २.३७४; म० नि० १.१०७) विभत्ता, सुत्तन्तभाजनीयादिवसेन पन अभिधम्मेयेव ते सविसेसं विभत्ताति आह "इमे चत्तारो सतिपट्ठाना...पे०... अभिधम्मपिटकं विभजित्वा"ति । तत्थ "सत्त फस्सा"ति सत्तविज्ञाणधातुसम्पयोगवसेन वुत्तं । तथा “सत्त वेदना'तिआदीसुपि । लोकुत्तरा धम्मा नामाति एत्थ इति-सद्दो आदिअत्थो, पकारत्थो वा, तेन वुत्तावसेसं अभिधम्मे आगतं धम्मानं विभजितब्बाकारं सङ्गण्हाति । चतुवीसति समन्तपट्टानानि एत्थाति चतुवीसतिसमन्तपट्टानं, अभिधम्मपिटकं । एत्थ पच्चयनयं अग्गहेत्वा धम्मवसेनेव समन्तपट्ठानस्स चतुवीसतिविधता वुत्ता । यथाह -
“तिकञ्च पठ्ठानवरं दुकुत्तमं,
दुकतिकञ्चेव तिकदुकञ्च । तिकतिकञ्चेव दुकदुकञ्च,
छ अनुलोमम्हि नया सुगम्भीरा ।। (पट्ठा० १.पच्चयनिद्देस ४१, ४४, ४८, ५२)
तथा
तिकञ्च...पे०... छ पच्चनीयम्हि नया सुगम्भीरा । तिकञ्च...पे०... छ अनुलोमपच्चनीयम्हि नया सुगम्भीरा । तिकञ्च...पे०... पच्चनीयानुलोमम्हि नया सुगम्भीरा''ति ।। (पट्ठा० १.पच्चयनिद्देस ४४, ५२)
एवं धम्मवसेन चतुवीसतिभेदेसु तिकपट्टानादीसु एकेकं पच्चयनयेन अनुलोमादिवसेन चतुब्बिधं होतीति छन्नति समन्तपट्ठानानि । तत्थ पन धम्मानुलोमे तिकपट्ठाने कुसलत्तिके पटिच्चवारे पच्चयानुलोमे हेतुमूलके हेतुपच्चयवसेन एकूनपास पुच्छानया सत्त
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(१.२८-२८)
पुब्बन्तकप्पिकसस्सतवादवण्णना
विस्सज्जननयाति आदिना दस्सियमाना अनन्तभेदा नयाति आह " अनन्तनय "न्ति । होति
चेत्थ -
“पट्ठानं नाम पच्चेकं धम्मानं पच्चयमूलविसिट्ठा चतुनयतो सत्तधा गती 'ति ।
नवहाकारेहीति उप्पादादीहि नवहि पच्चयाकारेहि । तत्थ उप्पज्जति एतस्मा फलन्ति उप्पादो, उप्पत्तिया कारणभावो । सति च अविज्जाय सङ्घारा उप्पज्जन्ति, न असति, तस्मा अविज्जा सङ्घारानं उप्पादो हुत्वा पच्चयो होति । तथा अविज्जाय सति सङ्घारा पवत्तन्ति धरन्ति, निविसन्ति च ते अविज्जाय सति फलं भवादीसु खिपन्ति, आयूहन्ति फलुप्पत्तिया घटन्ति, संयुज्जन्ति अत्तनो फलेन यस्मिं सन्ताने सयञ्च उप्पन्ना, तं पलिबुन्धन्ति, पच्चयन्तरसमवाये उदयन्ति उप्पज्जन्ति, हिनोति च सङ्घारानं कारणभावं गच्छति, पटिच्च अविज्जं सङ्घारा अयन्ति पवत्तन्तीति एवं अविज्जाय सङ्घारानं कारणभावूपगमनविसेसा उप्पादादयो वेदितब्बा । तथा सङ्घारादीनं विञ्ञाणादीसु ।
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अनुलोमादिम्हि तिकदुकादीसु या
उप्पादट्ठितीतिआदीसु च तिट्ठति एतेनाति ठिति, कारणं । उप्पादो एव ठिति उप्पादट्ठति । एस नयो सेसेसुपि । यस्मा अयोनिसोमनसिकारी, "आसवसमुदया अविज्जासमुदयो”ति (म० नि० १.१०३) वचनतो आसवा च अविज्जाय पच्चयो, तस्मा वुत्तं " उभोपेते धम्मा पच्चयसमुप्पन्ना "ति । पच्चयपरिग्गहे पञ्ञति सङ्घारानं अविज्जाय च उप्पादादिके पच्चयाकारे परिच्छिन्दित्वा गहणवसेन पवत्ता पञ्ञ । धम्मट्ठितित्राणन्ति धम्मानं पच्चयुप्पन्नानं पच्चयभावतो धम्मट्ठितिसङ्घाते पटिच्चसमुप्पादे ञाणं । पच्चयधम्मा हि पटिच्चसमुप्पादे “ द्वादस पटिच्चसमुप्पादा" ति वचनतो द्वादस पच्चया । अयञ्च नयो न पच्चुप्पन्ने एव, अथ खो अतीतानागतकालेपि न च अविज्जाय एव सङ्घारेसु, अथ खो सङ्घारादीनम्पि विञ्ञाणादीसु लब्भतीति परिपुण्णं कत्वा पच्चयाकारस् विभत्तभावं दस्सेतुं " अतीतम्पि अद्धान "न्तिआदि पाळिं आरभि । पट्टाने ( पट्टा० १.पच्चयनिद्देस १) दस्सिता हेतादिपच्चया एवेत्थ उप्पादादिपच्चयाकारेहि गहिताति यथासम्भवं नीहरित्वा योजेतब्बा, अतिवित्थारभयेन पन न योजयिम्ह ।
तस्स तस्स धम्मस्साति तस्स तस्स सङ्खारादिपच्चयुप्पन्नधम्मस्स । तथा तथा पच्चयभावेनाति उप्पादादिहेतादिपच्चयभावेन । अतीतपच्चुप्पन्नानागतवसेन तयो अद्धा काला
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गटीका
(१.२९-२९)
एतस्साति तियद्धं । हेतुफलफलहेतुहेतुफलवसेन तयो सन्धी एतस्साति तिसन्धिं। सङ्क्षिप्पन्ति एत्थ अविज्जादयो विआणादयो चाति सङ्केपो, कम्मं विपाको च । सङ्खिप्पन्ति एत्थाति वा सङ्केपो, अविज्जादयो विज्ञआणादयो च। कोट्ठासपरियायो वा सङ्केप-सद्दो । अतीते कम्मस पादिवसेन चत्तारो सोपा एतस्साति चतुसोपं। सरूपतो अवुत्तापि तस्मिं तस्मिं सोपे आकिरीयन्ति अविज्जासङ्घारादिग्गहणेहि पकासीयन्तीति आकारा, अतीते हेतुआदीनं वा पकारा आकारा, ते सङ्केपे पञ्च पञ्च कत्वा वीसतिआकारा एतस्साति वीसताकारं ।
खत्तियादिभेदेन अनेकभेदभिन्नापि सस्सतवादिनो जातिसतसहस्सानुस्सरणादिनो अभिनिवेसहेतुनो वसेन चत्तारोव होन्ति, न ततो उद्धं अधोति सस्सतवादादीनं परिमाणपरिच्छेदस्स अनझविसयतं दस्सेतुं "चत्तारो जना"तिआदिमाह। तत्थ चत्तारो जनाति चत्तारो जनसमूहा । इदं निस्सायाति इदं इदप्पच्चयताय सम्मा अग्गहणं, तत्थापि च हेतुफलभावेन सम्बन्धानं सन्ततिघनस्स अभेदितत्ता परमत्थतो विज्जमानम्पि भेदनिबन्धनं नानत्तनयं अनुपधारेत्वा गहितं एकत्तग्गहणं निस्साय । इदं गण्हन्तीति इदं सस्सतग्गहणं अभिनिविस्स वोहरन्ति, इमिना नयेन एकच्चसस्सतवादादयोपेत्थ यथासम्भवं योजेत्वा वत्तब्बा । भिन्दित्वाति “आतप्पमन्वाया''तिआदिना विभजित्वा "तयिदं भिक्खवे तथागतो पजानाती''तिआदिना विमहित्वा निजटं निगुम्बं कत्वा दिट्ठिजटाविजटनेन दिहिगुम्बविवरणेन च ।
"तस्मा"तिआदिना बुद्धगुणे आरब्भ देसनाय समुट्ठितत्ता सब्ब ताणं उद्दिसित्वा देसनाकुसलो भगवा समयन्तरविग्गाहणवसेन सब्ब तञाणमेव विस्सज्जेतीति दस्सेति । "सन्ती"ति इमिना तेसं दिट्ठिगतिकानं विज्जमानताय अविच्छिन्नतं, ततो च नेसं मिच्छागाहतो सिथिलकरणविवेचनेहि अत्तनो देसनाय किच्चकारितं, अवितथतञ्च दीपेति धम्मराजा।
२९. अत्थीति “संविज्जन्ती"ति इमिना समानत्थो पुथुवचनविसयो एको निपातो “अत्थि इमस्मिं काये केसा'तिआदीसु (दी० नि० २.३७७; म० नि० १.११०; म० नि० ३.१५४; सं० नि० २.४.१२७; खु० पा० ३.१) विय । सस्सतादिवसेन पुब्बन्तं कप्पेन्तीति पुब्बन्तकप्पिका। यस्मा पन ते तं पुब्बन्तं पुरिमसिद्धेहि तण्हादिट्ठिकप्पेहि कप्पेत्वा, आसेवनबलवताय विचित्तवुत्तिताय च विकप्पेत्वा अपरभागसिद्धेहि अभिनिवेसभूतेहि तण्हादिट्ठिग्गाहेहि गण्हन्ति अभिनिविसन्ति परामसन्ति, तस्मा वुत्तं
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पुब्बन्तकप्पिकसस्सतवादवण्णना
"पुब्बन्तं कप्पेत्वा विकप्पेत्वा गण्हन्तीति । तण्हुपादानवसेन वा कप्पनग्गहणानि वेदितब्बानि । तण्हापच्चया हि उपादानं । कोट्ठासेसूति एत्थ कोट्ठासादीसूति अत्थो वेदितब्बो । पदपूरणसमीपउम्मग्गादीसुपि हि अन्त-सद्दी दिस्सति । तथा हि “इड्स त्वं सुत्तन्ते वा गाथायो वा अभिधम्मं वा परियापुणस्सु ( पाचि० ४४२), सुत्तन्ते ओकासं कारापेत्वा'ति (पाचि० १२२१) च आदीसु पदपूरणे अन्त-सद्दो वत्तति, गामन्तं ओसरेय्य, (पारा० ४०९ चूळव० ३४३) गामन्तसेनासन' 'न्तिआदीसु समीपे, "कामसुखल्लिकानुयोगो एको अन्तो, अत्थीति खो कच्चान अयमेको अन्तोतिआदीसु (सं० नि० १.२.१५, २.३.९० ) उम्मग्गेति ।
( १.२९-२९)
कप्प-सद्दो
महाकप्पसमन्तभावकिलेसकामवितक्ककालपञ्ञत्तिसदिसभावादीसु वत्ततीति आह “सम्बहुलेसु अत्थेसु वत्ततीति । तथा हेस " चत्तारिमानि भिक्खवे कप्पस्स असङ्ख्येय्यानी' 'तिआदीसु (अ० नि० १.४.१५६) महाकप्पे वत्तति, “केवलकप्पं वेळुवनं ओभासेत्वा'' तिआदीसु (सं० नि० १.९४) समन्तभावे, “सङ्कप्पो कामो, रागो कामो, सङ्कप्रागो कामो 'तिआदीसु (महानि० १; चूळनि० ८) किलेसकामे, “तक्को वितक्को सङ्कप्पो' 'तिआदीसु (ध० स० ७) वितक्के, “येन सुदं निच्चकप्पं विहरामी "तिआदीसु (म० नि० १.३८७) काले, “इच्चायस्मा कप्पो तिआदीसु (सु० नि० १०९०; चूळनि० ११३) पञ्ञत्तियं, “सत्थुकप्पेन वत किर भो सावकेन सद्धिं मन्तयमाना न जानिम्हा ''तिआदीसु (म० नि० १.२६०) सदिसभावे वत्ततीति । वुत्तम्पि चेतन्ति महानिद्देसं (महानि० २८) सन्धायाह । तण्हादिट्ठिवसेनाति दिट्टिया उपनिस्सयभूताय सहजाताय अभिनन्दनभूताय च तण्हाय, सस्सतादिआकारेन अभिनिविसन्तस्स मिच्छागाहस्स च वसेन । पुब्बेनिवुत्थधम्मविसयाय कप्पनाय अधिप्पेतत्ता अतीतकालवाचको इध पुब्ब-सद्दो, रूपादिखन्धविनिमुत्तस्स कप्पनावत्थुनो अभावा अन्त- सद्दो च भागवाचकोति आह “अतीतं खन्धकोट्ठास "न्ति । " कप्पेत्वा" ति च तस्मिं पुब्बन्ते तण्हायनाभिनिवेसानं समत्थनं परिनिट्ठापनमाह । ठिताति तस्सा लद्धिया अविजहनं । आरब्भाति आलम्बित्वा । विसयो हि तस्सा दिट्ठिया पुब्बन्तो । विसयभावतो एव हि सो तस्सा आगमनट्ठानं, आरम्मणपच्चयो चाति वृत्तं " आगम्म पटिच्चा "ति ।
अधिवचनपदानीति पञ्ञत्तिपदानि । दासादीसु सिरिवड्डकादि - सद्दा विय वचनमत्तमेव अधिकारं कत्वा पवत्तिया अधिवचनं पञ्ञत्ति । अथ वा अधि- सद्दो उपरिभावे, वुच्चतीति वचनं, उपरि वचनं अधिवचनं, उपादाभूतरूपादीनं उपरि पञ्ञापियमाना उपादापञ
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गटीका
(१.३०-३१)
अत्थो, तस्मा पञत्तिदीपकपदानीति अत्थो दब्बो । पञत्तिमत्तव्हेतं वुच्चति, यदिदं “अत्ता, लोको'"ति च, न रूपवेदनादयो विय परमत्थो। अधिकवुत्तिताय वा अधिवुत्तियोति दिट्ठियो वुच्चन्ति । अधिकहि सभावधम्मेसु सस्सतादिं पकतिआदिदब्बादिं जीवादिं कायादिञ्च अभूतमत्थं अज्झारोपेत्वा दिट्ठियो पवत्तन्तीति ।
३०. अभिवदन्तीति “इदमेव सच्चं, मोघमञ"न्ति (म० नि० २.१८७, २०३, ४२७; म० नि० ३.२७, २९) अभिनिविसित्वा वदन्ति “अयं धम्मो, नायं धम्मो"तिआदिना विवदन्ति । अभिवदनकिरियाय अज्जापि अविच्छेदभावदस्सनत्थं वत्तमानकालवचनं । दिट्ठि एव दिद्विगतं "मुत्तगतं, म० नि० २.११९; अ० नि० ३.९.११) सङ्घारगत''न्तिआदीसु (महानि० ४१) विय । गन्तब्बाभावतो वा दिट्ठिया गतमत्तं, दिट्ठिया गहणमत्तन्ति अत्थो। दिट्ठिप्पकारो वा दिद्विगतं। लोकिया हि विधयुत्तगतपकार-सद्दे समानत्थे इच्छन्ति । एकेकस्मिञ्च “अत्ताति, "लोको''ति च गहणविसेसं उपादाय पञापनं होतीति आह "रूपादीसु अञ्जतरं अत्ता च लोको चाति गहेत्वा"ति । अमरं निच्चं धुवन्ति सस्सतवेवचनानि । मरणाभावेन वा अमरं, उप्पादाभावेन सब्बथापि अत्थिताय निच्चं, थिरठून विकाराभावेन धुवं । "यथाहा"तिआदिना यथावुत्तमत्थं निद्देसपटिसम्भिदापाळीहि विभावेति । अयञ्च अत्थो “रूपं अत्ततो समनुपस्सति, वेदनं, सलं, सङ्घारे, विजाणं अत्ततो समनुपस्सती"ति इमिस्सा पञ्चविधाय सक्कायदिट्ठिया वसेन वुत्तो । “रूपवन्तं अत्तान"न्तिआदिकाय पन पञ्चदसविधाय सक्कायदिट्ठिया वसेन चत्तारो चत्तारो खन्धे “अत्ता"ति गहेत्वा तदनं “लोको"ति पञपेन्तीति अयम्पि अत्थो लब्भति । तथा एकं खन्धं 'अत्ता"ति गहेत्वा तदने अत्तनो उपभोगभूतो लोकोति, ससन्ततिपतिते वा खन्धे “अत्ता'"ति गहेत्वा तदने “लोको"ति पञपेन्तीति एवम्पेत्थ अत्थो दट्टब्बो । एत्थाह- सस्सतो वादो एतेसन्ति कस्मा वुत्तं, ननु तेसं अत्ता लोको च सस्सतोति अधिप्पेतो. न वादो ति? सच्चमेतं. सस्सतसहचरितताय पन "वादो सस्सतो"ति वुत्तं यथा “कुन्ता पचरन्ती'ति । सस्सतो इति वादो एतेसन्ति वा इति-सद्दलोपो दट्ठब्बो। अथ वा सस्सतं वदन्ति “इदमेव सच्च"न्ति अभिनिविस्स वोहरन्तीति सस्सतवादा, सस्सतदिट्ठिनोति एवम्पेत्थ अत्थो दट्ठब्बो।।
३१. आतापनं किलेसानं विबाधनं पहानं । पदहनं कोसज्जपक्खे पतितुं अदत्वा चित्तस्स उस्सहनं । अनुयोगो यथा समाधि विसेसभागियतं पापुणाति, एवं वीरियस्स बहुलीकरणं। इध उपचारप्पनाचित्तपरिदमनवीरियानं अधिप्पेतत्ता आह "तिप्पभेदं
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(१.३१-३१)
पुबन्तकप्पिकसस्सतवादवण्णना
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वीरिय"न्ति । नप्पमज्जति एतेनाति अप्पमादो, असम्मोसो । सम्मा उपायेन मनसि करोति कम्मट्ठानं एतेनाति सम्मामनसिकारो आणन्ति आह “वीरियञ्च सतिञ्च आणञ्चा"ति | एत्थाति “आतप्प...पे०... मनसिकारं अन्वाया"ति इमस्मिं पाठे। सीलविसुद्धिया सद्धिं चतन्नं रूपावचरज्झानानं अधिगमनपटिपदा वत्तब्बा. सा पन विसद्धिमग्गे वित्थारतो वुत्ताति आह “स पत्थो"ति। "तथारूप"न्ति चुद्दसविधेहि चित्तदमनेहि रूपावचरचतुत्थज्झानस्स दमिततं वदति ।
समाधानादिअट्ठङ्गसमन्नागतरूपावचरचतुत्थज्झानस्स योगिनो समाधिविजम्भनभूता लोकियाभिञा झानानभावो। "झानादीन"न्ति इदं झानलाभिस्स विसेसेन झानधम्मा आपाथं आगच्छन्ति, तंमुखेन सेसधम्माति इममत्थं सन्धाय वुत्तं । जनकभावं पटिक्खिपति। सति हि जनकभावे रूपादिधम्मानं विय सुखादिधम्मानं विय, च पच्चयायत्तवुत्तिताय उप्पादवन्तता विज्ञआयति. उप्पादे च सति अवस्सम्भावी निरोधोति अनवकासाव निच्चता सियाति । कूट?-सद्दो वा लोके अच्चन्तनिच्चे निरुळ्हो दट्टब्बो। "एसिकट्ठायिद्वितो"ति एतेन यथा एसिका वातप्पहारादीहि न चलति, एवं न केनचि विकारं आपज्जतीति विकाराभावमाह, "कूटट्ठो"ति इमिना पन अनिच्चताभावं । विकारोपि विनासोयेवाति आह, “उभयेनपि लोकस्स विनासाभावं दीपेती"ति। "विज्जमानमेवा"ति एतेन कारणे फलस्स अस्थिभावदस्सनेन अभिब्यत्तिवादं दीपेति । निक्खमतीति च अभिब्यत्तिं गच्छतीति अत्थो । कथं पन विज्जमानोयेव पुब्बे अनभिब्यत्तो अभिब्यत्तिं गच्छतीति ? यथा अन्धकारेन पटिच्छन्नों घटो आलोकन अभिब्यत्ति गच्छति।
इदमेत्थ विचारेतब्बं - किं करोन्तो आलोको घटं पकासेतीति वुच्चति, यदि घटविसयं बुद्धिं करोन्तो, बुद्धिया अनुप्पन्नाय उप्पत्तिदीपनतो अभिब्यत्तिवादो हायति । अथ घटबुद्धिया आवरणभूतं अन्धकारं विधमन्तो, एवम्पि अभिब्यत्तिवादो हायतियेव | सति हि घटबुद्धिया अन्धकारो कथं तस्सा आवरणं होतीति, यथा घटस्स अभिब्यत्ति न युज्जति, एवं अत्तनोपि । तत्थापि हि यदि इन्द्रियविसयादिसन्निपातेन अनुप्पन्नाय बुद्धिया उप्पत्ति, उप्पत्तिवचनेनेव अभिब्यत्तिवादो हायति, तथा सस्सतवादो । अथ बुद्धिप्पवत्तिया आवरणभूतस्स अन्धकारट्ठानियस्स मोहस्स विधमनेन । सति बुद्धिया कथं मोहो आवरणन्ति, किञ्चि भेदसम्भवतो। न हि अभिब्यञ्जनकानं चन्दसूरियमणिपदीपादीनं भेदेन अभिव्यञ्जितब्बानं घटादीनं भेदो होति, होति च विसयभेदेन बुद्धिभेदोति भिय्योपि अभिब्यत्ति न युज्जतियेव, न चेत्थ वुत्तिकप्पना युत्ता वुत्तिया वुत्तिमतो च
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अनञ्ञथानुजाननतोति । ते च सत्ता सन्धावन्तीति ये इध मनुस्सभावेन अवट्ठिता, तेव देवभावादिउपगमनेन इतो अञ्ञत्थ गच्छन्ति, अञ्ञथा कतस्स कम्मस्स विनासो, अकतस्स च अब्भागमो आपज्जेय्याति अधिप्पायो ।
अपरापरन्ति अपरस्मा भवा अपरं भवं । एवं सङ्घयं गच्छन्तीति अत्तनो निच्चसभावत्ता न चुतूपपत्तियो, सब्बब्यापिताय नापि सन्धावनसंसरणानि, धम्मानंयेव पन पवत्तिविसेसेन एवं सङ्ख्यं गच्छन्ति, एवं वोहरीयन्तीति अधिप्पायो । एतेन अवट्ठितसभावस्स अत्तनो, धम्मिनो च धम्ममत्तं उप्पज्जति चेव विनस्सति चाति इमं विपरिणामवादं दस्सेति। यं पनेत्थ वत्तब्बं, तं परतो वक्खाम । अत्तनो वादं भिन्दतीति सन्धावनादिवचनसिद्धाय अनिच्चताय पुब्बे पटिञ्ञातं सस्सतवादं भिन्दति, विद्धंसेति अत्थो । सस्सतिसमन्ति वा एतस्स सस्सतं थावरं निच्चकालन्ति अत्थो दट्ठब्बो ।
( १.३१-३१)
हेतुं दस्सेन्तोति येसं " सस्सतो 'ति अत्तानञ्च लोकञ्च पञ्ञपेति अयं दिट्ठगतिको, तेसं हेतुं दस्सेन्तोति अत्थो । न हि अत्तनो दिट्ठिया पच्चक्खकतमत्थं अत्तनोयेव साधेति, अत्तनो पन पच्चक्खकतेन अत्थेन अत्तनो अप्पच्चक्खभूतम्पि अत्थं साधेति । अत्ता यथानिच्छितं परेहि विञ्ञापेति, न अनिच्छितं । " हेतुं दस्सेन्तो" ति एत्थ इदं हेतुदस्सनं - एतेसु अनेकेसु जातिसतसहस्सेसु एकोवायं मे अत्ता, लोको च अनुस्सरणसभावतो । यो हि यमत्थं अनुभवति, सो एव तं अनुस्सरति, न अञ्ञो । न हि अञ्ञेन अनुभूतमत्थं अञ्ञो अनुस्सरितुं सक्कोति यथा तं बुद्धरक्खितेन अनुभूतं धम्मरक्खितो । यथा चेतासु, एवं इतो पुरिमतरासुपि जातीसूति । कस्मा सरसतो मे अत्ता च लोको च । यथा च मे, एवं अञ्ञसम्पि सत्तानं सस्सतो अत्ता च लोको चाति ? सस्सतवसेन दिट्ठिगहनं पक्खन्दो दिट्ठिगतिको परेपि तत्थ पतिट्टपेति, पाळियं पन " अनेकविहितानि अधिवृत्तिपदानि अभिवदन्ति । सो एवं आहा "ति च वचनतो परानुमानवसेन इध हेतुदस्सनं अधिप्पेतन्ति विञ्ञायति । कारणन्ति तिविधं कारणं सम्पापकं निब्बत्तकं आपकन्ति । तत्थ अरियमग्गो निब्बानस्स सम्पापकं कारणं, बीजं अङ्करस्स निब्बत्तकं कारणं, पच्चयुप्पन्नतादयो अनिच्चतादीनं आपकं कारणं इधापि आपककारणमेव अधिप्पेतं । आपको हि ञपेतब्बत्थविसयस्स ञणस्स हेतुभावतो कारणन्ति । तदायत्तवृत्तिताय तं ञाणं तिट्ठति तत्थाति “ठान "न्ति, वसति तत्थ पवत्ततीति " चच्चति । तथा हि भगवता वत्थु-सन उद्दिसित्वापि ठानसद्देन निद्द्द्दिट्ठन्ति ।
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(१.३२-३३-३४)
पुब्बन्तकप्पिकसस्सतवादवण्णना
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३२-३३. दुतियततियवादानं पठमवादतो नत्थि विसेसो ठपेत्वा कालविसेसन्ति आह "उपरि वादद्वयेपि एसेव नयो"ति । यदि एवं कस्मा सस्सतवादो चतुधा विभत्तो, ननु अधिच्चसमुष्पन्निकवादो विय दुविधेनेव विभजितब्बो सियाति आह "मन्दपञो हि तिथियो"तिआदि ।
३४. तक्कयतीति ऊहयति, सस्सतादिआकारेन तस्मिं तस्मिं आरम्मणे चित्तं अभिनिरोपेतीति अत्थो । तक्कोति आकोटनलक्खणो विनिच्छयलक्खणो वा दिट्ठिट्ठानभूतो वितक्को। वीमंसा नाम विचारणा, सा पनेत्थ अत्थतो पञआपतिरूपको लोभसहगतचित्तुष्पादो, मिच्छाभिनिवेसो वा अयोनिसोमनसिकारो, पुब्बभागे वा दिट्ठिविप्फन्दितन्ति दट्टब्बा। तेनेवाह "तुलना रुच्चना खमना"ति । परियाहननं वितक्कस्स आरम्मणऊहनं एवाति आह "तेन तेन पकारेन तक्केत्वा"ति | अनुविचरितन्ति वीमंसाय अनुपवत्तितं, वीमंसानुगतेन वा विचारेन अनुमज्जितं । पटि पटि भातीति पटिभानं, यथासमिहिताकारविसेसविभावको चित्तुप्पादो। पटिभानतो जातं पटिभानं, सयं अत्तनो पटिभानं सयं पटिभानं। तेनेवाह "अत्तनो पटिभानमत्तसजात"न्ति । मत्त-सद्देन विसेसाधिगमादयो निवत्तेति ।
"अनागतेपि एवं भविस्सती"ति इदं न इधाधिप्पेततक्कीवसेनेव वुत्तं, लाभीतक्किनो एवम्पि सम्भवतीति सम्भवदस्सनवसेन वुत्तन्ति दट्टब्बं । यं किञ्चि अत्तना पटिलद्धं रूपादि सुखादि च इध लब्भतीति लाभो, न झानादिविसेसो । “एवं सति इदं होती"ति अनिच्चेसु भावेसु अञो करोति, अञ्जो पटिसंवेदेतीति आपज्जति, तथा च सति कतस्स विनासो, अकतस्स च अब्भागमो सिया । निच्चेसु पन भावेसु यो करोति, सो पटिसंवेदेतीति न दोसो आपज्जतीति तक्किकस्स युत्तिगवेसनाकारं दस्सेति ।
तक्कमत्तेनेवाति आगमाधिगमादीनं अनुस्सवादीनञ्च अभावा सुद्धतक्केनेव । ननु च विसेसलाभिनोपि सस्सतवादिनो अत्तनो विसेसाधिगमहेतु अनेकेसु जातिसतसहस्सेसु दससु संवट्टविवट्टेसु चत्तालीसाय संवट्टविवट्टेसु यथानुभूतं अत्तनो सन्तानं तप्पटिबद्धञ्च “अत्ता, लोको"ति च अनुस्सरित्वा ततो पुरिमपुरिमतरासुपि जातीसु तथाभूतस्स अत्थितानुवितक्कनमुखेन सब्बेसम्पि सत्तानं तथाभावानुवितक्कनवसेनेव सस्सताभिनिवेसिनो जाता, एवञ्च सति सब्बोपि सस्सतवादी अनुस्सुतिजातिस्सरतक्किका विय अत्तनो उपलद्धवत्थुनिबन्धनेन तक्कनेन पवत्तवादत्ता तक्कीपखेयेव तिट्टेय्य, अवस्सञ्च वुत्तप्पकारं
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तक्कनमिच्छितब्बं, अञ्ञथा विसेसला भी सस्सतवादी एकच्चसस्सतिकपक्खं, अधिच्चसमुप्पन्निकपक्खं वा भजेय्याति ? न खो पनेतं एवं दट्ठब्बं यस्मा विसेसलाभीनं खन्धसन्तानस्स दीघदीघतरदीघतमकालानुस्सरणं सस्सतग्गाहस्स असाधारणकारणं । तथा "अनेकविहितं पुब्बेनिवासं अनुस्सरामि । इमिनामहमेतं जानामी 'ति अनुसरणमेव पधानकारणभावेन दस्सितं । यं पन तस्स "इमिनामहमेतं जानामी 'ति पवत्तं तक्कनं, न तं इध पधानं अनुसरणं पति तस्स अप्पधानभूतत्ता । यदि एवं अनुस्सवादीनम्पि पधानभावो आपज्जतीति चे ? न, तेसं सच्छिकिरियाय अभावेन तक्कपधानत्ता, पधानकारणेन च निद्देसो निरुळ्हो सासने लोके च यथा “ चक्खुविञणं, यवङ्कुरो ति
च ।
अथ वा
विसेसाधिगमनिबन्धनरहितस्स तक्कनस्स विसुं सस्सतग्गाहे कारणभावदस्सनत्थं विसेसाधिगमो विसुं सस्सतग्गाहकारणं वत्तब्बो, सो च मन्दमज्झतिक्खपञ्ञवसेन तिविधोति भगवता सब्बतक्किनो तक्कीभावसामञ्ञेन एक गहेत्वा चतुधा ववत्थापितो सस्सतवादो । यदिपि अनुस्सवादिवसेन तक्किकानं वि मन्दपञ्ञदीनम्पि हीनादिवसेन अनेकभेदसम्भावतो विसेसलाभीनम्पि बहुधा भेदो सम्भवति, सब्बे पन विसेसलाभिनो मन्दपञ्ञादिवसेन तयो रासी कत्वा तत्थ उक्कट्टवसेन अनेकजातिसतसहस्सदससंवट्टविवट्टचत्तारीससंवट्टविवट्टानुस्सरणेन अयं विभागो वृत्तो । तीसुपि रासीसु ये हीनमज्झपञ्ञा, ते वृत्तपरिच्छेदतो ऊनकमेव अनुस्सरन्ति । ये तत्थ उक्कट्ठपञ्ञ, ते वुत्तपरिच्छेदं अतिक्कमित्वा नानुस्सरन्तीति एवं पनायं देसना । तस्मा अञ्ञतरभेदसङ्ग्रहवसेनेव भगवता चत्तारिट्ठानानि विभत्तानीति ववत्थिता सस्सतवादीनं चतुब्बिधता । न हि इध सावसेसं धम्मं देसेति धम्मराजा ।
( १.३५-३५)
३५. “अञ्ञतरेना”ति एतस्स अत्यं दस्सेतुं “एकेना "ति वुत्तं । बा - सद्दस्स पन अनियमत्थतं दस्सेतुं “द्वीहि वा तीहि वा "ति वुत्तं । तेन चतूसु ठानेसु यथारहं एकच्चं एकच्चस्स पञ्ञपने सहकारीकारणन्ति दस्सेति । किं पनेतानि वत्थूनि अभिनिवेसस्स हेतु, उदाहु पतिट्ठापनस्स | किञ्चेत्थ यदि ताव अभिनिवेसस्स कस्मा अनुस्सरणतक्कनानियेव गहितानि, न सञ्ञाविपल्लासादयो । तथाहि विपरीत सञ अयोनिसोमनसिकारअसप्पुरिसूपनिस्सय असद्धम्मस्सवनादीनि मिच्छादिट्टिया पवत्तनट्ठानानि । अथ पतिट्ठापनस्स अधिगमयुत्तियो विय आगमोपि वत्थुभावेन वत्तब्बो, उभयथापि “नत्थि इतो बहिद्धा'' ति वचनं न युज्जतीति ? न । कस्मा ? अभिनिवेसपक्खे ताव अयं
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(१.३६-३६)
पुबन्तकप्पिकसस्सतवादवण्णना
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दिह्रिगतिको असप्पुरिसूपनिस्सयअसद्धम्मस्सवनेहि अयोनिसो उम्मुज्जित्वा विपल्लाससञ्जो रूपादिधम्मानं खणे खणे भिज्जनसभावस्स अनवबोधतो धम्मयुत्तिं अतिधावन्तो एकत्तनयं मिच्छा गहेत्वा यथावुत्तानुस्सरणतक्केहि खन्धेसु “सस्सतो अत्ता च लोको चा"ति (दी० नि० १.३१) अभिनिवेसं जनेसि । इति आसन्नकारणत्ता, पधानकारणत्ता, तग्गहणेनेव च इतरेसम्पि गहितत्ता अनुस्सरणतक्कनानियेव इध गहितानि । पतिट्ठापनपक्खे पन आगमोपि युत्तिपक्खेयेव ठितो विसेसतो बाहिरकानं तक्कगाहिभावतोति अनुस्सरणतक्कनानियेव दिट्ठिया वत्थुभावेन गहितानि । किञ्च भिय्यो दुविधं लक्खणं परमत्थधम्मानं सभावलक्खणं सामञलक्खणञ्चाति । तत्थ सभावलक्खणावबोधो पच्चक्खजाणं, सामञलक्खणावबोधो अनुमानजाणं, आगमो च सुतमयाय पञाय साधनतो अनुमानज्ञाणमेव आवहति, सुतानं पन धम्मानं आकारपरिवितक्कनेन निज्झानक्खन्तियं ठितो चिन्तामयं पञ्चं निब्बत्तेत्वा अनुक्कमेन भावनाय पच्चक्खाणं अधिगच्छतीति एवं आगमोपि तक्कविसयं नातिक्कमतीति तग्गहणेन गहितोवाति वेदितब्बो । सो अट्ठकथायं अनुस्सुतितक्कग्गहणेन विभावितोति युत्तं एविदं “नत्थि इतो बहिद्धा''ति । “अनेकविहितानि अधिवुत्तिपदानि अभिवदन्ति, सस्सतं अत्तानञ्च लोकञ्च पझपेन्तीति (दी० नि० १.३०) च वचनतो पतिठ्ठापनवत्थूनि इधाधिप्पेतानीति दट्ठब्बं ।
३६. दिट्ठियेव दिद्विद्वानं परमवज्जताय अनेकविहितानं अनत्थानं हेतुभावतो । यथाह "मिच्छादिटिपरमाहं भिक्खवे वज्जं वदामी"ति (अ० नि० १.१.३१०) "यथाहा"तिआदिना पटिसम्भिदापाळिया (पटि० म० १.१२४) दिठ्ठिया ठानविभागं दस्सेति । तत्थ खन्धापि दिहिवानं आरम्मणद्वेन “रूपं अत्ततो समनुपस्सती''तिआदि (सं० नि० २.३.८१, ३४५) वचनतो। अविज्जापि दिहिट्ठानं उपनिस्सयादिभावेन पवत्तनतो । यथाह "अस्सुतवा भिक्खवे पुथुज्जनो अरियानं अदस्सावी अरियधम्मस्स अकोविदो"तिआदि (म० नि० १.२; पटि० म० १.१३०)। फस्सोपि दिद्विवानं । यथा चाह “तदपि फस्सपच्चया, (दी० नि० १.११८ आदयो) फुस्स फुस्स पटिसंवेदेन्ती''ति (दी० नि० १.१४४) च । सापि दिहिट्ठानं । वुत्तञ्चेतं “सञानिदाना हि पपञ्चसङ्खा, (सु० नि० ८८०; महानि० १०९) पथवितो सञत्वा''ति (म० नि० १.२) च आदि । वितक्कोपि दिट्ठिट्टानं। वुत्तम्पि चेतं “तक्कञ्च दिट्ठीसु पकप्पयित्वा, सच्चं मुसाति द्वयधम्ममाहू'"ति (सु० नि० ८९२) "तक्की होति वीमंसी"ति (दी० नि० १.३४) च आदि | अयोनिसोमनसिकारोपि दिद्विानं। तेनाह भगवा "तस्स एवं अयोनिसो मनसि करोतो छन्नं दिट्ठीनं अञ्जतरा दिट्ठि उप्पज्जति । 'अत्थि मे अत्ता'ति वा अस्स सच्चतो
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गटीका
थेततो दिट्टि उप्पज्जती 'तिआदि (म० नि० १.१९ ) । समुट्ठाति एतेनाति समुट्ठानं समुट्ठानभावो समुट्ठानट्ठो । पवत्तिताति परसन्तानेसु उप्पादिता । परिनिट्ठापिताति अभिनिवेस्स परियोसानं मत्थकं पापिताति अत्थो । “आरम्मणवसेना "ति अट्ठसु दिट्ठिट्ठानेसु खन्धे सन्धायाह । पवत्तनवसेनाति अविज्जादयो । आसेवनवसेनाति पापमित्तपरतोघोसादीनम्पि सेवनं लब्भतियेव । अथ वा एवंगतिकाति एवंगमना, एवंनिट्ठाति अत्थो । इदं वुत्तं होति - इमे दिट्ठिसङ्घाता दिट्ठिट्ठाना एवं परमत्थतो असन्तं अत्तानं सस्सतभावञ्चस्स अज्झारोपेत्वा गहिता, परामट्ठा च बाललपना याव पण्डिता न समनुयुञ्जन्ति, ताव गच्छन्ति पवत्तन्ति । पण्डितेहि समनुयुञ्जयमाना पन अनवट्ठितवत्थुका अविमद्दक्खमा सूरियुग्गमने उस्सावबिन्दू विय खज्जोपनका विय च भिज्जन्ति विनस्सन्ति चाति ।
तथा अनुसङ्क्षेपकथा - यदि हि परेन परिकप्पितो अत्ता लोको वा सस्तो सिया, तस्स निब्बिकारताय पुरिमरूपाविजहनतो कस्सचि विसेसाधानस्स का असक्कुणेय्यताय अहिततो निवत्तनत्थं, हिते च पटिपत्तिअत्थं उपदेसो एव निप्पयोजनो सिया सस्सतवादिनो, कथं वा सो उपदेसो पवत्तीयति विकाराभावतो, एवञ्च अत्तनो अजटाकासस्स विय दानादिकिरिया हिंसादिकिरिया च न सम्भवति । तथा सुखस्स दुक्खस्स अनुभवननिबन्धो एव सस्सतवादिनो न युज्जति कम्मबद्धाभावतो, जाति आदीनञ्च असम्भवतो कुतो विमोक्खो, अथ पन धम्ममत्तं तस्स उप्पज्जति चेव विनस्सति च, यस्स वसेनायं किरियादिवोहारोति वदेय्य, एवम्पि पुरिमरूपाविजहनेन अवट्ठितस्स अत्तनो धम्ममत्तन्ति न सक्का सम्भावेतुं, ते वा पनस्स धम्मा अवत्थाभूता अञे वा सियुं अन वा । यदि अञ्ञ, न ताहि तस्स उप्पन्नाहिपि कोचि विसेसो अत्थि । याहि करोति पटिसंवेदेति चवति उपपज्जति चाति इच्छितं तस्मा तदवत्थो एव यथावत्तदोसो । किञ्च धम्मकप्पनापि निरत्थिका सिया, अथानञ्ञे उप्पादविनासवन्तीहि अवत्थाहि अनञ्ञस्स अत्तनो तासं विय उप्पादविनाससब्भावतो कुतो निच्चतावकासो, तासम्प वा अत्तनो विय निच्चताति बन्धविमोक्खानं असम्भवो एवाति न युज्जतियेव सस्सतवादो । न चेत्थ कोचि वादी धम्मानं सस्सतभावे परिसुद्धं युत्तिं वत्तुं समत्थो, युत्तिरहितञ्च वचनं न पण्डितानं चित्तं आराधेतीति । तेन वृत्तं " याव पण्डिता न समनुयुञ्जन्ति, ताव गच्छन्ति पवत्तन्ती 'ति । कम्मवसेन अभिमुखो सम्परेति एत्था अभिसम्परायो, परोलोको ।
“ सब्बञ्जतञाणञ्चा”ति इदं इध सब्बञ्जतञ्जणस्स विभजियमानत्ता वुत्तं, तस्मिं
( १.३६-३६)
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( १.३६-३६)
पुब्बन्तकप्पिकसस्सतवादवण्णना
वा वुत्ते तदधिट्ठानतो आसवक्खयत्राणं तदविनाभावतो सब्बम्पि वा भगवतो दसबलादिञाणं गहितमेव होतीति कत्वा । पजानन्तोपीति पि सद्दो सम्भावने, तेन " तञ्चा" ति एत्थ वुत्तं च सद्दत्थमाह । इदं वुत्तं होति - तं दिट्टिगततो उत्तरितरं सारभूतं सीलादिगुणविसेसम्पि तथागतो नाभिनिविसति, को पन वादो वट्टामिसेति । “अह "न्ति दिट्ठिवसेन वा तं परामसनाकारमाह । पजानामीति एत्थ इति - सद्दो पकारत्थो, तेन " मम "न्ति तण्हावसेन परामसनाकारं दस्सेति । धम्मसभावं अतिक्कमित्वा परतो आमसनं परामासो । न हि तं अत्थि, खन्धेसु यं " अह "न्ति वा " मम "न्ति वा गहेतब्बं सिया । यो पन परामासो तण्हादयोव, ते च भगवतो बोधिमूलेयेव पहीनाति आह “परामासकिलेसान”न्तिआदि । अपरामासतोति वा निब्बुतिवेदनस्स हेतुवचनं, “विदिताति इदं पदं अपेक्खित्वा कत्तरि सामिवचनं, अपरामसन हेतु परामासरहिताय पटिपत्तिया तथागतेन सयमेव असङ्खतधातु अधिगताति एवं वा एत्थ अत्थो दट्ठब्बो ।
“यासु वेदनासू "तिआदिना भगवतो देसनाविलासं दस्सेति । तथा हि खन्धायतनादिवसेन अनेकविधासु चतुसच्चदेसनासु सम्भवन्तीसुपि अयं तथागतानं देसनासु पटिपत्ति, यं दिट्ठिगतिका मिच्छापटिपत्तिया दिट्टिगहनं पक्खन्दाति दस्सनत्थं वेदनायेव परिञाय भूमिदरसनत्थं उद्धटा । कम्मट्ठानन्ति चतुसच्चकम्मट्टानं । यथाभूतं विदित्वाति विपस्सनापञ्ञाय वेदनाय समुदयादी आरम्मणपटिवेधवसेन मग्गपञ्ञाय असम्मोहपटिवेधवसेन जानित्वा, पटिविज्झित्वाति अत्थो । पच्चयसमुदयट्ठेनाति “इमस्मिं सति इदं होति इमस्सुप्पादा इदं उप्पज्जती 'ति (म० नि० १.४०४; सं० नि० १.२.२१; उदा० १) वुत्तलक्खणेन अविज्जादीनं पच्चयानं उप्पादेन चेव मग्गेन असमुग्घातेन च । निब्बत्तिलक्खणन्ति उप्पादलक्खणं, जातिन्ति अत्थो । पञ्चन्नं लक्खणानन्ति एत्थ चतुन्नं पच्चयानम्पि उप्पादलक्खणमेव गहेत्वा वुत्तन्ति गहेतब्बं यस्मा पच्चयलक्खणम्पि लब्भतियेव, तथा चेव संवणितं । पच्चयनिरोधट्ठेनाति एत्थापि वृत्तनयानुसारेन अत्थो वेब्ब । यन्ति यस्मा, यं वा सुखं सोमनस्सं । पटिच्चाति आरम्मणपच्चयादिभूतं वेदनं लभित्वा । अयन्ति सुखसोमनस्सानं पच्चयभावो, सुखसोमनस्समेव वा, "अस्सादो" ति पदं पन अपेक्खित्वा पुल्लिङ्गनिद्देसो । अयञ्हेत्थ सङ्क्षेपत्थो - पुरिमुप्पन्नं वेदनं आरम्भ सोमनस्सुप्पत्तियं यो पुरिमवेदनाय अस्सादेतब्बाकारो सोमनस्सस्सादनाकारो, अयं अस्सादोति । कथं पन वेदनं आरम्भ सुखं उप्पज्जतीति ? चेतसिकसुखस्स अधिप्पेतत्ता नायं दोसो । विसेसनं हेत्थ सोमनस्सग्गहणं सुखं सोमनस्सन्ति “ रुक्खो सिंसपा "ति यथा ।
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गटीका
(१.३८-३८)
“अनिच्चा"ति इमिना सङ्खारदुक्खतावसेन उपेक्खावेदनाय, सब्बवेदनासुयेव वा आदीनवमाह, इतरेहि इतरदुक्खतावसेन यथाक्कम दुक्खसुखवेदनानं, अविसेसेन वा तीणिपि पदानि सब्बासम्पि वेदनानं वसेन योजेतब्बानि । अयन्ति यो वेदनाय हुत्वा अभावढेन अनिच्चभावो, उदयब्बयपटिपीळनटेन दुक्खभावो, जराय मरणेन चाति द्वेधा विपरिणामेतब्बभावो च, अयं वेदनाय आदीनवो, यतो वा आदीनं परमकारुनं वाति पवत्ततीति । वेदनाय निस्सरणन्ति एत्थ वेदनायाति निस्सक्कवचनं, याव वेदनापटिबद्धं छन्दरागं न पजहति, तावायं पुरिसो वेदनं अल्लीनोयेव होति । यदा पन तं छन्दरागं पजहति, तदायं पुरिसो वेदनाय निस्सटो विसंयुत्तो होतीति छन्दरागप्पहानं वेदनाय निस्सरणं वुत्तं । एत्थ च वेदनाग्गहणेन वेदनाय सहजातनिस्सयारम्मणभूता च रूपारूपधम्मा गहिता एव होन्तीति पञ्चन्नम्पि उपादानक्खन्धानं गहणं दट्ठब्बं । वेदनासीसेन पन देसना आगता, तत्थ कारणं वुत्तमेव, लक्खणहारनयेन वा अयमत्थो विभावेतब्बो। तत्थ वेदनाग्गहणेन गहिता पञ्चुपादानक्खन्धा दुक्खसच्चं, वेदनानं समुदयग्गहणेन गहिता अविज्जादयो समुदयसच्चं, अत्थङ्गमनिस्सरणपरियायेहि निरोधसच्चं, “यथाभूतं विदित्वा'"ति एतेन मग्गसच्चन्ति एवमेत्थ चत्तारि सच्चानि वेदितब्बानि। कामुपादानमूलकत्ता सेसुपादानानं, पहीने च कामुपादाने उपादानसेसाभावतो “विगतछन्दरागताय अनुपादानो"ति वुत्तं । अनुपादाविमुत्तोति अत्तनो मग्गफलप्पत्तिं भगवा दस्सेति । "वेदनान''न्तिआदिना हि यस्सा धम्मधातुया सुप्पटिविद्धत्ता इमं दिट्ठिगतं सकारणं सगतिकं पभेदतो विभजितुं समत्थो अहोसि, तस्स सब्ब ताणस्स सद्धिं पुब्बभागपटिपदाय उप्पत्तिभूमि दस्सेति धम्मराजा।
पठमभाणवारवण्णना निहिता।
एकच्चसस्सतवादवण्णना
३८. सत्तेसु सङ्खारेसु च एकच्चं सस्सतं एतस्साति एकच्चसस्सतो, एकच्चसस्सतवादो। सो एतेसं अस्थीति एकच्चसस्सतिका। ते पन यस्मा एकच्चसस्सतो वादो दिट्ठि एतेसन्ति एकच्चसस्सतवादा नाम होन्ति, तस्मा तमत्थं दस्सेन्तो आह "एकच्चसस्सतवादा"ति । इमिना नयेन एकच्चअसस्सतिका दिपदस्सपि अत्थो वेदितब्बो ।
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(१.३८-३८)
एकच्चसस्सतवादवण्णना
१३५
ननु च “एकच्चसस्सतिका"ति वुत्ते तदञस्स एकच्चस्स असस्सततासन्निट्टानं सिद्धमेव होतीति ? सच्चं सिद्धमेव होति अत्थतो, न पन सद्दतो । तस्मा सुपाकटं कत्वा दस्सेतुं "एकच्चअसस्सतिका"ति वुत्तं । न हि इध सावसेसं कत्वा धम्मं देसेति धम्मस्सामी । इधाति “एकच्चसस्सतिका''ति इमस्मिं पदे । गहिताति वुत्ता, तथा चेव अत्थो दस्सितो । इधाति वा इमिस्सा देसनाय। तथा हि पुरिमका तयो वादा सत्तवसेन, चतुत्थो सङ्खारवसेन विभत्तो । “सङ्खारेकच्चसस्सतिका"ति इदं तेहि सस्सतभावेन गय्हमानानं धम्मानं याथावसभावदस्सनवसेन वुत्तं, न पनेकच्चसस्सतिकमतदस्सनवसेन । तस्स हि सस्सताभिमतं असङ्घतमेवाति लद्धि । तेनेवाह “चित्तन्ति वा...पे०... ठस्सती"ति । न हि यस्स भावस्स पच्चयेहि अभिसङ्घतभावं पटिजानाति, तस्सेव निच्चधुवादिभावो अनुम्मत्तकेन सक्का पटिञातुं । एतेन “उप्पादवयधुवतायुत्तभावा सिया निच्चा, सिया अनिच्चा सिया न वत्तब्बा"तिआदिना पवत्तस्स सत्तभङ्गवादस्स अयुत्तता विभाविता होति ।
तत्थायं अयुत्तताविभावना - यदि “येन सभावेन यो धम्मो अत्थीति वुच्चति, तेनेव सभावेन सो धम्मो नत्थी'"तिआदिना वुच्चेय्य, सिया अनेकन्तवादो । अथ अञ्चेन, सिया न अनेकन्तवादो। न चेत्थ देसन्तरादिसम्बन्धभावो यत्तो वत्तं तस्स सब्बलोकसिद्धत्ता. विवादाभावतो। ये पन वदन्ति "यथा सवण्णघटेन मकटे कते घटभावो नस्सति. मकुटभावो उप्पज्जति, सुवण्णभावो तिठ्ठतियेव, एवं सब्बभावानं कोचि धम्मो नस्सति, कोचि धम्मो उप्पज्जति, सभावो पन तिकृती"ति । ते वत्तब्बा "किं तं सुवण्णं, यं घटे मकूटे च अवहितं, यदि रूपादि, सो सद्दो विय अनिच्चो । अथ रूपादि समूहो, समूहो नाम सम्मुतिमत्तं । न तस्स अत्थिता नत्थिता निच्चता वा लब्भती"ति अनेकन्तवादो न सिया | धम्मानञ्च धम्मिनो अञथानञथासु दोसो वुत्तोयेव सस्सतवादविचारणायं । तस्मा सो तत्थ वृत्तनयेनेव वेदितब्बो। अपिच निच्चानिच्चनवत्तब्बरूपो अत्ता लोको च परमत्थतो विज्जमानतापटिजाननतो यथा निच्चादीनं अञतरं रूपं, यथा वा दीपादयो । न हि दीपादीनं उदयब्बयसभावानं निच्चानिच्चनवत्तब्बसभावता सक्का विज्ञातुं, जीवस्स निच्चादीसु अञ्जतरं रूपं वियाति एवं सत्तभङ्गस्स विय सेसभङ्गानम्पि असम्भवोयेवाति सत्तभङ्गवादस्स अयुत्तता वेदितब्बा |
एत्थ च "इस्सरो निच्चो, अञ्जे सत्ता अनिच्चा''ति एवं पवत्तवादा सत्तेकच्चसस्सतिका सेय्यथापि इस्सरवादा। “परमाणवो निच्चा धुवा, अणुकादयो अनिच्चा"ति एवं पवत्तवादा सङ्खारेकच्चसस्सतिका सेय्यथापि काणादा। ननु “एकच्चे
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गटीका
(१.३८-३८)
धम्मा सस्सता, एकच्चे असस्सता''ति एतस्मिं वादे चक्खादीनं असस्सततासन्निट्ठानं यथासभावावबोधो एव, तयिदं कथं मिच्छादस्सनन्ति, को वा एवमाह "चक्खादीनं असस्सतभावसन्निट्टानं मिच्छादस्सन''न्ति ? असस्सतेसुयेव पन केसञ्चि धम्मानं सस्सतभावाभिनिवेसो इध मिच्छादस्सनं । तेन पन एकवारे पवत्तमानेन चक्खादीनं असस्सतभावावबोधो विदूसितो संसट्ठभावतो विससंसट्ठो विय सप्पिमण्डो सकिच्चकरणासमत्थताय सम्मादस्सनपक्खे ठपेतब्बतं नारहतीति। असस्सतभावेन निच्छितापि वा चक्खुआदयो समारोपितजीवसभावा एव दिट्ठिगतिकेहि गव्हन्तीति तदवबोधस्स मिच्छादस्सनभावो न सक्का निवारेतुं । तेनेवाह "चक्टुं इतिपि...पे०... कायो इतिपि अयं मे अत्ता"तिआदि । एवञ्च कत्वा असङ्घताय सङ्घताय च धातुया वसेन यथाक्कम “एकच्चे धम्मा सस्सता, एकच्चे असस्सता''ति एवं पवत्तो विभज्जवादोपि एकच्चसस्सतवादो आपज्जतीति एवंपकारा चोदना अनवकासा होति अविपरीतधम्मसभावसम्पटिपत्तिभावतो।
कामञ्चेत्थ पुरिमवादेपि असस्सतानं धम्मानं “सस्सता"ति गहणं विसेसतो मिच्छादस्सनं, सस्सतानं पन “सस्सता"ति गाहो न मिच्छादस्सनं यथासभावग्गहणभावतो ।
असस्सतेसुयेव पन “केचिदेव धम्मा सस्सता, केचि असस्सता''ति गहेतब्बधम्मसु विभागप्पवत्तिया इमस्स वादस्स वादन्तरता वुत्ता, न चेत्थ “समुदायन्तोगधत्ता एकदेसस्स सप्पदेससस्सतग्गाहो निप्पदेससस्सतग्गाहे समोधानं गच्छती'ति सक्का वत्तुं वादी तब्बिसयविसेसवसेन वादद्वयस्स पवत्तत्ता। अञ्चे एव हि दिद्विगतिका “सब्बे धम्मा सस्सता"ति अभिनिविट्ठा, अजे “एकच्चसस्सता''ति । सङ्खारानं अनवसेसपरियादानं, एकदेसपरिग्गहो च वादद्वयस्स परिब्यत्तोयेव । किञ्च भिय्यो अनेकविधसमुस्सये एकविधसमुस्सये च खन्धपबन्धे अभिनिवेसभावतो। चतुब्बिधोपि हि सस्सतवादी जातिविसेसवसेन नानाविधरूपकायसन्निस्सये एव अरूपधम्मपुजे सस्सताभिनिवेसी जातो अभिजाणेन अनुस्सवादीहि च रूपकायभेदग्गहणतो । तथा च वुत्तं “ततो चुतो अमुत्र उदपादि"न्ति (दी० नि० १.३२) “चवन्ति उपपज्जन्ती''ति च आदि । विसेसलाभी एकच्चसस्सतिको अनुपधारितभेदसमुस्सयेव धम्मपबन्धे सस्सताकारग्गहणेन अभिनिविसनं जनेसि एकभवपरियापन्नखन्धसन्तानविसयत्ता तदभिनिवेसस्स । तथा च तीसुपि वादेसु “तं पुब्बेनिवासं अनुस्सरति, ततो परं नानुस्सरती"ति एत्तकमेव वुत्तं, तक्कीनं पन सस्सतेकच्चसस्सतवादीनं सस्सताभिनिवेसविसेसो रूपारूपधम्मविसयताय सुपाकटोयेवाति ।
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(१.३९-४०)
एकच्चसस्सतवादवण्णना
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३९. दीघस्स कालस्स अतिक्कमेनाति विवट्टविवट्ठायीनं अपगमेन । अनेकत्थत्ता धातूनं सं-सद्देन युत्तो वट्ट-सद्दो विनासवाचीति आह "विनस्सती"ति, सङ्घयवसेन वत्ततीति अत्थो । विपत्तिकरमहामेघसमुप्पत्तितो पट्ठाय हि याव अणुसहगतोपि सङ्खारो न होति, ताव लोको संवट्टतीति वुच्चति । लोकोति चेत्थ पथवीआदिभाजनलोको अधिप्पेतो । उपरिब्रह्मलोकेसूति परित्तसुभादीसु रूपीब्रह्मलोकेसु । अग्गिना हि कप्पवुठ्ठानं इधाधिप्पेतं बहुलं पवत्तनतो। तेनेवाह भगवा “आभस्सरसंवत्तनिका होन्ती"ति । अरूपेसु वाति वा-सद्देन संवट्टमानलोकधातूहि अञ्चलोकधातूसु वाति विकप्पनं वेदितब्बं । न हि “सब्बे अपायसत्ता तदा रूपारूपभवेसु उप्पज्जन्ती''ति सक्का विज्ञातुं अपायेसु दीघतमायुकानं मनुस्सलोकूपत्तिया असम्भवतो। सतिपि सब्बसत्तानं अभिसङ्खारमनसा निब्बत्तभावे बाहिरपच्चयेहि विना मनसाव निब्बत्तत्ता “मनोमया"ति वुच्चन्ति रूपावचरसत्ता । यदि एवं कामभवे ओपपातिकसत्तानम्पि मनोमयभावो आपज्जतीति? नापज्जति अधिचित्तभूतेन अतिसयमनसा निब्बत्तसत्तेसु मनोमयवोहारतोति दस्सन्तो आह "झानमनेन निब्बत्तत्ता मनोमया"ति । एवं अरूपावचरसत्तानम्पि मनोमयभावो आपज्जतीति चे ? न, तत्थ बाहिरपच्चयेहि निब्बत्तेतब्बतासङ्काय एव अभावतो, “मनसाव निब्बत्ता''ति अवधारणासम्भवतो। निरुळहो वायं लोके मनोमयवोहारो रूपावचरसत्तेसु । तथा हि "अन्नमयो पानमयो मनोमयो आनन्दमयो विज्ञाणमयो''ति पञ्चधा अत्तानं वेदवादिनो वदन्ति । उच्छेदवादेपि वक्खति “दिब्बो रूपी मनोमयो'"ति (दी० नि० १.८६) । सोभना पभा एतेसु सन्तीति सुभा। "उक्कंसेना"ति आभस्सरदेवे सन्धायाह, परित्ताभा अप्पमाणाभा पन द्वे चत्तारो च कप्पे तिट्ठन्ति । अट्ठकप्पेति अट्ठ महाकप्पे।।
४०. सण्ठातीति सम्पत्तिकरमहामेघसमुप्पत्तितो पट्ठाय पथवीसन्धारकुदकतंसन्धारकवायुमहापथवीआदीनं समुप्पत्तिवसेन ठाति, “सम्भवति" इच्चेव वा अत्थो अनेकत्थत्ता धातूनं । पकतियाति सभावेन, तस्स "सुञ"न्ति इमिना सम्बन्धो । तत्थ कारणमाह "निब्बत्तसत्तानं नत्थिताया"ति, अनुप्पन्नत्ताति अत्थो, तेन यथा एकच्चानि विमानानि तत्थ निब्बत्तसत्तानं चुतत्ता सुञानि होन्ति, न एवमिदन्ति दस्सेति । ब्रह्मपारिसज्जब्रह्मपुरोहितमहाब्रह्मानो ब्रह्मकायिका, तेसं निवासो भूमिपि "ब्रह्मकायिका"ति वुत्ता । कम्मं उपनिस्सयवसेन पच्चयो एतिस्साति कम्मपच्चया। अथ वा तत्थ निब्बत्तसत्तानं विपच्चनककम्मस्स सहकारीपच्चयभावतो, कम्मस्स पच्चयाति कम्मपच्चया। उतु समुट्ठानं एतिस्साति उतुसमुट्ठाना। “कम्मपच्चयउतुसमुट्ठाना"ति वा पाठो, कम्मसहायो पच्चयो, कम्मस्स वा सहायभूतो पच्चयो कम्मपच्चयो, सोव उतु कम्मपच्चयउतु, सो समुट्ठानं
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गटीका
(१.४०-४०)
एतिस्साति योजेतब्बं । एत्थाति "ब्रह्मविमानन्ति वुत्ताय ब्रह्मकायिकभूमिया । कथं पणीताय दुतियज्झानभूमियं ठितानं हीनाय पठमज्झानभूमिया उपपत्ति होतीति आह “अथ सत्तान"न्तिआदि । ओतरन्तीति उपपज्जनवसेन हेट्ठाभूमिं गच्छन्ति ।
अप्पायुकेति यं उळारं पुञकम्मं कतं, तस्स उप्पज्जनारहविपाकपबन्धतो अप्पपरिमाणायुके । आयुष्पमाणेनेवाति परमायुप्पमाणेनेव । किं पनेतं परमायु नाम, कथं वा तं परिच्छिन्नपमाणन्ति ? वुच्चते- यो तेसं तेसं सत्तानं तस्मिं तस्मिं भवविसेसे पुरिमसिद्धभवपत्थनूपनिस्सयवसेन सरीरावयववण्णसण्ठानपमाणादिविसेसा विय तंतंगतिनिकायादीसु येभुय्येन नियतपरिच्छेदो गब्भसेय्यककामावचरदेवरूपावचरसत्तानं सुक्कसोणितउतुभोजनादि उतुआदिपच्चयुप्पन्नपच्चयूपत्थम्भितो विपाकपबन्धस्स ठितिकालनियमो, सो यथासकं खणमत्तावट्ठायीनम्पि अत्तनो सहजातानं रूपारूपधम्मानं ठपनाकारवुत्तिताय पवत्तकानि रूपारूपजीवितिन्द्रियानि यस्मा न केवलं नेसं खणठितिया एव कारणभावेन अनुपालकानि, अथ खो याव भवङ्गुपच्छेदा अनुपबन्धस्स अविच्छेदहेतुभावेनापि, तस्मा आयुहेतुकत्ता कारणूपचारेन आयु, उक्कंसपरिच्छेदवसेन परमायूति च वुच्चति । तं पन देवानं नेरयिकानं उत्तरकुरुकानञ्च नियतपरिच्छेदं, उत्तरकुरुकानं पन एकन्तनियतपरिच्छेदमेव, अवसिठ्ठमनुस्सपेततिरच्छानानं पन चिरट्ठितिसंवत्तनिककम्मबहुले काले कम्मसहितसन्तानजनितसुक्कसोणितप्पच्चयानं तंमूलकानञ्च चन्दसूरियसमविसमपरिवत्तनादिजनितउतुआहारादिसमविसम पच्चयानं वसेन चिराचिरकालतो अनियतपरिच्छेदं, तस्स च यथा पुरिमसिद्धभवपत्थनावसेन तंतंगतिनिकायादीसु वण्णसण्ठानादिविसेसनियमो सिद्धो दस्सनानुस्सवादीहि, तथा आदितो गहणसिद्धिया । एवं तासु तासु उपपत्तीसु निब्बत्तसत्तानं येभुय्येन समप्पमाणट्ठितिकालं दस्सनानुस्सवेहि लभित्वा तं परमतं अज्झोसाय पवत्तितभवपत्थनावसेन आदितो परिच्छेदनियमो वेदितब्बो। यस्मा पन कम्मं तासु तासु उपपत्तीसु यथा तंतंउपपत्तिनियतवण्णादिनिब्बत्तने समत्थं, एवं नियतायुपरिच्छेदासु उपपत्तीसु परिच्छेदातिक्कमेन विपाकनिब्बत्तने समत्थं न होति, तस्मा वुत्तं “आयुप्पमाणेनेव चवन्तीति । यस्मा पन उपत्थम्भकसहायेहि अनुपालकप्पच्चयेहि उपादिन्नकक्खन्धानं पवत्तेतब्बाकारो अस्थतो परमायु, तस्स यथावुत्तपरिच्छेदानतिक्कमनतो सतिपि कम्मावसेसे ठानं न सम्भवति, तेन वुत्तं “अत्तनो पुञ्जबलेनेव ठातुं न सक्कोती"ति । कप्पं वाति असङ्ख्येय्यकप्पं वा तस्स उपटुं वा उपड्डकप्पतो ऊनमधिकं वाति विकप्पनत्थो वा-सद्दी ।
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(१.४१-४२)
एकच्चसस्सतवादवण्णना
४१. अनभिरतीति एकविहारेन अनभिरति । सा पन यस्मा अजेहि समागमिच्छा होति, तेन वुत्तं "अपरस्सापि सत्तस्स आगमनपत्थना"ति । पियवत्थुविरहेन पियवत्थुअलाभेन वा चित्तविघातो उक्कण्ठिता, सा अत्थतो दोमनस्सचित्तुप्पादो येवाति आह "पटिघसम्पयुत्ता"ति । दीघरत्तं झानरतिया रममानस्स वुत्तप्पकारं अनभिरतिनिमित्तं उप्पन्ना "मम''न्ति च “अहन्ति च गहणस्स कारणभूता तण्हादिट्ठियो इध परितस्सना। ता पन चित्तस्स पुरिमावत्थाय चलनं कम्पनन्ति आह "उब्बिज्जना फन्दना"ति। तेनेवाह "तण्हातस्सनापि दिद्वितस्सनापि वट्टती"ति | यं पन अत्थुद्धारे “अहो वत अञपि सत्ता इत्थत्तं आगच्छेय्युन्ति अयं तण्हातस्सना नामा"ति वुत्तं, तं दिट्टितस्सनाय विसुं उदाहरणं दस्सेन्तेन तण्हातस्सनंयेव ततो निद्धारेत्वा वुत्तं, न पन तत्थ दिद्वितस्सनाय अभावतोति दट्ठब् | तासतस्सना चित्तुत्रासो। भयानकन्ति भेरवारम्मणनिमित्तं बलवभयं । तेन सरीरस्स थद्धभावो छम्भितत्तं भयं संवेगन्ति एत्थ भयन्ति भङ्गानुपस्सनाय चिण्णन्ते सब्बसङ्घारतो भायनवसेन उप्पन्नं भयाणं । संवेगन्ति सहोत्तप्पजाणं, ओत्तप्पमेव वा। सन्तासन्ति आदीनवनिब्बिदानुपस्सनाहि सङ्खारेहि सन्तस्सनञाणं । सह ब्यायति पवत्तति, दोसं वा छादेतीति सहब्यो, सहायो, तस्स भावं सहब्यतं ।
४२. अभिभवित्वा ठितो इमे सत्तेति अधिप्पायो। यस्मा पन सो पासंसभावेन उत्तमभावेन च "ते सत्ते अभिभवित्वा ठितो"ति अत्तानं मञति, तस्मा वुत्तं "जेट्ठकोहमस्मी"ति । अञदत्यु दसोति दस्सने अन्तरायाभाववचनेन, जेय्यविसेसपरिग्गाहिकभावेन च अनावरणदस्सावितं पटिजानातीति आह "सब्बं पस्सामीति अत्थो"ति । भूतभव्यानन्ति अहेसुन्ति भूता, भवन्ति भविस्सन्तीति भब्या, अट्ठकथायं पन वत्तमानकालवसेनेव भब्य-सद्दस्स अत्थो दस्सितो । पठमचित्तक्खणेति पटिसन्धिचित्तक्खणे । किञ्चापि सो ब्रह्मा अनवद्वितदस्सनत्ता पुथुज्जनस्स पुरिमतरजातिपरिचितम्पि कम्मस्सकतञाणं विस्सज्जेत्वा विकुब्बनिद्धिवसेन चित्तुप्पत्तिमत्तपटिबद्धेन सत्तनिम्मानेन विपल्लट्ठो “अहं इस्सरो कत्ता निम्माता"तिआदिना इस्सरकुत्तदस्सनं पक्खन्दमानो अभिनिविसनवसेनेव पतिट्टितो, न पतिठ्ठापनवसेन "तस्स एवं होती"ति वुत्तत्ता, पतिट्ठापनक्कमेनेव पन तस्स सो अभिनिवेसो जातोति दस्सनत्थं "कारणतो साधेतुकामो"ति, "पटिलं कत्वा"ति च वुत्तं । तेनाह भगवा "तं किस्स हेतू'तिआदि । तत्थ मनोपणिधीति मनसा एव पत्थना, तथा चित्तप्पवत्तिमत्तमेवाति अत्थो, इत्थभावन्ति इदप्पकारतं । यस्मा पन इत्थन्ति ब्रह्मत्तभावो इधाधिप्पेतो, तस्मा "ब्रह्मभावन्ति अत्थो"ति वुत्तं । ननु च देवानं उपपत्तिसमनन्तरं "इमिस्सा नाम गतिया चवित्वा इमिना नाम
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गटीका
कम्मुना इधूपपन्ना "ति पच्चवेक्खणा होतीति ? सच्चं होति, सा पन पुरिमजातीसु कम्मस्सकतञ्ञणे सम्मदेव निविट्ठज्झासयानं । इमे पन सत्ता पुरिमासुपि जातीसु इस्सर कुत्तदस्सनवसेन विनिबन्धाभिनिवेसा अहेसुन्ति दट्ठब्बं । तेन वुत्तं "इमिना मयन्तिआदि ।
४३. ईसतीति ईसो, अभिभूति अत्थो । महा ईसो महेसो, सुप्पतिट्ठमहसताय पन परेहि ‘“महेसो”ति अक्खातब्बताय महेसक्खो, अतिसयेन महेसक्खो महेसक्खतरोति वचनत्थो दट्ठब्बो | यस्मा पन सो महेसक्खभावो आधिपतेय्यपरिवारसम्पत्तिया विञ्ञायति, तस्मा “ इस्सरियपरिवारवसेन महायसतरो" ति वृत्तं ।
( १.४३-४५)
४४. इधेव आगच्छतीति इमस्मिं मनुस्सलोके एव पटिसन्धिवसेन आगच्छति । यं अञ्ञतरो सत्तोति एत्थ यन्ति निपातमत्तं करणे वा पच्चत्तनिद्देसो, येन ठानेनाति अत्थो, किरियापरामसनं वा । इत्थतं आगच्छतीति एत्थ यदेतं इत्थत्तस्स आगमनं, एतं ठानं विज्जतीति अत्थो। एस नयो “पब्बजति, चेतोसमाधिं फुसति, पुब्बेनिवासं अनुस्सरती "ति एतेसुपि पदेसु । “ठानं खो पनेतं भिक्खवे विज्जति, यं अञ्ञतरो सत्तो 'ति इमहि पदं ‘“पब्बजती’तिआदीहि पदेहि पच्चेकं योजेतब्बन्ति ।
४५. खिड्डाय पदुस्सन्तीति खिड्डापदोसिनो, खिड्डापदोसिनो एव खिड्डापदोसिका, खिड्डापदोसो वा एतेसं अत्थीति खिडापदोसिका । अतिक्कन्तवेलं अतिवेलं, आहारूपभोगकालं अतिक्कमित्वाति अत्थो । मेथुनसम्पयोगेन उप्पज्जनकसुखं केळिहस्तसुखं रतिधम्मो रतिसभावो | आहारन्ति एत्थ को देवानं आहारी, का आहारवेलाति ? सब्बेसम्पि कामावचरदेवानं सुधा आहारो, सा हेट्ठिमेहि उपरिमानं पणीततमा होति, तं यथासकं दिवसवसेन दिवसे दिवसे भुञ्जन्ति । केचि पन " बिळारपदप्पमाणं सुधाहारं भुञ्जन्ति, सो जिव्हाय ठपितमत्तो याव केसग्गनखग्गा काय फरति, तेसंयेव दिवसवसेन सत्तदिवसे यापनसमत्थो च होती "ति वदन्ति । " निरन्तरं खादन्ता पिवन्ता "ति इदं परिकप्पनवसेन वृत्तं । कम्मतेजस बलवभावो उळारपुञ्ञनिब्बत्तत्ता, उळारगरुसिनिद्धसुधाहारजीरणतो च । करजकायस्स मन्दभावो मुदुसुखुमालभावतो । तेनेव हि भगवा इन्दसालगुहायं पकतिपथवियं सण्ठातुं असक्कोन्तं सक्कं देवराजानं “ ओळारिकं कायं अधिट्ठेही "ति आह । तेसन्ति मनुस्सानं । वत्थुन्ति करजकायं । केचीति अभयगिरिवासिनो ।
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(१.४७-५३)
अन्तानन्तवादवण्णना
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४७. मनेनाति इस्सापकतत्ता पदुद्वेन मनसा । उसूयावसेन मनसोव पदोसो मनोपदोसो, सो एतेसं अस्थि विनासहेतुभूतोति मनोपदोसिकाति एवं वा एत्थ अत्थो दट्ठब्बो । अकुद्धो रक्खतीति कुद्धस्स सो कोधो इतरस्मिं अकुज्झन्ते अनुपादानो एकवारमेव उप्पत्तिया अनासेवनो चावेतुं न सक्कोति उदकन्तं पत्वा अग्गि विय निब्बायति, तस्मा अकुद्धो तं चवनतो रक्खति, उभोसु पन कुद्धेसु भिय्यो भिय्यो अञमचम्हि परिवड्डनवसेन तिखिणसमुदाचारो निस्सयदहनरसो कोधो उप्पज्जमानो हदयवत्थु निदहन्तो अच्चन्तसुखुमालकरजकायं विनासेति, ततो सकलोपि अत्तभावो अन्तरधायति । तेनाह "उभोसु पना"तिआदि । तथा चाह भगवा “अञमचं पदुट्ठचित्ता किलन्तकाया...पे०... चवन्ती''ति। धम्मताति धम्मनियामो। सो च तेसं करजकायस्स मन्दताय, तथाउप्पज्जनककोधस्स च बलवताय ठानसो चवनं, तेसं रूपारूपधम्मानं सभावोति अधिप्पायो ।
४९. चक्खादीनं भेदं पस्सतीति विरोधिपच्चयसन्निपाते विकारापत्तिदस्सनतो, अन्ते च अदस्सनूपगमनतो विनासं पस्सति ओळारिकत्ता रूपधम्मभेदस्स। पच्चयं दत्वाति अनन्तरपच्चयादिवसेन पच्चयो हुत्वा | "बलवतर"न्ति चित्तस्स लहुतरं भेदं सन्धाय वुत्तं । तथा हि एकस्मिं रूपे धरन्तेयेव सोळस चित्तानि भिज्जन्ति । भेदं न पस्सतीति खणे खणे भिज्जन्तम्पि चित्तं परस्स अनन्तरपच्चयभावेनेव भिज्जतीति पुरिमचित्तस्स अभावं पटिच्छादेत्वा विय पच्छिमचित्तस्स उप्पत्तितो भावपक्खो बलवतरो पाकटो च होति, न
अभावपक्खोति चित्तस्स विनासं न पस्सति, अयञ्च अत्थो अलातचक्कदस्सनेन सुपाकटो विञआयति । यस्मा पन तक्कीवादी नानत्तनयस्स दूरतरताय एकत्तनयस्सपि मिच्छागहितत्ता “यदेविदं विज्ञाणं सब्बदापि एकरूपेन पवत्तति, अयमेव अत्ता निच्चो"तिआदिना अभिनिवेसं जनेति, तस्मा वुत्तं "सो तं अपस्सन्तो"तिआदि ।
अन्तानन्तवादवण्णना
५३. अन्तानन्तिकाति एत्थ अमति गच्छति एत्थ सभावो ओसानन्ति अन्तो, मरियादा । तप्पटिसेधेन अनन्तो, अन्तो च अनन्तो च अन्तानन्तो च नेवन्तानानन्तो च अन्तानन्ता सामञनिद्देसेन, एकसेसेन वा “नामरूपपच्चया सळायतन'"न्तिआदीसु (म० नि० ३.१७६; सं० नि० १.२.१; उदा० १) विय । कस्स पन अन्तानन्तोति ? लोकीयति संसारनिस्सरणस्थिकेहि दिट्ठिगतिकेहि, लोकीयन्ति वा एत्थ तेहि पुञापुञ्ज
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गटीका
(१.५३-५३)
तब्बिपाको चाति लोकोति सङ्ख्यं गतस्स अत्तनो । तेनाह भगवा “अन्तानन्तं लोकस्स पझपेन्तीति । को पन एसो अत्ताति? झानविसयभूतकसिणनिमित्तं । तत्थ हि अयं दिट्ठिगतिको लोकसञ्जी। तथा च वुत्तं "तं लोकोति गहेत्वा"ति । केचि पन “झानं तंसम्पयुत्तधम्मा च इध 'अत्ता, लोको'ति च गहिता"ति वदन्ति । अन्तानन्तसहचरितवादो अन्तानन्तो, यथा “कुन्ता पचरन्तीति अन्तानन्तसन्निस्सयो वा यथा “मञ्चा घोसन्ती''ति । सो एतेसं अत्थीति अन्तानन्तिका। ते पन यस्मा यथावुत्तनयेन अन्तानन्तो वादो दिट्ठि एतेसन्ति “अन्तानन्तवादा"ति वुच्चन्ति । तस्मा अट्ठकथायं “अन्तानन्तवादा''ति वत्वा “अन्तं वा''तिआदिना अत्थो विभत्तो ।
एत्थाह - युत्तं ताव पुरिमानं तिण्णं वादीनं अन्तत्तञ्च अनन्तत्तञ्च अन्तानन्तत्तञ्च आरब्भ पवत्तवादत्ता अन्तानन्तिकत्तं, पच्छिमस्स पन तदुभयपटिसेधनवसेन पवत्तवादत्ता कथ अन्तानन्तिकत्तन्ति ? तदुभयपटिसेधनवसेन पवत्तवादत्ता एव। यस्मा अन्तानन्तपटिसेधवादोपि अन्तानन्तविसयो एव तं आरब्भ पवत्तत्ता । एतदत्थंयेव हि सन्धाय अट्ठकथायं “आरब्भ पवत्तवादा''ति वुत्तं । अथ वा यथा ततियवादे देसभेदवसेन एकस्सेव अन्तवन्तता अनन्तता च सम्भवति, एवं तक्कीवादेपि कालभेदवसेन उभयसम्भवतो अञमञ्जपटिसेधेन उभय व वुच्चति । कथं ? अन्तवन्ततापटिसेधेन हि अनन्तता वुच्चति, अनन्ततापटिसेधेन च अन्तवन्तता, अन्तानन्तानञ्च न ततियवादभावो कालभेदस्स अधिप्पेतत्ता। इदं वुत्तं होति - यस्मा अयं लोकसञितो अत्ता अधिगतविसेसेहि महेसीहि अनन्तो कदाचि सक्खिदिट्ठोति अनुसुय्यति, तस्मा नेवन्तवा । यस्मा पन तेहियेव कदाचि अन्तवा सक्खिदिट्ठोति अनुसुय्यति, तस्मा न पन अनन्तोति । यथा च अनुस्सुतितक्कीवसेन, एवं जातिस्सरतक्की आदीनञ्च वसेन यथासम्भवं योजेतब्बं । अयहि तक्किको अवड्डितभावपुब्बकत्ता पटिभागनिमित्तानं वड्डितभावस्स वड्डितकालवसेन अप्पच्चक्खकारिताय अनुस्सवादिमत्ते ठत्वा "नेवन्तवा''ति पटिक्खिपति । अवड्डितकालवसेन पन “न पनानन्तो''ति, न पन अन्ततानन्ततानं अच्चन्तमभावेन यथा तं "नेवसञ्जिनासजी''ति । पुरिमवादत्तयपटिखेपो च अत्तना यथाधिप्पेतप्पकारविलक्खणताय तेसं, अवस्सञ्चेतं एवं विज्ञातब्बं, अञ्जथा विक्खेपपक्खयेव भजेय्य चतुत्थवादो। न हि अन्तताअनन्ततातदुभयविनिमुत्तो अत्तनो पकारो अस्थि, तक्कीवादी च युत्तिमग्गको, कालभेदवसेन च तदुभयं एकस्मिम्पि न न युज्जतीति ।
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(१.५४-६०-६१)
अमराविक्खेपवादवण्णना
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केचि पन यदि पनायं अत्ता अन्तवा सिया, दूरदेसे उपपज्जनानुस्सरणादि किच्चनिप्फत्ति न सिया । अथ अनन्तो, इध ठितस्स देवलोकनिरयादीसु सुखदुक्खानुभवनम्पि सिया। सचे पन अन्तवा च अनन्तो च, तदुभयदोससमायोगो। तस्मा “अन्तवा, अनन्तो''ति च अब्याकरणीयो अत्ताति एवं तक्कनवसेन चतुत्थवादप्पवत्तिं वण्णेन्ति । एवम्पि युत्तं ताव पच्छिमवादीद्वयस्स अन्तानन्तिकत्तं अन्तानन्तानं वसेन उभयविसयत्ता तेसं वादस्स । पुरिमवादीद्वयस्स पन कथं विसुं अन्तानन्तिकत्तन्ति ? उपचारवुत्तिया । समुदितेसु हि अन्तानन्तवादीसु पवत्तमानो अन्तानन्तिक-सद्दो तत्थ निरुळहताय पच्चेकम्पि अन्तानन्तिकवादीसु पवत्तति, यथा अरूपज्झानेसु पच्चेकं अट्ठविमोक्खपरियायो, यथा च लोके सत्तासयोति । अथ वा अभिनिवेसतो पुरिमकालप्पवत्तिवसेन अयं तत्थ वोहारो कतो। तेसहि दिह्रिगतिकानं तथारूपचेतोसमाधिसमधिगमतो पुब्बकालं “अन्तवा नु अयं लोको, अनन्तो नू''ति उभयाकारावलम्बिनो परिवितक्कस्स वसेन निरुळहो अन्तानन्तिकभावो विसेसलाभेन तत्थ उप्पन्नेपि एकंसग्गाहे पुरिमसिद्धरुळ्हिया वोहरीयतीति ।
५४-६०. वुत्तनयेनाति "तक्कयतीति तक्की''तिआदिना (दी० नि० अट्ठ० १.३४) सद्दतो, “चतुब्बिधो तक्की"तिआदिना (दी० नि० अट्ठ० १.३४) अत्थतो च सस्सतवादे वुत्तविधिना । दिपुब्बानुसारेनाति दस्सनभूतेन विज्ञाणेन उपलद्धपुब्बस्स अन्तवन्तादिनो अनुस्सरणेन । एवञ्च कत्वा अनुस्सुतितक्कीसुद्धतक्कीनम्पि इध सङ्गहो सिद्धो होति । अथ वा दिट्ठग्गहणेनेव “नच्चगीतवादितविसूकदस्सना"तिआदीसु (दी० नि० १०, १९४) विय सुतादीनम्पि गहितता वेदितब्बा । “अन्तवा"तिआदिना इच्छितस्स अत्तनो सब्बदा भावपरामसनवसेनेव इमेसं वादानं पवत्तनतो सस्सतदिट्ठिसङ्गहो दट्टब्बो । तथा हि वक्खति "सेसा सस्सतदिवियो''ति (दी० नि० अट्ठ० ९७-९८)।
__ अमराविक्खेपवादवण्णना
६१. न मरतीति न उच्छिज्जति । “एवम्पि मे नो"तिआदिना विविधो नानप्पकारो खेपो परेन परवादीनं खिपनं विक्खेपो। अमराय दिट्ठिया वाचाय च विक्खिपन्तीति वा अमराविक्खेपिनो । अमराविक्खेपिनो एव अमरविक्खेपिका। इतो चितो च सन्धावति एकस्मिं सभावे अनवट्ठानतो। अमरा विय विक्खिपन्तीति वा पुरिमनयेनेव सद्दत्थो दट्टब्बो।
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गटीका
(१.६२-६४)
६२. विक्खेपवादिनो उत्तरिमनुस्सधम्मे, अकुसलधम्मपि सभावभेदवसेनेव आतुं जाणबलं नत्थीति कुसलाकुसलपदानं कुसलाकुसलकम्मपथवसेनेव अत्थो । पठमनयवसेनेव अपरियन्तविक्खेपताय अमराविक्खेपं विभावेतुं "एवन्तिपि मे नोति अनियमितविक्खेपो"ति वुत्तं । तत्थ अनियमितविक्खेपोति सस्सतादीसु एकस्मिम्पि पकारे अठ्ठत्वा विक्खेपकरणं, परवादिना यस्मिं किस्मिञ्चि पुच्छिते पकारे तस्स पटिक्खेपोति अत्थो । दुतियनयवसेन अमरासदिसाय अमराय विक्खेपं दस्सेतुं "इदं कुसलन्ति वा पुट्ठो"तिआदिमाह । अथ वा “एवन्तिपि मे नो''तिआदिना अनियमतोव सस्सतेकच्चसस्सतुच्छेदतक्कीवादानं पटिसेधनेन तं तं वादं पटिक्खिपतेव अपरियन्तविक्खेपवादत्ता अमराविक्खेपिनो। अत्तना पन अनवट्टितवादत्ता न किस्मिञ्चि पक्खे अवतिद्वतीति आह "सयं पन...पे०... व्याकरोती"ति । इदानि कुसलादीनं अव्याकरणेन तमेव अनवट्ठानं विभावेति “इदं कुसलन्ति वा पुट्ठो''तिआदिना। तेनेवाह "एकस्मिम्पि पक्खे न तिकृती"ति ।
६३. कुसलाकुसलं यथाभूतं अप्पजानन्तोपि येसमहं समयेन कुसलमेव "कुसल"न्ति, अकुसलमेव च “अकुसल''न्ति ब्याकरेय्यं, तेसु तथा ब्याकरणहेतु "अहो वत रे पण्डितो"ति सक्कारसम्मानं करोन्तेसु मम छन्दो वा रागो वा अस्साति एवम्पेत्थ अत्थो सम्भवति । दोसो वा पटिघो वाति एत्थ वुत्तविपरियायेन योजेतब्बं । अट्ठकथायं पन अत्तनो पण्डितभावविसयानं रागादीनं वसेन योजना कता। "छन्दरागद्वयं उपादान"न्ति अभिधम्मनयेन वुत्तं । अभिधम्मे हि तण्हादिट्ठियोव "उपादान''न्ति आगता, सुत्तन्ते पन दोसोपि “उपादान''न्ति वुत्तो “कोधुपादानविनिबन्धा विघातं आपज्जन्ती''तिआदीसु । तेन वुत्तं "उभयम्पि वा दळ्हग्गहणवसेन उपादान"न्ति । दव्हग्गहणं अमुञ्चनं । पटिघोपि हि उपनाहादिवसेन पवत्तो आरम्मणं न मुञ्चति । विहननं हिंसनं विबाधनं । रागोपि हि परिळाहवसेन सारद्धवुत्तिताय निस्सयं विबाधतीति । विनासेतुकामताय आरम्मणं गण्हातीति सम्बन्धो।
६४. पण्डिच्चेनाति पञ्चाय । येन हि धम्मेन युत्तो “पण्डितो"ति वुच्चति, सो धम्मो पण्डिच्चं, तेन सुतचिन्तामयं पनं दस्सेति, न पाकतिककम्मनिब्बत्तं साभाविकपकं । कत-सद्दस्स किरियासामञवाचकत्ता “कतविज्जो''तिआदीसु विय कत-सद्दो आणानुयुत्ततं वदतीति आह "विज्ञातपरप्पवादा''ति । सत्तधा भिन्नस्स वालग्गस्स अंसुकोटिवेधको "वालवेधी"ति अधिप्पेतो ।
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(१.६५-६-६५-६)
अमराविक्खेपवादवण्णना
६५-६. एत्थ च किञ्चापि पुरिमानम्पि तिण्णं कुसलादिधम्मसभावानवबोधतो अत्थेव मन्दभावो, तेसं पन अत्तनो कुसलादिधम्मानवबोधस्स अवबोधविसेसो अत्थि, तदभावा पच्छिमोयेव मन्दमोमूहभावेन वुत्तो । ननु च पच्छिमस्सापि “अस्थि परोलोको 'ति इति चे मे अस्स, ‘अत्थि परीलोको ति इति ते नं ब्याकरेय्यं, एवन्तिपि मे नो 'तिआदि (दी० नि० १.६५) वचनतो अत्तनो धम्मानवबोधस्स अवबोधो अत्थियेवाति ? किञ्चापि अस्थि, न तस्स पुरिमानं विय अपरिञातधम्मब्याकरणनिबन्धनमुसावादादिभयपरिजिगुच्छनकारो अत्थि, अथ खो महामूळहोयेव । अथ वा " एवन्तिपि मे नो "तिआदिना पुच्छाय विक्खेपकरणत्थं “अत्थि परोलोको 'ति इति चे मं पुच्छसी "ति पुच्छाठपनमेव तेन दस्सीयति, न अत्तनो धम्मानवबोधोति अयमेव विसेसेन “ मन्दो चेव मोमूहो चा "ति वृत्तो । तेनेव हि तथावादिनं सञ्जयं बेलट्ठपुत्तं आरम्भ " अयं वा इमेसं समणब्राह्मणानं सब्बमन्दो सब्बमूळ्हो ंति (दी० नि० १.१८१) वुत्तं । तत्थ " अस्थि परोलोको "ति सस्सतदस्सनवसेन सम्मादिट्टिवसेन वा पुच्छा । “नत्थि परोलोको "ति नत्थिकदस्सनवसेन सम्मादस्सनवसेन वा पुच्छा । " अत्थि च नत्थि च परोलोको 'ति उच्छेददस्सनवसेन सम्मादिट्ठिवसेन एव वा "नेव पुच्छा । अत्थि न नत्थि परोलोको "ति वृत्तप्पकारत्तयपटिक्खेपे सति पकारन्तरस्स असम्भवतो अत्थितानत्थिताहि नवत्तब्बाकारो परोलोकोति विक्खेपञ्ञेव पुरेक्खारेन सम्मादिट्ठिवसेन वा पुच्छा । सेसचतुक्कत्तयेपि वृत्तनयानुसारेन अत्थो वेदितब्बो । पुञ्ञसङ्घारत्तिको विय हि कायसङ्घारत्तिकेन पुरिमचतुक्कसङ्गहितो एव अत्थो । सेसचतुक्कत्तयेन अत्तपरामासपुञ्ञादि फलताचीदनानयेन सङ्गहितोति ।
अमराविक्खेपिको सस्सतादीनं अत्तनो अरुच्चनताय सब्बत्थ “ एवन्तिपि मे नोतिआदिना विक्खेपञ्ञेव करोति । तत्थ " एवन्तिपि मे नो" तिआदि तत्थ तत्थ पुच्छिताकारपटिसेधनवसेन विक्खिपनाकारदस्सनं । ननु च विक्खेपवादिनो विक्खेपपक्खस्स अनुजाननं विक्खेपपक्खे अवट्ठानं युत्तरूपन्ति ? न तत्थापि तस्स सम्मूळहत्ता, पटिक्खेपवसेनेव च विक्खेपवादस्स पवत्तनतो । तथा हि सञ्चयो बेलट्ठपुत्तो रञ अजातसत्तुना सन्दिट्ठिकं सामञ्ञफलं पुट्ठो परलोकत्तिकादीनं पटिसेधनमुखेन विक्खेपं ब्याकासि |
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एत्थाह ननु चायं सब्बोपि अमराविक्खेपिको कुसलादयो धम्मे, परलोकत्तिकादीनि च यथाभूतं अनवबुज्झमानो तत्थ तत्थ पञ्हें पुट्ठो पुच्छाय विक्खेपनमत्तं आपज्जति, तस्स
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गटीका
(१.६७-६८-७३)
कथं दिविगतिकभावो। न हि अवत्तुकामस्स विय पुच्छितमत्थमजानन्तस्स विक्खेपकरणमत्तेन दिट्ठिगतिकता युत्ताति? वुच्चते- न हेव खो पुच्छाय विक्खेपकरणमत्तेन तस्स दिट्ठिगतिकता, अथ खो मिच्छाभिनिवेसवसेन | सस्सताभिनिवेसेन मिच्छाभिनिविट्ठोयेव हि पुग्गलो मन्दबुद्धिताय कुसलादिधम्मे परलोकत्तिकादीनि च याथावतो अप्पटिपज्जमानो अत्तना अविज्ञातस्स अत्थस्स परं विज्ञापेतुं असक्कुणेय्यताय मुसावादादिभयेन च विक्खेपं आपज्जतीति । तथा हि वक्खति “यासं सत्तेव उच्छेददिट्ठियो, सेसा सस्सतदिट्ठियो"ति (दी० नि० अट्ठ० १.९७-९८) अथ वा पुञपापानं तब्बिपाकानञ्च अनवबोधेन असद्दहनेन च तब्बिसयाय पुच्छाय विक्खेपकरणंयेव सुन्दरन्ति खन्तिं रुचिं उप्पादेत्वा अभिनिविसन्तस्स उप्पन्ना विसुंयेवेसा एका दिट्ठि सत्तभङ्गदिट्ठि वियाति दट्टब्बं । तथा च वुत्तं “परियन्तरहिता दिट्ठिगतिकस्स दिट्टि चेव वाचा चा"ति (दी० नि० अट्ठ० १.६१)। कथं पनस्सा सस्सतदिह्रिसङ्गहो ? उच्छेदवसेन अनभिनिवेसतो । नत्थि कोचि धम्मानं यथाभूतवेदी विवादबहुलत्ता लोकस्स, "एवमेव'"न्ति पन सद्दन्तरेन “धम्मनिज्झानना अनादिकालिका लोके"ति गाहवसेन सस्सतलेसोपेत्थ लब्भतियेव ।
अधिच्चसमुप्पन्नवादवण्णना ६७. अधिच्च यदिच्छकं यं किञ्चि कारणं, कस्सचि वुद्धिपुब्बं वा विना समुप्पन्नोति अत्तलोकसञ्जितानं खन्धानं अधिच्चुप्पत्तिआकारारम्मणं दस्सनं तदाकारसन्निस्सयेन पवत्तितो, तदाकारसहचरितताय च “अधिच्चसमुप्पन्न''न्ति वुच्चति यथा "मञ्चा घोसन्ति, कुन्ता पचरन्ती''ति च इममत्थं दस्सेन्तो आह “अधिच्चसमुप्पन्नो अत्ता च लोको चाति दस्सनं अधिच्चसमुष्पन्न"न्ति ।
६८-७३. देसनासीसन्ति देसनाय जेट्टकभावेन गहणं, तेन सञ्जयेव धुरं कत्वा भगवता अयं देसना कता, न पन तत्थ अजेसं अरूपधम्मानं अत्थिभावतोति दस्सेति । तेनेवाह “अचित्तुप्पादा"तिआदि | भगवा हि यथा लोकुत्तरधम्मं देसेन्तो समाधिं पञ्चं वा धुरं करोति, एवं लोकियधम्म देसेन्तो चित्तं सजं वा धुरं करोति । तत्थ “यस्मिं समये लोकुत्तरं झानं भावेति (ध० स० २७७) पञ्चङ्गिको सम्मासमाधि [दी० नि० ३.३५५ (ख)] पञ्चत्राणिको सम्मासमाधि, [दी० नि० ३.३५५ (ज); विभं० २.८०४] पाय चस्स दिस्वा आसवा परिक्खीणा होन्ती"ति (म० नि० १.२७१) तथा “यस्मिं समये
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(१.६८-७३-६८-७३)
अधिच्चसमुप्पन्नवादवण्णना
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कामावचरं कुसलं चित्तं उप्पन्नं होति, (ध० स० १) किंचित्तो त्वं भिक्खु (पारा० १४६, १८०) मनोपुब्बङ्गमा धम्मा, (ध० प० १, २; नेत्ति० ९०; पेटको० ८३) सन्ति भिक्खवे सत्ता नानत्तकाया नानत्तसञिनो, (दी० नि० ३.३३२, ३४२, ३५७; अ० नि० ३.९.२४; चूळनि० ८३) न नेवसञ्जानासायतन"न्तिआदीनि सुत्तानि (दी० नि० ३.३५८) एतस्स अत्थस्स साधकानि दट्ठब्बानि । तित्थायतनेति अञतित्थियसमये । तित्थिया हि उपपत्तिविसेसे विमुत्तिसचिनो, सञ्जाविरागाविरागेसु आदीनवानिसंसदस्सिनो वा हुत्वा असञसमापत्तिं निब्बत्तेत्वा अक्खणभूमियं उप्पज्जन्ति, न सासनिका । वायोकसिणे परिकम्मं कत्वाति वायोकसिणे पठमादीनि तीणि झानानि निब्बत्तेत्वा ततियज्झाने चिण्णवसी हुत्वा ततो वुट्ठाय चतुत्थज्झानाधिगमाय परिकम्मं कत्वा । तेनेवाह "चतुत्थज्झानं निब्बत्तेत्वा"ति ।।
कस्मा पनेत्थ वायोकसिणेयेव परिकम्मं वुत्तन्ति ? वुच्चते - यथेव हि रूपपटिभागभूतेसु कसिणविसेसेसु रूपविभावनेन रूपविरागभावनासङ्घातो अरूपसमापत्तिविसेसो सच्छिकरीयति, एवं अपरिब्यत्तविग्गहताय अरूपपटिभागभूते कसिणविसेसे अरूपविभावनेन अरूपविरागभावनासङ्घातो रूपसमापत्तिविसेसो अधिगमीयतीति एत्थ “सञा रोगो सञा गण्डो''तिआदिना (म० नि० ३.२४) “धि चित्तं, धिब्बते तं चित्त"न्तिआदिना च नयेन अरूपप्पवत्तिया आदीनवदस्सनेन, तदभावे च सन्तपणीतभावसन्निट्ठानेन रूपसमापत्तिया अभिसङ्घरणं, रूपविरागभावना पन सद्धिं उपचारेन अरूपसमापत्तियो, तत्थापि विसेसेन पठमारुप्पज्झानं । यदि एवं “परिच्छिन्नाकासकसिणेपी"ति वत्तब्बं । तस्सापि हि अरूपपटिभागता लब्भतीति ? इच्छितमेवेतं केसञ्चि अवचनं पनेत्थ पुब्बाचरियेहि अग्गहितभावेन । यथा हि रूपविरागभावना विरज्जनीयधम्मभावमत्तेन परिनिप्फन्ना, विरज्जनीयधम्मपटिभागभूते च विसयविसेसे पातुभवति, एवं अरूपविरागभावनापीति वुच्चमाने न कोचि विरोधो, तिथियेहेव पन तस्सा समापत्तिया पटिपज्जितब्बताय, तेसञ्च विसयपथेसु'पनिबन्धनस्सेव तस्स झानस्स पटिपत्तितो दिट्ठिवन्तेहि पुब्बाचरियेहि चतुत्थेयेव भूतकसिणे अरूपविरागभावनापरिकम्मं वुत्तन्ति दट्ठब्बं । किञ्च वण्णकसिणेसु विय पुरिमभूतकसिणत्तयेपि वण्णपटिच्छायाव पण्णत्ति आरम्मणं झानस्स लोकवोहारानुरोधेनेव पवत्तितो। एवञ्च कत्वा विसुद्धिमग्गे (विसुद्धि० १.५७) पथवीकसिणस्स आदासचन्दमण्डलूपमावचनञ्च समत्थितं होति, चतुत्थं पन भूतकसिणं भूतप्पटिच्छायमेव
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गटीका
झानस्स गोचरभावं गच्छतीति तस्सेव अरूपपटिभागता युत्ताति वायोकसिणेयेव परिकम्मं तन्ति वेदितं ।
इवाति पञ्चवोकारभवेयेव । तत्थाति असञ्ञभवे । यदि रूपक्खन्धमत्तमेव असञ्ञभवे पातुभवति, कथमरूपसन्निस्सयेन विना तत्थ रूपं पवत्तति, कथं पन रूपसन्निस्सयेन विना अरूपधातुयं अरूपं पवत्तति, इदम्पि तेन समानजातियमेव । कस्मा ? इधेव अदस्सनतो। यदि एवं कबळीकाराहारेन विना रूपधातुयं रूपेन न पवत्तितब्बं, किं कारणं ? इधेव अदस्सनतो । अपि च यथा यस्स चित्तसन्तानस्स निब्बत्तिकारणं रूपे अविगततण्हं, तस्स सह रूपेन सम्भवतो रूपं निस्साय पवत्ति, यस्स पन निब्बत्तिकारणं रूपे विगततण्हं, तस्स विना रूपेन रूपनिरपेक्खताय कारणस्स एवं यस्स रूपप्पबन्धस्स निब्बत्तिकारणं विगततण्हं अरूपे, तस्स विना अरूपेन पवत्ति होतीति असञ्ञभवे रूपक्खन्धमत्तमेव निब्बत्तति । कथं पन तत्थ केवलो रूपप्पबन्धो पच्चुप्पन्नपच्चयरहितो चिरकालं पवत्ततीति पच्चेतब्बं, कित्तकं वा कालं पवत्ततीति चोदनं मनसि कत्वा आह " यथा नाम जियावेगुक्खित्तो सरो"तिआदि, तेन न केवलमागमोयेव अयमेत्थ युतीति दस्सेति । तत्तकमेव कालन्ति उक्कंसतो पञ्च महाकप्पसतानिपि तिट्ठन्ति असञ्ञसत्ता । झानवेगेति असञ्ञसमापत्तिपरिक्खते कम्मवेगे । अन्तरधायतीति पच्चयनिरोधेन निरुज्झति नप्पवत्तति ।
(१.६८-७३ - ६८-७३)
इति कामभवे । कथं पन अनेककप्पसतसमतिक्कमेन चिरनिरुद्धतो विञ्ञाणतो इध विणं समुपज्जति । न हि निरुद्धे चक्खुम्हि चक्खुविञ्ञणमुप्पज्जमानं दिट्ठन्ति ? नयिदमेकन्ततो दट्ठब्बं । चिरनिरुद्धम्पि हि चित्तं समानजातिकस्स अन्तरानुप्पज्जनतो अनन्तरपच्चयमत्तं होतियेव न बीजं, बीजं पन कम्मं । तस्मा कम्मतो बीजभूततो आरम्मणादीहि पच्चयेहि असञ्ञभवतो चुतानं कामधातुया उपपत्तिविञ्ञणं होतियेव । तेनाह “इध पटिसन्धिसञ्ञ उप्पज्जतीति । एत्थ च यथा नाम उतुनियामेन पुप्फग्गहणे नियतकालानं रुक्खानं वेखे दिने वेखबलेन न यथा नियामता होति पुप्फग्गहणस्स, एवमेव पञ्चवोकारभवे अविप्पयोगेन वत्तमानेसु रूपारूपधम्मेसु रूपारूपविरागभावनावेखे दिने तस्स समापत्तिवेखबलस्स अनुरूपतो अरूपभवे असञ्ञाभवे च यथाक्कमं रूपरहिता अरूपरहिता च खन्धानं पवत्ति होतीति वेदितब्बं । ननु एत्थ जातिसतसहस्सदससंवट्टादीनं मत्थके, अब्भन्तरतो वा पवत्ताय असनूपवत्तिया वसेन लाभीअधिच्चसमुप्पन्निकवादो लाभीसस्सतवादो विय अनेकभेदो सम्भवतीति ? सच्चं सम्भवति, अनन्तरत्ता पन
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(१.६८-७३-६८-७३)
अधिच्चसमुप्पन्नवादवण्णना
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आपन्नाय असञ्जूपपत्तिया वसेन लाभीअधिच्चसमुप्पन्निकवादो नयदस्सनवसेन एकोव दस्सितोति दट्ठब्बं । अथ वा सस्सतदिविसङ्गहतो अधिच्चसमुप्पन्निकवादस्स सस्सतवादे आगतो सब्बो देसनानयो यथासम्भवं अधिच्चसमुप्पन्निकवादेपि गहेतब्बोति इमस्स विसेसस्स दस्सनत्थं भगवता लाभीअधिच्चसमुप्पन्निकवादो अविभजित्वा देसितो। अवस्सञ्च सस्सतदिह्रिसङ्गहो अधिच्चसमुप्पन्निकवादस्स इच्छितब्बो संकिलेसपक्खे सत्तानं अज्झासयस्स दुविधत्ता। तथा हि वुत्तं अट्ठकथायं “सस्सतुच्छेददिट्टि चा"ति । तथा च वक्खति “यासं सत्तेव उच्छेददिट्ठियो, सेसा सस्सतदिट्ठियो"ति (दी० नि० अट्ट० १.९७-९८)।
ननु च अधिच्चसमुप्पन्निकवादस्स सस्सतदिह्रिसङ्गहो न युत्तो। “अहहि पुब्बे नाहोसि"न्तिआदिवसेन पवत्तनतो, अपुब्बसत्तपातुभावग्गाहत्ता, अत्तनो लोकस्स च सदाभावगाहिनी च सस्सतदिट्टि "अत्थित्वेव सस्सतिसम"न्ति पवत्तनतो ? नो न युत्तो अनागते कोटिअदस्सनतो। यदिपि हि अयं वादो “सोम्हि एतरहि अहुत्वा सन्तताय परिणतो"ति (दी० नि० १.६८) अत्तनो लोकस्स च अतीतकोटिपरामसनवसेन पवत्तो, तथापि वत्तमानकालतो पट्टाय न तेसं कत्थचि अनागते परियन्तं पस्सति, विसेसेन च पच्चुप्पन्नानागतकालेसु परियन्तादस्सनपभावितो सस्सतवादो । यथाह “सस्सतिसमं तथेव ठस्सती"ति । यदि एवं इमस्स वादस्स, सस्सतवादादीनञ्च पुब्बन्तकप्पिकेसु सङ्गहो न युत्तो अनागतकालपरामसनवसेन पवत्तत्ताति ? न, समुदागमस्स अतीतकोट्ठासिकत्ता। तथा हि नेसं समुप्पत्ति अतीतंसपुब्बेनिवाससाणेहि, तप्पटिरूपकानुस्सवादिप्पभाविततक्कनेहि च सङ्गहिताति, तथा चेव संवण्णितं । अथ वा सब्बत्थ अप्पटिहतत्राणेन वादिवरेन धम्मस्सामिना निरवसेसतो अगतिञ्च गतिञ्च यथाभूतं सयं अभिजा सच्छिकत्वा पवेदिता एता दिट्ठियो, तस्मा यावतिका दिट्ठियो भगवता देसिता, यथा च देसिता, तथा तथाव सन्निट्ठानतो सम्पटिच्छितब्बा, न एत्थ युत्तिविचारणा कातब्बा बुद्धविसयत्ता । अचिन्तेय्यो हि बुद्धविसयोति ।
दुतियभाणवारवण्णना निहिता ।
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गटीका
(१.७४-७६-७७)
अपरन्तकप्पिकवादवण्णना ___७४. “अपरन्ते आणं, अपरन्तानुदिछिनो"तिआदीसु विय अपर-सद्दो इध अनागतकालवाचकोति आह “अनागतकोट्टाससङ्घात"न्ति । अपरन्तं कप्पेत्वातिआदीसु "पुब्बन्तं कप्पेत्वा''तिआदीसु वुत्तनयेन अत्थो वेदितब्बो । विसेसमत्तमेव वक्खाम ।
सञ्जीवादवण्णना ७५. उद्धमाघातनाति पवत्तो वादो उद्धमाघातनो, सो एतेसं अत्थीति उद्धमाघातनिका। यस्मा पन ते दिविगतिका "उद्धं मरणा अत्ता निधिबकारो''ति वदन्ति, तस्मा "उद्धमाघातना अत्तानं वदन्तीति उद्धमाघातनिका"ति वुत्तं । सञ्जीवादो एतेसं अत्थीति सञ्जीवादा “बुद्धं अस्स अत्थीति बुद्धो"ति यथा । अथ वा सञ्जीति पवत्तो वादो सञी सहचरणनयेन, सञी वादो एतेसन्ति सञ्जीवादा।
__ ७६-७७. रूपी अत्ताति एत्थ ननु रूपविनिमुत्तेन अत्तना भवितब् सञ्जाय विय रूपस्सपि अत्तनियत्ता । न हि “सञ्जी अत्ता"ति एत्थ सञ्जा अत्ता । तेनेव हि "तत्थ पवत्तसञञ्चस्स सज्ञाति गहेत्वा"ति वुत्तं । एवं सति कस्मा कसिणरूपं “अत्ता"ति गहेत्वा वुत्तन्ति ? न खो पनेतं एवं दट्ठब्बं “रूपं अस्स अत्थीति रूपी"ति, अथ खो "रुप्पनसीलो रूपी"ति। रुप्पनञ्चेत्थ रूपसरिक्खताय कसिणरूपस्स वड़ितावडितकालवसेन विसेसापत्ति, सा च “नत्थी'ति न सक्का वत्तुं परित्तविपुलतादिविसेससब्भावतो । यदि एवं इमस्स वादस्स सस्सतदिट्रिसङ्गहो न यज्जतीति ? नो न यज्जति कायभेदतो उन्हें अत्तनो निब्बिकारताय तेन अधिप्पेतत्ता । तथा हि वत्तं "अरोगो परं मरणा"ति । अथ वा "रूपं अस्स अत्थीति रूपी"ति वुच्चमानेपि न दोसो। कप्पनासिद्धेनपि हि भेदेन अभेदस्सापि निद्देसदस्सनतो. यथा "सिलापत्तकस्स सरीर''न्ति । रुप्पनं वा रूपसभावो रूपं, तं एतस्स अस्थीति रूपी, अत्ता "रूपिनो धम्मा"तिआदीस (ध० स० दकमातिका ११) विय। एवञ्च कत्वा रूपसभावत्ता अत्तनो "रूपी अत्ता"ति वचनं जायागतमेवाति "कसिणरूपं 'अत्ता'ति गहेत्वा"ति वुत्तं । नियतवादिताय कम्मफलपटिक्खेपतो नत्थि आजीवकेसु झानसमापत्तिलाभोति आह “आजीवकादयो विय तक्कमत्तेनेव वा रूपी अत्ता"ति । तथा हि कण्हाभिजातिआदीसु छळाभिजातीसु अञतरं अत्तानं एकच्चे आजीवका पटिजानन्ति । नत्थि एतस्स रोगो भङ्गोति अरोगोति अरोग-सदस्स
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(१.७६-७७-७६-७७)
सञ्जीवादवण्णना
निच्चपरियायता वेदितब्बा, रोगरहिततासीसेन वा निधिबकारताय निच्चतं पटिजानाति दिट्ठिगतिकोति आह “अरोगोति निच्चो"ति ।
कसिणुग्घाटिमाकासपठमारुप्पविञआणनस्थिभावआकिञ्चचायतनानि अरूपसमापत्तिनिमित्तं निम्बपण्णे तित्तकरसो विय सरीरपरिमाणो अरूपी अत्ता तत्थ तिकृतीति निगण्ठाति आह "निगण्ठादयो विया"ति । मिस्सकगाहवसेनाति रूपारूपसमापत्तीनं निमित्तानि एकज्झं कत्वा "एको अत्ता''ति, तत्थ पवत्तसञञ्चस्स “सञ्जा''ति गहणवसेन । अयहि दिट्ठिगतिको रूपारूपसमापत्तिलाभिताय तन्निमित्तं रूपभावेन अरूपभावेन च अत्ता उपतिद्वति, तस्मा “रूपी च अरूपी चा"ति अभिनिवेसं जनेसि अज्झत्तवादिनो विय, तक्कमत्तेनेव वा रूपारूपधम्मानं मिस्सकग्गहणवसेन “रूपी अरूपी च अत्ता होती"ति ।
तक्कगाहेनेवाति सङ्खारावसेससुखुमभावप्पत्तधम्मा विय अच्चन्तसुखुमभावप्पत्तिया सकिच्चसाधनासमत्थताय थम्भकुट्टहत्थपादादिसङ्घातो विय नेव रूपी, रूपसभावानतिवत्तनतो
अरूपीति एवं पवत्ततक्कगाहेन । अथ वा अन्तानन्तिकचतक्कवादे विय अञमञपटिक्खेपवसेन अत्थो वेदितब्बो। केवलं पन तत्थ देसकालभेदवसेन ततियचतुत्थवादा दस्सिता, इध कालवत्थुभेदवसेनाति अयमेव विसेसोति । कालभेदवसेन चेत्थ ततियवादस्स पवत्ति रूपारूपनिमित्तानं सह अनुपट्ठानतो। चतुत्थवादस्स पन वत्थुभेदवसेन पवत्ति रूपारूपधम्मानं समूहतो “एको अत्ता''ति तक्कनवसेनाति तत्थ वुत्तनयानुसारेन वेदितब्बं ।
दुतियचतुक्के यं वत्तबं, तं “अमति गच्छति एत्थ भावो ओसान''न्तिआदिना अन्तानन्तिकवादे वुत्तनयेन वेदितब्बं ।
— यदिपि अट्ठसमापत्तिलाभिनो दिट्ठिगतिकस्स वसेन समापत्तिभेदेन सञ्जाभेदसम्भवतो "नानत्तसञ्जी अत्ता''ति अयम्पि वादो समापन्नकवसेन लब्भति । तथापि समापत्तियं एकरूपेनेव सजाय उपदानतो समापन्नकवसेन "एकत्तसञ्जी"ति आह। तेनेवेत्थ समापन्नकग्गहणं कतं । एकसमापत्तिलाभिनो एव वा वसेन अत्थो वेदितब्बो । समापत्तिभेदेन सञ्जाभेदसम्भवेपि बहिद्धा पुथुत्तारम्मणे सञानानत्तेन ओळारिकेन नानत्तसञ्जितं दस्सेतुं “असमापन्नकवसेन नानत्तसञ्जी"ति वुत्तं । “परित्तकसिणवसेन परित्तसञ्जी"ति इमिना सतिपि साविनिमुत्ते धम्मे “सञ्जायेव अत्ता"ति वदतीति
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गटीका
(१.७८-८३-७८-८३)
दस्सितं होति । कसिणग्गहणञ्चेत्थ साय विसयदस्सनं, एवं विपुलकसिणवसेनाति एत्थापि अत्थो वेदितब्बो। एवञ्च कत्वा अन्तानन्तिकवादे, इध च अन्तानन्तिकचतुक्के पठमदुतियवादेहि इमेसं द्विन्नं वादानं विसेसो सिद्धो होति, अञथा वुत्तप्पकारेसु वादेसु पुब्बन्तापरन्तकप्पनभेदेन सतिपि केहिचि विसेसे केहिचि नत्थि येवाति । अथ वा "अङ्गुट्टप्पमाणो अत्ता, यवप्पमाणो, अणुमत्तो वा अत्ता"ति आदिदस्सनवसेन परित्तो सञी चाति परित्तसञ्जी, कपिलकणादादयो विय अत्तनो सब्बगतभावपटिजाननवसेन अप्पमाणो सञी चाति अप्पमाणसञीति एवम्पेत्थ अत्थो दट्ठब्बो ।
दिब्बचक्खुपरिभण्डताय यथाकम्मूपगाणस्स दिब्बचक्खुपभावजनितेन यथाकम्मूपगाणेन दिस्समानापि सत्तानं सुखादिसमङ्गिता दिब्बचक्खुनाव दिट्ठा होतीति आह "दिब्बेन चक्खुना"तिआदि । ननु च “एकन्तसुखी अत्ता"तिआदिवादानं अपरन्तदिट्ठिभावतो "निब्बत्तमानं दिस्वा''ति वचनं अनुपन्नन्ति ? नानुपपन्नं, अनागतस्स एकन्तसुखिभावादिकस्स पकप्पनं पच्चुप्पन्नाय निब्बत्तिया दस्सनेन अधिप्पेतन्ति । तेनेवाह "निब्बत्तमानं दिस्वा ‘एकन्तसुखी'ति गण्हाती"ति । एत्थ च तसं तस्सं भूमियं बहुलं सुखादिसहितधम्मप्पवत्तिदस्सनेन तेसं “एकन्तसुखी''ति गाहो दट्ठब्बो। अथ वा हत्थिदस्सकअन्धा विय दिट्टिगतिका यं यदेव पस्सन्ति, तं तदेव अभिनिविस्स वोहरन्तीति न एत्थ युत्ति मग्गितब्बा।
असञी नेवसञीनासञ्जीवादवण्णना
७८-८३. असञ्जीवादे असञभवे निब्बत्तसत्तवसेन पठमवादो, “सधे अत्ततो समनुपस्सती"ति एत्थ वुत्तनयेन सख्येव “अत्ता"ति गहेत्वा तस्स किञ्चनभावेन ठिताय अञाय सञाय अभावतो “असञ्जी"ति पवत्तो दुतियवादो, तथा सजाय सह रूपधम्मे, सब्बे एव वा रूपारूपधम्मे “अत्ता"ति गहेत्वा पवत्तो ततियवादो, तक्कगाहवसेनेव चतुत्थवादो पवत्तो। तस्स पुब्बे वुत्तनयेनेव अत्थो वेदितब्बो । दुतियचतुक्केपि कसिणरूपस्स असञ्जाननसभावताय असञ्जीति कत्वा अन्तानन्तिकवादे वुत्तनयेनेव चत्तारोपि वेदितब्बा। तथा नेवसजीनासञ्जीवादेपि नेवसञ्जीनासञीभवे निब्बत्तसत्तस्सेव चुतिपटिसन्धीसु, सब्बत्थ वा पटुसझाकिच्चं कातुं असमत्थाय सुखुमाय सञाय अस्थिभावपटिजाननवसेन पठमवादो, असञ्जीवादे वुत्तनयेन सुखुमाय सञाय वसेन, सञ्जाननसभावतापटिजानेन च दुतियवादादयो पवत्ताति एवं एकेन पकारेन
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(१.८४-८४)
उच्छेदवादवण्णना
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सतिपि कारणपरियेसनस्स सम्भवे दिट्ठिगतिकवादानं अनादरणीयभावदस्सनत्थं "तत्थ न एकन्तेन कारणं परियेसितब्ब"न्ति वुत्तन्ति दट्ठब् । एतेसञ्च सञ्जीअसञ्जीनेवसञ्जीनासञ्जीवादानं “अरोगो परं मरणा"ति वचनतो सस्सतदिट्ठिसङ्गहो पाकटोयेव ।
उच्छेदवादवण्णना
८४. असतो विनासासम्भवतो अस्थिभावनिबन्धनो उच्छेदोति वृत्तं "सतो"ति । यथा हेतुफलभावेन पवत्तमानानं सभावधम्मानं सतिपि एकसन्तानपरियापन्नानं भिन्नसन्ततिपतितेहि विसेसे हेतुफलानं परमत्थतो भिन्नसभावत्ता भिन्नसन्तानपतितानं विय अच्चन्तभेदसन्निट्ठानेन नानत्तनयस्स मिच्छागहणं उच्छेदाभिनिवेसस्स कारणं, एवं हेतुफलभूतानं धम्मानं विज्जमानेपि सभावभेदे एकसन्ततिपरियापन्नताय एकत्तनयेन अच्चन्तमभेदग्गहणम्पि कारणं एवाति दस्सेतुं “सत्तस्सा''ति वुत्तं पाळियं । सन्तानवसेन हि वत्तमानेसु खन्धेसु घनविनिब्भोगाभावेन सत्तगाहो, सत्तस्स च अस्थिभावगाहनिबन्धनो उच्छेदगाहो यावायं अत्ता न उच्छिज्जति, तावायं विज्जतियेवाति गहणतो, निरुदयविनासो वा इध उच्छेदोति अधिप्पेतोति आह "उपच्छेद"न्ति। विसेसेन नासो विनासो, अभावो। सो पन मंसचक्खुपञाचक्खूनं दस्सनपथातिक्कमोयेव होतीति आह “अदस्सन"न्ति । अदस्सने हि नास-सद्दो लोके निरुळहोति । भावविगमन्ति सभावापगमं । यो हि निरुदयविनासवसेन उच्छिज्जति, न सो अत्तनो सभावेन तिकृतीति। लाभीति दिब्बचक्खुजाणलाभी । चुतिमत्तमेवाति सेक्खपुथुज्जनानम्पि चुतिमत्तमेव। न उपपातन्ति पुब्बयोगाभावेन, परिकम्माकरणेन वा उपपातं दटुं न सक्कोति । “अलाभी च को परलोकं न जानाती"ति नत्थिकवादवसेन, महामूळहभावेनेव वा “इतो अञो परलोको अत्थी''ति अनवबोधमाह । एत्तकोयेव विसयो, यो यं इन्द्रियगोचरोति । अत्तनो धीतुया हत्थगण्हनकराजादि विय कामसुखगिद्धताय वा । “न पुन विरुहन्ती"ति पतितपण्णानं वण्टेन अप्पटिसन्धिकभावमाह । एवमेव सत्ताति यथा पण्डुपलासो बन्धना पवुत्तो न पटिसन्धियति, एवं सब्बे सत्ता अप्पटिसन्धिकमरणमेव निगच्छन्तीति । जलपुब्बूळकूपमा हि सत्ताति तस्स लद्धि । तथाति वुत्तप्पकारेन । लाभिनोपि चुतितो उद्धं अदस्सनेनेव इमा दिट्ठियो उप्पज्जन्तीति आह "विकप्पेत्वा वा"ति ।
एत्थाह - यथा अमराविक्खेपिकवादा एकन्तअलाभीवसेनेव दस्सिता, यथा च
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गटीका
एकन्तलाभीवसेनेव, न
पन
" तत्थ द्वे
उद्धमाघातनिकसञीवादचतुक्को एवमयं । सरसतेकच्चसस्सतवादादयो विय लाभी अलाभीवसेन पवत्तो । तथा हि वृत्तं जना "तिआदि । यदि एवं कस्मा सस्सतवादादिदेसनाहि इध अञ्ञथा देसना पवत्ताति ? वुच्चते - देसनाविलासप्पत्तितो । देसनाविलासप्पत्ता हि बुद्ध भगवन्तो, ते वेनेय्यज्झासयानुरूपं विविधेनाकारेन धम्मं देसेन्ति, अञ्ञथा इधापि च एवं भगवा देसेय्य "इध भिक्खवे एकच्चो समणो वा ब्राह्मणो वा आतप्पमन्वाय... पे०... यथासमाहिते चित्ते सत्तानं चुतूपपातञाणाय चित्तं अभिनिन्नामेति, सो दिब्बेन चक्खुना विसुद्धेन अतिक्कन्तमानुसकेन अरहतो चुतिचित्तं पस्सति, पुथूनं वा परसत्तानं, न हेव खो तदुद्धं उपपत्तिं, सो एवमाह 'यथा खो भो अयं अत्ता' "तिआदिना विसेसलाभिनो, तक्किनो च विसुं कत्वा, तस्मा देसनाविलासेन वेनेय्यज्झासयानुरूपं सस्सतवादादिदेस नाहि अञ्ञथायं देसना पवत्ताति दट्ठब्बं ।
अथ वा एकच्चसस्सतवादादीसु विय न इध तक्कीवादितो विसेसलाभीवादो भिन्नाकारो, अथ खो समानभेदताय समानाकारोयेवाति इमस्स विसेसस्स पकासनत्थं भगवता अयमुच्छेदवादो पुरिमवादेहि विसिट्ठाकारो देसितो । सम्भवति हि तक्किनपि अनुस्वादिवसेन अधिगमवतो विय इध अभिनिवेसो । अथ वा न इमा दिट्ठियो भगवता अनागते एवं भावीवसेन देसिता, नापि परिकप्पवसेन, अथ खो यथा यथा दिट्ठिगतिकेहि “इदमेव सच्चं, मोघमञ्ञ "न्ति पञ्ञत्ता, तथा तथा यथाभुच्चं सब्बञ्जतञ्जन परिच्छिन्दित्वा पकासिता । येहि गम्भीरादिप्पकारा अपुथुज्जनगोचरा बुद्धधम्मा पकासन्ति, येसञ्च परिकित्तनेन तथागता सम्मदेव थोमिता होन्ति । उच्छेदवादीहि च दिट्टिगतिकेहि यथा उत्तरुत्तरभवदस्सीहि अपरभवदस्सीनं तेसं वादपटिसेधवसेन सकसकवादा पतिट्ठापिता, तथायं देसना पवत्ताति पुरिमदेसनाहि इमिस्सा देसनाय पवत्तिभेदो न चोदेतब्बी । एवञ्च कत्वा अरूपभवभेदवसेन विय कामरूपभवभेदवसेनापि उच्छेदवादो विभजित्वा दट्ठब्बो । अथ वा पच्चेकं कामरूपभवभेदवसेन विय अरूपभववसेनापि न विभजित्वा वत्तब्बो, एवञ्च सति भगवता वुत्तसत्तकतो बहुतरभेदो, अप्पतरभेदो वा उच्छेदवादो आपज्जतीति एवं पकारापि चोदना अनवकासावाति ।
एत्थाह युत्तं ताव पुरिमेसु तीसु दादेसु 'कायस्स भेदाति वृत्तं पञ्चवोकारभवपरियापन्नं अत्तभावं आरम्भ पवत्तत्ता तेसं वादानं, चतुवोकारभवपरियापन्नं पन अत्तभावं निस्साय पवत्तेसु चतुत्थादीसु चतूसु वादेसु कस्मा
'कायस्स भेदा "ति
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अयं
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(१.९३-९६)
दिट्ठधम्मनिब्बानवादवण्णना
EHHTHHAL
वुत्तं । न हि अरूपीनं कायो विज्जतीति ? सच्चमेतं, रूपत्तभावे पवत्तवोहारेनेव पन दिविगतिको अरूपत्तभावेपि कायवोहारं आरोपेत्वा आह “कायस्स भेदा"ति । यथा च दिट्ठिगतिका दिट्ठियो पापेन्ति, तथा च भगवा दस्सेतीति, अरूपकायभावतो वा फस्सादिधम्मसमूहभूते अरूपत्तभावे कायनिद्देसो दब्बो। एत्थ च कामदेवत्तभावादिनिरवसेसविभवपतिट्ठापकानं दुतियवादादीनं युत्तो अपरन्तकप्पिकभावो अनागतद्धविसयत्ता तेसं वादानं, न पन दिद्विगतिकपच्चक्खभूतमनुस्सत्तभावसमुच्छेदपतिट्ठापकस्स पठमवादस्स पच्चुप्पन्नविसयत्ता। दुतियवादादीनहि पुरिमपुरिमवादसङ्गहितस्सेव अत्तनो तदुत्तरुत्तरिभवोपपन्नस्स समुच्छेदतो युज्जति अपरन्तकप्पिकता, तथा च "नो च खो भो अयं अत्ता एत्तावता सम्मा समुच्छिन्नो होती"तिआदि वुत्तं, यं पन तत्थ वुत्तं “अत्थि खो भो अञ्जो अत्ता"ति, तं मनुस्सकायविसेसापेक्खाय वुत्तं, न सब्बथा अञभावतोति ? नो न युत्तो, इधलोकपरियापन्नत्तेपि च पठमवादविसयस्स अनागतकालस्सेव तस्स अधिप्पेतत्ता पठमवादिनोपि अपरन्तकप्पिकताय न कोचि विरोधोति ।
दिट्ठधम्मनिब्बानवादवण्णना
९३. दिट्ठधम्मोति दस्सनभूतेन आणेन उपलद्धधम्मो । तत्थ यो अनिन्द्रियविसयो, सोपि सुपाकटभावेन इन्द्रियविसयो विय होतीति आह "दिदुधम्मोति पच्चक्खधम्मो वुच्चतीति । तेनेव च "तत्थ तत्थ पटिलद्धत्तभावस्सेतं अधिवचन"न्ति वुत्तं ।।
९५. अन्तोनिज्झायनलक्खणोति आतिभोगरोगसीलदिट्ठिब्यसनेहि फुट्ठस्स चेतसो अन्तो अब्भन्तरं निज्झायनं सोचनं अन्तोनिज्झायनं, तं लक्खणं एतस्साति अन्तोनिज्झायनलक्खणो। तनिस्सितलालप्पनलक्खणोति तं सोकं समुट्ठानहेतुं निस्सितं तन्निस्सितं, भुसं विलापनं लालप्पनं, तन्निस्सितञ्च लालप्पनञ्च तन्निस्सितलालप्पनं, तं लक्खणं एतस्साति तन्निस्सितलालप्पनलक्खणो। आतिब्यसनादिना फुट्ठस्स परिदेवेनापि असक्कुणन्तस्स अन्तोगतसोकसमुट्ठितो भुसो आयासो उपायासो। सो पन यस्मा चेतसो अप्पसन्नाकारो होति, तस्मा "विसादलक्खणो"ति वुत्तो।
९६. वितक्कनं वितक्कितं, तं पन अभिनिरोपनसभावो वितक्कोयेवाति आह "अभि...पे०... वितक्को"ति। एस नयो विचारितन्ति एत्थापि। खोभकरसभावत्ता
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गटीका
वितक्कविचारानं तंसहितं झानं सउब्बिलनं विय होतीति वुत्तं “ सकण्डकं विय खायती 'ति ।
९७. याय उब्बिलापनपीतिया उप्पन्नाय चित्तं " उब्बिलावित "न्ति वुच्चति, सा पीति उब्बिलावितत्तं यस्मा पन चित्तस्स उब्बिलभावो तस्सा पीतिया सति होति, नासति, तस्मा सा “उब्बिलभावकारण "न्ति वृत्ता ।
(१.९७-१०१-२-३)
