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, श्री वीतरागाय नमः
ॐ
श्री १००८ वासपूज्य पंचकल्याणक प्रतिष्ठा के शुभ महोत्सव पर
कविवेधा तार्किकचूड़ामणि श्रीमत्समंतभद्राचार्य विरचित रत्नकरण्ड श्रावकाचार की भाषाटीका
रत्नत्रय - चन्द्रिका प्रथम भाग
प्रेरणा
परम् पूज्यं उपसर्ग विजेता ऋषि रत्न धर्मकेशरी दिगम्बर जैनाचार्य श्री १०८ दर्शन सागर जी महाराज'
टीकाकार
अनगारधर्मामृत, न्यायवीपिका गोम्मटसार जीवकांड दि विविध ग्रन्थों के हिंदी भाभा अनुवादक पद्मावतीपुरवाल- जति भूषण
धर्म दियाकर स्थाद्धावयाच्स्पति विद्यावारिधि आदि अनेक उपाधि विभूषित वेरनी (एटा) निवासी इन्दौर ( म०प्र०) प्रवासी
पं० खूबचन्द जी शास्त्री
प्रकाशक
श्री विगम्बर जैन समाज, गांधी नगर, बिल्ली ३१
बसन्त पंचमी वि० नि० स० २५१५ (द्वितीय वृति १००० प्रति
मूल्य - सवाध्या
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सम्यग्दर्शन-स्तोत्रम् ( स्याहार गाचस्पति, गिद्यावारिधि परिडत खूब पम्पूजी जैन ) विर्य पुण्यात् स वो धर्मो जगदमृतवर्षणः । सेत्स्यत् मिद्धयत्-प्रसिद्धात्मज्योतिरानन्दनिर्भरः॥१॥ 4 समाराध्य संसिवाः सिद्धयन्त्याला जिनेश्वराः । सेत्स्यन्ति साधयो नूनं जगदुद्धरणे धमम् ॥२॥ पेनास्माऽसंकतो भाम्बान् न स्यादिमिग्गोचरः । भवेत्तापत्रयोन्मुक्तम्तथा दुर्गतिद्ग्गः ॥ ३॥ रोषते भव्यता यस्मै विशुद्धिर्देशना मती । करणापेक्षिणी साचात् क्षयोपशमपूर्वजा ॥ ४i यस्मादभ्युदयाः पुंसां महदाश्चर्यकारिणः । निःश्रेयसफलाः सर्वे फलन्ति सरसा: शुमाः ॥५॥ यस्य पादप्रसादेन शकारचक्रधरास्तथा। जातास्तार्थकृतोऽस्याहो वाछिताप्रसाधकाः ॥६॥ यस्मिन्नुदीयमानेऽन्तः शकरः कुकुरः कषिः । दीनो हीनोऽपि चाण्डालो जारते दिरिओवरः ॥७ स वं श्रीमान् गुणाधीश सावं सम्यक्त्व शंकर! । समुद्धर भवाम्भोधी पखटः सीदतो अनार
समितिकम् त्वमेव जगतां बन्युः सर्वापत्तिनिवारणः । माथिव्याधिहरो वाल-वैधः सद्यः सुखमयः ।। स्वमेव जगतत्राता शान्तिदः करुणार्णवः । परमं शरणं नणा मालं जगदुःखमम् ॥१०॥ मोषमार्गप्रणेता त्वं वनी कर्माद्रिभेदने । बन्योऽनिन्धो मुनीनां तु गेयी ध्येयो महात्मनाम् ॥११॥ शब-सद्भी (संवेग) दयास्तिक्य-चतूरलाकरावधेः । त्वं शुद्रात्मभुषः पाता सझानवतसायना १२ अहो धर्म ! बगनाथ परान्मन् परमेश्वर ! श्रेयोनिधे महानग! पवित्र मुणसागर ॥ १३ ॥ . . जन्ममृन्युजरासर्प-प्रयीदष्टमरं नरम् । तापक्षागपाण स्त्वं, निषिीपुरुष कणाद ॥१४॥ वाम। श्रेणिका व्रतहीनोऽपि, स्वत्प्रसादेन केवलम् । श्वाश्री स्थितिमाकृष्य भावित पैश्वोऽमरद ॥१॥ महं दुखत्रयोदग्यो, मत्वा दुःखमय जगत् । अवगाहे शरण्यं स्वा- गनन्तं शांतिसागरम् ॥१६॥ स्वायतरा गया: सर्वे मता मान्योषिोपमाः। त्वांत एवं समामाघ, भवन्त्यश्ववार्धयः॥१७॥
स्वदुपकारसहस्रकृयामनुपरद्धिरित्र प्रथितजिनः । ___ अखिलधर्मपदेषु महत्स्वपि प्रथम एव भवान् समुदीरितः ॥ १८ ॥ तपोऽमृतैरिगणः मुसिक्ता स्वया विना सा ननु बीजरिता।
समाधरित्री सुकृतस्य धात्री भवेन्न निर्वाणतरोः सवित्री ॥१६॥ स्वयं महान का महतां सुमान्यस्त्वामन्तरा म देवधर्म एषः।
. भवेश भेचा विधिपर्वताना, वर्ण विना शक्र इवाद्वितीयः ॥२०॥ अपूर्वकन्पद्रुमसभिभं स्या -मनाश्रयन्ती प्रथिता विशाला।
कई नु वा स्याएजुवालतेय-मनन्तवीर्यप्रदसरफलान्सा ॥ २१ ॥ --"जन्ममृत्युजरापहा" इति च पाठान्तरम् । २-"प्रथममेव" इति वा ! प्रथम पूर्वमादी, प्रथम भायो मुख्या, भवानेष उक्त इत्पर्यः।
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शुचिर्भराव यतो भवन्ति गुखाः पवित्रा गतपकमाणाः।
रजोविहीना गणिनामहीनाः प्रसिद्धसंस्नातकमावभाजः ॥२२॥ सत्ये प्रविधि तो धर्म इति लौकिकयामतम् ।
सवै धर्मो भवान् यत्र मत्यसब प्रतिटने ॥ २३॥ वाप्पेर वाक् शास्ति नु सस्पनत्वं, न स्वय्यथो शस्ति हि सत्यतनम् ।
मुले मो धर्मकथा कथं स्थाद, केनायित वार शिखिनि अणटे ।। २५॥ संयम्य पाबाशि दयाचिता नो निता भो पद को ऽ हेतुः ।।
भा३ इष्टमार्गस्य हि सभियन्ता क्षिप्तम्त्वया नैव पाकटायः॥२५॥ सीबोम्मी बपुरवचेतोयोनिरोधे स्थिरतामुपैति ।
स्वच्छुचीर्यानुगतः प्रकृत्या, शकः स एवात्र यया सुवर्गः ।। २६ ॥ इनको बाजपिपंश्चेन्चममाघरमालिकाम् ।
अस्थमपन् वा कथं दृष्टकमायग्रहदुःस्थितीः ॥ २७॥ भकिम्चनस्वं परमो विवेको, निजस्वरूपे यदि वा स्थिरत्वम् ।
मिथ्याशः कमलविवारसंभवं तुस्यमयतस्तत् ॥ २८ ।। पुनपसर्व विषयविरमणं, निजपदशरणं परपरिहरणम् ।
अथ च विवसन पदमनुभवनं श्रुतमनुमननं मवभयहरणम् ॥२६॥ इत्यादि सापयते विवेकी त्वत्साधिपदाभिलाषी ! रोबेश्यमभ्यास्प भवत्ययोगी,मोऽन्ते व सिद्धी भ्र वशंप्रसिद्धः ॥३.upeef इति तब महिमान को न शक्नोति नक्तुम् ।
सुरगुलपि यत्राशकां वै व्यक्ति बिरपति यदि जिला मामकीनामृतम् । कि
मपरमभिदध्मो विठ मेऽन्तः सदैव ॥ ३१ ॥ मो मोहतमीचन्न, त्वदीयाः सकला कक्षा
बन्दे स्त्रीमि नमस्कर्वे, भूयो भूगो पले बजे ॥३१॥
१-अपो स्वपिन सति हि-निश्चयेन प्रतवं शास्ति वागिति शेषः। 1-पपयें।ा भावम, इस्पर्थः ।
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श्राद्य निवेदन
14 नकर पडभावका बार " दि० जैन समाजका सुप्रसिद्ध एवं अपने विषयका अन्त महान प्रन्थराज है । इसके रचयिता भगवान् समन्तभद्रस्वामी हैं । यह श्रावकाचार उपासकाध्ययन नामसे भी प्रसिद्ध है । इसका मुख्य विषय एकदेश मोक्षमार्ग-रत्नत्रय धर्म का वर्णन करना है । आगम में श्रावक पद प्रायः नैष्ठिक भावक के लिये ही प्रयुक्त हुआ करता है। कोई भी संगमस्थान अथवा संयमासंयमस्थ न अन्तरंगमें सम्यदर्शन तथा सम्यग्ज्ञान के हुए बिना संवर निर्जंग एवं मोक्षत्व के साधनका कार्य करने में असमर्थ है। अत पव चाचाने नैष्टिकके प्रतिमारूप का वर्णन करनेसे पूर्व इन दो रत्नोंका-सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञानका भी सबसे पहले वर्णन करना उचित समझकर क्रमसे प्रथम दो अध्यायों से कीया हैं । इस प्रथम अध्यायमें सम्म ग्दर्शनके लक्षण, विषय, गुण, दोष और नैःश्रेयस तथा श्राभ्युदयिक फलका वर्णन है यद्यपि सम्यग्दर्शन विषय अत्यधिक महान है किन्तु श्रावकपद में प्रवेश करने के लिये उसका आवश्यक सार आचार्यने यहां पर ४१ पश्च में संगृहीत कीया है जबकि आगे द्वितीय अध्याय में सम्यग्ज्ञानके विशाल विषयका निर्देश इस अध्याय के प्रमाणसे आठवे भागसे भी कम केवल ४ पद्य में ही किया है। ऐसा मालुम होता है कि अन्यकर्ता भगवान् समन्तभद्र सम्यग्दर्शन (मम्यग्दृष्टि ) के दश मेत्रों मेंसे सूत्रदृष्टि अथवा बीज थे। वे वृक्ष के समान महान् अर्थको आगमके वर्णनको बीजरूपसे संक्षेप में सूचित करना अधिक पंसद करते थे। हमारी इस मान्यता की पुष्टि उनकी मीमांसासे हो सकती है जिसकी किं १२५ कारिकाओं में ३६३ य प्रायः सभी मूल अपसिद्धान्तोंका निराकरण किया गया है जैसा कि उसकी टीकाओं से स्पष्ट होसकता है। भगवान् समन्तभद्रकी सार्वभौम विद्वताको भगव जिनसेनाचार्यने यह मानते हुए भी कि—
pattrai माना च बादिनां वाग्मिनामपि । यशः समन्तभद्रीय मूर्ध्नि चूडामणीयते ॥ दो भागों में विभव कीया है। यथा-
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नमः समन्तभद्राय महने कविवेधसे । यद्वचोवपावेन,
निर्भिन्नः
"
कुमादयः ||
सालुम होता है इस विभागीकरणमें विषयकी तरफ मुख्य हांट रखकर साहित्यिक रचनाकी तरफ प्रधानउद्या लक्ष्य रखा गया है। इससे ऐसा मालुम होना है कि भगवजिनसेनाचार्य उनकी कृतियों में दो महान गुण अथवा कलापूर्ण योग्यताओं को देखते हैं. महान कवित्व और कठोर अथवा असाधारण तर्कपूर्णता । यह कहनेको आवश्यकता नहीं है कि
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अङ्गादंगात्प्रभवति, हृदयादपि जायते । आत्मा वै पुत्रनामासि स जीव शरदः शतम् ॥
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आशीर्वादात्मक आगमके इस वाक्य के अनुसार जिस प्रकार पिताके शारीरिक मुख आदिको आकृति और हार्दिक भावोंका अवतार पुत्रमें हुआ करता है उसी प्रकार कविकी कला एवं भावनाका प्रतिविम्ब उस की कृति हुआ करती है। भगवान समन्तभद्रके विषय में भी यही कहा जा पकता है ।
श्रावकाचार है। यह कोई बाध्य या प्रथमानुयोगका ऐसा कथाप्रन्थ नहीं है जिसमें कि साहित्यिक गुण दोष रीति रस अलंकारोंका प्रयोग किया जाय इसी प्रकार यह कोई दार्शनिक अथवा आयोगका भी ऐसा ग्रन्थ नहीं है जिसमें कि आक्षेत्रिणी अथवा विलेपणी कथाओंके अवसरपर बगायो प्रमाणन निक्षेपके आधार पर हेतुनाद एवं कर्कश तर्कगर्भित युक्तियों के सदर्भका निबन्ध आवश्यक हो । यह तो उपासकाध्ययन के एक अपूर्व आवश्यक भागका महत्वपूर्ण सार है। क्योंकि इस विषयका मूल उदगम स्थान सातवा अंग उपासकाध्ययन है। इसका अर्थ होता है“श्राहारादिदानैः पूजाविधानैश्च ये संघमुपासते ते उसका श्रावकाः अषीयन्ते बपर्यन्ते यस्मिन् वत् उपासकाध्ययनम्" ।
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अतः इसमें भावककी ग्यारह प्रतिमाओं के वर्णन के सिवाय उनके कर्तव्य दान पूजा आदि से सम्बन्धित याचरक क्रिया कापड तथा तद्विषयक मंत्रविधानादि का भी विस्तृत वर्णन किया गया है।
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यद्यपि हमारी इच्छा अभी प्रकाशित करनेकी नही थी परन्तु म० श्रीलालजी काव्यतीर्थंका कहना रहा कि जितना भी लिखा गया है उसे प्रकाशित कर दिया जाय। इसके सिवाय उक्त भाई सा० जब इन्दौर आये थे तब उन्होने मुझे लिखते हुए देखकर और कुछ पयोंका अर्थ सुनकर अत्यन्त हर्ष प्रकट किया और और देकर प्रेरणा की कि जैसा भी हो एकबार इसको प्रकाशित करादो। उनकी इच्छा थी और जैसा कि उन्होने कहा भी था कि are समय अधिक नहीं है और में इसके प्रकाशित अंशको देखना चाहता हूं। किंतु दुःख है कि इसके प्रकाशित होनेसे पूर्व ही उनका समय ( मनुष्य पर्याय ) समाप्त होगया | हमारी इसके छपते समय यह मी इच्छा थी कि कमसे कम एक बार हम इसका प्रूफ देख सकें किंतु वैसा नहीं etest | इसके संशोधन का कार्य श्री श्रीलालासा किया है। ए हम उनके अस्पन्त ने आभारी हैं। साथ ही उक संस्था - श्री शांतिसागर जैन सिद्धांतप्रकाशिनी संस्था श्री महाबीर के इम उसी प्रकार अत्यंत आभारी हैं जिसके कि द्वारा यह टीका प्रकाशित होरही है ।
हमारी यह कृति कहां तक उपयोगी है यह निर्णय तो पाठक महानुभाव एवं विद्वानों पर ही निर्भर है । विद्वानोंसे यह प्रार्थना अवश्य है कि यदि हमसे कहीं स्खलन होगया है तो केवल क्षमा प्रदान करने की अथवा पर उपेक्षा करने की अपेक्षा उसको सुधार लेने की कृपा करना अधिक श्रेस्कर होगा।
अंत में मम्मी गुजनों का आशीर्वाद चाहते हैं कि इस ग्रंथ को यथाशक्य जल्दी पूरा करने में हमको निर्विके साथ ही सामर्थ्य भी प्राप्त हो ।
देवश्चंद्रप्रभः पुरुषात् मद्रत्नत्रय मन्द्रिकाम् । सन्मति: उम्मति दद्यात् पार्श्वो विप्रहरोऽस्तु नः ॥
खूबचन्द चैन
परम पुज्य ऋषि रत्न, उपसर्ग विजेता धर्म केशरी आचार्य श्री 108 दर्शन सागर जी महाराज का शुभाशीम
रत्नत्रय चन्द्रिका नामक are rवकों के शानोपार्जन के लिए अत्यन्त उपयोगी सिद्ध होगा । इस अन्य में सभ्य दर्शन की विशद व्याख्या सार गर्मित है जो मिध्यात्व रूपी अन्धकार से सभ्यकत्व रूपी अन्धकार से सभ्यकत्य रूपी प्रकाश की ओर ले जाने वाली है । इस राज्य के प्रकाशन हेतु मेरी मंगल कामना है 1
बास ब्र- श्री 108 मुनि समता सागर जी शिवचन
यह रत्नत्रय चन्द्रिका नामक ग्रन्थ जिनमें समुद्रभद्र आचार्य ने श्लोक लिखे है । 4। श्लोकों की हिन्दी टीका की है जिसमे सम्यक दर्शन का वर्णन है । पं. बचव शास्त्री ने व्याकरण के अनुसार हिन्दी का विस्तार किया है। जिससे पादक को स्पष्टीकरण होने से चि पढ़ने की बढ़ती है और पाठक को शंका का समाधान हो जाता है। टीकाकर ने विषय वस्तु को स्तष्ट करने के लिये अन्य ग्रन्थों का भी उदाहरण दिया है। पंडित जी का स्वर्गवास होने के कारण इस ग्रन्थ की सभी स्टांकी की पूर्ण टीका नहीं हो सको ।
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न पूजा की सिलिके कारण बातों कर्म और उसके साषय, अल्प सापथ, मसापच मेदोका एवं कर्मायाँसे सम्बंधित चार आश्रम और चातुर्वण्य विशिष्टताका वर्णन भी इसमें रहे यह स्वाभाविक है क्योंकि पार आश्रमों की उत्पत्ति इसी अंगमें बताई है अत एच इस अंगका वर्गनीय विषय केवल ११ प्रतिभा ही नहीं है। यह स्पष्ट है।
इसके ग्यारह लाख सत्तर हजार पद हैं। इसमें भावक सम्बन्धी ग्यारह प्रतिमा रूप प्रोका जिस तरह बर्णन पाया जाता है इसाप्रकार आवश्यक क्रियाकाएड अभिषेक पूजा प्रतिष्ठा दान आदि छह आवश्यक कर्म और तत्सम्बन्धी मन्त्र मागका एवं चार आश्रम सम्बन्धी विषयोंका भी श्री महावीरभगवान् के अवरूप कथनका ६४ ऋद्धियोंसे युक्त श्रुतकेवली गणधरदेव द्वारा प्रन्थन किया गया है । यथा
ब्रमक्यं गृहस्थश्च वानप्रभ्यश्च भिक्षुकः ।
चत्वार आश्रमा फ्ते मप्तमांगाद विनिर्गताः ।। प्रकृत रत्नकरण्ड श्रावका वारमें वर्णित ग्यारह प्रतिभाओंके विषयका सम्बन्ध भी उपामकाध्ययनसे ही है। और शेष सम्पदर्शन सम्परझान सल्लेखना के विपक्का सम्बन्ध नायधर्मकथा (शासधर्मकथा) अंग जाननभादपूर्व प्रत्याख्यान पूर्व से है । किन्तु इसका आशय यह नहीं है कि भगवान् समन्त भद्रसे पहले इन विषयों का वर्णन अन्य आचार्यों ने किया हीनदा । आचार्य यर कुन उमास्थामा मादिफ बाहुड मोनशास्त्र आदिमें भी इन विषयों का संग्रह पाया जाता है। अत एव यह कहने को आवश्यता नहीं है कि ये सनातन सर्वशोक परस्परीणही है। समन्तभद स्वामाने भी प्राचार्य प.म्परा से चले बाये आगमके आधार पर ही तो यहा विषय निबद्ध किये हैं। फिर भी ग्रह सर्वथा सत्य है कि उन को यह रचना अत्यन्त महत्व रखती है। इसमें यद्यपि मुख्यतया भावरूप एकदेश रत्नत्रयका वर्णन ही प्रधान है। साथ ही इतना प्रौढ और विशाल अर्थक पारका गर्भित करता है कि इसकी पद्यरचना को कारिका ही कहा जासकता है। फिर भी इस में उनकी स्वाभाविक कवित्व शक्ति एव दार्शनिकता दृष्टगोचर हाए बिना नहीं रहती।
निःसन्देह आचार्य ने केवल १५० कारिकाओंमें अपने विवक्षित महान विषयको जिस तरह योजरूपमे संनित किया है इससे उनकी सूत्रष्टित्व अथवा बीजाष्टित्व के साथ साथ विशालभतसमुद्रके मन्थन करने वाली अलमम्पासका भी पारच्य प्राप्त हुए विनानहा रहता। इस रचनाकेदाग छ प्रकुन विषयको जीवित रखने का हा प्रयास नहीं किया हे प्रत्युन ऐवयुगीन पूर्ण रत्नश्यधर्मके यथावत् पातान करने में असमर्थ मुमुक्षुओं केलिये सामर्थ्य प्रदान करनेमाला कल्याणकारी मार्ग प्रस्तुत करके संसारदुखोंका उच्छेदन एज मोस साधना के लिये हस्ताबलम्बन देकर तीर्थ र भगवानके अनम्तर गणवर देव के समान कार्य किया है जिसके लिये मुम भब्य विद्वान अवश्य ही उनके चणी हैं।
इस ग्रन्थ की अभी तक अनकों टीकाएं लिखी गई हैं संस्कृन टीका तो एक प्रभाबन्द्र आचार्य की ही प्रसिद्ध है। अभी कुछ अफ पूर्व स्व० मिद्धान्तशास्त्री प- गौरीलालजी की निक्ति भी जैनसिद्धान्तप्रकाशिनी संस्थाके द्वारा कलकत्ता से प्रकाशित हुई थी । हिंदी टीकारें अनेक हैं। फिर भी कईवर्ष से हमारी भी भावना की कि इसक अभिप्राय को स्फुट करनेके लिये यथाशक्ति और यथामनि टीकाके हो रूपमें लिखना । परन्तु विचारों को कार्यान्वित होन में कई वर्ष अनेकों बाधाम के कारण निकल गये । अभी भी परे अन्य की टीका नहीं लिखी आसकी है केवल सम्यग्मशनका वर्णन करनेवाले पहले अपायका ही यह प्रथम भाग है। आगे के भाग का मी लिखना शलू किया है परन्तु वह कर पूरा होगा यह अभी हम निरिक्त नहीं कह सकते । फिर भी जहां तक शक्य होगा जल्दी पूरा करनेका प्रयल किया जायगा।
हमने अपनी इस टोकामें प्रत्येक कारिकाके सामान्य अर्थको लिखने के बाद प्रयोजन , शब्दों का सामान्य दि. शेष भर्थ, और तात्पर्ण इसतरह तीन भागों में अभप्राय फुट करनेका प्रयत्न किया है। अपने उपयोग कल्याणकारी विषयमें लगाये रखने को सदभावना से ही विना किसी की प्रेरणा के ही हमने यह प्रयास किया है। फिर भी इसके प्रकाशन के विषयमे हमारे बड़े भाई स्व. उट विद्वान पं० मशीधरजी संसापुरके सिवाय खासकर श्रीशान्तिसागर (भारतीय) जैन सिद्धान्त प्रकाशिनी संस्थाफे महामी एवं प्रबंध विद्वान् प्र. भीलालजीको प्रेरणा हमको मिली है जिसके कि फलस्वरूप इसी संस्थासे यह प्रथम भाग प्रकाशित होरहा है।
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प्रकासकीय
दिगम्बर जैन आगम की परम्परा में तो अनादिकालीन है फिर भी कात के अवसर्पष और अत्सर्पण के कारण इस आगम परम्परा का भी भरत क्षेत्र में अब सर्पण उत्सर्पण होता है। वर्तमान में अभी जवसर्पणी काल चल रहा है। आज से असंख्यात वर्ष पहले भगवान आदिनाथ ने जैन आगम की परम्परा क्ष स्थापन किया था तब से अब तक अस्तित्व कायम है। यह आगम परम्परा दादशांग यापी के मप में भगवान के मन में पावर्मत धी । यह दादशांग वाणी चार अनुयोगों में मांटी गई । |. प्रघमानुयोग 2. करमानुयोग चरणामुधोंग 4. द्रव्यानुयोग । चौबीस तीर्थकर वारत चक्रवर्ती, नव नारायण, नव प्रतिनारायप, नव बलभद्र, इन 63 शलाका पुरुषो का जिन में इतिवृत दिया गया है वह प्रथमानुयोग आगम है । लोक, अलोक युग परिवर्तन चार गति आयि का जिनमें वर्णन है वह करणानुयोग के प्रावक और श्रमणो की विभिन्न चर्चामो का जिनमें उल्लेख है ने चरणानुयोग गन्ध है, जीव, पुगवल, धर्म, अधर्म आदि पट द्रव्य और नव पदार्थ का जिनमे वर्णन है ये द्रव्यानुयोग शास्त्र है । प्रस्तुत रल करण्ड श्रावकाचार चरणानुयोग का गन्य है। इसके मूल ग्रन्य कर्ता तीर्थकर है एवं गषधर है उन्हीं के वचनों का अनुसरण करने वाले आचार्य सामने इस रत्न काण्डमथ की रचना की है।
रत्न करण्ड शब्द का अर्थ है रत्नो का भण्डार, ये रत्न सम्यक दर्जन, सभ्य सान सभ्यक चरित्र है । जिन्हे आगम के अनुसार रन्तत्रय कहा जाता है। इन तीनो रत्नों को प्रावक एक देश म्स में पालन करते है एवं साधु इन्हें सर्वदेश म में पालन करते है। रल करण्ठ श्रावकाचार में आपको की चर्चा का विशेष वर्णन है मीतिर इसका नाम रल करण्ड प्रावकाचार स्वमा गया है ।
इस शान्य को यद्यपि संस्कृत और हिन्दी दोनो भाषाओं में अनुवाद पहले की जा चुकी थी लेकिन फिर भी श्री स्व. पं. खूपचन्द जी शास्त्री ने बु.प. श्री लाल जी की प्रेरणा से की ।
दिल्ली के गांधी नगर मंदिर में इन दिनों दिनाक 10 से 15 फरवरी 1989 का पंच कन्यापक प्रतिष्ठा का कार्यक्रम सम्पन्न हुक्षा उस समय परम पूज्य षिराज आचार्य श्री 108 दर्शन सागर जी एवं मुनि श्री 108 समता सागर जी महाराज को रत्न त्रय चन्द्रिका की एक प्रति प्राप्त हुई महाराज श्री ने इसकी उपयोगिता प्रावकों के लिए आवश्यक समझकर प्रकाशन हेतु अपनी शुभ सम्मति प्रदान
रत्नत्रय चन्द्रिका पुस्तक इस समय उपलब्ध नहीं होने से इस मन्ध का प्रकाशन गांधीनगर दिगम्बर जैन समाज की ओर से प्रकाशित हो रहा है । आशा है पाठक इस ग्रन्य से सवान पाप्त कर सकेगे।
बात ब्र. संजय कुमार
मुद्रक:- मीन गण्ड मर्दस (२५७८)गली पीपल वाली
(२५७८ धर्मपरा दिल्ली-६
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मंगलरूप नमस्कार भास्तिकता
Mmmeru
शानाय मंगलकामना शब्दों का सामान्य विशेष अर्थ श्री वर्धमान शध्दका अर्थ निधू तकलिलात्माका अर्थ कारिका नं. ५ के उत्तरार्धका अर्थ मंगलकारिका का तात्पर्य "श्री अर्धभान" नाम करणक्रिया और श्री शब्दपर विचार कारिकान के अर्थसे मिलान मोक्षशास्त्रक मंगलपन्यसे मिलान बीनागता और निर्दोषता सर्वशता समता और तीर्थकरत्व तीर्थ और उसके पात्र भेद उपदेश की प्रामाय अन्धका नाम धर्म का लक्षण उसके वर्णनकी प्रतिज्ञा कारिका नं०२ धर्मोपदेश का हेतु और पन्धकारका भाशय परोपकार सराग भाव है। इसका उत्तर शब्दोंका अर्थ , देशयामि उत्तम सुख तात्पर्य, धर्मके चार प्रकार धर्म अधर्म का निर्देश कारिकानं०५ दुःस-सुख जीव की अवस्थाएं हैं शनोंका अर्थ वर्शन आवि शब्दों पर विशेष निर्देश सम्यक्त्वरहिन चारिण समीचीन कैसे? रलत्रयकी भजनीयता तात्पर्ण । धर्मको पूर्णता सम्पग्दर्शन का लक्षण कारिका नं०४ बक्षण का स्वरूप सम्पदर्शनका यह लक्षण निर्दोष है शब्दोंका अर्थ । श्रद्धान, और वर्शन शब्दका विचार असम मादि सम्यबस्नके सम में
विषय-सूची
१ आप्त. आगम तपोभूत मूवताका मर्षे १ तात्पर्य २ तीन किया विशेषणों में मष्टांग विशेषण की
मुख्यता
प्रन्थमें प्रयुक्त सम्यग्दर्शन वापक शव्य ३ आता लक्षण कारिका नं०५ ४ आप्त वषयक सात मिथ्यामान्यताएं
लौकिक और पारलौकिक मातताएं शब्दों का अर्थ ता पर्य।
वंद की अनादिता आदि पर विचार । है आप्तके तीन विशेषगोंकी आवश्यकता १३ तीन गुणोंमे कार्य कारण आदि विचार १४. कारण और करण में माता | १५ प्राप्तकी निर्दोषना कारिकानं०३ १७ अठारह दोष और उनका पर्ष। 1 शब्दों का सामान्य विशेष अर्थ । २२ मारह वोपोंका पाठ कर्मोंसे सम्बन्ध २३ मोहका क्षय होजानेपर पातियों की तरह २४ अधातिया कर्मों का भी समस्यों नहीं बता
अठारह दोपोंका ठीनतरहसे गिनानेका कारण २४ २५ तात्पर्य । निर्दोषता और मामला २५ सर्वज्ञता और आगमेशित्व कारिकानं.. २७ सामान्य, विशेष शनार्थ २८ प्राप्त के भार अतिशयोंसे पाठविशेषणोका
सम्बन्ध तात्पर्य छयालीस गुणों की इसकारिका संगति पातिकर्मके क्षयसे अनन्त चाटय , और
पुण्योदय से प्रात प्रभुता ३८
तीर्थकरताका सर्वज्ञता और नागमेशिवसे अजहत् सम्बन्ध अर्थान्तरन्यास असर द्वारा भागमोगत्व विशेषण का समर्थन कारिका नं० म प्रयोजन शब्दों का अर्थ तात्पर्य
भागम का लक्षण कारिका योगी
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एनाओं तथा किस २विशेषणसे किस ५५ उपगूटन और उपहरण तथा विधि निरोप विपर्यामका पनिहार होता है।
४ गुणो । परस्पर सम्बन्ध तात्पर्य,माधपिता आदि ४ च्याएं
८८ व्यासादिक स्व-पर विषय | हेतु , हेतुमाष और ४ अनुयोग
८ स्थितीकरण | कारिका नं०१६ प्रयोजन बादिपुराय के पथ से तुलना ।
८. सम्याराप्टियो का चा. पहली प्रति संपोस्त का लक्षण कारिका नं०१०। प्रयोजन १० शम्नका मामान्य-विशेष अर्थ राज्यों का भय
६.१ तापर्य। सात्पर्य
१४ वारसय भगका लक्षण कारिका नं०१७ कथित विषयों में माध्यसाधन माय ५ नात्पर्य। महताओसे पूर्व अंगों के वर्णनका कारण प्रमानना अग। कारिका २०१८ निःशहित अंग का स्वरूप कारिका २०११ १६ शब्दार्थ प्रयोजन और शब्दों का अर्थ
६६ तात्पर्य प्रात्पर्य
७ निसर्गज अधिगमज सम्यादर्शन सात भय
चार छायोग और सम्बग्दर्शनक मेर भेणिकके वास्मघात और उसके कारणपर विचार ५०० प्रशमादक लक्षण और उनका स्टान्स सम्यक्त्वके मूल पायतन जिनदेव और उनकी आस्लिमाचि और निशक्लिादि गुग प्रतिमा
१०२ सम्यग्र टके असंयमका आशय निःक्ष मेंगा वमन | कारिका ने० १२ १३ प्रकारान्तरसे सम्यग्दर्शन के बाठ गुण शब्दों का अर्थ
२०४ सम्यग्रष्टिकी अधिका फल वापर्य
१०६ सम्यग्दर्शन के आठ अंगोंमें प्रसिस बहार पर्यायका कारण
१०५ उदाहरणरूप यन्त्रियोंके माम बांसारिक सुखकार विशेषण और
कारिका न०१६,२० कर्मों के पार भेर
मंजन घोर मादि की बाएं स्नान शल्य और उससे सम्यक्त्ाका मंग ११३ वत्पर्य निर्विचिकित्सा अंग। कारिकान०१३ १४ च्याओमें रममेद । प्रयोजन
११५ अंगहीन सम्बनशनकी निष्फलता मा का सामान्य विशेष अर्थ
११५ कारिका नं०२१ एसयाली मुनिराके प्रति व्यवहार १९. क्रियाओं दो फल सुख्य और गौण वात्पर्य
११७ राम्हों का भामान्य विशेष वर्ष भाई और उत्तराधम हेदुहेतुमभाव ११८ तात्पर्य-विपयकी संगति विपाकता के कारण।
१८ लोक मुटता अथवा भागम भूसा प्रभूमि । कारिका न.१४ ११६ कारिका नं०२२ बामायतनों के प्रकार
१२१ मिथ्यामान्यताओं के उत्तम, मया एणाम अनी चारो निहरणका अन्तर्भाव १२२ जघन्य प्रकार सपा और सात्पर्य ।
१२४ सम्यग्दर्शन के अध्याति अतिवाति fvarष्टियों के मान भेय
२५ असंभव दोषांका कारण नि:शांकलाit और शमादि गुणों का शब्दार्थ नात्पर्य, भूत चतुष्टयसे धर्म मानना
१२७ लोकमूदता है। अंग 1 | कारिका नं० १५ और
मूडता तीन प्रकार हैं भयका सार
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________________
र अनायतन।
५०० घटान्त पूर्वक पुण्य और सम्यग्दर्शन के अनायतन और मूढतामें अस्तर २०६ फल में अन्नर कारिकान नानायकी भी समुद्र नदियों के
सम्पदर्शन के फीकी गौण मुस्वता बाल की पवित्रता मान्य है।
२०३ शब्दों का अर्ध देषभूपता । कारिका नं०१३
२०४ तात्पर्य शासनदेव पूजा पर विचार २०५ सम्यग्दर्शनस निर्माचनीय संपत्ति
२६१ भाचार्यों और आशाधरजी का
रुम्यादष्टि किस को कैसे विनय करे अभिमत तथा अनब्ध."श्रावणापि
कारिका नं०
२६२ पितरी "मादिका आशय
२१० प्रयोजन, सामान्य विशेष मथ पापारमुढता | फारका.. २४ शम्कका साविक अर्थ २१५ विनयक भेन और मोक्षाश्रम विनर ।
०६५ तात्पर्य।
२१५ सम्यग्दर्शन के अध्याग विशेषण और भयादिकका ओ मुगुरु नहीं है वह गुरु है,यह
२२० सम्बन्ध। पात नही है
शुद्धटष्टयः का मूढना और माल सबन्ध । २६७ सुगुरु कुगुरुकी प्रत्पनीकता।
२२१ चार लौकिक विनय और भय शाहकोम से अस्मय विशषणका रपष्टीकरण कारिका नं०२५ २२२
सात
२६७ प्रयोजन
२२२ हेनुपद , कर्मपद , और क्रिया पदः विधारा २६७ शब्दो का सा०वि० अर्ब
२२४ भय आदिका मंत्र जाति को भार शाम्मद पर विचार
२२५ चारित्र में सम्बन्ध राब्दोंका अर्थ
२२६ कारिका नं.३१ तात्पर्य
२२६ रत्नत्रयरूप धर्म में मौण मुख्य और स्मयके स्वामित्व पर विचार
२३० समानता के प्रश्न का उत्तर पदमाहित पेष्टाले हानि। कारिका । २ शब्दों का सागि भई
२१ प्रयोजन
२३१ तात्पर्य सामान्य विशेष अर्थ
२३२ इस पथ की साहित्यिक विशेषता इस कारिका हेतु और अनुमान अलंकार सवा २३३ पद्य वर्णन के सारभूत सीन विषय बह साध्य हेतु पंचनका प्रयोग .
कारिका न० ३२ सासर्य
१३ शंका और समाधान सम्यग्दर्शनका साय दोष सब समझा जाप २३४ निसर्ग अधिगमकी हेतुतापर विचार आक्षेपालंकारद्वारा स्मयके करने न करनेका कारवाक प्रयोजनको स्पष्ट करनेवाला अन्तर
प्रश्न और उधर और दोषका निदान कारिका नं २७
२८३
शब्दोंका मा०वि०मर्थ सामान्य विशेष शम्दार्थ
२३॥ तात्पर्य जाटानुप्रास और आक्षेपालकारकी संगति ४५ सम्पादनादिकी उपासनावि पांच पांच भौतिक ओर आभ्वा० सम्पत्तियों में बातकाल तर २४२ अवस्थाए सम्यग्दर्शन की अन्दरंग महिमा कारिका नं. २४५ सम्यग्दशन की शुद्धि सामान्य और मान चतुरनुयोग को रष्टि से स्मय की व्याख्या २४६ चारित्रकी शुद्धि विशेष है
२६९ शब्दों का अर्थ २४७ राम्दोका अर्थ
२६४ जलकारका समूश्चम क्षात्पर्य,
२६६
sur
ft
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________________
.
०
३१२
निशस्यता और निदान शल्यका भाराष ३०१ आठ गुणों के अर्थ में अध्याति अतिव्याप्ति मिध्यात्य संसारफा जनक, चारित्रमोह
और उनका परिहार मोक्षमार्गका विरोधी है।
३०३
तात्पर्य
मादृष्टि और शिनारिके आन गुणों मम्यक्त्वसे चारित्रकी विशेषता
३०
गति स्थिति आदि मे अन्तर पारिन धारण करनेकी आवश्यकता
३०४ दीप्ति और शोभामें अन्सरका कारण
३६० मोही मुनिसे निर्मोह गृहस्थकी भेष्ठता का
भायुका अपवर्तन भागमसम्मत है ३६१ कारण कारिका नं० ३४
३०५ जिनभक्तिका फल
२६२
सम्यग्दर्शनका फल परमसाबाम और विजया प्रयोजन
जाति कारिका नं. ३८
३६३ रामों का सा- वि० अर्व
40
शब्दों का सा.वि. बर्थ । सारपर्य
निधियोंकी संख्या जासिमेनकत है। পাল সীৰ গিৰ্কি বিঘ
चक्ररतका परिचय ।
३६५ विशेष विचार
तात्पर्य। सम्यग्दर्शनका अन्तरंग नै यस प्रधान फल
पौरह रत्नोंकी ठरह मंत्रीका उल्लेख क्यों कारिका नं० ३५
नहीं इसका उत्तर । प्रयोजन
परमसाबाम्मका आशय ।
३७१ सम्बोंका सा०वि० अर्थ
परमाईन्त्य-कारिकानं. ३ । अबदायुष्क और बदायुष्क सम्यष्टिमें मसर ३१०
प्रयोजन । तात्पर्य
भागमके उपचा वतृत्वपर विचार
७६ सम्यग्दर्शन बन्धका कारण नही है
शब्दोंका सा. वि. पर्य। ४१ कर्मप्रकृतिमाको बन्धव्युधितिका
तात्पर्य । आठ मेवों में भन्ताव
३२५ सम्यग्दृष्टि और मिध्यारष्टिको प्रवृत्ति अन्तर ३२०
तीर्थकरस्व, कारण, मे, अतिशय बापि। ६५२ नरकादिकी कारणभूत किया
सम्पर्शनका अलौकिक फल, मन्तिम कारिका ने० ३६
२५७ परमस्थान कारिका नं.४० ।
एक प्रयोजन सात परमस्थान ३३४ शब्दों का सा.वि. मये।
कम सम्यग्दृष्टिफे संवर और निर्जरा शपथ .
BAL शराम्पोंका सा०वि० अर्ण ३ आभ्युदयिक को विषयमें विदोष कपन ।
४०३ खात्पर्ण
३४२ उपसंहार , कारिका नं. ४१ । गुणों के प्रकार और सम्यग्दृष्टि तथा
प्रयोजन ओर ज्ञापनसिप धाशय । मिथ्याष्टि के ओज माविमें अन्तर ३४३ शब्दोंका सा. वि. अर्थ।।
४०५ इस कोरिकामें प्रथम तीन परभस्थानोंके कवल "" के पार पोंमें यहमिन्यापक का आशय
३४. मर्थ की मुरूपता । समातिस्व निर्णय
२४. "जिनकि "पार पर्व। सरागसम्यक्रवका मोशमार्गोपयोगी का सापर्य।
४०० इन्द्रपदका लाभकारिका नं.३७ २४६ सुरेन्द्रता,चक्रवर्तिला, तीर्थकरत्वा प्रकार प्रयोजन
३२५
३२९
BE६
२२
प्रयोजन ।
सात्पर्य।
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________________
अशुद्ध
१ (टि)
२५
१(ट)
हुआ
२७
हुआ ६१ (दि) दोषरी
१०
२४
दोषए
दोषण
स्वाध्याय करने से पहले शुद्ध करलें।
पंक्ति अशुद्ध शुद्ध पृष्ठ यदिष्टन्ते यदिष्ट ते २ २ (टि) प्रकृत्तियों प्रकृतियों १३ "७ इनमेंसे “७। इनमेंरी ३ १६ करतीहै करती है। १३ नझेदयुना ना तदधुना ३ ६ (टि) नहीं है नहीं है। १३ मंगलहेतुनिमित्त मंगलनिमित्तहेतु ३ १० (टि) नेता हैं नेता हैं। १३ ८र०क. ८-२०० ३
११ (टि किया वही किया है वही १३ संक्रमण संश्रयण
१ (टि) होता कि होता है कि १३ ऽत्यो
ऽन्यो ४. ४ (टि) विश्वातत्त्वना विश्वतस्वानां १४ (जो कि जो कि ५
यदनन्सर यदनन्तरं १५ प्रकृतियां पुण्य प्रकृतियां भी हैं। ५
निर्मूलन- निमूल १५ जिनमें नरकायुके
चलकर
चलकर मिवाय चार हूआ
हूआ रसणी रसणिण
दोष३ १६ गुत्तीण गुती
६ सालोक यह सालोक। यह ६ यदुविद्या "यद्विद्या"
२० वीतरागताका वीतरागः या १७ जिनका ज्ञान जिनका ज्ञान,
निर्दोषताका मातापिताक
है। यहाँ . सामन्यतया सामान्यतया १०
है यद्यपि है। यद्यपि १७ मुक्तिमश्नुते मुक्तिमश्नुते १०
सर्वज्ञताका सर्वशताका भी १७ अर्थकी कि अर्थकी १०
हों जिस में जिस १८ सकता है३ सकता है२. ११
अविद्यमान अषिधमान- १८ परमस्थानोंकी परमस्थानों या ११
ठीक है, प्रश्न-ठीक है, १६ अन्य विशिष्ट
करते करते। १६ गुणों की
उत्तरनेवाले उतारनेवाले २० अध्यात्म अध्यात्म ११ २(दि) ताहके तरहके तीर्थ २० बवादि बहि वृष्टयादियहि ११३(टि) आदीसे मादि जिससे २१ अप्रसहस्री३- अष्टसहस्त्री । ३- ११
हा,
हो, श्री वर्धमान श्रीवर्धमान ११
जाला३ जाता३। २५ पृथक् ११ १० (टि) जगदगुरु
जगद्गुरुः २५ “मायाविषु" "मायाविषु" ११ ५३ (टि) गृहीत गृहीत- २६ शब्दका शब्दका त्यवमोसि त्वमेवासि १२
करनी हैं करनी है। २६
दीया दिया २६ म्वाभाविक है स्वाभाविक है । १२
ही है। २६ घातिक घाति
संखइतन्य संखचइसध्या २६ घातिक घाति
में उपयोग में जिमकाउपयोग २७
माताक
( e
१२(रि)
१५
(दि)
२२
५ (टि)
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________________
३)
प्रशुद्ध
पंक्ति
कारणकी
२७
और
२७
पुन्यकर्मको धौक कोया है लक्ष करके एचं सर्वश बांकड़ा पोहा सिवाय
पुण्यकर्मको धर्मके किया है। लक्ष्यफ.के एवं सर्वषा धाकड़ा
..... * * * * * * * * - *
समके समझ एवं २ एवं ३
गिनाया गिनाया ४ ३२ है यहीकारण है। है । यहीकारण है ३२ २१ ४-देखो टिप्पणी नं. १ पृ०३३ ३२ २२ कि
कि ३३ वन्धका बन्धका- ३३ २५ भगवान - अर्थत: भगवान्ने अर्थतः ३३
देवने देवने ग्रन्थतः ३३ जाता
जाता।
३
सिवाय
गुणधर्मों सिद्धथु
शुद्धकर्म दोनों शुद्ध दोनों नित्रणा निवाईग अविरोधेन अविरोफेन
गाण
३ दिक टिक टि० १४
इसके
२३ २४ ३ दि
स्मर्क सम्यक्त्व परिगणित विशेष सकती।
३५
गुण-धों सिद्धपु मानं त्मक सम्यक परिणत निशेष सकती ऋद्धि अन्तरगत निर्दोष हैं विषमरूप पाहिरो
......
सिद्धि
३७
यस्मादभ्युदया, मावभ्युदयः २६ पउंजई पउंजह
टि० छिज्जा छिज्जा ६ टिक आदि बादि २ ३० ३ जाते हैं जाते हैं। ३ ३. ४ हैं। पुण्य
हैं।अपने उपर ३०४ आया हुआ कष्ट यदि कम होजाताई नो वहां भी सुख शब्दका प्रयोग होता
है। पुण्य मोबसे मोक्ष कर्मकी
w
२
अन्तर्गत निर्दोष हैं। विषयरूप चाहिये।
३८
..
३--विषय-- ३८
विषय आदि उसकी
श्रादि।
ora
उसके
३८
बहिरंगके बहिरंग ३० नपूना० . नशरपा इसलिये इसीलिये
सकता ११ सकता ॥ ३१ ३- देखो टिप्पणी न १ पृ०३२ ३१
सम्मकारष्टि ज्जैसा करनेके परमावगाद रत्नत्रयों नियम है
सदरष्टि ३६ जैसा ३० करनेकी ३६ परमावगाढ ३६ रत्नत्रय ४० नियम है। ४०
. ....
सकता.
सकता २। ३२
करती
करती। . ३२
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________________
श्रशुद्ध
अपने
पाया भी
उचित है।
होना
होता है
३६
भवित्व
है
शुद्ध
आपने
१०
पायां
४०
चित है । ४१
४१
४१ -
होना
होता है ।
६६.
भावित्व
जाय
तप
योंके
विरोध
है.
रागाता रामादीना
कीया
ला
धर्मका ४४
आस्तिक्य ४७
प्रमाणरूप
प्रमाणरूप- १७
अर्थशुद्ध
अर्थ---शुद्ध ४७ गुरुकी ફ
गुरुकें
कि अभिधेय कि आगम के अभिधेय ४७
इन
इन
४१
४९
इसके
जिस तरह
के जो
ये
अयुत
४७
४६
४६
४६
४६
४६
यह.
५१
अयुक्त
५.१
बताया
बनाया
४.१
भ्रमतान्ता प्रमत्सान्तान्यगां ५१
अन्यगां
चेष्टानुमतैः चेष्टानुमितैः ५१
४८
४८
(३) पंक्ति अशुद्ध
किया
लक्ष्य अनायतनोंका १ अनायतनोंकार (टि०८०४६ मे)
जाय ।
तप ।
यांकी
निरोध
हैं।
४६
४६
દ
२१ ५
२७ कारण
है
२८
२६
१ दि०
६०
ર
३
भाव हैं
१०
अन्तक- ६०
मात्र हैं । ४२ करने का पूर्णकरने का प्रयत्न प्रतीति करनेका प्रयत्न ४२ १७ मम्यग्दर्शनादिको सम्यदर्शनादिकी ४३ कायरता एवं ६१
६०
होजाती है कि ४३
होजाती है है किन्तु
है । किन्तु ४३
न्यत्व
न्यत्वं
४३
धमका
आस्तिक्या
३
દ
२
ક્ર્
१ (टि)
२
४
x
Y
X
१
५
பூ
१ (टि) दुष्टान्त
७
शास्त्र
७
म
३४
१०
१६
तरह
भेदा
हैं ।
ऐसे
आन्तक
२२
२. (टि)
३ (टि)
अन्तका
प्रतीत
कायरता
७
१७
१७
२० सकता
कायरताके
का
क्योंकि
उनके
कारण हैं
उपसंग
अर
प्रकरण
तीनो
शुद्ध
प्रथम
तरह
अपने
६मारी
नहीं है
उनको
तोर्थकर
२०
५२
करण
५८
निकी ५८
५८
६ ।
तरका
भेदके
हैं
ऐसे ही
आतंक
पृष्ठ
KL
५६
५६
कातरवा कातरताके ६१
दृष्टान्त
६२
शास्त्रे ६२
के
कारण
उपसर्ग
और
प्रकरण २
क्योंकि वह ६४ जनघातिकम ६४
सकता है ६४
६४
६५
६४
विचारणीय
तरह की
अपनी
चमादी
६७
तरह
७२
अधिक है आरामको
अभावको ७२
हीनादिको हीनाधिको ७२
विचारणीय प्रथम
७२
६८
तीनो से
७०
तरह विचार ७०
है
७ই
७३
७३
नहीं है ४ ७४
उनकी ७६ तीर्थ- ७७
है कि
७८
अनात्मानम् अनात्मार्थम्
5
पंकि
१२
७
११
१६
१६
१७
१६.
१६
१७
२३
२४
२६
* * * * * * * *
३
४ (टि)
१
६
१२
१६
१६
२४
૨૫
२६
२०
२२
३ १०
२६
२.६
222222
१८
२०
? (fe)
२२
送
२४
२७
१७
Page #15
--------------------------------------------------------------------------
________________
पंक्ति
पंक्ति ३ (ट)
.
P
४टि
.
अशुद्ध शुद्ध पृष्ठ घेणवस्ते घेणवस्ते स्युय ८१ वनककीर्ति कनककीर्ति ८२ के शासन शासन ४ पत्तियां पत्तियां १ . प्रयन्ति प्रयच्छन्ति ८५ भाव तत्त्वशब्दसे भाव८६ प्रकारके प्रकारसे आगम मागम है ८८ प्राज्ञाः प्राज्ञः दुर्मत मत उसके उसकी दिये उनमें दिये हैं उनमें ८ पूरबके पूर्व २ को विषयों के विषयोंकी ६० मसी ममि ६० शब्दानु शक्यानु १० जौर और लानेकी लानेके लिए लियेकि विषय विषय भी पाषाणको पाषाण १३ शरीरं शारीरं १३ चार बार बार यह है यह है कि ६५ कहा कि कहा है कि ६ वही वहीं समायान्ति संमान्ति ६७ निर्मलता निर्भयता १८ हुए तथा हुए १८० गिरघुस गिरजानेसे १०१ जानेसे और और वह १०१ सदस्थ के तटस्थ १०१ पश्चाद् पश्चात्ता १०२ तचि तद्वाचि १०२ निःशक नि:कामक्ष १०३ कि शुद्ध कि अवस्था शुद्ध अवस्था १०३
RE NEW " Fry E F /
... ... 2:२२५४२४४४४४४३५E EFFEEEE
***** *
[४] अशुद्ध शुद्ध
पृष्ठ शाने झाते क्योंकि ये क्योंकि १८४ यरि यदि उसको १०५ आत्माका और आत्माका १०८ बन्धन अन्धनमें १११ वन्धा बन्धार १११६ तन्निमित तन्निमित्तक १५१ १ चारूपया चारुतरा १११ २टि मृपेव मुपैव ११४दि हालादि है इत्यादि उपका विषय है ११३ ७ निजतत्त्वशुद्ध निजशुद्धतत्त्व १५३ १० प्रकृतियां जीव विपाकी ११५१टि
प्रकृतियां स्वभाधिक अस्वाभाविक १९६६ बना नहीं कर
नहीं बना मकता
सकती स्यादी मन्नी
११६ ७ दि परिषह परीषह
११६. १६ दि विशेषरूप
विषयरूप १२० ७ दोपोंके दोषांकी मिथ्य मिंध्या १२२
न होगा १२४ विपाक
विषाक्त १२६ विषयनि विषयानि १२६ प्रकारके प्रकारकी १२७ गुणवृद्धि गुणवृद्धिकी १२७ निन्दा निन्दाका १३० जाता जाता ३ १३० पाय पाप क्योवृद्ध पर्यावृद्ध १३१ कषाय
कषाया सेवरणार्णक संवरणार्थक १३२ निन्दा निन्दा न १३२ १
१३२ ३टि० ३१३२
टिक दोनोंके यमय समय
१३३ निरोग निरोगता १३४ १२
OY
होगा
३ टि
२९
....
d
REERARE FREE
१४
HR
दोनों
२ टि०
.
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________________
अशुद्ध मिध्यात्व
प्रभाव
विकल्प वाशब्दका
प्रयोग
स्थापित
समय
निःसारिवा
अत पर्व
परन्तु
आधि
पदार्थसे
कारण
गुणारखा
केवली
दापी
शुद्ध
पृष्ठ
१३५
१३६
मिध्यातत्त्व प्रभाव दूसरे विरोधियों पर भी पड़ता है। विकल्पवाचक वा ३७
शब्दका प्रयोग
मत्सा सम्भवस्था के
बुद्धि
जथा
१४०
आप्ततत्व
१४०
१४०
तभ
किसी भी एककेलिये किसीके भी लिये
धर्मशून्य
१४३
उसकी
१४३
कार्यके
स्थापित
सभय
निःसारता
सफल
बोला
बृद्धि
अथवा
प्राप्ततन्त्व
तत्र
१४३
१४४
फिर भी
१४५
भाधि
१४६
भी दूर भी संभवचौरशक्य हो १४८
उन्हे पकड़ करमहादेव
धर्म से शून्य
उसको
कार्यकी
अतएव
१४०
कारण है
गुणा
केवलि
वापि
সা
१३७
२५
१३८ २५
१३६
२
२५
RE
(
पंक्ति
२३
उसकी
हमा
पिश्चम
सूर्य
सूर्ये सूर्य सूर्वे सूर्ये
३०
१४१
१६८
१७३
२३
२४
५ दि०
२ टि०
६
४
E
२२
२५
१
उसी तरहसे योग्य उपायके द्वारा
पदार्ध में
१५३
१०
१५३
२७
१६०
१३
१६०
२. टि
१६०
४ टि
१६३
सम्यक्स्य रूप
अमितप्रभ- अमितप्रभ १
सकलन
पुनः बोला
और विस्मय में पड़कर १६८ ३
उन्हें महादेव
उनकी
हमारी
पश्चिम
२० दुर्दर्श
१५
१६४
५२
१६७ २०
१६७
२९
१६७ २१
५ )
२७
k
२३
१७४ १३
१७४
२६
अशुद्ध
खुदनि
महभद्र
इस्तिने
भेदी सजातीय
अभ्युदयों
परम्परा
स्वदेश
-न
प्राप्ता
निःशंकता
युक्त
तीनों से
भेदात्रि
कर्तम्मू
अनायतन
सभीके
लिप्सा
कारण
दोष
भंग
दोष
त
निःशंकिता
निरवच्छन्न निरवच्छिन्न
पाखण्डी
दोषः का वर्ण
भग
यत
या
स्पष्ट
करना
हिंस्पन्ते
उससे
शुद्ध
सुदती
सहापद्म
हास्तिने
दुर्धर्श
भेरी
कार्य कि
कर्तब्तत
सज्जातीयता
अभ्युदयाँ
परम्प'"--
सुदेश
न
पाख रिट
दोष के निवारण
मुक्त
तीनों में से
भेदात् त्रि
कर्तव्यममू
आयतन
सभीकी
लिप्सया
करण
दोष -
भंग -
दोष ---
भंग
पते
यद्द
स्पष्ट
कराना
६ - हिंस्यन्ते
इसमें
जनुचित अनुचित
सनंत
सन्ति
ये
इन
फर्म की
कर्तव्य
पृष्ठ
१७६
१७८
१७६
१८१
१८२
१८३
१८७
१८६
YCL
१५१
१६१
१६३
१६२
१६४
१६५
१६६
115
१६८
१६८
२००
२०५
२०५
२०७
sav
Ra
२०५८
२०६
२१०
२११
२१२
२१२
२१५
२२०
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२३७
२४०
२४१
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पंक्ति
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१२ ि
२१
४
३
२२
७
ધ
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________________
देवं
काके
भर
३५०
*:::
३५१
२०
orrror
भार्ग में भी
पृ०३३ कोटिनं०१के साथ पढ़ें ३३६ २रिक गई है वे २४१
व्यक्तिक व्यक्तिको नों से दोनों में
काकी
२४३ काको
३४३ पाईयों भाइयों
२४३ होदि दु
योंकी २५१ यताका पता चताको
३४६ शब्दों को शब्दों का २५५
महाकुलम माहाकुला प्रारम्भ प्रारम्भ में
गतियों में
गतिमें कतः
२-दितथा
तया एक दो हों एक हो दोहों २६५ कारा द्वारा
इम च्याप्ति इस अन्याप्ति .. ३५२६
ईशित्व, ईशित्व-सम्पूर्णलोककी ३५२ २२ हुआ है हुआ है १ २६८ हुआ है हुआ है २ २६८
प्रभुता । वशित्वचिरा चिरत्न
३५५ १५ बनकर वनकर
५
२६८ दानोंकी दोनोंकी ममष्टिसेर ७२
उपायके उपचयके
स्पष्टानित स्पष्टानिन ३६० १टिक क्षिप्यभान क्षिप्यमाण
नं. में ही
वर कर २८. युक्ति उक्ति
३६५ पत्पति उत्पति
शास्त्रों शस्त्रों २८.'
अयोध्या अयोध्य कापेहा व्यपेत्ता २८१ १२ टिक
शरद उत-से शब्दसे उशरमें ३६७ न्याम्प न्याय्य
३२
दिव्यास्त्र व्यस्त्र श्रुत म्यग्दर्शनको श्रुतकेवल
केवल वे केवल केवल सम्यग्दर्शनको
तरह फली तरहके फलों ३७४ स्फूर्ति २६१
अव्याप्त अध्याप्ति ३७४ मूर्तिकी मूर्तिको ४
आतिरेंद्री जातिरैन्द्री
३७७ १ टि० हादि होदिह
२टि० शब्दका पदका
३८०
अस्त्र-शस्त्र अरःशस्त्र क्नाता बनता
दिव्यास्त्र व्यस्त्रों ३८१ अन्यत् नान्यत्
३१०
दुग्धरक्त रक्त श्रुति
३२१
प्रवृत्तियों प्रकृतियों ३८१ पुक्ति उक्ति
आहंद महद
३६३ श्रुत
मोह साह मोहका साइ
२६४ सम्यक्त्वका सम्यक्तत्वका ३१५
थार्थ पृष्यक अथे पृथक
१८ ही पाप ही जिन पाप
उसका और उसका अन्येन मनज अन्ये न ब्रज २१७ २टि. अनन्तर अनन्तर सम्यग्दर्शनं सम्यक दर्शनं ३५७ १३ निष्यति निष्पति ३७ २३ भारनत्रिक भवनत्रिक- ३२१ ७ विशेषणों से विशेषगोंसे युस ३६६ अपर्याप्त अपर्याप्त-- ३२१ १६ करके भी करके ४०४ इन्द्रियसंयम इन्द्रियासमम ३२४८
तथा कोई दोनों में से किसी भी नहीं पाई नहीं पाई जा सकती.यदिपाई ३२८२३
पदको प्राप्त करके भी भियों भिर्वा
३३६ १टि० सम्यग्दर्शन सम्यग्दर्शनके ४० ५ २-सुदेश प्रादि
बलानरातीन घलान रिपून यः ४१४ २
...
२८९
स्कूर्ति
.
३८१
AMANAN .M
१२
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२३
সুলি
दिल
...... ..
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श्री सिद्धेभ्यो नमः
श्रीमदाचार्य समन्तभद्र स्वामि - विराचत श्रीरत्नकरण्ड श्रावकाचार
विद्यावारिधि, स्याद्वादवाचस्पति, स्याद्वादभूपण धर्मदिधाकर पंडित खूबचंद्रजी शास्त्रीकृत "रत्नत्रय - चन्द्रिका " नामकी देशीमापाटीका सहित
टीकाकारका मंगलाचरण
श्रीमन्तं सन्मति नत्वा तद्भार्यां च गुरुत्रयीम् । श्रावकाचारविवृर्ति कुर्वे मंगलकारिणीम् ॥
श्राचार्य श्री समन्तभद्र भगवान् रत्नत्रयरूप श्रावकधर्मका व्याख्यान करने की इच्छासे सबसे प्रथम अन्तिम तीर्थकर श्रीवर्धमान स्वामीको नमस्कार करते हैंनमः श्रीवर्धमानाय निर्धूतकलिलात्मने । सालोकानां त्रिलोकानां यद्विद्या दर्पणायते ॥१॥
प्राथ - श्रात्मास लगे हुए कलिला को जिन्होंने निकाल कर दूर कर दिया है और जिनका ज्ञान थलोक सहित तीनों लोकों को जानने के लिये दर्पण के समान है, उन श्रीमान भगवान् को नमस्कार है।
विशेष- इस कारिका सम्बन्वर्षे निम्नलिखित तीन विषय विचारणीय हैं
१- प्रयोजन | २ - शब्दों का सामान्य विशेष अर्थ, ३- तात्पयं । इनमें भी प्रथम प्रयोजन के सम्बन्ध में चार बातें ज्ञातव्य है । १- - प्रास्तिकता, २ - कृतज्ञता, ३-आम्नाय और ४ - मंगलकामना ।
आस्तिक शब्द का अर्थ "अस्ति परलोक इति मतिर्यस्यासौ शास्तिकः १ " इस निरुक्तिकें अनुसार जीवात्मा के अस्तित्व और परलोक आादिपर श्रद्धा रखनवाला हुआ करता है। मतलब यह कि जो आत्मा या जीवतन्त्रको, उसकी अप्रत्यक्ष अवस्थाओं स्वग नरक आदि सांसारिक गतियों एवं संसारातीत निर्वाण अवस्था को मानता है, उनके अस्तित्वके सम्बन्ध में जिसको पूर्ण विश्वास है, जो इनके वर्णनकी सत्यताको स्वीकार करता है; उसको कहते हैं आस्तिक तथा उस तरही मान्यता एवं श्रद्धाका ही नाम है प्रास्तिकता ।
-"अस्ति नास्ति दिष्ट मतिः" पाणिनीम ।
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रत्नकरण्ड श्रावकाचार
यह पद्य ग्रन्थतोकी आस्तिकताको प्रकट करता है। क्योंकि इसमें नमस्य व्यक्तिक जिन तीन गुणों का वर्णन किया गया है उनसे युक्त जीवतवको जो नहीं मानता या जो निर्वाण अवस्था और उसके असाधारण कारणरूप इन धर्मों को स्वीकार नहीं करता इस तरहका नास्तिक बुद्धिका व्यक्ति उनको नमस्कार करके अपनी श्रद्धा भी अभिव्यक्त नहीं कर सकता | अतः इस पद्यके द्वारा यह स्पष्ट हो जाता है कि ग्रन्थकर्ता को यह बात सर्वधा मान्य है कि सर्वज्ञता वीतरागता और हितोपदेशकदारूप गुणों का धारक कोई एक व्यक्ति अवश्य है। साथ ही वह हम सब छद्मस्थ संसारी जीवों के लिये आदर्श है। निर्वाणक मार्गका प्रदर्शक है । अत एक वह हमारे लिये नमस्य ( नमस्कार करने योग्य ) हैं ।
वह कौन है इस बात को समझाने के लिये यहा दृष्टांत रूप में नामोल्लेख भी कर दिया हैं कि जिस तरह श्री वर्धमान भगवान । वे नमस्य क्यों है अथवा मैं उनको नमस्कार क्यों करता हूँ ? इसका विशेष युक्तिपूर्वक उत्तर तो अपने आप्तमीमांसा नामक ग्रन्थमें स्वयं ग्रन्थकारने देदिया है उसीका संक्षिप्त श्राशय इस पद्य में तथा भागे चलकर श्राप्तका लक्षण बताते हुए स्पष्ट कर दियागया ग्रन्थकी है जो कि विद्वानों को स्वयं घटित करलेना चाहिये । इस गुणके कारण अपनी लघुता, सर्वज्ञोवज्ञता और प्रामाणिकता पर भी प्रकाश पड़ता हैं ।
२ | कृतज्ञता - अपने प्रति किये गये उपकार को मानना, तथा कृतोपकारीके प्रति सम्मान प्रकट करना, और उसका निलव न करके गौरव के साथ उसके नाम श्रादिका उल्लेख करना आदि 'कृतज्ञता' कहलाता है। यह एक महान गुण हैं जो कि वक्ता के शुद्ध सरल गुणग्राही स्वभाव की स्पष्ट तो करता ही है साथ ही प्रकृत विषय के मूल वक्ताके प्रति दृष्टि दिलाकर उसकी ऐतिहासिकता भी प्रकट कर देता है। यही कारण हैं कि शिष्ट ग्रन्थकर्ता अपनी रचना के प्रारम्भ में अपने उस उपकारी का स्मरण करना परम कर्तव्य समझते हैं और श्रद्धापूर्वक उनका नामोल्लेख क्रिया २ करते हैं ।
इस ग्रन्थमें जो कुछ वर्णन किया गया है उसके अर्थतः मूल वक्ता श्रीवर्धमान स्वामी हैं। उन्होंने जो श्रीमार्ग का उपदेश दिया वही उसकी ग्रन्थ रचना करने वाले गणधर देव तथा अन्य माचायोंके द्वारा श्रम तक चला आरहा है । श्रतएव कृतज्ञ ग्रन्थकर्त्ता श्री आचार्य समन्तभद्र स्वामी ने उनका यहां स्मरण किया हैं ।
३ | श्राम्नाय ---- यद्यपि इस शब्द के अनेक अर्थ होते हैं लेकिन यहां पर आचार्य परम्परागत (प्राचीन आचार्यों के द्वारा चली आई प्रवृत्ति) अर्थ ग्रहण करना चाहिये । मर्यादा का रक्षण महान् गुण हैं। और उसका भंग करना महान् दोष है । ऊपर लिखे कारणों से अभिमत कार्य के प्रारम्भ
--दोषावरणयोर्हानिर्निःशेषास्त्यतिशायनात् । कचिश्था स्वहेतुभ्यो बाहरग्तलक्षयः । स त्वमेवासि निर्दोष युक्तिशास्त्राविरोधिवाक् । अविरोधों यक्षिन्ते प्रसिद्धेन न बाध्यते ॥ आप्तमीमांसा ४-६ ॥ २ - अमित फलमिद्धेरभ्युपायः सुबोधः प्रभवति स च शास्त्रातस्य चोत्पत्तिराप्तात् । इति भवति स पूज्यस्तरासादात प्रमुख नहि कृतमुपकारं साधवो विस्मरन्ति ॥ ३- देखो आदिपुराण ||
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चंद्रिका टीका प्रथम श्लोक में इटदेवका स्मरण करना श्राचापों तथा शिष्ट पुरुषाको अभीष्ट है । इस मर्यादा पालन रना महान् तार्किक भाचार्य भगवान् समन्तभद्र स्वामीन अपने इस श्रावकाचारके प्रारम्भमें मी अजित सममा है। क्योंकि ये न कंबल तथाकथित परीक्षाप्रधानी ही थे अपितु परीवाप्रथाविवासे भी पूर्व मानाप्रधानी और परम्परीण मर्यादाक पालन करने वाले भी थे । यही कारण है कि अपने से पूर्ववती प्राचार्योकी मंगलाचरण १ करनेकी भाम्नायका उन्होंने भी यथावत् अनुसरण किया है।
४। मंगलकामना--मंगलकी अभिलापाको कहते हैं। मंगल शब्दके दो अर्थ प्रसिद्ध हैपापका नाश और पुण्यकी प्राप्ति । प्रारब्ध शुभ कार्योके पूर्ण होनेमें अनेक तरहसे विनों के आनेकी सम्भावना रहा करता है । विघ्नोंका कारण अन्तराय आदि पाप काँका उदय तथा साता आदि पुण्य काँका अनुदय अथवा मंदोदय है। वीतराग सर्वज्ञ हितोपदेशी परमात्मा प्राप्त परमेष्ठीके पवित्र गुणोंके स्मरणसे अन्तराय आदि पाप कर्मोंकी शक्ति क्षीण हो जाती है और सद्वेषादि पुण्य कर्मो रसमें प्रकर्ष हुआ करता है । फलतः विघ्न पानेमें अन्तरंग कारण अन्तराप कर्मक निर्णय हो जानेसे अभिमत कार्यकी सिद्धि भवाथित बन जाती है। प्रताप भास्तिक एगं तचन्न ग्रन्थकर्ता अपने ग्रन्थकी आदिमें पवित्रगुणोंके समुद्र अभीष्ट देवका स्तवन किया करते हैं । समन्तभद्र स्त्रामीन भी इसीलिये इस श्रावकाचारको रचनाके प्रारम्भमें अपने इष्ट गुणों के स्थानभूत श्रीवर्धमान भगवानको नमस्कार किया है।
मंगल करनेका फल अनेक तरहके अभ्युदयों की सिद्धि आदि भी बताया है । हमी प्रन्यान्तरोंके कथनानुसार विद्वानोंको यहां पर भी यथायोग्य पटित कर लेना चाहिये।
ऐसा भी कहा है कि "मंगल निमित्त हेतु प्रमाण अन्यका नाम और शास्त्र काँका माम इस तरह छह बातोंका अन्यकी श्रादिमें वर्णन करना चाहिये । ७ इनमेंसे मंगलका उन्लेखशी स्पष्ट ही है, अन्य विषय श्रनुमान अथवा तर्क द्वारा समझाने चाहिये। जिसके कि लिये अल्पके अन्तिम दो पध तथा अन्यकी पद्य संख्या श्रादिका आधार पर्याप्त है।। ___ शब्दोंका सामान्य विशेष अर्थ---नम: यह अध्ययपद है जिसका अर्थ होता । नमस्कार। अर्थात् अन्यकर्ता कहते हैं कि मेरा नमस्कार हो । इस पर से प्रश्न उठ सकता है कि किसकी 2-घट खण्डागमः प्रारम्भ में "गमो अरिहन्ताणं" आदि..... मोदराम्सकी आदि में "मोक्षमार्नस्न
नेतारमण तथा समयसार प्रवचनसार के "बंदिस्तु सम्वासद्धे, एस सुरासुर" भादि मंगल पर इसके
प्रमाण है। २-"म" पापं गालयति-विनाशयति इति । तथा "मंग"-मुर्ग पुण्यं वा जाति ददाति इति । हेली
ममगार धर्मामून अ शोक ११ की टीका और तद्गत दोनों पर। ३-'यान्सि बटुवित्रानि नमधुना भवत्' क्षत्रचूडामणी (वादीभसिंह) ४-नेष्ट' विइन्तु -शुभभावमपरसप्रकर्षः प्रमुरन्तरायः । तत्कामचारेण गुणानुराणान्तुत्वादिािय
भवहदादेः॥ ५-नास्तिकत्वपरिहारः शिष्टाचारप्रपालनम् । श्रेयोऽवामिश्च निर्वित्र शास्त्रावावालसंस्तवात् ।। ६.अबला आदि-मंगलहेतुनिमितप्रमापानामानि शास्त्रकर्टश्च । व्याकृत्य पपि पश्चातम्यांचा
माचार्यः १०० १४६-- १५० येन स्वयं मावि तथा मुख्याल कादि।
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रत्नकरण्ड श्रावकाचार
और क्यों ? इसके उत्तर में ही नमस्य भगवान्की तीन पदों द्वारा विशिष्टता - नमस्कारके योग्य असाधारण गुणवत्ता इस पद्यमें प्रकट की गई है। पहले पदके द्वारा हितोपदेशकता, दूसरेके द्वारा वीतरागता और तीसरे अथवा उत्तरार्धके द्वारा सर्वज्ञताको दिखाया गया है। जिससे यह अर्थ निकलता है कि जो हितोपदेशी है वह नमस्य है। किन्तु हितोपदेशी वास्तव में वही माना जा सकता है जो वीतराग एवं सर्वज्ञ हैं । लोक में भी जो रागद्वेष अर्थात् पक्षपात से ग्रस्त हैं तथा प्रकृत विषयमें अजानकार है उसका उपदेश या निर्णय हितरूप एवं प्रमाणरूप नहीं माना जाता | नमस्कारसे प्रयोजन यहां विजय हैं! कि श्रागममें पांच प्रकार के विनयका जो उल्लेख मिलता है उनमें से मोक्षाश्रय विनयक शिवाय शेष चार प्रकारके विनयका यहां सम्बन्ध घटित नहीं होता ।२
श्रीवर्धमान - इस शब्द के दो अर्थ प्रसिद्ध हैं, परन्तु तीन अर्थ भी किये जा सकते हैं। प्रथम तो श्रीवर्धमान यह वर्तमान २४ तीर्थकरोंमेंस अन्तिम तीर्थंकर की उनके माता पिता द्वारा रक्खी गई अन्वर्थ संज्ञा है, दूसरा इसका अर्थ २४ तीर्थंकर होता है। तीसरा अर्थ समवसरण विभूतियुक्त अन्तिम तीर्थकर भी हो सकता है
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वर्तमान हुंडावसर्पिणीमें होनेवाले तीर्थकरों मेंसे चोबीसवें तीर्थंकर भगवान् पांच नामसे प्रसिद्ध हैं---बीर महावीर अतिवीर सन्मति और श्री वर्धमान । पांचो ही नामके भिन्न २ कारण हैं और वे भित्र २ व्यक्तियोंके द्वारा रक्खे गये हैं३ । इनमेंसे श्रीवर्धमान यह नाम उनके माता पिता द्वारा जन्मसे दशमें दिन रक्खो गया था । यद्यपि इस नामकरण में कुछ अर्थ की भी अपेक्षा रक्खी गई है। यहां पर ग्रन्थकति इंद्र रुद्र देव और चारण मुनिके रक्खे हुए नामका उल्लेख न करके माता पिता के रक्खे हुए नामका ही उच्चारण किया है। यद्यपि आचार्योंने अनेक स्थानों पर 'श्रीवर्धमान' शब्दका प्रयोग न करके केवल "वर्धमान" शब्द का ही प्रयोग किया हैं सो संभव है कि यह केवल पूर्ण नामके स्थान पर उसके एक देशका प्रयोग करनेकी पद्धति के अनुसार ही किया गया हो । जैसे कि बलभद्रको बल या भद्रं शब्दसे ही लिखना अथवा सत्यभामाको सत्या या केवल भामा शब्दके द्वारा ही बोलना । किन्तु वास्तवर्म भगवानका पूर नाम 'श्री वर्धमान' ही रक्खा गग ।
११ आत्मस्थितेचं हेतु विचारणीयम् न तु जात्यन्तर संक्रमेण । दुवर्णनिर्वविधौ बुधानां सुवर्णवर्णस्य मुधानुबंध: पेषु ये दोषमनीषया दोषान् गुणीकर्त्त मधेशते वा । श्रोतु कवीन' वचनं न हो, सरस्वतीद्रोहिषु फोड धिकारः ॥ १-३७,३८ । (दशस्तिलक) । २- लोकानुवृत्तिकामार्थमयनिःश्रेयसाश्रयः । विनयः पंचधावश्यकार्यों ऽ त्यो निर्जरार्थिभिः ।। तथा लोकानुवर्तनाहेतुरित्यादि विनयः पंचमो यस्तु तस्यैषा स्यात्प्ररूपणा ||
इत्यन्तम् ।1 (अ० ० ८-८)
३- इसके लिये देखो श्री अशग कविकृत महावीर चरित्र अपरनाम वर्धमान चरित्र के सर्ग १७ के क नं० ८३ ६१,३२,६८, १२६ । ४ - जैमा कि इसी वर्धमान चरित्र के सर्ग १७ के श्लोक नं० ६.१ " से free होता है। किंतु आगम में गर्भाधानादि ५३ क्रियाओका वर्णन दिया है उनमें जन्म से १२ में दिन अथवा उसके बाद नामकरण की विधी बताई है देखो आदिपुराण पर्व ३८ श्लोक ०
५- तीर्थकर भगवानका जन्माभिषेकके अनन्तर इन्द्रद्वारा नामनिवेश किया जाता है। परन्तु आगंम पद्धति
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चंद्रिका टीका प्रथम श्लोक
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दूसरा अर्थ चौवीस तीर्थकर भी होता है जैसा कि श्री प्रभाचन्द्राचार्यादि की की गई निरुक्ति से स्पष्ट होता है । तीसरा अर्थ श्री — अन्तरंग वहिरंग विभूति से युक्त वर्धमान भगवान अर्थात् समवसरण स्थित अन्तिम तीर्थकर ऐसा भी हो सकता है।
तीनों ही अर्थ निर्वाध हैं। फिर भी मालूम होता है कि ग्रन्थकर्ताको अन्तिम अर्थही मुख्यतया यहां अपेक्षित रहा है। क्योंकि इस समय उनका ही शासन प्रवर्तमान है जिसको कि दृष्टि रखकर यहां ग्रन्थकारने श्रावकाचारका दर्शन किया है
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निघू तक लिलात्मने - निकालकर दूर कर दिये है कलिल आत्मासे जिसने । कलिल शब्दका अर्थ होता है-- कलि-कलहं लाति दत्ते इति कलिलम् | जो बलह झगड़ा या विरोध का कारण है उसको कहते हैं कलिल । यहाँ इस शब्द से आशय उन पाप कमोंसे है जो कि संसारमें शांति भंग करनेमें मूल कारण हैं, उन पाप कमोंको (जो कि प्रवाहरूपसे जीवात्माके साथ अनादिकालर्स लगे आ रहे हैं, अपनी आत्मासे सर्वथा जिन्होंने पृथ कर दिया है, जो उन पापोंसे रहित हो जानेके कारण स्नातक अवस्थाको प्राप्त हो चुके हे उनको कहते हैं निर्व कलात्मा ।
यों तो पाप कर्मोंकी संख्या १०० है, घाटिया कमकी ४७, नामकर्मको ५० और साताबेनीयता तक आयु | किन्तु प्रकृत स्नातक अवस्था वाले सर्वज्ञ जीवन्मुक्त हितोपदेशी तीर्थंकर भगवान्के इनमें से ६३ का अभाव हो जाया करता है। घालिया कमोंकी ४७ तथा श्रचातिककी १६, जिसमें कि ३ श्रायु भी सम्मिलित हैं, इसतरह कुल ६३ प्रकृतियोंका क्षय करके शुद्ध चैतन्यको सिद्ध करने वाले परमेष्ठीको मह वस्था प्राप्त हुई मानी गई है। इन ६३ प्रकृतियोंमें प्रायः पाप प्रकृतियां हीं हैं - यही कारण है कि इनको अपनी आत्मासे पृथक वर देनेवाला निर्घावलिलात्मा कहा गया है। ऊपर पापकों की संख्या १०० कही है और यहां कुल ६३ का ही चय कहा गया है जिनमें कि पाप कर्मोंकी संख्या ५८ ही है। क्योंकि ६३ में युस्त्रिकात और उद्योत ये पांच प्रकृतियां रा रूप हैं इससे यह स्पष्ट हैं कि अभी उनके ४२ पाप कर्मोंका सच बना हुआ है। फिर भी इनकी जो विधुतकलिलात्मा पाएका विधातक कहा गया है उसके कई कारण है— प्रथम तो पाप कर मुख्य के अनुसार जन्म के १५ वें दिन माता रिल द्वारा नाम निर्देश होना चाहिये | किन्तु अन्य तीर्थकरों विषय में इस तरह नामकरण का वर्णन देखने में नहीं आया. संभव हैं इन्द्र द्वारा रक्खे गये नाम को ही माता पिता द्वारा स्वीकृत कर लिया गया हो और नामकरण क्रिया के समय १२ वें दिन उसी नामकी विधि पूर्व घोषणा कर दी गयी हा १- इस शब्द में चार शब्द हैं— श्री, अब श्रद्ध, मान । श्री-विभूतिअब उपसर्ग है, और ऋद्ध बढा हुआ, मान- केवलज्ञान । अर्थात् समवशरण विभूतियुक्त है सर्वोत्कृष्ट अवस्थ तक पहुंचा हुआ प्रमाणभूत केवलज्ञान जिनका |
२ध्यान रहे पुण्य और पापको संख्या बताने में स्पर्शादिक २० कर्मप्रकृतियोंको दोनों ही तरफ गिना गया है । क्योंकि इनका फज़ दृष्ट अनिष्ट दोनों ही प्रकारका माना गया है ।
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रलकरण्हश्रावकाचार
घातिया कर्म हैं जो कि अात्माके वास्तविक अनुजीवी गुणोंका घात करने वाले हैं । इनमें भी मुख्य मोहनीय कर्म है । इस मोहनीय कर्मके निमिचसे ही संसार और उसके कारण भूत कर्मोंकी श्रृंखला बनी हुई है या चल रही हैं। इसके निर्मल हो जाने पर सभी कर्माकी संतति विश्वस्त हो जाती है—कोई भी कर्म बंधको प्राप्त नहीं हुआ करना और न किसी भी कर्मका ऐसे रूपमें उदय ही हुआ करता है जो कि नवीन बंधकर कारण हो सके । यही कारण है कि इसको सिद्ध करना—उसको निर्मूल करके उस पर विजय प्राप्त कर लेना मोक्ष मार्गके साधनमें सबसे अधिक दुष्कर कार्य माना गया है १ । इस मोहनीयके नष्ट हो जाने पर इसके समान काम करनेवाले शेष वातिया कर्मों का विनाश भी सहज ही हो जाया करता है.--वे भी निर्मल नष्ट हो जाते हैं। सथा इनके साथ ही अघातिया कर्मोंकी भी कुछ प्रकृतियां नष्ट हो जाया करती हैं । फलतः मूलभूत पाप कर्मोंके नष्ट हो जानेसे इनको निर्ध तकलिलात्मा कहा गया है।
दूसरी बात यह है कि जो पाप कर्म अभी सत्ता में बने हुए हैं वे मोहके उदयका निमित्त न रहनेसे अपना कार्य करनेमें समर्थ नहीं हुआ करते ३ वे था तो विना फल दिये ही निर्जीर्ण हो जाते हैं अथवा अन्य सजातीय पुण्यकर्म प्रकृतिक रूपमें संक्रमण कर लिया करते हैं ।४ जैसंकि श्रमाता वेदनीय साता वेदनीयके रूप में, नीचगोत्र उच्चगोत्र के रूपमें, अयशस्कीर्ति यशस्कार्तिके रूपमें, इत्यादि । अत एवं सर्वथा असमर्थ सत् रूप उन पापकर्मीको कोई भी महच या मुख्यता प्राप्त नहीं है। जिनको मुख्यता प्राप्त है उनको उन्होंने नष्ट करके ही सर्वत्रता एवं हितोपदेशकता प्राप्त की है। ___ तीसरी बात यह है कि यदि ऐसा न माना जायगा तो न तत्यव्यवस्था ही इन मवेगी और न कार्यकारणभावके भंगका प्रसंग आये बिना रह सकेगा । इस विषयमें भागे चलकर और भी लिखना है अतएव यहां विशेष नहीं लिखा जाता। अनावश्यक विषयको द्विरुक्ति श्रादिके द्वारा वसाना उचित नहीं है। अस्तु ।
इस विशेषणके द्वारा भगवानकी वीतरागता या निर्दोषताको स्पष्ट किया है जो कि सर्वत्रता का और उनके शासनमें सर्वाधिक प्रामाणिकताका भी कारण है।
सालोकानां त्रिलोकानां विद्या दर्पणायते ।
सालोक-~-अलोकसहितको कहते हैं सालोक यह "त्रिलोक" का विशेषण है। अलोक शब्द क्योंकि निषेधपरक है अतएव उसके दो तरहके अर्थ हो सकते हैं,- पर्युदास और प्रसज्य । जहां किसी अन्य पदार्थके रूप में निषेधका आशय लिया जाय वहां पर्युदास और जहां केवल निषेधका ही अभिप्राय हो वहां प्रसज्य अर्थ माना जाता है। यहां पर अलोकका अर्थ पयुदास करना
-अक्खाण रमपी "कम्माण मोहणी" तह वयाण वम्भं च ।गुत्तीणं मणगुत्ती चउरो दुकोण सिज्मति । २-मोहलयाजानदर्शनावरणान्तरायक्षयान्य केवलम् । मोक्षशास्त्र १६-२४३ मोहस्तं मलेण पादे जीवम -सावसरूपेण परिणमदि आदि । ५- प्रयु दासा सरप्राही प्रसज्यस्तु निवेधकत् ।
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मातीका मारक चाहिये । क्योंकि लोकका अभाव ऐसा ही अर्थ यदि लिया जायगा तो लोकका जो प्रमाण बताया है उसके बाहर कुछ भी नहीं है ऐसा सर्वथा निरोधरूप ही अर्थ निष्पन्न होगा सो अर्थ ठीक नहीं है। जैसा कि आगममें बनाये गये लोक अनाकर्फ अथसे विदित होता है । लोक शब्दका अर्थ ऐसा होता है कि जो देखे जाय अथवा जहाँ पर जीवादि पदार्थ देखे जांय उसको लोक कहते हैं । अतएव जो जीवादि पदार्थोंके समूहरूप है---छहों द्रव्योंके समुदायरूप हैउसको लोक ऋहते हैं---अथवा जितने आकाश में छहाँ द्रव्य पाये जाने हैं उतने आकाश प्रदेशोंके प्रमाणको भी लॉक कहते हैं । लोक शब्द के और भी अनेक अर्थ किये हैं। परन्तु प्रकृतमें ये दो अर्थ ही मुख्य हैं । यह लोक द्रव्यांक समूहरूप होनसे स्वतः सिद्ध अकृत्रिम है और अनादि तथा अविनश्वर है।
त्रिलोकानाम्-इम लक्के मुख्यतया तीन विभाग हैं,-अधोलोक मध्यलोक और ऊय लोक । ये नीन विभाग क्षेत्र विशेषकी अपेक्षा अथरा पुण्य पापके अनुसार उत्पत्तिकं योग्य स्थानों की अपेक्षासे बताये गये है। बागममें प्राय: ये तीन ही विभाग सर्वत्र प्रसिद्ध हैं । किन्तु इनके सिवाय सात नौ या चौदव इस तरहसे भी भेदोंकी संख्याका उल्लेख मिलता है जो कि भिन्न २ अपेक्षाओंस किया गया है : लोकका प्रमाण निश्चित है जैसा कि आगे चलकर४ बताया जायगा । उसके बाहर मभी दिशागमें अनन्त आकाश रूपमें अलोक है । इस तरह लोक तथा अलोकका सामान्यतया यहां निदेशमात्र किया गया है । इसके प्रमाण आदिका विशेष वर्णन करणानुयोग के लक्षण आदिका वर्णन करनेवाले त्रिलोकसार, त्रिलोकप्रज्ञप्ति आदिमें देखना चाहिये । संचपमं यहां भी कारिका नं. ४४ की व्याख्याक समय किया जायगा। ___यद्विद्या--- विद्या शब्द के अर्थ और भी अनेक हो सकते है । परन्तु यहां उसका अर्थ ज्ञानही लेना चाहिये। मतलब यह कि यहां पर यविद्या जिनका ज्ञान ऐसा कहने से समवसरण स्थित बीतसंग भगवान के उस कंवल झानको बतानेका है जो कि पूर्णतया निराकरण है और जिसमें युगपत्-विना क्रमक ही सम्पूण पदार्थ प्रतिभासित होते हैं और जो कि आत्मा के लक्षण रूप चैतन्यका ऐसा विशुद्ध स्वरूप है जो शाश्यतिक है. अपने स्वरूपमें ही सदा विद्यमान रहता है, जिसमें न कभी न्यूनाविकता आती और न किसी तरह के विकार का ही सम्बन्ध हुआ करता है, F-'पंचारित कायाः कालश्च लोकः ५-५-२६,' यन्त्र पुण्यपापफललोपन स लोकः '५०' लोकतीति वा लोस: ___ ११ (पद्रव्यसमूही लोकः) 'लोक्यने ।त वा लीक: '१६' पस्थेन सर्व लोक्यत यः स लोकः' रावा०५-१२ । जान्छ गाधनप्रभागा लोकः ति०१० अ० १-६ । २...आणिोण होणो पगदिसरूपेण एस संजादो। जीवाजीव-समिद्धो मन्त्ररहवलोहमी लोओ, 'ति० ५० अ० :-५३३ । ५. यान्त्रीणि सप्त चतुर्दश भुवनानि' अ: चिट १-७६ ! भुवनानि निमनीयास्त्रीणि मप्त चतुर्दश । काग्भटालंकार । णाम ठवरणं इन्च खेस निगई कहाय लोओ य । भक्लाग भावलोग पज्जयलोगो य णादव्यं । अ० ध० टी ८-३७ १४–करणानुयोगका स्वरूप वर्णन करनेवाली कारिका नं० ४४ की व्याख्या में |५--विद्यारंपदं प्रयच्यामि तस्वार्थश्लोकवार्तिक १-१ प्रसिद्धं च सकलविद्यास्पदत्वं भगवतः सर्वज्ञत्वसाधनात् । ३० श्लो० मंगलाचरण ।
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उश्रावकाचरी
अपने शुद्ध स्वरूप में ही वह परिणमन करता हुआ अनन्त कालतक अवस्थित रहा करता है ।
दाते- - व्याकरण में जिस तरह धातु से नाम बनते हैं उसी तरह नाम से धातु भी बनते हैं। यहां पर भी उसी नान धातु प्रक्रिया के अनुसार दर्प शब्द से दर्पणायते यह क्रिया बनाई गई है जिसका अर्थ होता है दर्पण के समान आचरण करना । इस क्रिया के प्रयोग करने का आशय दृष्टान्त पूर्वक अर्थ विशेष को स्पष्ट करने का है । दृष्टान्त के सभी धर्म दाष्टांन्त में नहीं मिला करते अन्यथा दृष्टान्त और दान्त का भेद ही नहीं रहेगा । अतएव जिस अंशको स्पष्टतया समझाने के लिये दृष्टान्त दिया जाता है उस स्टान्त को उसी अंश में घटित करना चाहिये। यहां पर दर्पण के दृष्टान्त का श्राशय यह है कि जिस तरह स्वच्छ दर्पण के सामने जो भी पदार्थ आते हैं वे सभी स्वाभाविकतया उसमें प्रतिबिम्बित हुआ करते हैं । उसी प्रकार आवरणादि दोषों से रहित पूर्ण स्वच्छ चैतन्य में स्वभाव से ही सम्पूर्ण पदार्थ-तीन लोक के भीतर पाये जाने वाले पदार्थ और उनके समस्त गुणधर्म तथा उनकी अतीत अनागत सर्भ । अवस्था निमारित हुआ करती हैं।
तात्पर्य - ऊपर नमस्कारात्मक मंगलरूप कारिकाका सामान्य अर्थ तथा पद्यगत शब्दों का आशय लिखा जा चुका है। यहां पर इस श्लोक के सम्बन्ध में कुछ और भी लिखने की इसलिये आवश्यकता है कि इसका हृद्गत तात्पर्य पाठक श्रोताको विदित हो सके
मंगल अनेक प्रकार के हुआ करते हैं-मानसिक वाचिक कायिक | वाचिक मंगल भी दो प्रकारका बताया गया है। निद्ध तथा श्रनिबद्ध । इसके सिवाय कोई जयवादरूप कोई आशीafreen कोई निर्देशस्वरूप कोई गुणस्तवनरूप तथा कोई नमस्कारात्मक मंगल हुआ करते है । ५ इनमें से यह नमस्कारात्मक निबद्ध मंगल है । इसमें स्पष्ट हीं नमः शब्दका प्रयोग किया है ! नमस्कारका उल्लेख इस बातको व्यक्त करता है कि नमस्कर्ता के हृदयम ननस्य व्यक्तिके गुणों श्रथवा उसके व्यक्तित्व के प्रति कैसा और कितना अनुराग है । प्रन्थकर्त्ता भावी तीर्थंकर श्री
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१-९० ० कारिका न० ४० । तथा तैलीकणांप ण चालिज्जो
२- तज्जयति परंज्योतिः सभ समस्वरनन्तपर्यायः । दपंणतल व सकला प्रतिफलति पदार्थमालिका यत्र । पुरुष ० १ । तथा प्रवचनसारका ज्ञानप्रपचनामा अन्तराधिकार यथा- तिक्कालपिच्चासयं सबल सभ्यत्य संमधं वित्तं । जुन जागांद जागणं अहाहिं णाणस्त्र माह ॥५२॥
३ तस्य मनःकावास्यामपि सम्भवात् । अ० २० पृ० ६ । 'मनसा वचस तन्वा कुरुते कीर्तनं मुनिः । ज्ञानादीनां जिनेन्द्रस्य प्रणामस्त्रिविधो मतः । अ० ० ८-६५ टीका ।
४- धवला
५--जयवादरूप - तज्जयति परंज्योतिः समं समस्तैरनन्तपर्यायः । दर्पणतल इव सकला प्रतिफलति पदार्थमालिका यत्र | पु० [सं० । “जय जय श्री सत्काान्तप्रभा जगतां पंत, जय जय भवानेव स्वामी भवाम्भसि सताम् ॥ इत्यादि (नि० पू०) श्रापतिर्भगवान् पुष्याद्भक्तानां कः समीहितम् । क्ष० धू० यवा - " श्रीकान्ता कुछ कुम्भ" “पुष्यासुमनसो मतानं जगतः स्याद्वादवादविषः । " यश० २-१ इत्यादि प्रमाणादर्य संसिद्धि इत्यादि । अचिह्नकम्मावयता सादादा गिरंजणा गिचा, अदुगुणा किंदांकच्चा लोयग्गणिवासिणों सिद्धा !"
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चंद्रिका टीका प्रथम शोक समन्तभद्र स्वामीने नमस्य व्यक्तिके असाधारण गुणोंका तथा नमस्कारके कारणका उन्लेखपूर्वक जो नमस्कार किया है उससे उनकी आन्तरिक विशुद्ध श्रद्धा दर्शनविशुद्धिके साथ अईयक्तिका परिचय मिलता है। __ इस तरह के नमस्कारसे जो पापका क्षय होता है तथा पुण्यका बन्ध या बद्ध पुण्य कर्मों की स्थिति अनुभागमें प्रकर्ष हुमा करता है अथवा अशुभ कर्मो का संघर निर्जरा हुश्रा करती है उसका वर्मान करने से ग्रन्थ का विस्तार बहुत अधिक बढ़ जायगा अतएव यहां नहीं किया जाता। विद्वानोंको तो बताने की आवश्यकता भी नहीं हैं अन्य विशेषजिज्ञासुओं को ग्रन्थान्तरों से जान लेना चाहिये।
श्रीवर्धनान शब्दके सम्बन्धमें पहले लिखा जा चुका है कि इसके तीन अर्थ हो सकते हैं। यह भन्तिम तीर्थकरका उनके माता पिता द्वारा जन्मसे दशवें दिन रखा गया नाम है यह बात श्री महाकनि प्रशगके वर्धमान चरित्रसे विदित होती है१ । आगममें नामकरण के सम्बन्धमें क्या विधान है यह बात श्री भगवज्जिनसेन आचार्यके श्रादिपुराण पर्व ३८ से जान लेनी चाहिये। उसका संक्षिप्त प्राशय इस प्रकार है___ उपासकाध्ययनके अनुसार क्रियाएं तीन प्रकार की बताई है, गर्भान्वय, दीक्षान्वय, मौर फत्रन्यय, जिनका कि सम्यग्दृष्टियोंको अवश्य ही पालन करना चाहिये । इनमें से गर्भान्वयके ५३ दीचान्ययक ४८ और कर्जन्वयफे ७ भेद हैं। गर्मान्वय के ५३ मेदोंमें सारावी क्रिया नामकर्मके नामसे बताई गई है। इस सम्बन्धमें लिखा कि-- द्वादशाहात्परं नामकर्म जन्मदिनान्मतम् | अनुकूले सुतस्यास्य पित्रोरपि सुखावहे ॥७॥ यथाविभवमोष्टं देवर्षि द्विजपूजनम् । शस्तं च नामधेयं तत्स्थाप्यमन्वयवृद्धिकत् ।।८८|| अष्टोत्तरसहस्राद्वा जिननामकदम्बकात् । घटपत्रविधानेन ग्राह्यमन्यतमं शुभम् ।।६॥
मतलब यह कि सातवीं नामकरण क्रिया जन्मके दिनसे बारहवें दिन होनी चाहिये । जबकि पुत्र के लिये और उसके माता पिताके लिये वह दिन सुखावह तथा अनुकूल हो-चन्द्रमा नक्षत्र भादि ग्रहयोग सब शुभ हो । इस क्रियामें अपने २ घेवके अनुसार देव ऋषि और द्विजोंका पूजन किया जाता है और जो वंशकी वृद्धि करनवाला हो ऐसा प्रशस्त नाम रख दिया जाता है। अपना घटप विधागके द्वारा भगवान् के एक हजार भाउ नामों से कोई एक शुभ नाम चुनकर रखलिया आता है।
इस विधिमें चारहवें दिन नाम रखना बताया है और अशग कविने दश दिन नाम रक्खा गया लिखा है संभव है कि दशवां दिन ही पुत्र और मानाके लिये अनुकूल एवं मुखावह पडनेकर "तसंजम पसिद्धो सग्गापवम्गमगकरो। अमरासुरिंदमहदो देवोसो लोयसिहरत्यो"। तुभ्यं नमस्त्रिमुकनासिहराय नाथ ..."इत्यादि (भक्तामर) १-वर्ग १७ रनोक न०१।२-श्रीवर्धमान भगवान का जन्म क्षेत्रशुका १३ को उत्तराफाल्गुनी नामें
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कारण दो दिन पहिलेही यह किया करली गई हो । अथवा अन्य कोई कारण है सो हमारी समझ में नहीं आया ।
वर्धमान शब्द का अर्थ २४ तीर्थंकर भी किया गया है । यह अर्थ रत्नकरण्ड श्रावकाचार के टीकाकर्ता श्री प्रभाचन्द्रने किया है। और प्राचीन आचारों के कनसे भी इस अर्थ की पुष्टि होती है । श्रीभगवजिनसेन श्राचार्यने आदिनाथ भगवान की इन्द्रद्वारा एक हजार आठ नामसे की गई जिस स्तुतिकी रचना की है उसमें भी वर्धमान इस नाम का उल्लेख मिलता है टीका टिप्पण कारोंने इस शब्दका जो अर्थ किया है वह सामान्यतया सभी तीर्थंकरोंपर घटित हो सकता है
इसके fate महापण्डित प्रशाधरजी के सहस्र नाममें भी वर्धमान नामका उल्ल ेख है और यह सहस्र नाम किसी एक तीर्थंकर को ही नहीं अपितु अनन्त श्रहन्तोंको लक्ष्य करके बनाया गया है - इसके द्वारा सामन्यतया सभी ईन्तों की स्तुति की गई है। इस वर्धमान शब्दका अर्थ टीकाकार श्री श्रुतसागर सूरीने जो किया है वह भी सामान्यतया सभी तीर्थंकरों या ईन्तों पर घटित होता है ।.
शब्द नयको दृष्टि में रखकर आगममें प्रयुक्त शब्दों के विषय में यदि विचार किया जाय तो वे प्रायः - अधिकतर योगरूढ ही मालू होते हैं । अत एव उनका अर्थ रुदि और अन्यता दोनों को ही सामने रखकर करना श्रविक संगत प्रतीत होता है। अतः विचार व रनेसे मालूम होता है अर्थ की अपेक्षा सभी तीर्थंकर या श्रईन्त वर्धमान शब्द के द्वारा कहे जाते हैं या कहे जा सकते हैं परन्तु अन्तिम तीर्थकर अर्थ की अपेक्षा साथ २ नाम निक्षेप से भी वर्धमान हैं ।
वर्धमान शब्द के साथ जो श्री शब्द लगा हुआ है उसके सम्बन्ध में दो बाते हैं-१ अश त्रिके कथन से तो मालूम होता है कि वह नामका ही एक अंश है २ परन्तु अन्य व्याख्याओं से मालूम होता है वह भगवान की असाधारण विभूतियों सूचित करने के लिये विशेषस्य रूप में प्रयुक्त हुआ है। दोनों ही अर्थ संगत हैं । इस विषय में हम पहले लिख चुके हैं अत एव यहांपर
था। इससे १०वें दिन वैसाख कूट ७ को उत्तराषाढ नक्षत्र हिसाब से आता है; और बारहवें दिन बैसाख ०६. श्रवण या धनिष्ठा नक्षत्र आता है, इनसे भगवान और उनके माता पिता के लिये कौनसी मिति नक्षत्र आदि शुभ पडते हैं, इसका विचार ज्योः तत्ता को करना चाहिये।
१- सिद्धिदः सिद्धसंकल्प सिद्धात्मा सिद्धसाधनः । बुद्धबाध्य महाबोधिवर्धमानो महर्द्धिकः । आदिपुराण २५-१४५ २ - सहस्रनाम पूजा आवि ।
३- निर्वाणादि शतक (1) श्लोक नं ६० यथा- नेमिः पार्थ्यो वर्धमानो महावीरच वीरकः ।
४- इदमष्टोत्तरं नाम्नां सहस्त्र' भक्तितोऽर्हताम् । योऽनन्तानामधीतेऽसौ मुक्त्यतां मुक्तिमनुते । आशाबर
कृत सहस्रनाम ।
५- वर्धते ज्ञानेन वैरान्देण च लक्ष्म्या द्विविधयां वर्धमानः । अथवा अत्र समन्ताद् ऋद्धः परमातिशयं प्राप्तो मानो ज्ञानं पूजा वा यस्य स वर्धमानः । आशाचर सहश्रनामका श्रुतसागर ढोका | ६- वर्धमान चरित्र स० १४९१ ।
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चौद्रका टीका प्रथम श्लोक उसके विषयमें विशेष न लिखकर केवल उनकी असाधारमा विभूतिके सम्बन्ध में ही कुछ लिखना उसका दिग्दर्शन कराना उचित प्रतीत होता है।
सभी तीर्थकर अपनी विभृति के कारण लोकोत्तर हैं । भिन्न २ आचार्योंने उनकी विभूतिको भिव २ प्रकार से गिनाया है। फिर भी पाठक देखेंगे कि वे सभी कथन परस्पर में निरुद्ध नहीं सभी आपसमें अविरुद्ध है। किसी आचायने सामान्यतया एक प्रभुता के नामसे ही उनके लोकांतर माहात्म्पका वर्णन किया है। किसी प्राचार्यने अन्तरंग और बहिरंग इस तरह दो भागों मे उनकी महत्ता को विभक्त कर दिया है। शारीरिक, देवकन और केवल प्रान निमितक इसतरह तीन भागोंमें भी उनके अतिशय को विभक्त किया जा सकता है किन्हीं प्राचायों न शरीर वाणी भाग्य
और आत्मा के सम्बन्ध को लेकर उनके अभाधारण ऐश्वर्य को चार भागों में विभक्त कर दिया है । पांच कल्याणकों की अपेक्षा पांच भेदों में, नाम स्थापना द्रव्य क्षेत्र काल भाव की अपेक्षा छह भेदों में, और सात परमस्थानों की अपेक्षा उनके ऐश्वर्य या माहात्म्य को सात भेदोंमें भी परिगणित किया जाता है। आठ मो में भी प्राचार्यों ने गिनाया है। इस तरह तीथकर भगवान की "श्री".-विभूति के सम्बन्ध में प्राचायों ने सो जो उल्लेख किया है वह उनके असाधारण माहात्म्म को प्रकट करता है।
याप भगवान् श्री वर्धमान स्वामी के समकालान किसी किसी अन्य धर्मप्रवर्तक ने भी इस महता को अपने में बताने का प्रयल किया था परन्तु उनका यह कार्य किस तरह अस्वाभाविक
और असफल एवं अमान्य सिद्ध या यह उनके उन का ही सूक्ष्मतया एवं निएन भाव से अध्ययन करने पर विदित हो जाता है। यही कारण है कि श्री समन्तभद्र स्वामी ने आजमीमांसा में कहा है कि
देवागम-नभोपानशामरादिविमूनयः ।
मांश विष्वपि दृश्यन्ते नातस्त्वमसि नो महान् ।।१।। इत्यादि । १-तित्थयराण पहत्तं. हा बलदेवके वाण च । दुबल व सावत्ता तिरिणच परभाग पत्ताई : ना. घ. टी० २ अध्यात्म दहि रायप विप्रहादेमहादयः । प्रान। आम्मान पधिनियतिमानोऽपात्मनो विमा शादिमहोदयः शश्वनिःस्वेदत्वादिः परापनत्वान् । ततो बहिर्गबाद फवृष्ट्यादि बहिरंगी देयो पत्नीनवान् । अष्टमहसी -अष्टोसरसहनलक्षणादयो दश महाजाः शारीरातिशयाः। देवकृताश्चनुदशांतशयाः ।....................... कंवलज्ञाननिमित्तकाः दशातिशयाः ।। - प्रवचनसार गाथा १०० के अनुसार व्य गुण पाय इस तरह से भी तीन भेद कहे जा सकते है या जो जाणदि अहित दव्यत्त गुणत्तपन्जयत्तेह । मो' जाणदि अप्पाणं मोहो खनु जादि तस्य लयम् ।
४-आदिपुराण।
५-६६.सा. ज. ६.३ तेजो लिट्रीणाणं इद्री मोक्ख तडेव ईमरियं । तिहुयम पहाण :यं माइप्प जस्स सो अरिहो। इसमें मात अतिशयही गिनाये हैं। माहात्म्यको पृथक गिनने से आठ हो सकते है। अथवा अनन्तचतुष्टय, शारीर, वाचनिक भाग्य और दिव्य इस तरह भी पाठ हो सकते हैं!
७-इसके लिये खो बा० कामताप्रसाद जी द्वारा लिखित "भगवान महाबीर और पहात्मा बुद्धा ८-यहांपर प्रयुक्त "मायाविषु 'शब्दका स्वामी विद्यानन्दन अष्टमहलीटीका में "मष्फरिप्रभृतिषु साप
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रत्नकरएखभाषकाचार पहासे लेकर “सन्धमेवासि निदोषी युक्तिशास्त्राविरोधिवाक" यहां तक की ६ कारिकाओं के द्वारा उन्होंने जो कदाप्तताका निगकरण कर श्रीवर्धमान भगशेन में ही सदास को सिद्ध किया है उसमें प्रयुक्त अकाट्य युक्तियां निष्पक्ष निकट संसारी भव्यों के हृदय पर विद्यानन्द स्वामी के समान सहज में ही असर कर जाती हैं और मत्यनच का श्रद्धान कराकर उन्हें मक्तिकै निकट परचा देती हैं।
तीर्थकरों की जो महचा है वह असाधारण है सत्य है और स्वाभाविक है अन्य ग्रन्थकारों ने भी अपने २ ग्रन्थों में अपने २ मत प्रवर्तकों की महत्ता बताते हुए अनेक वानों का उल्लेख अवश्य किया है परन्तु विचारशील विद्वानोंकी दृष्टि में वह इस बात को अवश्य स्पष्ट कर देता है कि उस वर्णन में अन्य किसी भी महान व्यक्ति के सत्यभूत माहात्म्य का किसी भी तरह यहां सम्बन्ध जोड़ कर बतानेका तथा इसके लिये अनुकरण करने का प्रयत्न किया गया है या नहीं।
ऊपर भगवान की महत्ता के सम्बन्ध में हमने तीन बातें कही है__ असाधारण है, सत्य है, और स्वाभाविक है। अमाधारण कहने से प्रयोजन यह है कि जिस तरह के और जो जो गुणधर्म तथा वैभव तीर्थकरों में रहते या रह सकते हैं उस तरह के और वे सब गुणवर्न नथा वैभव किसी भी अतीर्थकर व्यक्ति में न तो रहते ही हैं और न उत्पन्न हो सकते, न रह सकते न पाये जाते या न पाये ही जा सकते हैं। क्योंकि उस तरह के गुणवर्म सथा वैभवका कारण तो उनका तीर्थकर नाम का कर्म विशेष है जोकि नामम्मका जीवविपाकी एवं सर्वोत्कृष्ट पुण्य कर्म का भेद है । यह अन्यत्र जहां नहीं पाया जाता वहां उसके उदय के अनुसार होने वाले कार्य भी किस तरह पाये जा सकते हैं । अतएव तीर्थकरों का वह अन्तरंग वहिरंग वैभव असाधारण ही है।
'सत्य है' यह कहने का आशय यह है कि वह बनावटी या कल्पित नहीं है । अपने महत्त्व को बताने की इच्छा से उस तरह के कार्य जानबूझ कर तैयार किये गये हों ऐसा नहीं है। इनके मूल में किसी भी प्रकार की माया बचना प्रतारणा अथवा अपने महत्व को प्रकट करने की भावना आदि कोई भी प्रवृत्ति काम नहीं करती। ___ स्वाभाविक कहने से प्रयोजन यह है कि पूर्व जन्म के बन्धे हुए कर्म के उदय आदि के मनुसार ये स्वयं ही प्राप्त हुआ करते हैं --तीर्थकर प्रकृति और उसके साथ बन्धे हुए अन्य पुण्य कर्मों के उदय तथा उनके प्रतिपक्षी पापकों का क्षय होजाने से योग्य नोकर्म के अनुसार समवसरणस्व भगवान् की सभी क्रियाऐ स्वयं-नियति वश ही हुआ करती हैं। उनकी विहार स्थिति निषा और देशना रूप प्रवृत्ति अबस्य जीवों के समान इच्छा पूर्वक अथवा प्रयलपूर्वक नहीं हुआ करती। यही उनकी समस्तपरिणतियों के सम्बन्ध में समझना चाहिये । उनके ऐसे जो परिणमन पाये जाते लिखा है । तथा आगे फारिका की टीकाके इस वाक्यसे भो कि "पूरणादिष्वसंभवी", मस्करी मकरिपूरण ही मुख्यतया लिया मालूम होता है।।
१. ठाणपिसेन्जाविहाग धम्मुषदेमो य णियदयो सेमि । अरहंतागं काले मायामागे म हत्तीणं । प्रक मा० १-४।।
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नंदिता टोला प्रथम लोक है जोकि कर्म नोकर्म से सम्बन्ध रखते हैं वे न तो शुद्ध बस्तु के ही परिणाम हैं और न उनके घटपटादि के समान प्रयत्नसाध्य कार्य ही हैं। किन्तु उनका जो वैभव है उसके मूल कारण दो हैं - एक घातिक कर्मी का क्षय और दूसरा पुण्य कर्मों का उदय । जो पुण्य प्रकृतियां घातिकर्मो के उदय के कारण अपना कार्य करने या फल देने में असमर्थ रक्षा करती है वे घातिक कर्मों का आय हो जानस विना निराश के अपना कार्य करने लगती हैं बल्कि विशुद्ध परिणामों के सहयोग को पाकर प्रकप रूप में फल देनमेही समर्थ नहीं होजाती किन्तु अन्य योग्य अशुभ प्रकृत्तियों का भी अपने शुभ रूपमें संक्रमण कर लोकान्तर एवं आश्चर्यकारी फल देने तथा कार्य करनेमें समर्थ होजाया करती हैं।
इसतरह नमम्य भगवान के जिस असाधारण सत्य और स्वाभाविक वैभव को श्रीशद के द्वारा ग्रंथकार ने यहां बताया है उसका आशय विवक्षित धर्मके उपक वक्तृत्वकी तरफ दृष्टि दिलाने का है। क्योंकि तीर्थकर ही धर्मरूप तीर्थ के अादि प्रवर्तक हुश्रा करते हैं । और उनका यह कार्य तीर्थकर नामकर्म के फलस्वरूप हुआ करता है, तीर्थ प्रवर्तन के लिये जिस जिस पास निमित्त की आवश्यकता हुआ करती है, वह सबभी उनको प्राप्त मुमा करनी है ग्रन्थकार ने देवागमनमोयानादि को आसमीमांसा नमस्यता के लिये व्यभिचारी हेतु बताया है। किन्तु यहां पर यह बात नहीं है । उस बाह्य विमतिको यहां पर गिधरित बताने का आशय नहीं है यहां पर तो सभी तीर्थकरों में पाई जाने वाली उस श्रीवर्धमानता को बताने से प्रयोजन है जोकि विवक्षित धर्म के नायकत्व अथवा भागमेशित्व गहा मोक्षमार्ग के नसरत्र को सचित करती है।
मतलब यह है कि यहां पर जिस धर्म का निर्देश तथा अंशतः वर्णन किया जायगा उसके नायक-मूलवक्ता श्रीवर्धमान भगवान है। क्योंकि वे ही पागम के ईश है और वे ही मोचमार्ग के नेता हैं यह बात निम्नलिखित दो वातों पर से अधिक स्पष्ट होजासकती है --- __ प्रथम तो ग्रन्थकार ने नमस्य प्रामके कारिका नं. ५ में तीन विशेषण दिये हैं -उच्छिप्रदोषण, सर्वज्ञन, और आगमेशिना । पहां पर निधूतकलिलात्मने' कहकर जिस गुण का उल्लेख किया वही श्रागे चलकर उक्त कारिका नं०५ म उच्छिन्नदोषण कहकर बताया है और इस कारिका के उत्तरार्ध में जिसका वर्णन किया है उसी गुण को वहां सर्वज्ञान कहकर पता दिया है। इसी तरह कारिका नं०५ में भागोशिना कहकर जिस योग्यता का निर्देश किया है उसीको यहां नमस्कार करते समय श्रीवर्धनान कहकर सूचित किया है । इस तरह पूर्वापर मम्बन्ध पर विचार करने से मालुम होता कि ग्रन्धकार का श्रीवर्धनानाय करने से प्रयोजन या लक्ष्य उस तीर्थप्रवर्तन-आगमेशित्व-या मोक्षमार्गक नेभुत्वसे ही है जोकि ममी तीबरोंमें पाया जाता है और जोकि सभी कृतनोंके लिये प्रन्य के प्रारम्भ में अवश्य स्मरणीय है।
१-गधर भास्थानमामे भावि।
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रत्नकरण्डश्नावकाचार दूसरी बात यह है कि अन्य प्राचीन अर्वाचीन ऋतियों पर दृष्टि देकर मिलान करने से भी यही बात सष्ट होती है !
उमास्वामी भगान् ने मोक्षशास्त्र अपर नाम तत्त्वार्थ भूत्रके मारम्भ में मंगलाचरण करने हुए लिखा है कि
मोक्षमार्गम्य नेतार भत्तारं कर्मभृताम् ।।
ज्ञातारं विश्वतत्यानां बन्दे तद्गुण नब्धये ॥ पाठक महानुभारों को यह बतान की आवश्यकता नहीं है कि मित्तारं कर्मभूभृताम्' और "निधूतकजिलान्मने"का तथा' 'ज्ञातारं विश्वसना" और "मालोकानां त्रिलोकानां गांवद्या दर्पणायते' एक ही बाई है। इसी जान भी मानाय" और "भोक्षमार्गम्य नेतारं" का मा एक ही प्राशय है। यधपि यह ठीक है कि "श्रीवर्धमानाय" इस वाक्य में अन्तिम तीर्थकर का जिनका कि इस समय शासन प्रवर्त्तमान है, नाम भी अामाता है । इस मितानसे भी श्रीवर्धमानाग कहने से मुख्य प्रयोजन धर्म के या तीर्थ के उपज्ञ वक्ता के उल्लेखका ही व्यक्त होता है | अनक ग्रन्धकारों ने मान का अर्थ २४ तीर्थकर किया है जैसाकि पहिले लिखा भी जा चुका है। इससे भी यही सूक्ति होता है कि सभी नीथंकरों का जो सामान्य कार्य तीर्थप्रवर्तन है उसी को इस शब्द के द्वारा बताया है। और सबसे प्रथम उसका ही उन्लेख करने की इसलिये भी आवश्यकता मानी जासकती है कि प्रकृत ग्रन्थ के विषयके अर्थ: मूलवर्णनका सम्बन्ध इमी गुण से है । परन्तु वर्तमान में अन्तिम तीर्थकर भगवान के शासन से इस विषयका सम्बन्ध है अतश्व उनके नामका उच्चारण करते हुए मोक्षमार्गनतत्व गुणको इस शब्दक द्वारा मूचि । किपा है ऐमा समझना चाहिये ॥ ___ 'श्री' शब्द से अत्र चमर सिंहासन देवागम बास्थान भूमि आदि बाह्य विभूति भी लीजानी है, अत एव कदाचित कोई समझ सकता है कि इन विभूति के कारण ही तीर्थकरों या महावीर भगवान की महत्ता है सो यह बात नहीं है। इस बातकी ग्रन्थकारने अन्यत्र स्पट कर दिया है । इसका दिग्दन पहले किया जा चुका है । कहा जा सकता हैं कि संभवतः इसीलिये यहां पर श्रीमधमानाय के साथ २ दूसरे दो विशेषण और भी दिये गये हैं जिनसे नमस्य भगवान की अन्तरंग महन्ता का परिझान हो जाता है कि वे इसलिये ही नमस्य या प्रमाणभूत ६- आजका कुछ लोग इस मंगलाचरण को उमास्वामी का न मानकर "सर्वामिद्धि" टीका के कर्ता श्री पूज्यपाव स्वामी का मानते हैं । परन्तु वह ठीक नहीं हैं। टीका ग्रन्थों का श्राशय और अनेक प्राचारों के उल्लेख से यह बात मालूम होसकती है इसके मिया जैसे ग्रन्थ स्तोत्र श्रादिके प्रारम्भिक शब्दोंके नामसे भक्तामर कल्याणदिर एकीभाव आदि नाम प्रचलित है उसी प्रकार मान शास्त्र नाम भी 'मोक्षमार्गस्य नेता की भादिमें 'माक्ष'शब्द होने से ही प्रचलित है। २-प्रवचनसार के मंगलाचरण की जयसेनायाय कृत टीका में लिखा हैं-"अब समन्तात् ऋद्धं वृद्ध मानं प्रमाणं झानं यस्य स भवति वर्धमानः" । इत्यादि ।
३–“भातमीमांसामें।
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चंद्रिका टीका प्रथम लोक
१५.
श्रयमार्ग के वक्ता नहीं है कि चे इस तरहकी विभूतिकी धारण करते हैं । किन्तु वे इसलिये सत्य हितरूप पूर्वपराविरुद्ध त्रिकालाबाधित शासनके विवाता हैं कि वे वीतराग एवं निर्दोष होने के सिवाय पूर्ण सर्वज्ञ भी हैं ।
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वचनकी प्रामाणिकता के लिये इन दो गुणका बताना आवश्यक भी था । फिर भी यहां कुछ बातें विचारणीय हैं । वीतरागता या निर्दोषताका रब करने के बाद सर्वज्ञता का निदर्शन तो उचित ही है क्योंकि दोनों में कार्य कारणभाव है। वीतरागता के विना सर्वज्ञता प्राप्त नहीं होती ऋत एव पहले कारण का और पीछे कार्यका उल्लेख क्रमानुसार वर्णन के लिये उचित तथा संगत ही है | फिर भी यह समझ लेना चाहिये कि सर्वज्ञता के लिये सामान्य वीतरागता नहीं अपि तु विशिष्ट एवं पूर्ण वीतरागता ही कारण है । क्योंकि सामान्य वीतरागता तो चतुर्थगुण स्थानवर्ती असंयत सम्यग्दृष्टि के भी पाई जाती है परन्तु चतुर्थगुण स्थानसे सर्वज्ञता सिद्ध नहीं होती । और वास्तव में किसी भी कार्य की सिद्धि के लिये समर्थ कारण नही माना या कहा जा सकता है जिसके कि प्रयत्न के श्रव्यवहित उत्तर में ही कार्य की निष्पत्ति होजायर | फलतः सर्वज्ञस्य के लिये सामान्य वीतरागता समर्थ कारण नहीं हैं यह स्पष्ट है ।
इसी तरह वीतरागता प्रतिपत्ती मेह कर्मके उदयका ग्यारहवे गुणस्थान में सर्वथा अभाव है परन्तु वहांसे भी सर्वज्ञता निष्पन्न नहीं हुआ करती । क्योंकि यद्यपि प्रतिपक्षी मोहकर्म की प्रकृतियां यहाँ पर उपशांन होगई हैं- प्रयत्न विशेष के कारण वे फल देने में कुछ कालके लिये असमर्थ हो गई हैं परन्तु वे न तो निर्मूल ही हुई हैं और न उनकी सामर्थ्य ही सदा के लिये नष्ट हुई है । वास्तव में उनका अभीतक वही नष्ट नहीं हुआ है ।
तत्र कहा जासकता है कि इस स्थान की वीतरागता निरापद नहीं हैं, और इसीलिये सर्वज्ञताकेलिये जिस वीतरागता को कारण कहा जा सकता हूँ वह बारहवें गुणस्थानके अंतिम भागकी वह विशुद्धि विशेष ही है जहां पर कि एकत्व वितर्क अवीचार नामका शुलध्यान अपना काम किया करता है; उसीमें यह सामर्थ्य है कि उसक होते ही ज्ञानावरणादि तीनों ही कर्मों का एक साथ निर्मूलन होजाया करता है । अतएव सर्वज्ञता के लिये सामान्य वीतरागता नहीं अपितु पूर्ण एवं विशिष्ट वीतरागदा ही कारण है ऐसा समझना चाहिये | इसी बात को स्पष्ट करने के लिये "निक खिलात्मा" कहा गया है । निरृत से मतलब निर्मूलन - उच्छेदन से है जोकि अन्यत्र नहीं पाया जाता। और जिसके कि होन पर उक्त पापक्रमों का आत्माक साथ किसी भी प्रकार का और अंशमात्र मां सम्बन्ध नहीं रहा करता ।
१ – निश्चयन्याश्रयण तु यदुनन्तरभोजोत्पादस्तदेव मुख्वं मोक्षस्य कारणम गगकंबलिच रमसमयक्ष सिं रत्नत्रयांमति निरवद्यमेतत्तस्त्रविदामा भासते । तता मोहयोपेतः पुमानुद्धत केवलः । विशिष्टकारण साक्षादशरीरत्वहेतुना ॥६॥ रत्नत्रियम् पंणा योग केवल तिमे । दक्षण वर्षात तदबाध्यं निधिअन्न्यात् ॥१४॥ व्यवाहास्नमाश्रित्यात्वेनप्रागेव कारणम् । मोक्षस्येति विवादेन पर्याप्तं तत्त्ववेदिनाम् ॥६५ कार्तिक पृष्ठ ७१
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रलकरण्वश्रावकाचार दूसरी बात यह भी यहां विचारणीय है कि निधृतकलिसात्मा का अर्थ यहां वीतरागता करना चाहिये अथवा निदोषता ? प्रश्न यह होसकता है कि वीतरामता और निदोपतामें क्या अंतर है ? उत्तर सहज है कि मोहकर्म के अभावसे चीतरागता और सम्पूर्ण दोषोंके न रहने पर निर्दोषता हुआ करती हैं । दोष १८ गिनाये १ है | वे मोहकमसे हो सम्बन्ध नहीं रखते। उनका सम्बन्ध पाठों ही कर्मों से है । इस विषय का खुलासा आगे चलकर किया जायगा । फिर भी संक्षेपमें इतना समझ लेना चाहिये कि वीतरागता और निर्दोषतामे विषम व्याप्ति है न कि समध्याप्ति । अर्थात् जहां जहां वीतरागता है यहां वहां निदोषता भी हो यह नियम नहीं है परन्तु जहां निर्दोषता है वहां वीतरागता अवश्य रहा करती है। क्योंकि श्राश्वर्य आदि दोषों के कारणभूत शानावरुणादि का जहां तक उदय बना हुआ है यहां तक वास्तबमें धीतरागताके रहते हुए भी निदोपता नहीं कही जा सकती परन्तु यह बात सत्य है कि बीतरामताके होजाने पर ही निर्दोषता इया करती हैं। आगममें जिनेंद्र भगवान को ही १८ दोषों से रहित बताया है कि छयस्थ तीजमोह को । इस परसे वीतरागता और निर्दोषता में क्या अंतर हैं सो समझमें आसकता है। परन्तु यह विचारणीय है कि यहां पर निर्धत कलिलात्मतासं क्या अभिप्राय लेना अधिक संगत
और उचित प्रतीत होता है । उसका अर्थ वीतरागक्षा करना अधिक उचित है अथवा निर्दोषता ? इसका बिचार भी करना चाहिये ।
पाठक महानुभाव ध्यान दें कि ग्रन्थकारने आगे चलकर कारिका नं०५ में यहा जिसको नमस्कार किया उसीका स्वरूप बताया है। उसमें "नितिफलिशात्मा" के स्थान पर "उच्छिमदोष" शब्द का प्रयोग किया है । मतलब स्पष्ट है कि नमस्य प्राप्त का स्वरूप बताते हुए यहां जिस अर्थमें निधूतकलिलामा शब्द का प्रयोग किया है उसी अर्थ में वहां पर चलकर उच्छिन्नदोष या उत्सन्न दोषर शब्द का प्रयोग किया है इससे मालूम होजाता है कि अन्धकार को नि तकलिलात्मा कहने से वीतरागता बताने का नहीं किन्तु निर्दोषता दिखानेका अभिप्राय अभीष्ट है। और यह ठीक भी ह क्योंकि निदोष कहनसे तो वीचरागता अर्थ भी सम्मिलित हो ही जाता है । परन्तु यदि वीतरामता मात्र ही यदि अर्थ लिया जाय तो निदोषता का अर्थ नियमित रूपसे उसमें गर्मित होगया ऐसा नहीं कहा जासकता। अतएव निधुतकलिलात्माका अर्थ निर्दोषतारूप व्यापक धर्म से युक्त करना ही अधिक सुसंगत और उचित प्रतीत होता है। क्याकि इस विषय में ऊपर भी लिखा जा चुकी है अतएव इस विषय को दुहराने की आवश्यकता नहीं है यह बात स्वयं समझी जासकती है कि चारतव में वीतरागलका सम्बन्ध जबकि कंबल मोहनीय कर्मके अभावसे और निर्दोषता का सम्बन्ध सम्पूर्ण वातिककर्मों के निमूल होजाने के साथ साथ अन्य असाता वेदनीय आदि पापकर्मो के अपना अपना कार्य करने में असमर्थ होजाने से
१-चुसिपामा आदि कारिकाके व्याख्यान में।२-कहीं जाच्छन्न दोषेण और कहीं उत्सन्न दोषेण' दोनो ही तरह का पाठ पाया जाता है।
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भी हैं तब चीतरागता के बदले निर्दोषता ही प्रधान और महान सिद्ध होती है । अतएव उसविशिष्ट धर्म को ही यहां बताना अधिक उचित एवं संगत प्रतीत होता है ।
ऊपरके कथन से यह बात भी समझ में आ सकती है कि जिस तरह नमरताके लिये बाह्य विभूति व्यभिचरित है उसी तरह पूर्ण प्रामाणिकता के लिये केवल वीतरागता भी छास्थोंमें भी पाये जाने के कारण व्यभिनति है। श्रवण श्रीवर्धमानवाके द्वारा जिस तीर्थप्रवर्त्तनरूप गुण का उन्लेख किया है उसकी पूर्ण प्रामाणिकता को बतानेके लिये केवल दीतरागता का ही निदर्शन पर्याप्त नहीं है, उसके साथ में पर्वज्ञता का भी उल्लेख करना आवश्यक है। यही कारण है कि प्रकृत कारिका के उत्तरावं ग्रन्थकार ने सर्वज्ञनाका वर्णन किया है।
देशना की पूर्ण प्रामाणिकता के लिये जिन दो गुणों की वीरागता और सर्वाकी यावश्यकता है उनमें उत्पत्तिका क्रम भी ऐसाही हैं कि पूर्ण वीतरागता के होजाने पर ही सर्वज्ञता सिद्ध हुआ करती हैं। अत एव यहांपर भी वीतरागता का उल्लेख करके सर्वज्ञता का वर्णन किया गया है इसीलिये यह वर्णन क्रमानुगत है !
अात्माका असाधारण लक्षण रूप गुण चेतना है उसकी आगधमें तीन दशाएं बनाई गई हैं। कर्म फल चेतना, कर्म चेतना और ज्ञानचेतना | इनमें से कारिका के उत्तरार्ध में ज्ञान चेतना के जिस सर्वोत्कृष्ट - अन्तिमस्वरूपका निदर्शन है उसको दर्पणका दृष्टान्त देकर समझाया गया है। जिसका मतलब यह है कि जिस तरह दर्पण के सामने श्राये हुए सभी पदार्थ उसमें स्वयं प्रतिमासित होते हैं उसी प्रकार इस ज्ञान चेतनामें भी सभी लोक अलोक तथा उसके भीतर पाये जानेवाले द्रव्य तन्व पदार्थ और अस्तिकाय एवं गुण धर्म तथा त्रिकालवत समस्त द्रव्य पर्याय या अर्थ पर्यीयर विनाक्रमके - युगपत् प्रातिभासित हुआ करते हैं। जिसका भराय यह है कि उन भगवान की ज्ञान ना पूर्ण रूपमें और सदाकेलिये निर्विकार बन गई हैं तथा उसकी १- बारहवे गुणस्थानवर्ती निर्मन्थ हाजानं पर भी अमस्थ है यह पर असत्यवचनयोग आदि भी पाया जाता यथाप में वहा पर माइक अभावकं कारण असमर्थ ही हैं । और केवल ज्ञानावरण के कारण ही मान गये हैं। २कः किं प्राधान्येन चेतयंत इत्याह-- सर्वे कर्मफलं मुख्यभावन स्थावरारभसाः । सदार्थ चेतयन्त इस्त प्राणित्वा ज्ञानमेव च । २-३५ टीका- चेतयन्तेऽनुभवान् | ॐ ? स स्थावरा एकेन्द्रिया जाधाः शंभश्री कायिकादयः । किं त ? कर्मफलं सुखदुःखं । न । मुख्यभावन । तथा चेतयन्ते । के ? सा द्वीन्द्रियादयः । किं तत् ? कर्मफलम् । किंविशिष्ट' १ सकार्यम् । क्रियत इति कार्यं कर्म । बुद्धिपूर्वी व्यापार इत्यर्थः । तन सहि तम् । कार्यचेतना हि प्रवृत्तिनिवृत्तिकारणभूतक्रिया प्राधान्येनोत्पद्यमानः सुखदुःखपरिणामः । तथा चेतदन्ये के ? अस्तप्राणित्वाः प्राणित्वमतिक्रान्ता जीवाः किं ? ज्ञानमेव । ते हि व्यवहारंण जीवन्मुक्ताः परमार्थेन परम मुक्ताश्च मुक्ता एव हि निजकर्मफलत्वादत्यन्तकृतकृत्यत्वाच स्वतोऽव्यतिरिकस्वाभाविक सुखं ज्ञानतयन्ते । जीवन्मुक्तास्तु मुख्यभावेन ज्ञानं गौणतया त्वन्यदपि । ज्ञानादम्यभेदमह भितिचेतनं प्रज्ञानबेतना सा द्विविधा कर्म चेतना कर्मफलश्वेतना च । तत्र ज्ञानादन्योदम करोमीति चेतनं कर्म घेतना । ज्ञानादन्यमेषं चेतयेऽहमिति चेतनं कर्मफलचेतना सा वोभय्यपि जीवन्मुक्त गौणी । बुद्धिपूर्वक ऋतु स्वभोक्तृत्वयोइन्च्छेदात् ॥ अ०६०। ३- मनन्तशक्तियोंके पिंडरूप इसकी जो अबस्थाएँ होती है उनको हव्य पष और
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रत्नकरण्डशायकाचार स्वच्छता एवं निर्मलता पराकाष्ठाको प्राप्त कर चुकी है यद्यपि उसकी वृत्ति या प्रवृत्ति ध्रुवरूपसे अन्तर्मुख बन गई है परन्तु समस्त चराचर कालिक जगत उसमें प्रतिक्षण प्रतिभासित रहा करता है । चेतनाका यह स्वभाव है कि---
पदार्थ उममें प्रतिविम्बित हों जिस तरह दर्पणका यह स्वभाव है कि उसके सम्मुख जो भी पदार्थ जिसरूप में भी उपस्थित होता है वह उसी उसमें प्रतिफलित हुआ करता है चेतना की स्वच्छता इससे भी अधिक और विचित्र है उसमें विद्यमान और अविद्यमान अनन्तानन्त पदार्थ भी युमपत प्रतिभासित हश्रा करते हैं। जिनतरह दर्पण शिसी पदार्थको देखनेका स्वयं प्रयन नहीं करना परन्तु जो भी उसके सम्मुख अाता है वह स्वयं ही उसमें स्वभावतः दर्पण की स्वच्छता विशेषके कारण प्रतिधिम्बित ही आया करता है. उसी तरह सर्वज्ञकी चेतना पदार्थ को जाननेका स्वयं प्रयास नहीं करती जिस तरह छप्रस्थ-श्रम्पज्ञसंसारी जीवोंकी चेतना पदार्थ की तरफ उन्मुख होकर कमसे और योग्य पदार्थ को ही. ग्रहण किया करती है वैसा सर्वज्ञकी चेतनामें नहीं हुआ करता । वह पदार्थों की तरफ उन्मुख नहीं हुआ करती स्वयं पदार्थ ही उसमें प्रतिभासित हुमा करते हैं । फिर वे पदार्थ चांह विद्यमान हो चाहे अविद्यमान भूत भविष्यत्१ और कितने ही प्रमाणापों न हो। वह सभी पदायों को एक साथ रहण कर लेती है। ऐसा जो कहा जाता है उसका तात्पर्य यही है कि उनमें सभी पदाय एक साथ प्रतिविम्बित हो जाया करते हैं ! चेतनाकी यह अबस्था जब होती है तब उसमें यह भी एक विशेषता प्रजाती है कि उसमें फिर किसी भी तरह की न्यूनाधिक ना नहीं आया करनी। जिस तरह संसारी जीवाका ज्ञान न्यूनाधिक द्या करता है वैसा सर्वज्ञका नहीं हुया करता । वह अपने जिस पूर्ण रूपको धारण कर प्रकट होता है वह फिर अनन्न कालतक उसी रूप में रहा करता है।
कोई २ दर्पण के स्थानपर श्रोताओं की कल्पना करके इस वाक्यका इसतरहसे अर्थ करते हुए देखे गये हैं कि "जिस तरह दर्पण में पदार्थ प्रतिविम्बित हुआ करते हैं उसी तरह भगवान् का ज्ञान लोक अलोरके स्वरूपको श्रोताओं में प्रतिधिम्बित करदिया करता है।" सी ठीक नहीं है "पणायते' क्रिया है, यद्विधा उसका कर्ता है, "त्रिलोकानां कर्म है, ओर "सालोकानां" कर्मका विशेषण है इस बात को ध्यान में रखकर अर्थ करनेसे मालूम हो सकता है कि सर्वज्ञ के ज्ञानको ही दर्पणक स्थानापन्न समझकर अर्थ करना उचित एवं संगत है जैसा कि ऊपर किया गया है। गुणोंकी मो अवस्थाएं पलटती है उनको गुणपर्याय अथवा अर्थपर्याय कहते हैं । इनके विस्तृत भेदों और उनके लक्षणाको जानने के लिये देखो नालापपद्धति पंचाध्यायी आदि । परिणमदो खलु पारणं पञ्चरखा सम्बदथ्य पज्जाया । सोणेव से वि जाणदि उगह पूव्वा हि किरियाहिं ॥ १ गा०२शा जेणेच हि संजाया खलु गट्टा भधीय पज्जाया । ते होंति असटभूदा पज्जाया पाणपश्चरखा ॥ १ गा० ३८|| जं तालियमिदरं जापादि जुगवं समंतो सव्यं । अस्थं विचित्तविसमणाणं खाइयं भणियं ।। प्रवचन सार गा ४७ ॥ इत्यादि
१- देखो प्रवचनसार भ०१मा०५७, २८, ३६ ।
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चंद्रिका टीका प्रथम श्येक दोष और प्रावरणकी हानि प्रकट करनेवाले दोनों वाक्यों का प्राशय ऊपर लिखा गया हैं। जिसका संक्षिप्त अभिप्राय इतना ही होता है कि जो वीतराग है , निर्दोष है और सर्या है वही जीवों के हिनरूप मार्गका वक्ता होने के कारण कृतज्ञ विद्वानोंद्वारा नमस्ए हो सकता है। किन्तु यहां पर प्रश्न हो सकता है कि जो भी सर्वज्ञ होते हैं वे नियम से जिस तरह वीतराग
और निर्दोष होते हैं का उसीतरह नियमसे हितोपदेशी भी होते ही हैं ? इसके उत्तर में जो विशेषता है यह समझ लेनी चाहिये । वह इस प्रकार है कि
सर्वज्ञ जो होने है च नियमसे पीतराग एवं निर्दोष होते हैं, इस का कारण उपर लिखा जा चुका है उससे मालूम हो सकता है कि चीवरागता मीनताका कारण है और निर्दोषता कार्य है। मोहनीय कर्म सर्वथा अभावसे जो वीतरागता उत्पन्न होती है वह सर्गज्ञता के लिये समर्थ कारण है । इसी तरह निर्दोषताकेलिये वीतरामना एवं सर्वज्ञता समर्थ कारण है। समर्थ कारण के मिलने पर नियमसे कार्य उत्पन्न हुआ करता है । अत एव म झताके साथ वीतरागता और निषिता की व्याप्ति बन सकती है कहा जा सकता है कि जो २.सर्वज्ञ है वह २ नियम से वीतराग है और निर्दोष है। किन्तु हितोपदेशकनाके साथ इस तरहकी पाप्ति नहीं है। क्योंकि प्रानका वचन के साथ नियत सम्बन्ध नहीं है । जो २ ज्ञानवान् हो बह २ वक्ता भी हो तो ऐसा नियम नहीं है । हां यह अवश्य कहा जा सकता है और यह सन मान्य होना चाहिये कि किसी भी वक्ताके वचनकी प्रामाणिकता उसकी वीतरागता निर्दोपता और ज्ञानपर निर्भर है। जो व्यक्ति जितना अधिक वीतराग और निदाप होनके साथ साथ सम्यग्जानी है उसके बचन भी उतनेही अधिक प्रमाणभूत हुआ करते है। अत एव जो पूर्ण बीतगम है, पूर्ण निर्दोष और पूर्ण ज्ञानवान् है उसके वचन भी पूर्णतया प्रमाण ही हैं।
ठीक है, परन्तु इस कथन से तो इतना ही मालूम होता है कि पूर्णतया प्रमाणरूप वचन उसके ही माने जा सकते हैं--जो सर्वाज्ञ है और वीतराग नथा निदोप है परन्तु इस से यह तो स्पष्ट नहीं होता कि जो जो इसतरहके गर्मज्ञ वीतराग परमात्मा हैं वे वक्ता भी हो हो। श्रत एवं संभव है कि कोई सर्वज्ञ वीतराग निर्दोष परमात्मा होकर भी ऐसा भी हो जो कि हितोपदेशो न हो यो क्या ऐसे ही है ?
सत्य है, एमा ही है जहांतक सामान्यतया सर्वज्ञताका विचार है यहां तक तो ऐसा ही है कि सभी सर्वज्ञ वत्ता नहीं हुआ करते इसके सिवाय यह भी है कि सर्वज्ञ होकर जो बक्ता होते हैं: १--आगमम अन्तकृन् केवली भी बनाये है कि प्रत्येक तीर्थकर के समय १०-१० हुआ करते है जिन वर्णन अन्तकृशांग में किया गया है ये घोर उपसर्ग के द्वारा केवल ज्ञान प्राप्त कर मोक्ष में चले जाते हैं राजवार्तिक में मिद्धों के अनेक भेद बताये हैं उससे भी कंवलियों के भेदों का पता मालूम हो सकता है, सर म्वरूप में पंटोडरमलजी ने अरिहंनों के भेद इस प्रकार बताये हैं १-पंचकल्याणक वाले तीर्थ र २. सो कल्याणक वाले तीर्थंकर, ३-द्रो कल्याणक बाले तीर्थकर, ४--सातिशय केवली, ५--सामान्य केवली, ६.
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रत्नकरण्डभाषकाचार
भी सब मोक्षमार्ग के नायक नहीं हुआ करते । बात यह हैं कि सर्वज्ञ वक्ता भी दो प्रकार के हुआ करते हैं— १ तीर्थकर और दूसरे अतीर्थकर | जिन्होने सर्वज्ञता प्राप्त करने के पहिले तीर्थकर नाम की सर्वोत्कृष्ट नाम के एक भेदरूप पुण्य प्रकृति का बंध कर लिया है वे सर्वज्ञ होने पर तीर्थकर वक्ता कहे जाते हैं; और जिन्होंने इस कर्म का बंधन करके ही सर्वज्ञता प्राप्त की हैं वे तीर्थकर सर्वज्ञ हैं । इस तरह के तीर्थंकर सर्वज्ञों के लिये नियम नहीं है कि वे बक्ता भी हों ह्रीं । जो तीर्थंकर सर्वज्ञ हुआ करते हैं वे अवश्य ही वक्ता हुआ करते हैं और वे ही तीर्थ के प्रणेता मोक्ष मार्ग के नायक- जगज्जीवों के हृद्वर्त्ती मोहान्धकार के हर्त्ता - सर्वस्कृष्ट पुण्य विभूतिके भर्चा त्रैलोक्याधिपतियों के द्वारा अर्चनीय पूजनीय चन्दनीय और नमस्पर हुआ करते हैं। इस विभूतिके कारण ही उनका पद सांसारिक आभ्युदयिक पदों में सबसे महान माना जाता है । इसी विभूति के कारण वर्तमान शासन के नायक भगवान का कृतज्ञतावश ग्रन्थकारने यहां पर "श्रीवर्धमान" शब्दके द्वारा स्तवन तथा स्मरण किया हैं ।
यद्यपि यहां पर एक प्रश्न और भी हो सकता है कि तीर्थ शब्द से क्या श्रर्थ समझना चाहिये इसके उत्तर में अनेक विषय विवेचनीय हैं। उनका वर्णन करने पर विवेचन बहुत अधिक बढ़ जायगा अतएव इस सम्बन्ध में अधिक न लिखकर थोडासा संक्षिप्त परिचय दे देना ही ठीक प्रतीत होता है ।--
तीर्थ इस शब्द के साधन भेद के अनुसार अनेक अर्थ हो सकते हैं कर्तु साधन, कर्मसाधन करणासाधन, भावसाधन श्रादि । श्रतएव निरुक्ति के अनुसार तीर्थ शब्दका अर्थ पार उतारनेवाला, पार गया या पहुँचने वाला, पार उतरने का उपाय या पार उतरना आदि होता है । किन्तु इसका सम्बन्ध आत्मा के साथ हैं इसलिये जो व्यक्ति संसार से पार उतरने वाले है वे तीर्थ कहलावर हैं । जो स्वयं संसार से पार होचुके हैं या पार होने वाले हैं उनको भी तीर्थ कहते हैं। संसार सं छूटने का जो मार्ग - साधन — उपाय हैं वह भी तीर्थ कहा जाता है संसारको छोड़नेरूप क्रिया का नाम भी तीर्थ है। इसी तरह और भी अनेक तरहके हो सकते हैं। परन्तु यहां पर भाव उपसर्ग कंवली, प्रन्तकृत केवली । इनका स्वरूप समझन से मालूम हो जायगा कि सभी सर्वज्ञ वच्चा नहीं हुआ करते ।
१ - "जस्स इतित्थयरणामगांवकम्मरस उदएण सदेवासुरमासम्म लोगस्स अचनिज्ञा पूजणिज्जा वंद णिज्जा णर्मसणिज्जा दारा धम्मतित्थयरा जिष्णा केवलिणी हवति" । घटखण्डागमबंधस्वामित्व सूत्र ४२ । २५- तृ धातुसे प्रलय लगाने पर सीओ शब्द बनता है । निरुक्ति के साधन भेदों की अपेक्षा अथवा उपमा आदि गर्भित अर्थों की अपेक्षासे अथवा वक्ता के आशय के अनुसार यह शब्द अनेक अर्थो में प्रयुक्त हुआ करता है। एक प्रकरण के अनुसार इसका अर्थ समझ लेना चाहिये। तीर्थ शब्दके विभिन्न अर्थ कोष के द्वारा तथा आगम टीका प्रन्थों से जाने जासकते है । यथा-"सार्यते संसारसागरः ( येन यतो का ) क्विप्चधातोस्थतः पानुबंधे, धर्मश्चारित्रं सएव तीर्थः तीर्थानां तीर्थमून पुरुषाणां तार्थे शास्त्रे, सीधे गुरुः, अथवा तीर्थं जिनपूजनं, अथवा तीर्थं पुण्यक्षेत्रं श्रथवा तीर्थं पात्रं त्रिविधं, "उफ घ" दर्शन श्रीरजो पोनि पात्रं सत्री गुरुः श्रुतं पुष्य क्षेत्रावतारौ च ऋषिजुष्टजलं तथा । उपायशी विद्वांसस्तीर्णमित्युविरे विर" । जादि
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चद्रिका टीका प्रथम लोक अर्थ मुख्य है इसलिये मंसार के कारणों से हटना और शुद्ध आत्मस्वरूप की सिद्धि के साधन में लगना ऐसा प्रकृतमें तीर्थ शब्दका आशा, लेना चाहिये।
तीर्थकर शब्द का अर्थ भी उक्त तीर्थ की उत्पत्ति के अनुकूल रवतंत्र सामर्थ्य तथा योग्यता रखने वाला और उसका प्रवर्तन करने करानेवाला होना है। इस योग्यता का सीधा सम्बन्ध तीर्थकर नामकी नामकर्म की प्रकृतिक उत्यस है । यह नाभकम की प्रकृति जीव विपाकी है। अतएव उसके द्वारा जीव में ही वह योग्यता उत्पन्न हुप्रा करती है जिसके कि द्वारा वह जीव समस्त योग्य प्राणियों को आत्महित-श्रेपोमार्गका स्वरूप बताकर सर्वोत्कृष्ट अभयदान करने में समर्थ हुआ करता है।
इस कर्मप्रकृति के बन्धको कारण दर्शन विशुद्रयादि सोलह भामनाए हैं जिनका स्वरूप आगमर में विस्तार पूर्वक बताया गया है। इस वर्मके बन्ध के साथ दूसरी भी अनेक योग्य पुण्य प्रकृतियों का वन्ध हुआ करना है। तथा उसके उदय के कारण यह जीर जगत में अनादि अविद्या का उच्छेदन कर श्रेयोमार्गका प्रवर्तन करने में नियमन:- नियतिवश ही प्रवृत्त हुआ करता है। इनके उपदेश को ही तीर्थ,- शासन-धर्म-मोक्षगार्ग आदि शब्दों से कहा जाता है । इनके उपदेश को जो भी प्राणी सुन लेता है यह अवश्य ही श्रीनर्धमान बन जाता है-उसकी अनादि अविद्या दूर होकर पूर्ण अन्तरंग श्री प्रगट ही जाती है और वह मोक्ष मार्ग में पढ़ने लगता है। इस तरह के तीर्थंकर सर्वज्ञों के सिवाय और भी अन्य अनेक सर्वज्ञ हुश्रा करते हैं तथा वे भी उपदेश कदाचित् दिया करते हैं परन्तु न तो उनका उपदेश नियत३ ही हैं और न उनके उपदेश में यह निश्चित सामर्थ्य है कि उसको सुननेवाला नियमसे संसार से पार हो जानेकी सामर्थ्य या योग्यता को प्राप्त कर ले । मतलब यह है कि दूसरे जो प्रतीर्थकर सर्वज्ञ हैं वे स्वयं संसारसे म० अ० टी० ५। "मुम्त्युपायो भवेत्तम्" अादिपुराण १.३६ । “गिरिणदिवादिषदेसा तित्याणि तबोधणेहि जदि उसिदा । सिस्थं कधं ण हुनजो तवगुणरासी सपं खत्रओ॥"भ० आ० २००७ । इत्यादि ५-देखो गो० कर्म कांड गाया ४८ से ५१ के अनुसार कुल जीवविपाकी प्रकृतियां ८ है । यथा
अनुत्तर अवसेमा जीवविवाई मुणयन्वा ॥४८॥ २. तत्वार्थमून श्र.६४ २५ की टीका सर्वार्थ सिद्धि राजवार्तिक श्लोकवार्तिक सिंहनन्दी टीका आदि पद्खएडागम बन्धस्वामित्व सूत्र नं० ४१ और उसकी धवला टीका में इनका सुन्दर और विस्तृत वर्णन पाया जाता है। दोनों ही स्थानों के वर्णन में नाम तथा उनकी व्याख्या आदि में जो की विशेपता हैं उन प्रकरगोको देखकर जानी जा सकती हैं।
३. निलोय पण्णत्ती..........................."यथापुदण्हे मज्भयहे श्रधररहे मज्झिमा ताछछडिया णिग्गइ दिव्यमुणी कहइ सुतत्थे ।। यह नियम तीर्थंकरों की अपेक्षा से है।
४. इसके लिए देखो-पनचम्ति परिघंशपुराण मुनिसुबत काव्य श्रादिसे स्पष्ट होता है कि तीर्यवरकी दिव्यध्वनि सुननसे अवश्य सभ्यग्दर्शन प्राप्त होता है।
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रत्नकरण्ड श्रावकाचरा
तरनेवाले हैं किन्तु उनमें स्वयं तरने के साथ साथ दूसरोंको भी तारने की एक निश्चित सामर्थ्य नहीं रहा करती और जो तीर्थ कर सर्वज्ञ होते हैं उनमें ये दोनों ही स्वयं करने और दूसरोंकी भी तारने की सामर्थ्य निश्चित रूपमें पाई जाती है और वह सामर्थ्य भी अपने योग्य समयपर नियत रूप से कार्य किया करती है।
ऊपर जिस सामर्थ्य या योग्यता का उल्लेख किया है वह उनकी अन्तरंग असाधारण श्री कहलाती है। और उनको जी ऋष्ट प्रातिहार्य मरणादि अनुपम विभूति प्राप्त है वह या श्री कहलाती है । इनमें से अन्तरंग श्री प्रधान है। क्यों कि संखार से तारने की सामर्थ्य उसी में हैं तथा बाह्य श्री में भी जी माहात्म्य अतुलित है वह अन्तरंग श्री के कारण ही है। अतएव समीक्षक परीक्षक मुमुक्षुओं के लिए अन्तरंग श्री ही मुख्यतया वन्दना स्तुति नमस्कार आदि का विषय मानी जा सकती है इस श्री से सभी तीर्थकर वर्धमान रहा करते हैं। तदनुसार अन्तिम तीर्थंकर भगवान महावीर स्वामी भी उससे युक्त थे भी श्रीवर्धमान थे । परन्तु उनमें यह विशेषता है कि वे केवल अर्थ की अपेक्षासे ही नहीं अपितु नामनिक्षेप की अपेक्षा से भीम हैं। यही कारण है कि सभी बातों को दृष्टिमें रखकर कृतज्ञ ग्रन्थकतने अपने इस प्राप्ति अन्थकी आदिमें उनका स्मरण किया है और उनको नमस्कार किया है।
श्रीमान भगवान्ने आत्मस्वरूप एवं उससे लगे हुए कमके स्वरूप भेद आदिको भले प्रकार जाना तथा उनके पृथक्करण के उपाय को भी अच्छी तरह जानकर काममें लिया फलतः समस्त कर्मों से उन्होंने अपनेको मुक्त कर लिया। पूर्णतया मुक्त होने के पूर्व उन्होंने उस सम्पूर्ण नत्र एवं रहस्यका उन सभी संमारी जीवोंकर परिज्ञान कराया जो कि उसे जानना १. रत्नत्रयरूप श्रेयोमार्ग और उसके विषयभूत सम्पूर्ण तत्त्व द्रव्य पदार्थ अस्तिकाय एवं सभी सम्बन्धित विषयों का पूरा विवेचन इसी अन्तरंग योग्यता के कारण हुआ करता है।
२. अशोकवृतः सुपुष्पवृष्टि दिव्यध्वनिश्यामरमासनं
। भामण्डलं दुन्दुभिरातपनं मला तिहार्याणि
जिनेश्वराणाम्। संस्कृत पूजापाठ ।
३. आदिश वरणादि कल्याणकों के समय देवों के द्वारा किये जाने वाले ग्राम ग्रहादि रचना रत्न पिता आदि केवलज्ञान के बद विहार कालमें देवकृत अतिशयों का होना आदि, निर्वाण होजानेपर उनकी यथाविधि जन्यक्रिया तथा सिद्धिस्थान की नियुक्ति इत्यादि प्रहण कर लेना चाहिये ।
४. क्योंकि सीर्थकर प्रकृतिके साथ जो प्रायः सभी अविरुद्ध पुण्य प्रकृतियां बन्धती हैं उनका मूल भी वह तीर्थकृत्य भावना ही है। तथा तीर्थकृत्य प्रकृतिके उदय में आनेपर अन्तराय कर्मके नष्ट हो जानेमें पुण्य प्रकृतियां अपन यथावत् निर्विकारूपसे पूर्णतया कार्य करनेमें समर्थ हो जाया करती है। अथवा" पाषाणात्मा तमः केवलं रत्नमृति अनितम्भो भवति च परस्तदृशो रत्नवर्गः । दृष्टिप्राप्त्री इरति स कथं मानरोगं पण प्रत्यासत्तिर्यदि न भवतस्तम्य तत्वक्तिहेतुः " ( वादिराज सूरित एकीभाव ) ५ - जीवो नगदनेहो ज्वलद्धो तथमप्पणो सम्मं, जहदि जदि रागदाने सो अमाणं लहदि मुद्ध || सच्चे वय अरहंत नेण विधारण खविदकम्ममा विश्वा तधोवदेस मियादा ते नमो तेर्सि॥ प्र०स०अ० १-२१-२२ ।
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चत्रिका टीका प्रथम श्लोक चाहते थे, जन्म जस मरण अादिसे खिन्न होकर उसका निर्मूल उच्छेदन करने के घास्तविक उपाय को जाननेकी जो इच्छा रखते अथवा उसतरहकी योग्यताको धारण करनेवाले थे। उनका यह सर्वांगपूर्ण ज्ञानदान ही अभयदान, तीर्थ, जैनशासन, मोक्षमार्ग प्रादि नामोंसे कहा जाता है उसको अच्छीनरह जानकर तथा समझकर भी सभी लोग उसका यथेष्ट पालन करने में समर्थ नहीं रहा करते। अत एव शक्ति प्रादिक भेदके कारण उसके पालन करने वालोंके अनेक भेद हो सकते हैं। फिर भी मामान्यतया उनको तीन भागोंमें विभक्त कर दिया गया है । प्रथम वे हैं जोकि बतायेगये मार्ग के अनुसार पूर्णतया चलते और श्रीवर्धमान भगवान् की अवस्थाको प्राप्त करने की साधना में तत्पर रहते हैं । दूसरे वे हैं जो कि अन्तरंग या बहिरंग कमजोरियोंसे पराजित रहने के कारण प्रथम प्रकार की साधना में प्रयुत्त न होकर गंजः उसका पालन करते और पूर्ण साधना के स्थान को प्राप्त करलनके प्रयलमें रहा करते हैं। तीसरे के हैं जो कि आंशिक रूपमें भी पालन करने में समर्थ नोकरभी उसमागकी सिद्धि करने का अंतरंग दृढ निश्चय कर चुके हैं। उस मागको ही आत्मकल्याणका सना साधन मानते, फलतः उसी में जिनकी श्रद्धा रुचि और प्रतीति है । अत एव शक्तिभर मार्ग में आगे बढ़ने का ही त्रियोग पूर्वक प्रयत्न किया करते हैं। प्रथम नम्बर वालाको साधु मुनि अनगार आदि शब्दासे कहा जाता है दूसरे नम्बर चालोंको संपतासंयत्त देशवती श्रावक आदि नामों से कहा गया है और तीसरे स्थान पालोको अवत सम्पग्दृष्टि, असंगत, श्राद्ध आदि नामोंसे बोला जाता है ये उतम मध्यम जपन्य स्थान भगवान् के प्ररूपित मार्गपर चलनेकी तरतमताके कारण माने गये है। किंतु तव शान और श्रद्धानकी भवस्थाओं के भेदसे इस भेद प्ररूपणा में अनेक तरहसे प्रकारान्तरता भी है जो कि आगमक अध्ययन से जानी जा सकती है।
ऊपर भगवानकी जिस प्ररूपणा या तीर्थका उल्लेख किया है, जो कि संसार समुद्रसे पार होने का निर्वाध सत्य एवं स्वर्वोत्कृष्ट हित रूप असाधारण साधन है उसीका यहां श्राचार्यप्रवर श्री समन्तभद्रस्वामी वर्णन करना चाहते हैं । किन्तु इस वर्णन के सम्बन्धमें सबसे प्रथम एक बात जानलेना जरूरी है।
प्राचार्यों की यह परम्परा है कि वे धार्मिक देशनाके प्रारम्भमें उसके पूर्ण रूपका ही वर्णन किया करते हैं जिसके कि पालन करनेपर श्रीता भव्य ऊपर लिखे अनुसार प्रथम नम्बरका साधक-साधुमहावती मुनिके रूपमें अपनेको परिणत करके और उस मोक्षमार्गका अभ्यासकर या तो उसी भवसे अथवा कुछ भवोंके वाद संसारसे सर्वथा मुक्त कर लिया करता है । फलतः सबसे पहले मोक्षमार्ग के पूर्ण स्वरूपका वर्णन करना श्रेयस्कर है और मान करना अयोग्य एवं अनुचित माना गया है। क्योंकि पूर्ण स्वरूपको न बताकर यदि संसारसं तरने के प्रांशिक रूपका ही उल्लेख किया जाय
१-बहुशः समस्तविरति प्रदर्शितां यो न जातु गृखाति, तस्यैकदविरतिः कथनीयानेन बाजन ॥१४॥ यो यतिधर्ममकथयस पदिशति गृहस्थधर्ममल्पमतिः, तस्य भगवत्प्रवचने प्रदर्शित निग्रहस्थानम् ॥१८॥ अक्रामस्थनेन यता प्रोत्सहमानोऽतिदूरपपि शिष्यः, अपदेऽपि संभम प्रसारितो भवति तेन दुर्महिना ९६ पुरुषा।
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रत्नफरण्डश्रावकाचार तो उत्साही श्रोताके विषयमें संभव हो सकता है कि वह शीघ्रही संसारसे पार होने के मार्ग का पालन करने में समर्थ होते हुए मी उससे चंचित हो जाय । क्योंकि थर्मका अांशिक साराधन निर्वाणका साक्षात साधन नहीं है और उस श्रोताको धर्मके पूर्ण रवरूपका बोध प्राप्त न होकर यदि भाषिक ही परिचय मिलता है तो अवश्य ही वह उतने अंशमें ही तृप्त होकर उत्कृष्ट हितमार्ग से वंचित रह जासकता है। उसके इस अहितका उत्तरदायित्व क्रमभंग करके वर्णन करनेशले ग्रन्थकर्ता या वका पर श्राता है। अत एव वक्ताव लिये उचित यही है कि श्रोताके सम्मुख वह सबसे प्रथम धर्म के पूर्ण स्वरूपका ही प्रतिपादन करे । हां, वसा वारके जो उसका यथावत् अथवा यथेष्ट पालन करने में समर्थ नहीं हैं उनको लक्ष्य करके यदि पीछे आंशिक धर्मका व्याख्यान करता है तो वह अनुचित न कहा जाकर प्रशंसनीय ही माना जाता है।
प्रकृत ग्रन्थकाने भी अपनी इस रचना में उक्त प्राचार्य परम्पराका रायर ध्यान रखा है। उसके अनुसार उन्होंने पहले धर्मः पूर्णम्वरूप का निर्देश किया है और बाद में आंशिक धमेका वर्णन किया है।
आगयकी स्याद्वादपद्धतिसे परिचित विद्वानोंको यह बतानेकी आवश्यकता नहीं है कि वक्ता भानायका पालन करते हुए अपने विवक्षित किसी भी विषयको गौण या मुख्य बनाकर वर्सन करने भादिके विषयमें स्वतंत्र रहा करता है। वह भागम और पानायकी सीमाका उल्लंघन न करके अपने निरूपणीय विषयका प्रतिपादन करने में अपनी स्वतंत्रताका यथेच्छ उपयोग कर सकता है। यही कारण है कि यहां पर ग्रन्धकाने अामाय के अनुसार प्रथम धर्मके पूर्णरूपका उन्लेख करके प्रांशिक धर्म-संयमासंयम----देशवत अथवा आवकवर्मका मुख्यतया वर्षन किया है । इस विवक्षा और तदनुसार किये गये वर्णनके अनुकूल ही इस ग्रन्थका नाम "रनकरण्ड श्रावकाचार" ऐसा प्रसिद्ध हैं। ___यद्यपि अन्यके उपान्त्य उन्लेखसे१ ऐसा मालुम होता है कि आचार्य ने इसका नाम रिलकरण्ड" ही स्वखा है। परन्तु इसमें मुख्यतया श्रावकधर्मका वर्णन है अतएव इसके साथ "श्राव. काचार" शब्द भी जोड दिया गया है।
भागमके अनुसार "श्रामक" शब्दस प्रतिमारूप में व्रत धारण करनेवाला ही लिया जाता है जैसा कि आगे इसी ग्रन्थक उन्लेखस२ विदित हो सकेगा। उसीके ब्रारूप धमका इसमें मुख्यतया किंतु सूत्ररूपमें स्वामीने वर्णन किया है इसलिये इसका नाम "रनकरण्डश्रावकाचार" प्रसिद्ध है। ___अब यहॉपर संसारसे पार होनेक उपायभूत धर्मतीर्थका लक्षण तथा फल यताते हुए और अपनी लघुता प्रकट करते हुए आचार्य उसके वर्णन करने की प्रतिज्ञा करते हैं५-"येन स्वयं वीतकलंकविद्या,-दष्टिानयारत्नकरण्डभावम् ।
नीतस्तमायाति पतीच्छयेव, साधोसिद्धिस्त्रिषु विष्टपेषु ॥१४ार क. २- भाषकपदानि झरेकादश वेशितानि येषु खलु । स्वगुणाः पूर्वगुणैः सह सन्तिा क्रमविदा ॥१३॥ ००।
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चंद्रिका टीका दूसरा शोफ देशयामि समीचीनं धर्म कर्मनिवर्हगम् ।
संसार दुःखतः सत्त्वान् यो धरत्युत्तमे सुखे ॥२॥ अर्थ-मैं उस समीचीन, कर्मोंका निवर्हण-संवरण एवं निर्जरण करने वाले धर्मका प्रतिपादन कर रहा हूँ जोकि प्राणियोंको संसारके दुःखोंसे छुड़ाकर उत्तम सुख में उपस्थित करदेता है.।।
इस कारिका विषयमें भी १-प्रयोजन, २.शब्दोंका सामान्य विशेष अर्थ, और ३-तात्पर्य, इस तरह तीन प्रकारसे विचार किया जायगा।
१-प्रयोजन
संसारी प्राणी समस्त दखोंसे सदाकेलिये उन्मुक्त हो और शाश्यत्तिक उत्तम सुखका उसे लाभ हो, जैसाकि श्लोकले उत्तरार्धमें बताया गया है, इस व्याख्यानका मुख्य प्रयोजन है । इस प्रयोजनकी सिद्धिना नामविक लगायम है साताव उस धमके स्वरूपका ही आचार्य यहां निरूपण करंगे जैसाकि उनके प्रतिज्ञावाक्यसे स्पष्ट होता है ।
प्रश्न यह हो सकताहै कि इस धर्मके उपदेशकी आवश्यकताही क्या उपस्थित हुई। साथ ही यह कि ग्रन्थकर्ता इस कार्य में पड़े, इसका क्या कारण है१ ? दोनों ही प्रश्नोंका उत्तर विचारणीय है। __सबसे प्रथम विद्वानोको इस बातपर दृष्टि देनी चाहिये कि उत्सम या सत्पुरुषोंका स्वभावही निरपेक्षतया परोपकार करनेका रहा करता है। वे साहजिक रूपसे ही दूसरोंकी भलाई में प्रवृस हुश्रा करते हैं। दूसरोंके कल्याण करनेमें अपने लाभालाभका विचार करना मध्यम या जघन्य पुरुषों का काम है। अतएव ख्याति लाभ पूज्यता आदि किसीभी ऐहिक प्रतिफलकी आकांक्षाके विना ही केवल परोपकारकी भावनाने ही ग्रन्थकको इस कार्यकेलिये प्रेरित किया है । यश अथवा अर्थलाभ लिये जो ग्रन्थनिर्माण किया जाता है वह उत्तम पुरुषों में प्रशंसनीय नही माना जाता ३ संसारकं सभी सम्बन्धोंसे सर्वथा पिरत जैनाचाया की कोई भी कृति अथवा रचना ख्याति लाभ या पूज्यता के लिये ही न तो अबतक हुई है और न वैसा होने का कारण ही है। क्योंकि ये तो अध्यात्मनिरत वीतरागता के उपासक मुमुक्षु हुआ करते हैं। इसलिये उनकी यदि किसी कार्य में प्रश्पत्ति होती है तो उसके दो ही कारण हो सकते हैं; या तो आत्मकन्याण के किसी मी अपने साधन की विवशता अथवा आवश्यकता या दुःखपूरित संसारकूप में पड़ते हुए जीवों को देखकर दयापूर्य दृष्टिसे प्रेरित होकर उनके उद्धार की भावना । एक परम दयालु वेलिए यह 1- "नाह प्रयोजनमन्तरा मन्दोऽप प्रवर्तत" इयुक्तः । २-“परार्थ स कृतार्थोऽपि यदे हेष्ट जगद्गुरु । तन्नूनं महतां चेष्टा परार्थैव निसर्गतः" आपु. १-१८ | तथा "एके सत्पुरुषाः पराभैपटका स्वार्थ परित्यज्य थे,सामान्यान्तु परार्णमुरमभृतः स्वार्थाविरोधन थे। तेऽमी मानुपराक्षसा परहित स्वार्थाय निम्नति थे। येनिघ्नन्तिनिरर्थक परहितं ते के न जानीमहे ।। "इति लोकोत: (भा हरि) प्रथा--"अयं निजः परो घेति गणना लघुचेतसाम् । उदारचरिताना तु वसुधैव कुटुम्बकम्"। इति च लोके । ३-प्रोताम पैहिक किंचित् फार वाम्लोत् कपाश्रु ठौ । नेच्छोहका च सत्कारधनभेषजसंभायाम् ॥१४॥ मोमात सन्मार्ग ऋणुपाचशेर्षा हि सता पेष्टा न सोकराये पा.पु. १४४
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रत्नकरण्डश्रावकाचार संभव भी कैसे हो सकता है कि वह समर्थ रहते हुए भी रक्षणीय व्यक्ति की उपेक्षा करदें । प्रत एव समझना चाहिये कि आचार्यों की परमदयाभाध से प्रेरित नसाध्वी परोपकारिणी सभाबना ही इस ग्रन्थके निर्मासमें अन्तरंग और मुख्यतया कारवनिक कारण है । जगत के जीवों का अज्ञान और कपाय हुशकर संहार रूपी दाधु पूण अत्यपर्म हर्षल दनवाली दुःप्रवृत्तियोंसे सास्थान कर कल्याण के वास्तविक मार्ग को बता देना ही गया उपकार है । इस उपकारके लिए ही ग्रन्थकर्ता प्रकृत ग्रन्या के निर्माण कार्य में प्रथम झुपए है, गंगा समझना चाहिये ।
अब प्रस्न रह जाता है कि धर्म के उपदेश की ही बारश्यकता क्यों उपस्थित हुई ? यद्यपि सामान्यतया इस प्रश्नका उत्तर ऊपर के कथन से हो जाता है फिर भी इस विषय में जो कुछ विशेषता है उसका यहाँ उल्लेख करना भी उचित प्रतीत होता है।
बात यह है कि संसारी प्राणीको वास्तविक हित से वाचत रखनेवाली दो तरह की प्रवृ. चियां पाई जाती है। एक अन्तरंग और दूसरी बाह | अथवा अगृहीत अनादि स्वाभाविक और गृहीत रोपदेशादि के द्वारा उत्पन्न होनेवाली । मन यधन काय की अपने अपने इष्ट अनिष्ट विषयों में जो बीयकी प्रवृत्ति होती है वह उतारे अहितका माला व. और इस विरग में जो इष्ट मनिष्ट कल्पना होती है उसका जो वास्तविक कारण है वही उसके अहितका अन्तरंग कारख है। मूलभून यह अन्तरंग कारण भी और कुछ नहीं, जीवका अतच श्रद्धान ही हैं अनादि कालमें जीव के साथ सो मोहकम लगा हुआ है इसके उदयत्रश इस जीव को तव का श्रद्धान नहीं होता। इस अतच श्रद्धान को ही मिथ्यात्व कहते हैं। क्यों कि वह वास्तविक एवं सत्यभूत वस्तुस्वरूप तथा आत्मस्वरूप से जीत्र को बंचित करनेवाला भान है। अनादि कालसे यह भाव जीप के साथ लगा हुआ है उसीको अगृहीत मिथ्यात्व कहते है । कदाचिद् दूसरोकं मिथ्या उपदेश को सुनकर जो अतघमें श्रद्धा होती है उसको गृहीत मिथ्यात्व कहते हैं । दोनोंका वास्तविक कारण मोद-दर्शन मोह का उदय ही है। दोनों में अन्तर का यदि कुछ कारण ई तो बाह्य कारण की निरपेक्षा और सापेक्षा ही हैं इस मिथ्यात्व भावके कारण जीवकी कषाय वासनाएं भी भस्यन्त तीव्र अथवा इस मिथ्यात्वमाय के अनुकूल या सविरुद्ध ही अपने अपने विषयों में प्रास हुया करती हैं इस कपाय भावना को ही होम शब्द से भागम में कहा है। इस तरा ये अनादि अथवा कथंचित् ३ सादि मोह क्षोभ भाव ही जीव के अहितके ४कारण हैं। निसर्गतः परोपकारमें निरत तत्वज्ञानी इसी दुक्ख अथवा अहित के वास्तविक एवं अंतरंग कारण की निवृति के लिए उपदेश दीया करते हैं उसीका नाम धर्मोपदेश है । इस धर्मोपदेशकी पद्धति अनेक १-"पे पितिपुर्वालो नहि फेनाप्युपेक्ष्यने," त्रिचूडामणि । ९-- यथा-"हतोस्तथापि हेतुः साधी सपकारिणी बुद्धिः" पंचाध्यायी
६-परोपदेशको अपेक्षा सादि भी कहा जा सकता है। ४-"दयादि एसु मूढो भावो जीवस्स हबदि मोहोत्ति । खुब्बदि तेगुरुचरणो पप्पा राग व दोसंशा || मोहण व रागंण व दोसेण व परिणदस्त जीवरस । जायदि विविधो बन्धो तन्हा ते सेखातम्या | माअजधागहर्ष करगामायो र मणुव सिरियेसु । विमयय-अप्पसंगो मोहस्सेदाणि लिंग्यान ON०१६
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चद्रिका टीका दूसरा श्लोक प्रकार की है परन्तु सबमें सरल तथा मुख्य सर्वसाधारण के द्वारा भले प्रकार एवं अधिक से अधिक प्रमाण में उपयोग हो सके-पालन किया जा सके वह पद्धति यह है कि उक्त मोहयोग कारण जो जीवोंकी मन वचन काय की इस तरह की प्रवृत्ति हो रही है कि जो उन्हीकी संतति चालू रहने में कारण है उन प्रवृत्तियों से जीव की निवृत्ति कराई जाय । ऐसा होनेसे मोइ दोष घोडेसे काल में निर्मूल हो जा सकते हैं। कारण कि असमर्थता अथवा अप्राप्तिमें कार्यका जीवित रहना अथवा उत्पन्न होना शक्य है। __ इस नाइस संसार का कारणोंगी रितिकेलिये जो उपाय बताया जाता है उसीका नाम धर्मोपदेश है । इस धर्मतीर्थक्र प्रवर्तनके पारसही तीर्थंकर भगवा अथवा श्रीवर्धमान भगवान् सर से प्रथम बन्ध है । उसी प्रकार उनके मार्गका अनुसरण करना भी उनके भव्य भक्त सुषमोका कर्तव्य है । ग्रन्थकर्ताका भी इस प्रकृत ग्रन्थ के निर्माणमें यही प्रयोजन है।
प्रश्न-श्रेयोमार्गके साधक मुनियों एवं प्राचार्योको अात्मसाधनमें ही निरत रहना पाहिये परोपकार करनेकी इच्छा और तदनुकूल प्रवृति तो सराग भाय है। उससे तो उन्हें बचना चाहिये । ऐसी हालतमें इस प्रक्षिका क्या कारण है।