९८. आभोगोति वा चित्तस्स आभुग्गभावो, आरम्मणे ओणतभावोति अत्थो । सुखेन हि चित्तं आरम्मणे अभिनतं होति, न दुक्खेन विय अपनतं, नापि अदुक्खमसुखेन विय अनभिनतं अनपनतञ्च । तत्थ “खुप्पिपासादिअभिभूतस्स विय मनुञ्ञभोजनादीसु कामेहि विवेचियमानस्सुपादारम्मणपत्थना विसेसतो अभिवडति, उकारस्स पन कामरसस्स यावदत्थं तित्तस्स मनुञ्ञरसभोजनं भुत्ताविनो विय सुहितस्स भोक्तुकामता कामेसु पातब्यता न होति, विसयस्सा गिद्धताय विसयेहि दुम्मोचियेहिपि जलूका वि सयमेव मुञ्चती”ति च अयोनिसो उम्मुज्जित्वा कामगुणसन्तप्पितताय संसारदुक्खवूपसमं ब्याकासि पठमवादी । कामादीनं आदीनवदस्सिताय, पठमादिज्झानसुखस सन्तभावदस्सिताय च पठमादिज्झानसुखतित्तिया संसारदुक्खुपच्छेदं कं दुतियादिवादिनो, इधापि उच्छेदवादे वृत्तप्पकारो विचारो यथासम्भवं आनेत्वा वत्तब्बो । अयं पनेत्थ विसेसो- एकस्मिञ्हि अत्तभावे पञ्च वादा लब्भन्ति । तेनेव हि पाळियं “अञ्ञो अत्ता”ति अञ्ञग्गहणं न कतं । कथं पनेत्थ अच्चन्तनिब्बानपञ्ञापकस्स अत्तनो दिट्ठधम्मनिब्बानवादस्स सस्तदिट्ठिया सङ्ग्रहो, न पन उच्छेददिट्टियाति ? तंतंसुखविसेससमङ्गितापटिलद्धेन बन्धविमोक्खेन सुद्धस्स अत्तनो सकरूपे अवट्ठानदीपनतो ।
सेसाति सेसा पञ्चपञ्ञास दिट्ठियो । तासु अन्तानन्तिकवादादीनं सस्सतदिट्टिभावो तत्थ तत्थ पकासितोयेव ।
१०१-२-३. किं पन कारणं पुब्बन्तापरन्ता एव दिट्ठाभिनिवेसस्स विसयभावेन दस्सिता, न पन तदुभयमेकज्झन्ति ? असम्भवतो । न हि पुब्बन्तापरन्तेसु विय तदुभयविनिमुत्ते मज्झन्ते दिट्ठिकप्पना सम्भवति इत्तरकालत्ता, अथ पन पप्पन्नव तदुभयवेमज्झं, एवं सति दिट्ठिकप्पनक्खमो तस्स उभयसभावो पुब्बन्तापरन्तेसुयेव अन्तोगधोति कथमदस्सितं । अथ वा पुब्बन्तापरन्तवन्तताय “पुब्बन्तापरन्तो 'ति मज्झन्तो
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(१.१०१-२-३-१०१-२-३)
दिट्ठधम्मनिब्बानवादवण्णना
वुच्चति, सो च "पुब्बन्तापरन्तकप्पिका वा पुब्बन्तापरन्तानुदिट्ठिनो" ति वदन्तेन पुब्बन्तापरन्तेहि विसुं कत्वा वुत्तोयेवाति दट्टब्बो । अट्ठकथायम्पि "सब्बेपि ते अपरन्तकप्पिके पुब्बन्तापरन्तकप्पिकेति एतेन सामञ्ञनिद्देसेन, एकसेसेन वा सङ्गहिताति दट्ठब्बं, अञ्ञथा सङ्कङ्कित्वा वृत्तवचनस्स अनत्थकता आपज्जेय्याति । के पन ते पुब्बन्तापरन्तकप्पिका ये अन्तानन्तिका हुत्वा दिट्ठधम्मनिब्बानवादाति एवं पकारा वेदितब्बा ।
एत्थ च "सब्बे ते इमेहेव द्वासट्टिया वत्थूहि, एतेसं वा अञ्ञतरेन, नत्थि इतो बहिद्धा" ति वचनतो, पुब्बन्तकप्पिकादित्तयविनिमुत्तस्स च कस्सचि दिट्ठिगतिकस्स अभावतो यानि तानि सामञ्ञफलादि (दी० नि० १.१६६) सुत्तन्तरेसु वुत्तप्पकारानि अकिरिया - हेतुकनत्थिकवादादीनि यानि च इस्सरपजापतिपुरिसकालसभावनियतियदिच्छावादादिप्पभेदानि दिट्टिगतानि (विसुद्धि० टी० २.५६३; विभं० अनुटी० १८९ पस्सितब्बं) बहिद्धापि दिस्समानानि, तेसं एत्थेव सङ्गहो, अन्तोगधता च वेदितब्बा । कथं ? अकिरियवादो ताव "वञ्झो कूटट्ठो "तिआदिना किरियाभावदीपनतो सस्सतवादे अन्तोगधो, तथा “सत्तिमे काया 'तिआदि (दी० नि० १.१७४) नयप्पवत्तो पकुधवादो, “नत्थि हेतु नत्थि पच्चयो सत्तानं संकिलेसाया ''तिआदि (दी० नि० १.१६८) वचनतो अहेतुकवादो अधिच्चसमुप्पन्निकवादे अन्तोगधो । “नत्थि परो लोको तिआदि ( दी० नि० १.१७१) वचनतो नत्थिकवादो उच्छेदवादे अन्तोगधो । तथा हि तत्थ " कायस्स भेदा उच्छिज्जती 'ति आदि ( दी० नि० १.८६) वुत्तं । पठमेन आदि सद्देन निगण्ठवादादयो सङ्ग्रहिता ।
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यदिपि पाळियं नाटपुत्तवाद ( दी० नि० १.१७८) भावेन चातुयामसंवरो आगतो, तथापि सत्तवता तिक्कमेन विक्खेपवादिताय नाटपुत्तवादोपि सञ्चयवादो विय अमराविक्खेपवादेसु अन्तोगधो । “तं जीवं तं सरीरं, अञ्ञ जीवं अञ्ञ सरीर "न्ति ( दी० नि० १.३७७; म० नि० २.१२२; सं० नि० १.२.३५) एवं पकारा वादा "रूपी अत्ता होति अरोगो परं मरणा 'तिआदिवादेसु सङ्ग्रहं गच्छन्ति, "होति तथागतो परं मरणा, "अत्थि सत्ता ओपपातिका ति एवं पकारा सस्सतवादे । “न होति तथागतो परं मरणा, नत्थि सत्ता ओपपातिका "ति एवं पकारा उच्छेदवादेन सङ्गहिता । " होति च न होति च तथागतो परं मरणा, अत्थि च नत्थि च सत्ता ओपपातिका "ति एवं पकारा एकच्चसस्सतवादे अन्तोगधा । “नेव होति न न होति तथागतो परं मरणा, नेवत्थि न
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गटीका
(१.१०१-२-३-१०१-२-३)
नत्थि सत्ता ओपपातिका"ति च एवं पकारा अमराविक्खेपवादे अन्तोगधा । इस्सरपजापतिपुरिसकालवादा एकच्चसस्सतवादे अन्तोगधा, तथा कणादवादो । सभावनियतियदिच्छावादा अधिच्चसमुप्पनिकवादेन सङ्गहिता। इमिना नयेन सुत्तन्तरेसु, बहिद्धा च दिस्समानानं दिट्ठिगतानं इमासु द्वासट्ठिया दिट्ठीसु अन्तोगधता वेदितब्बा ।
__ अज्झासयन्ति दिट्ठिज्झासयं । सस्सतुच्छेददिट्टिवसेन हि सत्तानं संकिलेसपक्खे दुविधो अज्झासयो, तञ्च भगवा अपरिमाणासु लोकधातूसु अपरिमाणानं सत्तानं अपरिमाणे एव जेय्यविसेसे उप्पज्जनवसेन अनेकभेदभिन्नानम्पि "चत्तारो जना सस्सतवादा''तिआदिना द्वासट्ठिया पभेदेहि सङ्गण्हनवसेन सब्ब तञाणेन परिच्छिन्दित्वा दस्सेन्तो पमाणभूताय तुलाय धारयमानो विय होतीति आह "तुलाय तुलयन्तो विया"ति । तथा हि वक्खति "अन्तो जालीकता''तिआदि (दी० नि० १.१४६)। "सिनेरुपादतो वालुकं उद्धरन्तो विया"ति एतेन सब्ब ताणतो अञस्स इमिस्सा देसनाय असक्कुणेय्यतं दस्सेति ।
अनुसन्धान अनुसन्धि, पुच्छाय कतो अनुसन्धि पुच्छानुसन्धि। अथ वा अनुसन्धयतीति अनुसन्धि, पुच्छा अनुसन्धि एतस्साति पुच्छानुसन्धि। पुच्छाय अनुसन्धियतीति वा पुच्छानुसन्धि। अज्झासयानुसन्धिम्हिपि एसेव नयो । यथानुसन्धीति एत्थ पन अनुसन्धीयतीति अनुसन्धि, या या अनुसन्धि यथानुसन्धि, अनुसन्धिअनुरूपं वा यथानुसन्धीति सद्दत्थो वेदितब्बो, सो “येन पन धम्मेन आदिम्हि देसना उठ्ठिता, तस्स धम्मस्स अनुरूपधम्मवसेन वा पटिपक्खवसेन वा येसु सुत्तेसु उपरि देसना आगच्छति, तेसं वसेन यथानुसन्धि वेदितब्बो । सेय्यथिदं ? आकोय्यसुत्ते (म० नि० १.६४-६९) हेट्ठा सीलेन देसना उहिता, उपरि छ अभिञा आगता...पे०... ककचूपमे (म० नि० १.२२२) हेट्ठा अक्खन्तिया उद्विता, उपरि ककचूपमा . आगता"तिआदिना अट्ठकथायं (दी० नि० अट्ठ० १.१००-१०४ ) वुत्तो।।
इति किराति भगवतो यथादेसिताय अत्तसुञताय अत्तनो अरुच्चनभावदीपनं । भोति धम्मालपनं । अनत्तकतानीति अत्तना न कतानि, अनत्तकेहि वा खन्धेहि कतानि | कमत्तानं फुसिस्सन्तीति असति अत्तनि खन्धानञ्च खणिकत्ता कम्मानि कं अत्तानं अत्तनो फलेन फुसिस्सन्ति, को कम्मफलं पटिसंवेदेतीति अत्थो । अविद्वाति सुतादिविरहेन अरियधम्मस्स अकोविदताय न विद्वा । अविज्जागतोति अविज्जाय उपगतो, अरियधम्मे अविनीतताय अप्पहीनाविज्जोति अत्थो । तण्हाधिपतेय्येन चेतसाति “यदि अहं नाम कोचि
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(१.१०५-११७-१०५-११७)
परितस्सितविष्फन्दितवारवण्णना
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नत्थि, मया कतस्स कम्मस्स को फलं पटिसंवेदेति, सति पन तस्मिं सिया फलूपभोगो"ति तण्हाधिपतितो आगतो तण्हाधिपतेय्यो, तेन । अत्तवादुपादानसहगत चेतसा। अतिधावितब्बन्ति खणिकत्तेपि सङ्खारानं यस्मिं सन्ताने कम्मं कतं, तत्थेव फलुप्पत्तितो धम्मपुञ्जमत्तस्सेव च सिद्धे कम्मफलसम्बन्धे एकत्तनयं मिच्छा गहेत्वा एकेन कारकवेदकभूतेन भवितब्बं, अञथा “कम्मफलानं सम्बन्धो न सिया''ति अत्तत्तनियसुञतापकासनं सत्थुसासनं अतिक्कमितब्बं मझेय्याति अत्थो ।
"उपरि छ अभिञा आगता"ति अनुरूपधम्मवसेन यथानुसन्धिं दस्सेति, इतरेहि पटिपक्खवसेन। किलेसेनाति “लोभो चित्तस्स उपक्किलेसो"तिआदिना किलेसवसेन । इमस्मिम्पीति पि-सद्देन यथा वुत्तसुत्तादीसु पटिपक्खवसेन यथानुसन्धि, एवं इमस्मिम्पि सुत्तेति दस्सेति । तथा हि निच्चसारादिपञापकानं दिट्ठिगतानं वसेन उठ्ठिता अयं देसना निच्चसारादिसुञतापकासनेन निट्ठापिताति ।
..परितस्सितविष्फन्दितवारवण्णना
१०५-११७. मरियादविभागदस्सनत्थन्ति सस्सतादिदिट्ठिदस्सनस्स सम्मादस्सनेन सङ्कराभावविभावनत्थं । तदपि वेदयितन्ति सम्बन्धो । अजानतं अपस्सतन्ति “सस्सतो अत्ता च लोको चा"ति “इदं दिट्ठिट्टानं एवंगहिकं एवंपरामटुं एवंगहितं होति एवंअभिसम्पराय''न्ति यथाभूतं अजानन्तानं अपस्सन्तानं । तथा यस्मिं वेदयिते अवीततण्हताय एवं दिट्टिगतं उपादियन्ति, तं वेदयितं समुदयादितो यथाभूतं अजानन्तानं अपस्सन्तानं, एतेन अनावरणञाणसमन्तचक्खूहि यथा तथागतानं यथाभूतमेत्थ आणदस्सनं, न एवं दिविगतिकानं, अथ खो तण्हादिट्ठिपरामासोयेवाति दस्सेति । तेनेव चायं देसना मरियादविभागदस्सनत्था जाता। अट्ठकथायं पन “यथाभूतं धम्मानं सभावं अजानन्तानं अपस्सन्तान"न्ति अविसेसेन वुत्तं । न हि सङ्घतधम्मसभावं अजाननमत्तेन मिच्छा अभिनिविसन्तीति । सामञ्जजोतना विसेसे अवतिद्वतीति अयं विसेसयोजना कता । वेदयितन्ति “सस्सतो अत्ता च लोको चा"ति दिट्ठिपञापनवसेन पवत्तं दिठ्ठिया अनुभूतं अनुभवनं । तण्हागतानन्ति तण्हाय गतानं उपगतानं, पवत्तानं वा । तञ्च खो पनेतन्ति च यथावुत्तं वेदयितं पच्चामसति । तहि वट्टामिसभूतं दिद्वितण्हासल्लानुविद्धताय सउब्बिलत्ता चञ्चलं, न मग्गफलसुखं विय एकरूपेन अवतिकृतीति । तेनेवाह "परितस्सितेना"तिआदि ।
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गटीका
अथ वा एवं विसेसकारणतो द्वासट्ठि दिट्ठिगतानि विभजित्वा इदानि अविसेसकारणतो तानि दस्सेतुं “तत्र भिक्खवे" तिआदिका देसना आरद्धा । सब्बेस दिट्टिगतिकानं वेदना अविज्जा तण्हा च अविसिट्ठकारन्ति । तत्थ तदपीति " सस्सतं अत्तानञ्च लोकञ्च पञ्ञपेन्ति 'ति एत्थ यदेतं "सरसतो अत्ता च लोको चा "ति पञ्ञापनं, तदपि। सुखादिभेदं तिविधवेदयितं यथाक्कमं दुक्खसल्लानिच्चतो, अविसेसेन समुदयत्थङ्गमस्सादादीनवनिस्सरणतो वा यथाभूतं अजानन्तानं अपस्सन्तानं, ततो एव च सुखादिपत्थनासम्भवतो तण्हाय उपगतत्ता तण्हागतानं तण्हापरितस्सितेन दिट्ठिविप्फन्दितमेव दिट्ठिचलनमेव, “असति अत्तनि को वेदनं अनुभवती”ति कायवचीद्वारेसु दिट्ठिया चोपनप्पत्तिमत्तमेव वा न पन दिट्ठिया पञापेतब्बो सस्तो कोचि धम्मो अत्थीति अत्थो । एकच्चसस्सतवादादीसुपि एसेव नयो ।
फस्सपच्चयवारवण्णना
(4
११८. येन तण्हापरितस्सितेन एतानि दिट्ठिगतानि पवत्तन्ति, तस्स वेदयितं पच्चयो, वेदयितस्सापि फस्सो पच्चयोति देसना दिट्ठिया पच्चयपरम्परनिद्धारणन्ति आह 'परम्परपच्चयदस्सनत्थ''न्ति, तेन यथा पञ्ञापनधम्मो दिट्टि, तप्पच्चयधम्मा च यथासकं पच्चयवसेनेव उप्पज्जन्ति, न पच्चयेहि विना, एवं पञ्ञपेतब्बा धम्मापि रूपवेदनादयो, न एत्थ कोचि अत्ता वा लोको वा सस्सतोति अयमत्थो दस्सितोति दट्ठब्बं ।
तंठानंविज्जतिवारवण्णना
( १.११८ - १३१)
१३१. तस्स पच्चयस्साति फस्सपच्चयस्स दिट्ठिवेदयितेति दिट्ठिया पच्चयभूते वेदयिते, फस्सपधानेहि अत्तनो पच्चयेहि निप्फादेतब्बेति अत्थो । विनापि चक्खादिवत्थूहि, सम्पयुत्तधम्मेहि च केहिचि वेदना उप्पज्जति, न पन कदाचि फस्सेन विनाति फस्सो वेदनाय बलवकारणन्ति आह " बलवभावदस्सनत्थ "न्ति । सन्निहितोपि हि विसयो सचे फुसनाकाररहितो होति चित्तुप्पादो, न तस्स आरम्मणपच्चयेन पच्चयो होतीति फस्सोव सम्पयुत्तधम्मानं विसेसपच्चयो । तथा हि भगवता चित्तुप्पादं विभजन्तेन फस्सोयेव पठमं उद्घटो, वेदनाय पन अधिट्ठानमेव ।
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(१.१४४-१४४)
दिह्रिगतिकाधिट्ठानवट्टकथावण्णना
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दिह्रिगतिकाधिद्वानवट्टकथावण्णना १४४. हेट्ठा तीसुपि वारेसु अधिकतत्ता, उपरि च “पटिसंवेदेन्तीति वक्खमानत्ता वेदयितमेत्थ पधानन्ति आह "सब्बदिद्विवेदयितानि सम्पिण्डेती"ति । सम्पिण्डेतीति च “येपि तेति तत्थ तत्थ आगतस्स पि-सद्दस्स अत्थं दस्सेति । वेदयितस्स फस्से पक्खिपनं फस्सपच्चयतादस्सनमेव “छहि अज्झत्तिकायतनेहि छळारम्मणपटिसंवेदनं एकन्ततो छफस्सहेतुकमेवा"ति । सञ्जायन्ति एत्थाति अधिकरणत्थो सञ्जाति-सद्दोति आह "सजातिट्ठाने"ति । एवं समोसरणसद्दोपि दट्ठब्बो । आयतति एत्थ फलं तदायत्तवुत्तिताय, आयभूतं वा अत्तनो फलं तनोति पवत्तेतीति आयतनं, कारणं। रुक्खगच्छसमूहे अरञवोहारो अरझमेव अरञायतनन्ति आह "पण्णत्तिमत्ते"ति । अत्थत्तयेपीति पि-सद्देन अवुत्तत्थसम्पिण्डनं दट्ठब्, तेन आकारनिवासाधिट्ठानत्थे सङ्गण्हाति। हिरञायतनं सुवण्णायतनं, वासुदेवायतनं कम्मायतनन्ति आदीसु आकरनिवासाधिट्टानेसु आयतनसद्दो । चक्खादीसु च फस्सादयो आकिण्णा, तानि च नेसं निवासो, अधिट्ठानञ्च निस्सयपच्चयभावतोति । तिण्णम्पि विसयिन्द्रियविज्ञाणानं सङ्गतिभावेन गहेतब्बो फस्सोति "सङ्गती"ति वुत्तो। तथा हि सो “सन्निपातपच्चुपट्टानोति वुच्चति । इमिना नयेनाति विज्जमानेसुपि अ सु सम्पयुत्तधम्मेसु यथा “चक्खुञ्च...पे०... फस्सो''ति (म० नि० १.२०४; म० नि० ३.४२१, ४२५, ४२६; सं० नि० १.२.४३-४५; सं० नि० २.४.६०; कथाव० ४६५) एतस्मिं सुत्ते वेदनाय पधानकारणभावदस्सनत्थं फस्ससीसेन देसना कता, एवमिधापि ब्रह्मजाले “फस्सपच्चया वेदना'तिआदिना फस्सं आदि कत्वा अपरन्तपटिच्चसमुप्पाददीपनेन पच्चयपरम्परं दस्सेतुं “फस्सायतनेहि फुस्स फुस्सा''ति फस्समुखेन वुत्तं ।
फस्सो अरूपधम्मोपि समानो एकदेसेन आरम्मणे अनल्लीयमानोपि फुसनाकारेन पवत्तति फुसन्तो विय होतीति आह "फस्सोव तं तं आरम्मणं फुसती"ति, येन सो “फुसनलक्खणो, सट्टनरसो''ति च वुच्चति । “फस्सायतनेहि फुस्स फुस्सा'ति अफुसनकिच्चानिपि आयतनानि “मञ्चा घोसन्ती"तिआदीसु विय निस्सितवोहारेन फुसनकिच्चानि कत्वा दस्सितानीति आह "फस्से उपनिक्खिपित्वा"ति, फस्सगतिकानि कत्वा फस्सूपचारं आरोपेत्वाति अत्थो। उपचारो हि नाम वोहारमत्तं, न तेन अत्थसिद्धि होतीति आह "तस्मा"तिआदि ।
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गटीका
अत्तनो पच्चयभूतानं छन्नं फस्सानं वसेन चक्खुसम्फस्सजा याव मनोसम्फस्सजाति सङ्क्षेपतो छब्बिधा वेदना, वित्थारतो पन अट्ठसतपरियायेन अट्ठसतभेदा । रूपतण्हादिभेदायाति रूपतण्हा याव धम्मतण्हाति सङ्क्षेपतो छप्पभेदाय, वित्थारतो अट्ठसतभेदाय । उपनिस्सयकोटियाति उपनिस्सयसीसेन । कस्मा पनेत्थ उपनिस्सयपच्चयोव उद्धटो, ननु सुखा वेदना, अदुक्खमसुखा वेदना च तण्हाय आरम्मणमत्तआरम्मणाधिपतिआरम्मणूपनिस्सयपकतूपनिस्सयवसेन चतुधा पच्चयो, दुक्खा च आरम्मणमत्तपकतूपनिस्सयवसेन द्विधाति सच्चमेतं, उपनिस्सये एव पन तं सब्बं अन्तोगधं । युत्तं ताव आरम्मणूपनिस्सयस्स उपनिस्सयसामञ्ञतो उपनिस्सयेन सङ्गहो, आरम्मणमत्तआरम्मणाधिपतीनं पन कथन्ति ? सम्पि आरम्मणसामञ्ञतो आरम्मणूपनिस्सयेन सङ्गहोव कतो, न पकतूपनिस्सयेनाति दट्ठब्बं । एतदत्थमेवेत्थ “उपनिस्सयकोटिया ''ति वुत्तं, न " उपनिस्सयेना”ति ।
चतुब्बिधस्साति कामुपादानं याव अत्तवादुपादानन्ति चतुब्बिधस्स । ननु च तण्हाव कामुपादानन्ति ? सच्चमेतं । तत्थ दुब्बला तण्हा तण्हाव, बलवती तण्हा कामुपादानं । अथ वा अप्पत्तविसयपत्थना तण्हा तमसि चोरानं करपसारणं विय। सम्पत्तविसयग्गहणं उपादानं, चोरानं करप्पत्तधनग्गहणं विय। अप्पिच्छतापटिपक्खा तण्हा, सन्तोसपटिपक्खा उपादानं । परियेसनदुक्खमूलं तण्हा, आरक्खदुक्खमूलं उपादानन्ति अयमेतेसं विसेसो । उपादानस्साति असहजातस्स उपादानस्स उपनिस्सयकोटिया, इतरस्स सहजातकोटियाति दट्ठब्बं । तत्थ अनन्तरस्स अनन्तरसमनन्तरअनन्तरूपनिस्सयनत्थिविगतासेवनपच्चयेहि, अनानन्तरस्स उपनिस्सयेन, आरम्मणभूता पन आरम्मणाधिपतिआरम्मणूपनिस्सयेहि, आरम्मणमत्तेनेव वाति तं सब्बं उपनिस्सयेनेव गहेत्वा “उपनिस्सयकोटिया "ति वृत्तं । यस्मा च तण्हाय रूपादीनि अस्सादेत्वा कामेसु पातब्यतं आपज्जति, तस्मा तहा कामुपादानस्स उपनिस्सयो । तथा रूपादिभेदेव सम्मूळहो “नत्थि दिन्न 'न्तिआदिना (दी० नि० १.१७१; म० नि० १.४४५; म० नि० २.९४, ९५, २२५; म० नि० ३.९१, ११६, १३६; सं० नि० २.३.२१०; ध० स० १२२१; विभं० ९३८) मिच्छादस्सनं, संसारतो मुच्चितुकामो असुद्धिमग्गे सुद्धिमग्गपरामसनं खन्धेसु अत्तत्तनियगाहभूतं सक्कायदस्सनं गण्हाति, तस्मा इतरेसम्पि तण्हा उपनिस्सयोति दट्ठब्बं । सहजातस्स पन सहजातअञ्ञमञनिस्सयसम्पयुत्तअत्थि अविगतहेतुवसेन तण्हा पच्चयो होति । तं सब्बं सन्धाय “सहजातकोटिया "ति वृत्तं ।
( १.१४४-१४४)
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(१.१४४-१४४)
दिट्ठिगतिकाधिट्ठानवट्टकथावण्णना
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तथाति उपनिस्सयकोटिया चेव सहजातकोटिया चाति अत्थो । भवस्साति कम्मभवस्स चेव उपपत्तिभवस्स च। तत्थ चेतनादिसङ्घा तं सब्बं भवगामिकम्मं कम्मभवो, कामभवादिको नवविधो उपपत्तिभवो, तेसं उपपत्तिभवस्स चतुब्बिधम्पि उपादानं उपपत्तिभवकारणकम्मभवकारणभावतो, तस्स च सहायभावूपगमनतो पकतूपनिस्सयवसेन पच्चयो होति । कम्मारम्मणकरणकाले पन कम्मसहजातकामुपादानं उपपत्तिभवस्स आरम्मणपच्चयेन पच्चयो होति । कम्मभवस्स पन सहजातस्स सहजातं उपादानं सहजातअज्ञमञनिस्सयसम्पयुत्तअत्थिअविगतवसेन चेव हेतुमग्गवसेन च अनेकधा पच्चयो होति, असहजातस्स अनन्तरसमनन्तरअनन्तरूपनिस्सयनस्थिविगतासेवनवसेन, इतरस्स पकतूपनिस्सयवसेन, सम्मसनादिकालेसु आरम्मणवसेन च पच्चयो होति। तत्थ अनन्तरादिके उपनिस्सयपच्चये, सहजातादिके सहजातपच्चये पक्खिपित्वा वुत्तं "उपनिस्सयकोटिया चेव सहजातकोटिया चा"ति ।
भवो जातियाति एत्थ भवोति कम्मभवो अधिप्पेतो। सो हि जातिया पच्चयो, न उपपत्तिभवो। उपपत्तिभवो हि पठमाभिनिब्बत्ता खन्धा जातियेव । तेन वुत्तं “जातीति पनेत्थ सविकारा पञ्चक्खन्धा दट्टब्बा''ति । सविकाराति च निब्बत्तिविकारेन सविकारा, ते च अत्थतो उपपत्तिभवोयेव । न हि तदेव तस्स कारणं भवितुं युत्तन्ति । कम्मभवो च उपपत्तिभवस्स कम्मपच्चयेन चेव उपनिस्सयपच्चयेन च पच्चयो होतीति आह "भवो जातिया उपनिस्सयकोटिया पच्चयो''ति ।।
यस्मा च सति जातिया जरामरणं, जरामरणादिना फुट्ठस्स बालस्स सोकादयो च सम्भवन्ति, नासति, तस्मा "जाति...पे०... पच्चयो होती"ति वुत्तं । सहजातूपनिस्सयसीसेन पच्चयविचारणाय दस्सितत्ता, अङ्गविचारणाय च अनामढ़त्ता आह "अयमेत्य सङ्ग्रेपो"ति । महाविसयत्ता पटिच्चसमुप्पादविचारणाय सा निरवसेसा कुतो लद्धब्बाति आह "वित्थारतो"तिआदि । एकदेसेन चेत्थ कथितस्स पटिच्चसमुप्पादस्स तथा कथने सद्धिं उदाहरणेन कारणं दस्सेन्तो "भगवा ही"तिआदिमाह । तत्थ कोटि न पञायतीति असुकस्स नाम सम्मासम्बुद्धस्स, चक्कवत्तिनो वा काले अविज्जा उप्पन्ना, न ततो पुब्बेति अविज्जाय आदिमरियादा अप्पटिहतस्स मम सब्ब तञाणस्सापि न पञ्जायति अविज्जमानत्तायेवाति अत्थो । अयं पच्चयो इदप्पच्चयो, तस्मा इदप्पच्चया, इमस्मा कारणा आसवपच्चयाति अत्थो । भवतण्हायाति भवसंयोजनभूताय तण्हाय ।
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गटीका
(१.१४५-१४७)
भवदिवियाति सस्सतदिट्ठिया। "इतो एत्थ एत्तो इधा"ति अपरियन्तं अपरापरुप्पत्तिं दस्सेति ।
विवट्टकथादिवण्णना __१४५. “वेदनानं समुदयन्तिआदिपाळि वेदनाकम्मट्ठानन्ति दट्टब्बा। तन्ति "फस्ससमदया फस्सनिरोधा"ति वृत्तफस्सट्टानं । आहारोति कबळीकारो आहारो वेदितब्बो । सो हि "कबळीकारो आहारो इमस्स कायस्स आहारपच्चयेन पच्चयो'ति (पट्ठा० १.पच्चयनिद्देस ४२९) वचनतो कम्मसमुट्ठानानम्पि उपत्थम्भकपच्चयो होतियेव । यदिपि सोतापन्नादयो यथाभूतं पजानन्ति, उक्कंसगतिविजाननवसेन पन देसना अरहत्तनिकूटेन निट्ठापिता । एत्थ च "यतो खो भिक्खवे भिक्खु...पे०... यथाभूतं पजानाती"ति एतेन धम्मस्स निय्यानिकभावेन सद्धिं सङ्घस्स सुप्पटिपत्तिं दस्सेति । तेनेव हि अट्ठकथायमेत्थ “को एवं जानातीति ? खीणासवो जानाति, याव आरद्धविपस्सको जानातीति परिपुण्णं कत्वा भिक्खुसङ्घो दस्सितो, तेन यं वुत्तं "भिक्खुसङ्घवसेनपि दीपेतुं वट्टती''ति, (दी० नि० अट्ठ० १.८) तं यथारुतवसेनेव दीपितं होतीति दट्ठब्बं । ..
१४६. अन्तो जालस्साति अन्तोजालं, अन्तोजाले कताति अन्तोजालीकता। अपायूपपत्तिवसेन अधो ओसीदनं, सम्पत्तिभववसेन उद्धं उग्गमनं । तथा परित्तभूमिमहग्गतभूमिवसेन, ओलीनता'तिधावनवसेन, पुब्बन्तानुदिट्टिअपरन्तानुदिट्ठिवसेन च यथाक्कमं अधो ओसीदनं उद्धं उग्गमनं योजेतब्बं | "दससहस्सिलोकधातू"ति जातिखेत्तं सन्धायाह ।
१४७. अपण्णत्तिकभावन्ति धरमानकपण्णत्तिया अपण्णत्तिकभावं । अतीतभावेन पन तथा पण्णत्ति याव सासनन्तरधाना, ततो उद्धम्पि अञबुद्धप्पादेसु वत्तति एव । तथा हि वक्खति “वोहारमत्तमेव भविस्सती''ति (दी० नि० अठ्ठ० १.१४७)। कायोति अत्तभावो. यो रूपारूपधम्मसमहो। एवं हिस्स अम्बरुक्खसदिसता. तदवयवानञ्च रूपक्खन्धचक्खादीनं अम्बपक्कसदिसता युज्जतीति । एत्थ च वण्टच्छेदे वण्टूपनिबन्धानं अम्बपक्कानं अम्बरुक्खतो विच्छेदो विय भवनेत्तिछेदे तदुपनिबन्धानं रूपक्खन्धादीनं सन्तानतो विच्छेदोति एत्तावता ओपम्मं दट्ठब्बं ।
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(१.१४८-१४९)
विवट्टकथादिवण्णना
१६५
१४८. धम्मपरियायेति पाळियं । इधत्थोति दिट्ठधम्महितं । परत्थोति सम्परायहितं । सङ्गामं विजिनाति एतेनाति सङ्गामविजयो। अत्थसम्पत्तिया अत्थजालं। ब्यञ्जनसम्पत्तिया, सीलादिअनवज्जधम्मनिद्देसतो च धम्मजालं। सेट्ठद्वेन ब्रह्मभूतानं मग्गफलनिब्बानानं विभत्तत्ता ब्रह्मजालं। दिट्ठिविवेचनमुखेन सुञतापकासनेन सम्मादिट्ठिया विभावितत्ता दिद्विजालं। तित्थियवादनिम्मद्दनूपायत्ता अनुत्तरो सङ्गामविजयोति एवम्पेत्थ योजना वेदितब्बा ।
१४९. अत्तमनाति पीतिया गहितचित्ता। तेनेवाह "बुद्धगताया"तिआदि । यथा पन अनत्तमना अत्तनो अनत्थचरताय परमना वेरिमना नाम होन्ति । यथाह "दिसो दिस"न्ति (ध० प० ४२; उदा० ३३) गाथा, न एवं अत्तमना । इमे पन अत्तनो अत्थचरताय सकमना होन्तीति आह “अत्तमनाति सकमना"ति । अथ वा अत्तमनाति समत्तमना, इमाय देसनाय परिपुण्णमनसङ्कप्पाति अत्थो। अभिनन्दतीति तण्हायतीति अत्थोति आह "तण्हायम्पि आगतो"ति । अनेकत्थत्ता धातूनं अभिनन्दन्तीति उपगच्छन्ति सेवन्तीति अत्थोति आह "उपगमनेपि आगतो"ति । तथा अभिनन्दन्तीति सम्पटिच्छन्तीति अत्थोति आह "सम्पटिच्छनेपि आगतो"ति। "अभिनन्दित्वा"ति इमिना पदेन वुत्तोयेव अत्थो "अनुमोदित्वा"ति इमिना पकासीयतीति अभिनन्दनसद्दो इध अनुमोदनसद्दत्थोति आह "अनुमोदनेपि आगतो''ति । “कतमञ्च तं भिक्खवे"तिआदिना (दी० नि० १.७) तत्थ तत्थ पवत्ताय कथेतुकम्यतापुच्छाय विस्सज्जनवसेन पवत्तत्ता इदं सुत्तं वेय्याकरणं होति । यस्मा पन पुच्छाविस्सज्जनवसेन पवत्तम्पि सगाथकं सुत्तं गेय्यं नाम होति, निग्गाथकत्तमेव पन अङ्गन्ति गाथारहितं वेय्याकरणं, तस्मा वुत्तं "निग्गाथकत्ता हि इदं वेय्याकरणन्ति वुत्त"न्ति ।
अपरेसुपीति एत्थ पिसद्देन पारमिपरिचयम्पि सङ्गण्हाति । वुत्तहि बुद्धवंसे -
"इमे धम्मे सम्मसतो, सभावसरसलक्खणे ।
धम्मतेजेन वसुधा, दससहस्सी पकम्पथा''ति ।। (बु० वं० २.१६६) वीरियबलेनाति महाभिनिक्खमने चक्कवत्तिसिरिपरिच्चागहेतुभूतवीरियप्पभावेन, बोधिमण्डूपसङ्कमने “कामं तचो च न्हारु च, अट्ठि च अवसिस्सतू"तिआदिना (म० नि० २.१८४; सं० नि० १.२.२२; महानि० १९६) वुत्तचतुरङ्गसमन्नागतवीरियानुभावेन । अच्छरियवेगाभिहताति विम्हयावहकिरियानुभावघट्टिता । पंसुकूलधोवने केचि “पुञतेजेना''ति
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गटीका
दिस्सति,
वसन्तरजात
वृत्तं ।
वदन्ति, अच्छरियवेगाभिहताति युत्तं विय पारमिपरिपूरणपुञ्ञतेजेन अक्तुं कम्पितत्ता "अकालकम्पनेना" ति साधुकारदानवसेन अकम्पित्थ यथा तं धम्मचक्कप्पवत्तने (सं० नि० ३.५.१०८१; महाव० १३; पटि० म० २.३० ) । सङ्गीतिकालादीसुपि साधुकारदानवसेन अकम्पित्थाति वेदितब्बं । अयं तावेत्थ अट्ठकथाय लीनत्थवण्णना ।
देसनं
पकरणनयवण्णना
अयं पन पकरणनयेन पाळिया अत्थवण्णना- सा पनायं अत्थवण्णना यस्मा देसनाय समुट्ठानप्पयोजनभाजनेसु पिण्डत्थेसु च निद्धारितेसु सुकरा होति सुविज्ञेय्या च, तस्मा सुत्तदेसनाय समुट्ठानादीनि पठमं निद्वारयिस्साम । तत्थ समुट्ठानं ताव वुत्तं “वण्णावण्णभणन”न्ति। अपिच निन्दापसंसासु विनेय्याघातानन्दादिभावानापत्ति, तत्थ च आदीनवदस्सनं समुट्ठानं । तथा निन्दापसंसासु पटिपज्जनक्कमस्स, पसंसाविसयस्स खुद्दकादिवसेन अनेकविधस्स सीलस्स, सब्बञ्जतञ्ञणस्स सस्सतादिदिट्ठिट्ठानेसु तत्त्तरि च अप्पटिहतचारताय, तथागतस्स च कत्थचि अपरियापन्नताय अनवबोधो समुट्ठानं ।
वृत्तविपरियायेन पयोजनं वेदितब्बं । विनेय्याघातानन्दादिभावापत्ति आदिकव्हि इमं पयोजेतीति ।
तथा
कुहनलपनादिनानाविधमिच्छाजीवविद्धंसनं,
द्वासट्ठिदिट्ठिजालविनिवेठनं, दिट्ठसीसेन पच्चयाकारविभावनं, छफस्सायतनवसेन चतुसच्चकम्मट्ठाननिद्देसो, सब्बदिट्टिगतानं अनवसेसपरियादानं, अत्तनो
अनुपादापरिनिब्बानदीपनञ्च पयोजनानि ।
( १.१४९ - १४९)
वण्णावण्णनिमित्तं अनुरोधविरोधवन्तचित्ता कुहनादिविविधमिच्छाजीवनिरता सस्सतादिदिट्ठिपङ्कं निमुग्गा, सीलक्खन्धादीसु अपरिपूरकारिताय अनवबुद्धगुणविसेसत्राणा विनेय्या इमिस्सा धम्मदेसनाय भाजनं ।
पिण्डत्था पन आघातादीनं अकरणीयतावचनेन पटिआनुरूपं समणसञ्ञाय नियोजनं, खन्तिसोरच्चानुट्ठानं, ब्रह्मविहारभावनानुयोगो, सद्धापञ्ञसमायोगो, सतिसम्पञ्जञधिट्ठानं, पटिसङ्घानभावनाबलसिद्धि, परियुट्ठानानुसयप्पहानं, उभयहितपटिपत्ति, लोकधम्मेहि अनुपलेपो च दस्सिता होन्ति । तथा पाणातिपातादीहि पटिविरतिवचनेन
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(१.१४९-१४९)
पकरणनयवण्णना
१६७
सीलविसुद्धि दस्सिता, ताय च हिरोत्तप्पसम्पत्ति, मेत्ताकरुणासमङ्गिता, वीतिक्कमप्पहानं, तदङ्गपहानं, दुच्चरितसंकिलेसप्पहानं, विरतित्तयसिद्धि, पियमनापगरुभावनीयतानिप्फत्ति, लाभसक्कारसिलोकसमुदागमो, समथविपस्सनानं अधिट्ठानभावो, अकुसलमूलतनुकरणं, कुसलमूलरोपनं, उभयानत्थदूरीकरणं, परिसासु विसारदता, अप्पमादविहारो,परेहि दुप्पधंसियता, अविप्पटिसारादिसमङ्गिता च दस्सिता होन्ति ।
“गम्भीरा"तिआदिवचनेहि गम्भीरधम्मविभावनं, अलब्भनेय्यपतिद्वता, कप्पानं असङ्ख्येय्येनापि दुल्लभपातुभावता, सुखुमेनपि आणेन पच्चक्खतो पटिविज्झितुं असक्कुणेय्यता, धम्मन्वयसङ्घातेन अनुमानजाणेनापि दुरधिगमनीयता, पस्सद्धसब्बदरथता, सन्तधम्मविभावनं, सोभनपरियोसानता, अतित्तिकरभावो, पधानभावप्पत्ति, यथाभूतआणगोचरता, सुखुमसभावता, महापाविभावना च दस्सिता होन्ति । दिह्रिदीपकपदेहि समासतो सस्सतुच्छेददिट्ठियो पकासिताति ओलीनतातिधावनविभावनं, उपायविनिबद्धनिद्देसो, मिच्छाभिनिवेसकित्तनं, कुम्मग्गपटिपत्तिया पकासना, विपरियेसग्गाहपञापनं, परामासपरिग्गहो, पुबन्तापरन्तानुदिट्ठिपतिट्ठापनं, भवविभवदिट्ठिविभागो, तण्हाविज्जापवत्ति, अन्तवानन्तवादिहिनिद्देसो, अन्तद्वयावतारणं, आसवोघयोगकिलेसगन्थसंयोजनूपादानविसेसविभज्जनञ्च दस्सितानि होन्ति । तथा समुदय"न्तिआदिवचनेहि चतुन्नं अरियसच्चानं अनुबोधपटिवेधसिद्धि, विक्खम्भनसमुच्छेदप्पहानं, तण्हाविज्जाविगमो, सद्धम्मट्ठितिनिमित्तपरिग्गहो, आगमाधिगमसम्पत्ति, उभयहितपटिपत्ति, तिविधपापरिग्गहो, सतिसम्पजानुट्ठानं, सद्धापासमायोगो, सम्मावीरियसमथानुयोजनं, समथविपस्सनानिष्फत्ति च दस्सिता होन्ति ।
"अजानतं अपस्सत"न्ति अविज्जासिद्धि, "तण्हागतानं परितस्सितविष्फन्दितन्ति तहासिद्धि, तदुभयेन च नीवरणसंयोजनद्वयसिद्धि, अनमतग्गसंसारवट्टानुच्छेदो, पुब्बन्ताहरणअपरन्तपटिसन्धानानि, अतीतपच्चुप्पन्नकालवसेन हेतुविभागो, अविज्जातण्हानं अञमञानतिवत्तनतुन अञमञ्जूपकारिता, पाविमुत्तिचेतोविमुत्तीनं पटिपक्खनिद्देसो च दस्सिता होन्ति । "तदपि फस्सपच्चया"ति सस्सतादिपञापनस्स पच्चयाधीनवुत्तिताकथनेन धम्मानं निच्चतापटिसेधो, अनिच्चतापतिठ्ठापनं, परमत्थतो कारकादिपटिक्खेपो, एवंधम्मतादिनिद्देसो, सुञतापकासनं, समत्तनियामपच्चयलक्खणविभावनञ्च दस्सितानि होन्ति ।
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गटीका
(१.१४९-१४९)
___ "उच्छिन्नभवनेत्तिको"तिआदिना भगवतो पहानसम्पत्ति, विज्जाधिमुत्ति, वसीभावो, सिक्खत्तयनिष्फत्ति, निब्बानधातुद्वयविभागो, चतुरधिट्टानपरिपूरणं, भवयोनिआदीसु अपरियापन्नता च दस्सिता होन्ति । सकलेन पन सुत्तपदेन इट्टानिढेसु भगवतो तादिभावो, तत्थ च परेसं पतिट्ठापनं, कुसलधम्मानं आदिभूतधम्मद्वयस्स निद्देसो, सिक्खत्तयूपदेसो, अत्तन्तपादिपुग्गलचतुक्कसिद्धि, कण्हाकण्हविपाकादिकम्मचतुक्कविभागो, चतुरप्पमञ्जाविसयनिद्देसो, समुदयादिपञ्चकस्स यथाभूतावबोधो, छसारणीयधम्मविभावना, दसनाथकरधम्मपतिद्वापन्ति एवमादयो निद्धारेतब्बा ।
सोळसहारवण्णना
देसनाहारवण्णना
तत्थ “अत्ता, लोको"ति च दिट्ठिया अधिट्ठानभावेन, वेदनाफस्सायतनादिमुखेन च गहितेसु पञ्चसु उपादानक्खन्धेसु तण्हावज्जा पञ्चुपादानक्खन्धा दुक्खसच्चं। तण्हा समुदयसच्चं। सा पन परितस्सनाग्गहणेन “तण्हागतान''न्ति, "वेदनापच्चया तण्हा'"ति च सरूपेनेव समुदयग्गहणेन, भवनेत्तिग्गहणेन च पाळियं गहिताव । अयं ताव सुत्तन्तनयो । अभिधम्मनयेन पन आघातानन्दादिवचनेहि, आतप्पादिपदेहि, चित्तप्पदोसवचनेन, सब्बदिह्रिदीपकपदेहि, कुसलाकुसलग्गहणेन, भवग्गहणेन, सोकादिग्गहणेन, तत्थ तत्थ समुदयग्गहणेन चाति सङ्खपतो सब्बलोकियकुसलाकुसलधम्मविभावनपदेहि गहिता कम्मकिलेसा समुदयसच्चं। उभिन्नं अप्पवत्ति निरोधसच्चं। तस्स तत्थ तत्थ वेदनानं अत्थङ्गमनिस्सरणपरियायेहि, पच्चत्तं निब्बुतिवचनेन, अनुपादाविमुत्तिवचनेन च पाळियं गहणं वेदितब् । निरोधपजानना पटिपदा मग्गसच्चं। तस्सापि तत्थ तत्थ वेदनानं समुदयादियथाभूतवेदनापदेसेन, छन्नं फस्सायतनानं समुदयादियथाभूतपजाननपरियायेन, भवनेत्तिया उच्छेदपरियायेन च गहणं वेदितब् । तत्थ समुदयेन अस्सादो, दुक्खेन आदीनवो, मग्गनिरोधेहि निस्सरणन्ति एवं चतुसच्चवसेन, यानि पाळियं (नेत्ति० ९) सरूपेनेव आगतानि अस्सादादीनवनिस्सरणानि, तेसञ्च वसेन इध अस्सादादयो वेदितब्बा । विनेय्यानन्तादिभावापत्तिआदिकं यथावुत्तविभागं पयोजनमेव फलं। आघातादीनं अकरणीयता, आघातादिफलस्स च अनञसन्तानभाविता, निन्दापसंसासु यथासभावपटिजानननिब्बेठनाति एवं तंतंपयोजनाधिगमहेतु उपायो। आघातादीनं करणपटिसेधनादिअपदेसेन धम्मराजस्स आणत्ति वेदितब्बाति अयं देसनाहारो।
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(१.१४९-१४९)
विचयहारवण्णना
विचयहारवण्णना
कप्पनाभावेपि वोहारवसेन, अनुवादवसेन च “मम''न्ति वुत्तं, नियमाभावतो विकप्पनत्थं वाग्गहणं कतं, गुणसमङ्गिताय, अभिमुखीकरणाय च "भिक्खवे"ति आमन्तनं । अञभावतो, पटिविरुद्धभावतो च "परे"ति वुत्तं. वण्णपटिपक्खतो, अवण्णनीयतो च "अवण्णन्ति वुत्तं । ब्यत्तिवसेन, वित्थारवसेन च “भासेय्यु"न्ति वुत्तं, धारणभावतो, अधम्मपटिपक्खतो च “धम्मस्सा'ति वुत्तं, दिट्ठिसीलेहि संहतभावतो, किलेसानं सङ्घातकरणतो च “सङ्घस्सा"ति वुत्तं । वृत्तपटिनिद्देसतो, वचनुपन्यासनतो च “तत्रा''ति वुत्तं, सम्मुखभावतो, पुथुभावतो च “तुम्हेही''ति वुत्तं । चित्तस्स हननतो, आरम्मणाभिघाततो च “आघातोति वुत्तं, आरम्मणे सङ्कोचवुत्तिया, अतुट्ठाकारताय च “अप्पच्चयो"ति वुत्तं, आरम्मणचिन्तनतो, निस्सयतो च “चेतसो"ति वुत्तं, अत्थासाधनतो, अनु अनु "अनत्थसाधनतो" च “अनभिरद्धी''ति वुत्तं, कारणानरहत्ता, सत्थुसासने ठितेहि कातुं असक्कुणेय्यत्ता च "न करणीया'ति वुत्तन्ति । इमिना नयेन सब्बपदेसु विनिच्छयो कातब्बो | इति अनुपदविचयतो विचयो हारो अतिवित्थारभयेन, सक्का च अट्ठकथं तस्सा लीनत्थवण्णनञ्च अनुगन्त्वा अयमत्थो विञ्जना विभावेतुन्ति न वित्थारयिम्ह ।
युत्तिहारवण्णना
सब्बेन सब्बं आघातादीनं अकरणं तादिभावाय संवत्ततीति युज्जति इट्ठानिढेसु समप्पवत्तिसब्भावतो । यस्मिं सन्ताने आघातादयो उप्पन्ना, तन्निमित्तको अन्तरायो तस्सेव सम्पत्तिविबन्धाय संवत्ततीति युज्जति । कस्मा ? सन्तानन्तरेसु असङ्कमनतो। चित्तं अभिभवित्वा उप्पन्ना आघातादयो सुभासितादिसल्लक्खणेपि असमत्थताय संवत्तन्तीति युज्जति सकोधलोभानं अन्धतमसब्भावतो । पाणातिपातादिदुस्सील्यतो वेरमणि सब्बसत्तानं पामोज्जपासंसभावाय संवत्ततीति युज्जति | सीलसम्पत्तिया हि महतो कित्तिसद्दस्स अब्भुग्गमो होतीति । गम्भीरतादिविसेसयुत्तेन गुणेन तथागतस्स वण्णना एकदेसभूतापि सकलसब्ब गुणग्गहणाय संवत्ततीति युज्जति अनञसाधारणत्ता। तज्जाअयोनिसोमनसिकारपरिक्खतानि अधिगमतक्कनानि सस्सतवादादिअभिनिवेसाय संवत्तन्तीति युज्जति कप्पनाजालस्स असमुग्घाटितत्ता । वेदनादीनवानवबोधेन वेदनाय तण्हा पवढतीति युज्जति अस्सादानुपस्सनासब्भावतो। सति च वेदयितरागे तत्थ अत्तत्तनियगाहो, सस्सतादिगाहो च विपरिफन्दतीति युज्जति कारणस्स सन्निहितत्ता। तण्हापच्चया हि उपादानं सस्सतादिवादे
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गटीका
(१.१४९-१४९)
पञपेन्तानं, तदनुच्छविकं वा वेदनं वेदयन्तानं फस्सो हेतूति युज्जति विसयिन्द्रियविज्ञाणसङ्गतिया विना तदभावतो। छफस्सायतननिमित्तवट्टस्स अनुपच्छेदोति युज्जति तत्थ अविज्जातण्हानं अप्पहीनत्ता । छन्नं फस्सायतनानं समुदयादिपजानना सब्बदिट्ठिगतिकसझं अतिच्च तिकृतीति युज्जति चतुसच्चपटिवेधभावतो। इमाहेव द्वासट्ठिया दिट्ठीहि सब्बदिट्ठिगतानं अन्तोजालीकतभावोति युज्जति अकिरियवादादीनं इस्सरवादादीनञ्च तदन्तोगधत्ता । तथा चेव संवण्णितं । उच्छिन्नभवनेत्तिको तथागतस्स कायोति युज्जति, यस्मा भगवा अभिनीहारसम्पत्तिया चतूसु सतिपट्टानेसु पतिहितचित्तो सत्तबोज्झङ्गेयेव यथाभूतं भावेसि । कायस्स भेदा परिनिब्बुतं न दक्खन्तीति युज्जति अनुपादिसेसनिब्बानप्पत्तियं रूपादीसु कस्सचिपि अनवसेसतोति अयं युत्तिहारो।
पदट्ठानहारवण्णना
अवण्णारहअवण्णानुरूपसम्पत्तानादेय्यवचनतादिविपत्तीनं पदहानं । वण्णारहवण्णानुरूपसम्पत्तसद्धेय्यवचनतादिसम्पत्तीनं पदट्ठानं । तथा आघातादयो निरयादिदुक्खस्स पदट्टानं । आघातादीनं अकरणं सग्गसम्पत्तिआदिसब्बसम्पत्तीनं पदट्टानं । पाणातिपातादीहि पटिविरति अरियस्स सीलक्खन्धस्स पदट्टानं । अरियो सीलक्खन्धो अरियस्स समाधिक्खन्धस्स पदट्टानं । अरियो समाधिक्खन्धो अरियस्स पाक्खन्धस्स पदट्टानं । गम्भीरतादिविसेसयुत्तं भगवतो पटिवेधप्पकारञाणं देसनाञाणस्स पदट्टानं । देसनाजाणं विनेय्यानं सकलवट्टदुक्खनिस्सरणस्स पदट्टानं । सब्बापि दिट्टि दिलृपादान्ति सा यथारहं नवविधस्सापि भवस्स पदट्ठानं । भवो जातिया, जाति जरामरणस्स, सोकादीनञ्च पदट्टानं । वेदनानं समुदयादियथाभूतवेदनं चतुन्नं अरियसच्चानं अनुबोधपटिवेधो। तत्थ अनुबोधो पटिवेधस्स पदट्टानं, पटिवेधो चतुब्बिधस्स सामञफलस्स पदट्ठानं । “अजानतं अपस्सत"न्ति अविज्जागहणं, तत्थ अविज्जा सङ्कारानं पदठ्ठान्ति याव वेदना तण्हाय पदट्ठान्ति नेतब्बं | “तण्हागतानं परितस्सितविप्फन्दितन्ति एत्थ तण्हा उपादानस्स पदट्ठानं । “तदपि फस्सपच्चया'"ति एत्थ सस्सतादिपञापनं परेसं मिच्छाभिनिवेसस्स पदट्ठान, मिच्छाभिनिवेसो सद्धम्मस्सवनसप्पुरिसूपस्सययोनिसोमनसिकारधम्मानुधम्मपटिपत्तीहि विमुखताय, असद्धम्मस्सवनादीनञ्च पदट्ठानं, “अञत्र फस्सा''तिआदीसु फस्सो वेदनाय पदट्टानं, छ फस्सायतनानि फस्सस्स, सकलवट्टदुक्खस्स च पदट्ठानं, छन्नं फस्सायतनानं समुदयादियथाभूतप्पजाननं निब्बिदाय पदट्ठानं, निबिदा विरागस्साति याव अनुपादापरिनिब्बानं नेतब्बं । भगवतो भवनेत्तिसमुच्छेदो सब्बञ्जताय पदट्ठानं । तथा अनुपादापरिनिब्बानस्साति अयं पदट्ठानहारो।
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(१.१४९-१४९)
लक्खणहारवण्णना
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लक्खणहारवण्णना
आघातादिग्गहणेन कोधुपनाहमक्खपलासइस्सामच्छरियसारम्भपरवम्भनादीनं सङ्गहो पटिघचित्तुप्पादपरियापन्नताय एकलक्खणत्ता। आनन्दादिग्गहणेन अभिज्झाविसमलोभमानातिमानमदप्पमादादीनं सङ्गहो लोभचित्तुप्पादपरियापन्नताय समानलक्खणत्ता। तथा आघातग्गहणेन अवसिट्ठगन्थनीवरणानं सङ्गहो कायगन्थनीवरणलक्खणेन एकलक्खणत्ता । आनन्दग्गहणेन फस्सादीनं सङ्गहो सङ्ख्यारक्खन्धलक्खणेन एकलक्खणत्ता । सीलग्गहणेन अधिचित्तअधिपज्ञासिक्खानम्पि सङ्गहो सिक्खालक्खणेन एकलक्खणत्ता । इध पन सीलस्सेव इन्द्रियसंवरादिकस्स दट्ठब्बं । दिट्ठिग्गहणेन अवसिठ्ठउपादानानम्पि सङ्गहो उपादानलक्खणेन एकलक्खणत्ता। “वेदनान"न्ति एत्थ वेदनाग्गहणेन अवसिट्ठउपादानक्खन्धानम्पि सङ्गहो खन्धलक्खणेन एकलक्खणत्ता । तथा वेदनाय धम्मायतनधम्मधातुपरियापन्नत्ता सम्मसनूपगानं सब्बेसं आयतनानं धातूनञ्च सङ्गहो आयतनलक्खणेन, धातुलक्खणेन च एकलक्खणत्ता। “अजानतं अपस्सत''न्ति एत्थ अविज्जाग्गहणेन हेतुआसवोघयोगनीवरणादिसङ्गहो हेतादिलक्खणेन एकलक्खणत्ता अविज्जाय, तथा "तण्हागतानं परितस्सितविष्फन्दित"न्ति एत्थ तण्हाग्गहणेनापि । “तदपि फस्सपच्चया"ति एत्थ फस्सग्गहणेन सञ्जासङ्खारविज्ञाणानं सङ्गहो विपल्लासहेतुभावेन, खन्धलक्खणेन च एकलक्खणत्ता। छफस्सायतनग्गहणेन खन्धिन्द्रियधातादीनं सङ्गहो फस्सुप्पत्तिनिमित्तताय, सम्मसनसभावेन च एकलक्खणत्ता । भवनेत्तिग्गहणेन अविज्जादीनम्पि संकिलेसधम्मानं सङ्गहो वट्टहेतुभावेन एकलक्खणत्ताति अयं लक्खणहारो।
चतुब्यूहहारवण्णना
निन्दापसंसाहि सम्माकम्पितचेतसा मिच्छाजीवतो अनोरता सस्सतादिमिच्छाभिनिवेसिनो सीलादिधम्मक्खन्धेसु अप्पतिद्वितताय सम्मासम्बुद्धगुणरसस्सादविमुखा वेनेय्या इमिस्सा देसनाय निदानं। ते यथावुत्तदोसविनिमुत्ता कथं नु खो सम्मापटिपत्तिया उभयहितपरा भवेय्युन्ति अयमेत्थ भगवतो अधिप्पायो। पदनिब्बचनं निरुत्ति। तं "एव"न्तिआदिनिदानपदानं, “मम''न्तिआदिपाळिपदानञ्च अट्ठकथावसेन सुविनेय्यत्ता अतिवित्थारभयेन न वित्थारयिम्ह । पदपदत्थनिद्देसनिक्खेपसुत्तदेसनासन्धिवसेन छब्बिधा सन्धि । तत्थ पदस्स पदन्तरेन सम्बन्धो पदसन्धि । तथा पदत्थस्स पदत्थन्तरेन सम्बन्धो पदत्थसन्धि । नानानुसन्धिकस्स सुत्तस्स तंतंअनुसन्धीहि सम्बन्धो, एकानुसन्धिकस्स च पुब्बापरसम्बन्धो
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गटीका
(१.१४९-१४९)
निद्देससन्धि, या अट्ठकथायं पुच्छानुसन्धिअज्झासयानुसन्धियथानुसन्धिवसेन तिविधा विभत्ता, ता पनेता तिस्सोपि सन्धियो अट्ठकथायं विचारिता एव । सुत्तसन्धि च पठमं निक्खेपवसेन अम्हेहि पुब्बे दस्सितायेव । एकिस्सा देसनाय देसनान्तरेन सद्धिं संसन्दनं देसनासन्धि, सा एवं वेदितब्बा - "ममं वा भिक्खवे...पे०... न चेतसो अनभिरद्धि करणीया'ति अयं देसना “उभतोदण्डकेन चेपि भिक्खवे ककचेन चोरा ओचरका अङ्गमङ्गानि ओक्कन्तेय्यु, तत्रपि यो मनो पदूसेय्य, न मे सो तेन सासनकरो"ति (म० नि० १.२३२) इमाय देसनाय सद्धिं संसन्दति । “तुम्हं येवस्स तेन अन्तरायो''ति “कम्मस्सका माणव सत्ता...पे०... दायादा भविस्सन्तीति (अ० नि० ३.१०.२१६) इमाय देसनाय संसन्दति । “अपि तुम्हे...पे०... आजानेय्याथा'"ति “कुद्धो अत्थं...पे०... सहते नर"न्ति (अ० नि० २.७.६४; महानि० ५, १५६, १९५) इमाय देसनाय संसन्दति ।
"ममं वा भिक्खवे परे वण्णं...पे०... न चेतसो उब्बिल्लावितत्तं करणीय"न्ति "धम्मापि वो भिक्खवे पहातब्बा, पगेव अधम्मा (म० नि० १.२४०)। कुल्लूपमं वो भिक्खवे धम्म देसेस्सामि, नित्थरणत्थाय, नो गहणत्थाया"ति (म० नि० १.२४०) इमाय देसनाय संसन्दति । "तत्र चे तुम्हेहि...पे०... उब्बिलाविता, तुम्हं येवस्स तेन अन्तरायो"ति “लुद्धोअत्थं...पे०... सहते नर"न्ति (इतिवु० ८८; महानि० ५.१५६, १९५; चूळनि० १२८) “कामन्धा जालसञ्छन्ना, तण्हाछदनछादिता'ति (उदा० ६४; नेत्ति० २७, ९०; पेटको० १४) इमाहि देसनाहि संसन्दति ।
“अप्पमत्तकं...पे०... सीलमत्तक"न्ति “पठमं झानं उपसम्पज्ज विहरति । अयं खो ब्राह्मण यो पुरिमेहि यजेहि अप्पट्टतरो च अप्पसमारम्भतरो च महप्फलतरो च महानिसंसतरो चा''तिआदिकाय (दी० नि० १.३५३) देसनाय संसन्दति, पठमज्झानस्स सीलतो महप्फलमहानिसंसतरभाववचनेन झानतो सीलस्स अप्पभावदीपनतो ।
“पाणातिपातं पहाया"तिआदि “समणो खलु भो गोतमो सीलवा...पे०... कुसलसीलेन समन्नागतो"तिआदिकाहि (दी० नि० १.३०४) देसनाहि संसन्दति ।
“अ व धम्मा गम्भीरा''तिआदि “अधिगतो खो म्यायं धम्मो गम्भीरो"तिआदि (दी० नि० २.६७; म० नि० १.२८१; २.३३७; सं० नि० १.१.१७२; महाव० ७,
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(१.१४९-१४९)
चतुब्यूहहारवण्णना
१७३
८) पाळिया संसन्दति । गम्भीरतादिविसेसयुत्तधम्मपटिवेधेन हि ञाणस्स गम्भीरादिभावो विज्ञायतीति ।
“सन्ति भिक्खवे एके समणब्राह्मणा''तिआदि “सन्ति भिक्खवे एके समणब्राह्मणा पुब्बन्तकप्पिका...पे०... अभिवदन्ति, सस्सतो अत्ता च लोको च, इदमेव सच्चं, मोघमञन्ति इत्थेके अभिवदन्ति, असस्सतो, सस्सतो च असस्सतो च, नेव सस्सतो च नासस्सतो च, अन्तवा, अनन्तवा, अन्तवा च अनन्तवा च, नेवन्तवा नानन्तवा च अत्ता च लोको च इदमेव सच्चं, मोघमञ्जन्ति इत्थेके अभिवदन्ती"तिआदिकाहि (म० नि० ३.२७) देसनाहि संसन्दति ।
“सन्ति भिक्खवे एके समणब्राह्मणा अपरन्तकप्पिका'"तिआदि “सन्ति भिक्खवे एके समणब्राह्मणा अपरन्तकप्पिका...पे०... अभिवदन्ति, सञी अत्ता होति अरोगो परं मरणा। इत्थेके अभिवदन्ति असञी, नेवसञीनासञी च अत्ता होति अरोगो परं मरणा । इत्थेके अभिवदन्ति सतो वा पन सत्तस्स उच्छेदं विनासं विभवं पञपेन्ति, दिट्ठधम्मनिब्बानं वा पनेके अभिवदन्ती''तिआदिकाहि (म० नि० ३.२१) देसनाहि संसन्दति । “वेदनानं...पे०... तथागतो"ति "तयिदं सङ्खतं ओळारिकं, अत्थि खो पन सङ्घारानं निरोधो, अत्थेतन्ति इति विदित्वा तस्स निस्सरणदस्सावी तथागतो तदुपातिवत्तो"तिआदिकाहि (म० नि० ३.२८) देसनाहि संसन्दति ।
"तदपि तेसं...पे०... विप्फन्दितमेवाति इदं “तेसं भवतं अञ्जत्रेव छन्दाय अञत्र रुचिया अझत्र अनुस्सवा अत्र आकारपरिवितक्का अञत्र दिट्ठिनिज्झानक्खन्तिया पच्चत्तंयेव जाणं भविस्सति परिसुद्धं परियोदातन्ति नेतं ठानं विज्जति । पच्चत्तं खो पन भिक्खवे आणे असति परिसुद्धे परियोदाते यदपि ते भोन्तो समणब्राह्मणा तत्थ ञाणभागमत्तमेव परियोदापेन्ति, तदपि तेसं भवतं समणब्राह्मणानं उपादानमक्खायती''तिआदिकाहि (म० नि० ३.२९) देसनाहि संसन्दति ।
"तदपि फस्सपच्चया"ति इदञ्च "चक्खुञ्च पटिच्च रूपे च उप्पज्जति चक्खुविज्ञाणं, तिण्णं सङ्गति फस्सो, फस्सपच्चया वेदना, वेदनापच्चया तण्हा, तण्हापच्चया उपादान'"न्ति, (सं० नि० १.२.४४) “छन्दमूलका इमे आवुसो धम्मा
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गटीका
मनसिकारसमुट्ठाना फरससमोधाना वेदनासमोसरणा"ति (अ० नि० ३.८.८३) च आदिकाहि देसनाहि संसन्दति ।
“ यतो खो भिक्खवे भिक्खु छन्नं फस्सायतनान "न्तिआदि “ यतो खो आनन्द भिक्खु नेव वेदनं अत्तानं समनुपस्सति, न सञ्ञ, न सङ्घारे, न विञ्ञाणं अत्तानं समनुपस्सति, सो एवं असमनुपस्सन्तो न किञ्चि लोके उपादियति, अनुपादियं न परितस्सति, अपरितस्सं पच्चत्तंयेव परिनिब्बायती 'ति आदिकाहि देसनाहि संसन्दति ।
“सब्बे ते इमेहेव द्वासट्ठिया वत्थूहि अन्तोजालीकता "तिआदि “ ये हि चि भिक्खवे... पे०... अभिवदन्ति सब्बे ते इमानेव पञ्च कायानि अभिवदन्ति एतेसं वा अञ्ञतर "न्तिआदिकाहि (म० नि० ३.२६) देसनाहि संसन्दति । " कायस्स भेदा... पे०... देवमनुस्सा" ति -
,
"अच्ची यथा वातवेगेन खित्ता, ( उपसिवाति भगवा ) अत्थं पलेति न उपेति सङ्घं ।
एवं मुनी नामकाया विमुत्तो,
आदिकाहि देसनाहि संसन्दतीति अयं चातुब्यूहो हारो ।
( १.१४९ - १४९)
अत्थं पलेति न उपेति सङ्घ "न्ति । । (सु० नि० १०८०; चूळनि० ४३)
आवत्तहारवण्णना
च
आघातादीनं अकरणीयतावचनेन खन्तिसोरच्चानुट्ठानं । तत्थ खन्तिया सद्धापञ्ञापरापकारदुक्खसहगतानं सङ्ग्रहो, सोरच्चेन सीलस्स । सद्धादिग्गहणेन सद्धिन्द्रियादिसकलबोधिपक्खियधम्मा आवत्तन्ति । सीलग्गहणेन अविप्पटिसारादयो सब्बेपि सीलानिसंसधम्मा आवत्तन्ति । पाणातिपातादीहि पटिविरतिवचनेन अप्पमादविहारो, तेन सकलं सासनब्रह्मचरियं आवत्तति । गम्भीरतादिविसेसयुत्तधम्मग्गहणेन महाबोधिपकित्तनं । अनावरणञाणपदट्ठानञ्हि आसवक्खयत्राणं, आसवक्खयञाणपदट्ठानञ्च अनावरणञाणं महाबोधि, तेन दसबलादयो सब्बे बुद्धगुणा आवत्तन्ति । सस्सतादिदिट्ठिग्गहणेन
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(१.१४९-१४९)
विभत्तिहारवण्णना
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तण्हाविज्जाय सङ्गहो, ताहि अनमतग्गसंसारवट्ट आवत्तति । वेदनानं समुदयादियथाभूतवेदनेन भगवतो परिजात्तयविसुद्धि, ताय पञापारमिमुखेन सब्बपारमियो आवत्तन्ति । “अजानतं अपस्सत"न्ति अविज्जाग्गहणेन अयोनिसोमनसिकारपरिग्गहो, तेन च अयोनिसोमनसिकारमूलका धम्मा आवत्तन्ति । “तण्हागतानं परितस्सितविप्फन्दित"न्ति तण्हाग्गहणेन नव तण्हामूलका धम्मा आवत्तन्ति, "तदपि फस्सपच्चया''तिआदि सस्सतादिपञापनस्स पच्चयाधीनवुत्तिदस्सनं, तेन अनिच्चतादिलक्खणत्तयं आवत्तति । छन्नं फस्सायतनानं यथाभूतं पजाननेन विमुत्तिसम्पदानिद्देसो, तेन सत्तपि विसुद्धियो आवत्तन्ति । "उच्छिन्नभवनेत्तिको तथागतस्स कायो"ति तण्हापहानं, तेन भगवतो सकलसंकिलेसप्पहानं आवत्ततीति अयं आवत्तो हारो।
विभत्तिहारवण्णना
आघातानन्दादयो अकुसला धम्मा, तेसं अयोनिसोमनसिकारादि पदट्ठानं | येहि पन धम्मेहि आघातानन्दादीनं अकरणं अप्पवत्ति, ते अब्यापादादयो कुसला धम्मा, तेसं योनिसोमनसिकारादि पदट्ठानं । तेसु आघातादयो कामावचराव, अब्यापादादयो चतुभूमका। तथा पाणातिपातादीहि पटिविरति कुसला वा अब्याकता वा, तस्सा हिरोत्तप्पादयो धम्मा पदट्टानं । तत्थ कुसला सिया कामावचरा, सिया लोकुत्तरा, अब्याकता लोकुत्तराव । “अस्थि भिक्खवे अ व धम्मा गम्भीरा''ति वुत्तधम्मा सिया कुसला, सिया अब्याकता, तत्थ कुसलानं वुढानगामिनिविपस्सना पदट्ठानं । अब्याकतानं मग्गधम्मा, विपस्सना, आवज्जना वा पदट्टानं । तेसु कुसला लोकुत्तरा, अब्याकता सिया कामावचरा, सिया लोकुत्तरा, सब्बापि दिट्ठियो अकुसलाव कामावचराव, तासं अविसेसेन मिच्छाभिनिवेसे अयोनिसोमनसिकारो पदट्टानं । विसेसतो पन सन्ततिघनविनिब्भोगाभावतो एकत्तनयस्स मिच्छागाहो अतीतजातिअनस्सरणतक्कसहितो सस्सतदिद्रिया पदहानं । हेतुफलभावेन सम्बन्धभावस्स अग्गहणतो नानत्तनयस्स मिच्छागाहो तज्जासमन्नाहारसहितो उच्छेददिट्ठिया पदट्टानं । एवं सेसदिट्ठीनम्पि यथासम्भवं वत्तब्बं । “वेदनान''न्ति एत्थ वेदना सिया कसला, सिया अब्याकता, सिया कामावचरा. सिया रूपावचरा. सिया अरूपावचरा, फस्सो तासं पदट्टानं । वेदनानं समुदयादियथाभूतवेदनं मग्गजाणं, अनुपादाविमुत्ति फलं, तेसं “अञ्चेव धम्मा गम्भीरा"ति एत्थ वुत्तनयेन धम्मादिविभागो नेतब्बो । “अजानतं अपस्सत"न्तिआदीसु अविज्जा तण्हा अकुसला कामावचरा, तासु अविज्जाय आसवा, अयोनिसोमनसिकारो एव वा पदट्टानं । तण्हाय संयोजनियेसु धम्मसु
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( १.१४९ - १४९ )
अस्साददस्सनं पदट्ठानं । " तदपि फस्सपच्चया "ति एत्थ फस्सस्स वेदनाय विय धम्मादिविभागो वेदितब्बो । इमिना नयेन फस्सायतनादीनम्पि यथारहं धम्मादिविभागो नेतब्बोति अयं विभत्तिहारो ।
दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गटीका
परिवत्तहारवण्णना
आघातादीनं अकरणं खन्तिसोरच्चानि अनुब्रूहेत्वा पटिसङ्घानभावनाबलसिद्धिया उभयहितपटिपत्तिं आवहति । आघातादयो पन पवत्तियमाना दुब्बण्णतं दुक्खसेय्यं भोगहानिं अकित्तिं परेहि दुरुपसङ्कमनतञ्च निप्फादेन्ता निरयादीसु महादुक्खं आवहन्ति । पाणातिपातादीहि पटिविरति अविप्पटिसारादिकल्याणं परम्परं आवहति । पाणातिपातादि पन विप्पटिसारादिअकल्याणं परम्परं, गम्भीरतादिविसेसयुत्तं आणं विनेय्यानं यथारहं विज्जाभिञादिगुणविसेसं आवहति सब्बञेय्यं यथासभावावबोधतो । तथा गम्भीरतादिविसेसरहितं पन जाणं जेय्येसु सावरणतो यथावुत्तगुणविसेसं नावहति । ब् चेता दिट्ठियो यथारहं सस्सतुच्छेदभावतो अन्तद्वयभूता सक्कायतीरं नातिवत्तन्ति अनिय्यानिकसभावत्ता । निय्यानिकसभावत्ता पन सम्मादिट्टि सपरिक्खारा मज्झिमपिदाभूता अतिक्कम्म सक्कायतीरं पारं आगच्छति । वेदनानं समुदयादियथाभूतवेदनं अनुपादाविमुत्तिं आवहति मगभावतो । वेदनानं समुदयादिअसम्पटिवेधो संसारचारकावरोधं आवहति सङ्घारानं पच्चयभावतो । वेदयितसभावपटिच्छादको सम्मोहो तदभिनन्दनं आवहति । यथाभूतावबोधो पन तत्थ निब्बेद विरागञ्च आवहति । मिच्छाभिनिवेसे अयोनिसोमनसिकारसहिता तण्हा अनेकविहितं दिट्ठिजालं पसारेति । यथावुत्ततण्हासमुच्छेदो पठममग्गो तं दिट्ठिजालं सङ्कोचेति । सस्सतवादादिपञ्ञापनस्स फस्सो पच्चयो होति असति फस्से तदभावतो । दिट्ठिबन्धनबन्धानं फस्सायतनादीनं अनिरोधेन फस्सादिअनिरोधो संसारदुक्खस्स अनिवत्तियेव, याथावतो फस्सायतनादिपरिञ सब्बदिट्ठिदस्सनानि अतिवत्तति, फस्सायतनादिअपरिञ्ञा तंदिट्ठिगहनं नातिवत्तति, भवनेत्तिसमुच्छेदो आयतिं अत्तभावस्स अनिब्बत्तिया संवत्तति, असमुच्छिन्नाय भवनेत्तिया अनागते भवप्पबन्धो परिवत्ततियेवाति अयं परिवत्तो हारो ।
वचनहारवण्णना
" मम मय्हं मे" ति परियायवचनं । “भिक्खवे समणा तपस्सिनो "ति परियायवचनं ।
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(१.१४९-१४९)
पञत्तिहारवण्णना
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"परे अछे पटिविरुद्धा''ति परियायवचनं । “अवण्णं अकित्तिं निन्दन्ति परियायवचनं । "भासेय्युं भणेय्युं करेय्यु"न्ति परियायवचनं । "धम्मस्स विनयस्स सत्थुसासनस्सा"ति परियायवचनं । “सङ्घस्स समूहस्स गणस्सा"ति परियायवचनं । “तत्र तत्थ तेसूति परियायवचनं । “तुम्हेहि वो भवन्तेही"ति परियायवचनं । “आघातो दोसो ब्यापादो"ति परियायवचनं । “अप्पच्चयो दोमनस्सं चेतसिकदुक्ख"न्ति परियायवचनं । “चेतसो अनभिरद्धि चित्तस्स ब्यापत्ति मनोपदोसो"ति परियायवचनं। "न करणीया न उप्पादेतब्बा न पवत्तेतब्बा'"ति परियायवचनं । इति इमिना नयेन सब्बपदेसु वेवचनं वत्तब्बन्ति अयं वेवचनो हारो।
पञत्तिहारवण्णना
आघातो वत्थुवसेन दसविधेन एकूनवीसतिविधेन वा पञ्जत्तो। अप्पच्चयो उपविचारवसेन छधा पञत्तो । आनन्दोपीतिआदिवसेन नवधा पञ्जत्तो । पीति सामञतो खुद्दिकादिवसेन पञ्चधा पञत्ता। सोमनस्सं उपविचारवसेन छधा पञ्चत्तं । सीलं वारित्तचारित्तादिवसेन अनेकधा पञ्चत्तं । गम्भीरतादिविसेसयुत्तं आणं चित्तुप्पादवसेन चतुधा, द्वादसविधेन वा, विसयभेदतो अनेकधा च पञत्तं । दिट्ठिसस्सतादिवसेन द्वासट्ठिया भेदेहि, तदन्तोगधविभागेन अनेकधा च पञत्ता । वेदना छधा अट्ठसतधा अनेकधा च पञत्ता । तस्सा समुदयो पञ्चधा पञ्जत्तो, तथा अत्थङ्गमो । अस्सादो दुविधेन पञ्जत्तो । आदीनवो तिविधेन पञत्तो। निस्सरणं एकधा चतुधा च पञत्तं ...पे०... अनुपादाविमुत्ति दुविधेन पञत्ता ।
“अजानतं अपस्सत''न्ति वुत्ता अविज्जा विसयभेदेन चतुधा अट्ठधा च पञ्जत्ता । "तण्हागतान"न्तिआदिना वुत्ता तण्हा छधा अट्ठसतधा अनेकधा च पञत्ता। फस्सो निस्सयवसेन छधा पञत्तो । उपादानं चतुधा पञ्चत्तं । भवो द्विधा अनेकधा च पञत्तो । जाति वेवचनवसेन छधा पञत्ता । तथा जरा सत्तधा पञत्ता । मरणं अट्ठधा नवधा च पञ्चत्तं । सोको पञ्चधा पञ्जत्तो । परिदेवो छधा पञत्तो । दुक्खं चतुधा पञत्तं, तथा दोमनस्सं | उपायासो चतुधा पञ्जत्तो । “समुदयो होती"ति पभवपत्ति , “यथाभूतं पजानाती"ति दुक्खस्स परिञापञ्जत्ति, समुदयस्स पहानपञत्ति, निरोधस्स सच्छिकिरियापञ्जत्ति, मग्गस्स भावनापत्ति ।
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१७८
दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गटीका
विधे
“अन्तोजालीकता "तिआदि सब्बदिट्ठीनं सङ्ग्रहपञ्ञत्ति । “उच्छिन्नभवनेत्तिको ''तिआदि परिनिब्बानपञ्ञत्ति । एवं आघातादीनं अकुसलकुसलादिधम्मानं यथापभवपञ्ञत्तिआदिवसेन, तथा "आघातो "ति ब्यापादस्स वेवचनपञ्ञत्ति, " अप्पच्चयो "ति दोमनस्सस्स वेवचनपञ्ञत्तीतिआदिना नयेन पञ्ञत्तिभेदो विभजितब्बोति अयं पञ्ञत्तिहारो ।
ओतरणहारवण्णना
आघातग्गहणेन सङ्घारक्खन्धसङ्गहो, तथा अनभिरद्धिगहणेन । अप्पच्चयग्गहणेन वेदनाक्खन्धसङ्गहोति इदं खन्धमुखेन ओतरणं । तथा आघातादिग्गहणेन धम्मायतनं धम्मधातु दुक्खसच्चं समुदयसच्चं वा गहितन्ति इदं आयतनमुखेन धातुमुखेन सच्चमुखेन च ओतरणं । तथा आघातादीनं सहजाता अविज्जा हेतुसहजात अञ्ञमञ्ञनिस्सयसम्पयुत्त अस्थिअविगतपच्चयेहि पच्चयो होति, असहजाता पन अनन्तरसमनन्तरअनन्तरूपनिस्सयनत्थिविगतासेवनपच्चयेहि पच्चयो होति, अनन्तरा उपनिस्सयवसेनेव पच्चयो होति । तण्हाउपादानादीनं, फस्सादीनम्पि तेसं सहजातानं असहजातानञ्च यथारहं पच्चयभावो वत्तब्बो | कोचि पनेत्थ अधिपतिवसेन, कोचि कम्मवसेन, कोचि आहारवसेन, कोचि इन्द्रियवसेन, कोचि झानवसेन, कोचि मग्गवसेनपि पच्चयो होतीति । अयम्पि विसेसो वेदितब्बोति इदं पटिच्चसमुप्पादमुखेन ओतरणं । आनन्दादीनम्पि इमिनाव नयेन खन्धादिमुखेन ओतरणं विभावेतब्बं ।
( १. १४९ - १४९)
नयो
तथा सीलं पाणातिपातादीहि विरतिचेतना, अब्यापादादिचेतसिकधम्मा च, पाणातिपातादयो चेतनाव, सं तदुपकारकधम्मानञ्च लज्जायादीनं सङ्घारक्खन्धधम्मायतनादिसङ्गहो, पुरिमनयेनेव खन्धादिमुखेन च ओतरणं विभावेब्ब । आणदिट्ठिवेदनाअविज्जातण्हादिग्गहणेसु । निस्सरणअनुपादाविमुत्तिगहणेसु असङ्खतधातुवसेनपि धातुमुखेन ओतरणं विभावेतब्बं । तथा "वेदनानं...पे०... अनुपादाविमुत्तो"ति एतेन भगवतो सीलादयो पञ्च धम्मक्खन्धा, सतिपट्ठानादयो च बोधिपक्खियधम्मा पकासिता होन्तीति तं मुखेनपि ओतरणं वेदितब्बं । “तप फस्सपच्चया”ति दिट्ठिपञ्ञापनस्स पच्चयाधीनवृत्तितादीपनेन अनिच्चतामुखेन ओतरणं, तथा एवं धम्मताय पटिच्च समुप्पादमुखेन ओतरणं, अनिच्चस्स दुक्खानत्तभावतो अप्पणिहितमुखेन सुञ्ञतामुखेन च ओतरणं । सेसपदेसुपि एसेव नयोति अयं ओतरणो हारो ।
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(१.१४९-१४९)
सोधनहारवण्णना
१७९
सोधनहारवण्णना "ममं वा...पे०... भासेय्यु"न्ति आरम्भो। "धम्मस्स...पे०... सङ्घस्स...पे०... भासेय्यु"न्ति पदसुद्धि, नो आरम्भसुद्धि। “तत्र तुम्हेहि...पे०... करणीया''ति पदसुद्धि चेव आरम्भसुद्धि च। दुतियनयादीसुपि एसेव नयो । तथा “अप्पमत्तकं खो पनेत"न्तिआदि आरम्भो। “कतम"न्तिआदि पुच्छा। “पाणातिपातं पहाया"तिआदि पदसुद्धि, नो आरम्भसुद्धि, नो च पुच्छासुद्धि। “इदं खो"तिआदि पुच्छासुद्धि चेव पदसुद्धि च आरम्भसुद्धि
तथा “अत्थि भिक्खवे"तिआदि आरम्भो। “कतमे च ते"तिआदि पुच्छा। “सन्ति भिक्खवे''तिआदि आरम्भो। "कि"न्तिआदि आरम्भ पुच्छा। "यथासमाहिते"तिआदि पदसुद्धि, नो आरम्भसुद्धि नो च पुच्छासुद्धि । “इमे खो ते"तिआदि पदसुद्धि चेव पुच्छासुद्धि च आरम्भसुद्धि च। इमिना नयेन सब्बत्थ आरम्भादयो वेदितब्बाति । अयं सोधनो हारो।
अधिद्वानहारवण्णना
"अवण्ण"न्ति सामञतो अधिद्वानं तं, अविकप्पेत्वा विसेसवचनं “ममं वा धम्मस्स वा सङ्घस्स वा"ति । सुक्कपक्खेपि एसेव नयो ।
तथा “सील"न्ति सामञतो अधिद्वानं, तं अविकप्पेत्वा विसेसवचनं “पाणातिपाता पटिविरतो"तिआदि।
"अञ्चेव धम्मा''तिआदि सामञतो अधिवानं, तं अविकप्पेत्वा विसेसवचनं “तयिदं भिक्खवे तथागतो पजानाती"तिआदि ।
तथा “पुबन्तकप्पिका''तिआदि सामञतो अधिद्वानं, तं अविकप्पेत्वा विसेसवचनं "सस्सतवादा"तिआदि । इमिना नयेन सब्बत्थ सामञविसेसो निद्धारेतब्बोति अयं अधिद्वानो हारो।
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१८०
दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गटीका
(१.१४९-१४९)
परिक्खारहारवण्णना
आघातादीनं “अनत्थं मे अचरी'तिआदीनि (ध० स० १२३७; विभं० ९०९) च एकूनवीसति आघातवत्थूनि हेतु। आनन्दादीनं आरम्मणे अभिसिनेहो हेतु। सीलस्स हिरिओत्तप्पं अप्पिच्छतादयो च हेतु। “गम्भीरा"तिआदिना वुत्तधम्मस्स सब्बापि पारमियो हेतु, विसेसेन पआपारमी । दिट्ठीनं असप्पुरिसूपस्सयो, असद्धम्मस्सवनं, मिच्छाभिनिवेसेन अयोनिसोमनसिकारो च अविसेसेन हेतु, विसेसेन पन सस्सतवादादीनं अतीतजातिअनुस्सरणादि हेतु। वेदनानं अविज्जातण्हाकम्मानि फस्सो च हेतु। अनुपादाविमुत्तिया अरियमग्गो हेतु। पञापनस्स अयोनिसोमनसिकारो हेतु। तण्हाय संयोजनियेसु अस्सादानुपस्सना हेतु। फस्सस्स छळायतनानि, छळायतनस्स नामरूपं हेतु। भवनेत्तिसमुच्छेदस्स विसुद्धिभावना हेतूति अयं परिक्खारो हारो।
समारोपनहारवण्णना
आघातादीनं अकरणीयतावचनेन खन्तिसम्पदा दस्सिता होति । “अप्पमत्तकं खो पनेत"न्तिआदिना सोरच्चसम्पदा, “अस्थि भिक्खवे"तिआदिना आणसम्पदा, “अपरामसतो चस्स पच्चत्त व निब्बुति विदिता'"ति, "वेदनानं...पे०... यथाभूतं विदित्वा अनुपादाविमुत्तो''ति एतेहि समाधिसम्पदाय सद्धिं विज्जाविमुत्तिवसीभावसम्पदा दस्सिता होति । तत्थ खन्तिसम्पदा पटिसङ्खानबलसिद्धितो सोरच्चसम्पदाय पदट्टानं। सोरच्चसम्पदा पन अत्थतो सीलमेव, तथा पाणातिपातादीहि पटिविरतिवचनं सीलस्स परियायविभागदस्सनत्थं । तत्थ सीलं समाधिस्स पदट्टानं, समाधि पचाय पदट्टानं। तेसु सीलेन वीतिक्कमप्पहानं दुच्चरितसंकिलेसप्पहानञ्च सिज्झति, समाधिना परियुट्ठानप्पहानं, विक्खम्भनप्पहानं, तण्डासंकिलेसप्पहानञ्च सिज्झति। पञ्जाय दिट्ठिसंकिलेसप्पहानं, समुच्छेदप्पहानं, अनुसयप्पहानञ्च सिज्झतीति सीलादीहि तीहि धम्मक्खन्धेहि समथविपस्सनाभावनापारिपूरी, पहानत्तयसिद्धि चाति अयं समारोपनो हारो।
सोळसहारवण्णना निविता।
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(१.१४९-१४९)
पञ्चविधनयवण्णना
पञ्चविधनयवण्णना
नन्दियावट्टनयवण्णना
आघातादीनं अकरणवचनेन तण्हाविज्जासङ्कोचो दस्सितो होति । सति हि अत्तत्तनियवत्थूसु सिनेहे सम्मोसे च “अनत्थं मे अचरी''तिआदिना (ध० स० १२३७, विभं० ९०९) आघातो जायतीति, तथा “पाणातिपाता पटिविरतो''तिआदिवचनेहि, "पच्चत्त व निब्बुति विदिता, अनुपादाविमुत्तो, छन्नं फस्सायतनानं...पे०... यथाभूतं पजानाती''तिआदीहि वचनेहि च तण्हाविज्जानं अच्चन्तप्पहानं दस्सितं होति । तासं पन पुब्बन्तकप्पिकादिपदेहि “अजानतं अपस्सत''न्तिआदिपदेहि च सरूपतो दस्सितानं तण्हाविज्जानं रूपधम्मा अरूपधम्मा च अधिट्ठानं। यथाक्कम समथो च विपस्सना च पटिपक्खो। तेसं चेतोविमुत्ति पाविमुत्ति च फलं। तत्थ तण्हा, तण्हाविज्जा वा समुदयसच्चं, तदधिट्ठानभूता रूपारूपधम्मा दुक्खसच्चं, तेसं अप्पवत्ति निरोधसच्चं, निरोधपजानना समथविपस्सना मग्गसच्चन्ति एवं चतुसच्चयोजना वेदितब्बा | तण्हाग्गहणेन चेत्थ मायासाठेय्यमानातिमानमदप्पमादपापिच्छतापापमित्तताअहिरिकानोत्तप्पादिवसेन सब्बो अकुसलपक्खो नेतब्बो। तथा अविज्जाग्गहणेन विपरीतमनसिकारकोधुपनाहमक्खपलासइस्सामच्छरियसारम्भदोवचस्सताभवदिठ्ठिविभवदिट्ठादिवसेन अकुसलपक्खो नेतब्बो । वुत्तविपरियायेन अमायाअसाठेय्यादिअविपरीतमनसिकारादिवसेन, तथा समथपक्खियानं सद्धिन्द्रियादीनं, विपस्सनापक्खियानञ्च अनिच्चसञ्जादीनं वसेन कुसलपक्खो नेतब्बोति । अयं नन्दियावदृस्स नयस्स भूमि।
तिपुक्खलनयवण्णना आघातादीनं अकरणवचनेन अदोससिद्धि, तथा पाणातिपातफरुसवाचाहि पटिविरतिवचनेन । आनन्दादीनं अकरणवचनेन अलोभसिद्धि, तथा अब्रह्मचरियतो पटिविरतिवचनेन । अदिन्नादानादीहि पन पटिविरतिवचनेन उभयसिद्धि । “तयिदं भिक्खवे तथागतो पजानाती''तिआदिना अमोहसिद्धि। इति तीहि अकुसलमूलेहि गहितेहि तप्पटिपक्खतो, आघातादिअकरणवचनेन च तीणि कुसलमूलानि सिद्धानियेव होन्ति । तत्थ तीहि अकुसलमूलेहि तिविधदुच्चरितसंकिलेसमलविसमाकुसलसावितक्कासद्धम्मादिवसेन सब्बो अकुसलपक्खो वित्थारेतब्बो। तथा तीहि कुसलमूलेहि
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गटीका
(१.१४९-१४९)
तिविधसुचरितवोदानसमकुसलसावितक्कपञासद्धम्मसमाधिविमोक्खमुखविमोक्खादिवसेन सब्बो कुसलपक्खो विभावेतब्बो। एत्थापि च सच्चयोजना वेदितब्बा । कथं ? लोभो सब्बानि वा कुसलाकुसलमूलानि समुदयसच्चं, तेहि पन निब्बत्ता तेसं अधिट्ठानगोचरभूता उपादानक्खन्धा दुक्खसच्चन्तिआदिना नयेन सच्चयोजना वेदितब्बाति अयं तिपुक्खलस्स नयस्स भूमि।
सीहविक्कीळितनयववण्णना
आघातानन्दनादीनं अकरणवचनेन सतिसिद्धि । सतिया हि सावज्जानवज्जे, तत्थ च आदीनवानिसंसे सल्लक्खेत्वा सावज्जं पहाय अनवज्जं समादाय वत्ततीति । तथा मिच्छाजीवा पटिविरतिवचनेन वीरियसिद्धि। वीरियेन हि कामब्यापादविहिंसावितक्के विनोदेति, वीरियसाधनञ्च आजीवपारिसुद्धिसीलन्ति । पाणातिपातादीहि पटिविरतिवचनेन सतिसिद्धि । सतिया हि सावज्जानवज्जे, तत्थ च आदीनवानिसंसे सल्लक्खेत्वा सावज्जं पहाय अनवज्जं समादाय वत्तति । तथा हि सा “विसयाभिमुखभावपच्चुपट्टाना''ति च वुच्चति । “तयिदं भिक्खवे तथागतो पजानाती"तिआदिना समाधिपासिद्धि | पञाय हि यथाभूतावबोधो, समाहितो च यथाभूतं पजानातीति । तथा “निच्चो धुवो''तिआदिना अनिच्चे “निच्च"न्ति विपल्लासो, “अरोगो परं मरणा, एकन्तसुखी अत्ता दिट्ठधम्मनिब्बानप्पत्तो''ति च एवमादीहि असुखे "सुख"न्ति विपल्लासो, “पञ्चहि कामगुणेहि समप्पितो''तिआदिना असुभे "सुभ"न्ति विपल्लासो, सब्बेहेव च दिह्रिदीपकपदेहि अनत्तनि “अत्ता"ति विपल्लासोति एवमेत्थ चत्तारो विपल्लासा सिद्धा होन्ति, तेसं पटिपक्खतो चत्तारि सतिपट्ठानानि सिद्धानेव होन्ति । तत्थ चतूहि इन्द्रियेहि चत्तारो पुग्गला निद्दिसितब्बा।
कथं ? दुविधो हि तण्हाचरितो मुदिन्द्रियो च तिक्खिन्द्रियो चाति, तथा दिट्ठिचरितो । तेसु पठमो असुभे “सुभ''न्ति विपल्लत्तदिट्टि सतिबलेन यथाभूतं कायसभावं सल्लक्खेत्वा सम्मत्तनियामं ओक्कमति। दुतियो असुखे "सुख''न्ति विपल्लत्तदिट्ठि “उप्पन्नं कामवितक्कं नाधिवासेतीतिआदिना (म० नि० १.२६; अ० नि० १.४.१४; २.६.५८) वुत्तेन वीरियसंवरसङ्घातेन वीरियबलेन तं विपल्लासं विधमति । ततियो अनिच्चे "निच्च"न्ति अयाथावगाही समथबलेन समाहितभावतो सङ्घारानं खणिकभावं यथाभूतं पटिविज्झति । चतुत्थो सन्ततिसमूहकिच्चारम्मणघनविचित्तत्ता फस्सादिधम्मपुञ्जमत्ते अनत्तनि
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(१.१४९-१४९)
दिसालोचनअङ्कुसनयद्वयवण्णना
१८३
“अत्ता''ति मिच्छाभिनिवेसी चतुकोटिकसुञतामनसिकारेन तं मिच्छाभिनिवेसं विद्धंसेति । चतूहि चेत्थ विपल्लासेहि चतुरासवोघयोगकायगन्थअगतितण्हुप्पादुपादानसत्तविज्ञाणट्ठितिअपरिञादिवसेन सब्बो अकुसलपक्खो नेतब्बो। तथा चतूहि सतिपट्टानेहि चतुबिधझानविहाराधिट्ठानसुखभागियधम्मअप्पमञासम्मप्पधानइद्धिपादादिवसेन सब्बो वोदानपक्खो नेतब्बोति अयं सीहविक्कीळितस्स नयस्स भूमि। इधापि सुभसासुखसाहि, चतूहिपि वा विपल्लासेहि समुदयसच्चं, तेसं अधिट्टानारम्मणभूता पञ्चुपादानक्खन्धा दुक्खसच्चन्तिआदिना सच्चयोजना वेदितब्बा ।
दिसालोचनअङ्कुसनयद्वयवण्णना इति तिण्णं अत्थनयानं सिद्धिया वोहारनयद्वयम्पि सिद्धमेव होति । तथा हि अत्थनयदिसाभूतधम्मानं समालोचनं दिसालोचनं, तेसं समानयनं अङ्कुसोति नियुत्ता पञ्च नया।
पञ्चविधनयवण्णना निहिता ।
सासनपट्ठानवण्णना
इदं सुत्तं सोळसविधे सुत्तन्तपट्ठाने संकिलेसवासनासेक्खभागियं, संकिलेसनिब्बेधासेक्खभागियमेव वा। अट्ठवीसतिविधे पन सुत्तन्तपट्टाने लोकियलोकुत्तरं सत्तधम्माधिट्टानं आणजेय्यदस्सनभावनं सकवचनपरवचनं विस्सज्जनीयाविस्सज्जनीयं कुसलाकुसलं अनुज्ञातपटिक्खित्तञ्चाति वेदितब्बं ।
पकरणनयवण्णना निहिता।
ब्रह्मजालसुत्तवण्णना निहिता।
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२. सामञफलसुत्तवण्णना
राजामच्चकथावण्णना
१५०. राजगहेति एत्थ दुग्गजनपदट्ठानविसेससम्पदादियोगतो पधानभावेन राजूहि गहितन्ति राजगहन्ति आह “मन्धातु...पे०... वुच्चती''ति । तत्थ महागोविन्देन महासत्तेन परिग्गहितं रेणुआदीहि राजूहि परिग्गहितमेव होतीति महागोविन्दग्गहणं । महागोविन्दोति महानुभावो एको पुरातनो राजाति केचि । परिग्गहितत्ताति राजधानीभावेन परिग्गहितत्ता। पकारेति नगरमापनेन रञा कारितसब्बगेहत्ता राजगहं, गिज्झकूटादीहि परिक्खित्तत्ता पब्बतराजेहि परिक्खित्तगेहसदिसन्तिपि राजगहं, सम्पन्नभवनताय राजमानं गेहन्ति पि राजगहं, संविहितारक्खताय अनत्थावहभावेन उपगतानं पटिराजूनं गहं गेहभूतन्तिपि राजगहं, राजहि दिस्वा सम्मा पतिद्वापितत्ता तेसं गहं गेहभतन्तिपि राजगह, आरामरामणेय्यकादीहि राजते, निवाससुखतादिना सत्तेहि ममत्तवसेन गम्हति, परिग्गय्हतीति वा राजगहन्ति एदिसे पकारे सो पदेसो ठानविसेसभावेन उळारसत्तपरिभोगोति आह "तं पनेत"न्तिआदि । तेसन्ति यक्खानं । वसनवनन्ति आपानभूमिभूतं उपवनं ।
अविसेसेनाति “पातिमोक्खसंवरसंवुतो विहरति", (म० नि० १.६९; ३.७५; विभं० ५०८) “पठमं झानं उपसम्पज्ज विहरति, (दी० नि० १.२२६; सं० नि० १.२.१५२; अ० नि० १.४.१२३; पारा० ११) “मेत्तासहगतेन चेतसा एकं दिसं फरित्वा विहरति", (दी० नि० १.५५६; ३.३०८; म० नि० १.७७, ४५९, ५०९; २.३०९, ३१५, ४५१, ४७१; ३.२३०; विभं० ६४२) “सब्बनिमित्तानं अमनसिकारा अनिमित्तं चेतोसमाधिं समापज्जित्वा विहरती"तिआदीस (म० नि० १.४५९) विय सद्दन्तरसन्निधानसिद्धेन विसेसपरामसनेन विना। इरियाय कायिककिरियाय
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(२.१५०-१५०)
राजामच्चकथावण्णना
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पवत्तनूपायभावतो पथोति इरियापथो। ठानादीनहि गतिनिवत्ति आदिअवत्थाहि विना न कञ्चि कायिककिरियं पवत्तेतुं सक्का । विहरति पवत्तति एतेन, विहरणञ्चाति विहारो, दिब्बभावावहो विहारो दिब्बविहारो, महग्गतज्झानानि । नेत्तियं पन “चतस्सो आरुप्पसमापत्तियो आनेजा विहारा"ति वुत्तं । तं तासं मेत्ताझानादीनं ब्रह्मविहारता विय भावनाविसेसभावं सन्धाय वुत्तं । अट्ठकथासु पन दिब्बभावावहसामञतो तापि "दिब्बविहारा” त्वेव वुत्ता । हितूपसंहारादिवसेन पवत्तिया ब्रह्मभूता सेट्ठभूता विहाराति ब्रह्मविहारा, मेत्ताझानादिका। अनञसाधारणत्ता अरियानं विहाराति अरियविहारा, चतस्सोपि फलसमापत्तियो। समङ्गीपरिदीपनन्ति समङ्गिभावपरिदीपनं । इरियापथसमायोगपरिदीपनं इतरविहारसमायोगपरिदीपनस्स विसेसवचनस्स अभावतो, इरियापथसमायोगपरिदीपनस्स च अत्थसिद्धत्ता । विहरतीति एत्थ वि-सद्दो विच्छेदत्थजोतनो, हरतीति नेति, पवत्तेतीति अत्थो । तत्थ कस्स केन विच्छिन्दनं, कथं कस्स पवत्तनन्ति अन्तोलीनं चोदनं सन्धायाह "सो ही"तिआदि ।
गोचरगामदस्सनत्थं "राजगहे"ति वत्वा बुद्धानं अनुरूपनिवासनट्ठानदस्सनत्थं "अम्बवने''ति वुत्तन्ति आह "इदमस्सा"तिआदि । एतन्ति एतं "राजगहे"ति भुम्मवचनं समीपत्थे “गङ्गाय गावो चरन्ति, कूपे गग्गकुल''न्ति च यथा । कुमारेन भतोति कुमारभतो, सो एव कोमारभच्चो यथा भिसग्गमेव भेसज्जं । दोसाभिसन्नन्ति वातपित्तादिवसेन उस्सन्नदोसं । विरेचेत्वाति दोसपकोपतो विवेचेत्वा ।।
अडतेळसहीति अड्डेन तेरसहि अड्डतेरसहि भिक्खुसतेहि । तानि पन पञ्जासाय ऊनानि तेरसभिक्खुसतानि होन्तीति आह “अड्डसतेना"तिआदि ।
राजतीति दिब्बति, सोभतीति अत्थो। रजेतीति रमेति । रजोति पितु बिम्बिसाररञो । सासनटेन हिंसनटेन सत्तु।
भारियेति गरुके अजेसं असक्कुणेय्ये वा। सुवण्णसत्थकेनाति सुवण्णमयेन सत्थकेन । अयोमयहि रञ्जो सरीरं उपनेतुं अयुत्तन्ति वदति । सुवण्णसत्थकेनाति वा सुवण्णपरिक्खतेन सत्थकेन बाहुं फालापेत्वाति सिरावेधवसेन बाहुं फलापेत्वा उदकेन सम्भिन्दित्वा पायेसि केवलस्स लोहितस्स गमिनित्थिया दुज्जीरभावतो । धुराति धुरभूता,
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गटीका
(२.१५०-१५०)
गणस्स, धोरय्हाति अत्थो। धुरं नीहरामीति गणधुरं गणबन्धियं निब्बत्तेमि। "पुब्बे खो"तिआदि खन्धकपाळि एव ।
पोत्थनियन्ति छुरिकं, यं “नखर"न्तिपि [पोथनिकन्ति छुरिकं, यं खरन्तिपि (सारत्थ० टी० ३.३३९) पोथनिकन्ति छुरिकं, खरन्तिपि (विमति० टी० २.चूळवग्गवण्णना ३३९)] वुच्चति । दिवा दिवस्साति दिवस्सपि दिवा, मज्झन्हिकवेलायन्ति अत्थो ।
तस्सा सरीरं लेहित्वा यापेति अत्तूपक्कमेन मरणं न युत्तन्ति । न हि अरियसावका अत्तानं विनिपातेन्तीति । मग्गफलसुखेनाति मग्गफलसुखावहेन सोतापत्तिमग्गफलसुखूपसहितेन चङ्कमेन यापेति। चेतियङ्गणेति गन्धपुप्फादीहि पूजनट्ठानभूते चेतियङ्गणे। निसज्जनत्थायाति भिक्खुसङ्घनिसीदनत्थाय । चातुमहाराजिकदेवलोके...पे०... यक्खो हुत्वा निब्बत्ति तत्थ बहुलं निब्बत्तपुब्बताय चिरपरिचितनिकन्तिवसेन ।
खोभेत्वाति पुत्तसिनेहस्स बलवभावतो, सहजातपीतिवेगस्स च सविप्फारताय तंसमुट्ठानरूपधम्मेहि फरणवसेन सकलसरीरं आलोळेत्वा। तेनाह "अद्विमिजं आहच्च अट्ठासी''ति । पितुगुणन्ति पितु अत्तनि सिनेहगुणं । मुञ्चापेत्वाति एत्थ इति-सद्दो पकारत्यो, तेन “अभिमारकपुरिसपेसनादिप्पकारेना''ति वुत्ते एव पकारे पच्चामसति | वित्थारकथानयोति अजातसत्तुपसादनादिवसेन वित्थारतो वत्तब्बाय कथाय नयमत्तं । कस्मा पनेत्थ वित्थारनया कथा न वुत्ताति आह “आगतत्ता पन सब्बं न वुत्त"न्ति ।
कोसलरोति महाकोसलरञो। पण्डिताधिवचनन्ति पण्डितवेवचनं । विदन्तीति जानन्ति । वेदेन आणेन करणभूतेन ईहति पवत्ततीति वेदेहि।
एत्थाति एतस्मिं दिवसे। अनसनेन वाति वा-सद्दो अनियमत्थो, तेन एकच्चमनोदुच्चरितदुस्सील्यादीनि सङ्गण्हाति । तथा हि गोपालकूपोसथो अभिज्झासहगतचित्तस्स वसेन वुत्तो, निगण्ठुपोसथो मोसवज्जादिवसेन । यथाह “सो तेन अभिज्झासहगतेन चेतसा दिवसं अतिनामेती"ति, (अ० नि० १.७१) "इति यस्मिं समये सच्चे समादपेतब्बा, मुसावादे तस्मिं समये समादपेन्ती''ति (अ० नि० १.७१) च आदि | एत्थाति उपोसथसद्दे । अत्थुद्धारोति वत्तब्बअत्थानं उद्धारणं ।
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(२.१५० - १५० )
राजामच्चकथावण्णना
ननु च अत्थमत्तं पति सद्दा अभिनिविसन्तीति न एकेन सद्देन अनेके अस्था अभिधीयन्तीति ? सच्चमेतं सद्दविसेसे अपेक्खिते, तेसं पन अत्थानं उपोसथसद्दवचनीयता सामञ्जं उपादाय वुच्चमानो अयं विचारो उपोसथसद्दस्स अत्युद्धारोति वृत्तो । हेट्ठा “एवं मे सुत' न्तिआदीसु आगते अत्थुद्धारेपि एसेव नयो । कामञ्च पातिमोक्खुद्देसादिविसयोपि उपोसथसद्दो सामञ्ञरूपो एव विसेससद्दस्स अवाचकभावतो, तादिसं पन सामञ् अनादियित्वा अयमत्थो वुत्तोति वेदितब्बं । सीलसुद्धिवसेन उपेतेहि समग्गेहि वसीयत अनुट्ठीयतीति उपोसथो, पातिमोक्खुद्देसो । समादानवसेन अधिट्ठानवसेन वा उपेच्च अरियवासादिअत्थं वसितब्बतो उपोसथो, सीलं । अनसनादिवसेन उपेच्च वसितब्बतो
अनुवसितब्बत उपोसथो । उपवासोति समादानं । उपोसथकुलभूतताय
नवमहत्थिनिकायपरियापन्ने हत्थिनागे किञ्चि किरियं अनपेक्खित्वा रुळ्हिवसेन समञ्ञमत्तं उपोसथोति आह “उपोसथो नागराजातिआदीसु पञ्ञत्तीति । दिवसे पन उपोसथसद्दप्पवत्ति अट्ठकथायं वुत्ता एव । सुद्धस्स वे सदा फग्गूति एत्थ पन सुद्धस्साति सब्बसो किलेसमलाभावेन सुद्धस्स । वेति निपातमत्तं । वेति वा व्यत्तन्ति अत्थो । सदा फग्गूति निच्चकालम्पि फग्गुणनक्खत्तमेव । यस्स हि फग्गुणमासे उत्तरफग्गुणदिवसे तित्थन्हानं करोन्तस्स संवच्छरिकपापपवाहनं होतीति लद्धि, तं ततो विवेचेतुं इदं भगवता वृत्तं । सुद्धस्सुपोसथो सदाति यथावुत्तसुद्धिया सुद्धस्स उपोसथङ्गानि वतसमादानानि असमादियतोपि निच्चं उपोसथो, उपोसथवासो एवाति अत्थो । पञ्चदसन्नं तिथीनं पूरणवसेन पन्नरसो ।
च
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बहुसो, अतिसयतो वा कुमुदानि एत्थ सन्तीति कुमुदवती तिस्सं कुमुदवतिया । चतुन्नं मासानं पारिपूरिभूताति चातुमासी । सा एव पाळियं चातुमासिनीति वृत्तात आह "इध पन चातुमासिनीति वुच्चती 'ति । तदा कत्तिकमासस्स पुण्णताय मासपुण्णता । वस्सानस्स उतुनो पुण्णताय उतुपुण्णता । कत्तिकमासलक्खितस्स संवच्छरस्स पुण्णताय संवच्छरपुण्णता । "मा” इति चन्दो वुच्चति तस्स गतिया दिवसस्स मिनितब्बतो । एत्थ पुण्णोति एतिस्सा रत्तिया सब्बकलापारिपूरिया पुण्णो । तदा हि चन्दो सब्बसो परिपुण्णो हुत्वा दिस्सति । एत्थ च " तदहुपोसथे पन्नरसे "ति पदानि दिवसवसेन वुत्तानि, " कोमुदिया "तिआदीनि रत्तिवसेन ।
राजामच्चपरिवृतोति राजकुलसमुदागते अमच्चेहि
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परितो । अथ वा
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गटीका
(२.१५१-१५१)
अनुयुत्तकराजूहि चेव अमच्चेहि च परिवुतो । चतुरुपक्किलेसाति अब्भा महिका धूमरजो राहूति इमेहि चतूहि उपक्किलेसेहि । सनिद्वानं कतं अट्ठकथायं ।
पीतिवचनन्ति पीतिसमुट्ठानं वचनं । यहि वचनं पटिग्गाहकनिरपेक्खं केवलं उळाराय पीतिया वसेन सरसतो सहसाव मुखतो निच्छरति, तं इध "उदान"न्ति अधिप्पेतं । तेनाह “यं पीतिवचनं हदयं गहेतुं न सक्कोती"तिआदि ।
दोसेहि इता गता अपगताति दोसिना त-कारस्स न-कारं कत्वा यथा “किलेसे जितो विजितावीति जिनो'"ति | अनीय-सद्दो कत्तुअत्थे वेदितब्बोति आह "मनं रमयती"ति "रमणीया"ति यथा “निय्यानिका धम्मा''ति । जुण्हवसेन रत्तिया सुरूपताति आह "वुत्तदोसविमुत्ताया"तिआदि । तत्थ अब्भादयो वुत्तदोसा, तब्बिगमेनेव चस्सा दस्सनीयता, तेन, उतुसम्पत्तिया च पासादिकता वेदितब्बा। लक्खणं भवितुं युत्ताति एतिस्सा रत्तिया युत्तो दिवसो मासो उतु संवच्छरोति एवं दिवसमासउतुसंवच्छरानं सल्लक्खणं भवितुं युत्ता लक्खा , लक्खणीयाति अत्थो ।
"यं नो पयिरुपासतो चित्तं पसीदेय्या"ति वुत्तत्ता “समणं वा ब्राह्मणं वा"ति एत्थ परमत्थसमणो च परमत्थब्राह्मणो च अधिप्पेतो, न पब्बज्जामत्तसमणो, न जातिमत्तब्राह्मणो चाति आह "समितपापताय समणं। बाहितपापताय ब्राह्मण"न्ति । बहुवचने वत्तब्बे एकवचनं, एकवचने वा वत्तब्बे बहुवचनं वचनब्यतयो। अट्ठकथायं पन एकवचनवसेनेव ब्यतयो दस्सितो। अत्तनि, गरुडानिये च एकस्मिम्पि बहुवचनप्पयोगो निरूळहोति । सब्बेनपीति “रमणीया वता''तिआदिना सब्बेन वचनेन ।
ओभासनिमित्तकम्मन्ति ओभासभूतनिमित्तकम्मं परिब्यत्तं निमित्तकरणन्ति अत्थो । देवदत्तो चाति । च-सद्दो अत्तूपनयने, तेन यथा राजा अजातसत्तु अत्तनो पितु अरियसावकस्स सत्थुउपट्ठाकस्स घातनेन महापराधो, एवं भगवतो महाअनत्थकरस्स देवदत्तस्स अवस्सयभावेन पीति इममत्थं उपनेति । तस्स पिट्टिछायायाति तस्स जीवकस्स पिट्ठिअपस्सयेन, तं पमुखं कत्वा तं अपस्सायाति अत्थो । विक्खेपपच्छेदनत्थन्ति भाविनिया अत्तनो कथाय उप्पज्जनकविक्खेपनस्स पच्छिन्दनत्थं, अनुप्पत्तिअत्थन्ति अधिप्पायो । तेनाह "तस्सं ही"तिआदि ।
१५१. “सो किरा"तिआदि पोराणट्ठकथाय आगतनयो। एसेव नयो परतो
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(२.१५२ - १५२)
राजामच्चकथावण्णना
मक्खलिपदनिब्बचनेपि । उपसङ्कमन्तीति उपगता । तदेव पब्बज्जं अग्गहेसीति तदेव नग्गरूपं पब्बज्जं कत्वा गहि |
पब्बजितसमूहसङ्घातो सङ्घोत पब्बजितसमूहतामत्तेन सङ्घ, न निय्यानिकदिट्ठिसुविसुद्धसीलसामञ्ञवसेन संहतत्ताति अधिप्पायो । अस्स अत्थीति अस्स सत्थुपटिञ्ञस्स परिवारभूतो अत्थि । स्वेवाति पब्बजितसमूहसङ्घातोव । केचि पन " पब्बजितसमूहवसेन सङ्घी, गहट्ठसमूहवसेन गणी "ति वदन्ति, तं तेसं मतिमत्तं गणे एव लोके सङ्घ- सद्दस्स निरूळहत्ता । आचारसिक्खापनवसेनाति अचेलक वतचरियादिआचारसिक्खापनवसेन । पाकटोति सङ्घीआदिभावेन पकासितो । “अप्पिच्छो "ति वत्वा तत्थ लब्भमानं अप्पिच्छत्तं दस्सेतुं “अपिच्छताय वत्थम्पि न निवासेती "ति वृत्तं । न हि तस्मिं सासनिके विय सन्तगुणनिगूहणलक्खणा अप्पिच्छता लब्भतीति । यसोति कित्तिसद्दो । “तरन्ति एतेन संसारोघ "न्ति एवं सम्मतत्ता तित्थं वुच्चति द्धीत आह “तित्थकरोति लद्धिकरो”ति । साधुसम्मतोति " साधू' ति सम्मतो, न साधूहि सम्मतोति आह "अयं साधू" तिआदि । “ इमानि मे वतसमादानानि एत्तकं कालं सुचिणानीति पब्बजिततो पट्ठाय अतिक्कन्ता बहू रत्तियो जानातीति रत्तञ्जू । ता पनस्स रत्तियो चिरकालभूताि कत्वा चिरं पब्बजितस्स अस्साति चिरपब्बजितो । तत्थ चिरपब्बजिततागहणेन बुद्धिसीलतं दस्सेति, रत्तञ्जुतागहणेन तत्थ सम्पजानतं । अद्धानन्ति दीघकालं । कित्तको पन सोति आह " द्वे तयो राजपरिवट्टे "ति, द्विन्नं तिण्णं राजूनं रज्जं अनुसासनपटिपाटियोति अत्थो । "अद्धगतो ि वत्वा कतं वयोगहणं ओसानवयापेक्खन्ति आह "पच्छिमवयं अनुप्पत्तोति । उभयन्ति “अद्धगतो, वयोअनुप्पत्तो 'ति पदद्वयं ।
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पुब्बे पितरा सद्धिं सत्थु सन्तिकं गन्त्वा देसनाय सुतपुब्बतं सन्धायाह "झानाभिञादि... पे०... सोतुकामो "ति । दस्सनेनाति न दस्सनमत्तं, दिस्वा पन तेन सद्धिं आलापसल्लापं कत्वा ततो अकिरियवादं सुत्वा ते अनत्तमनो अहोसि । गुणकथायात अभूतगुणकथाय । तेनाह “सुठुतरं अनत्तमनो हुत्वा "ति । यदि अनत्तमनो, कस्मा तुम्ही अहोसीति आह “अनत्तमनो समानोपी" तिआदि ।
१५२. गोसालायाति एवं नामके गामे । वस्सानकाले गुन्नं तिट्ठनसालाति एके ।
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१९०
दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गटीका
(२.१५३-१५७)
१५३. पटिकिट्ठतरन्ति निहीनतरं । तन्तावुतानीति तन्ते पसारेत्वा वीतानि । “सीते सीतो"तिआदिना छहाकारेहि तस्स निहीनस्स निहीनतरतं दस्सेति ।
१५४. वच्चं कत्वापीति पि-सद्देन भोजनं भुञ्जित्वापि केनचि असुचिना मक्खितो पीति इममत्थं सम्पिण्डेति । वालिकथूपं कत्वाति वत्तवसेन वालिकाय थूपं कत्वा ।
संसारे
पलिबुद्धनकिच्चो
रागादिकिलेसो
१५६. पलिबुद्धनकिलेसोति खेत्तवत्थुपुत्तदारादिविसयो ।
कोमारभच्चजीवककथावण्णना
१५७. न यथाधिप्पायं वत्ततीति कत्वा वुत्तं "अनत्थो वत मे"ति। जीवकस्स तुण्हीभावो मम अधिप्पायस्स मद्दनसदिसो, तस्मा तं पुच्छित्वा कथापनेन मम अधिप्पायो पूरेतब्बोति अयमेत्थ रञो अज्झासयोति दस्सेन्तो "हथिम्हि नु खो पना"तिआदिमाह । किं तुण्हीति किं कारणा तुण्ही, किं तं कारणं, येन तुवं तुण्हीति. वुत्तं होति । तेनाह "केन कारणेन तुण्ही"ति ।
कामं सब्बापि तथागतस्स पटिपत्ति अन साधारणा अच्छरियअब्भुतरूपा च, तथापि गब्भोक्कन्तिअभिजातिअभिनिक्खमनअभिसम्बोधिधम्मचक्कप्पवत्तनयमकपाटिहारियदेवोरोहणानि सदेवके लोके अतिविय सुपाकटानि, न सक्का केनचि पटिबाहितुन्ति तानियेवेत्थ उद्धटानि । इत्थम्भूताख्यानत्थेति इत्थं एवं पकारो भूतो जातोति एवं कथनत्थे । उपयोगवचनन्ति । “अब्भुग्गतो"ति एत्थ अभीति उपसग्गो इत्थम्भूताख्यानत्थजोतको, तेन योगतो "तं खो पन भगवन्त"न्ति इदं सामिअत्थे उपयोगवचनं, तेनाह "तस्स खो पन भगवतोति अत्थो"ति | कल्याणगुणसमन्नागतोति कल्याणेहि गुणेहि युत्तो, तं निस्सितो तब्बिसयतायाति अधिप्पायो । सेडोति एत्थापि एसेव नयो। कित्तेतब्बतो कित्ति, सा एव सद्दनीयतो सद्दोति आह "कित्तिसदोति कित्तियेवा"ति । अभित्थवनवसेन पवत्तो सद्दो थुतिघोसो। अनञ्जसाधारणगुणे आरब्भ पवत्तत्ता सदेवकं लोकं अज्झोत्थरित्वा अभिभवित्वा उग्गतो।
सो भगवाति यो सो समतिं सपारमियो पूरेत्वा सब्बकिलेसे भञ्जित्वा अनुत्तरं
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(२.१५८-१५९)
कोमारभच्चजीवककथावण्णना
सम्मासम्बोधिं अभिसम्बुद्धो देवानं अतिदेवो सक्कानं अतिसक्को ब्रह्मानं अतिब्रह्मा लोकनाथो भाग्यवन्ततादीहि कारणेहि सदेवके लोके “भगवा''ति सब्बत्थ पत्थटकित्तिसद्दो, सो भगवा | "भगवा"ति च इदं सत्थु नामकित्तनं । तेनाह आयस्मा धम्मसेनापति "भगवाति नेतं नामं मातरा कतन्तिआदि । (महानि० ८४) परतो पन भगवाति गुणकित्तनं ।
यथा कम्मट्ठानिकेन “अरह''न्तिआदीसु नवट्ठानेसु पच्चेकं इति-सदं योजेत्वा बुद्धगुणा अनुस्सरीयन्ति, एवं बुद्धगुणसङ्कित्तकेनापीति दस्सेन्तो "इतिपि अरहं, इतिपि सम्मासम्बुद्धो...पे०... इतिपि भगवा"ति आह। “इतिपेतं अभूतं, इतिपेतं अतच्छ''न्तिआदीसु (दी० नि० १.५) विय इध इति-सद्दो आसन्नपच्चक्खकरणत्थो, पि-सद्दो सम्पिण्डनत्थो, तेन च तेसं गुणानं बहुभावो दीपितो। तानि च सङ्कित्तेन्तेन विञ्जना चित्तस्स सम्मुखीभूतानेव कत्वा सङ्कित्तेतब्बानीति दस्सेन्तो "इमिना च इमिना च कारणेनाति वुत्तं होती"ति आह । एवहि निरूपेत्वा कित्तेन्ते यस्स सङ्कित्तेति, तस्स भगवति अतिविय अभिप्पसादो होति। आरकत्ताति सुविदूरत्ता। अरीनन्ति किलेसारीनं । अरानन्ति संसारचक्कस्स अरानं । हतत्ताति विहतत्ता। पच्चयादीनन्ति चीवरादिपच्चयानञ्चेव पूजाविसेसानञ्च । ततोति विसुद्धिमग्गतो | यथा च विसुद्धिमग्गतो, एवं तंसंवण्णनतोपि नेसं वित्थारो गहेतब्बो।
यस्मा जीवको बहुसो सत्थुसन्तिके बुद्धगुणे सुत्वा ठितो, दिट्ठसच्चताय च सत्थुसासने विगतकथंकथो वेसारज्जप्पत्तो, तस्मा आह “जीवको पना"तिआदि । पञ्चवण्णायाति खुद्दिकादिवसेन पञ्चप्पकाराय । निरन्तरं फुटं अहोसि कताधिकारभावतो । कम्मन्तरायवसेन हिस्स रञो गुणसरीरं खतुपहतं अहोसि ।
१५८. "उत्तम''न्ति वत्वा न केवलं सेट्ठभावो एवेत्थ कारणं, अथ खो अप्पसद्दतापि कारणन्ति दस्सेतुं "अस्सयानरथयानानी"तिआदि वुत्तं । हत्थियानेसु निब्बिसेवनमेव गण्हन्तो हत्थिनियोव कप्पापेसि । रञो आसङ्कानिवत्तनत्थं आसन्नचारीभावेन तत्थ इत्थियोव निसज्जापिता । रो परेसं दुरुपसङ्कमनभावदस्सनत्थं ता पुरिसवेसं गाहापेत्वा आवुधहत्था कारिता । पटिवेदेसीति आपेसि । तदेवाति गमनं, अगमनमेव वा ।
१५९. महञ्चाति करणत्थे पच्चत्तवचनन्ति आह "महता चा''ति । महच्चाति
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गटीका
(२.१६०-१६१)
महतिया, लिङ्गविपल्लासवसेन वुत्तं, महन्तेनाति वुत्तं होति । तेनाह “राजानुभावेना"ति "द्विनं महारद्वानं इस्सरियसिरी"ति अङ्गमगधरहानं आधिपच्चमाह । आसत्तखग्गानीति अंसे ओलम्बनवसेन सन्नद्धअसीनि । कुलभोगइस्सरियादिवसेन महती मत्ता एतेसन्ति महामत्ता, महानुभावा राजपुरिसा। विज्जाधरतरुणा वियाति विज्जाधरकुमारा विय । रट्ठियपुत्ताति भोजपुत्ता। हथिघटाति हथिसमूहा। अञमञसङ्घट्टनाति अविच्छेदवसेन गमनेन अञमञ्जसम्बन्धा ।
चित्तुत्रासो सयं भायनढेन भयं यथा तथा भायतीति कत्वा । आणं भायितब्बे एव वत्थुस्मिं भयतो उपट्टिते “भायितब्बमिद''न्ति भयतो तीरणतो भयं। तेनेवाह "भयतुपट्ठानञाणं पन भायति नभायतीति ? न भायति । तहि अतीता सङ्खारा निरुद्धा, पच्चुप्पन्ना निरुज्झन्ति, अनागता निरुज्झिस्सन्तीति तीरणमत्तमेव होती"ति (विसुद्धि० २.७५१)। आरम्मणं भायति एतस्माति भयं। ओतप्पं पापतो भायति एतेनाति भयं । भयानकन्ति भायनाकारो। भयन्ति जाणभयं । संवेगन्ति सहोत्तप्पजाणं सन्तासन्ति सब्बसो उबिज्जनं । भायितब्बढेन भयं भीमभावेन भेरवन्ति भयभेरवं, भीतब्बवत्थु । तेनाह "आगच्छती"ति ।
भीलं पसंसन्तीति पापतो भायनतो उत्तसनतो भीरुं पसंसन्ति पण्डिता । न हि तत्थ सूरन्ति तस्मिं पापकरणे सूरं पगब्भधंसिनं न हि पसंसन्ति । तेनाह "भया हि सन्तो न करोन्ति पाप"न्ति । तत्थ भयाति पापुत्रासतो, ओत्तप्पहेतूति अत्थो। सरीरचलनन्ति भयवसेनसरीरसंकम्पो । एकेति उत्तरविहारवासिनो। "राजगहे"तिआदि तेसं अधिप्पायविवरणं। कामं वयतुल्यो "वयस्सो"ति वुच्चति, रूळ्हिरेसो, यो कोचि पन सहायो वयस्सो, तस्मा वयस्साभिलापोति सहायाभिलापो। न विप्पलम्भेसीति न विसंवादेसि । विनस्सेय्याति चित्तविघातेन विहओय्य ।
सामञफलपुच्छावण्णना
१६०. भगवतो तेजोति बुद्धानुभावो । रञो सरीरं फरि यथा तं सोणदण्डस्स ब्राह्मणस्स भगवतो सन्तिकं गच्छन्तस्स अन्तोवनसण्डगतस्स । एकेति उत्तरविहारवासिनो ।
१६१. येन, तेनाति च भुम्मत्थे करणवचनन्ति आह “यत्थ भगवा, तत्थ गतो"ति ।
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(२.१६२ - १६३)
सामञ्ञफलपुच्छावण्णना
तदा तस्मिं भिक्खुसङ्घे तुम्हीभावस्स अनवसेसतो ब्यापिभावं दस्सेतुं "तुम्हीभूतं तुम्हीभूत "न्ति वुत्तन्ति आह “ यतो यतो... पे०... मेवाति अत्थो 'ति । हत्थस्स कुकTत्ता असंयमो असम्पञ्ञकिरिया हत्थकुक्कुच्चन्ति वेदितब्बो । वा सद्दो अवुत्तविकप्पत्थो, तेन तदञ असंयमभावो विभावितोति दट्ठब्बं । तत्थ पन चक्खुअसंयमो सब्बपठमो, दुन्निवा चाति तदभावं दस्सेतुं "सब्बालङ्कारपटिमण्डित "न्तिआदि वृत्तं । कायिकवाचसिकेन उपसमेन लद्धेन इतरोपि अनुमानतो लद्धो एव होतीति आह “ मानसिकेन चा "ति । उपसमन्ति संयमं, आचारसम्पत्तिन्ति अत्थो । पञ्चपरिवट्टेति पञ्चपुरिसपरिवट्टे । पञ्चहाकारेहीति "इट्ठानिट्टे तादी "ति (महानि० ३८, १९२) एवं आदिना आगतेहि, पञ्चविधअरियिद्धिसिद्धेहि च पञ्चहि पकारेहि । तादिलक्खणेति तादिभावे ।
१६२. न मे पञ्हविस्सज्जने भारो अत्थीति सत्थु सब्बत्थ अप्पटिहतञाणचारतादस्सनं । यदाकङ्क्षसीति न वदन्ति, कथं पन वदन्तीति आह "सुत्वा वेदिस्सामा" ति पदेसञणे ठितत्ता । बुद्धा पन सब्बञ्ञपवारणं पवारेन्तीति सम्बन्धो । “यक्खनरिन्ददेवसमणब्राह्मणपरिब्बाजकान "न्ति इदं “पुच्छावुसो यदाकसी "तिआदीनि (सं० नि० १.१.२३७, २४६; सु० नि० आळवकसुत्ते) सुत्तपदानि पुच्छन्तानं येसं पुग्गलानं वसेन आगतानि, तं दस्सनत्थं । “पुच्छावुसो यदाकसी" ति इदं आळवकरस यक्खस्स ओकासकरणं, सेसानि नरिन्दादीनं । मनसिच्छसीति मनसा इच्छसि । पुच्छव्हो, यं किञ्चि मनसिच्छथाति बावरिस्स संसयं मनसा पुच्छव्हो । तुम्हाकं पन सब्बेसं यं किञ्चि सब्बसंसयं मनसा, अञ्ञथा च यथा इच्छथ, तथा पुच्छव्होति अधिप्पायो ।
साधुरूपाति साधुसभावा । धम्मोति पवेणीधम्मो | वुद्धन्ति सीलादीहि बुद्धिप्पत्तं, गरुन्ति अत्थो । एस भारोति एस संसयूपच्छेदनसङ्घातो भारो, आगतो भारो अवस्सं आवहितब्बोति अधिप्पायो । ञत्वा सयन्ति परूपदेसेन विना सयमेव अत्वा ।
१६३.