उत्तर-~-टीक है। आगममें भी ऐसाही कहा है कि साधुओंको आत्महित ही सिद्ध करना चाहिये । किंतु साथमें यह भी कहा है कि यदि शक्य होती परहितमें भी उन्हें प्रवृत्त होना चाहिये । इभका आशय यही है कि भात्महित और पाहित दोनों में प्रात्महित मुख्य एवं प्रथम उपादेन है। परन्तु परहितमें प्रवृत्ति भी साधुपदके विरुद्ध नहीं है। तथा साधारणतया सभी साधु इस तरह के नहीं हुमा करते कि जिनको बाध प्रप्ति करनी ही न पड़े। श्रतएर उपदेशादिको प्रवृतिका साधुके लिये प्रागम, निषेध नहीं है। फिर भी यह ठीक है कि यह प्रवृत्ति शुभोपयोग रूप है, और आजकल जबकि शुद्धोश्योग संभा ही नहीं है तब शुभीषयोग रूप प्रवनियां ही तो साधुके लिय शेष रह जाती है । हां ! यह ठीक है कि क्षोभराहरु होनी पाहिये । शल्य, ख्याति प्रादि की भावना गाव आदि दोपोस रहित होनी चाहिये।
दूसरी बात यह है कि परोपकार में खोपकार भी निहित ही है परोपकार दो तरहसे संभव है। एक तो पूर्णतया वीतराम व्यक्तियों द्वारा जैसाकि आगे चशकर कारिका में भाप्तपरमेष्ठी के विषयमें कहा जायगा दूसरा निरवध तथा शुभसराग युद्धिसे । पहिले प्रकारका उपकार जहां तक वक्ता सराग अवस्था में है वहां तक संभव नहीं है। अन्यकर्ता महावी होनेसे निरषष शुभकम में प्रवृत्त हो सकते हैं। और ऐसा करने पर उनके गौणवया संवर निजरा तथा मुख्यतया सातिशय पुण्यकर्म बंध होनेसे स्त्रोपकार भी होता ही है। यद्यपि वे उस पुन्यकर्मको म सो वास्तव में उपादेय ही मानते हैं और न खाम उसके लिये ही परोपकारमें प्रकृषि करते हैं। जैसा
-अर्थात माह शाम की दूसरे शब्दों में मिध्यात्म कपाय की अथवा संसार के कारण की। २-आदहिंद कादम्ब अह सफा परहिवं च धावस्व । आवहिदपरहिदायो बादहिवं सह कायव्यं ।
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करनेपर तो पुण्यकर्मका अतिशय भी नष्ट हो जा सकता है? | अतएव ग्रन्थकर्त्ता तो इस कार्य में निरपेक्ष बुद्धिसे संसारी प्राणियाँको दुःखरूप अवस्था से निकालने के लिये सत्य शक्य समीचीन सदुपायका जो कि पूर्ण वीतराम भगवानके द्वारा ही कहा गया है दर्शन करनेमें प्रवृत हुए हैं। यही इस प्रवृत्तिका प्रयोजन है ।
शब्दों का सामान्य विशेष अर्ध
देशयामि - दिश धातु तुदादिगणकी है। उत्तम पुरुपके एकवचन में इसका प्रयोग दिशामि होता है। किंतु स्वार्थ अथवा प्रयोजक अर्थ मित्र प्रत्यय करनेपर "देशयामि" ऐसा प्रयोग हो सकता है । दिशुका अर्थ अतिसर्ग - देना होता है। स्वार्थ की अपेक्षा प्रयोजक अर्थमें शिच् प्रत्यय करके इस क्रियापदका प्रयोग अधिक सुन्दर एवं उचित अर्थका बोतक प्रतीत होता है। क्योंकि उससे यह अर्थ ध्वनित होता है कि सर्वज्ञ भगवान् तथा गणवर देवने जिस धर्मका व्याख्यान किया है उसीका में यहां प्रतिपादन करता हूँ। ऐसा कहने से अपनी लघुता प्रदर्शित होने के सिवाय प्रतिपाद्य विषयक सर्वज्ञपरम्परानुगति तथा स्वतः प्रामाणिकता प्रकट हो जाती है ।
थर्म शब्दका सायं ग्रंथकारने ही याशय कारिका के उत्तरार्ध में निरुक्त्यर्थं बताते हुए स्पष्ट कर दिया है । शेष शब्दोंका अर्थ प्रसिद्ध एवं स्पष्ट है फिर भी सच शब्दपर थोडा ध्यान जरूर देना चाहिये ।
क्योंकि यहां पर सच्च शब्द सत्ता आदि अर्थका वाचक तो नहीं ही हैं, और श्रागम में प्रसिद्ध संसारी जीवों के चार भेदों-जीव, सन्त, प्राणी और भूत, इनमें से एक भेद - सत्वकाभी वाचक नहीं हैं | यहांपर तो सामान्यतया संसारी जीव अर्थ अभीष्ट है जिसका अर्थ होता है कि किसी भी तरह के दुःख से पीडित आत्मा रे |
विशेषण का फल इतर व्यावृति होता है । व्याख्येय धर्मोके स्वरूप भेद एवं असाधारण वैशिष्ट्य को बताने के लिए ग्रंथकारने तीन विशेषणका प्रयोग कीया है समीचीन कर्मनिवर्हण ये दो विशेष जिसतरह इतर व्यावृत्ति तथा विशेषता को बताने के लिए दिये हैं उसी तरह उत्तरापूरा वाक भी दोनों प्रयोजनों को लक्ष करके लिखा गया है। इनमेंसे पहला समीचीन विशेपण पापरूपया एवं सर्वया दुःखरूप इस तरह के धर्मसे व्यावृत्ति के लिए दिया गया है। जिसका कि इस लोक तथा परलोक में दुःखके सिवाय और कोई फल ही नहीं है अथवा जो स्वयं दुःखरूप है ।
माँ के दूध को दूध कहते हैं परन्तु यांकडा आदि वनस्पतियों के दूध को भी लोकमें दूध
१- पुराण' पि जो समीहदि संसारो तेण इहिदो होदि । दूरे तरस विसोही विसरला पुरणाणि ॥ २- यं दिशन्ति अदिशम् वा श्रर्थतः सर्वशदेवा ग्रन्थतो गणधरदेवाश्च तमेवाहम् प्रयोजकत्वेन देशयामि । सर्वशोकमाचार्य परम्परानुगतमेव च धर्मस्वरूपमिद्दाहं वर्णयामि नान्यत् इत्याशयः ।
३- सीदन्तीति सत्त्वाः ।
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चंद्रिका टीका दूसरा श्लोक शब्दसे ही कहा जाता है । इसी तरह अमृत के समान अजर अमर सुखशांतिके प्रदाता रखशय को जिसका कि यहां वर्णन कीया जायगा धर्म कहते हैं, किंतु लोक में मिथ्यात्व मोह सवाय मज्ञान तथा हिंसा श्रादि पापाचारको भी धर्म शब्दसे बोलते है जो कि दुःखरूप संसारमें अमन का ही कारण है। इस तरह के धमको वास्तव में अधर्म ही समझना चाहिये । इस अधर्म से घचाने के लिए ही समीचीन विशेषण दिया गया है क्योंकि वे समीचीन नहीं हैं। दुःखरूप प्रमा के ही कारण हैं अथवा स्वयं भी दुःखरूप है । समीचीन विशेषण के द्वारा उक्त अधर्मसे निति हो जाती है । परन्तु समीचीन शल्द सेगी दो दक्षा के अर्थ का दोष होता है। एक तो शुभ और दूसरा शुद्ध । जो केवल सांसारिक सुखों का कारण हैं वह शुभ और अनेक अभ्युदयोंके लाभके सिवाय उनका कारण होकर भी जो मुख्यतया संसार निवृत्ति का कारण है वह शुद्ध कहा जाता है। समीचीन विशेषण के द्वारा शुभ और शुद्ध कर्म दोनों का भी बोध हो सकता है अतः निवईण शब्दके द्वारा शुद्ध धर्म का बांध यहां कराया गया है। क्यों कि शुभोषमोगरूप धर्म दो तरह से संभव हैं। एक सम्पक्व सहचारी और दूसरा मिथ्यात्य सहचारी । कर्मीकी वास्तव में संबर निर्जरा तबतक संभव नहीं है जबतक कि सम्यग्दर्शन के द्वारा आत्मद्रष्यमें शुद्धता प्रास नहीं हो जाती । अंगरंग में जिसको यह शुद्धि पास हैं वही जीव कर्मोका निवर्हण नाश करनेवाले धर्मसे युक्त माना जाता है और वही उस धर्म के वास्तविक फलको-संसार और उसके दुःखों से निवृत्त होकर संसारातीत अवस्था और अनन्त श्रव्याचाध सुखको जोकि इस कारिका के उत्तरार्ध में बताया गया है प्रास किया करता है। किन्तु गौणतया सम्यग्दर्शनसे शुआत्माके शुभोपयोग की भी कथंचित शुद्ध कहा और माना जा सकता है। ___इस तरह इन दोनों विशेषणों द्वारा धर्मके द्वविध्यको रहोपर प्रगट कर दिया गया है। ये दो भेद भिन्न २ शद्रों के द्वारा कहे जा सकते हैं। व्यवहार और निश्चय, शभ और शुद्ध परम्परा कारण साक्षातकार इत्यादि । इनका विशेष वर्णन करनेवाले श्रागम ग्रन्थोंका अध्ययन कर इनके स्वरूप का भले प्रकार जिज्ञासुओंको ज्ञान प्राप्त करना चाहिये और उसको जानकर अविरोधेन प्रवृत्ति करनी चाहिये ।।
उत्तम सुखः-- पूर्वार्ध में थगैका स्वरूप वताकर उत्तरार्धमें इसके फलका निर्देश किया गया है। धर्मका फल 'सुख' इतना ही न बताकर उसे उत्तम विशेषण से युक्त करके बताया गया है। मतलब यह कि यहांपर जिस धर्मके स्वरूप का निर्देश किया गया है या जिसका इस अन्य में वर्णन किया जायगा उसका वास्तविक फल सामान्य सुख नही किंतु एक विशिष्ट सुखलोकोसर सुख है।
---लोके विपामृतप्ररूपभावार्थः जीरशम्वन् । वतते धर्मशब्दोऽपि ततोऽनुशिष्यते ॥ अन-र-र २-संजनदि रिणवाणं देशसुरमगावरायविहहिं । जीएस्स चरितादो वेसणणाणपहाणादो। प्र.सा. १-६ अथवा यम्माद्भ्युदया गुंसां निश्रेयस फलाश्रयः वदन्ति विदिलाम्नायास्तं धर्म धर्म सूरयः ।। यशस्तिलक सिया भनगार धर्मात ।
१-जइ जिगम परवा मा बबहार णिकप मुख्द । पोण पिणा किंवा तिवं माय
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रत्नकरण्डश्रावकाचार यो तो देखा जाता है कि सुख शल्दका प्रयोग अनेक अभीष्ट विषयों में होता है किंतु प्राचार्यों ने इसका प्रयोग मुख्यतया चार अर्थों में बताया है. विषय, वेदनाका अभाव, विपाक
और मोक्ष । वैभव ऐश्वर्य आदि अथवा इन्द्रियों के विपय यदि मनोहर हों तो सुख शब्दसे कहे जाते हैं। पुण्य कर्मोंके उदय को भी सुख शब्दके द्वारा कहा जाता है। इस तरह ये तीन अर्थ हैं जो कि कर्म के उदयादिकको किसी न किसी प्रकार अपेक्षा रखते हैं। चौथा अर्थ मोक्षसे है जोति कर्मकी प्रभाल की सपेता सता है। फलतः यह चारों अर्थ दो भागोंमें विभक्त हो जाते हैं...एक सांसारिक और मरा नैःश्रेयस । ये दोनों ही सुख नश्चतः परस्पर में अत्यंत विरुद्ध जातिके हैं। दोनोंका स्वरूप भिन्न २ है, दोनों के कारण भी भिन्न २ ही हैं। सामान्यतया दोनोही सुख शब्द से कहे जाते हैं। परन्तु वास्तव में एक हेय और दूसरा उपादेय है। जिस धर्म का यहां व्याख्यान किया जायगा उसका वास्तविक फल उपादेय अथवा नःश्रेयस सुख है; इस बातको बताने के लिए ही मुखका उत्तम विशेषण दिया गया है।
सांसारिक सुखकी अपेक्षा नःयस सुखकी उपादेयता एवं उत्तपताका परिझान उनके स्वरूप और कारणों को जान लेनेपर हो सकता है अतएव स्वयं ग्रंथकारने अागे चलकर अपने इसी ग्रन्थ में दोनोही सुखों के स्वरूप एवं कारण का यथावसर निदश कर दिया है।
प्रश्न हो सकता है कि ऐसी अवस्था में प्रकृत धर्म नःश्रेयस सुखका ही कारण हो सकता है न कि सांसारिक सुखोका | फिर सांसारिक सुखोका कारण क्या है ? इस प्रश्नका उपर धर्मकी विभिन्न दशाओंका स्वरूप समझ लेनेपर सहज ही हो सकता है । यहाँ आगेकी कारिकामें धर्मके स्वरूपका सामान्यतया उन्लेख किया जायगा, परन्तु उसके अंतरंग बहिरंग के कारण भेदोंके साहचर्यवश अनेक भेद हो जाते हैं । कारण भेदके अनुसार कार्ग भदका होना स्वाभाविक है । जिस धर्मका यहो व्याख्यान किया जायगा उसके द्रव्य और भाव इस तरह से तथा सराग और वीतराग इसतरह से दो भेद है ।
विवक्षित धर्मके पातक बाधक या प्रतिपक्षी मुख्यतया मोह और योम है । मोहके उपशम वपक्षपोषशमके होने पर जो श्रात्मामें विशुद्धि प्रकट होती है वही वास्तविक एवं भाष रूप अन्तरंग धर्म है। उसके रहते हुए या कदाचित न रहते हुए भी जो वाम रूपमें असंयम रूप
-विषये वेदनाभावे विपाके मोक्ष एवच । लोके चतुविहार्थेषु सुखशब्दः प्रयुज्यते । अमृतच द्र आचार्य तवार्थसार । २-राजाधिराज रूपलावण्यसौभाग्यपुत्रकलत्रादिरिपूर्णविभूतिविभवः, ओशाफलमैश्वर्यम् । प्रजा टीका ३-सुखों घायुः सुम्यो वहिः....." तत्त्वार्थसार । १-१६१
४--देखो रत्लफरगह-कर्मपरवशेसान्ते दुःखैरन्तरितोदये। पापीजे सुखे नास्था श्रद्धामाकांक्षमा स्मृता॥ तथा-शिवमजरमरु जमक्षयमध्यावा विशोकभयभंकम् । काष्ठागत सुखविद्या विभा विमल भजन्ति दर्स नपूतः ॥ ४० ॥
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चंद्रिका टीका दूसरा श्लोक प्रवृत्तियों का परित्याग होता है उसको बहिरंग एवं द्रव्य रूप धर्म कहते हैं । इन्द्रियों तथा मनके विषयसे निवृत्ति, हिंसा आदि पापोंका त्याग, एवं छतादि महाव्यसनोंसे उपरति और अन्य सावध प्रवृत्तियों का परिहार आदि बहिरंग धर्म है । इल बहिरंग धर्मकी अन्तरंग धर्म के साथ नियत अथवा समन्यामि नहीं है। ऐसा नियम नहीं है कि जहाँ २ यह बहिरंग धर्म हो वहां २ अन्तरंग धर्मभी अलभ्य ही रहे। पाकिमा लिंग धर्म मोहनीय कर्मके उपशम क्षय क्षयोपरम के बिना केवल मन्द मन्दतर मन्दतम उदयकी अवस्थामें भी हुआ करता है। फिर भी यह सत्य है कि इस तरहका केवल बहिरंग थम भी अनेक अभ्युदयों के कारण भृत घुण्य बन्धका कारण होने के सिवाय अन्तरंग धमकी सिद्धि में भी एक कारण अवश्य है। इसके विपरीत अन्तरंग घमेकी बहिरंग धमेके साथ यह व्याप्ति अवश्य है कि जहां २ जिस २ प्रमाणमें अन्तरग धर्म पाया जाता है वहां २ उसके प्रतिपक्ष बाह्य असंयत प्रवृत्तिका अभावभी अलग ही रहा करता है। ऐसा नहीं होता कि जहां जिस प्रमाण में अन्तरंग धर्म प्रकट होगया है या विद्यमान है वहां उसके विरुद्ध असंयत प्रवृत्तिभी होती रहे । उदाहरणार्थ अनन्तानुवन्धी ४ कपाय तथा दर्शन मोहनीय कर्मक उपशमादिसे सम्यग्दर्शन रूप यम प्रकट होता है ऐसी अवस्थामें यह कभीभी संभव नहीं हो सकता कि जब तक वह सम्यग्दर्शन विद्यमान है तब तक मिध्यात्व या अनन्तानुबन्धी कपायके उदयके निमित्त से होने वाली बाह्य असंयत प्रवृत्तियां भी होती रहें । अन्यथा करणानुयोग में बन्ध व्युच्छित्ति श्रादिके बताये गये नियम ही असंगत हो जायगे और संमार मोक्षकी वास्तविक म्यवस्था ही नहीं बन सकेगी । न करणानुयोग सिद्धान्त शास्त्रके साथ चरणानुयोगके उपदेशों की संगति ही बैठ सकेगी । अतएव यह सिद्ध है और स्पष्ट है कि अन्तरंग धर्म के अनुकूल वाघ प्रवृचि अश्श्य होती है । इसलिये चतुर्थ मुणस्थानीको "असंयत" कहकर जो उसकी प्रकृति भाहार विहारादिमें अनर्गल रताना चाहते हैं वे गलती पर है और उनका इस तरहका कथन उत्सूत्र समझना चाहिये । इसी तरह जो पाह्य धर्मको अन्तरंग धर्मका कारण नहीं मानते घे भी तृत्वसे विपरीत हैं । इससे भी कनर्मलताकी पुष्टि और वृद्धि होती है तथा सन्मार्गके वास्तविक कार्य कारण भावका भंग होता है । इसलिये मातरंग और बहिरंग धर्मको मैत्री तथा अनुकूल कार्य कारणताको समझ कर चलना ही सर्वथा जरित है। यहां पर या पात अवश्य ही ध्यानमें रखनी चाहिये कि द्रव्यरूप श्रीर भावरूप अथवा अन्तरंग और पहिरंगरूप धर्म वास्तष में धर्म शब्दसे भी.तभी कहे या माने जा सकते हैं जबकि उनमें परस्पर मित्रता हो । दोनों में विरोध रहते हुए किसीको भी धर्म शम्दसे नहीं कहा जा सकता। द्रव्यरूप धर्भको छोड़कर भावरूप धर्म नहीं रह सकता और न भावरूप धर्मका विरोधी रहने पर द्रव्यरूप धर्म ही समीचीन धर्म माना जा सकता है । क्योंकि वास्तविक धर्म वही है जिससे कर्मों का निवईण हो जो वस्तुतः
१-इन्द्रियोंके विषय तथा हिंसा झूठ चोरी आदि पापों के त्यागका नाम संयम और उनके त्याग न करनेको अर्सयम कहते हैं।
अन्तरंग धर्मको सिद्धि में वाम धर्म कारण है, न कि.वरम | भरण और रणमे क्या भन्सर है, यह
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रत्नकरगड श्रावकाचार निर्वाणका कारण हो भावरूप निश्चय धर्मको छोडकर केवल व्यवहार धर्मका ही सेवन अथवा व्यवहारको छोडकर केवल निश्चयका ही सेचन करनेवाला कम निबर्हण या निर्वाण रूप फलको प्राप्त नहीं कर सकता । यही कारण है कि जिस तरह भागममें व्यवहारको हेय बताया है उसी प्रकार केवल निश्चयको भी मिथ्या ही कहा है 'समीचीन' और 'धर्म नियहण' विशेषणों का आशय स्पष्ट करते हुए ऊपर जो शुभ-पुण्यरूप पा पुण्य अन्धके कारण भून धर्मकी गाँणता बताई है, उसका अभिप्राय भी यही है कि अन्तरंग निश्चय रूप धर्मके सिद्ध हो जाने पर ही वास्तव में व्यवहार हेय है क्योंकि कायं सिद्ध होजाने पर फिर कारणकी आवश्यकता नहीं रहा करती परन्तु जब तक निस्थय थर्मशी योग्यता का शक्ति प्राप्त नहीं होती और वह प्राप्त नहीं होता यहां तक तो व्यवहार धर्म ही शरण है तब तक वह हेय नहीं है। क्योंकि उसके प्रारम्भ में श्रालम्बन लिये बिना निश्चय धर्म भी सिद्ध नहीं हो सकता । हां, जी व्यवहार धर्मका निश्चय की सिद्धि के लिये पालन नहीं करता उसका वह व्यबहार धर्म कदाचित् निर्माणका कारण न होकर संसारका ही कारण हो सकता है। अतएव जो मुमुक्ष है उनकी चाहिये कि निश्चय और व्यवहार दोनोंका ही स्वरूप समझे और दोनों ही शुद्ध शुद्ध सङ्कन असत आदि भेदों को भले प्रकार समझकर अपनी शक्ति एवं योग्यता के अनुसार सापेक्षतया दोनों ही पालन एवं२ धारण करे।
ऊपर धर्मके सराग और बीदराग इस तरहसे भी दो भेद बताये हैं। इन दोनोंका स्वरूप शब्दों परसे ही समझमें आ सकता है। जहां तक धर्मका रागके साथ सम्बन्ध पाया जाता है यहां तक सराग धर्म कहा जाता है, और जहां रागके साथ सम्बन्ध नहीं रहता पक्ष पर पीतराग धर्म कहा जाता है। गुणस्थानोंकी अपेक्षा चौथे गुणस्थानसे खुश ठक सराग और उसके ऊपर वीतराग धर्म हुआ करता है।
भागममें कोंक बन्धके कारण मोह और योग मान३ हैं। इनमें भी गुरुय कारण मोह हैं। मोहके तीन भेद है-दर्शनमोह क.पाय वेदनीय और नो कपाय वेदनीय । कषाय वेदनीयका एक भेद अनन्तानुसन्धी दर्शनमोहके भेद रूपमें भी बताया है और चारित्र मोहके भेदमें भी गिनाया है । सम्यग्दर्शन रूप धर्म अपने प्रतिपक्षी कर्मों के पशम कय दयोपशम होने पर जब
आविर्भूत होता है वहीं से अन्तरंग वास्तविक धर्म प्रच.ट होता है । परन्तु जहां तक उसका शेष मोहके उदयकं साथ साहचर्य बना रहता है वहां तक वह सराग माना जाता है यही कारण है। मागेकी व्याख्यास विदित होगा परन्तु यह बात जाकर चानमें रखनी चाहिये कि कारणके बिना भी कार्यकी सिद्धि न तो होती ही है और नहीं हो सकती है । अन्यथा उसको कारण भी किस तरह कहा जा सकेगा।
१-"निरपेक्षा नया मिथ्या सापेक्षा यातुतोऽथंकृत् ।" प्राप्तमीमांसा । व्यवहारमभूतार्थ प्रायो भूतार्थविमुखजनमोहात् । केपलमुपयु'जानों दम्जनबद्भश्यति स्वार्थात् ॥ अन ०१-६ । व्यवहार पाची नां निश्चयं यश्चिकौषीत ! बीजादिना बिना मूढः स सस्यानि सिसृक्षनि ॥१०॥ भूतार्थ रज्जुबत्स्वैरं वित्त वंशवन्मुहुः । श्रेयाधीरैरभूतार्थो हेयस्तषिद्धतीश्वरैः ।।१०।। ३-इसके लिये देखी मनगार धामृत - no- 0.
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चौद्रिका टीका दूसरा लोक कि इस सराग धर्ममें अंशांशि भाव माना गया है । धर्म और राग दोनोंकी मिश्रित अवस्थाके कारण उसका दोनों दृष्टियोंसे विचार किया गया है। इसमें जो सम्यग्दर्शनादिक प्रात्माका शुद्ध अंशरप धर्म है वह तो संघर निर्जरा एवं मोक्ष का ही कारण है, ६.ह किसीभी तरहके कर्म बन्धका कारण नहीं है । किन्तु उसके साथ जो संग भाव लगा हुआ है वह बन्धका कारण है। इससे यह बात समझमें भाजायगी कि धर्मको जो अभ्युदयका कारण कहा जाता है यह मी सर्वथा अताविक नहीं है । धर्मके सहचारी रागके कारण होने वाले पन्धका-सांसारिक अभ्युदयों के कारण भूत काँके बन्धका कारण उपचारसे धर्मको भी कह दिया जाता है। यद्यपि यह ठीक है किधर्मके सहचारी तथा व्यभिचरित रागर्भ बहुत बड़ा अन्तर एवं विशेषता है। यही कारख है कि विशिष्ट एवं अनेक सतिशय अभ्युदय ऐसे हैं जिनके कि कारण भूत पुण्य कर्म विशेषों का बन्ध धर्मके सहचारी रागके लिमिलसे ही हुआ करता है । जो कि धर्मसे व्यभिचरित रागके द्वारा न तो होता ही है और न संभव ही है। धर्मको उपचारसे श्रभ्युदयका कारण कहने में यही निमिच४ है । आगे चलकर प्रकृत ग्रन्थम मा सम्पग्दर्शनादिके जो अनेक भाग्युदायिक फल बताये हैं वे भी इसी कारण वास्तांवफ धर्मके सहचारी भिन्न २ शुभ रागरूप परिणामोंके ही वस्तुतः फल समझने चाहिये । फलतः स्पष्ट है कि निश्चय धमके साहचर्यकं पिना जो अभ्युदय प्राप्त हो नहीं सकता उस मा सलय धनको कारण कहना भी अयुक्त तथा मिथ्या नहीं है। इस तरहके सराग धर्म के आधार पर ही तीर्थ प्रवर्तन संभव हो सकता है।
तात्पर्य
प्राप्तपरमेष्ठी सर्वज्ञ वीतराग श्रीवधान भगवान्ने अर्थतः और उसके ज्ञाता एवं वक्ता-पवतक श्री गौतमादिगणधर देवन सनीचीन धर्म क भिन्न २ अपेक्षा असि नाना प्रकार बताये हैं। परन्तु उन सभी प्रकारोंको सामान्याया चार भागों में विभक्त किया जा सकता है। १. वस्तुस्वभाव,६ २-उत्ता क्षमादि दशलवण, ३-रत्नत्रय, ४-दया। बस्तु स्वभावका विचार ट्रम्यानुयोगमें विस्तार पूर्वक और भिन्न २ दृष्टियास कियागया है। जिज्ञासु मुमुक्ष ओंको यह सबसे प्रथम अवश्य समझलेना चाहिये। क्योंकि उसका ज्ञान प्राप्तहुए बिना न तो अन्य विषयों का ठीक
१--"सप्त चष्टिमोहम्" पंचाध्यायी और नस्वार्थ सूत्र तथा धवला।
२-यनांशेन सुधिरतमाशेनास्य बंधनं नास्ति । येनांशेन तु रागस्तेनांशेनास्य बंशन भवति। येनांशेन तु शानं तेनाशनास्थ मंधन नास्ति । यनांशन तु रागस्तनाशनास्य बंधनं भवति ॥ येनांशेन परित्रं तेनाशनास्प बंधनं नास्ति । यनांशेन तु रागस्तनाशनास्थ बवा भात । पुरुषार्थ तथा येनोशेन विशुद्धिा स्थाजन्तीस्तन न धनम् । यमांशेन तुराग स्यात्तेन स्यादेव बन्धकम् ॥ ११०१ अनगार। किंच-"रलत्रयमिह देतनिर्वाणस्यैव भवति नान्यस्य । प्रास्रवात पुण्यं शुभोपयोगस्य सोयमपराधः ०१ अन० टो-:. ३-अनुदिश श्रादिमें उत्पत्ति, तथा सौधर्मेन्द्रादि पदका लाभ, या मनुष्य भवमें चक्रवर्ती तीर्थकर जैसे पद ॥४-क्योंकि यह प्रसिद्ध है कि-"प्रयोजने निमस चोपचारः प्रवर्तते ।" ५-इसके लिये देखो रत्नकरस श्रावकाचार कारिका न. ३६ से ४१ तक, तथा ३३, २४
६-प्रवचनसार--वसुझायो धम्मो आदि ।
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লেগান্ধা ठीक परिज्ञान ही प्राप्त हो सकता है और न अभीष्ट विषयमें सफलता ही प्राप्त हो सकती है। कारण यह है कि सभी विषय मूलभूत वस्तुस्वभावसे ही सम्बन्धित हैं और उसीपर आधारित है। इसके सिवाय बात यह भी है कि जिस उपाय से प्रारमा निर्वाण को प्राप्त होता है वह भी वस्तु स्वभाव से भिन्न नहीं तत्पर ही है।
सस्तु समसगुण यम का अखंडपिंड है । और वह उसका अनाद्यनन्त स्वभाय है। उसमें जो अनेक विप्रतिपत्तियां३ उपस्थित हैं उनका निराकरण स्यावाद पद्धतिसे जैनागम के अनुसार वस्तु स्वभावके समझलेने पर सहजही हो जाता है। क्योंकि सर्वज्ञ वीतराग भगवान्के द्वारा प्रतिपादित होनेके कारण तथा वस्तुस्वभाव को ठीक समझाने एवं समस्त विरोधोंका परिहार परने में समर्थ यह "स्याद्वाद" सिद्धान्त एक एसी नीति--युक्ति-रीति या पद्धति है जोकि समस्त प्रश्नोंका समाधान करने एवं सभी विरोधों-आपचियोंको दूर कर दस्तुका ययावत् स्वरूप प्रकट करने में समर्थ है । इस नीतिका प्रतिपादन जैनागमके सिवाय अन्यत्र कहीं भी नहीं पाया जाता इसके द्वारा यह यात भी स्पष्ट हो जाती है-अनुमान द्वारा जानी जा सकती है कि जिसने इस उपायको बताया है वही उपेय--वस्तुस्वभावका भी यधार्थ एवं पूर्णतया ज्ञाना तथा वक्ता माना जा सकता है निष्पक्ष सदाग्रही मुमुक्षुओं को चाहिये कि उसी के पचनाके अाधार पर चलने में अपना हित समझे।
ऊपर जैसा कि कहागया है कि वस्तु अनन्तगुणधर्माका अखएडपिंड है यही कारण है कि उसके स्वरूपका परिज्ञान करानेके लिये प्राचार्यो उसका जो भिन्नभिन्न दृष्टियोंसे प्रतिपादन किया है यह परस्पर में विरोध नहीं रखता।
प्राचार्योने द्रव्यांके स्वरूप का विचार अनेक प्रकारसे किया है। या तो सर्वसामान्य अस्तित्वकी दृष्टि से या उसके विशेर-गुणपर्यायों-गुण-धर्मो-चित् अचित, मूर्व अमूर्त, काय अकाय, सक्रिय निष्क्रिय, एवं सत् असत्, एक अनेक, नित्य अनित्य, तत् अतद् आदि तथा साधर्म्य वैवर्मा, तिर्यक सामान्य, अर्घतासामान्य, स्वभाव विभाव, शुद्ध अशुद्ध प्रभृति वियचिव अविवक्षित विशेषणों को मुख्य तथा गौण रखकर नाना तरहसे विचार तथा वर्णन किया है । किन्तु यह सारा ही विषय दो भागोंमें विभक्त है-हेय और उपादेय । उक्त सब विषयका परिझान समीचीन६ भुतका सम्यकतया अभ्यास करने पर हो सकता है । इसके लिये विधिपूर्वक चारोंदी अनुयोगों २–निर्वाणका साक्षास साधन रत्नत्रय--सम्यादानादि भामरूप ही है उस मिनही त्यत्तयं ण बट्टा अप्पाएं मुबहु अएणदयियम्मि तम्हा तत्तियमइओ होरि गोक्खरम पारणं आदा।। द्रव्य समह ४०।।
-विरोध, विरुद्धमान्यताम् । ४-५ पुरुषार्थ सिद्धयुपाय-अत्यन्तनिशितधारं दुरासद जिनवरस्य मयचक्र गण्डयति घायमानं मूर्धानं झटिति दुर्दिदधानाम् ।
६-दिगम्बर जैनागम । -श्रद्धापूर्वक एवं गुरुमुखसे आम्नायपूर्वक !-मन्थार्थोभयं पूर्ण काले पनयन सोपधान म बहुमानेन समन्धितमनिहवं झानमाराध्यम् । तथा मन्थार्थतद्द्यैःपूर्णम् आदि मन ३.१४ रियादशम्नाय निभ्याय युक्त्यान्तः प्रणिधाय च । भुतं व्यवस्थेत्मविश्वमनेकान्तात्मक सुधीः ॥ अन ३---
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चंद्रिका टीका तीसरा श्लोक
का अध्ययन करना जरूरी है। इस अध्ययनका अन्तिम फलितार्थ यही है कि उन प्रतिपादित विषयोंका हेय उपादेय रूपमें विश्लेषण करके ग्रहण किया जाय और स्वयंमें घटित करके सिद्ध किया जाय ।
ऊपर धर्मका दूसरा और तीसरा स्वरूप क्रमसे उत्तमक्ष्मादि तथा रत्नत्रयरूप बताया है। इन दोनोंका सम्बन्ध आत्म द्रव्यसे हैं श्रतएव सामान्यतया वस्तुस्वभावको जो धर्म कहा हैं उसी के ये विशेष हैं। क्योंकि द्रव्य छह हैं, उनमें से केवल श्रात्माने इन दो धर्मोका सम्बन्ध है । मुख्यतया मोहनीय कर्म अभावसे उतम क्षमादि होते हैं तथा रत्नत्रय रूप धर्मकी प्रकटतामें भी मूलभूत एवं प्रधान कारण मोडका प्रभाव ही हैं। तीसरा भेद दया है। यह जीव का सराग भाव है । क्योंकि दूसरेके कल्याण करनेकी बुद्धि या भावना को ही दया कहते हैं ।
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इस तरह धर्म के चार भेद मुख्यतया बताये हैं । परन्तु इनमें मुख्य धर्म रत्नत्रय ही है । क्योंकि श्रात्माका स्वभाव होनेके कारण वह भी धर्मकी वस्तुस्वभावरूप परिभाषाके अन्तगत ही हैं, साथ ही कर्मोंके निवईणपूर्वक जीवको दुखों लुटाकर उसम सुखमें उपस्थित कर देने की सीवी - यथार्थ सामर्थ्य भी उसीमें हैं । चमादि धर्मोके साथ जो उस विशेषण दिया गया है उसका भी मुख्य कारण यही है। क्योंकि सम्यक रहित जीवके चमादि भावोंको न तो उत्तम माना ही है और न वास्तवमें उचित एवं संगत ही हैं। दयाभाव भी धर्म है; क्योंकि अवश्य ही वह पुण्य बंधका कारण है । परन्तु वीतराग एवं सरांग भावोंमेंसे वीतराग भाव ही मुख्यतया धर्म कहा जा सकता है। क्योंकि धर्मकी यहां जो परिभाषा की है और उसका जो फल बताया है वह वीतराग भावके साथ ही वास्तव में संगत होता है न कि सतम भाषके साथ रत्नत्रय रहित क्रोधादि निवृत्ति अथवा परोपकारिणी भावनारूप दयाको पुण्य बन्धका कारण होनेसे कि धर्म परिणत किया जा सकता है; परन्तु कर्म निवर्हणका कारण न होनेसे मोक्षमार्गरूप संसार पर्यायसे छुटाकर मुक्त पर्यायरूप में परिणत कर देनेके असाधारण कारणरूप में परिगणित नहीं किया जा सकता । अतएव धर्म शब्दसे रत्नत्रयका ही मुख्यतया ग्रहण करना उचित एवं संगत हैं । यही सब ध्यान में रखकर, यहां जिल धर्मकी परिभाषा की है वह किंभूत किमाकार है यह बतानेके लिये उसका नाम निर्देशपूर्वक अन्यकार वर्णन करते हैं
सद्द्दष्टिज्ञानवृत्तानि, धर्मं धर्मेश्वरा विदुः ।
यदीयप्रत्यनीकानि भवन्ति भवपद्धतिः ॥३॥
अर्थ — सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्रको धर्मके ईश्वर धर्म मानते हैं, जिनके कि प्रत्यनीक - विरोधी संसारके मार्ग हुआ करते हैं।
१--दूसरेके हितार्थ सराग भावना दया है।
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रत्नकरण्डश्रावकाचार विशेष-~~ इस कारिकाके सम्बन्धमें भी तीन विषयों को लेकर विचार करना है। प्रयोजन, शब्दोंका सामान्य निशेष अर्थ, तथा तात्पर्य ।
प्रयोजन-मंगलरूप प्रथमकारिकामें धर्मरूप जिस तीर्थक अनुष्ठाता एवं वक्ताको नमस्कार किया था उसी तीथरूप धर्मके व्याख्यानकी गत कारिकामें प्रतिज्ञा की गई है । उसमें प्रतिज्ञा करते हुए धर्मका स्वरूप एवं फलका सामान्यतया निर्देशमात्र किया गया है। सर्वसाधारणको इतने परसे ही नहीं मालग हो भरना किर्स शब्दसे किस चीजको ग्रहण किया जाय और वह भी किस युक्तिसे जिससे कि वह सहज ही समझमें पा सके। इन दोनों बातोंको ध्यानमें रखकर विचार करनेने गत कारिकाके बाद इस पद्य द्वारा प्रतिज्ञात विषयके विशेष निर्देश तथा उसके समभानेकी सरल युक्तिको आवश्यकता दृष्टिमें आ सकती है। धर्मके वर्णनकी प्रतिज्ञा करते हुए केवल इतना कह देनेमात्रसे कि "जो समीचीन है, कर्मोंका उच्छेद करने वाला है, और सम्पूर्ण संसार के दुःखोंसे छुटाकर उत्तम सुखको प्राप्त करा देता है वह धर्म है ।" नहीं समझ पाता कि वह क्या वस्तु है। साथ ही यह भी विचारणीय है कि वह धर्म यदि इस तरहका परोक्ष है कि सर्वसाधारण संमारी जीवोंकी दृष्टिक प्रायः मराचर है तो वह किस युक्ति से समझमें भा सकता है । अतएव इन बातोको ध्यान रखकर वर्गकै विशिष्ट स्वरूपका निर्बाध सरल युक्ति के द्वारा बोध कराना ही इत्त कारिकाका प्रयोजन है। __ कारिकाकै पूर्वार्धमें धर्मके असाधारण स्वरूपका निर्देश है, और उत्तरार्धमें वह किस तरहसे सहज ही समझमें आ सकता है इसके लिये युक्तिका उल्लेख किया गया है। अर्थात् सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्रका नाम ही धर्म है। और वह उत्तम सुखका वास्तविक साधन है यह बात उनके ही प्रत्यनीक भावों के द्वारा समभामे आसके इस तरह से सुगमतासे समझाया गया है।
यह सभी समझते हैं या समझ सकते हैं कि किसी भी कार्यकी उत्पत्ति जिस कारणसे हुआ करती है उस कारणके अभाव में उस कार्यकी उत्पत्ति नहीं हो सकती । सृष्टि अथवा संसारका स्वरूप और उसके कारम्स अनुभव सिद्ध एवं प्रायः दृष्टिगोचर हैं । भव शब्द संसार या सृष्टिका ही पर्यायवाचक है । उसके मुलभूत तथा असाधारण कारण मिथ्यादर्शन मिथ्या झान और मिथ्याचारित्र हैं। जिनका कि अनादि कालसे यह जीव अनुभव कर रहा है ! फिर भी वह जन्म मरण आदिकै दुःखासे अथवा तापत्रयसे संचमात्र भी उन्मुक्त नहीं हो सका है। अरुएव स्पष्ट है कि सभी सरहके दःखोंसे छुटकारेका वास्तविक उपाय इनसे विपरीत ही होना चाहिये। उन्हींका नाम सम्यग्दर्शन सभ्यम्मान और सम्पक चारित्र है तथा इन्हीका नाम धर्म है।
और ये हीसंसार एवं संसारके दुःखोंस सटाकर उत्तम सुख रूप अवस्थामें जीरको प्रादेने परिवर्तित कर देने की सामर्थ्य रखते हैं।
संसार और उसके कारण दुःख रूप हैं यह पात प्रायः सभी मतवालोंने स्वीकार की है।
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mohannaramphonnaireme
चंद्रिका टीका तीसरा श्लोक अधिक क्या ? जीव एवं परलोयाको न मानने वालों तक ने भी संसारका त्यागकर प्रवज्या धारण करनेका उपदेश दिया है और तदनुसार वे संसारसे प्रवजित होते हुए देखे भी जाते हैं। यदि उन्हे संसार सुख रूप प्रतीत होता या दःखरूप प्रतीत न होता अथवा संसारके परित्याग कर देने पर ही चारतविक सुखशान्तिका लाभ हो सकता है यह बात उन्हें मान्य न होती तो वे क्यों तो स्वयं प्रत्रजित होते और क्यों दुसरीको वैसा उपदेश ही देते।
दुःख तथा सुख जीवको अवस्थाएं हैं। इनका जीवके साथ सम्बन्ध जितना अति सनिकट हैं उतना अन्य किन्हीभी बाह्य पदार्थों के साथ नहीं। दुःख जीवका मात्र होकर भी रिभाव रूप ही है । तथा सुखरूपभाय स्वभाव भी है और विभाव भी है। सातावेदनीय आदि पुण्य को उदगसेस्ट विषयोंगी जो अनुभूति होती है वह विभावरूप सुख है और किसी विवक्षित कर्मके या किन्हीं कमों के अथवा सभी कोके अभावसे निज शुद्ध चैतन्य स्वरूपकी जो अनुभूति होती है उसको स्वभावरूप सुख सममाना चाहिये । इनमें से विभाव रूप दुःख तथा सुख प्रायः सभी संसारी जीवांक अनुभवमें निस्य अाने वाले हैं। शुद्ध स्वभावरूप सुखका अनादि कासे इस जीवको अनुभव अभी तक कभी भी नहीं सुना है । उसका अनुभव वास्तविक धर्मकै प्रकट होने पर ही हुआ करता है । किन्तु इस धर्मकी उभृति भी सांसारिक सुख दुःख
और उसके कारणाम हेयताका प्रत्यय हुए बिना नहीं हो सकती अतएव संमार और उसकी प्रवृत्तिके कारणों में हेयताका प्रत्यय करते हुए युक्ति पूर्वक वास्तविक सुखके कारणभूत धर्मके स्वरूप एवं भेदोंका बोध करा देना इस का रिकाका प्रयोजन है । सुखको प्राप्त करने तथा दुखोंसे छुटकारा पानेकी इच्छा रखते हुए भी स्वरूप और यथार्थ उपाय की अज्ञानताकै कारण अभीष्ट लाभ न होनेसे पाकुलित हुए संसारी जीयाको परोपकारिणी बुद्धिसे प्रेरित आचार्यका प्रयोजन इस कारिकाले निर्माण में वास्तविक सुखके उपाय भूत धर्मसे अस्गत करदेना ही है।
इस तरह युक्ति अनुभव और बागमके आधार पर वास्तविक दुःख और उसके कारणों की तरफ दृष्टि दिलाते हुए उसके प्रतिपक्षभूत वास्तविक सुखके कारणभूत धर्मके विशिष्ट भेदोंका बोध करानेके उदंशसे ही प्राचार्यने इस पधकी रचनाकी है। जो कि सर्वथा उचित एवं आवश्यक भी है। इस पग्रमें प्रयुक्त सम्यग्दर्शनादि पदोंकी व्याख्या स्वयं ग्रन्थकार आगे चल कर करने वाले हैं। फिर भी सर्वसाधारण पाठकोंके हितकी दृष्टिसे यहां प्रयुक्त शब्दोंका सामान्य एवं कुछ विशिष्ट अर्थ लिखनेका प्रयज्ञ किया जाता है ।
शब्दोंका सामान्य-विशेष अर्थसत् शब्दका अर्थ समीचीन अश्या प्रशंसा है। तस्वार्थ सूत्र आदि में सम्यक् शब्द
१-फेवल मोहनीय कर्म या उसके दर्शनमोह भेदके या चार पाहिमा कर्मोके अभावसे अथवा आठों कोंके भय से उत्पन्न मुख।
२-अनन्तचतुष्टय अथवा अनन्त वीर्य तीर्थकरत्व तथा ऋद्धि आदिका सामर्थ्य प्रभूति
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रत्नकरण्डभावकाधार
का प्रयोग जिस अर्थ में किया गया है उसी अर्थ में यहां सत् शब्दका प्रयोग किया है। यह शब्द दृष्टि आदि aai aा विशेषण है जिससे मतलब यह हो जाता है कि वे ही दृष्टि-दर्शन आदिक वस्तुतः धर्म की परिभाषा के अंतरगत लिये जा सकते हैं और वेही उसके कार्य और फल को उत्पन्न करनेमें समर्थ हो सकते हैं जो कि यथार्थ हैं एवं निर्दोष हैं क्योंकि जो दर्शन श्रादिक अपने विषमरूप अर्थ से व्यभिचरित अथवा सदोष हैं वे अपने वास्तविक कार्य को सम्पन्न नही कर सकते ।
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1
दृष्टि शब्दका अर्थ नेत्र अथवा सामान्य अवलोकन देखना आदि न करके स्वानुभूति या श्रद्धान आदि करना चाहिये । क्यों कि यही अर्थ प्रकृतमें उपयोगी एवं संगत सिद्ध हो सकता है। ज्ञान शब्दका जानना अर्थ प्रसिद्ध हैं । वृत्त शब्दसे प्रवृति आचरण तथा चारित्र अर्थ लेना चाहिये | धर्म शब्दका अर्थ स्वयं ग्रन्थकार पहले की कारिका में कर चुके हैं। धर्मेश्वर शब्दका मुख्य अर्थ वही लेना चाहिये जो कि पहली कारिका में श्रीवर्धमान शब्दका किया गया है । क्यों कि श्री वर्धमान भगवान ही इस युग में अंतिम तीर्थंकर होनेके कारण धर्मके साक्षात् पूर्ण अधिनायक और अर्थतः उपज्ञ वक्ता तथा शास्त्रा होने के कारण ऐश्वर्य धार्मिक शासन करने की सम्पूर्ण सामर्थ्य रखनेवाले हैं। विदुः इस क्रियापद का अर्थ 'जानते है' या ' मानते हैं' ऐसा करना चाहिये 'यदीयप्रत्यनीकानि' का अर्थ 'जिनसे उल्टे' ऐसा होता है। भवन्ति क्रियापद का 'होते हैं' और 'भवपद्धतिः' का 'संसारके मार्ग' यह अर्थ स्पष्ट है ।
नहीं
इस तरह शब्दों का जो सामान्य अर्थ है उन सब विषयों में कुछ भी लिखने की आवश्यक्ता मालूम होती फिर भी कतिपय शब्दों के आशय के सम्बन्ध में साष्टीकरणार्थ लिखना थोडासा उत्रित एवं श्रावश्यक प्रतीत होता है ।
आगम में दर्शन आदि शब्दों का अनेक तरह से निरुक्ति पूर्वक तथा भिन्न २ पेक्षाओंको दृष्टि में रखकर नाना प्रकार से अर्थ किया गया है । सर्वार्थसिद्धि तथा तच्चार्थं वार्तिक में मुख्यतया चार तरह से निरुक्ति की गई है । कर्तृ साधन, कर्म साधन, करण साधन, और भावसाधन । किंतु इसका यह अर्थ नहीं कि अन्य साधन उनको अभीष्ट या मान्य नहीं हैं कारकों की प्रवृत्ति विविक्षाधीन हुआ करती हैं अतएव अन्य साधनरूपमें मी निरुक्ति यदि की जाय तो वह उनके कथन के विरुद्ध नहीं मानी जा सकती । यही कारण है कि तचार्थसार में अमृतचन्द्र आचार्य ने कर्ता कर्म करण सम्प्रदान अपादान सम्बन्ध और अधिकरण की अपेक्षा से भी साघनरूपमें निरुक्ति की हैं। और द्रव्य गुण पर्याय एवं उत्पाद व्यय प्रौव्यको दृष्टिमें रखकर भिन्नर तरह से
१- सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्राणि मोक्षमार्गः ॥१-१ || सम्यगिति प्रशंसार्थो निपातः किबन्सोवा || राज १-२-१
२-समेचति सम्यक् अस्यार्थः प्रशंसा | स. सि. ३ विषय सात तत्र, देवशास्त्रगुरु, शुद्धात्मस्वरूप भारि अर्थसे- निश्चीयते इति मर्थः ४ शंका कक्षा आदि वच्यमाण सम्यक्त्वके दोष, संशयादिक ज्ञानके दोष, और माया मिध्यानिदान शल्यादि चारित्र सम्बन्धी दोष हैं । ५--संसार और उसकी कारणो से परम मांक / से मेन तत् दर्शनम् दर्शनम् ।
६- पश्यति इति दर्शनम् दश्य सद् दर्शनम् पश्यति अरुमा
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चंद्रिका टीका तीसरा लोक
भी अर्थ करके बताया है । दर्शन शब्द के लिए जो बात है वही ज्ञान और चारित्रके लिए भी aarit चाहिये । यद्यपि इनके साधनभाव की विवक्षामें कहीं २ गौण मुख्यता भी मालुम होती है |
" सद्दष्टिज्ञानवृत्तानि” और 'धर्म' में जब विशेष्य विशेषण भाव हैं तब सामानाधिकरण की स्पष्ट करने तथा व्याकरण के नियम को ध्यान में रखते हुए समान लिंग और विभक्ति का होना जरूरी है, ऐसी शंका हो सकती है। परन्तु इसका उत्तर या समाधान सर्वार्थसिद्धि यादिमें ओ दिया गया है वही यहां पर भी समझ लेना चाहिये | क्योंकि 'सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः' और 'सहष्टिज्ञानवृत्तानि धर्म, ' इनमें केवल शब्द मादश्य ही नहीं, अपितु अर्थ में भी एकता ही है इसके सिवाय एक बात और है - यह हक सम्यदर्शन सम्बन् ज्ञान और सम्यक् चारित्र ये तीन गुण आत्मा के भिन्न भिन्न कहे जाते हैं । फिर भी ये तीन भेद जिस धर्मके बताये गये हैं वह वास्तव में तीनों का खण्ड समुदायरूप एक ही है । वही मोचका एक मात्र समर्थ तथा असाधारण कारण है जिसके होते ही श्रव्यवहित उत्तर क्षण में ही मोक्षरूप कार्यकी निष्पत्ति हो जाया करती हैं । अतएव संसारनिवृत्ति या निर्वाण प्राप्ति के उपाय भूत धर्म निश्चय व्यवहार प्रकारों, समर्थ असमर्थ भेदों, अभिन्न भिन्न रूपों को प्रकट करने के लिए 'धर्म' यह एक वचन और 'सम्पक्टष्टिज्ञानवृत्तानि' यह बहुवचन उचित एवं संगत ही प्रतीत होता है ।
I
'धर्मेश्वरा:' इस पदसे अर्थतः श्रेयोमार्गरूप धर्मक उपश वक्ता श्रीवर्धमान भगवान ही मुख्यया अभीष्ट हैं जैसा कि ऊपर कहा गया है । फिरभी उनकी देशनाका अवधारण कर ग्रंथरूप में उसे रचनेवाले वारह सभाओं को धारण करने में समर्थ, तथा सम्पूर्ण ऋद्धियोंसे युक्त श्री गोतम आदि गणधर देव एवं उनके उपदेशकी परम्पराको प्रवाहित करने वाले तथा असद्भाव स्थापना करनेवाले इतर प्राचार्योंका भी ग्रहण किया जा सकता है जिनके कि रचित या ग्रथित आगम ग्रन्थोंका अध्ययन प्रकृत रचना में आधारभूत हैं। क्योंकि धर्मके स्वरूपका वर्णन करने में जिनको ऐश्वर्य प्राप्त है वे सभी धर्मेश्वर शब्दसे कहे जा सकते हैं। तीर्थकर भगवान तो सर्वोत्कृष्ट धर्मेश्वर हैं ही परन्तु गौतम आदि भी अपनी २ योग्यतानुसार धर्मेश्वर ही हैं। साथही यहबात भी ध्यान में रखनी चाहिये कि यह धर्मका ऐश्वर्य केवल उसके वर्णन करने के ही अपेक्षा नहीं अपितु उसके भावरूप में अर्थतः परिणमन की भी अपेक्षा से है। जो रलत्रयरूपमें स्वयं परिणत हो चुके हैं उनका ही वर्णन वास्तव में तथा स्वतः प्रमाण माना जा सकता है और उनका वह रत्नत्रय जितना अधिक एवं विशुद्ध है उनके वचन भी उतनेही अधिक प्रमाण माने जा सकते हैं। तीर्थकर भगवानको परमावमाद, सम्यग्दर्शन केवलज्ञान और पूर्ण यथाळ्यात चरित्र प्राप्त से १४ तक । २-राजयार्तिक । शानसेनयोः ४ । ३: उपात्तलिंगसंख्यापति कमो न भवति
१- देखो तत्त्वार्थसारके अन्तिम उपसंहारकी कारिका नं० करणसाधनत्यं कर्मसाधनश्चारित्रशब्दः अ० १ सू० १ या० अति तस्य मार्गापनार्थः इति ।
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रत्नकरण्डनायकाचार है। परन्तु श्री गौतम गणधर देवको अवगाढ सम्यग्दर्शन, चारों ही क्षायोपशमिक ज्ञानों की ऋद्धियां तथा सामायिक छेदोपस्थापनारूप निर्दोष चारित्र प्राप्त है। उनके वादकं अन्य आचायोकी योग्यता इससे भी कम हो सकती है फिर भी रत्नत्रयरूप धर्म के समी सामान्यतया अधिः पति हैं। उनके ही बचन स्वतःप्रमाण माने जा सकते हैं । अतएव ग्रन्थकारने लिखा है कि जो धर्मेश्वर है वे रत्नत्रयों (सम्यग्दर्शनादि) को ही धर्म भानते हैं ।
और यह ठीक भी है कि जो स्वयं उन गुणोंसे रहित है उसके तद्विपया उपदेशको किस तरह प्रमाण माना जा सकता अथवा उसपर किस तरह पूर्णजया विश्वास किया जा सकता है। __सम्यग्दर्शनादिके प्रत्यनीक भाव मिध्यादर्शन मिथ्याज्ञान और मिथ्या चारित्र हैं। सम्यग्दर्शनादि के उपर या उत्तरोतर भेद अनेक है। इसी तरह मिथ्याज्ञान और मिथ्या चारित्र के विपय में भी समझना चाहिये । जिनको कि यथावसर धागे शिखा जायगा । इतनी बात यहां जरूर ध्यान में लेलेनी चाहिये कि हन मिथ्यादर्शनादिक और सम्यग्दर्शनादिक की पारस्परिक श्वनुकूलता में बहुत बड़ा अंतर है । अर्थात् जिसतरह सम्यग्दर्शन जहां होगा वहां ज्ञान भी सम्यक् होजायगा और चारित्र भी समीचीनता को अवश्य प्राप्त करलेगा यह नियम है इसके विपरीत जहां २ सम्पक वारिन है यहाँ २ सम्यग्दर्शनादिक भी हो ही यह नियम नहीं है। क्योंकि नव अवेयक तक बानेवाले मुनियोंका चारित्र सभीचीन तो होता है परन्तु यह कदाचित् सम्यक्त्व सहित और कदाचित् सम्यक्त्वरहित भी हुआ करता है क्योंकि मुनि एवं श्रावक दोनोंमें ही व्रत चारित्र की अपेक्षा द्रव्य लिंग और भावलिंग दोनों ही अवस्थाए मानीगई है। यह बात मिथ्या चारित्र के विषय में नहीं कही जा सकती । द्रव्य रूपमै मिथ्या चारित्रका पालन करनेवाले के अन्तरंग में सम्यग्दर्शन के अस्तित्वकी संभावना या कल्पना भी नहीं की जा सकती।
शंका-उ.पर अपने कहा है कि नवषयक तक जानेवाले मुनियोंका चारित्र समीचीन होता है। वह पदाचित् सम्यक्त्वसहित योर कदाचित् सम्यक्स्वरहित होता है। सी सम्यक्त्वरहित चारित्र को सपोचीन किस तरह कहा जा सकता है ? जो ज्ञान या चारित्र सम्यक्त्वरहित है उसको तो आगम में सर्वत्र मिथ्या ही बहागया है।
उचर-ठीक है । मोक्ष मार्गके प्रकरणको लक्ष्यमें रखकर वर्णन करते समय अन्तरंग भावों को ही मुख्य रक्खा गया है।
उसदृष्टि से जिसके अन्तरंगमें मिथ्याभाव-मिथ्यात्व प्रकृतिका उदय यदि पायाभी जाताहै हो उसका ज्ञान और चारित्रभी निश्चयसे मिथ्या ही है। क्योंकि न तो वह मोक्षको ही सिद्धकर सकता है और न मोक्षके कारण भूत संर निर्जराके ही सिद्ध करने में समर्थ है। और जैनागममें मोक्ष तथा उसका साधन जिससे कि संवर निर्जरा सिद्ध होती है वही मुख्य माना गया है। १-स्वयं पठन्तो न परेषामुद्धारकाः। सोकोक्ति भी प्रसिज है कि आप खाय काकडी दूमरोंको मानी।
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बौद्रका टीका तीसरा श्लोक किन्तु बाह्यदृष्टिसे विचार करने पर उक्तप्रकारके मुनियोंका चारित्र मिथ्या नहीं कहा जा सकता अंतरंग भाव प्रत्यक्षज्ञान के विषय है और बाह्य चारित्र व्यवहारका विषय है। सर्व साधारण में जिसका आचरण जैनागम के प्रतिकूल नहीं अपितु अनुकूल ही दृष्टि गोचर होता है और जो भाव लिगियोंक ही समान है उसका व्यवहार भी समीचीन रूपमें ही हो सकता है नकि मिथ्या रूप में इसदृष्टि से उसे समीचीन ही कहना या मानना तथा उसका यथायोग्य सम्मान आदि करना उचित है इसके विरुद्ध द्रव्य रूपमें जो मिथ्या चारित्र है यह अंतरंग से सो मिथ्या है ही साथ ही बाह्यरूपसे - ४यवहारसे भी मिथ्या ही है। अत एव दोनों में बहुत बड़ा अन्तर है। __ शंका---ठीक है; मतलब यह कि द्रव्यलिंगी मुनिका आचरण केवल अंतरंगमें मिथ्यात्व कर्म का उदय रहने के कारण ही मिथ्या कहा जाता है बाहरसे उसका आचरण भावलिंगीके ही समान और जिनोक्त मागके अनुसार रहनेके कारस समीचीन ही माना जाता है। परन्तु ऊपर आपने कहा है कि जहां सम्पग्दर्शन होगा वहाँ ज्ञान और चारित्र भी समीचीन होजाते हैं। सो यह कायम को आम विरद्ध बाजुभ होता है । क्योंकि श्री तत्वार्थ वार्तिकजी १ में सम्यग्दर्शनके प्रति सम्यग्ज्ञान और सम्यग्ज्ञानके प्रति सम्पचारित्र भजनीय कहा है अर्थात् होय मी और कदाचित् न भी होय | सो इसका क्या समाधान है ?
उत्तर-श्रीतत्त्वार्थदार्तिक जी में जहां यह बात कही है वहीं इसका प्राशय भी स्पष्ट कर दिया है । कहा है कि यह कथन नयापेक्षर है। अर्थात् शन्दनयके अनुसार सम्यग्दर्शन झान चारित्र शब्द परिपूर्ण विषयको ग्रहण करते हैं। मतलब यह है कि ज्ञान शब्दसे जब श्रुतकेवल या प्रत्यक्ष केवल झान विवक्षित हो तो यह भजनीय है । इसीतरह चारित्रशब्दसे एकदेश अथवा पूर्ख पथाल्यात चारित्र विवक्षित है सो वह भी अवश्यही भजनीय है । क्षायिक सम्यग्दर्शनके होनेपर पूर्ण श्रुतकेवल या दायिक केवलज्ञान भी उसी समय होजाय या नियमसे उसके साथ गया जाय यह नियम नहीं है। इसीतरह जहाँ श्रुतकैवज्ञज्ञान हो वहां पूर्ण यथाख्यात चारित्र, अथवा जझार सम्यग्दर्शन है वहार देशसंयम या पूर्णसंयम अथवा यथाख्यात चारित्र भी हो ही यह नियम नहीं है। इस दृष्टि से भजनीय कहा है। नकि सम्यव्यपदेशकी अपेक्षा । वास्तव में जिप्ससमय सम्यग्दः र्शन प्रकट होता है उसी समय ज्ञान भी जो जैसा और जितने प्रमाणमें भी हो वह अवश्य ही सम्यव्यपदेशको प्राप्त करलेता है । इसी तरह चारित्रके विषय में भी यथायोग्य भागनानुसार समझलेना चाहिये।
अवशन्द भूधातुसे बनता है परन्तु इसका अर्थ सत्ता जन्म उत्सति शिव आदि हुआ करता है। अरिहतका भी वाचक है। निरुक्तिके अनुसार केवल "होना" ऐसा अर्थ होता है अबए। जो होता रहता है, एक अवस्था--गति प्रादिमें परिणत होकर फिर से अन्य अवस्थामोंमें जी
१-तस्वार्थराजबार्तिक मसूरचार्तिकर,७०ः। यथा-एषांपूर्वस्य लाभे भजनीयमुतरम् उत्तरलातु निपतः पूर्णलामः । २-भवा पावति मानमित्येतत्परिलमायने नातो ऽभवाम्नवापेवचनम् II
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रत्नकरण्टश्रावकाचार
परिमा होता रहता है ऐसे भी संसारी जीवमें इस शब्द का अर्थ मुख्यतया घटित होता है। किंतु अरिहंतका बाचक इसलिये है कि वे इस तरहकी-होकर होते रहने की-भून्वाभवित्वरूप पद्धतिको ग्रमाप्त करचुके है । अब उनको केवल वह अवस्था प्राप्त करना है जोकि ध्रुवई है, जिसके बाद फिर दूसरी कोई विसदृश अवस्था प्राप्त नहीं हुया करती, न हो ही सकती है । ऐसी अवस्याएं सिद्धगतिर शादि है जिनकेलिये कहागया है कि “सा गरियंत्र नागतिः३ " । इन अवस्थाओंको अरिहंतही प्राप्त किया करते हैं । अतएव उनका भी नाम भव४ है। यही कारण है कि उनका नाम बहा भव है वरी असुनर्भव भी है । परन्तु यहॉपर चतुर्गति एवं उनके अन्तर्गत ८४लाख योनियों आदिमें जो परिवर्तन अनादिकालसे होरहा है जीवका वह विवर्तकम ही भवपद्धतिशब्इसे आचार्य को अभीष्ट है। उसके मुख्य कारण मिथ्या दर्शनादिक हैं, अतएव इनके प्रत्यनीक सम्यग्दर्शना. दिक भाव जोकि अपुनर्भवताके साधक है वे आत्माके निज भात्र हैं अतएव वे ही उरा भरपद्धतिके नट करने वाले तथा उसकल स्वरूप नानाविध खास पारमुक्त करने वाले हैं। इसलिये वे ही पासव धर्मशब्दके भी वाच्यार्थ हैं और उन्होंको आवायने यहां धर्मशब्दसे बताया है।
तात्पर्य पम्यादर्शनादिके समूहका नाम धर्म है । इस धर्मकी पूर्णता पार्हन्त्य अवस्था प्राप्त होनेपर ही हुआ करती है । जबतक ये तीनों ही सर्वांसमें पूर्ण नहीं होते तबतक उनमें मोद रूप कार्यको सिद्ध करनेकी समर्थ कारणता भी नहीं पाती । इस विषयमें पहिले संकेत किया जा चुका है। अतएव मुमुक्षुका यह कर्तव्य होजाता है कि जबतक सम्यग्दर्शनादि प्रकट नहीं हुए हैं तबक उनको प्रकट करनेका पूर्ण करनेका प्रयास करे । और प्रकट होनेपर उनके प्रत्येक अंशको पूर्ण तथा निर्मल मनानेका प्रयत्न करे । इसकेलिये उसे उनके भेद, अंश, अवस्थाएं एवं उनके बाधक साधक कारणों आदिको भी अवश्य जानलेना चाहिये। क्योंकि ऐसा किये बिना वह बाधक कारणों को दूर करने और साधक कारणों को प्राप्त करते जानेलिये जो उसे उसोत्तर पुर-- पार्थ करते जाना चाहिये वह नहीं कर सकता और नहीं वास्तविक सफलता ही प्राप्त कर सकता है। इस विषय में यहां अधिक लिखनेसे ग्रन्थका विस्तार बहुत अधिक बढ़ जायमा अतएव नहीं लिखा जाता | जाननेकी इच्छा रखने वालों को ग्रन्थान्तरोंसे समझलेना चाहिये।
किन्तु इतनी यात संक्षेपमें अवश्य समझलेनी चाहिये किं सम्यग्दर्शनादिके निरुक्तिभेदक अनु. सार, द्रव्यक्षेत्रादिकी अपेक्षा भेदके अनुसार, प्रागम-प्रनुयोग भेदके अनुसार, तथा प्रमाण नय निक्षेप अनुयोग आदिके अनुसार जो आगममें भिन्नर लक्षण किये हैं ये सब सापेच हानेके कारण सत्य होते हुए भी आंशिक हैं । वे सब अरिहन अवस्थामें इस तरह अन्तर्भत होजाते है जिस मह से कि मौके प्रकाशमें जुगुनू , दीपक ग्रादिका प्रकारा। अतएव जहां तक वह अवस्था प्राप्त २-धुवमचलमणोवम गई पसे। सः सा. २-सिद्ध गति, अनिन्द्रित्व, अकारात्य, अयोग आदि । ३ पञ्चाध्यायी,यशस्तिलक । ४ जिनसहस्रनाम "भवो भावो भयान्तकः । ५-७ । ५--विश्वभूर पुन भयः ॥ १ कि० स०
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चंद्रिका टीका चौथा श्लोक नहीं होती, वहां तक सम्पग्दर्शनादिको मराग-बीतराग या निश्चय--व्यवहार रूप जितनी भी अवस्थाऐं इवे सब सावन रूप होती हुई भी अनमें उसी पूर्ण गोक्षमार्गको मिद्ध किया करती है। इन सब साधन अषस्थानों में से कोई भी विवक्षित अवस्था अपनी पूर्ण अवस्थाका साध्य और उतर अयस्थाका साधन है। अन्त में स्नातक अवस्था प्राप्त होनार तीनकि समुदायमें यह सामर्थ प्राप्त होजाती है उससे संसारका अन्न एवं परम निर्वाणका उद्भव हुमा करता है। इस तरहसे आत्माको संसारसे छुटाकर मोक्षरूपमें उपस्थित करनेवाला धर्म वही है और यह एक रूपही है वहां नानाविधता नहीं है किंतु उसके पहले एनमें अनेक प्रकार पाये जाते हैं ! म अभिप्रायको स्पष्ट करनेकेलिये "धर्म" यह एक वचनका और "सदृष्टिज्ञानवृत्तानि" यह बहु व वनका प्रयोग कियागया है। इसके विपरीत मिथ्यादर्शनादिके भी अनेक प्रकार है। किंतु वे सब संसरणके ही कारण हैं। उनमें जन्म मरणकी संततिका उच्छदन करनेकी सामर्थ्य नहीं है । अतएव मुमुक्षुलिये ये हेय ही हैं। सम्यग्दर्शन प्रकट हाजानेपर जीवको संसारके पांच प्रमाहोले छोटो होटे पहन लादको भी पूर्ण न कराकर-उतने काल तक भी संसारमें न रखकर उससे सर्वथा रहित बना देता है । अतएव संविग्न भन्योकेलिये वही उपा.. देय है; और यही सत् है । तथा वही मुख्य मोक्षमार्गरूप धर्म है । क्योंकि वह ज्ञान तथा चारित्रको भी अपने उत्पन होत ही सम्पक बनादेता है। इसलिये प्राचार्य मी यहाँ अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार एवं प्राणियों के वास्तविक हितकेनिये उसी धर्मके भेदाभेदरूपको दृष्टिमें रखकर उसका निर्देश कर रहे हैं।
एक अखएड. अभेदरूप धमके तीन भेद करके जो उनके नामोंका यहोमलेस मिया अब उनमें से सबसे पहिले और उक्त प्रवानभून सम्यग्दर्शनका स्वरूप बाते हैं ।
श्रद्धानं परमार्थानामाप्तागमतपोभृताम् ।
त्रिमूढापाटमष्टांगं सम्यग्दर्शनमस्मयम् ॥४॥ सामान्यर्थ—परमार्थरूप पात-आगम और तपोभृत् (तपस्वी साधु-गुरु) का तीन मुहवामी से अपगत, आठ मदोंसे रहित तथा आठ अंगोंसे युक्त जो श्रद्धान उसकी सम्यग्दर्शन
प्रयोजन--- अन्य अनेक वस्तुओं में मिली हुई किसी भी विवक्षित वस्तुको पृथक करके ठीक रूपमें यदि जानना या समझना हो तो वह उसके लक्षण द्वारा ही जानी जा सकती है । चिन्द लक्ष्म लक्षण ये पर्याय वाचक शब्द है। जिसके द्वारा विभिन वस्तुओंमें मिली हुई किसी वस्तुको पृथक माना जा सके उनी को उसका लवण समझना चाहिये। लक्षण दो प्रकारका करते हैं १-द्रव्य. सत्र, काल, भव, भाव । २–पुद्गल राज्यपरिवर्तन । ३-परस्परस्यक्तिकरे सति येनाम्यवसायले
घल्लक्षण
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राकरएजुश्रावकाचार
एक मात्मयत दूदार अनातन । जनशके विना किसीभी वस्तुका सम्यग्ज्ञान नहीं हो सकता। यह बात आगे चलकर स्पष्ट की जायगी, अतएव यहां अधिक लिखनकी आवश्यकता नहीं है। किंतु इतनी बात जरूर समझलेनी चाहिये कि लक्षणके मुख्यतया तीन दोष बतलाये हैं--प्रव्याप्ति अतिव्याप्ति और असंभवः । इनमेंसे एकभी दोपसे यदि लक्षण युक्त है तो वह अपने लक्ष्यका ठीक २ परिज्ञान नहीं करा सकता । क्योंकि इस तरहके सदोष लक्षणके द्वारा जो वस्तुमा ज्ञान होता है या होगा वह सम्यक नहीं हो सकता।
ऊपरकी कारिकामें धमका जो स्वरूप बताया उसीमें उसके तीन प्रकार या मेद कहे है--सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्पक्चारित्र । तीनोंको धर्म शब्दसे कहा है । अतएव मिले हुए तीनोंमें में क्रमानुसार एकर का पृथकर स्वरूप बताना जरुती है। उसका ठीक २ परिज्ञान जैसा कि ऊपर फहागमा है निर्दोष लक्षणके द्वाराही हो सकता है। इसीलिये इस कारिकाका निर्माण हुआ है। मतलव यह है कि यह कारिका सम्यग्दर्शन के स्वरूपका समीचीन परिज्ञान करानेवाला लक्षण वास्य है। इसके द्वारा सम्यग्ज्ञान और सम्यक चारित्रसे पृथक सम्यग्दर्शनके स्वरपका ठीकर बोध कराया गया है यही इस कारिकाका प्रयोजन है।
शंका--भागममें सम्यग्दर्शनके अनेक लक्षण बताये हैं। जैसा कि ऊपर आपने कहा ही है ! यहां जा लक्षण है वह भी उनमेंसे एक प्रकारका है अतः सम्यग्दर्शनका वह ऐसा यामात्य लपराड किस तरह माना जा सकता है कि जिसमें अन्य सब लक्षणों का भी समावेश हो सके ? और यदि यह बात नहीं है तो इस लनणको अांशिक ही क्यों न माना जाय ? अर्थात् इसे सभ्य दर्शनका सामान्य लक्षण न मानकर उसके अनेक भेदोंमेंसे एक भेदको दृष्टिमें रखकर-- सम्यग्दर्शनके अनेक भेदोंके कारणभून अंशोम से एक अंशको लेकर कहागया क्यों न माना जाय ? या फिर इसे अधाप्ति दीपसे युक्त क्यों न कहा जाय।
उत्तर-यह न तो अध्याप्त लक्षण ही है और न अांशिक ही है। क्योंकि इसमें जिन शब्दोंका एवं विशेषणोंका प्रयोग किया है वे इन दोनों ही दोपोंको धारण करने में समर्थ है। श्रद्धान शब्द की सामनभेदोंके अनुसार मिबार प्रकार की निरुक्ति करनेपर प्रायः सभी लक्षणोंका समावेश हो जाता है। दसरी बात यह है कि "श्रद्धान" क्रियाके कर्म और उसके विशेषणका प्रयोग एवं तीनों क्रियाविशेषणोंका उल्लेख भी निरर्थक नहीं हैं। इससे भी अनेक लक्षणोंका समावेश होजाता है। अतः यह लदाण आंशिक या अव्याप्त नहीं है । साथही विशेषणोंका फल इतर व्याधि हुमा करता है। इसलिये यहां अतिम्याप्ति दोषकी भी संभावना नहीं रहती। क्योंकि उन विशेषणोंके विना जिन अलस्योंपे लक्षणके जानेकी संभावना थी उन सबका कारण भी कर दिया गया है । असंभव दोषकी तो कल्पना भी नहीं होसकती। अतएव यह लक्षण पूर्ण निर्दोष हैं। इसके कहे बिना
-लक्ष्यवस्तुका ही जो स्वरूप हो वह आत्मभून और उससे जो भिन्न हो वह अनात्मभूत लक्षण समझना चाहिये।....शानाभ्यायौ । ६....सॅशय विपर्षय और अनभ्यवसाप । इस तरह असंभव दोष तीन तरस
होना।
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"सद्द्दष्टि" शब्द के कहनेमात्र से धर्म अथवा सोचामार्ग के प्रकरण में उसका क्या आशय या रहस्य है यह भले प्रकार समझमें नहीं आ सकता था। अतएव इस लक्षणवाक्यका कहना आवश्यक है यह कारिका निरर्थक नहीं; अपना असाधारण प्रयोजन रखती है।
शब्दों का सामान्य विशेष अर्थ --
श्रद्धान शब्दकी निरुक्ति इस प्रकार है कि धातुसे श्रत् बनता है जिसका अर्थ हैं विश्वास । धा धातुका अर्थ धारण करना है । अर्थात् विश्वासके धारणको श्रद्धान कहते हैं । मूल में धर्म के भेद बताते हुए "सद्द्दष्टि सम्यग्दर्शन" शब्द का प्रयोग किया है। यहा उसका अर्थ "श्रद्धान” शब्द के द्वारा बताया है। कारण यह कि इन्द्रियोंके द्वारा किसी भी मूर्त पदार्थको देखने के अर्थ में ही दर्शन शब्द लोक में प्रसिद्ध है किन्तु वह संसार निवृत्तिका कारण नहीं हो सकता । श्रद्धान श्रात्मपरिणाम होनेसे निर्माणका कारण हो सकता है। अतएव प्रसिद्ध अर्थ न लेकर आगमोक्त - आम्नाय प्रसिद्ध एवं युक्ति पूर्ण विशिष्ट अर्थ की तरफ दृष्टि दिलाई हैं? | और ऐसा करना व्याकरण शास्त्र भी विरुद्ध नहीं है। क्योंकि शब्द शास्त्र में धातुओं को अनेकार्थ माना है? अतएव प्रकरण के अनुसार शर्थ करना उचित एवं संगत ही है। प्राचीन मायको भी यही बात अभीष्ट हैं
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शंका- पड्दर्शन, सर्वदर्शन आदि शब्दभी लोक प्रसिद्ध हैं। क्या वहां भी इन्द्रियोंसे देखना अर्थ ही लिया जाता है ?
उत्तर -- प्रथम नो जैनेवर आचार्योने प्रायः ऐसी कोई परिभाषा नहीं की है कि जिससे दर्शन शब्दका समीचीन श्रद्धानरूप आत्मपरिणाम अर्थ लियाजाय। दूसरी बात यह है कि उनकी श्रन्यतानुसार श्रद्धय विषय के स्वरूप में अन्तर होनेसे श्रद्धानमें भी अन्तर पडता ही हैं । एव स्वरूप वर्षा तथा विषय विपर्यास स्पष्ट है। तीखी बात यह है कि श्रद्धान या सम्यग्दर्शन शब्दसे शुद्धात्माका अवलोकन अर्थ अभीष्ट है । और दिगम्बर जैनागमके सिवाय धन्य किसी श्री दर्शनकारने आत्माका वास्तविक शुद्ध स्वरूप माना या बताया ही नहीं हैं। ऐसी अवस्था में दर्शनशब्द का प्रयोग यदि अन्य लोगों में पाया जाता है तो वह श्रागन्तुक-कहीं न कहींसे आया हुआ ही सममना चाहिये । अथवा रूढिवश वे उस शब्दका प्रयोग करते हैं किन्तु युक्ति युक्त और वास्तविक अर्थसे वे अनभिज्ञ हैं । यद्वा कहना चाहिये कि जैनागममें इस शब्दका जो अर्थ अभीष्ट है अन्य लोक उस अर्थ में उस शब्दका प्रयोग नहीं करते ।
प्रश्न – जैनागममें दर्शन शब्द सामान्य अवलोकन अर्थ में भी प्रसिद्ध हैं वह अर्थ भी asi क्यों न लिया जाय ?
उत्तर --- शब्दसादृस्य मात्रको देखकर एक अर्थ की कपना करना ठीक नहीं है जिसका
शेरालोकार्थत्वादभिप्रेतार्थसंप्रत्यय इति चेन, अनेकार्थत्वाद् || ३ || मोक्षमार्गप्रकरणाच्ानगतिः 29112-198कार्यमा । ३- मनसि० असदि ।
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रत्नकरएक्श्रावकाचार अर्थ सामान्य अवलोकन किया जाता है वह दर्शनोपयोग है। उससे यह सम्यग्दर्शन जिसका कि अर्थ यहां बताये गये प्रकारका श्रद्धान किया जाता है वह सर्वथा भिन्न है। दोनोंके निर्देश स्वामित्व साधन अधिकरण स्थिति विधान तथा सत् संख्या आदि अनुयोगों के प्रकरणको देखनसे यह बात अच्छी तरह समझमें आसकती है कि इनमें अन्तरं महदन्तरम् ।
शंका-श्री अरिहंत भगवानका दर्शनभी मोक्षका कारण कहा जाता है । अतएव सम्यग्दर्शन के प्रकरणमें देखना अर्थ भी यदि लिया जाय तो क्या आपत्ति है ?