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सुचिरतेनाति एवं नामकेन ब्राह्मणेन । तग्घाति एकंसेन । यथापि कुसलो तथाति यथा सब्बधम्मकुसलो सब्बविदू जानाति कथेति, तथा अहमक्खिस्सं । राजा च खो तं यदि काहति वा न वाति यो तं इध पुच्छितुं पेसेसि, सो राजानं तया पुच्छितं करोतु वा मावा, अहं पन ते अक्खिस्सं अक्खिस्सामि, आचिक्खिस्सामीति अत्थो ।
सिप्पनट्ठेन सिक्खितब्बताय च सिप्पमेव सिप्पायतनं जीविकाय
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गटीका
कारणभावतो । सेय्यथिदन्ति निपातो, तस्स ते कतमेति अत्थो । पुथु सिप्पायतानीति साधारणतो सिप्पानि उद्दिसित्वा उपरि तंतंसिप्पूपजीविनो निद्दिट्ठा पुग्गलाधिट्ठानकथा पञ्चं परिहरितुं । अञ्ञथा यथाधिप्पेतानि ताव सिप्पायतनानि दस्सेत्वा पुन तंतंसिप्पूपजीवीसु दस्सियमानेसु पपञ्चो सियाति । तेनाह “ हत्थारोहा "तिआदि ।
हत्थिं आरोहन्ति, आरोहापयन्ति चाति हत्थारोहा । येहि पयोगेहि पुरिसो हथिनी आरोहनयोग्गो होति, हत्थिस्स तं पयोगं विधायतं सब्बेसं पेतेसं गहणं । तेनाह “सब्बेपी’'तिआदि । तत्थ हत्थाचरिया नाम ये हत्थिनो हत्थारोहकानञ्च सिक्खपका । हत्थवेज्जा नाम हत्थिभिसक्का । हत्थिमेण्डा नाम हत्थीनं पादरक्खका । आदि-सद्देन हत्थीनं यवसदायकादिके सङ्गण्हाति । अस्सारोहा रथिकाति एत्थापि एसेव नयो । रथे नियुक्त्ता रथिका। रथरक्खा नाम रथस्स आणिरक्खका । धनुं गण्हन्ति, गण्हापेन्ति चाति धनुग्गहा, इस्सासा धनुसिप्पस्स सिक्खापका च । तेनाह “ धनुआचरिया इस्सासा" ति । चेलेन चेलपटाकाय युद्धे अकन्ति गच्छन्तीति चेलकाति आह “ये युद्धे जयधजं गहेत्वा पुरतो गच्छन्ती 'ति । यथा तथा ठिते सेनिके ब्यूहकरणवसेन ततो चलयन्ति उच्चान्तीति चलका। सकुणग्घिआदयो विय मंसपिण्डं परसेनासमूहं साहसिकमहायोधताय छत्वा छेत्वा दयन्ति उप्पतित्वा उप्पतित्वा गच्छन्तीति पिण्डदायका । दुतियविकप्पे पिण्डे दयन्ति जनसम्मद्दे उप्पतन्ता विय गच्छन्तीति पिण्डदायकाति अत्थो वेदितब्बो । उग्ग थामजवपरक्कमादिवसेन अतिविय उग्गता उग्गाति अत्थो । पक्खन्दन्तीति अत्तनो वीरसूरभावेन असज्जमाना परसेनं अनुपविसन्तीति अत्थो । थामजवबलपरक्कमादिसम्पत्तिया महानागा विय महानागा । एकन्तसूराति एकाकिसूरा अत्तनो सूरभावेनेव एकाकिनो हुत्वा युज्झनका | सजालिकाति सवम्मिका । सरपरित्ताणचम्मन्ति चम्मपरिसिब्बितं खेटकं, चम्ममयं वा फलकं । घरदासयोधाति अन्तोजातयोधा ।
(२.१६३-१६३)
आळारं वुच्चति महानसं तत्थ नियुत्ताति आळारिका, भत्तकारा । पूविकाति पूर्वसम्पादका, पूवमेव नानप्पकारतो सम्पादेत्वा विक्किणन्ता जीवन्ति । केसनखलिखनादिवसेन मनुस्सानं अलङ्कारविधिं कप्पेन्ति संविदहन्तीति कप्पका । न्हापकाति चुणविलेपनादीहि मलहरणवण्णसम्पादनविधिना न्हापेन्तीति न्हापका । नवन्तादिविधिना पवत्तो गणनगन्थो अन्तरा छिद्दाभावेन अच्छिद्दकोति वुच्चति, तं गणनं उपनिस्साय जीवन्ता अच्छिद्दकपाठका । हत्थेन अधिप्पायविञ्ञापनं हत्थमुद्दा हत्थ- सद्दो चेत्थ तदेकदेसेसु अङ्गुलीसुदट्ठब्बो । “न भुञ्जमानो सब्बं हत्थं मुखे पक्खिपिस्सामी "तिआदीसु विय, तस्मा
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(२.१६४-१६६)
पूरणकस्सपवादवण्णना
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अङ्गलिसङ्कोचनादिना गणना हत्थमुद्दाय गणना। चित्तकारादीनीति। आदि-सद्देन भमकारकोट्टकलेखक विलीवकारादीनं सङ्गहो दट्ठब्बो । दिद्वेव धम्मेति इमस्मिंयेव अत्तभावे । सन्दिहिकमेवाति असम्परायिकताय सामं दट्ठबं, सयं अनुभवितब्बं अत्तपच्चखं दिट्ठधम्मिकन्ति अत्थो । सुखितन्ति सुखप्पत्तं । उपरीति देवलोके । सो हि मनुस्सलोकतो उपरिमो। कम्मस्स कतत्ता निब्बत्तनतो तस्स फलं तस्स अग्गिसिखा विय होति, तञ्च उद्धं देवलोकेति आह "उद्धं अग्गं अस्सा अत्थीति उदग्गिका"ति । सग्गं अरहतीति अत्तनो फलभूतं सग्गं अरहति, तत्थ सा निब्बत्तनारहोति अत्थो। सुखविपाकाति इट्ठविपाकविपच्चनीका । सुटु अग्गेति अतिविय उत्तमे उळारे । दक्खन्ति वड्वन्ति एतायाति दक्खिणा, परिच्चागमयं पुञ्जन्ति आह "दक्खिणं दान"न्ति ।
मग्गो सामनं समितपापसमणभावोति कत्वा । यस्मा अयं राजा पब्बजितानं दासकस्सकादीनं लोकतो अभिवादनादिलाभो सन्दिट्टिकं सामञफलन्ति चिन्तेत्वा “अस्थि नु खो कोचि समणो वा ब्राह्मणो वा ईदिसमत्थं जानन्तो''ति वीमंसन्तो पूरणादिके पुच्छित्वा तेसं कथाय अनाराधितचित्तो भगवन्तम्पि तमत्थं पुच्छि, तस्मा वुत्तं "उपरि आगतं पन दासकस्सकोपमं सन्धाय पुच्छती"ति ।
कण्हपक्खन्ति यथापुच्छिते अत्थे लब्भमानं दिविगतूपसहितं संकिलेसपक्खं । सुक्कपक्खन्ति तबिधुरं उपरिसुत्तागतं वोदानपक्खं । समणकोलाहलन्ति समणकोतूहलं तंतंसमणवादानं अञमञविरोधं । समणभण्डनन्ति तेनेव विरोधेन “एवंवादीनं तेसं समणब्राह्मणानं अयं दोसो, एवंवादीनं अयं दोसो"ति एवं तंतंवादस्स परिभासनं । रञो भारं करोन्तो अत्तनो देसनाकोसल्लेनाति अधिप्पायो ।
१६४. पण्डितपतिरूपकानन्ति आमं विय पक्कानं पण्डिताभासानं ।
पूरणकस्सपवादवण्णना १६५. एकं इदाहन्ति एकाहं । इध-सद्दो चेत्थ निपातमत्तं, एकाहं समयं तिच्चेव अत्थो । सरितब्बयुत्तन्ति अनुस्सरणानुच्छविकं ।
१६६. सहत्था करोन्तस्साति सहत्थेनेव करोन्तस्स । निस्सग्गियथावरादयोपि इध
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गटीका
(२.१६६-१६६)
सहत्थकरणेनेव सङ्गहिता । हत्थादीनीति हत्थपादकण्णनासादीनि | पचनं दहनं विबाधनन्ति आह "दण्डेन उप्पीळेन्तस्सा"ति । पपञ्चसूदनियं “तज्जेन्तस्स वाति अत्थो वुत्तो, इध पन तज्जनं परिभासनं दण्डेनेव सङ्गहेत्वा "दण्डेन उप्पीळेन्तस्स" इच्चेव वत्तं । सोकं सयं करोन्तस्साति परस्स सोककारणं सयं करोन्तस्स, सोकं वा उप्पादेन्तस्स | परेहीति अत्तनो वचनकरेहि। सयम्पि फन्दतोति परस्स विबाधनपयोगेन सयम्पि फन्दतो। "अतिपातापयतो"ति पदं सुद्धकत्तुअत्थे हेतुकत्तुअत्थे च वत्ततीति आह "हनन्तस्सापि हनापेन्तस्सापीति | कारणवसेनाति कारापनवसेन ।
घरस्स भित्ति अन्तो बहि च सन्धिता हुत्वा ठिता घरसन्धि। किञ्चिपि असेसेत्वा निरवसेसो लोपो निल्लोपो। एकागारे नियुत्तो विलोपो एकागारिको। परितो सब्बसो पन्थे हननं परिपन्थो। पापं न करीयति पुब्बे असञतो उप्पादेतुं असक्कुणेय्यत्ता, तस्मा नत्थि पापं। यदि एवं कथं सत्ता पापे पटिपज्जन्तीति आह "सत्ता पन पापं करोमाति एवं सञिनो होन्ती''ति । एवं किरस्स होति- इमेसहि सत्तानं हिंसादिकिरिया न अत्तानं फुसति तस्स निच्चताय निब्बिकारत्ता सरीरं पन अचेतनं कट्ठकलिङ्गरूपम, तस्मिं विकोपितेपि न किञ्चि पापन्ति । खुरनेमिनाति निसितखुरमयनेमिना ।
___ गङ्गाय दक्खिणा दिसा अप्पतिरूपदेसो, उत्तरा दिसा पतिरूपदेसोति अधिप्पायेन"दक्खिणञ्च"तिआदि वत्तन्ति आह "दक्खिणतीरे मनस्सा कक्खळा"तिआदि । महायागन्ति महाविजितयसदिसं महायागं । उपोसथकम्मेन वाति उपोसथकम्मेन च । दम-सद्दो हि इन्द्रियसंवरस्स उपोसथसीलस्स च वाचको इधाधिप्पेतो | केचि पन "उपोसथकम्मेनाति इदं इन्द्रियदमनस्स विसेसनं, तस्मा 'उपोसथकम्मभूतेन इन्द्रियदमनेना''ति अत्थं वदन्ति | सीलसंयमेनाति कायिकवाचसिकसंवरेन | सच्चवज्जेनाति सच्चवाचाय, तस्सा विसुं वचनं लोके गरुतरपुञ्जसम्मतभावतो । यथा हि पापधम्मसु मुसावादो गरु, एवं पुञधम्मेसु सच्चवाचा। तेनाह भगवा “एकं धम्म अतीतस्सा"तिआदि। पवत्तीति यो "करोती"ति वच्चति. तस्स सन्ताने फलप्पत्तिपच्चयभावेन उप्पत्ति | सब्बथाति "करोतो"तिआदिना वत्तेन सब्बप्पकारेन । किरियमेव पटिक्खिपति, न रञा पुढे सन्दिट्टिकं सामञफलं ब्याकरोतीति अधिप्पायो । इदं अवधारणं विपाकपटिक्खेपनिवत्तनत्थं । यो हि कम्मं पटिक्खिपति, तेन अत्थतो विपाकोपि पटिक्खित्तो एव नाम होति । तथा हि वक्खति “कम्म पटिबाहन्तेनापी'तिआदि (दी० नि० अट्ठ० १.१७०-१७२)।
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(२.१६८-१६८)
मक्खलिगोसालवादवण्णना
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पटिराजूहि अनभिभवनीयभावेन विसेसतो जितन्ति विजितं, आणापवत्तिदेसो । “मा मय्हं विजिते वसथा''ति अपसादना पब्बजितस्स विहेठना पब्बाजनाति कत्वा वुत्तं "अपसादेतब्बन्ति विहेठेतब्ब"न्ति । उग्गण्हनं तेन वुत्तस्स अत्थस्स “एवमेत"न्ति उपधारणं सल्लक्खणं, निकुज्जनं तस्स अद्धनियभावापादनवसेन चित्तेन सन्धारणं। तदुभयं पटिक्खिपन्तो आह "अनुग्गण्हन्तो अनिकुज्जन्तो"ति। तेनाह "सारवसेन अग्गण्हन्तो"तिआदि ।
मक्खलिगोसालवादवण्णना __ १६८. उभयेनाति हेतुपच्चयपटिसेधनवचनेन । संकिलेसपच्चयन्ति संकिलिस्सनस्स मलीनभावस्स कारणं । विसुद्धिपच्चयन्ति सङ्किकिलेसतो विसुद्धिया वोदानस्स कारणं । अत्तकारोति तेन तेन सत्तेन अत्तना कातब्बकम्मं अत्तना निप्फादेतब्बपयोगो। परकारन्ति परस्स वाहसा इज्झनकपयोजनं । तेनाह “येना"तिआदि । महासत्तन्ति अन्तिमभविकं महाबोधिसत्तं, पच्चेकबोधिसत्तस्सपि एत्येव सङ्गहो वेदितब्बो । मनुस्ससोभग्यतन्ति मनुस्सेसु सुभगभावं। एवन्ति वुत्तप्पकारेन । कम्मवादस्स किरियवादस्स पटिक्खिपनेन “अस्थि भिक्खवे कम्मं कण्हं कण्हविपाक"न्तिआदि (अ० नि० १.४.२३२) नयप्पवत्ते जिनचक्के पहारं देति नाम। नत्थि पुरिसकारेति यथावुत्तअत्तकारपरकाराभावतो एव सत्तानं पच्चत्तपुरिसकारो नाम कोचि नत्थीति अत्थो। तेनाह "येना"तिआदि । नत्थि बलन्ति सत्तानं दिट्ठधम्मिकसम्परायिकनिब्बानसम्पत्तिआवहं बलं नाम किञ्चि नत्थि। तेनाह "यम्ही"तिआदि । निदस्सनमत्तञ्चेतं, संकिलेसिकम्पि चायं बलं पटिक्खिपतेव । यदि वीरियादीनि पुरिसकारवेवचनानि, कस्मा विसुं गहणन्ति आह "इदं नो वीरियेना"तिआदि। सद्दत्थतो पन तस्सा तस्सा किरियाय उस्सन्नटेन बलं । सूरवीरभावावहढेन वीरियं। तदेव दळहभावतो, पोरिसधुरं वहन्तेन पवत्तेतब्बतो च पुरिसथामो। परं परं ठानं अक्कमनप्पवत्तिया पुरिसपरक्कमोति वुत्तोति वेदितब्बं ।
सत्तयोगतो रूपादीसु सत्तविसत्तताय सत्ता। पाणनतो अस्ससनपस्ससनवसेन पवत्तिया पाणा। ते पन सो एकिन्द्रियादिवसेन विभजित्वा वदतीति आह "एकिन्द्रियो"तिआदि। अण्डकोसादीसु भवनतो "भूता"ति वुच्चन्तीति आह "अण्डकोस...पे०... वदती"ति । जीवनतो पाणं धारेन्ता विय वड्डनतो जीवा। तेनाह "सालियवा'तिआदि । नत्थि एतेसं संकिलेसविसुद्धीसु वसोति अवसा। नत्थि नेसं बलं
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गटीका
(२.१६८-१६८)
वीरियं चाति अबला अवीरिया। नियताति अच्छेज्जसुत्तावुताभेज्जमणिनो विय नियतप्पवत्तिताय गतिजातिबन्धापवग्गवसेन नियामो । तत्थ तत्थ गमनन्ति छन्नं अभिजातीनं तासु तासु गतीसु उपगमनं समवायेन समागमो। सभावोयेवाति यथा कण्टकस्स तिखिणता, कपित्थफलानं परिमण्डलता, मिगपक्खीनं विचित्ताकारता, एवं सब्बस्सापि लोकस्स हेतुपच्चयेन विना तथा तथा परिणामो अयं सभावो एव अकित्तिमोयेव । तेनाह "येन ही"तिआदि। छळाभिजातियो परतो वित्थारीयन्ति । "सुखञ्च दुक्खञ्च पटिसंवेदेन्ती"ति वदन्तो अदुक्खमसुखभूमिं सब्बेन सब्बं न जानातीति उल्लिङ्गन्तो "अञा अदुक्खमसुखभूमि नत्थीति दस्सेती"ति आह ।
पमुखयोनीनन्ति मनुस्सतिरच्छानादीसु खत्तियब्राह्मणादिसीहब्यग्यादिवसेन पधानयोनीनं । सद्विसतानीति छसहस्सानि । “पञ्च च कम्मुनो सतानी''ति पदस्स अत्थदस्सनं "पञ्चकम्मसतानि चा"ति | "एसेव नयो"ति इमिना “केवलं तक्कमत्तकेन निरत्थकं दिळिं दीपेती'ति इममेवत्थं अतिदिसति । एत्थ च "तक्कमत्तकेना"ति इमिना यस्मा तक्किका निरङ्कुसताय परिकप्पनस्स यं किञ्चि अत्तनो परिकप्पितं सारतो मञ्जमाना तथेव अभिनिविस्स तक्कदिहिगाहं गण्हन्ति, तस्मा न तेसं दिवित्थुस्मिं विग्रूहि विचारणा कातब्बाति दस्सेति । केचीति उत्तरविहारवासिनो। ते हि “पञ्च कम्मानीति चक्खुसोतघानजिव्हाकाया इमानि पञ्चिन्द्रियानि 'पञ्च कम्मानी'ति पापेन्तीति वदन्ति। कम्मन्ति लद्धीति ओळारिकभावतो परिपुण्णकम्मन्ति लद्धि। मनोकम्म अनोळारिकत्ता उपडकम्मन्ति लद्धीति योजना | ट्ठिपटिपदाति "द्वासट्ठि पटिपदा''ति वत्तब्बे सभावनिरुत्तिं अजानन्तो "ट्ठिपटिपदा"ति वदति । एकस्मिं कप्पेति एकस्मिं महाकप्पे, तत्थापि च विवठ्ठायीसञिते एकस्मिं असङ्खयेय्येकप्पे ।
उरब्भे हनन्तीति ओरब्मिका । एवं सूकरिकादयो वेदितब्बा। लुद्दाति अञपि ये केचि मागविकनेसादा। ते पापकम्मपसुतताय "कण्हाभिजातीति वदति। भिक्खू"ति बुद्धसासने भिक्खू । ते किर “सछन्दरागा परिभुञ्जन्ती'ति अधिप्पायेन "चतूसु पच्चयेसु कण्टके पक्खिपित्वा खादन्ती"ति वदति । कस्माति चे ? यस्मा “ते पणीतपणीते पच्चये पटिसेवन्तीति तस्स मिच्छागाहो, तस्मा आयलद्धपि पच्चये भुञ्जमाना आजीवकसमयस्स विलोमगाहिताय पच्चयेसु कण्टके पक्खिपित्वा खादन्ति नामाति वदतीति अपरे । एके पब्बजिता, ये सविसेसं अत्तकिलमथानुयोगं अनुयुत्ता। तथा हि ते कण्टके वत्तन्ता विय होन्तीति “कण्टकवुत्तिका"ति वुत्ता। ठत्वा भुञ्जननहानपटिक्खेपादिवतसमायोगेन
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(२.१६८-१६८)
मक्खलिगोसालवादवण्णना
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पण्डरतरा। “अचेलकसावका"ति आजीवकसावके वदति । ते किर आजीवकलद्धिया विसुद्धचित्तताय निगण्ठेहिपि पण्डरतरा। नन्दादयो हि तथारूपं आजीवकपटिपत्तिं उक्कंसं पापेत्वा ठिता । तस्मा निगण्ठेहि आजीवकसावकेहि च पण्डरतरा परमसुक्काभिजातीति अयं तस्स लद्धि।
पुरिसभूमियोति पधानपुग्गलेन निद्देसो । इत्थीनम्पि ता भूमियो इच्छन्तेव । “भिक्खु च पन्नको"तिआदि तेसं पाळियेव । तत्थ पन्नकोति भिक्खाय विचरणको, तेसं वा पटिपत्तिया पटिपन्नको । जिनोति जिण्णो जरावसेन हीनधातुको, अत्तनो वा पटिपत्तिया पटिपखं जिनित्वा ठितो । सो किर तथाभूतो धम्मम्पि कस्सचि न कथेसि । तेनाह "न किञ्चि आहा"ति | ओढवदनादिविप्पकारे कतेपि खमनवसेन न किञ्चि वदतीतिपि वदन्ति । अलाभिन्ति “सो न कुम्भिमुखा पटिग्गण्हाती''तिआदिना (दी० नि० १.३९४) नयेन वुत्तअलाभहेतुसमायोगेन अलाभिं, ततोयेव जिघच्छादुब्बलपरेतताय सयनपरायनं “समणं पन्नभूमी"ति वदति ।
आजीवत्तिसतानीति सत्तानं आजीवभूतानि जीविकावुत्तिसतानि । पसुग्गहणेन एळकजाति गहिता, मिगग्गहणेन रुरुगवयादिसब्बमिगजाति। बहू देवाति चातुमहाराजिकादिब्रह्मकायिकादिवसेन, तेसं अन्तरभेदवसेन बहू देवा। तत्थ चातुमहाराजिकानं एकच्चभेदो महासमयसुत्तवसेन (दी० नि० २.३३१) दीपेतब्बो । मनुस्सापि अनन्ताति दीपदेसकुलवंसाजीवादिविभागवसेन मनुस्सापि अनन्तभेदा । पिसाचा एव पेसाचा। ते अपरपेतादयो महन्तमहन्ता। छद्दन्तदहमन्दाकिनियो कुवाळियमुचलिन्दनामेन वदति ।
पवुटाति पब्बगण्ठिका | पण्डितोपि...पे०... उद्धं न गच्छति, कस्मा ? सत्तानं संसरणकालस्स नियतभावतो। अपरिपक्कं संसरणनिमित्तं सीलादिना परिपाचेति नाम सीघंयेव विसुद्धिप्पत्तिया। परिपक्कं कम्मं फुस्स फुस्स पत्वा पत्वा कालेन परिपक्कभावानापादनेन व्यन्तिं करोति नाम।
सुत्तगुळेति सुत्तवट्टियं । "निब्बेठियमानमेव पलेती"ति उपमाय सत्तानं संसारो अनुक्कमेन खीयतेव, न तस्स वड्ढतीति दस्सेति परिच्छिन्नरूपत्ता ।
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गटीका
(२.१७१--१७१)
अजितकेसकम्बलवादवण्णना
१७१. दिनन्ति देय्यधम्मसीसेन दानं वुत्तन्ति आह "दिनस्स फलाभावं वदती"ति, दिन्नं पन अन्नादिवत्थु कथं पटिक्खिपति | एसेव नयो यिटुं हुतन्ति एत्थापि । महायागोति सब्बसाधारणं महादानं। पाहुनकसक्कारोति पाहुनभावेन कातब्बसक्कारो। फलन्ति आनिसंसफलं, निस्सन्दफलञ्च । विपाकोति सदिसफलं। परलोके ठितस्स अयं लोको नत्थीति परलोके ठितस्स कम्मुना लद्धब्बो अयं लोको न होति । इधलोके ठितस्सापि परलोको नत्थीति इधलोके ठितस्स कम्मुना लद्धब्बो परलोको न होति । तत्थ कारणमाह "सब्बे तत्थ तत्थेव उच्छिज्जन्ती"ति । इमे सत्ता यत्थ यत्थ भवे, योनिआदीसु च ठिता तत्थ तत्थेव उच्छिज्जन्ति निरुदयविनासवसेन विनस्सन्ति । फलाभाववसेनाति मातापितूसु सम्मापटिपत्तिमिच्छापटिपत्तीनं फलस्स अभाववसेन “नत्थि माता, नस्थि पिता'"ति वदति, न मातापितूनं, नापि तेसु इदानि कयिरमानसक्कारासक्कारानं अभाववसेन तेसं लोकपच्चक्खत्ता। पुब्बुळकस्स विय इमेसं सत्तानं उप्पादो नाम केवलो, न चवित्वा आगमनपुब्बकोति दस्सनत्थं "नत्थि सत्ता ओपपातिका'ति वुत्तन्ति आह "चवित्वा उपपज्जनकसत्ता नाम नत्थीति वदती"ति | समणेन नाम याथावतो जानन्तेन कस्सचि किञ्चि अकथेत्वा सञतेन भवितब्बं, अञथा आहोपुरिसिका नाम सिया । किन्हि परो परस्स करिस्सति ? तथा च अत्तनो सम्पादनस्स कस्सचि अवस्सयो एव न सिया तत्थ तत्थेव उच्छिज्जनतोति आह "ये इमञ्च...पे०... पवेदेन्ती"ति ।
__ चतूसु महाभूतेसु नियुत्तोति चातुमहाभूतिको। यथा पन मत्तिकाय निब्बत्तं भाजनं मत्तिकामयं, एवं अयं चतूहि महाभूतेहि निब्बत्तोति आह "चतुमहाभूतमयो"ति । अज्झत्तिकपथवीधातूति सत्तसन्तानगता पथवीधातु । बाहिरपथवीधातुन्ति बहिद्धा महापथविं । उपगच्छतीति बाहिरपथविकायतो तदेकदेसभूता पथवी आगन्त्वा अज्झत्तिकभावप्पत्तिया सत्तभावेन सण्ठिता इदानि घटादिगतपथवी विय तमेव बाहिरपथविकायं उपेति उपगच्छति सब्बसो तेन निब्बिसेसतं एकीभावमेव गच्छति । आपादीसुपि एसेव नयोति एत्थ पज्जुन्नेन महासमुद्दतो गहितआपो विय वस्सोदकभावेन पुनपि महासमुद्दमेव, सूरियरस्मितो गहितं इन्दग्गिसङ्घाततेजो विय पुन सूरियरस्मिं, महावायुखन्धतो निग्गतमहावातो विय तमेव वायुखन्धं उपेति उपगच्छतीति दिट्टिगतिकस्स अधिप्पायो। मनच्छवानि इन्द्रियानि आकासं पक्खन्दन्ति तेसं विसयाभावाति वदन्ति । विसयिगहणेन हि विसयापि गहिता एव होन्तीति। गुणागुणपदानीति गुणदोसकोट्ठासा। सरीरमेव पदानीति अधिप्पेतं सरीरेन
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(२.१७१-१७१)
अजितकेसकम्बलवादवण्णना
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तंतंकिरियाय पज्जितब्बतो। दब्बन्ति मुव्हन्तीति दत्तू, मूळ्हपुग्गला। तेहि दत्तूहि बालमनुस्सेहि । “परलोको अत्थी'"ति मति येसं, ते अत्थिका, तेसं वादोति अत्थिकवादो, तं अत्थिकवादं।
कम्म पटिबाहति अकिरियवादिभावतो। विपाकं पटिबाहति सब्बेन सब्बं आयतिं उपपत्तिया पटिक्खिपनतो। उभयं पटिबाहति सब्बसो हेतुपटिबाहनेनेव फलस्सपि पटिक्खित्तत्ता । उभयन्ति हि कम्मं विपाकञ्चाति उभयं । सो हि “अहेतू अप्पच्चया सत्ता संकिलिस्सन्ति, विसुज्झन्ति चा''ति (दी० नि० १.१६८; म० नि० २.१००, २२७; सं० नि० २.३.२१२) वदन्तो कम्मस्स विय विपाकस्सापि संकिलेसविसुद्धीनं पच्चयत्ताभाववचनतो तदुभयं पटिबाहति नाम । विपाको पटिबाहितो होति असति कम्मे विपाकाभावतो। कम्मं पटिबाहितं होति असति विपाके कम्मस्स निरत्थकभावापत्तितो । अत्थतोति सरूपेन । उभयप्पटिबाहकाति विसुं विसुं तंतंदिट्टिदीपकभावेन पाळियं आगतापि पच्चेकं तिविधदिट्ठिका एव उभयपटिबाहकत्ता । उभयप्पटिबाहकाति हि हेतुवचनं । "अहेतुकवादा चेवा"तिआदि पटिञावचनं । यो हि विपाकपटिबाहनेन नत्थिकदिट्ठिको उच्छेदवादी, सो अत्थतो कम्मपटिबाहनेन अकिरियदिट्ठिको, उभयपटिबाहनेन अहेतुकदिट्ठिको च होति । सेसद्वयेपि एसेव नयो ।
सज्झायन्तीति तं दिट्ठिदीपकं गन्थं उग्गहेत्वा पठन्ति । वीमंसन्तीति तस्स अत्थं विचारेन्ति । "तेस"न्तिआदि वीमंसनाकारदस्सनं । तस्मिं आरम्मणेति यथापरिकप्पितकम्मफलाभावादिके "करोतो न करीयति पाप''न्ति आदिनयप्पवत्ताय लद्धिया आरम्मणे । मिच्छासति सन्तिद्वतीति “करोतो न करीयति पाप"न्तिआदिवसेन अनुस्सवूपलद्धे अत्थे तदाकारपरिवितक्कनेहि सविग्गहे विय सरूपतो चित्तस्स पच्चुपट्टिते चिरकालपरिचयेन एवमेतन्ति निज्झानक्खमभावूपगमनेन निज्झानक्खन्तिया तथागहिते पुनप्पुनं तथैव आसेवन्तस्स बहुलीकरोन्तस्स मिच्छावितक्केन समादियमाना मिच्छावायाभूपत्थम्भिता अतंसभावं "तंसभावन्ति गण्हन्ती मिच्छासतीति लद्धनामा तंलद्धिसहगता तण्हा सन्तिट्ठति । चित्तं एकग्गं होतीति यथासकं वितक्कादिपच्चयलाभेन तस्मिं आरम्मणे अवट्टितताय अनेकग्गतं पहाय एकग्गं अप्पितं विय होति । चित्तसीसेन मिच्छासमाधि एव वुत्तो। सोपि हि पच्चयविसेसेहि लद्धभावनाबलो ईदिसे ठाने समाधानपतिरूपकिच्चकरोयेव, वाळविज्झनादीसु वियाति दट्ठब्बं । जवनानि जवन्तीति अनेकक्खत्तुं तेनाकारेन पुब्बभागियेसु जवनवारेसु पवत्तेसु सब्बपच्छिमे जवनवारे सत्त
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गटीका
(२.१७४-१७४)
जवनानि जवन्ति। पठमे जवने सतेकिच्छा होन्ति। तथा दतियादीसति धम्मसभावदस्सनमत्तमेतं, न पन तस्मिं खणे तेसं तिकिच्छा केनचि सक्का कातुं ।
तत्थाति तेसु तीसु मिच्छादस्सनेसु । कोचि एकं दस्सनं ओक्कमतीति यस्स . एकस्मिंयेव अभिनिवेसो आसेवना च पवत्ता, सो एकमेव दस्सनं ओक्कमति । यस्स पन द्वीसु तीसुपि वा अभिनिवेसो आसेवना च पवत्ता, सो द्वे तीणिपि ओक्कमति, एतेन या पुब्बे उभयपटिबाहकतामुखेन दीपिता अत्थसिद्धा सब्बदिट्टिकता, सा पुब्बभागिया । या पन मिच्छत्तनियामोक्कन्तिभूता, सा यथासकं पच्चयसमुदागमसिद्धितो भिन्नारम्मणानं विय विसेसाधिगमानं एकज्झं अनुष्पत्तिया असङ्किण्णा एवाति दस्सेति । "एकस्मिं ओक्कन्तेपी"तिआदिना तिस्सन्नम्पि दिट्ठीनं समानबलतं समानफलतञ्च दस्सेति | तस्मा तिस्सोपि चेता एकस्स उप्पन्ना अब्बोकिण्णा एव, एकाय विपाके दिन्ने इतरा अनुबलप्पदायिकायो होन्ति । “वट्टखाणु नामेसा"ति इदं वचनं नेय्यत्थं, न नीतत्थं । तथा हि पपञ्चसूदनियं “किं पनेस एकस्मिंयेव अत्तभावे नियतो होति, उदाहु अञ्जस्मि पीति ? एकस्मिंयेव नियतो, आसेवनवसेन पन भवन्तरेपि तं तं दिहिँ रोचेति येवा''ति (म० नि० अट्ठ० ३.१२९) वुत्तं । अकुसलहि नामेतं अबलं दुब्बलं, न कुसलं विय सबलं महाबलं । तस्मा “एकस्मिंयेव अत्तभावे नियतो"ति वुत्तं । अञथा सम्मत्तनियामो विय मिच्छत्तनियामोपि अच्चन्तिको सिया, न च अच्चन्तिको । यदि एवं वट्टखाणुजोतना कथन्ति आह “आसेवनवसेन पना''तिआदि । तस्मा यथा “सकिं निमुग्गोपि निमुग्गो एव बालो"ति वुत्तं, एवं वट्टखाणुजोतना। यादिसे हि पच्चये पटिच्च अयं तं तं दस्सनं ओक्कन्तो पुन कदाचि तप्पटिपक्खे पच्चये पटिच्च ततो सीसुक्खिपनमस्स न होतीति न वत्तब्बं, तस्मा “येभुय्येन हि एवरूपस्स भवतो वुढानं नाम नत्थी"ति वुत्तं ।
तस्माति यस्मा एवं संसारखाणुभावस्सपि पच्चयो अपण्णकजातो, तस्मा । भूतिकामोति दिट्ठधम्मिकसम्परायिकपरमत्थानं वसेन अत्तनो गुणेहि वड्डिकामो ।
पकुधकच्चायनवादवण्णना
१७४. अकताति समेन विसमेन वा केनचि हेतुना न कता न विहिता । कतविधो करणविधि नत्थि एतेसन्ति अकतविधाना। पदद्वयेनापि लोके केनचि हेतुपच्चयेन नेसं अनिब्बत्तनभावं दस्सेति । इद्धियापि न निम्मिताति कस्सचि इद्धिमतो चेतोवसिप्पत्तस्स
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(२.१७७-१७७)
निगण्ठनाटपुत्तवादवण्णना
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देवस्स, इस्सरादिनो वा इद्धियापि न निम्मिता । अनिम्मापिता कस्सचि अनिम्मापिता। वुत्तत्थमेवाति ब्रह्मजालवण्णनायं (दी० नि० अट्ठ० १.३०) वुत्तत्थमेव । वझाति वझपसुवझतालादयो विय अफला, कस्सचि अजनकाति अत्थो, एतेन पथविकायादीनं रूपादिजनकभावं पटिक्खिपति । रूपसद्दादयो हि पथविकायादीहि अप्पटिबद्धवुत्तिकाति तस्स लद्धि । पब्बतकूटं विय ठिताति कूट्ठा, यथा पब्बतकूटं केनचि अनिब्बत्तितं, कस्सचि च अनिब्बत्तकं, एवमेते पीति अधिप्पायो । यमिदं "बीजतो अङ्कुरादि जायतीति वुच्चति, तं विज्जमानमेव ततो निक्खमति, न अविज्जमानं, अञथा अञ्चतोपि अञस्स उपलद्धि सियाति अधिप्पायो । ठितत्ताति निबिकाराभावेन ठितत्ता। न चलन्तीति विकारं नापज्जन्ति । विकाराभावतो हि तेसं सत्तन्नं कायानं एसिकट्ठायिद्वितता । अनिञ्जनञ्च अत्तनो पकतिया अवठ्ठानमेव । तेनाह "न विपरिणमन्ती"ति । अविपरिणामधम्मत्ता एव हि ते अञ्जमलं न ब्याबाधेन्ति । सति हि विकारं आपादेतब्बताय ब्याबाधकतापि सिया, तथा अनुग्गहेतब्बताय अनुग्गाहकताति तदभावं दस्सेतुं पाळियं नालन्तिआदि वुत्तं । पथवी एव कायेकदेसत्ता पथविकायो। जीवसत्तमानं कायानं निच्चताय निधिबकारभावतो न हन्तब्बता, न घातेतब्बता चाति नेव कोचि हन्ता वा घातेता वा, तेनेवाह "सत्तनं त्वेव कायान"न्तिआदि । यदि कोचि हन्ता नत्थि, कथं सत्थप्पहारोति आह "यथा मुग्गरासि आदीसू"तिआदि । केवलं सञ्जामत्तमेव होति । हननघातनादि पन परमत्थतो नत्थेव कायानं अविकोपनीयभावतोति अधिप्पायो ।
निगण्ठनाटपुत्तवादवण्णना
१७७. चत्तारो यामा भागा चतुयामा, चतुयामा एव चातुयामा, भागत्थो हि इध याम-सद्दो यथा “रत्तिया पठमो यामो''ति । सो पनेत्थ भागो संवरलक्खणोति आह "चातुयामसंवुतोति चतुकोद्वासेन संवरेन संवुतो"ति। पटिक्खित्तसब्बसीतोदकोति पटिक्खित्तसब्बसीतोदकपरिभोगो। सब्बेन पापवारणेन युत्तोति सब्बप्पकारेन संवरलक्खणेन समन्नागतो । धुतपापोति सब्बेन निज्जरलक्खणेन पापवारणेन विधुतपापो । फुटोति अट्ठन्नम्पि कम्मानं खेपनेन मोक्खप्पत्तिया कम्मक्खयलक्खणेन सब्बेन पापवारणेन फुट्ठो तं पत्वा ठितो। कोटिप्पत्तचित्तोति मोक्खाधिगमेनेव उत्तममरियादप्पत्तचित्तो। यतत्तोति कायादीसु इन्द्रियेसु संयमेतब्बस्स अभावतो संयतचित्तो। सुप्पतिहितचित्तोति निस्सेसतो सुट्ट पतिट्टितचित्तो। सासनानुलोमं नाम पापवारणेन युत्तता। तेनाह "धुतपापो''तिआदि । असुद्धलद्धितायाति “अस्थि जीवो, सो च सिया निच्चो, सिया अनिच्चो"ति
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गटीका
(२.१७९-१८१-१८३)
एवमादिअसुद्धलद्धिताय । सब्बाति कम्मपतिविभागादिविसया सब्बा निज्झानखन्तियो । दिद्विये वाति मिच्छादिट्ठियो एव जाता।
सञ्चयबेलट्ठपुत्तवादवण्णना
१७९-१८१. अमराविक्खेपे वुत्तनयो एवाति ब्रह्मजाले अमराविक्खेपवादसंवण्णनायं (दी० नि० अट्ठ० १.६१-६३) वुत्तनयो एव विक्खेपब्याकरणभावतो, तथैव चेत्थ विक्खेपवादस्स आगतता।
पठमसन्दिविकसामञफलवण्णना
१८३. यथा ते रुच्चेप्याति इदानि मया पुच्छियमानो अत्थो यथा तव चित्ते रोचेय्य । घरदासिया कुच्छिस्मिं जातो अन्तोजातो। धनेन कीतो धनक्कीतो। बन्धग्गाहगहितो करमरानीतो। सामन्ति सयमेव । दासब्यन्ति दासभावं | कोचि दासोपि समानो अलसो कम्मं अकरोन्तो “कम्मकारो"ति न वुच्चतीति आह “अनलसो कम्मकरणसीलोयेवा"ति । पठममेवाति आसन्नतरट्टानूपसङ्कमनतो पगेव पुरेतरमेव । पच्छाति सामिकस्स निपज्जाय पच्छा । सयनतो अबुट्टितेति रत्तिया विभायनवेलाय सेय्यतो अवुट्टिते। पच्चूसकालतो पट्ठायाति अतीताय रत्तिया पच्चूसकालतो पट्ठाय | याव सामिनो रत्तिं निद्दोक्कमनन्ति अपराय पदोसवेलायं याव निद्दोक्कमनं । किं कारन्ति किं करणीयं, किंकारभावतो पुच्छित्वा कातब्बवेय्यावच्चन्ति अत्थो ।
देवो वियाति आधिपच्चपरिवारादिसम्पत्तिसमन्नागतो पधानदेवो विय । सो वतस्साहन्ति सो वत अस्सं अहं | सो राजा विय अहम्पि भवेय्यं, कथं पुज्ञानि करेय्यं, यदि पुञानि उळारानि करेय्यन्ति योजना । "सो वतस्स'स्स"न्ति पाठे सो राजा अस्स अहं अस्सं वत, यदि पुञानि करेय्यन्ति योजना। तेनाह "अयमेवत्थो"ति । अस्सन्ति उत्तमपुरिसप्पयोगे अहं-सद्दो अप्पयुत्तोपि पयुत्तो एव होति । यावजीवं न सक्खिस्सामि दातुन्ति यावजीवं दानत्थाय उस्साहं करोन्तोपि यं राजा एकं दिवसं देति, ततो सतभागम्पि दातुं न सक्खिस्सामि । तस्मा पब्बजिस्सामीति पब्बज्जायं उस्साहं कत्वाति योजना।
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(२.१८४-१८६)
दुतियसन्दिट्ठिकसामञफलवण्णना
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___ कायेन संवुतोति कायेन संवरितब्बं कायद्वारेन पवत्तनकं पापधम्म संवरित्वा विहरेय्याति अयमेत्थ अत्थोति आह "कायेन पिहितो हुत्वा"तिआदि । घासच्छादनेन परमतायाति घासच्छादनपरियेसने सल्लेखवसेन परमताय, उक्कट्ठभावे सण्ठितो घासच्छादनमेव वा परमं परा कोटि एतस्स, न ततो परं किञ्चि आमिसजातं परियेसति पच्चासिसति चाति घासच्छादनपरमो, तब्भावो घासच्छादनपरमता, तस्सा घासच्छादनपरमताय। विवेकट्ठकायानन्ति गणसङ्गणिकतो पविवित्ते ठितकायानं । नेक्खम्माभिरतानन्ति झानाभिरतानं । ताय एव झानाभिरतिया परमं उत्तमं वोदानं विसुद्धिं पत्तताय परमवोदानप्पत्तानं। किलेसूपधिअभिसङ्खारूपधीनं अच्चन्तविगमेन निरुपधीनं। विसङ्घारगतानन्ति अधिगतनिब्बानानं । एत्थ च पठमो विवेको इतरेहि द्वीहि विवेकेहि सहापि पत्तब्बो विनापि, तथा दुतियो । ततियो पन इतरेहि द्वीहि सहेव पत्तब्बो, न विनाति दट्ठब् । गणे जनसमागमे सन्निपतनं गणसङ्गणिका, तं पहाय एको विहरति चरति पुग्गलवसेन असहायत्ता । चित्ते किलेसानं सन्निपतनं चित्तकिलेससङ्गणिका, तं पहाय एको विहरति किलेसवसेन असहायत्ता। मग्गस्स एकचित्तक्खणिकत्ता, गोत्रभुआदीनञ्च आरम्मणमत्तत्ता न तेसं वसेन सातिसया निब्बुतिसुखसम्फुसना, फलसमापत्तिनिरोधसमापत्तिवसेन सातिसयाति आह "फलसमापत्तिं वा निरोधसमापत्तिं वा पविसित्वा"ति । फलपरियोसानो हि निरोधोति ।
१८४. अभिहरित्वाति अभिमुखीभावेन नेत्वा । “अहं चीवरादीहि पयोजनं साधेस्सामीति वचनसेसो। सप्पायन्ति सब्बगेलञपहरणवसेन उपकारावहं । भाविना अनत्थतो परिपालनवसेन गोपना रक्खागुत्ति। पच्चुप्पन्नस्स निसेधवसेन आवरणगुत्ति।
दुतियसन्दिट्ठिकसामञफलवण्णना
१८६. कसतीति कसिं करोति । गहपतिकोति एत्थ क-सद्दो अप्पत्थोति आह "एकगेहमत्ते जेट्ठको"ति, तेन अनेककुलजेट्टकभावं पटिक्खिपति । करं करोतीति करं सम्पादेति । वड्डेतीति उपरूपरि सम्पादनेन वड्डेति । एवं अप्पम्पि पहाय पब्बजितुं दुक्करन्ति अयमत्थो लटुकिकोपमसुत्तेन (म० नि० २.१५१, १५२) दीपेतब्बो । तेनाह "सेय्यथापि, उदायि, पुरिसो दलिदो अस्सको अनाळिहयो, तस्सस्स एकं अगारकं ओलुग्गविलुग्गं काकातिदायिं नपरमरूप"न्ति वित्थारो । यदि अप्पम्पि भोगं पहाय पब्बजितुं दुक्करं, कस्मा दासवारे भोगग्गहणं न कतन्ति आह "दासवारे पना"तिआदि ।
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गटीका
(२.१८९-१८९)
यथा च दासस्स भोगापि अभोगा परायत्तभावतो, एवं आतयो पीति दासवारे आतिपरिवट्टग्गहणम्पि न कतन्ति दट्ठब्बं ।
पणीततरसामञफलवण्णना
१८९. एवरूपाहीति यथावुत्तदासकस्सकूपमासदिसाहि उपमाहि सामफलं दीपेतुं पहोति भगवा सकलम्पि रत्तिन्दिवं ततो भिय्योपि अनन्तपटिभानताय विचित्तनयदेसनभावतो । तथापीति सतिपि देसनाय उत्तरुत्तराधिकनानानयविचित्तभावे ।
एकत्थमेतं पदं साधुसद्दस्सेव क-कारेन वड्डित्वा वुत्तत्ता, तेनेव साधुक-सद्दस्स अत्थं वदन्तेन अत्थुद्धारवसेन साधु-सद्दो उदाहटो। आयाचनेति अभिमुखयाचने, अभिपत्थनायन्ति अत्थो । सम्पटिच्छनेति पटिग्गण्हने । सम्पहंसनेति संविज्जमानगुणवसेन हंसने तोसने, उदग्गताकरणेति अत्थो । धम्मरुचीति पुचकामो। पाणवाति पञवा। अहुन्भोति अदूसको, अनुपघातकोति अत्थो । इधापीति इमस्मिं सामञफलेपि । अयं साधु-सद्दो । दळ्हीकम्मेति सक्कच्च किरियायं । आणत्तियन्ति आणापने । “सुणोहि साधुकं मनसि करोही"ति हि वुत्ते साधुक-सद्देन सवनमनसिकारानं सक्कच्चकिरिया विय तदाणापनम्पि जोतितं होति, आयाचनत्थता विय चस्स आणापनत्थता वेदितब्बा । सुन्दरेपीति सुन्दरत्थेपि । इदानि यथावुत्तेन साधुक-सद्दस्स अत्थत्तयेन पकासितं विसेसं दस्सेतुं “दळहीकम्मत्थेन ही"तिआदि वुत्तं ।
मनसि करोहीति एत्थ मनसिकारो न आरम्मणपटिपादनलक्खणो, अथ खो वीथिपटिपादनजवनपटिपादनमनसिकारपुब्बकं चित्ते ठपनलक्खणोति दस्सेन्तो "आवज्जा"तिआदिमाह। सोतिन्द्रियविक्खेपवारणं सवने नियोजनवसेन किरियन्तरपटिसेधनभावतो, सोतं ओदहाति अत्थो। मनिन्द्रियविक्खेपवारणं अञचिन्तापटिसेधनतो। ब्यञ्जनविपल्लासग्गाहवारणं "साधुक''न्ति विसेसेत्वा वुत्तत्ता । पच्छिमस्स अत्थविपल्लासग्गाहवारणेपि एसेव नयो । धारणूपपरिक्खादीसूति आदि-सद्देन तुलनतीरणादिके, दिट्ठिया सुप्पटिविधे च सङ्गण्हाति। सब्यञ्जनोति एत्थ यथाधिप्पेतमत्थं ब्यञ्जयतीति ब्यञ्जनं, सभावनिरुत्ति । सह ब्यञ्जनेनाति सब्यञ्जनो, ब्यञ्जनसम्पन्नोति अत्थो । सात्योति अरणीयतो उपगन्तब्बतो अनुधातब्बतो अत्थो, चतुपारिसुद्धिसीलादिको । तेन सह अत्थेनाति सात्थो, अत्थसम्पन्नोति अत्थो । धम्मगम्भीरोतिआदीसु धम्मो नाम तन्ति ।
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(२.१९०-१९०)
पणीततरसामञ्ञफलवण्णना
देसना नाम तस्सा मनसा ववत्थापिताय तन्तिया देसना । अत्थो नाम तन्तिया अत्थो । पटिवेधो नाम तन्तिया, तन्तिअत्थस्स च यथाभूतावबोधो । यस्मा चेते धम्मदेसना अत्थप्पटिवेधा ससादीहि विय महासमुद्दो मन्दबुद्धीहि दुक्खोगाहा, अलब्भनेय्यपतिट्ठा च तस्मा गम्भीरा । तेन वुत्तं " यस्मा अयं धम्मो ... पे०... साधुकं मनसि करोही "ति । एत्थ च पटिवेधस्स दुक्करभावतो धम्मत्थानं, देसनाञाणस्स दुक्करभावतो देसनाय दुक्खोगाहता, पटिवेधस्स पन उप्पादेतुं असक्कुणेय्यताय, ञाणुप्पत्तिया च दुक्करभावतो दुक्खोगाहता वेदितब्बा । देसनं नाम उद्दिसनं, तस्स निद्दिसनं भासनन्ति इधाधिप्पेतन्ति आह " वित्थारतो भासिस्सामीति । परिब्यत्तं कथनञ्हि भासनं, तेनाह "देसेस्सामीति... पे०... विथारदीपन "न्ति ।
यथावुत्तमत्थं सुत्तपदेन समत्थेतुं " तेनाहा "तिआदि वृत्तं । साळिकायिव निग्घोसोति साळिकाय आलापो विय मधुरो कण्णसुखो पेमनीयो । पटिभानन्ति सद्दो । उदीरयीति उच्चारीयति, वुच्चति वा ।
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एवं वुत्ते उस्साहजातोति एवं "सुणोहि साधुकं मनसि करोहि भासिस्सामी 'ति वुत्ते "न किर भगवा सङ्क्षेपेनेव देसेस्सति, वित्थारेनपि भासिस्सती 'ति सञ्जातुस्साहो हट्ठतुट्ठो हुत्वा ।
१९०. " इधा "ति इमिना वुच्चमानं अधिकरणं तथागतस्स उप्पत्तिट्ठानभूतं अधिप्पेतन्ति आह "देसापदेसे निपातो 'ति । " स्वाय "न्ति सामञ्ञतो इधसद्दमत्तं गण्हाति, न यथाविसेसितब्बं इध-सद्दं । तथा हि वक्खति " कत्थचि पदपूरणमत्तमेवा" ति ( दी० नि० अट्ठ० १.१९० ) । लोकं उपादाय वुच्चति लोक-सद्देन समानाधिकरणभावेन वुत्तत्ता । सेसपदद्वये पन पदन्तरसन्निधानमत्तेन तं तं उपादाय वुत्तता दट्ठब्बा । इध तथागत लोकेति हि जातिखेत्तं, तत्थापि अयं चक्कवाळो "लोको "ति अधिप्पेतो । समणोति सोतापन्नो । दुतियो समणोति सकदागामी । वृत्तहेतं " कतमो च भिक्खवे समणो ? इध भिक्खवे भिक्खु तिण्णं संयोजनानं परिक्खया सोतापन्नो होती "तिआदि (अ० नि० १.४.२४१) । “कतमो च भिक्खवे दुतियो समणो ? इध भिक्खवे भिक्खु तिण्णं संयोजनानं परिक्खया रागदोसमोहानं तनुत्ता "तिआदि (अ० नि० १.४.२४१) । ओकासन्ति कञ्चि पदेसं । इधेव तिट्ठमानस्साति इमिस्सा एव इन्दसालगुहायं तिट्ठमानस्स ।
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गटीका
(२.१९०-१९०)
पदपूरणमत्तमेव ओकासापदिसनस्सापि असम्भवतो अत्थन्तरस्स अबोधनतो । अरहन्ति आदयो सदा वित्थारिताति योजना | अस्थतो वित्थारणं सद्दमुखेनेव होतीति सद्दग्गहणं । यस्मा । “अपरेहिपि अट्ठहि कारणेहि भगवा तथागतो''तिआदिना उदानट्ठकथादीसु, (उदा० अट्ठ० १८; इतिवु० अट्ठ० ३८) अरहन्ति आदयो विसुद्धिमग्गटीकायं (विसुद्धि० टी० १.१२९. १३०) अत्थो वेदितब्बो । तथागतस्स सत्तनिकायन्तोगधताय “इध पन सत्तलोको अधिप्पेतो"ति वत्वा तत्थायं यस्मिं सत्तनिकाये यस्मिञ्च ओकासे उप्पज्जति, तं दस्सेतुं "सत्तलोके उप्पज्जमानोपि चा"तिआदि वुत्तं । "तथागतो न देवलोके उप्पज्जती"तिआदीसु यं वत्तब्, तं परतो आगमिस्सति । सारप्पत्ताति कुलभोगिस्सरियादिवसेन सारभूता । ब्राह्मणगहपतिकाति ब्रह्मायुपोक्खरसातिआदिब्राह्मणा चेव अनाथपिण्डिकादिगहपतिका च ।
"सुजाताया"तिआदिना वुत्तेसु चतूसु विकप्पेसु पठमो विकप्पो बुद्धभावाय आसन्नतरपटिपत्तिदस्सनवसेन वुत्तो। आसन्नतराय हि पटिपत्तिया ठितो "उप्पज्जतीति" वुच्चति उप्पादस्स एकन्तिकत्ता, पगेव पटिपत्तिया मत्थके ठितो। दुतियो बुद्धभावावहपब्बज्जतो पट्ठाय आसन्नपटिपत्तिदस्सनवसेन, ततियो बुद्धकरधम्म पारिपूरितो पट्ठाय बुद्धभावाय पटिपत्तिदस्सनवसेन । न हि महासत्तानं उप्पतिभवूपपत्तितो पट्ठाय बोधिसम्भारसम्भरणं नाम अत्थि। चतुत्थो बुद्धकरधम्मसमारम्भतो पट्ठाय । बोधिया नियतभावप्पत्तितो पभुति हि विधेहि "बुद्धो उप्पज्जती"ति वत्तुं सक्का उप्पादस्स एकन्तिकत्ता । यथा पन सन्दन्ति नदियोति सन्दनकिरियाय अविच्छेदमुपादाय वत्तमानप्पयोगो, एवं उप्पादत्थाय पटिपज्जनकिरियाय अविच्छेदमुपादाय चतूसु विकप्पेसु “उप्पज्जति नामा"ति वुत्तं । सब्बपठमं उप्पन्नभावन्ति चतूसु विकप्पेसु सब्बपठमं वुत्तं तथागतस्स उप्पन्नतासङ्घातं अस्थिभावं । तेनाह "उप्पनो होतीति अयव्हेत्थ अत्थो"ति ।
सो भगवाति यो “तथागतो अरह"न्तिआदिना कित्तितगुणो, सो भगवा । “इमं लोक"न्ति नयिदं महाजनस्स सम्मुखमत्तं सन्धाय वुत्तं, अथ खो अनवसेसं परियादायाति दस्सेतुं “सदेवक"न्तिआदि वुत्तं, तेनाह "इदानि वत्तब्बं निदस्सेती"ति । पजातत्ताति यथासकं कम्मकिलेसेहि निब्बत्तत्ता। पञ्चकामावचरदेवग्गहणं पारिसेसजायेन इतरेसं पदन्तरेहि सङ्गहितत्ता | सदेवकन्ति च अवयवेन विग्गहो समुदायो समासत्थो । छट्ठकामावचरदेवग्गहणं पच्चासत्तिञायेन । तत्थ हि सो जातो, तंनिवासी च । ब्रह्मकायिकादिब्रह्मग्गहणन्ति एत्थापि एसेव नयो। पच्चत्थिक...पे०... समणब्राह्मणग्गहणन्ति निदस्सनमत्तमेतं अपच्चत्थिकानं, असमिताबाहितपापानञ्च समणब्राह्मणानं सस्समणब्राह्मणीवचनेन गहितत्ता। कामं
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(२.१९०-१९०)
पणीततरसामञफलवण्णना
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“सदेवक"न्तिआदि विसेसनानं वसेन सत्तविसयो लोकसहोति विज्ञायति तुल्ययोगविसयत्ता तेसं, "सलोमको सपक्खको''तिआदीसु पन अतुल्ययोगेपि अयं समासो लब्भतीति व्यभिचारदस्सनतो पजागहणन्ति आह "पजावचनेन सत्तलोकग्गहण"न्ति ।
अरूपिनो सत्ता अत्तनो आनेञ्जविहारेन विहरन्ता दिब्बन्तीति देवाति इमं निब्बचनं लभन्तीति आह. "सदेवकग्गहणेन अरूपावचरलोको गहितो"ति । तेनाह “आकासानञ्चायतनूपगानं देवानं सहब्यत''न्ति । (अ० नि० १.३.११७) समारकग्गहणेन छकामावचरदेवलोको गहितो तस्स सविसेसं मारस्स वसे वत्तनतो। रूपी ब्रह्मलोको गहितो अरूपीब्रह्मलोकस्स विसुं गहितत्ता । चतुपरिसवसेनाति खत्तियादिचतुपरिसवसेन, इतरा पन चतस्सो परिसा समारकादिग्गहणेन गहिता एवाति। अवसेससब्बसत्तलोको नागगरुळादिभेदो।
एत्तावता च भागसो लोकं गहेत्वा योजनं दस्सेत्वा इदानि तेन तेन विसेसेन अभागसो लोकं गहेत्वा योजनं दस्सेतुं "अपि चेत्था"तिआदि वुत्तं । तत्थ उक्कट्ठपरिच्छेदतोति उक्कंसगतिविजाननेन । पञ्चसु हि गतीसु देवगतिपरियापन्नाव सेट्ठा, तत्थापि अरूपिनो दूरसमुस्सारितकिलेसदुक्खताय, सन्तपणीतआनेञ्जविहारसमङ्गिताय, अतिदीघायुकतायाति एवमादीहि विसेसेहि अतिविय उक्कट्ठा । “ब्रह्मा महानुभावो"तिआदि दससहस्सियं महाब्रह्मनो वसेन वदति । “उक्कट्ठपरिच्छेदतो"ति हि वुत्तं । अनुत्तरन्ति सेढें नव लोकुत्तरं । भावानुक्कमोति भाववसेन परेसं अज्झासयवसेन “सदेवक''न्तिआदीनं पदानं अनुक्कमो।
तीहाकारेहीति देवमारब्रह्मसहिततासङ्खातेहि तीहि पकारेहि। तीसु पदेसूति "सदेवक"न्तिआदीसु तीसु पदेसु । तेन तेनाकारेनाति सदेवकत्तादिना तेन तेन पकारेन । तेधातुकमेव परियादिन्नन्ति पोराणा पनाहूति योजना ।
अभिजाति य-कारलोपेनायं निद्देसो, अभिजानित्वाति अयमेत्थ अत्थोति आह "अभिज्ञाय अधिकेन आणेन अत्वा"ति । अनुमानादिपटिक्खेपोति अनुमानउपमानअत्थापत्तिआदिपटिक्खेपो एकप्पमाणत्ता । सब्बत्थ अप्पटिहतञाणचारताय हि सब्बपच्चक्खा बुद्धा भगवन्तो ।
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गटीका
(२.१९०-१९०)
अनुत्तरं विवेकसुखन्ति फलसमापत्तिसुखं, तेन ठितिमिस्सापि [वीथिमिस्सापि (सारत्थ० टी० १.वेरञ्जकण्डवण्णनायं) धितिमिस्सापि (क)] कदाचि भगवतो धम्मदेसना होतीति हित्वापीति पि-सद्दग्गहणं । भगवा हि धम्मं देसेन्तो यस्मिं खणे परिसा साधुकारं वा देति, यथासुतं वा धम्म पच्चवेक्खति, तं खणं पुब्बभागेन परिच्छिन्दित्वा फलसमापत्तिं समापज्जति, यथापरिच्छेदञ्च समापत्तितो वुट्ठाय ठितट्ठानतो पट्ठाय धम्मं देसेति । उग्घटित स्स वसेन अण्णं वा विपञ्चित स्स, नेय्यस्स वा वसेन बहुं वा देसेन्तो। धम्मस्स कल्याणता निय्यानिकताय, निय्यानिकता च सब्बसो अनवज्जभावेनेवाति आह "अनवज्जमेव कत्वा"ति । देसकायत्तेन आणादिविधिना अभिसज्जनं पबोधनं देसनाति सा परियत्तिधम्मवसेन वेदितब्बाति आह “देसनाय ताव चतुष्पदिकायपि गाथाया"तिआदि । निदाननिगमनानिपि सत्थुनो देसनाय अनुविधानतो तदन्तोगधानि एवाति आह "निदानमादि, इदं एवोचाति परियोसान"न्ति ।
___सासितब्बपुग्गलगतेन यथापराधादिसासितब्बभावेन अनुसासनं तदङ्गविनयादिवसेन विनयनं सासनन्ति तं पटिपत्तिधम्मवसेनवेदितब्बन्ति आह "सीलसमाधिविपस्सना"तिआदि। कुसलानं धम्मानन्ति अनवज्जधम्मानं सीलस्स, समथविपस्सनानञ्च सीलदिट्ठीनं आदिभावो तं मूलकत्ता उत्तरिमनुस्सधम्मानं । अरियमग्गस्स अन्तद्वयविगमेन मज्झिमपटिपदाभावो विय, सम्मापटिपत्तिया आरब्भनिप्फत्तीनं वेमज्झत्तापि मज्झभावोति वुत्तं । “अस्थि भिक्खवे...पे०... मज्झं नामा"ति। फलं परियोसानं नाम सउपादिसेसतावसेन, निब्बानं परियोसानं नाम अनुपादिसेसतावसेन । इदानि तेसं द्विन्नम्पि सासनस्स परियोसानतं आगमेन दस्सेतुं "एतदत्थमिद"न्तिआदि आह । इध देसनाय आदिमज्झपरियोसानं अधिप्पेतं “सब्यञ्जन"न्तिआदि वचनतो। तस्मिं तस्मिं अत्थे कतावधिसद्दप्पबन्धो गाथावसेन, सुत्तवसेन च ववत्थितो परियत्तिधम्मो, यो इध “देसना''ति वुत्तो, तस्स पन अत्थो विसेसतो सीलादि एवाति आह "भगवा हि धम्मं देसेन्तो...पे०... दस्सेती"ति । तत्थ सीलं दस्सेत्वाति सीलग्गहणेन ससम्भारं सीलं गहितं, तथा मग्गग्गहणेन ससम्भारो मग्गोति तदुभयवसेन अनवसेसतो परियत्ति अत्थं परियादियति । तेनाति सीलादिदस्सनेन । अस्थवसेन हि इध देसनाय आदिकल्याणादिभावो अधिप्पेतो । कथिकसण्ठितीति कथिकस्स सण्ठानं कथनवसेन समवट्ठानं ।
न सो सात्थं देसेति निय्यानत्थविरहतो तस्सा देसनाय । एकब्यञ्जनादियुत्ता वाति सिथिलादिभेदेसु ब्यञ्जनेसु एकप्पकारेमेव, द्विपकारेमेव वा ब्यञ्जनेन युत्ता वा दमिळभासा
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(२.१९०-१९०)
पणीततरसामञफलवण्णना
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विय । विवटकरणताय ओढे अफुसापेत्वा उच्चारेतब्बतो सब्बनिरोडब्यञ्जना वा किरातभासा विय। सब्बस्सेव [सब्बत्थेव (सारत्थ० टी० १.वेरञ्जकण्डवण्णनायं १)] विस्सज्जनीययुत्तताय सब्बविस्सट्टव्यञ्जना वा सवरभासा [यवनभासा (सारत्थ० टी० १.वेरञ्जकण्डवण्णनाय)] विय। सब्बस्सेव [सब्बत्थेव (सारत्थ० टी० १.वेरञ्जकण्डवण्णनायं)] सानुसारताय सब्बनिग्गहितब्यञ्जना वा पारसिकादिमिलक्खुभासा विय। सब्बापेसा व्यञ्जनेकदेसवसेन पवत्तिया अपरिपुण्णब्यञ्जनाति कत्वा "अब्यञ्जना"ति वुत्ता।
ठानकरणानि सिथिलानि कत्वा उच्चारेतब्बं अक्खरं पञ्चसु वग्गेसु पठमततियन्ति एवमादि सिथिलं। तानि असिथिलानि कत्वा उच्चारेतब्बं अक्खरं वग्गेसु दुतियचतुत्थन्ति एवमादि धनितं। द्विमत्तकालं दीघं। एकमत्तकालं रस्सं तदेव लहुकं। लहुकमेव संयोगपरं, दीघञ्च गरुकं। ठानकरणानि निग्गहेत्वा उच्चारेतब्बं निग्गहितं। परेन सम्बन्धं कत्वा उच्चारेतब्बं सम्बन्धं । तथा नसम्बन्धं ववत्थितं। ठानकरणानि निस्सट्ठानि कत्वा उच्चारेतब्बं विमुत्तं। दसधाति एवं सिथिलादिवसेन ब्यञ्जनबुद्धिया अक्खरुप्पादकचित्तस्स सब्बाकारेन पभेदो। सब्बानि हि अक्खरानि चित्तसमुट्ठानानि यथाधिप्पेतत्थं ब्यञ्जनतो ब्यञ्जनानि चाति।
अमक्खेत्वाति अमिलेच्छेत्वा, अविनासेत्वा, अहापेत्वाति वा अत्थो। भगवा यमत्थं आपेतुं एकं गाथं, एकं वाक्यं वा देसेति, तमत्थं ताय देसनाय परिमण्डलपदब्यञ्जनाय एव देसेतीति आह "परिपुण्णब्यञ्जनमेव कत्वा धम्म देसेती"ति । इध केवलसद्दो अनवसेसवाचको, न अवोमिस्सकादिवाचकोति आह "सकलाधिवचन"न्ति । परिपुण्णन्ति सब्बसो पुण्णं, तं पन केनचि ऊनं, अधिकं वा न होतीति “अनूनाधिकवचन"न्ति वुत्तं । तत्थ यदत्थं देसितो, तस्स साधकत्ता अनूनता वेदितब्बा, तब्बिधुरस्स पन असाधकत्ता अनधिकता। सकलन्ति सब्बभागवन्तं । परिपुण्णन्ति सब्बसो परिपुण्णमेव, तेनाह "एकदेसनापि अपरिपुण्णा नत्थी"ति । अपरिसुद्धा देसना होति तण्हाय संकिलिठ्ठत्ता । लोकामिसं चीवरादयो पच्चया तत्थ अगधितचित्तताय लोकामिसनिरपेक्खो। हितफरणेनाति हितूपसंहारेन। मेत्ताभावनाय करणभूताय मुदुहदयो। उल्लुम्पनसभावसण्ठितेनाति सकलसंकिलेसतो, वट्टदुक्खतो च उद्धरणाकारावहितेन चित्तेन, कारुणाधिप्पायेनाति अत्थो ।
"इतो पट्ठाय दस्सामेव, एवञ्च दस्सामीति समादातब्बढेन वतं।
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२१२
दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गटीका
(२.१९१-१९१)
पण्डितपञत्तताय सेट्ठद्वेन ब्रह्म ब्रह्मानं वा चरियन्ति ब्रह्मचरियं दानं । मच्छरियलोभादिनिग्गण्हनेन सुचिण्णस्स। इद्धीति देविद्धि । जुतीति पभा, आनुभावो वा । बलवीरियूपपत्तीति एवं महता बलेन च वीरियेन च समन्नागमो। पुञ्जन्ति पुञफलं । वेय्यावच्चं ब्रह्मचरियं सेट्ठा चरियाति कत्वा । एस नयो सेसेपि ।
तस्माति यस्मा सिक्खत्तयसङ्गहं सकलं सासनं इध "ब्रह्मचरियन्ति अधिप्पेतं तस्मा । "ब्रह्मचरिय''न्ति इमिना समानाधिकरणानि सब्बपदानि योजेत्वा अत्थं दस्सेन्तो “सो धम्म देसेति...पे०... पकासेतीति एवमेत्थ अत्थो दगुब्बो"ति आह ।
१९१. वुत्तप्पकारसम्पदन्ति यथावुत्तं आदिकल्याणतादिगुणसम्पदं, दूरसमुस्सारितमानस्सेव सासने सम्मापटिपत्ति सम्भवति, न मानजातिकस्साति आह "निहतमानत्ता'ति । उस्सनत्ताति बहुलभावतो | भोगारोग्यादिवत्थुका मदा सुप्पहेय्या होन्ति निमित्तस्स अनवत्थानतो, न तथा कुलविज्जामदा, तस्मा खत्तियब्राह्मणकुलानं पब्बजितानम्पि जातिविज्जा निस्साय मानजप्पनं दुप्पजहन्ति आह “येभुय्येन हि...पे०... मानं करोन्ती"ति । विजातितायाति निहीनजातिताय । पतिट्ठातुं न सक्कोन्तीति सुविसुद्धं कत्वा सीलं रक्खितुं न सक्कोन्ति । सीलवसेन हि सासने पतिठ्ठा, पतिद्वातुन्ति वा सच्चपटिवेधेन लोकुत्तराय पतिट्ठाय पतिट्ठातुं । सा हि निप्परियायतो सासने पतिठ्ठा नाम, येभुय्येन च उपनिस्सयसम्पन्ना सुजाता एव होन्ति, न दुज्जाता।
परिसुद्धन्ति रागादीनं अच्चन्तमेव पहानदीपनतो निरुपक्किलेसताय सब्बसो परिसुद्धं । सद्धं पटिलभतीति पोथुज्जनिकसद्धावसेन सद्दहति । विघ्रजातिकानहि धम्मसम्पत्तिग्गहणपुब्बिका सद्धा सिद्धि धम्मप्पमाणधम्मप्पसन्नभावतो । “सम्मासम्बुद्धो वत सो भगवा, यो एवं स्वाक्खातधम्मो''ति सद्धं पटिलभति । जायम्पतिकाति घरणीपतिका । कामं "जायम्पतिका''ति वुत्ते घरसामिकघरसामिनीवसेन द्विनंयेव गहणं विज्ञायति । यस्स पन पुरिसस्स अनेका पजापतियो, तत्थ किं वत्तब्, एकायापि संवासो सम्बाधोति दस्सनत्थं "द्वे"ति वुत्तं । रागादिना सकिञ्चनढेन, खेत्तवत्थु आदिना सपलिबोधढेन रागरजादीनं आगमनपथतापि उट्ठानट्ठानता एवाति द्वेपि वण्णना एकत्था, ब्यञ्जनमेव नानं । अलग्गनट्रेनाति अस्सज्जनटेन अप्पटिबद्धभावेन । एवं अकुसलकुसलपवत्तीनं ठानभावेन घरावासपब्बज्जानं सम्बाधब्भोकासतं दस्सेत्वा इदानि कुसलप्पवत्तिया एव अट्ठानट्ठानभावेन तेसं तं दस्सेतुं “अपिचा'तिआदि वुत्तं ।
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(२.१९२-१९३)
पणीततरसामफलवण्णना
२१३
___ सबैपकथाति विसुं विसुं पदुद्धारं अकत्वा समासतो अत्थवण्णना। एकम्पि दिवसन्ति एकदिवसमत्तम्पि । अखण्डं कत्वाति दुक्कटमत्तस्सपि अनापज्जनेन अखण्डितं कत्वा । किलेसमलेन अमलीनन्ति तण्हासंकिलेसादिना असंकिलिट्ठ कत्वा । परियोदातटेन निम्मलभावेन सङ्ख विय लिखितं धोतन्ति सङ्घलिखितन्ति आह “धोतसङ्घसप्पटिभाग"न्ति । "अज्झावसता"ति पदप्पयोगेन “अगार"न्ति भुम्मत्थे उपयोगवचनन्ति आह "अगारमझे"ति । कसायेन रत्तानि वत्थानि कासायानीति आह "कसायरसपीतताया"ति । परिदहित्वाति निवासेत्वा चेव पारुपित्वा च । अगारवासो अगारं उत्तरपदलोपेन, तस्स वड्विआवहं अगारस्स हितं।
१९२. भोगक्खन्धोति भोगसमुदायो । आबन्धनद्वेनाति “पुत्तो नत्ता''तिआदिना पेमवसेन सपरिच्छेदं बन्धनढेन । “अम्हाकमेते"ति आयन्तीति आती। पितामहपितुपुत्तादिवसेन परिवत्तनटेन परिवट्टो।
१९३. पातिमोक्खसंवरसंवुतोति पातिमोक्खसंवरेन पिहितकायवचीद्वारो, तथाभूतो च यस्मा तेन संवरेन उपेतो नाम होति, तस्मा वुत्तं "पातिमोक्खसंवरेन समन्नागतो"ति । "आचारगोचरसम्पन्नो"तिआदि तस्सेव पातिमोक्खसंवरसमन्नागमस्स पच्चयदस्सनं । अप्पमत्तकेसूति असञ्चिच्च आपन्नअनुखुद्दकेसु चेव सहसा उप्पन्नअकुसलचित्तुप्पादेसु च । भयदस्सावीति भयदस्सनसीलो। सम्मा आदियित्वाति सक्कच्चं यावजीवं अवीतिक्कमवसेन आदियित्वा । तं तं सिक्खापदन्ति तं तं सिक्खाकोट्ठासं । एत्थाति एतस्मिं “पातिमोक्खसंवरसंवुतो"ति पाठे। सङ्केपोति सङ्केपवण्णना | वित्थारो विसुद्धिमग्गे (विसुद्धि० १.१४) वुत्तो, तस्मा सो तत्थ, तंसंवण्णनाय (विसुद्धि० टी० १.१४) च वुत्तनयेन वेदितब्बो।
आचारगोचरग्गहणेनेवाति “आचारगोचरसम्पन्नो"ति वचनेनेव । तेनाह "कुसले कायकम्मवचीकम्मे गहितेपी"ति | अधिकवचनं अञमत्थं बोधेतीति कत्वा तस्स आजीवपारिसुद्धिसीलस्स उप्पत्तिद्वारदस्सनत्थं...पे०.... कुसलेनाति वुत्तं, सब्बसो अनेसनप्पहानेन अनवज्जेनाति अत्थो । यस्मा “कतमे च थपति कुसला सीला कुसलं कायकम्मं कसलं वचीकम्म"न्ति (म० नि० २.२६५) सीलस्स कसलकायवचीभावं दस्सेत्वा “आजीवपरिसद्धम्पि खो अहं थपति सीलस्मिं वदामी"ति (म० नि० २.२६५) एवं पवत्ताय मुण्डिकसुत्तदेसनाय "कायकम्मवचीकम्मेन समन्नागतो कुसलेन,
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२१४
(२.१९४-२११-२१३)
परिसुद्धाजीवो" ति अयं देसना एकसङ्ग्रहा अञ्ञदत्थु संसन्दति समेतीति दस्सेन्तो आह " मुण्डिकसुत्तवसेन वा एवं वृत्त "न्ति । सीलस्मिं वदामीति "सील "न्ति वदामि, “सीलस्मिं अन्तोगधं परियापन्न "न्ति वदामीति वा अत्थो । परियादानत्थन्ति परिग्गहत्थं ।
दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गटीका
तिविधेन सीलेनाति चूळसीलं मज्झिमसीलं महासीलन्ति एवं तिविधेन सीलेन । मनच्छट्ठेसु इन्द्रियेसु, न कायपञ्चमेसु । यथालाभयथाबलयथासारुप्पप्पकारवसेन तिविधेन सन्तोसेन ।
चूळमज्झिममहासीलवण्णना
१९४-२११. “सीलस्मि"न्ति इदं निद्धारणे भुम्मन्ति आह " एकं सीलं होती अत्थो 'ति । अयमेव अत्थोति पच्चत्तवचनत्थो एव । ब्रह्मजालेति ब्रह्मजालवण्णनायं (दी० नि० अट्ठ० १.७)।
२१२. अत्तानुवादपरानुवाददण्डभयादीनि असंवरमूलकानि। सीलस्सासंवरतोति सीलस्स असंवरणतो, सीलसंवराभावतोति अत्थो । भवेय्याति उप्पज्जेय्य । यथाविधानविहितेनाति यथाविधानसम्पादितेन । अविप्पटिसारादिनिमित्तं उप्पन्नचेतसिकसुखसमुट्ठानेहि पणीतरूपेहि फुट्ठसरीरस्स उळारं कायिकं सुखं भवतीति आह "अविप्पटिसार... पे०... पटिसंवेदेती 'ति ।
इन्द्रियसंवरकथावण्णना
२१३. विसेसो कम्मत्थापेक्खताय सामञ्ञस्स न तेहि परिचत्तोति आह " चक्खु - सद्दो कत्थचि बुद्धचक्खुम्हि वत्ततीति । विज्जमानमेव अभिधेय्ये विसेसत्थं विसेसन्तरनिवत्तनवसेन विसेससद्दो विभावेति, न अविज्जमानं । सेसपदेसुपि एसेव नयो । अहि असाधारणं बुद्धानंयेव चक्खुदस्सनन्ति बुद्धचक्खु, आसयानुसयजाणं, इन्द्रियपरोपरियत्तञाणञ्च । समन्ततो सब्बसो दस्सनट्ठेन समन्तचक्खु, सब्बञ्जतञ्ञणं । अरियमग्गत्तयपञ्ञति हेट्टिमे अरियमग्गत्तये पञ्ञा । इधाति "चक्खुना रूप "न्ति इमस्मिं पाठे । अयं चक्खु-सद्दो पसाद... पे०... वत्तति निस्सयवोहारे निस्सितस्स वत्तब्बतो यथा । “मञ्चा उक्कुट्ठि करोन्ती 'ति । असम्मिस्सन्ति किलेसदुक्खेन अवोमिस्सं । तेनाह
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(२.२१४-२१४)
सतिसम्पञ्जञ्ञकथावण्णना
“परिसुद्ध”न्ति । सति हि सुविसुद्धे इन्द्रियसंवरे, पधानभूतपापधम्मविगमेन अधिचित्तानुयोगो हत्थगतो एवं होतीति आह “अधिचित्तसुखं पटिसंवेदेती 'ति ।
सतिसम्पजञ्ञकथावण्णना
२१४. समन्ततो, पकट्ठे वा सविसेसं जानातीति सम्पजानो, सम्पजानस्स भावो सम्पजञ्ञ, तथापवत्तत्राणं । तस्स विभजनं सम्पजञ्ञभाजनीयं, तस्मिं सम्पजञ्ञभाजनीयम्हि । अभिक्कमनं अभिक्कन्तन्ति आह “अभिक्कन्तं वुच्चति गमन" न्ति । तथा पटिक्कमनं पटिक्कन्तन्ति आह "पटिक्कन्तं निवत्तन "न्ति । निवत्तनन्ति च निवत्तिमत्तं । निवत्तित्वा पन गमनं गमनमेव । अभिहरन्तोति गमनवसेन कायं उपनेन्तो । ठाननिसज्जासयनेसु यो गमनविधुरो कायस्स पुरतो अभिहारो, सो अभिक्कमो, पच्छतो अपहरणं पटिक्कमोति दस्सेन्तो " ठानेपी" तिआदिमाह । आसनस्साति पीठकादि आसनस्स । पुरिमअङ्गाभिमुखोति अटनिकादिपुरिमावयवाभिमुखो । संसरन्तोति संसप्पन्तो । पच्चासंसरन्तोति पटिआसप्पन्तो। “एसेव नयो" ति इमिना निपन्नस्सेव अभिमुखसंसप्पनपटिआसप्पानि निदस्सेति ।
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सम्मा पजाननं सम्पजानं तेन अत्तना कातब्बकिच्चस्स करणसीलो सम्पजानकारीति आह “सम्पञ्ञेन सब्बकिच्चकारी "ति । सम्पजानसद्दस्स सम्पञ्ञपरियायता पुब्बे वृत्ता एव । सम्पजञ्जं करोतेवाति अभिक्कन्तादीसु असम्मोहं उप्पादेति एव । सम्पञ्ञस्स वा कारो एतस्स अत्थीति सम्पजानकारी । धम्मतो वढिसङ्घातेन सह अत्थेन वत्ततीति सात्थकं, अभिक्कन्तादि । सात्थकस्स सम्पजाननं सात्थकसम्पजञ्जं । सप्पायस्स अत्तनो हितस्स सम्पजाननं सप्पायसम्पजयं । अभिक्कमादीसु भिक्खाचारगोचरे, अञ्ञत्थापि च पवत्तेसु अविजहिते कम्मट्ठानसङ्घाते गोचरे सम्पज गोचरसम्पज । अभिक्कमादीसु असम्मुव्हनमेव सम्पज असम्मोहसम्पञ्ञ । परिग्गहेत्वाति तूलेत्वा तीरेत्वा पटिसङ्घायाति, अत्थो। सङ्घदस्सनेनेव उपोसथपवारणादिअत्थं गमनं सङ्गहितं । असुभदस्सनादीति आदि-सद्देन कसिणपरिकम्मादीनं सङ्ग्रहो दट्टब्बो । सङ्घपतो वुत्तमत्थं विवरितुं "चेतियं वा बोधं वा दिस्वापि ही "तिआदि वृत्तं । अरहत्तं पापुणातीत उक्कट्ठनिद्देसो एसो । समथविपस्सनुप्पादनम्पि हि भिक्खुनो वड्ढियेव । केचीति अभयगिरिवासिनो ।
तस्मिं पनाति सात्थकसम्पञ्ञवसेन परिग्गहितअत्थे । “अत्थोति धम्मतो वड्डी 'ति यं
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गटीका
(२.२१४-२१४)
सात्थकन्ति अधिप्पेतं, तं सप्पायं एवाति सिया कस्सचि आसङ्क्राति तन्निवत्तनत्थं "चेतियदस्सनं तावा"तिआदि आरद्धं । चित्तकम्मरूपकानि वियाति चित्तकम्मकता पटिमायो विय, यन्तपयोगेन वा विचित्तकम्मा पटिमायो विय। असमपेक्खनं गेहस्सित अञाणुपेक्खावसेन आरम्मणस्स अयोनिसो गहणं । यं सन्धाय वुत्तं । “चक्खुना रूपं दिस्वा उप्पज्जति उपेक्खा बालस्स मूळ्हस्स पुथुज्जनस्सा"तिआदि । (म० नि० ३.३०८) हत्थिआदिसम्मद्देन जीवितन्तरायो। विसभागरूपदस्सनादिना ब्रह्मचरियन्तरायो।
पब्बजितदिवसतो पट्ठाय भिक्खूनं अनुवत्तनकथा आचिण्णा, अननुवत्तनकथा पन तस्सा दुतिया नाम होतीति आह "ढे कथा नाम न कथितपुब्बा"ति । एवन्ति “सचे पना''तिआदिकं सब्बम्पि वुत्ताकारं पच्चामसति, न “पुरिसस्स मातुगामासुभ"न्तिआदिकं वुच्चमानं ।
योगकम्मस्स पवत्तिट्ठानताय भावनाय आरम्मणं “कम्मट्ठान"न्ति वुच्चतीति आह "कम्मट्ठानसङ्घातं गोचर'"न्ति । उग्गहेत्वाति यथा उग्गहनिमित्तं उप्पज्जति, एवं उग्गहकोसल्लस्स सम्पादनवसेन उग्गहेत्वा ।
हरतीति कम्मट्ठानं पवत्तेति, याव पिण्डपातपटिक्कमा अनुयुञ्जतीति अत्थो। न पच्चाहरतीति आहारूपयोगतो याव दिवाठानुपसङ्कमना कम्मट्ठानं न पटिनेति । सरीरपरिकम्मन्ति मुखधोवनादिसरीरपटिजग्गनं । ढे तयो पल्लङ्केति द्वे तयो निसज्जावारे द्वे तीणि उण्हासनानि । तेनाह "उसुमं गाहापेन्तो"ति । कम्मट्ठानसीसेनेवाति कम्मट्ठानमुखेनेव कम्मट्ठानं अविजहन्तो एव, तेन “पत्तोपि अचेतनो''तिआदिना (दी० नि० अट्ठ० १.२१४) वक्खमानं कम्मट्ठानं, यथापरिहरियमानं वा अविजहित्वाति दस्सेति । तथैवाति तिक्खत्तुमेव । परिभोगचेतियतो सारीरिकचेतियं गरुतरन्ति कत्वा "चेतियं वन्दित्वा"ति पुब्बकालकिरियाय वसेन वुत्तं । तथा हि अट्ठकथायं “चेतियं बाधयमाना बोधिसाखा हरितब्बा''ति वुत्ता। बुद्धगुणानुस्सरणवसेनेव बोधियं पणिपातकरणन्ति आह "बुद्धस्स भगवतो सम्मुखा विय निपच्चकारं दस्सेत्वा"ति। गामसमीपेति गामस्स - उपचारट्ठाने । जनसङ्गहत्थन्ति “मयि अकथेन्ते एतेसं को कथेस्सती"ति धम्मानुग्गहेन जनसङ्गहत्थं । तस्माति यस्मा “धम्मकथा नाम कथेतब्बा एवाति अट्ठकथाचरिया वदन्ति, यस्मा च धम्मकथा कम्मट्ठानविनिमुत्ता नाम नत्थि, तस्मा । कम्मट्ठानसीसेनेवाति अत्तना परिहरियमानं कम्मट्टानं
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(२.२१४-२१४)
सतिसम्पजञकथावण्णना
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अविजहन्तो तदनुगुणंयेव धम्मकथं कथेत्वा। अनुमोदनं “कम्मट्ठानसीसेनेवा''ति आनेत्वा सम्बन्धितब्बं ।
वत्वाति एत्थापि
सम्पत्तपरिच्छेदेनेवाति “परिचितो अपरिचितो"तिआदि विभागं अकत्वा सम्पत्तकोटिया एव, समागममत्तेनेवाति अत्थो । भयेति परचक्कादिभये ।
"कम्मजतेजो"ति गहणिं सन्धायाह । कम्मट्ठानं वीथिं नारोहति खुदापरिस्समेन किलन्तकायत्ता समाधानाभावतो। अवसेसट्ठानेति यागुया अग्गहितठ्ठाने । पोङ्खानुपोयन्ति कम्मट्ठानुपट्टानस्स अविच्छेददस्सनमेतं, यथा पोङ्खानुपोज़ पवत्ताय सरपटिपातिया अनविच्छेदो, एवमेतस्सपीति ।
निक्खित्तधुरो भावनानुयोगे। वत्तपटिपत्तिया अपूरणेन सब्बवत्तानि भिन्दित्वा । "कामेसु अवीतरागो होति, काये अवीतरागो, रूपे अवीतरागो, यावदत्थं उदरावदेहकं भुजित्वा सेय्यसुखं पस्ससुखं मिद्धसुखं अनुयुत्तो विहरति, अञ्जतरं देवनिकायं पणिधाय ब्रह्मचरियं चरती''ति (दी० नि० ३.३२० म० नि० १.१८६) एवं वुत्तपञ्चविधचेतोखिलविनिबन्धचित्तो। चरित्वाति पवत्तित्वा ।
गतपच्चागतिकवत्तवसेनाति भावनासहितंयेव भिक्खाय गतपच्चागतं गमनपच्चागमनं एतस्स अत्थीति गतपच्चागतिकं, तदेव वत्तं, तस्स वसेन । अत्तकामाति अत्तनो हितसुखं इच्छन्ता, धम्मच्छन्दवन्तोति अत्थो । धम्मो हि हितं तन्निमित्तकञ्च सुखन्ति । अथ वा विज्ञेनं निब्बिसेसत्ता, अत्तभावपरियापन्नत्ता च अत्ता नाम धम्मो, तं कामेन्ति इच्छन्तीति अत्तकामा।
उसभं नाम वीसति यट्ठियो । ताय सजायाति ताय पासाणसञआय, एत्तकं ठानं आगताति जानन्ताति अधिप्पायो । सोयेव नयोति “अयं भिक्खू"तिआदिको यो ठाने वुत्तो, सो एव निसज्जायपि नयो। पच्छतो आगच्छन्तानं छिन्नभत्तभावभयेनपि योनिसोमनसिकारं परिग्रहेति । महन्ताति धञकरणट्ठाने सालिसीसानि मद्दन्ता ।
महापधानं पूजेस्सामीति अम्हाकं अत्थाय लोकनाथेन छवस्सानि कतं दुक्करचरियमेवाहं यथासत्ति पूजेस्सामीति । पटिपत्तिपूजा हि सत्थुपूजा, न आमिसपूजाति ।
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गटीका
(२.२१४-२१४)
"ठानचङ्कममेवा"ति अधिट्ठातब्बइरियापथवसेन वुत्तं, न भोजनादिकालेसु कत्तब्बनिसज्जाय पटिक्खेपवसेन ।
अवस्सं
वीथिं ओतरित्वा इतो चितो च अनोलोकेत्वा पठममेव वीथियो सल्लक्खेतब्बाति आह "वीथियो सल्लक्खेत्वा"ति । यं सन्धाय वुच्चति “पासादिकेन अभिक्कन्तेना"ति, तं दस्सेतुं "तत्थ चा"तिआदि वृत्तं । “आहारे पटिक्कूलसञ्ज उपटुपेत्वा"तिआदीसु यं वत्तब्, तं परतो आगमिस्सति । अट्ठङ्गसमन्नागतन्ति “यावदेव इमस्स कायस्स ठितिया"तिआदिना (म० नि० १.२३; अ० नि० २.६.५८; महानि० २०६) वुत्तेहि अट्ठहि अङ्गेहि समन्नागतं कत्वा । "नेव दवाया"तिआदि पटिक्खेपदस्सनं ।
पच्चेकबोधिं सच्छिकरोति, यदि उपनिस्सयसम्पन्नो होतीति सम्बन्धो । एवं सब्बत्थ इतो परेसुपि । तत्थ पच्चेकबोधिया उपनिस्सयसम्पदा कप्पानं द्वे असङ्ख्येय्यानि, सतसहस्सञ्च तज्जापुञाणसम्भरणं। सावकबोधिया अग्गसावकानं असङ्ख्येय्यं, कप्पसतसहस्सञ्च, महासावकानं (थेरगा० अट्ठ० २.१२८८) सतसहस्समेव तज्जापुञञाणसम्भरणं । इतरेसं अतीतासु जातीसु विवट्टसन्निस्सयवसेन निब्बत्तितं निब्बेधभागियं कुसलं । बाहियो दारुचीरियोति बाहियविसये सजातसंवड्डताय बाहियो, दारुचीरपरिहरणेन दारुचीरियोति च समझातो। सो हि आयस्मा "तस्मातिह ते, बाहिय, एवं सिक्खितब्बं 'दिढे दिट्ठमत्तं भविस्सति, सुते, मुते, विज्ञाते विज्ञातमत्तं भविस्सती'ति, एवहि ते बाहिय सिक्खितब् । यतो खो ते बाहिय दिढे दिट्ठमत्तं भविस्सति, सुते, मुते, विज्ञाते विज्ञातमत्तं भविस्सति, ततो त्वं, बाहिय, न तेन । यतो त्वं, बाहिय, न तेन, ततो त्वं, बाहिय, न तत्थ । यतो त्वं, बाहिय, न तत्थ, ततो त्वं, बाहिय, नेविध न हुरं न उभयमन्तरेन। एसेवन्तो दुक्खस्सा''ति (उदा० १०) एत्तकाय देसनाय अरहत्तं सच्छाकासि। एवं सारिपुत्तत्थेरादीनं महापञतादिदीपनानि सुत्तपदानि वित्थारतो वेदितब्बानि ।
तन्ति असम्मुव्हनं एवन्ति इदानि वुच्चमानमाकारेनेव वेदितब्बं । “अत्ता अभिक्कमती"ति इमिना अन्धपुथुज्जनस्स दिविगाहवसेन अभिक्कमे सम्मुव्हनं दस्सेति, "अहं अभिक्कमामी"ति पन इमिना मानगाहवसेन । तदुभयं पन तण्हाय विना न होतीति तण्हगाहवसेनपि सम्मुव्हनं दस्सितमेव होति । “तथा असम्मुव्हन्तो"ति वत्वा तं असम्मुव्हनं येन घनविनिब्भोगेन होति, तं दस्सेन्तो “अभिक्कमामी"तिआदिमाह । तत्थ
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(२.२१४-२१४)
सतिसम्पजञकथावण्णना
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यस्मा वायोधातुया अनुगता तेजोधातु उद्धरणस्स पच्चयो । उद्धरणगतिका हि तेजोधातूति । उद्धरणे वायोधातुया तस्सा अनुगतभावो, तस्मा इमासं द्विन्नमत्थ सामत्थियतो अधिमत्तता, इतरासञ्च ओमत्तताति दस्सेन्तो "एकेकपादुद्धरणे...पे०... बलवतियोति आह । यस्मा पन तेजोधातुया अनुगता वायोधातु अतिहरणवीतिहरणानं पच्चयो। तिरियगतिकाय हि वायोधातुया अतिहरणवीतिहरणेसु सातिसयो ब्यापारोति । तेजोधातुया तस्सा अनुगतभावो, तस्मा इमासं द्विनमेत्थ सामत्थियतो अधिमत्तता, इतरासञ्च ओमत्तताति दस्सेन्तो "तथा अतिहरणवीतिहरणेसू"ति आह। सतिपि अनुगमकअनुगन्तब्बताविसेसे तेजोधातुवायोधातुभावमत्तं सन्धाय तथा-सद्दग्गहणं, । तत्थ अक्कन्तट्ठानतो पादस्स उक्खिपनं उद्धरणं। ठितट्टानं अतिक्कमित्वा पुरतो हरणं अतिहरणं, खाणुआदिपरिहरणत्थं, पतिट्टितपादघट्टनपरिहरणत्थं वा पस्सेन हरणं वीतिहरणं। याव पतिट्टितपादो, ताव आहरणं अतिहरणं, ततो परं हरणं वीतिहरणन्ति अयं वा एतेसं विसेसो ।
यस्मा पथवीधातुया अनुगता आपोधातु वोस्सज्जनस्स पच्चयो । गरुतरसभावा हि आपोधातूति । वोस्सज्जने पथवीधातुया तस्सा अनुगतभावो, तस्मा तासं द्विन्नमत्थ सामत्थियतो अधिमत्तता, इतरासञ्च ओमत्तताति दस्सेन्तो आह “वोस्सज्जने...पे०... बलवतियो"ति । यस्मा पन आपोधातुया अनुगता पथवीधातु सन्निक्खेपनस्स पच्चयो, पतिट्ठाभावे विय पतिट्ठापनेपि तस्सा सातिसयकिच्चत्ता आपोधातुया तस्सा अनुगतभावो, तथा घट्टनकिरियाय पथवीधातुया वसेन सन्निरुज्झनस्स सिज्झनतो तत्थापि पथवीधातुया आपोधातुअनुगतभावो, तस्मा वुत्तं "तथा सन्निक्खेपनसन्निरुज्झनेसू"ति ।
तत्थाति तस्मिं अभिक्कमने, तेसु वा वुत्तेसु उद्दरणादीसु कोट्ठासेसु । उद्धरणेति उद्धरणक्खणे। रूपारूपधम्माति उद्धरणाकारेन पवत्ता रूपधम्मा, तंसमुट्ठापका अरूपधम्मा च । अतिहरणं न पापुणन्ति खणमत्तावट्ठानतो । तत्थ तत्थेवाति यत्थ यत्थ उप्पन्ना, तत्थ तत्थेव । न हि धम्मानं देसन्तरसङ्कमनं अत्थि । “पब्बं पब्ब"तिआदि उद्धरणादिकोट्टासे सन्धाय सभागसन्ततिवसेन वुत्तन्ति वेदितब् । अतिइत्तरो हि रूपधम्मानम्पि पवत्तिक्खणो, गमनस्सादीनं, देवपुत्तानं हेलृपरियेन पटिमुखं धावन्तानं सिरसि पादे च बन्धखुरधारा समागमतोपि सीघतरो। यथा तिलानं भज्जियमानानं पटपटायनेन भेदो लक्खीयति, एवं सङ्घतधम्मानं उप्पादेनाति दस्सनत्थं "पटपटायन्ता"ति वुत्तं । उप्पन्ना हि एकन्ततो भिज्जन्तीति। “सद्धिं रूपेना''ति इदं तस्स तस्स चित्तस्स निरोधेन सद्धिं निरुज्झनकरूपधम्मानं वसेन वुत्तं, यं ततो सत्तरसमचित्तस्स उप्पादक्खणे उप्पन्नं । अञथा
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गटीका
यदि रूपारूपधम्मा समानक्खणा सियुं, “रूपं गरुपरिणामं दन्धनिरोध'न्तिआदिवचनेहि विरोधो सिया, तथा “नाहं भिक्खवे अञ्ञ एकधम्मम्पि समनुपस्सामि, यं एवं लहुपरिवत्तं, यथयिदं चित्त "न्ति (अ० नि० १.१.४८) एवं आदिपाळिया । चित्तचेतसिका हि सारम्मणसभावा यथाबलं अत्तनो आरम्मणपच्चयभूतमत्थं विभावेन्तो एवं उप्पज्जन्तीति सं तंसभावनिप्फत्तिअनन्तरं निरोधो । रूपधम्मा पन अनारम्मणा पकासेतब्बा, एवं तेसं पकासेतब्बभावनिप्पत्ति सोळसहि चित्तेहि होतीति तङ्खणायुकता तेसं इच्छिता, लहुविञ्ञाणविसयसङ्गतिमत्तप्पच्चयताय तिण्णं खन्धानं, विसयसङ्गतिमत्तताय च विञ्ञाणस्स लहुपरिवत्तिता, दन्धमहाभूतप्पच्चयताय रूपधम्मानं दन्धपरिवत्तिता । नानाधातुया यथाभूतत्राणं खो पन तथागतस्सेव, तेन च पुरेजातपच्चयो रूपधम्मोव वृत्ती, पच्छाजातपच्चयो च तथैवाति रूपारूपधम्मानं समानक्खणता न युज्जतेव । तस्मा वुत्तनयेनेवेत्थ अत्थो वेदितब्बो ।
अजं उप्पज्जते चित्तं, अञ्जं चित्तं निरुज्झतीति यं पुरिमुप्पन्नं चित्तं तं अञ्ञ, तं पन निरुज्झन्तं अपरस्स अनन्तरादिपच्चयभावेनेव निरुज्झतीति तथालद्धपच्चयं अञ्ञं उप्पज्जते चित्तं । यदि एवं तेसं अन्तरो लब्भेय्याति ? नोति आह "अवीचि मनुप्पबन्धो”ति, यथा वीचि अन्तरो न लब्भति, "तदेवेत "न्ति अविसेसविदू मञ्ञन्ति, एवं अनु अनु पबन्धो चित्तसन्तानो रूपसन्तानो च नदीसोतोव नदियं उदकप्पवाहो विय वत्तति ।
(२.२१४ - २१४ )
अभिमुखं लोकितं आलोकितन्ति आह “ पुरतो पेक्खन "न्ति । यस्मा यंदिसाभिमुखो गच्छति, तिट्ठति, निसीदति वा तदभिमुखं पेक्खनं आलोकितं, तस्मा तदनुगतविदिसालोकनं विलोकितन्ति आह “विलोकितं नाम अनुदिसापेक्खन ' "न्ति । सम्मज्जनपरिभण्डादिकरणे ओलोकितस्स, उल्लोकहरणादीसु उल्लोकितस्स, पच्छतो आगच्छन्तपरिस्सयस्स परिवज्जनादीसु अपलोकितस्स सिया सम्भवोति आह "इमिना वा मुखेन सब्बानिपि तानि गहितानेवा" ति ।
कायसक्खिन्ति कायेन सच्छिकतवन्तं पच्चक्खकारिनन्ति अत्थो । सो हि आयस्मा विपस्सनाकाले “यमेवाहं इन्द्रियेसु अगुत्तद्वारतं निस्साय सासने अनभिरतिआदिविप्पकारं पत्तो, तमेव सुट्ट निग्गहेस्सामी 'ति उस्साहजातो बलवहिरोत्तप्पो, तत्थ च कताधिकारत्ता इन्द्रियसंवरे उक्कंसपारमिप्पत्तो, तेनेव नं सत्था " एतदग्गं भिक्खवे मम सावकानं भिक्खूनं इन्द्रिये गुत्तद्वारानं, यदिदं नन्दो ति ( अ० नि० १.१.२३५) एतदग्गे ठपेसि ।
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(२.२१४-२१४)
सतिसम्पजञकथावण्णना
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सात्थकता च सप्पायता च वेदितब्बा आलोकितविलोकितस्साति आनेत्वा सम्बन्धो । तस्माति कम्मट्ठानाविजहनस्सेव गोचरसम्पजञभावतोति वुत्तमेवत्थं हेतुभावेन पच्चामसति । अत्तनो कम्मट्ठानवसेनेव आलोकनविलोकनं कातळ, खन्धादिकम्मट्ठाना अञो उपायो न गवेसितब्बोति अधिप्पायो । आलोकितादिसमञापि यस्मा धम्ममत्तस्सेव पवत्तिविसेसो, तस्मा तस्स याथावतो पजाननं असम्मोहसम्पजञ्जन्ति दस्सेतुं “अब्भन्तरे"तिआदि वुत्तं । चित्तकिरियवायोधातुविष्फारवसेनाति किरियमयचित्तसमुट्ठानाय वायोधातया चलनाकारप्पवत्तिवसेन । अधो सीदतीति अधो गच्छति । उद्धं लङ्केतीति लई विय उपरि गच्छति ।
अङ्गकिच्चं साधयमानन्ति पधानभूतअङ्गकिच्चं निप्फादेन्तं हुत्वाति अत्थो । “पठमजवनेपि...पे०... न होती"ति इदं पञ्चद्वारवीथियं “इत्थी पुरिसो''ति रज्जनादीनं अभावं सन्धाय वुत्तं । तत्थ हि आवज्जन वोठ्ठब्बपनानं अयोनिसो आवज्जनवोट्ठबनवसेन इढे इत्थिरूपादिम्हि लोभमत्तं, अनिढे च पटिधमत्तं उप्पज्जति, मनोद्वारे पन “इत्थी पुरिसो"ति रज्जनादि होति । तस्स पञ्चद्वारजवनं मूलं, यथावुत्तं वा सब् भवङ्गादि । एवं मनोद्वारजवनस्स मूलवसेन मूलपरिञा वुत्ता। आगन्तुकतावकालिकता पन पञ्चद्वारजवनस्सेव अपुब्बभाववसेन, इत्तरभाववसेन च वुत्ता। "हेट्ठपरियवसेन भिज्जित्वा पतितेसू"ति हेट्ठिमस्स उपरिमस्स च अपरापरं भङ्गप्पत्तिमाह।
तन्ति जवनं, तस्स अयुत्तन्ति सम्बन्धो । आगन्तुको अब्भागतो ।
उदयब्बयपरिच्छिन्नो तावतको कालो एतेसन्ति तावकालिकानि ।
एतं असम्मोहसम्पजनं। समवायेति सामग्गियं । तत्थाति पञ्चक्खन्धवसेन आलोकनविलोकने पञ्जायमाने तब्बिनिमुत्तो को एको आलोकेति, को विलोकेति।
"उपनिस्सयपच्चयो"ति इदं सुत्तन्तनयेन परियायतो वुत्तं । सहजातपच्चयोति निदस्सनमत्तमेतं अञमञ्जसम्पयुत्तअत्थिअविगतादिपच्चयानम्पि लब्भनतो ।
काले समञ्छितुं युत्तकाले समञ्छन्तस्स । तथा पसारेन्तस्साति एत्थापि । मणिसप्पो नाम एका सप्पजातीति वदन्ति । लळनन्ति कम्पनं, लीळाकरणं वा ।
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गटीका
(२.२१४-२१४)
उण्हपकतिको परिळाहबहुलकायो | सीलविदूसनेन अहितावहत्ता मिच्छाजीववसेन उप्पन्न असप्पायं। “चीवरम्पि अचेतन"न्तिआदिना चीवरस्स विय कायोपि अचेतनोति कायस्स अत्तसुञताविभावनेन “अब्भन्तरे''तिआदिना वुत्तमेवत्थं परिदीपेन्तो इतरीतरसन्तोसस्स कारणं दस्सेति, तेनाह "तस्मा''तिआदि ।
चतुपञ्चगण्ठिकाहतोति आहतचतुपञ्चगण्ठिको, चतुपञ्चगण्ठिकाहि वा आहतो तथा ।
अट्ठविधोपि अत्थोति अट्ठविधोपि पयोजनविसेसो महासिवत्थेरवादवसेन “इमस्स कायस्स ठितिया'तिआदिना (म० नि० १.२३, ४२२; म० नि० २.३८७; अ० नि० २.३४१; ३.८.९; ध० स० १३५५; विभं० ५१८; महानि० २०६) नयेन वुत्तो दट्ठब्बो। इमस्मिं पक्खे "नेव दवायातिआदिना (म० नि० १.२३, ४२२; म० नि० २.३८७; अ० नि० ३.८.९; ध० स० १३५५; विभं० ५१८; महानि० २०६) नयेना"ति पन पटिखेपङ्गदस्सनमुखेन देसनाय आगतत्ता वुत्तन्ति दट्ठब्बं ।
पथविसन्धारकजलस्स तंसन्धारकवायुना विय परिभुत्तस्स आहारस्स वायोधातुयाव आसये अवठ्ठानन्ति आह "वायोधातुवसेनेव तिद्वती"ति । अतिहरतीति याव मुखा अभिहरति । वीतिहरतीति ततो कुच्छियं वीमिस्सं करोन्तो हरति । अतिहरतीति वा मुखद्वारं अतिक्कामेन्तो हरति । वीतिहरतीति कुच्छिगतं पस्सतो हरति, परिवत्तेतीति अपरापरं चारेति । एत्थ च आहारस्स धारणपरिवत्तनसञ्चुण्णनविसोसनानि पथवीधातुसहिता एव वायोधातु करोति, न केवलाति तानि पथवीधातुयापि किच्चभावेन वुत्तानि । अल्लत्तञ्च अनुपालेतीति यथा वायोधातु आदीहि अञ्जेहि विसोसनं न होति, तथा अल्लत्तञ्च अनुपालेति । तेजोधातूति गहणीसङ्खाता तेजोधातु । सा हि अन्तोपविट्ठ आहारं परिपाचेति । अञ्जसो होतीति आहारस्स पवेसनादीनं मग्गो होति । आभुजतीति परियेसनवसेन, अज्झोहरणजिण्णाजिण्णतादिपटिसंवेदनवसेन च आवज्जेति, विजानातीति अत्थो । तंतंविजाननस्स पच्चयभूतोयेव हि पयोगो “सम्मापयोगो"ति वुत्तो । येन हि पयोगेन परियेसनादि निष्फज्जति, सो तब्बिसयविजाननम्पि निप्फादेति नाम तदविनाभावतो। अथ वा सम्मापयोगं सम्मापटिपत्ति मन्वाय आगम्म आभुजति समन्नाहरति । आभोगपुब्बको हि सब्बोपि विज्ञाणब्यापारोति तथा वुत्तं ।
गमनतोति भिक्खाचारवसेन गोचरगामं उद्दिस्स गमनतो। परियेसनतोति गोचरगामे
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(२.२१४-२१४)
सतिसम्पजञकथावण्णना
२२३
भिक्खत्थं आहिण्डनतो। परिभोगतोति आहारस्स परिभुञ्जनतो। आसयतोति पित्तादिआसयतो। आसयति एत्थ एकझं पवत्तमानोपि कम्मफलववत्थितो हुत्वा मरियादवसेन अञ्जमलं असङ्करतो सयति तिट्ठति पवत्ततीति आसयो, आमासयस्स उपरि तिट्ठनको पित्तादिको । मरियादत्थो हि अयमाकारो। निधानन्ति यथाभुत्तो आहारो निचितो हुत्वा तिट्ठति एत्थाति निधानं, आमासयो। ततो निधानतो। अपरिपक्कतोति गहणीसङ्घातेन कम्मजतेजेन अविपक्कतो। परिपक्कतोति यथाभुत्तस्स आहारस विपक्कभावतो। फलतोति निष्फत्तितो। निस्सन्दतोति इतो चितो च निस्सन्दनतो। सम्मक्खनतोति सब्बसो मक्खनतो। अयमेत्थ सङ्केपो, वित्थारो पन विसुद्धिमग्गसंवण्णनाय (विसुद्धि० टी० १.२९४) गहेतब्बो ।
सरीरतो सेदा मुच्चन्तीति वेगसंधारणेन उप्पन्नपरिळाहतो सरीरतो सेदा मुच्चन्ति । अशे च रोगा कण्णसूलभगन्दरादयो। अट्ठानेति मनुस्सामनुस्सपरिग्गहिते अयुत्तट्ठाने खेत्तदेवायतनादिके । कुद्धा हि अमनुस्सा, मनुस्सापि वा जीवितक्खयं पापेन्ति । निस्सद्वत्ता नेव अत्तनो, कस्सचि अनिस्सज्जितत्ता, जिगुच्छनीयत्ता च न परस्स। उदकतुम्बतोति वेळुनाळिआदिउदकभाजनतो। तन्ति छड्डितउदकं ।
अद्धानइरियापथा चिरतरप्पवत्तिका दीघकालिका इरियापथा। मज्झिमा भिक्खाचरणादिवसेन पवत्ता। चुण्णियइरियापथा विहारे, अञ्जत्थापि इतो चितो च परिवत्तनादिवसेन पवत्ताति वदन्ति । “गतेति गमने"ति पुब्बे अभिक्कमपटिक्कमग्गहणेन गमनेनपि पुरतो पच्छतो च कायस्स अभिहरणं वुत्तन्ति इध गमनमेव गहितन्ति केचि ।
यस्मा महासिवत्थेरवादे अनन्तरे अनन्तरे इरियापथे पवत्तरूपारूपधम्मानं तत्थ तत्थेव निरोधदस्सनवसेन सम्पजानकारिता गहिताति तं सम्पजज्ञविपस्सनाचारवसेन वेदितब्बं । तेन वुत्तं "तयिदं महासिवत्थेरेन वुत्तं असम्मोहधुरं महासतिपट्टानसुत्ते अधिप्पेत"न्ति । इमस्मिं पन सामञफले सबम्पि चतुब्बिधं सम्पजलं लभति यावदेव सामञफलविसेसदस्सनपरत्ता इमिस्सा देसनाय । “सतिसम्पयुत्तस्सेवा"ति इदं यथा सम्पजञस्स किच्चतो पधानता गहिता, एवं सतिया पीति दस्सनत्थं वुत्तं, न सतिया सब्भावमत्तदस्सनत्थं । न हि कदाचि सतिरहिता आणप्पवत्ति अस्थि । “एतस्स हि पदस्स अयं वित्थारो"ति इमिना सतिया आणेन समधुरतंयेव विभावेति । एतानि पदानीति “अभिक्कन्ते पटिक्कन्ते सम्पजानकारी
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२२४
दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गटीका
(२.२१४-२१४)
होती"तिआदीनि पदानि । विभत्तानेवाति विसु कत्वा विभत्तानियेव, इमिनापि सम्पजञस्स विय सतियापेत्थ पधानतमेव विभावेति ।
मज्झिमभाणका पन भणन्ति - एको भिक्खु गच्छन्तो अनं चिन्तेन्तो अचं वितक्केन्तो गच्छति, एको कम्मट्ठानं अविस्सज्जेत्वाव गच्छति। तथा एको तिद्वन्तो...पे०... निसीदन्तो...पे०... सयन्तो अझं चिन्तेन्तो अझं वितक्केन्तो सयति, एको कम्मट्ठानं अविस्सज्जेत्वाव सयति, एत्तकेन पन न पाकटं होतीति चकमनेन दीपेन्ति । यो हि भिक्खु चङ्कम ओतरित्वा च चङ्कमनकोटियं ठितो परिग्गण्हाति "पाचीनचङ्कमनकोटियं पवत्ता रूपारूपधम्मा पच्छिमचङ्कमनकोटिं अप्पत्वा एत्थेव निरुद्धा, पच्छिमचङ्कमनकोटियं पवत्तापि पाचीनचङ्कमनकोटिं अप्पत्वा एत्थेव निरुद्धा, चङ्कमनमज्झे पवत्ता उभो कोटियो अप्पत्वा एत्थेव निरुद्धा, चङ्कमने पवत्ता रूपारूपधम्मा ठानं अप्पत्वा एत्थेव निरुद्धा, ठाने पवत्ता निसज्जं अप्पत्वा एत्थेव निरुद्धा, निसज्जाय पवत्ता सयनं अप्पत्वा एत्थेव निरुद्धा''ति एवं परिग्गण्हन्तो परिग्गण्हन्तोयेव भवङ्गं ओतरति । उट्ठहन्तो कम्मट्टानं गहेत्वाव उट्ठहति, अयं भिक्खु गतादीसु सम्पजानकारी नाम होतीति । एवम्पि न सोत्ते कम्मट्ठानं अविभूतं होति, तस्मा भिक्खु याव सक्कोति, ताव चङ्कमित्वा ठत्वा निसीदित्वा सयमानो एवं परिग्गहेत्वा सयति “कायो अचेतनो, मञ्चो अचेतनो, कायो न जानाति 'अहं मञ्चे सयितो'ति, मञ्चो न जानाति 'मयि कायो सयितो'ति, अचेतनो कायो अचेतने मञ्चे सयितो''ति एवं परिग्गण्हन्तो एव चित्तं भवङ्गे
ओतारेति । पबुज्झन्तो कम्मट्ठानं गहेत्वाव पबुज्झति, अयं सोत्ते सम्पजानकारी नाम होति । कायादीकिरियानिब्बत्तनेन तम्मयत्ता, आवज्जनकिरिया समुट्ठितत्ता च जवनं सब्बम्पि वा छद्वारप्पवत्तं किरियमयपवत्तं नाम | तस्मिं सति जागरितं नाम होतीति परिग्गण्हन्तो जागरिते सम्पजानकारी नाम | अपि च रत्तिन्दिवं छ कोट्ठासे कत्वा पञ्च कोट्ठासे जग्गन्तोपि जागरिते सम्पजानकारी नाम होति । विमुत्तायतनसीसेन धम्म देसेन्तोपि बत्तिंसतिरच्छानकथं पहाय दसकथावत्थुनिस्सितसप्पायकथं कथेन्तोपि भासिते सम्पजानकारी नाम । अट्ठतिसाय आरम्मणेसु चित्तरुचियं मनसिकारं पवत्तेन्तोपि दुतियं झानं समापन्नोपि तुण्हीभावे सम्पजानकारी नाम | दुतियहि झानं वचीसङ्खारविरहतो विसेसतो तुण्हीभावो नामाति । एवन्ति वुत्तप्पकारेन, सत्तसुपि ठानेसु चतुधाति अत्थो ।
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(२.२१५-२१५)
सन्तोसकथावण्णना
सन्तोसकथावण्णना
२१५. यस्स सन्तोसस्स अत्तनि अत्थिताय भिक्खु " सन्तुट्टो "ति वुच्चति, तं दस्सेन्तो “ इतरीतरपच्चयसन्तोसेन समन्नागतो" ति आह । चीवरादि यत्थ कत्थचि पच्चये सन्तुस्सनेन समङ्गीभूतोति अत्थो । अथ वा इतरं वुच्चति हीनं पणीततो अञ्ञत्ता, तथा पणीतं इतरं हीनतो अञ्ञत्ता । अपेक्खासिद्धा इतरताति । इति येन धम्मेन हीनेन वा पणीतेन वा चीवरादिपच्चयेन सन्तुस्सति, सो तथा पवत्तो अलोभो इतरीतरपच्चयसन्तोसो, तेन समन्त्रागतो। यथालाभं अत्तनो लाभानुरूपं सन्तोसो यथालाभसन्तोसो । सेसद्वयेपि एसेव नयो । लब्भतीति वा लाभो, यो यो लाभो यथालाभं तेन सन्तोसो यथालाभसन्तोसो । बलन्ति कायबलं । सारुप्पन्ति पकतिदुब्बलादीनं अनुच्छविकता ।
न
यथाद्धतो अञ्ञस्स अपत्थना नाम सिया अप्पिच्छतायपि पवत्तिआकारोति ततो विनिवत्तितमेव सन्तोसस्स सरूपं दस्सेन्तो “ लभन्तोपि न गण्हाती" ति आह । तं परिवत्तेत्वाति पकतिदुब्बलादीनं गरुचीवरं न फासुभावावहं, सरीरखेदावहञ्च होतीति पयोजनवसेन, न अत्रिच्छतादिवसेन तं परिवत्तेत्वा । लहुकचीवरपरिभोग सन्तोसविरोधीति आह “लहुकेन यापेन्तोपि सन्तुट्ठोव होती "ति । महग्घं चीवरं बहूनि वा चीवरानि लभित्वापि तानि विस्सज्जेत्वा तदञ्ञस्स गहणं यथासारूप्पनये ठितत्ता न सन्तोसविरोधीति आह “तेसं... पे०... धारेन्तोपि सन्तुट्ठोव होती 'ति । एवं सेसपच्चयेपि यथाबलयथासारुप्पनिद्देसेसु अपि सद्दग्गहणे अधिप्पायो वेदितब्बो ।
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मुत्तहरीतकन्ति गोमुत्तपरिभावितं, पूतिभावेन वा छड्डितं हरीतकं । बुद्धादीहि वण्णितन्ति “पूतिमुत्तभेसज्जं निस्साय पब्बज्जा "तिआदिना (महाव० ७३, १२८) सम्मासम्बुद्धादीहि पसत्थं । अप्पिच्छतासन्तुट्ठीसु भिक्खू नियोजेन्तो परमसन्तुट्ठोव होति परमेन उक्कंसगतेन सन्तोसेन समन्नागतत्ता ।
कायं परिहरन्ति पोसेन्तीति कायपरिहारिका । तथा कुच्छिपरिहारिका वेदितब्बा । कुच्छिपरिहारिकता च अज्झोहरणेन सरीरस्स ठितिया उपकारकतावसेन इच्छिताति बहिद्धाव कायस्स उपकारकतावसेन कायपरिहारिकता दट्टब्बा ।
परिक्खारमत्ताति परिक्खारग्गहणं । तत्रट्ठकपच्चत्थरणन्ति अत्तना अनधिट्ठहित्वा तत्थेव
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२२६
दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गटीका
(२.२१६-२१६)
तिनकपच्चत्थरणं । पच्चत्थरणादीनञ्चेत्थ नवमादिभावो यथावुत्तपटिपाटिया दट्ठब्बो, न तेसं तथा पतिनियतभावतो। कस्मा ? तथा नधारणतो। दुप्पोसभावेन महागजा वियाति महागजा। यदि इतरेपि अप्पिच्छतादिसभावा, किं तेसम्पि वसेन अयं देसना इच्छिताति ? नोति आह "भगवा पना"तिआदि । कायपरिहारो पयोजनं एतेनाति कायपरिहारिकं । तेनाह "कायं परिहरणमत्तकेना"ति ।।
चतूसु दिसासु सुखविहारताय सुखविहारट्ठानभूता चतस्सो दिसा एतस्साति चतुद्दिसो चतुद्दिसो एव चातुद्दिसो। तासु एव कत्थचि सत्ते वा सङ्खारे वा भयेन न पटिहनति, सयं वा तेन न पटिहञ्जतीति अप्पटिघो। सन्तुस्समानो इतरीतरेनाति उच्चावचेन पच्चयेन सकेन, सन्तेन, सममेव च तुस्सनको । परिच्च सयन्ति, कायचित्तानि परिसयन्ति अभिभवन्तीति परिस्सया, सीहब्यग्घादयो, कामच्छन्दादयो च, ते परिस्सये अधिवासनखन्तिया विनयादीहि च सहिता खन्ता, अभिभविता च । थद्धभावकरभयाभावेन अछम्भी। एको चरेति एकाकी हुत्वा चरितुं सक्कुणेय्य | खग्गविसाणकप्पोति ताय एव एकविहारिताय खग्गमिगसिङ्गसमो।।
असञ्जातवाताभिघातेहि सिया सकुणो अपक्खकोति “पक्खी सकुणो"ति विसेसेत्वा वुत्तो।
नीवरणप्पहानकथावण्णना २१६. वत्तब्बतं आपज्जतीति “असुकस्स भिक्खुनो अरज्जे तिरच्छानगतानं विय, वनचरकानं विय च निवासमत्तमेव, न पन अरञ्जवासानुच्छविका काचि सम्मापटिपत्ती"ति अपवादवसेन वत्तब्बतं, आरझकेहि वा तिरच्छानगतेहि, वनचरविसभागजनेहि वा सद्धिं विप्पटिपत्तिवसेन वत्तब्बतं आपज्जति । काळकसदिसत्ता काळकं, थुल्लवज्जं । तिलकसदिसत्ता तिलकं, अणुमत्तवज्जं ।
विवित्तन्ति जनविवित्तं । तेनाह "सुञ"न्ति । तं पन जनसद्दघोसाभावेनेव वेदितब्बं सद्दकण्टकत्ता झानस्साति आह "अप्पसदं अप्पनिग्योसन्ति अत्थो"ति । एतदेवाति निस्सद्दतंयेव । विहारो पाकारपरिच्छिन्नो सकलो आवासो। अड्डयोगोति दीघपासादो, "गरुळसण्ठानपासादो''तिपि वदन्ति । पासादोति चतुरस्सपासादो। हम्मियं
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(२.२१६-२१६)
नीवरणप्पहानकथावण्णना
२२७
मुण्डच्छदनपासादो। अट्टो पटिराजूनं पटिबाहनयोग्गो चतुपञ्चभूमको पतिस्सयविसेसो । माळो एककूटसङ्गहितो अनेककोणवन्तो पतिस्सयविसेसो। अपरो नयो विहारो नाम दीघमुखपासादो । अड्डयोगो एकपस्सच्छदनकसेनासनं । तस्स किर एकपस्से भित्ति उच्चतरा होति, इतरपस्से नीचा, तेन तं एकपस्सछदनकं होति । पासादो नाम आयतचतुरस्सपासादो। हम्मियं मुण्डच्छदनकं चन्दिकङ्गणयुत्तं । गुहा नाम केवला पब्बतगुहा । लेणं द्वारबद्धं पब्भारं । सेसं वुत्तनयमेव । मण्डपोति साखामण्डपो।।
विहारसेनासनन्ति पतिस्सयभूतं सेनासनं । मञ्चपीठसेनासनन्ति मञ्चपीठञ्चेव मञ्चपीठसम्बन्धसेनासनञ्च । चिमिलिकादि सन्थरितब्बतो सन्थतसेनासनं। अभिसङ्खरणाभावतो सयनस्स निसज्जाय च केवलं ओकासभूतं सेनासनं । “विवित्तं सेनासन''न्ति इमिना सेनासनग्गहणेन सङ्गहितमेव सामञजोतनाभावतो ।
यदि एवं कस्मा “अरञ्ज"न्तिआदि वृत्तन्ति आह "इम पना"तिआदि । "भिक्खुनीनं वसेन आगत"न्ति इदं विनये तथा आगततं सन्धाय वुत्तं, अभिधम्मपि पन "अरञ्जन्ति निक्खमित्वा बहि इन्दखीला, सब्बमेतं अरञ"न्ति (विभं० ५२९) आगतमेव । तत्थ हि यं न गामपदेसन्तोगधं, तं “अरञ"न्ति निप्परियायवसेन तथा वुत्तं । धुतङ्गनिद्देसे (विसुद्धि० १.३१) यं वुत्तं, तं युत्तं ,तस्मा तत्थ वुत्तनयेन गहेतब्बन्ति अधिप्पायो । रुक्खमूलन्ति रुक्खसमीपं । वुत्तज्हेतं “यावता मज्झन्हिके काले समन्ता छाया फरति, निवाते पण्णानि निपतन्ति, एत्तावता रुक्खमूलन्ति । सेल-सद्दो अविसेसतो पब्बतपरियायोति कत्वा वुत्तं "पब्बतन्ति सेल"न्ति, न सिलामयमेव, पंसुमयादिको तिविधोपि पब्बतो एवाति । विवरन्ति द्विन्नं पब्बतानं मिथो आसन्नतरे ठितानं ओवरकादिसदिसं विवरं, एकस्मिंयेव वा पब्बते । उमङ्गसदिसन्ति सुदुङ्गासदिसं । मनुस्सानं अनुपचारट्ठानन्ति पकतिसञ्चारवसेन मनुस्सेहि न सञ्चरितब्बट्टानं । आदि-सद्देन “वनपत्थन्ति वनसण्ठानमेतं सेनासनानं अधिवचनं, वनपत्थन्ति भीसनकानमेतं, वनपत्थन्ति सलोमहंसानमेतं, वनपत्थन्ति परियन्तानमेतं, वनपत्थन्ति न मनुस्सूपचारानमेतं, वनपत्थन्ति दुरभिसम्भवानमेतं सेनासनानं अधिवचन"न्ति (विभं० ५३१) इमं पाळिसेसं सङ्गण्हाति । अच्छन्नन्ति केनचि छदनेन अन्तमसो रुक्खसाखायपि न छादितं । निक्कड्डित्वाति नीहरित्वा । पन्भारलेणसदिसेति पब्भारसदिसे लेणसदिसे च।
पिण्डपातपरियेसनं पिण्डपातो उत्तरपदलोपेनाति आह "पिण्डपातपरियेसनतो
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२२८
दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गटीका
(२.२१७-२१७)
पटिक्कन्तो"ति | पल्लङ्कन्ति एत्थ परिसद्दो “समन्ततो''ति एतस्स अत्थे, तस्मा वामोरुञ्च दक्खिणोरुञ्च समं ठपेत्वा उभो पादे अचमचं सम्बन्धित्वा निसज्जा पल्लङ्कन्ति आह "समन्ततो ऊरुबद्धासन"न्ति । ऊरूनं बन्धनवसेन निसज्जा पल्लङ्क। आभुजित्वाति च यथा पल्लङ्कवसेन निसज्जा होति, एवं उभो पादे आभुग्गे भञ्जिते कत्वा, तं पन उभिन्नं पादानं तथा सम्बन्धताकरणन्ति आह "बन्धित्वा"ति ।
हेट्ठिमकायस्स च अनुजुकं ठपनं निसज्जावचनेनेव बोधितन्ति “उजु काय''न्ति एत्थ काय-सद्दो उपरिमकायविसयोति आह "उपरिमं सरीरं उर्जु ठपेत्वा"ति । तं पन उजुकठपनं सरूपतो, पयोजनतो च दस्सेतुं “अट्ठारसा''तिआदि वुत्तं । न पणमन्तीति न
ओनमन्ति । न परिपततीति न विगच्छति वीथिं न लवेति । ततो एव पुब्बेनापरं विसेसप्पत्तिया कम्मट्ठानं वुडिं फातिं वेपुल्लं उपगच्छति | परिमुखन्ति एत्थ परिसद्दो अभि-सद्देन समानत्थोति आह “कम्मट्ठानाभिमुख"न्ति, बहिद्धा पुथुत्तारम्मणतो निवारेत्वा कम्मट्ठानंयेव पुरक्खत्वाति अत्थो । समीपत्थो वा परिसद्दोति दस्सेन्तो "मुखसमीपे वा कत्वा"ति आह । एत्थ च यथा “विवित्तं सेनासनं भजती"तिआदिना भावनानुरूपं सेनासनं दस्सितं, एवं “निसीदती"ति इमिना अलीनानुद्धच्चपक्खियो सन्तो इरियापथो दस्सितो। “पल्लवं आभुजित्वाति इमिना निसज्जाय दळहभावो, “परिमुखं सतिं उपट्टपेत्वा''ति इमिना आरम्मणपरिग्गहूपायो। परीति परिग्गहट्ठो “परिणायिका''तिआदीसु विय । मुखन्ति निय्यानट्ठो “सुञतविमोक्खमुख"न्तिआदीसु विय । पटिपक्खतो निग्गमनट्ठो हि निय्यानट्ठो, तस्मा परिग्गहितनिय्यानन्ति सब्बथा गहितासम्मोसं परिचत्तसम्मोसं सतिं कत्वा, परमं सतिनेपक्कं उपट्ठपेत्वाति अत्थो ।
२१७. अभिज्झायति गिज्झति अभिकङ्घति एतायाति अभिज्झा, लोभो । लुज्जनद्वेनाति भिज्जनटेन, खणे खणे भिज्जनद्वैनाति अत्थो । विक्खम्भनवसेनाति एत्थ विक्खम्भनं अनुप्पादनं अप्पवत्तनं, न पटिपक्खानं सुप्पहीनता। "पहीनत्ता"ति च पहीनसदिसतं सन्धाय वुत्तं झानस्स अनधिगतत्ता। तथापि नयिदं चक्खुविज्ञाणं विय सभावतो विगताभिझं, अथ खो भावनावसेन, तेनाह "न चक्षुविज्ञाणसदिसेना"ति | एसेव नयोति यथा इमस्स चित्तस्स भावनाय परिभावितत्ता विगताभिज्झता, एवं अब्यापन्नं विगतथिनमिद्धं अनुद्धतं निबिचिकिच्छञ्चाति अत्थो । पुरिमपकतिन्ति परिसुद्धपण्डरसभावं । “या चित्तस्स अकल्यताति''आदिना (ध० स० ११६२; विभं० ५४६) थिनस्स, “या कायस्स अकल्यता"तिआदिना (ध० स० ११६३; विभं० ५४६) च मिद्धस्स अभिधम्मे
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(२.२१८-२२१-२२२)
नीवरणप्पहानकथावण्णना
निट्ठित्ता वृत्तं "थिनं चित्तगेलञ्ञ, मिद्धं चेतसिकगेलञ्ञ "न्ति । सतिपि अञ्ञमञ्ञ अविप्पयोगे चित्तकायलहुतादीनं विय चित्तचेतसिकानं यथाकम्मं तं तं विसेसस्स या तेसं अकल्यतादीनं विसेसप्पच्चयता, अयमेतेसं सभावोति दट्ठब्बं । आलोकसञीति एत्थ अतिसयत्थविसिट्ठअत्थि अत्थावबोधको अयमीकारोति दस्सेन्तो आह " रत्तिम्पि... पे०... समन्नागतो" ति । इदं उभयन्ति सतिसम्पञ्ञमाह । अतिक्कमित्वा विक्खम्भनवसेन पजहित्वा । “कथमिदन्ति पवत्तिया कथङ्कथा, विचिकिच्छा । सा एतस्स अत्थीति कथङ्कथी, न कथङ्कथीति अकथंकथी, निब्बिचिकिच्छो । लक्खणादिभेदतोति एत्थ आदि - सन पच्चयपहानपहायकादीनम्पि सङ्गहो दट्ठब्बो । तेपि हि भेदतो वत्तब्बाति ।
२१८. तेसन्ति इणवसेन गहितधनानं । परियन्तोति दातब्बसेसो । सो बलवपामोज्जं भति “इणपलिबोधतो मुत्तोम्ही 'ति । सोमनस्सं अधिगच्छति "जीविकानिमित्तं अत्थी 'ति ।
२२९
२१९. विसभागवेदनुप्पत्तियाति दुक्खवेदनुप्पत्तिया । दुक्खवेदना हि सुखवेदनाय कुसलविपाकसन्तानस्स विरोधिताय विसभागा । चतुइरियापथं छिन्दन्तोति चतुब्बिधम्पि इरियापथप्पवत्तिं पच्छिन्दन्तो । ब्याधिको हि यथा ठानगमनेसु असमत्थो, एवं निसज्जाद असमत्थो होति । आबाधेतीति पीळेति । वातादीनं विकारो विसमावत्था ब्याधीति आह "तंसमुट्ठानेन दुक्खेन दुक्खितो 'ति । दुक्खवेदनाय पन ब्याधिभावे मूलव्याधिना आबाधिको आदितो बाधतीति कत्वा । अनुबन्धव्याधिना दुक्खितो अपरापरं सञ्जातदुक्खोति कत्वा । गिलानोति धातुसङ्घयेन परिक्खीणसरीरो । अप्पमत्तकं वा बलं बलमत्ता । तदुभयन्ति पामोज्जं, सोमनस्सञ्च । तत्थ लभेथ पामोज्जं “रोगतो मुत्तोम्ही 'ति । अधिगच्छेय्य सोमनस्सं "अत्थि मे काये बल "न्ति ।
२२०. सेसन्ति “तस्स हि ' बन्धना मुत्तोम्ही 'ति आवज्जयतो तदुभयं होति । तेन वुत्तन्ति एवमादि । वृत्तनयेनेवाति पठमदुतियपदेसु वृत्तनयेनेव । सब्बपदेसूति अवसिट्ठपदेसु ततियादीसु कोट्ठासेसु ।
२२१-२२२. न अत्तनि अधीनोति न अत्तायत्तो । पराधीनोति परायत्तो । अपराधीनताय भुजो विय अत्तनो किच्चे एसितब्बोति भुजिस्सो । सवसोति आह " अत्तनो सन्तको "ति । अनुदकताय कं पानीयं तारेन्ति एत्थाति कन्तारोति आह “निरुदकं दीघमग्गन्ति ।
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२३०
दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गटीका
(२.२२३-२२४)
२२३. तत्राति तस्मिं दस्सने । अयन्ति इदानि वुच्चमाना सदिसता। येन इणादीनं उपमाभावो, कामच्छन्दादीनञ्च उपमेय्यभावो होति, सो नेसं उपमोपमेय्यसम्बन्धो सदिसताति दट्टब् । यो यम्हि कामच्छन्देन रज्जतीति यो पुग्गलो यम्हि कामरागस्स वत्थुभूते पुग्गले कामच्छन्दवसेन रत्तो होति। तं वत्थु गण्हातीति तं तण्हावत्थु “ममेत"न्ति गण्हाति।
उपद्दवेथाति उपद्दवं करोथ ।
नक्खत्तस्साति महस्स । मुत्तोति बन्धनतो मुत्तो ।
विनये अपकतञ्जनाति विनयक्कमे अकुसलेन । सो हि कप्पियाकप्पियं याथावतो न जानाति । तेनाह "किस्मिञ्चिदेवा''तिआदि ।
गच्छतिपीति थोकं थोकं गच्छतिपि। गच्छन्तो पन ताय एव उस्सङ्कितपरिसङ्कितताय तत्थ तत्थ तिट्ठतिपि। ईदिसे कन्तारे गतो “को जानाति किं भविस्सती"ति निवत्ततिपि, तस्मा गतहानतो अगतवानमेव बहुतरं होति। सद्धाय गण्हितुं सद्धेय्यं वत्थु "इदमेव'"न्ति सद्दहितुं न सक्कोति। अत्थि नत्थीति “अत्थि नु खो, नत्थि नु खो''ति । अरचं पविठ्ठस्स आदिम्हि एव सप्पनं आसप्पनं। परि परितो, उपरूपरि वा सप्पनं परिसप्पनं। उभयेनपि तत्थेव परिब्भमनं वदति । तेनाह "अपरियोगाहन"न्ति । छम्भितत्तन्ति अरञ्जसाय उप्पन्नं छम्भितभावं, उत्रासन्ति अत्थो ।
२२४. तत्रायं सदिसताति एत्थापि वुत्तनयानुसारेन सदिसता वेदितब्बा । यदग्गेन हि कामच्छन्दादयो इणादिसदिसा, तदग्गेन तेसं पहानं आणण्यादिसदिसं अभावोति कत्वा । छ धम्मेति असुभनिमित्तस्स उग्गहो, असुभभावनानुयोगो, इन्द्रियेसु गुत्तद्वारता, भोजने मत्त ता, कल्याणमित्तता, सप्पायकथाति इमे छ धम्मे | भावत्वाति ब्रूहेत्वा । महासतिपट्टाने (दी० नि० २.३७२-३७४) वण्णयिस्साम तत्थस्स अनुप्पन्नानुप्पादनउप्पन्नपहानादिविभावनवसेन सविसेसं पाळिया आगतत्ता । एस नयो ब्यापादादिप्पहानकभावेपि । परवत्थुम्हीति आरम्मणभूते परस्मिं वत्थुस्मिं ।।
अनत्थकरोति अत्तनो परस्स च अनत्थावहो । छ धम्मेति मेत्तानिमित्तस्स उग्गहो,
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(२.२२५-२२५)
नीवरणप्पहानकथावण्णना
२३१
मेत्ताभावनानुयोगो, कम्मस्सकता, पटिसङ्खानबहुलता, कल्याणमित्तता, सप्पायकथाति इमे छ धम्मे । तत्थेवाति महासतिपट्टानेयेव । (दी० नि० २.३७२-३७४) चारित्तसीलं उद्दिस्स पञ्चत्तसिक्खापदं आचारपण्णत्ति।
बन्धनागारं पवेसितत्ता अलद्धनक्खत्तानुभवो पुरिसो "नक्खत्तदिवसे बन्धनागारं पवेसितो पुरिसो"ति वुत्तो, नक्खत्तदिवसे एव वा तदननुभवनत्थं तथा कतो । महाअनत्थकरन्ति दिट्ठधम्मिकादिअत्थहापनमुखेन महतो अनत्थस्स कारकं । छ धम्मेति अतिभोजने ननिमित्तग्गाहो, इरियापथसम्परिवत्तनता, आलोकसञ्जामनसिकारो, अब्भोकासवासो, कल्याणमित्तता, सप्पायकथाति इमे छ धम्मे।
उद्धच्चकुक्कुच्चे महाअनत्थकरन्ति परायत्ततापादनतो वुत्तनयेन महतो अनत्थस्स कारकन्ति । अत्थो छ धम्मेति बहुस्सुतता, परिपुच्छकता, विनये पकतञ्जुता, वुड्डसेविता, कल्याणमित्तता, सप्पायकथाति इमे छ धम्मे ।
बलवाति पच्चत्थिकविधमनसमत्थेन बलेन बलवा । सज्जावुधोति सन्नद्धधनुआदिआवुधो । सूरवीरसेवकजनवसेन सपरिवारो। तन्ति यथावुत्तं पुरिसं । बलवन्तताय, सज्जावुधताय, सपरिवारताय च चोरा दूरतोव दिस्वा पलायेय्यु। अनत्थकारिकाति सम्मापटिपत्तिया विबन्धकरणतो वुत्तनयेन अनत्थकारिका । छ धम्मेति बहुस्सुतता, परिपुच्छकता, विनये पकतञ्जता, अधिमोक्खबहुलता, कल्याणमित्तता, सप्पायकथाति इमे छ धम्मे | यथा बाहुसच्चादीनि उद्धच्चकुक्कुच्चस्स पहानाय संवत्तन्ति, एवं विचिकिच्छाय पीति इधापि बहुस्सुततादयो गहिता। कल्याणमित्तता सप्पायकथा विय पञ्चन्नं, तस्मा तस्स तस्स अनुच्छविकसेवनता वेदितब्बा। सम्मापटिपत्तिया अप्पटिपत्तिनिमित्ततामुखेन विचिकिच्छा मिच्छापटिपत्तिमेव परिब्रूहेतीति तस्सा पहानं दुच्चरितविधूननूपायोति आह “दुच्चरितकन्तारं नित्थरित्वा"तिआदि ।
२२५. पामोज्जं नाम तरुणपीति, सा कथञ्चिपि तुट्ठावत्थाति आह "पामोज्जं जायतीति तुट्ठाकारो जायती"ति । तुट्ठस्साति ओक्कन्तिकभावप्पत्ताय पीतिया वसेन तुट्ठस्स । अत्तनो सविप्फारिकताय, अत्तसमुट्ठानपणीतरूपुप्पत्तिया च सकलसरीरं खोभयमाना फरणलक्खणा पीति जायति। पीतिसहितं पीति उत्तरपदलोपेन, किं पन तं? मनो। पीति मनो एतस्साति पीतिमनो, तस्स पीतिमनस्स। तयिदं अत्थमत्तमेव दस्सेन्तो
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२३२
दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गटीका
(२.२२६-२२६)
"पीतिसम्पयुत्तचित्तस्सा"ति आह। कायोति इध अरूपकलापो अधिप्पेतो, न वेदनादिक्खन्धत्तयमेवाति आह "नामकायो पस्सम्भती"ति, पस्सद्धिद्वयस्स पीतिवसेनेत्थ पस्सम्भनं अधिप्पेतं । विगतदरथोति पहीनउद्धच्चादिकिलेसदरथो। वुत्तप्पकाराय पुब्बभागभावनाय वसेन चेतसिकसुखं पटिसंवेदेन्तोयेव तंसमुट्ठानपणीतरूपफुट्ठसरीरताय कायिकम्पि सुखं वेदेतीति आह "कायिकम्पि चेतसिकम्पि सुखं वेदयती"ति । इमिनाति "सुखं पटिसंवेदेती''ति एवं वुत्तेन । संकिलेसपक्खतो निक्खन्तत्ता, पठमज्झानपक्खिकत्ता च नेक्खम्मसुखेन। सुखितस्साति सुखिनो ।
पठमज्झानकथावण्णना
२२६. “चित्तं समाधियतीति एतेन उपचारवसेनपि अप्पनावसेनपि चित्तस्स समाधानं कथितं । एवं सन्ते “सो विविच्चेव कामेही"तिआदिका देसना किमत्थियाति आह "सो विविच्चेव कामेहि...पे०... वुत्त"न्ति । तत्थ उपरिविसेसदस्सनत्थन्ति पठमज्झानादिउपरिवत्तब्बविसेसदस्सनत्थं । न हि उपचारसमाधिसमधिगमेन विना पठमज्झानादिविसेसो समधिगन्तुं सक्का। पामोज्जुप्पादादीहि कारणपरम्परा दुतियज्झानादिसमधिगमेपि इच्छितब्बाव पटिपदाजाणदस्सनविसुद्धि विय दुतियमग्गादिसमधिगमेति दट्ठब्बं । तस्स समाधिनोति “सुखिनो चित्तं समाधियती''ति एवं साधारणवसेन वुत्तो यो अप्पनालक्खणो, तस्स समाधिनो। पभेददस्सनत्यन्ति दुतियज्झानादिविभागस्स चेव अभिज्ञादिविभागस्स च पभेददस्सनत्थं । करो वुच्चति पुप्फसम्भवं गब्भासये करीयतीति कत्वा, करतो जातो कायो करजकायो, तदुपसनिस्सयो चतुसन्ततिरूपसमुदायो। कामं नामकायोपि विवेकजेन पीतिसुखेन तथालद्धपकारो, "अभिसन्देती"तिआदिवचनतो पन रूपकायो इधाधिप्पेतोति आह "इमं करजकाय"न्ति । अभिसन्देतीति अभिसन्दनं करोति । तं पन झानमयेन पीतिसुखेन करजकायस्स तिन्तभावापादनं, सब्बत्थकमेव लूखभावापनयनन्ति आह "तेमेती"तिआदि, तयिदं अभिसन्दनं अत्थतो यथावुत्तपीतिसुखसमुट्ठानेहि पणीतरूपेहि कायस्स परिप्फरणं दट्ठब्बं । "परिसन्देती"तिआदीसुपि एसेव नयो | सब्बं एतस्स अत्थीति सब्बवा, तस्स सब्बावतो। अवयवावयविसम्बन्धे अवयविनि सामिवचनन्ति अवयवीविसयो सब्ब-सद्दो, तस्मा वुत्तं "सब्बकोट्ठासवतो"ति । अफुटं नाम न होति यत्थ यत्थ कम्मजरूपं, तत्थ तत्थ चित्तजरूपस्स अभिब्यापनतो। तेनाह "उपादिनकसन्तती"तिआदि ।
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(२.२२७-२३१)
दुतियज्झानकथावण्णना
२३३
२२७. छेकोति कुसलो । तं पनस्स कोसल्लं न्हानियचुण्णानं सन्नने पिण्डीकरणे च समत्थतावसेन वेदितब्बन्ति आह "पटिबलो"तिआदि। कंस-सद्दो “महतिया कंसपातिया"तिआदीसु सुवण्णे आगतो।।
“कंसो उपहतो यथा''तिआदीसु (ध० प० १३४) कित्तिमलोहे, कत्थचि पण्णत्तिमत्ते "उपकंसो नाम राजापि महाकंसस्स अत्रजो"तिआदि, [जा० अट्ठ० ४.१० घटपण्डितजातकवण्णनायं (अत्थतो समान)] इध पन यत्थ कत्थचि लोहेति आह “येन केनचि लोहेन कतभाजने"ति । स्नेहानुगताति उदकसिनेहेन अनुपविसनवसेन गता उपगता। नेहपरेताति उदकसिनेहेन परितो गता समन्ततो फुट्ठा, ततो एव सन्तरबाहिरा फुट्ठा सिनेहेन, एतेन सब्बसो उदकेन तेमितभावमाह । “न च पग्घरणी"ति एतेन तिन्तस्सपि तस्स घनथद्धभावं वदति । तेनाह “न च बिन्दु बिन्दु"न्तिआदि ।
दुतियज्झानकथावण्णना २२९. ताहि ताहि उदकसिराहि उब्भिज्जतीति उब्भिदं, उब्भिदं उदकं एतस्साति उब्भिदोदको। उभिन्नउदकोति नदीतीरे खतकूपको विय उब्भिज्जनकउदको । उग्गच्छनकउदकोति धारावसेन उट्ठहनउदको | कस्मा पनेत्थ उब्भिदोदकोव रहदो गहितो, न इतरोति आह “हेट्ठा उग्गच्छनउदकव्ही"तिआदि | धारानिपातपुब्बुळकेहीति धारानिपातेहि उदकपुब्बुळकेहि च, “फेणपटलेहि चा"ति वत्तब्बं । सन्निसिन्नमेवाति अपरिक्खोभताय निच्चलमेव, सुप्पसन्नमेवाति अधिप्पायो । सेसन्ति “अभिसन्देती''तिआदिकं ।
ततियज्झानकथावण्णना
२३१. उप्पलानीति उप्पलगच्छानि । सेतरत्तनीलेसूति उप्पलेसु, सेतुप्पलरत्तुप्पलनीलुप्पलेसूति अत्थो । यं किञ्चि उप्पलं उप्पलमेव सामञ्जगहणतो । सतपत्तन्ति एत्थ सत-सद्दो बहुपरियायो “सतग्घी''तिआदीसु विय, तेन अनेकसतपत्तस्सपि सङ्गहो सिद्धो होति । लोके पन “रत्तं पदुमं, सेतं पुण्डरीक"न्तिपि वुच्चति । याव अग्गा, याव च मूला उदकेन अभिसन्दनादिसम्भवदस्सनत्थं उदकानुग्गतग्गहणं। इध उप्पलादीनि विय करजकायो, उदकं विय ततियज्झानसुखं ।
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२३४
दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गटीका
(२.२३३-२३३)
चतुत्थज्झानकथावण्णना
२३३. यस्मा "परिसुद्धेन चेतसा"ति चतुत्थज्झानचित्तमाह, तञ्च रागादिउपक्किलेसापगमनतो निरुपक्किलेसं निम्मलं, तस्मा आह "निरुपक्किलेसटेन परिसुद्ध"न्ति । यस्मा पन पारिसुद्धिया एव पच्चयविसेसेन पवत्तिविसेसो परियोदातता सुवण्णस्स निघसनेन पभस्सरता विय, तस्मा आह “पभस्सरटेन परियोदातन्ति वेदितब्ब"न्ति । इदन्ति ओदातवचनं । उतुफरणत्थन्ति उण्हउतुनो फरणदस्सनत्थं । उतुफरणं न होति सविसेसन्ति अधिप्पायो, तेनाह "तङ्कण...पे०... बलवं होती"ति । वत्थं विय करजकायोति योगिनो करजकायो वत्थं विय दट्ठब्बो उतुफरणसदिसेन चतुत्थज्झानसुखेन फरितब्बत्ता। पुरिसस्स सरीरं विय चतुत्थज्झानं दट्ठब् उतुफरणट्ठानियस्स सुखस्स निस्सयभावतो, तेनाह "तस्मा"तिआदि । एत्थ च “परिसुद्धेन चेतसा''ति चेतो गहणेन झानसुखं वुत्तन्ति दट्ठब्बं, तेनाह "उतुफरणं विय चतुत्थज्झानसुख"न्ति । ननु च चतुत्थज्झाने सुखमेव नत्थीति ? सच्चं नत्थि सातलक्खणसन्तसभावत्ता पनेत्थ उपेक्खा "सुख"न्ति अधिप्पेता । तेन वुत्तं सम्मोहविनोदनियं “उपेक्खा पन सन्तत्ता, सुखमिच्चेव भासिता"ति । (विभं० अट्ठ० २३२; विसुद्धि० २.६४४; पटि० म० १०५, महानि० अट्ठ० २७)
न अरूपज्झानलाभीति न वेदितब्बो अविनाभावतो, तेनाह “न ही"तिआदि । तत्थ चुद्दसहाकारेहीति कसिणानुलोमतो, कसिणपटिलोमतो, कसिणानुलोमपटिलोमतो, झानानुलोमतो, झानपटिलोमतो, झानानुलोमपटिलोमतो, झानुक्कन्तिकतो, कसिणुक्कन्तिकतो, झानकसिणुक्कन्तिकतो, अङ्गसङ्कन्तितो, आरम्मणसङ्कन्तितो, अङ्गारम्मणसङ्कन्तितो, अङ्गववत्थानतो, आरम्मणववत्थानतोति इमेहि चुद्दसहाकारेहि । सतिपि झानेसु आवज्जनादिवसीभावे अयं वसीभावो अभिञानिब्बत्तने एकन्तेन इच्छितब्बोति दस्सेन्तो आह "न हि...पे०... होती"ति । स्वायं नयो अरूपसमापत्तीहि विना न इज्झतीति तायपेत्थ अविनाभावो वेदितब्बो । यदि एवं कस्मा पाळियं न आरुप्पज्झानानि आगतानीति ? विसेसतो च रूपावचरचतुत्थज्झानपादकत्ता सब्बाभिआनं तदन्तोगधा कत्वा ताय देसिता, न अरूपावचरज्झानानं इध अनुपयोगतो, तेनाह "अरूपज्झानानि आहरित्वा कथेतब्बानी"ति ।
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(२.२३४-२३५)
विपस्सनाञाणकथावण्णना
विपस्सनाञाणकथावण्णना
२३४. सेसन्ति “ एवं समाहिते चित्ते "तिआदीसु वत्तब्बं । भेय्यं जानातीति जाणं, तं पन भेयं पच्चक्खं कत्वा पस्सतीति दस्सनं, आणमेव दस्सनन्ति ञाणदस्सनं । तयिदं आणदस्सनपदं सासने अञ्ञत्थ जाणविसेसे निरूळ्हं तं सब्बं अत्युद्धारवसेन दस्सेन्तो "आणदरसनन्ति मग्गञाणम्पि बुच्चती "तिआदिमाह । यस्मा विपस्सनाजाणं तेभूमकसङ्घारे अनिच्चादितो जानाति, भङ्गानुपस्सनतो पट्ठाय पच्चक्खतो च ते पस्सति तस्मा आह " इध पन... पे०... आणदरसनन्ति वृत्त "न्ति ।
वृत्तं ।
अभिनीहरतीति वुत्तनयेन अट्ठङ्गसमन्नागते तस्मिं चित्ते विपस्सनाक्कमेन जाते विपस्सनाभिमुखं पेसेति, तेनाह “विपस्सना... पे०... करोतीति । तदभिमुखभावो एव हिस्स तन्निन्नतादिकरता । तोव ब्रह्मजाले । ओदनकुम्मासेहि उपचीयतीति ओदनकुम्मासूपचयो । अनिच्चधम्मोति पभङ्गुताय अद्भुवसभावो । दुग्गन्धविघातत्थायाति सरीरे दुग्गन्धस्स विगमाय । उच्छादनधम्मोति उच्छादेतब्बतासभावो । उच्छादनेन हि सरीरे सेदगूथपित्तसेम्हादिधातुक्खोभगरुभावदुग्गन्धानं अपगमो होति । महासम्बाहनं मल्लादीनं बाहुवड्डनादित्थं होतीति "खुद्दकसम्बाहनेना "ति परिमद्दनधम्मोति परिमद्दितब्बतासभावो । भिज्जति चेव विकिरति चाति अनिच्चतावसेन भिज्जति च भिन्नञ्च किञ्चि पयोजनं असाधेन्तं विप्पकिण्णञ्च होति । रूपीति अत्तनो पच्चयभूतेन उतु आहारलक्खणेन रूपवाति अयमेत्थ अत्थो इच्छितोति आह “छहि पदेहि समुदयो कथितो 'ति । संसग्गे हि अयमीकारो । सण्ठानसम्पादनम्पि तथारूपरूपुप्पादनेनेव होतीति उच्छादनपरिमद्दनपदेहिपि समुदयो कथितोति वुत्तं । एवं नवहि यथारहं काये समुदयवयधम्मानुपस्सिता दस्सिता । निस्सितञ्च छट्टवत्थुनिस्सितत्ता विपस्सनाञाणस्स । पटिबद्धञ्च तेन विना अप्पवत्तनतो, कायसञ्जितानं रूपधम्मानं आरम्मणकरणतो च ।
२३५
२३५. सुट्टु भाति ओभासतीति सुभो, पभासम्पत्तियापि मणिनो भद्दताति आह “सुभोति सुन्दरो "ति । कुरुविन्दजाति आदिजातिविसेसोपि मणिनो आकरपरिसुद्धिमूलको एवाति आह “परिसुद्धाकरसमुट्ठितो "ति दोसनीहरणवसेन परिकम्मनिप्पत्तीति आह “सुट्ट कतपरिकम्मो अपनीतपासाणसक्खरोति । छविया सहभावेनस्स अच्छता, न सङ्घातस्साति आह " अच्छोति तनुच्छवी "ति, तेनाह “ विप्पसन्नो 'ति । धोवनवेधनादीहीति चतूसु पासाणेसु धोवनेन चेव काळकादिअपहरणत्थाय सुत्तेन आवुननत्थाय च विज्झनेन ।
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२३६
दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गटीका
(२.२३६-७-२३६-७)
तापसण्हकरणादीनं सङ्गहो आदि-सद्देन । वण्णसम्पत्तिन्ति सुत्तस्स वण्णसम्पत्तिं । मणि विय करजकायो पच्चवेक्खितब्बतो। आवुतसुत्तं विय विपस्सनाजाणं अनुपविसित्वा ठितत्ता | चक्खुमा पुरिसो विय विपस्सनालाभी भिक्खु सम्मदेव दस्सनतो। तदारम्मणानन्ति रूपधम्मारम्मणानं । फस्सपञ्चमकचित्तचेतसिकग्गहणेन गहितधम्मापि विपस्सनाचित्तुप्पादपरियापन्ना एवाति वेदितब् | एवहि तेसं विपस्सनाआणगतिकत्ता “आवुतसुत्तं विय विपस्सनाञाण'"न्ति वचनं अविरोधितं होति । किं पनेते आणस्स आवि भवन्ति, उदाहु पुग्गलस्साति ? आणस्स । तस्स पन आविभावत्ता पुग्गलस्स आविभूता नाम होन्ति । आणस्साति च पच्चवेक्खणाञाणस्स ।
___ मग्गजाणस्स अनन्तरं, तस्मा लोकियाभिञानं परतो छट्ठाभिचाय पुरतो वत्तब्बं विपस्सनाजाणं । एवं सन्तेपीति यदिपायं आणानुपुब्बी, एवं सन्तेपि । एतस्स अन्तरावारो नत्थीति पञ्चसु लोकियाभिञासु कथितासु आकङ्घय्यसुत्तादीसु (म० नि० १.६५) विय छट्ठाभिञा कथेतब्बाति एतस्स अनभिज्ञालक्खणस्स विपस्सनााणस्स तासं अन्तरावारो न होति । तस्मा तत्थ अवसराभावतो इधेव रूपावचरचतुत्थज्झानानन्तरमेव दस्सितं विपस्सनाञाणं । यस्मा चाति च-सद्दो समुच्चयत्थो, तेन न केवलं तदेव, अथ खो इदम्पि कारणं विपस्सनाजाणस्स इधेव दस्सनेति इममत्थं दीपेति । दिब्बेन चक्खुना भेरवम्पि रूपं पस्सतोति एत्थ “इद्धिविधञाणेन भेरवं रूपं निम्मिनित्वा चक्खुना पस्सतो''तिपि वत्तब्धं, एवम्पि अभिज्ञालाभिनो अपरिञातवत्थुकस्स भयं सन्तासो उप्पज्जति । उच्चावालिकवासि महानागत्थेरस्स विय | पाटियेक्कं सन्दिट्टिकं सामञफलं। तेनाह भगवा -
“यतो यतो सम्मसति, खन्धानं उदयब्बयं । लभती पीतिपामोज्जं, अमतं तं विजानत"न्तिआदि ।। (ध० प० ३७४)
मनोमयिद्धिप्राणकथावण्णना २३६-७. मनेन निब्बत्तितन्ति अभिञामनेन निब्बत्तितं । हत्थपादादि अङ्गेहि च कप्परजण्णुआदि पच्चङ्गेहि च। सण्ठानवसेनाति कमलदलादिसदिससण्ठानमत्तवसेन, न रूपाभिघातारहभूतप्पसादिइन्द्रियवसेन। सब्बाकारेहीति वण्णसण्ठानअवयवविसेसादिसब्बाकारेहि। तेन इद्धिमता। सदिसभावदस्सनत्थमेवाति सण्ठानतोपि वण्णतोपि अवयवविसेसतोपि सदिसभावदस्सनत्थमेव । सजातियं ठितो, न नागिद्धिया अञजातिरूपो |
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(२.२३९-२४७)
इद्धिविधाणादिककथावण्णना
२३७
इद्धिविधज्ञाणादिककथावण्णना २३९. सुपरिकम्मकतमत्तिकादयो विय इद्धिविधाणं विकुब्बनकिरियाय निस्सयभावतो।
२४१. सुखन्ति अकिच्छेन, अकसिरेनाति अत्थो ।
२४३. मन्दो उत्तानसेय्यकदारकोपि “दहरो''ति वुच्चतीति ततो विसेसनत्थं "युवा"ति वुत्तं । युवापि कोचि अनिच्छनको अमण्डनजातिको होतीति ततो विसेसनत्थं "मण्डनकजातिको"तिआदि वुत्तं, तेनाह "युवापीति"आदि । काळतिलप्पमाणा बिन्दवो काळतिलकानि काळा वा कम्मासा, तिलप्पमाणा बिन्दवो तिलकानि। वङ्गं नाम वियङ्गं । योब्बनपीळकादयो मुखदूसिपीळका। मुखगतो दोसो मुखदोसो, लक्खणवचनञ्चेतं मुखे अदोसस्सापि पाकटभावस्स अधिप्पेतत्ता । यथा वा मुखे दोसो, एवं मुखे अदोसोपि मुखदोसो सरलोपेन । मुखदोसो च मुखदोसो च मुखदोसोति एकसेसनयेनपेत्थ अत्थो दट्ठब्बो । एवहि “परेसं सोळसविधं चित्तं पाकटं होती"ति वचनं समत्थितं होति ।
____२४५. पुब्बेनिवासबाणूपमायन्ति पुब्बेनिवासत्राणस्स दस्सितउपमायं । तं दिवसं कतकिरिया नाम पाकतिकसत्तस्सपि येभुय्येन पाकटा होतीति दस्सनत्थं तंदिवस-ग्गहणं कतं । तंदिवसगतगामत्तय-गहणेनेव महाभिनीहारेहि अञसम्पि पुब्बेनिवाससाणलाभीनं तीसु भवेसु कतकिरिया येभुय्येन पाकटा होतीति दीपितन्ति दट्ठब्बं ।
२४७. अपरापरं सञ्चरन्तेति तंतंकिच्चवसेन इतो चितो च सञ्चरन्ते । यथावुत्त्मासादोविय भिक्खुनो करजकायो दट्टब्बो तत्थ पतिट्ठितस्स दट्ठब्बदस्सनसिद्धितो । चक्खुमतो हि दिब्बचक्खुसमधिगमो। यथाह “मंसचक्खुस्स उप्पादो, मग्गो दिब्बस्स चक्खुनो"ति (इतिवु० ६१)। चक्खुमा पुरिसो विय अयमेव दिब्बच पत्वा ठितो भिक्खु दट्ठब्बस्स दस्सनतो। गेहं पविसन्ता विय एतं अत्तभावगेहं ओक्कमन्ता, उपपज्जन्ताति अत्थो । गेहा निक्खमन्ता विय एतस्मा अत्तभावगेहतो पक्कन्ता, चवन्ताति अत्थो । एवं वा एत्थ अत्थो दट्ठब्बो । अपरापरं सञ्चरणकसत्ताति पन पुनप्पुनं संसारे परिब्भमन्ता सत्ता । "तत्थ तत्थ निब्बत्तसत्ता"ति पन इमिना तस्मिं भवे जातसंवद्धे सत्ते वदति । ननु चायं दिब्बचक्खुञाणकथा, एत्थ कस्मा “तीसु भवेसू"ति चतुवोकारभवस्सापि सङ्गहो कतोति
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२३८
दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गटीका
(२.२४८-२४८)
आह "इदञ्चा"तिआदि । तत्थ इदन्ति "तीसु भवेसु निब्बत्तसत्तान'"न्ति इदं वचनं । देसनासुखत्थमेवाति केवलं देसनासुखत्थं, न चतुवोकारभवे निब्बत्तसत्तानं दिब्बचक्खुनो आविभावसब्भावतो । न हि “ठपेत्वा अरूपभवन्ति वा “द्वीसु भवेसूति वा वुच्चमाने देसना सुखावबोधा च होतीति ।
आसवक्खयाणकथावण्णना
२४८. विपस्सनापादकन्ति विपस्सनाय पदट्ठानभूतं । विपस्सना च तिविधा विपस्सकपुग्गलभेदेन । महाबोधिसत्तानहि पच्चेकबोधिसत्तानञ्च विपस्सना चिन्तामयज्ञाणसंवद्धिता सयम्भुञाणभूता, इतरेसं सुतमयाणसंवद्धिता परोपदेससम्भूता नाम । सा “ठपेत्वा नेवसञानासज्ञायतनं अवसेसरूपारूपज्झानानं अञतरतो वुट्ठाया"तिआदिना अनेकधा, अरूपमुखवसेन चतुधातुववत्थाने वुत्तानं तेसं तेसं धातुपरिग्गहमुखानञ्च अञतरमुखवसेन अनेकधा च विसुद्धिमग्गे नानानयतो विभाविता । महाबोधिसत्तानं पन चतुवीसतिकोटिसतसहस्समुखेन पभेदगमनतो नानानयं सब्ब ताणसन्निस्सयस्स अरियमग्गजाणस्स अधिट्ठानभूतं पुब्बभागाणगब्भं गण्हापेन्तं परिणतं गच्छन्तं परमगम्भीरं सण्हसुखुमतरं अनञ्जसाधारणं विपस्सनाञाणं होति, यं अट्ठकथासु “महावजिराण"न्ति वुच्चति । यस्स च पवत्तिविभागेन चतुवीसतिकोटिसतसहस्सप्पभेदस्स
पादकभावेन
समापज्जियमाना चतुवीसतिकोटिसतसहस्ससङ्ख्या देवसिकं सत्थु वळञ्जनकसमापत्तियो वुच्चन्ति, स्वायं बुद्धानं विपस्सनाचारो परमत्थमञ्जुसायं विसुद्धिमग्गसंवण्णनायं (विसुद्धि० टी० १.२१६) उद्देसतो दस्सितो। अस्थिकेहि ततो गहेतब्बो, इध पन सावकानं विपस्सना अधिप्पेता।
आसवानं खयजाणायाति आसवानं खेपनतो समुच्छिन्दनतो आसवक्खयो, अरियमग्गो, तत्थ आणं आसवानं खयजाणं, तदत्थं तेनाह "आसवानं खयाणनिब्बत्तनत्थाया"ति। आसवा एत्थ खीयन्तीति आसवानं खयो निब्बानं । खेपेति पापधम्मेति खयो, मग्गो। सो पन पापक्खयो आसवक्खयेन विना नत्थीति "खये आण"न्ति एत्थ खयग्गहणेन आसवक्खयो वुत्तोति आह "खये आण"न्तिआदि । समितपापो समणोति कत्वा आसवानं खीणत्ता समणो नाम होतीति आह “आसवानं खया समणो होतीति एत्थ फल"न्ति । आसववड्विया सङ्खारे वड्डेन्तो विसङ्खारतो सुविदूरविदूरोति “आरा सो आसवक्खया''ति एत्थ आसवक्खयपदं विसङ्खाराधिवचनन्ति
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(२.२४८-२४८)
आसवक्खयाणकथावण्णना
आह “आसवक्खयाति एत्थ निब्बानं वुत्त"न्ति | भङ्गोति आसवानं खणनिरोधो “आसवानं खयो'"ति वुत्तोति योजना।
"इदं दुक्ख"न्ति दुक्खस्स अरियसच्चस्स तदा भिक्खुनो पच्चक्खतो गहितभावदस्सनं । "एत्तकं दुक्ख"न्ति तस्स परिच्छिज्जग्गहितभावदस्सनं । "न इतो भिय्यो"ति तस्स अनवसेसेत्वा गहितभावदस्सनं । तेनाह "सब्बम्पि दुक्खसच्च"न्तिआदि । सरसलक्खणपटिवेधेनाति सभावसङ्घातस्स लक्खणस्स असम्मोहतो पटिविज्झनेन, असम्मोहपटिवेधोति च । यथा तस्मिं आणे पवत्ते पच्छा दुक्खसच्चस्स सरूपादिपरिच्छेदे सम्मोहो न होति, तथा पवत्ति, तेनाह “यथाभूतं पजानाती"ति। दुक्खं समुदेति एतस्माति दुक्खसमुदयो, तण्हाति आह "तस्स चा"तिआदि । यं ठानं पत्वाति यं निब्बानं मग्गस्स आरम्मणपच्चयटेन कारणभूतं आगम्म, “पत्वा"ति च तदुभयवतो पुग्गलस्स पत्ति तदुभयस्स पत्ति वियाति कत्वा वुत्तं। पत्वाति वा पापुणनहेतु। अप्पवत्तीति अप्पवत्तिनिमित्तं, ते वा नप्पवत्तन्ति एत्थाति अप्पवत्ति, निब्बानं । तस्साति दुक्खनिरोधस्स | सम्पापकन्ति सच्छिकरणवसेन सम्मदेव पापकं ।
किलेसवसेनाति आसवसङ्घातकिलेसवसेन । यस्मा आसवानं दुक्खसच्चपरियायो तप्परियापन्नत्ता, सेससच्चानञ्च तंसमुदयादिपरियायो अस्थि, तस्मा वुत्तं “परियायतो"ति | दस्सेन्तो सच्चानीति योजना। आसवानंयेव चेत्थ गहणं “आसवानं खयञाणाया'"ति आरद्धत्ता । तथा हि "कामासवापि चित्तं विमुच्चती''तिआदिना (दी० नि० १.२४८; म० नि० १.४३३; म० नि० ३.१९) आसवविमुत्तिसीसेनेव सब्बकिलेसविमुत्ति वुत्ता । "इदं दुक्खन्ति यथाभूतं पजनाती"तिआदिना मिस्सकमग्गो इध कथितोति "सह विपस्सनाय कोटिप्पत्तं मग्गं कथेसी"ति वुत्तं । "जानतो पस्सतो"ति इमिना परिञासच्छिकिरियाभावनाभिसमया वृत्ता। "विमुच्चती"ति इमिना पहानाभिसमयो वुत्तोति आह "इमिना मग्गक्खणं दस्सेती"ति । "जानतो पस्सतो"ति वा हेतुनिद्देसोयं । जाननहेतु दस्सनहेतु कामासवापि चित्तं विमुच्चतीति योजना। धम्मानव्हि समानकालिकानम्पि पच्चयप्पच्चयुप्पन्नता सहजातकोटिया लब्भतीति । भवासवग्गहणेन चेत्थ भवरागस्स विय भवदिट्ठियापि समवरोधोति दिट्ठासवस्सापि सङ्गहो दट्टब्बो। खीणा जातीतिआदीहि पदेहि । तस्साति पच्चवेक्खणाञाणस्स । भूमिन्ति पवत्तिट्ठानं ।
येनाधिप्पायेन “कतमा पनस्सा"तिआदिना चोदना कता, तं विवरन्तो “न
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२४०
दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गटीका
(२.२४९-२४९)
तावस्सा"तिआदिमाह । तत्थ न तावस्स अतीता जाति खीणा मग्गभावनायाति अधिप्पायो । तत्थ कारणमाह "पुब्बेव खीणत्ता"ति । न अनागता अस्स जाति खीणाति योजना । न अनागताति च अनागतभावसामञ्चं गहेत्वा लेसेन चोदेति, तेनाह “अनागते वायामाभावतो"ति । अनागतविसेसो पनेत्थ अधिप्पेतो, तस्स च खेपने वायामोपि लब्भतेव, तेनाह "या पन मग्गस्सा"तिआदि । एकचतुपञ्चवोकारभवेसूति भवत्तयग्गहणं वुत्तनयेन अनवसेसतो जातिया खीणभावदस्सनत्थं । तन्ति यथावुत्तं जातं । सोति खीणासवो भिक्खु ।
ब्रह्मचरियवासो नाम उक्कट्ठनिद्देसेन मग्गब्रह्मचरियस्स निब्बत्तनं एवाति आह "परिवुत्थ''न्ति । सम्मादिठ्ठिया चतूसु सच्चेसु परिञादिकिच्चसाधनवसेन पवत्तमानाय सम्मासङ्कप्पादीनम्पि दुक्खसच्चे परिञाभिसमयानुगुणा पवत्ति, इतरसच्चेसु च नेसं पहानाभिसमयादिपवत्ति पाकटा एव, तेन वुत्तं "चतूसु सच्चेसु चतूहि मग्गेहि परिञापहानसच्छिकिरियाभावनावसेना"ति। दुक्खनिरोधमग्गेसु परिञासच्छिकिरियाभावना यावदेव समुदयप्पहानत्थायाति आह "तेन तेन मग्गेन पहातब्बकिलेसा पहीना"ति । इत्थत्तायाति इमे पकारा इत्थं, तब्भावो इत्थत्तं, तदत्थन्ति वुत्तं होति । ते पन पकारा अरियमग्गब्यापारभूता परिञादयो इधाधिप्पेताति आह "एवं सोळसकिच्चभावाया"ति । ते हि मग्गं पच्चवेक्खतो मग्गानुभावेन पाकटा हुत्वा उपट्ठहन्ति, परिञादीसु च पहानमेव पधानं तदत्थत्ता इतरेसन्ति आह "किलेसक्खयभावाय वा"ति । पहीनकिलेसपच्चवेक्खणवसेन वा एवं वुत्तं । दुतियविकप्पे इत्थत्तायाति निस्सक्के सम्पदानवचनन्ति आह "इत्थभावतो"ति। अपरन्ति अनागतं । इमे पन चरिमकत्तभावसङ्घाता पञ्चक्खन्धा परिज्ञाता तिट्ठन्ति, एतेन तेसं अप्पतिठ्ठतं दस्सेति । अपरिञामूलिका हि पतिट्ठा | यथाह "कबळीकारे चे भिक्खवे आहारे अस्थि रागो अस्थि नन्दी अत्थि तण्हा, पतिहितं तत्थ विज्ञाणं विरूळह"न्तिआदि । (सं० नि० १.२.६४; कथाव० २९६; महानि० ७) तेनेवाह “छिनमूलका रुक्खा विया"तिआदि ।
२४९. पब्बतमत्थकेति पब्बतसिखरे । तहि येभुय्येन सवित्तं सङ्कुचितं होतीति पाळियं “पब्बतसङ्केपे''ति वुत्तं । पब्बतपरियापन्नो वा पदेसो पब्बतसङ्केपो। अनाविलोति अकालुसियो, सा चस्स अनाविलता कद्दमाभावेन होतीति आह "निक्कद्दमो"ति । सिप्पियोति सुत्तियो। सम्बुकाति सङ्खलिका । ठितासुपि निसिनासुपि गावीसु । विजमानासूति लब्भमानासु, इतरा ठितापि निसिन्नापि “चरन्ती"ति वुच्चन्ति सहचरणनयेन । तिट्ठन्तमेव, न पन कदाचिपि चरन्तं । द्वयन्ति सिप्पिसम्बुकं, मच्छगुम्बन्ति इदं उभयं । तिद्वन्तन्ति वुत्तं
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(२.२५०-२५०)
अजातसत्तुउपासकत्तपटिवेदनाकथावण्णना
२४१
चरन्तं पीति अधिप्पायो । "इतरञ्च द्वय"न्ति च यथावुत्तमेव सिप्पिसम्बुकादिद्वयं वदति । तहि चरतीति । किं वा इमाय सहचरियाय, यथालाभग्गहणं पनेत्थ दट्ठब्बं । सक्खरकथलस्स हि वसेन तिट्ठन्तन्ति । सिप्पिसम्बुकस्स मच्छगुम्बस्स च वसेन तिद्वन्तम्पि चरन्तं पीति योजना कातब्बा ।
तेसं दसन्नं आणानं । तत्थाति तस्मिं आरम्मणविभागे, तेसु वा आणेसु । भूमिभेदतो, कालभेदतो, सन्तानभेदतो चाति सत्तविधारम्मणं विपस्सनाजाणं। "रूपायतनमत्तमेवा"ति इदं तस्स आणस्स अभिनिम्मियमाने मनोमये काये रूपायतनमेवारब्भ पवत्तनतो वुत्तं, न तत्थ गन्धायतं आदीनं अभावतो। न हि रूपकलापो गन्धायतं आदिरहितो अत्थि । परिनिप्फन्नमेव निम्मितरूपं, तेनाह "परित्तपच्चुप्पन्नबहिद्धारम्मण"न्ति । आसवक्खयाणं निब्बानारम्मणमेव समानं परित्तत्तिकवसेन अप्पमाणारम्मणं, अज्झत्तत्तिकवसेन बहिद्धारम्मणं, अतीतत्तिकवसेन नवत्तब्बारम्मणञ्च होतीति आह "अप्पमाणबहिद्धानवत्तब्बारम्मण''न्ति । कूटो विय कूटागारस्स भगवतो देसनाय अरहत्तं उत्तमङ्गभूतन्ति आह "अरहत्तनिकूटेना'ति । देसनं निवापेसीति तित्थकरमतहरविभाविनिं नानाविधकुहनलपनादिमिच्छाजीवविद्धंसिनिं तिविधसीलालङ्कतं परमसल्लेखपटिपत्तिदीपनि झानाभिज्ञादिउत्तरिमनुस्सधम्मविभूसितं चुद्दसविधमहासामञफलपटिमण्डितं अनञसाधारणं देसनं निट्ठापेसि ।
अजातसत्तुउपासकत्तपटिवेदनाकथावण्णना
२५०. आदिमज्झपरियोसानन्ति आदिञ्च मज्झञ्च परियोसानञ्च । सक्कच्चं सगारवं । आरद्धं धम्मसङ्गाहकेहि।
अभिक्कन्ता विगताति अत्थोति आह "खये दिस्सती'ति । तथा हि “निक्खन्तो पठमो यामोति उपरि वुत्तं । अभिक्कन्ततरोति अतिविय कन्ततरो मनोरमो, तादिसो च सुन्दरो भद्दको नाम होतीति आह "सुन्दरे दिस्सती"ति । कोति देवनागयक्खगन्धब्बादीसु को कतमो। मेति मम । पादानीति पादे । इद्रियाति इमाय एवरूपाय देविद्धिया । यससाति इमिना एदिसेन परिवारेन, परिजनेन च। जलन्ति विज्जोतमानो । अभिक्कन्तेनाति अतिविय कन्तेन कमनीयेन अभिरूपेन । वण्णेनाति छविवण्णेन
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गटीका
(२.२५०-२५०)
सरीरवण्णनिभाय । सब्बा ओभासयं दिसाति दसपि दिसा पभासेन्तो चन्दो विय, सूरियो विय च एकोभासं एकालोकं करोन्तोति गाथाय अत्थो । अभिरूपेति उळाररूपे सम्पन्नरूपे ।
“चोरो चोरो, सप्पो सप्पो''तिआदीसु भये आमेडितं, "विज्झ विज्झ, पहर पहरा''तिआदीसु कोधे, “साधु साधूतिआदीसु (म० नि० १.३२७; सं० नि० १.२.१२७; २.३.३५; ३.५.१००५) पसंसायं, “गच्छ गच्छ, लुनाहि लुनाही''तिआदीसु तुरिते, “आगच्छ आगच्छा''तिआदीसु कोतूहले, “बुद्धो बुद्धोति चिन्तेन्तो''तिआदीसु (बु० वं० ४४) अच्छरे, “अभिक्कमथायस्मन्तो अभिक्कमथायस्मन्तो"तिआदीसु (दी० नि० ३.२०; अ० नि० ३.९.११) हासे, "कहं एकपुत्तक कहं एकपुत्तका"तिआदीसु (सं० नि० १.२.६३) सोके, "अहो सुखं अहो सुख''न्तिआदीसु (उदा० २०; दी० नि० ३.३०५; चूळव० ३३२) पसादे। च-सद्दो अवुत्तसमुच्चयत्थो, तेन गरहाअसम्मानादीनं सङ्गहो दट्ठब्बो । तत्थ “पापो पापो''तिआदीसु गरहायं, “अभिरूपक अभिरूपका''तिआदीसु असम्माने दट्टब्बं ।
नयिदं आमेडितवसेन द्विक्खत्तुं वुत्तं, अथ खो अत्थद्वयवसेनाति दस्सेन्तो “अथ वा"तिआदिमाह "अभिक्कन्त''न्ति वचनं अपेक्खित्वा नपुंसकलिङ्गवसेन वुत्तं । तं पन भगवतो वचनं धम्मस्स देसनाति कत्वा तथा वुत्तं । अत्थमत्तदस्सनं वा एतं, तस्मा अत्थवसेनेत्थ लिङ्गविभत्तिपरिणामो वेदितब्बो। दुतियपदेपि एसेव नयो । दोसनासनतोति रागादिकिलेसविधमनतो। गुणाधिगमनतोति सीलादिगुणानं सम्पादनतो। ये गुणे देसना अधिगमेति, तेसु पधानभूता दस्सेतब्बाति ते पधानभूते ताव दस्सेतुं “सद्धाजननतो पञआजननतो"ति वुत्तं । सद्धापमुखा हि लोकिया गुणा पापमुखा लोकुत्तरा । सीलादिअत्थसम्पत्तिया सात्थतो। सभावनिरुत्तिसम्पत्तिया सव्यञ्जनतो। सुवि व्यसद्दपयोगताय उत्तानपदतो। सण्हसुखुमभावेन दुब्बिञ्जय्यत्थताय गम्भीरत्थतो। सिनिद्धमुदुमधुरसद्दपयोगताय कण्णसुखतो। विपुलविसुद्धपेमनीयत्थताय हृदयङ्गमतो। मानातिमानविधमनेन अनत्तुक्कंसनतो। थम्भसारम्भनिम्मद्दनेन अपरवम्भनतो। हिताधिप्पायप्पवत्तिया, परेसं रागपरिळाहादिवूपगमनेन च करुणासीतलतो। किलेसन्धकारविधमनेन पञावदाततो। करवीकरुतमञ्जुताय आपाथरमणीयतो। पुब्बापराविरुद्धसुविसुद्धताय विमद्दक्खमतो। आपाथरमणीयताय एव सुय्यमानसुखतो। विमद्दक्खमताय, हितज्झासयप्पवत्तिताय च वीमंसियमानहिततो। एवमादीहीति आदि-सद्देन संसारचक्कनिवत्तनतो सद्धम्मचक्कप्पवत्तनतो, मिच्छावादविद्धंसनतो सम्मावादपतिट्ठापनतो,
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(२.२५०-२५०)
अजातसत्तुउपासकत्तपटिवेदनाकथावण्णना
२४३
अकुसलमूलसमुद्धरणतो कुसलमूलसंरोपनतो, अपायद्वारपिधानतो सग्गमग्गद्वारविवरणतो, परियुट्ठानवूपसमनतो अनुसयसमुग्घाटनतोति एवमादीनं सङ्गहो दट्टब्बो ।
अधोमुखद्वपितन्ति केनचि अधोमुखं ठपितं । हेट्ठामुखजातन्ति सभावेनेव हेट्ठामुखं जातं । उग्घाटेय्याति विवटं करेय्य । हत्थे गहेत्वा "पुरत्थाभिमुखो, उत्तराभिमुखो वा गच्छा"तिआदीनि अवत्वा हत्थे गहेत्वा निस्सन्देहं कत्वा । “एस मग्गो, एवं गच्छा''ति दस्सेय्य । काळपक्खचातुद्दसीति काळपक्खे चातुद्दसी। निक्कुज्जितं आधेय्यस्स अनाधारभूतं भाजनं आधारभावापादनवसेन उक्कुज्जेय्य। अज्ञाणस्स अभिमुखत्ता हेट्ठामुखजातताय सद्धम्मविमुखं अधोमुखट्ठपितताय असद्धम्मे पतितन्ति एवं पदद्वयं यथारहं योजेतब्, न यथासङ्ख्यं । कामं कामच्छन्दादयो पटिच्छादका नीवरणभावतो, मिच्छादिट्ठि पन सविसेसं पटिच्छादिका सत्ते मिच्छाभिनिवेसनवसेनाति आह "मिच्छादिविगहनपटिच्छन्न"न्ति । तेनाह भगवा “मिच्छादिटिपरमाहं भिक्खवे वज्जं वदामी"ति । सब्बो अपायगामिमग्गो कुम्मग्गो कुच्छितो मग्गोति कत्वा। सम्मादिट्ठिआदीनं उजुपटिपक्खताय मिच्छादिविआदयो अट्ठ मिच्छत्तधम्मा मिच्छामग्गा। तेनेव हि तदुभयपटिपक्खतं सन्धाय "सग्गमोक्खमग्गं आविकरोन्तेना"ति वुत्तं । सप्पिआदिसन्निस्सयो पदीपो न तथा उज्जलो, यथा तेलसन्निस्सयोति तेलपज्जोत-ग्गहणं। एतेहि परियायेहीति एतेहि निक्कुज्जितुक्कुज्जनपटिच्छन्नविवरणादिउपमोपमितब्बप्पकारेहि, एतेहि वा यथावुत्तेहि नानाविधकुहनलपनादिमिच्छाजीवविविधमनादिविभावनपरियायेहि। तेनाह "अनेकपरियायेन धम्मो पकासितो"ति ।
पसन्नकारन्ति पसन्नेहि कातब्बं सक्कारं । सरणन्ति पटिसरणं, तेनाह "परायण"न्ति । परायणभावो च अनत्थनिसेधनेन, अत्थसम्पटिपादनेन च होतीति आह “अघस्स ताता, हितस्स च विधाता"ति | अघस्साति दुक्खतोति वदन्ति, पापतोति पन अत्थो युत्तो, निस्सक्के चेतं सामिवचनं । एत्थ च नायं गमु-सद्दो नी-सद्दादयो विय द्विकम्मको, तस्मा यथा “अजं गामं नेती"ति वुच्चति, एवं "भगवन्तं सरणं गच्छामी"ति वत्तुं न सक्का, "सरणन्ति गच्छामी''ति पन वत्तब्बं । इति-सद्दो चेत्थ लुत्तनिद्दिट्ठो । तस्स चायमत्थो | गमनञ्च तदधिप्पायेन भजनं जाननं वाति दस्सेन्तो "इमिना अधिप्पायेना"तिआदिमाह । तत्थ "भजामी"तिआदीसु पुरिमस्स पुरिमस्स पच्छिमं पच्छिमं अत्थवचनं, भजनं वा सरणाधिप्पायेन उपसङ्कमनं, सेवनं सन्तिकावचरता, पयिरुपासनं वत्तपटिवत्तकरणेन
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गटीका
(२.२५०-२५०)
उपट्टानन्ति एवं सब्बथापि अनञ्जसरणतंयेव दीपेति । “गच्छामी"ति पदस्स बुज्झामीति अयमत्थो कथं लब्भतीति आह “येसही"तिआदि ।
___ "अधिगतमग्गे सच्छिकतनिरोधे"ति पदद्वयेनापि फलट्ठा एव दस्सिता, न मग्गट्ठाति ते दस्सेन्तो “यथानुसिटुं पटिपज्जमाने चा"तिआदिमाह । ननु च कल्याणपुथुज्जनोपि "यथानुसिटुं पटिपज्जतीति वुच्चतीति ? किञ्चापि बुच्चति, निप्परियायेन पन मग्गट्ठा एव तथा वत्तब्बा, न इतरो नियामोक्कमनाभावतो। तथा हि ते एव वुत्ता “अपायेसु अपतमाने धारेती"ति | सम्मत्तनियामोक्कमनेन हि अपायविनिमुत्तसम्भवो। अक्खायतीति एत्थ इति-सद्दो आदिअत्थो, पकारत्थो वा, तेन “यावता भिक्खवे धम्मा सङ्घता वा असङ्घता वा, विरागो तेसं अग्गं अक्खायती''ति (इतिवु० ९०; अ० नि० १.४.३४) सुत्तपदं सङ्गण्हाति, “वित्थारो"ति वा इमिना। एत्थ च अरियमग्गो निय्यानिकताय, निब्बानं तस्स तदत्थसिद्धिहेतुतायाति उभयमेव निप्परियायेन “धम्मो"ति वुत्तो । निब्बानहि आरम्मणपच्चयभूतं लभित्वा अरियमग्गस्स तदत्थसिद्धि । तथापि यस्मा अरियफलानं "ताय सद्धाय अवूपसन्ताया''तिआदि वचनतो मग्गेन समुच्छिन्नानं किलेसानं पटिपस्सद्धिप्पहानकिच्चताय, निय्यानानुगुणताय, निय्यानपरियोसानताय च, परियत्तिधम्मस्स पन “निय्यानधम्मस्स समधिगमनहेतुताया"ति इमिना परियायेन वुत्तनयेन धम्मभावो लब्भति एव । स्वायमत्थो पाठारूळ्हो एवाति दस्सेन्तो "न केवल"न्तिआदिमाह ।
___ “कामरागो भवरागो''ति एवमादि भेदो सब्बोपि रागो विरज्जति एतेनाति रागविरागोति मग्गो कथितो। एजासङ्घाताय तण्हाय, अन्तोनिज्झानलक्खणस्स सोकस्स च तदुप्पत्तियं सब्बसो परिक्खीणत्ता अनेनं असोकन्ति फलं कथितं। अप्पटिकूलन्ति अविरोधदीपनतो केनचि अविरुद्धं, इ8 पणीतन्ति वा अत्थो । पगुणरूपेन पवत्तितत्ता, पकट्टगुणविभावनतो वा पगुणं। यथाह "विहिंससञी पगुणं न भासिं, धम्मं पणीतं मनुजेसु ब्रह्मेति । (म० नि० १.२८३; म० नि० २.३३९; महाव० ९) सब्बधम्मक्खन्धा कथिताति योजना ।
दिविसीलसङ्घातेनाति “यायं दिट्ठि अरिया निय्यानिका निय्याति तक्करस्स सम्मा दुक्खक्खयाय, तथारूपाय दिट्ठिया दिट्ठिसामञ्जगतो विहरती"ति (दी० नि० ३.३२४; म० नि० १.४.९२; ३.५४) एवं वुत्ताय दिट्ठिया, “यानि तानि सीलानि अखण्डानि अच्छिद्दानि असबलानि अकम्मासानि भुजिस्सानि विग्रुप्पसत्थानि अपरामट्ठानि
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(२.२५०-२५०)
सरणगमनकथावण्णना
समाधिसंवत्तनिकानि, तथारूपेहि सीलेहि सीलसामञ्ञगतो विहरती "ति (दी० नि० ३.३२३; म० नि० १.४९२ ३.५४; अ० नि० २.६.११, परि० २७४) एवं वृत्तानं सीलानञ्च संहतभावेन, दिट्ठिसीलसामञ्जेनाति अत्थो । संहतोति घटितो, समेतोति अत्थो । अरियपुग्गला हि यत्थ कत्थचि दूरे ठितापि अत्तनो गुणसामग्गिया संहता एव । अट्ठ पुग्गलधम्मदसा तेति ते पुरिसयुगवसेन चत्तारोपि पुग्गलवसेन अट्ठेव अरियधम्मस्स पच्चक्खदस्साविताय धम्मदसा । तीणि वत्थूनि “सरण "न्ति गमनेन, तिक्खत्तुं गमनेन च तीणि सरणगमनानि । पटिवेदेसीति अत्तनो हृदयगतं वाचाय पवेदेसि ।
सरणगमनकथावण्णना
सरणगमनस्स विसयप्पभेदफलसंकिलेसभेदानं विय कत्तु च विभावना तत्थ कोसल्लाय होतीति “सरणगमनेसु कोसल्लत्थं सरणं... पे०... वेदितब्बो "ति वुत्तं तेन विना सरणगमनस्सेव असम्भवतो । कस्मा पनेत्थ वोदानं न गहितं ननु वोदानविभावनापि तत्थ कोसल्लावहाति ? सच्चमेतं तं पन संकिलेसग्गहणेनेव अत्थतो दीपितं होतीति न गहितं । यानि हि ने संकिलेसकारणानि अञ्ञाणादीनि तेसं सब्बेन सब्बं अनुप्पन्नानं अनुष्पादनेन, उप्पन्नानञ्च पहानेन वोदानं होतीति । हिंसत्थस्स सर - सद्दस्स वसेनेतं पदं दट्ठब्बन्ति “हिंसतीति सरण "न्ति वत्वा तं पन हिंसनं केसं कथं कस्स वाति चोदनं सोधेन्तो “सरणगतान "न्तिआदिमाह । तत्थ भयन्ति वट्टभयं । सन्तासन्ति चित्तत्रासं तेनेव चेतसिकदुक्खस्स गहितत्ता । दुक्खन्ति कायिकदुक्खं । दुग्गतिपरिकिलेसन्ति दुग्गतिपरियापन्नं सब्बम्पि दुक्खं, तयिदं सब्बं परतो फलकथायं आविभविस्सति । एतन्ति “सरण "न्ति पदं ।
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एवं अविसेसतो सरण - सद्दस्स अत्थं दस्सेत्वा इदानि विसेसतो दस्सेतुं 'अथ वा "तिआदि वृत्तं । हिते पवत्तनेनाति “ सम्पन्नसीला भिक्खवे विहरथा 'तिआदिना ( म० नि० १.६४, ६९) अत्थे नियोजनेन । अहिता च निवत्तनेनाति । “पाणातिपातस्स खो पापको विपाको, पापकं अभिसम्पराय "न्तिआदिना आदीनवदस्सनादिमुखेन अनत्थतो निवत्तनेन । भयं हिंसतीति हिताहितेसु अप्पवत्तिपवत्तिहेतुकं ब्यसनं अप्पवत्तिकरणेन विनासेति । भवकन्तारा उत्तारणेन मग्गसङ्घातो धम्मो, इतरो अस्सासदानेन सत्तानं भयं हिंसतीति योजना । कारानन्ति दानवसेन पूजावसेन च उपनीतानं सक्कारानं । विपुलफलपटिलाभकरणेन सत्तानं भयं हिंसतीति योजना, अनुत्तरदक्खिणेय्यभावतोति अधिप्पायो । इमिनापि परियायेनाति इमिनापि विभजित्वा वृत्तेन कारणेन ।
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गटीका
(२.२५०-२५०)
"सम्मासम्बुद्धो भगवा, स्वाक्खातो धम्मो, सुप्पटिपन्नो सङ्घो"ति एवं पवत्तो तत्थ रतनत्तये पसादो तप्पसादो, तदेव रतनत्तयं गरु एतस्साति तग्गरु तब्भावो तग्गरुता, तप्पसादो च तग्गरुता च तप्पसादतग्गरुता, ताहि तप्पसादतग्गरुताहि । विधूतदिट्ठिविचिकिच्छासम्मोहअस्सद्धियादिताय विहतकिलेसो। तदेव रतनत्तयं परायणं परागति ताणं लेणन्ति एवं पवत्तिया तप्परायणताकारप्पवत्तो चित्तुष्पादो सरणगमनं सरणं गच्छति एतेनाति । तंसमङ्गीति तेन यथावुत्तचित्तुप्पादेन समन्नागतो । एवं उपेतीति भजति सेवति पयिरुपासति, एवं वा जानाति बुज्झतीति एवमत्थो वेदितब्बो । एत्थ च पसाद-ग्गहणेन लोकियसरणगमनमाह । तहि पसादप्पधानं । गरुतागहणेन लोकुत्तरं । अरिया हि रतनत्तयं गुणाभिचताय पासाणच्छत्तं विय गरुं कत्वा पस्सन्ति । तस्मा तप्पसादेन विक्खम्भनवसेन विगतकिलेसो, तग्गरुताय समुच्छेदवसेनाति योजेतब्बं अगारवकरणहेतूनं समुच्छिन्दनतो । तप्परायणता पनेत्थ तग्गतिकताति ताय चतुबिधम्पि वक्खमानं सरणगमनं गहितन्ति दट्ठब्बं । अविसेसेन वा पसादगरुता जोतिताति पसादग्गहणेन अवेच्चप्पसादस्स इतरस्स च गहणं, तथा गरुतागहणेनाति उभयेनापि उभयं सरणगमनं योजेतब्बं ।
मग्गक्खणे इज्झतीति योजना। "निब्बानारम्मणं हुत्वा"ति एतेन अत्थतो चतुसच्चाधिगमो एव लोकुत्तरसरणगमनन्ति दस्सेति। तत्थ हि निब्बानधम्मे सच्छिकिरियाभिसमयवसेन, मग्गधम्मो भावनाभिसमयवसेन पटिविज्झियमानोयेव सरणगमनत्थं साधेति । बुद्धगुणा पन सावकगोचरभूता परिञाभिसमयवसेन, तथा अरियसङ्घगुणा, तेनाह "किच्चतो सकलेपि रतनत्तये इज्झती"ति । इज्झन्तञ्च सहेव इज्झति, न लोकियं विय पतिपाटिया असम्मोहपटिवेधेन पटिविद्धत्ताति अधिप्पायो । ये पन वदन्ति “न सरणगमनं निब्बानारम्मणं हुत्वा पवत्तति । मग्गस्स अधिगतत्ता पन अधिगतमेव होति एकच्चानं तेविज्जादीनं लोकियविज्जादयो विया"ति, तेसं लोकियमेव सरणगमनं सिया, न लोकुत्तरं, तञ्च अयुत्तं दुविधस्सापि इच्छितब्बत्ता ।
तन्ति लोकियं सरणगमनं । सद्धापटिलाभो “सम्मासम्बुद्धो भगवा"तिआदिना । सद्धामूलिकाति यथावुत्तसद्धापुब्बङ्गमा सम्मादिट्ठिति बुद्धसुबुद्धतं, धम्मसुधम्मतं, सङ्घसुप्पटिपत्तिञ्च लोकियावबोधवसेनेव सम्मा जायेन दस्सनतो।. "सद्धामूलिका सम्मादिट्ठी"ति एतेन सद्भूपनिस्सया यथावुत्तलक्खणा पञ्जा लोकियसरणगमनन्ति दस्सेति, तेनाह "दिविजुकम्मन्ति बुच्चती"ति । दिट्ठि एव अत्तनो पच्चयेहि उजु करीयतीति कत्वा दिट्ठि वा उजु करीयति एतेनाति दिद्विजुकम्म, तथा पवत्तो चित्तुप्पादो। एवञ्च कत्वा
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(२.२५०-२५०)
सरणगमनकथावण्णना
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“तप्परायणताकारप्पवत्तो चित्तुप्पादो''ति इदं वचनं समत्थितं होति । सद्धापुब्बङ्गमसम्मादिट्ठिग्गहणं पन चित्तुप्पादस्स तप्पधानतायाति दट्टब्बं । "सद्धापटिलाभो"ति इमिना मातादीहि उस्साहितदारकादीनं विय जाणविप्पयुत्तं सरणगमनं दस्सेति, "सम्मादिट्ठी"ति इमिना आणसम्पयुत्तं सरणगमनं । तयिदं लोकियं सरणगमनं । अत्ता सन्निय्यातीयति अप्पीयति परिच्चजीयति एतेनाति अत्तसन्निय्यातनं, यथावुत्तं दिट्ठिजुकम्मं । तं रतनत्तयं परायणं पटिसरणं एतस्साति तप्परायणो, पुग्गलो, चित्तुप्पादो वा । तस्स भावो तप्परायणता, यथावृत्तं दिट्ठिजुकम्ममेव । “सरण"न्ति अधिप्पायेन सिस्सभावं अन्तेवासिकभावं उपगच्छति एतेनाति सिस्सभावूपगमनं। सरणगमनाधिप्पायेनेव पणिपतति एतेनाति पणिपातो। सब्बत्थ यथावुत्तदिट्ठिजुकम्मवसेनेव अत्थो वेदितब्बो ।
अत्तपरिच्चजनन्ति संसारदुक्खनित्थरणत्थं अत्तनो अत्तभावस्स परिच्चजनं । एसेव नयो सेसेसुपि । बुद्धादीनं येवाति अवधारणं अत्तसन्निय्यातनादीसुपि तत्थ तत्थ वत्तब्बं । एवहि तदनिवत्तनं कतं होति ।
एवं अत्तसन्निय्यातनादीनि एकेन पकारेन दस्सेत्वा इदानि अपरेहिपि पकारेहि दस्तुं “अपिचा''तिआदि आरद्धं, तेन परियायन्तरेहिपि अत्तसन्निय्यातनादि कतमेव होति अत्थस्स अभिन्नत्ताति दस्सेति । आळवकादीनन्ति आदि-सद्देन सातागिरहेमवतादीनं सङ्गहो दट्ठब्बो। ननु चेते आळवकादयो मग्गेनेव आगतसरणगमना, कथं तेसं तप्परायणतासरणगमनं वुत्तन्ति ? मग्गेनागतसरणगमनेहिपि। “सो अहं विचरिस्सामि...पे०... सुधम्मतं" (सं० नि० १.१.२४६; सु० नि० १९४) “ते मयं विचरिस्साम, गामा गाम नगा नगं...पे०... सुधम्मत''न्ति, (सु० नि० १८२) तेहि तप्परायणताकारस्स पवेदितत्ता तथा वुत्तं ।।
सो पनेस जाति...पे०... वसेनाति एत्थ जातिवसेन, भयवसेन, आचरियवसेन, दक्खिणेय्यवसेनाति पच्चेकं योजेतब्बं । तत्थ जातिवसेनाति आतिभाववसेन । एवं सेसेसुपि । दक्खिणेय्यपणिपातेनाति दक्खिणेय्यताहेतुकेन पणिपातेन । इतरेहीति आतिभावादिवसप्पवत्तेहि तीहि पणिपातेहि। “इतरेही''तिआदिना सङ्खपतो वुत्तमत्थं वित्थारतो दस्सेतुं "तस्मा"तिआदि वुत्तं । वन्दतीति पणिपातस्स लक्खणवचनं । एवरूपन्ति दिट्ठधम्मिकं सन्धाय वदति । सम्परायिकहि निय्यानिकं वा अनुसासनिं पच्चासिसन्तो दक्खिणेय्यपणिपातमेव करोतीति अधिप्पायो।
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२४८
दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गटीका
सरणगमनप्पभेदोति सरणगमनविभागो ।
अरियमग्गो एव लोकुत्तरं सरणगमनन्ति “ चत्तारि सामञ्ञफलानि विपाकफल "न्ति वृत्तं । सब्बदुक्खक्खयोति सकलस्स वट्टदुक्खस्स अनुप्पादनिरोधो । एतन्ति “ चत्तारि अरियसच्चानि, सम्मप्पञ्ञाय पस्सती 'ति एवं वृत्तं अरियसच्चस्स दस्सनं ।
निच्चादितो अनुपगमनादिवसेनाति " निच्च "न्ति अग्गहणादिवसेन । अट्ठानन्ति हेतुपटिक्खेपो । अनवकासोति पच्चयपटिक्खेपो । उभयेनापि कारणमेव पटिक्खिपति । यन्ति येन कारणेन । दिट्ठिसम्पन्नोति मग्गदिट्ठिया समन्नागतो सोतापन्नो । कञ्चि सङ्घारन्ति चतुभूमकेसु सङ्घतसङ्घारेसु एकसङ्घारम्पि । निच्चतो उपगच्छेय्याति " निच्चो "ति गण्हेय्य । "सुखतो उपगच्छेय्या "ति । " एकन्तसुखी अत्ता होति अरोगो परं मरणा" ति ( दी० नि० १.७६) एवं अत्तदिट्ठिवसेन सुखतो गाहं सन्धायेतं वृत्तं । दिट्ठिविप्पयुत्तचित्तेन पन अरियसावको परिळाहवूपसमनत्थं मत्तहत्थिपरित्तासितो विय चोक्खब्राह्मणो उक्कारभूमिं कञ्चि सङ्घारं सुखतो उपगच्छति । अत्तवारे कसिणादिपञ्ञत्तिसङ्गहत्थं " सङ्घार "न्ति अवत्वा “कञ्चि धम्म”न्ति वुत्तं । इमेसुपि वारेसु चतुभूमकवसेनेव परिच्छेदो वेदितब्बी, तेभूमकवसेनेव वा । यं यहि पुथुज्जनो गाहवसेन गण्हाति, ततो ततो अरियसावको गाहं विनिवेठेति ।
(२.२५० - २५०)
" मातर "न्तिआदीसु जनिका माता, जनको पिता, मनुस्सभूतो खीणासवो अहात अधिप्पेतो । किं पन अरियसावको अञ्ञ जीविता वोरोपेय्याति ? एतम्पि अट्ठानं, पुथुज्जनभावस्स पन महासावज्जभावदरसनत्थं, अरियसावकस्स च फलदस्सनत्थं एवं वृत्तं । दुचित्तोति वधकचित्तेन पदुट्ठचित्तो । लोहितं उप्पादेय्याति जीवमानकसरीरे खुद्दकमक्खिकाय पिवनमत्तम्पि लोहितं उप्पादेय्य । सङ्कं भिन्देय्याति समानसंवासकं समानसीमायं ठितं सङ्घं । "कम्मेन, उद्देसेन, वोहरन्तो, अनुस्सावनेन, सलाकग्गाहेना "ति (परि० ४५८ ) एवं वृत्तेहि पञ्चहि कारणेहि भिन्देय्य । अञ्ञ सत्थारन्ति अञ्ञ तित्थकरं " अयं मे सत्था "ति एवं गण्हेय्य, नेतं ठानं विज्जतीति अत्थो । न ते गमिस्सन्ति अपायभूमिन्ति ते बुद्धं सरणं गता तंनिमित्तं अपायं न गमिस्सन्ति, देवकायं पन परिपूरेस्सन्तीति अत्थो ।
दसहि दसहि कारणेहि । अधिहन्तीति अभिभवन्ति । वेलामसुत्तादिवसेनापीति एत्थ करीसस्स चतुत्थभागप्पमाणानं चतुरासीतिसहस्ससङ्ख्यानं
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(२.२५०-२५०)
सरणगमनकथावण्णना
२४९
सुवण्णपातिरूपियपातिकंसपातीनं यथाक्कम रूपियसुवण्णहिरञपूरानं, सब्बालङ्कारपटिमण्डितानं चतुरासीतिया हत्थिसहस्सानं, चतुरासीतिया अस्ससहस्सानं, चतुरासीतिया रथसहस्सानं, चतुरासीतिया धेनुसहस्सानं, चतुरासीतिया कासहस्सानं, चतुरासीतिया पल्लङ्कसहस्सानं, चतुरासीतिया वत्थकोटिसहस्सानं, अपरिमाणस्स च खज्जभोज्जादिभेदस्स आहारस्स परिच्चजनवसेन सत्तमासाधिकानि सत्तसंवच्छरानि निरन्तरं पवत्तवेलाममहादानतो एकस्स सोतापन्नस्स दिन्नदानं महप्फलतरं, ततो सतं सोतापन्नानं दिन्नदानतो एकस्स सकदागामिनो. ततो एकस्स अनागामिनो. ततो एकस्स अरहतो. ततो एकस्स पच्चेकबुद्धस्स, ततो सम्मासम्बुद्धस्स, ततो बुद्धप्पमुखस्स सङ्घस्स दिन्नदानं महप्फलतरं, ततो चातुद्दिससद्धं उद्दिस्स विहारकरणं, ततो सरणगमनं महप्फलतरन्ति इममत्थं पकासेन्तस्स वेलामसुत्तस्स (अ० नि० ३.९.२०) वसेन । वुत्तव्हेतं “यं गहपति वेलामो ब्राह्मणो दानं अदासि महादानं, यो चेकं दिट्ठिसम्पन्नं भोजेय्य, इदं ततो महप्फलतर''न्तिआदि। (अ० नि० ३.९.२०) वेलामसुत्तादीति आदिसद्देन अग्गप्पसादसुत्तादीनं (अ० नि० १.४.३४; इतिवु० ९०) सङ्गहो दट्ठब्बो ।
अञआणं वत्थुत्तयस्स गुणानं अजाननं, तत्थ सम्मोहो । “बुद्धो नु खो, न नु खो"तिआदिना विचिकिच्छा संसयो। मिच्छात्राणं तस्स गुणानं अगुणभावपरिकप्पनेन विपरीतग्गाहो। आदि-सद्देन अनादरागारवादीनं सङ्गहो। न महाजुतिकन्ति न उज्जलं, अपरिसुद्धं अपरियोदातन्ति अत्थो। न महाविष्फारन्ति अनुळारं । सावज्जोति तण्हादिट्ठादिवसेन सदोसो, लोकियसरणगमनं सिक्खासमादानं विय अग्गहितकालपरिच्छेदं जीवितपरियन्तमेव होति, तस्मा तस्स खन्धभेदेन भेदोति आह "अनवज्जो कालकिरियाया"ति । सोति अनवज्जो सरणगमनभेदो। सतिपि अनवज्जत्ते इट्ठफलोपि न होतीति आह "अफलो"ति । कस्मा ? अविपाकत्ता। न हि तं अकुसलन्ति ।
___को उपासकोति सरूपपुच्छा, किंलक्खणो उपासकोति वृत्तं होति । कस्माति हेतुपुच्छा, तेन केन पवत्तिनिभित्तेन उपासक-सद्दो तस्मिं पुग्गले निरूळ्होति दस्सेति, तेनाह “कस्मा उपासकोति बुच्चती"ति । सद्दस्स अभिधेय्ये पवत्तिनिमित्तं तदत्थस्स तब्भावकारणं । किमस्स सीलन्ति कीदिसं अस्स उपासकस्स सीलं, कित्तकेन सीलेनायं सीलसम्पन्नो नाम होतीति अत्थो। को आजीवोति को अस्स सम्माआजीवो, सो पन मिच्छाजीवस्स परिवज्जनेन होतीति सोपि विभजीयति । का विपत्तीति का अस्स सीलस्स,
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२५०
दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गटीका
(२.२५०-२५०)
आजीवस्स वा विपत्ति । अनन्तरस्स हि विधि वा पटिसेधो वा । सम्पत्तीति एत्थापि एसेव नयो।
यो कोचीति खत्तियादीसु यो कोचि, तेन सरणगमनं एवं कारणं, न जाति आदिविसेसोति दस्सेति ।
उपासनतोति तेनेव सरणगमनेन, तत्थ गारवबहुमानादियोगेन पयिरुपासनतो ।
च सक्कच्चकिरियाय आदर
वेरमणियोति वेरं वुच्चति पाणातिपातादिदुस्सील्यं, तस्स मणनतो हननतो विनासनतो वेरमणियो, पञ्च विरतियो विरतिपधानत्ता तस्स सीलस्स, तेनेवाह "पटिविरतो होती"ति ।
मिच्छावणिज्जाति न सम्मावणिज्जा अयुत्तवणिज्जा असारुप्पवणिज्जा। पहायाति अकरणेनेव पजहित्वा । धम्मेनाति धम्मतो अनपेतेन, तेन अझम्पि अधम्मिकं जीविकं पटिक्खिपति । समेनाति अविसमेन, तेन कायविसं आदिदुच्चरितं वज्जेत्वा कायसमादिना सुचरितेन जीविकं दस्सेति । सत्थवणिज्जाति आवुधभण्डं कत्वा वा कारेत्वा वा यथाकतं वा पटिलभित्वा तस्स विक्कयो। सत्तवणिज्जाति मनुस्सविक्कयो। मंसवणिज्जाति सूनकारादयो विय मिगसूकरादिके पोसेत्वा मंसं सम्पादेत्वा विक्कयो। मज्जवणिज्जाति यं किञ्चि मज्जं योजत्वा तस्स विक्कयो । विसवणिज्जाति विसं योजत्वा वा विसं गहेत्वा वा तस्स विक्कयो । तत्थ सत्थवणिज्जा परोपरोधनिमित्तताय अकरणीया वुत्ता सत्तवणिज्जा अभुजिस्सभावकरणतो, मंसवणिज्जा वधहेतुतो, मज्जवणिज्जा पमादट्ठानतो।
तस्सेवाति पञ्चवेरमणिलक्खणस्स सीलस्स चेव पञ्चमिच्छावणिज्जालक्खणस्स आजीवस्स च। विपत्तीति भेदो, पकोपो च। यायाति याय पटिपत्तिया । चण्डालोति उपासकचण्डालो। मलन्ति उपासकमलं। पटिकिट्ठोति उपासकनिहीनो। बुद्धादीसु कम्मकम्मफलेसु च सद्धाविपरियायो अस्सद्धियं मिच्छाधिमोक्खो, यथावुत्तेन अस्सद्धियेन समन्नागतो अस्सद्धो। यथावुत्तसीलविपत्तिआजीवविपत्तिवसेन दुस्सीलो। "इमिना दिट्ठादिना इदं नाम मङ्गलं होती"ति एवं बालजनपरिकप्पितकोतूहलसङ्खातेन दिठ्ठसुतमुतमङ्गलेन समन्नागतो कोतूहलमङ्गलिको। मङ्गलं पच्चेतीति दिट्ठमङ्गलादिभेदं मङ्गलमेव पत्तियायति । नो
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(२.२५१-२५१)
सरणगमनकथावण्णना
२५१
कम्मन्ति कम्मस्सकतं नो पत्तियायति । इतो च बहिद्धाति इतो सब्ब बुद्धसासनतो बहिद्धा बाहिरकसमये । दक्खिणेव्यं परियेसतीति दुप्पटिपन्नं दक्खिणारहसञ्जी गवसति । पुब्बकारं करोतीति दानमानं आदिकं कुसलकिरियं पठमतरं करोति । एत्थ च दक्खिणेय्यपरियेसनपुब्बकारे एकं कत्वा पञ्च धम्मा वेदितब्बा ।
विपत्तियं वुत्तविपरियायेन सम्पत्ति वेदितब्बा। अयं पन विसेसो- चतुन्नम्पि परिसानं रतिजननटेन उपासकोव रतनं उपासकरतनं। गुणसोभाकित्तिसद्दसुगन्धताय उपासकोव पदुमं उपासकपदुमं। तथा उपासकपुण्डरीकं ।
आदिम्हीतिआदिअत्थे । कोटियन्ति परियन्तकोटियं । विहारग्गेनाति ओवरककोट्ठासेन, "इमस्मिं गब्भे वसन्तानमिदं नाम पनसफलं पापुणाती''तिआदिना तं तंवसनट्ठानकोट्ठासेनाति अत्थो । अज्जतग्गन्ति वा अज्जदग्गन्ति वा अज्ज इच्चेव अत्थो ।
“पाणेहि उपेत"न्ति इमिना तस्स सरणगमनस्स आपाणकोटिकतं दस्सेन्तो "याव मे जीवितं पवत्तती''तिआदीनि वत्वा पुन जीवितेनापि तं वत्थुत्तयं पटिपूजेन्तो “सरणगमनं रक्खामी''ति उप्पन्नं तस्स रञो अधिप्पायं विभावेन्तो "अहही"तिआदिमाह। पाणेहि उपेतन्ति हि याव मे पाणा धरन्ति, ताव सरणं उपेतं. उपेन्तो च न वाचामत्तेन, न एकवारं चित्तुप्पादमत्तेन, अथ खो पाणानं परिच्चजनवसेन यावजीवं उपेतन्ति एवमेत्थ अत्थो वेदितब्बो ।
अच्चयनं साधुमरियादं महित्वा वीतिक्कमनं अच्चयोति आह "अपराधो"ति | अच्चेति अतिक्कमति एतेनाति वा अच्चयो, वीतिक्कमस्स पवत्तनको अकुसलधम्मो । सो एव अपरज्झति एतेनाति अपराधो। सो हि अपरज्झन्तं पुरिसं अभिभवित्वा पवत्तति, तेनाह "अतिक्कम्म अभिभवित्वा पवत्तो"ति । चरतीति आचरति करोति । धम्मेनेवाति धम्मतो अनपेतेन पयोगेन । पटिग्गण्हातूति अधिवासनवसेन सम्पटिच्छतूति अत्थोति आह "खमतू"ति ।
२५१. सदेवकेन लोकेन “सरणन्ति अरणीयतो अरियो, तथागतोति आह "अरियस्स विनये बुद्धस्स भगवतो सासने"ति । पुग्गलाधिद्वानं करोन्तोति कामं “वुद्धि
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२५२
दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गटीका
(२.२५३-२५३)
हेसा"ति धम्माधिट्ठानवसेन वाक्यं आरद्धं, तथापि देसनं पन पुग्गलाधिट्ठानं करोन्तो संवरं आपज्जतीति आहाति योजना।
२५३. इमस्मिंयेव अत्तभावे निप्पज्जनकानं अत्तनो कुसलमूलानं खणनेन खतो, तेसंयेव उपहननेन उपहतो। उभयेनापि तस्स कम्मापराधमेव वदति । पतिद्वाति सम्मत्तनियामोक्कमनं एतायाति पतिठ्ठा, तस्स उपनिस्सयसम्पदा । सा किरियापराधेन भिन्ना विनासिता एतेनाति भिन्नपतिट्ठो, तेनाह "तथा"तिआदि | धम्मेसु चक्खुन्ति चतुसच्चधम्मसु तेसं दस्सनटेन चक्खु । अझेसु ठानेसूति अझेसु सुत्तपदेसु । मुच्चिस्सतीति सट्ठि वस्ससहस्सानि पच्चित्वा लोहकुम्भी नरकतो मुच्चिस्सति ।
यदि अनन्तरे अत्तभावे नरके पच्चति, इमं पन सुत्तं सुत्वा रञो को आनिसंसो लद्धोति आह "महानिसंसो''तिआदि । सो पन आनिसंसो निद्दालाभसीसेन वुत्तो तदा कायिकचेतसिकदुक्खापगमो, तिण्णं रतनानं महासक्कारकिरिया, सातिसयो पोथुज्जनिकसद्धापटिलाभोति एवंपकारो दिट्ठधम्मिको, सम्परायिको पन अपरापरेसुपि भवेसु अपरिमाणो येवाति वेदितब्बो ।
एत्थाह - यदि रो कम्मन्तरायाभावे तस्मिंयेव आसने धम्मचक्खु उप्पज्जिस्सति, कथं अनागते पच्चेकबुद्धो हुत्वा परिनिब्बायिस्सति । अथ पच्चेकबुद्धो हुत्वा परिनिब्बायिस्सति, कथं तदा धम्मचक्टुं उप्पज्जिस्सति, ननु इमे सावकबोधिपच्चेकबोधिउपनिस्सया भिन्ननिस्सयाति? नायं विरोधो इतो परतो एवस्स पच्चेकबोधिसम्भारानं सम्भरणीयतो । सावकबोधिया बुज्झनकसत्तापि हि असति तस्सा समवाये कालन्तरे पच्चेकबोधिया बुज्झिस्सन्ति कताभिनीहारसम्भवतो । अपरे पन भणन्ति "पच्चेकबोधिया येवायं कताभिनीहारो । कताभिनीहारापि हि तत्थ नियतिं अप्पत्ता तस्स आणस्स परिपाकं अनुपगतत्ता सत्थु सम्मुखीभावे सावकबोधिं पापुणिस्सन्तीति भगवा 'सचायं भिक्खवे राजा'तिआदिमाह । महाबोधिसत्तानमेव च आनन्तरियपरिमुत्ति, न इतरबोधिसत्तानं । तथा हि पच्चेकबोधियं नियतो समानो देवदत्तो चिरकालसम्भूतेन लोकनाथे आघातेन गरुतरानि आनन्तरियानि पसवि, तस्मा कम्मन्तरायेनायं इदानि असमवेतदस्सनाभिसमयो राजा पच्चेकबोधिनियामेन अनागते पच्चेकबुद्धो हुत्वा परिनिब्बायिस्सती"ति दट्ठब् ।
सामञफलसुत्तवण्णनाय लीनत्थप्पकासना।
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३. अम्बट्ठसत्तवण्णना
अद्धानगमनवण्णना
२५४. अपुब्बपदवण्णनाति अत्थसंवण्णनावसेन हेट्ठा अग्गहितताय अपुब्बस्स पदस्स वण्णना अत्थविभजना । “हित्वा पुनप्पुनागतमत्थ"न्ति (दी० नि० अट्ठ० १.गन्थारम्भकथा) हि वुत्तं । जनपदिनोति जनपदवन्तो, जनपदस्स वा इस्सरा राजकुमारा गोत्तवसेन कोसला नाम। यदि एको जनपदो, कथं बहुवचनन्ति आह "रूव्हिसदेना"ति । अक्खरचिन्तका हि ईदिसेसु ठानेसु युत्ते विय ईदिसलिङ्गवचनानि इच्छन्ति, अयमेत्थ रूहि यथा अञ्जत्थपि "कुरूसु विहरति, अङ्गेसु विहरतीति च। तब्बिसेसनेपि जनपद-सद्दे जाति-सद्दे एकवचनमेव । पोराणा पनाति पन-सद्दो विसेसत्थजोतनो, तेन पुथुअत्थविसयताय एवञ्चेतं पुथुवचनन्ति वक्खमानविसेसं जोतेति । बहुप्पभेदो हि सो पदेसो तियोजनसतपरिमाणताय । नङ्गलानिपि छड्डेत्वाति कम्मप्पहानवसेन नङ्गलानिपि पहाय, निदस्सनमत्तञ्चेतं । न केवलं कस्सका एव, अथ खो अऽपि मनुस्सा अत्तनो अत्तनो किच्चं पहाय तत्थ सन्निपतिंसु । "सो पदेसो"ति पदेससामञ्जतो वुत्तं, वचनविपल्लासेन वा, ते पदेसाति अत्थो । कोसलाति बुच्चति कुसला एव कोसलाति कत्वा ।