उत्तर-जिन दर्शन या जिनमहिमदर्शनको सम्यग्दर्शनके कारणोंमें अवश्य ही पाया है। किन्तु शुद्ध आत्मस्वरूप बताये गये श्रद्धान परिणामसे रक्ति जिनदर्शनादिक मोक्षके कारण नहीं हो सकने और न माने ही हैं। जिनदर्शनादिक स्वयं श्रद्धानरूप न होकर उसके कारण हैं । इसलिये वे भी धर्म है। किन्तु ये स्वयं सम्यग्दर्शन नहीं हैं। इसलिये मोक्षमार्गरूप धर्म नहीं है। उक्त श्रद्धान परिणामसे युक्त जिनदर्शनादिक मोक्षके कारण कहे जा सकते हैं। परन्तु वे भी प्रथम तो मोक्षक साक्षात कारण नहीं हैं। दूसरी बात यह कि इस कथनसे भी श्रद्धानरूप परिणामकी ही मोक्षके प्रति चास्तविक कारणता सिद्ध होती है।
शंका---श्रद्धान ती झानकी ही एक पर्याय विशेष है। क्योकि तस्त्रार्थ अभिमुग्न बुद्धि को ही श्रद्धा कहा है। इससे ली सम्यग्दर्शन ज्ञानसे भिन्न नहीं ठहरता ।
उत्तर---श्रद्धान शब्दकी निरुक्तियों पर ध्यान देनेस दोनोंकी भिन्नता सहज ही समझ में श्रासकती है। क्योंकि यहां पर जो यत तव शब्द दिये गये हैं शिभिन्न अधों को स्पष्ट कर देते हैं । परन्तु साधन मे होंक अनुसार इस शब्दका सम्यन्दर्शन अर्थ भी विरुद्ध नहीं है जिसके होने पर-प्रकट होजाने पर तत्वार्थादि विषयक श्रद्धान हुश्रा करता है उसको कहते हैं सम्पग्दर्शन | इस तरह से अर्थ करने पर श्रद्धान और सम्यग्दर्शनमें जहां भिन्मता प्रतीत होती है वहीं सम्यग्दर्शनका श्रद्धान लक्षण सुसंगत है यह बात भी स्पष्ट होजाती है।
प्रश्न-पुम्यग्दर्शन और श्रद्धान जा कि दोनों भिन्न २ परिणाम हैं । तब क्या इनमें यभिचारकी संभावना नहीं है ? क्या यह जियम है कि जहां श्रद्धान हो वहां सम्यग्दर्शन भी अवश्य हो ? सम्पग्दर्शन के वास्तव में न रहते हुए भी श्रद्धान रहा करता है यह कहना क्या युक्तिथुक्त अथवा वास्तविक नहीं है।
उत्तर---सामान्यतया श्रद्धान सम्यन्दर्शनसे व्यभिचरिन भी हो सकता है । क्योंकि वह सत् समीचीन और असत्-असमीनीन दोनों ही तरहका पाया जाता है । अतएव श्रद्धान विशेषका समान्ध यदि सम्यग्दर्शनके साथ माना जाय तो कोई भी आपत्ति नहीं है। यहां पर सम्पम्दर्शन के लक्षमा रूपमें जिस श्रद्धानका उल्लं व किया है वह श्रद्धान विशेष है । जैसा कि उसके कर्म पदक
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तस्वार्थाभिमुखी बुद्धिः श्रद्धा सात्म्यं मचिस्तथा ।। पंचाध्यायो । २- यदावात् यथाभूतमर्थ गुदात्यात्मा सत्सम्यग्दर्शनम् ॥ राग १.२.१८ ।
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मौद्रका टीका चौथा भोक उल्लेख से स्पष्ट होजाता है। क्योंकि परमार्थ और परमाध विशपर विशिष्ट आत आगम तयाभृतको विषय करने वाले श्रद्धानको ही यहां सम्यग्दर्शनका रू.क्षण इताया है कि सान सामान्यको अथवा अपरमार्थ विषयक श्रद्धानको।
आगममें प्रशम संवेग अनुकम्पा और सास्तिक्यको सम्यादानका लक्षण बताया है | यह भी अनन्तानुबन्धी कपायक उदयके प्रभाव से सम्बना रखता है। मतलब यह कि हनन्तानुबन्धी पायक उदगके अभावसे होने वाले प्रशमादिक भार ही वास्तवों सम्यग्दर्शनके लक्षण मान और ये ही संगत की। साथ ही इस शमादि भायोंसे युक्त आस्तिक्याने भी लक्षणमाना है उसी प्रकार श्रद्धानके विपयमें भी समझना चाहिये । अनेक द्रव्य मिथ्यादृष्टि साधुओं में क्रोधके अनुद्रेक को देखकर प्रशमभाव सम्यग्दर्शनका व्यभिचरित लक्षण कहा जा सकता है परन्तु उनमें पाय जाने वाले अनन्तानुरन्धी मानके भावको देखकर यह स्पष्ट हो जाता है कि वास्तव में बह लक्षण व्यभिचरित नहीं है । इसीतरह श्रद्धानके घिययमें भी घटित करलेना चाहिये।
परमार्थ शब्द ----श्रदान क्रियाके कर्मरूपमें कहे गये प्राप्त आगम और तपोभूतका विशपण है । यह अपरमार्थ भृन आप्तादिक श्रद्धानकी निवृत्ति इरता है साथ ही परमार्थभूत प्राप्तादिके स्वरूपका बोध भी संक्षेपमें बराता है। यह प्राप्तादि तीनोंका शेषण है । अर.एन हीनों में ही पटित हो तथा तीनोंके ही असाधारण गुण धर्मका जिससे बोध हो इस तरह से इसका अर्थ करना चाहिये । यथा
पर-उस्कृष्ट सर्वोत्कृष्ट है मा-प्रमाणरूप सर्वथा प्रमाणभूत केवल ज्ञान तथा अर्थ शुद्ध अशुद्ध आत्मद्रव्यादि प्रतिपादित विषय अथवा जिसके द्वारा उनका प्रतिपादन हो ऐसी दिव्यध्वनि पद्वा स्याद्वाद पद्धति जिनकी उनको कहते हैं परमार्थ । यह अर्थ प्राप्त की दृष्टि से करना चाहिये।
आगमके पक्ष में अर्थ शब्द से अभिषेय अर्थ लेना चाहिये । तथा तपस्वी-गुरुके अपेक्षासे अर्थ करनेमें अर्थ शब्द का प्रयोजन अर्थ करना चाहिये क्यों कि अभिधेय विषय-छह द्रव्य संत सच पंचास्तिकाय तथा नवपदार्थ सर्वोत्कृष्ट हैं वे पूर्वापर अविरुद्ध, प्रत्यक्ष और युक्तिसे प्रया. धित, मिथ्यामान्यताओंके विरुद्ध एवं इन्द्रादिकों द्वारा भी अनुलंध्य है। इसी प्रकार संसार पर्यायके विरुद्ध निर्वाण अवस्थाको सिद्ध करने के लिए बद्ध परिकर साधुओं का प्रयोजन भी सर्वोकृष्ट-सर्वथा विशुद्ध केवलज्ञानमय प्रात्मद्रव्यप अर्थ को सिद्ध करना ही है । इस तरह परमार्थ शब्द का अर्थ तीनों के ही साथ संगत होता है। और साथही उनकी असाधारणताको भी यह स्पष्ट करता है। विशेषण के प्रयोगका आशयभी यही है कि अपने विशेष्यकी विशेषता १-२-- रागानामन्द्रका प्रशमः संसागप॒रुता संवगः, सर्वप्राणिपु मैत्री अनुकम्पा। जीवादयोऽर्थाः यथावं सन्तीति मतिरास्तिकम् । राजबार्तिक । ३-अतस्त्रज्ञानके विषय में जो उनके अन्तरगमें श्राहंकारिक भाव और तत्वज्ञान के प्रति विचिकित्साकी भावना रहा करती है वह मिथ्यारष्टियोंके प्रशमको व्यभिचरित प्रमाणित करदेती है । देखो-श्लोक था।
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रनकरण्डश्रावकाचार
को प्रगट करें।
यद्यपि यहांपर परमार्थ शब्द आप्तादि तीनों के विशेषणरूपमें प्रयुक्त हुआ है; जैसा कि ऊपर बताया गपा है । टीकाकारों ने भी विशेषणरूप ही इसका अर्थ भी किया है। किन्तु इस विषय में हमारी समझ है कि यदि इस शब्दका स्वतन्त्र अर्थ भी कीया जाय तो कोई हानि अथवा आपत्ति नहीं मालूम होती । मतलब यह कि पर- सर्वोकृष्ट मा केवलज्ञान रूप अर्थ-निज प्रात्मद्रव्य या पदार्थ का अर्थात् ब्रानन्य सर्वोपाधिविविक्त निज शुद्रात्मद्रव्यका जो श्रद्धान उसको सम्यग्दर्शन कहते है ऐसा भी अर्थ किया जाय तो किसोतरह अनुचित असंगत एवं पाधित नही है। प्रत्युत एक विशेष अर्थका बोध होता है। इससे निश्चय और व्यवहाररूप साध्य माथन अवस्थाओं की तरफ भी लक्ष जाता है। क्योंकि निश्चयसे अपनी परमार्थ अवस्था साध्य है और व्यवहारसे उसके साधन प्राप्त आगम तपोभून हैं उन सभीका श्रद्धान हो तो वही समीचीन कार्यकारी हो सकता है।
दूसरी बात यह कि इस शब्द को विशेषण रपसे मानकर ऊपर जैसा कुछ अर्थ किया गया है उसके सिवाय इसका आशय छह अनायतनों का कारण भी हो सकता है । यह अर्थ हमारी समझसे उचित और आवश्यक भी है । क्योंकि सम्यग्दर्शन के २५ मल? दोपों से ३ मूढ़ता ८ शंकादि दोष और ८ मद इस तरह १६ मलदोषों का ही यहां कण्ठोक्त उल्लेख पाया जाता है। शेष छह अनायतनोंका भी निर्देश होना चाहिये उसका बोध परमार्थ विशेषणसे कराया गया है ऐसा समझना चाहिये । अपरमार्थ भूत प्राप्तादि तीन और उनके ३ ही श्राश्रय इसतरह छह अनायतनोंकार निवारा भी इस विशेषण का अभिप्राय है ऐसा समझ में आता है।
कारिका में प्रयक्त 'अन्य शब्दों-श्राप्त अागम तपोभूत, तीन मुहताएं, आठ अंग, और पाठ मदके अर्थका स्वर्ग ग्रन्थकार आगे चलकर उल्लेख करेंगे। अतएव इनके विषय में यहां अधिक लिखने की आवश्यकता नहीं है । संक्षिप्त आशय यह है कि
प्राप्त शब्दका सामान्यतया प्रसिद्ध अर्थ यह है कि 'यो यत्रावञ्चकः स तत्र प्राप्तः। अर्थात जो जिस विषय में अकञ्चक है वह उस विषय में प्राप्त है। किंतु तात्पर्य यह है कि जिसने अपने वास्तविक गुणों के घातक चार घातियां कर्मोंको नष्ट करके अपने शुद्ध ज्ञानादि गुणोंको प्राप्त कर लिया है उसको कहते हैं प्राप्त | अन्य प्रकारसे प्राप्तपना बनही नहीं सकता यह बात स्वयं अन्धकार आगे चलकर कहने वाले हैं । भोर यह इसलिए भी ठीक है कि इसके बिना यह परमार्थतः अवञ्चक नहीं माना जा सकता । इसी तरह आगम का प्राशय भी यह है कि 'भा–समन्तात् गम्यते युध्यते वस्तु तवं येन यस्माद्वा । प्रत्येक दृष्टि से जिसके द्वारा समस्त वस्तु तस्वका पारज्ञान हो उसको कहते हैं पागम । क्योंकि श्रुतका विषय सामान्यतया केवलज्ञान की समकोटीमें बताया है, केवल प्रत्यक्ष और परोष का उनमें अन्तर है ऐसा आगम
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ster टीका चालक
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में कहा गया हैं । तपोभूत शब्द का अर्थ है कि जो तप को धारण करें अथवा उसका पोषण करें | तपका आशय है कि जिसके द्वारा तपाया जाय जिस तरह श्रग्नि के द्वारा तपाया गया अशुद्ध सुवर्ण दोषोंसे रहित - पूर्णतया शुद्ध बन जाता हैं उसी तरह जिस क्रियाके द्वारा आत्मा अपने समस्त दोषों से रहित होकर सर्वथा विशुद्ध अवस्था को प्राप्त करले उसको कहते हैं उप इस तप का सामान्य स्वरूप मन शरीर और इन्द्रियों के प्रवृत्तिका विरोध है इसके द्वाराही संवर पूर्वक पूर्ववद्ध कर्मों की मुख्यतया निर्जरा हुआ करती हैं।
मृढ़ता का अर्थ है कि मोड के उदय से आक्रांत अविवेक विशेष । इन तीन भेदों का वर्णन आगे किया जायगा । इन आठ अंगको छोडकर शरीर पृथक नहीं दिखाई देता उसी प्रकार सम्यग्दर्शन के आठ अंग हैं। समय नाम गर्व का है। यहां गर्व नानुबन्धो कषायसे सम्ब न्धित लेना चाहिये । इसके भी विषय की अपेक्षा आठ भेद हैं जिनका कि उल्लेख यागे किया जायगा । परमार्थ स्वरूप आप्तादिके विषय के श्रद्धानमें इनमें से तीनों मूढताओं तथा आठ मदों का सम्बन्ध नहीं रहा करता । और यदि रहता हैं तो वहां वास्तविक श्रद्धान अथवा सम्यग्दर्शन नहीं है, ऐसा समझना चाहिये ।
तात्पर्य -- यह कारिका जो कि सम्यग्दर्शन के लक्षण रूप है, इस स्थान पर अपना सर्वथा औचित्य रखती है । साथही यह लक्षण सर्वथा निर्दोष हैं श्रद्धानरूप क्रिया के कर्म रूपमे अथवा किया विशेष रूपमें जिन जिन शब्दों का प्रयोग किया हैं वे सब लक्षण में आनेवाले दोषों का वारण करने में समर्थ हैं उनके द्वारा संभव व्यभिचारों का निराकरण हो सकता है । सम्यग्दर्शनके अन्य स्थानोंपर जो भिन्न २ प्रकारके किये गये लक्ष्य उपलब्ध होते हैं उन सबका भी इसमें समावेश हो सकता है ।
परमार्थ शब्द आप्तादि तीनो का विशेषण है अब इस विशेषण के द्वारा तीनों की साधारणताका जिस तरह से बोध हो उस तरह से तीन अर्थ करना उचित एवं आवश्यक है । इसके सिवाय परमार्थ शब्द को विशेषण न मानकर श्रद्धानरूप क्रिया का सीधा कर्मरूप में ही माना जाय तो यह भी एक अवश्य ही उचित एवं संगत विषय है ।
श्रद्धान क्रिया के विशेषण दिये गये हैं वे दो प्रकारके हैं। एक विधिरूप और दो निषेधरूप पहला और तीसरा निषेधरूप हैं; और बीच का एक विधि रूप है। इस विधिरूप क्रियाविशेषण का देहलीदीपक न्याय से दोनों निषेधरूप क्रियाविशेषणों पर प्रकाश पडता है, जिसकी विधिही नहीं उसमें किसी भी विशिष्ट विषय का निषेध किसतरह संभव हो सकता हैं और किस तरह किया
मिध्यात्व कुखान, और मिथ्या चरित्र इस तरह ३ और कुदेव कुशास्त्र तथा कुगुरु इस तरह ६ अनायतन होते हैं। इनमें मिध्यात्वादिका 'यदीयप्रत्यनीकानि' शब्दसे और बुदेवादि सौनका इस परमार्थ विशेषणसे महण कर लेने पर छह श्रनायतनों का भी संमह हो जाता है ।
१ - सुर- केवलें व शायं दोयणवि सरिसाण होंति बोहरदो । सुदुणा तु परोक्ष व पाय ।
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रत्नकरण्डश्रावकाचार
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जा सकता है। यही कारण है कि विधि को सूचित करनेवाला यह मध्यस्थ विशेषणही तीनोंमें मुख्य माना गया है यदि ऐसा न होता को आगे चलकर इन तीनो ही विशेषणांका जो वर्णन किया गया है उसमें प्राचार्यको क्रमभंग करनेका कोई कारण न था। किंतु हम देखते हैं कि प्राचार्य ने पहले पाठ अंगोंका वर्णन किया है और उसके बाद तीन मूढ़ताओं का और उसके बाद पाठ मदोंका वर्णन किया है इससे यही तात्पर्य निकलता है कि ग्रंथकारको विधिपूर्वक ही निषेध करना उचित अशीत होता है। ___ सम्यग्दर्शनको ग्रंथ कास्ने भिन्न २ अनेक शब्दोंके द्वारा इस ग्रंथमें भी सूचित किया है। यथा-सद्दष्टि ३, टान १, रुचि ११, श्रद्धा १२, गुणनीति १३, दृष्टि १४, दर्शन २१, सम्यग्दर्शन २८, धर्म २६, सम्यक ३२, निमोह ३३, जिनेन्द्रभक्त ३७, रपट घट ३८, दृष्ट्या सुनिश्चितार्थ ३६, दर्शन शरण ४०, जिनभक्त ४१, आदि इनमेंसे यहांपर श्रद्धान शब्दका पयोग है इस शब्दका क्या श्राशय है यह पहले लिखा जा चुका है परन्तु इन भिन्न २ शब्दों के प्रयोग का क्या अभिप्राय है, संक्षेपमें इस विषयमें भी यहां कुछ लिखना उचित प्रतीत होता है।
सम्यग्दर्शन आत्माका एक ऐसा सर्वसामान्य गुण है जोकि कालिक अखण्ड अथवा निर्विकल्प सनरूप आत्मद्रव्य को, बिना किसी भी तरह के गुणधर्म अवस्था अथवा पर्याय की अपेक्षासे भेद किये विषय करता है । यही कारण है कि उसको निर्विकल्प अथवा अयस्तष्या कहा है। और इसीलिए उसका प्रभाव प्रात्माके सभी गुणधर्मा अथवा अवस्थाओंपर पहा करता है सम्यक्त्व सहचारी और मिथ्यात्व सहचारी गुणधर्मों अथवा अवस्थाओं के सामान्य स्वरूपको देखकर अथवा उसकी अपेक्षासे भलेही उनको व्यभिचारी मान लिया जाय और यह कह दिया जाय कि श्रद्धादिक सम्यक्त्व के अव्यभिचारी लक्षणरूप भाव नही हैं। परन्तु जब उनको लक्षणरूपमें कहा जाता है उस समय उसकी सम्यक्त्व सहचारिणी असाधारणता प्रकट करने के लिए जो विशेषण दिये जाते हैं उनकी तरफ खास करके दृष्टि देनेकी आवश्यकता है। उन विशेषणों के द्वारा जो विवचित लहरूप में कहे गये गुणधर्म या पर्याय अथवा अवस्था की विशेषताएं प्रकट की गई हों उनको साथ में लेकर विचार करनेपर वे गुण घमोदिक अश्या सरस्थाऐं अभ्यभिचरित मानी जा सकती है । यही बात यह कहे गये श्रद्धान लक्षणके विषय में समझनी चाहिये । श्रद्धानरूप क्रियाके परमार्थादिक कर्म तथा त्रिमूढापीढता आदि विशेषसों के द्वारा जो इसका असाधारणं स्वरूप प्रकट किया है वह निःसंदेह सम्यग्दर्शन के अव्यभिचारी लक्षणपने को प्रकट करता है। जो बात श्रद्धान के लिये है वही बात रुचि आदिक्के विषयमें भी समझनी चाहिये । जैसा ऊपर कहा गया है कि सम्यग्दर्शन का सामान्यतया आस्माके सभी गुण धर्मों पर प्रभाव पड़ता है तदनुसार एक श्रद्धान ही नहीं अपितु रुचि भादि सभी धर्म मम्बक्त्वक साहचर्य को प्रकट करनेवाले यथायोग्य तद्विशेषणों के द्वारा भव्यभिचारी लषयके अपमें कडे जा सकते हैं।
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चंद्रिका टीका चौथा श्लोक आगममें सर्वत्र प्रशमादिक को तथा आस्तिक्यादि को सम्यकत्वका बोधक लक्षण माना है। यह भी कहा है कि छठे प्रमत्त गुणस्थान पयंतके जीवों को परकीय सम्यग्दर्शनका ज्ञान औषशामिआदि हेतुओं द्वारा अनुमानसे२ हो सकता है । ध्यान रहे यह अनुमान केवल अंदाज अथवा यभिचरित भाव नहीं है। अन्यथादुपा मीयोज हेतु के द्वारा होनेवाला अनुमान नामका सम्यग्नान है। हां ! कदाचित यह संभव है और कहा जा सकता है कि इस तरहका अनुमान यही व्यक्ति कर सकता है जिसको कि सम्यक्त्रसहचारी और मिथ्यात्व सहचारी प्रशमादिक अथवा श्रद्धा आस्तिक्य आदिके वैशिष्ट्य यद्वा अन्तरका स्वयं अनुभव है । क्योंकि स्वयं सम्यग्दृष्टि जीव ही इस तरह के साध्यसे अचिनाभाव रखने वाल हेतु के वास्तविक अन्तरको समझ सकता है। यही कारण है कि चौथे पांचवे व छठे गुणस्थानवाले जीवों के लियेही यह कहा गया है कि प्रशमादिक हेतुओं के द्वारा यह जीव दूसरेके भी सम्पन्दर्शन के भस्वित्वका अनु. मानसे ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं। __ आगममें जहां श्रुतज्ञान को सकलादेश तथा विकलादेश इस तरह दो भागों में विमकिया है नहीं मकलादेशका अर्थ यह बताया है कि जो सम्पूर्ण वस्तु को विषय करे । अर्थात् एक गुण के द्वारा जो विकन्य या गुणभेद न करके पूर्ण वस्तुको प्राण किया जाय उसको कहते हैं सकलादेश अथवा प्रमाण । ऐसा कहने और करने का भी कारण यह है कि वास्तव में वस्त विधिप्रतिषेधात्मक अनन्त गुण धर्मों का प्रखण्ड-अविश्वग्भावी एवं प्रयुक्तसिद्ध पिंड है। इस तरह के द्रव्यके पूर्णस्वरूप का बोध कराने की शक्ति किसी भी शब्द में नहीं है। कोई भी शब्द ऐसा नहीं है जो कि इस तरह के द्रव्यका पूर्णतया ज्ञान करामके । वह शब्द स्वभावतः अपने निश्चित अथवा संकेतित अर्थ या अर्थीकाही बोध करा सकता है ! ऐसी अवस्थामें द्रव्यके पूर्ण रूप का झान कराने के लिए इसके सिवाय और कोई मागभी नहीं है कि किसी भी गुणधर्म के नापक विवक्षित शब्दकी उस वाचकता को गौण करके उस धमसे संबन्धित सम्पूर्ण व्यका उसे वाचक बताया जाय । यही कारण है कि जीवादिक दव्यों को किसी भी योग्य गुणधर्मके वाचक शब्द द्वारा ही जताया जाता है।
यही बात सम्यग्दर्शन के विषयमें समझनी चाहिये । सम्यग्दर्शन के प्रकट होतेही अाशाके सभी गुणधों पर अभूतपूर्व एवं असाधारण विशिष्ट प्रभाव पडा करता है। इन्हीं गुणधों में से
को सम्यग्दर्शन का योग्य वोधक समझकर लक्षणरूपमें कहा जाता है। और उनकी उस अभूत पूर्व असाधारण विशिष्टता को विशेषणों द्वारा स्पष्ट कर दिया जाता है। यही बात ५-प्रशमाघभिव्यक्तलक्षणम् प्रथमम् (सराग मम्यक्त्वम्)। -अनगार धर्मामृत म०२-तैः स्वसंविदितैः सूक्ष्मलोभान्ताः स्वांश विदुः । प्रमवान्ता अन्यगा
तज्जवा चेष्टानुमतेः पुनः ॥ ५३॥ ३-प्रकगुणमुसेन शेषवस्तुकयनं सकलादेशः । सकलादेशः प्रमाणाधीनः ।
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रन्तकारगनुश्रावकाचार
ग्रहांपर भी समझनी चाहिये । सम्यग्दर्शनका बोध श्रद्धान शब्दके द्वारा कराते हुए साथमें कहे गये विशेषणों के द्वारा उसकी इस तरहकी असाधारणताका भी परिचय करा दिया है जिससे कि वह सम्यग्दर्शनका अध्याति अतिव्याप्ति और असंभव दोपोंसे रहित लक्षणवाक्य माना जा सके। ____ आप्तादि शब्दोंका सामान्यतया अर्थ यह है कि संसारातीत सिद्ध अवस्था जिस पदसे प्राप्त की जा सकती है उसको जिसने प्राप्त कर लिया है उसको कहते हैं प्राप्त । इमीतरह प्रत्येक पहलुसे शेय पदार्थ जिसके द्वारा जाना जासके उसको कहते हैं आगम | और कर्माकी असाधारण निर्जराके कारणभूत तपके करने वालों को कहते हैं तपस्त्री। किंतु यह सामान्य शब्दाथ है। जब तक इनके असाधारण स्वरूपको प्रकट करने वाले लक्षण न कहे जाय तब तक उनका यथेष्ट और निर्धान्त ज्ञान नहीं हो सकता। इस वातको ध्यान में रखकर प्राचार्य प्राप्त आदि तीनोंका यहां मानते लक्षण कहते हैं । अथवा तीनोंकी उस परमार्थनाको बताते हैं कि जिससे युक्त होने पर वे सम्यग्दर्शनके विषय कहे जासकते हैं। यद्वा जिन २ विशेषणांसे युक्त आप्तादिका श्रद्धान सम्यग्दर्शन माना जा सकता है उनमें सबसे प्रथम क्रमानुसार ५ कारिकाओं में प्राप्त के स्वरूपका प्रतिपादन करते हैं।
प्राप्नोत्सन्नदोषेण १ सर्वज्ञेनागमेशिना।
भवितव्यं नियोगेन नान्यथा ह्याप्तता भवेत ॥५॥ सामान्य अर्थ-निश् वयसे याप्तको उत्सन्नदोष (छूट गये हैं समस्त दोष जिसके ऐसा)और सर्वज्ञ नथा आगमका ईश होना चाहिये । क्योंकि इसके सिवाय अन्य प्रकारसे आप्तपना बन नहीं सकता।
प्रयोजन- इस कारिका निर्माणका वास्तविक प्रयोजन क्या है, इस सम्बन्धमें यहां अधिक लिखनेकी आवश्यकता नहीं मालुम होती। क्योंकि इस विषयमें कारिकाकी उत्थानिकामें ही कहा जा चुका है कि उक्त सम्यग्दर्शनके लक्षण श्रद्वानरूप कियाके कर्मरूपमें जिन प्राप्त श्रागम और तपस्वीका उल्लेख किया है उनका क्रमसे इस तरहका वर्णन करना जरूरी है कि जिस से उसकी परमार्थवाका बोध हो सके। श्रीनाओंको गह भले प्रकार परिशान हो सके कि सम्यग्दर्शनके विषयभूत प्राप्तादि किस तरहके होने चाहिये । यद्वा किनर आधिारण विशेषताओंसे युक्त आप्तादिके श्रद्वानको सम्पादर्शन कहा जा सकता है । ऐसी अवस्थामें श्रद्धानरूप सम्प-- दशनके विषयभूत प्राप्तादिकी ये असाधारण विशेषतायें बताना भाश्यक हो जाता है । उनको स्पष्ट करके यह कारिका अपनी प्रयोजनवताको स्वयं दिखादेती है।
दूसरी बात यह है कि जगत्में भिन्नर सम्प्रदायवालोंने आपका स्वरूप भी मिअर प्रकारसे ही माना है । यद्यपि ये मान्यताऐ अनेक है; फिरभी इनको सामान्यतया सात भागोंमें विभक्त १-उछिन्नदोपण इत्यपि पाठः ।
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चंद्रिका टीका पाचवां लोक
किया जा सकता है। यहां पर आपके जो तीन विशेषण दिये हैं उनमें से एक २ तथा दो २ और तीनो के न मानने से या तीनोंक पृथकर निरपेक्ष मानने से सात भंग हो जाते हैं । ध्यान रहे कि ये सातो ही भंग मिथ्या हैं । इन मान्यताओं के अनुसार सच्चे आप्तका स्वरूप लक्षित नहीं होता ।
यह कहनेकी श्रावश्यकता नहीं है कि प्रकृतमें आससे आशय भेमोमार्गरूप धर्मके उपज्ञ बतासे हैं । साथ ही यह कि इस तरहके वक्त में इन तीनों ही विषयोंका रहना भी अत्यावश्यक हैं। यही कारण है कि ग्रन्थकारने जोर देकर कहा है कि अन्यथा आमना हो ही नहीं सकता बन ही नहीं सकता । यह अन्यथानुपपनत्व हेतु श्राप्स में तीनों विशेषयों की आवश्यकताको सिद्ध करता है ।
संसार में आप्तके स्वरूपके विषय में जब अनेक तरहकी मिथ्या मान्यताएं प्रचलित हो रही हो, और जगत् के प्राणी उधर आकर्षित होरहे हों, अथवा उनको मानकर गृहीत मिध्यात्वके द्वारा दुःखरूप संसार में भ्रमण कर रहे हों तब वास्तविक दयालु भगवान् और आचार्यका स्वाभाविक कर्तव्य होजाता है कि वे उनकी भ्रांत धारणाको दूर करने केलिये- उनके अज्ञान अंधकार को नष्ट करने के लिये उनके सामने तथाभूत- यथार्थ वस्तुस्वरूप के प्रकाशको उपस्थित करें जिससे कि वे श्रेयमार्ग निर्विवया चलकर शुद्ध सत्य स्वतंत्र और शाश्वत सुख -- कल्याणको प्राप्त कर सकें। इस कारिकाके निर्माणका यह भी एक प्रयोजन हैं कि प्राप्त के स्वरूपमें वास्तविक निर्दोषता कब प्राप्त हो सकती है यह उन संशयित विपर्यस्त निध्याधारणाग्रस्त भव्य श्रोताओं के सम्मुख उपस्थित कर दिया जाय । इसीलिये आप्तके तीन असाधारण विशेषताको प्रकट करने वाले तीन विशेषण देकर बताया है कि इनमेंसे कोई भी विशेषता यदि न मानी जाय तो निश्चित हैं कि श्राप्तपना नहीं बन सकता ।
आप्त शब्दका लोक में प्रसिद्ध अर्थ यह है कि जो सत्यका ज्ञाता हो और रागद्वेषादिले रहित सत्यका उपदेश करनेवाला हो । किन्तु व्याप्तपन दो तरह का हो सकता है १- लौकिक २- पारलौकिक | लोकप्रसिद्ध अर्थ लौकिक आसके विषय में समझना चाहिये । इस कारिका में जो आप्तका स्वरूप बताया गया है वह पारलौकिक श्राप्तका है । यह बात आगेकी कारिका से स्पष्ट होजायगी जिनमें कि इस पद्य में कहेंगये तीनो विशेषणका स्पष्टीकरण किया गया है ।
आप्त शब्द का एक प्रसिद्ध अर्थ यह भी है कि जो जिस विषय में वञ्चक है वह उस विषय में आप्त माना जाता है। यह बात पहले भी कही जा चुकी है। किन्तु यह बात भी दृष्टि में रहना जरूरी है कि अवञ्चकता के लिये वास्तव में अज्ञान कषाय और दौर्बल्य इन तीनों दोषों
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१- किसी भी विषय के अ पुनरुक्त भंग निकालने लिये उतनी जगह दोका अंक रखकर परस्परमें गुणा करना इससे जो संख्या उत्पन्न हो उसमें एक कम करदेना चाहिये । इस हिसाब से दोके तीन-तीन के सात, चारके पन्द्रह पांच ३३ भंग होते हैं ।
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गलकरएडश्रावकाचार
का निर्हरण अत्यावश्यक है। ___इस कारिकामें जो पारलौकिक प्राप्तका स्वरूप बताया है वह लौकिक अर्थो का विरोधी नहीं है फिर भी इस कथन से यह बात अवश्यही स्पष्ट होतीहै कि लोकप्रसिद्ध अर्थ पर्याप्त नहीं है यह लौकिक विषयोंतक ही सीमित है और अत एव आंशिक है । पारलौकिक प्राप्तका जो यहां स्वरूप बताया है वह पूर्ण है, निर्दोष है, और लौकिक तथा पारलौकिक सभी विषयों की प्रामाणिकता पर प्रकाश डालता है । जिस तरह१ श्रुतिसे अविरुद्ध ही स्मृतियार प्रमाण मानी जाती हैं, न कि स्वतंत्र अथवा अतिसे विरुद्ध । इसी तरह प्रकृतमें भी समझना चाहिये । पारलौकिक आप्तसे जो अविरुद्ध हैं वे ही लौकिक प्राप्त प्रमाण माने जा सकते हैं न कि स्वतंत्र तथा पारलौकिक आपके विरुद्ध भाषण करनेवाले । यह थात पारलौकिक प्राप्तका असाधारण सत्य निर्वाध और पूर्ण लक्षण कहे विना नहीं मालुम हो सकती थी । इसलिये भी इस कारिकाका जन्म अत्यावश्यक सिद्ध हो जाता है। क्योंकि ऐसा हुम बिना साधारण जीव लोक प्रसिद्ध अर्थको ही पूर्ण मानकर ठगे जा सकते थे-थोखेमें भासकते थे और वास्तविक अर्थस अन्नात रहकर श्रेयोमागकै विषय से बञ्चित रह जाते।
शब्दोंका सामान्य विशेष अर्थ
माप्त शब्दका सामान्य अर्थ ऊपरके कथनसे ही मालुम होजाता है और विशिष्ट अर्थ यह है जो कि इस कारिकामें दियेगये तीन विशेषणोंसे मालुम होता है। तीनों ही विशेषणोंका प्राशय मागे बताया गया है । तथा अन्य ग्रन्थोंसे३ भी जाना जा सकता है कि इन तीन विशेषणोंके बिना किस तरह आप्तपना बन नहीं सकना । उन सरका निष्कर्ष यही है कि पूर्ण वीतरागता प्राप्त किये बिना अज्ञानका सर्वथा विनाश हो नहीं सकता–सम्पूर्ण ज्ञान अथवा सर्दशता प्राप्त नहीं हो सकती और उसके विना श्रेयोमार्गका यथार्थ वर्णन नहीं हो सकता । अतएव जो पूर्व वीतराग और सर्वश है वही वास्तव में मोचमार्गका यथार्थ वक्ता हो सकता है | और उसीको वास्तविक प्राप्त कह सकते हैं।
आप्तत्वके लिये सर्व प्रथम जिस गुणको आवश्यकता है वह है उत्सत्रदोषता-जिसका अर्थ है कि छूट गये हैं दोप---सर्वसाधारण संसारीजीवोंमें पाये जानेवाले सभी दोष? -अ टियां जिनकी । वे दोष प्रकृतमें कौनर से लेने चाहिये यह बात आगेकी कारिकामें बताई जायमा। "उत्समदोष" की जगह "उच्छिनदोष" ऐसा भी पाठ पाया जाता है। दोनों ही शन्दोंके प्रा. १- द्वादशांग वेद अथवा अंग-अंगोंसे उद्धृत सिद्धान्त शास्त्र । २--स्मृति-संहिता धर्म शास्त्रादि । ३- त्वार्थ सूत्रकी टीकाएँ, आपतमीमांसा प्राप्तपरीक्षा, एवं प्रमेयरलमाला प्रमेयकमममार्तण्ड अष्टसह
श्री आदि न्यायग्रन्या ४-पाषा भर्य देषो रागो मोहश्च चिन्तनम् । जरा रुजा ष मृत्युश्च स्वेकः खेदा मदो रतिः । विस्मयो जननं निद्रा विषादोऽष्टादश धुवाः । निजगत्सर्वभूतानां दोषाः साभारणा इमे ।। परतवर्ष विनिमुक्तः सोयमाप्तो निरंजनः । विद्यते येषु ते नित्य तेत्र संसारिणे मताः ॥
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चंद्रिका टीका लोक
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शयमें विशेष अन्तर नहीं है ।
शब्दका अर्थ स्पष्ट और प्रसिद्ध हैं । फिरभी लोक प्रसिद्ध असे जैनागममें मान गये इस शब्द के अर्थ में क्या विशेषता है; यह आगे चलकर लिखी जाएगी। सर्वमान्य सामान्य अर्थ यही है कि जो सबको जानता है । और विशिष्ट अर्थ वह समझना चाहिये जो कि स्व ग्रन्थकारने कारिका नं ७ में बताया है।
आगमेशी — शब्दका अर्थ है कि आगमपर अधिकार रखनेवाला-आगमका स्वामी : मनलब यह कि आगमका जो मूल या मुख्य-- उपज्ञ बना है उसको कहते हैं आगमेशी । इसमें भी स्वयं ग्रन्थकार आगे चलकर अपना आशय स्पष्ट करेंगे |
तात्पर्य - यह कि श्रेयोमार्गरूप धर्म के व्याख्यान और उसकी प्रामाणिकता का मूल आप ही है। जिस तरह नींव के बिना मन्दिर या जड के बिना वृच टिक नहीं सकता उसी तरह तथाभूत आश के बिना धर्म के वास्तविक स्वरूप का न तो किसीको परिज्ञानही हो सकता है और न उसके विषय में प्रामाणिकता का विश्वास ही हो सकता हैं। जगतमें इस सम्बन्ध में अनेक मिथ्या मान्यताएँ प्रचलित हैं जिनको कि न तो युक्तियांकाही समर्थन प्राप्त है और न जिनको अनु भी स्वीकार करता है । इसके सिवाय इस कथन के करनेवाले वे शास्त्र ही स्वयं पूर्वापर विरोध एवं भिन्न २ प्रकारका अर्थ करनेवाले आचार्योंकी विरुद्ध निरूपणाओं के कारण श्रप्रमाण ठहर जाते हैं
कोई २ धर्म के व्याख्यान करनेवाले आगम—वेद को अनादि मानते हैं; जब कि यह बात स्पष्ट है कि कोई भी शब्द विशेष विना उसके वक्ता के प्रवृत्त नही हो सकता । कोई २ उसको शरीर ईश्वरकृत बताते हैं । किंतु यह कोई भी विचारशील समझ सकता है कि शरीर के विना एसे शब्दों की इसतरह की रचना उत्पत्ति किस तरह हो सकती है। कोई २ उसको हिंसा जैसे महापाप का विधायक स्वीकार करते हैं। और कोई २ उन्हीं वाक्योंका भिन्न २ प्रकारका पर्य करते हुए दृष्टिगोचर होते हैं। ऐसी अवस्था में जब कि उसका मूल वक्ता ही सिद्ध न हो अथवा जिसमें संसार भ्रमण एवं महान दुःखपरम्परा के कारणभूत हिंसा जैसे पाप का समर्थन पाया आता हो उसका वक्ताही सशरीर नहीं है यद्वा उसका वक्ता निर्दोष है यह बात कौन विचक्षण स्वीकार करेगा, कौन प्रमाण मानेगा और किसके अनुभव में श्री सकेगा ।
इसके सिवाय लोगोंने आप्तका जैसा कुछ स्वरूप माना या बताया है उसको देखते हुए न तो उनकी सर्वथा निर्दोषता ही सिद्ध होती है और न सर्वज्ञता ही, क्योंकि कोई भी विद्वान् इस बात को स्वीकार करेगा कि वीतरागता एवं सर्वज्ञता के बिना यदि कोई भी व्यक्ति कुछ भी
1- जिसका आशय यह होता है कि अपने समय के प्रचलित सब विषयोंका सबसे बडा विद्वान | २. किसी के कथनका अनुवादादि न करके स्वनॅत्र नासे सर्वप्रथम वक्ता । ईश ऐश्वर्ये । भागमम् ईष्टे । आगमपर ऐश्वर्य रखनेवाला ।
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मकरावकाचार
बोलना है तो उसके वचनों में स्वतः प्रामाणिकता कभी भी नहीं मानी जा सकती। फिर धर्म जैसे विषय का तो प्रामाणिक वक्ता पाना ही उसे किस तरह जा सकता है। क्यों कि धर्मका सम्बन्ध इन्द्रियागोचर आत्मासे है जिसका कि सत्यपूर्ण एवं स्पष्ट ज्ञान सर्वऩको ही हो सकता है । एवं वह सर्वज्ञता भी जिसके कि द्वारा मूर्त अमूर्त सभी पदार्थ उनके गुणधर्म और उनकी कालिक सम्पूर्ण अवस्थाओं का साक्षात्कार हुआ करता है तब तक प्राप्त नहीं हो सकती जब तक कि वह व्यक्ति साधारण संसारी जीवों में पाये जानेवाले दोषोंसे सर्वथा रहित नहीं हो जाता। अस्तु यह बात युक्तियुक्त और अच्छी तरह अनुभव में आनेवाली हैं कि इन दोनों ही गुणोंको प्राप्त किये बिना कोई भी व्यक्ति यागमसिद्ध विषयोंके प्रामाणिक वनका वस्तुतः अधिकार प्राप्त नहीं कर सकता | अतएव मोक्षमार्गके वक्ता श्राप्तमें इन तीनोंही गुणों का रहना अत्यावश्यक है इन तीन गुणों का श्राप्तमें रहना दिगम्बर जैनागममें ही बताया गया हैं । अतएव उसका ही प्रतिपादित धर्म निर्दोष एवं सत्य होने के कारण विश्वसनीय, आदरणीय तथा आचरणीय है।
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प्राप्त परमेष्ठी के प्रकृत तीन विशेषणोंमें यह बात भी जान लेनी चाहिये कि इनमें उत्तरीतरके प्रति पूर्व २ कारगा है। मतलब यह कि निर्दोषता ( वीतरागता ) सर्वज्ञatar कारण है। दोषोंका (जिनका कि आगेकी का रिकामें उल्लेख किया जायेगा ) नाश हुए बिना सर्वज्ञता प्राप्त नहीं हो सकती । और सर्वज्ञता हुए बिना आगमेशित्व बन नहीं सकता। क्योंकि इन दोनों गुणों को प्राप्त किये बिना यदि कोई भागमके विषयका प्रतिपादन करता है तो वह यथार्थ एवं प्रमाणभृत नहीं माना जा सकता । आगमका विषष परोक्ष है। न तो वह इन्द्रियगोचर है और न अनुमेय ही है। ऐसे विषयमें प्रत्यक्ष – पूर्ण प्रत्यक्षही प्रवृत्त हो सकता है। एकदेश प्रत्यक्ष भी चिपके सशांको ग्रहण नहीं कर सकता । अतएव श्रेयोमार्ग या धर्माधर्म तथा उसके फलका यथार्थ वर्णन सर्वज्ञता द्वारा ही हो सकता है और वही प्रमाण माना जा सकता है। किंतु यह सर्वज्ञता तबतक प्राप्त नहीं हो सकती जब तक कि वह व्यक्ति समस्त दोषों को निर्मूल नहीं कर देता । इसलिए पूर्व पूर्व को कारण और उत्तरोवरको काय मानना उचित एवं संगत ही हैं। इससे यह बात भी स्पष्ट हो जाती है कि उत्तरांवर के प्रति पूर्व २ की व्याप्तिनियत है । अर्थात् जहां आगमेशित्व है वहां सर्वज्ञता भी अवश्य है । और जहां सर्वज्ञता है वहां निर्दोषता ( वीतरागता) मी नियत है। किंतु इसके विपरीत यह नियम नहीं है कि जहां २ निर्दोषता ( वीतरागता ) है वहां २ सर्वज्ञता भी है और जहां २ सर्वज्ञता है वहां २ आगमेशित्व भी नियत हैं। क्योंकि क्षीणमोह निर्ग्रन्थ निर्दोष वीतराग दो कहे जा सकते हैं परन्तु ये सर्वज्ञ नहीं माने या कहे जा सकते हैं। यद्यपि वह वीतरागता सर्वज्ञता का साधन अवश्य हैं। हां यह बात ठीक है कि राम द्वेष और मोह का अभाव होजानेसे प्राप्त हुई निर्दोषता ( वीतरागता ) के बिना छातिश्रय का प्रभाव अथवा सर्वज्ञता की सिद्धि नही हो सकती। इसी तरह यह भी नियम नहीं है कि जो २ स हों वे सब आगम के ईश-उपत्र बक्ता हों ही। इस सम्बन्धमें पहले भी लिखा जा चका
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नया मीका पाजामौक है अतएव पुनः उल्लेख की आवश्यकता नहीं है ।
प्राप्तका लक्षण इस तरह का भी प्रसिद्ध है कि “यो यत्रावंचकः स तत्र आप्तः" । अर्थात् जो जिस विषयमें प्रवञ्चक है वह उस विषय में प्राप्त है । जैसा कि पहले भी लिखा जा चुका है। किंतु इस विषय में विचारणीय बात यह है कि कञ्चना ज्ञान पूर्वक या उन्देश पूर्वक ही हो ऐसा नियम नहीं है। संभव है-हो सकता है कि किसीकी अज्ञानपूर्वक चेष्टासे भी सामनेवाला पञ्चित हो जाय अथवा वक्ता का उद्देश्य हेतु तो श्रोताओं को धोका देना न हो परन्तु उसके उपदेशका परिणाम श्रोताओंपर इस तरहका पड़े जिससे वे वास्तविक अपने हितके विषय में प्रतारित हो जाय । किन्तु यह तभी संभव हो सकता है जबकि क्त्ता या तो सदाप ई-राग द्वेष मोहसे युक्त है अथवा अज्ञानी है, यज्ञा शक्तिहीन-दुर्बल है-बाविश्यका ठीक ठीक प्रतिपादन करने में असमर्थ हैं। अतएव प्रकृनमें प्राप्तका जो लक्षण आचायने बताया है वही निधिनिदोय प्रतीत होता है । क्योकि यहां दिये गये तीन विशेषणांसे इन तीनो त्रुटियों का पारण हो जाता है। पहले विशेषणसे रागद्रंप मोह आदि दोषोंका, और सर्वज्ञ विशेषण से शेष दोनों अटियों का भी निराकरण हो जाता है। कारण ति मोहका सय हो आनेके बाद तीनों धातिक कर्मों का युगपत् विनाश होते ही सर्वज्ञता प्राप्त हुआ करती है। अतएव सर्वज्ञपद अनन्त ज्ञान अनन्त दर्शन के सिवाय अनन्त वीर्यका भी बोध करा देता है। अतएव श्रेयोमार्गक यक्ता प्राप्त का यहां जो लक्षण बताया गया है वह सर्वथा उचित युक्त और उपयुक्त ही नही, पूर्णतया निर्दोष भी है इसकी निर्दोषता और आवश्यकता के विषयमें विशेष जिज्ञासुओ को मोक्ष शास्त्र तस्वार्थस्त्र महाशारत्रके मंगलपद्य-मोचमार्गस्य नेतारम्" आदिकी टीकामोंकोर नाचना. चाहिये।
ऊपर यह बात कही गई है कि यहां पर जो आप्तके तीन विशेषण दिये गये हैं उनमें उत्तरी तर के प्रति पूर्व २ कारण है; साथही यह बात भी स्पष्ट कर दी गई है कि पूर्व २ के साथ उत्तरोलरका अस्तित्व सर्वथा नियत नहीं है । क्योंकि किसी समर्थ कारण विशपके सिवाय साधारण कारणों के विषय में यह नहीं कहा जा सकता कि इसके होनेपर नियमसे कार्य होगाही । किंतु बोजी कारण हैं उनके विश्यमें यह अवश्य कहा जा सकता है कि इन बिना कार्यको निम्पत्ति हो नहीं सकती । उदाहरणार्थ
ऐसा कोई साधु४ जो कि आहार संज्ञासे मुक्त है, उत्तम संहनन५ से युक्त है, अबद्धायुका १-बान और असमर्थता। २-सर्वार्थसिद्धि, राजवार्तिक, श्लोकवार्तिक । इनमें विवक्षितमंगल पद्यके एक एफ भागपर प्रत्यकर्ता ओने प्रकाश डाला है। ३-गल्यापारानन्तरमव्यपाइतांतरक्षण कार्यनिष्पत्तिः । अथवा प्रतिबन्धाः भावविशिष्ट समस्तसहकारित्वम् । ४ जा दिमम्बर जैन मुनि है वही क्षपणी घट मकता है। ४, ५-६ दिगम्बर जैन मुनि होकर भी जो प्रथम संहननसे युक्त है और किसी भी नयीन आयुकर्मफे बन्धसे रहित है वही सर्वज्ञता का सापक श्रीण मोह निर्णय हो सकता है।
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रत्नकरएबायकाचार है, जानिमद एवं दीनता आदि हीनताओम राहत है, वहीं क्षपक श्रेणिका आरोहण कर सकता है। इस विषयमें ध्यान देने की बात यह है कि ये सम क्षपक श्रेणी के प्रारोहणमें कारण अवश्य है। किंतु ये ऐसे असाधारण कारण नहीं हैं कि केवल इन योग्यता प्रकट करने वाले गुणोंस की उस जीप के मोहका क्षपण हो जाय । उस क्षण के लिए साधकतम कारण नो जीव के वे अन्तरंग परिणाम विशेष हैं जिनकी कि पागम में "करण"१ इन नामसे कहा है। उसके होनेपर ही पाक अधीका कार्य या भारोहण हो सकता है। हां, यह बात सत्य है कि इन बताई गई पोग्यतामों के बिना वे कारणरूप परिणाम हो नहीं सकते किंतु यह बात भी निश्चित है कि इन पोरगतामकिडी बलपर वे करवरूप परिणाम ही ही बांय यह नियम नहीं है | एतरव इन योग्यबाभोंक विषयमें इतनाही कहा जा सकता है कि मोहके क्षपणा के लियेभी कारण अवश्य है । स्यों कि इनके बिना यह कार्य होता नही है । परन्तु इन योग्यताओंको ऐसा समर्थकारण नहीं कदा जा सकता कि इनके होने से प्रकृत कार्य होही जायगा । किंतु क्षीणमोहर निथ योग्यताके विश्य मेंबर अवश्य कहा जा सकता है कि इसके होनेपर पानित्रय का अभाव अथवा सर्वहता का प्रादुर्भाव नियम से होकर ही रहेगा।
इस माह आप्तके विषयमें जो ग्रन्थकारने यह कहा है कि प्रकृत निदोपता आदि नौन विशेपखासे युक्त ही प्राप्त हो सकता है, अन्यथा आप्तपना बन नहीं सकता सो सर्वथा युक्तियुक्त है मितु इस सरह भाप्त कहां और शान संभव है इस विषय में विचारशील विद्वानोंको तचत् भाप्तों
बाइरूपसे चले भाये तथाकथित वचनोंका निष्पत एवं सूक्ष्मक्षिकाके द्वारा परीक्षण करना चाहिये। क्योंकि उन पचनोंक द्वारा ही उनके वक्ताकी वास्तविक योग्यताका परिचय मिल
अन्थकारने प्राप्तके जो तीन विशेषण दिये हैं उनमें से पहिला विशेषण उत्सन्नदोष है। इस विषयमें पाठकोंको यह जिज्ञासा होसकती है कि ये दोष कौन है जिनसे कि आसको सर्वथा रहित होना ही चाहिये । इस तरहकी जिज्ञासाका कारण भी है। क्योंकि थर्मके स्वरूपके मूल बका विषयमें भाजकल भनेक तरहकी मान्यताएं प्रचिलित हैं। भिन्न प्रकारकी इन मान्यता
ओंके अध्पयनके बाद यह अवश्य ही शंका उपस्थित होती है या हो सकती है कि वास्तवमें आत किस सरहका होना चाहिये ? और उसमें तथाकथित गुणोंका अस्तित्व संभव है या नहीं ? साप ही यह कि यहाँपर जो ग्रन्थकारने आप्तको सर्वथा दोषोंसे रहित रहना रवाया है इस तरह का भाप्त कौन हो सकता है या कौन है ? इस तरहकी सब शंकाओंका निरास अथवा जिज्ञासा पोका समाधान तमी संगर होसकता है जबकि उन दोषोंका परिज्ञान हो जाय-यह मालुम हो -साधारणम् कारणम् करणम् ।।
२-बारहवां गुणस्थान ! ३ पूर्वापराविरोधेन परोने व प्रमाएयत्ताम् । अथवा-स त्वमेवासि निहोंगे युधि शाचगंभिषा अविरोषो पदिष्टम् प्रसिदन म बायले स्वारि।।
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जाय कि ये दोष ये हैं और साथही यह कि येही ऐसे दोष हैं जिनके कि रहनेपर वास्तवमें चाण-पना बनही नहीं सकता । श्रथवा इनके न रहनेवर ही श्राप्तपना बन सकता है। यही कारण है कि ग्रन्थकार यह पर प्राप्त की वास्तविक निर्दोषताकी परीक्षाके लिये स्वयं उन दोषांका नामोल्लेवा करके बताते हैं । ——
क्षुत्पिपासाजरातंकजन्मान्तक भयस्मयाः ।
न रागद्वेषमहाश्व यस्याप्तः स प्रकीर्त्यते ॥६॥
अर्थ --- विद्वानों अथवा आमायके द्वारा प्रष्ट यद्वा प्रशंसनीय प्राप्त यही बताया गया है जिसमें कि ये दोष नहीं पाये जाते
बुवा-भूख, पिपासा - प्यास, जरा-बुढ़ापा, आतंक-रोग, जन्म- श्रायुकर्मके उदयसे मघान्तरका धारण-चार गतियोंमेंसे किसी भी गतिमें उत्पन्न हाना, अन्तक-- मरण-- वर्तमान श्रयुका इस तरह से पूर्ण हो जाना कि जिसके समाप्त होनेमे पूर्वही नवीन आयुकर्मका चार गतियोंसे किसी भी अवश्य ही उत्पन्न होनेके असाधारण अन्तरंग कारणरूप कर्मका चन्ध होगया हो, भय-- मोहनथ कर्मा वह भेद जिसके कि उदय अथवा उदीरणाम ऐसी मानसिक दुर्बलनाएं उत्पन्न हुआ करती हैं जिनको कि लोकमें डर शब्द से कहा करते हैं, और जो आगममें इहलोकभय परलोकभय श्राखभय अगुप्तिभय मरणभय वेदनाभय और आकस्मिक भयके नाम संख्यायें साम गिनाई गई हैं, समय--जाति कुल आदिके विषय में गर्व जिसकी कि संख्या आठ विषयमेद अनुसार परिगणित है। (आगममें बताई हैं) और जिनका कि ययं ग्रन्थकार श्रागेर चलकर नामो लेख करेंगे, राग-ऐसी कपाय जिसके कारण त्रियमें ताका भाव जागृत हुआ करता है और ऐसे अप्राप्त विषयको प्राप्त करनेकी तथा प्राप्त विषय विमुक्त न होने की अन्तरंग भावमा उत्पन्न हुआ करती हैं, द्वेष-ऐसी कपाय जिसके कि निमिनले रोगसे विपरीत भाव हुआ करता हूँ विषयमें अनिताकी कल्पना तथा वह मुझे कभी प्राप्त न हो या उससे मेरा सम्बन्ध कब छूटे म तरही भावना हुआ करती है, मोह - आत्माकं शुद्ध एवं वास्तविक रूपमें अथवा तवां विव में मूर्याभावका रहना । इस तरह ये ग्यारह दोष हैं। इनके सिवाय "च" शब्दसे जिनको यहाँ बताया है के साथ दो और भी हैं। यथा-चिंता धरति निद्रा विस्मय विवाद छेद और स्वेद । इस तरह कुल मिलाकर दोषोंकी संख्या अठारह होती है जो कि प्राप्त नहीं रहा करते--प्राप्त के द्वारा इनको उच्छिन्न करदिया जाता है। जो कि कार के अभाव से या उसके दुर्बल हो जानेसे या तो स्वयं ही नहीं हुआ करते । यद्वा यह भी कह सकते हैं कि थाम में इनके उत्पन्न होने की योग्यता ही नहीं रहा करती ।
"च" शब्दसे जिनका ग्रहण किया गया है उन उपर्यु लिखित सात - दोषोंका अर्थ प्रसिद्ध
१- अल्पशक्तिक ही भयातुर हुआ करता है। 'श्रीमती' | गं०जी० । २- ज्ञानं पूर्णा कासी " च्यादि ।
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रत्नकरण्डश्रावकाचार
है फिर भी स्पष्ट प्रतिपत्तिक लिये संक्षेपमें यहां लिख दिया जाता है । चिन्ता-दष्ट या अनिए विषयमें प्राप्ति या वियोगले सम्बन्धको लेकर बार बार व्याप्त होना अथवा शोचा करना, अतिनिचका न लगना, निद्रा-स्थाप-सोना, विस्मय आश्चर्य, विषाद-खिन्नता शोक संक्लेश या चित्र में घबडाहट, खेद थकावट या कमजोरी स्वेद पसीना।
शब्दांका सामान्य विशेष अथ
शब्दोंका अर्थ ऊपर प्रायः सब लिखा जा चुका है। अतएव सामान्य अथके विषयमें अब यहां लिखनेकी कोई अावश्यकता नहीं है किन्तु हम अपनी समझके अनुसार यहां इन दोषों के विषयमें कुछ अपने विनारों या अनुभवको भी स्पष्ट करदेना चाहते हैं।
पाठक देखेंगे कि इस कारिकाके पूर्वाध ग्राट और उत्तरार्थके तृतीय चरणमें तीन इस रारह ग्यारह दोषाक नाम कण्ठोस है-अन्धवर्ता प्राचार्यने उनका स्पष्ट नामोल्लेख किया है। चोकी रहे सात दायोके नाम सो "च" शब्दसे सूचित किये है जैसा कि ऊपर लिसा जा चुका है। इन सभी दोषोंका प्रसिद्ध अर्थ जो कुछ है वह सभी ऊपर बताया जा चुका है। किन्तु विचारणीय बात यह है कि ऐया ग्रन्थकारने क्यों किया ? इसके उत्तरमें हमारी जो समझ है वह यहां इम लिख देना उचित समझने हैं जिससे कि विद्वान् पाठकोंको विचार करनेका अवसर प्राप्त हो । हमारी समझसे पूर्वाधम जिन आठ दोषांका नाम गिनाया है उनका सम्बन्ध मुख्यतया अधाति कमों से है । यथा क्षत पिपासा ये दी दोप वेदनीयसे, जरा और प्रान्तक नाम कर्मसे. जन्म और अन्तका भरण श्रायु कर्मस तथा भय और स्मय गोत्र कमसे सम्बन्धित हैं । इसीप्रकार उत्तरार्धम गिनाये गये तीन दाप राग द्वेप और मोह तथा "च" शब्दसे सूचित किये गये सात दोषोंका सम्बन्ध पाति समास है । राग द्वपमोहका सम्बन्ध मोहनीय कर्मसे स्पष्ट ही है । इनके सिवाय चिन्ता और पाश्चयका समन्ध ज्ञानाचरणसे, निद्राका दर्शनावरणसे शोक और परति
का सम्बन्ध मोहनीयसे और स्वेद तथा खेदका सम्बन्ध अन्तराय-वीपान्तरायकमसे है। ... प्रश्न--- न पिपासा वेदनीयजन्य, जरा और अातंक नामकर्म निमित्तक, तथा जन्म
और अन्तक आयुकर्म सम्बन्धित है, यह बात तो प्रतीतमें आती है। किन्तु भय और समय गोत्रकर्मस सम्बन्धित बताय सो यह समझमें नहीं आया ? श्रापन भी ऊपर इसी श्लोकका अर्थ करते हुए जो लिखा है उसमें भी स्पष्ट है कि ये दोनों ही दोष मोइकर्मसे सम्बन्धित हैं। फिर याप यहां इनको गोत्रकर्मस सम्बन्धित किस तरह बताते हैं?
उत्तर----ठीक है। हमने उपर इन दोनों दोषोंको मोह लिमिसक अवश्य ही बताया है। प्राचीन टीकाकर्ता श्री प्रभाचन्द्रने जो कुछ अर्थ लिखा है उसी के आधार पर हमने भी वह अर्थ लिखा है और यह सर्वथा सत्य है । परन्तु इस विषयमें कुछ विचारणीय बात भी है।
प्रश्न- इसमें विचारणीय बात क्या है ? श्रापका कथन मनमाना है. पर्वाचार्योक यदि विरुद्ध है तो प्रमाण किस तरह माना जा सकता है?
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पद्रिका टीका छठा लोक उत्तर--सर्वथा सत्य है । पूर्वाचायक विरुद्ध इमारा कोई भी कथन प्रमाणभूस नहीं माना जा सकता। परन्तु विरुद्ध हो तब न ?
प्रश्न विरुद्ध किस तरह नहीं है ?
उत्तर-- इस तरह 1 कारण यह कि इन आठ दोपोंमें से दो दोका एक २ अघातिकम विशिष्ट कारण है। और आठोंका ही सामान्य कारण मोहनीय है। जहां तक मोहनीप कर्मके उदयका सम्बन्ध है वहांतक वेदनीयादिक कर्मो के उदय प्रथवा उदीरणाका कार्यभी एक विशिष्ट प्रकारका हुआ करता है जिससे कि नधीन कर्म बन्धमें भी अन्तर पठजाता है मोहनीयक उदय का सम्बन्ध हट जाने पर इन कर्मोके उदयका कायभी उस तरहका नहीं हुआ करता । मोहनीयको अधातिकों के फलदानमें जो सामान्य कारण कहा है सो इस विषयमे भी यह ध्यानमें लेना चाहिये कि इस सामान्य कारणाके मारा भी इसमें जो अनार पहा १६६५ समान नहीं है। चारों ही अधातिय मोंके इन कार्यो मोहक निमितसे जो अन्तर पड़ता है वह सर्वत्र एक प्रकारका न होकर भिन्न २ प्रकारका ही है । खुत् पिपासाके लिये मोहकर्मोदय जनित माय वेदनीयको उदीरणामें कारण है। जरा और प्रतिकाय लिये नामकर्मके भेद अस्थिर प्रकृतिक उदय उदीरणामें निमित है। जन्ममरणके लिये नवीन आयुकमक बन्धम कारणई । स्पेकि जन्मसे यहां श्राशय नवीन श्रायुका बन्ध होकर उसके उदयजनिस भावसे है। नकि वर्तमान पर्यायकी उडमिसे जो कि हो चुकी। इसी तरह मरणसे मतलब वर्तमान शरीरके वियोगसे नहीं अपितु नवीन बायके उदय और भुज्यमान श्रायु सत्त्वके अभावसे है । इसी तरह जरा और आतंक-रोग जो हुआ करता है वह अस्थिर प्रकृतिके उदयसे वर्तमान शरीरकी धातु धातुओंके स्थानसे विचलित हो जाने पर अथा स्वभावके विकृत हो जानेसे हुआ करता है उसीसे यहां प्रयोजन है। इसी तरह भय
और स्मयके रिफ्यमें भी समझना चाहिये । जिसका तात्पर्य यह है कि गोत्रकर्मके दो भेद है। एक उच्च और दूसरा नीच । जिसके उदयसे लोकपूजित कुल में जीव जन्म थारण करें उसको उच्चगोत्रकर्म और जिसके उदयसे लोकगहित कुल में जीव जन्म धारण करें उसको नीचगोत्रकर्म कहते हैं। नीचगोत्रमें उत्पन्न हुमा जीव महायत धारण नहीं कर सकता, क्योंकि उसकी अन्तरंग मनोवल आदिकी तथा बहिरंग शारीरिक बल आदिकी दुर्बलताएं उसमें जिसतरह की कापरता पैदा किया करती हैं उनके कारण उसके प्रत्याख्यानावरण कर्मका क्षयोपश्म नहीं होने पाता नहीं हो सकता इस तरहकी कायरता एवं कायरताके कारण वह जीव हमेशा भयातुर रहा करता है और माना जाता है। मतलब यह कि नीचगोत्रकमेके उदयसे प्राप्त हुई जीवकी अस्था उसके भय कपायके तीव्रउदय एवं उदीरणामें नोकर्मका कार्य किया करती है जिस तरह भयसंज्ञामें
१-क्योंकि गोत्रकर्म जीवविपाकी है । अतए इसके उदयका कार्य जीषके परिणाम रूप अवाथा में ही
माना जा सकता है।
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रत्नकरण्डकाचार
वीर्यान्तस्य कर्मका उदयभी एक कारण ? है । उसी तरह नीचगोत्र कर्मका उदय भी उसमें एक कारण है यह बात अंजनचौरकी कथामेर आये हुए आकाशगामिनी विद्या साधनमें असमर्थ माली दृष्टान्तसे समझ में आ सकती हैं, इसके सिवाय उच्चगोत्रकर्मका जिनके उदय है उनके भी भनकषायके तीव्रउदय एवं उदीरणामें अन्य अन्य अनेक और भी कारण है। जैसे कि स्त्री का शरीर संहननकी हीनता आदि । जिससे कि उच्चगोत्री भी जीव कायर भयभीत रहा करते हैं । यद्यपि भयापरिणानक होने में मुख्य कारण भय नामका नोकषाय ही है फिर भी उसके बीचोदय सतवोदय तथा उदीरणामें कारण अन्य २ कम कि उदयसे उत्पन्न अवस्थाएं अथवा विभिन्न प्राप्त वस्तुएं भी हैं। ऐसी अवस्था में उनकी कारणताका अभाव नहीं कहा जा सकता | यह बात अनेक दुष्टांतों से समझमें आसकती है। आहार संज्ञामे असातावेदनीयकी उदीरणाकं सिवाय मोहनीयका उदय तथा वीर्यान्तरायका क्षयोपशमः श्रादिभी कारण हैं । इसी तरह अन्य संज्ञाओं के विषय में भी समझना चाहिये ।
मतिज्ञानादिकी उत्पत्ति में जिस तरह मुख्य कारण दशत् आवरण कर्मका क्षयोपशम है उसी तरह सहवती कारण वीर्यान्तरायकर्मका क्षयोपशम एवं यथायोग्य उपकरणादिक लाभ में गो गादि कमौका उदय भी है ही । इस तरहसे यह बात भले प्रकार समझमें आ सकती है कि जहां भी किसी भी विवक्षित परिणामक सम्बन्धमें मुख्यतया एक कर्मको कारण बताया हैं वहीं दूसरे २ कर्म-उनकी उदयादि अवस्थाएं और तज्जनित परिणाम भी कारण रहा ही करते हैं । वहाँपर मुहरूपमें एकको कारण कहदिया जाता है परन्तु कारण अन्य भी रहा ही करते हैं अतएव भूप और पके सम्बन्ध मात्र कपको भी कारणवश अवश्य प्राप्त है। नीच गोत्रकर्मक उदयवाला जीव भले ही ऊपरसे भयातुर मालुम न पड़े परन्तु अन्तरंग में वह अवश्य ही भयभीत रहा करता है । साधारण उच्चगोत्री भी उच्चगोत्रके निमित्तसे प्राप्त हुई सम्पचि कुलीनता आदिके सम्बन्धको लेकर सदा ही प्रायः४ चिन्तित एवं भीत रहा करता है। मोहनीय कर्मको जो कारण कहा जाता है मो वह तो सामान्य कारण है ।
जिसतरह राजाका राज्य के प्रत्येक विभागपर अधिकार रहा करताहै, तथा किसीभी विभागका कार्य उसकी मनीषा विपरीत नहीं हुआ करता परन्तु उस उस विभाग के गौरा मुख्यरूपमें अन्यान्य व्यक्ति भी कारण हुआ ही करते हैं । इसी तरह भय एवं समय के विषयमें मोहनीय और गोत्र दोना की ही कारण समझना चाहिये। जिस तरह उच्चगोत्रके निमित्तसे प्राप्त वैभव - श्रविकार फुल
१ – अइभीमदंसणेण तस्सुवजोगेण श्रमसत्तीए भयकम्मुदीरणाए भग्रसरणा जायदे चदुहिं | गो० जी० ॥! २- यह कथा आगे निःशंकित अंगके व्याख्यानमें दी गई है।
२- क्योंकि भोजन को पचानेका सामर्थ्य वीर्यान्तरायके क्षयोपशम पर निर्भर है ।
४ - भोगे रोगभयं बतो रिपुभयं रूपं जराया भयं । शास्त्र वादभयं गुणे मतभयं कार्य कृतान्तादुभय मौने हैन्यभव कुजे युतिभयं वित्तं नृपालाद भयं । मत्रं वस्त मयान्वितं भुचि नृणां वेराग्यमेवाभय "भव हरि"
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यतिका का अा शोध जाति आदि स्मयक उत्पन्न होने में कारण है उसी तरह उसके प्रतिपक्ष भयभावकी उत्पत्तिमें नीच गोत्र अथवा उच्चगांत्रके उदयकी अल्पता भी कारण अवश्य है । हो, मोहकमकी एक प्रकृति मान कषाय जिस तरह स्मयकी उत्पत्तिमें कारण है उसी तरह भयक हनिम भयनीकपाय भी कारना है। जिस तरह भयक होनेसे वागांन्तरायके क्षयोपशमकी न्यूनताकी कारणता मान्य हैं उसी तरह गोत्रकर्म को भी एक कारण अवश्य मानना चाहिय । यह बात मी ध्यानमें रखनी बाहिये कि भय और स्मय एक ही प्रकारकं नहीं हुआ करते। ये कारण भेदों तथा विषयभेदों
आदिकं अनुसार नाना प्रकारके हुआ करते हैं । अतएय पूर्वाधम बताये गये प्राठ दोषोंके सम्बन्ध में सामान्य कारण मोह और विशेष कारण क्रमसे वेदनीय श्रादि चारों अघातिकमर्मीको भी समझना चाहिये जैसा कि ऊपर बताया गया है । यह हमारा कथन न ता अयुक्त-युक्तिविरुद्ध ही है और न आगम-पूर्वाचार्यों के विरुद्ध ही है।
राग द्वेष और मोह ये तीनों स्पष्टष्टी मोहोदयजनित दोपहैं जिनकाकि गोहके अभाव हो जाने पर मभावहो जाया करताह । पूर्वाधम बताये गये आठ दोषों और 'घ' शब्दके द्वारा मूचित सात दोषांक मध्य में इन तीन दोषोंका उल्लेख इस बातकोस्पष्ट व.रता है कि देहली दीयकन्यायके अनुसार मोहक इन भावांका प्रभाव दोनों ही तरफ पड़ता है। अधाति कर्म जिस तरह मोहके उदयकी अवस्थामें अपना फल देनमें पूरणतया समथ रहा करते है उस तरह उसके अभावकी अवस्थाम नहीं। मोहका अभाव होजानेपर नेदनीय आदि अपातिकम अपना फल देने में जली हुई रस्सीके समान सर्वथा असमर्थ होजाया करते है। इस बलवत्तर अन्तरंग सहायक निमित्तके विना चे अवातिकर्म अपना कुछ भी काय नहीं कर सकते। जिस तरह गद्दीसे उतरा हुशा राजा नाम मात्र के लिये राजा रह जाता है परन्तु वह सताके विना कार्य करने में समर्थ नहीं हुमा करता इसीतरहकी अवस्था हन अघातिकर्मीकी होजाया करतीहै । तथा मोह का क्षय होजानेपर शेष तीनों धातिकर्मोंका भी चय होजाया करता है । अधाति कर्माका अस्तित्व तो दना रहता है परन्तु वे कार्य करने में असमर्थ होजाया करते हैं; किंतु पातिकमे तो अपना अस्तित्व ही खो बैठते हैं।
प्रश्न-जिस तरह मोहका क्षय होते ही पातित्रयका चय हो जाया करता है उसी तरह अघातिकर्माका भी क्षय क्यों नहीं हो जाता? जब सब कर्मीका राजा या शिरोमणि मीह ही है तब इसके नष्ट होते ही इसका सारा सैन्य ही नष्ट होजाना चाहिये । घातिकर्म तो नष्ट हो परन्तु अपातिकर्म नष्ट न हो इसका क्या कारण है ?
उसर—यद्यपि आठोंही कर्मोंका मूल मोहही है फिरभी इनमें से दो काँका विषय सम्बन्ध विभिन प्रकारका है। आठों ही कमों पर मोहका आधिपत्य रहनेपर भी घातिकर्मोंके साथ उसका सीधा और निकट संबन्ध है क्यों कि मोहके समान बाकी के तीनों घातिकर्ग भी आत्माके अनुजीची गुणोंका घात करनेवाले हैं। प्रतएव कथंचित् तादात्म्य सम्बन्ध रखनेवाले अनुजीवी गुणों
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का पातक घातिकोयर जैसा सीधा और तत्काल प्रभाव पड़ता है वैसा अघाति कर्मोपर नहीं। अधाति कर्मोंका मुखिया प्रायुकर्म है । जबतक आयुकर्म विधमान है-उसका निःशेष प्रभाव नहीं हो जाता तबतक धाति कर्मों का भी प्रलय नहीं हो सकता | जिस तरह युद्ध भूमि में शत्रुके आघात से बड और शिरके पृथकर हो जाने परमी केवल धड-रुण्ड भी कुछ काल तक लडना रहता है । उसी प्रकार यद्यपि घाति कमाके नष्ट हो जाने से कार्मणशरीर के धड़ और शिर पृथकर हो चुके हैं फिर भी रुएड के समान ये अघाति कर्म आयुकर्म की स्थिति पर्यत अपना अस्तित्व किसी तरह बनाये रखते हैं । श्रायुके अभाव के साथ ही इनका भी अभाव हो जाया करता है । इस व्यवस्थासे आयुकर्मका अधाति कर्मों के ऊपर जो प्रभाव है तथा मोहकी उसे जसी कुछ नाधीनता प्राप्त है यह सब स्पष्ट हो जाती है। क्योंकि मोह या घातिकोका क्षय हो जाने पर एक निश्चित समयतक स्थिर रहकर भी अन्तमें स्वयं निःसंतान ही क्षय को प्राप्त हुए बिना नहीं रहता।
प्रश्न--मोहकर्म का सीधा सम्बन्ध जिनके साथ आपने बताया उनके निमिस से होनेवाले दापोंको 'च' शन्दसे सूचित किया और जिनके साथ आयकर्मका साक्षात् एवं मोहका परम्परा सम्बन्ध आपने बताया उन अघाति कर्म निमिचिक बार दोपोंको सबसे प्रथम नाम लेकर गिनाया, इसका कारण !
उचर-कारण ऊपरके कथनसही मालूमहो सकता किंतु इसका कारण है यहभी है कि अपाति निमित्तक पाठ दोपोंके विषय में जैसाकुछ विसम्बाद आजकल पाया जाता है वैसा पातिनिभिसक दोपोंक विषयमं नहीं। अतएव मन्य श्रोता मिथ्या--असंगत -तत्त्वक विषयका उपदेश सुनकर श्रद्धाविहीन न हो जाय अथवा सिध्यादृष्टि न बनजांय तथा वास्तविक आत्मकल्याणसे वंचित झेकर अनन्त सांसारिक दुःखांका पात्र न बन जाय इसलिये परम अनुकम्पाजन्य हितबुद्धि तथा सदभावनास श्राचार्थन सिम्बादसे सम्बन्धित माठ दोपों का नाम स्पष्ट रूपसे नाम लेकर गिना दिया है। जिससे ओता इस बातपर विचार कर सकता है कि सर्वसाधारण संसारी जीव जिन दोपोंसे ग्रस्त हैं उन्ही दोषांसे यदि प्राप्त भी युक्त है तो दोनोंकही समान हो जानपर एक को मोक्षमार्गका नंता या शासक माना जाय और दूसरों को नेय या शास्य; यह किस तरह वन सकता या यक्तियुक्त माना जा सकता है। नेतृत्व के लिए शास्य संसारी जीवमात्रमें पायेजाने पाते दोषास रहित होना अत्याश्यक ही नहीं परमावश्यक है।
देखा जाता है कि आजकल जगत्में जितने मत प्रचलित हैं उनमेंसे किसी ने तो परमःमाको मानाही नहीं है । किसी २ ने माना भी है तो उसका उन्होंने जैसा कुछ स्वरूप बताया है उससे उसकी सर्वथा निर्दोषता सिद्ध नहीं होती । यद्यपि वे उसकी निर्दोषता सिद्ध करने के लिए अनेक युक्ति प्रयुक्ति भी करते हैं परन्तु तच्च विचारकों की दृष्टि में वे सच युक्त्याभास ही प्रमाणित होती है।
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बौद्रिका टीका छठा श्लोक यह कहने की तो आवश्यकता ही नहीं कि ये दोष किसी न किसी कारणजन्यही हो सकते हैं। बिना किसी योग्य कारणके शुद्ध परमात्मामें यदि माने जाते हैं तो उनकी सत्यता या प्रमाणता को कोईभी यौक्तिक विद्वान स्वीकार नहीं कर सकता । कारण कि कल्पनाभी कहतिक विचारोंकी कसौटीपर खरी उतरती है; यह भी एक बहुत बडा विचारणीय विषय है। और युक्ति वही मान्य हो सकती है जो कि अनुभव की तराजूमें तुल ज्ञाती है।
ईश्वरका अवतार माननेवाले को जहां जन्ममरण मानने पड़ते हैं वहीं दूसरे बाह्य दीप तुपा पिपासा जरा आतंक भी मानने ही पड़ेंगे । क्यों कि वे सभी आपसमें सम्बन्धित विषय है। साथ ही अवतार जन्म धारण करने के हेतुका विचार करनेपर असुरों, दस्यों आदिके संहारादिकी चिंता आश्चर्य आदि अन्तरंग दोषाका सम्बन्ध भी आकर उपस्थित हो ही जाता है। इन दोषों से उसे मुक्त नहीं कहा जा सकता और ऐसी हालत में उसे वास्तव में मुक्त हो कौन कहेगा फलतः इन दोषोंसे सकल परमात्मा को भी रहित मानने के लिए स्याद्वाद सिद्धांत तथा कर्म सिद्धांत को उसी रूपमं मानना उचित है जैसा कि श्री वर्धमान भगवानके उपदेशकी परम्परा में अबतक मान्य चला रहा है । इसके विनाकोई भी तत्व सम्यक् प्रमागिन नहीं हो सकता।
इसके सिवाय जिन्होंने अवतारवाद नहीं माना है; और जो श्रीवर्धमान भगानका अपनेको अनुयायी भी कहते हैं, अतएव जो जगतम जैननामसे प्रसिद्ध भी हैं उन्होंनयद्यपि आयुनिमित्तक जन्म भरण दोषोंको नहीं माना है फिर भी वेदनीय नामकर्म और गोत्र कर्म यहा मोहनिमित्तक अनेक दीपोंको जीवन्मक्त अवस्था में किसी न किसी रूपमें माना है। उनका कथन भी ताश्विक नहीं है श्रपथमें लेजानेवाला ही है। यह ठीक है कि वे भी अरिहंतकी अष्टादश दापसि रहित भानते हैं परन्तु वैसा मानकर भी जो भिन्न प्रकारसे ही उन अटारह दोपोंकी कल्पना करते हैं वह युक्ति आगम और अनुभव तीनों ही तरस विरुद्ध अयुक्त, निराधार एवं कल्पनामात्र ही ठहरती है।
मोहोदयके निमित्त विना बेदनीय अपना फल नहीं द सकता इस सयुक्तिका खण्डन या मिराकरण करनेमें वे सर्वथा असमर्थ हैं मुक्ति क्रिया प्रवृत्ति मान लनपर बागमोक्त प्रातराय प्रायश्चित्त आदि दोषोंकी आपसिका भी वे समाधान नहीं कर सकते । बुवाधाकै सिवाय रोगकी भी जो कि नामकर्मनिमितक है,तथा उसग और मरणभरकी भी वे स्वीकार करते हैं. इतना ही नहीं, इनके फलस्वरूप मांसभक्षण जैसे अवध कममें प्रवृश्चिक बतानेवाले बागमको भी वे निषि सत्य श्रेयस्कर मानते हैं । अतएव इस तरहकी मान्यता और प्रतिपादनकी प्रामाणिकताको भला कौन अनुभवी स्वीकार कर सकेगा । फिर उपसगक निमिससे होनेवाले भयंकर रोगके शमनार्थ मौतमलपकी प्रतिमें जो मरणभप दिखाई पड़ता है उस पर कितने ही पर्दे डाले जांय
१-सष्टि कर्तुत्व एवं दुष्टोंके निप्रह और शिष्टों के अनुग्रह तथा 'धर्म संस्थापनार्थ ईश्वरके अवतार वाद थादि के विषय में दी जानेवाली युछियोंके खण्डन में देखो प्रमेय कमलमातंडाद न्यायमंय तथा धादिपुराण पशस्तिलक आदि ।
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रत्नकरण्डनावकाचार छिप नहीं सकता। इस तरह के कथनसे जहां आप्तका वास्तविक स्वरूप सदोष ठहरता है वहीं उस वखनके अवर्णवादरूप होनेके कारण कथन करनेवालोंके मिथ्यात्वका बंध होता है। उसके मानने पाले भी सन्मार्गसे पश्नित होना है। इसके सिवाय इन दोषोंको न माननेवाला भी समाज नाम सारश्यके कारण अपरादका विषय बन जाता है।
ये सब ऐसे रिपय है कि जिनपर निष्पक्ष विचारशीलताके होनेपर ही दृष्टि जा सकती है ।
प्रकीयते-इसका अर्थ प्रकर्पतया कीर्तन होता है । मतलब यह है कि इन दोगोंसे जो रहित हैं यास्तवमें वहीं प्राप्त-योमागका उपज्ञ वत्ता माना जा सकता है। विचारशील निष्पक्ष विद्वानोंकी दृष्टि में उसकी प्राप्तता प्रशंसनीय एवं सम्मान्य हो सकती है। क्योंकि यही युक्ति अनुभव तथा आगमी अविरुद्ध प्रमाणयुक्त ठहाती है । न कि अन्य अथवा अन्य
तात्पर्य यह है कि इस कारिकामें जिन अठारह दोपोंका ऊल्लेख किया है उनसे रहित होनेपर ही वास्तव में प्राप्तकी आप्तता मानी जा सकती है । जो इनर राहत नहीं है वह यदि अन्य दोषों से रहित कहा भी डायनी भी वास्तवम प्राप्त नहीं ठहर सकता। क्योंकि इन दोषोंका सम्बन्ध पाटाही कमी है। इनमें कुछ पाकनिमिसक है घोर कुछ अपातिक सिमरीका जैसा कि ऊपर बताया जा चुका है । अतएव यदि इनसे रहिन नहीं माना जाता है तो निश्चित है कि अन्य संमारी जीवोंक ही समान वह भी उन कमा के फलका भोगनवाला है। और इसीलिय या मोक्षमार्गका नेता-शासक-प्रदर्शक नहीं बन सकना । नेता वही हो सका है जो स्वयं उस मार्गपर चलकर मागको यथार्थता बतानकोलये कृतिपूर्वक योग्यता प्राप्त करचुका है । क्योंकि एमा ही नेता अपने अनुयायियोंकी वारविक सागसे अभीष्ट स्थानतक लेजा सकता है अथवा मार्गकी यथार्थता बता सकता है । कोई शासक यदि शास्यांके ही समान है तो वह भी अपने विपयका वास्तव में शासन नहीं कर सकता । जिसने स्वयं मार्गको नही देखा है वह अन्य अनुयायियोंलिये उसका प्रदर्शक तो हो ही किस तरह सकता है?