चारिकन्ति चरणं, चरणं वा चारो, सो एव चारिका । तयिदं मग्गगमनं इधाधिप्पेतं, न चुण्णिकगमनमत्तन्ति आह “अद्धानगमनं गच्छन्तो"ति । तं विभागेन दस्सेतुं "चारिका च नामेसा"तिआदि वुत्तं । तत्थ दूरेपीति नातिदूरेपि । सहसा गमनन्ति सीघगमनं । महाकस्सपपच्चुग्गमनादिं एकदेसेन वत्वा वनवासीतिस्ससामणेरस्स वत्थु वित्थारेत्वा जनपदचारिकं कथेतुं "भगवा ही"तिआदि आरद्धं । आकासगामीहि एव सद्धिं गन्तुकामो "छळभिज्ञानं आरोचेही"ति आह ।
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२५४
दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गटीका
(३.२५४-२५४)
सङ्घकम्मवसेन सिज्झमानापि उपसम्पदा सत्थु आणावसेनेव सिज्झनतो "बुद्धदायज्जं ते दस्सामी"ति वुत्तन्ति वदन्ति । अपरे पन अपरिपुण्णवीसतिवस्सस्सेव तस्स उपसम्पदं अनुजानन्तो "दस्सामी"ति अवोचाति वदन्ति । उपसम्पादेत्वा ति धम्मसेनापतिना उपज्झायेन उपसम्पादेत्वा ।
नवयोजनसतिकम्पि ठानं मज्झिमदेसपरियापन्नमेव, ततो परं नाधिप्पेतं तुरितचारिकावसेन अगमनतो। समन्ताति गतगतहानस्स चतूसु पस्सेसु समन्ततो । अञ्जनपि कारणेनाति भिक्खूनं समथविपस्सनातरुणभावतो अजेनपि मज्झिममण्डले वेनेय्यानं आणपरिपाकादिकारणेन मज्झिममण्डलं ओसरति। “सत्तहि वा"तिआदि "एकमासं वा''तिआदिना वुत्तानुक्कमेन योजेतब्बं ।
सरीरफासुकत्थायाति एकस्मिंयेव ठाने निबद्धवासवसेन उस्सन्नधातुकस्स सरीरस्स विचरणेन फासुकत्थाय । अटुप्पत्तिकालाभिकङ्घनत्थायाति अग्गिक्खन्धोपमसुत्त (अ० नि० २.७.७२) मघदेवजातकादि (जा० १.१.९) देसनानं विय धम्मदेसनाय अट्टप्पत्तिकालं आकङ्खमानेन । सुरापानसिक्खापदपञआपने (पाचि० ३२८) विय सिक्खापदपञापनत्थाय । बोधनेय्यसत्ते अङ्गुलिमालादिके (म० नि० २.३४७) बोधनत्थाय। कञ्चि, कतिपये वा पुग्गले उद्दिस्स चारिका निबद्धचारिका। तदा अनिबद्धचारिका।
दससहस्सि लोकधातुयाति जातिखेत्तभूते दससहस्सचक्कवाळे । तत्थ हि सत्ते परिपक्किन्द्रिये पस्सितुं बुद्धञाणं अभिनीहरित्वा ठितो भगवा आणजालं पत्थरतीति वुच्चति । सब्ब ताणजालस्स अन्तो पविट्ठोति तस्स आणस्स गोचरभावं उपगतो । भगवा किर महाकरुणासमापत्तिं समापज्जित्वा ततो वुट्ठाय "ये सत्ता भब्बा परिपाकाणा अज्ज मया विनेतब्बा, ते मव्हं जाणस्स उपट्ठहन्तू"ति चित्तं अधिट्ठाय समन्नाहरति । तस्स सह समन्नाहारा एको वा द्वे वा बहू वा तदा विनयूपगा वेनेय्या आणस्स आपाथमागच्छन्ति अयमेत्थ बुद्धानुभावो । एवम्पि आपाथमागतानं पन नेसं उपनिस्सयं पुब्बचरियं पुब्बहेतुं सम्पति वत्तमानञ्च पटिपत्तिं ओलोकेति, तेनाह "अथ भगवा"तिआदि । वादपटिवादं कत्वाति “एवं नु ते अम्बट्टा"तिआदिना मया वुत्तवचनस्स "ये च खो ते भो गोतम मुण्डका समणका"तिआदिना पटिवचनं कत्वा तिक्खत्तुं इब्भवादनिपातनवसेन नानप्पकारं असम्भिवाक्यं साधुसभावाय वाचाय वत्तुं अयुत्तवचनं वक्खति। निब्बिसेवनन्ति विगततुदनं, मानदब्बवसेन अपगतपरिष्फन्दनन्ति अत्थो ।
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(३.२५५-२५५)
पोक्खरसातिवत्थुवण्णना
अवसरितब्बन्ति उपगन्तब्बं । इच्छानङ्गलेति इदं तदा भगवतो गोचरगामनिदस्सनं समीपत्थे भुम्मन्ति कत्वा । " इच्छानङ्गलवनसण्डे" ति निवासनट्ठानदस्सनं अधिकरणे मन्ति तदुभयं विवरन्तो “इच्छानङ्गलं उपनिस्साया "तिआदिमाह । धम्मराजस्स भगवतो सब्बसो अधम्मनिग्गण्हनपरा पटिपत्ति, सा च सीलसमाधिपञवसेनाति तं दस्सेतुं “सीलखन्धावार''न्तिआदि वृत्तं । यथाभिरुचितेनाति दिब्बविहारादीसु येन येन अत्तनो अभिरुचितेन विहारेन ।
पोक्खरसातिवत्थुवण्णना
२५५. मन्ते ति इरुब्बेदादिमन्तसत्थे । पोक्खरे कमले सयमानो निसीदीति पोक्खरसाती । साति वुच्चति समसण्ठानं, पोक्खरे सण्ठानावयवे जातोति " पोक्खरसाती' तिपि वुच्चति । सेतपोक्खरसदिसोति सेतपदुमवण्णो । सुवट्टिताति वट्टभावस्स त्ताने वला | काळवङ्गतिलकादीनं अभावेन सुपरिसुद्धा ।
२५५
इमस्स ब्राह्मणस्स कीदिसो पुब्बयोगो, येन नं भगवा अनुग्गण्हितुं तं ठानं उपगतोति आह " अयं पना" तिआदि । पदुमगब्भे निब्बत्ति तेनायं संसेदजो जातो । न पुष्फतीति न विकसति । रजतबिम्बकन्ति रूपियमयं रूपकं ।
अज्झावसतीति एत्थ अधि- सद्दो इस्सरियत्थदीपनो, आसद्दी मरियादत्थोति दस्सेन्ती "अभिभवित्वा" तिआदिमाह । तेहि युत्तत्ता हि उक्कट्ठन्ति उपयोगवचनं, तेनाह “उपसग्गवसेना ''तिआदि । याय मरियादायाति याय अवत्थाय । नगरस्स वत्थुन्ति " अयं खणो, सुमुहुत्तं मा अतिक्कमी "ति रत्तिविभायनं अनुरक्खन्ता रत्तियं उक्का ठपेत्वा उक्कासु जलमानासु नगरस्स वत्युं अग्गहेसुं, तस्मा उक्कासु ठिताति उक्कट्ठा, उक्कासु विज्जोतयन्तीसुठिता पतिट्ठिताति मूलविभुजादिपक्खेपेन सद्दसिद्धि वेदितब्बा, निरुत्तिनयेन वा उक्कासु ठितासु ठिता आसीति उक्कट्ठा। अपरे पन भणन्ति “भूमिभागसम्पत्तिया, उपकरणसम्पत्तिया, मनुस्ससम्पत्तिया च तं नगरं उक्कट्ठगुणयोगतो उक्त मं लभी’”ति | तस्साति ‘“उक्कट्ठन्ति उपयोगवसेन वृत्तपदस्स । अनुपयोगत्ताति विसेसनभावेन अनुपयुत्तत्ता । सेसपदेसूति "सत्तुस्सद "न्तिआदिपदेसु । यथाविधि हि अनुपयोगो पुरिमस्मिं । तत्थाति ‘“उपसग्गवसेना "तिआदिना वुत्तविधाने । “सद्दसत्थतो परियेसितब्ब"न्ति एतेन
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२५६
दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गटीका
सद्दलक्खणानुगतो वायं सद्दप्पयोगोत दस्सेति । वसनकिरियाठाने उपयोगवचनमेव पापुणातीति सद्दविदू इच्छन्ति ।
उस्सदता नामेत्थ बहुलताति, तं बहुलतं दस्सेतुं “बहुजन "न्तिआदि वृत्तं । गत्वा पोसेतब्बं पोसावनियं। आविज्झित्वाति परिक्खिपित्वा ।
(३.२५५-२५५)
रञ विय भुञ्जितब्बन्ति वा राजभोग्गं । रज्ञो दायभूतन्ति कुलपरम्पराय योग्यभावेन राजतो लद्धदायभूतं । तेनाह “ दायज्जन्ति अत्थो" ति । राजनीहारेन परिभुञ्जितब्बतो उद्धं परिभोगलाभस्स सेट्ठदेय्यता नाम नत्थीति आह “ छत्तं उस्सापेत्वा राजसङ्क्षेपेन भुञ्जितब्ब"न्ति । " सब्बं छेज्जभेज्जन्ति सरीरदण्डधनदण्डादि भेदं सब्बं दण्डमाह । नदीतित्थपब्बतादीसूति नदीतित्थपब्बतपादगामद्वार अटविमुखादीसु । “राजदाय "न्ति इमिनाव रज्ञो दिन्नभावे सिद्धे “रञ्ञा पसेनदिना कोसलेन दिन्न" /न्ति वचनं किमत्थियन्ति आह “दायकराजदीपनत्थ’”न्तिआदि । निस्सट्ठपरिच्चत्तन्ति मुत्तचागवसेन परिच्चत्तं कत्वा । एवहि तं सेट्ठदेय्यं उत्तमदेव्यं जातं ।
उपअनुअधिआइतिएवंपुब्बके
उपलभीति सवनवसेन उपलभीति इममत्थं दस्सेन्तो “सोतद्वार... पे०... अञ्ञासीति आह । अवधारणफलत्ता सब्बम्पि वाक्यं अन्तोगधावधारणन्ति आह “ पदपूरणमत्ते निपातो 'ति । " अवधारणत्थे 'ति पन इमिना इट्ठतोवधारणत्थं खो सद्दग्गहणन्ति दस्सेति । "अस्सोसी "ति पदं खो - सद्दे गहिते तेन फुल्लितमण्डितं विय होन्तं पूरितं नाम होति, तेन च पुरिमपच्छिमपदानि सिलिट्ठानि होन्ति, न तस्मिं अग्गहितेति आह " पदपूरणेन ब्यञ्जनसिलिट्ठतामत्तमेवा' 'ति । मत्त - सद्दो विसेसनिवत्तिअत्थो, तेनस्स अनत्थन्तरदीपनता दस्सिता होति, एव - सद्देन पन ब्यञ्जनसिलिट्ठताय एकन्तिकता ।
समितपापत्ताति अच्चन्तं अनवसेसतो सवासनं समितपापत्ता । वहि बाहिरकविरागसेक्खासेक्खपापसमनतो भगवतो पापसमनं विसेसितं होति, तेनाह वुत्तञ्हेतन्तिआदि । अनेकत्थत्ता निपातानं इध अनुस्सवत्थो अधिप्पेतोति आह “ खलूति अनुस्वत्थे निपातो 'ति । आलपनमत्तन्ति पियालापवचनमत्तं । पियसमुदाहारो हेते " भो "ति वा "आवुसो "ति वा “देवानं पिया”ति वा । गोत्तवसेनाति एत्थ गं तायतीति गोत्तं । गोतमोति हि पवत्तमानं वचनं, बुद्धिञ्च तायति एकंसिकविसयताय रक्खतीति गोत्तं । यथा हि बुद्धि आरम्मणभूतेन अत्थेन विना न वत्तति, एवं अभिधानं अभिधेय्यभूतेन,
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(३.२५६-२५६)
अम्बट्ठमाणवकथावण्णना
२५७
तस्मा सो गोत्तसङ्खातो अत्थो तानि तायति रक्खतीति वुच्चति । को पन सोति ? अञकुलपरम्परासाधारणं तस्स कुलस्स आदिपुरिससमुदागतं तंकुलपरियापन्नसाधारणं सामञरूपन्ति दट्टब्बं । एत्थ च "समणो"ति इमिना सरिक्खकजनेहि भगवतो बहुमतभावो दस्सितो समितपापताकित्तनतो। “गोतमो"ति इमिना लोकियजनेहि उळारकुलसम्भूततादीपनतो ।
उच्चाकुलपरिदीपनं उदितोदितविपुलखत्तियकुलविभावनतो। सब्बखत्तियानहि आदिभूतमहासम्मतमहाराजतो पट्ठाय असम्भिन्नं उळारतमं सक्यराजकुलं । केनचि पारिजुञ्जनाति आतिपारिजुञभोगपारिजुञादिना केनचि पारिजुजेन पारिहानिया । अनभिभूतो अनज्झोत्थतो। तथा हि तस्स कुलस्स न किञ्चि पारिजुझं लोकनाथस्स अभिजातियं, अथ खो वड्डियेव । अभिनिक्खमने च ततोपि समिद्धतमभावो लोके पाकटो पञातो। इति "सक्यकुला पब्बजितो"ति इदं वचनं भगवतो सद्धापब्बजितभावदीपनं वुत्तं महन्तं आतिपरिवर्ल्ड, महन्तञ्च भोगक्खन्धं पहाय पब्बजितभावसिद्धितो । सुन्दरन्ति भद्दकं । भद्दकता च पस्सन्तस्स हितसुखावहभावेन वेदितब्बाति आह अत्थावहं सुखावहन्ति । तत्थ अत्थावहन्ति दिट्ठधम्मिकसम्परायिकपरमत्थसंहितहितावहं । सुखावहन्ति यथावुत्ततिविधसुखावहं । तथारूपानन्ति तादिसानं । यादिसेहि पन गुणेहि भगवा समन्नागतो, तेहि चतुप्पमाणिकस्स लोकस्स सब्बथापि अच्चन्ताय सद्धाय पसादनीयो तेसं यथाभूतसभावत्ताति दस्सेन्तो यथारूपोतिआदिमाह । तत्थ यथाभूतं...पे०... अरहतन्ति इमिना धम्मप्पमाणानं, लूखप्पमाणानञ्च सत्तानं भगवतो पसादावहतं दस्सेति । तं दस्सनेनेव च इतरेसम्पि अस्थतो पसादावहता दस्सिता होतीति दट्ठब्बं तदविनाभावतो। दस्सनमत्तम्पि साधु होतीति एत्थ कोसियसकुणवत्थु (म० नि० अट्ठ० १.१४४; खु० पा० अट्ठ० १०) कथेतब्बं।
अम्बट्टमाणवकथावण्णना
२५६. मन्ते परिवत्तेतीति वेदे सज्झायति, परियापुणातीति अत्थो । मन्ते धारेतीति यथाअधीते मन्ते असम्मुढे कत्वा हदये ठपेति ओट्टपहतकरणवसेन, न अत्थविभावनवसेन ।
सनिघण्डुकेटुभानन्ति एत्थ वचनीयवाचकभावेन अत्थं सद्दञ्च निखडति भिन्दति विभज्ज दस्सेतीति निखण्डु, सा एव इध ख-कारस्स घ-कारं कत्वा “निघण्डू'ति वुत्तो ।
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२५८
दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गटीका
(३.२५७-२५८)
किटयति गमेति आपेति किरियादिविभागं, तं वा अनवसेसपरियादानतो गमेन्तो पूरेतीति केटुभं । वेवचनप्पकासकन्ति परियायसद्ददीपकं, एकेकस्स अत्थस्स अनेकपरियायवचनविभावकन्ति अत्थो। निदस्सनमत्तञ्चेतं अनेकेसम्पि अत्थानं एकसद्दवचनीयताविभावनवसेनपि तस्स गन्थस्स पवत्तत्ता। वचीभेदादिलक्खणा किरिया कप्पीयति एतेनाति किरियाकप्पो, सो पन वण्णपदसम्बन्धपदत्यादिविभागतो बहुविकप्पोति आह "किरियाकप्पविकप्पो"ति । इदञ्च मूलकिरियाकप्पगन्थं सन्धाय वुत्तं । सो हि सतसहस्सपरिमाणो नयचरियादिपकरणं । ठानकरणादिविभागतो, निब्बचनविभागतो च अक्खरा पभेदीयन्ति एतेहीति अक्खरप्पभेदा, सिक्खानिरुत्तियो । एतेसन्ति वेदानं ।
ते एव वेदे पदसो कायतीति पदको। तं तं सदं तदत्थञ्च ब्याकरोति ब्याचिक्खति एतेनाति ब्याकरणं, सद्दसत्थं । आयतिं हितं तेन लोको न यतति न ईहतीति लोकायतं। तहि गन्थं निस्साय सत्ता पुञ्जकिरियाय चित्तम्पि न उप्पादेन्ति ।
वयतीति क्यो, आदिमज्झपरियोसानेसु कत्थचि अपरिकिलमन्तो अवित्थायन्तो ते गन्थे सन्धारेति पूरेतीति अत्थो। द्वे पटिसेधा पकतिं गमेन्तीति दस्सेन्तो “अवयो न होती''ति वत्वा तत्थ अवयं दस्सेतुं “अवयो नाम...पे०... न सक्कोती"ति वुत्तं । “अनुज्ञातो"ति पदस्स कम्मसाधनवसेन, “पटिञातो''ति पन पदस्स कत्तुसाधनवसेन अत्थो वेदितब्बोति दस्सेन्तो “आचरियेना''तिआदिमाह । आचरियपरम्पराभतं आचरियकं। गरूति भारियं अत्तानं ततो मोचेत्वा गमनं दुक्करं होति । अनत्थोपि उप्पज्जति निन्दाब्यारोसउपारम्भादि ।
२५७. “अब्भुग्गतो''ति एत्थ अभिसद्दयोगेन इत्थम्भूताख्यानत्थवसेनेव उपयोगवचनं ।
२५८. लक्खणानीति लक्खणदीपनानि मन्तपदानि । अन्तरधायन्तीति न केवलं लक्खणमन्तानियेव, अथ खो अञ्जानिपि ब्राह्मणानं आणबलाभावेन अनुक्कमेन अन्तरधायन्ति । तथा हि वदन्ति “एकसतं अद्धरियं साखा सहस्सवत्तको सामा"तिआदि । पणिधि...पे०... महतोति एत्थ पणिधिमहतो समादानमहतोति आदिना पच्चेकं महन्त-सद्दो योजेतब्बो । पणिधिमहन्ततादि चस्स बुद्धवंसचरियापिटकवण्णनादिवसेन वेदितब्बो। निहाति निप्फत्तियो । भवभेदेति भवविसेसे । इतो च एत्तो च ब्यापेत्वा ठितता विसटभावो।
जातिसामञतोति लक्खणजातिया लक्खणभावमत्तेन समानभावतो। यथा हि बुद्धानं
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(३.२५८-२५८)
अम्बट्ठमाणवकथावण्णना
२५९
लक्खणानि सुविसदानि, सुपरिब्यत्तानि, परिपुण्णानि च होन्ति, न एवं चक्कवत्तीनं, तेनाह “न तेहेव बुद्धो होती"ति । अभिरूपता, दीघायुकता, अप्पातङ्कता, ब्राह्मणादीनं पियमनापताति इमेहि चतूहि अच्छरियसभावेहि। दानं, पियवचनं, अत्थचरिया, समानत्तताति इमेहि चतूहि सङ्गहवत्थूहि। रजनतोति पीतिजननतो। चक्कं चक्करतनं वत्तेति पवत्तेतीति चक्कवत्ती। सम्पत्तिचक्केहि सयं वत्तति, तेहि च परं सत्तनिकायं वत्तेति पवत्तेतीति चक्कवत्ती। परहितावहो इरियापथचक्कानं वत्तो वत्तनं एतस्स, एत्थाति वा चक्कवत्ती। अप्पटिहतं वा आणासङ्घातं चक्कं वत्तेतीति चक्कवत्ती। खत्तियमण्डलादिसञ्जितं चक्कं समूह अत्तनो वसे वत्तेतीति चक्कवत्ती चक्कवत्तिवत्तसङ्घातं धम्मं चरति, चक्कवत्तिवत्तसङ्खातो धम्मो एतस्मिं अत्थीति वा धम्मिको। धम्मतो अनपेतत्ता धम्मो रञ्जनढेन राजाति धम्मराजा। "राजा होति चक्कवत्ती"ति वुत्तत्ता "चातुरन्तो"ति पदं चतुदीपिस्सरतं विभावेतीति आह "चतुसमुद्दअन्ताया"तिआदि । तत्थ "चतुद्दीपविभूसिताया"ति अवत्वा “चतुब्बिधा'ति विधग्गहणं तंतंपरित्तदीपानम्पि सङ्गहत्थन्ति दलुब्बं । कोपादीति आदि-सद्देन काममोहमानमदादिके सङ्गण्हाति । विजितावीति विजितवा । केनचि अकम्पियढेन जनपदे थावरियप्पत्तो, दळहभत्तिभावतो वा, जनपदो थावरियं पत्तो एत्थाति जनपदत्थावरियप्पत्तो।
चित्तीकतभावादिनापि (खु० पा० अट्ठ० ३; दी० नि० अट्ठ० २.३३; सु० नि० अट्ट० १.२२६; महानि० अट्ठ० ५०) चक्कस्स रतनट्ठो वेदितब्बो । एस नयो सेसेसुपि । रतिनिमित्तताय वा चित्तीकतादिभावस्स रतिजननटेन एकसङ्गहताय विसुं अग्गहणं । इमेहि पन रतनेहि राजा चक्कवत्ती यं यमत्थं पच्चनुभोति, तं तं दस्सेतुं "इमेसु पना"तिआदि वुत्तं । अजितं जिनाति महेसक्खतासंवत्तनियकम्मनिस्सन्दभावतो। विजिते यथासुखं अनुविचरति हत्थिरतनं अस्सरतनञ्च अभिरुहित्वा तेसं आनुभावेन अन्तोपातरासेयेव समुद्दपरियन्तं पथविं अनुसंयायित्वा राजधानिमेव पच्चागमनतो। परिणायकरतनेन विजितमनुरक्खति तेन तत्थ तत्थ कातब्बकिच्चस्स संविधानतो। अवसेसेहीति मणिरतनइत्थिरतनगहपतिरतनेहि । तत्थ मणिरतनेन योजनप्पमाणे पदेसे अन्धकारं विधमित्वा आलोकदस्सनादिना सुखमनुभवति, इत्थिरतनेन अतिक्कन्तमानुसकरूपसम्पत्तिदस्सनादिवसेन, गहपतिरतनेन इच्छितिच्छितमणिकनकरजतादिधनपटिलाभवसेन ।
उस्साहसत्तियोगो तेन केनचि अप्पटिहताणाचक्कभावसिद्धितो पच्छिमेनाति परिणायकरतनेन । तहि सब्बराजकिच्चेसु कुसलं अविरज्झनयोगं, तेनाह
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२६०
दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गटीका
" मन्तसत्तियोगो 'ति ।
हत्थ अस्सरतनानं महानुभावताय कोससम्पत्तियापि पभावसम्पत्तिसिद्धितो "हत्थि... पे०... योगो" ति वुत्तं । ( कोसो हि नाम सति उस्साहसम्पत्तियं दुग्गं तेजं कुसुमोरं परक्कमं पब्बतोमुखं अमोसपहरणं) तिविधसत्तियोगफलं परिपुण्णं होतीति सम्बन्धो । सेसेहीति सेसेहि पञ्चहि रतनेहि ।
अदोससङ्घातेन
अदोसकुसलमूलजनितकम्मानुभावेनाति कुसलमूलेन सहजातादिपच्चयवसेन उप्पादितकम्मस्स आनुभावेन सम्पज्जन्ति सोम्मतररतनजातिकत्ता । मज्झिमानि मणिइत्थिगहपतिरतनानि । अलोभ... पे०... कम्मानुभावेन सम्पज्जन्ति उळारस्स धनस्स, उळारधनपटिलाभकारणस्स च परिच्चागसम्पदाहेतुकत्ता । पच्छिमन्ति परिणायकरतनं । तहि अमोह... पे०... कम्मानुभावेन सम्पज्जति महापञ्ञेनेव चक्कवत्तिराजकिच्चस्स परिणेतब्बत्ता । उपदेसो नाम सविसेसं सत्तन्नं रतनानं विचारणवसेन पवत्तो कथाबन्धो ।
(३.२५८-२५८)
"
सरणतो परिपक्खविधमनतो सूरा, तेनाह " अभीरुकजातिका "ति । असुरे विजिनित्वा ठितत्ता वीरो, सक्को देवानं इन्दो । तस्स अङ्गं देवपुत्तो सेनङ्गभावतोति वृत्तं "वीरङ्गरूपाति देवपुत्तसदिसकाया" ति । एके" ति सारसमासाचरियमाह । सभावोति भावभूत अत्थो । वीकारणन्ति वीरभावकारणं । वीरियमयसरीरा वियाति सविग्गहवीरियसदिसा, सविग्गहं चे वीरियं सिया तंसदिसाति अत्थो । ननु रञो चक्कवत्तिस्स पटिसेना नाम नत्थि, यमस्स पुत्ता पमद्देय्युं, अथ कस्मा परसेनप्पमद्दनाति वुत्तन्ति चोदनं सन्धायाह सचेतिआदि, तेन परसेना होतु वा मा वा ते पन एवं महानुभावाति दस्सेति । धम्मेनाति कतुपचितेन अत्तनो पुञ्ञधम्मेन । तेन हि सञ्चोदिता पथवियं सब्बराजानो पच्चुग्गन्त्वा " स्वागतं ते महाराजा' 'ति आदिं वत्वा अत्तनो रज्जं रञो चक्कवत्तिस्स निय्यातेन्ति तेन वुत्तं "सो इमं... पे०... अज्झावसती 'ति । अट्ठकथायं पन तस्स यथावत्तस्स धम्मस्स चिरतरं विपच्चितुं पच्चयभूतं चक्कवत्तिवत्तसमुदागतं पयोगसम्पत्तिसङ्घातं धम्मं दस्सेतुं “ पाणो न हन्तब्बोति आदिना पञ्चसीलधम्मेनाति वृत्तं । एवहि “अदण्डेन असत्थेना' 'ति इदं वचनं सुट्टुतरं समत्थितं होतीति । यस्मा रागादयो पापधम्मा उप्पज्जमाना सत्तसन्तानं छादेत्वा परियोनन्धित्वा तिट्ठन्ति कुसलप्पवत्तिं निवारेन्ति, तस्मा ते "छदना, छदा" ति च वृत्ता । विवटेत्वाति विगमेत्वा । पूजारहता वृत्ता "अरहतीति अरह "न्ति । तस्सा पूजारहताय । यस्मा सम्मासम्बुद्धो, तस्मा अरहन्ति । बुद्धत्तहेतुभूता विवट्टच्छदता सवासनसब्बकिलेसप्पहानपुब्बकत्ता बुद्धभावस्स ।
वुत्ता
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(३.२५९-२६१)
अम्बट्टमाणवकथावण्णना
अरहं वट्टाभावेनाति फलेन हेतुअनुमानदस्सनं । सम्मासम्बुद्धो छदनाभावेनाति हेतुना फलानुमानदस्सनं । हेतुद्वयं वृत्तं "विवट्टो विच्छदो चा "ति । दुतियेन बेसारज्जेनाति ‘“खीणासवस्स ते पटिजानतो ''तिआदिना वुत्तेन वेसारज्जेन । पुरिमसिद्धीति पुरिमस्स पदस्स अत्थसिद्धीति अत्थो । पठमेनाति " सम्मासम्बुद्धस्स ते पटिजानतो "तिआदिना ( म० नि० १.१५० अ० नि० १.४.८) वत्तेन वेसारज्जेन । दुतियसिद्धीति दुतियस्स पदस्स अत्थसिद्धि, बुद्धत्थसिद्धीति अत्थो । ततियचतुत्थेहीति "ये खो पन ते अन्तरायिका धम्मा तिआदिना, (म० नि० १.१५० अ० नि० १.४.८ ) " यस्स खो पन ते अत्थाया 'तिआदिना (म० नि० १.१५० अ० नि० १.४.८) च वृत्तेहि ततियचतुथेहि वेसारज्जेहि । ततियसिद्धीति विवट्टच्छदनतासिद्धि याथावतो अन्तरायिकनिय्यानिकधम्मापदेसेन हि सत्थु विवट्टच्छदनभावो लोके पाकटो अहोसि । पुरिमं धम्मचक्खुन्ति पुरिमपदं भगवतो धम्मचक्खु साधेति किलेसारीनं, संसारचक्कस्स च अरानं हतभावदीपनतो । दुतियं पदं बुद्धचक्खुं साधेति सम्मासम्बुद्धस्सेव तंसब्भावतो । ततियं पदं समन्तचक्खु साधेति सवासनसब्बकिलेसप्पहानदीपनतो । "सम्मासम्बुद्धो "ति हि वत्वा "विवट्टच्छदो ”ति वचनं बुद्धभावावहमेव सब्बकि सप्पानं विभावेति । " सूरभाव"न्ति लक्खणविभावने विसदञाणतं ।
२५९. एवं भोति एत्थ एवन्ति वचनसम्पटिच्छने निपातो । वचनसम्पटिच्छनञ्चेत्थ " तथा मयं तं भवन्तं गोतमं वेदिस्साम, त्वं मन्तानं पटिग्गहेता " ति च एवं पवत्तस्स पोक्खरसातिनो वचनस्स सम्पटिग्गहोति आह । “सोपि ताया" तिआदि । तत्थ तायाति ताय यथावुत्ताय समुत्तेजनाय । अयानभूमिन्ति यानस्स भूमिं । दिवापधानिकाति दिवापधानानुयुञ्जनका
२६१
२६०. यदिपि पुब्बे अम्बट्ठकुलं अप्पञ्ञातं, तदा पन पञ्ञयतीति आह " तदा किरा" तिआदि । अतुरितोति अवेगायन्तो ।
२६१. यथा खमनीयादीनि पुच्छन्तोति यथा भगवा " कच्चि वो माणवा खमनीयं, कच्चि यापनीयन्तिआदिना खमनीयादीनि पुच्छन्तो तेहि माणवेहि सद्धिं पठमं पवत्तमोदो अहोसि पुब्बभासिताय तदनुकरणेन एवं तेपि माणवा भगवता सद्धिं समप्पवत्तमोदा अहेसुन्ति योजना । तं पन समप्पवत्तमोदतं उपमाय दस्सेतुं "सीतोदकं विया" तिआदि वृत्तं । तत्थ सम्मोदितन्ति संसन्दितं । एकीभावन्ति सम्मोदनकिरियाय
261
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२६२
दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गटीका
(३.२६२-२६३)
समानतं । खमनीयन्ति “इदं चतुचक्कं नवद्वारं सरीरयन्तं दुक्खबहुलताय सभावतो दुस्सहं कच्चि खमितुं सक्कुणेय्य"न्ति पुच्छन्ति, यापनीयन्ति आहारादिपच्चयपटिबद्धवुत्तिकं चिरप्पबन्धसङ्घाताय यापनाय कच्चि यापेतुं सक्कुणेय्यं । सीसरोगादिआबाधाभावेन कच्चि अप्पाबाधं, दुक्खजीविकाभावेन कच्चि अप्पातङ्घ, तंतंकिच्चकरणे उट्ठानसुखताय कच्चि लहुडानं, तदनुरूपबलयोगतो कच्चि बलं, सुखविहारसब्भावेन कच्चि फासुविहारो अस्थीति सब्बत्थ कच्चि-सदं योजेत्वा अत्थो वेदितब्बो। बलप्पत्ता पीति पीतियेव । तरुणपीति पामोजं। सम्मोदनं जनेति करोतीति सम्मोदनिकं तदेव सम्मोदनीयं। सम्मोदितब्बतो सम्मोदनीयन्ति इदं पन अत्थं दस्सेतुं वुत्तं "सम्मोदितुं युत्तभावतो"ति । सरितब्बभावतो अनुस्सरितब्बभावतो “सरणीय"न्ति वत्तब्बे "सारणीय"न्ति दीर्घ कत्वा वुत्तं । "सुय्यमानसुखतो"ति आपाथमधुरतमाह, “अनुस्सरियमानसुखतो"ति विमद्दरमणीयतं । "व्यञ्जनपरिसुद्धताया"ति सभावनिरुत्तिभावेन तस्सा कथाय वचनचातुरियमाह, "अत्थपरिसुद्धताया"ति अत्थस्स निरुपक्किलेसतं । अनेकेहि परियायेहीति अनेकेहि कारणेहि ।
अपसादेस्सामीति मडं करिस्सामि । कण्ठे ओलम्बेत्वाति उभोसु खन्धेसु साटकं आसज्जेत्वा कण्ठे ओलम्बित्वा । दुस्सकण्णं गहेत्वाति निवत्थसाटकस्स दसाकोटिं एकेन हत्थेन गहेत्वा । चङ्कम अभिरुहित्वाति चङ्कमितुं आरभित्वा। धातुसमताति रसादिधातूनं समावस्थता, अरोगताति अत्थो । अनाचारभावसारणीयन्ति अनाचारभावेन सरणीयं । “अनाचारो वताय"न्ति सरितब्बकं ।
२६२. "भवग्गं गहेतुकामो विया"तिआदि असक्कुणेय्यत्ता दुक्करं किच्चं आरभतीति दस्सेतुं वुत्तं । असक्कुणेय्यहेतं सदेवकेनापि लोकेन, यदिदं भगवतो अपसादनं, तेनाह "अट्ठाने वायमती"ति । अयं बालो "मयि किञ्चि अकथेन्ते मया सद्धिं कथेतुम्पि न विसहती"ति मानमेव पग्गहिस्सति, कथेन्ते पन कथापसङ्गेनस्स जातिगोत्ते विभाविते माननिग्गहो भविस्सतीति भगवा “एवं नु ते"तिआदिमाह । तेन वुत्तं “अथ खो भगवा''तिआदि । आचारसमाचारसिक्खापनेन आचरिया, तेसं पन आचरियानं पकट्ठा आचरियाति पाचरिया यथा पपितामहोति, तेनाह "आचरियेहि च तेसं पाचरियेहि चा"ति ।
पठमइब्भवादवण्णना
२६३. तीसु इरियापथेसूति ठानगमननिसज्जासु । कथापळासन्ति कथावसेन युगग्गाहं ।
262
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(३.२६४-२६४)
पठमइब्भवादवण्णना
सयानेन आचरियेन सद्धिं सयानस्स कथा नाम आचारो न होति, तं इतरेहि सदिसं कत्वा कथनं इध कथापळासो ।
तस्स पन यं अनाचारभावविभावनं सत्थारा अम्बट्टेन सद्धिं कथेन्तेन कतं, तं सङ्गीतिअनारुळ्हं परम्पराभतन्ति उपरि पाळिया सम्बन्धभावेन दस्सेन्तो " ततो किरा" ति आदिमाह । मुण्डका समणकाति च गरहायं क- सद्दो, तेनाह " हीळेन्तो 'ति । इभस्स पयोगो इभो उत्तरपदलोपेन, तं इभं अरहन्तीति इन्भा । किं वुत्तं होति ? यथा इभो हत्थिवाहनभूतो परस्स वसेन वत्तति, न अत्तनो, एवं एतेपि ब्राह्मणानं सुस्सुका सुद्दा परस्स वसेन वत्तन्ति, न अत्तनो, तस्मा इभसदिसपयोगताय इब्भाति । ते पन कुटुम्बिकताय घरवासिनो घरस्सामिका होन्तीति आह “गहपतिका "ति । कण्हत कण्हजातिका । दिजा एव हि सुद्धजातिका, न इतरेति तस्स अधिप्पायो, तेनाह "काळका'ति । मुखतो निक्खन्ताति ब्राह्मणानं पुब्बपुरिसा ब्रह्मनो मुखतो निक्खन्ता, अयं तेसं पठमुप्पत्तीति अधिप्पायो । सेसपदेसुपि एसेव नयो । “समणा पिट्ठिपादतो" ति इदं पनस्स "मुखतो निक्खन्ता 'तिआदिवचनतोपि अतिविय असमवेक्खितवचनं चतुवण्णपरियापन्नस्सेव समणभावसम्भवतो । अनियमेत्वाति अविसेसेत्वा, अनुद्देसिकभावेन अत्थो ।
२६३
मानुस्सयवसेन कथेतीति मानुस्सयं अवस्साय अत्तानं उक्कंसेन्तो, परे च वम्भेन्तो " मुण्डका "ति आदि कथेति । जानामीति जातिगोत्तस्स पमाणं याथावतो विभावनेन पमाणं जानामीति । अत्थो एतस्स अत्थीति अत्थिकं दण्डिकञायेन ।
" यायेव खो पनत्थाया”ति इत्थिलिङ्गवसेन वुत्तन्ति वदन्ति तं परतो “पुरिसलिङ्गवसेनेवा "ति वक्खमानत्ता युत्तं । याय अत्थायाति वा पुल्लिङ्गवसेनेव तदत्थे सम्पदानवचनं, यस्स अत्थस्स अत्थायाति अत्थो । अस्साति अम्बट्ठस्स दस्सेत्वाति सम्बन्धो । असन्ति असं साधुरूपानं । सन्तिकं आगतानन्ति गुरुट्ठानियानं सन्तिकं उपगतानं । बत्तन्ति तेहि चरितब्बआचारं । असिक्खितोति आचारं असिक्खितो । ततो एव अप्पस्सुतो । बाहुसच्चञ्हि नाम यावदेव उपसमत्थं इच्छितब्बं तदभावतो अम्बडो अप्पस्तो असिक्खितो ‘“अवुसितो"ति विञ्ञायति, तेनाह “ एतस्स ही "तिआदि ।
२६४. कोधवसचित्तताय असकमनो । माननिम्मदनत्थन्ति मानस्स निम्मदनत्थं ।
263
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२६४
दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गटीका
(३.२६५-२६६)
उग्गिलेत्वाति सिनेहपानेन किलिन्नं उब्बमनं कत्वा। गोत्तेन गोत्तन्ति तेन वुत्तेन पुरातनगोत्तेन इदानि तं तं अनवज्जसञ्जितं गोत्तं सावज्जतो उट्ठापेत्वा उद्धरित्वा । सेसपदेसुपि एसेव नयो। तत्थ गोत्तं आदिपुरिसवसेन, कुलापदोसो, तदन्वये उप्पन्नअभिजातपुरिसवसेन वेदितब्बो यथा “आदिच्चो, मघदेवो"ति। गोत्तमूलस्स गारव्हताय अमानवत्थुभावपवेदनतो "मानजं मूले छेत्वा"ति वुत्तं । घट्टेन्तोति ओमसन्तो ।
यस्मिं मानुस्सयकोधुस्सया अञमञ्जूपत्थद्धा, सो “चण्डो"ति वुच्चतीति आह "चण्डाति माननिस्सितकोधयुत्ता"ति । खराति चित्तेन, वाचाय च कक्खळा | लहुकाति तरुणा। भस्साति “साहसिका''ति केचि वदन्ति, “सारम्भका"ति अपरे। समानाति होन्ता, भवमानाति अत्थोति आह "सन्ताति पुरिमपदस्सेव वेवचन"न्ति । न सक्करोन्तीति सक्कारं न करोन्ति । अपचितिकम्मन्ति पणिपातकम्म नानुलोमन्ति अत्तनो जातिया न अनुच्छविकन्ति अत्थो।
दुतियइन्भवादवण्णना २६५. कामं सक्यराजकुले यो सब्बेसं बुद्धतरो समत्थो च, सो एव अभिसेकं लभति, एकच्चो पन अभिसित्तो समानो “इदं रज्जं नाम बहुकिच्चं बहुब्यापार"न्ति ततो निबिज्ज रज्जं वयसा अनन्तरस्स निय्यातेति, कदाचि सोपि अञस्साति तादिसे सन्धायाह "सक्याति अभिसित्तराजानो"ति। कुलवंसं जानन्तीति कण्हायनतो पट्ठाय परम्परागतं अनुस्सववसेन जानन्ति । कुलाभिमानिनो हि येभुय्येन परेसं उच्चावचं कुलं तथा तथा उदाहरन्ति, अत्तनो च कुलवंसं जानन्ति, एवं अम्बट्ठोपि । तथा हि सो परतो भगवता पुच्छितो वजिरपाणिभयेन याथावतो कथेसि ।
ततियइब्भवादवण्णना
२६६. खेत्तलेहूनन्ति खेत्ते कसनवसेन नङ्गलेन उट्ठापितलेडुनं । “लटुकिका' इच्चेव पञाता खुद्दकसकुणिका लटुकिकोपमवण्णनायं “चातकसकुणिका'ति (म० नि० अट्ठ० ३.१५०) वुत्ता। कोधवसेन लग्गितुन्ति उपनयितुं, आघातं बन्धितुन्ति अत्थो । “अम्हे हंसकोञ्चमोरसमे करोती"ति इमिना “न तं कोचि हंसो वा''तिआदिवचनं सङ्गीतिं अनारुळ्हं तदा भगवता वुत्तमेवाति दस्सेति । “एवं नु ते"तिआदिवचनं,
264 .
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(३.२६७-२६७)
दासिपुत्तवादवण्णना
२६५
"अवुसितवायेवा''तिआदिवचनञ्च मानवसेन समणेन गोतमेन वुत्तन्ति मञतीति अधिप्पायेनाह "निम्मानो दानि जातोति मञमानो''ति ।
दासिपुत्तवादवण्णना २६७. निम्मादेतीति अ-कारस्स आ-कारं कत्वा निद्देसोति आह “निम्मदेती"ति । कामं गोत्तं नामेतं पितितो लद्धब्बं, न मातितो न हि ब्राह्मणानं सगोत्ताय आवाहविवाहो इच्छितो, गोत्तनामं पन यस्मा जातिसिद्धं, न कित्तिमं, जाति च उभयसम्बन्धिनी, तस्मा "मातापेत्तिकन्ति मातापितूनं सन्तक"न्ति वुत्तं । नामगोत्तन्ति गोत्तनामं, न कित्तिमनाम, न गुणनामं वा । तत्थ “कण्हायनो''ति निरुळ्हा या नामपण्णत्ति, तं सन्धायाह "पण्णत्तिवसेन नामन्ति । तं पन कण्हइसितो पट्ठाय तस्मिं कुलपरम्परावसेन आगतं, न एतस्मिंयेव निरुळ्हं, तेन वुत्तं "पवेणीवसेन गोत्त"न्ति । गोत्त-पदस्स पन अत्थो हेट्ठा वुत्तोयेव । अनुस्सरतोति एत्थ न केवलं अनुस्सरणं अधिप्पेतं, अथ खो कुलसुद्धिवीमंसनवसेनाति आह "कुलकोटिं सोधेन्तस्सा"ति । अय्यपुत्ताति अय्यिकपुत्ताति आह "सामिनो पुत्ता'ति । दिसा ओक्काकरो अन्तोजाता दासीति आह “घरदासिया पुत्तो"ति । एत्थ च यस्मा अम्बठ्ठो जातिं निस्साय मानत्थद्धो, न चस्स याथावतो जातिया अविभाविताय माननिग्गहो होति. माननिग्गहे च कते अपरभागे रतनत्तये पसीदिस्सति, न “दासी''ति वाचा फरुसवाचा नाम होति चित्तस्स सहभावतो। अभयसुत्तञ्चेत्थ (म० नि० २.८३; अ० नि० १.४.१८४) निदस्सनं । केचि च सत्ता अग्गिना विय लोहादयो कक्खळाय वाचाय मुदुभावं गच्छन्ति, तस्मा भगवा अम्बटुं निब्बिसेवनं कातुकामो “अय्यपुत्ता सक्या भवन्ति, दासिपुत्तो त्वमसि सक्यान''न्ति अवोच ।
ठपेन्तीति पञपेन्ति, तेनाह “ओक्काको"तिआदि । पभा निच्छरति दन्तानं अतिविय पभस्सरभावतो।
पठमकप्पिकानन्ति पठमकप्पस्स आदिकाले निब्बत्तानं । किर-सद्दो अनुस्सवत्थे, तेन यो वुच्चमानाय राजपरम्पराय केसञ्चि मतिभेदो, तं उल्लिङ्गेति | महासम्मतस्साति “अयं नो राजा''ति महाजनेन सम्मन्नित्वा ठपितत्ता “महासम्मतो''ति एवं सम्मतस्स । यं सन्धाय वदन्ति
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२६६
दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गटीका
(३.२६७-२६७)
“आदिच्चकुलसम्भूतो, सुविसुद्धगुणाकरो । महानुभावो राजासि, महासम्मतनामको ।।
यो चक्खुभूतो लोकस्स, गुणरंसिसमुज्जलो । तमोनुदो विरोचित्थ, दुतियो विय भाणुमा ।।
ठपिता येन मरियादा, लोके लोकहितेसिना । ववत्थिता सक्कुणन्ति, न विलचयितुं जना ।।
यसस्सिनं तेजस्सिनं, लोकसीमानुरक्खकं । आदिभूतं महावीरं, कथयन्ति ‘मनूति यन्ति ।।
तस्स च पुत्तपपुत्तपरम्परं सन्धाय -
"तस्स पुत्तो महातेजो, रोजो नाम महीपति । तस्स पुत्तो वररोजो, पवरो राजमण्डले ।।
तस्सासि कल्याणगुणो, कल्याणो नाम अत्रजो । राजा तस्सासि तनयो, वरकल्याणनामको ।।
तस्स पुत्तो महावीरो, मन्धाता कामभोगिनं । अग्गभूतो महिन्देन, अड्डरज्जेन पूजितो ।।
तस्स सूनु महातेजो, वरमन्धातुनामको । 'उपोसथोति नामेन, तस्स पुत्तो महायसो ।।
वरो नाम महातेजो, तस्स पुत्तो महावरो । तस्सासि उपवरोति, पुत्तो राजा महाबलो ।।
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(३.२६७-२६७)
दासिपुत्तवादवण्णना
२६७
तस्स पुत्तो मघदेवो, देवतुल्यो महीपति । चतुरासीतिसहस्सानि, तस्स पुत्तपरम्परा ।।
तेसं पच्छिमको राजा, 'ओक्काको' इति विस्सुतो । महायसो महातेजो, अखुद्दो राजमण्डले''ति । ।
आदि तेसं पच्छतोति तेसं मघदेव परम्परभूतानं कळारजनकपरियोसानानं अनेकसतसहस्सानं राजूनं अपरभागे ओक्काको नाम राजा अहोसि, तस्स परम्पराभूतानं अनेकसतसहस्सानं राजूनं अपरभागे अपरो ओक्काको नाम राजा अहोसि, तस्स परम्परभूतानं अनेकसतसहस्सानं राजूनं अपरभागे पुनापरो ओक्काको नाम राजा अहोसि, तं सन्धायाह "तयो ओक्काकवंसा अहेसुं। तेसु ततियओक्काकस्सा"तिआदि ।
___ सहसा वरं अदासिन्ति पुत्तदस्सनेन सोमनस्सप्पत्तो सहसा अवीमंसित्वा तुट्ठिया वसेन वरं अदासिं, "यं इच्छसि, तं गण्हा''ति । रज्जं परिणामेतुं इच्छतीति सा जन्तुकुमारस्स माता मम तं वरदानं अन्तरं कत्वा इमं रज्जं परिणामेतुं इच्छतीति ।
नप्पसहेय्याति न परियत्तो भवेय्य ।
निक्खम्माति घरावासतो, कामेहि च निक्खमित्वा। हेढा चाति च-सद्देन "असीतिहत्थे"ति इदं अनुकड्डति । तेहीति मिगसूकरेहि, मण्डूकमूसिकेहि च। तेति सीहब्यग्घादयो, सप्पबिळारा च ।
अवसेसाहि अत्तनो अत्तनो कनिट्ठाहि ।
वड्डमानानन्ति अनादरे सामिवचनं । कुट्ठरोगो नाम सासमसूरीरोगा विय येभुय्येन सङ्कमनसभावोति वुत्तं "अयं रोगो सङ्कमतीति चिन्तेत्वा''ति ।
मिगसूकरादीनन्ति आदि-सद्देन वनचरसोणादिके सङ्गण्हाति ।
तस्मिं निसिन्नेति सम्बन्धो । खत्तियमायारोचनेन अत्तनो खत्तियभावं जानापेत्वा ।
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२६८
दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गटीका
(३.२६८-२७४)
नगरं मापेहीति साहारं नगरं मापेहीति अधिप्पायो ।
केसग्गहणन्ति केसवेणिबन्धनं । दुस्सग्गहणन्ति वत्थस्स निवासनाकारो ।
२६८. अत्तनो उपारम्भमोचनत्थायाति आचरियेन अम्बटेन च अत्तनो अत्तनो उपरि पापेतब्बउपवादस्स अपनयनत्थं । अस्मिं वचनेति “चत्तारोमे भो गोतम वण्णा"तिआदिना अत्तना वुत्ते, भोता च गोतमेन वुत्ते “जातिवादे'"ति इमस्मिं यथाधिकते वचने । तत्थ पन यस्मा वेदे वुत्तविधिनाव तेन पटिमन्तेतब्बं होति, तस्मा वुत्तं “वेदत्तयवचने"ति, "एतस्मिं वा दासिपुत्तवचने'ति च।
२७०. धम्मो नाम कारणं “धम्मपटिसम्भिदा"तिआदीसु (विभं० ७१८) विय, सह धम्मेनाति सहधम्मो, सहधम्मो एव सहधम्मिकोति आह "सहेतुको"ति ।
२७१. तस्मा तदा पटिञातत्ता। तासेत्वा पञ्हं विस्सज्जापेस्सामीति आगतो यथा तं सच्चकसमागमे । “भगवा चेव पस्सति अम्बट्ठो चा"ति एत्थ इतरेसं अदस्सने कारणं दस्सेतुं “यदि ही"तिआदि वुत्तं । आवाहेत्वाति मन्तबलेन आनेत्वा । तस्साति अम्बठ्ठस्स । वादसङ्घद्देति वाचासङ्घट्टे ।
२७२. ताणन्ति गवेसमानोति, “अयमेव समणो गोतमो इतो भयतो मम तायको"ति भगवन्तंयेव "ताण"न्ति परियेसन्तो उपगच्छन्तो । सेसपदद्वयेपि एसेव नयो । तायतीति यथाउपट्टितभयतो पालेति, तेनाह "रक्खती"ति, एतेन ताण-सद्दस्स कत्तुसाधनतमाह । यथुपट्ठितेन भयेन उपद्दुतो निलीयति एत्थाति लेणं, उपलयनं, एतेन लेण-सद्दस्स अधिकरणसाधनतमाह । “सरती"ति एतेन सरण-सद्दस्स कत्तुसाधनतमाह |
अम्बट्ठवंसकथावण्णना
२७४. गङ्गाय दक्खिणतोति गङ्गाय नदिया दक्खिणदिसाय । आवुधं न परिवत्ततीति सरं वासत्तिआदि वा परस्स उपरि खिपितुकामस्स हत्थं न परिवत्तति, हत्थे पन अपरिवत्तेन्ते कुतो आवुधपरिवत्तनन्ति आह “आवुधं न परिवत्तती"ति । सो किर "कथं नामाहं दिसाय दासिया कुच्छिम्हि निब्बत्तो''ति तं हीनं जाति जिगुच्छन्तो “हन्दाहं यथा
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(३.२७५ - २७६ )
खत्तियसेट्ठभाववण्णना
तथा इमं जातिं सोधेस्सामी "ति निग्गतो, तेनाह “ इदानि मे मनोरथं पूरेस्सामी' 'तिआदि । विज्जाबलेन राजानं तासेत्वा तस्स धीतुया लद्धकालतो पट्ठाय म्यायं जातिसोधिता भविस्सतीति तस्स अधिप्पायो । अम्बट्टं नाम विज्जन्ति सत्तानं सरीरे अब्भङ्गं ठपेतीति अम्बट्ठाति एवं लद्धनामं विज्जं, मन्तन्ति अत्थो । यतो अम्बट्टा एतस्मिं अत्थीति अम्बट्ठोति कहो इसि पञ्ञायित्थ, तंबंसजातताय अयं माणवो " अम्बट्टो "ति वोहरीयति ।
सेट्ठमन्ते वेदमन्तेति अधिप्पायो । मन्तानुभावेन रज्ञो बाहुक्खम्भमत्तं जातं तेन पनस्स बाहुक्खम्भेन राजा, “को जानाति, किं भविस्सती 'ति भीतो उस्सङ्की उत्रासो अहोसि, तेनाह " भयेन वेधमानो अट्ठासी " ति । सोत्थि भद्दन्तेति आदिवचनं अवोचुं । “अयं महानुभावो इसी 'ति मञ्ञमाना ।
२६९
उन्द्रियस्तीति विप्पकिरियिस्सति, तेनाह “भिज्जिस्सती 'ति । मन्ते परिवत्तितेति बाहुक्खम्भकमन्तस्स पटिप्परसम्भकविज्जासङ्घाते मन्ते “सरो ओतरतू" ति परिवत्तिते । एवरूपानहि मन्तानं एकंसेनेव पटिप्परसम्भकविज्जा होन्तियेव कुसुमारकविज्जानं । अत्तनो धीतु अपवादमोचनत्थं तस्स भुजिस्सकरणं । तस्सानुरूपे इस्सरिये ठपनत्थं उळारे च नं ठाने ठपेसि ।
यथा
तं
खत्तियसे भाववण्णना
२७५. समस्सासनत्थमाह करुणायन्तो न कुलीनभावदस्सनत्थं, तेनाह “अथ खो भगवा’”तिआदि । ब्राह्मणेसूति ब्राह्मणानं समीपे ततो ब्राह्मणेहि लद्धब्बं आसनादिं सन्धाय "ब्राह्मणानं अन्तरे "ति वृत्तं । केवलं सद्धाय कातब्बं सद्धं, परलोकगते सन्धाय न ततो किञ्चि अपत्थेन्तेन कातब्बन्ति अत्थो, तेनाह " मतके उद्दिस्स कतभत्ते 'ति । मङ्गलादिभत्तेति आदि-सद्देन उस्सवदेवताराधनादिं सङ्गण्हाति । यज्ञभत्तेति पापसमादिवसेन कतभत्ते । पाहुनकानन्ति अतिथीनं | खत्तियभावं अप्पत्तो उभतो सुजातताभावतो, तेनाह “ अपरिसुद्धोति अत्थोति ।
२७६. इत्थिं करित्वाति एत्थ करणं किरियासामञ्ञविसयन्ति आह “इथिं परियेसित्वा'ति । ब्राह्मणक इत्थिं खत्तियकुमारस्स भरियाभूतं गहेत्वापि खत्तियाव सेट्ठा, हीना ब्राह्मणाति योजना । पुरिसेन वा पुरिसं करित्वाति एत्थापि एसेव नयो । पकरणेति
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२७०
दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गटीका
(३.२७७-२७९)
रागादिवसेन पदुढे पक्खलिते कारणे, तेनाह "दोसे'ति । भस्सति निरत्थकभावेन खिपीयतीति भस्सं, छारिका।
२७७. जनितस्मिन्ति कम्मकिलेसेहि निब्बत्ते । जने एतस्मिन्ति वा जनेतस्मिं, मनुस्सेसूति अत्थो, तेनाह "गोत्तपटिसारिनो'ति । संसन्दित्वाति घटेत्वा, अविरुद्ध कत्वाति अत्थो ।
पठमभाणवारवण्णना निहिता।
विज्जाचरणकथावण्णना २७८. इदं वदृतीति इदं अज्झेनादि कत्तुं लब्भति। जातिवादविनिबद्धाति जातिसन्निस्सितवादे विनिबद्धा । ब्राह्मणस्सेव अज्झेनज्झापनयजनयाजनादयोति एवं ये अत्तुक्कंसनपरवम्भनवसेन पवत्ता, ततो एव ते मानवादपटिबद्धा च होन्ति । ये पन आवाहविवाहविनिबद्धा, ते एव सम्बन्धत्तयवसेन “अरहसि वा मं त्वं, न वा मं त्वं अरहसी''ति एवं पवत्तनका ।
यत्थाति यस्सं विज्जाचरणसम्पत्तियं । लग्गिस्सामाति ओलग्गा अन्तोगधा भविस्सामाति चिन्तयिम्ह। परमत्थतो अविज्जाचरणानियेव "विज्जाचरणानीति गहेत्वा ठितो परमत्थतो विज्जाचरणेसु विभजियमानेसु सो ततो दूरतो अपनीतो नाम होतीति आह "दूरमेव अवक्खिपी'ति । समुदागमतो पभुतीतिआदिसमुट्ठानतो पट्ठाय ।
२७९. तिविधं सीलन्ति खुद्दकादिभेदं तिविधं सीलं। सीलवसेनेवाति सीलपरियायेनेव । किञ्चि किञ्चीति अहिंसनादियमनियमलक्खणं किञ्चि किञ्चि सीलं अत्थि। तत्थ तत्थेव लग्गेय्याति तस्मिं तस्मिंयेव ब्राह्मणसमयसिद्धे सीलमत्ते “चरण"न्ति लग्गेय्य । अट्ठपि समापत्तियो चरणन्ति निय्यातिता होन्ति रूपावचरचतुत्थज्झाननिद्देसेनेव अरूपज्झानानम्पि निद्दिट्ठभावापत्तितो निय्यातिता निदस्सिता ।
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(३.२८०-२८०)
चतुअपायमुखकथावण्णना
२७१
चतुअपायमुखकथावण्णना २८०. असम्पापुणन्तोति आरभित्वा सम्पत्तुं असक्कोन्तो। अविसहमानोति आरभितुमेव असक्कोन्तो। खारिन्ति परिक्खारं । तं पन विभजित्वा दस्सेतुं "अरणी"तिआदि वुत्तं । तत्थ अरणीति अग्गिधमनकं अरणीद्वयं । सुजाति दब्बि । आदि-सद्देन तिदण्डतिघटिकादिं सङ्गण्हाति खारिभरितन्ति खारीहि पुण्णं । ननु उपसम्पन्नस्स भिक्खुनो सासनिकोपि यो कोचि अनुपसम्पन्नो अत्थतो परिचारकोव, किं अङ्गं पन बाहिरकपब्बजितेति तत्थ विसेसं दस्सेतुं "कामञ्चा"तिआदि वुत्तं । वुत्तनयेनाति "कप्पियकरण...पे०... वत्तकरणवसेना'"ति एवं वुत्तेन नयेन। परिचारको होति उपसम्पन्नभावस्स विसिट्ठभावतो। "नवकोटिसहस्सानी"तिआदिना (विसुद्धि० १.२०; पटि० म० अट्ठ० ३७) वुत्तप्पभेदानं अनेकसहस्सानं संवरविनयानं समादियित्वा वत्तनेन उपरिभूता अग्गभूता सम्पदाति हि “उपसम्पदा'"ति वुच्चतीति । गुणाधिकोपीति गुणेहि उक्कट्ठोपि । अयं पनाति वुत्तलक्खणो तापसो |
तापसा नाम कम्मवादिकिरियावादिनो, न सासनस्स पटाणीभूता, यतो नेसं पब्बजितुं आगतानं तिथियपरिवासेन विनाव पब्बज्जा अनुञाताति कत्वा “कस्मा पना"ति चोदनं समुट्ठपेति चोदको । आचरियो “यस्मा"तिआदिना चोदनं परिहरति । "ओसक्किस्सती"ति सङ्घपतो वुत्तमत्थं विवरितुं "इमस्मिही"तिआदि वुत्तं । खुरधारूपमन्ति खुरधारानं मत्थकेनेव अक्कमित्वा गमनूपमं । अजेति अञ्जे भिक्खू । अग्गिसालन्ति अग्गिहुत्तसालं । नानादारूहीति पलासदण्डादिनानाविधसमिधादारूहि ।
इदन्ति "चतुद्वारं आगारं कत्वा"तिआदिना वुत्तं । अस्साति अस्स चतुत्थस्स पुग्गलस्स । पटिपत्तिमुखन्ति कोहञपटिपत्तिया मुखमत्तं । सो हि नानाविधेन कोहओन लोकं विम्हापेन्तो तत्थ अच्छति, तेनाह "इमिना हि मुखेन सो एवं पटिपज्जती"ति |
खलादीसु मनुस्सानं सन्तिके उपतिट्ठित्वा वीहिमुग्गतिलमासादीनि भिक्खाचरियानियामेन सङ्कड्डित्वा उञ्छनं उच्छा, सा एव चरिया वुत्ति एतेसन्ति उज्छाचरिया। अग्गिपक्केन जीवन्तीति अग्गिपक्किका, न अग्गिपक्किका अनग्गिपक्किका। उञ्छाचरिया हि खलेसु गन्त्वा खलग्गं नाम मनुस्सेहि दिय्यमानं धनं गण्हन्ति, तं इमे न गण्हन्तीति अनग्गिपक्किका नाम जाता । असामपाकाति असयंपाचका | अस्ममुट्ठिना
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२७२
दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गटीका
(३.२८२-२८४)
मुट्ठिपासाणेन वत्तन्तीति अस्ममुडिका। दन्तेन उप्पाटितं वक्कलं रुक्खत्तचो दन्तवक्कलं, तेन वत्तन्तीति दन्तवक्कलिका। पवत्तं रुक्खादितो पातितं फलं भुञ्जन्तीति पवत्तफलभोजिनो। जिण्णपक्कताय पण्डुभूतं पलासं, तंसदिसञ्च पण्डुपलासं, तेन वत्तन्तीति पण्डुपलासिका, सयंपतितपुप्फफलपत्तभोजिनो।
इदानि ते अट्ठविधेपि सरूपतो दस्सेतुं “तत्था"तिआदि वुत्तं । सङ्कड्डित्वाति भिक्खाचरियावसेन लद्धधनं एकज्झं कत्वा ।
परियेट्ठि नाम दुक्खाति परेसं गेहतो गेहं गन्त्वा परियेट्टि नाम दीनवुत्तिभावेन दुक्खा । पासाणस्स परिग्गहो दुक्खो पब्बजितस्साति वा दन्तेहेव उप्पाटेत्वा खादन्ति ।
इमाहि चतूहियेवाति "खारिविधं आदाया"तिआदिना वुत्ताहि चतूहि एव तापसपब्बज्जाहीति ।
२८२. अपाये विनासे नियुत्तो आपायिको। तब्भावं परिपूरेतुं असक्कोन्तो तेन अपरिपुण्णो अपरिपूरमानो, करणे चेतं पच्चत्तवचनं, तेनाह "आपायिकेनापि अपरिपूरमानेना"ति ।
पुब्बकइसिभावानुयोगवण्णना
२८३. दीयतीति दत्ति, दत्तियेव दत्तिकन्ति आह "दिनक"न्ति । यदि ब्राह्मणस्स सम्मुखीभावो रो न दातब्बो, कस्मास्स उपसङ्कमनं न पटिक्खित्तन्ति आह “यस्मा पना"तिआदि । खेत्तविज्जायाति नीतिसत्थे । पयातन्ति सद्धं, सस्सतिकं वा, तेनाह "अभिहरित्वा दिन"न्ति। कस्मा भगवा "रो पसेनदिस्स कोसलस्स दत्तिकं भुञ्जती''तिआदिना ब्राह्मणस्स मम्मवचनं अवोचाति तत्थ कारणं दस्सेतुं "इदं पन कारण"न्तिआदि वुत्तं ।
२८४. रथूपत्थरेति रथस्स उपरि अत्थरितपदेसे । पाकटमन्तनन्ति पकासभूतं मन्तनं । तहि सुद्दादीहि आयतीति न रहस्समन्तनं । भणतीति अपि नु भणति ।
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(३.२८५-२८६)
पुब्बकइसिभावानुयोगवण्णना
२७३
२८५. पवत्तारोति पावचनभावेन वत्तारो, यस्मा ते तेसं मन्तानं पवत्तका, तस्मा आह “पवत्तयितारो"ति । सुद्दे बहि कत्वा रहो भासितब्बतुन मन्ता एव, तंतंअत्थपटिपत्तिहेतुताय पदन्ति मन्तपदं, अनुपनीतासाधारणताय वा रहस्सभावेन वत्तब्ध हितकिरियाय अधिगमुपायं । सज्झायितन्ति गायनवसेन सज्झायितं, तं पन उदत्तानुदत्तादीनं सरानं सम्पादनवसेनेव इच्छितन्ति आह "सरसम्पत्तिवसेना'ति । अजेसं वृत्तन्ति पावचनभावेन अक्षेसं वुत्तं । समुपब्यूळ्हन्ति सङ्गहेत्वा उपरूपरि सञ्जूळ्हं । रासिकतन्ति इरुवेदयजुवेदसामवेदादिवसेन, तत्थापि पच्चेकं मन्तब्रह्मादिवसेन, अज्झायानुवाकादिवसेन च रासिकतं ।
तेसन्ति मन्तानं कत्तूनं । दिब्बेन चक्खुना ओलोकेत्वाति दिब्बचक्खुपरिभण्डेन यथाकम्मूपगजाणेन सत्तानं कम्मस्सकतादिं पच्चक्खतो दस्सनटेन दिब्बचक्खुसदिसेन पुब्बेनिवाससाणेन अतीतकप्पे ब्राह्मणानं मन्तज्झेनविधिञ्च ओलोकेत्वा । पावचनेन सह संसन्दित्वाति कस्सपसम्मासम्बुद्धस्स यं वचनं वट्टसन्निस्सितं, तेन सह अविरुद्धं कत्वा । न हि तेसं विवट्टसन्निस्सितो अत्थो पच्चक्खो होति । अपरापरे पनाति अट्ठकादीहि अपरा परे पच्छिमा ओक्काकराजकालादीसु उप्पन्ना। पक्खिपित्वाति अट्ठकादीहि गन्थितमन्तपदेसु किलेससन्निस्सितपदानं । तत्थ तत्थ पदे पक्खिपनं कत्वा। विरुद्ध अकंसूति ब्राह्मणधम्मिकसुत्तादीसु आगतनयेन संकिलेसिकत्थदीपनतो पच्चनीकभूते अकंसु । इधाति "त्याहं मन्ते अधीयामी''ति एतस्मिं ठाने । पटिझं अग्गहेत्वाति "तं किं मञसी"ति एवं पटिनं अग्गहेत्वाव।
२८६. निरामगन्धाति किलेसासुचिवसेन विस्सगन्धरहिता। अनित्थिगन्धाति इत्थीनं गन्धमत्तस्सपि अविसहनेन इत्थिगन्धरहिता । एत्थ च “निरामगन्धा"ति एतेन तेसं पोराणानं ब्राह्मणानं विक्खम्भितकिलेसतं दस्सेति, “अनित्थिगन्धा ब्रह्मचारिनो"ति एतेन एकविहारितं, "रजोजल्लधरा"ति एतेन मण्डनविभूसनानुयोगाभावं, "अरञायतने पब्बतपादेसु वसिंसू"ति एतेन मनुस्सूपचारं पहाय विवित्तवासं, “वनमूलफलाहारा वसिंसू"ति एतेन सालिमंसोदनादिपणीताहारपटिक्खेपं, "यदा"तिआदिना यानवाहनपटिक्खेपं, "सब्बदिसासू"तिआदिना रक्खावरणपटिक्खेपं, एवञ्च वदन्तो मिच्छापटिपदापक्खिकं साचरियस्स अम्बट्ठस्स वुत्तिं उपादाय सम्मापटिपदापक्खिकापि तेसं ब्राह्मणानं वुत्ति अरियविनये सम्मापटिपत्तिं उपादाय मिच्छापटिपदायेव । कुतस्स सल्लेखपटिपत्तियुत्तताति । “एवं सुते"तिआदिना भगवा अम्बटुं सन्तज्जेन्तो निग्गण्हातीति दस्सेति ।
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२७४
दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गटीका
(३.२८७-२८८)
वेठकेहीति वेठकपट्टकाहि । समन्तानगरन्ति नगरस्स समन्ततो। कतसुधाकम्म पाकारस्स अधोभागे ठानं वुच्चतीति अधिप्पायो ।
ढेलक्खणदस्सनवण्णना
२८७. न सक्कोति सङ्कुचिते इरियापथे अनवसेसतो तेसं दुब्बिभावनतो। गवेसीति आणेन परियेसनमकासि । समानयीति आणेन सङ्कलेन्तो सम्मा आनयि समाहरि । "कसती"ति पदस्स आकङ्घतीति अयमत्थोति आह "अहो वत पस्सेय्यन्ति पत्थनं उप्पादेती"ति । किच्छतीति किलमति । “कङ्घती"ति पदस्स पुब्बे आसिसनत्थतं वत्वा इदानिस्स संसयत्थतमेव विकप्पन्तरवसेन दस्सेन्तो "कवाय वा दुब्बला विमति वुत्ता"ति आह । तीहि धम्मेहीति तिप्पकारेहि संसयधम्मेहि । कालुसियभावोति अप्पसन्नताय हेतुभूतो आविलभावो ।
यस्मा भगवतो कोसोहितं सब्बबुद्धानं आवेणिकं अजेहि असाधारणं वत्थगुव्हं सुविसुद्धकञ्चनमण्डलसन्निकासं, अत्तनो सण्ठानसन्निवेससुन्दरताय आजानेय्यगन्धहत्थिनो वरङ्गपरमचारुभावं, विकसमानतपनियारविन्दसमुज्जलकेसरावत्तविलासं, सञ्झापभानुरजितजलवनन्तराभिलक्खितसम्पुण्णचन्दमण्डलसोभञ्च अत्तनो सिरिया अभिभुय्य विराजति, यं बाहिरब्भन्तरमलेहि अनुपक्किलिट्ठताय, चिरकालं सुपरिचितब्रह्मचरियाधिकारताय, सुसण्ठितसण्ठानसम्पत्तिया च, कोपीनम्पि सन्तं अकोपीनमेव, तस्मा वुत्तं "भगवतो ही"तिआदि । पहूतभावन्ति पुथुलभावं । एत्थेव हि तस्स संसयो, तनुमुदुसुकुमारतादीसु पनस्स गुणेसु विचारणा एव नाहोसि ।
२८८. हिरिकरणोकासन्ति हिरियितब्बट्टानं । छायन्ति पटिबिम्बं । कथं कीदिसन्ति आह "इद्धिया"तिआदि। छायारूपकमत्तन्ति भगवतो पटिबिम्बरूपं । तञ्च खो बुद्धसन्तानतो विनिमुत्तत्ता रूपकमत्तं भगवतो सरीरवण्णसण्ठानावयवं इद्धिमयं बिम्बकमत्तं । तं पन रूपकमत्तं दस्सेन्तो भगवा यथा अत्तनो बुद्धरूपं न दिस्सति, तथा कत्वा दस्सेति । निवेत्वाति नीहरित्वा । कल्लोसीति पुच्छाविस्सज्जने कुसलो छेको असि । तथाकरणेनाति कथिनसूचिं विय करणेन । एत्थाति पहूतजिव्हाय । मुदुभावो पकासितो अमुदुनो घनसुखुमभावापादनत्थं असक्कुणेय्यत्ता दीघभावो, तनुभावो चाति दट्ठब् ।
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(३.२९१-२९८)
पोक्खरसातिबुद्धूपसङ्कमनवण्णना
२९१. " अत्थचरकेना" ति इमिना ब्यतिरेकमुखेन अनत्थचरकतंयेव विभावेति । न अञ्ञत्राति न अञ्ञस्मिं सुगतियन्ति अत्थो । उपनेत्वा उपनेत्वा ति तं तं दोसं उपनेत्वा उपनेत्वा, तेनाह “सुट्टुदासादिभावं आरोपेत्वा" ति । पातेसीति पवट्टनवसेन पातेसि ।
पोक्खरसातिबुद्धूपसङ्कमनवण्णना
२९३-६. आगमा नूति आगतो नु । खोति निपातमत्तं । इधाति एत्थ, तुम्हाकं सन्तिकन्ति अत्थो । अधिवासेतूति सादियतु तं पन सादियनं मनसा सम्पटिग्गहो होतीति आह “ सम्पटिच्छतू" ति ।
२७५
२९७. यावदत्थन्ति याव अत्थो, ताव भोजनेन तदा कतन्ति अत्थो । ओणित्तन्ति आमिसापनयनेन सुचिकतं, तेनाह " हत्थे च पत्तञ्च धोवित्वा" ति ।
२९८. अनुपुब्बिं कथन्ति अनुपुब्बं कथेतब्बकथं, तेनाह “अनुपटिपाटिकथ" न्ति । का पन सा ? दानादिकथाति आह “दानानन्तरं सील "न्तिआदि । तेन दानकथा ताव पचुरजनेसुपि पवत्तिया सब्बसाधारणत्ता, सुकरत्ता, सीले पतिट्ठानस्स उपायभावतो च आदितो कथेतब्बा। परिच्चागसीलो हि पुग्गलो परिग्गहितवत्थूसु निस्सङ्गभावतो सुखेनेव सीलानि समादियति, तत्थ च सुप्पतिट्ठितो होति । सीलेन दायकपटिग्गाहकसुद्ध परानुग्गहं वत्वा परपीळानिवत्तिवचनतो, किरियधम्मं वत्वा अकिरियधम्मवचनतो, भोगसम्पत्तिहेतुं वत्वा भवसम्पत्तिहेतुवचनतो च दानकथानन्तरं सीलकथा कथेतब्बा, तञ्चे दानसीलं वट्टनिस्सितं, अयं भवसम्पत्ति तस्स फलन्ति दस्सनत्थं इमेहि च दानसीलमयेहि पणीतपणीततरादिभेदभिन्नेहि पुञ्ञकरियवत्थूि एता चातुमहाराजिकादी पणीतपणीततरादिभेदभिन्ना अपरिमेय्या दिब्बभोगसम्पत्तियो लद्धब्बाति दस्सनत्थं तदनन्तरं सग्गकथा | स्वायं सग्गो रागादीहि उपक्किलिट्ठो, सब्बधानुपक्किलिट्ठो अरियमग्गोति दस्सनत्थं सग्गानन्तरं मग्गो कथेतब्बो । मग्गञ्च कथेन्तेन तदधिगमुपायसन्दस्सनत्थं सग्गपरियापन्नापि, पगेव इतरे सब्बेपि कामा नाम बह्वादीनवा अनिच्चा अद्भुवा विपरिणामधम्माति कामानं आदीनवो, हीना गम्मा पोथुज्जनिका अनरिया अनत्थ तेसं ओकारो लामकभावो, सब्बेपि भवा किलेसानं वत्थुभूताति तत्थ संकिलेसो, सब्बसंकिलेसविप्पमुत्तं निब्बानन्ति नेक्खम्मे आनिसंसो च कथेतब्बोति अयमत्थो बोधितोति वेदितब्बो | मग्गोति चेत्थ इति सद्देन आदिअत्थदीपनतो “कामानं आदीनवो"ति एवमादीनं
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गटीका
(३.२९९-२९९)
सङ्गहोति एवमयं अत्थवण्णना कताति वेदितब्बा। "तस्स उप्पत्तिआकारदस्सनत्थ"न्ति कस्मा वुत्तं, ननु मग्गजाणं असङ्घतधम्मारम्मणं, न सङ्घतधम्मारम्मणन्ति चोदनं सन्धायाह "तही"तिआदि । तत्थ पटिविज्झन्तन्ति असम्मोहपटिवेधवसेन पटिविज्झन्तं, तेनाह "किच्चवसेना"ति ।
पोक्खरसातिउपासकत्तपटिवेदनाकथावण्णना
२९९. एत्थ च "दिट्ठधम्मो"तिआदि पाळियं दस्सनं नाम आणदस्सनतो अझम्पि अस्थि, तन्निवत्तनत्थं “पत्तधम्मो''ति वुत्तं । पत्ति च जाणसम्पत्तितो अचम्पि विज्जतीति ततो विसेसदस्सनत्थं "विदितधम्मो"ति वुत्तं । सा पनेसा विदितधम्मता एकदेसतोपि होतीति निप्पदेसतो विदितभावं दस्सेतुं “परियोगाळ्हधम्मो"ति वुत्तं। तेनस्स सच्चाभिसम्बोधंयेव दीपेति । मग्गआणहि एकाभिसमयवसेन परिचादिकिच्चं साधेन्तं निप्पदेसेन चतुसच्चधम्मं समन्ततो ओगाळ्हं नाम होति, तेनाह "दिट्ठो अरियसच्चधम्मो एतेनाति दिट्ठधम्मो"ति । तिण्णा विचिकिच्छाति सप्पटिभयकन्तारसदिसा सोळसवत्थुका, अट्ठवत्थुका च तिण्णा वितिण्णा विचिकिच्छा। विगता कथङ्कथाति पवत्तिआदीसु । “एवं नु खो, न नु खो"ति एवं पवत्तिका विगता समुच्छिन्ना कथङ्कथा। वेसारज्जप्पत्तोति सारज्जकरानं पापधम्मानं पहीनत्ता, तप्पटिपक्खेसु च सीलादिगुणेसु सुप्पतिद्वितत्ता वेसारज्जं विसारदभावं वेय्यत्तियं पत्तो अधिगतो । सायं वेसारज्जप्पत्ति सुप्पतिट्टितभावोति कत्वा आह "सत्थुसासने"ति । अत्तना पच्चक्खतो दिठ्ठत्ता अधिगतत्ता न परं पच्चेति, न तस्स परो पच्चेतब्बो अत्थीति अपरप्पच्चयो। यं पनेत्थ वत्तब्ध अवुत्तं, तं परतो आगमिस्सति । सेसं सुविओय्यमेव ।
अम्बट्टसुत्तवण्णनाय लीनत्थप्पकासना।
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४. सोणदण्डसुत्तवण्णना
___३००. सुन्दरभावेन सातिसयानि अङ्गानि एतेसं अत्थीति अङ्गा, राजकुमाराति आह "अङ्गा नाम अङ्गपासादिकताया"तिआदि । इधापि अधिप्पेता, न अम्बट्ठसुत्ते एव । आगन्तुं न दस्सन्तीति आगमने आदीनवं दस्सेत्वा पटिक्खिपनवसेन आगन्तुं न दस्सन्ति, नानुजानिस्सन्तीति अधिप्पायो । नीलासोककणिकारकोविळारकुन्दराजरुक्खेहि सम्मिस्सताय तं चम्पकवनं "नीलादिपञ्चवण्णकुसुमपटिमण्डित"न्ति दट्ठब्बं । न चम्पकरुक्खानंयेव नीलादिपञ्चकुसुमतायाति वदन्ति । “भगवा कुसुमगन्धसुगन्धे चम्पकवने विहरती"ति इमिना न मापनकाले एव तस्मिं नगरे चम्पकरुक्खा उस्सन्ना, अथ खो अपरभागे पीति दस्सेति । मापनकाले हि चम्पकानं उस्सन्नताय सा नगरी "चम्पा''ति नामं लभि । इस्सरत्ताति अधिपतिभावतो। सेना एतस्स अस्थीति सेनिको, सेनिको एव सेनियो, अत्थिता चेत्थ बहुभावविसिट्ठाति वुत्तं "महतिया सेनाय समन्नागतत्ता"ति ।
३०१-२. संहताति सन्निपतिता, "सचिनो'"ति वत्तब्बे "सङ्घी"ति पुथुत्थे एकवचनं ब्राह्मणगहपतिकानं अधिप्पेतत्ता, तेनाह "एतेस"न्ति । राजराजञादीनं भण्डधरा पुरिसा खता, नेसं तायनतो खत्ता। सो हि येहि यस्थ पेसितो, तत्थ तेसं दोसं परिहरन्तो युत्तपत्तवसेन पुच्छितमत्थं कथेति, तेनाह "पुच्छितपन्हे ब्याकरणसमत्थो"ति । कुलापदेसादिना महती मत्ता एतस्साति महामत्तो।
सोणदण्डगुणकथावण्णना
३०३. विसिटुं रज्जं विरज्जं, विरज्जमेव वेरज्जं यथा “वेकतं वेसय"न्ति, नानाविधं वेरज्जं नानावेरजं, तत्थ जातातिआदिना सब्बं वुत्तनयेनेव वेदितब्बं ।
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२७८
दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गटीका
(४.३०३-३०३)
उत्तमब्राह्मणोति अभिजनसम्पत्तिया वित्तसम्पत्तिया विज्जासम्पत्तिया उग्गततरो, उळारो वा ब्राह्मणो । असन्निपातोति लाभमच्छरेन निप्पीळितताय असन्निपातो विय भविस्सति ।
“अङ्गेति गमेति आपेतीति अङ्गं, हेतूति आह "इमिनापि कारणेना"ति । “उभतो सुजातो"ति एत्तके वुत्ते येहि केहिचि द्वीहि भागेहि सुजातता विज्ञायेय्य । सुजात-सद्दो च "सुजातो चारुदस्सनो'"तिआदीसु (थेरगा० ८१८) आरोहसम्पत्तिपरियायोति जातिवसेनेव सुजाततं विभावेतुं “मातितो च पितितो चा"ति वुत्तं । अनोरसपुत्तवसेनापि लोके मातुपितुसम दिस्सति, इध पनस्स ओरसपुत्तवसेनेव इच्छिताति दस्सेतुं "संसुद्धगहणिको"ति वुत्तं। गब्भं गण्हाति धारेतीति गहणी, गब्भासयसञ्जितो मातुकुच्छिप्पदेसो। यथाभुत्तस्स आहारस्स विपाचनवसेन गण्हनतो अछड्डनतो गहणी, कम्मजतेजोधातु ।
पिता च माता च पितरो, पितूनं पितरो पितामहा, तेसं युगो द्वन्दो पितामहयुगो, तस्मा, याव सत्तमा पितामहयुगा पितामहद्वन्दाति एवमेत्थ अत्थो दट्ठब्बो। एवञ्हि पितामहग्गहणेनेव मातामहोपि गहितोति । सो अट्ठकथायं विसुं न उद्धटो । युग-सद्दो चेत्थ एकसेसनयेन दट्ठब्बो "युगो च युगो च युगा''ति । एवहि तत्थ तत्थ द्वन्दं गहितमेव होति, तेनाह "ततो उद्धं सब्बेपि पुब्बपुरिसा पितामहग्गहणेनेव गहिता"ति । पुरिसग्गहणञ्चेत्थ उक्कट्ठनिद्देसवसेन कतन्ति दट्टब्बं । एवहि “मातितो''ति पाळिवचनं समत्थितं होति । अक्खित्तोति अप्पत्तखेपो। अनवखित्तोति सद्धथालिपाकादीसु न अवक्खित्तो न छड्डितो। जातिवादेनाति हेतुम्हि करणवचनन्ति दस्सेतुं "केन कारणेना"तिआदि वुत्तं । एत्थ च “उभतो...पे०... पितामहयुगा"ति एतेन ब्राह्मणस्स योनिदोसाभावो दस्सितो संसुद्धगहणिकभावकित्तनतो, “अक्खित्तो"ति इमिना किरियापराधाभावो । किरियापराधेन हि सत्ता खेपं पापुणन्ति । “अनुपक्कुट्ठो"ति इमिना अयुत्तसंसग्गाभावो । अयुत्तसंसग्गम्पि हि पटिच्च सत्ता अक्कोसं लभन्ति ।
इस्सरोति आधिपतेय्यसंवत्तनियकम्मबलेन ईसनसीलो, सा पनस्स इस्सरता विभवसम्पत्तिपच्चया पाकटा जाताति अड्डतापरियायभावेनेव वदन्तो "अड्डोति इस्सरो"ति आह । महन्तं धनं अस्स भूमिगतञ्चेव वेहास?ञ्चाति महद्धनो। तस्साति तस्स तस्स । वदन्ति “अन्वयतो, ब्यतिरेकतो च अनुपसङ्कमनकारणं कित्तेमा''ति ।
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(४.३०३-३०३)
सोणदण्डगुणकथावण्णना
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अधिकरूपोति विसिट्ठरूपो उत्तमसरीरो। दस्सनं अरहतीति दस्सनीयो, तेनाह "दस्सनयोग्गो"ति। पसादं आवहतीति पासादिको, तेनाह "चित्तप्पसादजननतो'ति । वण्णस्साति वण्णधातुया । सरीरन्ति सन्निवेसविसिटुं करचरणगीवासीसादिअवयवसमुदायं, सो च सण्ठानमुखेन गव्हतीति “परमाय वण्णपोक्खरतायाति...पे०... सम्पत्तिया चा"ति वुत्तं । सब्बवण्णेसु सुवण्णवण्णोव उत्तमोति वुत्तं "सेटेन सुवण्णवण्णेन समन्नागतो"ति । तथा हि बुद्धा, चक्कवत्तिनो च सुवण्णवण्णाव होन्ति । ब्रह्मवच्छसीति उत्तमसरीराभो, सुवण्णाभो इच्चेव अत्थो । इममेव हि अत्थं सन्धाय "महाब्रह्मनो सरीरसदिसेनेव सरीरेन समत्रागतो"ति वुत्तं, न ब्रह्मजुगत्ततं । अखुद्दावकासो दस्सनायाति आरोहपरिणाहसम्पत्तिया, अवयवपारिपूरिया च दस्सनाय ओकासो न खुद्दको, तेनाह "सब्बानेवा"तिआदि ।
____ यमनियमलक्खणं सीलमस्स अत्थीति सीलवा। तं पनस्स रत्तञ्जताय वुद्धं वहितं अस्थीति वुद्धसीली। तेन च सब्बदा सम्मायोगतो बुद्धसीलेन समनागतो। सबमेतं पञ्चसीलमत्तमेव सन्धाय वदन्ति ततो परं सीलस्स तत्थ अभावतो, तेसञ्च अजाननतो ।
ठानकरणसम्पत्तिया, सिक्खासम्पत्तिया च कत्थचिपि अनूनताय परिमण्डलपदानि ब्यञ्जनानि अक्खरानि एतिस्साति परिमण्डलपदव्यञ्जना। अथ वा पज्जति अत्थो एतेनाति पदं, नामादि । यथाधिप्पेतमत्थं ब्यञ्जतीति ब्यञ्जनं, वाक्यं । तेसं परिपुण्णताय परिमण्डलपदव्यञ्जना। अत्थञापने साधनताय वाचाव करणन्ति वाक्करणं, उदाहारघोसो । गुणपरिपुण्णभावेन तस्स ब्राह्मणस्स, तेन वा भासितब्बअत्थस्स । पूरे पुण्णभावे । पूरेति च पुरिमस्मिं अत्थे आधारे भुम्म, दुतियस्मिं विसये। "सुखुमालत्तनेना"ति इमिना तस्सा वाचाय मुदुसण्हभावमाह । अपलिबुद्धाय पित्तसेम्हादीहि । सन्दिटुं सब्बं दस्सेत्वा विय एकदेसं कथनं । विलम्बितं सणिकं चिरायित्वा कथनं । “सन्दिद्धविलम्बितादी''ति वा पाठो । तत्थ सन्दिद्धं सन्देहजनकं । आदि-सद्देन दुक्खलितानुकड्डितादिं सङ्गण्हाति । "आदिमज्झपरियोसानं पाकटं कत्वा"ति इमिना तस्सा वाचाय अत्थपारिपूरिं वदन्ति |
__"जिण्णो"तिआदीनि पदानि सुविद्येय्यानि, हेट्ठा वुत्तत्थानि च। दुतियनये पन जिण्णोति नायं जिण्णता वयोमत्तेन, अथ खो कुलपरिवठून पुराणताति आह “जिण्णोति पोराणो"तिआदि, तेन तस्स ब्राह्मणस्स कुलवसेन उदितोदितभावमाह । जातिवुद्धिया "वयोअनुप्पत्तो''ति वक्खमानत्ता, गुणवुद्धिया ततो सातिसयत्ता च "बुद्धोति सीलाचारादिगुणवुद्धिया युत्तो"ति आह । तथा जातिमहल्लकताय वक्खमानत्ता
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गटीका
(४.३०४-३०४)
"महल्लको"ति पदेन विभवमहत्तता योजिता । मग्गपटिपन्नोति ब्राह्मणानं पटिपत्तिवीथिं उपगतो तं अवोक्कम्म चरणतो । अन्तिमवयन्ति पच्छिमवयं ।
बुद्धगुणकथावण्णना ३०४. तादिसेहि महानुभावेहि सद्धिं युगग्गाहवसेनपि दहनं न मादिसानं अनुच्छविकं, कुतो पन उक्कंसनन्ति इदं ब्राह्मणस्स न युत्तरूपन्ति दस्सेन्तो आह “न खो पन मेतं युत्त"न्तिआदि | सदिसाति एकदेसेन सदिसा । न हि बुद्धानं गुणेहि सब्बथा सदिसा केचिपि गुणा अओसु लब्भन्ति । इतरेति अत्तनो गुणेहि असदिसगुणे। इदन्ति इदं अत्थजातं । गोपदकन्ति गाविया पदे ठितउदकं ।
सद्विकुलसतसहस्सन्ति सट्ठिसहस्साधिकं कुलसतसहस्सं कुलपरियायेनाति सुद्धोदनमहाराजस्स कुलानुक्कमेन आगतं। तेसुपीति तेसुपि चतूसु निधीसु । गहितगहितन्ति गहितं गहितं ठानं पूरतियेव धनेन पटिपाकतिकमेव होति । अपरिमाणोयेवाति “एत्तको एसो''ति केनचि परिच्छिन्दितुं असक्कुणेय्यताय अपरिच्छिन्नो एव ।
तत्थाति मञ्चके । सीहसेय्यं कप्पेसीति यथा राहु असुरिन्दो आयामतो, वित्थारतो उब्बेधतो च भगवतो रूपकायस्स परिच्छेदं गहेतुं न सक्कोति, तथा रूपं इद्धाभिसङ्घारं अभिसङ्घरोन्तो सीहसेय्यं कप्पेसि ।
किलेसेहि आरकत्ता परिसुद्धटेन अरियन्ति आह "अरियं उत्तम परिसुद्ध"न्ति । अनवज्जठून कुसलं, न सुखविपाकट्ठेन । कत्थचि चतुरासीतिपाणसहस्सानि, कत्थचि अपरिमाणापि देवमनुस्सा यस्मा चतुवीसतिया ठानेसु असङ्ख्येय्या अपरिमेय्या देवमनुस्सा मग्गफलामतं पिविंसु, कोटिसतसहस्सादिपरिमाणेनपि बहू एव, तस्मा अनुत्तराचारसिक्खापनवसेन भगवा बहूनं आचरियो। तेति कामरागतो अछे भगवतो पहीनकिलेसे । केळनाति केळायना धनायना ।।
अपापपुरेक्खारोति अपापे पुरे करोति, न वा पापं पुरतो करोतीतिपि अपापपुरेक्खारोति इममत्थं दस्सेतुं “अपापे नवलोकुत्तरधम्मे"तिआदि वुत्तं । तत्थ अपापेति पापपटिपक्खे, पापरहिते च। ब्रह्मनि सेटे बुद्धे भगवति भवा तस्स धम्मदेसनावसेन
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( ४.३०५ - ३०५ )
बुद्धगुणकथावण्णना
ब्रह्मनो
वा
जातत्ता, च, ब्रह्मं
अरियाय जातिया भगवतो हिता गरुकरणादिना, यथानुसिट्ठपटिपत्तिया वा सेट्टं अरियमग्गं जानातीति ब्रह्मञ, अरियसावकसङ्घाता तेनाह " सारिपुत्ता" तिआदि । पकतिब्राह्मणजातिवसेनापि "ब्रह्मञ्ञाय पजाया ''ति पदस्स अत्थो वेदितब्बोति दस्सेतुं “अपिचा" तिआदि वृत्तं ।
पजा,
तिरोरट्ठा तिरोजनपदाति एत्थ रज्जं रट्ठ, राजन्ति राजानो एतेनाति, तदेकदेसभूता पदेसा पन जनपदो, जना पज्जन्ति एत्थ सुखजीविकं पापुणन्तीति । पुच्छाय वा दोसं सल्लक्खेत्वाति सम्बन्धो । असमत्थतन्ति अत्तनो असमत्थतं । भगवा विस्सज्जेति तेसं उपनिस्सयसम्पत्तिं, आणपरिपाकं, चित्ताचारञ्च ञत्वाति अधिप्पायो ।
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" एहि स्वागतवादी "ति इमिना सुखसम्भासपुब्बकं पियवादितं दस्सेति, “सखिलो "ति इमिना सण्हवाचतं, " सम्मोदको "ति इमिना पटिसन्धारकुसलतं, "अभाकुटिको "ति इमिना सब्बत्थेव विप्पसन्नमुखतं, "उत्तानमुखो "ति इमिना सुखालापतं, “पुब्बभासी " ति इमिना धम्मानुग्गहस्स ओकासकरणतो हितज्झासयतं भगवतो विभावेति ।
यत्थ किराति किर- सद्दो अरुचिसूचनत्थो, तेन भगवता अधिवुत्थपदेसे न देवतानुभावेन मनुस्सानं अनुपद्दवता, अथ खो बुद्धानुभावेनाति दस्सेति । तेनाह "अपिचा" तिआदि ।
अनुसासितब्बोति विनेय्यजनसमूहो गय्हतीति निब्बत्तितं अरियसङ्घमेव दस्सेतुं “ सयं वा 'तिआदि वृत्तं, अनन्तरस्स विधि पटिसेधो वाति कत्वा । "तादिसोवा " ति इमिना “ सयं वा 'तिआदिना वृत्तविकप्पो एव पच्चामट्ठोति । " पुरिमपदस्सेव वा "ति विकप्पन्तरग्गहणं । बहूनं तित्थकरानन्ति पूरणादीनं अनेकेसं तित्थकरानं, निद्धारणे चेतं सामिवचनं । कारणेनाति अप्पिच्छसन्तुट्टतादिसमारोपनलक्खणेन कारणेन । आगन्तुका नवकाति अभिनवा आगन्तुका अब्भागता । परियापुणामीति परिच्छिन्दितुं जानामि सक्कोमि, तेनाह " जानामी "ति । " कप्पम्पि चे अञ्ञमभासमानोति अभूतपरिकप्पनवचनमेतं तथा भासमानस्स अभावतो ।
३०५. अलं-सद्दो अरहत्तोपि होति “ अलमेव निब्बिन्दितु ''न्तिआदीसु (सं० नि०
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गटीका
१.१२४) वियाति आह “ अलमेवाति युत्तमेवा "ति । पुटेन नेत्वा असितब्बतो परिभुञ्जितब्बतो पुटोसं वुच्चति पाथेय्यं । पुटंसेन पुरिसेन ।
सोणदण्डपरिवितक्कवण्णना
३०७. उभतोपक्खिकाति मिच्छादिट्ठिसम्मादिट्ठीनं वसेन उभयपक्खिका । केराटिकाति
सठा ।
ब्राह्मणपञ्ञत्तिवण्णना
३०९. विघातन्ति चित्तदुक्खं ।
३११-३. सुजन्ति होमदब्बिं पग्गहन्तेसूति जुहनत्थं गण्हनकेसु, इरुब्बिज्जेसूति अत्थो । पठमो वाति तत्थ सन्निपतितेसु यजनकिरियायं सब्बपधानो वा । दुतियो वात तदनन्तरो वा । “सुज" न्ति करणे एतं उपयोगवचनन्ति आह " सुजाया" ति । अग्गिहुत्तपमुखताय यञ्ञस्स यञ्ञे दिय्यमानं सुजामुखेन दीयतीति आह “ सुजाय दिय्यमान "न्ति । पोराणाति अट्ठकथाचरिया । विसेसतोति विज्जाचरणविसेसतो, न ब्राह्मणेहि इच्छितविज्जाचरणमत्ततो । उत्तमब्राह्मणस्साति अनुत्तरदक्खिणेय्यताय उक्कट्ठब्राह्मणस्स । ब्राह्मणसमयन्ति ब्राह्मणसिद्धन्तं । मा भिन्दि मा विनासेसि ।
( ४.३०७ - ३१७)
३१६. समसमोति समोयेव हुत्वा समो । हीनोपमवसेनपि समता वुच्चतीति तं निवत्तेन्तो “ ठपेत्वा एकदेससमत्त "न्ति आदिमाह । कुलकोटिपरिदीपनन्ति कुलआदिपरिदीपनं अथापि सियति अथापि तुम्हाकं एवं परिवितक्को सिया । ब्राह्मणभावं साधेति वण्णो । मन्तजातीसुपि एसेव नयो । सीलमेव साधेस्सति ब्राह्मणभावं । कस्माति चे ? आह " तस्मिञ्हिस्सा ''तिआदि । सम्मोहमत्तं वण्णादयोति वण्णमन्तजातियो हि ब्राह्मणभावस्स अङ्गन्ति सम्मोहमत्तमेतं असमवेक्खिताभिमानभावतो ।
सीलपञ्ञकथावण्णना
३१७. कथितो ब्राह्मणेन पञ्होति "सीलवा च होती "तिआदिना द्विन्नमेव अङ्गानं
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(४.३१८-३२१-२)
सोणदण्डउपासकत्तपटिवेदनाकथावण्णना
२८३
वसेन यथापुच्छितो पञ्हो याथावतो विस्सज्जितो एत्थाति एतस्मिं यथाविस्सज्जिते अत्थे । तस्साति सोणदण्डस्स । सीलपरिसुद्धाति सीलसम्पत्तिया सब्बसो सुद्धा अनुपक्किलिट्ठा । कुतो दुस्सीले पञ्जा असमाहितत्ता तस्स । जळे एळमूगे कुतो सीलन्ति जळे एळमूगे दुप्पछे कुतो सीलं सीलविभागस्स, सीलपरिसोधनूपायस्स च अजाननतो। पकड़ें उक्कडं जाणं पाणन्ति, पाकतिकं आणं निवत्तेतुं “पाण"न्ति वुत्तन्ति तयिदं पकारेहि जाननतो पा'वाति आह "पञआणन्ति पञ्जा येवा'ति ।
सीलेनधोताति समाधिपदट्ठानेन सीलेन सकलसंकिलेसमलविसुद्धिया धोता विसुद्धा, तेनाह "कथं पना"तिआदि । तत्थ धोवतीति सुज्झति । महासहिवस्सत्थेरो वियाति सट्ठिवस्समहाथेरो विय । वेदनापरिग्गहमत्तम्पीति एत्थ वेदनापरिग्गहो नाम यथाउप्पन्नं वेदनं सभावरसतो उपधारेत्वा "अयं वेदना फस्सं पटिच्च, सो फस्सो अनिच्चो दुक्खो विपरिणामधम्मो "ति लक्खणत्तयं आरोपेत्वा पवत्तितविपस्सना । एवं विपस्सन्तेन "सुखेन सक्का सा वेदना अधिवासेतुं “वेदना एव वेदियतीति । वेदनं विक्खम्भेत्वाति यथाउप्पन्नं दुक्खं वेदनं अननुवत्तित्वा विपस्सनं आरभित्वा वीथिं पटिपन्नाय विपस्सनाय तं विनोदेत्वा । संसुमारपतितेनाति कुम्भीलेन विय भूमियं उरेन निपज्जनेन । पञ्जाय सीलं धोवित्वाति अखण्डादिभावापादनेन सीलं आदिमज्झपरियोसानेसु पञ्जाय सुविसोधितं कत्वा।
३१८. "कस्मा आहा"ति उपरिदेसनाय कारणं पुच्छति । लज्जा नाम “सीलस्स जातिया च गुणदोसपकासनेन समणेन गोतमेन पुच्छितपऽहं विस्सज्जेसी"ति परिसाय पञातता । एत्तकपरमाति एत्तकटक्कंसकोटिका पञ्च सीलानि, वेदत्तयविभावनं पञञ्च लक्खणादितो निद्धारेत्वा जाननं नत्थि, केवलं तत्थ वचीपरमा मयन्ति दस्सेतीति आह "सीलपञआणन्ति वचनमेव परमं अम्हाक"न्ति । “अयं पन विसेसो"ति इदं निय्यातनापेक्खं सीलनिद्देसे, तेनाह "सीलमिच्चेव निय्यातित"न्ति । सामञफले पन “सामञफल" मिच्चेव निय्यातितं, पञानिद्देसे पन झानपनं अधिट्ठानं कत्वा विपस्सनापञ्जावसेनेव पञानिय्यातनं कतं, तेनाह "पठमज्झानादीनी"ति ।
सोणदण्डउपासकत्तपटिवेदनाकथावण्णना ३२१-२. नत्ताति पुत्तपुत्तो। अगारवं नाम नत्थि, न चायं भगवति अगारवेन
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गटीका
(४.३२१-२-३२१-२)
“अहञ्चेव खो पना"तिआदिमाह, अथ खो अत्तलाभपरिहानिभयेन । अयहि यथा तथा अत्तनो महाजनस्स सम्भावनं उप्पादेत्वा कोहओन परे विम्हापेत्वा लाभुप्पादं निजिगिसन्तो विचरति, तस्मा तथा अवोच, तेनाह "इमिना किरा"तिआदि ।
तङ्क्षणानुरूपायाति यादिसी तदा तस्स अज्झासयप्पवत्ति, तदनुरूपायाति अत्थो । तस्स तदा तादिसस्स विवट्टसन्निस्सितस्स आणस्स परिपाकस्स अभावतो केवलं अब्भुदयनिस्सितो एव अत्थो दस्सितोति आह "दिट्ठधम्मिकसम्परायिकमत्थं सन्दस्सेत्वा"ति, पच्चक्खतो विभावेत्वाति अत्थो । कुसले धम्मेति तेभूमके कुसले धम्मे, “चतुभूमके''तिपि वत्तुं वट्टतियेव, तेनेवाह "आयतिं निब्बानत्थाय वासनाभागिया वाति । तत्थाति कुसलधम्मे यथा समादपिते । नन्ति ब्राह्मणं समुत्तेजेत्वाति सम्मदेव उपरूपरि निसानेत्वा पुञ्जकिरियाय तिक्खविसदभावं आपादेत्वा । तं पन अत्थतो तत्थ उस्साहजननं होतीति आह "सउस्साह कत्वा"ति । एवं पुञ्जकिरियाय सउस्साहता, एवरूपं गुणसमङ्गिता च नियमतो दिठ्ठधम्मिका अत्थसम्पादनीति एवं सउस्साहताय, अजेहि च तस्मिं विज्जमानगुणेहि सम्पहंसेत्वा सम्मदेव हट्ठतुट्ठभावं आपादेत्वा ।
यदि भगवा धम्मरतनवस्सं वस्सि, अथ कस्मा सो विसेसं नाधिगच्छतीति आह "ब्राह्मणो पना"तिआदि | यदि एवं कस्मा भगवा तस्स तथा धम्मरतनवस्सं वस्सीति आह "केवलमस्सा"तिआदि । न हि भगवतो निरत्थका देसना होतीति ।
सोणदण्डसुत्तवण्णनाय लीनत्थप्पकासना।
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५. कूटदन्तसुत्तवण्णना
३२३. पुरिमसुत्तद्वयेति अम्बट्ठसोणदण्डसुत्तद्वये । वुत्तनयमेवाति यं तत्थ आगतसदिसं इधागतं तं अत्थवण्णनतो वुत्तनयमेव, तत्थ वुत्तनयेनेव वेदितब्बन्ति अत्थो । “तरुणो अम्बरुक्खो अम्बलट्ठिका"ति (दी० नि० अट्ठ० १.२) ब्रह्मजालसुत्तवण्णनायं वुत्तन्ति आह “अम्बलट्ठिका ब्रह्मजाले वुत्तसदिसावा"ति ।
यावाट सम्पादेत्वा महायचं उद्दिस्स सविाणकानि, अविज्ञाणकानि च यञ्जूपकरणानि उपट्ठपितानीति वुत्तं पाळियं “महायो उपक्खटो"ति, तं उपक्खरणं तेसं तथासज्जनन्ति आह "उपक्खटोति सज्जितो"ति । वच्छतरसतानीति युवभावप्पत्तानि बलववच्छसतानि, ते पन वच्छा एव होन्ति, न दम्मा बलिबद्दा चाति आह "वच्छसतानी"ति । एतेति उसभादयो उरब्भपरियोसाना। अनेकेसन्ति अनेकजातिकानं । सङ्ख्यावसेन अनेकता सत्तसतग्गहणेनेव परिच्छिन्ना | मिगपक्खीनन्ति महिंसरुरुपसदकुरुङ्गगोकण्ण-मिगानञ्चेव मोरकपिञ्जरतित्तिरकपोतादिपक्खीनञ्च ।
.३२८. यसङ्घातस्स पुञस्स यो संकिलेसो, तस्स निवारणतो निसेधनतो विधा वुच्चन्ति विप्पटिसारविनोदना । ततो एव ता तं पुञाभिसन्दं अविच्छिन्दित्वा ठपेन्तीति "ठपना"ति वुत्ता। तासं पन यञस्स आदिमज्झपरियोसानवसेन तीसु कालेसु पवत्तिया यो तिठ्ठपनोति आह "तिद्वपनन्ति अत्थो"ति। परिक्खरोन्ति अभिसङ्घरोन्तीति परिक्खारा, परिवाराति वुत्तं । “सोळसपरिक्खारन्ति सोळसपरिवार"न्ति ।
महाविजितराजयञकथावण्णना ३३६. पुब्बचरितन्ति अत्तनो पुरिमजातिसम्भूतं बोधिसम्भारभूतं पुचचरियं । तथा
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गटीका
(५.३३७-८-३३७-८)
हिस्स अनुगामिनोव निधिस्स थावरो निधि निदस्सितो। अड्डता नाम विभवसम्पन्नता, सा तं तं उपादायुपादाय वुच्चतीति आह “यो कोचि अत्तनो सन्तकेन विभवेन अड्डो होती"ति । तथा महद्धनतापीति तं उक्कंसगतं दस्सेतुं "महता अपरिमाणसङ्ख्येन धनेन समनागतो"ति वुत्तं । भुजितब्बतो परिभुजितब्बतो विसेसतो कामा भोगो नामाति आह "पञ्चकामगुणवसेना"ति। पिण्डपिण्डवसेनाति भाजनालङ्कारादिविभागं अहुत्वा केवलं खण्डखण्डवसेन ।
मासकादीति आदि-सद्देन थालकादिं सङ्गण्हाति। भाजनादीति आदि-सद्देन वत्थसेय्यावसथादि सङ्गण्हाति । सुवण्णरजतमणिमुत्तावेळुरियवजिरपवाळानि "सत्तरतनानी"ति वदन्ति । सालिवीहिआदि पुब्बण्णं पुरक्खतंसस्सफलन्ति कत्वा । तब्बिपरियायतो मुग्गमासादि अपरण्णं। देवसिकं...पे०... वसेनाति दिवसे दिवसे परिभुजितब्बदातब्बवड्वेतब्बादिविधिना परिवत्तनकधनधञवसेन ।
कोठं वुच्चति धस्स आठपनट्ठानं, कोट्ठभूतं अगारं कोडागारं तेनाह "धञ्जन...पे०... गारो चा"ति । एवं सारगब्भं "कोसो''ति, धस्स आठपनट्ठानञ्च "कोट्रागार"न्ति दस्सेत्वा इदानि ततो अञथा तं दस्सेतं “अथ वा"तिआदि वृत्तं । तत्थ यथा असिनो तिक्खभावपरिहारतो परिच्छदो "कोसो"ति वुच्चति, एवं रो तिक्खभावपरिहरणत्ता चतुरङ्गिनी सेना “कोसो''ति आह "चतुब्बिधो कोसो हत्थी अस्सा रथा पत्ती"ति | "वत्थकोट्ठागारग्गहणेनेव सब्बस्सापि भण्डट्टपनट्ठानस्स गहितत्ता तिविधं कोट्ठागारन्ति वुत्तं । "इदं एवं बहु"न्तिआदि राजा तमत्थं जानन्तोव भण्डागारिकेन कथापेत्वा परिसाय निस्सद्दभावापादनत्थञ्च आह एवं मे पकतिक्खोभो न भविस्सतीति ।
३३७-८. ब्राह्मणो चिन्तेसि जनपदस्स चिरानुपवत्तनत्थञ्च, तेनाह “अयं राजा''तिआदि ।
अनुपद्दवत्थञ्चेव यचस्स च
सत्तानं हितस्स सुखस्स च विदूसनतो अहितस्स दुक्खस्स च आवहनतो चोरा एव कण्टका, तेहि चोरकण्टकेहि। यथा गामवासीनं घाता गामघाता, एवं पन्थिकानं दुहना विबाधना पन्थदुहना। अधम्मकारीति धम्मतो अपेतस्स अयुत्तस्स करणसीलो, अत्तनो विजिते जनपदादीनं ततो अनत्थतो तायनेन खत्तियो यो खत्तधम्मो, तस्स वा अकरणसीलोति अत्थो । दस्सवो एव खीलसदिसत्ता दस्सुखीलं। यथा हि खेत्ते खीलं कसनादीनं
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(५.३३९-३३९)
चतुपरिक्खारवण्णना
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सुखप्पवत्तिं, मूलसन्तानेन सस्सस्स बुद्धिञ्च विबन्धति, एवं दस्सवो रज्जे राजाणाय सुखप्पवत्तिं, मूलविरुळ्हिया जनपदानं परिबुद्धिञ्च विबन्धन्ति । तेन वृत्तं "दस्सवो एव खीलसदिसत्ता दस्सुखील"न्ति । वध-सद्दो हिंसनत्थोपि होतीति वुत्तं "मारणेन वा कोट्टनेन वा"ति | अहबन्धनादिनाति आदि-सट्टेन रज्जबन्धनसङ्कलिकबन्धनादि सङ्गण्हाति । जानियाति धनजानिया, तेनाह “सतं गण्हथा"तिआदि । पञ्चसिखमुण्डकरणन्ति काकपक्खकरणं । गोमयसिञ्चनन्ति सीसे छकणोदकावसेचनं । कुदण्डकबन्धनन्ति गद्दुलबन्धनं । एवमादीनीति आदि-सद्देन खुरमुण्डं करित्वा भस्मपुटपोथनादिं सङ्गण्हाति । ऊहनिस्सामीति उद्धरिस्सामि, अपनेस्सामीति अत्थो । उस्सहन्तीति पुब्बे तत्थ कतपरिचयताय उस्साहं कातुं सक्कोन्ति । अनुप्पदेतूति अनु अनु पदेतु, तेनाह "दिने अप्पहोन्ते"तिआदि । सक्खिकरणपण्णारोपनानि वड्डिया सह वा विना वा पुन गहेतुकामस्स, इध पन तं नत्थीति आह "सक्खिं अकत्वा"तिआदि, तेनाह "मूलच्छेज्जवसेना"ति । पकारतो भण्डानि आभरति सम्भरति परिचयति एतेनाति पाभतं, भण्डमूलं ।
दिवसे दिवसे दातब्बभत्तं देवसिकभत्तं । “अनुमासं, अनुपोसथ"न्तिआदिना दातब्ब वेतनं मासिकादिपरिब्बयं। तस्स तस्स कुलानुरूपेन कम्मानुरूपेन सूरभावानुरूपेनाति पच्चेकं अनुरूप-सद्दो योजेतब्बो। सेनापच्चादि ठानन्तरं। सककम्मपसुतत्ता, अनुपद्दवत्ता च धनधानं रासिको रासिकारभूतो। खेमेन ठिताति अनुपद्दवेन पवत्ता, तेनाह "अभया"ति, कुतोचिपि भयरहिताति अत्थो ।
चतुपरिक्खारवण्णना
३३९. तस्मिं तस्मिं किच्चे अनुयन्ति अनुवत्तन्तीति अनुयन्ता, अनुयन्ता एव आनुयन्ता यथा “अनुभावो एव आनुभावो''ति । अस्साति रो। तेति आनुयन्तखत्तियादयो। अत्तमना न भविस्सन्ति “अम्हे एत्थ बहि करोती''ति । निबन्धविपुलागमो गामो निगमो, विवड्डितमहाआयो महागामोति अत्थो । जनपद-सद्दो हेट्ठा वुत्तत्थो एव । छन्नं पकतीनं वसेन रञो हितसुखाभिबुद्धि, तदेकदेसा च आनुयन्तादयोति वुत्तं "यं तुम्हाकं अनुजाननं मम भवेय्य दीघरत्तं हिताय सुखाया'ति ।
अमा सह भवन्ति किच्चेसूति अमच्चा, रज्जकिच्चवोसासनका । ते पन रओ पिया, सहपवत्तनका च होन्तीति आह "पियसहायका"ति । रञो परिसति भवाति
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२८८
दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गटीका
(५.३४०-३४०)
पारिसज्जा, ते पन केति आह "सेसा आणत्तिकरा"ति, यथावुत्तआनुयन्तखत्तियादी हि अवसेसा रञो आणाकराति अत्थो। सतिपि देय्यधम्मे आनुभावसम्पत्तिया, परिवारसम्पत्तिया च अभावे तादिसं दातुं न सक्का, वुड्डकाले च तादिसानम्पि राजूनं तदुभयं हायतेवाति आह "महल्लककाले...पे०... न सक्का"ति । अनुमतियाति अनुजाननेन, पक्खाति सपक्खा यज्ञस्स अङ्गभूता । परिक्खरोन्तीति परिक्खारा, सम्भारा । इमे तस्स यञस्स अङ्गभूता परिवारा विय होन्तीति आह "परिवारा भवन्तीति ।
अट्ठपरिक्खारवण्णना
३४०. यससाति आनुभावेन, तेनाह "आणाठपनसमत्थताया"ति । सद्दहतीति “दाता दानस्स फलं पच्चनुभोती"ति पत्तियायति । दाने सूरोति दानसूरो देय्यधम्मे ईसकम्पि सङ्गं अकत्वा मुत्तचागो। स्वायमत्थो कम्मस्सकताणस्स तिक्खविसदभावेन वेदितब्बो, तेनाह "न सद्धामत्तकेनेवा"तिआदि । यस्स हि कम्मस्सकता पच्चक्खतो विय उपट्ठाति, सो एवं वुत्तो। यं दानं देतीति यं देय्यधम्मं परस्स देति । तस्स पति हुत्वाति तब्बिसयं लोभं सुट्ठ अभिभवन्तो तस्स अधिपति हुत्वा देति अनधिभवनीयत्ता । “न दासो, न सहायोति वत्वा तदुभयं अन्वयतो, ब्यतिरेकतो च दस्सेतुं “यो ही"तिआदि वुत्तं । दासो हुत्वा देति तण्हाय दानस्स दासब्यतं उपगतत्ता। सहायो हुत्वा देति तस्स पियभावानिस्सज्जनतो । सामी हुत्वा देति तत्थ तण्हादासब्यतो अत्तानं मोचेत्वा अभिभुय्य पवत्तनतो । सामिपरिभोगसदिसा हेतस्सायं पवत्ततीति ।
समितपापा समणा, बाहितपापा ब्राह्मणा उक्कट्ठनिद्देसेन, पब्बज्जामत्तसमणा जातिमत्तब्राह्मणा पन कपणादिग्गहणेनेवेत्थ गहिताति अधिप्पायो । दुग्गताति दुक्करजीविकं उपगता कसिरवुत्तिका, तेनाह "दलिद्दमनुस्सा"ति । अधिकाति अद्धानमग्गगामिनो । वणिब्बकाति दायकानं गुणकित्तनवसेन, कम्मफलकित्तनमुखेन च याचनका सेय्यथापि नग्गचरियादयो, तेनाह "इ8 दिन"न्तिआदि । “पसतमत्त"न्ति वीहितण्डुलादिवसेन वुत्तं, "सरावमत्त"न्ति यागुभत्तादिवसेन । ओपानं वुच्चति ओगाहेत्वा पातब्बतो नदितळाकादीनं सब्बसाधारणतित्थं ओपानं विय भूतोति ओपानभूतो, तेनाह "उदपानभूतो"तिआदि । सुतमेव सुतजातन्ति जात-सद्दस्स अनत्थन्तरवाचकतमाह यथा “कोसजात"न्ति ।
अतीतादिअत्थचिन्तनसमत्थता नामस्स रञो अनुमानवसेन, इतिकत्तब्बतावसेन च
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चतुपरिक्खारादिवण्णना
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वेदितब्बा, न बुद्धानं विय तत्थ पच्चक्खदस्सितायाति दस्सेतुं “ अतीते "तिआदि वृत्तं । अड्डतादयो ताव यञ्ञस्स परिक्खारा होन्तु तेहि विना तस्स असिज्झनतो, सुजातता सुरूपता पन कथन्ति आह " एतेहि किरा "तिआदि । एत्थ च केचि "यथा अड्डादयो यञ्ञस्स एकंसतो अङ्गानि, न एवमभिजातता, अभिरूपता चाति दस्सेतुं किरसद्दग्गहण'न्ति वदन्ति " अयं दुज्जातो "तिआदि वचनस्स अनेकन्तिकतं मञ्ञमाना, तयिदं असारं, सब्बसाधारणवसेन हेस यञ्ञारम्भो तत्थ सिया केसञ्चि तथापरिवितक्कोति तस्सापि अवकासाभावादस्सनत्थं तथा वुत्तत्ता । किर - सद्दो पन तदा ब्राह्मणेन चिन्तिताकारसूचनत्थो दट्ठब्बो । एवमादीनीति आदि- सद्देन " अयं विरूपो दलिद्दो अप्पेसक्खो अस्सद्धो अप्पस्सुतो अनत्थञ्ञू न मेधावी "ति एतेसं सङ्गहो दट्ठब्बो ।
(५.३४१-३४२)
चतुपरिक्खारादिवण्णना
३४१. “सुजं पग्गण्हन्तान "न्ति पुरोहितस्स सयमेव कटच्छुग्गहणजोतनेन एवं सहत्था, सक्कच्चञ्च दाने युत्तता इच्छितब्बाति दस्सेति । एवं दुज्जातसाति एथापि ट्ठा वृत्तनयेनेव अत्थो वेदितब्बो ।
३४२. तिणं ठानानन्ति दानस्स आदिमज्झपरियोसानभूतासु तीसु भूमीसु, अवत्थासूति अत्थो । चलन्तीति कम्पन्ति पुरिमाकारेन न तिट्ठन्ति । करणत् ततियाविभत्तिअत्थे । कत्तरि हेतं सामिवचनं करणीयसद्दापेक्खाय । " पच्चानुतापो न कत्तब्बो "ति वत्वा तस्स अकरणूपायं दस्सेतुं “पुब्बचेतना पन अचला पतिट्ठपेतब्बा वृत्तं । तत्थ अचलाति दहा केनचि असंहीरा । पतिट्ठपेतब्बाति सुपतिट्ठिता काब्बा । एवं करणेन हि यथा तं दानं सम्पति यथाधिप्पायं निप्पज्जति, एवं आयतिम्पि विपुलफलतायाति आह " एवहि दानं महम्फलं होतीति दस्सेती "ति, विप्पटिसारेन अनुपक्किलिट्ठभावतो । मुञ्चचेतनाति परिच्चागचेतना । तस्सा निच्चलभावो नाम मुत्तचागता पुब्बाभिसङ्घारवसेन उकारभावो, समनुस्सरणचेतनाय पन निच्चलभावो “ अहो मया दानं दिनं साधु सुट्टू" ति तस्स सक्कच्चं पच्चवेक्खणावसेन वेदितब्बो | तथा अकरोन्तस्साति मुञ्चचेतनं, तत्थ पच्चासमनुस्सरणचेतनञ्च वृत्तनयेन निच्चलं अकरोन्तस्स विप्पटिसारं उप्पादेन्तस्स । खेत्तविसेसे परिच्चागस्स कतत्ता लद्धेसुपि उळारेसु भोगेसु चित्तं नापि नमति । यथा कथन्ति आह “महारोरुवं उपपन्नस्स सेट्ठिगहपतिनो विया "ति ।
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गटीका
(५.३४३-३४४)
___सो किर तगरसिखि पच्चेकबुद्धं अत्तनो गेहद्वारे पिण्डाय ठितं दिस्वा “इमस्स समणस्स पिण्डपातं देहीति भरियं आणापेत्वा राजुपट्ठानत्थं पक्कामि। सेट्ठिभरिया सप्पचजातिका, सा चिन्तेसि "मया एत्तकेन कालेन 'इमस्स देथा'ति वचनमत्तं पिस्स न सुतपुब्बं, अयञ्च मजे अहोसि पच्चेकसम्बुद्धो, यथा तथा अदत्वा पणीतं पिण्डपातं दस्सामी"ति उपगन्त्वा पच्चेकसम्बुद्धं पञ्चपतिहितेन वन्दित्वा पत्तं आदाय अन्तोनिवेसने पञत्तासने निसीदापेत्वा परिसुद्धेहि सालितण्डुलेहि भत्तं सम्पादेत्वा तदनुरूपं खादनीयं, ब्यञ्जनं, सूपेय्यञ्च अभिसङ्खरित्वा बहि गन्धेहि अलङ्करित्वा पच्चेकसम्बुद्धस्स हत्थेसु पतिठ्ठपेत्वा वन्दि। पच्चेकबुद्धो “अञ्चेसम्पि पच्चेकबुद्धानं सङ्गहं करिस्सामी"ति अपरिभुजित्वाव अनुमोदनं कत्वा पक्कामि। सोपि खो सेट्टि राजुपट्टानं कत्वा आगच्छन्तो पच्चेकबुद्धं दिस्वा अहं “तुम्हाकं पिण्डपातं देथा''ति वत्वा पक्कन्तो, अपि वो लद्धो पिण्डपातोति । आम सेट्टि लद्धोति । “पस्सामा''ति गीवं उक्खिपित्वा ओलोकेसि । अथस्स पिण्डपातगन्धो उट्ठहित्वा नासपुटं पूरेसि । सो “महा वत मे धनब्ययो जातो''ति चित्तं सन्धारेतुं असक्कोन्तो पच्छा विप्पटिसारी अहोसि । विप्पटिसारस्स पन उप्पन्नाकारो “वरमेत"न्तिआदिना (सं० नि० १.१.१३१) पाळियं आगतोयेव । भातु पनायं एकं पुत्तकं सापतेय्यकारणा जीविता वोरोपेसि, तेन. महारोरुवं उपपन्नो । पिण्डपातदानेन पनेस सत्तक्खत्तुं सुग्गतिं सग्गं लोकं उपपन्नो, सत्तक्खत्तुमेव च सेट्टिकुले निब्बत्तो, न चास्स उळारेसु भोगेसु चित्तं नमि, तेन वुत्तं "नापि उळारेसु भोगेसु चित्तं नमती"ति।
३४३. आकरोति अत्तनो अनुरूपताय समरियाद सपरिच्छेदं फलं निब्बत्तेतीति आकारो, कारणन्ति आह "दसहि आकारेहीति दसहि कारणेही"ति । पटिग्गाहकतो वाति बलवतरो हुत्वा उप्पज्जमानो पटिग्गाहकतोव उप्पज्जति, इतरो पन देय्यधम्मतो, परिवारजनतोपि उप्पज्जेय्येव । उप्पज्जितुं युत्तन्ति उप्पज्जनारहं । तेसंयेव पाणातिपातीनं । यजनं नामेत्थ दानं अधिप्पेतं, न अग्गिजुहनन्ति आह “यजतं भवन्ति देतु भवन्ति । विस्सज्जतूति मुत्तचागवसेन विस्सज्जतु । अब्भन्तरन्ति अज्झत्तं, सकसन्तानेति अत्थो ।
३४४. हेट्ठा सोळस परिक्खारा वुत्ता यञस्स ते वत्थु कत्वा, इध पन सन्दस्सनादिवसेन अनुमोदनाय आरद्धत्ता वुत्तं "सोळसहि आकारेही"ति । दस्सेत्वा अत्तनो देसनानुभावेन पच्चक्खतो विय फलं दस्सेत्वा, अनेकवारं पन कथनतो च आमेडितवचनं । तमत्थन्ति यथावुत्तं दानफलवसेन कम्मफलसम्बन्धं । समादपेत्वाति सुतमत्तमेव
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( ५.३४५ - ३४७ )
चतुपरिक्खारादिवण्णना
अकत्वा यथा राजा तमत्थं सम्मदेव आदियति चित्ते करोन्तो सुग्गहितं कत्वा गण्हाति, तथा सक्कच्चं आदापेत्वा । आमेडितकारणं हेट्ठा वुत्तमेव ।
" विप्पटिसारविनोदनेना" ति इदं निदस्सनमत्तं लोभदोसमोहइस्सामच्छरियमानादयोपि हि दानचित्तस्स उपक्किलेसा, तेस विनोदनेनपि तं समुत्तेजितं नाम होत तिक्खविसदभावप्पत्तितो । आसन्नतरभावतो वा विप्पटिसारस्स तब्बिनोदनमेव गहितं, पवत्तितेपि हि दाने तस्स सम्भवतो । याथावतो विज्जमानेहि गुणेहि तुट्ठपट्टभावापादनं सम्पहंसनन्ति आह “सुन्दरं ते... पे०... थुतिं कत्वा कथेसी" ति । धम्मतोति सच्चतो । सच्चञ्हि धम्मतो अनपेतत्ता धम्मं, उपसमचरियाभावतो समं युत्तभावेन कारणन्ति च वुच्चतीति ।
"
३४५. तस्मिं यञ्ञे रुक्खतिणच्छेदोपि नाम नाहोसि, कुतो पाणवधोति पाणवधाभावस्सेव दळ्हीकरणत्थं सब्बसो विपरीतगाहाविदूसितञ्चस्स दस्सेतुं पाळियं “ नेव गावो हञ्ञिसूति आदिं वत्वापि " न रुक्खा छिज्जिंसू तिआदि वुत्तं, तेनाह " किं पन गावो" तिआदि । हत्था परिच्छेदनत्थाय । वनमालासङ्क्षेपेनाति वनपुप्फे गन्धितमालानियामेन । भूमियं वा पत्थरन्तीति वेदिभूमिं परिक्खिपन्ता तत्थ पन्थरन्ति । अन्तोगेहदासादयोति अन्तोजातधनक्कीतकरमरानीतसयंदासा । पुब्बमेवाति भतिकरणतो पगेव गहेत्वा करोन्तीति दिवसे दिवसे गहेत्वा करोन्ति । तज्जिताति गज्जिता । पियसमुदाचारेनेवाति इट्ठवचनेनेव । फाणितेन चेवाति एत्थ च सद्दो अवुत्तसमुच्चयत्थो, तेन पणीतपणीतानं नानप्पकारानं खादनीयभोजनीयादीनञ्चेव वत्थमालागन्धविलेपनयानसेय्यादीनञ्च सङ्ग्रहो दट्ठब्बो, तेनाह “पणीतेहि सप्पितेलादिसम्मिस्सेहेवा 'तिआदि ।
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३४६. सं नाम धनं, तस्स पतीति सपति, धनवा । दिट्ठधम्मिकसम्परायिक हितावहत्ता तस्स हितन्ति सापतेय्यं तदेव धनं । तेनाह “ पहूतं सापतेय्यं आदायाति बहुं धनं गत्वा "ति । गामभागेनाति सङ्कित्तनवसेन गामे वा गहेतब्बभागेन ।
३४७. “यागुं पिवित्वा" ति यागुसीसेन पातरासभोजनमाह । पुरत्थिमेन यज्ञवाटस्साति रञो दानसालाय नातिदूरे पुरत्थिमदिसाभागेति अत्थो, यतो तत्थ पातरासं भुञ्जित्वा अकिलन्तरूपायेव सायन्हे सालं पापुणन्ति “दक्खिणेन यज्ञवाटस्सा "ति आदीसुपि सेव नयो ।
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गटीका
(५.३४८-३५०)
३४८. परिहारेनाति भगवन्तं गरुं कत्वा अगारवपरिहारेन ।
निच्चदानअनुकुलयञवण्णना
३४९. उट्ठाय समुट्ठायाति दाने उट्ठानवीरियं सक्कच्चं कत्वा । अप्पसम्भारतरोति अतिविय परित्तसम्भारो। समारभीयति यो एतेहीति समारम्भा, सम्भारसम्भरणवसेन पवत्तसत्तपीळा । अप्पट्ठतरोति पन अतिविय अप्पकिच्चोति अत्थो । विपाकसञ्जितं अतिसयेन महन्तं सदिसफलं एतस्साति महप्फलतरो। उदयसञ्जितं अतिसयेन महन्तं निस्सन्दादिफलं एतस्साति महानिसंसतरो। धुवदानानीति धुवानि थिरानि अच्छिन्नानि कत्वा दातब्बदानानि । अनुकुलयानीति अनुकुलं कुलानुक्कम उपादाय दातब्बदानानि, तेनाह "अम्हाक"न्तिआदि । निबद्धदानानीति निबन्धेत्वा नियमेत्वा पवेणीवसेन पवत्तितदानानि ।
हत्थिदन्तेन पवत्तिता दन्तमयसलाका, यत्थ दायकानं नामं अङ्कन्ति । रञ्जोति सेतवाहनरो ।
आदीनीति आदि-सद्देन 'सेनो विय मंसपेसिं कस्मा ओक्खनि गण्हासी"ति एवमादीनं सङ्गहो। पुब्बचेतनामुञ्चचेतनाअपरचेतनासम्पत्तिया दायकस्स वसेन तीणि अङ्गानि, वीतरागतावीतदोसतावीतमोहतापटिपत्तिया दक्खिणेय्यस्स वसेन तीणीति एवं छळङ्गसमन्नागताय दक्षिणाय। अपरापरं उप्पज्जनकचेतनावसेन महानदी विय, महोघो विय च इतो चितो च अभिसन्दित्वा ओक्खन्दित्वा पवत्तिया पुञ्जमेव पुञाभिसन्दो।
३५०. किच्चपरियोसानं नत्थि दिवसे दिवसे दायकस्स ब्यापारापज्जनतो, तेनाह "एकेना"तिआदि । किच्चपरियोसानं अत्थि यथारद्धस्स आवासस्स कतिपयेनापि कालेन परिसमापेतब्बतो, तेनाह "पण्णसाल"न्तिआदि। सुत्तन्तपरियायेनाति सुत्तन्तपाळिनयेन । (म० नि० १.१२, १३; अ० नि० २.५८) नव आनिसंसाति सीतपटिघातादयो पटिसल्लानारामपरियोसाना नव उदया | अप्पमत्तताय चेते वुत्ता।
यस्मा आवासं देन्तेन नाम सब्बम्पि पच्चयजातं दिन्नमेव होति । द्वे तयो गामे पिण्डाय चरित्वा किञ्चि अलद्धा आगतस्सपि छायूदकसम्पन्नं आरामं पविसित्वा न्हायित्वा पतिस्सये मुहुत्तं निपज्जित्वा वुट्ठाय निसिन्नस्स काये बलं आहरित्वा पक्खित्तं विय
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निच्चदान अनुकुलयञ्ञवण्णना
होति । बहि विचरन्तस्स च काये वण्णधातु वातातपेहि किलमति, पतिस्सयं पविसित्वा द्वारं पिधाय मुहुत्तं निपन्नस्स विसभागसन्तति वूपसम्मति, सभागसन्तति पतिट्ठाति, वणधातु आहरित्वा पक्खित्ता विय होति । बहि विचरन्तस्स च पादे कण्टको विज्झति, खाणु पहरति, सरीसपादिपरिस्सया चेव चोरभयञ्च उप्पज्जति, पतिस्सयं पविसित्वा द्वारं पिधाय निपन्नस्स सब्बे ते परिस्सया न होन्ति, सज्झायन्तस्स धम्मपीतिसुखं, कम्मट्ठानं मनसि करोन्तस्स उपसमसुखञ्च उप्पज्जति बहिद्धा विक्खेपाभावतो । बहि विचरन्तस्स च काये सेदा मुच्चन्ति अक्खीनि फन्दन्ति, सेनासनं पविसनक्खणे मञ्चपीठादीनि न पञ्ञायन्ति, मुहुत्तं निसिन्नरस पन अक्खीनं पसादो आहरित्वा पक्खित्तो विय होति, द्वारवातपानमञ्चपीठादीनि पञ्ञायन्ति । एतस्मिञ्च आवासे वसन्तं दिस्वा मनुस्सा चतूहि पच्चयेहि सक्कच्चं उपट्टहन्ति । तेन वुत्तं " आवासं देन्तेन नाम सब्बम्पि पच्चयजातं दिन्नमेव होती”ति, तस्मा एते यथावुत्ता सब्बेपि आनिसंसा वेदितब्बा । तेन तं " अप्पमत्तताय चेते वुत्ता' 'ति ।
(५.३५०-३५०)
सीतन्ति अज्झत्तं धातुक्खोभवसेन वा बहिद्धा उतुविपरिणामवसेन वा उप्पज्जनकसीतं। उण्हन्ति अग्गिसन्तापं तस्स वनडाहादीसु (वनदाहादीसु वा सारत्थ० टी० ३. चूळव० २९५) सम्भवो वेदितब्बो । पटिहन्तीति पटिबाहति, यथा तदुभयवसेन कायचित्तानं बाधनं न होति, एवं करोति । सीतुण्हब्भाहते हि सरीरे विक्खित्तचित्तो भिक्खु योनिसो पदहितुं न सक्कोति । वाळमिगानीति सीहब्यग्घादिचण्डमिगे । गुत्तसेनासनहि आरञ्ञकम्पि पविसित्वा द्वारं पिधाय निसिन्नस्स ते परिस्सया न होन्तीति । सरीसपेति ये केचि सरन्ते गच्छन्ते दीघजातिके सप्पादिके । मकसेति निदस्सनमत्तमेतं, डंसादीनम्पि एतेस्वेव ( एतनेव सारत्थ० टी० ३. चूळव० २९५) सङ्गहो दट्ठब्बो । सिसिरेति सिसिरकालवसेन, सत्ताहवद्दलिकादिवसेन च उप्पन्ने सिसिरसम्फस्से । बुट्ठियोति यदा तदा उप्पन्ना वस्सवुट्ठियो पटिहनतीति योजना ।
वातातपो घोरोति रुक्खगच्छादीनं उम्मूलभञ्जनादिवसेन पवत्तिया घोरो सरजअरजादिभेदो वातो चेव गिम्हपरिळाहसमयेसु उप्पत्तिया घोरो सूरियातपो च । पटिहञ्ञतीति पटिबाहीयति । लेणत्थन्ति नानारम्मणतो चित्तं निवत्तेत्वा पटिसल्लानारामत्थं । सुखत्थन्ति वृत्तपरिस्सयाभावेन फासुविहारत्थं । झायितुन्ति अट्ठतिंसाय आरम्मणेसु यत्थ कत्थचि चित्तं उपनिबन्धित्वा उपनिज्झायितुं । विपस्सितुन्ति अनिच्चादितो सङ्घारे सम्मसितुं ।
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गटीका
(५.३५१-३५२)
विहारेति पतिस्सये। कारयेति कारापेय्य । रम्मेति मनोरमे निवाससुखे। वासयेत्थ बहुस्सुतेति कारेत्वा पन एत्थ विहारेसु बहुस्सुते सीलवन्ते कल्याणधम्मे निवासेय्य, ते निवासेन्तो पन तेसं बहुस्सुतानं यथा पच्चयेहि किलमथो न होति, एवं अनञ्च पानञ्च वत्थसेनासनानि च ददेय्य उजुभूतेसु अज्झासयसम्पन्नेसु कम्मकम्मफलानं, रतनत्तयगुणानञ्च सद्दहनेन विप्पसन्नेन चेतसा।
इदानि गहठ्ठपब्बजितानं अञमञ्जूपकारितं दस्सेतुं "ते तस्सा"ति गाथमाह । तत्थ तेति बहुस्सुता। तस्साति उपासकस्स | धम्म देसेन्तीति सकलवट्टदुक्खपनूदनं सद्धम्म देसेन्ति। यं सो धम्मं इधआयाति सो उपासको यं सद्धम्म इमस्मिं सासने सम्मापटिपज्जनेन जानित्वा अग्गमग्गाधिगमेन अनासवो हुत्वा परिनिब्बाति एकादसग्गिवूपसमेन सीति भवति ।
सीतपटिघातादयो विपस्सनावसाना तेरस, अन्नादिलाभो, धम्मस्सवनं,धम्मावबोधो, परिनिब्बानन्ति एवं सत्तरस।
३५१. अत्तनो सन्तकाति अत्तनिया। दुष्परिच्चजनं लोभं निग्गण्हितुं असक्कोन्तस्स । सङ्घस्स वा गणस्स वा सन्तिकेति योजना। तत्थाति यथागहिते सरणे । नत्थि पुनप्पुनं कत्तब्बता विनृजातिकस्साति अधिप्पायो | "जीवितपरिच्चागमयं पुञ"न्ति “सचे त्वं न यथागहितं सरणं भिन्दिस्सति, एवाहं तं मारेमी"ति यदिपि कोचि तिण्हेन सत्थेन जीविता वोरोपेय्य, तथापि "नेवाहं बुद्धं न बुद्धोति, धम्मं न धम्मोति, सद्धं न सङ्घोति वदामी"ति दळहतरं कत्वा गहितसरणस्स वसेन वृत्तं ।
३५२. सरणं उपगतेन कायवाचाचित्तेहि सक्कच्चं वत्थुत्तयपूजा कातब्बा, तत्थ च संकिलेसो परिहनितब्बो, सिक्खापदानि पन समादानमत्तं, सम्पत्तवत्थुतो विरमणमत्तञ्चाति सरणगमनतो सीलस्स अप्पट्टतरता, अप्पसमारम्भतरता च वेदितब्बा। सब्बेसं सत्तानं जीवितदानादिना दण्डनिधानतो, सकललोकियलोकुत्तरगुणाधिट्ठानतो चस्स महप्फलमहानिसंसतरता दट्ठब्बा ।
वक्खमाननयेन च वेरहेतुताय वेरं वुच्चति पाणातिपातादिपापधम्मो, तं मणति "मयि इध ठिताय कथं आगच्छसी"ति तज्जेन्ती विय नीहरतीति वेरमणी, ततो वा
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(५.३५२-३५२)
निच्चदानअनुकुलयञवण्णना
२९५
पापधम्मतो विरमति एतायाति "विरमणी''ति वत्तब्बे निरुत्तिनयेन इकारस्स एकारं कत्वा "वेरमणी"ति वुत्ता | असमादिन्नसीलस्स सम्पत्ततो यथाउपट्टितवीतिक्कमितब्बवत्थुतो विरति सम्पत्तविरति। समादानवसेन उप्पन्ना विरति समादानविरति। सेतु वुच्चति अरियमग्गो, तप्परियापन्ना हुत्वा पापधम्मानं समुच्छेदवसेन घातनविरति सेतुधातविरति। इदानि तिस्सो विरतियो सरूपतो दस्सेतुं "तत्था"तिआदि वुत्तं । परिहरतीति अवीतिक्कमवसेन परिवज्जेति । न हनामीति एत्थ इति-सद्दो आदिअत्थो, तेन “अदिन्नं नादियामीति एवं आदीनं सङ्गहो, वा-सद्देन वा, तेनाह "सिक्खापदानि गण्हन्तस्सा"ति ।
मग्गसम्पयुत्ताति सम्मादिट्ठियादिमग्गसम्पयुत्ता । इदानि तासं विरतीनं आरम्मणतो विभागं दस्सेतुं "तत्था"तिआदि वुत्तं । पुरिमा वेति सम्पत्तसमादानविरतियो। पच्छिमाति सेतुघातविरति । सब्बानिपि भिन्नानि होन्ति एकज्झं समादिन्नत्ता । तदेव भिज्जति विसुं विसुं समादिन्नत्ता। गहट्ठवसेन चेतं वुत्तं । भेदो नाम नत्थि पटिपक्खसमुच्छिन्दनेन अकुप्पसभावत्ता, तेनाह "भवन्तरेपी"ति । योनिसिद्धन्ति मनुस्सतिरच्छानानं उद्धं तिरियमेव दीघता विय जातिसिद्धन्ति अत्थो । बोधिसत्ते कुच्छिगते बोधिसत्तमातुसीलं विय धम्मताय सभावेनेव सिद्धं धम्मतासिद्धं, मग्गधम्मताय वा अरियमग्गानुभावेन सिद्धं धम्मतासिद्धं । दिदिउजकरणं नाम भारियं दक्खं. तस्मा सरणगमनं सिक्खापदसमादानतो महट्टतरमेव, न अप्पट्टतरन्ति अधिप्पायो। यथा तथा वा गण्हन्तस्सापीति आदरगारवं अकत्वा समादियन्तस्सापि । साधुकं गण्हन्तस्सापीति सक्कच्चं सीलानि समादियन्तस्सापि, न दिगुणं, तिगुणं वा उस्साहो करणीयो ।
अभयदानताय सीलस्स दानभावो, अनवसेसं वा सत्तनिकायं दयति तेन रक्खतीति दानं, सीलं । “अग्गानी"ति आतत्ता अग्गज्ञानि। चिररत्तताय आतत्ता रत्तञानि । “अरियानं साधूनं वंसानी"ति आतत्ता वंसज्ञानि। "पोराणानी"तिआदीसु पुरिमानं एतानि पोराणानि। सब्बसो केनचिपि पकारेन साधूहि न किण्णानि न खित्तानि न छड्डितानीति असङ्किण्णानि। अयञ्च नयो नेसं यथा अतीते, एवं एतरहि, अनागते चाति आह "असङ्किण्णपुब्बानि न सक्रियन्ति न सङ्कियिस्सन्ती"ति । ततो एव अप्पपिकुट्ठानि न पटिक्खित्तानि । न हि कदाचिपि विजू समणब्राह्मणा हिंसादिपापधम्मं अनुजानन्ति । अपरिमाणानं सत्तानं अभयं देतीति सब्बेसु भूतेसु निहितदण्डत्ता सकलस्सपि सत्तनिकायस्स भयाभावं देति । न हि अरियसावकतो कस्सचि भयं होति । अवेरन्ति वेराभावं । अव्यापज्झन्ति निढुक्खतं ।
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गटीका
ननु च पञ्चसीलं सब्बकालिकं, न च एकन्ततो विमुत्तायतनं, सरणगमनं पन बुद्धप्पादहेतुकं, एकन्तविमुत्तायतनञ्च तत्थ कथं सरणागमनतो पञ्चसीलस्स महफ्फलताति आह " किञ्चापी" तिआदि । जेट्ठकन्ति उत्तमं । " सरणगमनेयेव पतिट्ठाया "ति इमिना तस्स सीलस्स सरणगमनेन अभिसङ्घततमाह ।
३५३. ईदिसमेवाति एवं संकिलेसं पटिपक्खमेव हुत्वा । हेट्ठा वुत्तेहि गुणेहीति एत्थ हेट्ठा वुत्तगुणा नाम सरणगमनं, सीलसम्पदा, इन्द्रियेसु गुत्तद्वारताति एवं आदयो । पठमज्झानं निब्बत्तेन्तो न किलमतीति योजना । तानीति पठमज्झानादीनि । " पठमज्झान "न्ति उक्कट्ठनिद्देसो अयन्ति आह " एकं कप्प "न्ति, एकं महाकप्पन्ति अत्थो । हीनं पन पठमज्झानं मज्झिमञ्च असङ्घयेय्यकप्पस्स ततियं भागं, उपड्डुकप्पञ्च आयुं देति । “दुतियं अट्ठकप्पे" ति आदीसुपि इमिना नयेन अत्थो वेदितब्बो, महाकप्पवसेनेव च तब्बं । यस्मा वा पणीतानियेवेत्थ झानानि अधिप्पेतानि महप्फलतरभावदस्सनपरत्ता देसनाय, तस्मा “पठमज्झानं एकं कप्प "न्तिआदि वृत्तं । तदेवाति चतुत्थज्झानमेव । यदि एवं कथं आरुप्पताति आह " आकासानञ्चायतनादी' 'तिआदि ।
(५.३५३-३५३)
सम्मदेव
निच्चसञ्ञादिपटिपक्खविधमनवसेन
पवत्तमाना पुब्बभागिये एव बोधिक्खियधम् सम्मानेन्ती विपस्सना विपस्सकस्स अनप्पकं पीतिसोमनस्सं समावहतीति आह “विपस्सना...पे०... अभावाति । तेनाह भगवा -
“यतो यतो सम्मसति, खन्धानं उदयब्बयं ।
लभती पीतिपामोज्जं, अमतं तं विजानत' "न्ति । । (ध० प० ३७४)
यस्मा अयं देसना इमिना अनुक्कमेन इमानि आणानि निब्बत्तेन्तस्स वसेन पवत्तिता, तस्मा “विपस्सनाञाणे पतिट्ठाय निब्बत्तेन्तो "ति हेट्ठिमं हेट्ठिमं उपरिमस्स उपरिमस्स पतिट्ठाभूतं कत्वा वृत्तं । समानरूपनिम्मानं नाम मनोमयद्धिया अ असाधारणकिच्चन्ति आह "अत्तनो... पे०... महम्फला "ति । विकुब्बनदस्सनसमत्थतायाति हत्थिअस्सादिविविधरूपकरणं विकुब्बनं तस्स दस्सनसमत्थभावेन । इच्छितिच्छितट्ठानं नाम पुरिमजातीसु इच्छितिच्छितो खन्धप्पदेसो । समापेन्तोति परियोसापेन्तो ।
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(५.३५४-८-३५४-८)
कूटदन्तउपासकत्तपटिवेदनाकथावण्णना
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कूटदन्तउपासकत्तपटिवेदनाकथावण्णना
३५४-८. सब्बे ते पाणयोति “सत्त च उसभसतानी"तिआदिना वुत्ते सब्बे पाणिनो। आकुलभावोति भगवतो सन्तिके धम्मस्स सुतत्ता पाणीसु अनुद्दयं उपट्ठपेत्वा ठितस्स “कथहि नाम मया ताव बहू पाणिनो मारणत्थाय बन्धापिता"ति चित्ते परिव्याकुलभावो उदपादि। सुत्वाति “बन्धनतो मोचिता'"ति सुत्वा । कामच्छन्दविगमेन कल्लचित्तता अरोगचित्तता, ब्यापादविगमेन मेत्तावसेन मुदुचित्तता अकथिनचित्तता, उद्धच्चकुक्कुच्चप्पहानेन विक्खेपविगमनतो विनीवरणचित्तता तेहि न पिहितचित्तता, थिनमिद्धविगमेन उदग्गचित्तता संपग्गण्हनवसेन अलीनचित्तता, विचिकिच्छाविगमेन सम्मापटिपत्तिया अधिमुत्तताय पसन्नचित्तता च होतीति आह "कल्लचित्तन्तिआदि अनुपुब्बिकथानुभावेन विक्खम्भितनीवरणतं सन्धाय वुत्त"न्ति । यं पनेत्थ अत्थतो अविभत्तं, तं सुविनेय्यमेव ।
कूटदन्तसुत्तवण्णनाय लीनत्थप्पकासना।
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६. महालिसुत्तवण्णना
ब्राह्मणदूतवत्थुवण्णना ३५९. पुनप्पुनं विसालीभावूपगमनतोति पुब्बे किर पुत्तधीतुवसेन द्वे द्वे हुत्वा सोळसक्खत्तुं जातानं लिच्छवीराजकुमारानं सपरिवारानं अनुक्कमेनेव वड्डन्तानं निवासनट्ठानारामुय्यानपोक्खरणीआदीनं पतिट्ठानस्स अप्पहोनकताय नगरं तिक्खत्तुं गावुतन्तरेन गावुतन्तरेन परिक्खिपिंसु, तेनस्स पुनप्पुनं विसालीभावं गतत्ता "वेसाली" त्वेव नामं जातं, तेन वुत्तं "पुनपुनं विसालीभावूपगमनतो वेसालीति लद्धनामके नगरे"ति । सयंजातन्ति सयमेव जातं अरोपिमं । महन्तभावेनेवाति रुक्खगच्छानं, ठितोकासस्स च महन्तभावेन, तेनाह "हिमवन्तेन सद्धिं एकाबद्धं हुत्वा"ति । कूटागारसालासोपेनाति हंसवट्टकच्छन्नेन कूटागारसालानियामेन । कोसलेसु जाता, भवा वा, तं वा रटुं निवासो एतेसन्ति कोसलका। एवं मागधका वेदितब्बा । यस्स अकरणे पुग्गलो महाजानियो होति, तं करणं अरहतीति करणीयं तेन करणीयेन, तेनाह "अवस्सं कत्तब्बकम्मेना"ति । तं किच्चन्ति वुच्चति सति समवाये कातब्बतो।
३६०. या बुद्धानं उप्पज्जनारहा नानत्तसा , तासं वसेन नानारम्मणाचारतो। सम्भवन्तस्सेव पटिसेधो । पटिक्कम्माति निवत्तित्वा तथा चित्तं अनुप्पादेत्वा। सल्लीनोति झानसमापत्तिया एकत्तारम्मणं अल्लीनो ।
ओट्ठद्धलिच्छवीवत्थुवण्णना
३६१. अद्धोद्वतायाति तस्स किर उत्तरोठं अप्पकताय तिरियं फालेत्वा अपनीतद्धं विय खायति चत्तारो दन्ते, द्वे च दाठा न छादेति, तेन नं “ओट्ठद्धो"ति वोहरन्ति ।
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(६.३६२-३६४)
ओट्ठद्धलिच्छवीवत्थुवण्णना
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अयं किर उपासको सद्धो पसन्नो दायको दानपति बुद्धमामको धम्ममामको सङ्घमामको, तेनाह पुरेभत्तन्तिआदि ।
३६२. सासने युत्तपयुत्तोति भावनं अनुयुत्तो । सब्बत्थ सीहसमानवुत्तिनोपि भगवतो परिसाय महन्ते सति तदज्झासयानुरूपं पवत्तियमानाय धम्मदेसनाय विसेसो होतीति आह "महन्तेन उस्साहेन धम्म देसेस्सती"ति ।
"विस्सासिको'ति वत्वा तमस्स विस्सासिकभावं विभावेतुं "अयही"तिआदि वुत्तं । थेरस्स खीणा सवस्ससतो आलसियभावो "अप्पहीनो''ति न वत्तब्बो, वासनालेसं पन उपादायाह "ईसकं अप्पहीनो विय होती"ति। न हि सावकानं सवासना किलेसा पहीयन्ति ।
३६३. विनेय्यजनानुरोधेन बुद्धानं पाटिहारियविजम्भनं होतीति वुत्तं “अथ खो भगवा"तिआदि, तेनेवाह "संसूचितनिक्खमनोति । गन्धकुटितो निक्खमनवेलायव्हि छब्बण्णा बुद्धरस्मियो आवेळावेळायमलायमला हुत्वा सविसेसा पभस्सरा विनिच्छरिंसु ।
३६४. ततो परन्ति “हिय्यो"ति वुत्तदिवसतो अनन्तरं परं पुरिमतरं अतिसयेन पुरिमत्ता । इति इमेसु द्वीसु ववत्थितो यथाक्कम पुरिमपुरिमतरभावो । एवं सन्तेपि यदेत्थ "पुरिमतर''न्ति वुत्तं, ततो पभुति यं यं ओरं, तं तं पुरिमं, यं यं परं, तं तं पुरिमतरं, ओरपारभावस्स विय पुरिमपुरिमतरभावस्स च अपेक्खासिद्धितो, तेनाह "ततो पढाया"तिआदि । मूलदिवसतो पट्ठायातिआदिदिवसतो पट्ठाय । अग्गन्ति पठमं । तं पनेत्थ परा अतीता कोटि होतीति आह “परकोटिं कत्वा"ति । यं-सद्दयोगेन चायं “विहरामी''ति वत्तमानप्पयोगो, अत्थो पन अतीतकालवसेनेव वेदितब्बो, तेनाह "विहासिन्ति वुत्तं होती"ति। पठमविकप्पे “विहरामी"ति पदस्स “यदग्गे"ति इमिना उजुकं सम्बन्धो दस्सितो, दुतियविकप्पे पन “तीणि वस्सानी"ति इमिनापि।
_ पियजातिकानीति इट्ठसभावानि । सातजातिकानीति मधुरसभावानि । मधुरं वियाति हि "मधुर"न्ति वुच्चति मनोरमं यं किञ्चि । कामूपसहितानीति आरम्मणं करोन्तेन कामेन उपसंहितानि, कामनीयानीति अत्थो, तेनाह "कामस्सादयुत्तानी"ति, कामस्सादस्स युत्तानि योग्यानीति अत्थो । सरीरसण्ठानेति सरीरबिम्बे, आधारे चेतं भुम्मं । तस्मा सर्वेनाति तं
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३००
दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गटीका
(६.३६६-३७१-३७२)
निस्साय ततो उप्पन्नेन सद्देनाति अत्थो। मधुरेनाति इट्ठेन । एत्तावताति दिब्बसोतजाणस्स परिकम्माकथनमत्तेन । “अत्तना ज्ञातम्पि न कथेति, किमस्स सासने अधिट्ठानेना"ति कुज्झन्तो आघातं बन्धित्वा सह कुज्झनेनेव झानाभिचाहि परिहायि । चिन्तेसीति “कस्मा नु खो महं तं परिकम्मं न कथेसी"ति परिवितक्केन्तो अयोनिसो उम्मुज्जनवसेन चिन्तेसि | अनुक्कमेनाति पाथिकसुत्ते आगतनयेन तं तं अयुत्तमेव चिन्तेन्तो, भासन्तो, करोन्तो च अनुक्कमेन । भगवति बद्धाघातताय सासने पतिठं अलभन्तो गिहिभावं पत्वा ।
एकंसभावितसमाधिवण्णना
३६६-३७१. एकंसायाति तदत्थेयेव चतुत्थी, तस्मा एकंसत्थन्ति अत्थो । अंस-सद्दो चेत्थ कोट्टासपरियायो, सो च अधिकारतो दिब्बरूपदस्सनदिब्बसद्दस्सवनवसेन वेदितब्बोति आह “एककोट्ठासाया"तिआदि। अनुदिसायाति पुरथिमदक्खिणादिभेदाय चतुब्बिधाय अनुदिसाय । उभयकोटासायाति दिब्बरूपदस्सनत्थाय, दिब्बसद्दस्सवनत्थाय च । भावितोति यथा दिब्बचक्खुजाणं, दिब्बसोताणञ्च समधिगतं होति, एवं भावितो। तयिदं विसुं विसुं परिकम्मकरणेन इज्झन्तीसु वत्तब्ध नत्थि, एकज्झं इज्झन्तीसुपि कमेनेव किच्चसिद्धि एकज्झं किच्चसिद्धिया असम्भवतो। पाळियम्पि एकस्स उभयसमत्थतासन्दस्सनत्थमेव "दिब्बानञ्च रूपानं दस्सनाय, दिब्बानञ्च सद्दानं सवनाया''ति वुत्तं, न एकज्झं किच्चसिद्धिसम्भवतो । “एकंसभावितो समाधिहेतू"ति इमिना सुनक्खत्तो दिब्बचक्खुञाणाय एव परिकम्मस्स कतत्ता विज्जमानम्पि दिब्बसदं नास्सोस्सीति दस्सेति । अपण्णकन्ति अविरज्झनकं, अनवज्जन्ति वा अत्थो ।
३७२. “समाधि एव" भावेतब्बढेन समाधिभावना। “दिब्बसोताणं सेट्ठ"न्ति मञ्जमानेनापि महालिना दिब्बचक्खुञाणम्पि तेन सह गहेत्वा "एतासं नून भन्ते''तिआदिना पुच्छितन्ति “उभयंसभावितानं समाधीनन्ति अत्थो"ति वुत्तं । बाहिरा एता समाधिभावना अनिय्यानिकत्ता। ता हि इतो बाहिरकानम्पि इज्झन्ति । न अज्झत्तिका भगवतो सामुक्कंसिकभावेन अप्पवेदितत्ता। यदत्थन्ति येसं अत्थाय । तेति ते अरियफलधम्मे । ते हि सच्छिकातब्बाति ।
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(६.३७३-३७४-५)
चतुअरियफलवण्णना
३०१
चतुअरियफलवण्णना ३७३. तस्माति वट्टदुक्खे संयोजनतो। “मग्गसोतं आपनो"ति फलट्ठस्स वसेन वुत्तं। मग्गट्ठो हि मग्गसोतं आपज्जति । तेनेवाह "सोतापन्ने''ति, “सोतापत्तिफलसच्छिकिरियाय पटिपन्ने"ति (म० नि० ३.३७९) च। अपतनधम्मोति अनुप्पज्जन- (म० नि० ३.३७९) सभावो । धम्मनियामेनाति मग्गधम्मनियामेन । हेट्ठिमन्ततो सत्तमभवतो उपरि अनुप्पज्जनधम्मताय वा नियतो। परं अयनं परागति ।
तनुत्तं नाम पवत्तिया मन्दता, विरळता चाति आह "तनुत्ता"तिआदि । हेद्वाभागियानन्ति हेट्ठाभागस्स कामभवस्सपच्चयभावेन हितानं । ओपपातिकोति उपपातिको उपपतने साधुकारीति कत्वा । विमुच्चतीति विमुत्ति, चित्तमेव विमुत्ति चेतोविमुत्तीति आह "सब्बकिलेस...पे०... अधि"वचनन्ति । चित्तसीसेन चेत्थ समाधि गहितो “चित्तं पञञ्च भावयन्ति | आदीसु (सं० नि० १.१.२३; पेटको० २२; मि० प० २.९) विय । पाविमुत्तीति एत्थापि एसेव नयो, तेनाह "पञ्जाव पञ्जाविमुत्ती"ति । सामन्ति अत्तनाव, अपरप्पच्चयेनाति अत्थो । अभिज्ञाति य-कारलोपेन निद्देसोति आह "अभिजानित्वा"ति ।
अरियअट्ठङ्गिकमग्गवण्णना ३७४-५. अरियसावको निब्बानं, अरियफलञ्च पटिपज्जति एतायाति पटिपदा, सा च तस्स पुब्बभागो एवाति इध "पुब्बभागपटिपदाया"ति अरियमग्गमाह । “अट्ठ अङ्गानि अस्सा''ति अञपदत्थसमास अकत्वा अट्ठङ्गानि अस्स सन्तीति अट्ठङ्गिकोति पदसिद्धि दट्टब्बा।
सम्मा अविपरीतं याथावतो चतुन्नं अरियसच्चानं पच्चक्खतो दस्सनसभावा सम्मा दस्सनलक्खणा। सम्मदेव निब्बानारम्मणे चित्तस्स अभिनिरोपनसभावो सम्मा अभिनिरोपनलक्खणो। चतुरङ्गसमन्नागता वाचा जनं सङ्गण्हातीति तब्बिपक्खविरतिसभावा सम्मावाचा भेदकरमिच्छावाचापहानेन जने सम्पयुत्ते च परिग्गण्हनकिच्चवती होतीति सम्मा परिग्गहणलक्खणा। यथा चीवरकम्मादिको कम्मन्तो एकं कातब्बं समुट्ठापेति, तं तं किरियानिप्फादको वा चेतनासङ्घातो कम्मन्तो हत्थपादचलनादिकं किरियं समुट्ठापेति, एवं सावज्जकत्तब्बकिरियासमुट्ठापकमिच्छाकम्मन्तप्पहानेन सम्माकम्मन्तो निरवज्जसमुट्ठापन
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गटीका
(६.३७४-५-३७४-५)
किच्चवा होति, सम्पयुत्ते च समुट्ठापेन्तो एव पवत्ततीति सम्मा समुट्ठापनलक्खणो सम्माकम्मन्तो। कायवाचानं, खन्धसन्तानस्स च संकिलेसभूतमिच्छाजीवप्पहानेन सम्मा वोदापनलक्खणो सम्माआजीवो। कोसज्जपक्खतो पतितुं अदत्वा सम्पयुत्तधम्मानं पग्गण्हनसभावोति सम्मा पग्गाहलक्खणो सम्मावायामो। सम्मदेव उपट्ठानसभावाति सम्मा उपट्ठानलक्खणा सम्मासति । विक्खेपविद्धंसनेन सम्मदेव चित्तस्स समादहनसभावोति सम्मा समाधानलक्खणो सम्मासमाधि।
अत्तनो पच्चनीककिलेसा दिढेकट्ठा अविज्जादयो । पस्सतीति पकासेति किच्चपटिवेधेन पटिविज्झति, तेनाह "तप्पटिच्छादक...पे०... असम्मोहतो"ति । तेनेव हि सम्मादिविसङ्घातेन अङ्गेन तत्थ पच्चवेक्खणा पवत्ततीति तथेवाति अत्तनो पच्चनीककिलेसेहि सद्धिन्ति अत्थो ।
किच्चतोति पुब्बभागेहि दुक्खादित्राणेहि कातब्बस्स किच्चस्स इध सातिसयं निप्फत्तितो इमस्सेव वा आणस्स दुक्खादिप्पकासनकिच्चतो । चत्तारि नामानि लभति चतूसु सच्चेसु कातब्बकिच्चनिष्फत्तितो। तीणि नामानि लभति कामसङ्कप्पादिप्पहानकिच्चनिप्फत्तितो। सिक्खापदविभङ्गे (विभं० ७०३) "विरतिचेतना, सब्बे सम्पयुत्तधम्मा च सिक्खापदानी"ति वुच्चन्तीति तत्थ पधानानं विरतिचेतनानं वसेन "विरतियोपि होन्ति चेतनायोपी"ति आह। मुसावादादीहि विरमणकाले वा विरतियो, सुभासितादिवाचाभासनादिकाले च चेतनायो योजेतब्बा। मग्गक्खणे विरतियोव चेतनानं अमग्गङ्गत्ता एकस्स आणस्स दुक्खादित्राणता विय, एकाय विरतिया मुसावादादिविरतिभावो विय च एकाय चेतनाय सम्मावाचादिकिच्चत्तयसाधनसभावाभावा सम्मावाचादिभावासिद्धितो, तंसिद्धियञ्च अङ्गत्तयत्तासिद्धितो च। सम्मप्पधानसतिपट्ठानवसेनाति चतुसम्मप्पधानचतुसतिपट्ठानभाववसेन ।
___ पुबभागेपि मग्गक्खणेपि सम्मासमाधियेवाति । यदिपि समाधिउपकारकानं अभिनिरोपनानुमज्जनसम्पियायनब्रूहनसन्तसुखानं वितक्कादीनं वसेन चतूहि झानेहि सम्मासमाधि विभत्तो, तथापि वायामो विय अनुप्पन्नाकुसलानुप्पादनादिचतुवायामकिच्चं, सति विय च असुभासुखानिच्चानत्तेसु कायादीसु सुभादिसापहानचतुसतिकिच्चं एको समाधि चतुक्कज्झानसमाधिकिच्चं न साधेतीति पुब्बभागेपि पठमज्झानसमाधि पठमज्झानसमाधि एव मग्गक्खणेपि, तथा पुब्बभागेपि चतुत्थज्झानसमाधि चतुत्थज्झानसमाधि एव मग्गक्खणेपीति अत्थो ।
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(६.३७६-७-३७६-७)
द्वेपब्बजितवत्थुवण्णना
३०३
तस्माति पञापज्जोतत्ता अविज्जन्धकारं विधमित्वा पञ्जासत्थत्ता किलेसचोरे घातेन्तो। बहुकारत्ताति य्वायं अनादिमति संसारे इमिना कदाचिपि असमुग्घाटितपुब्बो किलेसगणो तस्स समुग्घाटको अरियमग्गो । तत्थ चायं सम्मादिट्ठि परिञाभिसमयादिवसेन पवत्तिया पुब्बङ्गमा होतीति बहुकारा, तस्मा बहुकारत्ता ।
तस्साति सम्मादिट्ठिया। “बहुकारो"ति वत्वा तं बहुकारतं उपमाय विभावेतुं “यथा ही''तिआदि वुत्तं । “अयं" तम्बकंसादिमयत्ता कूटो। अयं समसारताय महासारताय छेको। एवन्ति यथा हेरञिकस्स चक्खुना दिस्वा कहापणविभागजानने करणन्तरं बहुकारं यदिदं हत्थो, एवं योगावचरस्स पञआय ओलोकेत्वा धम्मविभागजानने धम्मन्तरं बहुकारं यदिदं वितक्को वितक्केत्वा तदवबोधतो, तस्मा सम्मासङ्कप्पो सम्मादिट्ठिया बहुकारोति अधिप्पायो । दुतियउपमायं एवन्ति यथा तच्छको परेन परिवत्तेत्वा परिवत्तेत्वा दिन्नं दब्बसम्भारं वासिया तच्छेत्वा गेहकरणकम्मे उपनेति, एवं योगावचरो वितक्केन लक्खणादितो वितक्केत्वा दिन्नधम्मे याथावतो परिच्छिन्दित्वा परिञाभिसमयादिकम्मे उपनेतीति योजना। वचीभेदस्स उपकारको वितक्को सावज्जानवज्जवचीभेदनिवत्तनपवत्तनकराय सम्मावाचायपि उपकारको एवाति "स्वाय"न्तिआदि वुत्तं ।
वचीभेदस्स नियामिका वाचा कायिककिरियानियामकस्स कम्मन्तस्स उपकारिका । तदुभयानन्तरन्ति दुच्चरितद्वयपहायकस्स सुचरितद्वयपारिपूरिहेतुभूतस्स सम्मावाचासम्माकम्मन्तद्वयस्स अनन्तरं । इदं वीरियन्ति चतुब्बिधं सम्मप्पधानवीरियं । इन्द्रियसमतादयो समाधिस्स उपकारधम्मा। तब्बिपरियायतो अपकारधम्मा वेदितब्बा। गतियोति निष्फत्तियो, किच्चादिसभावे वा । समन्नेसित्वाति उपधारेत्वा ।
द्वेपब्बजितवत्थुवण्णना
. ३७६-७. "कस्मा आरद्ध"न्ति अनुसन्धिकारणं पुच्छित्वा तं विभावेतुं "अयं किरा"तिआदि वुत्तं, तेन अज्झासयानुसन्धिवसेन उपरि देसना पवत्ताति दस्सेति । तेनाति तथालद्धिकत्ता । अस्साति लिच्छवीरो। देसनायाति सण्हसुखुमायं सुझतपटिसंयुत्तायं यथादेसितदेसनायं । नाधिमुच्चतीति न सद्दहति न पसीदति । तन्तिधम्म नाम कथेन्तोति येसं अत्थाय धम्मो कथीयति, तस्मिं तेसं असतिपि मग्गपटिवेधे केवलं सासने तन्तिधम्म कत्वा कथेन्तो । एवरूपस्साति सम्मासम्बुद्धत्ता अविपरीतधम्मदेसनताय एवंपाकटधम्मकायस्स सत्यु।
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३०४
दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गटीका
युत्तं नु खो एतं अस्साति अस्स पठमज्झानादिसमधिगमेन समाहितचित्तस्स कुलपुत्तस्स एतं “तं जीव”न्तिआदिना उच्छेदादिगाहगहणं अपि नु युत्तन्ति पुच्छति । लद्धिया पन झानाधिगममत्तेन न ताव विवेचितत्ता " तेहि युत्त'"न्ति वुत्तं तं वादं पटिक्खिपित्वाति झानलाभिनोपि तं गहणं " अयुत्तमेवा'ति तं उच्छेदवादं सस्सतवादं वा पटिक्खिपित्वा । अत्तमना अहेसुन्ति यस्मा खीणासवो विगतसम्मोहो तिण्णविचिकिच्छो, "तस्मा तस्स तथा वत्तुं न युत्त "न्ति उप्पन्ननिच्छयताय तं मम वचनं सुत्वा अत्तमना अहेसुन्ति अत्थो । सोपि लिच्छवी राजा ते विय सञ्जातनिच्छयत्ता अत्तमनो अहोसि । यं पनेत्थ अत्थतो अविभत्तं, तं सुविज्ञेय्यमेव ।
महालिसुत्तवण्णनाय लीनत्थप्पकासना ।
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(६.३७६-७-३७६-७)
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७. जालियसुत्तवण्णना
द्वेपब्बजितवत्थुवण्णना
३७८. “घोसितेन सेट्ठिना कते आरामे " ति वत्वा तत्थ कोयं घोसितसेट्ठि नाम, कथञ्चानेन आरामो कारितो, कथं वा तत्थ भगवा विहासीति तं सब्बं समुदागमतो पट्ठाय सङ्क्षेपतोव दस्सेतुं “पुब्बे किरा" तिआदि वृत्तं । ततोति अल्लकप्परट्ठतो । तदाति तेसं तं गामं पविट्ठदिवसे । बलवपायासन्ति गरुतरं बहुपायासं । असन्निहितेति गेहतो बहि गते । भुस्सतीति रवति । घोसकदेवपुत्तोत्वेव नामं अहोसि सरघोससम्पत्तिया । वेय्यत्तियेनाति पञ्ञवेय्यत्तियेन । घोसितसेट्ठि नाम जातो ताय एव चस्स सरसम्पत्तिया घोसितनामता ।
सरीरसन्तप्पनत्थन्ति हिमवन्ते फलमूलाहारताय किलन्तसरीरा लोणम्बिलसेवनेन तस्स सन्तप्पनत्थं पीननत्थं । तसिताति पिपासिता । किलन्ताति परिस्सन्तकाया । ते किर तं वटरुक्खं पत्वा तस्स सोभासम्पत्तिं दिस्वा महानुभावा मञ्जे एत्थ अधिवत्था देवता, “साधु वतायं देवता अम्हाकं अद्धानपरिस्समं विनोदेय्या' ति चिन्तेसुं, तेन वुत्तं " तत्थ अधिवत्था... पे०... निसीदिंसू "ति । सोति अनाथपिण्डिको गहपति । भतकानन्ति भतिया वेय्यावच्चं करोन्तानं दासपेसकम्मकरानं । पकतिभत्तवेतनन्ति पकतिया दातब्बभत्तवेतनं, तदा उपोसथकत्ता कम्मं अकरोन्तानम्पि कम्मकरणदिवसेन दातब्बभत्तवेतनमेवाति अत्थो । कञ्चीति कञ्चिपि भतकं ।
उपेच्च परस्स वाचाय आरम्भनं बाधनं उपारम्भो, दोसदस्सनवसेन घट्टनन्ति अत्थो, तेनाह “ उपारम्भाधिप्पायेन वादं आरोपेतुकामा हुत्वा "ति । वदन्ति निन्दनवसेन कथेन्ति एतेनाति हि वादो, दोसो । तं आरोपेतुकामा, पतिट्ठापेतुकामा हुत्वाति अत्थो । “तं जीवं तं सरीर"न्ति, इध यं वत्युं जीवसञ्ञितं, तदेव सरीरसञ्ञितन्ति "रूपं अत्ततो
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३०६
दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गटीका
(७.३७९-३८०-३७९-३८०)
समनुपस्सती"ति वादं गहेत्वा वदन्ति । रूपञ्च अत्तानञ्च अद्वयं कत्वा समनुपस्सनवसेन “सत्तो"ति वा बाहिरकपरिकप्पितं अत्तानं सन्धाय वदन्ति । भिज्जतीति निरुदयविनासवसेन विनस्सति । तेन जीवसरीरानं अनअत्तानुजाननतो, सरीरस्स च भेददस्सनतो। न हेत्थ यथा भेदवता सरीरतो अनञत्ता अदिट्ठोपि जीवस्स भेदो वुत्तो, एवं अदिट्ठभेदतो अनञत्ता सरीरस्सापि अभेदोति सक्का विज्ञातुं तस्स भेदस्स पच्चक्खसिद्धत्ता, भूतुपादायरूपविनिमुत्तस्स च सरीरस्स अभावतोति आह "उच्छेदवादो होती"ति ।
"अखं जीवं अझं सरीर"न्ति अञ्जदेव वत्थु जीवसञ्जितं, अचं वत्थु सरीरसञितन्ति “रूपवन्तं अत्तानं समनुपस्सती"तिआदिनयप्पवत्तं वादं गहेत्वा वदन्ति । रूपे भेदस्स दिठ्ठत्ता, अत्तनि च तदभावतो अत्ता निच्चोति आपन्नमेवाति आह "तुम्हाकं...पे०... आपज्जती"ति ।
३७९-३८०. तयिदं नेसं वझासुतस्स दीघरस्सतापरिकप्पनसदिसन्ति कत्वा ठपनीयोयं पञ्होति तत्थ राजनिमीलनं कत्वा सत्था उपरि नेसं “तेन हावुसो सुणाथा''तिआदिना धम्मदेसनं आरभीति आह “अथ भगवा"तिआदि । तस्सा येवाति मज्झिमाय पटिपदाय ।
सद्धापबजितस्साति सद्धाय पब्बजितस्स “एवमहं इतो वट्टदुक्खतो निस्सरिस्सामी"ति एवं पब्बज्जं उपगतस्स तदनुरूपञ्च सीलं पूरेत्वा पठमज्झानेन समाहितचित्तस्स । एतं वत्तुन्ति एतं किलेसवट्टपरिबुद्धिदीपनं "तं जीवं तं सरीर"न्तिआदिकं दिट्ठिसंकिलेसनिस्सितं वचनं वत्तुन्ति अत्थो । निबिचिकिच्छो न होतीति धम्मेसु तिण्णविचिकिच्छो न होति, तत्थ तत्थ आसप्पनपरिसप्पनवसेन पवत्ततीति अत्थो।
एतमेवं जानामीति येन सो भिक्खु पठमं झानं उपसम्पज्ज विहरति, एतं ससम्पयुत्तधम्मं चित्तन्ति एवं जानामि । नो च एवं वदामीति यथा दिट्ठिगतिका तं धम्मजातं सनिस्सयं अभेदतो गण्हन्ता "तं जीवं तं सरीर''न्ति वा तदुभयं भेदतो गण्हन्ता "अचं जीवं अनं सरीर"न्ति वा अत्तनो मिच्छागाहं पवेदेन्ति, अहं पन न एवं वदामि तस्स धम्मस्स सुपरिञातत्ता, तेनाह “अथ खो"तिआदि । बाहिरका येभुय्येन कसिणज्झानानि एव निब्बत्तेन्तीति आह "कसिणपरिकम्मं भावन्तेस्सा"ति । यस्मा भावनानुभावेन झानाधिगमो, भावना च पथवीकसिणादिसञ्जाननमुखेन होतीति
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(७.३७९-३८०-३७९-३८०)
द्वेपब्बजितवत्थुवण्णना
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सञ्जासीसेन निद्दिसीयति, तस्मा आह "सञ्जाबलेन उप्पन्न"न्ति। तेनाह - “पथवीकसिणमेको सञ्जानाती''तिआदि । “न कल्लं तस्सेत"न्ति इदं यस्मा भगवता तत्थ तत्थ “अथ च पनाहं न वदामी"ति वुत्तं, तस्मा न वत्तब् किरेतं केवलिना उत्तमपुरिसेनाति अधिप्पायेनाह, तेन वुत्तं "मञमाना वदन्ती"ति। सेसं सब्बत्थ सुविधेय्यमेव ।
जालियसुत्तवण्णनाय लीनत्थप्पकासना।
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८. महासीहनादसुत्तवण्णना
अचेलकस्सपवत्थुवण्णना
३८१. यस्मिं रट्टे तं नगरं, तस्स रट्ठस्सपि यस्मिं नगरे तदा भगवा विहासि, तस्स नगरस्सपि एतदेव नामं, तस्मा उरुञ्ञायन्ति उरुञ्ञजनपदे उरुसङ्घाते नगरेति अत्थो । रमणीयोति मनोहरभूमिभागताय छायूदकसम्पत्तिया, जनविवित्तताय च मनोरमो । नामन्ति गोत्तनामं । तपनं सन्तपनं कायस्स खेदनं तपो, सो एतस्स अत्थीति तपस्सी, तं तपस्सिं । यस्मा तथाभूतो तपं निस्सितो, तपो वा तं निस्सितो, तस्मा आह “तपनिस्सितक"न्ति । लूखं वा फरुसं साधुसम्मताचारविरहतो नपसादनीयं आजीवति वत्ततीति लूखाजीवी, तं लूखाजीविं । मुत्ताचारादीति आदि-सद्देन परतो पाळियं (दी० नि० १.३९७) आगता हत्थापलेखनादयो सङ्गहिता । उप्पण्डेतीति उहसनवसेन परिभासति । उपवदतीति अवञ्ञापुब्बकं अपवदति, तेनाह “ हीळेति वम्भेती 'ति । धम्मस्स च अनुधम्मं ति एत्थ धम्मो नाम हेतु " हेतुम्हि जाणं धम्मपटिसम्भिदा ''तिआदीसु (विभं० ७२० ) वियाति आह “कारणस्स अनुकारण "न्ति । कारणन्ति चेत्थ तथापवत्तस्स सस्स अत्थो अधिप्पेतो तस्स पवत्तिहेतुभावतो | अत्थप्पयुत्तो हि सद्दप्पयोगो । अनुकारणन्ति च सो एव परेहि तथा वुच्चमानो। परेहीति " ये ते "ति वुत्तसत्तेहि परेहि । वृत्तकारणेनाति यथा हि वुत्तं तथा चे तुम्हेहि न वुत्तं, एवं सति तेहि वुत्तकारणेन सकारणो हुत्वा तुम्हाकं वादो वा ततो परं तस्स अनुवादो कोचि अप्पमत्तकोपि विहि गरहितब्बं ठानं कारणं नागच्छेय्य, किमेवं नागच्छतीति योजना । " इदं वुत्तं होती " तिआदिना तमेवत्थं सङ्क्षेपतो दस्सेति ।
३८२. इदानि यं विभज्जवादं सन्धाय भगवता " न मे ते वृत्तवादिनोति सङ्क्षेपतो वत्वा तं विभजित्वा दस्सेतुं "इधाहं कस्सपा 'तिआदि वृत्तं तं विभागेन दस्सेन्तो
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(८.३८२-३८२)
अचेलकस्सपवत्थुवण्णना
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"इधेकच्चो"तिआदिमाह। भगवा हि निरत्थकं अनुपसमसंवत्तनिकं कायकिलमथं "अत्तकिलमथानुयोगो दुक्खो अनरियो अनत्थसंहितो"तिआदिना (सं० नि० ३.१०८१; महाव० १३; पटि० म० २.३०) गरहति । सात्थकं पन उपसमसंवत्तनिकं “आरञिको होति, पंसुकूलिको होती"तिआदिना वण्णेति । अप्पपुञतायाति अपुञ्जताय । तीणि दुच्चरितानि पूरेत्वाति मिच्छादिट्ठिभावतो कम्मफलं पटिक्खिपन्तो “नत्थि दिन्न''न्तिआदिना (दी० नि० १.१७१; म० नि० १.४४५; २.९४, ९५, २२५; ३.९१, ११५; सं० नि० २.३.२१०; ध० स० १२२१; विभङ्ग ९३८) मिच्छादिहिँ पुरक्खत्वा तथा तथा तीणि दुच्चरितानि पूरेत्वा । अनेसनवसेनाति कोहळे ठत्वा असन्तगुणसम्भावनिच्छाय मिच्छाजीववसेन । इमे वेति “अप्पपुञो पुञवा''ति च वुत्ते दुच्चरितकारिनो द्वे पुग्गले सन्धाय ।
"इमे द्वे सन्याया"ति एत्थ पन दुतियनये “अप्पपुञो, पुञवा"ति च वुत्ते सुचरितकारिनोति आदिना योजेतब्बं । कम्मकिरियवादिनो हि इमे द्वे पुग्गला । इति पठमदुतियनयेसु वुत्तनयेनेव ततियचतुत्थनयेसु योजना वेदितब्बा ।
बाहिरकाचारयुत्तो तित्थियाचारयुत्तो, न विमुत्ताचारो। अत्तानं सुखेत्वाति अधम्मिकेन सुखेन अत्तानं सुखेत्वा, तेनाह "दुच्चरितानि पूरेत्वा"ति । "न दानि मया सदिसो अत्थी"तिआदिना तिस्सन्नं मानानं वसेन दुच्चरितपूरणमाह | मिच्छादिविवसेनाति "नत्थि कामेसु दोसो"ति एवं पवत्तमिच्छादिट्ठिवसेन । परिब्बाजिकायाति पब्बज्जं उपगताय तापसदारिकाय। दहरायाति तरुणाय । मुदुकायाति सुखुमालाय। लोमसायाति तनुतम्बलोमताय अप्पलोमाय । कामेसूति वत्थुकामेसु । पातव्यतन्ति परिभुजितबं, पातब्यतन्ति वा परिभुञ्जनकतं । आपज्जन्तोति उपगच्छन्तो । परिभोगत्थो हि अयं पा-सद्दो, कत्तुसाधनो च तब्ब-सद्दो, यथारुचि परिभुञ्जन्तोति अत्थो । किलेसकामोपि हि अस्सादियमानो वत्थुकामन्तोगधोयेव ।
__इदन्ति यथावुत्तं अत्थप्पभेदं विभज्जनं । तित्थियवसेन आगतं अट्ठकथायं तथा विभत्तत्ता | सासनेपीति इमस्मिं सासनेपि ।
___ अरहत्तं वा अत्तनि असन्तं “अत्थी'ति विप्पटिजानित्वा। सामन्तजप्पनं, पच्चयपटिसेवनं, इरियापथनिस्सितन्ति इमानि तीणि वा कुहनवत्थूनि। तादिसो वाति धुतङ्ग
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गटीका
(८.३८३-३८३)
(मि० प० ४.२; विसुद्धि० १.२२) -समादानवसेन लूखाजीवी एव । दुल्लभसुखो भविस्सामि दुग्गतीसु उपपत्तियाति अधिप्पायो ।
३८३. असुकट्ठानतोति असुकभवतो। आगताति निब्बत्तनवसेन इधागता। इदानि गन्तबट्ठानन्ति आयतिं निब्बत्तनट्ठानं । पुन उपपत्तिन्ति आयतिं अनन्तरभवतो ततियं उपपत्तिं, पुन उपपत्तीति पुनप्पुनं निब्बत्ति। केन कारणेनाति यथाभूतं अजानन्तो हि इच्छादोसवसेन यं किञ्चि गरहेय्य, अहं पन यथाभूतं जानन्तो सब् तं केन कारणेन गरहिस्सामि, तं कारणं नत्थीति अधिप्पायो, तेनाह "गरहितब्बमेवा"तिआदि । तमत्यन्ति गरहितब्बस्सेव गरहणं, पसंसितब्बस्स च पसंसनं ।
न कोचि “न साधू"ति वदति दिठ्ठधम्मिकस्स, सम्परायिकस्स च अत्थस्स साधनवसेनेव पवत्तिया भद्दकत्ता । पञ्चविधं वेरन्ति पाणातिपातादिपञ्चविधं वेरं । तहि पञ्चविधस्स सीलस्स पटिसत्तुभावतो, सत्तानं वेरहेतुताय च "वेर''न्ति वुच्चति । ततो एव तं न कोचि “साधू"ति वदति, तथा दिट्ठधम्मिकादिअत्थानं असाधनतो, सत्तानं साधुभावस्स च दूसनतो। न निरुन्धितब्बन्ति रूपग्गहणे न निवारेतब्बं । दस्सनीयदस्सनत्थो हि चक्खुपटिलाभोति तेसं अधिप्पायो । यदग्गेन तेसं पञ्चद्वारे असंवरो साधु, तदग्गेन तत्थ संवरो न साधूति आह "पुन यं ते एकच्चन्ति पञ्चद्वारे संवर"न्ति ।
अथ वा यं ते एकच्चं वदन्ति “साधू"ति ते "एके समणब्राह्मणा''ति वुत्ता तिथिया यं अत्तकिलमथानुयोगादिं “साधू"ति वदन्ति, मयं तं न “साधू"ति वदाम । यं ते एकच्चं वदन्ति “न साधू"ति यं पन ते अनवज्जपच्चयपरिभोगं, सुनिवत्थसुपारुपनादिसम्मापटिपत्तिञ्च “न साधू''ति वदन्ति, तं मयं “साधू"ति वदामाति एवं पेत्थ अत्थो वेदितब्बो।
एवं यं परवादमूलकं चतुक्कं दस्सितं, तदेव पुन सकवादमूलकं कत्वा दस्सितन्ति पकासेन्तो "एव"न्तिआदिमाह । यहि किञ्चि केनचि समानं, तेनपि तं समानमेव, तथा असमानं पीति । समानासमानतन्ति समानासमानतामत्तं । अनवसेसतो हि पहातब्बानं धम्मानं पहानं सकवादे दिस्सति, न परवादे । तथा परिपुण्णमेव च उपसम्पादेतब्बधम्मानं उपसम्पादनं सकवादे, न परवादे । तेन वुत्तं “त्याह"न्तिआदि ।
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(८.३८५-३८६-३९२)
समनुयुजापनकथावण्णना
३११
समनुयुजापनकथावण्णना
३८५. लद्धि पुच्छन्तोति “किं समणो गोतमो संकिलेसधम्मे अनवसेसं पहाय वत्तति, उदाहु परे गणाचरिया । एत्थ ताव अत्तनो लद्धिं वदाति लद्धिं पुच्छन्तो । कारणं पुच्छन्तोति “समणो गोतमो संकिलेसधम्मे अनवसेसं पहाय वत्तती"ति वुत्ते “केन कारणेन एवमत्थं गाहया"ति कारणं पुच्छन्तो । उभयं पुच्छन्तोति “इदं नामेत्थ कारण"न्ति कारणं वत्वा पटिञाते अत्थे साधियमाने अन्वयतो, ब्यतिरेकतो च कारणं समत्थेतुं सदिसासदिसभेदं उपमोदाहरणद्वयं पुच्छन्तो, उभयं पुच्छन्तो कारणस्स च तिलक्खणसम्पत्तिया यथापटिञाते अत्थे साधिते सम्मदेव अनुपच्छा भासन्तो निगमेन्तो समनुभासति नाम। उपसंहरित्वाति उपनेत्वा । "किं ते"तिआदि उपसंहरणाकारदस्सनं । दुतियपदेति “सङ्घन वा सङ्घ''न्ति इमस्मिं पदे ।
तमत्थन्ति तं पहातब्बधम्मानं अनवसेसं पहाय वत्तनसङ्घातञ्च समादातब्बधम्मानं अनवसेसं समादाय वत्तनसङ्खातञ्च अत्थं । योजत्वाति अकुसलादिपदेहि योजत्वा । अकोसल्लसम्भूतठून अकुसला चेव ततोयेव अकुसलाति च सह्यं गताति सङ्खाता तत्थ पुरिमपदेन एकन्ताकुसले वदति, दुतियपदेन तंसहगते, तंपक्खिये च, तेनाह "कोट्ठासं वा कत्वा ठपिता"ति, अकुसलपक्खियभावेन ववत्थापिताति अत्थो । अवज्जट्ठो दोसट्ठो गारव्हपरियायत्ताति आह "सावज्जाति सदोसा"ति । अरिया नाम निद्दोसा, इमे पन कत्थचिपि निद्दोसा न होन्तीति निद्दोसटेन अरिया भवितुं नालं असमत्था।
३८६-३९२. यन्ति कारणे एतं पच्चत्तवचनन्ति आह "येन विजू'ति । यं वा पनाति "यं पन किञ्ची"ति असम्भावनवचनमेतन्ति आह "यं वा तं वा अप्पमत्तक"न्ति । गणाचरिया पूरणादयो । सत्थुप्पभवत्ता सङ्घस्स सङ्घसम्पत्तियापि सत्थुसम्पत्ति विभावीयतीति आह. “सङ्घपसंसायपि सत्थुयेव पसंसासिद्धितो"ति। सा पन पसंसा पसादहेतुकाति पसादमुखेन तं दस्सेतुं “पसीदमानापि ही"तिआदि वुत्तं । तत्थ पि-सद्देन यथा अन्वयतो पसंसा समुच्चीयति, एवं सत्थुविप्पटिपत्तिया सावकेसु, सावकविप्पटिपत्तिया च सत्थरि अप्पसादो समुच्चीयतीति दट्टब् । सरीरसम्पत्तिन्ति रूपसम्पत्तिं, रूपकायपारिपूरिन्ति अत्थो । भवन्ति वत्तारो रूपप्पमाणा, घोसधम्मप्पमाणा च । पुन भवन्ति वत्तारोति धम्मप्पमाणवसेनेव योजेतब्बं । या सङ्घस्स पसंसाति आनेत्वा सम्बन्धो ।
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गटीका
(८.३९३-३९३)
तत्थ या बुद्धानं, बुद्धसावकानंयेव च पासंसता, अञसञ्च तदभावो जोतितो, तं विरतिप्पहानसंवरुद्देसवसेन नीहरित्वा दस्सेतुं “अयमधिप्पायो"तिआदि वुत्तं । तत्थ सेतुघातविरति नाम अरियमग्गविरति । विपस्सनामत्तवसेनाति “अनिच्च"न्ति वा “दुक्ख"न्ति वा विविधं दस्सनमत्तवसेन, न पन नामरूपववत्थानपच्चयपरिग्गण्हनपुब्बकं लक्खणत्तयं आरोपेत्वा सङ्घारानं सम्मसनवसेन । इतरानीति समुच्छेदपटिप्पस्सद्धिनिस्सरणप्पहानानि । "सेस"न्ति पञ्चसीलतो अञो सब्बो सीलसंवरो, “खमो होती"तिआदिना (म० नि० १.२४; ३.१५९; अ० नि० १.४.११४) वुत्तो सुपरिसुद्धो खन्तिसंवरो, “पञ्जायेते पिधिय्यरे"ति (सु० नि० १०४१; चूळनि० ६०) एवं वुत्तो किलेसानं समुच्छेदको मग्गाणसङ्घातो आणसंवरो, मनच्छट्टानं इन्द्रियानं पिदहनवसेन पवत्तो परिसुद्धो इन्द्रियसंवरो, “अनुप्पन्नानं पापकानं अकुसलानं धम्मानं अनुप्पादाया"तिआदिना (दी० नि० २.४०२, म० नि० १.१३५, सं० नि० ३.५.८: विभङ्ग० २०५) वत्तो सम्मप्पधानसातो वीरियसंवरोति इमं संवरपञ्चकं सन्धायाह। पञ्च खो पनिमे पातिमोक्खुद्देसातिआदि सासने सीलस्स बहुभावं दस्सेत्वा तदेकदेसे एव परेसं अवठ्ठानदस्सनत्थं यथावुत्तसीलसंवरस्सेव पुन गहणं ।
अरियअटुङ्गिकमग्गवण्णना
३९३. सीहनादन्ति सेनादं, अभीतनादं केनचि अप्पटिवत्तियनादन्ति अत्थो । “अयं यथावुत्तो मम वादो अविपरीतो, तस्स अविपरीतभावो इमं मग्गं पटिपज्जित्वा अपरप्पच्चयतो जानितब्बो"ति एवं अविपरीतभावावबोधनत्थं । “अत्थि कस्सपा"तिआदीसु यं मग्गं पटिपन्नो समणो गोतमो वदन्तो युत्तपत्तकाले, तथभावतो भूतं, एकंसतो हिताविहभावेन अत्थं, धम्मतो अनपेतत्ता धम्म, विनययोगतो परेसं विनयनतो च विनयं वदतीति सामंयेव अत्तपच्चक्खतोव जानिस्सति, सो मया सयं अभिजा सच्छिकत्वा पवेदितो सकलवट्टदुक्खनिस्सरणभूतो अत्थि कस्सप मग्गो, तस्स च अधिगमूपायभूता पुब्बभागपटिपदाति अयमेत्थ योजना । तेन "समणो गोतमो इमे धम्मे"तिआदिनयप्पवत्तो वादो केनचि असंकम्पियो यथाभूतसीहनादोति दस्सेति ।
“एवमेतं यथाभूतं सम्मप्पाय पस्सती"तिआदीसु (अ० नि० १.३.१३४) विय मग्गञ्च पटिपदञ्च एकतो कत्वा दस्सेन्तो। “अयमेवा"ति वचनं मग्गस्स पुथुभावपटिक्खेपनत्थं, सब्बअरियसाधारणभावदस्सनत्थं, सासने पाकटभावदस्सनत्थञ्च । तेनाह
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(८.३९४-३९४)
तपोपक्कमकथावण्णना
३१३
"एकायनो अयं भिक्खवे मग्गो"ति, (दी० नि० २.३७३; म० नि० १.१०६; सं० नि० ३.५.३६७, ३८४, ४०९)“एसेव मग्गो नत्थो दस्सनस्स विसुद्धिया'"ति (ध० प० २७४),
“एकायनं जातिखयन्तदस्सी,
मग्गं पजानाति हितानुकम्पी। एतेन मग्गेन तरिंसु पुब्बे,
तरिस्सन्ति ये च तरन्ति ओघ"न्ति ।। (सं० नि० ३.५.३८४, ४०९; महानि० १९१; चूळनि० १०७, १२१; नेत्ति० १७०) ।
सब्बेसु सुत्तपदेसेसु अभिधम्मपदेसेसु च एकोवायं मग्गो पाकटो पञतो आगतो चाति ।
तपोपक्कमकथावण्णना
३९४. तपोयेव उपक्कमितब्बतो आरभितब्बतो तपोपक्कमोति आह "तपारम्भा"ति। आरम्भनञ्चेत्थ करणमेवाति आह "तपोकम्मानीति अत्थो"ति | समणकम्मसङ्घाताति समणेहि कत्तब्बकम्मसञिता। निच्चोलोति निस्सठ्ठचेलो सब्बेन सब् पटिक्खित्तचेलो। नग्गियवतसमादानेन नग्गो। “ठितकोव उच्चारं करोती"तिआदि निदस्सनमत्तं, वमित्वा मुखविक्खालनादिआचारस्सपि तेन विस्सठ्ठत्ता । जिव्हाय हत्थं अपलिखति अपलिहति उदकेन अधोवनतो। दुतियविकप्पेपि एसेव नयो। “एहि भद्दन्ते'"ति वुत्ते उपगमनसङ्खातो विधि एहिभद्दन्तो, तं चरतीति एहिभद्दन्तिको, तप्पटिक्खेपेन न एहिभद्दन्तिको। न करोति समणेन नाम परस्स वचनकरेन न भवितब्बन्ति अधिप्पायेन । पुरेतरन्ति तं ठानं अत्तनो उपगमनतो पुरेतरं । तं किर सो "भिक्खुना नाम यादिच्छकी एव भिक्खा गहेतब्बा''ति अधिप्पायेन न गण्हाति । उद्दिस्सकतं “मम निमित्तभावेन बहू खुद्दका पाणा सङ्घातं आपादिता''ति न गण्हाति | निमन्तनं न सादियति “एवं तेसं वचनं कतं भविस्सती"ति । कुम्भीआदीसुपि सो सत्तसञ्जीति आह "कुम्भीकळोपियो"तिआदि ।
कबळन्तरायोति कबळस्स अन्तरायो होतीति। गामसभागादिवसेन सङ्गम्म कित्तेन्ति एतिस्साति सङ्कित्ति, तथा संहटतण्डुलादिसञ्चयो । मनुस्साति वेय्यावच्चकरमनुस्सा ।
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( ८.३९५ - ३९६ )
सुरापानमेवाति मज्जलक्खणप्पत्ताय सुराय पानमेव सुराग्गहणेन चेत्थ मेरयम्पि सङ्ग्रहितं । एकागारमेव उञ्छतीति एकागारिको । एकालोपेनेव वत्ततीति एकालोपिको | दीयति एतायाति दत्ति, द्वत्तिआलोपमत्तगाहि खुद्दकं भिक्खादानभाजनं, तेनाह “खुद्दकपाती 'ति । अभुञ्जनवसेन एको अहो एतस्स अत्थीति एकाहिको, आहारो । तं एकाहिकं, सो पन अत्थतो एकदिवसलङ्घकोति आह " एकदिवसन्तरिक "न्ति । “बीहिक "न्तिआदीसुपि एसेव नयो । एकाहं अभुञ्जित्वा एकाहं भुञ्जनं एकाहवारी, तं एकाहिकमेव अत्थतो । द्वीहं अभुञ्जित्वा द्वीहं भुञ्जनं द्वीहवारो । सेसद्वयेपि एसेव नयो । उक्कट्ठो पन परियायभत्तभोजनिको द्वीहं अभुञ्जित्वा एकाहमेव भुञ्जति । सेसद्व एसेव नयो ।
३९५. कुण्डकन्ति तनुतरं तण्डुलसकलं ।
३९६. सणेहि सणवाकेहि निब्बत्तवत्थानि साणानि । मिस्ससाणानि मसाणानि, न भङ्गानि । एरकतिणादीनीति आदि-सद्देन अक्कमकचिकदलीवाकादीनं सङ्गहो । एरकादीहि कतानि हि छवानि लामकानि दुस्सानीति वत्तब्बतं लभन्ति ।
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गटीका
मिच्छावायामवसेनेव उक्कुटिकवतानुयोगोति आह “उक्कुटिकवीरियं अनुयुत्तो 'ति । थण्डिलन्ति वा समा पकतिभूमि वुच्चति “पत्थण्डिले पातुरहोसी' 'तिआदीसु (म० नि० २.४.१०) विय, तस्मा थण्डिलसेय्यन्ति अनन्तरहिताय पकतिभूमियं सेय्यन्ति वृत्तं होति । लद्धं आसनन्ति निसीदितुं यथालद्धं आसनं । अकोपेत्वाति अञ्ञत्थ अनुपगन्त्वा, तेनाह " तत्थेव निसीदनसीलो "ति । सो हि तं अछड्डेन्तो अपरिच्चजन्तो अकोपेन्तो नाम होति । विकटन्ति गूथं बुच्चति आसयवसेन विरूपं जातन्ति कत्वा ।
एत्थ च “ अचेलको होती "तिआदीनि वतपदानि याव “न थुसोदकं पिवतीति एतानि एकवारानि । " एकागारिको वा "तिआदीनि नानावारानि, नानाकालिकानि वा । तथा " साकभक्खो वा 'तिआदीनि, “साणानिपि धारेती "तिआदीनि च । तथा हेत्थ वा-सद्दग्गहणं, पि-सद्दग्गहणञ्च कतं । पि सद्दोपि विकप्पत्थो एव दट्ठब्बो । पुरिमेसु पन न कतं । एवञ्च कत्वा " अचेलको होती 'ति वत्वा “साणानिपि धारेती 'तिआदि वचनस्स, “रजोजल्लधरो होती 'ति वत्वा “उदकोरोहनानुयोगं अनुयुत्तो 'ति वचनस्स च अविरोध सिद्धो होति । अथ वा किमेत्थ अविरोधचिन्ताय । उम्मत्तकपच्छिसदिसो हि तित्थियवादो ।
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(८.३९७-४००-१)
तपोपक्कमनिरत्यकथावण्णना
३१५
अथ वा “अचेलको होती''ति आरभित्वा तप्पसङ्गेन सब्बम्पि अत्तकिलमथानुयोगं दस्सेन्तेन "साणानिपि धारेती"तिआदि वुत्तन्ति दट्ठब्बं ।
तपोपक्कमनिरत्थकथावण्णना ३९७. सीलसम्पदादीहि विनाति सीलसम्पदा, समाधिसम्पदा, पञ्जासम्पदाति इमाहि लोकुत्तराहि सम्पदाहि विना न कदाचि सामजं वा ब्रह्मजं वा सम्भवति, यस्मा च तदेवं, तस्मा तेसं तपोपक्कमानं निरत्थकतं दस्सेन्तोति योजना । "दोसवेरविरहित"न्ति इदं दोसस्स मेत्ताय उजुपटिपक्खताय वुत्तं । दोस-ग्गहणेन वा सब्बेपि झानपटिपक्खा संकिलेसधम्मा गहिता, वेर-ग्गहणेन पच्चत्थिकभूता सत्ता । यदग्गेन हि दोसरहितं, तदग्गेन वेररहितन्ति ।
३९८. पाकटभावेन कायति गमेतीति पकति, लोकसिद्धवादो, तेनाह "पकति खो एसाति पकतिकथा एसा"ति । मत्तायाति मत्ता-सद्दो “मत्ता सुखपरिच्चागा'"तिआदीसु (ध० प० २९०) विय अप्पत्थं अन्तोनीतं कत्वा पमाणवाचकोति आह "इमिना पमाणेन एवं परित्तकेना"ति । तेन पन पमाणेन पहातब्बो पकरणप्पत्तो पटिपत्तिक्कमोति आह “पटिपत्तिक्कमेना"ति | सब्बत्थाति सब्बवारेसु ।
३९९. अञथा वदथाति यदि अचेलकभावादिना सामनं वा ब्रह्मनं वा अभविस्स, सुविजानोव समणो सुविजानो ब्राह्मणो । यस्मा पन तुम्हे इतो अञथाव सामनं ब्रह्मज्ञञ्च वदथ, तस्मा दुज्जानोव समणो दुज्जानो ब्राह्मणो, तेनाह "इदं सन्धायाहा"ति । तं पकतिवादं पटिक्खिपित्वाति पुब्बे यं पाकतिकं सामनं ब्रह्मज्ञञ्च हदये ठपेत्वा तेन “दुक्कर''न्तिआदि वुत्तं, तमेव सन्धाय भगवतापि “पकति खो एसा'तिआदि वृत्तं । इध पन तं पकतिवादं पाकतिकसमणब्राह्मणविसयं कथं पटिक्खिपित्वा पटिसंहरित्वा सभावतोव परमत्थतोव समणस्स ब्राह्मणस्स च दुजानभावं आविकरोन्तो पकासेन्तो । तत्रापीति समणब्राह्मणवादेपि वुत्तनयेनेव ।
सीलसमाधिपञ्जासम्पदावण्णना ४००-१. पण्डितोति हेतुसम्पत्तिसिद्धेन पण्डिच्चेन समन्नागतो, कथं उग्गहेसि
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गटीका
(८.४०२-४०३)
परिपक्कञाणत्ता घटे पदीपेन विय अब्भन्तरे समुज्जलन्तेन पञ्जावेय्यत्तियेन तत्थ तत्थ भगवता देसितमत्थं परिग्गण्हन्तो तम्पि देसनं उपधारेसि । तस्स चाति यो अचेलको होति याव उदकोरोहनानुयोगं अनुयुत्तो विहरति, तस्स च । ता सम्पत्तियो पुच्छामि, याहि समणो च होतीति अधिप्पायो । सीलसम्पदायाति इति-सद्दो आदिअत्थो, तेन “चित्तसम्पदाय पञ्जासम्पदाया"ति पदद्वयं सङ्गण्हाति असेक्खसीलादिखन्धत्तयसङ्गहितहि अरहत्तं, तेनाह "अरहत्तफलमेव सन्धाय वुत्त"न्तिआदि । तत्थ इदन्ति इदं वचनं ।
सीहनादकथावण्णना
४०२. अनञसाधारणताय, अनञसाधारणत्थविसयताय च अनुत्तरं बुद्धसीहनादं नदन्तो। अतिविय अच्चन्तविसुद्धताय परमविसुद्धं। परमन्ति उक्कटुं, तेनाह "उत्तम"न्ति । सीलमेव लोकियसीलत्ता। यथा अनञसाधारणं भगवतो लोकुत्तरसीलं सवासनं पटिपक्खविद्धंसनतो, एवं लोकियसीलम्पि तस्स अनुच्छविकभावेन सम्भूतत्ता, समेन समन्ति समसमन्ति अयमेत्थ अत्थोति आह "मम सीलसमेन सीलेन मया सम"न्ति । "यदिदं अधिसील"न्ति लोकियं, लोकुत्तरञ्चाति दुविधम्पि बुद्धसीलं एकझं कत्वा वुत्तं । तेनाह “सीलेपी"ति । इति इमन्ति एवं इमं सीलविसयं । पठमं पवत्तत्ता पठमं।
तपतीति सन्तप्पति, विधमतीति अत्थो । जिगुच्छतीति हीळेति लामकतो ठपेति । निदोसत्ता अरिया आरका किलेसेहीति । मग्गफलसम्पयुत्ता वीरियसङ्खाता तपोजिगुच्छाति
आनेत्वा सम्बन्धो । परमा नाम सब्बुक्कट्ठभावतो। यथा युविनो भावो योब्बनं, एवं जिगुच्छिनो भावो जेगुच्छं। किलेसानं समुच्छिन्दनपटिप्पस्सम्भनानि समुच्छेदपटिपस्सद्धिविमुत्तियो। निस्सरणविमुत्ति निब्बानं । अथ वा सम्मावाचादीनं अधिसीलग्गहणेन, सम्मावायामस्स अधिजेगुच्छग्गहणेन, सम्मादिट्ठिया अधिपञ्जाग्गहणेन गहितत्ता अग्गहितग्गहणेन सम्मासङ्कप्पसतिसमाधयो मग्गफलपरियापन्ना समुच्छेदपटिपस्सद्धिविमुत्तियो दट्टब्बा । निस्सरणविमुत्ति पन निब्बानमेव ।
४०३. यं किञ्चि जनविवित्तं ठानं इध "सुआगार"न्ति अधिप्पेतं । तत्थ नदन्तेन विना नादो नत्थीति आह "एकतोव निसीदित्वा"ति । अट्ठसु परिसासूति खत्तियपरिसा, ब्राह्मणपरिसा, गहपतिपरिसा, समणपरिसा, चातुमहाराजिकपरिसा, तावतिंसपरिसा, मारपरिसा, ब्रह्मपरिसाति इमासु अट्ठसु परिसासु ।
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(८.४०३-४०३)
सीहनादकथावण्णना
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वेसारज्जानीति विसारदभावा आणप्पहानसम्पदानिमित्तं कुतोचि असन्तस्सनभावा निब्भयभावाति अत्थो । आसभं ठानन्ति सेठं ठानं, उत्तमं ठानन्ति अत्थो । आसभा वा पुब्बबुद्धा, तेसं ठानन्ति अत्थो ।
अपिच उसभस्स इदन्ति आसभं, आसभं वियाति आसभं । यथा हि निसभसङ्घातो उसभो अत्तनो उसभबलेन चतूहि पादेहि पथविं उप्पीळेत्वा अचलट्ठानेन तिट्ठति, एवं तथागतोपि दसहि तथागतबलेहि समन्नागतो चतूहि वेसारज्जपादेहि अट्ठपरिसापथविं उप्पीळेत्वा सदेवके लोके केनचि पच्चत्थिकेन अकम्पियो अचलेन ठानेन तिट्ठति । एवं तिट्ठमानोव तं आसभं ठानं पटिजानाति उपगच्छति न पच्चक्खाति अत्तनि आरोपेति । तेन वुत्तं “आसभं ठानं पटिजानाती'ति ।।
सीहनादं नदतीति यथा मिगराजा परिस्सयानं सहनतो, वनमहिंसमत्तवारणादीनं हननतो च “सीहो"ति वुच्चति, एवं तथागतो लोकधम्मानं सहनतो, परप्पवादानं हननतो च “सीहो"ति वुच्चति । एवं वुत्तस्स सीहस्स नादं सीहनादं । तत्थ यथा सीहो सीहबलेन समन्नागतो सब्बत्थ विसारदो विगतलोमहंसो सीहनादं नदति, एवं तथागतसीहोपि दसहि तथागतबलेहि समन्नागतो अट्ठसु परिसासु विसारदो विगतलोमहंसो “इति रूप"न्तिआदिना (सं० नि० २.३.७८; अ० नि० ३.८.२) नयेन नानाविलाससम्पन्नं सीहनादं नदति ।
___ पहं अभिसकरित्वाति ज्ञातुं इच्छितमत्थं अत्तनो आणबलानुरूपं अभिरचित्वा तवणंयेवाति पुच्छितक्खणेयेव ठानुप्पत्तिकपटिभानेन विस्सज्जेति। चित्तं परितोसेतियेव अज्झासयानुरूपं विस्सज्जनतो। सोतब्बञ्चस्स मञन्ति अट्ठक्खणवज्जितेन नवमेन खणेन लब्भमानत्ता। “यं नो सत्था भासति, तं नो सोस्सामा"ति आदरगारवजाता महन्तेन उस्साहेन सोतब्बं सम्पटिच्छितब्बं मञ्जन्ति। सुप्पसना पसादाभिबुद्धिया विगतुपक्किलेसताय कल्लचित्ता मुदुचित्ता होन्ति। पसनकारन्ति पसन्नेहि कातब्बसक्कारं, धम्मामिसपूजन्ति अत्थो । तत्थ आमिसपूजं दस्सेन्तो "पणीतानी"तिआदिमाह | धम्मपूजा पन "तथत्ताया"ति इमिना दस्सिता। तथाभावायाति यथत्ताय यस्स वट्टदुक्खनिस्सरणत्थाय धम्मो देसितो, तथाभावाय, तेनाह "धम्मानुधम्मपटिपत्तिपूरणत्थाया'ति । सा च धम्मानुधम्मपटिपत्ति याय अनुपुब्बिया पटिपज्जितब्बा, पटिपज्जन्तानञ्च सति अज्झत्तिकङ्गसमवाये एकंसिका तस्सा पारिपूरीति तं अनुपुब्बिं दस्सेतुं “केचि सरणेसू"तिआदि वुत्तं ।
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( ८.४०४ - ४०५)
एतस्मिं
इमस्मिं पनोकासे ठत्वात "पटिपन्ना च आराधेन्तीति सीहनादकिच्चपारिपूरिदीपने पाळिपदेसे ठत्वा । समोधानेतब्बाति सङ्कलितब्बा । एको सीहनादो असाधारणो अञेहि अप्पटिवत्तियो सेट्ठनादो अभीतनादोति कत्वा । एस नयो सेसेसुपि । पुरिमानं दसन्नन्ति आदितो पट्ठाय याव " विमुत्तिया मय्हं सदिसो नत्थी "ति एतेसं पुरिमानं दसन्नं सीहनादानं, निद्धारणे चेत्थ सामिवचनं तेनाह “एकेकस्सा "ति । “परिसासु च नदती "ति आदयो परिवारा “एकच्चं तपस्सिं निरये निब्बत्तं पस्सामी 'ति सीहनादं नदन्तो भगवा परिसायं नदति विसारदो नदति याव " पटिपन्ना आराधेन्ती "ति अत्थयोजनाय सम्भवतो । तथा सेसेसुपि नवसु ।
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गटीका
" एव "न्तिआदि यथावुत्तानं तेसं सङ्कलेत्वा दस्सनं । ते दसाति ते “परिसासु च नदती'ति आदयो सीहनादा । पुरिमानं दसन्नन्ति यथावुत्तानं पुरिमानं दसन्नं । परिवारवसेनाति पच्चेकं परिवारवसेन योजियमाना सतं सीहनादा । पुरिमा च दसाति तथा अयोजियमाना पुरिमा च दसाति एवं दसाधिकं सीहनादसतं होति । एवं वादीनं वादन्ति एवं पवत्तवादानं तित्थियानं वादं । पटिसेधेत्वाति तथाभावाभावदस्सनेन पटिक्खिपित्वा । यं भगवा उदुम्बरिकसुत्ते "इध निग्रोध तपस्सी" तिआदिना (दी० नि० ३.३३) उपक्किलेसविभागं, पारिसुद्धिविभागञ्च दस्सेन्तो सपरिसस्स निग्रोधस्स परिब्बाजकस्स पुरतो सीहनादं नदि, तं दस्सेतुं " इदानि परिसति नदितपुब्बं सीहनादं दस्सेन्तो 'ति आदि वृत्तं ।
तित्थियपरिवासकथावण्णना
४०४. इदन्ति “राजगहे गिज्झकूटे पब्बते विहरन्तं मं... पे०... पञ्हं पुच्छी "ति इदं वचनं । कामं यदा निग्रोधो पञ्हं पुच्छि भगवा चस्स विस्सज्जेसि, न तदा गिज्झकूटे पब्बते विहरति, राजगहसमीपे पन विहरतीति कत्वा " राजगहे गिज्झकूटे पब्बते विहरन्तं म"न्ति वुत्तं, गिज्झकूटे विहरणञ्चस्स तदा अविच्छिन्नन्ति तेनाह “यं तं भगवा'तिआदि | योगेति नये, दुक्खनिस्सरणूपायेति अत्थो ।
४०५. यं परिवासं सामणेरभूमियं ठितो परिवसतीति योजना । यस्मा सामणेरभूमियं ठितेन परिवसितब्बं न गिहिभूतेन तस्मा अपरिवसित्वायेव पब्बज्जं लभति । आकङ्क्षति पब्बज्जं, आकङ्क्षति उपसम्पदन्ति एत्थ पन पब्बज्जा-ग्गहणं वचनसिलिट्ठतावसेनेव
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(८.४०५-४०५)
" दिरत्ततिरत्तं सहसेय्यन्ति (पाचि० ५०) एत्थ दिरत्तग्गहणं विय । गामप्पवेसनादीनीति आदि- सद्देन वेसियाविधवाथुल्लकुमारिपण्डकभिक्खुनिगोचरता, सब्रह्मचारीनं उच्चावचेसु किंकरणीयेसु दक्खानलसादिता, उद्देसपरिपुच्छादीसु तिब्बछन्दता, यस्स तित्थायतनतो इधागतो, तस्स अवण्णे, रतनत्तयस्स च वण्णे अनत्तमनता, तदुभयं यथाक्कमं वण्णे च अवण्णे च अत्तमनताति इमेसं सङ्गहो वेदितब्बो, तेनाह " अट्ठ वत्तानि पूरेन्तेना "ति । घंसित्वा कोट्टेत्वाति अज्झासयस्स वीमंसनवसेन सुवण्णं विय घंसित्वा कोट्टेत्वा ।
तित्थियपरिवासकथावण्णना
गणमज्झे निसीदित्वाति उपसम्पदाकम्मस्स गणप्पहोनकानं भिक्खूनं मज्झे सङ्घत्थेरो विय तस्स अनुग्गहत्थं निसीदित्वा । वूपकट्ठोति विवित्तो । तादिसस्स सीलविसोधने अप्पमादो अवुत्तसिद्धोति आह “कम्मट्ठाने सतिं अविजहन्तो 'ति । पेसितचित्तोति निब्बानं पति पेसितचित्तो तंनिन्नो तप्पोणो तप्पब्भारो । जातिकुलपुत्तापि आचारसम्पन्ना एव अरहत्ताधिगमाय पब्बज्जापेक्खा होन्तीति तेपि तेहि एकसङ्गहे करोन्तो आह “कुल आचारकुलपुत्ता'ति, तेनाह " सम्मदेवाति हेतुनाव कारणेनेवा "ति । 'ओतिण्णोम्हि जातिया 'तिआदिना नयेन हि संवेगपुब्बिकं यथानुसिट्टं पब्बज्जं सन्धाय इध " सम्मदेवा" ति वृत्तं । हेतुनाति आयेन । पापुणित्वाति पत्वा अधिगन्त्वा । सम्पादेत्वाति असेक्खा सीलसमाधिपञ निप्फादेत्वा, परिपूरेत्वा वाति अत्थो ।
निट्ठातुन्ति निगमनवसेन परियोसापेतुं । “ब्रह्मचरियपरियोसानं... पे०... विहासी "ति इमिना एव हि अरहत्तनिकूटेन देसना परियोसापिता । तं पन निगमेन्तो “ अञ्ञतरो खो पना... पे०... अहोसी" ति वुत्तं धम्मसङ्गाहकेहि । यं पनेत्थ अत्थतो न विभत्तं, तं सुविज्ञेय्यमेव ।
महासीहनादसुत्तवण्णनाय लीनत्थष्पकासना ।
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९. पोट्ठपादसुत्तवण्णना
पोट्टपादपरिब्बाजकवत्थुवण्णना
४०६. सावत्थियन्ति समीपत्थे भुम्मन्ति आह “सावत्थिं उपनिस्साया ''ति । जेस्स कुमारस्स बनेति जेतेन नाम राजकुमारेन रोपिते उपवने । निवासफासुतादिना पब्बजिता आरमन्ति एत्थाति आरामो, विहारो | फोटो पादेसु जातोति पोट्ठपादो । वत्थच्छायाछादनपब्बजूपगतत्ता छन्नपरिब्बाजको । ब्राह्मणमहासा महाविभवताय महासारतापत्तो ब्राह्मणो । समयन्ति सामञ्ञनिद्देसो, तं तं समयन्ति अत्थो । पवदन्तीति पकारतो वदन्ति, अत्तना अत्तना उग्गहितनियामेन यथा तथा समयं वदन्तीति अत्थो । " पभुतयो” ति इमिना तोदेय्यजाणुसोणीसोणदण्डादिके सङ्गण्हाति, परिब्बाजकादयोति आदि-सद्देन छन्नपरिब्बाजकादिके । तिन्दुकाचीरमेत्थ अत्थीति तिन्दुकाचीरो, आरामो । तथा एका साला एत्थाति एकसालको, तस्मिं तिन्दुकाचीरे एकसालके ।
अनेकाकारानवसेसज्ञेय्यत्थविभावनतो, अपरापरुप्पत्तितो च भगवतो आणं तत्थ पत्थटं विय होतीति वुत्तं "सब्बञ्ञतञ्ञाणं पत्थरित्वा "ति, यतो तस्स ञणजालता वुच्चति, वेनेय्यानं तदन्तोगधता हेट्ठा वुत्तायेव । वेनेय्यसत्तपरिग्गण्हनत्थं समन्नाहारे कते पठमं नेसं वेनेय्यभावेनेव उपट्ठानं होति, अथ सरणगमनादिवसेन किच्चनिष्पत्ति वीमंसीयतीति आह " किं नु खो भविस्सतीति उपपरिक्खन्तोति । निरोधन्ति सञ्ञानिरोधं । निरोधा बुट्ठानन्ति ततो निरोधतो वुट्ठानं सञ्ञप्पत्तिं । सब्बबुद्धानं आणेन संसन्दित्वाति यथा ते निरोधं, निरोधतो वुट्ठानञ्च ब्याकरिंसु, ब्याकरिस्सन्ति च, तथा ब्याकरणवसेन संसन्दित्वा । हत्थिसारिपुत्तोति हत्थिसारिनो पुत्तो । “युगन्धरपब्बतं परिक्खिपित्वा" ति इदं परिकप्पवचनं "तादिसं अत्थि चे, तं विया "ति । मेघवण्णन्ति मेघवणं, सञ्झाप्पभानुरञ्जितमेघसङ्कासन्ति अत्थो । पच्चग्धन्ति अभिनवं आदितो तथालद्धवोहारेन,
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( ९.४०७ - ४०९ )
पोट्टपादपरिब्बाजकवत्थुवण्णना
अनञ्ञपरिभोगताय, तथा वा सत्थु अधिट्ठानेन सो पत्तो सब्बकालं “पच्चग्घं" त्वेव वुच्चति, सिलादिवुत्तरतनलक्खणूपपत्तिया वा सो पत्तो " पच्चग्घ "न्ति वुच्चति ।
४०७.