जिस किसी भी व्यक्तिमें प्राप्तताका निदर्शन करना है उसमें सबसे पहिल निदोपताका सद्भाव दिखाना जरूरी है । जिस तरह मलिन बस्त्रपर ठीक२ रंग नहीं चढ़ सकता उसी तरह समस्त कमौके उदयन्त दोषांस मलिन मारनामें प्राप्तताका वास्तविक रंग नहीं आ सकता है।
वेदनीय कर्म यथायोग्य कफि उदयसे उत्पन्न अवस्थाका बेदन कराता है। जहांपर जिस कर्मका उदय नहीं अथवा सच भी नहीं है वापर तज्जस्ति अवस्थाका यह वेदन किस तरह करा सकता है ? "भूलं नास्ति कुनः शाखा" ।
भोजन पानमें प्रवृत्ति संचलन कपायके तीवउदय या उदीरणा तक ही होसकती है। ऐसी
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चंद्रिका टीका छठा श्लोक अवस्था छठे गुणस्थानमें मानी गई है। फलतः वहीं तक भूख प्यासकी बाधा हो सकती है और ऐसे ही जीव अपनी उम बाधाको दूर करने के लिये भोजनमें प्रवृत्ति किया करते हैं। इस तरहके जीवोंमें छठे गुणस्थान वाले जीव अन्तिम हैं जिनको कि प्रमत्त-अमादी-इस तरहकी प्रपत्तिके कारण प्रभाद सहित माना गया है । इसके ऊपर जब कि उन वर्मा की उन तरहकी उदयोदीरणा
स्था ही नहीं है तब वहांपर वेदनीय कर्म उसका बेदन किस तरह करा सकता हैं । छठेसे ऊपर नौ दशवेंतक सभी प्रमत्त है वहांपर उन कर्मा के उदयकी अवस्था ऐसी नहीं हुआ करती जिससे कि वह जीव प्रमादयाले कार्योमें प्रथचि करने लगे। वह तो ध्यान अवस्था ही है धारहवं आदि गुणस्थानोंमें तो उन कर्मोका मोह प्रकृत्तियोंका अस्तित्व भी नहीं रहना। फिर वेदनीय कर्म किस अवस्थाका वहां वेदन करावेगा। अतएव सयोगी भगवान की आहारमें प्रथति होती है यह कहना और मानना नितान्त असंगत और मिथ्या है एवं अवर्णादरूप होनेसे मिथ्यात्वके बन्धका तथा संसारभ्रमणका कारण है।
मोहनीय कर्मकी किनर प्रकृनियों का कहार किस २ गुणस्थानमें बन्ध उदय और सस्त्र पाया जाता है और किन२ की व्युच्छित्ति हुआ करती है, ये बात मालुम होजानेपर, साथ ही इस बातपर भी ध्यान देनेसे कि जहांतक उनका बन्ध उदय सत्व पाया जाता है वहांतक अपातिकमोकी धन्धादि अवस्थामें भी किस तरह का क्रमम परिवर्तन होताजाता है एवं मोहकी इन प्रकृतियाँक बन्यादिके अभाव में अघातिकर्मोके कन्धादिक स्वरूयमें भी किस तरहफा परिवतन होताजाता है ये सब मालु र होजानेपर क्रममे होनेवाले तजनित दोषोंके अभावका भी स्पष्टतया परिज्ञान हो सकता है। ग्रन्थविस्तारके भयसे यही अधिक नहीं लिखा जा सकता। किंतु पन्थान्सरों-गोमट्टसारादिसे इस विषयका बोध हो सकता है ! ___ऊपर यह बात बताई जा चुकी है कि सम्पूर्ण कर्मों का राजा या शिरोमणि मोहनीय कर्म है अतएव जहांतक उसका अस्तित्व बना हुआ है वहांतक सभी कर्म बने रहते हैं। किंतु उसके हस्ते ही सभी कर्म नष्ट हो जाया करते हैं । जब कि मोह के साथ सभी कर्मों का इस तरह का सम्बन्ध है तब मोह का निमित्त न रहनपर अन्य कर्म वास्तविक अपने फल देने में असमर्थ हो जाय, यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है । स्पष्ट है कि मोहका क्षय होतेही तीनों चातिकर्मखानावरण, दर्शनादरण, अर अन्तराय एक साथ ही क्षीण हो जाया करते हैं । विद्यमान आयु कर्मको छोडकर क्षपक श्रेणी चहनवाले जीव अन्य किसी श्रायुका सच्च नहीं रहा करता। और न पारोही श्रायुगोंमेंसे किसीकाभी बन्ध हुश्रा ही करता है । शेष तीन अघातिकोका भी पन्ध नहीं हुआ करता। केबल वेदनीय कर्मका जो बन्ध बनाया है वह भी उपचरित है वास्तविक नहीं क्यों कि वास्तविक बन्ध के प्रकरण में कमसे कम अन्तरमुहूर्त की स्थिति का पढना जरूरी है। परन्तु धीमामाह अथवा उपशान्त मोह व्यक्तिक जो वेदनीय धर्मका बनश बनाया है उसमें एक समय मात्रकी ही स्थिति पहा करती है । फलतः मोहके नष्ट होने पर सभी कम नए प्राय होजाते।
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रत्नकरण्डभावकाचार गह स्पष्ट है। आयु कर्म जो विद्यमान है उसके नष्ट न होने तक तीन अघाति कर्मों में से बिन २ कर्मों का उदय जिसरूप में और जितने प्रमाणमें उचित आवश्यक है उतना अवश्य रहा करता है। किन्तु निम्न दशामें-मोहके तीब्रोदय की अवस्थामें जैसा कुछ ये कर्म अपना फल दिया करते. वैमाही मोहकं प्रभाव में भी मानना बिना कारणके कार्यका होना बताना है जो कि नितान्स असंगत है। अतएव मोहके तीनोदय या उदीरणा आदिक साहचर्यके निमित्तसे होनेवाले अपातिक कमाके कार्य-- खुधा, पिपासा, नोम, जपसगे भव आदिको मोहसे सर्वथा रहित जीवन्मुक अनन्तचतुष्टय युक्त अप्रमत्तदशाकी भी सर्वोपरि अवस्थाको प्राप्त सर्वज्ञ भगवान के बताना अयुक्त ही नही मोहके विलाससे अपनेको सर्वथा अस्त प्रमाणित करना है। और वास्तविकता की दृष्टि एवं ज्ञानसे रहित सूचित करना है। ___मोहनीय कर्मके तीन विभाग है । दर्शन मोह, काय वेदनीय और नोकषाय वेदनीय । इनमें पूर्व २ कारण और उत्तरोत्तर कार्य है। फलतः नोकपाय अपना फल देने या कार्य करने में काय येदनीय का और कपाय वेदनीय दर्शनमोहका अनुसरण किया करती है, भय नोकपाय अथवा सभी हास्यादिक, नो कषायोंका कार्य दर्शनमाहसहचारी, अनन्तानुबन्धी कषाय महचारी, अफ स्वास्यानावरण सहचारी, प्रत्याख्यानावरण सहचारी, तथा संज्वलन कपाय सहचारी इसतरह पांच प्रकारका और एक इन सभी के साहचर्य से रहित इस तरह मुख्यतया छह सरहका हुमा करता है। इनसे किसीभी ऊपरकी दश में नीचे की अवस्था वाले कार्यको मानना या बताना जिनेन्द्र भगवानकी प्ररूपणाके अनुकूल नहीं है।
ऊपरके इस कथनसे यह बात ध्यानमें आ सकती है कि भय नामकी नोकपाय सर्वत्र एक सरीखाही फल नहीं दिया करती और न देही सकती है। मिथ्या दृष्टि जीवके भयनोकषाय जिस तरह जीविताशंसा या मरगण भय को उत्पन्न करके मांस भक्षण जैसे अवध कार्य में प्रकृति करा दिया करती है उस तरह सम्यग्दृष्टि आदिको नहीं । इसी तरह श्रापक आदिके विषय में भी समझन्य चाहिये । इस अन्तरका कारण सहचारी मिथ्यात्व या अनन्तानुबन्धी आदि कपापोंका सहार एवं प्रभाव ही है। अतएव जहां सभी मोह प्रकृतियोंका विनाश हो चला है वहा तत्सहचारत कार्यो का निरूपण किसी भी तरह उचित नहीं है । इसके सिवाय यदि यह बात न मानी जायगी तो पानिकर्मके निमित्तक जितने दोप हैं उन सबके भी वहां रहने की या पाये जाने की भापति का प्रसंग अपरिहार्यरूपमें उपस्थित हुए बिना नहीं रह सकेगा।
इस विषयमें अधिक लिखनेसे गन्थविस्तार का भय है तथा बुद्धिमानके लिए संवेपमें संकेत मात्र कथन ही पर्याप्त है। अतएव अधिक न लिखकर विशेष जिज्ञासुओंसे यह कहना ही उचितुर प्रतीत होता है कि उन्हें प्राचार्योंकि इस विपपके अन्य प्रकरण देखकर विशेष धान प्राप्त कर लेना चाहिये।
-"परेंगितहानफला हि बुद्धयः" । २-प्रमेय कमनभातपादि।
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का टीका माता श्रीक
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इस तरह आप्तकं तीन विशेषण जो दिये थे उनमें से पहले विशेषण 'उत्सन्नदोषेण' का सम्बन्धं लेकर यह बात इस कारिकामें श्राचार्यने स्पष्ट कर दी कि किन २ दीपों से रहित श्राप्त को होना चाहिये। जिनका कि अभाव हुए विना न तो उसमें सर्वज्ञदा ही बन सकती है और न आगमेशित्व ही । श्राप्तत्व या मोक्ष मार्ग का नेतृत्व भी सिद्ध नहीं हो सकता और न मानाही जा सकता है।
अब आप्तके दूसरे और तीसरे विशेषण का आशय स्पष्ट करने के लिए दो कारिकाओं का उल्लेख करते हैं—
परमेष्ठी परंज्योतिर्विरागो विमलः कृती ।
सर्वज्ञो ऽनादिमध्यान्तः सर्वः शास्तोपलाख्यते ॥ ७ ॥
अर्थ ---- परमेष्ठी, परंज्योति, विराग, विमल, कृती, श्रनादिमध्यान्त और सार्व इतने विशेक्योंसे युक्त सर्वज्ञ को गणधर देव या श्राचार्य श्रथवा भगवान धर्मका यद्वा मोक्षमार्गका शास्त्रा बता दें |
शब्दों का सामान्य विशेष अर्थ --
इन्द्रों के द्वारा भी जी चंदनीय है ऐसे परम उत्कृष्ट पदमें जो स्थित है-ऐसे पदको जिसने प्राप्त कर लिया है उसको कहते हैं परमेष्ठी । अन्तरंग और वा ज्योति-तेज जिसका सर्वोत्कृष्ट हैं उसको कहते हैं परंज्योति | विराम शब्द में राग यह उपलक्षण है । श्रतएव जो राग द्वेष और मोहरूा विभावपरिणामोंसे रहित है उसको कहते हैं विराग । जो त्रेसट प्रकृतियोंद्रव्यकर्मों से रहित और शेष कर्म भी जिनके नष्टप्राय हैं उनको कहते हैं विमल । कृती शब्द के अनेक अर्थ होते हैं— कुशल विवेकी काम करनेवाला या कर चुकनेवाला पंडित पुण्यवान साधु कृतार्थ आदि | यहां पर इसका अर्थ योग्य कुशल अथवा कृतकृत्य या समर्थ ऐसा करना चाहिये जो तीन लोक और तीन कालवर्ती समस्त द्रव्यों और उनके सम्पूर्ण गुण्णवर्म तथा पर्यायोंको युगपत् प्रत्यक्षरूपमें ग्रहण करता है--- जिसकी विशुद्ध चेननामें सभी द्रव्यगुण पर्याय एकसाथ प्रतिभासित होते हैं उसको कहते हैं सर्वज्ञ । जिसका न आदि है न अन्त है और न मध्य है उसको कहते हैं अनादिमध्यांत । जो सबके लिए हितू है--संसार के प्राणीमात्रमंसे किमीकाभी जो विरोधी नहीं है- उसकी शारीरिक वाचनिक आदि प्रवृखि सभी के लिए हितरूप ही होती है उसको कहते हैं सार्व | शास्ताका अर्थ शासन करनेवाला और उपलालयका अर्थ है प्रेमकरना या पसंद करना।
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विशेषार्थ - विद्वान निस्पृह विवेकी यौक्तिक व्यक्ति मोचमार्गके शासक - उपज्ञ बका या नेता के रूपमें जिसको पसंद करते हैं जिसकी भक्ति धाराधना उपासना या स्तुति आदि करते हैं ऐसा आप्य इन आठ विशेषणों विशेषताओंसे युक्त होना चाहिये ।
महानुभावोंसे यह प्रविदित न होगा कि महंत अवस्थाको प्राप्त तीर्थंकर भगवानकी
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रत्नकरण्ड श्रावकाचा
आगममें चार तरह की विशेषताएं बताई गई हैं। आत्मा, वाणी, भाग्य और शरीर । इन चारके असाधारण अतिशय से वे युक्त रहा करते हैं। इस कारिका में जो बाट विशेषण दिये हैं उनका इन चार अतिशयों से सम्बन्ध है ऐसा समझकर यथायोग्य घटित कर लेना चाहिये ।
परंज्योति यह विशेपण शारीरिक अतिशयको प्रकट करता है। क्योंकि उनके शरीरकी प्रभा कोटिसूर्यके समान हुआ करती है। परमेष्ट्रि विशेषण भाग्य के अतिशयको प्रकट करता है। क्यों कि तीर्थकर प्रकृती जो कि पुण्य कर्मोंमें सबसे महान है उसके उदयमें आनेपर अथवा तत्सम अन्य असाधारण पुण्य कर्मों के उदयसे रहित यह पद नहीं हुआ करता । सर्वज्ञता के प्राप्त होतेही उन पुण्य प्रकृति में का उदय हुआ करता है। और इसलिये वह पद तीन लोक के अवीश्वर शत - इन्द्रो द्वारा भी वन्दनीय होजाना करता है। सार्वः यह विशेषण शास्ताके वाणी सम्बधी अतिशय को प्रकट करता है। भगवान की वाणी यदि इसतरहके असाधारण अतिशय से युक्त न होती तो तीन जगत के जीवोका हि असंभव ही था। भगवान को उस सर्वाधिक अतिशय चली वाणीका ही यह प्रभाव है कि आजतक सब जीव सुरक्षित है और सदा रहेंगे। क्योंकि वास्तविक यहिंसा तवकी आज जगत में जो मान्यता है— उसका जो प्रसार है, जिसके कि कारण प्रायः सभी जीव निर्भय पाये जाते हैं वह सब उनकी वाणी-देशनाके प्रभावका ही फल है । शेष पांच विशेषण उनके आत्मातिशयको प्रकट करते हैं। इन पांच में भी एक " विमल " विशेषण द्रव्य कमों के अभाव से उत्पन्न आत्मविशुद्धि और के चार विशेषण चार घाति कमों के क्षयसे प्रकट हुए अनन्त चतुष्टय की प्रकट करते हैं। क्योंकि विराग से मतलब केवल रागसे रहित बनेका ही नहीं है। इसका आशय गत कारिका में बताये गये मोह सम्बन्धी तीन दोप- राम द्वेष और मोह के अभाव से एवं तज्जनित सम्यक्त्वादि गुणोंसे ग्रहण करना चाहिये। रामको उपलक्षण मानकर रागादि तीनों रहित ऐसा यर्थ करना अधिक सुन्दर उचित एवं संगत प्रतीत होता है ।
इस तरह करने पर यह विशेषण सम्पूर्ण मोहके प्रभाव जनित सम्यक्त्व प्रशम अनन्त सुख रूपताको सूचित कर देता है । कृती शब्दका कृतार्थ अर्थ कलितार्थ है ऐसा मानकर विचार करने से प्रतीत होगा कि यह शब्द अन्तरायके अभावको सूचित करता है। क्योंकि मोहका अभाव हो जाने पर भी जब तक ज्ञानावरण दर्शनावरण के साथ २ अन्तरायका भी अभाव नहीं होजाता तब तक उस जीवको कृतकृत्य नहीं कहा जा सकता। यह ठीक हैं कि अन्तरायके अभावसे अनन्तवीर्य गुणका श्राविर्भाव माना है । परन्तु विचारशील महानुभावोंकी दृष्टिमें यह बात भी
१- आदिपुराण |
२- भवणालय चालीसा तिरदेषाण होंति बत्तीसा । कम्पामरथ उवीसा चंदो सूरो परो तिर । ३ - स्वर्गीय लोकमान्य तिलक आदि प्रसिद्ध विद्वान भो स्वीकार करते हैं कि अन्य मतों में जो चहिंसा दिलाई देता है वह जैन भ्रम की देन है ।
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चंद्रिका टीका सातवां लोक आये बिना न रहेगी कि कृतार्थताका मूल या प्रतीक भी यह अनन्तवीर्य गुण ही है । अनन्तवीर्य नामका ऐसा महान् गुण है जो कि केवल ज्ञान केवल दर्शन और अनन्त सुख के रूपमें ही नहीं कृतकृत्यता के रूपमें भी स्पष्ट प्रतीतिमें आता है | पाठक सोचें कि जब तक विघ्नका कारण बना हुआ है या उसकी सम्भावना भी बनी हुई है तथं तक संसारक समो का विषय उसको वास्तव, कृती-कृनाथ कृतकृत्य किस तरह कहा जा सकता हैं। विनका कारण जहां तक दूर नहीं हो जाता-विनकी सम्भावना ही जस्तक निर्मल नहीं हो जाती तबतक सर्वथा निष्काम और पूर्ण ज्ञान हो जाने पर भी कृतार्थ किस तरह कहा जा सकता है। किसी भी कायका ज्ञान और उसके सिद्ध करनेका सामर्थ्य रहते हुए यदि यह कहा जाय कि इम व्यक्तिको विवक्षित कार्यके करनेकी इच्छा नहीं है अतएव यह निष्काम है तो वह कथन जिस तरह या जैसा कुछ सर्वथा प्रमाणभूत माना जा सकता है वमा ज्ञान और सामथ्यके अभावमें नहीं। अतएच ग्रन्थकारका आशय कृती शब्दसे अन्तराय कमके अभावसे प्रकट होने वाले अनन्त सामथ्य एवं कृतकृत्यता को सूचित करने का है ऐसा समझना चाहिये । ___ सर्वत्र शब्द स्पष्ट ही ज्ञानावरण के निःशेष क्षयको सूचित करता है। अनादिमध्यान्त शब्द दर्शनावरणके अभावका सूचक है। कारण यह कि दर्शन अनन्त है तथा वह निर्विकल्प भी है
और अनाद्यनन्त चतन्य सामान्यको विषय करने वाला है। अतएव उसमें आदि अन्त और मध्यकी कल्पना ही नहीं हो सकती। अनादिमध्यान्त शब्दका अर्थ इतना ही है कि जिसका न
आदि हैं, न अन्त है और न मध्य है। आदि अन्तका अभाव मध्यके अभावको स्वयं सूचित कर देता है । अनादिमध्यान्तता चार सरहसे सम्भव है । द्रव्यकी अपेक्षा, क्षेत्रको अपेक्षा, कालकी अपेक्षा और भाबकी अपेक्षा । द्रव्यकी अपेक्षासे पुद्गलपरमाण अनादिमध्यान्त है क्योंकि वह अप्रदेशी है । उसमें द्वितीयादि प्रदेशोंकी कल्पना न है न हो सकती है। यदि उसमें आदि अन्त या मन्यकी कल्पना की जाय तो वह अविभागी एवं अप्रदेशी नहीं कहा जा सकता। क्षेत्रको अपेक्षा प्राकाश द्रव्य अनाद्यनन्त है। दशो दिशाओं में कहीं से भी उसको सादि या मान्त 'नहीं कहा जा सकता। जर आदि और अन्त नहीं तब उसका मध्य भी नहीं कहा जा सकता। प्रश्न हो सकता है कि यदि भाकाशमें आदि मध्य और अन्तकी कल्पना नहीं है अथवा नहीं हो सकती तो लोकको भाकाशका ठीक मध्यवर्ती जो कहा है सो कैसे ? या वह किस तरह घटित होता है ? उत्तर स्पष्ट है कि जब माझाश दशों दिशाओं में अनन्त है तब उसके किसी भी भागमें रहने वाली वस्तुको उसके मध्यवर्ती कहा जा सकता है। मतलब यह कि जहां लोक है वहां से प्रत्येक दिशामें समान रूपमें अनन्त आकाश विद्यमान है । अतएव लोकको आकाशका मध्यवर्ती कहने में और इसी कारणसे भाकाश की अनादिमध्यान्ततामें कोई बाधा नहीं भाती । कालकी अपेक्षा उसकी समय पर्यायोंका समूह अनादिमध्यान्त है। इसी तरह अभव्य जीवकी संसार पर्यायोंका समूह भी अनादिमभ्यान्व कहा जा सकना है। भावकी अपेक्षा केवलज्ञानके अंशों-अविभाग प्रतिच्छेदोका प्रमाण मनाहि
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मध्यान्त है। केवल ज्ञानके अंशो का प्रमाण सबसे अधिक है। सम्पूर्ण द्रव्य गुण पर्याय उनके अंश और समस्त अक्षय अनन्त राशियों के सम्मिलित प्रमाणसे भी केवल ज्ञानके अंशोंका प्रमाण अधिक अधिक है। केवल दर्शन सामान्य चैतन्यको विषय करता है अतएव वह निर्विकल्प है और इसीलिए उसको भी अनादिमध्यान्त कहना श्रयुक्त नहीं है। अथवा यह भी कहा जा सकता है कि सर्व शब्द केवलज्ञान के साथ साथ उपलक्षण से केवलदर्शन को भी ग्रहण करना चाहिये और अनादि मध्यांत शब्द दोनोंकही स्वरूपका परिचायक है ।
अथवा वस्तु विधिनिषेवात्मक है । स्याद्वाद सिद्धान्तके अनुसार किसीभी गुणधर्मकी विधि सप्रतिपक्ष हुआ करती है । अन्य दर्शनकारोंने प्रभाव नामका पदार्थ स्वतन्त्र माना हैं । परन्तु यह एक प्रयुक्त सिद्धांत है इस विषयकी आलोचना न्यायशास्त्रों में पर्याप्त की गई हैं। उसके यहां लिखने की आवश्यकता नही है। जैनदर्शनमें आगमको स्वतंत्र पदार्थ न मानकर वस्तात्मक ही माना है। जैन दर्शनका कहना है कि जिस किसीभी द्रव्यगुण या पर्याय का विधान किया जाता है वह अपने से भिन्न सभी द्रव्यगुण पर्यायों पृथक ही है । अतएव विविक्षित द्रव्य गुणपर्याय अपने मित्र अविवक्षित द्रव्यादिसे मिश्र होनेके कारण अभावात्मक हैं। यही कारण हैं कि प्रत्येक द्रव्य प्रत्येक चख सत् असद, एक अनेक, नित्य अनित्य, और तत् तत् रूप है। स्वभावसेही उत्पाद व्ययौव्यात्मक हैं । इस सिद्धांतको दृष्टिमें रखकर अनन्तज्ञान दर्शन के संबन्ध में जब विचार करते हैं तो सर्वज्ञता केवल ज्ञान और केवलदर्शन दोनों अनादिमध्यान्त ही ठहरते हैं। क्योंकि ज्ञानदर्शन सामान्य अपेक्षा से अनादि अनन्त है, पर्याय विशेषकी अपेक्षा सादिसान्त हैं । कारण यह कि ऐसा न हुआ न हैं न होगा जब कि इनका अभाव कहा जा सके । यद्यपि संसार पर्यायस्थ अवस्था में पाये जानेवाले क्षायोपशमिक ज्ञान दर्शनकी अपेक्षा नायिक ज्ञान और दर्शन पर्याय अवश्यही साधनन्त हैं। परन्तु नाना जीवोंकी अपेक्षा केवलज्ञानदर्शन युक्त जीवोंका न कभी सर्वथा अभाव हुआ है न होगा। क्योंकि केवल ज्ञानियोंका विदेह में तो सदाही सद्भाव रहा करता है । अतः इस दृष्टि से भी सर्वज्ञताको अनादिमध्यांत कहा जा सकता है । स्पद्वाद दृष्टि से देखनेपर यह विषय किसी भी तरह अनुपपन्न नहीं है ।
वाणी के सम्बन्धमें अनेक तरहके दोषोंका सद्भाव लोकमें पाया जाता है । व्याकरण संवन्धि त्रुटियां, उच्चारण की अयुक्तता उदास अनुदान स्वस्तिका ठीक ठीक प्रयोग न करना तथा यति मंग आदि । एवं स्वरकी रूक्षता कठोरता आदि, ग्राम्य अश्लीलता हीनादिकोस्मा आदि अथवा अन्य भी अनेक दोष सर्वसाधारण में पाये जाते हैं। किंतु यह सब बाह्य दोष हैं। इनके सिवाय अन्तरंग दोष जो संभव हैं अथवा लोकमें पाये जाते हैं जिनका कि संम्बन्ध राग द्वेष मोहसे है। वे सबसे अधिक हीन एवं देय तथा सबसे विचारणीय प्रथम माने गये हैं। इस तरहके दोष चार भागों में विभक्त किये जा सकते हैं । १ - सत्प्रतिषेध २ - असदुद्भावन, ३ - विपरीत
-वैशेषिक दर्शनमें साथ तस्त्र माने हैं यथा द्रव्य गुण कर्म सामान्य विशेष समवाद और अभाव
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चौद्रका टीका सातयां श्लोक और ४-निंद्य । इनका विस्तार बहुत अधिक है। अतएव यहां उनका लिखाजाना ग्रंथविस्तार मयसे अशक्य है । संक्षेपमें इतनाही समझ लेना चाहिये कि जितने अपसिद्धांतों का कथन करने वाले तथा स्व और परका इस लोक या परलोक अहित करनेवाले शब्द अथवा वाक्य है उन समीका इन चार भागोंमें समावेश हो जाता है। ___ इन बाह्य और अंतरंग सभी दोषोंसे भगवान पशा उन्मुक्त हैं । लाग्थावस्थामभी तीर्थकर भगवान के जो जन्मजात दश अतिशयर गिनाए हैं उनमें एक वचनका अतिशय भी है । उसके अनुसार उस समय में भी उनके वचन प्रिय हित मधुर ही प्रकट हुआ करते हैं । फिर महंत अवस्थाकी प्राप्ति होजाने पर तो कहना ही क्या है जब कि वे अष्टादश दोष रहिन सर्वज्ञ वीतराग होकर समस्त विद्या मोंके ऐश्वय३ को भी प्राप्त कर चुके हैं। और उनके वचन अष्टादश महाभापाओं व सात सौ तुल्लक भाषामि४ परिणत होनेकी क्षमता प्राप्त कर चुके है । तीथकृत भावना के बल पर जिस समय तीर्थकृत प्रकृतिका बन्ध होता है उस समय अपाय विचय नामक धर्मध्यानविशेषके निमिचसे जो संस्कार उत्पन्न होता है वह उसके उदयकालमें उनकी देशनाको सर्व हितकर बनाकर रहता है। भगवान को सार्च कहनेका आशय यही है कि उनकी अन्तरंग बहिरंग समस्त योग्यताएं ही इस तरह की हैं कि उनके वचन प्राणिमात्रके लिए हितकर ही हुआ करते हैं । यह उनकी पुण्य कर्म सापेक्षा अवस्थाजन्य स्वाभाविक योग्यता है जो कि अन्यत्र दुर्लभ ही नहीं असंभव है।
इस तरह साप्त के लक्षणमें जो तीन विशेषण दिये हैं उनमेंसे सर्वज्ञता और हितोपदेशकता विशेषणका आशय स्पष्ट करने के लिए यह कारिका कही गई है। इसमें यह बता दिया गया है कि प्राप्त अवस्थाको प्राप्त आत्माकी स्थिति किस तरह हुआ करती है। ___ यह कहनेकी आवश्यकता नहीं है कि अनादिकालसे यह जीवात्मा पुद्गल जड कमसे आबद्ध हैं। पुराने कर्म अपने स्थिती के अनुसार फल देकर झड़ते हैं---आत्मासे सम्बन्ध यो कर्मत्वको छोड देते हैं और नवीन कर्मवन्धको प्राप्त होते हैं। यह परम्परा अनादिकाल से चली आरही है। अब योग्य निमित्त को पाकर और अपने रत्नत्रयके बलपर यह मारमा उन कर्मोके बन्धन से निकलनेका प्रयल करता है तब यही जीवात्मा क्रमसे परमात्मा बन जाता है। यही कारण है कि संसारी जीव की तीन दशाएं बताई गई हैं । बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा । जब तक इसकी दृष्टि कर्मवन्धसे सर्वथा मुक्त होनेकी नहीं होती तबतक इसको बहिरात्मा या मिथ्याष्टि कहा जाता है। किंतु जब उसकी दृष्टि में यह बात आ जाती हैं कि संसार में भ्रमणका व उसके १-नाकास्ति नृणां मृतिरिति सलातिषेधनं शिवेन कृतं । दमारोत्यातदुद्भावनमुहा वाजीति विपरीतम् ।। सविद्याप्रियगर्हितभेदास्त्रिविषं च निन्यमित्यनृतं । दोषोरगवल्मीकं त्यजेच्चतुर्धापि तत् वा ॥३६॥ मन०१० ४॥ २-अतिशयरूप सुगन्ध तनु नाहि पसेव निहार । प्रिहित बचन अतुल्य बल रुधर रवंत आकार ! लक्षण सङ्स र माढ युत समचतुष्क संस्थान । यजवृषभनाराचयुत ये जनमत दश जान ॥ ३-देखो देवकुत १४ अतिशय ) ४-राजपर्तिक श्रादि ५-आदिपुराण । विनगारधमाभूत स०१ श्लोक २ ।
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ॐ
नTार
Į
निमित्तसे होनेवाले जन्म जरा मरण आदि दुःखोंका मूलकारण यह कर्मबन्धन ही है अतएव सर्वथा य है । मैं कर्मोसे सर्वथा भिन्न ज्ञानदर्शन सुखरूप हूँ । कर्मोंसे सम्बन्ध छूट जानेपर मैं शुद्ध स्वरूप को प्राप्त कर सकता हूँ। और इसीलिये जो कर्मों के बन्धन से मुक्त होने के प्रयत्न में भी लग जाता है तब उसको अन्तरात्मा कहा जाता है। तथा प्रयम के द्वारा जब कर्मों' में मुख्य घातिया चार कर्मों से एवं कुछ अन्य १ भी कम मुक्त हो जाता हैं तब उसको परमात्मा कहा जाता है। परमात्मा दो तरह के हुआ करते हैं । एक सकल – सशरीर और दूसरे विकल---- शरीर । ऋशरीर को परम मुक्त कहते हैं जो कि सभी कर्मों और शरीर के सम्बन्ध से भी सर्वथा रहित हो जाता है सशरीर परमात्मा को जीवन्मुक्त कहते हैं । जीवन्मुक्त परमात्माको ही आप्त शब्द से यहां बताया हूँ । चार घाति कर्मों का सम्बन्ध सर्वथा छूट जानेसे और शेष प्रघाति कमों में से भी कुछ प्रकृतियों के सर्वथा निर्जीर्ण होजाने एवं बाकी की प्रकृ तियोंमें से पाप प्रकृतियों के सर्वथा असमर्थ हो जाने यादिकेर कारण आर्हन्त्य अवस्थापन नीर्थकर भगवानकी जो कुछ अवस्था या जैसा कुछ श्राध्यात्मिक और आधिभौतिक शारीरिक स्वरूप निष्पन्न होता है वही यहां पर शास्ता के आठ विशेषणों द्वारा स्पष्ट किया गया है। यह ऐसी अवस्था है जिसमें कि बनावटीपन नही चल सकता । क्यों कि वह कमों के उदय या चय आदि से सम्बन्धित होने के कारण स्वाभाविक तथा सत्य है यद्यपि सांसारिक होनेसे कुछ कमरे के उदय तथा सत्ता में रहने के कारण वह श्रवस्था भी हेय है। और जैसा कि पहले कहा गया है कि उन कर्मा की स्थिति पूर्ण होते ही वह भी उसी पर्याय सर्वथा समाप्त होकरही रहती है। ऊपर के कथनसे और विद्वानों को स्वयं विचार करने से यह यात मालुम हो जायगी कि परमेष्ठी आदि शब्दों के अर्थ में किन किन कर्मों की एवं कैंसी २ अवस्था कारण पडा करती है।
प्रश्न - ऊपर परंज्योतिः शब्दका अर्थ करते हुए आपने लिखा है कि उनके शरीरकी प्रभा कोटिसूर्यके समान हुआ करती है। सो इसका क्या कारण है ? किस कर्मके उदयसे ऐसा हुआ करता है ? आतप उद्योत प्रकृतियंकि उदय की तो उनके संभावनाही नहीं है । फिर यह किस कर्मका कार्य है ?
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उत्तर- -यह वर्ण नामक पृलविपाकी नाम कर्मके उदय का कार्य है।
तात्पर्य - यह कि संसारमे रहते हुए भी ओ मुक्त हैं ऐसे जीवन्मुक्त परमात्मा ही भाप्त माने गये हैं । यह पद सर्वोत्कृष्ट होनेके कारण परमपद कहलाता है । इस पदको vairee साधारणता दो विशेषणोंसे व्यक्त की जाती हैं। एक तो अन्दादशदोषरहित और दसरा
१- नामकर्म की १३ और आयुखिक ।
१, १ - इसके लिये देखो गोम्मटसारका बन्धोदयसत्त्व न्युच्छित्ति प्रकरण । ३– देखा आप्तमीमांसा की "मायाविध्यपि दृश्यन्ते" की अष्टसहस्त्री ! ४न्द्रिय मनुष्यांके इनका उदय नहीं हातां देखी गोम्मटसार कर्मकाण्ड ५-दलो घषता ।
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चंद्रिका टीका सातवा भोक
................._ स्वारिंशगुणविराजमान ! उत्सदोष शम्द के द्वारा पहले विशेपणका प्राशय गत कारिकाले द्वारा स्पष्ट कर दिया गया है । इस कारिकामें श्रावश्यक विशेषणोंके कथनमे सर्वत्रता और आम-- मेशित्वका दिग्दर्शन करके दूसरे विशेषणका अभिप्राय १ व्यक्त कियागया है । प्राप्तके कशालीस गुण प्रसिद्ध है जो कि इस प्रकार है। -जन्मजान १० अतिशय, केवलज्ञाननिमिचक दश अतिशय, १४ देवकृत यतिशय, अष्ट प्रातिहार्य, और अनन्तचतुष्टयः । इनमेंसे अनन्तचतुष्टय अपने प्रतिपक्षी चार धानि काँके क्षयसे प्रकट हुआ करते हैं। और बाकी पुण्यप्रकृतियों उदयसे प्राप्त होनेवाले सम्बद्ध तथा असम्बद्ध विभूतिरूप है । यहाँपर प्राप्तके जितने विशेषण दियेगये है वे सब उक्त गुणोंको व्यक्त करने वाले हैं । चार धानिकोंक क्षयस उद्भव चार गुण, विराग कृती सर्वज्ञ और अनादिमध्यान्त शब्दके द्वारा क्रमसे अनन्तसुख अनन्तवीर्य सबैज्ञता और केवल दर्शन होते हैं। जो कि मोहनीय अन्तराय झानावरण और दर्शनावस्यक वयसे अभिव्यक्त हुआ करते हैं । अथवा सर्वत्रताराब्द उपलक्षणसे अनन्तदर्शनका बोध कराता है और अनादिमध्यान्त शब्द दोनोंका ही विशेषण है, ऐसा भी कहा जा सकता है।
परमेष्ठी शब्य सद्वेद्य सद्गोत्र और प्रायुके साथर तीर्थकर नामकर्म प्रकृतिकी सर्वोत्कृष्टता ग्य तजन्य लोकातिक्रान्त पुण्यातिशयको प्रकट करना है और परंज्योतिशब्द पुद्गलषिपाकी नासकर्मकी माधिक महत्ताको सूचित करता है। यहाँपर यह बात भी ध्यान रखना चाहिये कि विवक्षित पुण्यकर्मोक उदयसे पास होने वाले ये उपयुक्त सम्बद्ध असम्बद मसि.. शय जो तीन लोककी अधीश्वरताकै साथ२ परभागको प्राप्त प्रभुता४ को प्रकट करते हैं अन्त. रायकमेके क्षयकं हिना प्राप्त नहीं हुआ करते । परमेष्टी शब्द चारों अघातिकर्मो मेंसे जिन पुण्यप्रकृतियों के उदयको बताता है वे सब जीवत्रिपाकी हैं। फलतः उस जीवन्मुक्त प्राप्त जीवकी पुण्यकर्म सापेव सर्वोत्कृष्ट महत्ताको व्यक्त करते हैं जिनको कि यहांपर संक्षेपमें चार शब्दोंक पारा कहा जा सकता है | ---अर्थात् अनंतसुख, परमाजाति, अनपवर्थ आयु, और प्रभुता। इन चारों ही विषपोंमें वर्णनीय विषय बहुत अधिक है अतश्च अन्धविस्वारके भपसे यहां नहीं लिखा जा सकता । फिर भी अतिसंक्षेपमें थोडासा आशय प्रकट कर दिया जाय यह उचित और आवश्यक प्रतीत होता है । मतलब यह कि--
यद्यपि अनन्त सुख मोहनीयकर्मके प्रभाव से होता है, ऐमा सर्वत्र बताया गया है और जिसका कि ऊपर भी उल्लेख किया गया है जो कि सर्वथा सत्य है तु इसमें जो कुछ विशे-- पता है वह भी समझना जरूरी है।
सुख शब्दके आगममें मुख्यरूपसे चार अर्थ बताये हैं-विषय वेदनाका अभाव विपाक और को साप ही यह बात ध्यानमें रखनी चाहिये कि सिद्ध भगवान और महंत परमेष्टीके जो आरामर १-टचत्वारिंशद्गुणविगजमान । २-अनन्त ज्ञान दर्शन सुख वीर्य ३–देवकृत तथा प्रातिहा। ४-तित्थयगण पहुस, णेहो पलदेवयं सवाणं च । दुक्खं च सवित्तीय सिणिणवि परभागपशाइ ।। ५ लोके चतु विहार्थेषु सुखरामा प्रयुज्यते । विषये मेवमामा विपाफे मोजपत्र | सा॥
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रत्नकरएखश्रावकाचार
शुग गिनाये हैं उनमेस सिद्धांके आठकों के अभावस प्रकट होनेवाले आठगुणोंमें मोहके क्षयसे व्यक्त होनेवाला गुण सम्पन्न नामसे बताया है। परन्तु अर्हत् परमेष्ठीके गुणों में से अनन्तचतु
ट्रयमें मोहके अभावसे उद्बा होनेवाला गुण अनंत सुख नामसे बताया है। इस तरहकी अवस्था __ में एक ही कमेके प्रभाव से प्रकट होनेवाले गुणको एक हो नागसे न कहकर दो भिनर नामोंसे
कहना सर्वथा निरपेक्ष या निष्कारण नहीं कहा जा सकता या नहीं माना जा सकता। वह अपेक्षा या कारण यही है कि अरहन्त परमेष्ठींक मोहका अभाव तो सर्वथा होगया है परन्तु साथ ही वेदनीयका उदय भी बना हुआ है, उसका अभी सर्वथा अभाव नहीं हुआ है। अतएव उसके विपाकसे लोकमें सुखशब्दके द्वारा कही जानेवाली पुण्य सामग्री भी उनको पाकर प्राप्त होती है। यद्यपि मोहके अभावके कारण उसका उन्हें वेदन नहीं हुआ करता । पुष्पवृष्टि सिंहामन आदि भोगीपभोगसामग्रीसे उनका स्पर्श भी नहीं हुआ करता । भोजन आदिमें प्रवृत्तिकी तो बात ही क्या है ? अतएव आप्त परमेष्ठीका यह अनन्त सुख वेदनीय कर्मके उदयकी अपेक्षाके साथ२ मोहकमके अभावकी भी अपेक्षा रखता है । यही कारण है कि यह सुख अनन्त एवं मर्वोस्कृष्ट मानागया है । क्योंकि वास्तविक सुख त्याग या उपरतिकी अपेक्षा रखता है और उसकी मात्रा ज्यों२ अधिकाधिक होती जाती हैं त्या र सुखका प्रमाण भी बढ़ता जाना है। अरहन अवस्थामें यह सर्वोत्कृष्ट मुख प्रकट हुआ करता है सहचारी पुण्यविपाककी अपेक्षाको प्रधान मानकर सम्यक्त्वको ही सुख शब्दसे कह दिया गया है।
. परमाजातिका सम्बन्ध गोत्रकर्मकी अपेक्षा रखता है । आगममें चार तरहकी जातियां बनाई है।----परमा विजया ऐन्द्री और स्वा । परमा जाति तीर्थकर भगवान्की हुआ करती है। अषातिकर्मोमेंसे गोत्र कर्मके निमित्तसे पाई जानेवाली उनको यह असाधारण विशेषता है। इसी तरह आयुके विषयमें समझना चाहिये । उनकी श्रायु सर्वथा अनपवयं ही हुश्रा करती है। उपमर्ग विष वेदना रक्तक्षय आदि कारणांसे उनकी आयुका अपवर्तन नहीं हुआ करता । तीर्थकर नामकमके निमित्तसे उनकी प्रभुता लोकोत्तरर हुआ करती है। जिसके कि कारण उनका शासन अजय्यमाहात्म्यवाला, समस्त कुशासनोंका निग्रह करनेवाला और भव्यजीवोंको संसारके समस्त दुःखों एवं उनके कारणों में उन्मुक्त होनेके असाधारण उपायको बतानेवाला हुआ करता है जिसका कि पालन कर वे स्वतंत्र अनन्त अश्निरयर ऐकान्तिक अनुपम अलौकिक मुखके उपभोक्ता हो जाया करते हैं । कारिकामें प्राप्तका सार्व विशेषण जो दिया है वह भी इस तीर्थकर प्रकृतिको लक्षमें रखकर ही दिया है ऐसा मालुम होता है। क्योंकि उसका बंध जिस अपायविचय नामक धर्मध्यान विशेषके द्वारा हुआ करता है वह सर्वोत्कृष्ट दयारूप परिणामका प्रकार है । यद्यपि सर्वज्ञ होजानेपर सभी सराग भावोंके छूट जानेसे दया परिणाम भी नहीं हुआ करता । किंतु दयाभावसे बंधी हुई तीर्थकर प्रकृति उदयमें अानेपर प्राणीमात्रके उद्धारका
मादिपुराण । २.--तिस्थयराण पहा आदि ।
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चंद्रिका टीका सातवां श्लोक कार्य अवश्य किया करती है । अतएव उनकी यह मी असाधारण विशेषता है कि वे दयालु और निर्दय दोनों शब्दोंक द्वारा कहे जाते हैं।
इस तरह पाति और अपातिकम निमितक अतिशयोंसे युक्त परम पदमें जो स्थित है उनको परमेष्ठी कहते हैं।
परंज्योति शब्द पुद्गल विपाकी कमों के निमित्तसे प्राप्त होनेवाली असाधारण लोकोत्तर महिमायोंका उपलक्षण है । जिसके कि कारण उनका परमौदारिक शरीर बन्धन संघात सथा समचतुरस्त्रसंस्थान बज्रर्षभनाराच संहनन अलौकिक स्पर्श रस गंध वर्ग आदिसे विशिष्ट हुआ करता है। ___ आप्त परमेष्ठीका यह अन्तरंग एवं रहिरंग स्वरूप कर्मसापेश होने के कारण स्वाभाविक है
और सत्य है । तथा इस बातको स्पष्ट करदेता है कि इतनी योग्यतामोंसे जो संम्पत्र है वही बास्तवमें मोक्षमार्गका उप पक्का हो सकता है । इसके सिवाय आप्तामासोंक भयुक्त स्वरूपका निराकरण भी इन्हीं विशेषणोंके द्वारा स्वयं हो जाता है। किस किस विशेषणोंके द्वारा किस किस प्राप्तविषयक मिथ्या मान्यताका खएइंन होजाता है । यह सरं विद्वानाको ही समझलेना चाहिगे।। ___ साथ ही "देवागमनभोयानचामरादि विभूतयः" भादि कारिकाओंका आशय भी यहां यथायोग्य पटित कर लेना चाहिये ।
ऊपर प्राप्त के जो तीन विशेषण दिये गये हैं उनमें से सर्नज्ञता और भागमेशिता दोनोंका स्वरूप इसकारिका में बताया है । अतएव इस कारिकामें उल्लिखित उक्त दोनोंही विशेषणों को यहाँ विशेश्य मानकर सब विशेषण दोनों ही सरफ घटित करना चाहिये । क्योंकि दोनों में परस्पर अजहत संबंध भी है । सज्ञताक विना आगमेशित्व बन नहीं सकता और भागमेशित्व के बिना आप्तकी सर्वत्रता भी तीर्थकरता से शून्य हो जाती हैं। क्योंकि जो तीर्थकर है वे ही सजा को प्राप्त कर लेनेपर नियमसे आगमके ईश बनते हैं। तीर्थकर प्रकृतिका उदय उसके पहले नहीं हुआ करता । सीर्थ जो चलता है वह वास्तवमें तीर्थकर प्रकृतीके उदय सहित मकाही पलता है कि सभी सर्वज्ञोंका, यह वात पहले मी कही जा चुकी है ! अागमेशित्त्व का सम्बंध तीर्थकर कावासे हैं | अनए। दोनोंमें अजहत्सम्बंध बन जाता है। और इसीलिए अनादि मध्यांतता भी दोनों ही घटित होती है। जिसतरह अनादिमध्यांत सर्वान है उसी तरह भागमेशिल मी अनादिमध्यांत है। क्योंकि सर्वज्ञ तीर्थकर भगवान और उनका उपदिष्ट प्रागम अनादिकालसे हैं और अनन्त कालतक रहेगा । इन दोनोंकेही समत रहने में एक दिनका भी विच्छेद नहीं पत्ता न कभी.पहा है और न कभी पडेगा ! हां क्षेत्र की अपधा पर संभव है कि इन दोनोंका अस्तित्व कमी किसी क्षेत्र में पाया जाय और कमी किसी क्षेत्रमें नहीं पाया जाय । परन्तु काल की अपेक्षा इनमें कमीभी अन्तर नहीं पड़ता। दोनों की ही सबा बनी रहती है। देहली दीपक न्याय से
बाममीमांसा का माम्य पासासी ।
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এলেঙ্কশাস্কাৰী अनादिमध्यांत शब्दको मर्मज्ञ और सार्न एनं मागमेसी के बीस रखना इस बाशयको भाष्य कर देता है। ___ इस कारिकामें दिये गये विशेषणों के सम्बन्ध में ऐसा जो कहीं २ कहा गया है कि यह मनकी ही वाचक नाममाला है। सो इससे यह नहीं समझना कि ये शब्द या विशेषण अपसेर सर्वथा असाधारण विशिष्ट अर्थका ज्ञापन नहीं करते हैं। मतलब यह कि जिस तरह नामनिक्षेप में अर्थकी अपेक्षा न रखकर केवल व्यवहार सिद्धि के लिए संज्ञा विधान हुआ करता है वैसा यहां नहीं है । ये सभी शब्द अन्वयक है, सहेतुक हैं, और सप्रयोजन हैं । जैसा कि ऊपर के दिग्दर्शनसे समझमें पासकता हैं ।
इस तरह प्राप्तके दोनों विशेषणोंका इस कारिकामें स्पष्टीकरण किया गया है। फिर भी जिस तरह सष्टिकत स्वके सम्बन्धको लेकर ईश्वरके विषय में शंका खड़ी रहती है कि यह सर्जन वीतराग होकर पुनः सृष्टि रचनाके प्रपंच में क्यों पड़ता है उसी प्रकार यहाँभी शंका हो सकती कि जन वह आप्त सभी दोषोंमे रहित है, उसको न किसी प्रकारकी आशा ही है और न किसीसे रागद्वेष ही है फिर वह तीर्थप्रवर्तन में क्यों प्रवृत्त होता है ? इसका समाधान भी आवश्यक है। अतएव अन्धकार आगमेशित्व विशेषण का ही दृष्टांतपूर्वक अर्थान्तरन्यास अलंकारके द्वारा प्राशन अधिक सष्ट करके शंकाका समाशन करते हैं |
अनात्मार्थ विना रागैः शास्ता शास्ति सतो हितम् ।
ध्वनन् शिल्पिकरस्पर्शान्मुरजः किमपेक्षते ॥ ८ ॥ अर्थ--यह शास्ता आगमका ईश जिसका कि स्वरूप ऊपर की कारिकामें बसाया गया। बिना अपने किसी प्रयोजनके ही और बिना किसी अनुरागर्क ही भव्य पुरुषोंको हितका-धर्मका मोच मार्गका उपदेश दिया करता है ! शिल्पी-~-मादगिक-मृदंग बजानवाले के हाथका स्पर्श पाकर बजने वाला मृदंग क्या कुछ अयेक्षा रखता है ?
प्रयोजन-संसारी प्राणी अधिकतर अपना कोई न कोई प्रयोजन रखकर ही कुछ भी काम करता हुआ देखा जाता है। यहां तक कि विना मतलब के कोई भी काम करना बुद्धिमत्ता का सूचक नहीं माना जाता । अतएव यह कहावत भी प्रसिद्ध है कि "प्रयोजनमन्तरा मन्दोऽपि न प्रवर्तते " फलतः मोच मार्गके वक्ताका यहां जैसा कुछ स्वरूप ताया गया है उसको इष्टिमें लेनेके बाद तत्त्यरूपसे अपरिचित साधारण संसारी जीवोंको यह शंका या जिज्ञासा उत्पन होजाना स्वाभाविक है। जब वह आत शास्ता पूर्ण वीतराग है-सम्पूर्ण रागद्वष और मोह से सर्वथा प्रतीत हैं तब अदेश देनेके कार्यमें भी क्यों प्रकृति करेगा ? यद्यपि प्रयोजन अनेक तरह के हआ करते हैं फिर मी उनको दो भागोमें विभक्त किया जा सकता है। एक स्वार्थ और दूसरा परार्थ । इसमेंस कोई भी प्रयोजन वो उपदेश देनेमें प्राप्तका भी होना ही चाहिये । भन्यथा जिसतरह सष्टिरचना
--विमा योजन मप भी प्रतिमहा किमा करता।
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শাম্বা বাক্য গাথা খাদ্ধ १ कह स्वके सम्बन्ध को लेकर ईश्वर के विषयमें यह आक्षेप उत्पन्न होता है कि बिना प्रयोजन कृतकृस्प ईश्वर सष्टि रचना के कार्यम क्यों प्रवृत्त होगा? उसी तरह क्या कारण है कि प्रतमें मी आक्षेप उपस्थित नहीं हो सकता।
इस शंकाका समायाम करना इसलिये आवश्यक हो जाता है कि प्राप्तके वास्तविक एवं साधिक स्वरूप से प्रायः प्राणीमात्र अनभिज्ञ है। मोही संसार जब तक उसके स्वरूपके विषयमें संशयित विपर्यस्त या अनध्यवसित बना हुआ है तब तक दुःखोंसे छूटकर उत्तम सुखरूपअवस्था में अस्थित नहीं हो सकता। जिस हेतुसे परम करुणावान भगवान समन्तभद्र स्वामीने इस ग्रन्थ के निर्माण का प्रारम्भ किया है उसकी सिद्धि उन माप्त परमेष्ठी के स्वरूपके परिवानपर ही निर्भर है। अतएव उसके सम्बन्ध में यह बताना अत्यन्त आवश्यक है कि नह प्राप्त पूर्णतया निमोह और निर्दोष होकर बिना किसी प्रयोजन के ही श्रेयोमार्गके उपदेश कार्यमें क्यों और किस तरह प्रात्त हश्रा करना है। इसी प्रयोजनसे इस कारिका का निर्माण हुआ है। इसके द्वारा अन्य कार को यही बताना अभीष्ट है कि मद्यपि यह कहना सर्वथा सत्य है कि संसारका कोई भी कार्य प्रायः स्वार्थ या परार्थ अयथा दोनों इनमेंसे किसी भी प्रयोजनके विना नहीं हुआ करता फिर भी बाप्त परमेष्ठी के इस धर्मोपदेश कार्य में यह नियम या मान्यता लागू नहीं होती-व्यमिषरित हो जाती है। किस तरह व्यभिचरित हो जाती है यह बात दृष्टांत द्वारा स्पष्ट कर दी है।
शब्दोंका सामान्य विशेषार्थ
अनात्मानम् का अभिप्राय है कि जो अपने किसीभी प्रयोजमसे न हो और विना रामः करनेसे मतलब यह है कि जो दूसरंके हित को सिद्ध करनेकी अनुग्रह रूप भावना मादि से सपा राहत हो।
"विना" के योगमें व्याकरणके नियम के अनुसार राग शब्द में पनीया विमति हुई। और इस विमा सर्गः वाक्यांश का सम्बन्ध शास्ति क्रियाके साथ है। अतएव अथवा अनात्मा. र्थम की तरह यह भी "शास्ति" क्रिया काही विशेषण है । इन दोनों विशेषणों द्वारा प्राप्तभगवान के शासन की असाधारण विशेषता व्यक्त की गई है। शास्ता शब्द प्राप्त के लिए शासन नियाके की रूपमें प्रयुक्त हुआ है। अतएव यह शब्द, श्राप्त की शासन क्रियाक करने में स्वतन्त्रताको चित करता है।
शास्ति क्रिया है जिसका अर्थ है शासन करना । शासनका मतलब है कि जो शास्त्र है अपने से छोटे हैं अथवा रक्षण की इच्छा रखते है। पढ़ा हित मार्गमें अनमिश रहने के कारण उसको जानना चाहते हैं उनको उपदेश देकर हित में लगाना और अहित से बचाना।
१-प्रात्मनः- स्वम्प अर्थ:- प्रयोजनम् (अर्थोऽभिधेयरैवस्तु प्रयोजननिसिषु) इति आत्मान मात्मार्थो यस्मिन् कर्मणि तत् श्रमात्मार्थम् ।। २-"स्वतन्त्रः फर्मा । विवक्षित क्रियाके करने या न करनेमें तथा उसके साधक कारकोंको उपयोग में लेने न लेने के लिए जो स्वाधीन है यह करती है । ३–यहां शामनसे मतलब है भागमका । और बागम
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रतकरएडश्रावकाचार
लोकमें दण्ड देकर शासन किया जाता है किंतु प्राप्त परमेष्ठी भगवान केवल उपदेश देकरही शासन किया करते हैं। उनके उपदेश में क्योंकि वे निर्दोष तथा सर्गज्ञ हैं अतएष दो विशेषताए पाई जाती हैं। प्रथम तो यह कि वह उपदेश किसी भी प्रयोजन से प्रेरित नही हुमा करता। जैसा कि इस कारिकामें दोनोही क्रियाविशेषणों द्वारा बताया गया है। दूसरी विशेषता आगे सलकर कारिका नंबर के द्वारा बताई जायगी कि उनका शासन आदेश किन किन विशे. पताओं से युक्त रहा करता है।
सतः और हितम् ये दोनो ही शब्द शास्ति क्रिया के कर्म है। क्योंकि शास धातु द्विकर्मक है। अतएव इन दोनोंका कर्म कारक के रूपमें प्रयोग किया गया है। और इसीलिए सतः यह षष्ठी विभक्ति का एक वचन न मानकर द्वितीयाका बहु वचन समझना चाहिये । जिसका अर्थ होता है सत्पुरुषांकी-भव्यों या मुमुक्षओंको। क्योंकि उनके पास समवसरणमें असन् पुरुष, अभव्य तथा जिनको मोक्ष की आकांक्षा ही नहीं है ऐसे तीन मिथ्यादृष्टि-दीर्घ संसारी पहूँचतेहीर नहीं है । हितसे मसलब है कि प्रात्माकी समस्त कर्मों से प्रात्यन्तिक नित्ति ।।
प्रकृत कारिका के उत्तरार्धमें दृष्टांत गर्भित भर्थान्तरन्यास४ अलंकार के द्वारा पूर्वार्ध में कथित विषय का समर्थन किया गया है । 'किमोटते' गा नवमूक्तिी एव उसका अर्थ होता है कि वह किसीकी भी अपेक्षा नहीं करता।
तात्पर्य यह कि इस कारिका द्वारा आगमेशित्वके वास्तविक स्वरूपका और उक्त प्राप्तके प्ररूपित आगम के प्रामाण्यका दिग्दर्शन-संक्षेपमें किंतु बहुतही सुन्दर ढंगसे युक्तिपूर्वक कराया गया है। यदि यह नहीं बताया गया होता तो अधिक संमत्र था कि लोगों को इस विषय में प्रम या विपर्यास अथवा अज्ञान बना रहता । या तो वे विपरीतयुद्धि होजाते अथरा बने रहते । जिस तरह कृतकृत्य ईश्वर के विषय अवतार लेने आदि के हेतु अथवा प्रयोजनकी कल्पित एवं मिथ्या उक्तियोंको सुनकर भी लोग विपरीत दृष्टि बन जाते या बने हुए हैं उसी तरह यहां पर मी बने रहते।
अाज हम देखी हैं कि सर्वज्ञ वीतराग निर्दोष तीर्थकर भगवान के अनुयायियों में भी यह एक बहुत बडा तात्त्विक ज्ञान पाया जाने लगा है कि वे भी मिथ्यादृष्टि की तरह भगवान महा बीर स्वामी आदि के विषयमें कुछ श्रमोत्यादक अथवा दिपर्यास पैदा करनेवाले ऐसे वाक्य रोल
का अर्थ है-"प्राप्तवाक्यनिवन्धनमर्थज्ञानमागमः" । १-दण्डो हि केवलं लोकमिमं चामुष रक्षति । राझा शत्री य पुत्र प यथा दोषसमं धृतः॥ यशस्विलक ॥ २-हरिवंश पुराण ०५७-१७३ ॥ ३-सर्वार्थसिद्धि।
उक्तसिद्धयर्थमन्माईन्यासो न्याप्तिपुरःसरः । कथ्यतेऽर्थान्तरन्यासः श्लिष्टोऽश्लिष्टश्च सद्विषा ।। -२|| वाग्भटालंकार। ५- इसको आक्षेपालंकार करते हैं। यथा-किर्यत्र प्रतीतिर्वा प्रतिषेधस्य जायसे । पाचक्षसे तमाक्षेपा.
लंकारं विबुधा यथा ।। ७ ।। खोके विनिंचं परदारर्म मात्रा सहैतत् किमुकोऽपि कुर्यात् । मांस अपोचदि कोपि लोखः किमागमस्तत्र मिदर्शनीयः ।। यशस्तितक।
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atter tet rai लोक
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दिया करते या लिख दिया करते हैं जो कि स्वरूप विपर्यास अथवा कारण विपर्यासको सूचित करते है । उदाहरणार्थ यह कहना कि उन्होंने फैली हुई हिंसावृत्ति को दूर करनेके लिए सर्वस्वका त्याग किया दीक्षा धारण की और उपदेश दिया । इत्यादि । क्यों कि इस कथनसे उनके दीक्षा धारण में परोपकार करनेकी सराग भावना मुख्यतया हेतु रूपसे व्यक्त होती है जो कि यथार्थ नहीं है। क्योंकि उन्होंने तो होता ही शात्म कल्याणके ही लिये ली थी तथा रागादिसे युक्त उपयोग तो बन्धका ही कारण है। और उनका उपयोग उससे सर्वथा रहित होता है। हां, यह कहा जा सकता है कि उनके उपदेशके कारण हमारा कल्याण हुआ, जगत् का कन्या हुआ और फैली हुई हिंसा वृत्ति दूर हुई। उनके उपदेशसे वे कार्य हुये यह कहना और इन कार्यों के लिये उन्होंने उपदेश किया यह कहना इन दोनोंमें आकाश पाताल जैसा अन्तर है । परोपकार की भावना यह ठीक हैं कि पुरुप बन्धका कारण है परन्तु इससे वन्धकी कारण रूप उनकी अवस्था ही तो सिद्ध होती है जो कि आगम युक्ति और अनुभव सर्वथा विरुद्ध है । यही कारण है कि इस तरहके भ्रमका परिहार करनेकेलिये आचार्यने यहांपर यह कहदिया है कि भगवान्का जो शासन उपदेश प्रवृत होता है उसमें न तो किसी तरहका अपना ही ख्याति लाभ पूज्यता आदि प्रयोजन निमित्त हैं और न रागादिके द्वारा - परोपकारादिकी भावनाएं ही वह प्रवृत हुआ करता है। ध्यान रहे कि इसीलिये अरिहन्त भगवानको निर्दय कहा गया हैं। क्यों
वे वीतराग होनेके कारण परोपकारकी सराग भावना- दयासे रहित हैं जैसा कि पहिले भी कहा जा चुका है। उनकी दिव्यध्वनि होनेमें कारण भव्य श्रोताओं के भाग्य के निमित्तकी विवशता और उनके तीर्थरूर प्रकृति आदिके उदयरूप नियति के कारण उनकी किसी भी तरहकी इच्छा के विना ही वचन योगकी प्रवृत्तिका होना है अतएव वे उपदेश करते हैं— देते हैं इस तरहका वचन कोई कहता है तो उसका अर्थ यहीं समझना चाहिये कि उनसे उनके शरीरसे कर्मोदय यश तथा संस्कारवश४ और श्रोताओंके भाग्यवश - दिव्य ध्वनिका निग हुआ करता है। वस्तुतः निश्चय नयसे वे उसके कर्त्ता नहीं हैं। इसलिये श्राचार्यने कारिकाके उत्तरार्ध में मासिक जड़ हाथथापके निमित्तका और उससे होनेवाली जड मृदंगकी ध्वनिका अर्थान्तरन्यासके द्वारा उल्लेख कर दिया है । अथवा इस जगह कीचक जातिके वांससे होनेवाल शब्द का भी उदाहरण दिया जा सकता है मतलब इतना ही हैं और यही हैं कि निचांकी प्रबलतासे उनके उपदेश दिन ध्वनिरूप बचनकी तथा तन्निमित्तक वचनयोगकी आदभूनि होजाती है किंतु वे उसको उत्पन्न नहीं करते ।
ग्रन्थकर्त्ता की इस उक्ति से आगमको उत्पासके विषय में जो अनेक तरहकी मिथ्या मान्यताएं प्रचलित हैं उन सबका निराकरण हो जाता है ।
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१- स्वयंभू स्तोत्र । २ -- ठाणगिसंज्जविहारा धम्मुबदेसो य विदमा तेसिं । प्र० सा० ॥ ३- तीर्थकर सुरवर आदि । ४ - तीर्थकर कर्म बन्ध के समय उत्पन्न हुई तीर्थकृत्य भावना का संस्कार । यथा धन ध. १-२ ।। ५ – भविभागनि वच जोगे बशाय, तुम धुनि सुनि मन विभ्रम नशाय ।। ६- कीचका वेणवस्ते
स्वनन्त्यनिलोद्धताः ।।
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रत्नकरण्ड श्रावकाचार
इस अवसर पर यह बात भी ध्यान में रखनी चाहिये कि आम भगवान्की सर्वज्ञता और भागशिता दोनों ही बातोंका गत कारिका संयुक्त वर्णन किया गया है। उसमें अनेक सार्थक विशेषयों से युक्त सर्वज्ञ ही शास्ता कहा गया है। एव सर्वत्र और शारता दोनों को ही परस्परमें विशे
विशेष माना कहा जा सकता है। और इसीलिये सर्वज्ञ तथा उनके ज्ञानकी तरह देहली-दीपकन्यायसे दोनोंके मध्य में निक्षिप्त अनादिमध्यान्तताका सम्बन्ध भी सार्व शास्ता और उनके शासन आगमेशित्व से भी जुड़ जाता है। ऐसा कहना श्रयुक्त भी नहीं है | विचार करनेपर युक्त ही मालुम होता है। क्योंकि तीर्थकरों की तरह उनका तीर्थ भी प्रवाह रूपसे धनादिमध्यान्त ही है ।
इस तरह सम्यग्दर्शन विषयभूत प्राप्त आगम और तपोभुत में से प्रथम निर्दिष्ट आप्त के स्वरूप का वार कारिकाओं के द्वारा मिथ्या मान्यताओंका निरसन करने वाला और यथार्थ स्वरूप का बोध कराने वाला वर्णन पूर्ण करके अब ग्रन्थकर्ता थाचार्य दूसरे विषय आगम के वर्णन का प्रारम्भ करते हैं
प्राप्तोपज्ञमनुल्लंघ्य, मदृष्टेष्ट विरोधकम् ।
तत्त्वोपदेशकृत् सार्व, शास्त्रं कापथघट्टनम् ॥ ६॥
अर्थ – प्राप्त परमेष्ठी भगवान् जिसके मूल यक्ता हैं, जो किसी भी द्वारा उल्लंघन करने योग्य नहीं हैं, जो दृष्ट- इन्द्रियों द्वारा ग्रहण करने योग्य तथा इष्ट अनुमेय विषयका विरोधी नहीं है-ऐन्द्रिय प्रत्यक्ष और अनुमान से जानने योग्य विषयके साथ जिसके कथनका कोई विरोध नहीं पडता, जो तत्त्वस्वरूप का प्रतिपादक है, और जो प्राणिमात्रके लिये हितकर तथा कुमार्गका खण्डन करने वाला हैं उसको शास्त्र समझना चाहिये ।
प्रयोजन1- ऊपर यह बताया जा चुका है कि संसारके दुःखों से छुटाकर संसारातीत परमोत्तम सुख रूपमें जीवको परिवर्तित करदेने वाला धर्म रात्रयात्मक है- सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्ररूप है । सम्यग्दर्शन के विषय भाप्त आगम और तपोभृत हैं। इनमें से भारतके स्वरूपका वर्णन ऊपर किया जा चुका है। उसके बाद क्रमानुसार आगनका और वर्णन करना न्याय प्राप्त हैं। अतः एव इस कारिका के द्वारा उसके यथार्थ स्वरूपका निर्देश किया गया है। यह ती एक प्रयोजन है ही ।
इसके सिवाय कुछ और भी प्रयोजन हैं । - श्राजकल इस भरत क्षेत्रमें हुँडावसि कालकी अनेक विशेषताएं ऐसी बताई गई हैं
काल प्रवर्तमान है, आगन में इस
१-~~असंख्यात कल्पकाल के जन्म में हुएडापसर्पिणा काल आता है। देखो त्रिलोक प्राप्ति गाया १६१५ | किन्तु चर्चासमाधान (भूधरदास जी ) चर्चा नॅ० १६८ के उत्तर में लिखा है कि दशाध्याय व सू० अ० १-१ की चनककीर्ति (१) ने भाषा टीका में लिखा है कि १४८ चौबीसी के बाद १ हुंडक और इतने ही इंडक के बाद त्रिरहकाल आता है । यथा एक्कसया श्रडियाला, चौबोसि गया यहांत हुंडकं । लेतिय हुंड गमाई | विरहकालो होदि मोच्खस्स ।
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चंद्रिका टीका नौवां लोक
जो कि सामान्यरूप से सदा चलने वाले किसी भी अवसर्पिणी काल में नहीं पाई जातीं । यथा— तीसरे ही कालके कुछ अन्तिम भाग में वर्षा आदिका होना, विकलेन्द्रियों की उत्पत्ति, कल्पवृक्षों का अन्त होकर कर्म भूमिका व्यापार, इसी समय में तीर्थकर एवं चक्रवर्तीका उत्पन्न होजाना । चक्रवतीला मानभंग, थोडेले ही जीवों को निर्वाण प्राप्ति, ब्राह्मणसृष्टि, शलाका पुरुषों की संख्या में न्यूनता, नारद रुद्रकी उत्पत्ति, तीर्थकरोंपर उपसर्ग, चाण्डालादि जातियों तथा कल्की उपकल्कियों का उत्पन्न होना आदि । जिस तरह ये सब हुण्डावसविणी कालकी विशेषताएं हैं उसी तरह इस कालकी एक सबसे बड़ी विशेषता यह भी है कि इस कालमें अनेक प्रकार के द्रव्यरूप मिध्याथर्मो की भी प्रादुभूति होजाया करती है।
इस अवस्था में प्राणीमात्रके हितकी सद्भावना से ग्रन्थप्रणयन में प्रवृत आचार्यके लिये यह आवश्यक हो जाता है कि मुमुद जीव भ्रम में न पडजांय अथवा विपरीत मार्गका थाय लेकर अन्यायको प्राप्त न होजांय, इसके लिये अपसिद्धान्तोंका निरसन करने और ससिद्धान्त के वास्तविक स्वरूपका परिज्ञान कराने वाला उपदेश दें यहीं कारण हैं कि परमकारुणिक भगवान समन्तभद्र स्वामीने भी यहां पर आगम का स्वरूप इसी तरह से बताया है ।
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प्रकृत कारिका में आगम- शास्त्र अथवा शासन के जितने भी विशेषण हैं वे सब इसी उपर्युक्त प्रयोजनको सिद्ध करते हैं। यद्यपि यह प्रयोजन एक विशेषण "कापथघट्टनम् " से भी सिद्ध हो सकता है; तथापि यह विशेषण तो सामान्यतया आगम के निषेधाकरे स्वभावको प्रकट करता है । और पाकी विशेषण विशेषरूप से "क्षत्रिया आयाताः सूरथमपि " इस कहावत के अनुसार कुछ विशिष्ट अपमान्यताओं का निरसन करने वाले हैं। उदाहरणार्थ श्रागमके विषयमें लोगों जो स्वरूपविपर्यास, फल विपर्यास, भेदाभेदविपर्यास, विषय विपर्यास आदि अनेक तरहके विपर्यास बैठे हुए हैं उन सबका ये विशेषण परिवार करते हैं। इसी तरह और भी अनेक प्रयोजन हैं जिनको कि दृष्टि में रखकर ग्रन्थकर्त्ता ने आगमके लक्षण का प्रतिपादन करनेवाली इस attarai निर्माण किया हैं ।
शब्दों का सामान्य विशेष अर्थ
प्राप्त शब्दका अर्थ स्वयं ग्रन्थकर्ताने कारिका नं० ५ के द्वारा वतादिया हैं और उसका मी यास्थान किया जा चुका है । उपज्ञशब्दका अर्थ किसी भी विषयक मूल ज्ञाना या कथन करनेवाला है। उक्तलचणवाले आप्तपरमेष्ठी की दिव्यध्वनिको सुनकर जो ज्ञान प्राप्त होता है उसका प्रवाह गुणघरदेव आदिके द्वारा सामान्यतया तब तक प्रवृत्त रहता हैं जबतक कि उसी तरह के लक्षण से युक्त दूसरे आके आप्तरूप तीर्थकर परमेष्ठी उत्पन्न नहीं हो जाते। यह
सामान्य प्रवाह की अपेक्षा से है, विशेषतया कारण वश इसमें विच्छेद भी हो जाया
१- देखो हुंडावसर्पिणी के विशेष कार्यों के बताने वाले प्रकरण में शिलाक प्राप्तिका गाथा नः १६२६, २-योंकि वस्तुका स्वभाव विधिनिषेधात्मक है और इसीलिये ग्रन्थ कर्ता कभी विधिमुखेन कभी निषेध सुन और कभी उभयमुखेन कथन किया करते हैं।.
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रत्नकरएडभावकाचार करता है। अस्तु इस तरह से प्रत्येक सर्वज्ञ तीर्थकर अपने २ समयके आगम का उपज्ञ है।
आजकल इस भरत क्षेत्र में जो श्रागम प्रवत्त मान है उसके उपन्न श्री वर्धमान भगवान् हैं ! इनर्क पहले श्री ऋपभादिक अपने २ समयके आगमके उपज्ञ हुए हैं। यह कथन इस अयसर्पिणी काल की अपेक्षा से समझना चाहिये । इनके भी महले भूतकालीन तीर्थकर और श्रागे भविष्य तीर्थकर उपन हुए हैं और होंगे। इस तरह सामान्यतया प्रवाह की अपेचा आगम द्रव्याधिक नयमे अनाधान्त है । परन्तु पर्यायाधिक नय की अपेक्षा ब्रही श्रागम तसत् तीर्थकरोंकी उपज्ञताकी दृष्टि से सादि और सान्त भी है। यह कथन स्याद्वादसरणी के सनुसार अविरुद्ध और सत्य है । किन्तु जो म्यादाद को नहीं मानते उन एकान्तवादियोंका कथन सन्युक्तिपूर्ण नहीं माना जा सकता। यही कारण है कि "प्राप्तोषज्ञ" इस विशेषण के द्वारा बरूप विषा सके. मूलभूत उस एकान्तवाद का निरसन हो जाता है जिसके द्वारा "बंद" आदि की अनादिता का एकान्ततः समर्थन किया जाता है । क्योकि न तो उनका भून वक्ता आप्त है और न कोई कथन सर्वथा अनादि अकृत्रिम अनुत्पम हो ही सकता है।
अनुलंब्य--२ ब्दका सामान्यतया अर्थ इतना ही है कि जो उल्लंघन करनेके योग्य न हो । किन्तु यहां पर विचारणीय बात यह है कि किसी भी प्रकारका कोई भी शासन क्यों न हो फिर चाहे वह लौकिक हो अथवा पारलौकिक तब तकं वास्तविक नहीं माना जा सकता या प्रादरणीय नहीं हो सकता जब तक कि उसके अनुकूल तथा प्रतिकूल प्रवृत्तिमें लाम और हानि नियत नहीं है । यह हानि लाभ की नियति दो प्रकार से हो सकती है । एक तो किसी भी तर क चल अपांग द्वारा, और दूसरी प्रवृति या स्वभाव अनुसार । लोकिक शासन पहले प्रकार में आता है और धार्मिक अथवा पारलौकिक के शासन दूसरे प्रकार के अन्तर्गत है। अत एष इस विशेषण का आशय यह हो जाता है कि स्वभाव से ही यह संसारी प्राणी इसलिये दुःखी है कि इस पागम के अनुसार वह प्रवृत्ति नहीं करता, उसका उल्लंघन करके चलता है। जो इसका उल्लंघन नहीं करता वह स्वयं ही अनेक अभ्युदयोंका पात्र बनजाता है। और जो उसके अनुसार ही सर्वथा एवं सर्वदा अपनी प्रवृति करता है वह अवश्य ही संसार के दुःखों से छूटकर परमनिःश्रेयस अवस्थाको प्राप्त कर लेता है। इस तरह से देखा जाय तो आगमकी सफलता उसकी अनुन्लंघ्यता है । और इसीलिये समझना चाहिये कि भगवान के उपदेश के
निर्वाण अधिक ! २–महापद्म आदि। ३ वेदो की अमादिला या अपं.रुपेयता और तत्सम्बन्धी हेतुओंकी निःसारता एवं अयुक्तताको जानने के लिये देखो वेदवाद, प्रमेयकमलमार्तण्डादे न्याय ग्रन्थ तथा मादिपुराण आदि। ४-दम विशेषणसे स्वरूप विपास और कारण विपर्यास दोनों का परिहार हो जाता है। ५- जैसाकि लौकिक कवियों का कहना है । यथा न च विद्विषादरः भारवी किरानाजुनीय।
"दण्डो हि केवलं लोकमिहामुत्र च रक्षति ।" . ---मियाष्टि जीव । -मुख्यतया औपशमिक या शायोपशामक सम्यग्दृष्टि श्रापक या मुनि या सपना दयलिंगी भाभक अथवा मनि । -तायिक सम्यग्दष्टि श्रावक मुनि ।
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पद्रिका टीका नौवां श्लोकफलदान सम्बन्ध में जो अनेक प्रकार की विप्रतिपत्नियां संभव है उन सबका इस "अनुन्लव्य विशेषण के द्वारा परिहार हो जाता है।
अदृष्टेष्ट विरोधक-इस का भी सामान्य अर्थ प्रारम्भ में लिखा जा चुका है। किन्तु इसका समास या निर्वचन अनेक तरह से किया गया है । सदनुसार इस शब्द के अर्थ मी अनेक प्रकार के ही हो जाते हैं। संसपमें उन सबका पाशा शह है कि हम यागम के इष्ट विषयका न हो कोई विरोध कर ही सकता है और न अबतक कोई कर ही सका है । अथवा इसमें कोई भी इष्टका विरोध करने वाला विषय देखने में ही नहीं आता । यद्वा यह आगम दृष्ट-इन्द्रियगोचर तथा इष्ट-अभिलषित एवं अनुमेय विषयों का विरोध नहीं करता। __यह तो सभी समझ सकते हैं कि पृष्ट और इष्ट दोनों ही स्वतन्त्र विषय हैं। जी हष्ट विषय है वे इष्ट भी हो सकते हैं और अनिष्ट भी। इसी तरह जो इष्ट विषय हैं वे दृष्ट भी हो सकते हैं और अदृष्य भी। यही कारण है कि ग्रन्थकारने दोनों का ही उल्लेख किया है। फिर भी विवेकियोंको चाहिये कि वे औचित्य से ही काम लें और विचारें कि क्या सभी दृष्ट और इष्ट विषय ऐसे हैं कि जिनका आगम विरोध नहीं करता ? विचार करने पर उन्हें मालूम होगा कि सर्वथा ऐसा नहीं है। दृष्ट विषयों में भी जो निन्ध हैं सावध हैं अन्याय पूर्ण हैं उन सबका आगम सर्वथा विरोध करता है। इसी तरह जो अदृष्ट हैं वे सभी आदेय है ऐसा भी आगम प्रतिपादन नहीं करता। स्योंकि नरक गति अथवा निगोदादि तिर्यग्गति अथवा कुत्सित मनुष्य पर्याय एवं देवतिको भागममें पापका कार्य बताकर हेय ही बताया है...-उसका विरोध ही किया है। फलतास वाक्यका अर्थ इस तरह करना चाहिये कि जो विषय दृष्ट होकर भी इष्ट हैं-पुण्यरूप है. शुमोपयोग रूप होकर पुएबंध के कारण है उनका आगम विरोध नहीं करता।
दूसरी बात यहहै कि किसी विषयका विरोध न करना अथवा किसी विषयका समर्थन करना ये दोनों ही वात भिन्न भिन्न है । दृष्ट और इष्ट विषय का आगम विरोध नहीं करता, इतना कहदेने पर भी यह नहीं मालूम होता कि आगमका वास्तपमें मुख्य विषय क्या है ? यद्यपि इस जिज्ञासा का समाधान "सचोपदेशकृत" विशेषण से होता है। परन्तु "दृष्टशविरोधी विशेषण से आगमके फलके सम्बन्ध में जो एकान्त अथवा भेदाभेद विपर्यास पाया जाता है उसका निरासं होता है। क्योंकि आगम के प्रतिपाद्य धर्मका फल क्या है इस विषय में लोगोंकी मिक र मान्यताएं हैं। कोई २ शरीरादि सम्पत्तिका अथवा पंचेन्द्रियोंके भौगोपमोगरूप विषयों का लाभ ही धर्म का फल मानते हैं। और कोई २ परम निःश्रेयसपदका लाम ही धर्मका फल है और यही भागमप्रतिपाय विषय है, ऐसा प्रतिपादन करते हैं । किन्तु दोनों ही एकान्तरूप कपन १. प्रेरितो गच्छेत्स्वर्ग पा श्वभ्रमेष वा' । अथवा तुष्टाः प्रयन्ति च राज्यमेते । यदा सोश तोवरका
उपदेश सुनकर भी जीव मिध्यादृष्टि बना रहता है। इत्यादि अनेक ताहको मिथ्या मान्यताएं। ....२-देको सिद्धांत शास्त्री पं गौरीलालजी की मुद्रित टिप्पणियां । रलकरएट श्रावकाचार पृ० सोला। ३-विवेकपूर्णबुद्धिसे । 'औचित्यमेकमेकन गुणानो राशिरेतः । विषायते गुणमाम औचित्य परिवर्जितः ०प०
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रत्नकरएसनावकाचार प्रमाणभूत नही है दोनोंमें मत्री भाव ही धर्म है और नहीं मार तिवृषिका मार्ग है । क्योंकि उस व्यवहार मार्ग रूप धर्मका आश्रय लिये बिना जोकि ऐहिक अभ्युदयों का भी साधन है, निश्चय धमकी सिद्धि नहीं हो सकती ! और निश्चय को छोडकर केवल व्यवहार धर्म से प्रारमसिद्धिका लाभ नहीं। यह निश्चय धर्म की सिद्धि में साधन होने से और पुण्यसम्पत्तिका कारण होने से धर्मरूप में मान्य अवश्य है ।
पुण्य सम्पत्ति दो भागों में विभक्त की जा सकती है एक तो दृष्ट मनुष्यादि पर्यायसे सम्बन्धित राजाधिराज मण्डलेश्वर महामण्डलेश्वर नारायण बलभद्र चक्रवर्ती तीर्थकर अथवा गणधर कामदप आदिका पद या तत्सम्बद्ध विषय । दूसरे अदृष्ट--भोगभूमि, एवं स्वर्गो के पद और उनके सचित भषित भोगोपभोगरूप मनोहर विषय ! निश्चय धर्म इन फलोंका विरोधी नहीं है | किन्तु इसका अर्थ यह भी नहीं है कि ये उसके वास्तविक फल हैं । वास्तव में तो निश्चय धर्म के सहचारी अथवा कचिन उसके साहचर्यस रहित रूपमभी पाये जानेवाले शुभोपयोग रूप परिणामों और तदनुकुल आधुचियोंके फल हैं। फिर भी जिसका फल दृए और इष्ट विषयों का लाभ है ऐसे शुभोपयोगरूप धर्म का निश्चयधम विरोधी नहीं है। इसी बातको "अदृष्टेष्टविरोधकं" विशेषण स्पष्ट करता है
और फल विप्रतिपत्तिके साथ साथ इस सम्बन्ध की ऐकान्तिक अपमान्यतामोंका खएहन करके निश्चय और व्यवहार धर्म की मत्री रूपताको सिद्ध करता है। ___ सत्योपदेशकृत्-भाव और भाववान दोनोंका प्रहण हैं। और कोई भी वाक्य विना प्राधार एक अपने अर्थक विषयमें यथावर निश्वय नहीं करा सकता । अस हम इस वाक्यका अर्थ यह होता है कि जिनेन्द्र भगवान्का शासन ही ऐसा है जो कि वस्तु और उसके स्वरूपका ठीक २ निश्चय करा सकता है। साथ ही यह कि जिनन्द्र भगवान के शासन को छोडकर अन्य जितनेभी शासन हैं वे तत्त्वका उपदेश नहीं करते। अत एव उनका विषय और वे स्वयं अतवरूप ही हैं-अवास्तरिक है। विशेषणका फल इतरख्याधुचि होता है। अत एव इस विशेषणके द्वारा उन सभी शासनोंकी अतवरूपता बता कर हेयता प्रगट करदी गई है।
तस्य भावस्तत्वम्" इस निरुक्ति के अनुसार और क्योंकि ततशब्द सर्वनाम है अत एक नत्वशब्द सभी विवक्षित पदार्थों के भावको सूचित करता है । जहाँ जो पदार्थ विवदित हो उसी के भावको यह शब्द व्यक्त करदेता है । आगममें यद्यपि सभी जीवादि पदार्थ वशिव है फिर मी उन सबमें जीय द्रव्य मुख्य मानागया है और उसी को प्रधानतया उपादेय मानकर वर्णन का लक्ष्य बनाया गया है । अत एव अन्य तत्रोंकी अपेक्षा जीवका सच यहां पर मुरूपतया समझना चाहिये आगममें उसके पांच भेद बताये हैं-औदपिक,चायिक,मायोपशमिक औपशमिक और पारणामिक । जो कि स्वतच नामसे कहे गये हैं।
भाव और भाववान में कथंचित् भव्यतिरेक होनेके कारण तन्वशब्द से जीयादिसात सख -मीपशमिकशायिकी भावौ मिभश्य जीवस्य स्वतरणमौवकिपारिणामिकी "त. सू०२-१
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धौद्रिका टीका दशवा श्लोक कुछ लोगोंकी समझ है कि नम दिगम्बर जिन मुद्रा का में शाप्तोरन शासन का पालन प्रयोजनीभृत नहीं है। क्योंकि उसके बिना भी केवल आत्मध्यानसे ही क्रों की निर्जरा, संसार की निवृत्ति और निर्वाण की प्राप्ति हो सकती है क्योंकि कर्मोका बन्ध और मोक्ष अपने परिवामॉपर निर्भर है अतएव इस तरह के तपश्चरण की आवश्यकता नहीं है ।
इस तरह सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान को ही आत्मसिद्धिका माधन मानकर जो तपश्च. रस को अनावश्यक समझते हैं उनको भी वह बताने के लिए कि तपश्चरण के बिना न तो श्रेयोमार्ग ही सिद्ध हो सकता है और न निवागण हा प्राप्त हो सकता है। माथही जो जिनशासनके अनुसार मोक्ष मार्गका पालन अशक्य समझ रहे है उनको यह स्पष्ट करने के लिए जैनागममें जो कुछ वर्लन किया गया है उसका न तो अनुष्ठान अशक्य है और न प्रयोजन ही अनिष्ट है। इस कारिका के द्वारा नपस्त्रीका स्वरूप बनाकर जैनागम के प्रतिपाद्य विषय श्रेयोमार्ग की शक्यानुष्ठानता एवं इष्ट फलवत्ता प्रकट करना कारिकाका प्रयोजन है क्योंकि इस कारिकामें जो तपस्वीका स्वरूप बताया गया है, वह जैनागमके सम्पूर्ण वर्णन का मुनिमान सार ही है। प्रथा जिस समीचीन धर्मका इस ग्रन्थ में वर्णन किया जायगा नपस्वी उसके साक्षात पिंड ही है। मानो वे मूर्तिमान रखत्रय ही हैं। सम्पूर्ण जैनागमकी सफलता भी तपस्वितापर ही निर्भर है। यह बात दृष्टि में प्रासके यह इस कारिकाके निर्माण का प्रयोजन है।
शब्दार्थ-विपयसे मतलय पंचेन्द्रियोंके इष्टानिष्ट बुद्धि सरागभावपूर्वक सेव्य या असेन्य समझे जानेवाले विषयोंसे है, १ क्योंकि किसी भी विषयका चाहे वह ऐन्द्रिय हो अथवा अनीन्द्रिय ज्ञान होना न तो हेय ही है और न हानिकारक ही । शान तो आत्माका निज स्वभाव है, वाह तो छोड़ा नहीं जा सकता। और न वह छुट ही सकता है। वास्तव में छोड़ी जानी है उन विषयोंमें रागद्वेषकी भावना। अतएव कहागया है कि विषयोंकी भाशाके वशमें नहीं है।
इन्द्रियों पांच है। उनके द्वारा जो ग्रहण करने में आते हैं ३ विषय सामान्यतया पांच हैं किंत विशेषतया सत्ताईस हैं। पांच रूप, पांच रस, दो गंध, आठ स्मश और सात स्वर । एक अनिन्द्रिय-मनफे विषयको भी यदि सामिल किया जाय तो अट्ठाईस विषय होते हैं । इनमेंसे जिनको इष्ट समझता है उनको संसारी प्राणी सेवन करना चाहता है और उन्हें प्राप्त करना चाहता है मत: उन विषयोंके सेवन करने और तदर्थ प्राप्त करनेकी जो आकांक्षा होती है वही संसार है और नही दुखोंका मूल है। जो जीव इस विषयाशासे अनुवासिन हैं । इसके अधीन बने हुए हैं हो भनभ्रमण भीर तन्जनित समस्त दुःखोंके पात्र बने हुए हैं । इसके विपरीत जो इस विषयाशा रुप करायवासनाके अधीन नहीं रहे हैं। जिन्होंने इस आशाको अपने अधीन बना लिगा बेत मोषमागी हैं। इसी अभिप्रायको दृष्टिमें रखकर कदागया है कि१- मनोसामनोज्ञेन्द्रियविषयरागद्वेषवर्जनानि पंच" तस्वार्थसूत्र ।
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राष्ट्रभावका बार
अवध्यताकी भावनाको पैदा करनेवाली जिन भगवान की देशनामें ही वास्तवमें सर्व हितकारिया निहित है। यही कारण है कि जैनेतर विद्वान् भी इस घातको जाहिर कर चुके हैं कि अन्यस्थानों में जो अहिंसा या दया का कुछ भी स्वरूप दिखाई पड़ता है वह वास्तवमें जैनशासनकी ही छाप है। उसीकी देन है।
शास्त्र - से मतलव लिपिबद्ध ग्रन्थों का नहीं अपितु उपदेश रूप उस शासनसे है जो कि तीन जगत्के जीवोंके हितके लिये स्वयं ही विना किसी इच्छा के ही तीर्थकर प्रकृति और भव्य श्रोताओं भाग्यवश प्रवृत्त हुआ करता है !