अत्तनो रुचिवसेन सद्धम्मट्ठितिज्झासयवसेन, न परेन उस्साहितोति अधिप्पायो । “अतिप्पगभावमेव दिस्वाति इदं भूतकथनं न ताव भिक्खाचारवेला सम्पत्ताति दस्सनत्थं । भगवा हि तदा कालस्सेव विहारतो निक्खन्तो “वासनाभागियाय धम्मदेसनाय पोट्टपादं अनुग्गहिस्सामी 'ति । यन्नूनाहन्ति अञ्ञत्थ संसयपरिदीपनो, इध पन संसयपरिदीपनो विय। कस्माति आह “बुद्धान "न्तिआदि । संसयो नाम नत्थि बोधिमूले एव समुग्घाटितत्ता । परिवितक्कपुब्बभागोति अधिप्पेतकिच्चस्स पुब्बभागपरिविितक्को एव । बुद्धानं लब्भतीति “करिस्साम, न करिस्सामा 'तिआदिको एस चित्तचारो बुद्धानं भि सम्भवति विचारणवसेन पवत्तनतो, न पन संसयवसेन । तेनाहाति येन बुद्धानम्पि लब्भति, तेनेवाह भगवा " यन्नूनाह "न्ति । परिकप्पने वायं निपातो । “उपसङ्कमेय्यन्ति किरियापदेन वच्चमानो एव हि अत्थो “ यन्नूना' 'ति निपातपदेन जोतीयति । अहं यन्नून उपसङ्कमेय्यन्ति योजना । यदि पनाति इदम्पि तेन समानत्थन्ति आह “यदि पनाहन्ति अत्थो 'ति ।
४०८. यथा उन्नतप्पायो सद्दो उन्नादो, एवं विपुलभावेन उपरूपरि पवत्तोप उन्नादोति तदुभयं एकज्झं कत्वा पाळियं “ उन्नादिनिया "ति वत्वा पुन विभागेन दस्सेतुं “उच्चासद्दमहासद्दायाति वुत्तन्ति तमत्थं विवरन्तो “उच्चं नदमानाया "तिआदिमाह । अस्साति परिसाय । उद्धंगमनवसेनाति उन्नतबहुलताय उग्गन्त्वा उग्गन्त्वा पवत्तनवसेन । दिसासु पत्थटवसेनाति विपुलभावेन भूतपरम्पराय सब्बदिसासु पत्थरणवसेन । इदानि परिब्बाजकपरिसाय उच्चासद्दमहासद्दताय कारणं, तस्स च पवत्तिआकारं दस्सेन्तो “तेसञ्ही”तिआदिमाह । कामस्सादो नाम कामगुणस्सादो । कामभवादिगतो अस्सादो भवस्सादो ।
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४०९. सण्ठपेसीति संयमनवसेन सम्मदेव ठपेसि, सण्ठपनञ्चेत्थ तिरच्छानकथाय अञ्ञमञ्ञस्मिं अगारवस्स जहापनवसेन आचारस्स सिक्खापनं यथावुत्तदोसस्स निगूहनञ्च होतीति आह "सिक्खापेसी " तिआदि । अप्पसद्दन्ति निस्सद्दं, उच्चासद्दमहासद्दाभावन्ति अधिपायो । नप्पमज्जन्तीति न अगारवं करोन्ति ।
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गटीका
(९.४१०-४११)
४१०. नो आगते आनन्दोति भगवति आगते नो अम्हाकं आनन्दो पीति होति। पियसमुदाचाराति पियालापा । “पच्चुग्गमनं अकासी"ति वत्वा न केवलमयमेव, अथ खो अञपि पब्बजिता येभुय्येन भगवतो अपचितिं करोन्तेवाति दस्सेतुं "भगवन्तही"तिआदिं वत्वा, तत्थ कारणमाह "उच्चाकुलीनताया"ति, तेन सासने अप्पसन्नापि कुलगारवेन भगवति अपचितिं करोन्ते वाति दस्सेति । एतस्मिं अन्तरे का नाम कथाति एतस्मिं यथावुत्तपरिच्छेदब्भन्तरे कथा का नाम । विप्पकता आरद्धा हुत्वा अपरियोसिता । “का कथा विप्पकता"ति वदन्तो अत्थतो तस्सा परियोसापनं पटिजानाति नाम । “का कथा"ति च अविसेसचोदनाति यस्सा तस्सा सब्बस्सापि कथाय परियोसापनं पटिञातञ्च होति, तञ्च परेसं असब्बञ्जूनं अविसयन्ति आह "परियन्तं नेत्वा देमीति सब्ब पवारणं पवारेसी"ति |
अभिसानिरोधकथावण्णना
४११. सुकारणन्ति सुन्दरं अत्थावहं हितावहं कारणं । नानातित्थेसु नानालद्धीसु नियुत्ताति नानातिथिका, ते एव नानातित्थिया क-कारस्स य-कारं कत्वा । कुतूहलमेत्थ अत्थीति कोतूहला, सा एव सालाति कोतूहलसाला, तेनाह "कोतूहलुप्पत्तिहानतो"ति । सानिरोधेति सञ्जासीसेनायं देसना, तस्मा सञआसहगता सब्बेपि धम्मा सङ्गय्हन्ति, तत्थ पन चित्तं पधानन्ति आह "चित्तनिरोधे"ति । अच्चन्तनिरोधस्स पन तेहि अनधिप्पेतत्ता, अविसयत्ता च "खणिकनिरोधे"ति आह । कामं सोपि तेसं अविसयोव, अस्थतो पन निरोधकथा वुच्चमाना तत्थेव तिद्वतीति तथा वुत्तं । कित्तिघोसोति “अहो बुद्धानुभावो भवन्तरपटिच्छन्नं कारणं एवं हत्थामलकं विय पच्चक्खतो दस्सेति, सावके च एदिसे संवरसमादाने पतिठ्ठापेती'ति. थुतिघोसो याव भवग्गा पत्थरति । पटिभागकिरियन्ति पळासवसेन पटिभागभूतं पयोगं करोन्तो। भवन्तरसमयन्ति तत्र तत्र वुट्ठनसमयं अभूतपरिकप्पितं किञ्चि उप्पादियं वत्थु अत्तनो समयं कत्वा । किञ्चिदेव सिक्खापदन्ति "एलमूगेन भवितब्बं, एत्तकं, वेलं एकस्मिंयेव ठाने निसीदितब्ब"न्ति एवमादिकं किञ्चिदेव कारणं सिक्खाकोट्ठासं कत्वा पञपेन्ति। निरोधकथन्ति निरोधसमापत्तिकथं ।
तेसति कोतूहलसालायं सन्निपतितेसु तित्थियसमणब्राह्मणेस् । एकच्चेति एके। पुरिमोति “अहेतू अप्पच्चया"ति एवंवादी । य्वायं इध उप्पज्जतीति योजना। समापत्तिन्ति असञभावावहं समापत्तिं । निरोधेति सानिरोधे । हेतुं अपस्सन्तोति येन हेतुना
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( ९.४११-४११)
अभिसञ्जानिरोधकथावण्णना
असञ्ञभवे सञ्ञाय निरोधो सब्बसो अनुप्पादो, येन च ततो चुतस्स इध पञ्चवोकारभवे तस्सा उप्पादो, तं अविसयताय अपस्सन्तो ।
नन्ति पठमवादिं । निसेधेत्वाति "न खो नामेतं भो एवं भविस्सती 'ति एवं पटिक्खिपित्वा । असञ्ञिकभावन्ति मुञ्छापत्तिया किरियमयसञ्जावसेन विगतसञ्ञिभावं । वक्खति हि “विसञ्ञी हुत्वा "ति । विक्खम्भनवसेन किलेसानं सन्तापनेन अत्तन्तपो । घोरतपोति दुक्करताय भीमतपो । परिमारितिन्द्रियोति निब्बिसेवनभावापादनेन सब्बसो मिलापितचक्खादिन्द्रियो। भग्गोति भञ्जितकुसलज्झासयो । एवमाहाति “ एवं सहभ पुरिसस्स अत्ता”तिआदिआकारेन सञ्ञानिरोधमाह । इमिना नयेन इतो परेसु द्वीसु ठानेसु यथारहं योजना वेदितब्बा |
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आथब्बणपयोगन्ति आथब्बणवेदविहितं आथब्बणिकानं विसञ्ञिभावापादनपयोगं । आथब्बणं पयोजेत्वाति आथब्बणवेदे आगतअग्गिजुहनपुब्बकं मन्तजप्पनं पयोजेत्वा सीसच्छिन्नतादिदस्सनेन सञ्ञानिरोधमाह । तस्साति यस्स सीसच्छिन्नतादि दस्सितं, तस्स ।
यक्खदासीनन्ति देवदासीनं, या "देवताभतियोतिपि” वुच्चन्ति । मदनिद्दन्ति सुरामदनिमित्तकं सुपनं देवतूपहारन्ति नच्चनगायनादिना देवतानं पूजं । सुरापातिन्ति पातिपुण्णं सुरं । दिवाति अतिदिवा उस्सूरे ।
एलमूगकथा वियाति इमेसं पण्डितमानीनं कथा अन्धबालकथासदिसी । चत्तारो निरोधेति अञ्ञमञ्ञविधुरे चत्तारो निरोधे एते पञ्ञपेन्ति । न च अञ्ञमञ्ञविरुद्धनानासभावेन तेन भवितब्बं, अथ खो एकसभावेन तेनाह “ इमिना चा "तिआदि । अञ्ञेनेवाति इमेहि वृत्ताकारतो अञ्ञाकारेनेव भवितब्बं । " अयं निरोधो, अयं निरोधो "ति आमेडितवचनं सत्था अत्तनो देसनाविलासेन अनेकाकारवोकारं निरोधं विभावेस्सतीति दस्सनत्थं कतं अहो नूनाति एत्थ अहोति अच्छरिये, नूनाति अनुस्सरणे निपातो । तस्मा अहो नून भगवा अनञ्ञसाधारणदेसनत्ता निरोधम्पि अहो अच्छरियं कत्वा कथेय्य मञ्ञेति अधिप्पायो । “ अहो नून सुगतो" ति एत्थापि एसेव नयो। अच्छरियविभावनतो एव चेत्थ द्विक्खत्तुं वचनं, अच्छरियत्थोपि चेत्थ अहो - सद्दो । सो यस्मा अनुस्सरणमुखेनेव तेन गहितो, तस्मा वुत्तं “अहो नूनाति अनुस्सरणत्थे 'ति । कालपुग्गलादिविभागेन बहुभेदत्ता इमेसं निरोधधम्मानन्ति बहुवचनं, कुसल - सद्दयोगेन सामिवचनं भुम्मत्थे दट्ठब्बं । चिण्णवसितायाति
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गटीका
(९.४१२-४१३)
निरोधसमापत्तियं वसीभावस्स चिण्णत्ता । सभावं जानातीति निरोधस्स सभावं याथावतो जानाति ।
अहेतुकसझुप्पादनिरोधकथावण्णना
४१२. घरमझेयेव पक्खलिताति घरतो बहि गन्तुकामा पुरिसा मग्गं अनोतरित्वा घराजिरेन समतले विवटङ्गणे एव पक्खलनं पत्ता, एवं सम्पदमिदन्ति अत्थो । असाधारणो हेतु, साधारणो पच्चयोति एवमादि विभागेन इध पयोजनं नत्थि सञ्जाय अकारणभावपटिक्खेपत्ता चोदनायाति वुत्तं "कारणस्सेव नाम"न्ति ।
पाळियं “उप्पज्जन्तिपि निरुज्झन्तिपी"ति वुत्तं, तत्थ “सहेतू सप्पच्चया सञ्जा उप्पज्जन्ति, उप्पन्ना पन निरुज्झन्तियेव, न तिद्वन्ती"ति दस्सनत्थं “निरुज्झन्ती"ति वचनं, न निरोधस्स सहेतुसप्पच्चयभावदस्सनत्थं । उप्पादो हि सहेतुको, न निरोधो। यदि हि निरोधोपि सहेतुको सिया, तस्स निरोधेनापि भवितब्बं अङ्कुरादीनं विय, न च तस्स निरोधो अस्थि । तस्मा वुत्तनयेनेव पाळिया अत्थो वेदितब्बो । अयञ्च नयो खणनिरोधवसेन वुत्तो । यो पन यथापरिच्छिन्नकालवसेन सब्बसोव अनुप्पादनिरोधो, सो “सहेतुको''ति वेदितब्बो तथारूपाय पटिपत्तिया विना अभावतो । तेनाह भगवा "सिक्खा एका सञ्जा निरुज्झती''ति । (दी० नि० १.४१२) ततो एव च इधापि वुत्तं “साय सहेतुकं उप्पादनिरोधं दीपेतु"न्ति।
सिक्खा एकाति एत्थ सिक्खाति करणे पच्चत्तवचनं, एक-सदो अञपरियायो "इत्थेके अभिवदन्ति सतो वा पन सत्तस्सा"तिआदीसु (दी० नि० १.८५ आदयो; म० नि० ३.२१) विय, न सङ्ख्यावाचीति आह "सिक्खा एका सञ्जा उप्पज्जन्तीति सिक्खाय एकच्चा सञा जायन्ती"ति । सेसपदेसुपि एसेव नयो ।
४१३. तत्थाति तस्सं उपरिदेसनायं । सम्मादिविसम्मासङ्कप्पवसेन परियापन्नत्ता आगताति सभावतो उपकारतो च पाक्खन्धे परियापन्नत्ता सङ्गहितत्ता ततिया अधिपञासिक्खा सम्मादिट्ठिसम्मासङ्कप्पवसेन आगता । तथा हि वुत्तं "या चावुसो विसाख सम्मादिट्टि, यो च सम्मासङ्कप्पो, इमे धम्मा पाक्खन्धे सङ्गहिता"ति (म० नि० १.४६२) कामञ्चेत्थ
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( ९.४१३- ४१३)
अहेतुकसञ्ञप्पादनिरोधकथावण्णा
वृत्तनयेन तिस्सोपि सिक्खा आगता एव, तथापि अधिचित्तसिक्खाय एव अभिसनिरोधो दस्सितो, इतरा तस्स सम्भारभावेन आनीता ।
पञ्चकामकोट्ठासे
पञ्चकामगुणिकरागोति आरब्भ उप्पज्जनकरागो । असमुप्पन्नकामचारोति वत्तमानुप्पन्नतावसेन असमुप्पन्नो यो कोचि कामचारो या काचि लोभुप्पत्ति । पुरिमो विसयवसेन नियमितत्ता कामगुणारम्मणोव लोभो दट्ठब्बो, इतरो पन झाननिकन्तिभवरागादिप्पभेदो सब्बोपि लोभचारो कामनट्ठेन कामेसु पवत्तनतो । सब्बे तेभूमका धम्मा कामनीयट्ठेन कामाति । उभयेसम्पि कामसञ्ञातिनामता सहचरणञायेनाति "कामसञ्जा”ति पदुद्धारं कत्वा तदुभयं निद्दिवं ।
“ तत्था”तिआदि असमुप्पन्नकामचारतो पञ्चकामगुणिकरागस्स विसेसदस्सनं । कामं पञ्चकामगुणिकरागोपि असमुप्पन्नो एव मग्गेन समुग्घाटीयति, तस्मिं पन समुग्घाटितेपि न सब्बो रागो समुग्घाटं गच्छति, तस्मा पञ्चकामगुणिकरागग्गहणेन न इतरस्स सब्बस्स रागस्स गहणं होतीति उभयसाधारणेन परियायेन उभयं सङ्गहेत्वा दस्सेतुं पाळियं कामसञग्गहणं कतन्ति तदुभयं सरूपतो विसेसतो च दस्सेत्वा सब्बसङ्गाहिकभावतो 'असमुप्पन्नकामचारो पन इमस्मिं ठाने वट्टतीति वुत्तं ।
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सदिसतात कामसञ्ज्ञदिभावेन समानत्ता, एतेन पाळियं “ पुरिमा 'ति सदिसकप्पनावसेन वुत्तन्ति दस्सेति । अनागता हि इध " निरुज्झती 'ति वुत्ता अनुप्पादस्स अधिप्पेतत्ता, तेनाह “अनुप्पन्नाव नुप्पज्जती 'ति ।
नीवरणविवेकतो जातत्ता विवेकजेहि पठमज्झानपीतिसुखेहि सह अक्खातब्बा, तंकोट्ठासिका वाति विवेकजं पीतिसुखसङ्घाता । नानत्तसञपटिघसञ्ञाहि निपुणताय सुखुमभूतताय सुखुमसञ्ज्ञा भूता सुखुमभावेन, परमत्थभावेन अविपरीतसभावा । झानं तंसम्पयुत्तधम्मानं भावनासिद्धा सण्हसुखुमता नीवरणविक्खम्भनवसेन विञ्ञयतीति आह “कामच्छन्दादिओळारिकङ्गप्पहानवसेन सुखुमा "ति । भूततायाति विज्जमानताय । सब्बत्थाति सब्बवारेसु ।
समापज्जनाधिट्ठानानि विय वुट्ठानं झाने परियापन्नम्पि होति यथा तं धम्मानं भङ्गक्खणो धम्मेसु, न आवज्जनपच्चवेक्खणानीति " पठमज्झानं समापज्जन्तो अधिट्ठहन्तो
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गटीका
(९.४१४-४१४)
बुट्टहन्तो च सिक्खती"ति वुत्तं, न “आवज्जन्तो पच्चवेक्खन्तो''ति । तन्ति पठमज्झानं । तेनाति हेतुम्हि करणवचनं, तस्मा पठमज्झानेन हेतुभूतेनाति अत्थो । हेतुभावो चेत्थ झानस्स यथावुत्तसञ्जाय उप्पत्तिया सहजातादिपच्चयभावो कामसञआय निरोधस्स उपनिस्सयताव, तञ्च खो सुत्तन्तपरियायेन । तथा चेव संवण्णितं "तथारूपाय पटिपत्तिया विना अभावतो''ति । एतेनुपायेनाति य्वायं पठमज्झानतप्पटिपक्खसञ्जावसेन “सिक्खा एका सञ्जा उप्पज्जति, सिक्खा एका सञ्जा निरुज्झती''ति एत्थ अत्थो वुत्तो, एतेन नयेन । सब्बत्थाति सब्बवारेसु ।
___४१४. यस्मा पनेत्थ समापत्तिवसेन तंतंसञ्जानं उप्पादनिरोधे वुच्चमाने अङ्गवसेन सो वुत्तोति आह “यस्मा पना"तिआदि । “अङ्गतो सम्मसन'न्ति अनुपदधम्मविपस्सनाय लक्खणवचनं । अनुपदधम्मविपस्सनहि करोन्तो समापत्तिं पत्वा अङ्गतो सम्मसनं करोति, न च सञा समापत्तिया किञ्चि अङ्गं होति । वुत्तञ्च "इदञ्च सजा सज्ञाति एवं अङ्गतो सम्मसनं उद्धट"न्ति । अङ्गतोति वा अवयवतोति अत्थो, अनुपदधम्मतोति वुत्तं होति । तदेवाति आकिञ्चचायतनमेव ।
यतो खोति पच्चत्ते निस्सक्कवचनन्ति आह “यो नामा"ति यथा “आदिम्ही"ति एतस्मिं अत्थे “आदितो''ति वुच्चति इतरविभत्तितोपि तो-सद्दस्स लब्भनतो। सकस्मिं अत्तना अधिगते सञआ सकसञ, सा एतस्स अत्थीति सकसञी, तेनाह "अत्तनो पठमज्झानसाय सञवा"ति । सकसञीति चेत्थ उपरि वुच्चमाननिरोधपादकताय सातिसयाय झानसञाय अस्थिभावजोतको ई-कारो दट्टब्बो, तेनेवाह "अनुपुब्बेन सजग्गं फुसती"तिआदि । तस्मा तत्थ तत्थ सकसञिताग्गहणेन तस्मिं तस्मिं झाने सब्बसो सुचिण्णवसीभावो दीपितोति वेदितब्बं ।
लोकियानन्ति निद्धारणे सामिवचनं, सामिअत्थे एव वा । यदग्गेन हि तं तेसु सेठें, तदग्गेन तेसम्पि सेट्ठन्ति । "लोकियान"न्ति विसेसनं लोकुत्तरसमापत्तीहि तस्स असेट्ठभावतो। “किच्चकारकसमापत्तीन"न्ति विसेसनं अकिच्चकारकसमापत्तितो तस्स असेट्ठभावतो । अकिच्चकारकता चस्सा पटुसाकिच्वाभाववचनतो विझायति । यथेव हि तत्थ सञ्जा, एवं फस्सादयो पीति । यदग्गेन हि तत्थ सङ्खारावसेससुखुमभावप्पत्तिया पकतिविपस्सकानं सम्मसितुं असक्कुणेय्यरूपेन ठिता, तदग्गेन हेछिमसमापत्तिधम्मा विय पटुकिच्चकरणसमत्थापि न होन्तीति । स्वायमत्थो परमत्थमञ्जुसायं विसुद्धिमग्गसंवण्णनायं
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(९.४१४-४१४)
अहेतुकस प्पादनिरोधकथावण्णना
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आरुप्पकथायं (विसुद्धि० टी० १.२८६) सविसेसं वुत्तो, तस्मा तत्थ वुत्तनयेन वेदितब्बो । केचि पन “यथा हेट्ठिमा हेट्ठिमा समापत्तियो उपरिमानं उपरिमांनं अधिट्ठानकिच्चं साधेन्ति, न एवं नेवसानासआयतनसमापत्ति कस्सचिपि अधिट्ठानकिच्चं साधेति, तस्मा सा अकिच्चकारिका, इतरा किच्चकारिका वुत्ता''ति वदन्ति, तदयुत्तं तस्सापि विपस्सनाचित्तपरिदमनादीनं अधिट्ठानकिच्चसाधनतो। तस्मा पुरिमोयेव अत्थो युत्तो।
पकप्पेतीति संविदहति । झानं समापज्जन्तो हि झानसुखं अत्तनि संविदहति नाम । अभिसङ्घरोतीति आयूहति, सम्पिण्डेतीति अत्थो । सम्पिण्डनत्थो हि समुदयट्ठो । यस्मा निकन्तिवसेन चेतनाकिच्चस्स मत्थकप्पत्ति, तस्मा फलूपचारेन कारणं दस्सेन्तो "निकन्तिं कुरुमानो अभिसङ्घरोति नामा"ति वुत्तं । इमा इदानि मे लब्भमाना आकिञ्चज्ञायतनसा निरुज्झेय्युं तंसमतिक्कमेनेव उपरिझानत्थाय चेतनाभिसङ्खरणसम्भवतो। अज्ञाति आकिञ्चजायतनसाहि अञा । ततो थूलतरभावतो ओळारिका। का पन ताति आह "भवङ्गसञ्जा'"ति | आकिञ्चज्ञायतनतो वुट्ठाय एव हि उपरिझानत्थाय चेतनाभिसङ्खरणानि भवेय्युं, वुट्ठानञ्च भवङ्गवसेन होति । याव च उपरि झानसमापज्जनं, ताव अन्तरन्तरा भवङ्गप्पवत्तीति आह "भवङ्गसञ्जा उप्पज्जेय्यु"न्ति ।
चेतेन्तोवाति नेवसानासायतनज्झानं एकं द्वे चित्तवारे समापज्जन्तो एव । न चेतेति तथा हेट्ठिमज्झानेसु विय वा पुब्बाभोगाभावतो पुब्बाभोगवसेन हि झानं पकप्पेन्तो इध “चेतेती"ति वुत्तो। यस्मा “अहमेतं झानं निब्बत्तेमि उपसम्पादेमि समापज्जामी"ति एवं अभिसङ्खरणं तत्थ सालयस्सेव होति, न अनालयस्स, तस्मा एकं चित्तक्खणिकम्पि झानं पवत्तेन्तो तत्थ अप्पहीननिकन्तिकताय अभिसङ्घरोन्तो एवाति अत्थो । यस्मा पनस्स तथा हेट्ठिमज्झानेसु विय वा तत्थ पुब्बाभोगो नत्थि, तस्मा "न अभिसङ्घरोती"ति वुत्तं । "इमस्स भिक्खुनो"तिआदि वुत्तस्सेवत्थस्स विवरणं । “स्वायमत्थो"तिआदिना तमेवत्थं उपमाय पटिपादेति।
पच्छाभागेति पितुघरस्स पच्छाभागे । ततो पुत्तघरतो। लद्धघरमेवाति यतो अनेन भिक्खा लद्धा, तमेव घरं पुत्तगेहमेव । आसनसाला विय आकिञ्चज्ञायतनसमापत्ति ततो पितुघरपुत्तघरट्ठानियानं नेवसानासआयतननिरोधसमापत्तीनं उपगन्तब्बतो। पितुघरं अमनसिकरित्वाति पविसित्वा समतिक्कन्तम्पि पितुघरं न मनसि कत्वा। पुत्तघरस्सेव आचिक्खनं विय एकं द्वे चित्तवारे समापज्जितब्बम्पि नेवसञानासज्ञायतनं न मनसि
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गटीका
(९.४१४-४१४)
कत्वा परतो निरोधसमापत्तिअत्थाय एव मनसिकारो। एवं अमनसिकारसामनेन, मनसिकारसामनेन च उपमुपमेय्यता वेदितब्बा आचिक्खनेनपि मनसिकारस्सेव जोतितत्ता । न हि मनसिकारेन विना आचिक्खनं सम्भवति ।
ता झानसजाति ता एकं द्वे चित्तवारे पवत्ता नेवसञ्जानासचायतनसञ्जा। निरुज्झन्तीति पदेसेनेव निरुज्झन्ति, पुब्बाभिसङ्खारवसेन पन उपरि अनुप्पादो। यथा च झानसञानं, एवं इतरसानं पीति आह "अआ च ओळारिका भवङ्गसज्ञा नुप्पज्जन्ती"ति, यथापरिच्छिन्नकालन्ति अधिप्पायो । सो एवं पटिपन्नो भिक्खूति सो एवं यथावुत्ते सञ्जाग्गे ठितो अरहत्ते, अनागामिफले वा पतिद्वितो भिक्खु द्वीहि फलेहि समन्नागमो, तिण्णं सङ्खारानं पटिप्पस्सद्धि, सोळसविधा आणचरिया, नवविधा समाधिचरियाति इमेसं वसेन निरोधपटिपादनपटिपत्तिं पटिपन्नो । फुसतीति एत्थ फुसनं नाम विन्दनं पटिलद्धीति आह "विन्दति पटिलभती"ति । अत्थतो पन यथापरिच्छिन्नकालं चित्तचेतसिकानं सब्बसो अप्पवत्ति एव ।
अभीति उपसग्गमत्तं निरत्थकं, तस्मा “सञ्जा" इच्चेव अत्थो। निरोधपदेन अनन्तरिकं कत्वा समापत्तिपदे वत्तब्बे तेसं द्विनं अन्तरे सम्पजानपदं ठपितन्ति आह "निरोधपदेन अनन्तरिकं कत्वा वुत्त"न्ति, तेनाह "अनुपटि...पे०... अत्थो"ति । तत्रापीति तस्मिम्पि तथा पदानुपुब्बिठपनेपि अयं विसेसत्थोति योजना । सम्पजानन्तस्साति तं तं समापत्तिं समापज्जित्वा वुट्ठाय तत्थ तत्थ सङ्घारानं सम्मसनवसेन पजानन्तस्स । अन्तेति यथावुत्ताय निरोधपटिपत्तिया परियोसाने । दुतियविकप्पे सम्पजानन्तस्साति सम्पजानकारिनोति अत्थो, तेन निरोधसमापज्जनकस्स भिक्खुनो आदितो पट्ठाय सब्बपाटिहारिकपञाय सद्धिं अत्थसाधिका पञ्जा किच्चतो. दस्सिता होति, तेनाह "पण्डितस्स भिक्खुनो"ति ।
सब्बाकारेनाति “समापत्तिया सरूपविसेसो, समापज्जनको, समापज्जनस्स ठानं, कारणं, समापज्जनाकारो"ति एवमादि सब्बप्पकारेन । तत्थाति विसुद्धिमग्गे । (विसुद्धी० २.८६७) कथिततोवाति कथितट्ठानतो एव गहेतब्बा, न इध तं वदाम पुनरुत्तिभावतोति अधिप्पायो ।
एवं खो अहन्ति एत्थ आकारत्थो एवं-सद्दो उग्गहिताकारदस्सनन्ति कत्वा । एवं पोट्टपादाति एत्थ पन सम्पटिच्छनत्थो, तेनाह "सुउग्गहितं तयाति अनुजानन्तो"ति ।
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(९.४१५-४१६)
अहेतुकसञ्जप्पादनिरोधकथावण्णना
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४१५. सञ्जा अग्गा एत्थाति सञआग्गं, आकिञ्चञायतनं । अट्ठसु समापत्तीसुपि सञ्जाग्गं अत्थि उपलब्भतीति चिन्तेत्वा । "पुथू''ति पाळियं लिङ्गविपल्लासं दस्सेन्तो आह "बहूनिपी''ति। "यथा"ति इमिना पकारविसेसो करणप्पकारो गहितो, न पकारसामञन्ति आह “येन येन कसिणेना"ति, पथवीकसिणेन करणभूतेना"ति च । झानं ताव युत्तो करणभावो सानिरोधफुसनस्स साधकतमभावतो, कथं कसिणानन्ति ? तेसम्पि सो युत्तो एव । यदग्गेन हि झानानं निरोधफुसनस्स साधकतं अभावो, तदग्गेन कसिणानम्पि तदविनाभावतो। अनेककरणापि किरिया होतियेव यथा “अस्सेन यानेन दीपिकाय गच्छती'ति ।
एकवारन्ति सकिं। पुरिमसानिरोधन्ति कामसञ्जादिपुरिमसजाय निरोधं, न निरोधसमापत्तिसञ्जितं सानिरोधं । एकं सजाग्गन्ति एकं सञ्जाभूतं अग्गं सेट्ठन्ति अत्थो हेट्ठिमसआय उक्कट्ठभावतो । सञा च सा अग्गञ्चाति सञ्जाग्गं, न सज्ञासु अग्गन्ति । द्वे वारेति द्विक्खत्तुं। सेसकसिणेसूति कसिणानंयेव गहणं निरोधकथाय अधिकतत्ता । ततो एव चेत्थ झानग्गहणेन कसिणज्झानानि एव गहितानीति वेदितब् । "पठमज्झानेन करणभूतेना"ति आरम्मणं अनामसित्वा वदति यथा “येन येन कसिणेना"ति एत्थ झानं अनामसित्वा वुत्तं । "इती"तिआदिना वुत्तमेवत्थं सङ्गहेत्वा निगमनवसेन वदति। सब्बम्पीति सब्बं एकवारं समापन्नझानं । सङ्गहेत्वाति सञ्जाननलक्खणेन तंसभावाविसेसतो एकझं सङ्गहेत्वा । अपरापरन्ति पुनप्पुनं ।
४१६. झानपदट्ठानं विपस्सनं वड्डेन्तस्स पुग्गलस्स वसेन सञ्जात्राणानि दस्सितानि पठमनये । दुतियनये पन यस्मा विपस्सनं उस्सुक्कापेत्वा मग्गेन घटेन्तस्स मग्गाणं उप्पज्जति, तस्मा विपस्सनामग्गवसेन सञाञाणानि दस्सितानि । यस्मा पन पठमनयो लोकियत्ता ओळारिको, दुतियनयो मिस्सको तस्मा तदुभयं असम्भावेत्वा अच्चन्तसुखुमं सुभं थिरं निब्बत्तितलोकुत्तरमेव दस्सेतुं मग्गफलवसेन सञ्जात्राणानि दस्सितानि ततियनये । तयोपेते नया मग्गसोधनवसेन दस्सिता ।
"अयं पनेत्थ सारो"ति विभावेतुं तिपिटकमहासिवत्थेरवादो आभतो। निरोधं पुच्छित्वा तस्मिं कथिते तदनन्तरं सञ्जात्राणुप्पत्तिं पुच्छन्तो अत्थतो निरोधतो वुट्टानं पुच्छति नाम, निरोधतो च वुट्टानं अरहत्तफलुप्पत्तिया वा सिया अनागामिफलुप्पत्तिया वा, तत्थ सञा पधाना, तदनन्तरञ्च पच्चवेक्खणञाणन्ति तदुभयं निद्धारेन्तो थेरो "किं इमे भिक्खू
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गटीका
(९.४१७-४१७)
भणन्ती"तिआदिमाह । तत्थ "किं इमे भिक्खू भणन्ती"ति तदा दीघनिकायतन्तिं परिवत्तन्ते इमं ठानं पत्वा यथावुत्तेन पटिपाटिया तयो नये कथेन्ते भिक्खू सन्धाय वदति ।
यस्स यथा मग्गवीथियं मग्गफलजाणेसु उप्पन्नेसु नियमतो मग्गफलपच्चवेक्खणाणानि होन्ति, एवं फलसमापत्तियं फलपच्चवेक्खणणन्ति आह "पच्छा पच्चवेक्खणजाण"न्ति । "इदं अरहत्तफल"न्ति इदं पच्चवेक्खणाणस्स पवत्तिआकारदस्सनं । फलसमाधिसज्ञापच्चयाति फलसमाधिसहगतसापच्चया। किर-सद्दो अनस्सरणत्थो । यथाधिगतधम्मानस्सरणपक्खिया हि पच्चवेक्खणा | समाधिसीसेन चेत्थ सब्बं अरहत्तफलं गहितं सहचरणजायेन, तस्मिं असति पच्चवेक्खणाय असम्भवो एवाति आह "इदप्पच्चया"ति ।
सञआअत्तकथावण्णना
४१७. देसनाय सहभावेन सारम्भमक्खिस्सादिमलविसोधनतो सुतमयजाणं न्हापितं विय, सुखुमभावेन तनुलेपनविलित्तं विय, तिलक्खणभाहतताय कुण्डलादिअलङ्कारविभूसितं विय च होति, तदनुपसेवतो जाणस्स च तथाभावो तंसमङ्गिनो पुग्गलस्स तथाभावापत्ति, निरोधकथाय निवेसनञ्चस्स सिरिसयनप्पवेसनसदिसन्ति आह "सण्हसुखुम...पे०... आरोपितोपी"ति । तत्थाति तस्सं निरोधकथायं । सुखं अविन्दन्तो मन्दबुद्धिताय अलभन्तो । मलविदूसितताय गूथट्ठानसदिसं। अत्तनो लद्धिं अत्तदिढेिं । अनुमतिं गहेत्वाति अनुशं गहेत्वा “एदिसो मे अत्ता"ति अनुजानापेत्वा, अत्तनो लद्धियं पतिठ्ठपेत्वाति अत्थो । कं पनाति ओळारिको, मनोमयो, अरूपीति तिण्णं अत्तवादानं वसेन तिविधेसु कतमन्ति अत्थो । परिहरन्तोति विद्धंसनतो परिहरन्तो, निगूहन्तोति अधिप्पायो । यस्मा चतुसन्ततिरूपप्पबन्धं एकत्तवसेन गहेत्वा रूपीभावतो “ओळारिको अत्ता"ति पच्चेति अत्तवादी, अन्नपानोपधानतञ्चस्स परिकप्पेत्वा “सस्सतो''ति मञति, रूपीभावतो एव च सञआय अञत्तं आयागतमेव, यं वेदवादिनो “अन्नमयो, पानमयो'"ति च द्विधा वोहरन्ति, तस्मा परिब्बाजको तं सन्धाया "ओळारिकं खो"ति आह ।
तत्थ यदि अत्ता रूपी, न सञी, सञआय अरूपभावत्ता, रूपधम्मानञ्च असञ्जाननसभावत्ता, रूपी च समानो यदि तव मतेन निच्चो, सञा अपरापरं पवत्तनतो तत्थ तत्थ भिज्जतीति भेदसब्भावतो अनिच्चा, एवम्पि “अञआ सञआ, अञ्जो
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(९.४१८-४२०-४१८-४२०)
सञआअत्तकथावण्णना
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अत्ता"ति सञ्जाय अभावतो अचेतनोति न कम्मस्स कारको, फलस्स च न उपभुञ्जकोति आपन्नमेव, तेनाह "ओळारिको च हि ते"तिआदि। पच्चागच्छतोति पच्चागच्छन्तस्स, जानतोति अत्थो । “अञा च सञ्जा उप्पज्जन्ति, अञा च सा निरुज्झन्तीति कस्मा वुत्तं, ननु उप्पादपुब्बको निरोधो, न च उप्पन्नं अनिरुज्झकं नाम अत्थीति चोदनं सन्धायाह "चतुनञ्च खन्धान"न्तिआदि ।
४१८-४२०. मनोमयन्ति झानमनसो वसेन मनोमयं । यो हि बाहिरपच्चयनिरपेक्खो, सो मनसाव निब्बत्तोति मनोमयो । रूपलोके निब्बत्तसरीरं सन्धाय वदति, यं वेदवादिनो आनन्दमयो, विज्ञाणमयोति च द्विधा वोहरन्ति । तत्रापीति "मनोमयो अत्ता"ति इमस्मिम्पि पक्खे। दोसे दिनेति “अञ्जाव सा भविस्सती''तिआदिना दोसे दिन्ने । इधापि पुरिमवादे वुत्तनयेनेव दोसदस्सनं वेदितब्बं । अयं पन विसेसो- यदि अत्ता मनोमयो, सब्बङ्गपच्चङ्गी, अहीनिन्द्रियो च भवेय्य, एवं सति “रूपं अत्ता सिया, न च सञ्जी''ति पुब्बे विय वत्तब्बं । तेनाह – “मनोमयो च हि ते''तिआदि । कस्मा पनायं परिब्बाजको पठमं ओळारिकं अत्तानं पटिजानित्वा तं लद्धिं विस्सज्जेत्वा पुन मनोमयं अत्तानं पटिजानाति, तञ्च विस्सज्जेत्वा अरूपिं अत्तानं पटिजानातीति ? कामञ्चेत्थ कारणं हेट्ठा वुत्तमेव, तथापि इमे तित्थिया नाम अनवट्टितचित्ता थुसरासिम्हि निखातखाणुको विय चञ्चलाति दस्सेतुं “यथा नाम उम्मत्तको"तिआदि वुत्तं । तत्थ सजायाति पकतिसञाय । उप्पादनिरोधं इच्छति अपरापरं पवत्ताय सञआय उदयवयदस्सनतो । तथापि “सञा सञा''ति पवत्तसमधे “अत्ता'"ति गहेत्वा तस्स च अविच्छेदं परिकप्पेन्तो सस्सतं मञति, तेनाह “अत्तानं पन सस्सतं मञ्जती"ति ।
तथेवाति यथा “रूपी अत्ता"ति, “मनोमयो अत्ता''ति च वादद्वये सजाय अत्ततो अञता, तथा चस्स अचेतनतादिदोसप्पसङ्गो दुन्निवारो, तथैव इमस्मिं वादे दोसो । तेनाह "तथेवस्स दोसं दस्सेन्तो"ति। मिच्छादस्सनेनाति अत्तदिट्ठिसङ्घातेन मिच्छाभिनिवेसेन । अभिभूतत्ताति अनादिकालभावितभावेन अज्झोत्थटत्ता निवारिताणचारत्ता। तं नानत्तं अजानन्तोति येन सन्ततिघनेन, समूहघनेन च वञ्चितो बालो पबन्धवसेन पवत्तमानं धम्मसमूहं मिच्छागाहवसेन “अत्ता"ति, “निच्चो"ति च अभिनिविस्स वोहरति, तं एकत्तसञ्जितं घनग्गहणं विनिभुज्ज याथावतो जाननं घनविनिब्भोगो, सब्बन सब्बं तित्थियानं सो नत्थीति अयम्पि परिब्बाजको तादिसस्स आणस्स परिपाकस्स अभावतो
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गटीका
(९.४१८-४२०-४१८-४२०)
SE
वुच्चमानम्पि नासि । तेन वुत्तं "भगवता वुच्चमानम्पि तं नानत्तं अजानन्तो"ति । सञ्जा नामायं नानारम्मणा नानाक्खणे उप्पज्जति, वेति चाति सजाय उप्पादनिरोधं पस्सन्तोपि सञ्जामयं सञ्जाभूतं अत्तानं परिकप्पेत्वा यथावुत्तघनविनिब्भोगाभावतो निच्चमेव कत्वा मञति दिट्ठिमञ्जनाय । तथाभूतस्स च तस्स सण्हसुखुमपरमगम्भीरधम्मता न आयतेवाति वुत्तं "दुज्जानं खो"तिआदि ।
दिट्ठिआदीसु “एवमेत"न्ति दस्सनं अभिनिविसनं दिट्ठि। तस्सा एव पुब्बभागभूतं "एवमेत"न्ति निज्झानवसेन खमनं खन्ति । तथा रोचनं रुचि। “अञथा"तिआदि तेसं दिट्ठिआदीनं विभजित्वा दस्सनं । तत्थ अञथाति यथा अरियविनये अन्तद्वयं अनुपग्गम्म मज्झिमा पटिपदावसेन दस्सनं होति, ततो अञथायेव । अञ्जदेवाति यं परमत्थतो विज्जति खन्धायतनादि, तस्स च अनिच्चतादि, ततो अञदेव परमत्थतो अविज्जमानं अत्तानं सस्सतादि ते खमति चेव रुच्चति च। आयुञ्जनं अनुयुञ्जनं आयोगो, तेनाह "युत्तपयुत्तता"ति । पटिपत्तियाति परमत्तचिन्तनादिपरिब्बाजकपटिपत्तिया । दुजानमेतं धम्मतं त्वं “अयं परमत्थो, अयं सम्मुती"ति इमस्स विभागस्स दुब्बिभागत्ता । “यदि एतं दुज्जानं, तं ताव तिठ्ठतु, इमं पनत्थं भगवन्तं पुच्छिस्सामी"ति चिन्तेत्वा यथा पटिपज्जि, तं दस्सेतुं “अथ परिब्बाजको"तिआदि वुत्तं । अञो वा सञतोति सासभावतो अञो सभावो वा अत्ता होतूति अत्थो । अस्साति अत्तनो।
लोकीयति दिस्सति एत्थ पुञपापं, तब्बिपाको चाति लोको, अत्ता । सो हिस्स कारको, वेदको चाति इच्छितो । दिट्ठिगतन्ति “सस्सतो अत्ता च लोको चा"तिआदि (दी० नि० १.३१; उदा० ५५) नयप्पवत्तं दिट्ठिगतं। न हेस दिट्ठाभिनिवेसो दिट्ठधम्मिकादिअत्थनिस्सितो तदसंवत्तनतो। यो हि तदावहो, सो तंनिस्सितोति वत्तब्बतं लभेय्य यथा तं पुजाणसम्भारो। एतेनेव तस्स न धम्मनिस्सिततापि संवण्णिता दट्ठब्बा । आदिब्रह्मचरियस्साति आदिब्रह्मचरियं, तदेव आदिब्रह्मचरियकं यथा “विनयो एव वेनयिको"ति, (पारा० अट्ठ० २१) तेनाह "सिक्खत्तयसङ्घातस्सा"तिआदि । दिट्ठाभिनिवेसस्स संसारवट्टे निब्बिदाविरागनिरोधुपसमासंवत्तनं वट्टन्तोगधत्ता, तस्स वट्टसम्बन्धनतो च। तथा अभिभासम्बोधनिब्बानासंवत्तनञ्च दट्ठब् । अभिजाननायाति आतपरिआवसेन अभिजाननत्थाय । सम्बज्झनत्थायाति तीरणपहानपरिञावसेन सम्बोधनत्थायाति वदन्ति । अभिजाननायाति अभिज्ञापञ्जावसेन जाननाय, तं पन वट्टस्स
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(९.४२१-४२३)
चित्तहत्थिसारिपुत्तपोट्ठपादवत्थुवण्णना
३३३
पच्चक्खकरणमेव होतीति परिञाभिसमयवसेन पटिवेधाय ।
आह
“पच्चक्खकिरियाया"ति।
सम्बुज्झनत्थायाति
कामं तण्हापि दुक्खसभावा, तस्सा पन समुदयभावेन विसुं गहितत्ता "तण्हं ठपेत्वा"ति वुत्तं । पभावनतो उप्पादनतो। दुक्खं पभावेन्तीपि तण्हा अविज्जादिपच्चयन्तरसहिता एव पभावेति, न केवलाति आह "सप्पच्चया"ति । उभिन्नं अप्पवत्तीति उभिन्नं अप्पवत्तिनिमित्तं, नप्पवत्तन्ति एत्थ दुक्खसमुदया एतस्मिं वा अधिगतेति अप्पवत्ति। दुक्खनिरोधं निब्बानं गच्छति अधिगच्छति, तदत्थं पटिपदा चाति दुक्खनिरोधगामिनीपटिपदा। मग्गपातुभावोति अग्गमग्गसमुप्पादो। फलसच्छिकिरियाति असेक्खफलाधिगमो । आकारन्ति तं गमनलिङ्गं ।
४२१. समन्ततो निग्गण्हनवसेन तोदनं विज्झनं सन्नितोदकं, वाचायाति च पच्चत्ते करणवचनन्ति आह "वचनपतोदेना"ति । सज्झन्भरितन्ति समन्ततो भुसं अरितं अकंसूति सतमत्तेहि तुत्तकेहि विय तिंससतमत्ता परिब्बाजका वाचापतोदनेहि तुर्दिसु सभावतो विज्जमानन्ति परमत्थसंभावतो उपलब्भमानं, नपकतिआदि विय अनुपलब्भमानं । तच्छन्ति सच्चं । तथन्ति अविपरीतं लोकुत्तरधम्मसूति विसये भुम्मं ते धम्मे विसयं कत्वा । ठितसभावन्ति अवहितसभावं, तदुप्पादकन्ति अत्थो । लोकुत्तरधम्मनियामतन्ति लोकुत्तरधम्मसम्पापननियामेन नियतं, तेनाह "बुद्धानही"तिआदि। एदिसाति "धम्मद्वितत"न्तिआदिना वुत्तप्पकारा ।
चित्तहत्थिसारिपुत्तपोट्टपादवत्थुवण्णना ४२२. सुखुमेसु अत्यन्तरेसूति खन्धायतनादीसु सुखुमञआणगोचरेसु धम्मेसु । कुसलोति पुब्बे बुद्धसासने कतपरिचयताय छेको अहोसि। गिहिभावे आनिसंसकथाय कथितत्ता सीलवन्तस्स भिक्खुनो तथा कथनेन विब्भमने नियोजितत्ता इदानि सयम्पि सीलवा एव हुत्वा छ वारे (ध० प० अट्ठ० ३७; जा० अट्ठ० १.१.६९) विब्भमि । कम्मसरिक्खकेन हि फलेन भवितब्। महासावकस्स कथितेति महासावकस्स महाकोट्ठिकथेरस्स अपसादनकथितनिमित्तं । पतिद्वातुं असक्कोन्तोति सासने पतिद्वं लद्धं असक्कोन्तो।
४२३. पञाचक्खुनो नत्थितायाति सुवुत्तदुरुत्तसमविसमदस्सनसमत्थपञाचक्खुनो
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गटीका
(९.४२५-४२५)
अभावेन । चक्खुमाति एत्थ यादिसेन चक्खुना पुरिसो “चक्खुमा"ति वुत्तो, तं दस्सेतुं "सुभासिता"तिआदि वुत्तं । एककोट्ठासाति एकन्तिका, निब्बानावहभावेन निच्छिताति अधिप्पायो । ठपिताति ववत्थापिता । न एककोटासा न एकन्तिका, न निब्बानावहभावेन निच्छिता वट्टन्तोगधभावतोति अधिप्पायो ।
एकंसिकधम्मवण्णना
४२५. “कस्मा आरभीति कारणं पुच्छित्वा “अनिय्यानिकभावदस्सनत्थ"न्ति पयोजनं विस्सज्जितं । सति हि फलसिद्धियं हेतुसिद्धोयेव होतीति । पञापितनिहायाति पवेदितविमुत्तिमग्गस्स, वट्टदुक्खपरियोसानं गच्छति एतायाति “निट्ठा"ति विमुत्ति वुत्ता । निट्ठामग्गो हि इध उत्तरपदलोपेन “निट्ठा"ति वुत्तो। तस्स हि अनिय्यानिकता, निय्यानिकता च वुच्चति, न निट्ठाय। निय्यानं वा निग्गमनं निस्सरणं, वट्टदुक्खस्स वुपसमोति अत्थो । निय्यानमेव निय्यानिकं, न निय्यानिकं अनिय्यानिकं, सो एव भावो अनिय्यानिकभावो, तस्स दस्सनत्थन्ति योजेतब्बं । "एव"न्ति “निब्बानं निब्बान''न्ति वचनमत्तसामनं गहेत्वा वदति, न पन परमत्थतो तेसं समये निब्बानपञापनस्स लब्भनतो, तेन वुत्तं “सा च न निय्यानिका'"तिआदि । लोकथूपिकादिवसेनाति एत्थ आदि-सद्देन “अञ्जो पुरिसो, अञा पकती"ति पकतिपुरिसन्तरावबोधो मोक्खो, बुद्धिआदिगुणविनिमुत्तस्स अत्तनो सकत्तनि अवट्ठानं मोक्खो, कायपवत्तिगतिजातिबन्धानं अप्पमज्जनवसेन अप्पवत्तो मोक्खो, यजेहि जुतेन परेन पुरिसेन सलोकता मोक्खो, समीपता मोक्खो, सहयोगो मोक्खोति एवमादीनं सङ्गहो दट्टब्बो। यथापञत्ताति पञ्चत्तप्पकारा हुत्वा न निय्याति, येनाकारेन “निट्ठा पापुणीयतीति तेहि पवेदिता, तेनाकारेन तस्सा अप्पत्तब्बतो न निय्याति । पण्डितेहि पटिक्खित्ताति “नायं निट्ठा पटिपदा वट्टस्स अनतिक्कमनतो''ति बुद्धादीहि पण्डितेहि पटिक्खित्ता । निवत्ततीति पटिक्खेपस्स कारणवचनं, तस्मा तेहि पञत्ता निट्ठा पटिपदा न निय्याति, अञदत्थु तंसमङ्गिनं पुग्गलं संसारे एव परिब्भमापेन्ती निवत्तति ।
पधानं जाननं नाम पच्चक्खतो जाननं तस्स पमाणजेट्ठभावतो, इतरस्स संसयानुबद्धत्ताति वुत्तं "जानं पस्स"न्ति । तेनेत्थ दस्सनेन जाननं विसेसेति । इदं वुत्तं होति - तुम्हाकं एकन्तसुखे लोके पच्चक्खतो आणदस्सनं अत्थीति । जानन्ति वा तस्स
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(९.४२६-४२९)
तयोअत्तपटिलाभवण्णना
३३५
लोकस्स अनुमानविसयतं पुच्छति, पस्सन्ति पच्चक्खतो गोचरतं । अयव्हेत्थ अत्थो - अपि तुम्हाकं लोको पच्चक्खतो जातो, उदाहु अनुमानतोति ।
यस्मा लोके पच्चक्खभूतो अत्थो इन्द्रियगोचरभावेन पाकटो, तस्मा वुत्तं "दिद्वपुब्बानी"तिआदि । दिद्वपुब्बानीति दिट्ठवा, दस्सनभूतेन, तदनुगतेन च आणेन गहितपुब्बानीति अत्थो। एवञ्च कत्वा "सरीरसण्ठानादीनीति वचनं समत्थितं होति । "अप्पाटिहीरक त"न्ति अनुनासिकलोपं कत्वा निद्देसोति आह "अप्पाटिहीरकं त"न्ति "अप्पाटिहीरं कतन्ति एवमेत्थ वण्णेन्ति । पटिपक्खहरणतो पटिहारियं, तदेव पाटिहारियं, उत्तरविरहितं वचनं। पाटिहारियमेवेत्थ “पाटिहीरक"न्ति वा वुत्तं । न पाटिहीरकं अप्पाटिहीरकं परेहि वुच्चमानउत्तरेहि सउत्तरत्ता, तेनाह "पटिहरणविरहित"न्ति । सउत्तरहि वचनं तेन उत्तरेन पटिहारीयति अतिविपरिवत्तीयति । ततो एव निय्यानस्स पटिहरणमग्गस्स अभावतो “अनिय्यानिक"न्ति वत्तब्बतं लभति।
४२६. विलासो. लीळा । आकप्पो केसबन्धवत्थग्गहणं आदिआकारविसेसो, वेससंविधानं वा। आदि-सद्देन भावादीनं सङ्गहो दट्ठब्बो। “भावो"ति च चातुरियं वेदितब्बं ।
तयोअत्तपटिलाभवण्णना
४२८. आहितो अहं मानो एत्थाति अत्ता, अत्तभावोति आह “अत्तपटिलाभोति अत्तभावपटिलाभो"ति । कामभवं दस्सेति तस्स इतरद्वयत्तभावतो ओळारिकत्ता । रूपभवं दस्सेति झानमनेन निब्बत्तं हुत्वा रूपीभावेन उपलब्भनतो । संकिलेसिका धम्मा नाम द्वादस अकुसलचित्तुष्पादा तदभावे कस्सचि संकिलेसस्सापि असम्भवतो । वोदानिया धम्मा नाम समथविपस्सना तासं वसेन सब्बसो चित्तवोदानस्स सिज्झनतो ।
४२९. पटिपक्खधम्मानं असमुच्छेदे पन न कदाचिपि अनवज्जधम्मानं पारिपूरी, वेपुल्लं वा सम्भवति, समुच्छेदे पन सति एव सम्भवतीति मग्गपञाफलपञ्जा-ग्गहणं । ता हि सकिं परिपुण्णा परिपुण्णा एव अपरिहानधम्मत्ता। तरुणपीतीति उप्पन्नमत्ता अलद्धासेवना दुब्बला पीति। बलवतुट्ठीति पुनप्पुनं उप्पत्तिया लद्धासेवना उपरिविसेसाधिगमस्स पच्चयभूता थिरतरा पीति । “यं अवोचुम्हा"तिआदीसु अयं
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गटीका ( ९.४३२-४३७-४३२-४३७)
सङ्क्षेपत्थो - यं वोहारं “संकिलेसिकवोदानियधम्मानं पहानाभिवुद्धिनिट्टं पञ्ञाय पारिपूरिवेपुल्लभूतं इमस्मिंयेव अत्तभावे अपरप्पच्चयेन आणेन पच्चक्खतो सम्पादेत्वा विहरिस्सती'ति कथयिम्ह । तत्थ तस्मिं विहारे तस्स मम ओवादकरस्स भिक्खुनो एवं वुत्तप्पकारेन विहरणनिमित्तं पमोदप्पभाविता पीति च भविस्सति, तस्सा च पच्चयभूतं पस्सद्धिद्वयं सम्मदेव उपट्ठिता सति च उक्कंसगतं आणञ्च तथाभूतो च सो विहारो । सन्तपणीतताय अतप्पको अनञ्ञसाधारणो सुखविहारोति वत्तब्बतं अरहतीति ।
पठमज्झाने पटिलद्धमत्ते हीनभावतो पीति दुब्बला पामोज्जपक्खिका, सुविभाविते पन तस्मिं पगुणे सा पणीता बलवभावतो परिपुण्णकिच्चा पीतीति वुत्तं " पठमज्झाने पामोज्जादयो छपि धम्मा लब्भन्ती 'ति । " सुखो विहारो "ति इमिना समाधि गहितो । सुखं गहितन्ति अपरे, तेसं मतेन सन्तसुखताय उपेक्खा चतुत्थज्झाने "सुख"न्ति इच्छिता, तेनाह “तथा चतुत्थे”तिआदि । पामोज्जं निवत्ततीति दुब्बलपीतिसङ्घातं पामोज्जं छसु धम्मे निवत्तति हायति । वितक्कविचारक्खोभविरहेन दुतियज्झाने सब्बदा पीति बलवती एव होति, न पठमज्झाने विय कदाचि दुब्बला । सुद्धविपस्सना पादकज्झानमेवाति उपरि मग्गं अकथेत्वा केवलं विपस्सनापादकज्झानं कथितं । चतूहि मग्गेहि सद्धिं विपस्सना कथिताति विपस्सनाय पादकभावेन झानानि कथेत्वा ततो परं विपस्सनापुब्बका चत्तारोपि मग्गा कथिताति अत्थो । चतुत्थज्झानिकफलसमापत्ति कथिताति पठमज्झानिकादिका फलसमापत्तियो अकथेत्वा चतुत्थज्झानिका एव फलसमापत्ति कथिता । पीतिवेवचनमेव कत्वाति द्विन्नं पीतीनं एकस्मिं चित्तुप्पादे अनुप्पज्जनतो पामोज्जं पीतिवेवचनमेव कत्वा । पीतिसुखानं अपरिच्चत्तत्ता, “सुखो च विहारो "ति सातिसयस्स सुखविहारस्स गहितत्ता च दुतियज्झानिकफलसमापत्ति नाम कथिता । कामं पठमज्झानेपि पीतिसुखानि लब्भन्ति, तानि पन वितक्कविचारक्खोभेन न सन्तपणीतानि, सन्तपणीतानि च इधाधिप्पेतानि ।
४३२-४३७ विभावनत्थोति पकासनत्थो सरूपतो निरूपनत्थो, तेनाह " अयं सो"तिआदि । नन्ति ओळारिकं अत्तपटिलाभं । सप्पटिहरणन्ति परेन चोदितवचनेन सपरिहारं सउत्तरं । तुच्छोति मुसा अभूतो । स्वेवाति सो एव अत्तपटिलाभो । तस्मिं समये होतीति तस्मिं पच्चुप्पन्नसमये विज्जमानो होति । अत्तपटिलाभोत्वेव निय्यातेसि, न नं सरूपतो नीहरित्वा दस्सेसि । रूपादयो चेत्थ धम्माति रूपवेदनादयो एव एत्थ लोके सभावधम्मा । अत्तपटिलाभोति पन ते रूपादिके पञ्चक्खन्धे उपादाय पञ्ञत्ति, तेनाह “नाममत्तमेत”न्ति । नामपण्णत्तिवसेनाति नामभूतपञ्ञत्तिमत्ततावसेन ।
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(९.४३८-४३९-४४३)
तयोअत्तपटिलाभवण्णना
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४३८. एवञ्च पन वत्वाति “अत्तपटिलाभोति रूपादिके उपादाय पञत्तिमत्त"न्ति इममत्थं “यस्मिं चित्त समये "तिआदिना वत्वा । पटिपुच्छित्वा विनयनत्थन्ति यथा परे पुच्छेय्युं, तेनाकारेन कालविभागतो पटिपदानि पुच्छित्वा तस्स अत्थस्स ञापनवसेन विनयनत्थं । तस्मिं समये सच्चो अहोसीति तस्मिं अतीतसमये उपादानस्स विज्जमानताय सच्चभूतो विज्जमानो विय वत्तब्बो अहोसि, न पन अनागतो इदानि पच्चुप्पनो वा अत्तपटिलाभो तदुपादानस्स तदा अविज्जमानत्ता। ये ते अतीता धम्मा अतीतसमये अतीतत्तपटिलाभस्स उपादानभूता रूपादयो। ते एतरहि नत्थि निरुद्धत्ता। ततो एव अहेसुन्ति सङ्ख्यं गता। तस्माति तस्मिंयेव समये लब्भनतो। सोपि तदुपादानो मे अत्तपटिलाभो तस्मिंयेव अतीतसमये सच्चो भूतो विज्जमानो विय अहोसि। अनागतपच्चुप्पनानन्ति अनागतानञ्चेव पच्चुप्पन्नानञ्च रूपधम्मानं उपादानभूतानं तदा तस्मिं अतीतसमये अभावा तदुपादानो अनागतो पच्चुप्पनो च अत्तपटिलाभो तस्मिं अतीतसमये मोघो तुच्छो मुसा नत्थीति अत्थो । नाममत्तमेवाति समझामत्तमेव । अत्तपटिलाभं पटिजानाति परमत्थतो अनुपलब्भमानत्ता ।
"एसेव नयो"ति इमिना ये ते अनागता धम्मा, ते एतरहि नत्थि, “भविस्सन्ती"ति पन सत्यं गमिस्सन्ति, तस्मा सोपि मे अत्तपटिलाभो तस्मिंयेव समये सच्चो भविस्सति । अतीतपच्चुप्पन्नानं पन धम्मानं तदा अभावा तस्मिं समये मोघो अतीतो मोघो पच्चुप्पन्नो । ये इमे पच्चुप्पन्ना धम्मा, ते एतरहि अत्थि, तस्मा योयं मे अत्तपटिलाभो, सो इदानि सच्चो । अतीतानागतानं पन धम्मानं इदानि अभावा तस्मिं समये मोघो अतीतो मोघो अनागतोति एवं अस्थतो नाममत्तमेव अत्तपटिलाभं पटिजानातीति इममत्थं अतिदिसति ।
४३९-४४३. संसन्दितुन्ति समानेतुं । यस्मिं समये खीरं होतीति यस्मिं काले भूतुपादायसञितं उपादानविसेसं उपादाय खीरपञत्ति होति । न तस्मिं...पे०... गच्छति खीरपञत्तिउपादानस्स दधिआदिपञत्तिया अनुपादानतो। पटिनियतवत्थुका हि एका लोकसमझा, तेनाह "ये धम्मे उपादाया"तिआदि । तत्थ सङ्कायति एतायाति सका, पञत्ति । निद्धारेत्वा वचन्ति वदन्ति एतायाति निरुत्ति। नमन्ति एतेनाति नामं। वोहरन्ति एतेनाति वोहारो, पञत्तियेव । एस. नयो सब्बत्थाति “यस्मिं समये"तिआदिना खीरे वुत्तनयं दधिआदीसु अतिदिसति ।
समनुजाननमत्तकानीति “इदं खीरं, इदं दधी"तिआदिना तादिसे भूतुपादायरूपविसेसे
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गटीका
लोके परम्पराभतं पञ्ञत्तिं अप्पटिक्खिपित्वा समनुजाननं विय पच्चयविसेसविसिद्धं रूपादिखन्धसमूहं उपादाय " ओळारिको अत्तपटिलाभो ति च " मनोमयो अत्तपटिलाभो 'ति च “अरूपो अत्तपटिलाभो 'ति च तथा तथा समनुजाननमत्तकानि न च तब्बिनिमुत्तो उपादानतो अञ्ञो कोचि अत्थो अत्थीति अत्थो । निरुत्तिमत्तकानीति सद्दनिरुत्तिया गहणूपायमत्तकानि । “सत्तो फस्सोति हि सद्दग्गहणुत्तरकालं तदनुविद्धपण्णत्तग्गहण तदत्थावबोधो । वचनपथमत्तकानीति तस्सेव वेवचनं । वोहारमत्तकानीति तथा तथा वोहारमत्तकानि । नामपण्णत्तिमत्तकानीति तस्सेव वेवचनं, तंतंनामपञ्ञापनमत्तकानि । सब्बमेतन्ति “अत्तपटिलाभो "ति वा "सत्तो"ति वा " पोसो "ति वा सब्बमेतं वोहारमत्तकं परमत्थतो अनुपलब्भनतो, तेनाह “ यस्मा परमत्थतो सत्तो नाम नत्थी "तिआदि ।
यदि एवं कस्मा तं बुद्धेहिपि वुच्चतीति आह " बुद्धानं पन द्वे कथा "तिआदि । सम्मुतिया वोहारस्स कथनं सम्मुतिकथा । परमत्थस्स सभावधम्मस्स कथनं परमत्थकथा । अनिच्चादिकथापि परमत्थसन्निस्सितकथा परमत्थकथाति कत्वा परमत्थकथा । परमत्थधम्मो हि "अनिच्चो, दुक्खो, अनत्ता" ति च वुच्चति, न सम्मुतिधम्मो । कस्मा पनेवं दुविधा बुद्धानं कथापवत्तीति तत्थ कारणमाह " तत्थ यो "तिआदिना । यस्मा परमत्थकथाय सच्चसम्पटिवेधो, अरियसच्चकथा च सिखाप्पत्ता देसना, तस्मा विनेय्यपुग्गलवसेन सम्मुतिकथं कथेतोप भगवा परमत्थकथंयेव कथेतीति आह "तस्स भगवा आदितोव... पे०... कथेती "ति, तेनाह “तथा’”तिआदि, तेनस्स कत्थचि सम्मुतिकथापुब्बिका परमत्थकथा होति पुग्गलज्झासयवसेन, कत्थचि परमत्थकथापुब्बिका सम्मुतिकथा | इति विनेय्यदमनकुसलस्स सत्थु विनेय्यज्झासयवसेन तथा तथा देसनापवत्तीति दस्सेति । सब्बत्थ पन भगवा धम्मतं अविजहतो एव सम्मुतिं अनुवत्तति, सम्मुतिं अपरिच्चजन्तोयेव धम्मतं विभावेति, न तत्थ अभिनिवेसातिधावनानि । हे “जनपदनिरुत्तिं नाभिनिविसेय्य, समञ नातिधावेय्या'ति ।
(९.४३९-४४३-४३९-४४३)
पठमं सम्मुतिं कत्वा कथनं पन वेनेय्यवसेन येभुय्येन बुद्धानं आचिन्तितं कारणेन सद्धिं दस्सेन्तो " पकतिया पना "तिआदिमाह । ननु च सम्मुति नाम परमत्थतो अविज्जमानत्ता अभूता, तं कथं बुद्धा कथेन्तीति आह “सम्मुतिकथं कथेन्तापी "तिआदि सच्चमेवाति तथमेव । सभावमेवाति सम्मुतिभावेन तंसभावमेव तेनाह “अमुसावा" ति । परमत्थस्स पन सच्चादिभावे वत्तब्बमेव नत्थि ।
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(९.४३९-४४३-४३९-४४३)
तयोअत्तपटिलाभवण्णना
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इमेसं पन सम्मुतिपरमत्थानं को विसेसो ? यस्मिं भिन्ने, बुद्धिया वा अवयवविनिब्भोगे कते न तंसा , सो घटपटादिप्पभेदो सम्मुति, तब्बिपरियायतो परमत्थो । न हि कक्खळफुसनादिसभावे अयं नयो लब्भति । एवं सन्तेपि वुत्तनयेन सम्मुतिपि सच्चसभावा एवाति आह “दुवे सच्चानि अक्खासी"तिआदि ।
इदानि नेसं सच्चसभावं कारणेन दस्सेन्तो “सङ्केतवचनं सच्चन्ति गाथमाह । तत्थ सङ्केतवचनं सच्चं विसंवादनाभावतो । तत्थ हेतुमाह "लोकसम्मुतिकारण"न्ति । लोकसिद्धा हि सम्मुति सङ्केतवचनस्स अविसंवादनताय कारणं । परमो उत्तमो अत्थो परमत्थो, धम्मानं यथाभूतसभावो । तस्स वचनं सच्चं याथावतो अविसंवादनवसेन च पवत्तनतो। तत्थ कारणमाह "धम्मानं भूतलक्खण"न्ति, सभावधम्मानं यो भूतो अविपरीतो सभावो, तस्स लक्खणं अङ्गनं ञापनन्ति कत्वा ।
यदि तथागतो परमत्थसच्चं सम्मदेव अभिसम्बुज्झित्वा ठितोपि लोकसमधे गहेत्वाव वदति, को एत्थ लोकियमहाजनेहि विसेसोति आह। “याहि तथागतो वोहरति अपरामास"न्तिआदि। लोकियमहाजनो अप्पहीनपरामासत्ता "एतं ममा''तिआदिना परामसन्तो वोहरति, तथागतो पन सब्बसो पहीनपरामासत्ता अपरामसन्तो यस्मा लोकसमाहि विना लोकियो अत्थो लोके केनचि दुविधेय्यो, तस्मा ताहि तं वोहरति । तथा वोहरन्तो एव च अत्तनो देसनाविलासेन वेनेय्यसत्ते परमत्थसच्चे पतिपेति । देसनं विनिवदे॒त्वाति हेट्ठा पवत्तितकथाय विनिवदे॒त्वा विवेचेत्वा देसनं “अपरामास''न्ति तण्हामानपरामासप्पहानकित्तनेन अरहत्तनिकूटेन निट्ठापेसि । यं यं पनेत्थ अत्थतो न विभत्तं, तं सुविनेय्यमेव ।
पोट्ठपादसुत्तवण्णनाय लीनत्थप्पकासना।
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१०. सुभसुत्तवण्णना
सुभमाणवकवत्थुवण्णना
४४४. “अचिरपरिनिब्बुते"ति सत्थु परिनिब्बुतभावस्स चिरकालतापटिक्खेपेन आसन्नता दस्सिता, कालपरिच्छेदो न दस्सितोति तं परिच्छेदतो दस्सेतुं “परिनिब्बानतो उद्धं मासमत्ते काले"ति वुत्तं । तत्थ मत्त-ग्गहणेन कालस्स असम्पुण्णतं जोतेति । तुदिसञितो गामो निवासो एतस्साति तोदेय्यो। तं पनेस यस्मा सोणदण्डो विय चम्पं, कूटदन्तो विय च खाणुमतं अज्झावसति, तस्मा वुत्तं "तस्स अधिपतित्ता"ति इस्सरभावतोति अत्थो । समाहारन्ति सन्निचयं । पण्डितो घरमावसेति यस्मा अप्पतरप्पतरेपि वयमाने भोगा खियन्ति, अप्पतरप्पतरेपि सञ्चियमाने वड्डन्ति, तस्मा वि जातिको किञ्चि वयं अकत्वा आयमेव उप्पादेन्तो घरावासं अनुतिढेय्याति लोभादेसितं पटिपत्तिं उपदिसति ।
अदानमेव सिक्खापेत्वा लोभाभिभूतताय तस्मिंयेव घरे सुनखो हुत्वा निब्बत्ति । लोभवसिकस्स हि दुग्गति पाटिकवा । अतिविय पियायति पुब्बपरिचयेन । पिण्डाय पाविसि सुभं माणवं अनुग्गण्हितुकामो। निरये निब्बत्तिस्ससि कतोकासस्स कम्मस्स पटिबाहितुं असक्कुणेय्यभावतो।
ब्राह्मणचारित्तस्स भाविततं सन्धाय, तथा पितरं उक्कंसेन्तो च "ब्रह्मलोके निब्बत्तो"ति आह । तं पवत्तिं पुच्छीति सुतमेतं मया "मय्हं पिता सुनखो हुत्वा निब्बत्तो"ति तुम्हेहि वुत्तं, किमिदं सच्चन्ति पुच्छि । तथैव चत्वाति यथा पुब्बे सुनखस्स वुत्तं, तथैव वत्वा । अविसंवादनत्थन्ति सच्चापनत्थं "तोदेय्यब्राह्मणो सुनखो हुत्वा निब्बत्तो"ति अत्तनो वचनस्स अविसंवादनत्थं अविसंवादभावस्स दस्सनत्थन्ति अत्थो । सब्बं
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(१०.४४५-४४८)
सुभमाणवकवत्थुवण्णना
३४१
दस्सेसीति बुद्धानुभावेन सो सुनखो तं सब्बं नेत्वा दस्सेसि, न जातिस्सरताय । भगवन्तं दिस्वा भुक्करणं पन पुरिमजातिसिद्धवासनावसेन । चुइस पञ्हे पुच्छित्वाति "दिस्सन्ति हि भो गोतम मनुस्सा अप्पायुका, दिस्सन्ति दीघायुका । दिस्सन्ति बव्हाबाधा, दिस्सन्ति अप्पाबाधा। दिस्सन्ति दुब्बण्णा, दिस्सन्ति वण्णवन्तो। दिस्सन्ति अप्पेसक्खा, दिस्सन्ति महेसक्खा | दिस्सन्ति अप्पभोगा, दिस्सन्ति महाभोगा। दिस्सन्ति नीचकुलीना, दिस्सन्ति उच्चाकुलीना । दिस्सन्ति दुप्पा , दिस्सन्ति पञावन्तो"ति (म० नि० ३.२८९)। इमे चुद्दस पञ्हे पुच्छित्वा, अङ्गसुभताय किरेस "सुभो"ति नाम लभि ।
अ
४४५. "एका च मे कसा अत्थी"ति इमिना उपरि पुच्छियमानस्स पहस्स पगेव तेन अभिसङ्घतभावं दस्सेति । विसभागवेदनाति दुक्खवेदना । सा हि कुसलकम्मनिब्बत्ते
तभावे उप्पज्जनकसुखवेदनापटिपक्खभावतो “विसभागवेदना'ति । कायं गाळ्हा हत्वा बाधति पीळेतीति “आबाधो"ति च वुच्चति । एकदेसे उप्पज्जित्वाति सरीरस्स एकदेसे उट्ठितापि अयपट्टेन आबन्धित्वा विय गण्हाति अपरिवत्तभावकरणतो, एतेन बलवरोगो आबाधो नामाति दस्सेति । किच्छजीवितकरोति असुखजीवितावहो, एतेन दुबलो अप्पमत्तको रोगो आतङ्कोति दस्सेति । उट्ठानन्ति सयननिसज्जादितो उट्ठहनं, तेन यथा तथा अपरापरं सरीरस्स परिवत्तनं वदति । गरुकन्ति भारियं किच्छसिद्धिकं । काये बलं न होतीति एत्थापि “गिलानस्सेवा"ति पदं आनेत्वा सम्बन्धितब्बं । हेट्ठा चतूहि पदेहि अफासुविहाराभावं पुच्छित्वा इदानि फासुविहारसब्भावं पुच्छति, तेन सविसेसो फासुविहारो पुच्छितोति दट्ठब्बो, असतिपि अतिसयत्थजोतने सद्दे अतिसयत्थस्स लब्भनतो यथा "अभिरूपाय देय्यं दातब्बन्ति ।
४४७. कालञ्च समयञ्च उपादायाति। एत्थ कालो नाम उपसङ्कमनस्स युत्तपत्तकालो। समयो नाम तस्सेव पच्चयसामग्गी, अत्थतो तज्जं सरीरबलञ्चेव तप्पच्चयपरिस्सयाभावो च । उपादानं नाम आणेन तेसं गहणं सल्लक्खणन्ति दस्सेतुं "कालञ्चा"तिआदि वुत्तं । फरिस्सतीति वड्डिस्सति ।
४४८. चेतियरडेति चेतिरटे । य-कारेन हि पदं वड्डत्वा वुत्तं । चेतिरट्ठतो अनं विसुंयेवेकं रट्ठन्ति च वदन्ति । मरणपटिसंयुत्तन्ति मरणं नाम तादिसानं रोग वसेनेव होतीति येन रोगेन तं जातं, तस्स सरूपपुच्छा, कारणपुच्छा, मरणहेतुकचित्तसन्तापपुच्छा, तस्स च सन्तापस्स सब्बलोकसाधारणता, तथा मरणस्स च अप्पतिकारताति एवं आदिना
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गटीका
(१०.४४९-४५४)
मरणपटिसंयुत्तं सम्मोदनीयं कथं कथेसीति दस्सेतुं “भो आनन्दा"तिआदि वुत्तं । न रन्धगवेसी मारो विय, न वीमंसनाधिप्पायो उत्तरमाणवो वियाति अधिप्पायो । येसु धम्मसूति विमोक्खुपायेसु निय्यानधम्मसु । धरन्तीति तिट्ठन्ति, पवत्तन्तीति अत्थो ।
४४९. अत्थप्पयुत्तताय सद्दपयोगस्स सद्दप्पबन्धलक्खणानि तीणि पिटकानि तदत्थभूतेहि सीलादीहि धम्मक्खन्धेहि सङ्गव्हन्तीति वुत्तं "तीणि पिटकानि तीहि खन्धेहि सङ्गहेत्वा"ति । सवित्तेन कथितन्ति “तिण्णं खन्धान''न्ति एवं गहणतो सामञतो चाति सङ्केपेनेव कथितं । “कतमेसं तिण्ण"न्ति अयं अदिट्ठजोतना पुच्छा, न कथेतुकम्यता पुच्छाति वुत्तं “वित्थारतो पुछिस्सामी 'ति चिन्तेत्वा 'कतमेसं तिण्णन्ति आहा"ति । कथेतुकम्यताभावे पनस्स थेरस्स वचनता सिया ।
सीलक्खन्धवण्णना
४५०-४५३. सीलक्खन्धस्साति एत्थ इति-सद्दो आदिअत्थो, पकारत्थो वा, तेन “अरियस्स समाधिक्खन्धस्स...पे०... पतिट्ठापेसी"ति अयं एत्तको पाठो दस्सितोति दट्ठब्बं तेनाह "तेसु दस्सितेसू"ति, उद्देसवसेनाति अधिप्पायो। भगवता वुत्तनयेनेवाति सामञफलदेसनादीसु भगवता देसितनयेनेव, तेनस्स सुत्तस्स सत्थुभासितभावं जिनवचनभावं दस्सेति । सासने न सीलमेव सारोति अरियमग्गसारे भगवतो सासने यथा दस्सितं सीलं सारो एव न होति सारवतो महतो रुक्खस्स पपटिकट्ठानियत्ता । यदि एवं कस्मा इध गहितन्ति आह "केवलज्हेतं पतिद्वामत्तकमेवाति । झानादिउत्तरिमनुस्सधम्मे अधिगन्तुकामस्स अधिट्टानमत्तं तत्थ अप्पतिट्टितस्स तेसं असम्भवतो । अथ वा न सीलमेव सारोति कामञ्चेत्थ सासने “मग्गसीलं, फलसील"न्ति इदं लोकुत्तरसीलम्पि सारमेव, तथापि न सीलक्खन्धो एव सारो अथ खो समाधिक्खन्धोपि पाक्खन्धोपि सारो एवाति एवमेत्थ अत्थो दट्ठब्बो । पुरिमो एव सारो, तेनाह "इतो उत्तरी"तिआदि ।
समाधिक्खन्धवण्णना ४५४. कस्मा पनेत्थ थेरो समाधिक्खन्धं पुट्ठो इन्द्रियसंवरादिके विस्सज्जेसि, ननु एवं सन्ते अनं पुट्ठो अनं ब्याकरोन्तो अम्बं पुट्ठो लबुजं ब्याकरोन्तो विय होतीति ईदिसी चोदना इध अनोकासाति दस्सेन्तो "कथञ्च माणव भिक्खु...पे०... समाधिक्खन्धं
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(१०.४७१-४८०-४७१-४८०)
समाधिक्खन्धवण्णना
दस्सेतुकामो आरभी" ति आह, तेनेत्थ इन्द्रियसंवरादयोपि समाधिउपकारतं उपादाय समाधिक्खन्धपक्खिकानि उद्दिट्ठानीति दस्सेति रूपज्झानानेव आगतानि, न अरूपज्झानानि रूपावचरचतुत्थज्झानदेसनानन्तरं अभिज्ञादेसनाय अवसरोति कत्वा । रूपावचरचतुत्थज्झानपादिका हि सपरिभण्डा छपि अभिज्ञायो । लोकिया अभिञ्ञा पन सिज्झमाना यस्मा अट्ठसु समापत्तीसु चुद्दसविधेन चित्तपरिदमनेन विना न इज्झन्ति, तस्मा अभिज्ञासु देसियमानासु अरूपज्झानानिपि देसितानेव होन्ति नानन्तरियभावतो, तेनाह “आनेत्वा पन दीपेतब्बानी "ति । वृत्तनयेन देसितानेव कत्वा संवण्णकेहि पकासेतब्बानीति अत्थो । अट्ठकथायं पन " चतुत्थज्झानं उपसम्पज्ज विहरती 'ति इमिनाव अरूपज्झानम्पि सङ्गहितन्ति दस्सेतुं " चतुत्थज्झानेन "आदि वृत्तं । चतुत्थज्झानहि रूपविरागभावनावसेन पवत्तं " अरूपज्झान "न्ति वुच्चतीति ।
४७१-४८०. न चित्तेकग्गतामत्तकेनेवाति एत्थ हेट्ठा वुत्तनयानुसारेन अत्थो वेदितब्बो । लोकियस्स समाधिक्खन्धस्स अधिप्पेतत्ता "न चित्ते... पे०... अत्थी "ति वृत्तं । अरिय सद्दो चेत्थ सुद्धपरियायो, न लोकुत्तरपरियायो । तथा हेट्ठापि लोकियाभिञापटिसम्भिदाहि विनाव अरहत्ते अधिगते नत्थेव उत्तरिंकरणीयन्ति सक्का वत्तुं यदत्थं भगवति ब्रह्मचरियं वुस्सति, तस्स सिद्धत्ता । इध पन लोकियाभिञ्ञापि आगता एव । सेसं सुविज्ञेय्यमेव ।
सुभसुत्तवण्णनाय लीनत्थप्पकासना ।
३४३
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११. केवट्टसुत्तवण्णना
केवट्टगहपतिपुत्तवत्थुवण्णना
४८१. पावारिकम्बवनेति पावारिकसेट्ठिनो अम्बबहुले उपवने । तं किर सो सेट्ठी भगवतो अनुच्छविकं गन्धकुटिं भिक्खुसङ्घस्स च रत्तिट्ठानदिवाट्ठानकुटिमण्डपादीनि सम्पादेत्वा पाकारपरिक्खित्तं द्वारकोडकसम्पन्नं कत्वा बुद्धप्पमुखस्स सङ्घस्स निय्यातेसि पुरिमवोहारेन पन “पावारिकम्बवन "न्ति वुच्चति, तस्मिं पावारिकम्बवने । केवट्टोति इदं तस्स नामं केवट्टेहि संरक्खितत्ता, तेसं वा सन्तिके संवड्डितत्ताति केचि । " गहपतिपुत्तस्सा" ति एत्थ कामं तदा सो गहपतिट्ठाने ठितो, पितु पनस्स अचिरकालंकतताय पुरिमसमञ्ञाय " गहपतिपुत्तो" त्वेव वोहरीयति, तेनाह “गहपति महासालो"ति । महाविभवताय महासारी, गहपतीति अत्थो र कारस्स ल-कारं कत्वा “महासालो सुखुमालो अह "न्तिआदीसु (अ० नि० १.३.३९ ) विय। सद्धासम्पन्नोति पोथुज्जनिकाय सद्धाय वसेन सद्धा समन्नागतो ।
समिद्धाति सम्मदेव इद्धा, इद्धिया विभवसम्पत्तिया वेपुल्लप्पत्ताति अत्थो । “ एहि त्वं भिक्खु अन्वद्धमासं, अनुमासं, अनुसंवच्छरं वा मनुस्सानं पसादाय इद्धिपारिहारियं करोही "ति एकस्स भिक्खुनो आणापनं तस्मिं ठाने तस्स ठपनं नाम होतीति आह “ठानन्तरे ठपेतू'ति । उत्तरिमनुस्सानं धम्मतोति उत्तरिमनुस्सानं बुद्धादीनं अधिगमधम्मतो | निद्धारणे चेतं निस्सक्कं । इद्धिपाटिहारियहि ततो निद्धारेति । मनुस्सधम्मतो उत्तरीति पकतिमनुस्सधम्मतो उपरि । पज्जलितपदीपोति पज्जलन्तो पदीपो ।
४८२. न धंसेमीति गुणसम्पत्तितो न चावेमि, तेनाह "सीलभेद "न्तिआदि । विस्सासं वडेत्वा भगवति अत्तनो विस्सत्थभावं ब्रूहेत्वा विभूतं पाकटं कत्वा ।
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(११.४८३-४-४८६)
इद्धिपाटिहारियवण्णना
३४५
इद्धिपाटिहारियवण्णना ४८३-४. आदीनवन्ति दोसं । गन्धारीति चूळगन्धारी, महागन्धारीति द्वे गन्धारीविज्जा । तत्थ चूळगन्धारी नाम तिवस्सतो ओरं मतानं सत्तानं उपपन्नट्ठानजाननविज्जा । महागन्धारी तम्पि जानाति ततो उत्तरिपि इद्धिविधञाणकप्पं येभुय्येन इद्धिविधकिच्चं साधेति । तस्सा किर विज्जाय साधको पुग्गलो तादिसे देसकाले मन्तं परिजप्पित्वा बहुधापि अत्तानं दस्सेति. हत्थिआदीनिपि दस्सेति, दस्सनीयोपि होति, अग्गिथम्भम्पि करोति, जलथम्भम्पि करोति, आकासेपि अत्तानं दस्सेति । सब्बं इन्दजालसदिसं दट्ठब्बं । अट्टो ति दुक्खितो बाधितो, तेनाह “पीळितो"ति ।
आदेसनापाटिहारियवण्णना
४८५. कामं "चेतसिक"न्ति पदं ये चेतसि नियुत्ता चित्तेन सम्पयुत्ता, तेसं साधारणवचनं, साधारणे पन गहिते चित्तविसेसो गहितोव होति, सामञजोतना च विसेसे अवतिकृतीति चेतसिकग्गहणस्स अधिप्पायं विवरन्तो "सोमनस्सदोमनस्सं अधिप्पेत"न्ति आह । सोमनस्सग्गहणेन चेत्थ तदेकट्ठा रागादयो, सद्धादयो च दस्सिता होन्ति, दोमनस्सग्गहणेन दोसादयो। वितक्कविचारा पन सरूपेनेव दस्सिता । एवं तव मनोति इमिना आकारेन तव मनो पवत्तोति अत्थो। केन पकारेन पवत्तोति आह "सोमनस्सितो वा"तिआदि । "एवं तव मनो"ति इदं पन सोमनस्सिततादिमत्तदस्सनं, न पन येन येन सोमनस्सितो वा दोमनस्सितो वा, तं तं दस्सनं । दुतियन्ति “इत्थम्पि ते मनो"ति इदं । इतिपीति एत्थ इति-सद्दो निदस्सनत्थो “अस्थीति खो, कच्चान, अयमेको अन्तो"तिआदीसु (सं० नि० १.२.१५, २.३.९०) विय, तेनाह "इमञ्च इमञ्च अत्यं चिन्तयमान"न्ति पि-सद्दो वुत्तत्थसम्पिण्डनत्थो । परस्स चिन्तं मनति जानाति एतेनाति चिन्तामणि। तस्सा किर विज्जाय साधको पुग्गलो तादिसे देसकाले मन्तं परिजप्पित्वा यस्स चित्तं जानितुकामो, तस्स दिट्ठसुतादिविसेससञ्जाननमुखेन चित्ताचारं अनुमिनन्तो कथेतीति केचि । अपरे “वाचं निच्छरापेत्वा तत्थ अक्खरसल्लक्खणवसेना"ति वदन्ति ।
अनुसासनीपाटिहारियवण्णना ४८६. पवत्तेन्ताति पवत्तनका हुत्वा, पवत्तनवसेनाति अत्थो । “एव"न्ति हि पदं
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३४६
दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गटीका
(११.४८७-४८७)
यथानुसिट्ठाय अनुसासनिया विधिवसेन, पटिसेधवसेन च पवत्तिआकारपरामसनं, सा च सम्मावितक्कानं मिच्छावितक्कानञ्च पवत्तिआकारदस्सनवसेन पवत्तति तत्थ आनिसंसस्स आदीनवस्स च विभावनत्थं । अनिच्चसझमेव न निच्चसञ्जन्ति अत्थो । पटियोगीनिवत्तनत्थहि एव-कारग्गहणं। इधापि एवं सद्दग्गहणस्स अत्थो, पयोजनञ्च वुत्तनयेनेव वेदितब्बं । इदंगहणेपि एसेव नयो । पञ्चकामगुणिकरागन्ति निदस्सनमत्तं दट्टब्बं, तदञरागस्स, दोसादीनञ्च पहानस्स इच्छितत्ता, तप्पहानस्स च तदारागादिखेपनस्स उपायभावतो तथा वुत्तं दुट्ठलोहितविमोचनस्स पुब्बदुट्ठमंसखेपनूपायता विय | लोकुत्तरधम्ममेवाति अवधारणं पटिपक्खभावतो सावज्जधम्मनिवत्तनपरं दट्ठब् तस्साधिगमूपायानिसंसभूतानं तदक्षेसं अनवज्जधम्मानं नानन्तरियभावतो। इद्धिविधं इद्धिपाटिहारियन्ति दस्सेति इद्धिदस्सनेन परसन्ताने पसादादीनं पटिपक्खस्स हरणतो। इमिना नयेन सेसपदद्वयेपि अत्थो वेदितब्बो। सततं धम्मदेसनाति सब्बकालं देसेतब्बधम्मदेसना।
इद्धिपाटिहारियेनाति सहयोगे करणवचनं, इद्धिपाटिहारियेन सद्धिन्ति अत्थो । आदेसनापाटिहारियेनाति एत्थापि एसेव नयो । धम्मसेनापतिस्स आचिण्णन्ति योजना। "चित्ताचारं ञत्वा"ति इमिना आदेसनापाटिहारियं दस्सेति । "धम्म देसेसी"ति इमिना अनुसासनीपाटिहारियं "बुद्धानं सततं धम्मदेसना"ति अनुसासनीपाटिहारियस्स तत्थ सातिसयताय वुत्तं । सउपारम्भानि पतिरूपेन उपारम्भितब्बतो । सदोसानि दोससमुच्छिन्दनस्स अनुपायभावतो । सदोसत्ता एव अद्धानं न तिट्ठन्ति चिरकालट्ठायीनि न होन्ति । अद्धानं अतिद्वनतो न निय्यन्तीति फलेन हेतुनो अनुमानं । अनिय्यानिकताय हि तानि अनद्धनियानि । अनुसासनीपाटिहारियं अनुपारम्भं विसुद्धिप्पभवतो, विसुद्धिनिस्सयतो च । ततो एव निदोसं। न हि तत्थ पुब्बापरविरोधादिदोससम्भवो । निद्दोसत्ता एव अद्धानं तिगृति परवादवातेहि, किलेसवातेहि च अनुपहन्तब्बतो। तस्माति यथावुत्तकारणतो, तेन सउपारम्भादि, अनुपारम्भादिं चाति उभयं उभयत्थ यथाक्कम गारव्हपासंसभावानं हेतुभावेन पच्चामसति ।
भूतनिरोधेसकवत्थुवण्णना ४८७. अनिय्यानिकभावदस्सनत्यन्ति यस्मा महाभूतपरियेसको भिक्खु पुरिमेसु द्वीसु पाटिहारियेसु वसिप्पत्तो कुसलोपि समानो महाभूतानं अपरिसेसनिरोधसङ्खातं निब्बानं
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(११.४८८-४९१-३)
भूतनिरोधेसकवत्थुवण्णना
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नावबुज्झि, तस्मा तानि निय्यानावहताभावतो अनिय्यानिकानीति तेसं अनिय्यानिकभावदस्सनत्थं । ततियं पन तक्करस्स एकन्ततो निय्यानावहन्ति तस्सेव निय्यानिकभावदस्सनत्थं ।
__ एवमेतिस्सा देसनाय मुख्यपयोजनं दस्सेत्वा इदानि अनुसङ्गिकम्पि दस्सेतुं "अपिचा"तिआदि आरद्धं । महाभूते परियेसन्तोति अपरिसेसं निरुज्झनवसेन महाभूते गवेसन्तो, तेसं अनवसेसनिरोधं वीमंसन्तोति अत्थो । विचरित्वाति धम्मताय चोदियमानो विचरित्वा । धम्मतासिद्धं किरेतं, यदिदं तस्स भिक्खुनो तथा विचरणं, यथा अभिजातियं महापथविकम्पादि । महन्तभावप्पकासनत्यन्ति सदेवके लोके अननसाधारणस्स बुद्धानं महन्तभावस्स महानुभावताय दीपनत्थं । इदञ्च कारणन्ति सब्बेसम्पि बुद्धानं सासने ईदिसो एको भिक्खु तदानुभावप्पकासनो होतीति इदम्पि कारणं दस्सेन्तो।
कत्थाति निमित्ते भुम्मं, तस्मा कत्थाति किस्मिं ठाने कारणभूते । किं आगम्माति किं आरम्मणं पच्चयभूतं अधिगन्त्वा, तेनाह "किं पत्तस्सा"ति । तेति महाभूता । अप्पवत्तिवसेनाति अनुप्पज्जनवसेन । सब्बाकारेनाति वचनत्थलक्खणादिसमुट्ठानकलापचुण्णनानत्तेकत्तविनिब्भोगाविनिब्भोगसभागविसभागअज्झत्तिकबाहिरसङ्गहपच्चयसमन्नाहारपच्चयविभागाकारतो, ससम्भारस पससम्भारविभत्तिसलक्खणसङ्केपसलक्खणविभत्तिआकारतो चाति सब्बेन आकारेन ।
४८८. दिब्बन्ति एत्थ पञ्चहि कामगुणेहि समङ्गीभूता हुत्वा विचरन्ति, कीळन्ति, जोतन्ति चाति देवी, देवलोको । तं यन्ति उपगच्छन्ति एतेनाति. देवयानियो। वसं वत्तेन्तोति एत्थ वसवत्तनं नाम यथिच्छितहानगमनं । चत्तारो महाराजानो एतेसं इस्सराति चातुमहाराजिका या देवता मग्गफललाभिनो ता तमत्थं एकदेसेन जानेय्युं बुद्धविसयो पनायं पञ्होति चिन्तेत्वा “न जानामा"ति आहंसु, तेनाह "बुद्धविसये"तिआदि । अज्झोत्थरणं नामेत्थ निप्पीळनन्ति आह "पुनप्पुनं पुच्छती"ति । अभिक्कन्ततराति रूपसम्पत्तिया चेव पञापटिभानादिगुणेहि च अम्हे अभिभुय्य परेसं कामनीयतरा । पणीततराति उळारतरा, तेनाह "उत्तमतरा"ति ।
४९१-३. देवयानियसदिसो इद्धिविधञाणस्सेव अधिप्पेतत्ता। "देवयानियमग्गोति
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३४८
दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गटीका
(११.४९४-४९८)
वा...पे०... सब्बमेतं इद्धिविधाणस्सेव नाम"न्ति इदं पाळियं अट्ठकथासु च तत्थ तत्थ आगतरुळिहवसेन वुत्तं ।
४९४. आगमनपुब्बभागे निमित्तन्ति ब्रह्मनो आगमनस्स पुब्बभागे उप्पज्जननिमित्तं । पातुरहोसीति आवि भवि । पाकटो अहोसीति पकासो अहोसि।
४९७. पदेसेनाति एकदेसेन, उपादिन्नकवसेन, सत्तसन्तानपरियापन्नेनाति अत्थो । अनुपादिनकपीति अनिन्द्रियबद्धेपि । निप्पदेसतो अनवसेसतो। पुच्छामूळ्हस्साति पुच्छितुं अजानन्तस्स | पुच्छाय दोसं दस्सेत्वाति तेन कतपुच्छाय पुच्छिताकारे दोसं विभावत्वा । यस्मा विस्सज्जनं नाम पुच्छानुरूपं पुच्छासभागेन विस्सज्जेतब्बतो, न च तथागता विरज्झित्वा कतपुच्छानुरूपं विस्सज्जेन्ति, अत्थसभागताय च विस्सज्जनस्स पुच्छका तदत्थं अनवबुज्झन्ता सम्मुव्हन्ति, तस्मा पुच्छाय सिक्खापनं बुद्धाचिण्णं, तेनाह "पुच्छं सिक्खापेत्वा"तिआदि ।
४९८. अप्पतिद्वाति अप्पच्चया, सब्बसो समुच्छिन्नकारणाति अत्थो । उपादिन्नं येवाति इन्द्रियबद्धमेव । यस्मा एकदिसाभिमुखं सन्तानवसेन सण्ठिते रूपप्पबन्धे दीघसमञा तं उपादाय ततो अप्पके रस्ससमा तदुभयञ्च विसेसतो रूपग्गहणमुखेन गव्हति, तस्मा आह "दीपञ्च रस्सञ्चाति सण्ठानवसेन उपादारूपं वुत्त"न्ति । अप्पपरिमाणे रूपसङ्घाते अणुसमा , तं उपादाय ततो महति थूलसमझा। इदम्पि द्वयं विसेसतो रूपग्गहणमुखेन गव्हति, तेनाह "इमिनापी"तिआदि । पि-सद्देन चेत्थ “सण्ठानवसेन उपादारूपं वुत्त"न्ति एत्थापि वण्णमत्तमेव कथितन्ति इममत्थं समुच्चिनतीति वदन्ति । सुभन्ति सुन्दरं, इठ्ठन्ति अत्थो । असुभन्ति असुन्दरं, अनिट्ठन्ति वुत्तं होति । तेनेवाह "इट्ठानिटारम्मणं पनेवं कथित"न्ति । दीघं रस्सं, अणुं थूलं, सुभासुभन्ति तीसु ठानेसु उपादारूपस्सेव गहणं, भूतरूपानं विसुं गहितत्ता । नामन्ति वेदनादिक्खन्धचतुक्कं तन्हि आरम्मणाभिमुखं नमनतो, नामकरणतो च “नाम''न्ति वुच्चति । हेट्ठा “दीघं रस्स"न्तिआदिना वुत्तमेव इध रुप्पनटेन “रूप''न्ति गहितन्ति आह "दीघादिभेदं रूपञ्चा"ति । दीघादीति च आदि-सद्देन आपादीनञ्च सङ्गहो दट्टब्बो । यस्मा वा दीघादिसमझा न रूपायतनवत्थुकाव, अथ खो भूतरूपवत्थुकापि । तथा हि सण्ठानं फुसनमुखेनपि गव्हति, तस्मा दीघरस्सादिग्गहणेन भूतरूपम्पि गव्हतेवाति “दीघादिभेदं रूप''मिच्चेव वुत्तं । किं आगम्माति किं अधिगन्त्वा
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(११.४९९-४९९)
भूतनिरोधेसकवत्थुवण्णना
३४९
किस्स अधिगमहेतु । "उपरुज्झती"ति इदं अनुप्पादनिरोधं सन्धाय वुत्तं, न खणनिरोधन्ति आह “असेसमेतं नप्पवत्तती"ति ।
४९९. विज्ञातब्बन्ति विसिटेन आतब्द, आणुत्तमेन अरियमग्गजाणेन पच्चक्खतो जानितब्बन्ति अत्थो, तेनाह "निब्बानस्सेतं नाम"न्ति । निदिस्सतीति निदस्सनं, चक्खुविनेय्यं । न निदस्सनं अनिदस्सनं, अचक्खुविनेय्यन्ति एतमत्थं वदन्ति । निदस्सनं वा उपमा, तं एतस्स नत्थीति अनिदस्सनं। न हि निब्बानस्स निच्चस्स एकस्स अच्चन्तसन्तपणीतसभावस्स सदिसं निदस्सनं कुतोचि लब्भतीति । यं अहुत्वा सम्भोति, हुत्वा पटिवेति तं सङ्घतं उदयवयन्तेहि सअन्तं, असङ्खतस्स पन निब्बानस्स निच्चस्स ते उभोपि अन्ता न सन्ति, ततो एव नवभावापगमसङ्खातो जरन्तोपि तस्स नत्थीति आह "उप्पादन्तो...पे०... अनन्त"न्ति । “तित्थस्स नाम''न्ति वत्वा तत्थ निब्बचनं दस्सेतुं "पपन्ति एत्थाति पप"न्ति वुत्तं । एत्थ हि पपन्ति पानतित्थं । भ-कारो कतो निरुत्तिनयेन । विसुद्धटेन वा सब्बतोपभं, केनचि अनुपक्किलिट्ठताय समन्ततो पभस्सरन्ति अत्थो । येन निब्बानं अधिगतं, तं सन्ततिपरियापन्नानंयेव इध अनुप्पादनिरोधो अधिप्पेतोति वुत्तं "उपादिनकधम्मजातं निरुज्झति अप्पवत्तं होती"ति ।
तत्थाति "विज्ञाणस्स निरोधेना''ति यं पदं वुत्तं, तस्मिं । "विज्ञाण"न्ति विज्ञाणं उद्धरति विभत्तब्बत्ता एत्थेतं उपरुज्झतीति एतस्मिं निब्बाने एतं नामरूपं चरिमकविज्ञाणनिरोधेन अनुप्पादवसेन निरुज्झति अनुपादिसेसाय निब्बानधातुया, तेनाह "विज्झातदीपसिखा विय अपण्णत्तिकभावं याती"ति । “चरिमकविआण"न्ति हि अरहतो चुतिचित्तं अधिप्पेतं । “अभिसङ्कारविज्ञाणस्सापी'तिआदिनापि सउपादिसेसनिब्बानमुखेन अनुपादिसेसनिब्बानमेव वदति नामरूपस्स अनवसेसतो उपरुज्झनस्स अधिप्पेतत्ता, तेनाह "अनुप्पादवसेन उपरुज्झती"ति | सोतापत्तिमग्गत्राणेनाति कत्तरि, करणे वा करणवचनं । निरोधेनाति पन हेतुम्हि । एत्थाति एतस्मिं निब्बाने । सेसमेत्थ यं अत्थतो न विभत्तं, तं सुविद्येय्यमेव ।
केवट्टसुत्तवण्णनाय लीनत्थप्पकासना।
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१२. लोहिच्चसुत्तवण्णना
लोहिच्चब्राह्मणवत्थुवण्णना ५०१. सालवतिकाति इथिलिङ्गवसेन तस्स गामस्स नाम। गामणिकाभावेनाति केचि । लोहितो नाम तस्स कुले पुब्बपुरिसो, तस्स वसेन लोहिच्चोति तस्स ब्राह्मणस्स गोत्ततो आगतं नाम।
५०२. “दिट्ठिगत''न्ति लद्धिमत्तं अधिप्पेतन्ति आह “न पन उच्छेदसस्सतानं अञ्जतर"न्ति । न हि उच्छेदसस्सतगाहविनिमुत्तो कोचि दिट्ठिगाहो अस्थि । “भासति येवा"ति तस्सा लद्धिया लोके पाकटभावं दस्सेति। अत्ततो अञ्जो परोति यथा अनुसासकतो अनुसासितब्बो परो, एवं अनुसासितब्बतोपि अनुसासको परोति वुत्तं "परो परस्साति परो यो"तिआदि | किं-सद्दापेक्खाय चेत्थ "करिस्सती"ति अनागतकालवचनं, अनागतेपि वा तेन तस्स कातब्बं नत्थीति दस्सनत्थं । कुसलं धम्मन्ति अनवज्जधम्म निक्किलेसधम्मं विमोक्खधम्मन्ति अत्थो । “परेसं धम्म कथेस्सामी'ति तेहि अत्तानं परिवारापेत्वा विचरणं किं अत्थियं आसयबुद्धस्सापि अनुरोधेन विना तं न होतीति तस्मा अत्तना पटिलद्धं...पे०... विहातब्बन्ति वदति। तेनाह “एवं सम्पदमिदं पापकं लोभधम्म वदामी'ति ।
५०४. सोति लोहिच्चो ब्राह्मणो ।
५०८. कथाफासुकत्थन्ति कथासुखत्थं, सुखेन कथं कथेतुञ्चेव सोतुञ्चाति अत्थो । अप्पेव नाम सियाति एत्थ पीतिवसेन आमेडितं दट्ठबं । तथा हि तं “बुद्धगज्जित''न्ति
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(१२.५०९-५१३)
लोहिच्चब्राह्मणानुयोगवण्णना
३५१
वुच्चति । भगवा हि ईदिसेसु ठानेसु विसेसतो पीतिसोमनस्सजातो होति । तेनाह "अयं किरेत्थ अधिप्पायो"तिआदि ।
लोहिच्चब्राह्मणानुयोगवण्णना ५०९. समुदयसञ्जातीति आयुप्पादो। अनुपुब्बो कम्पी-सद्दो आकङ्घनत्थो होतीति "इच्छतीति अत्थो"ति वुत्तं । सातिसयेन वा हितेन अनुकम्पको अनुग्गण्हनको हितानुकम्पी। सम्पज्जतीति आसेवनलाभेन निप्पज्जति बलवती होति, अवग्गहाति अत्थो, तेनाह "नियता होती"ति । निरये निब्बत्तति मिच्छादिट्ठिको ।
५१०-११. दुतियं उपपत्तिन्ति “ननु राजा पसेनदी कोसलो''तिआदिना दुतियं उपपत्तिं साधनयुत्तिं । कारणहि भगवा उपमामुखेन दस्सेति । ये चिमेति ये च इमे कुलपुत्ता दिब्बा गब्भा परिपाचेन्तीति योजना। असक्कुणन्ता उपनिस्सयसम्पत्तिया, जाणपरिपाकस्स वा अभावेन । ये पन “परिपच्चन्ती''ति पठन्ति, तेसं “दिब्बे गब्भे"ति वचनविपल्लासेन पयोजनं नत्थि। अत्थो च दुतियविकप्पे वुत्तनयेन वेदितब्बो । अहितानुकम्पिता च तंसमनिसत्तवसेन । दिवि भवाति दिब्बा। गब्भेन्ति परिपच्चनवसेन सन्तानं पबन्धेन्तीति गब्भा। “छन्नं देवलोकान"न्ति निदस्सनवचनमेतं । ब्रह्मलोकस्सापि हि दिब्बगब्भभावो लब्भतेव दिब्बविहारहेतुकत्ता । एवञ्च कत्वा "भावनं भावयमाना"ति इदम्पि वचनं समत्थितं होति । भवन्ति एत्थ यथारुचि सुखसमप्पिताति भवा, विमानानि । देवभावावहत्ता दिब्बा। वुत्तनयेनेव गब्भा। दानादयो देवलोकसंवत्तनियपुञ्जविसेसा। दिब्बा भवाति देवलोकपरियापन्ना उपपत्तिभवा । तदावहो हि कम्मभवो पुब्बे गहितो ।
तयोचोदनारहवण्णना
५१३. अनियमितेनेवाति अनियमेनेव “त्वं एवंदिट्ठिको एवं सत्तानं अनत्थस्स कारको"ति एवं अनुद्देसिकेनेव । मानन्ति “अहमेतं जानामि, अहमेतं पस्सामी''ति एवं पण्डितमानं । भिन्दित्वाति विधमेत्वा, जहापेत्वाति अत्थो। तयो सत्थारेति असम्पादितअत्तहितो अनोवादकरसावको, असम्पादितअत्तहितो ओवादकरसावको, सम्पादितअत्तहितो अनोवादकरसावकोति इमे तयो सत्थारे । चतुत्थो पन सम्मासम्बुद्धो न चोदनारहो होतीति "तेन पुच्छिते एव कथेस्सामी''ति चोदनारहे तयो सत्थारे पठमं
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गटीका
दस्सेसि, पच्छा चतुत्थंसत्थारं । कामञ्चेत्थ चतुत्थो सत्था एको अदुतियो अनञ्ञसाधारणो, तथापि सो येसं उत्तरिमनुस्सधम्मानं वसेन " धम्ममयो कायो" ति वुच्चति, तेसं समुदायभूतोपि ते गुणावयवे सत्थुट्ठानिये कत्वा दस्सेन्तो भगवा " अयम्पि खो, लोहिच्च, सत्था" ति अभासि ।
३५२
अञति य-कारलोपेन निद्देसो “सयं अभिज्ञा "ति आदीसु (दी० नि० १.२८, ३७, ५२; म० नि० १.२८४; २.३४१; अ० नि० १.२.५; ३.१०.११; महाव० ११ ; ध० प० ३५३; कथाव० ४०५ ) विय । अञ्ञायाति च तदत्थिये सम्पदानवचनन्ति आह " आजाननत्थाया "ति । सावकत्तं पटिजानित्वा ठितत्ता एकदेसेनस्स सासनं करोन्तीति आह " निरन्तरं तस्स सासनं अकत्वा' 'ति । उक्कमित्वा वत्तन्तीति यथिच्छितं करोतीति अत्थो । पटिक्कमन्तियाति अनभिरतिया अगारवेन अपगच्छन्तिया, तेनाह 'अनिच्छन्तिया''तिआदि । एकायाति एकाय इत्थिया । एको इच्छेय्याति एको पुरिसो ताय अनिच्छन्तिया सम्पयोगं काय | ओसक्कनादिमुखेन इत्थिपुरिससम्बन्धनिदस्सनं गेहसितअपेक्खावसेन तस्स सत्थुनो सावकेसु पटिपत्तीति दस्सेति । अतिविय विरत्तभावतो दर्ुम्पि अनिच्छमानं । लोभेनाति परिवारवसेन उप्पज्जनकलाभसक्कारलोभेन । तत्थ सम्पादेहीति तस्मिं पटिपत्तिधम्मे पतिट्ठितं कत्वा सम्पादेहि । उजुं करोहि कायवङ्कादिविगमेन ।
""
५१५. एवं चोदनं अरहतीति एवं वुत्तनयेन सावकेसु अप्पोस्सुक्कभावापादने नियोजनवसेन चोदनं अरहति, न पठमो विय " एवरूपो तव लोभधम्मो "तिआदिना, न च दुतियो विय " अत्तानमेव ताव तत्थ सम्पादेही "तिआदिना । कस्मा ? सम्पादित अत्तहितताय ततियस्स ।
( १२.५१५ - ५१७)
नचोदनारहसत्थुवण्णना
५१६. “न चोदनारहो' ति एत्थ यस्मा चोदनारहता नाम सत्थुविप्पटिपत्तिया वा सावकविप्पटिपत्तिया वा उभयविप्पटिपत्तिया वा, तयिदं सब्बम्पि इमस्मिं सत्थरि नत्थि, तस्मा न चोदनारहोति इममत्थं दस्सेतुं " अयही "तिआदि वृत्तं ।
५१७. मया गहिताय दिट्टियाति सब्बसो अनवज्जे सम्मापटिपन्ने परे सम्मदेव सम्मापटिपत्तिं देस्सेन्ते सत्थरि अभूतदोसारोपनवसेन मिच्छागहिताय निरयगामिनिया
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(१२.५१७-५१७)
नचोदनारहसत्युवण्णना
३५३
पापदिट्ठिया। नरकपपातन्ति नरकसङ्घातं महापपातं । पपतन्ति तत्थाति हि पपातो । सग्गमग्गथलेति सग्गगामिमग्गभूते पुञधम्मथले । सेसं सुविओय्यमेव ।
लोहिच्चसुत्तवण्णनाय लीनत्थप्पकासना ।
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१३. तेविज्जसुत्तवण्णना
५१८. उत्तरेनाति एत्थ एन-सद्दो दिसावाचीसद्दतो पञ्चमीअन्ततो अदूरत्थो इच्छितो, तस्मा उत्तरेन-सद्देन अदूरत्थजोतनं दस्सेन्तो “अदूरे उत्तरपस्से"ति आह । अक्खरचिन्तका पन एन-सद्दयोगे अवधिवाचिनि पदे उपयोगवचनं इच्छन्ति । अत्थो पन सामिवसेनेव इच्छितोति इध सामिवचनवसेनेव वुत्तं ।
५१९. कुलचारित्तादीति आदि-सद्देन मन्तज्झेनाभिरूपतादिसम्पत्तिं सङ्गण्हाति । मन्तसज्झायकरणथन्ति आथब्बणमन्तानं सज्झायकरणत्थं, तेनाह "अओसं बहूनं पवेसनं निवारेत्वा"ति ।
मग्गामग्गकथावण्णना
५२०. "जमचार"न्ति चङ्कमतो इतो चितो च चरणमाह । सो हि जवासु किलमथविनोदनत्थो चारोति तथा वुत्तो। तेनाह “अनुचकमन्तानं अनुविचरन्तान'"न्ति । तेनाति उभोसुपि अनुचङ्कमनानुविचारणानं लब्भनतो। सहाया हि ते अञमञ सभागवुत्तिका । “मग्गो"ति इच्छितट्टानं उजुकं मग्गति उपगच्छति एतेनाति मग्गो, उजुमग्गो। तदओ अमग्गो, तस्मिं मग्गे च अमग्गे च। पटिपदन्ति ब्रह्मलोकगामिमग्गस्स पुब्बभागपटिपदं ।
निय्यातीति निय्यानीयो, सो एव "निय्यानिको"ति वुत्तोति आह "निय्यायन्तो"ति । यस्मा निय्यातपुग्गलवसेनस्स निय्यानिकभावो, तस्मा “निय्यायन्तो"ति पुग्गलस्स योनिसो पटिपज्जनवसेन निय्यायन्तो मग्गो “निय्याती"ति वुत्तो। करोतीति अत्तनो सन्ताने उप्पादेति । उप्पादेन्तोयेव हि तत्थ पटिपज्जति नाम । सह ब्येति वत्ततीति सहब्यो,
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(१३.५२१-२-५२४)
मग्गामग्गकथावण्णना
३५५
सहवत्तनको। तस्स भावो सहब्यताति आह “सहभावाया''तिआदि । सहभावोति च सलोकता, समीपता वा वेदितब्बा, तेनाह "एकट्ठाने पातुभावाया"ति। सकमेव आचरियवादन्ति अत्तनो आचरियेन पोक्खरसातिना कथितमेव आचरियवादं। थोमेत्वा पग्गण्हित्वा “अयमेव उजुमग्गो अयमञ्जसायनोति पसंसित्वा उक्कंसित्वा । भारद्वाजोपि सकमेवाति भारद्वाजोपि माणवो अत्तनो आचरियेन तारुक्खेन कथितमेव आचरियवाद थोमेत्वा पग्गण्हित्वा विचरतीति योजना । तेन वुत्तन्ति तेन यथा तथा वा अभिनिविठ्ठभावेन वुत्तं पाळियं ।
५२१-२. अनिय्यानिका वाति अप्पाटिहारियाव अञमञस्स वादे दोसं दस्सेत्वा अविपरीतत्थदस्सनत्थं उत्तररहिता एव । अञमञस्स वादस्स आदितो विरुद्धग्गहणं विग्गहो, स्वेव विवदनवसेन अपरापरं उप्पन्नो विवादोति आह "पुब्बुप्पत्तिको विग्गहो अपरभागे विवादो'ति । दुविधोपि एसो विग्गहो, विवादोति द्विधा वुत्तोपि विरोधो । नानाआचरियानं वादतोति नानारुचिकानं आचरियानं वादभावतो । नानावादो नानाविधो वादोति कत्वा ।
५२३. एकस्सापीति तुम्हेसु द्वीसु एकस्सापि । एकस्मिन्ति सकवादपरवादेसु एकस्मिम्पि । संसयो नत्थीति “मग्गो नु खो, न मग्गो नु खो"ति संसयो विचिकिच्छा नत्थि । अञ्जसायनभावे पन संसयो। तेनाह “एस किरा''तिआदि | भगवा पन यदि सब्बत्थ मग्गसचिनो, एवं सति "किस्मिं वो विग्गहो"ति पुच्छति ।
५२४. “इच्छितट्टानं उजुकं मग्गति उपगच्छति एतेनाति मग्गो, उजुमग्गो । तदञो अमग्गो"ति वुत्तो वायमत्थो । सब्बे तेति सब्बेपि ते नानाआचरियेहि वुत्तमग्गा |
ये पाळियं “अद्धरिया ब्राह्मणा"तिआदिना वुत्ता। अद्धरो नाम यज्ञविसेसो, तदुपयोगिभावतो “अद्धरिया" त्वेव वुच्चन्ति यजूनि, तानि सज्झायन्तीति अद्धरिया, यजुब्बेदिनो। ये च तित्तिरिइसिना कते मन्ते सज्झायन्ति, ते तित्तिरिया, यजुब्बेदिनो एव । यजब्बेदसाखा हेसा, यदिदं तित्तिरं । छन्दो वुच्चति विसेसतो सामवेदो, तं सरेन कायन्तीति छन्दोका, सामवेदिनो । “छन्दोगा"तिपि पठन्ति, सो एवत्थो । बहवो इरयो एत्थाति बव्हारि, इरुब्बेदो । तं अधीयन्तीति बव्हारिज्झा।
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३५६
दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गटीका
(१३.५२७-५२९-५४४)
"बहूनी''ति एत्थायं उपमासंसन्दना - यथा ते नानामग्गा एकंसतो तस्स गामस्स वा निगमस्स वा पवेसाय होन्ति, एवं ब्राह्मणेहि पापियमानापि नानामग्गा ब्रह्मलोकूपगमनाय ब्रह्मना सहब्यताय एकंसेनेव होन्तीति ।
५२७-५२९. व-कारो आगमसन्धिमत्तन्ति अनत्थको व-कारो, तेन वण्णागमेन पदन्तरसन्धिमत्तं कतन्ति अत्थो । अन्धपवेणीति अन्धपन्ति । "पञ्जाससट्ठि अन्धा"ति इदं तस्सा अन्धपवेणिया महतो गच्छगुम्बस्स अनुपरिगमनयोग्यतादस्सनं । एवम्हि ते “सुचिरं वेलं मग्गं गच्छामा''ति एवं सचिनो होन्ति । नामकंयेवाति अत्थाभावतो नाममत्तंयेव, तं पन भासितं तेहि सारसञितम्पि नाममत्तताय असारभावतो निहीनमेवाति आह "लामकंयेवा"ति।
५३०. यतोति भुम्मत्थे निस्सक्कवचनं, सामाजोतना च विसेसे अवतिद्वतीति आह "यस्मिं काले"ति। आयाचन्तीति पत्थेन्ति । उग्गमनं लोकस्स बहुकारभावतो तथा थोमनाति । अयं किर ब्राह्मणानं लद्धि “ब्राह्मणानं आयाचनाय चन्दिमसूरिया गन्त्वा लोके ओभासं करोन्ती''ति।
५३२. इध पन किं वत्तबन्ति इमस्मिं पन अप्पच्चक्खभूतस्स ब्रह्मनो सहब्यताय मग्गदेसने तेविज्जानं किं वत्तब्बं अत्थि, ये पच्चक्खभूतानम्पि चन्दिमसूरियानं सहब्यताय मग्गं देसेतुं न सक्कोन्तीति अधिप्पायो। “यत्था"ति "इध पनाति वुत्तमेवत्थं पच्चामसति ।
अचिरवतीनदीउपमाकथावण्णना ५४२. समभरिताति सम्पुण्णा । ततो एव काकपेय्या। पाराति परतीरं । अपारन्ति ओरिमतीरं । एहीति आगच्छ ।
५४४. पञ्चसील...पे०... वेदितब्बा यमनियमादिब्राह्मणधम्मानं तदन्तोगधभावतो । तब्बिपरीताति पञ्चसीलादिविपरीता पञ्च वेरादयो । “पुनपी'ति वत्वा "अपरम्पी"ति वचनं इतरायपि नदि उपमाय सङ्गण्हनत्थं ।
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(१३.५४६-५४६)
अचिरवतीनदीउपमाकथावण्णना
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५४६. कामयितब्बद्वेनाति कामनीयभावेन । बन्धनद्वेनाति तेनेव कामेतब्बभावेन सत्तानं चित्तस्स आबन्धनभावेन । कामञ्चायं गुण-सद्दो अत्थन्तरेसुपि दिट्ठप्पयोगो, तेसं पनेत्थ असम्भवतो पारिसेसत्रायेन बन्धनह्रयेव युत्तोति दस्सेतुं “अनुजानामी"तिआदिना अत्थुद्धारो आरद्धो, एसेवाति बन्धनट्ठो एव । न हि रूपादीनं कामेतब्बभावे वुच्चमाने पटलट्ठो युज्जति तथा कामेतब्बताय अनधिप्पेतत्ता । रासठ्ठआनिसंसढेसुपि एसेव नयो तथापि कामेतब्बताय अनधिप्पेतत्ता। पारिसेसतो पन बन्धनट्ठो गहितो । यदग्गेन हि नेसं कामेतब्बता, तदग्गेन बन्धनभावो चाति । ____ कोट्ठासट्ठोपि तेसु युज्जतेव चक्खुवि य्यादिकोट्ठासभावेन नेसं कामेतब्बतो । कोट्ठासे च गुण-सदो दिस्सति “दिगुणं वड्वेतब्ब''न्तिआदीसु, सम्पदाह्रोपि -
“असङ्ख्येय्यानि नामानि, सगुणेन महेसिनो। गुणेन नाममुद्धेय्यं, अपि नामसहस्सतो"ति ।। (ध० स० अट्ठ० १३१३; उदा० अट्ठ० ५३; पटि० म० अट्ठ० ७६)
आदीसु सोपि इध न युज्जतीति अनुद्धटो ।
चक्खुविधेय्याति चक्खुविज्ञाणेन विजानितब्बा, तेन पन विजाननं दस्सनमेवाति आह “पस्सितब्बा'ति । “सोतविज्ञाणेन सोतब्बा"ति एवमादि एतेनुपायेनाति अतिदिसति । गवेसितम्पि "इट्ठ''न्ति वुच्चति, तं इध नाधिप्पेतन्ति आह “परियिट्ठा वा होन्तु मा वा"ति । इटारम्मणभूताति सुखारम्मणभूता । कामनीयाति कामेतब्बा । इट्टभावेन मनं अप्पायन्तीति मनापा। पियजातिकाति पियसभावा ।
- गेधेनाति लोभन अभिभूता हुत्वा पञ्चकामगुणे परिभुञ्जन्तीति योजना । मुच्छाकारन्ति मोहनाकारं। अधिओसनाति अधिग्गय्ह अज्झोसाय अवसन्ना, तेनाह "ओगाळ्हा"ति। परिनिट्ठानप्पत्ताति गिलित्वा परिनिट्ठापनवसेन परिनिट्ठानं उपगता । आदीनवन्ति कामपरिभोगे सम्पति, आयतिञ्च दोसं अपस्सन्ता। घासच्छादनादिसम्भोगनिमित्तसंकिलेसतो निस्सरन्ति अपगच्छन्ति एतेनाति निस्सरणं, योनिसो पच्चवेक्खित्वा तेसं परिभोगपञ्जा। तदभावतो अनिस्सरणपज्ञाति इममत्थं दस्सेन्तो "इदमेत्था"तिआदिमाह ।
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३५८
दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गटीका
५४८-९. आवरन्तीति कुसलप्पवत्तिं आदितोव निवारेन्ति । निवारेन्तीति निरवसेसतो वारयन्ति । ओनन्धन्तीति ओगाहन्ता विय छादेन्ति । परियोनन्धन्तीति सब्बसो छादेन्ति । आवरणादीनं बसेनाति आवरणादिअत्थानं वसेन । ते हि आसेवनबलवताय पुरिमपुरिमेहि पच्छिमपच्छिमा दळहतरतमादिभावप्पत्ता वृत्ता ।
संसन्दनकथावण्णना
५५०. इत्थिपरिग्गहे सति पुरिसस्स पञ्चकामगुणपरिग्गहो परिपुण्णो एव होतीति वृत्तं " सपरिग्गहोति इत्थिपरिग्गहेन सपरिग्गहो "ति । " इत्थिपरिग्गहेन अपरिग्गहो" ति च इदं तेविज्जब्राह्मणेसु दिस्समानपरिग्गहानं दुगुल्लतमपरिग्गहाभावदस्सनं । एवंभूतानं तेविज्जानं ब्राह्मणानं का ब्रह्म॒ना संसन्दना, ब्रह्मा पन सब्बेन सब्बं अपरिग्गहोति । वेरचित्तेन अवेरो, कुत एतस्स वेरप्पयोगोति अधिप्पायो । चित्तगेलञ्ञसङ्घातेनाति चित्तुप्पादगेलञ्ञसञ्ञितेन, तेनस्स सब्बरूपकायगेलञ्ञभावो वुत्तो होति । ब्यापज्झेनाति दुक्खेन । उद्धच्चकुक्कुच्चादीहीति आदि-सद्देन तदेकट्ठा संकिलेसधम्मा सङ्गय्हन्ति । अप्पटिपत्तिहेतुभूताय विचिकिच्छाय सति न कदाचि चित्तं पुरिसस्स वसे वत्तति, पहीनाय पन सिया वसवत्तनन्ति आह “विचिकिच्छाय अभावतो चित्तं वसे वत्तेती "ति । चित्तगतिकाति चित्तवसिका, तेनाह चित्तस्स बसे वत्तन्ती 'ति । न तादिसोति ब्राह्मणा विय चित्तवसिको न होति, अथ खो वसीभूतज्झानाभिञ्ञताय चित्तं अत्तनो वसे वत्तेतीति वसवत्ती ।
(१३.५४८-९-५५२)
५५२. ब्रह्मलोकमग्गेति ब्रह्मलोकगामिमग्गे पटिपज्जितब्बे, पञ्ञपेतब्बे वा, पञ्ञन्ताति अधिप्पायो । उपगन्त्वाति अमग्गमेव " मग्गो "ति मिच्छापटिपज्जनेन उपगन्त्वा, पटिजानित्वा वा । पङ्कं ओतिण्णा वियाति मत्थके एकङ्गुलं वा उपड्डुङ्गुलं वा सुक्खताय "समतल "न्ति सञ्ञाय अनेकपोरिसं महापङ्कं ओतिण्णा विय। अनुष्पविसन्तीति अपायमग्गं ब्रह्मलोकमग्गसञ्जय ओगाहयन्ति । ततो एव संसीदित्वा विसादं पापुणन्ति । एवन्ति " समतल "न्तिआदिना वुत्तनयेन । संसीदित्वाति निम्मुज्जित्वा । सुक्खतरणं मञ्ञे तरन्तीति सुक्खनदितरणं तरन्ति मञे । तस्माति यस्मा तेविज्जा अमग्गमेव " मग्गो 'ति उपगन्त्वा संसीदन्ति, तस्मा । यथा तेति यथा ते " समतल "न्ति सञ्ञाय पङ्कं ओतिण्णा । इधेव चाति इमस्मिञ्च अत्तभावे । सुखं वा सातं वा न लभन्तीति झानसुखं वा विपस्सनासा वा न लभन्ति, कुतो मग्गसुखं वा निब्बानसातं वाति अधिप्पायो । मग्गदीपकन्ति मग्गदीपकाभिमतं । " इरिण "न्ति अरञ्ञानिया इदं अधिवचनन्ति आह “अगामकं
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(१३.५५४-५५६)
ब्रह्मलोकमग्गदेसनावण्णना
३५९
महारज्ञ"न्ति । मिगरुरुआदीनम्पि अनुपभोगरुक्खेहि। परिवत्तितुम्पि न सक्का होन्ति महाकण्टकताय । ज्ञातीनं ब्यसनं विनासो जातिव्यसनं। एवं भोगसीलब्यसनानि वेदितब्बानि | रोगो एव ब्यसति विबाधतीति रोगव्यसनं। एवं दिद्विव्यसनम्पि दट्ठब्बं ।
५५४. जातसंवड्डोति जातो हुत्वा संवड्डितो। न सब्बसो पच्चक्खा होन्ति परिचयाभावतो । चिरनिक्खन्तोति निक्खन्तो हुत्वा चिरकालो। दन्धायितत्तन्ति विस्सज्जने मन्दत्तं सणिकवुत्ति, तं पन संसयवसेन चिरायनं नाम होतीति आह “कवावसेन चिरायितत्त"न्ति । वित्थायितत्तन्ति सारज्जितत्तं । अट्ठकथायं पन वित्थायितत्तं नाम छम्भितत्तन्ति अधिप्पायेन “थद्धभावग्गहण"न्ति वुत्तं ।
५५५. उ-इति उपसग्गयोगे लुम्प-सद्दो उद्धरणत्थो होतीति "उल्लुम्पतू"ति पदस्स उद्धरतूति अत्थमाह । उपसग्गवसेन हि धातु-सद्दा अत्थविसेसवुत्तिनो होन्ति यथा "उद्धरतू'ति ।
ब्रह्मलोकमग्गदेसनावण्णना ५५६. यस्स अतिसयेन बलं अस्थि, सो "बलवा"ति वुत्तोति आह "बलसम्पनो"ति । सङ्घ धमयतीति सङ्घधमको, तं धमयित्वा ततो सद्दपवत्तको । अप्पनाव वट्टति पटिपक्खतो सम्मदेव चेतसो विमुत्तिभावतो ।
___ पमाणकतं कम्मं नाम कामावचरं पमाणकरानं संकिलेसधम्मानं अविक्खम्भनतो । तथा हि तं ब्रह्मविहारपुब्बभागभूतं पमाणं अतिक्कमित्वा ओदिस्सकअनोदिस्सकदिसाफरणवसेन वड्डेतुं न सक्का । वुत्तविपरियायतो पन अप्पमाणकतं कम्मं नाम रूपारूपावचरं, तेनाह "तही"तिआदि । तत्थ अरूपावचरे ओदिस्सकानोदिस्सकवसेन फरणं न लब्भति, तथा दिसाफरणं ।
केचि पन तं आगमनवसेन लब्भतीति वदन्ति, तदयुत्तं । न हि ब्रह्मविहारनिस्सन्दो आरुपं, अथ खो कसिणनिस्सन्दो, तस्मा यं सुविभावितं वसीभावं पापितं आरुप्पं, तं "अप्पमाणकत"न्ति वुत्तन्ति दट्ठब्बं । यं वा सातिसयं ब्रह्मविहारभावनाय अभिसङ्घतेन सन्तानेन निब्बत्तितं, यञ्च ब्रह्मविहारसमापत्तितो वुट्ठाय समापनं अरूपावचरज्झानं, तं
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३६०
दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गटीका
(१३.५५९-५५९)
इमिना परियायेन फरणप्पमाणवसेन अप्पमाणकतन्ति वत्तुं वट्टतीति अपरे। वीमंसित्वा गहेतब्बं ।
रूपावचरारूपावचरकम्मेति रूपावचरकम्मे, अरूपावचरकम्मे च सति । न ओहीयति न तिद्वतीति कतूपचितम्पि कामावचरकम्मं यथाधिगते महग्गतज्झाने अपरिहीने तं अभिभवित्वा पटिबाहित्वा सयं ओहीयकं हुत्वा पटिसन्धिं दातुं समत्थभावे न तिट्ठति । लग्गितुन्ति आवरितुं निसेधेतुं । ठातुन्ति पटिबलो हुत्वा ठातुं । फरित्वाति पटिप्फरित्वा । परियादियित्वाति तस्स सामत्थियं खेपेत्वा । कम्मस्स परियादियनं नाम तस्स विपाकुप्पादनं निसेधेत्वा अत्तनो विपाकुप्पादनन्ति आह "तस्स विपाकं पटिबाहित्वा"तिआदि । एवं मेत्तादिविहारीति एवं वुत्तानं मेत्तादीनं ब्रह्मविहारानं वसेन मेत्तादिविहारी ।
५५९. अग्गजसुत्ते...पे०... अलथुन्ति अग्गझसुत्ते आगतनयेन उपसम्पदञ्चेव अरहत्तञ्च अलत्थु पटिलभिंसु । सेसं सुविओय्यमेव ।
तेविज्जसुत्तवण्णनाय लीनत्थप्पकासना।
निट्ठिता च तेरससुत्तपटिमण्डितस्स सीलक्खन्धवग्गस्स अत्यवण्णनाय
लीनत्थप्पकासनाति।
सीलक्खन्धवग्गटीका निहिता।
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सद्दानुक्कमणिका
अकत तं -४० अकतविधाना-२०२ अकथिनचित्तता - २९७ अकप्पियत्थरणन्ति-११० अकम्पनजाणं-११९ अकम्पित्थ-१६६ अकम्पियो-३१७ अकरणसीलोति-२८६ अकल्यतादीनं-२२९ अकामकभावमत्तं-११६ अकारणन्ति-४५ अकालवादिता-१०८ अकालुसियो-२४० अकिच्चकारकसमापत्तितो-३२६ अकित्तिमो-६८ अकिरियवादो-१५७ अकुद्धो- १४१ अकुसलकुसलादिधम्मानं-१७८ अकुसलचित्तप्पवत्ति-५३ अकुसलचित्तुप्पादा-३३५ अकुसलधम्मो-२५१ अकुसलन्ति-१४४,२४९ अकुसलपक्खो-१८१, १८३ अकोतूहलमङ्गलिको -७८ अक्कमतीति-११०
अक्कोसवत्थूनि-१०७ अक्खणभूमियं-१४७ अक्खरचिन्तका-२५३,३५४ अक्खरप्पभेदा-२५८ अक्खरसन्निवेसादिना-२५ अक्खलितपटिवेधलक्खणा - ६४ अक्खित्तोति-२७८ अक्खिवेज्जकम्म-११६ अखण्डितं-२१३ अखण्डं-२१३ अगधितचित्तताय-२११ अगारन्ति-२१३ अगारवं-२८३, ३२१ अग्गानि-२९५ अग्गन्ति -२९९,३२९ अग्गफलसम्पत्तिं-७६ अग्गमग्गसमुप्पादो-३३३ अग्गिक्खन्धो-५७,५८ अग्गिवामअंसकूटतो-५७ अग्गिसालन्ति-२७१ अग्गिसिखा-१९५ अग्गिहोम-११५ अग्गोति-९१ अग्ग-१९५, २४४, ३२९ अघस्साति-२४३ अङ्कन्ति-२९२ अङ्खसोति-१८३ अङ्गकिच्चं-२२१
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[२]
दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गटीका
-
अट्ठपरिसापथविं -- ३१७ अट्ठसमापत्तिलाभिनो - १५१ अट्ठानेति - २२३ अट्टप्पत्तिको ५२ अड्डतेळसहीति - १८५ अड्डयोगोति - २२६ अणुसमा - ३४८ अणुहगतेति - ९३
अङ्गन्ति - ११५, १६५, २८२ अङ्गलट्ठिन्ति - ११५ अङ्गविकारन्ति - ११५ अप्पमाणो - १५२ अचक्खुविज्ञेय्यन्ति - ३४९ अचलतापच्चुपट्ठानं - ६४ अचलाति - २८९ अचलाधिट्ठानसिद्धितो - ७४ अचेतनोति - २२२, ३३१ अचेतनं - १९६ अचेलकसावकाति - १९९ अच्चन्तछन्दरागप्पवत्तितो- १०९ अच्चन्तप्पहानतो - ६ अच्चन्तसुखुमालकरजकार्य - १४१ अच्चन्तसुखुमं - ३२९ अच्चयोति - २५१ अच्छथाति - ११२ अच्छन्नन्ति - २२७ अच्छरियन्ति - ४८
अतक्कावचरा - ११९ अतिक्कमित्वाति- १४० अतिदेवो - १९१ अतिपाती - ९९ अतिवेलं - १४० अतिहरणं - २१९ अतिहरतीति- २२२ अतीरितन्ति - ९८
H
अतुरितोति - २६१ अतुलितन्ति - ९८ अतुल्ययोगेपि - २०९ अत्यकवि - ११६
अजातसत्तु - १८८ अजितं - २५९ अजिनचम्मेहीति - ११३
अज्झगा - २३ अज्झत्तवादिनो- - १५१ अज्झत्तिकपथवीधातूति - २००
अज्झत्तिकभावप्पत्तिया - २०० अज्झावसताति - २१३ अज्झासयन्ति - १५८ अज्झासयोति - १९० अञ्ञतित्थियानं – ४८ अञ्ञातन्ति - ९८ अट्टो - २२७, ३४५ अट्ठकप्पेति - १३७, २९६ अट्ठङ्गसमन्नागतन्ति - २१८ अट्ठङ्गिकोति - ३०१ अट्ठधम्मसमोधानसम्पादितो - ६४
अत्यकिरियासिद्धि - १०१ अत्थचरिया - ८७, ८८, ९०, २५९ अत्थजालं - १६५ अत्थब्यञ्जनसम्पन्नस्साति - ३८ अत्थवादीति - १०८ अत्थवेदं - १३ अत्यसम्पन्नोति - २०६ अत्यसिद्धीति - २६१ अत्याभिसमयाति - ४१ अत्थिकवादो - २०१ अत्युद्धारोति - ४४, १८६, १८७
अत्पत्ति-५२ अत्तकामाति - २१७ अत्तकिलमथानुयोगो - ३०९ अत्तज्झासयो - ५२ अत्तत्थपरत्थादिभेदेति - २४
2
[ अ-अ]
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[अ-अ]
सद्दानुक्कमणिका
३३१
अत्तदिटुिं-३३०
अधिपञआधम्मविपस्सना-९३ अत्तपटिलाभोति-३३५, ३३६, ३३७, ३३८
अधिपचासिक्खा-३२४ अत्तपरिच्चजनन्ति-२४७
अधिवचनपदानीति - १२५ अत्तभावपटिलाभोति-३३५
अधिवासनभूमि-७२ अत्तमनाति-१६५
अधिसीलन्ति-३१६ अत्तवादी-३३०
अधोविरेचनन्ति-११६ अत्तसुञताय-१५८
अनग्गिपक्किका-२७१ अत्ताति-३५, ६७,१२६, १३१, १४२, १४३,१५०, | अनञथानि-९५ ।। १५१, १५२, १५५, १५६, १८२, १८३, ३३०, अनत्थकरोति-२३०
अनत्थसहिताति-२७५ अत्तानुदिह्रि-९३
अनत्तकतानीति-१५८ अदस्सनन्ति-१५३
अनधिकं-९६ अदहन्तोति-४०
अननुलोमत्ताति-१०९ अदिट्ठजोतना-९८,३४२
अनन्तन्ति-३४९ अदि8-९८
अनन्तोति-१४२,१४३ अदिन्नादानं-१०१
अनभिरति-१३९ अदुक्खमसुखभूमि - १९८
अनभिरतीति-१३९ अदोसकुसलमूलजनितकम्मानुभावेनाति-२६०
अनमतग्गसंसारवट्ठ- १७५ अडुब्मोति-२०६
अनरियो-३०९ अद्धगतोति-१८९
अनलसो-२०४ अद्धनियन्ति-२०
अनवज्जधम्म-३५० अद्धिकाति-२८८
अनवज्जन्ति-३०० अद्धवसभावो-२३५
अनवज्जरसं-६३ अद्धोट्टतायाति-२९८
अनवज्जानि-८० अधम्मकारीति-२८६
अनवहितचित्ता-३३१ अधम्मिकं-२५०
अनवरोधोति-५२ अधिकरूपोति-२७९
अनवसेसनिरोधं-३४७ अधिगण्हन्तीति-२४८
अनवसेसपटिवेधो- १२० अधिचित्तसुखं-२१५
अनागामिनो-२४९ अधिचित्तानुयोगो-२१५
अनागामिफले-३२८ अधिच्चसमुप्पन्नन्ति - १४६
अनाथपिण्डिको-३०५ अधिच्चसमुप्पन्निकवादो-१२९
अनाराधितचित्तो- १९५ अधिछानकिच्चं-३२७
अनावत्तिधम्मो-७३ अधिट्ठानपारमिता-६३
अनावरणआणन्ति-९१ अधिट्ठानपारमी-८३
अनावरणआणलाभी-७८ अधिट्ठानलक्खणं-६४
अनाविलोति-२४०
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[४]
दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गटीका
- २८८
IT
अनासत्तिपच्चुपट्ठानं - ६३ अनासवोति - ३९ अनिच्चधम्मोति - २३५ अनिच्चन्ति - ९२, ३१२ अनिच्चसञ्ञा - ७७ अनिच्चानुपस्सना - ९२ अनिच्चोति - २०३ अनित्थिगन्धाति - २७३ अनिब्बिसं २३ अनियमितविक्खेपोति - १४४ अनियमेत्वाति - २६३ अनिय्यानिकत्ता - ११४, ३०० अनिय्यानिकन्ति - ३३५ अनुकम्पकोति - १०३ अनुकुलयञनीति - २९२ अनुजानामि - ११० अनुञ्ञाताति - ११०, २७१ अनुत्तरभाव - ११ अनुत्तरोति - ११ अनुधम्मं - ३०८ अनुपक्कुट्ठोति - २७८ अनुपघातकोति - २०६ अनुपदधम्मतोति - ३२६ अनुपदधम्मविपस्सनञ्हि - ३२६ अनुपरिगमनयोग्यतादस्सनं - ३५६
अनुप्पदेतूति - २८७ अनुप्पादनिरोधो - २४८, ३२४, ३४९ अनुप्पादो - ९५, ३२३, ३२८ अनुबोधपटिवेधसिद्धि – १६७ अनुबोधपटिवेधो - १७० अनुमतिपुच्छा - ९८ अनुमतियाति अनुमति - ३३० अनुमानत्राणं - १३१ अनुयुत्तोति - ३१४ अनुयोगो - ५७, १२६ अनुलोमको २९ अनुवादो - ३०८ अनुविचरितन्ति - १२९ अनुसङ्गीता - १५ अनुसन्धानं - १५८ अनुसयसमुग्घाटनतोति - २४३ अनुसया - २६ अनुसासनपरिपाटियोति - १८९ अनुसासनीपाटिहारियं - ३४६ अनुसरतो - २० अनुस्तरीयन्ति - १९१
अनुहारमानेति - ९१ अनेककुलजेट्ठकभावं - २०५ अनेकजातिसंसारन्ति - २३ अनेकन्तवादो - १३५
अनुपवज्जं - ९६ अनुपस्सना - ९२, ९३
अनेकभेदभिन्नाति - ४९ अन्तरतोति - ४४, ५४
अनुपादानोति - १३४ अनुपादापरिनिब्बानं - १७० अनुपादाविमुत्ति - १७५, १७७ अनुपादाविमुत्तोति - १३४, १७८, १८० अनुपादिसेसनिब्बानधातुप्पत्तिया - - ६ अनुपादिसेसा -२० अनुपालेतीति - २२२ अनुप्पत्तिधम्मतं - ५ अनुप्पदाताति - १०६
अन्तरधायतीति - १४८ अन्तरधायन्ति - २५८ अन्तराति - ४४, ५० अन्तरायोति - ५४, ५५, १७२ अन्तरा - सद्दो- ४४, ५०
अन्तरिकायाति - ४४ अन्तानन्तवादाति - १४२ अन्तानन्तसहचरितवादो - १४२
[ अ- अ ]
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[अ-अ]
सद्दानुक्कमणिका
अन्तानन्तिकभावो-१४३ अन्तानन्तिकवादे - १५१,१५२ अन्तानन्तिकाति-१४१ अन्तिमवयन्ति-२८० अन्तोजातो-२०४ अन्तोजालीकता-१६४ अन्तोनिज्झायनलक्खणोति-१५५ अन्धकारतमभवनन्ति - ५४ अन्धतमन्ति-५४ अन्धपुथुज्जनस्स-२१८ अपकारधम्मा-३०३ अपचितिकम्मन्ति-२६४ अपनेत्वानाति-१५ अपयिरुपासना-७९ अपरज्झतीति-७२ अपरण्णं-२८६ अपरप्पच्चयो-२७६ अपराधोति-२५१ अपरापरन्ति- १२८,३२९ अपरामसतो-१८० अपरामासतोति-१३३ अपरामासन्ति-३३९ अपरिग्गहोति-३५८ अपरिच्चागो-६७ अपरिञामूलिका-२४० अपरिपक्कतोति - २२३ अपरिपुण्णो - २७२ अपरिमाणो-८२, २५२, २८० अपरियन्तविक्खेपताय-१४४ अपरियापन्नता-१६८ अपरियोगाहनन्ति-२३० अपरियोदातन्ति-२४९ अपरिसुद्धोति-२६९ अपरिसेसनिरोधसङ्खातं-३४६ अपलिखति-३१३ अपस्सन्तानन्ति-१५९
अपाकटभावं-९८ अपापपुरेक्खारोति-२८० अपापेति-२८० अपायगामिमग्गो-२४३ अपायभूमिन्ति-२४८ अपारन्ति-३५६ अपुथुज्जनगोचरा-१५४ अप्पकिच्चोति-२९२ अप्पच्चयोति-५३,१६९,१७८ अप्पटिघो-२२६ अप्पटिवत्तियनादन्ति-३१२ अप्पटिहतत्राणं-८,११९ अप्पटुतरोति-२९२ अप्पतिवाति-३४८ अप्पनालक्खणो-२३२ अप्पनिग्योसन्ति-२२६ अप्पपुञतायाति-३०९ अप्पमत्तकन्ति-३११ अप्पमाणसञीति-१५२ अप्पमादाधिट्ठानतो-६८ अप्पमादो-६६, १२७, ३१९ अप्पवत्तीति-२३९, ३३३ अप्पसद्दन्ति-३२१ अप्पसम्भारतरोति-२९२ अप्पहीनोति - २९९ अप्पाटिहीरकं-३३५ अप्पायुकेति-१३८ अप्पेतीति-४० अफलोति-२४९ अबन्धनन्ति-१०७ अब्भन्तरन्ति-२९० अब्भुदयनिस्सितो-२८४ अब्भेय्यं-११५ अब्भोकासो-७० अब्मोक्किरणं-११३ अब्यञ्जनाति-२११
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[६]
दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गटीका
[अ-अ]
अब्यापज्झन्ति-२९५ अब्यापादेनाति-९२ अब्यावटमनोति-४९ अभयगिरिवासिनो-१४०, २१५ अभयदानं-७७ अभयाति-२८७ अभिक्कन्ततरोति-२४१ अभिक्कन्तेनाति-२५,२१८,२४१ अभिक्कमो-२१५ अभिज्झा-२२८ अभिज्ञाति-२०९,३०१,३५२ अभिचालाभिनो-२३६ अभिधम्मदेसना-२ अभिधम्मपिटकेति-२२ अभिधम्मसद्दे-२६ अभिनन्दतीति-१६५ अभिनिवेसं-१३१,१४१,१५१ अभिनीहरतीति-२३५ अभिनीहारं-६७ अभिव्यत्तिवादो-१२७ अभिभूतत्ताति-३३१ अभिभूति-१४० अभिराधयतीति-५३ अभिरूपेति-२४२ अभिलक्खिताति-२५ अभिवदन्तीति-१२६ अभिविनयेति-२५ अभिविसिठ्ठजाणन्ति-११९ अभिसङ्घरणलक्खणन्ति- ९४ अभिसङ्करणलक्खणा-९४ अभिसङ्करित्वाति-३१७ अभिसङ्करोतीति-३२७ अभिसजानिरोधो-३२५ अभिसमयट्ठोति-४१ अभिसम्परायो-१३२ अभिसम्बुद्धभावं-४८
अभिसम्बुद्धोति-१०,४८ अभिहरन्तोति-२१५ अभिहरित्वाति-२०५ अभीतनादोति-३१८ अभेज्जकायो-७८ अभेदोति-३०६ अमक्खेत्वाति-२११ अमग्गोति-३५५ अमतभावेन-१० अमतं-२३६,२९६ अमराविक्खेपिकवादा-१५३ अमराविक्खेपिका-१४३ अमरं-१२६ अमलीनन्ति -२१३ अमानवत्थुभावपवेदनतो-२६४ अमोहसिद्धि-१८१ अम्बट्ठकुलं-२६१ अम्बट्ठोति-२६९ .. अम्बरुक्खो-२८५ अम्बलट्ठिकाति-४७,२८५ अयोनिसोमनसिकारो-१२३, १२९, १७५, १८० अरञन्ति-२२७ अरणीति-२७१ अरहतन्ति-२५७ अरहता-४८,४९ अरहतीति-२६, १९५, २६०, २७९, २९८, ३३६,
३५२
अरहत्तफलन्ति-३३० अरहत्तमगं-२३ अरहन्ति-११,२०८,२६० अरहाति- २४८ अरियतुण्हिभावसमयो-४२ अरियधम्मरतनस्स-११ अरियन्ति-२८० अरियपुग्गला -११, २४५ अरियफलधम्मे-३००
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--------------------------------------------------------------------------
________________
[अ-अ]
सद्दानुक्कमणिका
अरियभूमि-११ अरियमग्गत्तयपाति-२१४ अरियमग्गविरति-३१२ अरियमग्गोति-२७५ अरियविहारा -१८५ अरियसङ्घन्ति-११,१२ अरियसङ्घ-११,१२ अरियसच्चधम्मो-२७६ अरियसच्चानि-९५, २४८ अरीनन्ति-४८,१९१ अरूपकलापो-२३२ अरूपज्झानन्ति-३४३ अरूपज्झानलाभीति-२३४ अरूपसमापत्तिनिमित्तं-१५१ अरूपसमापत्तियो-१६, १४७ अरूपावचरज्झानं-३५९ अरूपावचरलोको-२०९ अरूपीति-१५१, ३३० अरोगताति-२६२ अरोगोति-१५०, १५१ अलग्गचित्तो-७७,७८ अलग्गनटेनाति-२१२ अलङ्कारविधिं-१९४ अलङ्कारो-५६, ७२ अलड्मनेय्यपतिट्ठाति-११८ अलोभसिद्धि-१८१ अलोभादोसयुगळसिद्धि-८३ अवण्णन्ति-१६९,१७९ अवधारणवचनन्ति-१२० अविखेपेनाति-९२ अविगततण्हं-१४८ अविज्जन्धकारं-३०३ अविज्जमानपञ्चत्तिभावोति-३७ अविज्जमानपञत्तीति-३७ अविज्जागतोति-१५८ अविज्जातण्हाकम्मानि-१८०
अविज्जासमुदयोति-१२३ अविज्जासिद्धि-१६७ अवितथानि-९५ अविद्वाति-१५८ अविपरीतसभावोति-२८ अविपरीताभिलापोति-२७ अविभावितन्ति-९८ अविभूतन्ति-९८ अविलोमेन्तोति-१५ अविसिट्ठकारन्ति-१६० अविसिटुं-२६ अविसंवादनलक्खणं-६४ अवीतरागो-२१७ अवेरन्ति-२९५ असकमनो-२६३ असतधम्मारम्मणं-२७६ असङ्घतधातु-१३३ असङ्गीतन्ति-२४ असञसमापत्तिं-१४७ असञिकभावन्ति-३२३ असञीति-१५२ असञ्जीवादे - १५२ असति-६६, ७२, ७३, ८५, १२३, १५८, १६०,
१७३,१७६, २०१,२५२, ३३० असद्धम्मस्सवनं-१८० असद्धम्मो-४० असन्निपातोति-२७८ असन्निहितेति-३०५ असभावधम्मारम्मणन्ति-२९ असमाहितचित्तता-७९ असम्पजञकिरिया-१९३ असम्फुट्ठताति-९४ असम्फुट्ठलक्खणं-९४ असम्मिस्सन्ति-२१४ असम्मुखाति-१०७ असम्मोसधम्मा-५०
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________________
[८]
दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गटीका
[
आ-आ]
असम्मोहपटिवेधोति-२३९ असम्मोहसम्पजञ्जन्ति-२२१ असम्मोहेनाति-३८ असस्सतभावावबोधो-१३६ असाधारणकिच्चन्ति-२९६ असामपाकाति-२७१ असुकदिवसेति-११५ असुकनक्खत्तेनाति-११५ असुभन्ति-३४८ असुभभावनानुयोगो-२३० असुरिन्दो-२८० असेक्खफलाधिगमो-३३३ असेक्खा-११, १२, २७, ३१९ असेट्ठचरियन्ति-१०४ असंवरो-२७, ३१० अस्ममुट्ठिका-२७२ अस्सद्धियेति-९४ अस्सद्धो-२५०, २८९ अस्सादानुपस्सना-१८० अस्सुतवा-१३१ अहतेति-११५ अहीनिन्द्रियो-३३१ अहेतुकदिट्टिको -२०१ अहेतुकवादो-१५७ अहंकारममंकाराभावो-६५ अहं-सद्दो-२०४
आकुलभावोति-२९७ आगमवरो-१४ आगमाधिगमसम्पत्तिया-२१ आघातोति-५३, १६९, १७८ आचयगामिनोति-११२ आचरियपरम्परा-१५ आचरियवादन्ति-३५५ आचरियाति-२६२ आचारगोचरसम्पन्नोति-२१३ आचारन्ति-१०४ आचारसम्पत्तिन्ति-१९३ आचारसीलमत्तकन्ति-१०३ आचारसीलमेव -१०९ आचिण्णन्ति-५८,३३८, ३४६ आजीवकपटिपत्तिं-१९९ आजीवका-१५० आजीवपारिसुद्धिसीलन्ति-१८२ आजीवोति-२४९ आणाचक्कं-२२ आणारहो-२६ आतङ्कोति-३४१ आतापनं-१२६ आदानन्ति-९३ आदिच्चपारिचरियाति-११६ आदितोति-३२६ आदिमज्झपरियोसानन्ति-२४१ आदीनवदस्सनपुब्बङ्गमो-६३ आदीनवदस्सनं-१६६ आदीनवन्ति-३४५, ३५७ आदीनवोति-२७५ आदीनवं-५४,७०,७९, २७७ आदेसनापाटिहारियं-३४६ आनन्तरियपरिमुत्ति - २५२ आनन्दमयो-१३७,३३१ आनन्दोति-३२२ आनापानचतुत्थज्झानन्ति-५८
आकारन्ति-३३३ आकारपञ्चत्तीति-३६ आकारोति-३९ आकासोति-९३ आकिञ्चचायतनसचा-३२७ आकिञ्चज्ञायतनसमापत्ति-३२७ आकिञ्चायतनं-३२९
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--------------------------------------------------------------------------
________________
[ इ-इ]
आनि सफलं - २०० आनिसंसोति - ८९ आनुभावसम्पत्तिया - २८८ आनुभावेनाति - १३ आनुभावोति - २८७
आनुयन्ता - २८७ आपायको - २७२
पोधातूति - २१९
आबाधोति - ३४१
आभताति - १५
आभस्सरसंवत्तनिका - १३७
आभुजतीति - २२२ आभुजित्वाति- २२८
आभोगोति - १५६
आमिसन्ति - ११२ आमिसपूजाति – २१७ आमिसं १९२ आमुत्तमालाभरणा - ३३
आयतनं - ९४, १६१
आयस्मन्तोति - १११
आयाचनेति - २०६
आयाचन्तीति - ३५६ आयुष्पमाणेनेवाति - १३८
आयुपाद - ३५१
आयूहन्ति - १२३
आयोगो - ७१, ३३२ आरकत्ताति - १९१ आरक्खदुक्खमूलं - - १६२ आरद्धविपस्सको - १६४ आरम्भसुद्धि - १७९
आरम्मणन्ति - १०२
आरामो- १०६, ३०५, ३२०
आलयरता - ९३
आलयाभिनिवेसोति - ९३
आलयो - ९३ आलोकसञ्जीति - २२९
सद्दानुक्कमणिका
आलोकितन्ति - २२० आवज्जनकिरिया - २२४
आवरणगुत्ति - २०५
आवरणन्ति - १२७
आवरन्तीति - ३५८
आवाहनं - ११६
आवसोति - २५६ आसत्तखग्गानीति - १९२
आसनन्ति - ३१४
आसनसाला - ३२७
आसप्पनं - २३०
आसयो - २२३
आसवक्खयजाणे - ११९
आसवक्खयत्राणं- १३३, १७४, २४१
आसेवनं - १०७
आहनतीति - ५३
आहारोति - १६४ अंसुकोटिवेधको - १४४
इच्छानङ्गलं - २५५
इच्छितलाभी - ७८ इणपलिबोधतो - २२९ इत्थभावन्ति - १३९
इदप्पच्चयाति - ३३० इद्धिआदेसनानुसासनियो - ३४ इद्धिपारिहारियन्ति - ३४६
इद्धिमयो - १००, १०३ इद्धिविधकिच्चं - ३४५ इद्धिविधत्राणं - २३७
9
इद्धीति - २१२
इत्थोति - १६५
इन्दखीला - २२७ इन्दजालसदिसं - ३४५ इन्दजालेनाति - ११३
[8]
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--------------------------------------------------------------------------
________________
[१०]
इन्द्रियगोचरोति - १५३ इन्द्रियसंवरो - ३१२
इब्भाति - २६३
इरिणन्ति - ३५८ इरियापथचक्कानं - २५९ इरियापथ - १८५, २२८ इसीति - २६९
इस्सरपजापतिपुरिसकालवादा - १५८
इस्सरवादा - १३५ इस्सरोति - २७८
ईदिसमत्थं - १९५ ईसतीति - १४० ईसनसीलो - २७८
उ
उक्कट्ठन्ति - २५५ उक्कट्ठपञ्ञ - १३०
उक्कट्ठाति - २५५
उक्कण्ठिता - १३९
उक्कानं - ११५ उक्कारभूमि - उक्कुटिकवतानुयोगोति- ३१४
- २४८
उक्कंसनन्ति - २८०
उग्गच्छनकउदकोति उग्गहनिमित्तं - २१६
उग्गहो - ५८, २३०
उग्गिलेत्वाति - २६४
उग्घाटेय्याति - २४३
उच्चाति - ११० उच्छादनधम्मोति - २३५ उच्छिन्नभवनेत्तिको- १७०, १७५ उच्छेददिट्ठियाति - १५६
- २३३
दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गटीका
उच्छेदवादो - १५४, ३०६
उच्छेदोति - १५३ उचित -१३
उजुमग्गो - ३५४, ३५५ उञ्छाचरिया - २७१ उन्हन्ति - २९३ उण्हपकतिको - २२२
उतुपुण्णता - १८७
उतुसमुट्ठाना- १३७ उत्तमधम्मानं - १० उत्तमब्राह्मणोति - २७८
उत्तमोति - २७९
उत्तरिमनुस्सधम्मानं - २१०,३५२ उत्तरकरणीयन्ति - ३४३
उत्तानमुखोति - २८१
उत्रासन्ति - २३० उदग्गचित्तता - २९७
उदपादिन्ति - १३६ उदयन्ति - १२३ उदयब्बयपरिच्छिन्नो - २२१
उदयवयदस्सनतो - ३३१
उदानन्ति - १८८
उदासीनपुग्गलो- ६७ उदीरयीति - २०७
उद्धच्चकुक्कुच्चप्पहानेन - २९७ उद्धच्चदोसो - ६२
उद्धमाघातनाति - १५० उद्धमाघातनिकाति - १५०
उद्धरणं - ११३, २१९ उद्धारोति - ११६ उद्धविरेचनन्ति - ११६
उपकरणङ्गजीविततण्हं - ८३
उपकारधम्मा - ३०३ उपकारोति - ७२ उपक्कमो - १०० उपक्खटोति - २८५
10
[ ई-उ]
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--------------------------------------------------------------------------
________________
[ ऊ ए ]
उपचारसमाधिसमधिगमेन - २३२ उपट्ठानन्ति - २४४
उपट्टासीति - ९६ उपड्डकम्पन्ति - १९८ उपत्थम्भनरसं - ६४
उपद्दवेथाति - २३०
उपधारणन्ति - ३५
उपनिस्सयकोटियाति - १६२
उपनिस्सयपच्चयोति - २२१
उपनिस्सयसम्पन्नो – २१८
उपनिस्सयोति - १६२ उपपरिक्खन्तीति - २८
उपपारमी - ८२, ८३
उपयोगवचनन्ति - १९०, २१३, २८२ उपरिब्रह्मलोकेसूति - १३७ उपरिविसेसदस्सनत्यन्ति - २३२
उपरुज्झतीति - ३४९
उपलद्धधम्मो – १५५ उपलद्धन्ति - ३७, ३८ उपसमन्ति - १९३ उपसमाधिट्ठानपरिपूरणं - ८६ उपसमाधिट्ठानं - ८४, ८५, ८६
उपसम्पदाति- २७१
उपहतो - २३३, २५२
उपादानन्ति - १४४, १६२, १७३
उपादापञ्ञत्तीति - १२५
उपायकोसल्लं - ६४ उपायासो - १५५, १७७
उपारम्भो - ३०५
उपासकमलं - २५०
उपासकरतनं - २५१
उपासकोति - २४९
उपासनतोति - २५०
उपेक्खकोति - ६३
उपेक्खाति - ७६ उपेक्खानिमित्तं - ६२
सानुकमणिका
उपेक्खापारमिता - १-६३ उपेक्खापारमियोति - ८३
उपेक्खापारमी - ७४, ८३
उपेक्खावेदनाय - १३४
उपोसथङ्गानि - १८७
उपोसथोति - १८७, २६६ उप्पज्जनकरागो - ३२५
उप्पण्डेतीति - ३०८
उप्पलानीति - २३३
उप्पादट्ठिति – १२३
उप्पादनिरोधं - ३२४, ३३१,३३२
उप्पादो - १२३, २००, २३७, ३२३, ३२४ उब्बिलावितत्तं - ५५, १५६ उमिदोदको - २३३
उब्मिन्नउदकोति - २३३
उभयन्ति - १८९, २०१, २२९
उभयसिद्धि - १८१
उमङ्गसदिसन्ति - २२७
उरुञ्ञायन्ति - ३०८
-२२
उस्सन्नत्ताति - २१२ उस्सन्नधातुकन्ति - उस्साह लक्खणं - ६४ उस्साहितोति - ३२१
ऊ
ऊरुबद्धासनन्ति - २२८
ए
एककोट्ठासाति - ३३४ एकच्चअसस्सतिकाति - १३५
एकच्चसस्सतवादाति - १३४ एकच्चसरसतिकाति - १३५ एकत्तसञीति - १५१ एकदिवसलङ्घकोति - ३१४
11
[११]
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--------------------------------------------------------------------------
________________
[१२]
दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गटीका
[ओ-क]
एकनिकायम्पीति-२९ एकन्तसुखीति-१५२ एकन्तसूराति-१९४ एकभत्तिकोति- १०९ एकरसो-९४ एकसालको-३२० एकागारिको-१९६, ३१४ एकालोपिको-३१४ एकाहवारो-३१४ एकाहिकं-३१४ एकीभावन्ति-२६१ एकंसायाति-३०० एतदग्गन्ति-२२ एवंगतिकाति-१३२ एवंसदो-३२
ओ
ओकासन्ति-२०७ ओक्काको-२६७ ओघन्ति-३१३ ओट्टमुखो-११९ ओदातवचनं -२३४ ओनन्धन्तीति-३५८ ओपपातिकोति-३०१ ओपानभूतो-२८८ ओभासनिमित्तकम्मन्ति-१८८ ओभासयं-२४२ ओरमत्तकन्ति-५६ ओरसा-११ ओरसानन्ति-११ ओसधेहि - ११४ ओळारिकाति-९३ ओळारिको-३२९, ३३०, ३३१, ३३८
कक्खळतं-९३ कलतीति-२७४ कट्ठन्ति -५० कण्णजप्पनन्ति-११६ कण्हइसितो-२६५ कथङ्कथी-२२९ कथाति-३२२ कथाधम्मोति-४८ कथावत्थुपकरणं-५६ कथाविनिमुत्तो-३१ कथेतुकम्यताति-९९ कथेतुकम्यतापुच्छाय-१६५ कन्तारोति-२२९ कन्दरो-५८ कप्पनाजालस्स-१६९ र कप्पन्ति-२९६ कबळन्तरायोति -३१३ कबळीकारो-१६४ कम्मकरणसीलो--२०४ कम्मकिलेसा-१६८ कम्मजतेजोति- २१७ कम्मजतेजोधातु-२७८ कम्मजरूपं-२३२ कम्मट्ठानन्ति-१३३,२१६ कम्मट्ठानभावेति-११४ कम्मट्ठानानि-१६ कम्मन्ति-- १९८,२५१ कम्मपच्चयउतुसमुट्ठानाति-१३७ कम्मपच्चया-१३७ कम्मस्सकतआणं-१३९ कम्मस्सका-१७२ कम्मायतनन्ति-१६१ करजकायन्ति-२३२
12
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--------------------------------------------------------------------------
________________
क - क ]
कालवादीति - १०८
करणन्ति - ५३, २७९ करणवचनन्ति - १९२, २७८, ३३३ करणसीलो - २१५, २८६ करणीयन्ति - १५, ३८, १७२ करणीयेन - २९८ करमरानीतो - २०४ करुणाविहारेन - ४३ करुणासीतलहदयन्ति - ३, ६, ७
कल्याणधम्मोति - ६८ कल्याणमित्तोति - ६६ कसतीति - २०५ कसिणज्झानानि - ३०६, ३२९
HI
कालुसियभावोति - २७४ काळकं - २२६ किच्चसिद्धि - ३०० किच्छजीवितकरोति - ३४१ किच्छतीति - २७४ कित्तिघोसोति - ३२२ कित्तिसद्दोति - १९० किरियधम्मं - ६२, २७५ किरियाकप्पो - २५८ किलन्ताति - ३०५ किलासुभावो - ४९ किलेसधुननकधम्मा - १६ किलेसवूपसमो - ९५ कुट्ठरोगी - २६७ कुण्डकन्ति - ३१४ कुदण्डकबन्धनन्ति - २८७ कुपितचित्तन्ति - १०७ कुमुदवतिया - १८७ कुम्भदासीकथा - ११४ कुम्मग्गो - २४३ कुसलकिरियं - २५१
कसिणेनाति - ५५, ३२९ कामनीयाति - ३५७ कामयितब्बट्ठेनाति - ३५७ कामरागो - २४४ कामवितक्कं - १८२ कामसञ्ज्ञाति - ३२५ कामसुखल्लिकानुयोगो - १२५ कामस्सादो - ३२१ कामावचरकम्मं - ३६० कामावचरदेवानं - १४० कामूपसहितानीति - २९९ कायगन्थनीवरणलक्खणेन - १७१
कुलन्ति - १४४
कायचित्तानि - २२६
कुसलमूलानि - १८१ कुसलायतनं -७४ कुसलोति - ३३३
कायचित्तं - ५५ कायपरिहारिका - २२५ कायबलं - २२५ कायसक्खिन्ति - २२० कायिकांति - १०१ कायोति - १६४, १७०, १७५, २३२, ३५२ कारणन्ति - ३, ४५, ५४, ६६, १२८, १९१, २९०,
कूटट्टोति - १२७ कूटो - २४१, ३०३ कूटं - २३, ९५ केवट्टति - ३४४ केवलपरिपुण्णं - २४ केळनाति - २८० केळिहस्ससुखं - १४० कोटिन्ति - ९० कोटियन्ति - २५१ कोट्ठागारन्ति - २८६
२९१, ३०८, ३११, ३४७
कारानन्ति - २४५ कालन्ति - १४८ कान्ति-४९
नुक्क
13
[१३]
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________________
[१४]
दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गटीका
[ख-ग]
कोधोति-५४ कोमारभच्चो-१८५ कोलम्बो-५८ कोसलका-२९८ कोसेय्यकट्टिस्समयन्ति-११३
खणठितिया-१३८ खणनिरोधन्ति-३४९ खणिकनिरोधेति-३२२ खणोति-४१ खत्तधम्मो-२८६ खत्ता-२७७ खन्ति-२६,६१,६२,६४,७२,७६,८४,३३२ खन्तिपारमिता--६३ खन्तिसम्पदा-७२,१८० खन्धानन्ति-३४२ खमातेजद्वयसिद्धि-८३ खयजाणं-२३८ खयोति-२३९ खराति-२६४ खारिन्ति-२७१ खारिभरितन्ति-२७१ खिड्डापदोसिका-१४० खीणाति-२४० खीणासवो-१६४,२४०, २४८,३०४ खीरपञत्ति-३३७ खुरधारूपमन्ति-२७१ खेत्तलेडुनन्ति - २६४ खेत्तविज्जायाति-२७२ खोभेत्वाति- १८६
गणसङ्गणिका-२०५ गतन्ति-९६ गतमलन्ति-१०,११ गतियोति-३०३ गतिविमुत्तन्ति-६ गतोति-९२, ९७, १९३ गन्धजाता-५७ गन्धारीति-३४५ गन्धोति-५६ गब्भा-३५१ गम्भीरजाणेहि-१४ गम्भीरन्ति-१२१ गम्भीराति-२७,१७५ गरुकन्ति-३४१ गरुकुलन्ति-२० गरुन्ति-१९३ गवेसीति-२७४ गहणी-२७८ गहितचित्ता-१६५ गामोति-१०९ गारवयुत्तोति-४३ गिलानोति-२२९ गीवायामकन्ति-११२ गुणकथायाति-१८९ गुणागुणपदानीति - २०० गुणाधिकोपीति-२७१ गुहा-२२७ गूळ्हो-२५ गेहं-२३, २३७, २७२ गोचरसम्पजनभावतोति-२२१ गोचरसम्पजञ्छ-२१५ गोचरो-२२ गोत्तवसेनाति-२५६ गोत्रभु-९३ गोपदकन्ति-२८० गोमयसिञ्चनन्ति-२८७
गज्जितं-१२१
14
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--------------------------------------------------------------------------
________________
[घ-च]
सद्दानुक्कमणिका
घटभावो-१३५ घटिकाति-११३ घट्टनन्ति-३०५ घट्टेन्तोति-२६४ घनताळं-११२ घनसवा-९३ घरावासो-७० घासच्छादनपरमता-२०५ घोरोति-२९३ घोसन्ति-१४६
चक्कन्ति-१९ चक्कवत्तीति-२५९ चक्कवाळमहासमुद्दो-५८ चक्खुदानं-७६ चक्खुन्ति-२५२ चक्खुमाति-३३४ चक्खुविनेय्याति-३५७ चण्डालोति-२५० चण्डालं- ११३ चण्डोति-२६४ चतुइरियापथं - २२९ चतुक्कज्झानसमाधिकिच्चं -३०२ चतुत्थज्झानसमाधि-३०२ चतुत्थज्झानसुखन्ति-२३४ चतुत्थज्झानिकफलसमापत्ति-३३६ चतुत्थज्झानं -३५,१४७,२३४,३४३ चतुप्पटिसम्भिदाआणं-८ चतुबिधभावन्ति-५१ चतुयोनिपरिच्छेदकआणं-११९ चतुरङ्गसमन्नागतन्ति -५८
चतुरधिट्ठानपरिपुण्णन्ति -८६ चतुरधिवानं-८५,८६ चतुरोघनित्थरणाय -७६ चतुवेस्सारज्जाणं-८ चतुसङ्घपं- १२४ चतुसच्चकम्मट्ठानं-१३३ चतुसच्चाणं-८ चतुसच्चपटिवेधभावतो-१७० चन्दनगन्धो-५६ चन्दनन्ति-५६ चन्दसूरियमणिपदीपादीनं-१२७ चन्दिमाति-१०० चम्पकरुक्खा-२७७ चम्पाति-२७७ चरणधम्मा-७४ चरणन्ति-२७० चरियाति-२६ चरियाविधानसहितोति-१६ चलितेति-११४ चागाधिट्ठानं-८४,८५,८६ चातुद्दिसो-२२६ चातुमहाभूतिको-२०० चातुमहाराजिकभवनन्ति-४९ चातुमासी-१८७ चारित्तसीलं-२३१ चिण्णवसितायाति-३२३ चित्तक्खणिकम्पि-३२७ चित्तगतिकाति-३५८ चित्तगेलों-२२९ चित्तचेतसिककलापस्स-१०० चित्तनिरोधेति-३२२ चित्तन्ति-१३५,२२०,३०६ चित्तपस्सद्धि-३ चित्तविकारे -७४ चित्तुप्पादोति-२४७ चिन्ताकवि-११५
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________________
[१६]
दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गटीका
[छ-ज]
चिन्तामणि-३४५ चिन्तामयज्ञाणसंवद्धिता-२३८ चिरकालट्ठितियाति-१६ चिरहितत्थन्ति-१५ चिरनिक्खन्तोति-३५९ चीनपिठ्ठचुण्णं-४७ चुतिचित्तं-१५४, ३४९ चुतिमत्तमेवाति-१५३ चूळगन्धारी-३४५ चूळसीलं-१११, २१४ चेतनालक्खणन्ति- ९४ चेतन्ति-१२५ चेतसिकगेलअन्ति-२२९ चेतसिकदुक्खन्ति-१७७ चेतसिकन्ति-३४५ चेतसोति-१६९ चेतियङ्गणेति-१८६ चेतियरटेति-३४१ चेतिरट्ठतो-३४१ चेतोविमुत्तीति-३०१ चेतोसमाधि-१४०,१८४ चेलकाति-१९४ चोरकण्टकेहि-२८६
जनपदत्यावरियप्पत्तो-२५९ जनपदिनोति-२५३ जनसङ्गहत्यन्ति-२१६ जनाति-१२४ जनितस्मिन्ति-२७० जनेतस्मिं-२७० जयधजं-१९४ जलन्ति-२४१ जवनं-२२१,२२४ जागरितं-२२४ जागरियानुयोगो-७४ जातन्ति-३१४ जातसंवड्डोति-३५९ जातिसिद्धन्ति-२९५ जानता-४८,४९, ५१ । जानतोति-३३१ जायम्पतिकाति-२१२ जिगुच्छतीति-३१६ जिण्णोति-२७९ जितन्ति-१९७ जिनचक्के - १९७ जिनोति-८८,१८८,१९९ जीवको-१९१ जीवन्ति-१९४ जीवितक्खयं-२२३ जीवितपरिच्चागो-८३ जीवितिन्द्रियन्ति-९९ जुतीति-२१२ जेगुच्छं -३१६ जेट्टकन्ति-२९६ जेतवनविहारं - २२
छकामावचरदेवलोको-२०९ छट्ठाभिञा-२३६ छत्तेति-९१ छन्दरागप्पहानं-१३४ छन्दोका-३५५ छब्बण्णरस्मियो-४७ छम्भितत्तन्ति - २३०,३५९ छळभिज्ञाचतुप्पटिसम्भिदादीनं-२९ छायारूपकमत्तन्ति-२७४ छेकोति-२३३
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________________
[झ-त]
सद्दानुक्कमणिका
[१७]
जाती-२१३ आपकन्ति-१२८ आयतीति-२७२ ओय्यन्ति-१२०
झानत्तयसम्पयोगिनीति-८ झानधम्मा-१२७ झानपळ-२८३ झानपटिलोमतो-२३४ झानरतिया-१३९ झानविमोक्खसमाधिसमापत्तियो-८० झानवेगेति-१४८ झानसञ्चाति-३२८ झानसमापत्तिया-२९८ झानसमापत्तिलाभोति-१५० झानसमापत्तिसुखं-८० झानसम्पदाय-१० झानानि-१६,७४,१४७, २९६,३३६
ठपनलक्खणोति-२०६ ठपनाति-२८५ ठपिताति-१५, ३११, ३३४ ठातुन्ति-३६० ठानन्तरं-२८७ ठानन्ति-१२८,३१७ ठानानीति-१२१ ठितिकालनियमो-१३८ ठितोति-१३९
आणचरिया-८,३२८
तक्कगाहेनेवाति-१५१ जाणजालं-२५४
तक्कयतीति-१२९,१४३ जाणदस्सनन्ति -२३५
तक्किको-१४२ आणदस्सनं-१५९,२३५, ३३४
तक्की-१३१ आणन्ति - २७, १२७, २३८
तक्कीवादी-१४१,१४२ आणबलं-१४४
तक्कोति-१२९ आणभयं-१९२
तज्जापुञञाणसम्भरणं-२१८ आणसम्पदा-७,१८०
तज्जोति-१०५ आणसंवरो-१०८,३१२
तण्हागतानन्ति-१५९,१६८ आणानुपरिवत्तीति-१२१
तण्हाचरितो-१८२ आणं-१५, २३, २६, २७, ५८, ९३, ११८, १२०, | तण्हाति-१६८,२३९
१२१, १२३, १२८, १५०, १७३, १७६, १७७, तण्हादिट्ठिवसेनाति-१२५ १९२,२३५, २३८,२८३,३०८,३२०
तण्हाधिपतेय्यो-१५९ जातत्थचरिया-९०
तण्हापहानं-१७५ आतपरिझायं - ९२
तहाविज्जा-१८१ आतिपरिवर्ल्ड-२५७
तण्हासिद्धि-१६७ जातिब्यसनं-३५९
ततियज्झानसुखं-२३३
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[१८]
तथलक्खणं - ५९, ९४ तथागतभावं - ९२
तथागत सद्दो - ५९
तथागतोति - ६०, ९२, ९६, ९७, ९८, १७३, २५१
तदत्थजोतनत्यन्ति - ४३
तदत्थविजाननन्ति - १०५, १०६
तदत्थसिद्धि - २४४ तदुत्तर - ९५ तन्तावुतानीति - १९० तन्तिनयानुच्छविकन्ति - १५ तपतीति - ३१६ तपस्सिनोति - १७६ तपस्सिं - ३०८, ३१८
तपोजिगुच्छाति - ३१६
तरुणपीति - २३१, २६२
तसिताति - ३०५
तायतीति - २५, २५६, २६८
तावकालिकानि - २२१ तावतिंसपरिसा - ३१६
तासतस्सना - १३९
तिकपट्ठाने - १२२
तिकमातिका - ५६
तिक्खिन्द्रियो - १८२ तिण्णविचिकिच्छो- ३०४, ३०६
तित्थकरोति - १८९
तित्थकरं - २४८
तित्थायतनेति - १४७
तित्थियवादो - ३१४
तित्तिरिया - ३५५ तिपिटकमहासिवत्थेरवादो - ३२९
तियद्धं - १२४
तिविधदिट्टिका - २०१ तिविधसीलालङ्कतं - ४७,२४१ तुच्छोति - ३३६
भूतन्ति - १९३ तेजोधातूति - २१९,२२२
दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गटीका
तेविज्जा - ३५८ तोदेय्यब्राह्मणो - ३४० तोदेय्यो - ३४०
18
थ
थण्डिलसेय्यन्ति - ३१४
थावरो - २८६
थिरभावं - ७३
तिघोसो - ५६, १९०, ३२२ थेरवंसपदीपा - १५ थेरवंसपदीपानन्ति - १५ थोमनाति - ३५६
द
दत्ति - २७२, ३१४
दत्तिकं - २७२ दत्तूहि -
१- २०१
दन्तमयसलाका - २९२ दन्तवक्कलिका - २७२ दन्धायितत्तन्ति - ३५९
दसपदं - ११३
दसबलत्राणन्ति - ४९, ११९
दस्सनत्यन्ति - ३३४,३४०
दस्सनसम्पत्ति - ७१
दस्सनीयता - १८८
दस्सनीयो - २७९ दस्सुखीलन्ति - २८७
दहरायाति - ३०९ दहमित्तो - ७८
दानउपपारमी - ८३
दानज्झासयोति - ६७
दानपरमत्यपारमी - ८३ दानपारमिता - ६३ दानपारमी - ६६, ८३
[थ-द]
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________________
[द-द]
सद्दानुक्कमणिका
दानसीलं - २७५ दानसूरी - २८८ दानं - २९, ६१, ६२, ६३, ७०, ७६, ८४, ८७, ८९, २००, २१२, २४९, २५९, २८८, २८९, २९० दिट्ठधम्मनिब्बानवादाति - १५७ दिट्ठधम्मनिब्बानं - १७३ दिट्ठधम्मिकन्ति - १९५ दिट्ठधम्मोति - १५५, २७६ दिट्ठन्ति - १४८ दिट्ठपुब्बानीति – ३३५ दिट्ठपुब्बानुसारेनाति - १४३ दिट्ठमत्तं - २१८ दिट्ठसंसन्दना - ९८ दिट्ठि - २६, ४१, १२६, १३१, १३२, १३४,
H
दुक्खक्खन्ध - ७० दुक्खनिरोधगामिनीपटिपदा - ३३३ दुक्खनिरोधं - ३३३ दुक्खन्ति - २३९, २४५, ३१२ दुक्खवेदना - २२९, ३४१ दुक्खवेदनुप्पत्तिया - २२९ दुग्गताति - २८८ दुट्ठचित्तोति - २४८ दुतियज्झानभूमियं - १३८ दुतियदिवसेति – २२ दुधसाति - ११८ दुरनुबोधाति - ११८ दुल्लभदस्सनं - १३ १४२, दुल्लभभावं - २० दुल्लभाति - ४९ दूतेय्यकथा - ११४ दूसितचित्तस्साति - १०६ देय्यधम्मतो - २९० देवमनुस्सानन्ति - ५
१४६, १६०, १७०, २४४, २४६, ३३२ दिट्टिगतन्ति - ३३२, ३५० दिट्ठिजालं - १६५, १७६ दिट्ठिजुकम्पन्ति - २४६ दिट्ठिज्झासयं - १५८ दिट्ठिदीपकं - २०१
दिट्ठियोति - १२२ दिट्ठिवेदयितेति – १६० दिट्ठसम्पन्नोति - २४८ दिट्ठेकट्ठेति - ९३ दिप्पतीति - २१ दिब्बचक्खुत्राणलाभी - १५३ दिब्बचक्खुत्राणं - ३००
देवयानियो - ३४७ देवलोकेति - १९५ देवसिकभत्तं - २८७ देवाति - १९९, २०९ देसना - १६, २६, २८, ३५, ४५, ५०, ८१, १०२,
११७, १२१, १३०, १३४, १४६, १५४, १५८, १५९, १६०, १६१, १६४, १७२, २०७, २११, २१४, २२६, २३२, २३८, २४२, २८४, २९६, ३०३, ३१९, ३२२, ३३८
दिब्बचक्खुनो - २३८ दिब्बचक्खुसमधिगमो - २३७ दिब्बन्ति - ३४७ दिब्बविहारो - १८५
देसनाकुसलोति - १०८ देसनाञाणं - १२१, १७० देसनाति - २८, ११७, २१०, २४२
दिब्बसोतत्राणं - ३०० दिब्बा - ३५१ दीघसुत्तङ्कितस्साति - १४
देसनासीसन्ति - १४६ दोसानन्ति - ११६ दोसाभिसन्नन्ति - १८५ दोसिना - १८८ दोसोति - १९५, ३०९
दीपङ्करपादमूले - २३ दीपवासीनन्ति - १५
19
[१९]
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________________
[२०]
दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गटीका
[ध-न]
द्रवभावो-९३ द्वत्तिंसमहापुरिसलक्खण - ९० द्वीहवारो-३१४
धनक्कीतो-२०४ धम्मकथिकोति-४६ धम्मकायतो-६० धम्मकायसिरी-९० धम्मक्खानं-९० धम्मचक्कप्पवत्तनहि-१९ धम्मचक्कं-१९ धम्मचक्खुं-२५२,२६१ धम्मचिन्तन्ति-२९ धम्मजालं-१६५ धम्मट्ठितिजाणन्ति-१२३ धम्मतण्हाति-१६२ धम्मताति-१४१ धम्मतासिद्धं-२९५,३४७ धम्मतोति-२९१,३४४ धम्मदेसनाति-३४६ धम्मधातु-१७८ धम्मनियामेनाति-३०१ धम्मनिरुत्तिया-२८ धम्मनेत्ति-४० धम्मन्ति-९,१०,२४८,३५० धम्मपटिसम्भिदाति-२७ धम्मपरियायेति-१६५ धम्मपुजे-४२ धम्मपूजा-३१७ धम्मभावो-२४४ धम्मरक्खितो- १२८ धम्मराजा-१२४,१३०,१३४,२५९ धम्मरुचीति-२०६ धम्मववत्थानेनाति-९२
धम्मवादीति-१०८ धम्मवेदं-१३ धम्मसभावं-१३३ धम्मसरीरं-४३ धम्मसेनापति-१९१ धम्मस्सवनं-२९४ धम्माति-२३,२७,४०,६१,९५,११७,१८८,३३६ धम्मानुधम्मपटिपत्ति-३१७ धम्माभिलापोति- २७ धम्मिको-२५९ धम्मेनाति-२५०,२६०,२६८ धम्मोति --१९३,२४४,२९४ धरन्तीति-३४२ धातुसमताति-२६२ धारणं-५९ धुतधम्माति-१६ धुतपापोति-२०३ धुराति -- १८५ धुवदानानीति-२९२ धुवन्ति-१२६ धुवसञ्जन्ति-९३ धूमरजो-१८८ धोतन्ति--२१३ धोता-२८३ धोवतीति-२८३
नग्गो-३१३ नत्थिकवादो-१५७ नत्ताति--२८३ नथिरकथोति - १०५ नन्दिन्ति-९३ नमन्ति-३३७ नरकपपातन्ति-३५३ नरन्ति - १७२
20
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________________
[न-न]
सद्दानुक्कमणिका
[२१]
नवसत्तावासपरिजाननजाणं-११९ नाटपुत्तवाद - १५७ नानत्तसञ्जीति-१५१ नानानयनिपुणन्ति-३४ नानावेरज्जं-२७७ नानुभोन्तीति-२९ नामन्ति-२६५,३०८, ३२४, ३४८,३४९ नाळन्दञ्च-४५ नाळिका-११३ निक्कड्डित्वाति-२२७ निक्किलेसधम्म-३५० निक्खमतीति - १२७ निक्खमनचित्तुप्पादो-६३ निक्खमन्ता-२३७ निक्खित्तस्साति-५१ निक्खेपवचनन्ति-१०२ निगण्ठाति-१५१ निग्योसोति-२०७ निग्रोधो-३१८ निच्चकालन्ति-१२८ निच्चन्ति-१८२,२४८ निच्चसञ्जन्ति-९२,३४६ निच्चोति-१५१,२४८,३०६, ३३१ निच्चोलोति-३१३ निज्झानपञ्च-२८ निज्झानं-२८,७३, ८० निदानवचनन्ति-५१ निद्देसोति-२६५, ३०१, ३३५ निधानन्ति-२२३ निन्नेत्वाति-२७४ निपातमत्तन्ति-४६ निपातोति-२०७, २५६ निपुणस्स-१४ निपुणाति-११८ निष्पेसिका-११४ निप्पेसोति-११४
निबद्धदानानीति-२९२ निब्बत्तिलक्खणन्ति-१३३ निब्बानगामिनिप्पटिपदं-२४ निब्बानधम्मो -२४६ निब्बानधातूति-२० निब्बानन्ति-२७५,३३४ निब्बानप्पत्तियं - २० निब्बानसम्पत्तियं-७४ निब्बानारम्मणो-२८ निब्बापनीयन्ति-११६ निब्बिदानुपस्सनायाति-९३ निमित्तन्ति-७२,९३,११४,११५, ३४८ निमित्तपटिवेधो-११८ निम्मलं-२३४ निम्मितरूपं-२४१ नियतोति-२०२ निरामगन्धाति-२७३ निरुज्झनकरूपधम्मानं-२१९ निरुत्ति-१७१, ३३७ निरुत्तिनयेनाति-९६ निरुत्तिपटिसम्भिदाति-२७ निरुद्धाति-२२४ निरोधकथन्ति-३२२ निरोधधम्मानन्ति-३२३ निरोधन्ति-३२० निरोधपटिपत्तिया-३२८ निरोधसच्चं-१३४,१६८,१८१ निरोधसमापत्तिं-२०५ निरोधसम्पत्तिया-१० निरोधानुपस्सना-९३ निरोधानुपस्सनायाति-९३ निरोधोति-१२७,२०५, ३२३ निवारेन्तीति-३५८ निस्सरणन्ति-१३४,१६८ निस्सरणविमुत्ति-३१६ निस्सरन्ति-३५७
21
Jain Education Interational
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________________
[२२]
दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गटीका
[प-प]
नीवरणकवाटं- ९२ नीवरणसंयोजनद्वयसिद्धि-१६७ नीवरणानि-७९, ९२ नीहरणन्ति-११६ नेक्खम्मज्झासया-६५ नेक्खम्मपारमिता-६३ नेक्खम्मपारमी-७९,८३ नेक्खम्मबलसिद्धितो-७४ नेक्खम्मसुखप्पत्ति-८७ नेक्खम्मेनाति-९२ नेमित्तिका-११४ नेवसञानासआयतनज्झानं -३२७ नेवसज्ञानासजायतननिरोधसमापत्तीनं-३२७ नेवसबानास आयतनसमापत्ति-३२७ न्हानियचुण्णानं - २३३ न्हापकाति-१९४
पच्चयोति-६४, ६५, ७२, ७४, ७५, १६०, १६३,
१६४, ३२४ पच्चवेक्खणं-५९ पच्चासंसरन्तोति-२१५ पच्छिमचक्कद्वयसिद्धियाति-३९ पञ्चवोकारभवपरियापन्नं-१५४ पञ्चसिखमुण्डकरणन्ति-२८७ पञ्चसीलधम्मेनाति-२६० पञ्चसीलं-२९६ पञत्तिदीपकपदानीति-१२६ पञत्तिभेदो-१७८ पञत्तीति-२८,१८७ पञआकरुणा-६५ पाक्खन्धो-८ पञाचक्खुनो-३३३ पाणन्ति-२८३ पञाति-१२३ पाधिट्ठानन्ति-८४ .. पाधिट्ठानपरिपूरणन्ति-८६ पआपज्जोतत्ता-३०३ पापज्जोतविहतमोहतमन्ति-४,७ पञापज्जोतोति-४ पआपनधम्मो-१६० पापमुखा-२४२ पापरिसुद्धा-८५ पञापारमिता-६३ पापारिसुद्धियं -७१ पञआभावना-६५ पञ्चाविमुत्ति-१८१ पासङ्कलननिच्छयो-१६ पटलानीति-११६ पटिकिट्ठोति-२५० पटिक्कमोति-२१५ पटिक्कूलसनं-२१८ पटिक्खित्तमेवाति-५५ पटिघसम्पयुत्ताति- १३९
पकतिमनुस्सधम्मतो-३४४ पकतियाति-१३७ पकतिवादं-३१५ पकतिविपस्सकानं-३२६ पकतीति -३३४ पकतूपनिस्सयेनाति-१६२ पकप्पेतीति-३२७ पकम्पथाति-१६५ पकरणेति-२६९ पकासाति-४२ पक्खाति-२८८ पग्गण्हन्तेसूति-२८२ पग्गहो-९४ पग्घरणं-९३ पच्चग्घन्ति-३२०,३२१ पच्चयपरिग्गहे-१२३ पच्चयाकारदेसना-१६
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________________
[प-प]
सद्दानुक्कमणिका
[२३]
पटियो - १४४ पटिच्चसमुप्पादाति - १२३ पटिच्चसमुप्पादो-८० पटिच्छन्नो-२५, १२७ पटिच्छादिका-२४३ पटिजानन्ति- १५० पटिनिस्सग्गानुपस्सना-९३ पटिनिस्सज्जीयन्तीति – ९३ पटिपक्खोति-७६ पटिपत्ति-६०, ७६, ८२, ९२, ११२, १३३, १९०,
२५५ पटिपत्तिअत्यं-१३२ पटिपत्तिक्कमोति-३१५ पटिपत्तिदस्सनन्ति-१०८ पटिपत्तिमुखन्ति-२७१ पटिपत्तीति-७६, ८२,३५२ पटिपदाआणदस्सनविसुद्धि-२३२ पटिपदाति-१९८ पटिपन्नोति-५,४७, ९७,२८० पटिप्पस्सद्धि-३२८ पटिप्पस्सम्भकविज्जा-२६९ पटिभागकिरियन्ति-३२२ पटिभानकवि-११६ पटिविरुद्धाति-५३, १७७ पटिवेदेसीति-१९१, २४५ पटिवेधपञा-४ पटिवेधपञआयाति-४८ पटिवेधोति-२८,१२० पटिसङ्खानुपस्सना-९३ पटिसङ्खानं-९४ पटिसन्धिसजा-१४८ पटिसम्भिदाति-२७ पटिसंवेदेतीति-१२९, १५८,२१४, २१५, २३२ पटिहजतीति-२२६, २९३ पटिहन्तीति-२९३ पठमचित्तक्खणेति-१३९
पठमज्झानन्ति - २९६ पठमज्झानसमाधि-३०२ पठमबुद्धवचनन्ति-२३ पठममग्गो-१७६ पणमन्तीति-२२८ पणिधिन्ति-९३ पणिपातो-२४७ पणीतन्ति-२४४ पणीता-११९, ३३६ पण्डिच्चेनाति-१४४ पण्डितवेदनीयाति-१२० पण्डितोति-१४४,३१५ पण्डुपलासिका-२७२ पण्डुराजाति-११५ पतिट्ठपेतब्बाति-२८९ पतिहितचित्तो-१७०, २०३ पतिट्टितपादो-२१९ पतिरूपदेसोति-१९६ पथविकायो-२०३ पदविभागोति-३२ पदहनं-१२६ पदानीति – ११३, २००, २२३ पदुद्दचित्तो-२४८ पधानकारणन्ति-४ पन्थदुहना-२८६ पपञ्चोति-१०० पब्बतगुहा-२२७ पब्बतन्ति-२२७ पभस्सरन्ति-३४९ पमुखलक्खणं-९५ पमोदन्ति-५४ पयातन्ति-२७२ पयोगसुद्धियाति-३९ पयोगो-१००, १०३, १०४, ११२, ११३, ११६,
२२२, २६३ परत्थोति-१६५
23
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________________
[२४]
दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गटीका
[प-प]
परमत्थतो-५, १४, ३७, ४२, १२४, १३२, १३५, | परिभोगपञ्ञा-३५७
१५३, १६७, २०३, २७०, ३३२, ३३४, ३३७, परिमद्दनधम्मोति-२३५ ३३८
परिमुखन्ति-२२८ परमत्थधम्मो-३३८
परियत्ति-२९, २१० परमत्थपारमीति-८२,८३
परियत्तिधम्मो-२१० परमत्थब्राह्मणो- १८८
परियत्तियन्ति-११७ परमत्थसच्चं-३३९
परियत्तोति-२१ परमत्यसमणो-१८८
परियन्तोति-२२९ परमत्थसिद्धियं-१०८
परियादियित्वाति-३६० परमत्थोति-२५
परियायो-४५, ११२ परमविसुद्धं-३१६
परियेट्ठि-२७२ परमं-६८,७४, २०५, २२८, २८३
परियेसनदुक्खमूलं- १६२ परसंहरणन्ति-१०३
परियोनन्धन्तीति-३५८ पराधीनोति-२२९
परियोसानन्ति-८,१३,९०,२१० परामासो-१३३
परिवट्टो-२१३ परायणन्ति-२४३
परिवत्तनत्यन्ति-११६ परिक्खारा-२८५, २८८,२८९, २९०
परिवाराति-२८५ परिग्गहितत्ताति-१८४
परिवितक्को - ४०, २८२ । परिग्गहेत्वाति -२१५
परिसप्पनं-२३० परिच्चागचेतना- २८९
परिसुद्धन्ति-२१२,२१५, २३४,२८० परिच्चागलक्खणं-६३
परिसुद्धाजीवोति-२१४ परिजानाति-६४
परिसोधेतब्-६९ परिजापत्ति-१७७
परिस्सया-२२६,२९३ परिवं-८०
परिळाहा-५९ परितस्सना-१३९
परोलोकोति-१४५ परित्तसञीति-१५१
पलिबुद्धनकिलेसोति-१९० परित्ताभा-१३७
पलिबुद्धाति-५९ परिदहित्वाति-२१३
पवत्तफलभोजिनो-२७२ परिनिट्ठापिताति-१३२
पवत्तमिच्छासलं-९३ परिनिब्बानन्ति-२९४
पवत्तितविपस्सना -२८३ परिनिब्बानपञत्ति-१७८
पवत्तिनोति-२१ परिपततीति-२२८
पवायतीति-५७ परिपाकाणा-२५४
पविसन्ता-२३७ परिपुच्छा-५८
पवुटाति-१९९ परिपुण्णकम्मन्ति-१९८
पवेणीधम्मो-१९३ परिपुण्णकिच्चा-३३६
पसन्नकारन्ति-२४३,३१७
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________________
[प-प]
सद्दानुक्कमणिका
[२५]
पसन्नचित्तता-२९७
पासकं-११३ पसन्नाति-११४
पासादिको-२७९ पसवतीति-२५
पासादोति-२२६ पसेनदी-३५१
पिटकसद्दन्ति-२६ पस्सता - ४८,४९
पिण्डपातोति-२९० पस्सतीति-५४,९६,११५,१४१,२३५,२४८,३०२ पितामहयुगाति-२७८ पस्सद्धि-९५
पियजातिकाति-३५७ पहातब्बकिलेसा-२४०
पियजातिकानीति-२९९ पहातब्बधम्मानं-३११
पियपुग्गले-६७ पहानत्तयसिद्धि-१८०
पिसुणवाचाति-१०६ पहानपञत्ति-१७७
पीतिपस्सद्धिसुखं -८१ पहाय-६६, ९७, १०१, १०३, १०८, १११, १८२, | पीतिमनस्स-२३१
२०१,२०५, २२४,२५३, २५७,२७३, ३११ पीतियाति-५५ पहूतभावन्ति-२७४
पीतिवचनन्ति-१८८ पाकटमन्तनन्ति-२७२
पीतिसमुट्ठानं-१८८ पाटिहारियविजम्भनं-२९९
पीतिसोमनस्सन्ति-५५ पाटिहीरकन्ति-३३५
पीळन-४१ पाणभूतेति-१०३
पुग्गलवोहारोति-३६ पाणातिपातकम्मबद्धोति-१००
पुच्छानुसन्धि-१५८ पाणातिपातचेतनाति-१००
पुच्छावसिकोति-५२ पाणातिपातभावं-९९
पुञकम्म-१३८ पाणातिपातो-९९, १००,१०१
पुञ्जकिरिया-३३ पाणं- ४४, १९७
पुञचरियं-२८५ पातब्यतन्ति-३०९
पुज्ञन्ति-१९५,२१२, २९४ पातिमोक्खआजीवपारिसुद्धिसीलानि-५६
पुञफलं-२१२ पातिमोक्खसंवरसंवुतोति-२१३
पुञवाति-३०९ पातिमोक्खसंवरो-१०८
पुलं-१३, ६७,८० पातेसीति-२७५
पुटंसेन-२८२ पापदिट्ठिया-३५३
पुण्डरीकन्तिपि-२३३ पापधम्मा-२६०
पुण्णोति-१८७ पापन्ति-१९२, १९६, २०१
पुत्तदानं-७६ पापभिक्खूति-२०
पुत्तोति-२६५ पाभतं-२८७
पुथुआरम्मणं-११९ पारिसज्जा-२८८
पुथुज्जनजाणञ्च - १२० पारिसुद्धि-७४
पुथुज्जनाति-५९ पावारिकम्बवनन्ति-३४४
पुथुवचनन्ति-२५३
25
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--------------------------------------------------------------------------
________________
[२६]
दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गटीका
[फ-ब]
फरुसन्ति-१०६ फरुसवाचा-१०७,२६५ फलतोति-२२३ फलन्ति-६०,९०,१२३, २००, २३८,२७५ फलसच्छिकिरियाति-३३३ फलसमापत्ति-३३६ फलसमापत्तिनिरोधसमापत्तियो-१६ फलसमापत्तिसुखं-२१० फलसीलन्ति-३४२ फस्सनिरोधाति-१६४ फस्सपच्चयाति-१६७, १७०, १७१, १७३, १७६,
१७८
पुथूति-३२९ पुनब्भवोति-९१ पुनरुत्तिभावतोति-१७, ३२८ पुब्बचरियाति-९० पुब्बण्णं-२८६ पुब्बन्तकप्पिका-१२४ पुब्बन्तापरन्तकप्पिका-१५७ पुब्बन्तापरन्तानुदिट्ठिनोति-१५७ पुब्बभागपटिपदाति-३१२ पुब्बभागभावनापञ्जा-८० पुब्बयोगो-९०,२५५ पुब्बेनिवासत्राणलाभीनं-२३७ पुरस्साति-१०७ पुरातनो-१८४ पुरिमतरन्ति-२९९ पुरिमवेदनाय-१३३ पुरिमवेसारज्जद्वयसिद्धि -५० पुरिमसानिरोधन्ति-३२९ पुरिसोति-२२१, २३१ पूरणकथा- १०५ पेक्खा -११२ पेसाचा -१९९ पेसितचित्तोति-३१९ पोक्खरसाती-२५५ पोवानुपोवन्ति-२१७ पोट्ठपादाति-३२८ पोत्थनियन्ति-१८६ पोथुज्जनिकसद्धापटिलाभोति- २५२ पोराणाति-४३, २८२ पोसावनियं-२५६ पंसुकूलधोवने-१६५
फस्ससमुदया-१६४ फस्सायतनादिअपरिवा-१७६ फस्सोति-१६१, ३३८ फळुबीजन्ति-११२ फुट्ठोति-२०३ फुसनलक्खणो-१६१ फुस्साति-१६१
बलन्ति-२२५, २२९ बलवतुट्ठीति-३३५ बलवरोगो-३४१ बलवाति-२३१, ३५९ बलसम्पन्नोति-३५९ बलिकम्मकरणं-११६ बव्हारिज्झा-३५५ बहुकारोति-३०३ बहुस्सुता-१९, २९४ बालोति-२०२ बाहियो-२१८ बाहिरपथवीधातुन्ति-२०० बाहिरब्भन्तरमलेहि-२७४ बीजगामभूतगामोति-१११
फरणं - ९४, ३५९ फरित्वाति-३६०
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--------------------------------------------------------------------------
________________
TO
[भ-भ]
सद्दानुक्कमणिका
बीजबीजन्ति-११२ बुद्धकम्मसिद्धि-६४ बुद्धकरधम्मसिद्धि-८ बुद्धकारको-६१ बुद्धकिच्चन्ति-१९ बुद्धगज्जितन्ति-३५० बुद्धगुणपरिच्छेदनं-९ बुद्धगुणा-३,८,५८,८०, ९०,११७,११९,१७४,
१९१,२४६ बुद्धचक्खु-२१४ बुद्धआणन्ति-१२० बुद्धत्यसिद्धीति-२६१ बुद्धधम्मरतनानम्पि-१२ बुद्धधम्मा-८,७३,१५४ बुद्धभावन्ति-९,१० बुद्धभावसिद्धि-८, ६४ बुद्धभूमियोति-६५ बुद्धमहन्तता-८० बुद्धरस्मियो-२९९ बुद्धरूप-२७४ बुद्धवचनन्ति-१९ बुद्धविसयोति-१४९ बुद्धसिरिया - ४७ बुद्धसीलं-३१६ बुद्धसीहनादं-३१६ बुद्धसुखुमालभावाय-७६ बुद्धानुबुद्धाति-१४ बुद्धिअत्थो-२७ बुद्धिचरिया - ९० बुद्धिभेदोति-१२७ बुद्धप्पादो-४४ बुद्धोति-२,९,१५०, २४२, २९४ बेलट्ठपुत्तो-१४५ बोधितन्ति-२२८ बोधिपक्खियधम्मा- १७८ बोधिमूले- ३२१
बोधिसत्तभूमियं-८२ बोधिसत्तो-६०,७३, ८९ बोधिसम्भारो-८७ व्यञ्जनसम्पत्तिया-१६५ ब्यभिचारदस्सनतो-२०९ ब्याकरणन्ति-३० ब्याकरणसमत्थोति-२७७ ब्यापारोति-७३, २१९ ब्रह्मकायिकाति-१३७ ब्रह्मचारिनोति-२७३ ब्रह्मजालन्ति-१८ ब्रह्मजालसदिसं-१८ ब्रह्मचा-२८१ ब्रह्मत्तभावो-१३९ ब्रह्मदत्तो-४५ ब्रह्मपरिसाति-३१६ ब्रह्मभावन्ति-१३९ ब्रह्मलोको-२०९ ब्रह्मवच्छसीति-२७९ ब्रह्मविमानन्ति-१३८ ब्रह्मविहारभावनानुयोगो-१६६ ब्रह्मविहारा-१८५ ब्राह्मणन्ति-१८८ ब्राह्मणभावं-२८२ ब्राह्मणसिद्धन्तं-२८२ ब्रूहेत्वाति - ९०
भगवताति-५१ भगवतोति-१९० भगवाति-९,२०, ४४, १९०, १९१,२०८ भग्गोति-३२३ भङ्गक्खणो-३२५ भङ्गानुपस्सनतो-२३५ भङ्गानुपस्सनाय - १३९
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________________
[२८]
भङ्गोति
१ - १५०, २३९
भण्डधरा- २७७
भयत्राणं - १३९ भयदस्सनसीलो - २१३
भयदस्सावीति - २१३
भयभैरवं - १९२
भयानकन्ति - १३९, १९२
भयं - २, १३९, १९२, २३६, २४५, २९५
भवङ्गसञ्ञाति - ३२७
भवङ्गपच्छेदा- १३८
भवनं - २२४
भवतण्हायाति - १६३
भवदिट्ठियाति - १६४ भवन्तरसमयन्ति - ३२२
भवरागोति - २४४
भवस्साति - १६३
भवोति - १६३
भस्सं - २७० भारद्वाजोपि - ३५५
भारियेति - १८५
भारोति - १९३ भावनापञ्ञत्ति - १७७
भावविगमन्ति - १५३
भावितोति - ३००
भावेत्वाति - १०, ११, ९०, २३०
भिक्खाचारगोचरे - २१५
भिक्खुनोति - ३२८
भिक्खुति - १९८, ३२८
भिज्जतीति - १४१, ३०६, ३३०
भिन्नपतिट्ठो - २५२ भुजिस्सो - २२९ भुम्मन्ति - २१४, २५५, ३२०
भुस्सतीति - ३०५ भूतकसिणं - १४७ भूततायाति - ३२५ भूतभब्यानन्ति - १३९
दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गटीका
28
भूतरूपानं १- ३४८ भूतलक्खणन्ति - ३३९ भूतिकामोति - २०२ भूतोति - २८८ भूमन्तरन्ति - १२१ भूरिविज्जा - ११५
भेदन्ति - २६
भेदोति - २४९
भेसज्जदानं - ७६
भेज्जमत्ताति - २२
भेसज्जरुक्खा - ७०
भोगक्खन्धोति - २१३
म
मग्गञणं - ७, १७५, २७६, ३२९
मग्गट्ठाति - २४४ मग्गदीपकन्ति - ३५८
मग्गधम्मनियामेन - ३०१
मगधम्मो - २४६
मग्गपटिपत्तिया – ४५
मग्गफलनिब्बानानं - १६५
मग्गफलसुखेनाति - १८६
मग्गसच्चन्ति - १३४, १८१
मग्गसीलं - ३४२
मग्गसुखं - ३५८
मग्गसोतं - ३०१
[म-म]
मग्गोति- २१०, २४३, २७५, ३१३, ३५४, ३५८
मघदेवोति - २६४ मङ्गलभावतो - १, ६८
मज्जवणिज्जाति - २५०
मज्झभावोति - २१० मज्झिमपटिपदाभावो - २१०
मज्झिमसीलं - १११, २१४ मञ्ञतीति - २६५, ३३१
मण्डनं - ५६
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________________
[म-म]
सद्दानुक्कमणिका
[२९]
मण्डपोति-२२७ मत्तिककक्कन्ति-११४ मदनिद्दन्ति-३२३ मद्दन्ताति-२१७ मधुपायासन्ति-५८ मधुरन्ति-२९९ मधुरेनाति-३०० मनसिकारपटिबद्धाति -३९ मनापाति-६७ मनुस्सधम्मतो-३४४ मनुस्सलोके-१४० मनुस्साति-३१३ मनेनाति-१४१ मनोति -३४५ मनोद्वारविज्ञाणवीथि-३६ मनोधातूति-५६ मनोपणिधीति-१३९ मनोपदोसिकाति-१४१ मनोपदोसोति-१७७ मनोपुब्बङ्गमा-१४७ मनोमयन्ति-३३१ मनोमयवोहारतोति-१३७ मनोमयाति-१३७ मनोमयिद्धिया-२९६ मनोमयोति-१३७ मनोरम-१५, २९९ मन्तजप्पनं-३२३ मन्तन्ति-२६९ मन्तपदं -२७३ मन्तबलेन-२६८ मन्तसत्तियोगोति-२६० मम्मच्छेदको-१०७ मरणग्गिना-६६ मरतीति-१४३ मरूति-९१ मलन्ति-२५०
महग्गतज्झानानि-१८५ महच्चाति-१९१ महद्धनो-२७८ महन्तानन्ति-११५ महन्तं-६८, ८१, ९९, ११५, १२१, २५७, २७८,
२९२ महप्फलतरन्ति-२४९ महप्फलतरो-१७२,२९२ महप्फलाति-२९६ महाकच्चानो-३० महाकरुणापदट्ठाना-६३ महाकरुणाभावं-३ महाकरुणासमापत्तिविहारं-८ महाकरुणासमापत्तिं-२५४ महाकस्सपत्थरो-२१ महाकारुणिको-८८ महागजा-२२६ महागन्धारीति-३४५ महागामोति-२८७ महागोविन्दोति-१८४ महाजनन्ति-२२ महाजुतिकन्ति-२४९ महाथेराति - ४७ महानदी-२९२ महानुभावाति-२६० महापुरिसलक्खणानि-४७ महापुरिसो-६१, ८७, ९१ महाबोधि-५,८२,१७४ महाबोधियानपटिपदाय-६० महाबोधिसत्तं-१९७ महाब्रह्मनो-२०९, २७९ महामत्ता-१९२ महायसतरोति-१४० महायागन्ति-१९६ महाराजाति-२६० महावजिराणन्ति-२३८
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________________
[३०]
महाविष्फारन्ति - २४९ महाविहारवासिनो - १५
महावीरो - २६६ महासतिपट्ठानसुत्ते - २२३
महासमणो - ५९
महासमयोति - ४१
महासमुद्देति - ११८ महासमुद्दो - ५८, २०७
महासालोति - ३४४
महासीलन्ति - २१४
महिन्देन - २६६ महेसक्खतरोति - १४०
महेसोति - १४०
महोघो - २९२
मानद्धजं - २६४ माननिम्मदनत्यन्ति - २६३
मानन्ति - ३५१
मारवाहिनी - १२ मारसेनमथना - १२
मासपुण्णता - १८७ मासुरक्खो - ११५ माळो - २२७ मिगपक्खीनन्ति - २८५
मिच्छत्तधम्मा- २४३
मिच्छाचारो - १०४
मिच्छाजीवा - १८२
मिच्छात्राणं - २४९ मिच्छादरसनन्ति - १३६
मिच्छादिट्टि - २४३ मिच्छाधिमानो - ७९
मिच्छामग्गा - २४३ मिच्छावणिज्जाति - २५० मिच्छावितक्को ६७
मिच्छासतीति - २०१ मिच्छासमाधि - २०१ मिद्धसुखं - २१७
दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गटीका
मुखदोसोति - २३७
मुखमत्तदस्सनं - ५१
मुच्छाकारन्ति - ३५७
मुञ्चितुकम्यता - ९३
मुण्डकाति - २६३
मुत्तचागो - २८८ मुत्तहरीतकन्ति
मुत्तोति - २३० मुदिन्द्रियो - १८२ मुदुकायाति - ३०९
- २२५
मुदुचित्ता -- ३१७ मुदुभावो - २७४
मुनाति - ६० मुसावादलक्खणं - १०५
मुसावादादिभयेन - १४६ मुसावादो - १०५, १९६
मूलचरिया - २६
मूलपरिञा - २२१ मूलबीजन्ति - ११२
सज्जानि - ११६
मूललक्खणं - ९५
मूळ्हपुग्गला – २०१
मेघवण्णन्ति - ३२० मेत्तचित्तता - १०३
मेत्तचित्तो - १०३
मेत्ताकम्मट्ठानं १-५८
मेत्तादिविहारीति - ३६०
30
मेत्तापारमिता - ६३
तापारमी - ८३
मेत्ताभावना - ६५ त्ताभावनानुयोगो - २३१
ताविद्धित - ६३
त्ताविहारी - ६३, ७८ थुनाति - १०४ मेधावी - २८९ मोक्खीति - ३३४
[म-म]
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________________
[य-र]
सद्दानुक्कमणिका
[३१]
योनिसिद्धन्ति-२९५ योनिसोमनसिकारं-३८,२१७
मोघमञन्ति-४१, १२६, १५४, १७३ मोमूहो-१४५ मोहतहाविगमो-६५ मोहतमविधमनन्ति-४ मोहनाकारं-३५७ मंसवणिज्जाति-२५०
यक्खदासीनन्ति-३२३ यक्खनरिन्ददेवसमण- १९३ यजनकिरियायं-२८२ यतत्तोति-२०३ यथाज्झासयं-१०८ यथाधम्मन्ति-२७ यथानुसन्धीति - १५८ यथापरिच्छिन्नकालन्ति-३२८ यथाभूतवेदी- १४६ यथाभूतसभावबोधो-११८ यथावुत्ततहासमुच्छेदो- १७६ यथावुत्तसभावो-२२ यथावुत्तसीलसंवरस्सेव-३१२ यथावुत्तसुद्धिया-१८७ यथासभावपटिजानननिब्बेठनाति-१६८ यथासभावपटिवेधलक्खणा-६४ यथासभावावबोधो-१३६ यमकपाटिहारियकरणत्थाय-५७ यमनियमलक्खणं-२७९ यसोति-१८९ यामोति-२०३,२४१ यावदेति-२१ युगाति-२७८ योगतो-१९० योगावचरो-३०३ योगिनो-१२७,२३४ योगोति-२६०
रक्खागुत्ति-२०५ रजोजल्लधरो-३१४ रजेतीति-१८५ रोति-१८५, २९२ रट्ठियपुत्ताति-१९२ रतनत्तयगुणानञ्च-२९४ रतनावेळं-४७ रतनं-१३, २५१ रतिधम्मो-१४० रतिसभावो-१४० रत्तानि-२९५ रमणीयोति-३०८ रम्मेति-२९४ रसायतनं-९६ रस्मियोति-५८ रागविरागोति-२४४ रागादिपणिधिं-९३ राजकुमाराति-२७७ राजगहन्ति-१८४ राजागारकं-४७ राजामच्चपरिवुतोति-१८७ रासिकतन्ति-२७३ रासिको-२८७ राहूति-१८८ रुक्खमूलन्ति-२२७ रुचि- ९७, ३३२ रुचिताति-४९ रुप्पनसीलो-१५० रुप्पनं- ९४, १५० रूपकलापो-२४१ रूपजीवितिन्द्रिये-९९
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________________
[३२]
दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गटीका
[ल-ल]
रूपतण्हा-१६२ रूपधम्मा-१८१,२१९,२२० रूपधातु-९६ रूपन्ति-२१४,३४८ रूपवाति-२३५ रूपविरागभावना-१४७ रूपवेदनादयो-१२६, १६०,३३६ रूपसभावो-१५० रूपसम्पत्तिं-६९, ३११ रूपायतनं-९६ रूपारूपजीवितिन्द्रियं-९९ रूपारूपधम्मसमूहो-१००,१६४ रूपारूपधम्माति-२१९ रूपारूपावचरज्झानानि-१६ रूपावचरकम्मे-३६० रूपावचरचतुत्थज्झानदेसनानन्तरं-३४३ रूपावचरज्झानानि-१६ रूपीति-१५०, २३५ रोगब्यसनं-३५९
लाभीति-१५३ लाभीसस्सतवादो-१४८ लिङ्गन्ति-११६ लिच्छवीरो-३०३ लुज्जनद्वेनाति-२२८ लूखाजीविं-३०८ लेणत्थन्ति-२९३ लेणन्ति-२४६ लोकक्खायिका-११४ लोकधम्मे-७६ लोकधातुयोति-९७ लोकनाथो-१९१ लोकनिरोधगामिनिपटिपदं-५ लोकनिरोधं-५ लोकन्ति-२०८ लोक-सद्दोति-२०९ लोकसम्मुतिकारणन्ति-३३९ लोकसिद्धवादो-३१५ लोकहितेसिना-२६६ लोकाधिपति-१०२ लोकियन्ति-५ लोकियपुथुज्जनो-१०३ लोकियलोकुत्तरोति-२८ लोकियलोकुत्तरं- १८३ लोकियसम्पत्तिं-७४ लोकियाभिवा-१२७ लोकीयन्ति-१४१ लोकुत्तरधम्म- १४६ लोकुत्तरन्ति-१० लोकुत्तरपरियायो-३४३ लोकुत्तरसरणगमनन्ति-२४६ लोकुत्तरसीलं-३१६ लोकोति--५, १२६, १२९,१३७,१४२,१६८, २०७ लोभुप्पत्ति-३२५ लोमसायाति-३०९ लोहिच्चोति-३५०
लक्खा -१८८ लक्खणन्ति-९८,११५ लक्खणमालाति-४७ लक्खणानन्ति-१३३ लक्खणं-१३१,१५५,१८८,३३९ लग्गितुन्ति-२६४,३६० लग्गिस्सामाति-२७० लज्जीति-१०२ लद्धघरमेवाति-३२७ लद्धोति-२५२,२९० लपन्तीति-११४ लळनन्ति-२२१ लाभादिलोकधम्मसन्निपाते-७१ लाभालाभादिविज्जाति-११५
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________________
[व-व]
सद्दानुक्कमणिका
[३३]
लोहिते - ११४
वचनब्यतयो-१८८ वचीकम्मन्ति-२१३ वच्छतरसतानीति-२८५ वञ्झाति-२०३ वटरुक्खं-३०५ वड्डेतीति-१०७, २०५ वणिब्बकाति-२८८ वण्णसम्पत्तिन्ति-२३६ वण्णेति-३०९ वण्णेनाति-२४१ वत्थूति-१२८ वदमानाति-११९ वधकचित्तेन-२४८ वधोति-११०,१११ वनमूलफलाहारा-२७३ वन्दनकिरियाय-७,९ वन्देति-६,९,१०,१२ वमनन्ति-११६ वयतीति-२५८ वयधम्माति-२४ वयोअनुप्पत्तोति- १८९, २७९ वरोति -१४ ववत्थापनवचनन्ति-१२० वसनवनन्ति-१८४ वसिनो-१४ वसुधा-१६५ वाक्करणं-२७९ वाचकोति-२८ वादप्पमोक्खा-२९ वादप्पमोक्खानिसंसा-२९ वादोति-२०१,३५५ वानविचित्तन्ति-११३
वायामोति - १०५ वायुखन्धं-२०० वायोकसिणे-१४७ वालवेधीति-१४४ वाळमिगानीति-२९३ वाळरूपानीति-११३ विकाराभावतो-१३२, २०३ विकालभोजनाति-१०९ विकालोति-१०९ विक्कमीति - ९१ विक्खम्भनं-२२८ विक्खित्तचित्तो-७२, २९३ विक्खेपो-१४३ विगतकिलेसो-२४६ विगततण्हं-१४८ विगतदरथोति-२३२ विगतदोसन्ति-१५ विगतमलं-१० विघातन्ति-२८२ विचयो-१६९ विचारितधम्मे-१६ विचिकिच्छाति-२७६ विचित्तकम्मा-२१६ विजातितायाति-२१२ विजानातीति-२२२ विजितावीति-१८८,२५९ विज्जन्तरिकायाति-४४ विज्जाचरणसिद्धि-६५ विज्जामयो-१००, १०३ विज्ज-२६९ विज्ञाणन्ति-३४९ विज्ञाणब्यापारोति-३७, २२२ विजातब्बन्ति-३४९ विजृति-३११ वितक्कितं-१५५ वित्थम्भनं-९३
23
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________________
[३४]
दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गटीका
[व-व]
वित्थायितत्तन्ति-३५९ विदितधम्मोति-२७६ विद्धंसेति-१८३ विनयपिटकन्ति-२३ विनयवादीति-१०८ विनयो-२३,३१,४३, ३३२ विनस्सेय्याति-१९२ विनासेतीति-१०६ विनिच्छयलक्खणो- १२९ विपरिणामधम्माति-२७५ विपरिणामो-९३ विपरिफन्दतीति-१६९ विपल्लासोति-१८२ विपस्सना-१७५, १८१, २३८, २९६, ३३६ विपस्सनाकाले-२२० विपस्सनाचारो-२३८ विपस्सनाचित्तपरिदमनादीनं-३२७ विपस्सनाजाणकथावण्णना- २३५ विपस्सनाजाणन्ति-२३६ विपस्सनाजाणं-२३५, २३६, २३८,२४१ विपस्सनापादकज्झानं - ३३६ विपस्सनापादकन्ति-२३८ विपस्सनापुब्बका-३३६ विपस्सनाभिमुखं-२३५ विपस्सनालाभी-२३६ विपस्सनासहगता-९० विपस्सनासातं-३५८ विपस्सी-६० विपाकक्खन्धा-२० विपाकोति-२०० विप्पलम्भेसीति-१९२ विप्पसन्नोति-२३५ विभज्जवादं-३०८ विभवसम्पत्तिपच्चया-२७८ विभागोति-१८,८२ विभावना-११७, २४५
विमति-४०,९८, २७४ विमतिच्छेदना-९८ विमानानि-१३७, ३५१ विमुच्चतीति-२३९, ३०१ विमुत्तिकिच्चं-२३ विमुत्तिगुणं-२३ विमुत्तिधम्मदेसना-७ विमुत्तिभावतो-३५९ विमुत्तियाति-९५ विमुत्तिरसन्ति-२३ विमुत्तिसुखस्स-११ विमुत्तो-१७४ विमोक्खधम्मन्ति-३५० विमोक्खो--१३२ विम्हापयन्तीति-११४ विरतिचेतना - १७८, ३०२ विरतिचेतनानं-३०२ विरतोवाति-१०१ विरत्तचित्तो-६५ विरत्तभावतो-३५२ विरागानुपस्सनायाति-९३ विरुज्झतीति-३५ विरेचनन्ति-११६ विरोधाभावो-४४ विरोधोति-१५५ विलम्बितं-२७९ विलासो-३३५ विलोकितन्ति-२२० विवट्टानुपस्सना-९३ विवरन्ति-२२७ विवाहनं-११६ विविधपाटिहारियन्ति-३४,३५ विवेकजं-३२५ विवेकट्ठकायानन्ति-२०५ विवेकसुखन्ति-२१० विवेको-२०५
34
Page #420
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________________
[व-व]
सद्दानुक्कमणिका
[३५]]
विसङ्घतं-२३ विसङ्घारगतानन्ति-२०५ विसभागपुग्गलो-२२ विसभागवेदनाति-३४१ विसयदस्सनं-१५२ विसयोभासनरसा -६४ विसवणिज्जाति-२५० विसारदो - ३९, ३१७, ३१८ विसिखाति-११४ विसुद्धचित्तताय - १९९ विसुद्धाजीवो-६७ विसुद्धिदेवापि-५ विसुद्धिपच्चयन्ति-१९७ विसुद्धिभावना- १८० विसुद्धियाति -३१३ विसेसलाभी-१३०,१३६' विसेसलाभीवादो-१५४ विसोधेति-४७ विसंयुत्तोति-६ विसंवादनचित्तं - १०५ विस्सकम्मुना-५७ विस्सज्जननयाति-१२३ विहननं-१४४ विहारोति-३३६ विहेठनभावतोति-१०२ वीतिक्कमिस्सामीति-१०१ वीतिहरणन्ति-२१९ वीतिहरतीति-२२२ वीमंसा-१२९ वीरियन्ति-१२७,३०३ वीरियपारमिता - ६३ वीरियबलेनाति-१६५ वीरियमयसरीरा-२६० वीरियवा-६२ वीरियसिद्धि- १८२ वीरियसंवरोति-१०८, ३१२
वीरियाधिट्ठानन्ति - ५८ वुट्ठीति-१८ वुद्धसीली-२७९ वुद्धोति-२७९ वूपकट्ठोति-३१९ वेठकेहीति-२७४ वेदको-३३२ वेदत्तयविभावनं - २८३ वेदनाकम्मट्ठानन्ति-१६४ वेदनाक्खन्धसङ्गहोति- १७८ वेदनादिक्खन्धचतुक्कं-३४८ वेदनादीनवानवबोधेन - १६९ वेदनानन्ति-१७१,१७५ वेदनानुभवननिमित्तं-९५ वेदनापच्चया- ४९, १६८, १७३ वेदनापटिबद्धं-१३४ वेदनासमोसरणाति-९५, १७४ वेदनासीसेन -१३४ वेदयतीति-२३२ वेदयितन्ति-१५९ वेदयितरागे-१६९ वेदल्लसमा-३० वेदवादिनो-१३७, ३३०,३३१ वेदानं-२५८ वेदेतीति-२३२ वेदेन-१८६ वेय्याकरणन्ति -३०,१६५ वेरचित्तेन -३५८ वेरजकण्डे -२९ वेरन्ति-३१० वेरमणियोति-२५० वेरमणीति-२९५ वेरीपुग्गलो-६७ वेवचनपत्ति - १७८ देसारज्जप्पत्तोति-२७६ वेसालीति-२९८
35
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--------------------------------------------------------------------------
________________
दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गटीका
[स-स]
वोदानन्ति-७५ वोहारविनिच्छयो-५० वोहारो-१४,१४३, ३३७ वंसानि-२९५
सकटब्यूहादीति- ११३ सकदागामिनो - २४९ सकदागामी-२०७ सकलधम्मपटिपत्तिया- ९८ सकलन्ति-२११ सकसकवादा-१५४ सकसञ्जीति-३२६ सकुणोति - २२६ सक्कायदिट्ठिया-५९, १२६ सक्कुणोति -७१ सक्खिदिट्ठोति-१४२ सक्यमुनी-९७ सक्याति-२६४ सखिलोति-२८१ सगारवं - २४१ सग्गमग्गो-११४ सग्गमोक्खपथेसु-७७ सग्गमोक्खमग्गं-२४३ सङ्कड्डित्वाति-२७२ सङ्कप्परागो- १२५ सङ्घतधम्मसभावं-१५९ सङ्घतधम्मारम्मणन्ति-२७६ सङ्घधमको-३५९ सङ्खलिखितन्ति-२१३ सङ्खारन्ति-२४८ सङ्ख्यावाचीति-३२४ सङ्गहोति-२२, ८३, २७६ सङ्गामविजयोति-१६५ सङ्गीताति-१४
सङ्घोति-१२, १८९, २४६, २९४ सच्चन्ति-१२६,३३९,३४० सच्चपारमिता-६३ सच्चपारमी-८३ सच्चमेवाति-३३८ सच्चाधिट्टानं-८१,८४,८५, ८६ सच्चिकट्ठपरमत्थवसेनाति-३७ सच्छिकत्वाति-९,१०,११ सच्छिकिरियाति-११९ सज्जावुधोति-२३१ सज्झब्भरितन्ति-३३३ सज्झायन्तीति-२०१,३५५ सज्झायितं-२७३ सञ्चयवादो-१५७ सञ्चयो-१४५ सञ्जाग्गन्ति-३२९ साति-१५०, १५१, ३२६, ३३१ सानिरोधेति--३२२ । सञ्जानिरोधं -३२०,३२९ सञ्जीवादवण्णना- १५० सञ्जीवादा- १५० सञ्जूळ्हं - २७३ सण्ठातीति-१३७ सण्हसुखुमन्ति-३४ सतिसम्पजञबलेन-७८ सतिसम्पजाधिट्ठानं-१६६ सतिसम्पजञानुट्ठानं - १६७ सतिसिद्धि-१८२ सतिसंवरो-१०८ सतीति-३०,३५,४२ सतोति-१५३ सत्थवणिज्जाति-२५० सत्थुसिद्धिया-५०,५१ सत्तअरियपुग्गलविभावकत्राणं-११९ सत्तधम्माधिट्ठानं-१८३ सत्तपत्ति -९९
36
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________________
[ स स ]
सत्तभङ्गदिट्ठि – १४६ सत्तरतनसमुज्जलं – ४३ सत्तलोकग्गहणन्ति - २०९ सत्तवणिज्जाति - २५०
सत्तिपञ्जरन्ति - २२
सत्तोति - ९९, १४०, ३०६, ३३८
सदेवकन्ति - २०८ सद्दनयो - ४८
सद्दनिरुत्तिया - ३३८ सद्दप्पयोगोति - २५६
सद्दविदू - २५६ सद्दसिद्धि - २५५ सद्दायतनं
१- ३७, ९६
सद्देनाति - २९९, ३०० सद्धम्मचक्कप्पवत्तनतो - २४२
सद्धम्मविमुखं - २४३
सद्धम्मस्सवनेन - ३८
सद्धम्मं - ९, ११,२०,२९४
सद्धापञ्ञ - ९४
सद्धापटिलाभोति - २४७
सद्धामूलिकाति - २४६ सद्धायिको - १०५, १०६ सद्धावहगुणस्साति - १४
सद्धासम्पन्नोति – ३४४
सद्धिन्ति - ३०२, ३४६ सनरामरलोकगरुन्ति - ५
सनरामरलोकोति - ५ सनिघण्डुकेटुभानन्ति - २५७
सन्तकायचित्तो - ७७
सन्तभावो - ११८
सन्ताति - २६४
सन्तापा - ५९
सन्तारम्मणानि - ११८
सन्तासन्ति - १३९, १९२, २४५
सन्तिपटिस्सवकम्मन्ति - ११६ सन्तुट्ठोति -
- २२५
सद्दानुक्कमणिका
सन्दिद्धं -
:- २७९ सन्धाविस्सन्ति - २३ सन्नितोदकं - ३३३
सन्निधिं - ११२ सन्निपतितानन्ति - २०
सपरिग्गहोति - ३५८
सप्पटिहरणन्ति - ३३६
सप्पाटिहारियं - २०
सप्पायन्ति - २०५ सप्पायसम्पजञ्ञ - २१५
सप्पीतिकतण्हं – ९३
सब्बकिच्चकारीति - २१५
सब्बकिलेसप्पहानं - २६१
सब्बकिलेसविमुत्ति - २३९
सब्बकिलेसेति - ९३
सब्बञेय्यधम्मं - ४८
सब्बतत्राणं - २३, ४९
सब्बञ्जतञ्ञाणधम्मा - १२१
सब्बति-५४
सब्बदिट्ठिगतिकस - १७०
सब्बदुक्खक्खयोति - २४८
सब्बदोसमलरहितं - १० सब्बपारमियो - १७५ सब्बलोकुत्तमो -
- ७६
सब्बविदू - ११९, १९३
37
सब्बवेदनासुयेव - १३४ सब्बावतो - २३२ सब्यञ्जनोति - २०६ सभावधम्मनिरुत्तिं - २७
सभावनिरुत्ति - २०६
सभावलक्खणावबोधो - १३१
समणकम्मसङ्घाताति - ३१३
समतलन्ति - ३५८
समत्थन्ति - १३ समथनिमित्तं - ६२
समथविपस्सना - १८१,३३५
[३७]
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________________
[३८]
दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गटीका
[स-स]
समथविपस्सनातरुणभावतो-२५४ समथविपस्सनानिष्फत्ति-१६७ समथविपस्सनाभावनापारिपूरी-- १८० समधिगमोति-९२ समन्तचक्खु-२१४ समन्ततोति-२२८ समन्तानगरन्ति-२७४ समभरिताति-३५६ समयन्तरन्ति-१२२ समययुत्तन्ति-४९ समयोति-४१ समा-९१,३१४ समाधिक्खन्धो-८१७० समाधिनोति -- २३२ समाधिपासिद्धि- १८२ समाधिपदट्ठाना-६२,६४ समाधिभावना - ३०० समाधीनन्ति-३०० समानयीति-२७४ समापत्तियो-१६, २१, २७०, ३२७ समाहितचित्तस्स -३०४,३०६ समाहितो- ८१, १८२ समिद्धाति-३४४ समिद्धिकालेति-११६ समुच्छेदपटिपस्सद्धिविमुत्तियो--३१६ समुट्ठानट्ठो-१३२ समुट्ठापनलक्खणं- ९५ समुदयभावेन -३३३ समुदयसञ्जातीति-३५१ समुदयादियथाभूतवेदनं - १७०, १७५,१७६ समुदयोति-४१ समुपब्यूळ्हन्ति - २७३ समेनाति-२५० समोधानन्ति -४१ समोसरणं-९५ सम्पजञभाजनीयं-२१५
सम्पजनविपस्सनाचारवसेन - २२३ सम्पजनेन-२१५ सम्पजनं-२१५,२२३ सम्पजानकारिता-२२३ सम्पजानकारिनोति -३२८ सम्पजानकारीति-२१५ सम्पजानपदं-३२८ सम्पजानसद्दस्स-२१५ सम्पजानो-८५,८९,२१५ सम्पजानं-२१५ सम्पतिजातोति-९० सम्पदाति-२७१ सम्पदानवचनन्ति-२४०,३५२ सम्पयुत्तधम्माति-९५ सम्पहंसनन्ति-२९१ सम्पहंसनेति-२०६ सम्पादेत्वाति-३१९ सम्पापकन्ति-२३९ सम्फन्ति-१०६ सम्बुकाति-२४० सम्बोधिपरायणो-४४ सम्भवन्तीति-३५,६९ सम्भाराति-१०५ सम्मदेवाति-३६, ३१९ सम्मसति-२३६,२९६ सम्मसनन्ति-३२६ सम्माअभिनिरोपनलक्खणो-३०१ सम्माकम्मन्तो-३०१,३०२ सम्मादिट्ठिति-२४६ सम्मापयोगोति-२२२ सम्मामनसिकारो-१२७ सम्मावाचा- ९४,३०१ सम्मावायामो-३०२ सम्मासङ्कप्पो-३०३,३२४ सम्मासति-३०२ सम्मासमाधि-१४६,३०२
38
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________________
[ स स ]
सम्मासम्बुद्धत्तसिद्धि - ५० सम्मासम्बुद्धभावो - ९०
सम्मासम्बुद्धेनाति – ४९ सम्मासम्बुद्धोति - २६१
सम्मासम्बोधीति - ७
सम्मुतिकथा - ३३८ सम्मोदनीयन्ति - २६२ सम्मोदितन्ति - २६१
सम्मोहविद्धंसनो - २८ सयनं - ११०, २२४
सयम्भू - ९
सयम्भूञान - ९
सयंजातन्ति - २९८
सरणन्ति - १२, २४३, २४५, २४७, २५१
सरणीयन्ति - २६२
सरणं - २४३, २४६, २४८, २५१, २९४
सरीरचलनन्ति - १९२
सरीरन्ति - १५०, १५७, २७९, ३०५, ३०६
सरीरसण्ठानेति - २९९
सरसपेति - २९३ सलाकवेज्जकम्पन्ति - ११६ सलाकहत्थन्ति - ११३
सल्लक्खणन्ति - ३४१
सल्लेखो - ११२
सवनं - ३८, ५८, १०९
सविकारात - १६३
ससम्पयुत्तधम्मं - ३०६ ससिलोकं - ३०
सस्सतदिट्ठिनोति – १२६
सस्सतदिट्टिभावो - १५६
सस्सतवादो - १२७, १२९, १३०, १३२, १४९
सस्सतिसमन्ति - १२८, १४९
सस्तोति - १२६, १२८, १६०, ३३०
सहकारीकारणन्ति - १३०
सहजातपच्चयोति - २२१ सहतेति - ५४
सद्दानुक्कमणिका
सहब्यताति - ३५५ सहभावोति - ३५५
सहितन्ति - ११४
सहेतुकोति - २६८, ३२४ सळायतनन्ति - ११०
साणधोवनं– ११३
साणानि - ३१४
सात्यकन्ति - २१६
सात्थकसम्पज - २१५
सात्योति - २०६
साधुकन्ति - २०६
साधूति - १८९, ३१०
सापतेय्यं - ७७, २९१
सामञ्ञफलन्ति - १९५ सामञ्ञफलानि - २४८ सामञ्ञविधि - ३०
सामवेदो - ३५५
39
सारप्पत्ताति- २०८ सारीरिकचेतियं - २१६ सारोति - ३२९, ३४२
सालाति - ३२२ सावकपारमित्राणन्ति सावज्जोति - २४९ सावत्थियन्ति - ३२०
सासनट्ठेन - १८५
सासनन्ति - २१०
सिक्खतीति - ३२६ सिक्खाति - ३२४
सिक्खापदन्ति - १०३, २१३, ३२२
सिक्खापदानीति - ३०२
- १२०
सिक्खाप्पहानगम्भीरभावं - २६
सिखा - ११०
सिद्धिदस्सनं - ३९
सिद्धो- १५,९६, १३८, १४३, १५२, २३३, ३१४ सिप्पियोति - २४० सीलकथाति - १६
[३९]
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________________
[४०]
दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गटीका
[स-स]
सीलक्खन्धपुब्बङ्गमो-८ सीलक्खन्धो-१७०,३४२ सीलझानद्वयेन-८३ सीलदिट्ठादीनं-१४ सीलन्ति-६९, १७९, २१४, २४९, २७०, २८३ सीलपञआकथावण्णना-२८२ सीलपजाणन्ति-२८३ सीलपारमिता-६३ सीलपारमियो-८३ सीलपारिसुद्धिं-६९ सोलमत्तकन्ति-५६, १७२ सीलमयन्ति-१३ सीलवतो-५६,६८, ६९ सीलवा-६८,६९, २७९, २८२, ३३३ सीलवित्थारकथा-१६ सीलविसुद्धि-१६७ सीलविसोधने -३१९ सीलसमाधिपाक्खन्धा-११ सीलसमाधिपावसेनाति-२५५ सीलसमाधिविपस्सनातिआदि-२१० सीलसम्पदा-६९,७१, २९६,३१५ सीलसम्पन्नो-२४९ सीलसंवरो-७४,३१२ सीलादिचतुक्कं-७५ सीलादिधम्मा-७३ सीलानीति-६८ सीलेनधोताति-२८३ सीसविरेचनं-११६ सीहकुमारो-१५ सीहनादन्ति-३१२ सीहट्ठकथायं-४७ सीहळदीपवासीनं-१५ सीहळभासं-१५ सीहळो-१५ सीहोति-३१७ सुकुमाराति-१०७
सुक्कपक्खन्ति-१९५ सुक्खविपस्सकखीणासवपरियन्तानं-२१ सुखन्ति-१८२, २१७, २३४, २३७, ३३६ सुखविपाकाति-१९५ सुखविहारोति-३३६ सुखवेदनाय-२२९ सुखसीलो-७८ सुखुमसचा-३२५ सुखुमाति-३२५ सुगतियन्ति-२७५ सुगतोति-३२३ सुगम्भीराति-१२२ सुचिभूतेनाति-१०३ सुजन्ति-२८२ सुजातोति-२७८ सुञतापकासनं-११७ सुचन्ति-१३७,२२६ सुञभावन्ति-१०६ सुञागारन्ति-३१६ सुतकवि-११५ सुतमयजाणं-३३० सुतवोहारो-३८ सुत्वाति-२९७ सुत्तगुळेति-१९९ सुत्तङ्गसङ्गहो-२९, ३० सुत्तदेसनाति-५२ सुत्तनिक्खेपो-५१, ५२ सुत्तन्ति-१४,२५,३० सुत्तसन्धि- १७२ सुत्ताणाति-२५ सुद्धकोसेय्यन्ति-११३ सुद्धपरियायो-३४३ सुद्धविपस्सना-३३६ सुद्धस्साति-१८७ सुधम्मतन्ति-२४७ सुनिपुणविनिच्छया-१५
40
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________________
सद्दानुक्कमणिका
[४१]]
सुन्दरन्ति-१४६,२५७ सुपरिसुद्धो-३१२ सुप्पटिविद्धाति-४० सुप्पतिट्ठितभावोति-२७६ सुभन्ति-१८२, ३४८ सुभोति - २३५, ३४१ सुरापातिन्ति-३२३ सुवण्णसत्थकेनाति-१८५ सुविहतन्तरायोति-१३ सूचेतीति-२५ सूरन्ति-१९२ सूरभावन्ति-२६१ सूरियरस्मिं-२०० सूरोति-२८८ सेक्खासेक्खधम्मे-१२ सेक्खोति-२१ सेट्ठनादो-३१८ सेट्ठन्ति-४३, ३००, ३२६, ३२९ सेट्ठाचरियाति-२१२ सेतम्हि-९१ सेनासनन्ति-२२७ सेनियो-२७७ सेलन्ति-२२७ सेवनाचित्तं-१०४ सोतब्बाति-३५७ सोतापत्तिफलसच्छिकिरियाय-३०१ सोतापत्तिमग्गआणेनाति-३४९ सोतापत्तिमग्गेन-५ सोतापन्नो-२०७, २४८ सोतिन्द्रियविखेपवारणं-२०६ सोतुकामोति-१८९ सोस्थिभावोति-६६ सोधनहारवण्णना-१७९ सोभनकरन्ति-११३ सोमनस्सन्ति-५५,१३३ सोमनस्सुम्पत्तियं-१३३
सोळसपरिक्खारन्ति-२८५ संकिलेसधम्मा -३१५,३५८ संयतचित्तो-२०३ संयोगाभिनिवेसन्ति-९३ संयोजनानं-२०७ संवच्छरोति-१८८ संवरन्ति-३१० संवरासंवरकथा-२६ संवेगन्ति-१३९,१९२ संवेगुप्पत्तिं-४६ संसन्दित्वाति-२७०,२७३, ३२० संसरन्तोति-२१५ संसारतो-१०,११४, १६२ संसारदुक्खतो-७१ संसारदुक्खवूपसमं-१५६ संसारमहोघतो-७,७१ संसारोघन्ति-१८९ संसुद्धगहणिकोति-२७८ संहताति-२७७ संहतोति-२४५ स्वाक्खातधम्मोति-२१२ स्वागतवादीति-२८१ स्नेहपरेताति-२३३ स्नेहानुगताति-२३३
हतत्ताति-१९१ हत्थकुक्कुच्चन्ति-१९३ हत्थतलं-८० हत्थदानं-७६ हत्थमुद्दा-११५,१९४ हत्थाचरिया-१९४ हत्थिअस्सरतनानं - २६० हत्थिघटाति-१९२ हस्थिरतनं-२५९
Page #427
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________________
[४२]
हत्थिसारिपुत्तोति – ३२० हृदयन्ति - ११० हृदयवत्थु - १०२
हृदयवत्थुनिस्सयं - १०२ हृदयसीतलभावहेतूति - ३
हृदयं - ३, १८८
हम्मियं - २२६, २२७
हरतीति - १८५, २१६
हलिद्दिरागादयो - १०५ हितचरिया - ६५, ८२ हितन्ति - २९१ हितसुखानुचिन्तनं - ८२ हितानुकम्पी - ३१३, ३५१ हिनोति - १२३
हिरिओत्तप्पं - १८०
हिरोत्तप्पसम्पत्ति - १६७
हिंसादिपापधम्मं - २९५
हीनकल्याणभेदेन - ४९
हीनमज्झपञ्ञ - १३० हेमिसेक्खाणं- १२० हेतुनाति - ३१९ हेतुपच्चयादिभावो - १६ हेतुमूलके - १२२ हेतुलक्खणन्ति - ९४
हेतूति - १७०, १८०, २७८, ३०० होमं - ११५ हंसनं - ३३
दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गटीका
42
[ह-ह]
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________________
गाथानुक्कमणिका
चित्तीकतं महग्घञ्च-१३
अच्ची यथा वातवेगेन खित्ता-१७४ अनेकभेदासुपि लोकधातुसु-९८ अनेकसाखञ्च सहस्समण्डलं-९१ अरछे रुक्खमूले वा-२ असङ्ख्येय्यानि नामानि-५९, ३५७
ठपिता येन मरियादा-२६६
आप
आदिच्चकुलसम्भूतो-२६६
इमे धम्मे सम्मसतो-१६५
तथञ्चधातायतनादिलक्खणं- ९७ तथानि सच्चानि समन्तचक्खुना - ९७ तस्स पुत्तो मघदेवो - २६७ तस्स पुत्तो महातेजो-२६६ तस्स पुत्तो महावीरो-२६६ तस्स सूनु महातेजो-२६६ तस्सासि कल्याणगुणो-२६६ तिकञ्च पट्ठानवरं दुकुत्तमं - १२२ तिकञ्च...पे०...-१२२ तेसं पच्छिमको राजा-२६७
एकायनं जातिखयन्तदस्सी-३१३ एवं सब्बङ्गसम्पन्ना-८९
कप्पकसाये कलियुगे-४४
दानं सीलञ्च नेक्खम्म-६१
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________________
दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गटीका
[न-स]
सब्बदा सब्बसत्तानं -८८ सस्सतुच्छेददिट्टि च-२६ सुत्तन्ति सामञविधि-३०
नेलङ्गो सेतपच्छादो - १०७
पहाय कामादिमले यथा गता- ९७
बुद्धोति कित्तयन्तस्स-२ बुद्धोपि बुद्धस्स भणेय्य वण्णं-८, ४६
महाकारुणिको सत्था-८८
यतो च धम्मं तथमेव भासति-९८ यतो यतो सम्मसति-२३६, २९६ यथाभिनीहारमतो यथारुचि-९८ यसस्सिनं तेजस्सिनं-२६६ येन देवूपपत्यस्स-६ यो चक्खुभूतो लोकस्स-२६६ यो निन्दियं पसंसति-४६
वरो नाम महातेजो-२६६ विरत्तो सब्बधम्मेसु-८८
सच्चो चागी उपसन्तो-८८
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________________
पालि टेक्स्ट सोसायटी पृष्ठ संख्या
१
२
३
૪
६
७
८
९
१०
११
१२
१३
१४
१५
१६
१७
१८
१९
२०
२१
२२
२३
२४
संदर्भ-सूची
पालि टेक्स्ट सोसायटी (लंदन) - १९७०
संवण्णणारम्भे
ये भिक्खवे
पालि टेक्स्ट सोसायटी
प्रथम वाक्यांश
कम्पनं हृदयक्खेदं
ईसकम्पि
अथवा भगवत
समासपदे
कायगमनं
तंतंगतिसंवत्तनकानं
रूपकायसम्पदा
सब्बलोकियगुणसम्पत्ति सब्बेसञ्च बुद्धगुणानं
उपगतो ति
थोमेमि वा
एत्थ च भावेत्वा
मारसेनमथनानन्ति
गुणमारणे
मारसेनमथनानन्ति
चित्तीकतभावादयो अग्गसावकादयो
यसत्रादीहि महाविहारवासीनं रूपारूपावचरज्झानानि वग्गसुत्तन्तवसेन विभागं यस्सा पठममहासङ्गीतियं
45
वि. वि. वि.
पृष्ठ संख्या
१
२
३
३
४
५
५
७
७
८
९
१०
१०
११
१२
१२
x x x x 2 a 2 a
१३
१४
१५
१५
१६
१८
वि. वि. वि.
पंक्ति संख्या
१
३
२१
११
३
२०
१३
~ 6
२४
१७
११
x or x x x 2 a a z w
२१
१४
२४
१७
१०
२२
१६
१
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________________
[४६]
दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गटीका
विनेय्या भगवता भिक्खूनं उस्साह नवानुपुब्बविहारछळभिवाप्पभेदे ति दट्ठब्बं पठमं आवुसो किलेसानं अहञ्च तण्हानं अत्तत्थपरत्यादिभेदेति निद्धारेत्वा आपेतब्बो अभिकन्तेनाति एत्थ उपारम्भनिस्सरणधम्मकोसरक्खणहेतुपरियापुणनं अत्यदेसनापटिवेधाधारभावोयुत्तो अविज्जासङ्घारादिधम्मो तदत्थप्पकासको सद्दो यन्ति यं धम्मचिन्तन्ति विसेसविधयो परे सुत्तङ्गसङ्गहो न एवं पठममहासङ्गीतिं अत्थुद्धारक्कमेन एत्थ पुष्फरासिट्ठानियतो दुक्खाय संवत्तनाकारो भगवतो वेनेय्यगता एवं वुत्ताय तेनेवाह परमत्थतो सब्बस्सापि एव वा फलभूतेन आदि पुरिमपच्छिमभावो अनुसन्धियो अत्तनि अट्ठपेन्तो एव च समयो समिति सङ्गति परमत्थतो अविज्जमानो भगवा विहरति
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संदर्भ-सूची
[४७]]
वचनतोधम्मस्स एव उदाहरितब्बा आदिसु विय तथा उत्तरिमनुस्सधम्म बुद्धादीनं भगवतो तं मग्गं वदन्ति तेसं असाधारणबाणविसेसवसेन हकारो निपातमत्तं आदि देसना चिरट्ठितिका होति आणकरुणापरिग्गहितसब्बकिरियस्स अट्ठप्पत्तिया अज्झासयपुच्छानं आदिसु उपमाने आदिसु । इधापि अन्तरायो ति इदं न सब्बञ्जू ति तुम्हंयेवस्स तं कथावत्थुप्पकरणं तदेकदेसस्सेव अभिसम...पे०... मूले उदकं । अङ्गुलन्तरिकाहि द्वत्तिंसदोणगहणप्पमाणं एत्थ जायतीति येन अभिनीहारेनाति दानसीलादिगुणविसेसयोगेन कति नु खो भन्ते अपरो नयो परहितकिरियारम्भे एत्थ अविसेसेन संवेगपदट्ठानं आदीना पवत्तो तथाउस्साहउम्मग्गावत्थानहितचरिया एते हि एवायं अनुग्गहो ति
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गटीका
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अतिसङ्गप्पवत्ति साधूनं अलङ्कारविसेसो अभिजनसापतेय्याधिपतेय्यायुरूपट्ठानबन्धुमित्तसम्पत्तीनं सुखविसेसाधिट्टानभावतो उपकारकरणसमत्थता पि सोमनस्सजाता पजापारिसुद्धियं समधिगन्तुं,किमेत्थ यदि पनस्स खमन्ति बुद्धधम्मा धम्मसंविभागसहाया समादानाधिट्ठानपारिपूरिनिष्फत्तियो आरम्मणेसु सीलं। किलेसदासव्यविमोचनत्थं सम्मासम्बोधिया परिच्चागसीलो बोधिं समयन्तरेसु अनुभवितब्बा मिच्छाविकप्पो तथा सम्मासम्बोधिया विरवन्ते उक्कामुखे तत्थ च अचलता दस पारमियो जीवितपरिच्चागो दानखन्तियुगलेन . उपसमाधिट्ठानं अविसंवादनतो तिक्खत्तुं सीहनादं सब्बसङ्घारूपसमेन सब्बो पि हि परिपूरिताभिबुद्धं अभिनीहारक्खणे सतो सम्पजानो सुदुक्करभावदस्सनत्थञ्च वक्खतीति । यथा
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उप्पज्जनकविसेसा आणपरिआय पटिनिस्सज्जनाकारेन पवत्ता अपेक्खित्वा वुत्तं आदि । फरणं छन्दस्सति तथाधम्मा नाम द्विपञासाय तिरियं विय तथानि सच्चानि अतुलितन्ति : एत्तकमेतन्ति महाभूतेसु नापि विकोपनीयो अनुरूपफलुप्पादननियतेसु समादिन्नविरतिका पि हि चक्खुविवाणादीनि सच्चमेतं । अयं पन अञ्जतरकोट्ठासभावतो महासावज्जा ति विसंवादितब्बत्थवाचकत्तसम्भवतो हलिदिरागादयो पेसुधे चेतना बलवती कथन्ति आह अत्यवित्थारसङ्गाहिकाय याव मज्झन्तिका अस्थरणन्ति तिलादीनं नाळिअदीहि विभजनवसेन रूपारूपन्ति पि । योजनमत्तमेवाति पदानीति सारिआदीनं सुद्धकोसेय्यन्ति कुम्भट्ठानापदेसे अङ्गसम्पत्तिविपत्तिदस्सनमत्तेन अङ्गुलिसङ्कोचनेनेव
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आदिच्चपरिचरिया
मूलानि पधानानि
दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गटीका
वेदककारकसभावभावदस्सनमुखेन
चत्तारो पाराजिका
अपरो नयो
वदमाना ति एत्थ
को वा एवमाह सब्बधम्मवबोधतो
सनिस्सयानं
ठानविसेसो कामावचर
पच्चयानुलो
वचनतो द्वादसप्पच्चया
सम्बन्धानं
कोट्ठासेति
येन स्वाहं
अधिकन्हि
खन्धं अत्ता
उप्पादवन्तता
ते च सत्ता
पक्खन्दनेन दिट्ठिगतिको
अनुविचरितन्ति भजेय्याति न खो अञ्ञतरभेदसङ्गहवसेनेव सामञ्ञलक्खणावबोधो
च । सञ्ञापि
उस्सावबिन्दु वि
वचनं न
भूमिदरसनत्थं
अभावट्ठेन
एकच्चसस्सतिका
मकुटभावो असस्सतभावावबोधो विसेसलाभी
तत्थ बाहिरपच्चयेहि
कम्मपच्चयो सो व च वसेन
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कम्पनन्ति आह उप्पत्तिमत्तपटिबद्धन सत्तनिम्मानेन भिक्खवे विज्जति मनेनाति यस्मा पन वादीनं अन्तञ्च अन्तताअन्ततातदुभयविनिम्मुत्तो आदिना अस्थतो एवं पि मे नो पण्डितो ति सस्सतदस्सनवसेन दिद्विगतिकता युत्ता च इममत्थं चतुत्थज्झानाधिगमाय अरूपविरागभावनापरिकम्म अन्तरंधायतीति गहेतब्बो ति वा सन्निट्ठानतो अरोगो परम मरणाति सङ्खारवसेससुखुमभावप्पत्तधम्मा अन्तनन्तिकवादे इध अचाय सजाय विसेसेन नासो विनेय्यज्झासयानुरूपं भगवता वुत्तसत्तकतो दिट्ठधम्मो ति अदुक्खमअसुखेन तस्स उभयभागो आदि वचनतो च एवं पकारा तेसं वसेन इमस्मिम्पि सुत्ते यदेतं सस्सतो अज्झत्तिकायतनेहि च वुच्चति तण्हा तण्हा व
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उपपत्तिभवकारणकम्मभवकारणभावतो कारणा आसवपच्चया ति दससहस्सी लोकधातूति अत्थचरताय सकमना आवहकिरियानुभावघट्टिता पिण्डत्था पन विक्खम्भनसमुच्छेदप्पहानं छसाराणीयधम्मविभावना आघातादीनं संवत्ततीति युज्जति सुपतिहितचित्तो आयतनाम अविज्जादीनं पि इमाय देसनाय आदिकाय देसनाय तयिदं सङ्कतं ये हि केचि आदिपज्ञापनस्स फलं । तेसं तण्हा अनेकविहितं दिविसस्सतादिवसेन आघातादीनं नयो । तथा अविसेसेन हेतु ति आदिवचनेहि कुसलमूलेहि आदिना वुत्तेन राजगहेति एत्थ सब्बनिमित्तानं कुमारेन भतो चेतियङ्गने पटि सद्दा बहुसो अतिसयतो तस्थ अब्भादयो पब्बजितसमूहसङ्घातो पुब्बे पितरा
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गब्मोक्कन्ति-अभिजाति इतिपेतं भूतं दुरूपसमभावदस्सनत्थं भीरुं पसंसन्तीति दस्सेतुं तग्घाति एकंसेन इस्सासाधनुसिप्पस्स चुण्णविलेपनादीहि मग्गो सामवं सयं करोन्तस्साति वदन्ति अत्तकारो ति पे०...वदतीति मनोकम्म अत्तनो वा पण्डितो पि याथावतो दत्तूहि बालमनुस्सेहि निज्झानक्खन्तिया दिन्ने इतरा अकटविधा न हन्तब्बता अमराविक्खेपे देति, ततो सप्पायन्तिपथयं अत्थो । सम्पटिच्छने चतुपारिसुद्धिसीलादिको । तेन वुत्तत्ता ब्रह्मायुपोक्खरसातिआदिब्राह्मणा एव नयो उक्कट्ठपरिच्छेदतो यथापराधादिसासितब्बभावेन किरातभासा यदत्थं देसितं पब्बजितानम्पि सङ्घलिखितन्ति
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कतमञ्च अविप्पटिसारादिनिमित्तं पटिक्कमनं दगुब्बो उग्गहेत्वा कम्मजतेजो ति मद्दन्ताति तस्मातिह ते दस्सेन्तो रूपधम्मानम्पि अञ्चं उप्पज्जते अत्तनो कम्मट्ठानवसेनेव सामग्गियं करोन्तो हरति आहारो निचितो सब्बम्पि होतीति एवं पन कप्पिये पच्चये इच्छतासन्तुट्ठीसु असञ्जातवाताभिघातेहि अभिसङ्खरणाभावतो सयनस्स वनपत्यन्ति समानत्थो ति या तस्मिं समये चित्तस्स छिन्दन्तो ति उपमोपमेयसम्बन्धो नयो व्यापादादिप्पहानकथाय सप्पायकथा ति चित्तं समाधियतीति अप्फुटं नाम धारानिपातबुब्बुलकेहीति पनेत्थ उपेक्खा अभिनीहरतीति तेनाह विष्पसन्नो ति यतो यतो पुब्बेनिवासत्राणउपमायन्ति
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द्वी भवेसूति
खगहन
विमुच्चतीति
च नेसं
पब्बतसङ्क्षेपो
कूटं विय
अच्छरे
रागपरिळाहादिवूपसमनेन मिच्छादिट्ठि परमाहं
गच्छामीति पदस्स
एजासङ्घाताय तण्हाय
विसयपभेदफलसङ्किलेसभेदानं
सत्तानं भयं
अविसेसेन वा
उप्पादस्स
च तेहि तप्परायनाकारस्स
तं । दिट्ठविप्पयुत्तचित्तेन
चतुरासीतिया न होती ति
कत्वा वा
गुणसोभाकित्तिसद्दसुगन्धताय
देसनं पन
अथ चेकबुद्ध
अपुब्बपदवण्णनाति
गमनन्ति
लोकधा
ति आदि वृत्तं
लभीति
दायकराजा
आरम्मणभूतेन ...पे०... अरहतन्ति ठानकरणादिविभागतो
पणिधि... पे०... महतो
कोधादीति
पभावसम्पत्तिसिद्धितो
तेन हि
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सम्मासम्बुद्धस्स
अयानभूमिति सभावनिरुत्तिभावेन कथापलासन्ति
पमाणं यथावतो
घट्टेन्तो
बन्धितुति
पसीदिस्सति । न दासी
तस्सासि
नप्पय्याति
सहधम्मो
दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गटीका
एवं लद्धनामं
केवलं सद्धाय
अज्झेनज्झापनयजनयाजनादयो
तिदण्डतिघटिकादिं
खलादिसु
अपरिपूरमान
आदिवसेन
मनुस्सूपचारं सण्ठानसन्निवेससुन्दरताय
उपनेत्व उपनेत्वा पणीतपणीततरादिभेदभिन्ना
परियोगाळ्हधम्मो ति
सुन्दरभावेन
तेसं तायनतो
यथाभूतस्स तस्स । वदन्ति
अत्थो एतेनाति
जातिमहल्लकताय
कत्थचिकत्थचि
एहि सागतवादीति
अलंसद्दो
अथापि सिया ति
विपस्सन्तेन
कोहन परे
इतो परन्ति... पुरिमसुत्तद्वये ति
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निवारणतो एवं सारगब्भं जनपदानं सकम्मपसुता बुड्काले समितपापा दळिद्दो अप्पेसक्खो उळारेसु भोगेसु एकपुत्तकं आदियति, चित्ते तज्जिता ति एतस्साति किञ्चि अलद्धा सीतुण्हअब्माहते दस्सेतुं ते वक्खमाननयेन च दिहिउजुकरणं पतिट्ठायाति निब्बत्तेन्तस्स पुनप्पुन तासं वसेन यं यं ओरं आगतनयेन बहिरा एता चित्तं पञञ्च मिच्छाकम्मन्तप्पहानेन विरतियोपि अरियमग्गो अपकारधम्मा घोसितसेट्ठिना उपोसथिकत्ता कम्म आदिनयप्पवत्तं खो ति आदि यस्मिं रटे परेहीति ये ते ति इमे द्वे सन्धायाति
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तादिसो वाति साधु, तदग्गेन साधिते तं सम्मदेव रूपप्पमाणा अवठ्ठानदस्सनत्थं सब्बेसु च एकागारं एव न थुसोदकं आदिसु विय अप्पत्तं अनञसाधारणताय ति इमासु अट्ठसु पुच्छितक्खणे येव सम्भवतो | तथा दिरत्ततिरत्तं सहसेय्यन्ति निट्ठापेतुन्ति सावत्थियन्ति उपपरिक्खन्तो ति उपसङ्कमेय्यन्ति एतस्मिं अन्तरे का भवितब्बं, एत्तकं पयोजत्वा ति घरमज्झे येव सम्मादिट्ठिसम्मासङ्कप्पवसेन असमुप्पन्नकामचारो पन तंतंसंञानं वुत्तनयेन वेदितब्बो सालयस्सेव होति भिक्खु द्वीहि सजा अग्गा पठमनये | दुतियनये सारम्भकक्कसादिमलविसोधनतो पच्चागच्छन्तस्स, जानतो दुन्निवारो, तथेव परमत्यचिन्तनादि पच्चक्खकरणं एव सुखुमआणगोचरेसु
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________________ संदर्भ-सूची [59] 493 494 495 496 497 498 लोकथूपिकादिवसेनाति एत्थ अप्पाटिहीरकतन्ति लद्धासेवना उपरि फलसमापत्ति कथिता तेनाकारेन भूतुपादायसञ्जितं 334 335 335 336 337 337 wM 2m rm >> 499 वुच्चति, न 338 500 501 502 503 504 505 506 507 340 340 341 342 343 344 344 345 346 29 >> M945 508 346 सम्मुति पि सच्चसभावा अचिरपरिनिब्बुते तथेव वत्वा ति किच्छसिद्धिकं / तिण्णन्ति अयं अभिञा पन पावारिकम्बवने उत्तरिमनुस्सानं अत्थो / केन दुट्ठलोहितविमोचनस्स अनिय्यानिकभावदस्सनत्थन्ति ति एत्थ वसवत्तनं रूपगहणमुखेन निदस्सनं वा सालवतिका ति हि ईदिसेसु ठानेसु अनुद्देसिकेनेव ओसक्कनादिमुखेन उत्तरेनाति एत्थ निय्यानभावो, एस किराति आदि नामकं येवाति एसेव नयो, तत्यापि आवरन्तीति महापर्क ओतिण्णा नाम होतीति फरणप्पमाणवसेन 509 510 511 512 513 514 515 516 517 518 347 348 349 350 ~ ~ 351 351 352 ~ 519 354 354 355 356 357 520 521 522 523 524 525 358 ~ 358 359 526 360 ~
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________________ May the merits and virtues earned by the donors and selfless workers of Vipassana Research Institute, Igatpuri be shared by all beings. May all those who come in contact with the Buddha Dhamma through this meritorious deed put the Dhamma into practice and attain the best fruits of the Dhamma.
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________________ DEDICATION OF MERIT 147)***4%DNFM**$*>> *** G******* May the merit and virtue accrued from this work adorn the Buddha's Pure Land, repay the four great kindnesses above, and relieve the suffering of those on the three paths below. May those who see or hear of these efforts generate Bodhi-mind, spend their lives devoted to the Buddha Dharma, and finally be reborn together in the Land of Ultimate Bliss. Homage to Amita Buddha! NAMO AMITABHA Printed and Donated for free distribution by The Corporate Body of the Buddha Educational Foundation 11th Floor, 55 Hang Chow South Road Sec 1, Taipei, Taiwan R.O.C. Tel: 886-2-23951198 , Fax: 886-2-23913415 Email: overseas@budaedu.org.tw Printed in Taiwan 1998, 1200 copies IN046-2007
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________________ a ರ್C ಡಿ ವಿಡಿಯೋ ಗಣನಾಡಿನ ಕಾಳಪ್ಪ Lax, ಮರಿಸ್ ವರರು ತಾದಿ. ಅವರ ರ್ಪಭಾವಿ sಂಸ ಸ ದ ಮಾಜಿ ಮಹಾರ, , 3 ಅಡಿ ಅದರ 1995, A ss ? ESS - - -