कापथपट्टनम् - संसारकै कारण भूगूणस्वरूप धर्म को सापक हैं। गवान् का शासन इस मार्गका निरसन करता हैं। यह भी इसकी एक विशेषता है।
तात्पर्य -- सम्यग्दर्शन के विषयभूत जिस श्रागमके स्वरूपका इस कारिकाके द्वारा प्रतिषादन किया गया है, उसकी अनेक असाधारणताओंका आचार्यने वह विशेषण देकर दिग्दर्शन करा दिया है। प्रत्येक विशेषणका संक्षेपमें ऊपर अर्थ और आशय लिखा जा चुका है। यहां सब मे प्रथम तो यह बात ध्यान में देनेकी हैं कि आचार्य ने पहले तो धर्म के स्वरूपका वर्णन करते हुए उसके तीन विषयों में एक सम्पज्ञानका उल्ल ेख करके मिथ्याज्ञानों का वार और दिया और अब सम्पदर्शन विषयका वर्णन करते हुवे श्रागम शब्दका उल्लेख करके सम्यग्ज्ञ नकंभी अनेक भेदों में से विशिष्ट सम्यग्ज्ञानका बोध करा रहे हैं। क्योंकि आगम शब्दसे उसी सम्यग्ज्ञानका ग्रहण करना है जो कि आप्तवाक्यनिबन्धन है। प्राप्त के वाक्य सुनकर जो अर्थज्ञान होता है उसी को भागम कहते हैं । प्राप्तका स्वरूप बताया जा चुका है। उनके उपदेशको सुनकर अर्थका अवधारण कर गणथर देव पुनः उपदेश देकर अर्थ का अवधारण अन्य गणधरों या सामान्य श्राचायों आदि की कराते हैं। इस प्रकारके जो यंत्र तक आप्त वाक्यों को सुनकर होनेवाले ज्ञान की परम्परा चली आ रही है उस परम्परीय ज्ञानका ही नाम है आगम ।
अन्य भी अनेक भागम आजकल लोकमें प्रसिद्ध हैं। उन सबसे जैनागममें क्या २ असाधारा विशेषताए हैं इसका बोध कराने के लिए आचार्यने धाम के यहां यह विशेषण दिये हैं। जिनके कि द्वारा स्वरूप विपर्यास तथा फल विप्रतिपत्तियाँ आदिका निराकरण होकर उसकी निर्वाध सत्पता और जीवमात्र के लिये हितकरता स्पष्टतया सिद्ध होती है ।
दूसरी बात यह कि आगम में कथा - प्रतिपाय विषय की निरूपणा विषय भेदके अनुसार चार भागों में विभक्त की गई है । भाचेपिसी विशेषिणी संवेजिनी और निर्वेजिनी २ | विचार करनेपर मालुम होता है कि इस कारिकामें भी भागमकी इन चार कथाओंोंकी तरफ आचार्य ने दृष्टि रखी है। जैसा कि शास्त्र शासन के दिये गये विशेषयों से प्रतीत होता है।
१- स्व० बालगंगाधर तिलककी "राम० वैदिक सम्प्रदायपर अहिंसाकी छाप जैनधर्म की है" इत्यादि० २– नापिणी कर्या कुर्यामाक्षाः स्वमतसं । विशेपणी कर्मा नः कुर्यादुमंत नि । ॥ २३५ ॥
जिम कर्जा पुर्या फलसम्पत्प्रपंचने । निर्मेजिनीं कथां कुर्याम्यजनन प्रति ॥ २३६ ॥ आ०पु०प०
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चौद्रका टीका नौवां झोक कारिकाके पूर्वागत अनुलंघ्य विशेषण से नि] जिनी, अदृष्टेष्ट विशेषण से संप्रेजिनी और उपसर्थगत तत्वोपदेचकर विशेषण से प्रक्षेपिणी और कापथघटनम् से विक्षेपिणी कथाका दोष होता है।
आप्तोपज्ञ कहनेसे आगमकी स्वतःप्रमाणता व्यक्त होती है। यही कारण है कि सम्यग्दृष्टि जीव जिनोक्त विषयमें सर्वथा प्रामाण्यका श्रद्धान रखता है यदि उसके समझमें कोई आगम की बात नहीं पाती तो मी उसको वह प्रमाण ही मानता है। क्यों कि वह समझता है कि विषय सूक्ष्म हैं । मेरी बुद्धि पाल्य है जिनेन्द्र मागवान सर्वल और निर्दोष वीतराग हैं, वे अन्यथा प्रतिपादन कर नहीं सकते । अतएव आगमोक्त विषय सर्वथा सत्य और प्रमाणभूत ही है।
इसके सिवाय यहां जितने विशेषण दिये उनमें पूरब के हेतु और उत्तरोत्तरको हेतुमानर मान कर अर्थकी यथावद पटना कर लेना चाहिये । यथा-क्यों कि जैन शासन आप्तोपज्ञ है अतएव अनुवंध्य है। उसको सर्वथा प्रमाण न माननेसे अथवा उसके विरुद्ध चलने से दर्शनमोहनीय कर्म का बन्ध होता है और चतुर्गतियों में पंच परिवर्तन की परम्परा चालू रहने के कारण अनेक बाप और परिताप भोगने पड़ते हैं। अतएव इसका उल्लघन करना भयकर मिथ्यात्व है। इसी सरह अनुष्य होनेके कारण ही वह अदृष्टेष्टविरोधक भी है । क्यों कि इसका उल्लंघन करने वाला ही जीच दृष्टेष्ट विषयों से वंचित हुआ करता अथवा रक्षा करता हैं। इन उपर्युक्त कारणों सेही वह तत्वों का वास्तविक निहाण करनेवाला है। और इसीलिए प्राणीमात्र को वह हितमें लगाता और कापथ से उन्हें बचाता है।
यदया इस कारिका के प्रारम्भमें कहे गये चार विशेषणों से क्रमसे चार अनुयोगों३ का भी सम्बन्ध पटित कर लेना चाहिये ।
मालुम होता है कि भगवान जिनसेन स्वामीने भी इसके महत्व को दृष्टिमें लेकर ही जैन शासनको नमस्कार करते हुए४ इस कारिका में दिये गये विशेषणों से मिलते जुलते ही विशेषणों का प्रयोग कर उसकी महिमा बताई है । यथा-आसोपझं = जैन, अनुलंध्यं और अदृष्टेष्टविरोधक
अजय्यमाहात्म्यं, तच्चोपदेशक - मुक्तिलक्ष्म्ये कशासनम् । सार्वम् - उभासि, कापथमनम -विशासितकशासनम् ।
इसीतरह अन्य प्राचार्योंने भी जैनागमकी इन्ही गुणों के कारण स्थान २ परं महिमा गाई है। जोकि सर्वथा युक्त ही है । क्यों कि जैनागम ही संसार में एक ऐसा आगम है जो कि मिभ्या रसूक्ष्मम् जिनोदितं तस्वं हेतुमिव हन्यते । आशासिद्ध तु तद्नाम नान्यथा वाखिनो जनाः ॥ पुरु २-प्रभारन्द्र भाचार्य की संस्कृत टीकामे पूर्व २ को तुमान और उत्तरातर को हेतु बताया है। वर्धा बार भनोपज्ञ इसलिये है कि वह मनुष्य है । और क्यों कि वह अरष्टष्ट विरोधक हैं अव्यय अनुलंय ki इत्यादि। इस तरहसे भी हेतु हेतुमदुमाव पटिन होला है । ३-प्रथमानुशग, करणानुयोग, परणा
योग ओर च्यानुयोग । ४-जयत्यजय्य मावास्यं विशासितकुशासनम् । शासन नमुभासि मुक्ति लपम्यकशासनम् ॥ आदि ।
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रनकराা
और समीचीन सभी तत्वों की यथार्थता को निष्पक्ष रूपसे प्रकाशित कर जीवोंको अहिससे बचा कर सम्पूर्ण शास्वत निर्वाध सुखको प्राप्त करानेवाले वास्तविक मार्ग को बताता – दिखाता है । अब क्रमानुसार सम्यग्दर्शनके विषयभूत तपस्वी- गुरुका लक्षण या स्वरूप बताते हैं।--विषयाशावशातीतो निरारम्भोऽपरिग्रहः ।
A
ज्ञानध्यानतपोरक्तस्तपस्वी, स प्रशस्यते ॥ १० ॥
अध— जो विषयोंके याशा के आधीन नहीं है । जो असि मसी आदि जीविका के उपायभूत प्रारम्भ से रहित है जो अन्तरंग तथा बाथ किसी भी परिग्रहसे युक्त नहीं है और जो शन ध्यान तथा रूपमें अनुरक्त है वहीं तपस्वी प्रशंसनीय है। सच्चा तरोभूत् साधु-अनगारपुनि वही है ।
प्रयोजन - श्रागम में उसकी प्रामाणिकता और उपादेयता को स्पष्ट करने के लिए चार बातों पर विचार किया गया है । सम्बन्ध श्रभिधेय शब्दानुष्ठान और हष्ट प्रयोजन। जिसमें यह चार बाते नहीं पाई जाती ऐसा कोई भी शास्त्र न तो प्रमाण ही माना जा सकता और न उपादेय ही । जिसका कथन पूर्वापर सम्बन्धरहित है वह उन्मभवचन के समान है। वह प्रमाथ नहीं माना जा सकता। इसी तरह जिसका कोई वाच्यार्थ ही नहीं है। वह भी आदरयी किस तरह हो सकता है। एवं जिस उपदेश का पालन नहीं हो सकता । अथवा जिसका पालन तो हो सकता हो परन्तु प्रयोजन अभीष्ट न हो वह भी मान्य और उपादेप किस तरह हो सकता है । फलतः किसी भी कथन की प्रमाणता और आदरणीयता इन चार नावों पर निर्भर है।
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प्राप्त भगवान के जिस आगमका ऊपर वर्णन किया गया है वह इन चारों ही दोप रहित है । वह पूर्वापर विरुद्ध या असम्बद्ध नहीं है और न वाच्यार्थ हीन ही है । इसी तरह उसमें जिस विषयका वर्णन किया गया है वह अशक्य अथवा अनिष्ट प्रयोजन हो सो यह बात भी नहीं है।
अज्ञान अथवा तीव्र मोहके उदयके वशीभूत प्राणियों में इस तरह की शंकाऐं पायी जाती हैं कि जिनेन्द्र भगवान ने जिस श्रेयोमागका वर्णन किया है उसका पालन शक्य नहीं है। वह अत्यन्त दुर्धर क्रिष्ट और संक्रिष्ट है अतएव उसका यथावत पालन नहीं हो सकता। खासकर इस दुःपम कालमें जब कि नम दिगम्बर जिन मुद्रा के धारा पालन में अनेक अंतरंग बहिरंग कठिनाइयां पाई जाती हैं। अतएव इस तरह के वर्णन या आगमको अशक्यानुष्ठान संझना चाहिये ।
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१ -- रक्त: की जगह रत्नः भी पाठ पाया जाता है अर्थात् ज्ञानान और तप ही है रत्न जिसके । २--इशदाडिमादित्रम् - शशडिम नदी घोड़ा आदमी शक आदि की तरह असम्बद्ध प्रखाप | ३- बन्ध्यासुटो याति खपुष्पकृतशेखरः । इत्यादिषन् । ४-अपने घर में प्रकाश बनाए रखनेके लिए चन्द्रमा को लाने की उम्देश की तरह। 2- सवा स
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चक टीका दशा लोक
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कुछ लोगोंकी समझ हैं कि नम दिगम्बर जिन मुद्रा का में आनोपज्ञ शासन का पालन प्रयोजनीभूत नहीं है। क्योंकि उसके बिना भी केवल ध्यानसे ही कर्मों की निजश, संसार की निवृचि और निर्वाण की प्राप्ति हो सकती है क्यों कि कर्मका बन्ध और मोक्ष अपने परिखामपर निर्भर है अतएव इस तरह के तपश्चरण की आवश्यकता नहीं है ।
इस तरह सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान को ही आत्मसिद्धिका साधन मानकर जो तपश्चरण को अनावश्यक समझते हैं उनको भी वह बताने के लिए कि तपश्चरण के बिना न तो श्रेयोमार्ग श्री सिद्ध हो सकता है और न निर्वाण हा प्राप्त हो सकता है । साथही जो जिनशासन के अनुसार मोक्ष मार्गका पालन अशक्य समझ रहे हैं उनको यह स्पष्ट करने के लिए जैनागममें जो कुछ बर्सन किया गया है उसका न तो अनुष्ठान अशक्य हैं और न प्रयोजन ही अनिष्ट है। इस कारिका के द्वारा तपस्वीका स्वरूप बताकर जैनागम के प्रतिपाद्य विषय श्रेयोमार्ग की शक्या नुष्ठानता एवं इष्ट फलवत्ता प्रकट करना कारिकाका प्रयोजन हैं क्योंकि इस कारिकामें जो तपस्वी का स्वरूप बताया गया है, वह जैनागम के सम्पूर्ण वर्णन का मूर्तिमान सार ही है। अबरा freehtata aar इस ग्रन्थ में वर्णन किया जायगा तपस्वी उसके साक्षात पिंड ही हैं। मानो मूर्तिमानस्य ही हैं। सम्पूर्ण जैनागमकी सफलता भी तपस्वितावर ही निर्भर है। यह बात दृष्टि सके यह इस कारिकाके निर्माण का प्रयोजन है।
शब्दार्थ - विषय मतलव पंचेन्द्रियोंके इष्टानिष्ट बुद्धि सरागभावपूर्वक सेव्य या असेन्य समझे जानेवाले विषयोंसे हैं, १ क्योंकि किसी भी विपयका चाहे वह ऐन्द्रिय हो अथवा अनीन्द्रिय ज्ञान होना न तो हेय ही है और न हानिकारक ही । ज्ञान तो आत्माका निज स्वभाव है, वह तो छोड़ा नहीं जा सकता। और न वह छूट हो सकता हैं। वास्तवमें छोड़ी जाती है उन विषय में रागद्वेषको भावना । अतएव कहा गया है कि विषयोंकी आशाकं वशमें नहीं हैं।
इन्द्रियां पांच हैं। उनके द्वारा जो ग्रहण करने में आते हैं के विषय सामान्यतया पांच हैं किंतु विशेषतया सचाईस है। पांच रूप, पांच रस, दो गंध, आठ स्पर्श और सात स्वर । एक अनिन्द्रिय-- मनके विषय को भी यदि सामिल किया जाय तो अड्डाईस विषय होते हैं। इनमेंसे जिनको इष्ट समझता है उनको संसारी प्राणी सेवन करना चाहता हैं और उन्हें प्राप्त करना चाहता है। फलतः उन विषयोंके सेवन करने और तदर्थ प्राप्त करनेकी जो आकांक्षा होती है वही संसार है और वही दुखोंका मूल है। जो जीव इस विषयाशासे अनुवासित हैं। इसके अधीन बने हुए हैं वे होम और तज्जनित समस्त दुःखोंके पात्र बने हुए हैं। इसके विपरीत जो इस विपाशा रूप कामवासना अधीन नहीं रहे हैं। जिन्होंने इस आशाको अपने अधीन बना लिया वे मोक्षमार्गी हैं। इसी अभिप्रायको दृष्टिमें रखकर कहा गया है कि-
१ – मनोशा मनांचेन्द्रियविषथरागद्वेषवर्जनानि च" तस्वार्थसूत्र ।
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रत्नकरभावकाचार
श्राशाया ये दासाः ते दासाः सन्ति सर्वलोकस्य ।
याशा येषां दासी तेषां दासोऽखिलो लोक १ ॥ जो भव्य भवभ्रमणसे भयभीत होकर उससे सर्वथा मुक्त होना चाहते हैं उनको सबसे प्रथम इन विषयों की अधीनतासे मुक्त होना चाहिये । इसी बातकी स्पष्ट करनेके लिये मोक्षमार्गका रजत्रयस्प धर्मका सर्वथा साधन करनेवाले तपस्वियोंको सबसे प्रथम विपयाशावशातीत होना चाहिये यह कहागया है। ... पांचों ही इन्द्रियोंके अवलम्बनसे अपने नियत विषयका क्रमसे अहम होता है। अतएच अवलम्बन और उनके नियत विषयके भेदकी अपेक्षा विषयके मूल में पांच भेद होते है जिनके उपर भेद सचाईस, और मनके विषयको भी सामिल करनेपर २८ भेद बताये गये हैं इनकी, रागवे वश होकर आशा करना-अप्राप्तमें प्राप्तिकी, और प्राप्तमें वियोग न होनेकी जो श्राकांक्षा लगी रहती है. उससे यह जीच न करने योग्य कर्मोको करने लिये भी विवश बना रहता है अतएव इस विमशताफा छूट जाना मोबमागमें चलनेकेलिये पहला माधन है ।
ज्ञानकी अपेक्षाको सारण करके उन चिपयोंके सेवनकी दृष्टि से इन्हीं विषयोंको दो भागोंमें विभक्त कियागया है।---भोग और उपभोग । जो एक ही बार भोगने प्रावें उन्हें भोग और जो वारवार भोगनेमें आवें उन्हें उपभोग कहते हैं । ऐसा स्वयं ग्रन्थकार आगे चलकर बताने वाले हैं।
इन इन्द्रिय विषयोंको भोगोपभोग संज्ञा इसलिये दी गई है कि इनके अहपके साथ२ रागपूर्वक इनके सेवन करनेकी आशाका भाव पाया जाता है जो कि कर्म बन्ध और संसारका कारण है । जो इसपे रहित है -कदाचित निम्न दशामें उस कषायसे युक्त होते हुए भी उसको हेय समझ उसका निग्रह करनेमें प्रवृत्त है, प्रतएव जो उसके आधीन नहीं, अपितु उस कपायको ही जिन्होंने अपने अधीन करलिया है, उस कषायको निर्मूल करनेकेलिये संकल्प होकर साफनामें प्रवृत्त है वे ही साधु परमेष्ट्री वास्तवमें गुरु हैं-मृतिमान रलत्रय धर्म है-अन्य मुमुक्षुओंके लिये मोक्षमार्गके श्राराधनमें आदर्श हैं।
निरारम्भः----विषयों की आशाक वशीभूत प्राणी उन्द विषयोंका संग्रह करने के लिये अनेक तरहके आरम्भ में प्रवृत्त होता है । असि मषि कृषि आदि जी भी इसके लिये व्यापार करता है उसमें सावधताका सम्बन्धमी अवश्य रहा करता है । द्रव्य हिंसा या भावहिंसा अथवा दोनोंका या भूठ नोरी आदिका किसी न विसी प्रमाण में सम्बन्ध आये विना नहीं रहता। अतएक जो विषयोंकी आशा ही छोड चुका है वह इन सावध कर्मोमें प्रवृत्ति करना भी क्यों पसन्द३ करेंगा। अताएब जी विषयों को प्राशाको छोडकर उनका संचय भी नहीं करता, संग्रह करने के -गही बात गुणभद्राचार्यने आत्मानुशासनमें भी अनेक तरहसे स्पष्ट की है। --"क्दसमिदिकपायाणं देवाण तहिदिवाण पंचगणं धारणपालणगिग्गाहवागजओ संजमो भपिदे गो० जी०
नाति र शाखा ।
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द्रिका टीका दसवां श्लोक लिये किसी भी तरहका व्यापार उद्योग थन्या मादि बिलकुल नहीं करता उसकी बहते हैं निराग्भः :
अपरिग्रहः--श्रारम्भ-उद्योग धन्या आदि न करके भी जो अपने पास उन विषयों और उनके साधनोंको-- वस्त्र, भूपण, रुपया, मकान, जमीन, वाहन, सोना, चांदी भादि को रखता है उसको कहते हैं परिग्रहीं । इस करहके समस्त परिपइसे जो रहित है उसका करतं हैं अपरिग्रह । ___ ज्ञानध्यानतपोरक्तः–यों तो ज्ञानका अर्थ जानना मात्र है। और रागह पसे रहित होकर यदि किसी भी विषयको जाना जाय तो सत्यत: उससे किसी तरहका पाप अथवा कर्मबन्य होता भी नहीं है। अन्यथा केवली भी उससे मुल न हो सकेंगे। फिर भी यहां ज्ञानसे मतलव निरन्तर श्रुतका अभ्यास करते रहनसे है । क्योंकि मोदमार्गीको उसीसे मावश्यक एवं उप-- योगी तन्त्र प्राप्त हो सकते है जैसा कि कहा भी है कि
सदर्शनवासमुहहप्यन्मनःप्रसादास्तममा लवित्री भवन परं ब्रा भजन्तु शन्दननाजमं निस्पं मथात्मनीनाः ॥३--१अन । तथा चामुर्भट्टाकलंकदेवाः ।
धुनादर्थभनेकान्तमविगम्यामिसन्धिभिः। परीक्ष्य तारतांस्तद्धमाननकान व्यावहारिकान ।। नयानुगत निक्षेपेरुपायझेदवेदने । विरचय्यार्थबाक प्रत्ययात्मभेदान् श्रुताप्तिान ॥ अनुयुज्यानुयोगश्च निदशादिभिदांगतः। द्रव्याणि जीवादीन्यात्माविशताभिनिवेशतः ॥ जीवस्थानगुणस्थानमार्गणास्थानतश्ववित् । तपोनिजी विमायं विमुक्तः मुखमृच्छति ॥
अन०प० पृ०१६॥ ज्ञानकी स्थिर अवस्थाका नाम ध्यान है। कोई भी ज्ञान यदि अन्त में हरी तक अपने विषयपर स्थिर रहना है तो उसको कहते हैं ध्यान । भागममें ध्यानके चार भेद पसाय है-भात, रौद्र, धर्म
और शुक्ल। इनमें मम लिये अन्तिम दो ध्यान ही उपादेय हैं। ध्यानका तत्र विशेषरूप से जाननेकी इच्छा रखनेवालाको ज्ञानाच, यशस्विनका मादिपुराण, भावसंग्रह आदि अन्य देखने चाहिये। ___तप-कोकी कलिय मन इन्द्रिय और शरीरक मलेप्रकार निरोधको कहते है पर जिस नरह किट कालिमाले युक्त सुवर्श पाषाणको शोधनविधिके अनुसार अग्निमें ससने प्रादि प्रयोग करनेपर सम्पूर्ण दीप निकलकर सुवर्ण शुद्ध होजाता है । उसी तरह जिस प्रयोग के द्वारा कर्मकलंक दूर होकर झलकर आत्मा निर्दोष शुद्ध बन जाता है उसीको कहते हैं
प । इसमें मन इन्द्रियों और शरीरका समीचीनतया-विधिपूर्वक निरोध करना आवश्यक है। १--येनौशेन 'तु शान सेनांशेनास्य बंधनं नास्ति । येनांशेन तु रागस्तनशिलास्य बंधनं भवति । पुरा *--मनिरहितवीर्यस्य कायक्लेशस्तपः स्मृतं । नराधमार्गाविरोधेन गुणाय गदितं जिनैः । अथवा अन्तहिर्मलाखोपादात्मनः शतिकार । शरी मान कर्म तपः प्राहस्तपोधनाः ॥ यशस्ति तथा देखो भनगारपर्मा
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रसमकरण्डश्रावकाचार
इस तपके मूलमें दो भेद हैं, बाल और अन्तरंग । इनमें भी प्रत्येकके बहर भेद हैं। यथा अनशन, श्रवमौदर्य वृतिपरिसंख्यान, रसपरित्याग, विविक्तशय्यासन और कायक्लेश | ये छ वा तपके भेद हैं। तथा प्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत्य, स्वाध्याय, व्युत्सर्ग और ध्यान गे छह अन्तरंग तपके भेद हैं ।
अथवा तपका अर्थ समाधि करना चाहिये। ध्यानकी पुनः २ प्रवृत्ति अथवा अत्यन्त दृढ और अधिक कालतक स्थिर रहने वाली अवस्थाका नाम है समाधि । जैसाकि प्रायः श्रेण्याय के म सातिशय अप्रमत्त और शुक्रव्यानकी अवस्था में पाया जाता है।
इस प्रकार चार विशेषणों से जो युक्त हैं वही तपस्वी प्रशंसनीय हैं। यह प्रशंसा वास्तविक मोक्षमार्ग के आराधन की अपेक्षा से हैं। क्योंकि तन्यतः मोक्षमार्ग का साधन इन चार विशेषयों में से किसी भी एक के बिना नहीं हो सकता, चारों ही विषयों से जो युक्त है वही निर्माणका साधन करने वाला वास्तव में साधु माना जा सकता है। उसके लिये तपोमृत अथवा तपस्वी शब्दका जो प्रयोग किया है उसका कारण यह हैं कि आगम के अनुकूल चलने में यद्वा मोक्षमार्ग के साधन में तपश्चरण मुख्य है क्योंकि निर्वाणकी सिद्धि संदर और निर्जरा पूर्वक ही हो सकती हैं। इनमें से मुख्यतया संवर के कारण गुप्ति समिति धर्म अनुप्रेधा परीषदजय और बारित्र है । किन्तु तपश्चरण गौणतया संवर का कारण होकर भी मुख्यतया निर्जराका कारण है। अन मुमुच के लिये तपश्वरण प्रधान और आवश्यक हैं।
तात्पर्य --- श्री जिनेन्द्र भगवान के आगमका मुख्य ध्येय अथवा विषय मोक्षमार्ग है। इसका जो यथावत् पालन करते हैं उनकी ही साधु नियति अनगार आदि शब्दों से कहा है । उस मार्ग के पालन करने की तरतमरूप अवस्था भेद के अनुसार उनकी एलाक वकुश कुशील निर्गन्ध और स्नातक, अथवा ऋषि मुनि यति अनगार आदि संज्ञाएं कही गई हैं। फिर भी कमसे कम उनको कितना चारित्र पालन करना चाहिये इस घासको भी भागम में निश्चित कर दिया गया है। उतना पालन करने पर उनका चारित्र पूर्ण चारित्र की कोटि में गिनलिया गया है ।
आगम में इस चारित्र के निर्देश स्वामित्व यदि अनुयोगों का कथन करते हुए विधान के सम्बन्धमें एक दो तीन चार पांच संख्यात श्रसंख्यात और अनन्त भेद भी अपेक्षा मंदों के अनुसार बताये गये हैं। इनमें चार चार प्रकार का जो वर्णन है वह चार आराधनाओं की अपेक्षा अथवा इस कारिका में कहे गये चार विशेषखों के द्वारा विधिनिषेधात्मक चतु विभ आचरण की अपेक्षा समझना चाहिये | क्योंकि यहां पर तपस्वी के जो चार विशेषण दिये है उनमें से पूर्यार्थ में तीन त्याग या निषेधरूप और उत्तरार्ध में एक विधिरूप या कर्तव्यको बताने वाला
१--इनका विशेष अर्थ जानने के लिए देखो तस्थार्थसूत्र श्र० ६-४६ की टोकाए - सर्वार्थसिद्धि राज कार्तिक आदि । २-मूलाचारादिमें ।
- राजवार्तिक १- १४, यथा-- --" चतुर्धा चतुर्यमभेदात् । ४.... दर्शनाराधना, ज्ञानाराधना, चारित्राराधना
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Jaminakchadain-raminankrana
बौद्रिका टीको परा श्रीक है। तदनुसार साधुको विषय भोगों से सर्वथा विरक्त एवं अलिप्त और असंस्पृष्ट रहना चाहिये। साथ ही प्रारम्भ और परिग्रह से भी सर्वात्मना दूर ही रहना चाहिये उसको केवल ज्ञान ध्यान और तपमें ही अनुरक्त रहना चाहिये। ऐसा करने पर ही वह अपनी आत्माको परम मुक्त सिद्ध कर सकता है।
ध्यान रहे उत्तरार्थ में कही गई तीन बाते-बान ध्यान और तए ये उत्तरोत्तर उत्कृष्ट एवं साध्य हैं और पूर्वाध कहे गये तीन विषय उनके क्रमसे साधन हैं । यद्यपि इन तीन विशेषणोंसे प्रसाचर्याश्रमी गृहस्थ और पानप्रस्थाश्रमियोंसे चतुर्थाश्रमी इस तपस्वीका पृथककरण होजाता है। फिर भी जहांतक उस आश्रमके विशिष्ट कर्तव्यका बोध न कराया जाय तब तक शेष तीन श्राममासे पृथकसा बता देने मात्रसे प्रयोजनकी सिद्धि नहीं होती। अतएव चौथे विशेषणके द्वारा चतुर्थाश्रम मन्यासके असाधारण कर्तव्यका झान कराया गया है। क्योंकि इस भाश्रमको धारण करके भी उसकी सफलता बास्तबमें ज्ञान ध्यान और तपके ऊपर ही निर्भर है।
हो, पह ठीक है कि विषयाशाका परित्याग ज्ञानाम्यासमें, प्रारम्भका त्याग ध्यान और परिग्रहका असम्बन्ध तपश्चरणम कारण है। परन्तु विचार करने योग्य बात यह है कि ब्रह्माकथिममें ज्ञानाम्पास करने का जो उपदेश या विधान४ है वह साधारण है न कि असाधारण । स्था गृहस्थाश्रमियोंक भ्यान होना अत्यन्त कठिन और उच्चकोटिका तपश्चरण वीरचर्या मातापन योग आदि वानप्रस्थाश्रमियोंके लिये भी निषिद्ध हैं । अतएव पारिशेष्यात् साधुकेलिये ही इन तीनों विषयोंकी असाधारण योग्यता सिद्ध होती है। क्योंकि ये तीनों माश्रमों में पाई जाने वाली अटियोंसे सर्वथा उन्मुक्त हैं । ___ इस तरह सम्यग्दर्शनके लक्षणका विधान करमेवाली कारिका नं. ४ में श्रद्धानरम विपाके कर्म प्राप्त मागम और तपोभृका यहांतक स्वरूप बतायागया। अब क्रमानुसार उसी वक्षन विपाके विशेषणोंका वर्शन अवसर प्राप्त है। उनमें सबसे पहिला क्रिया विशेषण है "त्रिमहामोर" बतच उसीका वर्णन होना चाहिये । लेकिन भाचार्य पहले उसका वर्शन न करके सबसे अचम इसरे विशेषया "अष्टाङ्ग" का यहां वर्णन करते हैं।
ऐसा करनेका हमारी समझसे संभवतः कारण यह है तीन क्रिया विशेषों में पहला और तीसरा निषरत है और दूसरा उसके स्वरूपमा विधान करता है। अतएव सरूपाल्यान
अमन्तर ही विशिष्टनिषेयके योग्य विषयका बताना उचित एवं ठीक समझोगया हो। यथापि निकित आदि भी निषेधरूप हैं परन्तु ये दोषोंका निषेध करके गुणरूपताका विधान करते हैं।
अस्तु । नप यहां प्राचार्य सम्यग्दर्शन मथवा श्रद्धानके आठ अंगोंका वर्णन कर उसका स्वरूप असाते हैं। पाठ अंगोंमें मी चार निषेधरूप और चार विधिरूप हैं । पहिले चार निषेषरूप अंगों में से यहां सबसे प्रथम पहले निःशंकित अंगका वर्णन करते हैं।४.... देखो आदिपुराण । .....गृहाश्रमे नात्महितं प्रसिद्धर्थात । तथा "विकुलिका भवति सस्स ताका"
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रत्नकरसवश्रावकाचार
इदमेवेदृशमेव तत्वं नान्यन्नवान्यथा।
इत्यकम्पायसाम्भोवत् सन्मार्गेऽसंशया रुचिः ॥११॥ अर्थ-तच यही है, इसी प्रकारसे है, अन्य नहीं, अन्य प्रकारसे नहीं, इस प्रकारको सन्मार्ग-मोक्षमार्गके विषय में तलवारके पानीकी तरह जो निष्कम्प रुचि होती है वह असंशया कहाती है।
प्रयोजन--संसार और उसके दुखोंसे सर्वथा उन्मुक्त करनेवाला धर्म रतत्रयात्मक है। सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्ररूप है । इनमेंसे सम्यग्दर्शनका लक्षण और उसके विषयभूत आप्त श्रागम तपोभृतका स्वरूप ऊपर कहा जा चुका है। अब उस सम्यग्दशवका विशिष्ट स्वरूप बताना आवश्यक है । वस्तुका स्वरूप विधिनिषेधात्मकर है। और सम्यग्दर्शन की विधि अष्टांगरूप है । अतएव उनमेसे क्रमानुसार पहले अंगका स्वरूप बताकर सम्यग्दर्शनके विधिरूप प्रथम अंगका वर्णन करना ही इस कारिका का प्रयोजन है।
शब्दांका सामान्य विशेष अर्थ...इस कारिका प्रायः सभी शब्द ऐसे है जिनका अर्थ स्पष्ट है । अतएव इस विषयमें यहां लिखनेको आवश्यकता नहीं हैं । फिर भी कुछ शब्दोंके विषय में थोडासा स्पष्टीकरण करदेना उचित प्रतीत होता है । इदम्" शब्द आगमके वाच्य तत्त्व स्वरूप या निर्देशकी सरफ संकेत करता है । और एव शब्द अवधारणार्थक है जो कि तस्वस्वरूप के विषय में द निश्चयको बताता है।
ईश" शब्द सच्चके विशेष प्रकार और उसके आशय एवं अपेक्षाविशेषको सूचित करता है । इसके साथ भी एकशब्दका प्रयोग है । अतएव उस प्रकार और उसकी अपेचाके विषय में भी निश्चित दृढताको प्रकट करता है । न अन्यत् और न अन्यथा कहकर भिन्न स्वरूप तथा भिन्न प्रकार विशेष या भिन्न अपेक्षाका कारण किया गया है। क्योंकि वस्तुतत्त्व स्वास्माकं ग्रहण और परात्माके ल्यागरूप है । केवल स्वारमाके ग्रहण या केवल परात्माकं स्यागरूप कथनसे मिध्या एकान्तरूप होनेके कारण वस्तुके स्वरूपका ठीकर न तो बोध ही हो सकता है और न निश्चय ही। यही कारण है कि स्वात्माके ग्रहण और परात्माके निर्हरणरूपमें प्राचार्यने कहा कि-'सत्त्वक विषयमें इस तरहकी भावना होनेपर ही कि तत्त्व यही हे और इसी प्रकारसे है, न कि अन्य या अन्य प्रकारसे' रुचि अश्वा अद्धानमें निःशंकता मानी जा सकती है । निःर्शकतामें अकम्यता का रहना आवश्यक है। श्रद्धा अथवा प्रतातिमें चलिताचलित वृत्ति यदि पाई जाती है, तो वह अपने विषयमं अकम्म अथवा दृढ नहीं है यह सुनिश्चित है। क्योंकि जहां उभयकोटिका समान रूपसे ग्रहण होता है वही शंका-संदेह या संशय कहा अथवा माना जाता है। यही कारण है कि श्रद्धाको निःशंकताको सूचित करनेकेलिये ही "अक्षम्पा" यह विशेषण दिया है।
आयसाम्भोवत्---- कहकर जो दृष्टान्त दिया है उससे केवल साहित्यमें बतायागया अलंकार विशेष मूवित होता है इतना ही नहीं, अपितु अर्थ विशेषका स्पष्टीकरण भी होता है
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भाद्रका टीका ग्यारहवा मोक आयससे मतलप तलवार ही नहीं किंतु लोहेकी बनी हुई ऐसी किसी भी चीनसे जिसपर कि विशेषप्रकारसे पानी चढ़ायागया हो। फिर चाहे वह तलवार हो या छुरी चाक् कटार इंसिया पादिमें कुछ भी हो। इस दृष्टान्तस अभिप्राय तो इतना ही भूचित करनेका है कि जिस प्रकार वलवार आदि में चढाया हुआ पानी पर्याप्त चमकना है-चलचलाता है, जिससे ऐसा मालुम भी होता है कि वह चलायमान हो रहा है, परन्तु वह अपने स्थानसे रंचमात्र भी चलायमान नहीं होता। वह तो जहां जिसप्रमाण में जैसा भी है वहां उसी प्रमाणमें और वैसा ही रहा करता है
और वह अपना तेजी एवं शीघ्रताके साथ ठीकर कामभी किया ही करता है । सम्यग्दर्शन की यह निःशंकता ही सब से प्रथम अपने कार्यकी साधिका है, जैसा कि अंजन चोरके दृष्टान्तसे स्पष्ट होता है। निःशंक सम्यग्दर्शन ही संसार और उसके कारणोंका उच्छेदक हो सकता है। यदि श्रद्धा में कुछभी शंका बनी हुई है वो फिर चाहे कितना ही तरज्ञान क्यों न हो उससे अभीष्ट प्रयोजन सिद्ध नहीं हो सकता १ । यही बात इस अंगकी कथामें आये हुए माली की मनोति से सूचित होती है। अत एव तत्वज्ञान और सन्मार्ग-रसत्रयरूप मोल मार्ग के विपयकी श्रद्धा अफम्मता का रहना ही निःशंका है और वही सम्यग्दर्शन गुणवा सबसे पहला अंग है । जोकि कर्मशत्रुओं के छेदन में सम्यग्दर्शन रूपी तीक्ष्ण खनके लिये रख दक्षिणभुजाका काम किया करता है क्योंकि मोथरी तलवार और पिना दृहताके साय छोडे वह यथेष्ट काम नहीं कर सकती। ___ तात्पर्य-शंका मुख्यतया दो प्रकारको हुमा करती है; एक तो अज्ञान मूलफ और सरी दौर्वन्य मुलक । चलिताचलित प्रतीतिरूप संदेहको भी शंका कहते हैं और शंकाका अर्थ भयर मी होता है जिस में कि एक कारण दुर्पलता या मशक्ति है। जैसा कि भयसंज्ञाका सारूप पसात हर उसके चार कारणों में से एक "भीमसचीए३ " कहनेसे मालम होता है। भागममें कहा है कि
रूपैर्मर्यकरैक्पिह तुधान्तमुचिभिः।
___ जातु नापिकसम्यस्त्वो न धुम्पति मिनिरचलः ।। मतलब यह कि वापिक सम्यग्दृष्टी जीव इतना अधिक निश्चल भकम्प हुशा करता है कि पह कैसे भी भयंकर रूपको देख कर अथवा भनेक हेतु और दृष्टान्तोंसे अतस्वको पचित करनेवाले वाक्योंके द्वारा कदाचित् भी चलायमान नहीं होता।
सष्ट ही इस कथनमें श्रद्धाको चलायमानता के लिये दो कारण यतायेगये हैं। जिनमें से एक का सम्बन्थ दुर्बलता से और मरेका सम्बन्ध प्रज्ञानस है। साथ ही यह बात भी स्पष्ट है कि
१–तत्व हात रिपो रष्ट पात्रे च समुपस्थिते । यस्य वोलायस पर्श क्ति सोऽमुत्र ह ५॥ एकस्मिन मनसः कोणे पुसामुत्साहशालनाम् । अनायासेन समापात भुवनानि चतुर्दश ।। यशस्ति । २-शंका भीः साध्वसं भीतिः।। पंचा।
३–अयिभीमसणेणय तस्सुपजोगेण प्रोमसत्तीए । भयकम्मुदीरणाए भयमण्णा आयने पहिः।। जीका । |
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रलकरण्डांवकाचार इसतरहकी विनिश्चलता पहा शायिक सम्यक व में ही बताई है । जो कि विचार करनेपर ठीक ही मालुम होती है। क्योंकि सम्यग्दर्शनकी चलायमानता का सीधा सम्बन्ध यदि देखा जाय तो उस के प्रतिपक्षी कर्मों में से किसी भी एक या अनेकके अथवा उनमें से किसी के भी आंशिक उदय से है। सम्यग्दर्शन के तीन भेदामसे क्षायोपशामिक सम्यक्व में तो प्रतिपक्षी कर्मके उदयका सम्बन्ध पाया ही जाता है | और श्रोपशमिक लम्पक्य यधपि नायिकके समान ही स्वरूपात: निर्मल रहा करता है फिर भी वह कालकी श्रत्यल्पता और प्रतिपक्षी कोके अस्तित्व तथा बाय द्रव्यादिके निमितवश ही प्रतिपक्षी कोंके उदय या उदीणा की संभावना के कारण क्षाधिक सम्यक्त्वक समान विनिश्चल नहीं कहा या माना जा सकता । प्रायःकरके तो यह अपने अन्तमुहर्त कालको पूरा करने पहले ही अनन्तानुबन्धी कपायमसे किसी भी एक का उदय पाते ही अपने पद से गिर हो जाता है। फिर भी इस चलायमानता में उन काँके लिये सहकारी एवं सहचारी भाव अज्ञान और दोर्वल्य भी है । क्योंकि अन्तरंग इन भावों के रहने पर प्रतिपक्षी कर्म अपना फार्य डी सरलता और शीघ्रता लिा करने का एक बारतविक विनिमलता जी क्षायिक सम्यक्त्वमें संभव है वह अन्यत्र नहीं और इसी लिये निःशंक्ति अगकी वास्तवमें पूर्णता भी उसी अवस्था में संभव है ऐमा समझना चाहिये ।
कारिकाके पूर्वार्धम विनिश्चलता के आकारका उल्लेख है । और उस आकारको अत्यन्त - ताको बताने के लिये ही स्वात्माकं ग्रहण और परात्माके त्यागका भाव जिससे व्यक्त होता है इस तर से उसको बताया गया है। जिसका आशय यह है कि तत्व यही जो कि सर्वज्ञ वीतराग आप्त परमेष्ठी तीर्थकर भगवान्न कहा है, सत्य है; अन्य अनाप्त तीर्थकराभास छमस्थ सराग व्यक्तियों का कहा हुभा नहीं। तथा श्री तीथकर भगवान्ने जिस तरहसे जिस अभिप्रायसे जिसरूपमें जिस कारण से जिस लिये कहा है वही सत्य है अन्य प्रकार त अन्य अभिप्रायसे अन्य रूपमें अन्य कारणसे या अन्य फलकेलिये नहीं । मतलब यह कि जिनोक्त तत्व भी यदि अन्य प्रकार आदि से कहाजाय तो वह सत्य या प्रमाणभूत नहीं, तथा अन्योंका प्ररूपित नव यदि जिनोक्त प्रकार भादि से कहा जाय तो वह भी सस्य, प्रमाणभूत और आदरणीय, आचरणीय नहीं है । जिनेन्द्र भगवानन जिसका उपदेश दिया है तत्व वहीं सत्य है और यही मान्य है एवं पादरणीय है। साथ ही जिस ताह से उन्होन कहा है उसी तरहसे प्रमाण है उसी तरहसे हितकर है और उसी तरहसे पालनीय है । इस तरहकी विनिश्चला जिसमें पाई जाती है वही श्रद्धा निःशंक माननी चाहिये । सम्यग्दशन में इस तरह की दृढताका रहना ही उसका पहला निःशंकित अंग है।
तच और सन्मार्ग के विषयमें जब इतनी अकम्प और निःसन्देह श्रद्धा हुभा करती है तब अवश्य ही उसमें उसी प्रमाणमें निर्मलता भी रहे यह स्वाभाविक है । अत एव प्रकप्पतामा बर्ष
५-फर भी अपने अन्तर्मुहूर्त कालम क्षायिक समानही पूर्ण निमल रहनसे श्रीपशामक सम्यक्त्व भी उसी प्रकार अकम्प माना है । अतः झाधिकका मुख्या तथा उपलक्षण मानकर बीपशामक को भी उसी प्रकार समझना चाहिये।
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निर्भयता भी है। और इसीलिये सम्यग्दर्शन की निःशंकताका अर्थ भय और चलायमानता संदिग्ध प्रतीति इन दोनों से रहित ऐसा होता है और एसा ही समझना चाहिये ।
आगम में भय सात माने हैं जिनका कि आशय संक्षेपमें इस प्रकार हैं ।
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"मेरे इष्ट पदार्थो का वियोग न होजाय, अथवा अनिष्ट पदार्थों का संयोग न हो" इन प्रकार से इसी जन्म में जो निरंतर याकुलता बनी रहती हैं. उसको अथवा यह ऐश्वर्य यन सम्पति वैभव अधिकार आदि स्थिर रहेगा कि नहीं । कदाचित् यह सब नष्ट होकर मुझे दरिद्रता वो प्राप्त न होजायगी ।" इस तरह की आधि- मानसिक व्यथा चिन्ता जोकि जलती हुई चिनाके समा हृदयको दग्ध करती रहती हैं उसको कहते हैं। इहलोकभय । .
आगे होनेवाली सांसारिक पर्याय का नाम ही परलोक है। उसके विषय में "मेरा स्वर्ग में जन्म हो तो अच्छा अथवा कहीं मेरा किसी दुर्गनी में जन्न न हो जाय " इस तरह चित्तका मदा जो आकुलित, चिंतित - सकम्प या त्रस्त बने रहना इसको कहते हैं परलोक भयर :
atava कफ की पता होना अथवा भात उपधान मल उपमलों की प्रमाण या स्वरूपसे व्युति शरीर में जब होती है तब उसको कहते हैं - वेदना । इसके होनेसे पहले ही मोहोदय यश जो वित्तका व्याकुल रहना “मैं सदा निरोग रहूं, मुझे कभी भी कोई वेदना न हो" इस प्रकार से निरन्तर चिन्तित रहना अथवा मोहवश बुद्धिका मृति - आत्मस्वरूपमें बेहोश रहना वेदनामय है ।
वर्तमान पर्याय का नाश होने के पहलेही उसके विनाश की शंकापे और उसको सुरक्षित न रख सकने की भावनावश बौद्धों के क्षणिक बाद की तरह सर्व या आत्मनाशकी जो कल्पना होती हैं उनको कहते हैं श्रत्राण भय४ | मिध्यात्वके उदयसे जो सत का विनाश या असत की उत्पत्ति की बुद्धिमें मान्यता एकान्तिक भावना रहा करती है, जिससे अपने को सदा अरक्षित मानने के कारण सम्पता या व्याकुलता बनी रहती है उसको कहते हैं- अगुप्ति भयः । प्राणों के त्रियोग का नाम है मरण | सामान्यतया प्राण चार हैं । इन्द्रिय बल आयु और श्वासोच्छ्वास । यें अपनी निश्चित अवधि तक ही टिके रह सकते हैं। और उसके बाद इनका वियोग नियत है । परन्तु अज्ञानी जीव इनके वियोग से सदा डरता रहकर इस तरह विचार करता हुआ व्याकुल
१--हलोकतो भोतिः क्रन्दितं चात्र जन्मनि । दृष्टार्थस्। व्ययो माभून्माभून्मेऽनिष्ट संगमः ॥ ४८ ६ ।। स्थास्वती धनं नोवा देवान्मा भूहरिद्रता । इत्याशाधिश्चिता दग्धु' ज्वलिते वाऽगात्मनः ॥२०५॥ पंचाध्या गी० ॥ अ० २ अथवा साती भयोंके विषय में देखो परमाण्यात्म तरंगिणो अंक ६- २३-२८।। लोकः शास्वत एक एष इत्यादि। २--पंचाध्यायी अ० २-परलोकः परत्रात्मा भाविजन्मान्तरांशभाक । ततः कम्प इष ग्रासः भोतिः परजासोऽस्ति सा । भद्र मे जन्म स्वर्लोके माभून्मे जन्म दुर्गती । इत्यायाकुलितं चेतः साध्वसं पारलौकिकम् ॥ ।।११६-५१७।। ३-वेदनाऽऽगन्तुका बाधा मला कोपतम्तनी । भीतिः प्रागेवकल्पः स्यान्मोहाद्वा परिदेवनम् ||५६४|| उल्लाऽघोहं भविष्याम भामून्मे वेदना क्वचिद् । मूर्खेव वेदना भीतिश्चिन्तनं वा मुहुर्मुहुः ॥ ५२४॥। ४——– अत्राणं क्षणिककाले पक्षे चित्तणादिवत् । नाशात्मागं शनाशस्यत्रा तुमक्षमतात्मनः ॥ ५३१|| ५-६ माहस्योदयाबुद्धिर्यस्य चैकान्तवादिनी । तस्यैप्तिभीतिः स्यान्नूनं नान्यस्य काचित्५६६।।
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बना रहता है कि मेरा इनसे कभी वियोग न हो जाय मैं कभी मर न जाऊ मैं सदाही जीवित रहूँ। इसी को कहते हैं मभ्य भयः । वज्रपात अभिदाह, भूकम्प, समुद्र में डूबने हवाई जहाजक गिरने आदि आकस्मिक दुर्घटनाओंका विचार कर उससे मेरा कभी विनाश न हो मैं सदा ठीक और अच्छी स्था ही बना रहूँ इस प्रकार जो चिंतातुरता या भयातुरता बनी रहती है उसको कहते हैं - कम्मिक भयः ।
इन सातों ही भयों का सम्बन्ध जतिक अन्य श्रद्धा अज्ञान अथवा अनन्तानुबन्धी कमाय के उदय से बना हुआ है और इन कारणोंसे ही ये उत्पन्न होते है वहां तक तो ये सभी मिथ्या दृष्टि के ही संभव हैं न कि सम्यम्टष्टिके, क्यों कि वह इन कारणों से सर्वथा रहित हैं ।
सम्यग्दर्शन गुणकी चार अवस्थाएं पाई जाती हैं। शुद्ध, अशुद्ध, मिश्र और अनुमय । चौथे गुणस्थान से लेकर चौदहवे गुणस्थानतक और सिद्ध पर्याय में सम्यग्दर्शनकी शुद्ध अवस्था है । और प्रथम मिध्यात्व गुणस्थान में अशुद्ध अवस्था है। तीसरे गुणस्थानमें मिश्र तथा दूसरे गुणस्थान में अनुभव अवस्था है । अतएव निःशंकता भी इसके अनुसार ही समझनी चाहिये। असंयत सम्पन्ष्टष्टि के क्षायोपशमिक सम्यक्त्व रहने पर सम्यग्दर्शन का मूलमें घात नही होता । सम्यक्त्व कर्म प्रकृतिके उदयके कारण कुछ समलता ही संभव है। अतएव मूल में वह भी निःशंक ही रहा करता है। न तो उसकी तच्चप्रतीति ही चलायमान होती है और न उसमें भयवश ही किसी तरह की सम्पता आया करती हैं।
प्रश्न हो सकता हैं कि श्रेणिक महाराज क्षायिक असंयत सम्यग्दृष्टि थे उनको वह कौनसा म था जिसके कि कारण उन्होंने अपना घात कर लिया १ मिध्यादृष्टि के पाये जानेवाले इन सात भर्यो में क्या उनके कोई भी भय नहीं था ? यदि नही था तो इसका क्या कारण है ?
उत्तर --- मिथ्यादृष्टि के जिस तरहका और जो भय पाया जाता है उस तरहका और वह भय श्रेणिक महाराज के नहीं था। जब उनके वे कारण ही नहीं रहे तब उनके उस तरह की कमाय और उसका कार्य भी किस तरह पाया जा सकता है। वास्तव में बात यह है कि सम्यक्त्व होनेके पहले उनके जो नरक आयुका वन्ध हो गया था उसके उदय का काल निकट आ जानेसे उनके इस तरह के परिणाम हुए तथा जिनसे कि संभावित पीड़ा सहन न कर सकने की मानसिक दुर्ब
बाकी भावना उत्पन्न हुई और उससे बचने के लिए उपायान्तर को न देखकर श्रप्रत्यारूपानानरम क्रोध तीवोदयवश उस तरह की प्रवृत्ति हुई। ध्यान रहे-नरक में जानेके पूर्व प्रायः इसी तरह की कोई न कोई घटना होही जाया करती है। अरविंद का अपनी छुरीसेही वध हुआ । लक्ष्मण चाहते तो तलाश कर सकते थे अथवा स्वयं जाकर भी देख सकते थे कि रामचन्द्र की मृत्यु हो
६ - मृत्युः प्राणात्ययः प्राणाः कार्यवागिद्वियम् मनः । निश्वासोवासमायुश्च दशैते वाक्यविस्तराम||१३|| तद्भीतिर्जीवितं भूयान्मा भून्मे मरणम् क्वचित्। कदा लेभे नवा देवादिव्याधिः स्वे तनुष्यये । ५४०|| ७ - अकस्माज्जातमित्युचैरा करिमकभयं स्मृतम् । तथवा विशुदादीनां पातानुपात सुधारिणाम् ५४३॥ भीतिभु याद्यथा सोध्यं मामूद दौरां वापि ये । इत्येषं मानसी चिंता पर्याकुलितचेतसाम् २४४॥
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चंद्रिका टीका ग्यारड्यो श्रीफ गई या नही परन्तु पैसा न कर मोह एवं अनन्तानुबन्धी तीन राग के वश पच्चीस* वर्ष आयुको कम कर अन्तको प्राप्त हो मेधाभूमि में पहुँच गये। श्रेणिक महाराजके अनन्तानुबन्धी के उदय वश वह भावना नहीं हुई । यही कारण है कि वे प्रथम रत्न प्रभाके मध्यम पटल मही उत्पन्न हुए उनकी किसी तच्च या तान्दिक मोक्ष मार्गके विषय में प्रतीति चलायमान नहीं हुई। यह घटना तो वेदना की असल भावना के साथ साथ अप्रत्याख्यानावरण क्रोध द्वारा होनेवाले रौद्र' ध्यान के परिणाम स्वरूप प्रथया पीडा. चितवन नामक आध्यानवशर यह घटना हुई ऐसा समझना भाहिये ! मालुम होता है कि उन्होंने आत्मघात किया नहीं अपितु उनका प्रात्मघात हो गया। क्यों कि उनका किसीने वध किपा नही और स्वाभाविक रूपमे भी मरण हुआ नही । चायिक सम्यक्त्व के कारण मोह और अनन्तानुवन्धी के उदयसे होनेवाला श्रात्मघात भी संभव नहीं। फलतः कारण कलाप पर विचार करनेसे यही समझमें आता है और उचित प्रतीत होता है कि उन्होंने आत्मघात किया नही किंतु तलवार पर गिर घुम जानसे उनका स्त्रयही पात हो गया। अथवा यह मोह और अनन्तानुवन्धी निमित्तक आत्मघात नहीं था। क्यों कि ऊपर जिन सात भयोंका उल्लेख किया गया है वे यदि सम्यक्त्व विरोधिनी कर्म प्रऋतियोंके उदयवश होने हैं तो ही ये सम्यक्त्व बोधक या थातक हो सकते है और नियमसे मान जा सकते है।
यह बात सुनिश्चित है कि श्रेणिक के सम्यक्त्व में इस घटना से कोई अन्तर नही पडा । उनका सम्यक्त्व तो तदवस्थ ही रहा और उसीका यह परिणाम हुआ कि उनके उतना तीव्र दुर्ध्यान नहीं हो सका जिससे कि वे नीचे की भूमिमें से किसी में उत्पन्न हो जाते । सम्पकत्व की अपस्थिति तद्वस्थ रहनेका ही यह परिणाम हुआ कि ३३ सागर की नरकायु से घटकर ८४ हजार वर्ष प्रमाण रह जाने के बाद पुनः उसमें कुछ भी उत्कर्षण नहीं हुआ या नहीं हो सका। अतएव स्पष्ट है कि उनके जो भी दुर्ध्यान हूमा बह मिथ्यान्य या अनन्तानुबन्धी निमित्तक नहीं अपितु अप्रत्याख्यानावरण निमित्तक ही था। अथवा तत्सहचारी५ नरकायुका यह परिणाम समझना चाहिये जिसके कि उदय का समय आ चुका था। क्यों कि श्रेणिक की भुज्यमान मनुष्य मायुका प्रमाण कुल ८४ वर्प था और उस समय पूर्ण हो रहा था। आगे उदयमें आनेवाली
*-देखो पद्मचरित सर्ग ११६ श्लोक ४८, ४६, ५० १.-"पचत्तु हे सहि रुदझाणि, पाचे सहि तुहं पाणावसाणि" । प्राकृत श्रेणिक चरित्र पृष्ठ ६८ ! २--वितक्त्य सिधारामाम् पपातातितमानसः । भृतिमा (स.) क्षणाधन अणिको निरयंगतः ||४|| भट्टारक शुभचंद्र कृत श्रोणिक चरित्र । पृष्ट ४ा ३-टिप्पणो नं० २ में जो 'पपात' किया है उसका अर्थ गिर एटना होता है। न कि “शिर मार लेना जैसा कि इसके हिन्दी अनुवाद में पं० गजाधरलालजीने लिखा है कि 'इस प्रकार अपने मनमें अतिशय दुखी हो शीघही तलवार की धारपर शिर माग' बिना किसी दुर्घटना के । ५-अप्रत्याख्यानावरण सहचारी। ६. महावीर जिन मेरी आयु फेता है गणधर कहो भाय ॥२२॥ गगथर बोलय सुणि राजाण, वर्ष बाहचरी जिननी आण (आयु) 1.वरस चौरासी थाहग आम (आयु) तिणमें बीता बरस पचास ||शा......... बौरासी बरस पूरण धया, कौमिकराय काटनेगया! ४० च० हिंदी।
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रत्नकरण्ड श्रावकांचार
के अनुसार कोकादिक परिणामों का पमान आयुके अन्तमें हो जाना
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नरकादिक स्वाभाविक है ।
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सम्यग्दर्शन के विषय मुख्यतया चार है श्राप्त, आगम, गुरु और तत्र वा धर्म | निशंकित अंगके भी ये ही विषय हैं। फिर भी यहां पर इनमेंसे भी मुख्य विषय देवको मानना चाहिये | आचार्य सोमदेव ने कहा हैं कि "देववादी परीक्षेत पश्चाद वचनक्रमम् ११ । पहले देव की परीक्षा करनी चाहिये पीछे उनके वचन की । देव पूजा आदिके पाठ से भी ऐसाही मालुम होता है कि सम्यक्त्व के लिए जिनभक्ति, सम्पज्ञान के लिए श्रुतभक्ति और सम्पकचारित्र के लिए गुरुभक्ति मुख्य कारण है २ । और यह बात उचित तथा युक्तियुक्त एवं अनुभव में भी आने वाली है। क्योंकि आग आदिकी प्रमाणता एवं यथार्थ सफलता आदि उसके वक्त की यथाfar और प्रमाणता पर ही निर्भर हैं। वक्ता यदि सर्वज्ञ और वीतराग है तो उसके बचन भी प्रभाग माने जा सकते हैं और उसके अनुसार चलनेवाले के विषय में भी निःसंदेह और निशंक कहा जा सकता है कि यह वास्तविक हितरूप फलको अवश्य ही प्राप्त करेगा ।
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अतएव आयतनों में अथवा सप्त क्षेत्रों आदि में जिन प्रतिमाकीही मुख्यता समझनी चाहिये यही कारण है कि जिन चैत्यालय रहित गृहर और ग्राम आदि धर्म की पात्रता तथा निरन्तर धर्म कार्यों के प्रवर्तन की योग्यता के कारण हेय अर्थात् श्रनार्य क्षेत्र के तुल्य४ माने जा सकते हैं। वरों में अथवा ग्राम श्रादिमें कितने ही सत्शास्त्र विराजमान रहैं – सरस्वती भंडार आदिभी क्यों न रहे फिर भी गृहस्थ श्रावकों का मुख्य कर्तव्य जो कि अभिषेक पूजा आदि है जिन थालय के विना सिद्ध नहीं हो सकता है | यह श्रावक का घर है अथवा इस ग्राममें श्रावक निवास करते हैं इस बातका सहसा और स्पष्ट परिज्ञान जैसा जिन प्रतिमा या मन्दिरसे हो सकता है साथ भंडारों से नहीं । अन्थसंग्रह तो श्रजैनों में भी पाया जा सकता है । अतएव सम्यग्दर्शनका अनावरण सम्बन्ध देव-यास परष्ठी - जिन भगवान से हैं ऐसा समझना चाहिये।
इस तरह आगमका भूल वक्ता होने के कारण थोर तीर्थका प्रवर्तक होनेके कारण तथा गुरुओं का भी परमगुरु- मार्गदर्शक होनेके कारण सबसे प्रथम देवकें विषयमें और उसके बाद किंतु साथ ही आगम गुरु तथा तरच स्वरूप में भी सम्यग्दृष्टि अडिग रहा करता है; उसकी
१- देवमादौ परीक्षेत पश्चात्तदूषचनक्रमं । ततश्च तनुधानं कुर्यात्तत्र मतिं ततः ||१|| येऽविचार्य पुनरुचितद्वचि कुर्वते । तेऽन्धास्तत्र कन्यविन्यस्तहस्ताञ्छन्ति सद्गतिम् ॥२॥ पित्रोः शुद्धौ यथाऽपत्ये विशुद्धिरि दृश्यते । तथाप्तस्य विशुद्धये भवेदागमशुद्धता ॥३॥ यशस्तिलक आ० ६-३ ॥ २ - जिनेभन्तिर्जिनभक्तिर्जिने भक्ति: सदास्तु मे । सम्यक्त्वमेव संसारकारणम् मोक्ष कारणम् । श्रुते भक्तिः श्रुते भक्तिः ते भक्तिः सदास्तु मे । सञ्ज्ञानमेत्र संसार वारणम् मोक्षकारणम ॥ गुरोभक्तिः चारित्रमेत्र संस्कृत देवशास्त्रगुरुपूजा पाठ ३-४ देखो सागार धर्मामृत
५- दाणं पूजा भुक्खो सारयाण धम्भो । 'कुन्दकुन्द रथणसार ।
६ - प्रतिष्ठायात्रादिज्यतिकरशुभ स्वैरचरणस्फुरद्धर्मोद्धषं प्रसररसपूरास्तरजसः । कथं स्युः सागाराः श्रमण धर्माश्रमपदम् न यत्र दुर्गम् दलित कलिलोलाविवासित । सा० ध
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चाद्रका टाका बारह्या साक प्रतीति चलायमान नहीं हुआ करती । यही सम्यग्दर्शनका सबस पहिला निःशंकनामा अंग है। इसका वर्णन करके अब क्रमानुसार दूसरे निःशंक अंगका वर्णन करते हैं।
कर्मपरतशे सान्ते दुःखैान्तरितोदये ।
पापवीजे सुखनास्था श्रद्धानाकांक्षणा स्मृता ॥१२॥ अर्थ जो कमौके परवश हं, अन्तसहित हैं, जिसका उदय दुःखोंसे अन्तरित ई-घिरामा है मिश्रित है, एवं जो पाप वीज है जिसको शपकी संगलि पलगी मधला जिवार नीज पाप है पापसे उत्पन्न हुआ है ऐसे मुसमें अनास्था, यास्थाका न होना, न रहना, न पाया जाना श्रद्धाका-सम्यग्दर्शनका दूसरा निष्कांक्ष नास्का गुण है।
प्रशोजन--आत्मद्रव्यको मूलमें दो अवस्थाएं है । एक अशुद्ध दूसरी शुद्ध । जब तक वह पुद्गलद्रव्यसे आबद्ध हैं तब तक अशुद्ध है उसकी जितनी अवान्तर अवस्थाएं होती है वे भी सब अशुद्ध ही होती है । इसीको संसार कहते हैं । यह दो तरहका हुआ करता है। अनाद्यनन्त और अनादिसान्त । कर्म बन्धनसे जो सर्वेशा रहित-मुक्त होजाते हैं वे शुद्ध हैं । उनकी जितनी अवान्तर अवस्थाएं होती है ये सब शुद्ध ही हुश्रा करती हैं। यह शुद्ध अवस्था साधनन्त है। जिनकी संसार अवस्था छूट कर शुद्ध अवस्था होगई है अथवा अवश्य ही होने वाली है उन केवलियों या सम्यग्दृष्टियोंकी संसार अवस्था अनादिसान्त कही जाती है। जर जिसका लक्ष्य अपनी शुद्ध अवस्थापर पहुँच जाता है तब वह उसीको प्राप्त करना चाहता है उसका ध्येय अपनी शुद्ध समीचीन अवस्था प्राप्त करना ही बन जाता है। अतएव उसको सम्यग्दृष्टि कहा गया है । इस दृष्टिकोणका ही नाम सम्यकदर्शन है । इसके होजानेपर जोर गुण या उस दृष्टि कोणमें असाधारमनाएं प्रकट होती है वे ही यहां बाठ अंगोंके नामसे बताये गये हैं। जिनसे परले निःशंकित अंगका वर्णन गत कारिकामें किया गया है । जिसका आशय यह है कि शुद्ध उसकी श्रद्धा बुद्धि जिनेन्द्रभगवान् द्वारा प्ररूपित आत्माकी अवस्था और उसके उपायके विषय में चलायमान नहीं हुआ करती । जिस तरह संशयरूप शान अप्रमाण है-समीचीन विषयका ही ग्राहक न होने के कारण उससे अभीष्ट प्रयोजन सिद्ध नहीं हो सकता उसी तरह संशयरूप श्रद्धार से भी अभीष्ट फल सिद्ध नहीं हो सकता।
सम्यग्दर्शनके विषयमें यह बात समझलेनेके बाद कि यदि वह अपने विषयमें स्वरूपसे चलायमान है तो उससे अभिमत फल प्राप्त नही हो सकता; यह जानलेना भी आवश्यक है कि यदि वह अपने विषयसे विरुद्ध विषयमें श्रास्थारूप है तो उससे भी वह फल प्राप्त नहीं हो सकता । ऐसी अवस्थाकर रहते हुए उसको पूर्ण और वास्तविक समाग्दर्शन भी किस तरह कह सकते हैं। तथा उससे सम्यग्दर्शनका फल भी किस सरह प्राप्त हो सकता है ? नहीं होसकता । तत्ते माने रिपो स्ष्टे आदि । यशस्सिलक। २- शल्पति सांशयिकमपरेषाम् ।। साध | ३-भात्माकी शुद्ध अवस्थाके विपरीत संसाररूप अथवा कर्मोदय सहित भवस्था ।
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क्योंकि "नहि कारणवैकल्यं कार्य साधयति" अर्थात् जबतक कारण पूर्ण नहीं है तबतक कार्य भी किस तरह सिद्ध हो सकता है ! नही दोसाता। बावको नया अल्पतया सम्यग्दृष्टिकी रुचि अपने शुद्धपदमें और जबतक वह सिद्ध नहीं होजाता तब तक उसके वास्तविक उपायके विषयमें ही रत रहा करती है। और जबतक वह ऐसी नहीं रहती तबतक न तो वह अभीष्ट सम्यग्दर्शन ही है
और नहीं उससे वास्तविक सम्यग्दर्शनका फल ही हो सकता है। क्योंकि "ध्यातो गरुडबो.. घेन नहि हन्ति विषं वकः" । गलेको गरुड मानलेनेसे वह सर्पका विष दूर नहीं कर सकता। इस तरहका सम्यग्दर्शन अंगहीन है वह मुक्तिकन्याके अभीष्ट वरणमें कारण नहीं हो सकता इस वातको बतानेकेलिये ही निःशंकित अंगके बाद उसके दूसरे निःकांक्षित अंगका स्वरूप बताना भी आवश्यक है और इसीलिये प्राचार्यने इस कारिका का निर्माण किया है । क्योंकि ये प्रात्माकी संसार और मोक्ष ये दोनों अवस्थाएं परस्परमें विरुद्ध हैं। ये ३६ के अंककी तरह, माकाश पातालकी तरह, दिन रातकी तरह परस्परमें भिन्नर श्राकार भिन्नर दिशा और भित्रर ही स्वरूप रखती हैं। अतएव जो जीव एकमें रुचिमान है तो वह दूसरीसे कुछ न कुछ हीनरुचि या विरुद्ध रुचि अवश्य रहेगा फलतः संसारका रुचिमान वास्तव में मोक्ष और मोक्षमार्गका पूर्ण एवं यथार्थ रुचिमान् नहीं माना जा सकता और इसीलिये यह उसका यथाभीष्ट फल भी प्राप्त नहीं कर सकता । संसारके सुख में आस्था और उसके सर्वथा छूट जाने-परमनिर्वाणमें आस्था ये दोनो बातें एक साथ नहीं रह सकतीं । किसी कविने ठीक ही कहा है कि...
दो मुख सुई न सीवे कन्या, दो मुख पन्थी चले न पन्था ।
त्यों दो काज न होई सयाने, विषयभोग अरु मोक्षपयाने ।। मतलब यह है कि जिस तरह मन्त्र आदि विद्या सिद्धिकेलिये निःशंकताकी आवश्यकता है उसी तरह संसारातीत अवस्था परमनिर्वाणको सिद्ध करनेकेलिये निःशंकताके साथ२ निःका-- बता की भी आवश्यकता है। यह बताना ही इस कारिकामा प्रयोजन है।
शब्दोंका सामान्यविशेषार्थ-कर्म शब्दका अर्थ प्रसिद्ध है कि संसारी आत्मा के साथ लगे हुए वे पुल स्कन्ध जो कि उसकी योग परिणतिके निमित्त को पाकर आकृष्ट होते और जीवकी ही सकषायताके कारण उससे सर्वतः श्राबद्ध होकर उसीको स्वरूपसे च्युत करके भनेक प्रकारसे विपरिणत किया करते हैं। यहां पर कर्म से मतलब क्रिया आदि अथवा उस अदृष्ट४ से नहीं लेना चाहिये जो कि वैशेषिक दर्शन आदि में बतायागया है कि यह भत्माका एक गुण है। येतो श्रात्मासे बद्ध पुद्गलद्रव्य की पर्याय विशेष हैं | ये कि यारूप नही । किन्तु आत्मा के प्रत्येक प्रदे- "नांगहीनमलं हेतु दर्शनं जन्मसन्ततिम्' २० फ०।२-लौकिकसूति।। ३-उत्तेपणअषक्षेपण आदि वैशेषिकदर्शनकारोंके द्वारा मानीगई पांच प्रकारक्रियाएं ।
४-शषिक दशेनमें अष्टको गुण माना है। और गुणों को द्रव्य से मिा तव स्वीकार किया है। साथ ही मुक्तावस्था में चुतियादि नवगुणोंका पच्छेद बताया है।
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चौद्रका टीका बारहवां शोक शमें स्थित रहनेवाले पुद्रल स्कन्ध हैं । ये आत्माके गुण भी नहीं हैं। यदि ऐसा होता तो छूट नहीं सकते थे और न आत्मा के पाधक अथवा विररिणमनमें कारण ही हो सकते थे ! अपना ही स्वरूप अपना ही बाधक या घातक हो यह असंभव है । अत एव कर्मका अर्थ वही लेना चाहिये जो कि ऊपर बताया गया है और जैसा कि जैनागममें प्रसिद्ध है।
'परवश' का अर्थ परतन्त्र या पराधीन है। जिसकी उत्पत्ति स्थिति वृद्धि आदि सभी कुछ कोंके अधीन है--कर्मों पर निर्भर है वह अवश्य ही कर्म-परवश है। संसारमें जो सुखशब्दसे कहा या माना जाता है वह सभी कर्माधीन है । यद्यपि मुख सब्द से चार अर्थ लिये जाते हैं- विषय वेदनाका अभाव विपाक और मोक्ष; जैसा कि पहले लिखा जा चुका है फिर भी सामान्यतया यदि स्वाधीन और पराधीन इन दो भागोंमें विभक्त किया जाय तो पहले तीन अर्थ पराधीन और केवल मोक्ष सुख ही एक स्वाधीन सुख गिना जा सकता है । क्योंकि पहले तीनोंडी अर्थी का सम्बन्ध कर्मापेक्ष है और एक मोक्षमुख ही ऐसा है जो कि कर्मों के क्षयके सिवाय अन्य किसी भी प्रकार से कर्मोकी अपेक्षा नहीं रखता।
कर्मों के अनेक तरहसे भेद कियेगये हैं। उनमें पुण्य और पाप ये दो विमाग भी हैं। जिन का फल अभीष्ट है, संसारी जीव जिन कर्मों को या जिन के फल को चाहता है ये सब पुण्य कर्म कहे और माने जाते हैं। इसके विरुद्ध बाकी बचे जितने भी कर्म हैं वे सब पापकर्म हैं । जिनका कि फल अनिष्ट है अथवा अभीष्ट नहीं है । कर्मों की कुल संख्या १४८ है । परन्तु उनमेंसे पुण्य कर्मों की संख्या ६८ और पाप कर्मों की १०० वताई है । इस भेदका कारण भी कर्मो के फलमें इष्टा. निष्टभावका पाया जाना ही है । क्योंकि नाम कर्मकी २०--प्रकृतियों का फल किसी को इष्ट और किसी को अनिष्ट होता है यात एव उनको दोनों तरफ गिनलिया है यही कारण है कि दोनों पुराप पाप की मिलाकर १६% संख्या हो जाती है ।
तत्त्वतः विचार करनेपर सभी कर्म आत्माके विरोधी हैं । उसके द्रव्य गुण पाप स्वभाव आदिका पात करनेवाले होने के कारण एक ही जातिय हैं उनमें पुराग पापका कोई विभाग नहीं है और न इस दृष्टिसे विभाग माना ही है और न हो ही सकता है। किंतु व्यवहारतः उस भेदको मान्य किया है और वह उचित सत्य समीचीन तथा अभीष्ट भी है फिर भी यहाँपर यह बात अवश्य ध्यानमें रखनी चाहिये कि जिस संसार सुखके यहाँपर चार विशेषण देकर चार तरहसे उसकी उपेक्षणीयता या हेपताका निर्देश प्राचार्य कर रहे हैं वह सुख ऊपर बताईगई पुण्य प्रकृतियोंके ही आधीन है ऐसा नियम नहीं है। क्योंकि कोई २ मुख ऐसा भी है जो कि पाप प्रकृतियोंक उदयकी भी अपेक्षा रखता है जैसे कि खीवेद, पुवेद, हास्य, रति, निद्रा आदि। इसपरसं यह बात स्पष्ट हो जाती है कि पुण्य पापके विभागमें कारणान्तरकी भी अपेक्षा है जैसा कि आगे चलकर स्पष्ट किया जायगा। फिर भी यह पात निश्चत ही है कि जो ....३-परतन्त्रः पराधीनः परवाम् नावानपि ।।
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रस्नकरएसावकाचार सुख कर्माधीन है वह वास्तवमें आत्माका नहीं है और इसीलिये उसमें सम्यग्दृष्टिकी भास्था नहीं रहा करती और न रह सकती है । यदि उसमें किसीकी आस्था रहती है या पाई जाती है तो वह या तो मिथ्यादृष्टि है या उसका सम्यक्त्व अंगहीन लूला लंगडा है । मोक्षमार्गके शत्रु मोहराज श्रादिके आधीन रहनेवाला उनका सेवक, मुक्तिरमारानी या उसके परिकरकी भी कपा एवं अनुयायबुद्धिका पात्र किस तरह बन सकता है ? नहीं बन सकता । अस्तु मुमुक्षुकंलिये यह मुख हेय ही है जो कि स्वाधीन नहीं है । और क्योंकि सम्यग्दृष्टि जीव नियमसे मुमुक्षु हुमा करता है अतएव उसको कर्माधीन सुखमें आस्था नहीं रहा करती।
सान्त शब्दका अर्थ है अन्तसहित, विनाशीक, नश्वर श्रादि । अर्थात् सम्यग्दृष्टि जीव को उस सुखमें भी प्रास्था नहीं रहा करती जो कि स्थिर रहने वाला नहीं है क्षणभंगर पसमें किमी भी स्थिरबुद्धिको आस्था हो मी किस तरह सकती हैं । जो सुख कर्माधीन है वह अवश्य ही अन्तसहित होगा | क्योकि सभी कर्मों की स्थिति नियत है। कर्मीका जब बंध होता है तब निय से उसमें प्रकृति स्थिति अनुभाग और प्रदेश इस तरह चारों ही प्रकारका बंध हुआ करता है । अतएव कर्मोकी जो उत्कृष्ट स्थिति बताई हैं उससे अधिक कालतक तो वह कर्म टिककर रह ही नहीं सकता । फलतः उसके उदयसे माना जानेवाला मुख स्वभावतः अन्तसहित ही सिद्ध होता है । इसके सिवाय कितने ही काँका उदय अथवा फल गत्यधीन यद्वा पर्यायनिमित्तक हुआ करता है । जो कर्म मनुष्यगतिमें ही अपना फल प्रदान कर सकता है अन्यगतियों में नहीं, उसका फल या तजन्य सुख स्वभावसे मनुष्य पर्याय तक ही रह सकता है न कि अधिक। क्योंकि वहांपर अन्यत्र उस फलको भोगनेक लिये आवश्यक निमितरूप बाह्यसामिग्री ही नहीं पाई जाती । इसलिये भी कर्मपरवश गुख नियमसे सान्त ही है। अनन्त सुख तो स्वभावतः कर्मातीत अवस्थामें ही पाया जा सकता है, फलतः सम्यग्दृष्टि जीवकी जिसका कि लक्ष्य अपने स्थिर शान्त सुख स्यभावपर ही लगा हुआ है क्षणभंगुरसुखमें श्रास्था किस तरह हो सकती है ? नहीं हो सकती । कोई भी विवेकी स्थिर सुख शान्तिकेलिये मेषकी छाया समान अस्थिर कारणको पसन्द नहीं कर सकता।
दुखैरन्तरितोदये--जिसका उदय--प्रफटता-उद्भुति दुःखोंसे अन्तरित विभित अथवा मिश्रित है उस सुखको दुखोंसे अन्तरितोदय समझना चाहिये । काँक अधीन होकर भी और अन्तसहित होनेपर भी ऐसा कोई भी सांसारिक सुख नहीं है जो कि अनेक दुतोंसे भी युक्त न हो । जगत में पाये जानेवाले सुखोंके प्रति सम्यग्दृष्टि की अनास्थाका यह भी एक बहुत कडा कारण है कि यह वारतवमें शुद्ध सुख नहीं है । क्योंकि किसी भी जीवके यदि उस सुखके कारणभूत सावधिक भी एक या अनेक पुण्य काँका उदय पाया जाता है तो उसके साथ ही अनकानक पाप कर्मों का उदय भी लगा ही हुआ है संसारमें ऐसा कोई भी जीन नहीं है जिसके १-माय ज्ञायोय होनेमाला ध ।
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चंद्रिका टीका वारहवाँ श्रीक
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कि केवल पुण्य कर्मोका ही उदय पाया जाय। घातिकर्म सब पाप रूप ही हैं उनके उदयसे रहित कोई भी जीब नहीं है चार पातिकमोंमेंसे एक मोहनीयका सर्वथा अभाव होजानेपर यह जीवात्मा उसी भवमें परमात्मा बन जाता है और सिद्धावस्थाको प्राप्त करलेता है किंतु जबतक उसका निर्मूल विच्छेद नहीं होता तबतक तो वह सम्पूर्ण धातिकर्मो के उदयसे युक्त ही रहा करता है. अतएव ऐसा कोई भी जीव संसार में नहीं है जिसके कि केवल पुरुष प्रकृतियोंका ही उदय पाया जाय ! संजीवके पुण्य कर्मो का उदय पाप कर्मोंके उदयसे मिश्रित ही रहा करता है ऐसी अवस्था में शुद्ध आत्मसुख के रसका अमिलापी सम्यग्दृष्टि बालू रेतसे मिले हुए या विषमिश्रित हलवा समान पापोदयजनित दुःखांसे मिश्रित पुरायजन्य ऐन्द्रिय सुखको किस तरह सन्द कर सकता है ? नहीं कर सकता ।
इसके सिवाय कदाचित् ऐसा भी होता है कि पुण्य के उदयसे जीवको भोगोपभोग की यथेष्ट सामग्री प्राप्त है परन्तु अन्तराय कर्म के उदयवश वह उनको भोगने में असमर्थ ही रहा करता है 1 क्योंकि भोग्य सामग्रीका प्राप्त होना और भोगनेकी शक्तिका प्राप्त होना ये दोनों ही भिन्न २ विषय हैं और इसीलिये अन्तरंग में पुण्य कर्म के उदय एवं अन्तराय कर्म के क्षयोपशम आदि मिअर कारणों की अपेक्षा रखते हैं । अत एव दोनोंका एकत्र पापा जाना सुलभ नहीं हैं । अतः सांसारिक सुख अन्तराय कर्म के उदय यादि के कारण दुःखमिश्रित - सविघ्न ही रहा करता है। मेडिया के साथ बंधाया बकरीका बच्चा सुस्वादु और मुशेषक चारा पाकर भी हृष्ट पुष्ट नहीं रह सकता । इसीप्रकार सान्तराय सुख सामग्री को पाकर भी कोई भी अन्तरात्मा हर्ष संतोष एवं प्रमताको प्राप्त नहीं कर सकता। इसलिये भी सम्यग्दृष्टि को इस तरह के सुख में थास्था नहीं रहा करती ।
चौथा विशेषण "पापबीजे" हैं। व्याकरणके षष्ठीतत्पुरुष और बहुव्रीही समासके अनुसार इस शब्द के दो अर्थ हो सकते हैं। - पापका बीज श्रथवा पाप है वीज जिसका । पहले अर्थ के अनुसार पुण्योदयसे प्राप्त हुआ भी सांसारिक सुख -- ऐन्द्रिय विषय वैभव ऐश्वर्य यादि पापके बीज हैं उनके सेवनसे भोगोपभोग द्वारा अथवा उनकी आकांक्षा मात्र से भी दूसरे नवीन पाकका च होता है और इसतरहसे फिर उसकी सन्तति चलीजानी है। यद्यपि नारायणका पद सनिदान तपश्चरण के द्वारा संचित पुण्य के उदयसे ही प्राप्त हुआ करता है फिर भी नियम से उनको नरक में जाना पडता २ है । फलतः विचार करने पर अवश्य ही वह ऐश्वर्य साम्राज्य एवं भोगोपभोग पापका ही बीज है जिससे कि अनेक दुःखरूप भवोंमें पुनः भ्रमण करना पड़ता है। आचार्योंने कहा है कि "अन्यथा पुनर्नरकाय राज्यम् १३ । राज्यको पाकर यदि उसका ठीक २
१--" भोज्यं भोजनशक्तिश्च रतिशक्तिरस्त्रिय: । विभषी दानशांतश्च स्वयं धर्मकृतेः फलमू" यशस्तिलक......... कोई २ चतुर्थ चरणकी जगह पर नाल्पस्य तपसः फलम् ऐसा भी पाठ बोलते हैं।
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२ - नारायण प्रतिनारायण नारद रुद्रकी अधोगति ही मानी है।
३ - नीतिवाक्यामृत |
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रेनफरएश्रावकाचार
२०८ उपयोग न किया जाय तो वह नरक का कारण है। इसी तरह और भी अनेक निरतिशय पुण्यद्वारा प्राप्त विभृतियोंके विषय में कहा जा सकता है।
दूसरे अर्थके अनुसार जिन कारणभूत पुण्यप्रकृतियों के उदय से वह सांसारिक सुख प्राप्त हुआ करता है उनके बन्धकी निदानपरीक्षा करने पर मृलमें पाप कम अवश्य ही एक प्रधान कारण है यह मालुम हुए विना नहीं रहता । क्योंकि मोह या सकपाय भावोंकी सहायता के बिना भी कर्म में स्थिति एवं अनुभागका वंथ नहीं हो सकता४ | जब यह बात है तो पुण्य-फलके लाभमें भी पाप को कारण क्योकार नहीं माना जा सकता ! पारश्य माना जायगा । केवल प्रकृति प्रदेश बन्ध तो फलदनमें समर्थ नहीं है। अत एव सांसारिक सुखका बीज पाप है यह कथन भी अवश्य ही आगम और युक्ति से संगत है । फलतः जिसका कार्य और कारण दोनों ही पाप रूप है उस सांसारिक सुख में सम्य-दृष्टि को आग्था किस तरह हो सकती है ? कदापि नहीं हो सकती।।
इसके सिवाय पुण्य पापका विभाग कर्मा पेक्ष है आत्माका शुद्ध पद-सुखम्तभाव दोनों के सम्बन्धसे सपथा रहित है । शुद्ध धात्मपदकी दृष्टि में पुण्य भी पाप ही है । अतएव सांसारिक सभी सुख पापजन्य एवं पाप के जनक है । सम्यग्दृष्टि को जिमकी कि दृष्टि शुद्ध निश्चय नय के विषयकोही उपादेयतया वास्तव में ग्रहण करती है, ये सब सुख अनास्थेय ही रहा करते हैं।
सुख शब्दसे यहापर उसके कथित ४ प्रथमिसे पहले तीन अर्थ ही लेना चाहिये, यह बात पहले कही जा चुकी है । पहले तीन अर्थ कर्मापेक्ष हैं। और कर्मापेक्ष होनेसे कर्मपरवश, सान्त, दुःखासे :अन्तरितोदय, और पापचीज़ भी अवश्य हैं। क्योंकि इन चारी ही विशेषणों में परस्पर हेतु हेतुमद्भाव है।
अनास्था-आस्थाका न होना ही अनास्था है। आस्थाका आशय है स्थिति, विश्वास, आदरद्धि, भरोसा, प्रतिष्ठा, सहारा आदि। जिस श्रद्धा में चार विशेषणों से युक्त सुखके विषय में किसी प्रकारकी आस्था नहीं पाई जाती उसको कहते हैं अनास्था । ____ अनाकांक्षणा--का मतलर निःकांक्षितस्त्र है । सांसारिक सुखकी किसी भी प्रकारसे अभिलाफा न होना या न करना ही निःकांक्षितत्व है।
तात्पये---यह कि पूर्णशुद्ध सम्यग्दृष्टि अपने शुद्ध प्रात्मपदके सिवाय अन्य किसी मी पदको अपना स्वतन्त्र स्वाधीन शास्वतिक सर्वथा निराकुल और उपादेय नहीं मानना। प्रात्मामें पर पुद्गल के सम्बन्ध से जो २ विकार हैं अथवा होते हैं वे वास्तव में आत्माके नहीं हैं । शुद्ध प्रात्मान स्वरूप उन सभी विकारोंसे तत्त्वतः रहित हैं । एसी उसकी आस्था-श्रद्धा रहा करती है। और उसकी वह श्रद्धा निःशंक एवं निश्चल है यही कारण है कि वह अपने उसपदके सिवाय अन्य किसी भी पदकी आकांक्षा नहीं रखता। आत्माके के विकार नहीं है यह कहनेका कारण यही है कि वे परके निमिसको –संयोगसम्बन्ध विशेषको पाकर ही हुए हैं, होते रहे हैं और होते हैं। परके संबंध से रहितआत्मामें वे उत्पन्न नहीं होते, न कभी हुए हैं
--ठिदि अनुभागा कमायदो होति । द्रव्य स० ।
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चंद्रिका टीका वारहवां श्लोक और न कभी होंगे। इसका प्रमाण यह कि परका सम्बन्ध सर्वथा हटजाने पर मुक्तात्माओं में से किसी में भी आजतक फिर विकार नहीं हुा । और न हो ही सकता है क्योंकि तत्वतः विचार करने पर मालुम होता है कि आत्मामें पर के साथ आत्मसाभाव करने की स्वाभाविक योग्यताही नहीं है । अन्यथा सिद्ध पर्यायके बाद भी उनमें पन्ध होता और पुनः उनके निमित्त से उसके जन्ममरण आदि विकार भी हुए लिना न रहते। जिस तरह अशुद्ध पुद्गल स्कन्धके विभक्त होजानेपर उत्पन्न हुआ शुद्ध भी परमाणु संयोग विशेषको पाकर फिरसे स्कन्धरूप अशुद्ध अवस्थाको प्राप्त कर लेता है वैसा आत्मा में नहीं पाया जाता। आत्मा शुद्ध होजानेपर फिर अशुद्ध नहीं हुआ करता।
प्रश्न हो सकता है कि संसार पर्याय होनेमें श्रात्मा यदि कारण नही है तो केवल पुगलमें भी वह क्यों नहीं पाई जाती ? क्या संसार पर्याय केवल पुद्गल की है ? उत्तर स्पष्ट है कि संसार पर्याय न शुद्ध पुद्गल की ही होती है और न शुद्ध आत्मा की ही । किंतु अशुद्ध द्रव्यकीही वह पर्याय है। किंतु देखना यह है कि इस अशुद्धि में मुख्य कारण कौन है। संसार पर्याय जन्धरूप है । बन्ध एक द्रव्य में नहीं हया करता तथा बन्ध का कारण भी स्निग्ध स्वत्व है जो कि पुद्रगल में ही पाया जाता है । आत्माको पुद्गल के सम्बन्ध के कारण भूत कहा और माना है किंतु यह कथन उपचारित है। प्रयोजन और निमितवश उपचार की प्रवृत्ति हुश्रा करती है । वास्तवमें
आत्मा अमूर्त है । अतएव वन्धमें पुद्गलके सिवाय दूसरा द्रव्य जो कारण है वह शुद्ध श्रान्मा नहीं कितु पुद्रलसम्बद्ध जीवात्मा है । यही कारण है कि पुद्गलका सम्बन्ध सर्वथा छूट जानेपर पुनः उसका बन्ध नहीं होता। शुद्ध आत्मा का न तो पुल के साथ ही बन्ध होता है और न अन्य शुद्ध अशुद्ध आत्मा अथवा धर्मादिक द्रव्यों में से किसी के भी साथ | पुद्गलका पुद्रल के साथ चाहे वह शुद्ध हो अथवा अशुद्ध बन्ध हो सकता है। इसके सिवाय अन्य किसी भी द्रव्यके साथ उसका बन्ध नहीं होता। यदि अन्य द्रव्यकै साथ बन्ध होता है या हो सकता है तो केवल पुलसम्बद्ध जीवात्मा के ही साथ । इस तरह अन्य व्यतिरेक से विचार करने पर मालुम होता है किबन्ध में मुख्य कारण यदि कोई है तो स्निग्धरूक्षत्त्व विशिष्ट पुद्गल द्रव्य ही है। किन्तु गौर नया उससे बर्दू होने के कारण जीव भी उसका कारण कहा जाता है। जीवकी यह रन्ध पर्याय सामान्यतया अनादि है । अनादि कालसे यह जीव कर्मों से बन्ध होते रहने के कारण अशुद्ध बना हुआ है। यह जीवकी अशुद्धि पुद्रलकृत हैं । और वही नवीन २ चन्ध में कारख पडती रहती है। इस तरह यद्यपि परस्पर में एक दूसरे के प्रति विपरिणाम में निमिच बनते आ रहे हैं फिर मी यह स्पष्ट हो जाता है कि इस सन्तति के चलने में मुख्य कारण यदि कोई है तो पुद्रल है न कि आस्मा | वह तो कर्मके वश में पडकर उसके अनुसार चाहे जैसा नाचता है। वह यदि पुण्य पयाय का स्वांग भी रखता है तो स्वाधीनता से नही, कर्मपरवश होकर ही वैसा करता है। उसे यदि अभीष्ट भोगोपभोग की सामग्री भी प्राप्त होती है तो वह भी कुछ परिगणित दयालु पुण्य कर्मों के कृपाकटाक्ष पर ही संभव है।
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(स्लंकरभावकाचार
कुन्हाडी वृक्षकी छेदन आदि क्रिया करती हैं । किंतु उपमें यदि वेंट न हो तो वह उस काम को नहीं कर सकती। इस तरह से छेदनादि क्रियामें वृक्ष की लकड़ी भी निमित्त अवश्य है फिर भी छेदन क्रिया का मुख्यतया कर्तृत्व कुल्हाडीको ही हैं नकि उसके सहायक निमित्तभूत धेटको । जिसतरह कोई व्यक्ति विवश होकर शव का काम करता है तो उसका अपराध गुरु होनेपर भी गुरुतर या गुरुतम नही माना जाता । यह क्षम्य की कोटी में गिनलिया जाता है। इसी तरह संसार रूप बन्ध पर्याय में दोनों ही परस्पर में एक दूसरे के परिणमनमें निमित्त होते हुए भी एक को मुख्य और एक को गौण समझना चाहिये। स्यों कि कर्मपरवश जीवका अपराध क्षम्य है। सजातीय जीवके अपराध को पथपातवश सम्य पसाया जा रहा है यह बात भी नहीं है। देखा जाता है कि जीव सर्वथा स्वतन्त्र हो जानेपर पुनः उस कार्य में प्रास नहीं होता परन्तु पुल जीवोंको अपने आधीन बनाने के कार्य रूप अपराव से सर्वधा उपरत नहीं हुआ करता।
व्याकरण में मानी गई कर्म कर्व प्रक्रिया के अनुसार सुकरता३ आदि कारणोंस कर्म करण मादिको क ख प्रान हो जाता है और कर्ता गौण बन जाता है। इसी तरह प्रकृतमें यदि विचार किया जाय तो यद्यपि जीवही प्रगल कर्म के निमिस से संसार रूप परिणमन करता है, उसीको कत्त्व प्राप्त है। फिर भी पुल की मुख्यता के कारणोंपर जैसा कि ऊपर बताया गया है दृष्टि देनेसे जीव को गौणता और पुल को मुख्यता एवं कर्तृत्व प्राप्त हो जाता है।
जिस तरह संसार में बड़े बड़े नद हद और समुद्र श्रादिक रहते हुए भी घातक मेष को ही पसंद करता है उसीतरह सम्यग्दृष्टि जीपका परिणाम ही ऐसा होता है कि वह स्वतन्त्र मुख कोही पसंद करता है। पराधीन सुखमें रुचि नहीं रखता । बन्धन में पडे हुए इस्ती सिंह पशु पिजड़े में रखे गये तोता आदि पक्षी भी जब सुस्वादु भोजन की अपेक्षा स्वतन्त्र विहार को ही पसंद करते हैं तब मनुष्य- सम्यग्दृष्टि जीव का तो कहना ही क्या ? वह तो कर्म परवश रहकर यहां के सुखोंमें थास्था किस तरह रख सकता है। . सांसारिक सुखके जो चार विशेपण दिये हैं उनमें कर्मपरवश विशेषण मुख्य है। शेष तीन
१-कार्यायान्त्री हि कुन्तस्य, दण्डस्त्वस्य परिच्छपः ।। यश
२--तस्यां सत्यामशुद्धत्वं तद्द्वयोः सगुणच्युतिः ।। पंचा। तथा जीवकृतं परिणाम निमिसमा प्रपत्र पुनान्ये । स्वयमेव परिणर न्तऽत्र पुद्गलाः कर्मभावेन ॥१२॥ परिणममानस्य चिनश्चिदात्मक स्वमपि स्वर भावः । भवति हि निमित्त मात्र पौगलिक कर्म तस्यापि ॥१३॥ पु. सिक
-प्रयोक्तु : सुकरक्रियत्वाल यन्ते शालयः स्वयमेव विनीयन्ते कुशलाशयाः स्वयमेव इत्यादि षत, या। ४-स्वच्छाम्भःकाला लोके, किं न सन्ति जलाशयाः । चातकस्याप्रहः कोऽपि यद्वाछत्यम्मुवात्पयः ।११३४।। आदि०प०१८1५-जीवितात्त पराधीताज्जीवानां मरा वरम् । तत्र चू०-४० । लोके पराधीन जीवितं विनिन्दितम् । निजात विभय समार्जित मृगेन्द्रपद संभावितस्प मृगेन्द्रस्येच स्वतन्त्रजीवन मविनिन्दितमभिनिन्दितमनवचमतिहयम् ॥ जी प० । भादस कवलंदन्ती स्वामिकुण्डलताडित रहि सोढग्यतां याति तिरश्चा वा तिरस्कृतिः । इत्र चू०५---३ ६-रोवै और बिखलाइ परो पिंजरामें सोता । लोकोक्ति
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चंद्रिका टीका बारहवां लोक
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विशेष इसी पर निर्भर रहने के कारण गौण हैं। क्योंकि अनादि हैं परन्तु पर्यायसादि सान्त भी हैं। ऐहिक सुखकी कर्माधीनता बताने में द्रव्यदृष्टि प्रधान है। क्योंकि यहाँ पर यह बताना भी अत्यन्त आवश्यक है कि जीव अनादि कालसे ही कर्मों से श्राबद्ध है। किसी विवक्षित समयसे बन्धन नहीं पड़ा है । साथही यह भी बताना आवश्यक है कि कर्म बन्धन सन्तान क्रमकी अपेक्षा अनादि होते हुए भी कोई भी कर्म ऐसा नही हैं जो कि किसी विवति समय में न चन्धा हो और अपनी नियत स्थिति के पूर्ण होते ही जीवसे सम्बन्ध न छोड देता हो। इसी बात को "सान्त" यह विशेषण स्पष्ट करता है । जिससे यह बात समझमें भाजाती है कि पुरुयकर्म भी स्थिर नहीं है--न सदासे है न सदाही रहने वाला है । इसीलिए उसके उदयसे प्राप्त इष्ट विषय एवं तनिमित्त सुखभी शाश्वतिक अथवा सदा स्थिर रहनेवाला नही हैं। जगत् में ऐसा कोई उपाय ही नहीं है जिससे कि उस सुखको सदा के लिए स्थिर रक्खा जा सके।
आयु कर्मको छोडकर शेष सातोंही कर्मोका बन्ध प्रतिक्षण होता रहता है केवल युकर्मका बन्ध विभाग के समय योग्यतानुसार होता है । परन्तु होता अवश्य है । यदि वह जीव धर्मशरीरी तद्भव मोक्षगामी नहीं है तो उसको परभवकै आयुका बन्ध अवश्यम्भावी है । आठो ही क्रम के बन्धकी यह सामान्य व्यवस्था है। किंतु उदय तो प्रतिक्षण आठही कमका रहता है। यह दूसरी वाद है कि उपलब्ध पर्याय के अनुसार आठों ही कमकी कुछ कुछ अवान्तर परिगणित प्रकृतियों का ही उदय हो सके । परन्तु उदय रहता तो सामान्यतया प्रतिक्षण आठोंही कर्मों का है। इसमें ऐसा विभाग नही है कि अमुक २ कर्मों काही उदय हो और कुछ कर्मों का मूलमें ही उदय न हो। फलतः यह निश्चित हैं कि पुण्योदय जनित संसार का सुख दुःखों से अनन्तरित नहीं रह सकता मालुम होता है कि यहां आचार्यों की दृष्टि कर्मोकी अनुभाग शक्तिकी तरफ हैं। क्योंकि कमों के फलोपभोग में उनकी अनुभाग शक्ति मुख्य कारण है। साथ ही यह बताना है कि पुण्यफल को यह जीव इसीजिए यथावत रूपमें नहीं भोग सकता कि वह शेष सहोदयी पापकर्मीले मिश्रित एवं विनित है। या तो भोगनेकी सामर्थ्य प्राप्त नहीं या उसके अन्य सहायक साधन प्राप्त नहीं श्रथवा वह पुण्य ही हीनवीर्य एवं अल्पस्थितिक है। कदाचित् पापरूप में संक्रांत होकर भी उदय में आ सकता है । यद्वा परिस्थिति अनकूल न होनेपर बिनाफल दिये भी निर्जीर्थ हो जाता है।
पुण्य का अर्थ होता है- पुनाति इति पुण्यम् । अर्थात् जो पवित्र बनादे । पापका अर्थ होता है - पाति- रक्षति इति पाथम् । जो आत्माको हितसे बचाकर रक्खे। वस्तुस्वभाव ऐसा हैं कि १- सतान कमसे अनादि और स्थिति बन्ध की अपेक्षा प्रत्येक कर्म साविसान्त है । २- आहारकाम और तीर्थ करत्वके सिवाय |
३- नवं वयश्चारुपयास्तरुय्यो रम्याणि हम्याणि शिवाः श्रियश्च । एतानि संसारतरो : फलानि स्वर्गः परोऽस्तीति सुवार्ता | दोषस्त्वभीषां पुनरेक एक, स्थैर्याय यनास्ति जगत्युपायः । सत्संभवे तर विवां परं स्यात्वेवाय देवस्य तपः प्रयासः । श० ।
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रत्नकरण्ड श्रावकाचार
आत्मा पर पुद्गल -- शरीर आदिको पवित्र रखता है किंतु पुद्गल सम्वन्ध विशेष के द्वारा अपने को भी शुद्ध कर लेता हैं और आत्माको भी शुद्ध पवित्र स्वरूप से च्युत कर देता है। फलतः विचार करने पर मालुम होता है कि आत्मा पुण्य हैं और पुल पाप हैं। आत्माके साथ लगे हुए कमौके प्रदेश जो कि पोहलिक है सब पाप हैं। ये पायबीज हैं। जबतक संसारी जीवोंके इनका सम्बन्ध यत्किचित भी विछिन्न नहीं हो जाता तबतक संसार की संतति भी बनी हुई है। और Gaon इनका सर्वात्मना विच्छेद नहीं हो जाता तब तक जीवात्मा परमात्मा नहीं बन सकता और अपने शुद्ध स्वरूप भाव में सदा के लिए स्थिर नहीं हो सकता । अतः आत्माकी वास्तविक स्वरूपस्थिति में बाधक ये कर्म प्रदेश ही हैं। येही उसकी पराधीनता -- चातुर्गतिक जन्म मरण - और प्रतिक्षण लगी हुई आकुलता रूप दुःख एवं परिताप का मूल हैं—सब पापोंका बीज है इसलिये आत्माके साथ पुगल कर्मका जो विशिष्ट सम्बन्ध हैं और जो कि आज का क्षित समय से लगा हुआ नहीं अपितु अनादिकालीन हैं वही संसार का मूल है। इसतरहसे यह - किसी विवविशेषण कर्मों के प्रदेश बन्धकी रूष्टि दिवाता है।
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मतलब यह कि सम्यग्दृष्टि के लिए जो ऐहिक सुख अनास्थेग हैं उसका कारण ---सम्बन्ध कमाते है और कर्मों की बन्धकी अपेक्षा चार दशाए हैं- प्रकृति स्थिति अनुभाग और प्रदेश | इनही चार दशाओंको दृष्टि में रखकर मालुम होता है कि संसारी जीवकी दुःखरूपताको व्यक्त करने के लिये आचार्यने सांसारिक सुखके चार विशेषण दिये है। जैसा कि ऊपरके कथन से स्पष्ट हो सकता है।
सीन लोक के समस्त वैभव जो कि कर्मों के ही फल हैं उन सबका मूल्य एक सम्यक्त्व रत्न के समक्ष नगण्य है---तुच्छ हैं। अतएव जो व्यक्ति सम्यक्त्व के बदलेमें किसीभी सांसारिक आयुदयिक फल की आकांक्षा रखता है तो वह अवश्य ही अविवेकी है अज्ञानी हैं मिध्यादृष्टि है उसका सम्यग्दर्शन निर्मल एवं सांगोपांग नहीं माना जा सकता । पूर्ण सम्यग्दृष्टि हैं और कर्म एवं कर्म फलकी आकांक्षा रखता है यह कहना तो ऐसा समझना चाहिये जैसे किसी स्त्रीके विषयमें यह कहना कि यह पूर्ण सती हैं और पर पुरुष या पुरुषों में साकांच हैं। जिसतरह अपने विवाहित के सिवाय अन्य किसी भी पुरुष के साथ मनसा वचसा कर्मणा किसी भी तरह से रमणकी अभिलाषा न होनेपर ही पूर्ण सती मानी जाती है, उसी तरह अपनेही शुद्धस्वरूपक सिवाय किसीमी परभावमें किसी भी तरह से अभिरुचि न होने पर ही पूर्ण सम्यग्दृष्टि माना जा सकता है। जनतक यह बात नहीं होती उस सम्यग्दर्शन में यह योग्यता नही भाजाती तबतक वह सम्यग्दर्शन निःकांच गुण से युक्त नहीं कहा जा सकता। निर्वाण फल की सिद्धिके लिए सम्धदर्शन गुणको इस अंग से पूर्ण होना ही चाहिये ।
यद्यपि सम्यग्दशन के मुख्यतया श्रद्धय विषय तीन हैं। आप्त आगम और तपोभूत् । किंतु इसके सिवाय एक विषय धर्म अथवा तवार्थ भी है। यहांपर सम्पदर्शनके आठ अंगों का "मोत्सहायो" में कहा गया धर्म शब्द और "तत्वार्थद्धानं सम्यदर्शन" में कहा गया
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चौद्रका टीका बारहयो नाक वर्णन कर रहे हैं। जिनमें पहले निषेधरूप चार अंगोंमें ये सम्यग्दर्शन के चार विषयही क्रमसे मुख्य तपा लक्ष्य हैं। पहले निःशंकित अंगका मुख्यलक्ष्य आप्त है यह बात लिखी जा चुकी है। तदनुसार इस दूसरे अंगका मुख्य लक्ष्य आगमको समझना चाहिये । क्यों कि पागम में सभी विषयोंका वर्णन पाया जाता है। स्वतत्त्व परतच कर्म उसके कारण भेद फल अधिकरण आदि, कमों के फलों आदि में हेय उपादेष उपेच णीय दृष्टि से विभाग कर तदनुकूल वर्तन श्रादि करने का उपदेश अथवा श्रेयोमार्गका विधान तीनों ही विषयोंका सत्यभूत दृष्टांतो द्वारा स्पष्टीकरण इत्यादि है। किंतु या इसके बान्तर सही विषय एकरूप नहीं है इनमें कोई श्रद्धय कोई झंय धीर कोई पालनीय-हेय उपादेय उपेक्षणीय है।
मोह से प्राक्रांत जीव विवेकी नही हुआ करता । वास्तविक विवेक सम्पष्टि जीवर ही पाया जाता है वह मेदज्ञानके द्वारा पर या परनिमित्तक तत्वोंसे निजतत्व-शुद्धको घरिमें ले सक्ता है किन्तु मिथ्याष्टि-मोही जीव मोह और अनन्तानुवन्धी कपाय की विवशता से जिसतरह पर-हेय तस्वों को अपना स्वरूप समझकर अनध्यवसाय या विषयांस के कारण अपना लेता या उनमें रुविमान हो जाता है अतएव विवेक रहित है, उसी तरह सम्पग्दृष्टि जीव भी कदाचित सम्यक्त्व प्रकृति अथका कषायके तीत्रोदयश प्राप्त विवेक को छोड देता और उन पर-इष्ट विषयों को अपनाकर उनमें निदानादिके द्वारा अनुरंजित होकर विवेकभ्रष्ट हो सम्यक्त्वका अंग भंग कर डालता है।
ध्यान रहे सम्यक्त्वका सर्वथा अभाव अनन्तानुबन्धी कपाय के उदय में आये विना नहीं हो सकता । जहाँतक प्रत्याख्यानावरणका उदय है वहांतक सम्यक्त्व छूट नहीं सकता। इस तरहका प्रयत सम्यग्दृष्टि जीव निदानवन्ध नहीं कर सकता। यदि निदान में प्रवृत्त होगा तो उसका सम्यग्दर्शन भी छूट जायगा । क्योंकि निदानमें प्रवृत्ति करानेवाली कपाय अनन्तानुबन्धी ही संभव है।
प्रश्न हो सकता है कि निदान तो पानवे गुण स्थान तक आगममें बताया है। फिर आप निदान के होने से सम्यक्त्व का ही भंग किस तरह बता रहे हैं ? ___उत्तर-पांचवें गुणस्थानतक जिम निदानका अस्तित्व स्वीकार किया है वह आर्तध्यान का एक भेद है। और तीन शल्यों में जिस निदान का उल्लेख पाया जाता है वह एक मिथ्यात्वका सहचारी भाव है नकि सम्यक्त्व का । मतलब यह कि निदान आर्तध्यान संचलनके सिवाय तीनों ही कषायों से हो सकता है और निदानशल्य अनन्तानुबन्धी के ही उदय में संभव है । फलतः जहाँपर निदानशन्य रूपसे आकांक्षा होगी तब तो सम्यकपका अभाव हुए निना नहीं रह सकता यदि आर्तध्यानरूपसे होगी तो सम्पक्तका सर्वथा अभाव नहीं होकर आंशिक मलिनता या अंश
तस्वार्थ शब्य प्रायः एक ही अर्थ को सूचित करते हैं। किंतु धर्म से मतलव दारूप धर्मसे भी है। १-देखो निःशंकित अंगकी टीका । २. स्त्री सासिद्धि असू०३४ की टीका. तथा राजवार्तिक । ३-सफेखिये देखो श्लोकवार्तिक १० स० १८ चा
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rinावकार.................................... रूप ही भंगमात्र संभव है। किन्तु इस तरहका भी सम्यग्दर्शन निर्माणका साधक नहीं हो सकता सर्वथा निःकांक्ष सम्यग्दर्शन ही मोक्ष का साधक बन सकता है। यह इसी से स्पष्ट है कि निदान आध्यान भी पांचवे गुणस्थान तक ही पाया जाता या हो सकता है, इसके उपर नहीं । और मोक्ष के साक्षात साधक तो संयतस्थान ही माने गये हैं।
अब क्राणुमार सम्यक तीसरे अंगका वणन अवसरप्राप्त है । अत एव उसीका कथन करते हैं।
स्वभावतोऽशुचौ काये रत्नत्रयपवित्रिते।
निर्जुगुप्सा गुणग्रोतिर्मता निर्विचिकित्सिता ॥१३॥ अर्थ--स्वभावसे अशुचि किन्तु रलत्रय से पवित्रित शरीरमें जुगुप्मा-ग्लानि न कर गुखों में श्रीतिकरना सम्यग्दर्शनका निर्विचिकित्सिता नामका गुण है।
प्रयोजन-दो श्रङ्गोका वर्णन कर चुकनेपर तीसरे अंगका वर्णन क्रमप्राप्त तो है ही जैसा कि उत्थानिकामें भी बताया जा चुका है । इसके सिवाय कारण यह भी है कि सम्पनय के विषय श्रद्धान रूप क्रिया के कर्म मुख्यतया तीन अथवा चार हैं ! सीन का नाम तो कराठोक्त है-आप्त आगम और तपोभृत् । एक विषय अर्थादापन है-धर्म अथवा तत्त्वार्थ । ऊपर यह बात भी कही जा चुकी है कि यद्यपि सम्यग्दर्शन के मामान्यतया सभी विषय है किन्तु यहांपर जब उसके अगोंका वर्णन करना है तब श्रादिके चार अंगोंमें से प्रत्येकमें क्रमसे एकर विषय मुख्य बन जाता है
तदनुसार पहले अंगमें प्राप्त और दूसरे अंगमें आगम किस तरह मुख्य ठहरता है यह बात भी ऊपर कही जा चुकी है। अब यह बताना आवश्यक है कि तपोभृक्के निमित्त या विषयको लेकर सभ्यग्दर्शनका यह तीसरा एक अंग किस तरह बनता है । इसलिये भी इस कारिकाका निर्माण यहां आवश्यक है तीसरी बात यह है कि धर्म मुख्यतया रनत्रयात्मक ही है सम्यग्दर्शनादिक तीनोंमेंसे कोई भी एक अथवा दो यद्वा निरपेक्ष तीनों भी धर्म नहीं हैं। तीनों गुणोंके आश्य भी सीन हैं। प्राप्त आगम तपोभृत् । तपोभृत् शब्द स्वयं ही चारित्रमें तपश्चरणकी मुख्यताको पचित करता है । क्योंकि वास्तवमें तपश्चरणके बिना केवल प्रतादिके द्वारा को की यथेष्ट निर्जरा संम्भव नहीं है । मोक्षका मुख्य साधन संवरपूर्वक निर्जरा ही है। जो इस तरह का तपस्वी है वह अवश्य ही रजत्रयधमसे युक्त रहता है किन्तु यह कहनेकी आवश्यकता भी नहीं है कि ऐसी पवित्र आत्माका सम्बन्ध शरीरसे भी है । शरीर प्रकृतिसे ही अपवित्र है। ऐसी हालत में शरीरकी अपवित्रताके कारण यदि कोई व्यक्ति उस सर्वोत्कृष्टगुण-सत्रयधमकी अवहेलना करता है उसमें भक्ति न कर ग्लानि करता है तो अवश्य ही या तो वह बाहिष्टि है या अविवेकी है अथवा तच ज्ञानसे दर और पर्तिव्यस न्युत है । उसको अन्तरराष्ट्र भेदज्ञानयुक्त तत्वरुचि और कर्तव्यनिष्ठ किस तरह कहा या माना जा सकता है। ५-सा कि इसी प्रन्थको कारिका मं० २१ "नांगहानसब तुम" भाविसे मालुम हो सकता है।
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नद्रिका टीका तेरहवां श्लोक अतएव यह बताना जरूरी है कि सम्पादृष्टि जीव धर्मकी प्रत्यक्ष मूर्तियों के प्रति किस सरह भक्तिपरायण रहा करता है जिससे कि उसकी अन्तरंग दृष्टि विवेक रुचि भक्ति और कर्तव्यपरायणताका पता चलता है और जिसके कि बिना उसका सम्यग्दर्शन वास्तविक सालोपात नहीं माना जा सकता | इस अभिप्रायको स्पष्ट करना भी कारिका का प्रयोजन है। __ शब्दोंका सामान्य विशेष अर्थ--यो तो काय शब्दका अर्थ यहुप्रदेशी होता है । बाल द्रव्य एक प्रदेशी होनेके कारण अकाय है । जीव, धर्म, अधर्म और श्राकाश ये चार काय द्रव्य तथा पुद्गल उपचारसे काय या बहुप्रदेशी द्रव्य हैं । शरीर भी अनेक पुद्रल स्कन्धोंका प्रक्यरूप बहुप्रदेशी होनेके कारण काय शब्दसे कहा जाता है। आगममें काय शब्दसे पांच स्थावर और एक बस इस तरह संसारी जीवके छः मेद भी गिनाये हैं। किंतु इन भेदोंके बनाने में काय शब्दका अर्थ शरीर बताना अभीष्ट नहीं है। वहां नो विवक्षित जीवविपाकी नामक की प्रकृतियोंके? उदयसे होनेवाली जी की पर्याय विशेष अर्थ इष्ट है । अतएव इसके छः भेद हैं जिनका कि सिद्धान्त शास्त्र में कायमागंणाके वर्णनके अन्तगत गुणस्थान एवं समासस्थानोंके आश्रयसे विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है। जो आगपके वर्णित इस कागका अर्थ शरीर काते हैं वेतच स्वरूपसे अपरचित भ्रान्तबुद्धि और सिद्धान्त--आगमसे अनभिज्ञ है।
प्रकृत कारिकामें कायका अर्थ शरीर है : इसके बाग में पांचभेद गिनाये हैं। औदारिक, वैक्रियिक, आहारक, तेजस और कार्मण । इनकी उत्पत्ति पुद्गलविपाकी शरीर नामकर्मके उदयसे हुआ करती है । अन्तिम दोनों शरीर सभी संसारी जीवोंक पाये जाते हैं और जबतक वे संसार पर्यायसे युक्त हैं तबतक से भी उनके साथ अवश्य रहा करते हैं । आहारक शरीर ऋद्धिधारी विशिष्ट मुनियों के ही रहा करता है । वह क्वाचिक और कादाविक है । आदिक दो शरीर परस्पर विरोधी हैं । इनमेंसे पर्याप्त अवस्थामें संसारी जीवोंके कोई एक अवश्य रहा करता है । या सो औदारिक रहता है या वैक्रियिक । दोनों एक साथ नहीं रहा करते । प्रकृत वर्णन करनेमें प्राचार्यों को औदारिक शरीर ही अभीष्ट है । और वह भी मनुष्यों- मार्य मनुष्यों-सज्जातीय व्यक्तियोंका ही विवक्षित है । जैसा कि "रत्नत्रयपवित्रिते" विशेषणसे स्पष्ट होता है। कारिकामें कायके दो विशेषण दिये हैं एक "अशुचि" और दूसरा "रलत्रयपवित्रित", ___ स्वभावतोऽशुचौ ।-अशुचिका अर्थ है अपवित्र | स्वभावतः यह हेतुवाचक शब्द है । जो कि अपवित्रताके हेतुको बताता है । स्वभावका अर्थ होता है स-अपना ही भाव-भवन, होना परिणामन। मतलब यह है कि जो अपने परिणमनसे ही अशुचि है, अपवित्र है । स्वयं शरीर, शरीरकी वर्तमान दशा, वह जिनसे उत्पन्न होता है और शरीरसं जो उत्पन्न होता है वे तीनों ही अपवित्र हैं । माताका रज और मिताका वीर्य, तथा माताके द्वारा मुक्त अन्नका वह रस जिससे कि वह शरीर बनता है और वृद्धिको प्राप्त होता है, सभी अशुचि है । इस शरीरके 1-स और स्थावर नामकर्मको प्रकृतियां हैं जिनक कि उदयसे ससारी जीवकी ये अवस्थाएं बनती है।
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रस्नकरएडभावकाचार सम्बन्धको जो प्राप्त कर लेती हैं ये पवित्र भी वस्तुएं अशुचि बन जाती हैं। धातु* उपधातु या मल उपमलके रूपमें परिणत होजाती हैं । वर्तमानमें यह शरीर हड्डी चमडा मांस रक्त मल मुत्र आदि जिन२ के मधुपयरूप है वे भी सब अशुचि ही हैं। अतएव स्वभावसे ही यह अशुचि है।
जिसकी उत्पत्ति असदाचारसे हैं भ्रष्ट, है जो स्वयं असदाचारी है जिसकी संतान भी असदाचारसे उत्पन्न हो उस गति के शारीरिक व्यागारों सभी चीनमा मानका कारण ही क्या रह जाता है ? इसी तरह शरीरकी अशुचिताकै सम्बन्धमें समझना चाहिए । ध्यान रहे यह अशुचिता स्वभावतः कहकर नैसगिक एवं स्वाभाविक बताई है। जिससे यह अभिप्राय भी निष्पन्न हो जाता है कि अशुचिता स्वाभाविक भी हुआ करती है। जो कि यहां ग्रन्थकार को बताना अभीष्ट नहीं है। यहां तो शरीरके उपादान, भूलस्वरूप और कार्यके सम्बन्धको लेकर जो अशुचिता पाई जाती है केवल उसीका यताना अभीष्ट है।
मलोत्मर्ग: छाशुचि द्रव्य अथवा अस्पृश्य स्त्री पुरुष पशु पक्षी आदिके स्पादि सम्बन्ध से जो अशुद्धि होती है उसका बताना यहां अभीष्ट नहीं है। क्योंकि प्रथम तो अशुचिता और अशुद्धि अथवा पवित्रता और शुद्धि एक चीज नहीं है दोनों शब्द एकार्थक या पर्यायवाचक नहीं है। शुद्धि और पवित्रतामें स्वरूप विषय कारग और फल आदिकी अपेक्षा जिस तरह महान अन्तर हे उसी तरह 'शुचिता और अशुद्धिमें भी अत्यन्त भिन्नता है। दूसरी बात यह कि श्रागममें इन तान्कालिक अशुद्धियों को दूर करने का जो विधान है तदनुसार उनका निहरण होजाया करता है। वास्तविक मुमुतु साधु उचित उपायोंके द्वारा विधिपूर्वक उन अशुद्धियोंको उसी समय दूर करलिया करते हैं ।
शरीरकी द्रव्यपर्यायाश्रित जो अशुद्धि है उसका न तो कोई शुद्धि विधान ही है और न वैसा शक्य एवं संभव ही है। जहाँखक अयोग्य पिंडोत्पत्तिका सम्बन्ध है वहांतक उस शरीर को भी आगमगे दीक्षाके अयोग्य ही बताया है। फलतः शरीरकी प्राकृतिक अशुचिताके सम्बन्धको लेकर ही वर्णन करना उचित समझकर प्राचार्यने कहा है कि वह तो स्वभावसे ही अशुचि है।
रलत्रयावित्रित-रत्नत्रय-सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान और सम्यकचरित्र श्रात्माके धर्म है । अतएव वास्तवमें श्रात्मा ही उनसे युक्त रहने के कारण पवित्रित कहा जा सकता है। किंतु यहाँ *-वात पित कर्फ ये तीन अथवा रस रक्त माम मेदा अस्थि मज्जा और शुक्र ये सात धातु कहाती है। ५--मलमूत्रादिका त्याग मलमूत्र मद्यमांम अस्थि चर्म शब श्रादि द्रव्य, रजस्वला आदि स्त्री अस्पृश्य शुद्र आदि पुरुष गधा सूचर आदि पशु काक गृद्ध आदि पक्षी। २- इसके लिये देखो प्रायश्चितशास्त्र ........."तथा यशस्तिलक "मंगे कापालिकात्रेयीचाचालशवरादिभिः वाप्लुल्य दण्वन स्नायाज्जपेन्मन्त्रमुपोषितः । ३--जायोग्यामनायो वर्ण : सुदेशकुलजात्यंग इत्यादि !
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पद्रिका टीका तेरहवां श्लोक पर यह शरीरका विशेषण है । इसका आशय यह है कि यद्यपि आत्मा ही रखत्रयसे वास्तव में पवित्रित है फिर भी रखत्रयपवित्रित आत्मासे अध्युपित रहनेके कारण व्यवहारसे शरीरको भी रत्नत्रयपवित्रित कहा जा सकता है।
प्रश्न-आत्मा रत्नत्रयसे जिसका पचित्रित नहीं है और द्रव्यतः जिनका शरीर जिनलिंगमे युक्त है, अर्थात् जो द्रव्यलिंगी हैं उनको या उनके शरीरको भी "रनत्रयपविधित" कहा जा सकता है क्या ?:और अपने सम्यग्दर्शनको निविचिकित्सा गुणसे युक्त रखनेवाले सुमुधु को ऐसे साधुओके प्रति व्यवहार किस तरहका करना चाहिये ?
उच्चर-व्यवहार बाह्य द्रव्य पर्यायाश्रित है और वह निश्चय का विरोधी नहीं है । बल्कि निश्चयका साधक है। साथ ही छमस्थ जीवोंको प्रात्मधर्म के प्रत्यक्ष जानने का साधन नहीं है। फिर जब वह साधु भावलिंगी मुनिके ही समान सम्पूर्ण व्यवहार कर रहा है व्रत आवश्यक मादि गुणोंका यथावत् पालन कर रहा है, तव अन्य सागार एवं अनगारोंको भी उसके प्रति भावमुनिके ही ममान व्यवहार न करनेका कोई कारण नहीं हैं। प्रत्युतः अपने पदके अनुसार कर्तव्यका पालन न करने पर अपराधी अथवा कर्नव्यच्युन माना जा सकता है । निश्चय साध्य है और व्यवहार माधन है। साधनके प्रसङ्ग में उसी को मुख्य मानकर उसके अनुकूल व्यवहार करना ही उचित है। अत एवं जो द्ध्यलिङ्गी रत्नत्रय का माधन कर रहा है उसके उग गुणके प्रति भी सम्यग्दृष्टीको प्रीति होनी ही चाहिये । निर्दोष जिनमुद्रा का विनय सम्यग्दष्टि न करे यह संभव नहीं है ऐसा करने पर ही उसका निर्विचिकित्सा अंग सुरक्षित रह सकता है।
निर्जुगुष्मा-जुगुप्सा का अर्थ ग्लानि है । निजुगुप्सा यह गुणनीतिका विशेषण है । माधु का शरीर रत्नत्रयसे पवित्र है । और सम्यग्दृष्टि गुणग्राही एवं गुणोंका समादर करनेवाला हुआ करता है। अत एव उसकी दृष्टि गुणों की तरफ रहा करती है । वह स्वाभाविक अशुचि शरीरके प्रति ग्लानि कर रखत्ररूपगुणों के प्रति उपेक्षा कर अविवेकद्वारा कर्तव्यसे च्युन हो अपनीहानि सम्यग्दर्शन को अंगहीन अथवा मलिन बना नहीं कर सकता। ___ तात्पर्य यह है कि इस कारिका में सम्यग्दर्शन के जिस अंग अथवा गुणका दिग्दर्शन कराया मया है उसका सम्बन्ध गुरु श्रथवा तपोभृत् से है । श्रद्धान के विषयों में से प्राप्त भौर भागमके सम्बन्ध को लेकर जिसतरह क्रमसे पहले और दूसरे अगका वर्णन किया गया है उसीप्रकार यह गुरु के सम्बन्ध को लेकर सम्यग्दर्शनका तीसरा अंग बताया गया है । इसके लिये अधिक स्पष्टीकरण की आवश्यकता नहीं है। कारिकाकै पूर्वार्धमें शरीर के दो विशेषख जो दिये है वे गुरु में ही सम्भव है। पूर्वार्धमें वर्णित दो विशेषणोंको लेकर उत्तरार्ध में बतायागया है कि सम्पटिका भाव-ऐसी अवस्थामें किसतरहका हुआ करता था किस तरहका रहा करता है। बतायागया है कि शरीर तो सभीका स्वभाव से ही अशुचि है परन्तु यदि इस शरीर से आत्मा का हित मिड करलिया जाता है तो मनुष्य जन्म और इस शरीर का प्राप्त करना सार्थक एवं सफल होजाता है।
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रत्नकरश्वश्रावकाचार गुणग्राही एवं मुमुक्षु सम्यग्दृष्टि आत्महितकी दृष्टि से प्रधानतया अात्मा के गुणों मेंही आदरयुद्धि रखता है। अतएव गुरुके लत्रयरूप श्रात्मधर्मों में ही उसकी प्रीति हुआ करती है । वह शरीर के दोषकि कारण आत्मगुरगों में उपेक्षित नहीं हुया करता । शारीरिक अशुचिकी तरफ उपेक्षित रहकर आत्माके असाधारण रसत्रयरूप गुणों में ही प्रीतियुक्त रहना यही सम्यग्दर्शन का निर्विचिकित्सा अंग है। इस के विना यह पूर्ण अथवा सम्पूर्णीङ्ग नहीं माना जा सकता। __ कारिगाय पूर्वार्ध बताये गये तो दो बोषणों और उत्तरार्ध में किये गये दो विधा. नों में क्रमस हेतु हेतुमद्भाव स्पष्ट ही समझ में आजाता है अन एव इस विषयमें अधिक लिखने की आवश्यकता नहीं है । क्योंकि शरीरकी स्वाभाविक अशुचिताके कारण जुगुप्साका होना संभव है परन्तु वह सम्यग्दृष्टि के नहीं होती और नहीं होनी चाहिये । इसी तरह रत्नत्रयसे पवित्रित रहने के कारण सम्यग्दृष्टिको गुणों में प्रीति होती है मो वह रहनी चाहिये । ऐसा होने पर ही निविधिकित्सा अंग माना जा सकता है।
कारिकामें आये हुए "अशुचि, जुगुप्मा, और विचिकित्सा" इन तीनों ही शब्दों का भाशय एक ही है । और उसका सम्बन्ध स्वभावसे है । रवामानिकताका. मतलब पहले लिखा जा चुका है। परन्तु-यहां इतना और भी ध्यान में लेना चाहिये कि हेतु रूप से "स्वभावतः" इस शब्दका जो उल्लेख है वह सामान्य है अत एव उसके सभी विशेषों का यथायोग्य प्रहण हो सकता है और वह करलेना चाहिये। ___ यधपि इस तरह की विचिकित्साके कारण अनेकों हो सकते है रिभी उनको सामान्यतया तीन भागों में विभक्त कीया जा सकता है । जन्म जरा और रोग । शरीर में जन्मजातं जो विधि कित्साकी कारण अशुचिता है उसका उल्लेख ऊपर किया जा चुका है। वृद्धावस्था और रोमके निमित्तसे जो ग्लानीका कारण उपस्थित हो जाता है उसको भी स्वाभाविक ही समझना चाहिये इस तरह से विचिकित्सा के ये तीन स्वाभाविक विशेष संभव हैं। इनके सिवाय निंदा या भवई वादरूपमें जो माधुओं-निग्रन्थ जैन मुनियों की मिथ्याष्टियों द्वारा विचिकित्सा की जाती है वह सो सम्यकदृष्टि से संभव ही नहीं हो सकती। क्योंकि अवर्णवाद और उसका कार्य दर्शनमोहनीय फर्मका बन्ध मिथ्यात्वगुणस्थानमें ही पाया जा सकता है । एवं निंदा सथा तबिमिचक नीच गोत्र कर्म का बन्ध दूसरे सासादन गुणस्थान तक ही सीपित है। मागम में इसके ऊपर उनकी बन्धयुच्छिात बताई गई है। इस तरह की विचिकित्सा केवल कल्पना है, अज्ञान मूलक है, और प्रताचिक है । तस्वस्वरूप को समझे विना दोषोंका उद्भावन मिश्यादृष्टियों द्वारा अनेक प्रकार से किया जाता है। या तो असमर्थता के कारण अथवा तीन मोहोदय वश यद्वा अमान एवं कपाय के निमित्त से । साधुओंके प्रत तप के रहस्य को बिना समझे या जानबूझकर असदश्व दोषोंका उद्भावन हूआ करता है, अथवा अन्यथा रूपमें प्रगट किया जाता है। यह सम्मति
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चद्रिका टीका चौदहवां श्लोक के नहीं पाया जा सकता। मिथ्याष्टियों द्वारा महिला करता है । सम्माधि माती पर बना एवं विवेकी हुआ करता है । अतएव किसीके दोपको किसीभी दूसरे के मत्थे महनेका अन्धेर नगरी जैसा अविवेक और अन्यायपूर्ण कार्य नहीं कर सकता । प्रत्युत कीच अथवा मलमें पडे हुए सुवर्णको ग्रहण करने की समुचित प्रवृत्तिकैर समान स्वभावतः अशुचि शरीर में विद्यमान रत्नत्रयरूप धर्म में समादर तथा प्राति भक्ति और रुचिही धारण किया करता है। ऐसा होनेसे ही उसका सम्यग्दशन निविचिकित्सांगसे युक्त माना जाना और वह अपने वास्तविक फल के देने में समर्थ हो सकता है। मुक्तिरमणीके गुणों की तरफ, विरोधी के दोषोंके कारण उपेक्षा करनेवाला-प्रीति न करनेवाला उसका स्नेहभाजन किस तरह हो सकता है । वह उसका प्रेम पूर्वक किस तरह आलिंगन कर सकता है। अत्र क्रमानुसार सम्यग्दर्शन के चौथे अंग अमूढ दृष्टि नामका वर्णन करते हैं
कापथे पथि दुःखाना कापथस्थेऽप्यसम्मतिः ।
असंयक्तिरनुकीर्तिरमूढा दृष्टिरुच्यते ॥ १४ ॥ भर्थ-जो दुःखों का मार्गरूप है ऐसे कापथ-खोटे मार्ग-उपायमें एवं उस मार्गपर चलन वालाोंके प्रति सम्मानका भाव न रखना उनको सत्य न समझना उनसे सम्पर्क न रखना और उनकी प्रशंसा न करना सम्यग्दर्शन की अमूढता कही गई है ।
१-इस विषय में निम्नलिखित वाक्य और श्लोक दृष्टव्य है--अन्त: कलुपदोषादसद्भवमलोद्भावनसवर्णवादः शुद्धत्वाशुचित्वाशाविर्भावनम् संघे । (श्लो० वा०६-१३ तथा राजवार्तिक ६-१३, ७-१०)
तपरतीन जिनेन्द्राणां नेदसंवादिमन्दिरम् । आगो पत्रादि चेत्येवं चेतः स्याद्विचिकित्सना । स्वस्यैव हि स दोपोऽयं यन्न शक्तः श्रुताश्रयम् । शीलमाश्रयितु जन्तुस्तदर्थ वा निबोधितुम!i स्वतःशुद्धपि व्योम वीक्षते यन्मलीमसम् । नासी दोषोऽस्य किंतु स्यात्स दोपश्चक्षुराश्रयः ।। दर्शनादेहदोषस्य यग्तत्वाय जुगुप्सतं । स लोहे का लिालोकान्नूनं मुञ्चति कामचनम् ।। स्वस्यान्यस्य च कायोऽयं बहिरछायामनोहरः । अन्तर्विचार्यमाणः स्यादीटुम्बरफलोपमः ।।
ततिा च दहे च याथात्म्यं पश्यतां सतां । वेगाय कथं नाम चित्तवृत्तिः प्रवर्तताम् ।। (यश०६-1) तथा-प्रमज्जनमनाचामो नग्नत्वं स्थितिभोजिता । मिथ्याशो बदन्त्येतन्मुनेषचतुष्टयं । तत्रैष समाधिः-ब्रह्मचर्योपपन्नानामध्यात्माचारचेतसाम् । मुनीनां स्नानमप्राप्त दोष त्वस्य विधिर्मतः।।
संगे कापालिकानयोचाण्डालशबरादिभिः । प्राप्लुत्य दण्डवत् सम्यक् जपेन्मंत्रमुपोषितः ।। एकान्तरं त्रिरा वा कृत्या स्नात्वा चतुर्थके । दिन शुध्यन्त्यसन्हमृती इतगताः स्नियः ॥ यदेवांगमशुद्धं स्यादन्तिः शोभ्यं तदेव हि । अंगुली सर्पदष्टायां न हि नासा निकल्यते ।। निष्यन्दाशिवधी वो यद्यपूतत्वमिध्यते । तर्हि वस्त्रापवित्रत्वं शौचं नारभ्यते कुतः ।। विकारे विदुषां द्वेषो नाविकारानुवर्तने | तन्नमस्त्रे निसर्गोत्थे को नाम द्वेषकल्मषः ॥ नैकिचन्यमहिंसा च वृत्तः संयमिनां भवेत् । ते संगाय यहीहन्त वल्कलाजिनवाससाम ।। न स्वर्गाय स्थितेभुक्तिन श्वभ्रायास्थितः पुनः । किंतु संयमिलोकेस्मिन् सा प्रतिहामियत । पाणिपात्रं मिलत्येतच्लकिश्च स्थितिभोजने । यावचावाहं भुज रहाम्यावारमन्यथा ।। अन्यासंग वैराग्यपरिवहकृते कृतः । अतएव यतीशानां केशापाटनसविधि || यश -पर्यों अपाबन ठौर में कंचन राजे न कोय । कोकोक्ति।
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रत्नकरण्डश्रावकाचार
प्रयोजन-जिन्होंने मोच के उपाय को सिद्ध करलिया-प्राप्त कर लिया है उन प्राप्तों और उन्होंने जो कुल मागं बताया है उसको विषय करने वाले- प्रदर्शक आगम एवं तदनुसार चलने वाले निर्वाणपथिकोंके प्रति श्रद्धा का अनुकूल रहना मोक्षमागमें सम्यग्दर्शनकी प्रथम आवश्यक विशेषता है। यह ऊपरकी तीन कारिकाओं द्वारा बता दिया गया है। अब इस पर प्रश्न उठता है अथवा उठ सकता है कि यथार्थताका परिज्ञान किस तरह हो ? किसी के कहने मात्रसही किसी को वास्तविक देव आगम या गुरु मान लेना कहां तक ठीक माना जा सकता है। ग्रंथकारने भी तीनोंका ‘परमार्थ' विशेषण देकर श्रद्धा के विशेषरूप प्राप्त आगम और तपोभृत को यथार्थ और अयथार्थ इस तरह दो भागों में विभक्त कर दिया है। क्यों कि विशेषण दिया जाता है वह इतर व्यावृति के लिये ही दिया जाता है। अतएव यथार्थता को देखने के लिए उनके गुणदोषोंक तरफ दृष्टि देना आवश्यक हो जाता है । ऐसा करने के बाद जो आप्त आमम और गुरु निर्दोष
और गुणयुक्त सिद्ध हों और अपने अनुभवमें आवें उन्ही को यथार्थ मानकर उन्हींके उपदिष्ट मार्गपर चलना विवेक एवं घुद्धिमत्ता का कार्य माना जा सकता है । इसके विपरीत जो सदोष सिद्ध हो अथवा संसार के दुःखों से छुडाकर निर्वाध शाश्वत सुख के मार्ग में पहुँचाने के योग्य गुणोंसे पुक्त सिद्ध न हों उन्हें परमार्थरूप प्राप्त आगम गुरु नहीं मानना चाहिये । तथा ऐसे प्राप्तादिके चक्कर में पड़कर अपने कल्याण के मार्गको दुःखरूप बनाकर उसे अधिकाधिक दुखी बनाने से बचना चाहिये । ऐसे अपरमार्थरूप प्राप्तादिके द्वारा जो मार्ग बताया गया है वह दुःखरूप है। अतएव उससे सावधान करना उचित और आवश्यक समझकर इस कारिकाका निर्माण किया है। ___ इसके सिवाय श्रद्धानादि के विषय भृत अर्थ---द्रव्य तत्व एवं पदार्थ यदि युक्तिपूर्ण नहीं हैउनकी यथार्थता यदि निर्याध सिद्ध नहीं होती तो विषय के विपरीत रहने के कारण उनके द्वारा कल्याणका यथार्थ मार्ग भी किस तरह सिद्ध हो सकता है । वगलेको गरुड कहने या मानलेनेसे बगलेसे गरुडका काम तो नहीं हो सकता। इसीप्रकार जड पुद्र लादि को जीवादिरूप या जीव को जड ज्ञानशन्ध आदि मान लेने से भी जीव का प्रयोजन किस तरह निष्पन्न हो सकता है। वस्तुके यथार्थ स्वभावको धर्म कहा है | यदि वह य वार्थ नहीं है तो वह धर्म भी नही है । उससे वास्तनिक सुख की प्राप्ति न होकर दुखका ही अनुभव हो सकता है । मोह अज्ञान और कषाय ये तीनो दुखरूप हैं। इन तीनोंके धारक साक्ति स्वयं दुःखी है और उनके सम्बन्ध से दूसरे भी वास्तवमै दुःख के ही पात्र बनते हैं। फलतः ये तीनों ही कुधर्म और उनके धारक अथवा आश्रय इस तरह छह अनायतनर माने गये है। जो मोहयुक्त है वह प्राप्त नहीं जो द्रव्यादिका ठीक २ स्वरूप दिखाने में असमर्थ है वह यथार्थ आगम नहीं और जो कषाययुक्त है वह सच्चा तपस्वी १–सन्तस्तस्थं नहीञ्छन्ति परप्रत्ययमानतः यशस्तिलक ।।
मिथ्यात्वका आश्रय प्रतिमा और मन्दिर, अज्ञान का आश्रय कुशास्ता और कुचारिश का पाश्रय पाखण्डी साधा
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का टीका चौदा
१२.१
नही । इनसे धर्मका फल सिद्ध नहीं हो सकता । अतएव मुमुक्षुको मन वचन कापसे इसतरह इन सेवक चलना चाहिये और दूसरों का भी किसी भी प्रकारका अहित न हो उसको चाहिये कि अपनी बुद्धिको इन विषयों में मोहित न होने दे। मोही अज्ञानी और सकवाय व्यक्तियों के मोहक परिणाम वचन और प्रवृत्तियों से जैसे भी हो अपने को बचाकर रखने से हो सम्यग्दर्शन शुद्ध और परिपूर्ण रह सकता है और वास्तविक फलको उत्पन्न कर सकता है। अतएव इस अंगका भी बताना आवश्यक है।
प्रथम अंगदेव, दूसरेमें आगा, और तीसरेमें गुरुकी मुख्यता है यह पहले यथावसर बताया गया हैं । सम्यग्दर्शनके विषय जिस तरह अस आगम और तपोभृत् हैं उसी तरह तस्वार्थ भी हैं। प्रथम तो जो आप्तादि हैं वे स्वयं ही तच्चार्थ हैं । मूर्तिमान तत्वार्थ होनेसे दोनों में भेद नहीं हैं । श्रथवा भेददृष्टि से विचार करनेपर तस्वार्थ से प्रयोजन छह द्रव्य सात तस्व, नव पदार्थ, पंचास्तिकाय, इन सभी से है । इनके सिवाय सिद्धान्त के पालनवर्षा आम्नाय दिसे भी है। क्योंकि सम्यग्दर्शनकी वास्तविकता सभी श्रद्धय विषयोंकी यथार्थता पर अविक निर्भर हैं ।
कारिका नं० ४ में दिये गये परमार्थ विशेषणसे जिन विषयोंका वारण किया गया है उनमें मोहित होनेवाले व्यक्तिका सम्यग्दर्शन समल पूर्ण अथवा अंगहीन माना जा सकता हैं। मुमुचु सम्पष्टिकों जिनमें मोहित नहीं होना चाहिये वे विषय मुख्यतया दो भागों में विभक्त किये जा सकते हैं। या तो कुपथ — कुमार्ग, और उसके अनुसार चलनेवाला | अथवा कृपथ और उसके आश्रय । अर्थात् मिध्यात्व अज्ञान और कुचारित्र अथवा कुपथ और उसके धारण करने वाले मिध्यादृष्टि अज्ञानी और कुगुरु — हिंसामय, दयाशून्य, विवेकरहित प्रत या तप करनेवाले । इस तरह ये छः अनायतन हैं। अथवा कुदेव सुत्पिपासा भादि अठारह दोषोंसे युक्त मोही रागी द्वेषी एवं संसार प्रपञ्चमे पड़े हुए तीथकराभास आदि व्यक्ति विशेष एवं संशय विपर्यय अनध्यवसाय दोपांस युक्त युक्तिशून्य पूर्वापर बाधाओंसे पूर्व असमीचीन द्रव्यादिको विषय करनेवाला मिथ्या अप्रमाणभूत ज्ञान, हिंसा अवक्ष और परिग्रहसे युक्त चेष्टाएं- आचरण इस तरह तीन और इनके आश्रयभूत तीन अर्थात् कुदेवों की प्रतिमा और मन्दिर तथा असत् वष्त्रका जिनमें निरूपण किया गया है ऐसा मिध्याशास्त्र एवं असमीचीन धर्म व्रत आचरण तप श्रादिके धारण करनेवाले और उसका आग्रह रखनेवाले एवं समर्थकं प्रचारक श्रादि ।
इस तरहसे भी छह अनायतन हैं। ये अनायतन ऊपरसे कितने ही सुन्दर मालुम पड़ते हों परन्तु अन्तरंग में दुरन्त हैं दुःखरूप हैं, दुःखरूप संसारके जनक एवं वर्धक हैं। अतएव सम्र दृष्टि जीवको इनमें मोहित नही होना चाहिये । कदाचित् मोहित करनेवाले प्रसङ्ग भाकर १- अन्तसु रेन्तसंचारं बहिराकार सुन्दरम् । न श्रभ्यात् कुटीन मतं किंपाकसन्निभं ॥ प्रशस्तिलक ६-१०-१
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বস্তুগালগালা उपस्थित होजाय तो सम्यग्दृष्टि जीवको तत्त्वज्ञान और विवेकसे काम लेना चाहिये और रेवती रानीकी तरह श्रद्धानसे चलायमान न होकर दृढ रहना चाहिये । ऐसा होनेपर ही सम्पग्दर्शन पूर्व माना जा सकता है यह बताना भी इस कारिका प्रयोजन है।
आचार्यों ने सम्यग्दर्शनके पांच प्रतीचार बताये हैं।–१शंका २ कांदा ३ विचिकित्सा ४ अन्यष्टिप्रशंसा और ५ अन्यदृष्टिमम्तव । कहीर पर अन्यदृष्टिसंस्तवकी जगह अनायतनसेवा नामका अतीचार गिनाया है । पाठक नहानुभावोंको बताने की आवश्यकता नही हैं कि सम्यकनर्शनके सार प्रधानसे पहले तीन अंगका सम्बन्ध, इन पांच प्रतीचारों मेंसे प्रथम तीन प्रती. वारोंके साथ स्पष्ट है---शंका कांचा विचिकित्सा इन तीन प्रतीचारोंके निहरमासे ही कमसे निःशंकित निकांक्षित और निर्विचिकित्सा नामके सम्यग्दर्शनके पहले तीन अंग बनते हैं। इसके बाद अन्यदृष्टिप्रशंसा और अन्यदृष्टिसंस्तव अथवा अनायतनसेवन नामके अतीचार शेष रह जाते हैं। अतएव इनके निवृत्त होनेपर ही सम्पग्दर्शनकी पूर्णता हो सकती है अन्यथा नहीं विषय अघ्रा ही न रह जाय इस दृष्टिसे यह बताना भी अत्यन्त आवश्यक था । फलतः स्पष्ट मालुम होता है कि इन शेष अतीचारोंसे रहित रुम्यग्दर्शनके चतुर्थ भंगभूत गुणको बताना मी भावश्यक है इस प्रयोजनको लक्ष्यमें रखकर ही ग्रन्थकर्ताने प्रकृत कारिकाका निर्माण किया है। __प्रशंसा और संस्तवमें मन और वचनकी अपेचा अंतर है । मिथ्याष्टियाँको मनमें अच्छा समझने या माननेको अन्याष्टिप्रशंसा और बचनसे उनको अच्छा बताना प्रत्यष्टिसंस्तव कहाजाता है। प्रकृत कारिका कापथ और कापथस्योंकी मनसे प्रशंसा करने वचनसे उचमता के प्रतिपादन करने तथा शरीरसे सहयोग देने का निषेध करके मन वचन काय एवं त्रियोग पूर्वक सम्यग्दर्शनको मोहित न होने देनेका उपदेश दियागया है । अतएव प्रश्न हो सकता है कि जब पत्रकारने मन और वचनके द्वारा ही प्रशंसा एवं संस्तव किया जानेपर अतीचारका लगना बताया है तर यहाँपर शरीरके सम्पकसे भी अतीचार प्रयवा अंगमंगका निरूपण करना क्या अतिव्याप्त कथन नहीं है ?
उत्तर-यह कथन अतिव्याप्त नही है। क्योंकि मन और बचनकी प्रषिकी अपेक्षा शारीरिक प्रवृत्ति अत्यन्त स्थूल है। जब मन और वचनकी ही अन्यथा प्रकृतिका निदेव किया गया है सब शारीरिक विपरीत उक्त प्रवृत्तिका निषेध स्वयं हो जाता है। प्रथवा सूबम विपरीत प्रवृत्तिके निषेधमें ही स्थूल मिध्यप्रवृत्तियोंके निषेधका अन्तर्भाव करलेना चाहिये।
प्रश्न- दसरे प्राचार्यानि अनायतनसेवा नामका एक अतीचार स्वतंत्र बताया है जो कि -अतीचारोंशभखनम,, अथवा "देशस्य भंगो शातिचार उक्तः" अर्थात् सम्यग्दर्शन का प्रतादिभशतः सारित होने को अतीचार कहते हैं। -शाकाहाचिकित्सान्यदृष्टेिप्रशंसासंस्तवः सम्पमाप्टेरतीचाराः सर सू०७.२३ । ३-सम्मत्तावीचारो सका कंसा सहेर विदिगिया। परदिट्ठीण प्रसंसा भगायदणसेवणा व भ० भाराधमा । तथा भन० धर्मावत ।
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पद्रिका टीका बौदहवां लीक सूत्रकार आदि आचार्योंने नहीं बताया। इसका क्या कारण है ? क्या यह पूर्वापरविरुद्ध
कपन नहीं है।
उत्तर—यह कथन पूर्वापर विरुद्ध नहीं है । जो कथन सापेव नहीं है, जिसमें अन्य भागम से पाथा आती है, जो युक्तियुक्त नहीं है, ऐसा ही कथन विरुद्ध माना जाता है। जैनागम अनेखान्तरूप तत्त्वका स्याद्वाद पद्धतिसे वर्णन करता है । अत एव जैनाचार्योक जितने भी वाक्य है या जो भी कथन हैं वे सर सापेक्ष हैं और इसीलिये विरुद्ध नहीं हैं। उनमें पूर्वापर विरोधकी शंका करना ठीक नहीं । मन्दबुद्धि के कारण अथवा आनायका ज्ञान न रहनेक कारण दो कथनों में यदि कदाचित कहीं पर भी किसी भी विषयके प्रतिपादन में विरोध मालुम पड़ता है तो वह वास्तविक विरोध नहीं है यह मानकर उसको विरोधाभास ही समझना चाहिये। ऐसे अवसरपर दोनों ही कथनोंको प्रमाणही मानना उचित है । और इसीलिये उन दोनों को ही जिनेन्द्र भगवान्का कहा हुमा मानना और उनका उसीप्रकार श्रद्धान करना उचित है ।
प्रकृत दोनों कथन भी सापेक्ष होने से विरुद्ध नहीं किन्तु दोनों ही प्रमाण है। क्योंकि यहांपर सामान्य विशेष की अपेक्षासे दोनों ही कथन श्रय एवं उपादेय हैं। अनायतन सेवा में शरीर के सम्बन्धकी मुख्यता है। फिर चाहे वह प्रशंसनीय समझ कर हो या न हो । मनसे प्रशंशा और वचन से संस्तव करने में प्रशंसनीय न समझनेका कारण ही नहीं है | शरीर से जहां अनायतनों की संवामें सम्मिलित हुश्रा जाता है वहां दोनों ही भाव संभव हो सकते हैं। होसकता है कि उन अनायतनों को प्रशंसनीय समझ कर-श्रद्धापूर्वक उनमें सम्मिलिन हो और यह भी संभव है कि उनको प्रशंसनीय तो न समझे-उनमें श्रद्धा न रखकर भी किसी के अनुरोव मादि से उन में शरीरतः सम्मिलित होना पड़े ! क्योंकि लोकव्यवहार में देखा जाता है कि व्यापारादि सम्बन्ध के कारण, अथवा सजातीय किन्तु विधर्मिषों से विवाहादिसम्बन्धों के कारण, यद्वा विनियों के राज्याअय मादिके कारण कापथमें श्रद्धा न रहते हुए भी लोगों को कापथस्था के साथ सम्पर्क रखना पड़ता है और उनका यथायोग्य विनय करना भी उनकेलिये आवश्यक होता है। ऐसी अवस्थामें शारीरिक सम्पर्क उस तरहका दोषाधायक नहीं हो सकता जैसा कि प्रशंसनीय समझकर किया गया सम्पर्क मथवा मानसिक प्रशंसा और वाचनिक संस्तव दोपाधायक होसकते हैं । मालुम होता कि संभवतः इसीलिये ग्रन्थकारने असम्मति और अनुत्कीतिके मध्यमें असंपृक्तिका उल्लेख करके यह सूषित किया है कि यदि सम्मति और उत्कीतिकी तरह ही सम्पर्क भी श्रद्धापूर्वक है-मोहितबुद्धिके कारण से है तो शारीरिक सहयोगके निमित्तसे भी सम्यग्दर्शन उसी प्रकार मलिन प्रथया अंगहीन समझना चाहिये जैसा कि शंका कांक्षा विचिकित्सा यद्वा अन्यदृष्टि प्रशंसा और संस्तवके कारण हुआ करता है।
इस तरह विचार करनेपर सम्यग्दर्शन की निरविचारता तथा सर्वाङ्ग पूर्णताको स्पष्ट करनेके लिये अमृदृदृष्टि अंगके प्रतिपादन करनेवाली इस कारिकाके निर्माण का प्रयोजन अच्छीतरह समझ में पा सकता है।
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काकाचार
शब्दों का सामान्य विशेष अर्थ -
कापथ - पुत्तिविरुद्ध खोटे अथवा अहितकर उपायका नाम कापथ हैं। मार्ग उपाय साधन य
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सब शब्द एक ही अर्थ के वाचक हैं। जो वस्तु स्वरूप के विरुद्ध हैं वे सब कुमार्ग हैं । उन्हीको कापथ कहते हैं । श्रत एव जितने एकान्तबाद जितने विपर्यस्त कथन हैं, संशयात्मक या संशयको उत्पन्न करने वाले निरूपण हैं वे सब मिथ्या देशनाएं हैं और उनके द्वारा जो कल्याणका मार्ग
साया जाता है वह यथार्थ नहीं है-कापथ हैं। उससे जीवोंका वास्तविक हित सिद्ध न होकर अस ही हो सकता है । यही कारण है कि श्राचार्यने कापथ का विशेषण “दुःखानां पथि" 'दुःखोंके मार्ग' ऐसा दिया है । अत एवं यह कहना भी अयुक्त होगा कि जो २ दुःखोंके मार्ग साधन या उपाय हैं वे सभी वापथ हैं। वस्तुरूप की इन अयुक्त अथवा विरुद्ध मान्यताओं के आचार्यों ने मुख्यतया ३६३ तीन सौ त्र सठ भेद आगम में बताये हैं।
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कापथस्थ — ऊपर बतायेगये कापथपर जो यह विश्वास रखते हैं कि वह यथार्थ है सत्य है और हित है वे सभी कापथस्थ हैं । इनके सिवाय जो उसका जानकर या विना जाने देखा देखी समर्थन करते हैं और उसके अनुसार आचरण करते कराते हैं वे भी कापथस्थ हैं। तथा जिनके निमित्त से उक्त कापथका प्रचार होता है वे भले ही अचेतन क्यों न हों वे भी कापथका श्राश्रय होने के कारण कापथ ही है और उनके जो माननेवाले हैं वे भी सब कापथस्थ ही हैं। ऐसा समझना चाहिये ।
असम्मति यद्यपि सम्मति शब्द का अर्थ प्रसिद्ध है कि किसी भी विषयमें समान अभिप्राय प्रकट करना, समान रूपमें उसविषयकी मान्यता रखना या दिखाना । अथवा उसको स्वीकार करना । किन्तु यह शब्द सम् पूर्वक मनु अत्रोने धातुसे क्ति प्रत्यय होकर बनता है। अत एव सम् का अर्थ समान करनेके बदले समीचीन- प्रशस्त अर्थ करके सम्मति का अर्थ सम्यग्ज्ञान किया जाय तो अधिक उचित होगा । सम्यग्ज्ञान को ही प्रमाण माना है । इसलिये सम्मतिका अर्थ प्रमाण न मानना होना चाहिये फलतः कापथ और कापथस्थों को प्रमाण न माननेसे--उनके विविध श्राकर्षणों के सम्मुख आनेपर भी उनमें मोहित न होनेसे सम्यग्दर्शन का यह चौथा अंग प्रसिद्ध होता है । प्रमाण मानना न मानना यह मनका विषय है । श्रत एव इस शब्द से मुख्यतया मन में मोहित न होना श्रर्थ ही व्यक्त होता है किन्तु मनके अनुसार शरीर और वचन से भी मूढ भाव दिखाने के लिये असंपृक्ति और अनुकीर्ति शब्दका भी प्रयोग किया गया है।
तात्पर्य ---- यह कि देव शास्त्र गुरु के स्वरूप के सिवाय पदार्थ और श्राचरणके स्वरूप में भी अनेक प्रकार की मिथ्या मान्यताएं हैं। सैद्धान्तिक मिथ्यामान्यताएं ३६३ आगममें बताई हैं जो कि भावरूप से अनादि हैं । द्रव्यरूपसे इनका बाह्य प्रचार हुंडावसर्पिणी कालके निमित्तसे आज १ - असोदि सर्द किरिया अकिरिया च बहुचुलसी दो । सप्तट्टणाणीण वैणियाणं तु बशीसं ॥७६॥ गो-कट किन्तु इन ३६२ मिथ्यामतों के सिवाय भी देवैकान्त पौरुषकान्त आदि अनेक एकन्त रूप मिया मान्यताएं भी प्रचलित हैं। देखो गो० क० गोधानं श्रादि ।
२- जैसा कि इसी कारिकाकी टिप्पणी नं० १ में गिनाया है। गोम००गाथा गं
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चंद्रिका टीका taraf लोक
कल इस भरत क्षेत्रमें पाया जाता है। इनमें मोहित न हानसे सम्यग्दर्शन निरतीचार रहा करता और श्रष्टि अंगसे पूर्ण माना जाता है । अन्यदृष्टि प्रशंसा, अन्यदृष्टि संस्तव, और अनायतनसेवा इन अतिचारोंसे भी बचे रहनेपर ही इस अंगकी पूर्णता संभव है, अन्यथा नहीं ।
ध्यान रहे आचार्य यहां पर कापथ और कापथस्थ दोनोंसे ही मोहित न होनेके लिये उपदेश दिया है। अत एव जिस तरह मिथ्यात्व के सम्पूर्ण भेदोंसे और मिथ्या सिद्धान्तों - मतोंके भेदोंसे बचे रहने की आवश्यकता है उसी तरह निष्यः चरणों में भी मोहित न होनेकी आवश्यकता है। साथही मिध्यादृष्टियों मिथ्याज्ञानियों और मिथ्या चरणवान् पाखण्डी तपस्वियोस भी सावधान रहने की आवश्यकता है
ध्यान रहे महापति श्राशावरजीने मिध्यादृष्टि अनायतन की संगतिका निषेध करते हुए त्रिलोक पूज्य जिनमुद्रा को छोडकर मिय्यावेश भारण करनेवाले की तरह उन आर्हती मुद्राधारण करके विचरण करनेवालों की भी संगति का मन वचन कायसे त्याग करने का उपदेश दिया है. जो कि अजितेन्द्रिय हैं, केवल शरीर मात्र से जिनमुद्राके धारक हैं, परन्तु भूतकी तरह धर्मकाम लोगों में प्रवेशकर यद्वा तद्वा चेष्टा करते या कराया करते हैं। अथवा म्लेच्छों की तरह लोक शास्त्र त्रिरुद्ध आचरण किया करते हैं३ । पाखण्डियोंका सम्बन्ध न रखनेका उपदेश लोक४ में भी पाया जाता है।
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मान्यताओंके भेदसे मिथ्यादृष्टि सात प्रकार के हो सकते हैं। क्योंकि सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र इन तीनों की एकता मोहमार्ग हैं । यह एक मान्यता सत्य और समीचीन हैं । किंतु इसके विरुद्ध इनमें से एक एक को न मानना - सम्यग्दर्शनकी मोक्ष के लिए आवश्यक्ता है, यह बात न मानना, इसी तरह सम्यग्ज्ञान को अनावश्यक अथवा चारित्र को कारण न मानने मे तीन मिथ्या मान्यताएं होतीं हैं। इसी तरह दो दो के न मानने से तीन और तीनों ही के न माननेसे एक, कुल मिलाकर सात मिथ्या मान्यताएं हो सकती हैं । अथवा तीनोंमेंसे एक एककोही कारण माननेसे तीन, दो दो को ही मानने से तीन, एवं तीनोंकोही पृथक पृथक कारण मानने से एक, इस तरह से भी मिध्या मान्यताएं सात प्रकारकी हो सकती हैं।
इन मिध्या मान्यताओं को रखनेवाले जीव सात प्रकारके मिध्यादृष्टि हैं । अतएव उन सातों ही प्रकारके मिध्यादृष्टि जीवों के वचन, व्यवहार वैभव यादिसे अपनी बुद्धि मन या विचारों को मोहित अथवा मलिन नहीं होने देना चाहिये, न वचन द्वारा उनकी प्रशंसा करनी चाहिये और
१- विदेहादिक क्षेत्रों में सदा द्रव्यरूपसं दिगम्बर जैन धर्म ही प्रवत्तमान रहता है।
२- क्योंकि कोई भी समीचीन या मिध्या त्रिक (दर्शन ज्ञान आचरण) अथवा कोई भी धर्म व्यक्तिसे भिन्न अपना अस्तित्व नहीं रखता ।
३ – मुद्रां सांव्यवहारिकी त्रिजगतीबन्यामपोद्यानी वामां केचिदथयो व्यवहरन्स्यन्ये बहिस्तां श्रिताः । लाक भूतयदाविशन्त्य वशिनस्तच्छायया चापरे, म्लेच्छन्तीह तस्त्रिधा परिचमं पु देहमाईस्थज || अन० २०६६ ४- पास्वरितो विकर्मस्थान वैडालब्रतिकान् शठान हेतुकान्वकवृत्तींश्च वामात्रेणापि नार्चयेत्
उद्भुत ।
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रस्नकरण्डश्रावकाचार न शरीर से उनका सम्पर्क ही करना चाहिये । मिध्यात्त्र और मिथ्यादृष्टि योंकी सरहसेही मिध्या शान और मिथ्या ज्ञानियोंके विषयमें एवं मिथ्या चारित्र और उसका पालन करनेवालोंके विपर में समझना चाहिये।
हेत्वाभास मन अपेनाओं, और मल रिद उदारों से प्रायः जगत मोहित कुमा करता है । संप्रति कलिकाल है । और लोग स्वभावसेही सकषाय हैं फिर यदि प्रयुक्त हेतु दृष्टांत मादिके द्वारा रोचक पद्धति से वर्णन करनेवालों का समागम हो जाए तो साधारण मनुष्यों का मन मृति एवं विषाक्त क्यों नहीं हो सकता ? अवश्यही हो जा सकता है । अतएव मिथ्याज्ञानियों की संगतिसे अपनी श्रद्धा बुद्धि को बचाकर रखनाही उचित एवं श्रेयस्कर है।।
इसी प्रकार जहाँपर वास्तबमें हिंसा अहिंसा का और उसके फलस्वरूप दुख सुख के स्वरूप का, यद्वा मूल तच जीव अजीव भाश्रव वन्ध संघर निर्जरा मोक्षकासी परिमान श्रद्धान नहीं जो कि विवेक से भी सर्वमा परे हैं ऐसे सभी मिथ्या तप प्रत आचरसों और उसके प्रवर्तक मिथ्याचारों से विवेकी सम्यग्दृष्टि को अवश्यही बचकर रहना चाहिये । ऐसा रहनेपर ही उसका सम्यक्त्व अमूह माना जा सकता है और रह सकता है।
इस तरह इन चार कारिकाओं के द्वारा निवृत्ति रूपमें बताये गये सम्यग्दर्शनके चार अंगोंका वर्णन समास होता है। क्योंकि शंका कांक्षा विचिकित्सा अन्यदृष्टिप्रशंसा अन्यदृष्टिसंस्तव अनायतनसंवा नामस पागम में कहे गये सम्यग्दर्शन के अतीचार रूप दोर्पोका और उनके निमित्त से होनेवाले मलिनता एवं अंग भंगांका परिहार किया गया है। इनको गुण शन्दसे इसीलिये कहा जाता है कि ये दोपोंके अभावरूप हैं । जिसतरह उष्णताके अमावको शांत और अन्धकार के अभाव को प्रकाश कहा जा सकता है उसी तरह अंशतः भंगरूप मतीचारों या दोषों के प्रभाव को गुण कहा जा सकता है । सम्यग्दर्शनके २५ मलदोषोंमें इनके अभाव को अर्थात् शंका कांक्षा आदिको दोष गिनाया है। फलतः इन दोषों की निवृत्ति सम्यग्दर्शन के गुण हैं।
इसके सिवाय एक बात और है; यह यह कि
आगम में सम्यग्दर्शन के चिन्हरूप प्रशम, संवेग, अनुकम्पा और आस्तिस्य इसतरह भार गुण बताये हैं। जिनको कि देखकर सम्ग्द र्शन का अनुमान किया जा सकता है; ___ क्योंकि सम्यग्दर्शनके होनेपर ये गुण अवश्य होते हैं । निःशंकितादिक के माथ इनका संबंध
१-इस विषयमें निम्नलिखित पद्योंकी उक्तियां मानमें देने योग्य है। कुहेतुनयदृष्टांतगरलोद्गारदारुणैः । आचार्यव्य-जनैः संग भुजंगर्जातु न ब्रजेत् (अन०२-६८)
कालः काला कलुपाशयां चा । श्रीतुःप्रवक्तुर्वचनानयो वा त्वच्छासनकाधिपतित्वलक्ष्मीप्रभुत्वशक्तेरपवादहेतुः । (युक्त्यनुशासन) दृष्टान्ताः सन्त्यसंख्येयाः मतिस्तदशवनिनो । कि न कुयु मही धूर्ताः विवेकहिता
ममाम् || यशस्तिलक । अथवा-रागउदै जग अन्ध भयो सहजे सर लोगन लाज गमाई | सीख विना सर सौखत है विषयनिके सेवन की चतुराई । वापर और रचे रसकाव्य कहा कहिये निनकी निठुराई । अन्य सामा नको आखियानमें झोंकत हैं रज रामदुहाई ॥ जैनशतक . पं० भूधरदासजी
२-इसके लिए देखो अनगार धर्मामृत भ०२ श्लोक ५२-५३ ।
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चंद्रिका टीका चौदहवां लोक विद्वान लोग भले प्रकार समझ सकते हैं। विचार करनेपर मालुम हो सकता है कि आस्तिक्य का संबन्ध निःशंकित अंग है । निःशंकित अंग के समान ही चास्तिक्य से भी देवादि अथवा हेयोपदेय रूप स्वपर तस्व के सम्बन्ध में दृढताही अपेक्षित है। वह देवके स्वरूप की तरह उनके वचन में भी शंकित - चलितप्रतीति नहीं हुआ करता। इसीतरह संवेग गुणके विषयमें समझना चाहिये । सम्यग्दृष्टि कर्म और कर्मफलको नही चाहता । संसार और उसके कारणोंसे भयभीत रहने को ही संवेगर कहते हैं। संसार और उसके कारण कमफल और कर्मसे भिन्न नहीं है फलतः निःकांक्षित अंगके साथ संवेग गुणका सम्बन्ध स्पष्ट है । परानुग्रह बुद्धिको अनुकम्पा या दया कहते हैं । सम्यग्दृष्टि जीव नियमसे अनुकम्पादान हुआ करते हैं। प्रत्युत दूसरे जीवोंकी अपेक्षा उनकी अनुकम्पा विशिष्ट होनेके सिवाय विवेकपूर्ण भी हुआ करती है। सम्यग्दृष्टि जीव से युक्त दोनेके कारण रक्तत्रय मूर्ति साधुओं पर बास शरीरादिकी मलिनता आदिके कारण जुगुप्सा नहीं किया करता । ग्लानि, जुगुप्सा विचिकित्सा आदि भाव, द्वेष अस्था या उपेचाके ही प्रकार हैं। और जब कि मोक्षमार्गके पथिक रत्नत्रयमूर्ति साधक औरों की अपेक्षा विशेषतः अनुकम्प्य है तब स्पष्ट है कि जो निर्विचिकित्सा अगसे युक्त हैं, वह अनुकम्पादान भी अवश्य है । अतएव निर्विचिकित्सा और अनुकम्पा दोनों ही गुण परस्पर सम्बद्ध हैं यह स्पष्ट हो जाता है । कापथ और कापस्थों में मोहित न होना एवं उनमें राग न करना ही प्रभू दृष्टि अंग है। प्रशमगुण भी रागादिके उद्रिक्त न होनेसे माना है। अतएव सिद्ध है कि जो अमूह दष्टि है वह प्रशमगुणसे भी युक्त अवश्य है।
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निर्विचिकित्सित
इस कथनसे निशंकितादि गुणोंका आस्तिक्यादि से जो अविनाभाव संबन्ध हैं उससे उनका जो गुणपना है वह ध्यान में श्रासकता है। फिर भी यह बात लक्ष्यमें रहनी चाहिये कि प्रशम संवेग अनुकम्पा में जो कषाय का अभाव दिखाई पडता या रहा करता या पाया जाता है वह स्थान के अनुसार ही संभव है। चतुर्थगुणस्थानवती के अनन्तानुबन्धी कषायका ही अनुद्रेक हो सकता है। पांचवे गुणस्थान वाले के अप्रत्याख्यानावरण का, छठे सातवे यादि में प्रत्याख्यानावरण का तथा श्रागे यथायोग्य संज्वलन का अनुद्रक पाया जा सकता है। अतएव उसको श्रागमके अनुसार यथायोग्य घटित कर लेना चाहिये ।
इस प्रकार दोपों या अतिचारोंके निईरण की अपेक्षा चार तरह से तथा चार विषयोंमें प्रवृति होने के कारण उत्पन्न हो सकने वाली चार प्रकार के मलिनताओं के प्रभाव के निमित्तसे सम्यक दर्शन के जो चार अंग होते हैं उनका स्वरूप बताकर अब गुरुवृद्धि अपेक्षा विधिरूपसे कहेजाने वाले चार अंगोंका स्वरूप आचार्य क्रमसे पवाने का प्रारम्भ करते हुए सबसे पहले उपगूहनका स्वरूप बताते हैं।--
१--यथा “इदमेवेदमेव" इत्यादि । इससे आस्तिक्यगुण प्रकट होता है। क्योंकि "श्रीषादयोऽर्था यथात्वं फँसीसि मसिरास्तिक्यम् || २--संसाराद् भोक्ता सँबेगः ॥ ३- रागादीनामनुब्रेकः प्रशमः । स० सि०
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रत्मकरगहनाषकाचार
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स्त्यं शुद्धस्य मार्गस्य वालाशक्तजनाश्रयाम् ।
वाच्यतां यत्रमार्जन्ति तद्वदन्त्युपगृहनम् ॥१५॥ अर्थ–रत्नत्रयरूप मोक्षमार्ग स्वभाव से ही शुद्ध है। यदि अज्ञानी अथवा असमर्थ लोगों के निमिनसे उसकी वाच्यता-निंदा हो या संभव हो तो उसका जो प्रमार्जन-निराकरण अथवा पाच्छादन करनेवाले हैं उनके उस गुणको प्राचार्य उपगृहन कहते हैं।।
प्रयोजनऊपर इस कारिका के प्रारम्म में जो उन्धानिका दी गई है उससे इस कारिका का प्रयोजन बात हो जाता है। इसके सिवाय अनादि मिथ्यादृष्टि सादि मिथ्यादृष्टि और सम्यग्दृष्टि इन सबकी प्रवृत्ति एक सरीखी नहीं हो सकती। उनकी बाह्य प्रवत्तिके अंतरंग कारण भूत परिणामोंमें बलवत्तर स्वाभाविक और महान अन्तर अवश्य रहता है। यह बात युक्ति अनुभव
और भागम से सिद्ध है जहां कार्य भेद है वहां कारण भेद भी अवश्य है यह कथन युक्तिसंगत है। एक व्यक्ति तो मानवंशिक रोगकै कारण प्रारम्भ से-जन्मसे ही पीडित है दसरा स्वस्थ था, परन्तु मिथ्या आहार विहार के कारण रोगी होगया है। तीसरा वह है जो रोग से मुक्त होकर पुनः रोगग्रस्त हो गया है। इन तीनोंकी अंतरंग वहिरंग प्रवृत्ति एक सरीखी नही होसकती क्यों कि निदान भेदके अनुसार चिकित्सा और उसके कान पन्नाला जाता है। इसीतरह प्रकृतमें भी समझना चाहिये। निदान परीक्षामें प्रात नैध रोगीकी वाम प्रषियोंको देखता है कि इसकी किस विषय में रुचि है इसको किस तरह का चलना फिरना शयन स्नान आदि विहार पसंद है और वह अनुकूल है अथवा प्रतिकूल । इस सब पातको समझ लेने के बाद जो चिकित्सा की जाती है वही वास्तविक सफलता दे सकती है अन्यथा नहीं। इसी प्रकार किस तरहका सम्यग्दर्शन वास्तविक मोधरूप फलको उत्पन्न करने में समर्थ और सफल हो सकता है। इस विषयके विशेषज्ञ एवं संसाररोगके असामान्य चिकित्सक भाचार्यन रणत्रयरूप भौषधका यथाविधि-काल और क्रमके अनुसार सेवन करना पावश्यक बताया है। उसमें सम्यग्दर्शनरूप औषध २५ मलदोष रांइत होनी चाहिये यह कहागया है । इस सम्बन्धमें जिन भतीचाररूप दोषोंसे उसे रहित होना चाहिये यह बात तो ऊपर चार कारिकाओंके सारा बता दी गई है। अप यह बताना भी जरूरी है कि उसमें किन२ गुणोंका पाया जाना उचित और भावश्यक है क्योंकि दोषोंका अमाव और गुणोंका सद्भाब सर्वथा एक चोज ही नहीं है, दोनोंका ही विषय मिष है। सम्यक्त्व सहित जीव विवक्षित गुणोंसे युक्त है या नहीं यह बात उसकी असाधारण पत्तियोंसे ही जानी जा सकती है ययपि प्रशमादि ४ भाव भी सम्यास्तके चिनरूपमें बताएगये है। किंतु बे समी भन्तरङ्ग है।
पास क्रियाके साथ उनके अधिनाभावको समझना सामान्य बात नही है। स्वयं अनुभव रखनेवाला ही सम्यग्दृष्टि और मिथ्यारप्टिके प्रशमादिके अन्तरको समझ सकता है। ये सम्यकपित नाशिक शमादि हैं और ये मिण्यारप्टिके मामासरूप प्रशमादि में यह बात भनुमय
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पाका टाका पन्द्रहवालाक रखनेवाले तज्ज्ञ व्यक्ति ही समझ सकते हैं। किंतु यहाँपर जिन गुणोंको श्राचार्य बताना चाहते हैं उनका सम्बन्ध मुख्यतया बाह्य प्रवृत्तियोंसे है । जिनको कि देखकर सर्वसाधारण व्यवहारी जीव भी उस प्रवृत्तिके करनेवाले के सम्यग्दर्शनको जान सके-समझ सकें और मान सके । तथा पैसा मानकर उसके साथ सम्यग्दृष्टि जैसा व्यवहार कर सकें। ये पाहा प्रवृत्तियां चार तरहसे संभव हैं जिनको कि यहां और अन्यत्र भी सर्वत्र आगममें उपगृहन अथवा उपव्रहण और स्थितीकरस वात्सल्य तथा प्रभावनाके नामसे बताया गया है । यद्यपि उपगूइनादिको स्वयं अपनेमें भी धारण करनेके लिये कहागया है और वह ठीक भी है। किंतु प्रशमादिकी दरह उसगूहनादिका विषय स्व ही न होकर स्व और पर दोनों ही है । तथा पर विषय प्रधान है। उसके द्वारा स्व तो स्वयं ही समझमें आ जा सकता है। क्योंकि जो परके उपगृहनादिमें प्रवृच होगा वह अपना उपगृहनादि स्यों न करेगा, अवश्य करेगा। अतएव यहां परके उपगृहनादिमें सम्यग्दृष्टि जीव अवश्य ही प्राप्ति करता है यह बताना अभीष्ट है। इसलिये इस कारिकाका निर्माण हुआ है जिससे सम्यस्त्वका अविनाभावी कार्य एवं सम्यग्दृष्टियोंका आवश्यक कर्तव्य क्या है यह स्पष्टरूपसे समझमें या संके यही इसका प्रयोजन है।
इसके सिवाय पसर: सामान्य विशेषात्मा बायको सीकर न समझकर अथवा न मानके कारण जो इस विषय में एक प्रकारकी लोगों में भ्रान्त धारणा पाई जाती है उसका परिहारकर वास्त. विकताका निदर्शन करना भी इस कारिकाका प्रयोजन है। क्योंकि वस्तुमात्र जिस तरह सामान्यविशेषात्मक है उसी तरह थर्मके भी सामान्य और विशेष दो प्रकार है । सामान्यके अभावमें उसके किसी भी विषक्षित विशेषका प्रभाव कहा जा सकता है । परन्तु इसके विपरीत किसी भी विवक्षित विशेषके प्रभाव या विकार अथवा न्यूनाधिकताको देखकर सामान्यमें भी वही दोष यताना या मानना युक्तिसंगत और उचित नहीं है। __धर्मका जो सामान्य स्वरूप है वह सिद्धान्ततः युक्त है, निर्याध है, और यथाविधि पालन करनेपर अपने वास्तविक फलका जनक भी है। किंतु उसका पालन करनेवाले व्यक्ति हमा करते हैं। और वे व्यक्ति सभी एक सरीखे नहीं हुआ करते । उनमें अन्तरङ्ग योग्यता या अयोग्यताकं न्यूनाधिक रहनसे अनेकों ही प्रकार हैं। और द्रव्य क्षेत्र काल भावरूप बाय परिस्थिति अथवा निर्मित भी सबके समान नहीं हुआ करते । अतएव अन्तरंग और बहिरंग सभी परिपूर्ण कारण कलापसे युक्त व्यक्ति जिस तरह धर्मका यथावत् पालन कर सकता है वैसा अन्य नहीं। फलतः यदि कोई व्यक्ति धर्मका जैसा चाहिये वैसा पालन नहीं कर रहा है तो प्रतिमान व्यक्तिको उचित है कि वह उस व्यक्तिकी वैयक्तिक ऋटियों या कमजोरियां पर भी दृष्टि दे। परन्तु ऐसा न करके यदि वह उन वैयक्तिक दोपों या अपराधीको सामान्य धर्मक मत्थे महनेका अयन करता है तो यह कार्य न केवल अज्ञानमूलक ही है किंतु निन्दा और
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रत्नकरावकाचार
आदर्शवाद के नामसे भी कहा जा सकता है। जो कि मिथ्यात्वका ही कार्य और कारण हैं। । तथा सबसे बड़ा भयंकर पापर हैं। सम्यग्दृष्टि जीव इस तरहके कार्यको पसंद तो नहीं ही करता सहन भी नहीं कर सकता । वह शक्तिभर उसको दूर करने का ही प्रयत्न करना अपना कर्तव्य समझता हैं । और वैसा ही करता भी हैं। अतएव वैयक्तिक दोषोंके बदले शुद्ध निर्दोष एवं जगत्के परम हित रूप मार्गकी निन्दा छिपाना, दवाना निराकरण करना आदि अपना आवश्यक एवं पवित्र कर्तव्य समझकर यदि सम्यादृष्टि पैसा करता है तो वह अपने सम्यग्दर्शन की स्थिति या विशुद्धिको ही प्रकट करता है। क्योंकि वैसा करनेसे कमसे कम इतना तो अवश्य ही स्पष्ट हो जाता है कि इसका सभ्यग्दर्शन इस विषय में महीन नहीं है अथवा गुणसहित हैं और अवश्य ही अपने वास्तविक फलको उत्पन्न करने में समर्थ हैं। इस तरह शुद्धमार्गके विरुद्ध फैलते हुए अवाद और उसकी निन्दाको दूर करनेके लिये अन्तरंग में उस जीवको प्रोत्साहित करना सम्यक्दर्शन के जिस गुणका काम है उसीको उपगूहनअंग कहते हैं। यह स्पष्ट करना ही इस कारिका के निर्माणका प्रयोजन हैं ।
शब्दों का सामान्य विशेष अर्थ --
स्वयं विना किसी पर सम्बन्ध के स्वभावसे अथवा स्वरूप से । शुद्ध-निर्मल, पवित्र या स्वच्छ | मार्ग - एक स्थान से दूसरे स्थान तक पहुंचने का एक अवस्थासे दूसरी अवस्था में परिणत होने का, अथवा किसी अन्य विवचित वस्तु को प्राप्त करने का जो क्रम और कारण अथवा उपाय हैं उसको कहते हैं मार्ग । बाल शब्द का अर्थ है अज्ञ । जो जिस विषयमें नहीं समझता वह उस विषय में बाल कहा जाता हैं । न्याय व्याकरण साहित्य छन्द शास्त्र आदि का जानकार भी हो यदि सिद्धान्त, दर्शन, धर्म का जानकार नहीं है तो वह उस विषयमें बाल है । फलतः अर्थ थोड़ी या छोटी उम्रका नहीं करना चाहिये। जिस तरह वृद्धों की संगति करनेके ---असद्धत अर्थकं प्रतिपादनको अववाद कहते है । यह अवबाद यदि सम्यग्दर्शनके विषयभूत आप्त देव (केवली) आगम (श्रुत) तपोभूत् (संघ) और स्वयं मोक्षमार्ग रत्नश्रय तथा उसके अविरुद्ध एवं साधनरूप प्रवृतियों (धर्म) अथवा उन प्रवृत्तियोंके फल ( देवगति आदि) के वास्तविक स्वरूपके विरुद्ध असद्भूत दोषों के प्रख्यापनरूपमें होता है तो अवश्य ही उससे दर्शन मोह (मिध्यात्व) का बन्ध होता है । अतएव अबवाद मिश्रा असाधारण कारण हैं। यथाकेवलिश्रुतसंघधर्मदेवावर्णवादी दर्शनमोहस्य । त सू० ६०१: । श्रवबाद जिस तरह मिध्यात्वका कारण है,
तर मिध्यात्वका कार्य भी है। क्योंकि कारण के बिना कार्य नहीं होता | मिध्यात्वका कारण अवर्णवाद है । और सिध्यास्वका बन्ध प्रथम गुणस्थानमें ही सम्भव है। ऊपर उसकी बन्ध व्युच्छिन्ति है फलतः जहांतक मिध्यात्वका उदय है वहनक अववाद भी हो सकता है। यह स्पष्ट होजाता है। इसीप्रकार निन्दा के विषय में सम्मना चाहिये । सद्भल दोषोंका पगेच कथन निन्दा है । उसका फल नोचग का बन्ध है जो कि दूसरे गुणस्थानतक ही संभव है। क्योंकि आगे उसकी क्युरिवति है । सासादन भी मिध्यात्वचा ही प्रकार है । सारांश यह है कि ये दोनों वर्णवाद और निन्दा सम्यग्दृष्टिके नहीं पाये जा सबसे । संसारका सबसे बडा कारणरूप पाप सब पापोंका बाप मिथ्यात्व है।
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३- यो यत्रानभिज्ञः स तत्र बालः । यथा श्रधीतव्याकरण साहित्य सिद्धान्तोऽप्यनधीत न्यायशास्त्रो न्याये बालः
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after टीका पन्द्रहवां
१३५ उपदेशके प्रसङ्ग में वृद्ध शब्दका अर्थ वयोवृद्ध करने की अपेक्षा गुणवृद्ध करना उचित सुन्दर संगत और अभीष्ट है उसी प्रकार बालके अर्थ में भी समझना चाहिये । नव दीक्षित मुनि क्योवृद्ध होनेपर भी अपनी चर्या आदि के विषय में निष्यात अभ्यस्त दृढ निष्ठित जबतक नहीं हुआ है तब तक जिसतरह वह बाल मुनि कहा जा सकता है इसीप्रकार इसके विरुद्ध कुमार अवस्था थपचा पस्था में जो दीचित है यदि वह अपने योग्य सभी विषयों में कुशल, पूर्ण, दृढ़, अभ्यस्त नमा ज्ञान विज्ञान से युक्त, और आगम श्रानाय का जानकार हैं तो वृद्ध ही है । वह सुनिसंका शासन भी करने योग्य माना जा सकता है । जरद कुमार अथवा वर्तमान २४ तीर्थकरों में पांच वीर कुमार अवस्थामें दीक्षित हुए इसलिये उनको बाल शब्द से नहीं कहा जा सकता। वे तो दीया अनन्तर ही जिनलिङ्गी हुए हैं और मानेगये हैं। अत एव बालका अर्थ गुणों की अस्पता करना ही उचित है। यदि कभी कहीं मिथ्यादृष्टि अज्ञानी के लिये बाल शब्दका प्रयोग किया जाता हैं तो वहां पर भी सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान की कभी ऐसा अर्थ समझना चाहिये। और कोई वयोवृद्ध ज्ञानी सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान गुणकी कमी के कारण बाल न कहा जाय, यह बात नहीं है ।
अशक्त --- शब्दका अर्थ असमर्थ है। यह असमर्थता अनेक कारणोंसे और अनेक प्रकारकी हुआ करती है। अन्तरङ्ग में मोह कषाय अनुत्साह आदि मुख्य कारण हैं । और बाह्य में शरीर की विकलता - पूर्णता दुर्बलता, अयोग्यसंगति आदि परिस्थिति कारण हुआ करती हैं। कभी कहीं अन्तरङ्ग बहिरंग दोनों कारण रहा करते हैं और कहीं एक ही कारण रहाकरता है। तीव्र मोही अथवा तीव्र कषायाविट प्राणी अपनी या अन्यकी वैयक्तिक कमजोरी, कायरता, मानसिक या शारीरिक दुर्बलता आदि को दृष्टि में न लेकर अथवा स्वीकार न करके सामान्यतया उस मार्ग को ही दुषित-अयोग्य सदोष, निरर्थक अक्ष हानिकर बताने की चेष्टा किया करता है। लोगोंकी विभिन्न प्रकारको चेष्टाओं के कारण जो अवर्णवाद एवं निन्दा लोगों में कुख्याति फैलती हैं उसी को कहते हैं "वालांशकजनाश्रया वाच्यता ।" यों तो वाच्यताका अर्थ वर्शनीयता होता है परन्तु खासकर यह शब्द निन्दा अपकीर्ति अर्थ में रूढ अथवा प्रसिद्ध हैं। थाश्रय शब्दका श्राशय कारण, निमिच, आधार समझना चाहिये। पाल एवं अशक्त पुरुष हैं कारण, निमित्त, अथवा आाधार जिसके ऐसी वाच्यताका यदि सम्यग्दृष्टि निराकरण करता है तो उसके सम्यग्दर्शन को उपगूहन गुणसं युक्त समझना चाहिये ।
प्रमार्जन्ति मृज धातुका पाठ अदादि और चुरादि दोनों ही गणों में पाया जाता है, न उपसर्ग के साथ दोनों हीका वर्तमान अन्यपुरुष बहुवचन में यह प्रयोग बनता है अदादिगणमें भ्रातुका अर्थ शुद्धि और चुरादिगणमें शौच तथा अलंकार अर्थ बताया है। यहां पर प्रसङ्गानुसार श्रदादिंगकी शुद्धयर्थक धातुका प्रयोग मालुम होता है। जिसका श्राशय अच्छी तरह शुद्धीकरणसे है। मतलब यह कि अज्ञान अथवा असमर्थता के कारण किसी व्यक्ति में यदि कोई दोष दिखाई दें तो उसके
१ श्रीवासुपूज्य, मलिनाथ, नेमिनाथ, पार्श्वनाथ, महावीर
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(लकरपष्टश्रावकाचार प्रकट करने से उप्त व्यक्ति के सुधारकी अपेक्षा विगडने की कहीं अधिक संभावना रहा करती है। अत एव उसके दोपोंको प्रकट नहीं करना चाहिये। इसके सिवाय अनेक अज्ञानी लोग उस व्यक्ति के दोपको निदर्शन बनाकर मार्ग को ही सदोप बताने की चेष्टा किया करते हैं । इसलिये वैयनिक दोषके कारण मार्ग की वाच्यता न हो इस हेतुसे भी उस व्यक्ति के दोषको प्रकट न करना ही श्रेयस्कर है । अथवा वैयक्तिक त्र टियोंको आधार बनाकर जो मिथ्यादृष्टि एवं स्वयं असमर्थोक द्वारा सामान्यतया स्वतः शुद्ध रत्नत्रयधर्म की निन्दा होती हो तो उसका संशोधन करना भी उपगृहन अंग है। .
उपगृहन१—गुह थातु संदरणार्थक है। इसका भी भाशय संवरण, प्रमार्जन, आच्छादन है।
तात्पर्य- सम्यग्दर्शन के इस पांचवे अंगका नाम उहगहन है जिसका कि भाशय भास्मकल्याणकारी धर्म के विषय में किसी प्रकारको निन्दा अपच न होजाय इस सद् भावनासे उन दोषोंको छिपाना अथवा उनका परिहार आदि करना है जिससे कि विवक्षित वैयक्तिक दोनोंको देखकर अल्पज्ञानी उस मार्ग से ही पराक मुख होकर परमोचम कल्याण से ही वञ्चित न होजाय। अथवा पितहदय मिध्याज्ञानियों द्वारा स्वभावतः पवित्र एवं शुद्ध मार्ग का अवर्णवाद या निन्दा हो । कदाचित कहीं वैसा होता हो तो उसका उचित परिहार कर सन्मार्गके विषय में ग्लानि न होने देना सम्यक्त्वका प्रथम कार्य है।
आगममें उपगृहन की जगह उपहण नामसे भी इस बगको बतायार है । उपरहण का अर्थ बहाना है। अर्थात् रत्नत्रयात्मक अथवा उत्तम चमादि दशविध धर्म की बहानेका प्रयत्न करना उपहण अंग है । और इसके विरुद्ध-प्रवृत्ति न यदाना सम्यग्दर्शन का दोष है।
उपगृहन और उपहण भिन्न विषय तथा दिशा में प्रवृस होते हैं फिर भी वे सम्यग्दर्शनके ही गुण हैं। और एक ही गुण के दो प्रकार हैं। मतलर यह कि सम्यग्दृष्टि जीव सधर्मामों के अबान अथवा असमर्थ ताके कारण उत्पन्न हुए दोषोंका सो पाच्छादन करता है और उनके तथा अपने गुणोंको बढ़ाने का प्रयत्न करता है । यदि इस तरह की प्रवृत्ति उसकी नहीं होती सथर्मामों के दोषों का श्राच्छादन तथा अपने एवं अन्य सधाओंमें गुणों को बढ़ानेका प्रयह यदि वह नहीं करता तो कहा जा सकता है कि अभी उसका सम्यग्दर्शन निष्फल है अथवा निमुख है। और यही बात उसकी अंगहीनता को स्पष्ट करदेती३ है।
किसी के दोषोंका निर्हरण यदि वह अन्य व्यक्तियों के हितकी दृष्टि से किया जाता है तो वैसा करनेवाला वैयक्तिक पक्षपान के दोपका भागी नहीं माना जा सकता । और यदि उस व्यक्तिके सुधारका हेतु है तो भी उसका कार्य अनुचित नहीं कहा जा सकता।
१-गुह धातु से करण या अधिकरण अर्थ में अनट प्रत्यय होकर और नियमानुसार द्वस्व उकारको वीर्य होकर यह शब्द बनता है। अन्य गुह्यते अनेन अस्मिन् वा उपगृहनम् ।।
- यथा-धर्म स्वबन्धुमभिभूष्णु कषायर चाः, शेतकमादिपरमास्त्रपरः सदा स्यात् । धर्मोपरगनिया: बलबालिशात्मयूथ्यात्पर्य स्थगयितुच जिनेन्द्रमक अन 401-२४ोपं गाति नो बाचं स्त धर्म न होत् । दुष्करं तत्र सम्यक्त्व जिनागमरिस्थिते ॥ यश०६-१
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..चंद्रिका टीका पन्द्रहां भोक मनलब यह कि चाहें तो उपगृहन नामसे इस अंगको कहा जाप चाहें उपत्र इस नाम से दोनोंमें विरोध नहीं है । एक जमा योग लिईसकी अपेक्षा है, दूसरे में गुणों के बहानेकी । दोनों विषय तथा क्षेत्र भिमान हैं। अत एव जहां सवर्षा के दोष दिखाई दें और उनका निहरण किया जाय तो वहां उपगृहन की प्रधानता होगी और जहां अपने अथवा अन्य सधर्मा के गुखों को पाने मात्र की अपेक्षा है वहाँ सम्पदृष्टि की उस प्रकृतिको उपहण नामसे कहा जायगा। जहां सम्यदर्शन साङ्गोपाङ्ग है यहां दोनों ही गुण पाये जायगे । यही कारण है कि सोमदेव आचाई इस अंगका व्याख्यान करते हुए न केवल दोनों शन्दोंका ही प्रयोग करते हैं किन्तु दोनों शब्दों के अनुसार दो नरहके कार्यो अथवा कर्तव्योंका मी उपदेश देते हैं। और वैसा न करनेपर सम्यक्त्वकी हानिका भी ख्यापन करते हैं।
इसके मिवाय उपगहन शब्द का अर्थ आलिंगन भी पाया जातार है । तदनुसार तात्पर्य यह होगा कि जिसतरह माता अपने पुत्र पुत्री के दोषों को घमा करती है उनके दोषोंको प्रेमपूर्वक निकालने—दर करने का प्रयत्न करती है उसी प्रकार सम्यग्दृष्टि को भी पाहिपे-उसका भी कतेय है कि सधर्माओंके दोषों को देखकर वह उनकी निन्दा-मत्सेना आदि में प्रात न होकर उनका आलिंगन करें-गले लगाकर-प्रेमपूर्वक उनको निर्दोष पनाने की चेष्टा करे । और माप ही उनके गुणोंको बहाने का भी प्रयत्न करे। __ यथायोग्य प्रसंग पाकर वैसा करना सम्पग्दृष्टि को उचित है । जहां दोप दिखाई देवहां उन के निकालने का यत्न करे और जहां गुणों को बढ़ाने की आवश्यकता मालुम हो वहा गुणोंको बडाने का प्रयम कर । क्योंकि दोप और गुण परस्पर विरोधी है। दोनों बातें एक साथ नही रह सकती दोष दूर होनेपर गुण पढ़ेंगे अथवा गुण बढेगे तो दोप भी दूर होंगे | अथवा किसी व्यक्तिमें अनेक गुण हैं परन्तु एक साधारण अथवा असाधारण दोष है तो सबसे प्रथम उस दोष को निकालने का प्रपल होना चाहिये | कोई व्यक्ति भनेक दोषों से पूर्ण है परन्तु एक महान् उपयोगी गुण से पुक्त है तो उसके उस गुणका आदर कर उन दोषों से भी वह सर्वथा रहित पन जाय ऐसा प्रपत्र करना चाहिये। कदाचित् उस व्यक्तिका सुशार समय न हो तो उस व्यक्ति की तरफ इस तरहसे उपेक्षा करनी चाहिये जिससे कि धर्म की वाच्यता-निंदा न हो। जैसाकि जिनेद्रमत सेठने किया।
इन गुणोंके सम्बन्धमें विचार करनेपर मालुम होता है कि पूर्व कथित निरतीचारतारूप पार गुणों के साथ इन विधि या कृतिरूप चार गुणों का विशिष्ट सम्बन्ध है जो कि गथाक्रमसे मिलान करनेपर मालुम हो सकता है। तदनुसार निःशंकित का उपगूहन या उपहयाकेसाथ, निःकांवितका
१–उपगृहस्थितीकारी यथाशक्ति प्रभाषनम । वासल्यं च मबत्ते गुणाः सम्पम्त्वसंपरे॥१॥ त्र. सान्त्या सत्येन शौचेन मादेवनार्जवन । सपोभिः संयमैदानः इत्सिमयणम् ॥२॥ सवित्रीय तनूजानामपरा सधर्मसु । देवारमादसम्पन्न निगद् गुणसम्पदा ॥३॥ नसतस्यापराधेब किं धर्मो मचिनो भोन् । नहि मेके मृत पाति पयाधिः पूनिगम्यताम् ॥४॥दोपं गाति नो जात मख धर्म म । कुर मन्त्र मम्मको सिमागमति स्मिते ॥शा
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(स्मकरपडभावकाचार
१३४ स्थितिकरणके साथ, निर्विचिकित्सा का वात्सल्य के साथ, अमूढदृष्टि का प्रभावनाके साथ मुख्यतया सम्बन्ध समझना चाहिये !
उपगृहनादिक विषयं स्य और पर दोनों ही हैं। जो स्वयं निःशंक नहीं है चलायमान प्रतीति है या भयाक्रान्त है तो वह अपने में भी उपगृहन एवं उपहण नही कर सकता दूसरमें तो करेगा ही क्या । कांधावान् व्यक्ति अपनेको या दूसरेको गिरनेसे बचा नहीं सकता | काशाके छोडनेपर ही स्थितीकरम संभव है। कांक्षा-इच्छा-आशाके भाम तो गिरानेवाले हैं । सधर्मायोंमें म्लानि रखनेवाला उनमें वत्सलता भी किस तरह कर सकेगा ! ग्लानि और निश्का प्रेम दोनों माव एक साथ संभव नहीं । जो स्वयं मूष्टि है यह धर्मकी वास्तविक प्रभावना नहीं करसकता अन्तरंग या बहिरंग कैसी भी प्रभावना जब तक दृष्टि म्ह है तबतक नहीं हो सकती । इसतरह विचार करनपर मालुम होता है कि जबतक सम्यग्दर्शन शंका आदि दोषोंसे दक्षित है तबतक इन गुणोंमें भी यथार्थतः प्रवृत्ति नहीं हो सकती । निर्मल वस्त्र पर ही कोई रंग चढ़ सकता है। मी निरीगता प्राप्त है वही सवलताको सिद्ध कर सकता है। निर्व्यसन ही विद्याध्ययन में सफल हो सकता है और निरुत्साह व्यक्ति युद्ध में विजयी नहीं हो सकता । उसी तरह शंकादि दोपोंसे रहित ही व्यक्ति उपधहणादि गुणों को प्राप्त कर सकता है। और जो निःशंक है वह तो अवश्य ही उपगृहन और उपहणमें प्रवृत्त होगा अन्यथा यदि वह बैसी प्रचि नहीं करवा तो समझना चाहिये कि उसका सम्पग्दर्शन भी अभी पूर्ण नहीं है--समल है अथवा अधूरा है।
महापण्डित श्राशावर जीके कथनानुसार भी मालुम होता है कि इस गुस्से विशिष्ट पक्ति उपगूहन और उपय हम दोनों कार्य किया करता है। अन्तरंगमें सम्पग्दर्शन अथवा रत्नत्रय रूप अपने बन्धुकी शक्तिको आच्छादित करनेवाले कषायरूपी राक्षसको चमादिगुण रूपी अस्त्रके द्वारा निवारण करनेका और बाहिरमें धर्म के उपत्रहण-संवर्धन-उपचय करनेकी सद्बुद्धिसे अज्ञानी अथवा असमर्थ अपने संधर्मात्रओंके दोषोंको जिनेद्रमक्तको तरह मारवाहित करनेका उसे प्रयत्न करना चाहिये ।
इस तरह प्रतीतिकी चलायमानता अथवा भय आदि दोषोंसे रहित निरतीचार सम्पष्टि की स्व और परमें जो उपगूहन वथा उपकरण प्रवृत्ति होती है यही सम्यग्दर्शनभ पापा अथवा पहला गुण है जिसके कि होनेपर ही वह सम्यग्दर्शन जन्ममरवकी संततिका उच्छादन करनेमें समर्थ हो सकता है।
अब क्रमानुसार प्राचाय स्थितीकरण गुणका स्वरूप बताते हैं।१- स्वबन्धमभिभूष्णु कपायरशः सप्तुं क्षमादिपरमास्त्रपरः सदा स्यात् । धर्मोपवृक्षण धियाऽवलमालिशास्मयूझ्यात्ययं स्पारयितुच जिनेन्द्रमकः मन० २.१०५ ।।
मानुसार प्राकमेसे पांचो, किसु कसम्मका बोध करानेबाने अन्तिम चार गुणों में प्रथम ।
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..... भद्रका का मालही दर्शनामरणाद्वापि चलतां धर्मवत्सलैः।
प्रत्यवस्थापन प्राज्ञैः स्थितीकरणमुच्यते॥१६॥ ___ अर्थ—सम्यग्दर्शन अथवा सम्यकचारित्र यद्वा दोनोंही से डिगते झुओंको धर्मप्रेमियों द्वारा जो उसी धर्ममें फिरसे स्थापन कर दिया जाता है. प्राज्ञ-गणधरादिन उसीको स्थितीकरण कहा है। ___प्रयोजन---जो जिस धर्मका धारक या आराधक होता है वह उसके रहस्य और फलस परिचित तथा उसमें रुचिमान भी हुआ करता है। किंतु याह एक लोक प्रसिद्ध उक्ति है कि... "जिन नहि चरखो नारियल, उन्हें काचरा मिट्ट"। इस उक्ति के अनुसार जिनको परमवीतराम जिनेन्द्रमगवान्के प्ररूपित लोकोत्तर अनन्त सुखशान्तिके स्वरूपका श्रद्धान ज्ञान नहीं हुआ और उसके साधनभूत वास्तविक धर्मका जबतक परिचय नहीं हुआ है तब तक यह जीव धर्मके नामपर गमीद्वपिनोंके कथित लोकिक बसिक साता या प्रसन्नताके साधनभूत अथवा इसके विपरीत असातारूप विषयों में ही यद्वा नवा श्रद्धान आचरण किश करता है और उन्हींको महान् समझता नथा उन्हीं में रूचि भी रखता है। तथा प्रायः ऐसी धारमा भी रखता है कि इसके सिवाय और सब धर्म मिथ्या एवं निःसार हैं । संमारी जीव जबतक मोह और कषायका अनुचर बना हुका है तबतक यह विषयाशाका भी दास है और जिनसे उसकी पूर्ति या सिद्धि होती हुई मालुम होती है उनीमें रुचि और प्रधुचि भी किया करता है। किंतु मोहका भाव जब नहीं रहता अथवा मन्द मन्दतर मन्दनम होजाता है और सद्गुरुके उपदेशका लाभ होजाता है तब उसकी दृष्टिम सत्य तव प्राजाता है । सत्य तस्यसे मालव है अपना और परका वास्तविक स्वरूप । जिसके कि फलस्वरूप संसार और मोक्ष तथा उनके कारण एवं उनका स्वभाव भेद भी दृष्टि में श्राजाता है। अब उसकी दृष्टि उस सत्य और प्रशस्त विषयको वास्तवमें ग्रहण करलेती है, तब वह दृष्टि सम्यक प्रशस्स---समीचीन--यथार्थ आदि नामों से विशेषणों से युक्त कही जाती है। इस तरहकी दृष्टि जिन जीवोंकी बन जाती है वे ही सम्यग्दृष्टि कहे जाते हैं। उनको फिर कोई भी पर अथवा मिथ्यात्व सुहाता नहीं है।
ठीक ही है-पीत्वा पयः शशिकरघुतिदुग्धसिन्धोः, दारं जल जलनिधेः रसितुक इच्छेतर" उस जीवको मन वचन कायकी प्रवृत्ति भी स्वभावतः अपूर्व बन जाती है -मिथ्यादृष्टि जैसी नही रहती। अतएव कुदेव कुशास्त्र कुगुरु और कुधर्ममें उसको अरुचि तथा परमार्थभूत प्राप्त मागम गुरु और धर्ममें उसको सुरुधि हुआ करती हैं । उसकी दृष्टिमें आत्माका एवं अपना शुद्ध स्वरूप माजानेसे उसीको सिद्ध करनेका वह अपना लक्ष्य बना लेता है । अथवा कहना चाहिये कि उसका वैसा लक्ष्य स्वयं ही बन जाता है। अपने लक्ष्यकी प्राप्तिमें जो भी वाब भव१-आदिनाथस्तोत्र--भकामर पथ ११ । २–तन पात् तत्परान पृच्छत् तदिच्छेत् तत्परो मवेत् । येनाविद्यामय रूपं त्यक्ता पियामय बनेत् । अविवाभिरे ज्योतिः परं ज्ञानमय महत्।।
सत्युष्टच सदेष्टम्यम सदरष्टल मुमभिः ।।
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लम्बन हैं उन्हें भी बह रुचिपूर्वक अपनाता है। यथाशक्य सिद्धिके उन साधनोंमें भी प्रचि किया करता है जो कि सभीचीन देवशास्त्रगुरुकी आराधना आदिके रूपमें बताये गये हैं।
इस तरहके सम्यग्राष्टियोंकी रुचिपूर्ण प्रचि चार तरहकी हो सकती है।-१ सधर्माओंके मज्ञान अथवा असमर्थताके कारण धमका प्रभाव कम न होने देना । जो भी सधर्मा या विधर्मा जिन्होंने अभी तक धर्म धारण नहीं किया है और जो कि यद्वा तद्वा कारणों का बहाना बना कर स्वयं उक्त धर्मको धारण करनेसे पराङ मुख रहते हैं तथा दूसरोंको भी पसंमुख रखनेकी चेष्टा करते है उनकी उक्तियों और कुयुक्तियोंको सूक्तियों सदुक्तियों-तथा सयुक्तियोंके बारा निराकृत करदना प्रभावहीन बना देना । २---जो धर्मको धारण कर चुके हैं वे किसी भी अन्तरंग मोह कषाय अज्ञान प्रमाद अथवा बाह्य मिथ्योपदेश कुसंगति आदिकै कारण धर्मसे हिंग रहे हों, उनको उचित उपायोंसे इसमें स्थिर रखना । यद्यपि इस कारिकामें सम्गगदर्शन
और सम्यक चारित्र से । चलायमान होनेवाले विषयमें कहांगया है किंतु यही बात मानके विषयमें भी समझ लेनी चाहिये।
३–जिन्होंने धर्मको धारण करलिया है और उससे डिग भी नहीं रहे हैं उनके प्रति समानताका सूचक उचित सदव्यवहार तथा आवश्यकता पड़नेपर निष्काम, निश्छम कर्तव्यका पालन |
४-परलोगोंपर अपने धर्मका प्रभाव इस तरहका डाल देना कि जिससे वे हठाव जैन धर्मकी महत्वाको स्वीकार करने के लिये बाध्य होजाय । ___ यपि इन चारों ही कर्तव्यों या गुणों के विषय स्य और पर दोनों ही माने गये है। मतलब यह कि इन गुणों का पालन स्वयं भी करना चाहिये और दूसरों के प्रति भी। और ठीक भी है जो स्वयं ही उन गुणोंसे रिक्त है वह दूसरों के प्रति भी उस गुण का उपयोग किस तरह कर सकता है । फिर भी यहां पर आचार्य ने जो वर्णन किया है उससे मालूम होता है कि यहां पर पर की अपेवा ही मुख्य है। ___ऊपर जिन चार कर्तव्य विषयक गुणोंका दिग्दर्शन किया गया है और जिनको कि उत्पत्ति स्थिति पद्धि तथा रचाके नाम से भी कहा जा सकता है उनमें से पहले गुणवा ऊपर उल्लेख किया जा चुका है । उसके बाद दूसरे गुणका भी कार्य बताना क्रमानुसार आवश्यक हो जाता है। यही कारण है कि उपग्रहन के बाद स्थितीकरण का वर्णन किया गया है । क्यों कि ये चारोंही गुलों का कार्य क्रमभावी है। पहले का विषय धर्मरहित सदोष अवस्था या तद्वान् व्यक्ति है। इसरं का. विषय धर्मसहित किंतु शिथिल अवस्था है। तीसरेका विषय अपने ही समान परन्तु अडिग अकस्था है। चौथेका विषय इतना हड है कि उसका प्रभाव दूसरे विरोधियों पर भी पडता है। उनमें भी वैसा होनेकी भावना अथवा रुचि पैदा होती है। यही कारण है कि पहली भवस्था की
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... बद्रिका टीका सोलहया श्लोक पष्टिसे उपगृहन अंगका वर्णन करने के बाद उसके बादकी दूसरी अवस्था अथवा उस अवस्थावाले व्यक्तियों के प्रति सम्यग्दृष्टि के कर्तव्यका वर्णन करके यह स्पष्ट कर दिया जाय कि जो मधर्मा के प्रति ऐसी अवस्था में इस तरह से प्रवृत्त होते हैं, समझना चाहिये कि उनका सभ्यग्दर्शन सांगीपांग पूर्ण है । यह स्पष्ट करना ही इस कारिका के कथन का प्रयोजन है।
शब्दोंका सामान्य-विशेष आई.....
दर्शन शब्दका अर्थ सम्यग्दर्शन- सम्यक्त्व---श्रद्धान आदि है। सकपाय तथा अल्पज्ञानी जीव बलवान विरुद्ध निमित्त को पाकर श्रद्वासे डिग सकता है। यही वात चारित्र के विषय में समझनी चाहिये । 'चारित्र' से मतलब यहां पर कमग्रहण में कारणभूत क्रियाओंकी भले प्रकार की गई निवृत्ति से है । फषाय अथवा अज्ञान के कारण दोनों विषयोंसे जीव विचलित हो सक्ता है । ___ वा अपि'-शब्दोंका अर्थ 'अथवा' और 'भी' है। वा शब्द विकल्पयाची है । अर्थात सम्पकदर्शन से अथवा चारित्र से । इस सरह विकल्प 'वा' शब्दका प्रतोग करने के बाद फिर अपि शब्द को आवश्यकता नहीं रह जाती है। अतएव इससे झापन सिद्ध और भी कोई विशिष्ट अर्थ है ऐसा सूचित होता है। ____ ऊपर मोदमाग रूप धर्म तीन भागों में विभक्त किया है। उसमें से सम्यग्दशन और मम्यक चारित्र का उल्लेख तो इस कारिका में सष्टतया दर्शन और चारित्र शन्द के द्वारा कर दिया गया है । परन्तु सम्यग्ज्ञानका उल्लेख शब्दक नहीं किया है। मालूम होता है उसीको मूवित करने के लिए यहां अपि शब्द का प्रयोग है । अथवा चलायमानता के विविध प्रकार इस से सूचित होते हैं।
'चलता' से मतलव इतना ही नहीं है कि जो वर्तमान में डिग रहा है, किंतु भूतकाल में जो डिम चुका है अथवा भविष्यत में जो डिगनेवाला है उसका भी इससे ग्रहण कर लेना चाहिये।
धर्मवन्सल'-वत्स-बच्चे में प्रीति रखनेवाल को वत्सल कहत है। जिस तरह गा अपने चच्ने में असाधारण स्नेह रखती है यहां तक कि उसके लिए वह अपने प्राणों की भी परवाह न करके सिंह का भी सामना करने को उद्यत रहा करती है । उसी तरह धर्म में जो स्नहरणं भाव रखनेवाले है. उनको कहते हैं धर्मवत्मल ।
'प्रत्यवस्थापन' का आशय फिरसे उसी रूपमें स्थपित कर देने से है। प्रात्र' उसको कहते हैं जो प्रकर्षरूप से और प्रत्येक पहलूर से विषयको स्वयं समझता है और दूसरोंकोभी समझा सकता है। स्थित होकर भी जो अस्थित हो गया है उसको फिर स्थित करना ही स्थितीकरण है।
१-२-प्रकर्षसया, श्रा-समन्तात् , जानाति इति प्राज्ञः। ३-मस्थित:--अस्थिमः अस्थितः स्थितः क्रियते इति स्थितीकरणम् । स्थितिकरणमित्यपि पाठः यथा "युक्त्या स्थितिकरणमणि कार्गम्' ।। पु० सि.
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तात्पर्य---यह कि यदि कोई व्यक्ति रत्नत्रयरूप धर्मसे डिगता हुआ मालूम हो तो विचक्षण सम्पदृष्टि धर्मान्माओं का कर्तव्य है कि वे उसको चलायमान होनेसे बचाने जो जिस विषय से विचलित हो रहा है उसको पुन: उसी विषयमें दृढ़ और स्थिर कर दें।
दर्शन शब्द यहाँ उपलक्षण है अतएव उससे सम्यग्ज्ञान का भी अहस करलेना चाहिये । डिगने के या अपने पदमें-सुम्यग्दर्शन-सम्यज्ञान-सम्यकचारित्रमसे किसी भी स्थित न रहने के अनेक कारण हैं। अंतरंग कारण क्रमसे मोह अज्ञान और कपाय है। तथा वाम कारण द्रव्य क्षेत्र काल भाव के अनुसार अनेक प्रकारकी विरुद्ध परिस्थितियां हैं इनमेंसे जहां जैसा जो कुछ भी डिगने का विरुद्ध कारण उपस्थित हो या दिखाई पड़े तो वहां उसी को दूरकरके पुनः उसको उस धर्म में दृढ़ करदे यह सम्यकदृष्टि का गुण तथा कार्य है । लोक में यह कहावत प्रसिद्ध है कि 'गजानां पंकमग्नानां गजा एव धुरंधराः १ | हाथी यदि कीचडमें फस जाय तो उसको बाहर निकालने में हाथी ही समर्थ है-यही इस कार्यको कर सकता है। इसी तरह धर्म से डिगते हुएको धर्मात्मा ही बचा सकता है । परन्तु किस तरह का धर्मात्मा उसे बचाने में समर्थ हो सकता है इस चावको बताने के लिए आचायने यहां दो विशेषण दिये हैं।
धर्मवत्सल और प्राज्ञ | बच्चे में जिस तरह गौ या माता की प्रीति है उसी तरह जो धर्ममें प्रीति रखनेवाला है वहीं वास्तवमै इस कार्य को कर सकता है । वही करता है वह अवश्य ही करता है। स्वार्थ आशा भय आदि के वशीभूत हुआ व्यक्ति उस कार्य को नहीं कर सकता ! ऊपरकी कारिकाके व्याख्यान में बताया जा चुका है कि उपगृहन अंगका पालन करने के लिए निःशंक गुणकी आवश्यकता है, उसी तरह यहांपर भी यह बात समझ लेनी चाहिये कि स्थितीकरण के लिए निःकांक्ष गुरगकी भी उतनी ही आवश्यकता है। जो स्वयं विशुद्ध नि:कांच धर्माभिरुची है वही दूसरे को भी धर्माभिरुचि बना सकता है तथा धर्मसे डिगते हूए को वास्तच में अडिग कर सकता है। ____ ऊपर यह बात भी कही जा चुकी है कि डिगनेसे मतलव तमानका ही नहीं लेना चाहिये किंतु तीनों कालका ही ग्रहण करना योग्य है |
जो कुछ समय पूर्व डिग चुका है । जिसको डिगे हुए कुछ समय बीत चुका है अथवा जिसका धालम्वभाव अपरिपक्व बुद्धि परप्रत्ययनेयता शारीरिक मानसिक कातरता कोमलता एवं समय साकोव परिणति तथा कुसंगति आदिको देखते हुए मालुम होता है कि आगे चलकर यह धर्म में अपनी स्थिति को स्थिर न रख सकेगा तो उसके प्रति भी वैसा व्यवहार करना चाहिये जिससे कि वह धर्म में स्थित बना रहे और यह व्यवहार भी तबतक करना चाहिये जबतक कि यह विश्वास
न हो जाय कि अब यह कभी भी डिमनेवाला नहीं है । जैसा कि वारिपेण ने पुष्पडाल के प्रति ___ उसकी मावलिङ्गता के साथ २ अब कभी भी न डिगनेवाली धर्म में स्थिति का विश्वास न होने
हितापशाद।
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चंद्रिका टीका मोल क तक करीब बारा वर्ष तक उसपर नियंत्रण रखकर और अन्तमें अपनी रानियों और उसकी स्त्री के स्वरूप के साथ २ संसार की निःसारिता का प्रत्यय करने में मुयुक्तिका प्रयोग किया था । दूसरा विशेषम्य प्राज्ञ है । प्रत्येक विषय की उत्कृष्ट बौद्धिक एवं आगम ज्ञान की योग्यता के बिना भी स्थितिकरण नहीं किया जा सकता है !
क्योंकि डिमने अन्तरंग कारण प्रायः दृष्टि के अगोचर भी रहा करते हैं । और देखा यह जाता है कि मनुष्य अपने मोह क्षोभ और अज्ञानरूप भावको प्रायः प्रकट नहीं करता न प्रकट होने देना चाहता है । यह माया प्रपञ्च बड़ा प्रबल है । यही कारण है कि शुद्ध प्रायश्चित्तके द्वारा होने वाली शुद्धि प्रायः दुर्लभ ही हैं। ऐसी अवस्था में मङ्गज्ञोत्तमशरणभूत योग्यतासम्पन्न ९ गुरु ही उस जीवकी अन्तरंग में वास्तविक शुद्धि करके कल्याण के पथमें अग्रसर कर सकते हैं । प्राज्ञ शब्द से उसी योग्यता को यहां आचार्यने सूचित कर दिया है जिसके कि द्वारा डिगते हुए की सदोष अथवा निम्नगा मनोवृचिका दमन करा दिया जाता है अथवा भीतर ही भीतर पकाकर निर्मूल एवं समाप्त कर दिया जाता है। हितेषी सम्यग्दृष्टि को कभी २ इसके लिये कठोर प्रयोग भी करना पड़ता है । जिस तरह अपने किसी बन्धुको वातव्याधिवश उम्र बन जाने पर उसे बांधकर भी रखना पडता है। अथवा किसी के लिये अप्रत्यक्ष या प्रत्यक्ष कठोर शब्दों का प्रयोग भी करना पडता है । एवं विरुद्ध उग्ररूप भी दिखाना पड़ता या वैसा व्यवहार करना पड़ता 1 उसी तरह सम्यग्दृष्टि को भी धर्म से डिगते हुए के प्रति योग्यतानुसार उसके हिसके लिये अनेक ऐसे उपाय भी करनेपढते हैं जो बाहर से कठोरताकी परिभाषा में परिगणित किये जा सकते हैं। परन्तु जो तस्वतः हितरूप या हितकर ही हुआ करते हैं। इसकेलिये अवश्य ही आगनज्ञान अनुभव और प्रष्ट बौद्धिक योग्यता कुशलता की आवश्यकता है । अत एव डिमते हुए को पुनः सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र में स्थिर कर देने के लिये जिसतरह धर्मवात्सल्य की आवश्यकता है उसी तरह आइताकी भी आवश्यकता है। यही कारण है कि आचार्यने स्थितीकरण के लिये सम्यग्दृष्टि में इन दो गुखों तथा योग्यताओं का रहना उचित एवं आवश्यक समझ कर प्रकृत कारिकामें स्पष्ट उल्लेख किया है।
उपगूहन स्थितीकरण वात्सल्य और प्रभावना इन चारों ही अंगों का पालन स्व और पर दोनोंमें ही हुआ करता है। अत एव जिसतरह दर्शन और चारित्रसे डिगने हुए दूसरे धर्मबन्धु की सम्यग्दृष्टि जीव संभालता है, गिरने नहीं देता या गिरबुक्का हो तो पुनः उसी पदमें स्थापित किया करता है । उसीतरह वह अपने को भी संभालता है। गिरने का प्रसंग धानेपर सावधान हो जाता है और कदाचित् गिर भी जाय तो उसके बाद ही पुनः उसी पदमें अपने को स्थापित करनेका प्रयत्न क्रिया करता है। और यह ठीक भी है; क्योंकि "स्वयं पनन्तो हि न परेषामुद्धारकाः " जो स्वयं को ही नहीं संभाल सकते में दूसरों का क्या उद्धार करेंगे ?
१- श्रकम्पिय मधु माणिव जं दिट्ट बादरं च सुमं च । घरमा ग्लयं बहुजण अव्त्ररा तस्तेषी । इन दोषो से रहित प्रायश्चित्त शुद्ध होता है। २ - देखो आचार्या के गुण उत्पीलकत्वादि ।
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रस्कारडभावकार
प्रायः मुख्यतया सभ्यग्दर्शनादिक से चलायमान होने के दो कारण हैं। एक तो भागमज्ञान का अभाव या कमी, दूसरा संहननका अभाव। इन दोनों त्रुटियाँका प्रभाव अपने ऊपर भी पड़ सकता । या तो आगमका स्वरूप या उसका रहस्य न मालुम होनेस जीव उन्मार्गमं जा सकता है अथवा बल पराक्रमकी कमी के कारण परिषद् एवं उपसर्ग के आनेपर उसे सहन न कर सकने के कारण व्रतादिक से चलायमान हो सकता है। ऐसी अवस्था में सम्यग्दृष्टि विवेकी का कर्तव्य है कि वह जिसतरह भी शक्य हो अपनेको तथा दूसरोंको भी मार्च में रखनेका करे।
इस अवसर पर यह बात भी ध्यानमें रखनेके योग्य है कि स्थितीकरणका प्रयोजन इतना ही नहीं है कि जब कोई गिरता दीखे या गिरजाय तभी उसका स्थितीकरण किया जाय, अन्य समय में इस श्रंगका कोई उपयोग ही नहीं है । वास्तव में सम्यग्दर्शन का जब तक सद्भाव हैं तब तक स्वभावतः उसके अंग भी रहेंगे ही, और रहते ही हैं। हां, प्रसंग आनेपर उन अंगों में से जब जो विवक्षित आवश्यक हो ऐसा कोई भी अंग अपना विशेषतया कार्य प्रकट किया करता है । किन्तु सामान्य अवस्था में वह अंग विद्यमान रहकर कुछ न कुछ साधारण कार्य किया ही करता है। क्योंकि गणवर्धन- गणपोषण- गणक्षण च्यादि भी स्थितीकरण के ही प्रकार हैं। सम्यग्दृष्टि जीव इन कार्यों की तरफ सदा ही ध्यान रखता है। नवीन व्यक्तियोंको धर्म में दीक्षित करना गणवर्धन है। उनमें आवश्यक गुणों का बढाना गणपोषण तथा उनकी अहित या हानि से बन्दाना गयारणय है ! नवदीक्षित व्यक्ति अपने व्रत चारित्र में स्थिर रहसकेगा या नहीं हम तरहका विचार करनेपर संभव है कि उसका निर्वाह कदाचित सन्देहास्पद भी हो। फिर भी बुद्धिमान व्यक्तिका कर्तव्य है कि वह उस कार्य को अवश्य करें। क्योंकि कदाचित् वह निर्वाह्न न भी कर सके तो भी नन्वतः उसमें उसकी कुछ हानि नहीं है और इसके विपरीत यदि वह पालन कर सका तो लाभ अवश्य है। खास कर उस व्यक्तिका तो परम हित है। हां, नवीन व्यक्तिको दीक्षित करदेने या करादेने मात्र मे ही सम्यष्टि का कर्तव्य समाप्त नहीं हो जाता । उस व्यक्ति के गुखों का पोषण-संवर्धन आदि करना और उसकी तरफ दृष्टि रखना, तथा योग्यतानुसार उसका विनियोग आदि करना भी कर्तव्य है । क्योंकि ऐसा करनेसे एक व्यक्तिका ही नहीं अपितु सम्पूर्ण समाज तथा संघका भी हित है । कलनः स्थितीकरण अंगके धारक सम्यग्ष्टि को सदा ही इस बात की तरफ दृष्टि रखनी चाहिये कि सितरह से गणकी बुद्धि हो, और गणस्थित धर्मात्माओं के गुणांका पोषण हो तथा उन्मार्ग की तरफ जाने से उनकी किसतरह रक्षा हो ।
इस तरह की प्रवृत्ति करनेवालोंके समक्ष यह स्पष्ट करदेना भी उचित होगा कि सम्यग्दृष्टि लक्ष्य यह बात भी रहनी चाहिये कि किसी भी छोटे मोटे एक दोपके कारण उस व्यक्तिका सर्वथा परित्याग कर देना था उसकी तरफ उपेक्षा करदेना साधारणतया हितावह नहीं हो सकता | क्योंकि समाज में सभी तरह की योग्यतात्राले व्यक्तियोंकी श्यावश्यकता है। जिस पक्षा निविदादगणवर्धनम्। एकदोष त्याच्या आप्तवः कर्ष नरः ॥ यतः समयका नानापंचजनाश्रयः । अतः सम्बोध्य यो यत्र योग्यस्तंभ योजयेत् । यशस्तिलफ
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बौद्रिका टीका सतरवा श्लोक किसी एक स्तम्भके ऊपर मकान टिका नहीं रह सकता उसी प्रकार एकतरहके व्यक्तियोंके ही वलपर समाज नहीं चल सकता। इसलिये जहांतक भी हो, योग्यतासम्पन्न व्यक्तियोंको उचित मार्गसे इस तरह समझाकर रखना चाहिये जिससे कि समाजका विच्छेद या संघका भंग भीन हो और उसका अहित न होकर हित हो जाय । उपेक्षा करनेसे वह व्यक्ति भी प्रायः धर्मसे अपिक उपेक्षित हो जासकता है पर संपसे दूर होजासकता है जिसका पणिाम उस व्यक्ति के लिये तथा समाजके लिये इस तरह किसी भी एकके लिये हितकर नही हो सकता।
आत्मामें मोक्षमार्ग-रलत्रयकी जो स्थिति है उसका अंशतः अथवा पूर्णतया न रहना प्रस्थिति अथवा उस आत्माका अस्थितभाव हैं । इस भावके होनेपर जब पुनः पूर्व अवस्था मास की जाती है फिर चाहे वह स्वतः प्राप्त की जाय अथवा अन्यके द्वारा तब स्थितिकरण अथवा स्थितीकरण माना जाता है इन दोनों में स्वतःका स्थितीकरण प्रधान है। क्योंकि ऐसा करने में धर्मके प्रति असाधारण रुचि और अपने कर्तव्यके विषयमें विवेकपूर्ण प्रज्ञाका परिषष तो मिलता ही है साथ ही विशिष्ट आत्मबल भी स्पष्ट हो जाता है। फिर स्वयं जो स्थितीकरण करने में समर्थ है वह दूसरेका भी अवश्य कर सकता है। परन्तु दूसरे के द्वारा जिसका स्पितीकरण हुआ है वह वैसा कर सकता है या नहीं ? इसके उत्तर में संभव है कि सदाचित् वह भी वैसी योग्यता प्राप्त करले और फिर वह भी दूसरोंका स्थितीकरण कर सके। परन्तु स्वायत योग्यताका कमांक कारण उसका स्थान द्वारा ही मानना अधिक उचित कहा जा सकता है।
प्रवृत्तिरूप सम्यग्दर्शनके चार अंगोंमेंस क्रमानुसार नीमरे वात्सल्यगुणका अब प्राचार्य वर्णन वरत हैं।
स्वयूथ्यान प्रति सद्भाव, सनाथापेतकैतवा ।
प्रतिपत्तियथायोग्यं वात्सल्यमभिलप्यते ॥१७॥ अर्थ-धूर्तता मायाचार वंचकता आदिको छोडकर और सद्भावनापूर्वक अपने सपनीमों का जो योग्यतानुसार आदर, सन्कार, पुस्कार, विनय, वैवात्य, भक्ति, सम्मान, प्रशंसा आदि करना है इसको वात्सल्य कहते हैं।
प्रयोजन-निरतीचार सम्यग्दर्शनको धारण करनेवालोंकी सधर्माओं और विधाभोंक प्रति स्वभावतः जो प्रवृत्ति हुआ करती है उसीको प्राचार्य यहां विधिरूपसे चार अंगों वर्णन करके बता रहे हैं । उनमेंसे निःशंक और निःकांश सम्पग्दर्शनके फलस्वरूप उपग्रहमा मिथतीकरणरूप प्रवृत्तिका दो अंगोंकी व्याख्याद्वारा उल्लेख ऊपर किया जा चुका है। उसके बाद निर्विचिकित्सा अंगसे युक्त सम्यग्दृष्टिको सधर्मानोंके प्रति जो और जैसी एक प्रक
आ करती है उसका स्पष्टीकरण करनेकेलिये क्रमानुसार अवसर प्राप्त है। अतएव उस वक्षन करना ही इस कारिकाके निर्माणका प्रयोजन है। १-उपेक्षायां तु जायेत तत्वाप दूरतरो नरा । तलनस्य भवो दीर्थ ममयोऽपि च हीयते ॥ मोपड़े।
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रस्नकायबांधकाचार
मोक्षमार्गके साथक नपस्वियोंके अन्तरंग गुणोंकी तरफ दृष्टि न रखकर याह्य शरीरकी मलिनता आदिको देखकर उनकी तरफ ग्लानिका भाव होना जिस तरह सम्मादर्शनका दोष है उसी प्रकार किंतु उसके विपरीत चाह्य विषयोंकी तरफ दृष्टि न देकर उनके गुणोंका आदर सत्कार आदि करना सम्पग्दर्शनका गुण है यह बात इस कारिकाके द्वारा बताई गई है।
इस गुणके अथवा अन्य गुणोंके विपयभृत सधर्मापासे प्रयोजन मुनिका ही नही लेना चाहिये । सम्पादृष्टिके सभी उपगृहनादि गुणोंके शिक्षा सम्पूर्ण सम्यग्दृष्टिमात्र है । फिर भी उन सबमें मुनिका स्थान उत्कृष्ट है। अतएव उचित यही है कि अन्यों की अपेक्षा मुमुचु साधुनों के प्रति उपगूहन स्थितीकरण और वान्सल्यभावका सबसे अधिक और प्रथम उपयोग किया जाय। जिस प्रकार साता चेदनीय कर्मबन्धके कारणों में भृत और व्रती दोनोपर अनुकम्पाका भाव भी एक कारण है। फिर भी भूतोंकीर अपेक्षा व्रतीपर की जानेवाली अनुकम्पा प्रधान है--वह प्रथम आदरणीय है । इसी प्रकार वात्मत्यगुगाके विलयभूत सधर्मायोंके विपयमें समझना चाहिये। अवतसम्यग्दृष्टिसे लेकर मुनितक सामान्यतया सभी सधर्मा हैं । फिर भी उनमें मुनिका स्थान सर्वोसम है। देशवतीका मध्यम और अन्तसम्पन्द्रन्टिका स्थान जघन्य हा जा सकता है।
यद्यपि सधर्माओंका उच्चावचत्व अन्य २ गुणों के कारण भी माना जा सकता है फिरभी यह बात दृष्टि में रखने योग्य है कि उन्ही गुणों से युक्त यदि अवनी, देशवती और महानती हो तो उनका स्थान क्रमसे जवन्य मध्यम और उत्कृष्ट ही रहेगा । अतएव वात्सल्य के विषय में मुनि को प्रधान मानना उचित है | आचार्यने यथायोग्य शब्दका प्रयोग करके दूसरे भी सभी मधमाभोंका संग्रह भी किया ही है। ___ इस कारिका के द्वारा यह भी स्पष्ट कर दिया गया है कि जो सम्यग्दृष्टि हैं वह सम्यग्दर्शबादि सभी मोवमार्गरूप गुणधर्मों उनके अंशों या अंशांशोंका आदर करना प्रात्मकल्याणका अंश समझकर अपना प्रथम कर्तव्य समझता है । अतएव जिसकी प्रवृत्ति और मनोवृत्तिमें यह भाव दिखाई पडे, समझना चाहिये कि उसका सम्यग्दर्शन अवश्यही वात्सल्य गुणसे युक्त हैं। धर्म तथा थर्मी में कथंचित् अभेद है। क्योंकि इनमेंसे कोई भी एक दूसरे को छोडकर नहीं पाया जाता में रहता है; न रह सकता है । अतएव धर्मका आदर आदि करनेवाला धर्माका
आदरादि करता है और जो धर्मीका आदर करता है वह अवश्यही उस धर्मको अपेक्षासे वैसा करनेके कारण धर्मका ही भादर करता है । धर्मकी अपेक्षा छोड कर यदि किसी व्यक्ति का कोई भादर करता है तो अवश्य ही बह अविवेकी वहिष्टि है।
१-भूतकृत्पनुकम्पादानस रागसंयमादियोगः शांतिः शौचमिति सद्वंद्यस्य ।। त० सू०६-ना, २मायुनाम कर्मोदयवशाल भवमा भूतानि ||....."सर्वे प्राणिन इत्यर्थ ।। रा० का०-६-१२-१ ३-प्रतिग्रहणमनर्थकमिति चेन्न प्राधान्यख्यापनार्थत्वात् ....."भूतेषु यानुकम्पा तस्याः । प्रनिधनुकम्पा प्रधानमूतेत्ययमर्यः ख्याप्यते ॥ २० वा ६-१२-१३ ।।
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चका रहलां सोप गुण धर्मका पादर जब कि उनकी वृद्धिका कारण है तब वैसा न करना अवश्यही उनके हासका हेतु है । सम्पत्ति अधिकार प्रभुता कलाकौशल आदि भी जगतमें आदरणीय हैं। उचित रूपमें और अपने २ अवसर पर इनका आदर करना भी आवश्यक है। फिर भी महान एवं अंतरंग भात्मिक गुण धर्मशून्य-अविवेकी, अन्यायप्रिय, असदाचारी व्यक्तिके इन विषयोंका आदर
आदि करना वस्तुतः लोकहितकर नही और न उसमें अपनाही हित निहित है । अतएव सम्यकदृष्टि जीप अन्तरदृष्टि होनेके कारण गुण वर्मों का ही आदर करना मुख्य एवं उचित समझता है ! पौर वैसा करके नह मोक्षमार्गका संवर्धन करता है।
शब्दा का सामान्य विशेष अर्थ----
स्वयूथ्य-कोई भी विवक्षित गुणधर्म जितने व्यक्तियों में सदृश रूपसे पाया जाय उसने व्यक्तियोंका गम्ह एक वर्ग कहा जाता है । इसीको जाती समाज या यूथ भी कहते हैं। यूथ में रहनेवाला प्रत्येक व्यक्ति यूथ्य हैं | स्व शब्द का अर्थ आत्मा अथवा आत्मीय है। मतलब यह कि विवक्षित आत्मीय गुण जिन जिन में याये जाय वे सभी व्यक्ति स्वयूथ्य है । ग्रंथकार यहांपर जिन जिन गुणों को श्रेयोमार्ग-धर्म के नामसे बता रहे हैं वे रत्नत्रय सम्यकदर्शनादिक मात्मीय गुण हैं | वे जिसमें पाये जाने हैं उस सम्यकदृष्टि के लिये उन रिवक्षित गुणोंके धारक सभी व्यक्ति स्वयूथ्य हैं । सम्यकदर्शन, सम्यकज्ञान सम्यकचारित्र इनमेसे एक दो या तीनोंके धारण करनेवाले कोई भी व्यक्ति क्यों न हों वे सभी व्यक्ति परस्पर में स्वयूथ्य ही है।
सद्भावसनाथा---सत्-प्रशस्त या समीचीन, भात्र-आशय अथवा परिणाम, इनसे जो युक्त हो-प्रेरित हो उस क्रियाको सद्भावमनाथा समझना चाहिये । यह शब्द प्रतिपतिमा विशेषण है | अपने सधर्मा अथवा धार्मिक वर्गके प्रति जो प्रतिपत्ति--सद्व्यवहार किया जाय वह सद्भाव पूर्वक पवित्र निस्वार्थ धार्मिक भावना से अनरंजित होना चाहिये। जिसतरह कषायसे अनुरंजित योर्गा की प्रवृति कम बंध का कारण है उसीप्रकार धर्मात्माओंके प्रति किया गया कोई भी व्यवहार यदि किसी भी प्रकार की कषायसे अनुरंजित है तो वह भी कर्मबन्धका ही कारण हो सकता है। उस को यथार्थ धर्म अथवा शुद्ध सम्यकदर्शनका वास्तविक अंग नही माना जा सकता । यहाँ कपाय से मतलब बुद्धिपूर्वक कपायको उनेजित अथवा किसी विवक्षित कार्यके सिद्धिके लिए प्रेरित करने से है। अतएन यह वात्सन्यगुण उस अवस्था में ही सम्यकदर्शनका मंग माना जा सकता है जब कि वह किसी भी कषाय का परिणाम न हो। समस्त सद्भावोंका संक्षेप गुणों के प्रति विचिकित्सा के अभाव में हो जाता है। ___ उमर सम्यकदर्शन का निर्विचिकित्सा नामका गुण बताया जा चुका है । उस निषेवरूप गुरु के निमित्तसे सम्यकद्दष्टिकी जो सधर्माकि प्रति प्रवृत्ति होती है उसकाही अन्तरंग कारखा गया वात्सल्य है क्यों कि सम्पन्दष्टि जीव आत्मगुणों में रुचिमान हुआ करता है। वह कर्मनिमिचक शरीरादिके सौन्दर्यासौन्दर्य के निमित्तसे आत्मगुणोंमें उपेधित नहीं हुमा करता। इस तरहकी
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रत्नकरण्द्धश्रावकाचार उपेक्षा से वह अस्पृष्ट रहा करता है। यही कारण है कि उसको अपने रुच्य गुण जहांपर भी दृष्टि गोचर हुदा करते हैं चीपर जनमा गह गायोग एवं उचितरूप में श्रादर आदि किया करता है ! जिस प्रकार अन्तरायके अभाव में ही पुण्यकर्मोका उदय यथावत् कार्य करने में समर्थ हुमा करता है उसी प्रकार मिथ्यात्व अथवा अनन्तानुबन्धी कषायके निमिचसे होनेवाली विचिकित्साके अभावमें ही सम्यग्दृष्टि की गुणरुचि वात्सल्यका अंतरंग कारण बनजाया करती है। यही कारण है कि प्रतिपचिका "सद्भावसनाथा" यह विशेषण दिया है।
अपेतकैतषा-जो क्रिया कैतवभाव से रहित हो उसको अपेतकैतवा समझना चाहिये। कितव नाम ठग या धूर्तका है और केतव कहते है ठगई अथवा धूर्तता को । मतलब यह है कि धोखा देना वंचना प्रतारणा आदि भाव कता हैं | अतः एवं साधर्मी के साथ जो सद्भाव प्रकट किया जाय उसमें कैतव अर्थात् धूर्तता आदिका भाव नहीं रहना चाहिये । सत्कार मादि करने में जो सद्भाव प्रकट किया जाता है वह यदि धृततापूर्वक है तो यह वास्तव में सदभाव नहीं है। इसी बातको स्पष्ट करने के लिये यह प्रतिपत्तिका विशेषण दिया गया है।
प्रतिपत्ति का अर्थ है कि कर्तव्यका ज्ञान और प्रवृचि । अर्थात् सधर्माओं के प्रति जो कर्तव्य पालन किया जाय अथवा प्रवृत्ति की जाय वह वंचकता से रहित सच्चे हृदयसे होनी चाहिये। ___ यथायोग्य--यह शब्द बड़े महत्वका है । कर्तव्यहीनता एवं उसका अतिरेक दोनोंका ही चारण करके वह ठीकर कर्तव्यका बोध कराता है। क्योंकि इसका अर्थ होता है कि "योग्यतामनतिक्रम्य" जिसका आशय यह है कि योग्यता से न कम न ज्यादे । जिस धर्मात्माका विनय आदि करना है वह जिस योग्यताका हो उसके अनुसार हो उसका सतकारादि करना उचित है न कि हीनाधिक । कम करने पर अपना अभिमानादि प्रकट होता है और अधिक करने पर अविवेक । अत एव जिस में ये दोनों ही त्रुटियां न पाई जाय इस तरहसे ही सधर्माप्रति आदर विनय आदि प्रकट करना चाहिये।
तात्पर्य यह है कि सम्यक्त्वसहित जीवकी सथाओं में यत्सलता रूप प्रासि स्वाभाविक हमा करती है। वह बनाबटी या दिखावटी नहीं हुआ करती। न तो वह अन्तरंगमें किसी मोह कपाय स्वार्थ आदि कर्मोदयजनित वैभाषिक या श्रीपाधिक भावोंसे ही प्रेरित हुमा करती है और न लोकानुरंजनादिकलिये बनावटी ही हुआ करती है। धर्मसारश्यके कारण ही सचमीमोके प्रति वह प्रीति आदि प्रकट किया करता है।
जिस धर्मके कारण वह इस तरहकी प्रवृत्ति किया करता है वह धर्म अनेक प्रकारका है। संसारी प्राणी जबतक संसारमें है तब तक उसको उन सभी धर्मोंका पालन करना पडता है। उसके लिये जितने ऐहिक उचित कर्तव्यरूप धर्म हैं वे भी अपरिहार्य रहा करते हैं। उनके छोडदेनेपर अथवा उनकी तरफ दुर्लक्ष्य करनेपर उसका पारलौकिक परमार्थ भी विगड जा सकता है। भतएव जो परमार्थक विरोधी नहीं है ऐसे ऐहिक कर्तव्य भी जो कि प्रकारान्तरसे धर्मके साधन होने के कारण धर्म ही कहे जाते हैं उन धोका भी उसे पालन करना और उससे समन्धित
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___ चंद्रिका टाका सत्रहवा श्लोक व्यक्तियोंका यथा योग्य आदर सत्कार आदि करना पडता है।
रखत्रयरूप धर्मकी मूर्ति, दिगम्बर जिन मुद्राके धारक, साधुओं तथा अंशतः उस मार्गर चलनेवाले श्रावकोंके प्रति तो उसका वात्सल्य भाव होता ही है अव्रती गुणानोंका भी यह यथायोग्य सत्कार सन्मान आदि किया करता है । समयिक साधक समवद्यावक नैष्टिक गणाधिप आदि जितने भी सधर्मा है उन सबका भी वह अपनी शक्ति और उनकी योग्यतानुसार मान सम्मान दान आदिन हसा आदर सम्मान किया करता है और भक्ति प्रकट किया करता है। लोकव्यवहार में आयुर्वेद ज्योतिषु मन्त्रानुष्ठान विधानादिकी आवश्यकताके समय उन विषयों के जानकार मर्याओं में उसकी प्रीति हो और उनको वह अग्रपद दे यह स्वाभाविक है। आयुर्वेद आदिके विषयमें भी प्रवीणताके सिवाय सधार्मिकता निमित्तसे प्रीतिविशेषका होना सम्यग्दर्शनका ही कार्य अथवा चिन्ह है। यह जिनमें पाया जाय वहां वात्सल्यगुण समझना चाहिये । इस गुणके कारण प्रात्माकी जो विशुद्धि होती है वह उसे मोक्षमार्गमें ता अग्रसर करती ही है । किंतु इसके कारण के व्यक्ति भी अपने पीछे सघर्गाओंके बलका अनुभव कर धर्माराधनम मोन्साह तथा अधिक दृढ होजाया करते हैं । और उनकी लौकिक प्रधृत्तियां स्वाभिमान-सात्मगौरवसे युक्त प्रभावशाली एवं महत्वपूर्ण हुआ करती है।
सधर्माओं से मतलब मुनि और श्रावक दोनोंस है । फिरभी उनम मुनिया की प्रधानता है। क्योंकि धम की मात्रा मुनियों में अधिक प्रमाणम पाइ जाता है । अत एव उनक गुणा म निष्कपट प्रीति रखकर उनका सत्कार-पुरस्कार र मुख्यतया तथा प्रधानतया करना उचिच ह । मुनिक वाद श्रावकका स्थान पाता है। उदाहरणार्थ-जहां कहां भी मुनियाका आवास है वहां उन अतिथियोंकी भिक्षा चर्या होजानेके पीछ ही श्रावकों का आहाशाद करना कराना उचित है । अथश वहां किसी धार्मिक उत्सव में उनको अग्रपद देना तथा मुख्य स्थान देना उचत है। यदि अनका मुनियों का आवास हो तो उन समां को अनुकूलता सम्पादन करन म बहुत बड़े विवेक से काम लेना चाहिय' क्योंकि मुनिजन भी सब समान योग्यता आदिक ही नहीं हुआ करते परन्तु उनका पद श्रावकों की अपेक्षा अधिक सम्मान्य ही हुआ करता है । अत एव उन सबका हा योग्यतानुसार आदर सत्कार आदि करना उचित है।
आवकक प्रति वात्सल्य प्रकट करनेका स्थान पद्यपि मुनियों के अनन्तर ही पाता है फिर भी अनेक विषय और अवसर एसे भी संभव है जब कि मुनियों सभी अधिक श्रावकके गुणों के प्रति
५-समासक साधक समय द्योतकनीष्ठकगणाधिपानधनुयात् । दाना देना यथासर गुणरागात सद्गृही नित्यम् । सागार २०५१ | समयिका गृही यांतवां जिनसमयाश्रत:। साधको ज्यातिपमन्त्र बादाद लोकापकारक शारत्रमाः। समयथोतको वारदत्वादिना मार्गप्रभावकः । नाटकः मूलोत्तरगुणाताध्यतपानुष्ठाननिष्ठः । गणाधिपः धर्माचार्यस्ताररगृहस्थाचार्यों था। २–पथावसाव्यप्रतः करम् ।
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रत्नकरण्डयावकाचार वात्सल्य प्रकट करना उचित एवं श्रावश्यक हो जाता है। ऐसे अवसर पर अथवा ऐसे विषय में श्रावकके उन गुणों के प्रति भी मुख्यतया वात्सल्य प्रकट करना उचित है ।
रखत्रयरूप गुण मोक्षके राधकतम हैं अत एव उन गुणों को देखकर उन गुणवानोंके प्रति वासस्थपूर्ण ब्यवहार तो होना ही चाहिय परन्तु उन गुणों की उत्पत्ति वृद्धि रक्षाके साक्षात् एवं परम्परासे जो साधन है उनका संरक्षण संवर्धन व्यवस्था आदि भी आवश्यक है क्योकि कारण के यिना कार्य नहीं हो सकता | अतः साक्षात् धर्म के भी जो कारणभूत गुण धर्म है उन के प्रति भी वात्सल्यका होना उचित एवं आवश्यक है । फलतः जितने भी आर्योचित गुण हैं उन के प्रति भी सम्यग्दृष्टि को वत्सलभावसे युक्त होना चाहिये ।
इस प्रवृतिरूप गुण में निषेधरूप निर्विचिकित्सा अंग किस तरह से अन्तरक कारण बनता है यह बात ऊपर स्पष्ट की गई है। अत एवं यह बात भी ध्यान में रहनी चाहिये कि देव शास्त्र गुरु प्राप्त झागत और तगो तथा रत्नत्रयरूप साक्षात धर्म और उसके बाह्यसाधनरूप व्यवहार धर्म के प्रति जो अनुरागी है रुचिमान् है बद कर्पोदयजनित जड़ भावों या पौद्रलिक विषयों-शरीरादिकी विकृतियों के कारण उनके सौन्दर्यासोन्दर्यको देखकर वास्तविक हिनरूप आत्मधर्म से भूपित व्यक्तियों के सम्मानादि से उपेक्षित नहीं हो सकता । इसी प्रकार ऐश्वर्य सम्पत्ति आदिको भी वह प्रधानता नहीं दे सकता । इस तरह विचार करनेपर मालुम होगा कि निर्विचिकित्सा अंग का वात्सल्प गुपके साथ एक विशिष्ट एवं घनिष्ट सम्बन्ध है। इसका अर्थ यह नहीं है कि सम्यम्रष्टि जीव सम्पत्ति आदिक अर्जन रक्षण और विनियोग आदिकी तरफ अपने उपयोग को लगाता ही नहीं है । यह सब काम भी वह करता है तथा इस कार्य में जो सहायक होते हैं उनका भी वह पथायोग्य सत्कार करता है परन्तु अन्तरंगमें वह सधर्मा प्रों की सेवाको उभय लोकके लिये हित कर होनेके कारण अधिक एवं वास्तविक मूल्यवान समझता है मतलब यह कि इस तरह की रुधिपूर्ण दृष्टि को रखकर ही वह अपने समस्त लौकिक उचित और आवश्यक कार्यों को किया करता है। वह अपने हृदय में इस यातकी सदा आशा रखता है कि मुझे सदा सधर्माओंका सहवास प्रास होता रहे फलतः उनके प्रति यथायोग्य भक्तिसम्पादनकी भावना रखता है, प्राप्त अथर्मामोंके प्रति उचित सत्कार करता है, अपने सहाध्यायी, गुरुजन, चतुर्विध संघ, संयमी, बहुश्रुत आदि सद्गुणियोंके प्रति आदर एवं विनयपूर्ण व्यवहार किया करता है। जो अपने मधर्मा किसी माधि-मानसिक चिन्तास व्यथित हैं उनकी उस चिन्ताको निस्वद्य एवं समुचित प्रक्रिया से निवृत्त करता है। और जो किसी प्रकार की ब्याधि-शारीरिक बीमारीसे पीडित हैं उनके रोगका भी उचित एवं निर्दोष चिकित्सोपचार द्वारा परिहार किया करता है । जिनेन्द्र भगवान्, जैनागम, आचार्य, उपाध्याय, साघुओंमें सहावयुक्त अनुनाग के द्वारा विशुद्ध भक्ति को धारण किया करता है । इस तरह बह गुणों और गुणवानों में श्रादर-विनय, वैयावृत्य तथा भक्तिभावको धारण करने वाला सम्पग्दृष्टि वात्सल्य गुरु से युक्त माना जाना है। जिसकी प्रति इसप्रकारकी नहीं है-जा रत्नत्रयरूप गुणों की मूर्ति-मुनि
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चंद्रिका टीका अठारहवां लोक
आर्यिका श्रावक श्राविकाओं में प्रमोदभावसे युक्त नहीं होता उनके गुणों का अनुरागी होकर उनके अन्तर बहिरङ्ग कष्टोंको— मानसिक शारीरिक आधिव्याधियों को दूर करने में निष्कट रूप से यथायोग्य और यथाशक्य प्रयत्नशील नहीं होता वह जिन धर्मका अनुरागी हैं, अनुयायी हैं, श्रद्धालु है, रोचिष्णु हैं, प्रतीति रखनेवाला प्रशमादिगुणों से युक्त सम्यग्दृष्टि है यह किसतरह कहा जा सकता है। क्योंकि वास्तव में सम्यग्दृष्टि जीव उपर्युक्त गुण घरों और उनसे विभूषित सुधर्मा व्यक्तियोंमें इतनी अधिक भक्तिसे युक्त हुआ करता है कि मनसे भी यह कभी भी उनके ऊपर आये हुए कष्ट को सहन नहीं कर सकता तो फिर अपना सर्वस्व अर्पण करके भी उनके कष्टों को दूर करने में क्यों चूकेगा ? कभी नहीं चूक सकता । ऐसा अवसर पर यह उनके प्रति उपेक्षित नहीं हो सकता। वह तो ऐसे प्रसंग पर विष्णुकुमार निकी तरह सवर्मा गुणवानों के प्रति अपने महान् से महान् साधनोंका सर्वस्व भी अर्पण कर दिया करता है । वह अपने तन मन धन त विद्या विज्ञान और कलाकौशल अधिकार सम्पत्ति आदिको पूर्णरूपसे लगा कर उनका संरक्षण किया करता है ।
इस तरहकी बाह्य प्रवृत्ति अन्तरंग सम्यग्दर्शनका निदर्शन' है
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ऊपर लिखे अनुसार सम्यग्दर्शन के चार शंका कांक्षा विचिकित्सा और अदृष्टि प्रशंसासंस्तव के विरोधी होनेके कारण निषेधरूप चार गुण धर्मोका वर्णन और तदनन्तर सम्यग्दर्शन के प्रकट होजानेपर सम्यक्त्वसहित जीवकी सधर्मा और विर्मा के प्रति किस चरहकी प्रवृत्ति हुआ करती है उसको बतानेवाले प्रवृत्ति - विधिरूप चार गुणोंमें से आदि के सर्माओं के साथ होनेवाली प्रवृत्ति से सम्बन्धित तीन गुणों का वर्णन समाप्त हुआ। जिसमें उपगूहन या उपहण के द्वारा सधर्मा के दोष और गुणों के विषय में स्थितीकरण के द्वारा यदि कोई धर्मा धर्म के विषय में शिथिल है अथवा शिथिल होने के सम्मुख है यद्वा धर्ममें स्थित नहीं रहा है - इस तरहसे उसकी कालिक अस्थितिको दूर करनेके सम्बन्धमें, और वात्सल्य गुणके द्वारा यदि कोई सधर्मा किसी भी अन्तरंग या बहिरंग कारणसे आधिव्याधिग्रस्त है, खिन या विपन है, परीषह या उपसर्गसे पीडित है, आधिदैविक या आविभांतिक कष्टसे संक्लिष्ट हैं, तो उस समय उसके प्रति सम्यग्दृष्टिका कैसा व्यवहार हुआ करता है इस बातको क्रमसे बताया गया है अव मुख्यतया विधर्माओं के प्रति सम्यग्दृष्टिका व्यवहार कैसा हुआ करता है या होना चाहिये इस को स्पष्ट करनेवाले विधिका चौथे प्रभावना अंगका वर्णन करते हैं?
अज्ञानतिमिरव्याप्तिमषा कृत्य यथायथम् । जिनशासनमाहात्म्यप्रकाशः स्यात्प्रभावना ॥१८॥
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१-तपसः प्रस्यत्रस्यन्तं यो न रक्षति संगतम् । नृतं म दर्शनाद् बाह्यः समयस्थिनिज्ञघनात् ॥ यश श्री सोमदेव सुरीने अपने उपासकाध्ययनमें प्रभावनाको सातवें और वात्सत्यको मारने नम्बरपर बवाना है। इस तरह वर्णन क्रममें सम्टदं पाया जाता है।
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रत्नकरण्ड श्रावकाचार
अर्थ - - श्रज्ञानरूपी अन्धकारके प्रसारको जिस तरहसे भी दूर करके जिनशासनके माहात्म्य को प्रकाशित करना प्रभावना है।
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प्रयोजन --- श्रेयोमार्गरूप रजत्रयका प्रधानभूत और सबसे प्रथम श्रश या रा सम्यग्दर्शन है उसके होनेपर दोनों ही अंश या रत्न - सम्यग्ज्ञान और सम्यक चारित्र अवश्य होते हैं। अतएव सम्यग्दर्शन के लिये प्रयत्न करना सबसे प्रथम आवश्यक है। जिनकी वह बात नहीं हुआ है उन्हें उसकी प्राप्ति- उत्पत्ति के लिये और जिनको वह प्राप्त होगया है उन्हें उसकी रक्षा-वृद्धि और सफल बनाने के लिये प्रयत्न करना चाहिये ।
सम्यग्दर्शनके आठ अंगों का यहांपर जो वर्णन किया है वे शरीर के आठ अंगोंके समान हैं। अतः शरीरके प्रत्येक अंगके समान ही सम्यग्दर्शनके प्रत्येक अंगका रक्षण आदि करना भावश्यक है। इनमें से पहले चार अगोंके द्वारा सम्यग्दर्शनरूप शरीरकी अतिचरणसे रखा होती है । उसके बाद उपगूहनादि तीन गोके द्वारा भी उसकी रक्षा तो होती है परन्तु साथ ही त्रिशुद्धि की वृद्धि और सफलताकी लन्त्रि भी होती हैं। इनमें से पहले सातों 'मोंसे सम्बन्धित विषय वहीं पर संभव हो सकते हैं जहाँपर कि सम्यग्दर्शनका सत्व है - जिनको सम्यग्दर्शन प्राप्त हैं । किंतु जिनको सम्यग्दर्शन प्राप्त ही नहीं हुआ है वहांपर क्या होना चाहिये या उसको क्या करना चाहिये इस सम्बन्धमें स्पष्टीकरणकी श्रावश्यकता है। इस अन्तिम प्रभावना श्रगका वर्णन उसी आवश्यकता को पूर्ण करता है ।
सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति व और पर दोनों में ही संभव है । मुमुक्षु भव्य प्राणीको सबसे प्रथम अपनी ही आत्मायें सम्यग्दर्शन को प्रकट करने का प्रयत्न करना चाहिये। किंतु यथाशक्य दुसरी आत्माओं में भी उसको प्रकाशित करनेका प्रयत्न करना चाहिये ।
श्रागम में अन्यत्र प्रभावना श्रगका स्वरूप बताते हुए जो उल्लेख किया गया है उससे अपने ही भीतर सम्यग्दर्शन को प्रकट करने के उपदेशकी मुख्यता स्पष्ट होती है। इसके सिवाय यह भी कहा गया है कि "श्रादहिर्द कादव्वं जइ सक्कइ परहिंदं च काव्यं । यदहिद पर हिदा - हो आदहिदं मुष्ठ कादव्वं ॥ " अर्थात् प्रथम तो आत्महित करना चाहिये । और फिर यदि हो मके तो परहित भी करना चाहिये । परंतु श्रात्महित और परहित इन दोनों में आत्महित अच्छी तरह करना चाहिये श्रतएव स्पष्ट है कि अपनी आत्मामें सम्यग्दर्शनको प्रकट करने के लिए सबसे प्रथम और सबसे अधिक प्रयत्न करना चाहिये ।
प्रकृत कारिकामें प्रभावनाका स्वरूप लिखा है उसमें भी ऐसा कोई उल्लेख नहीं है कि जिससे अपने में ही अथवा परसें ही उसको प्रकट करनेका इकतर्फा अर्थ किया जा सके। किंतु इसका अर्थ दोनों ही तरफ होता है। क्योंकि इसमें केवल इतना ही कहा गया है कि अज्ञान के प्रसार को हटाकर जिनशासन के माहात्म्य को प्रकट करना चाहिये। अतएव इससे माजुम होता है प्रभावनीयो रत्नश्यतेजसा सततमेव । नामः तपो जिन पूजाभियातिशयैश्च जिनवर्गः ॥
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बद्रिका टीका अठारहवां श्लोक
१४ कि ग्रंथकार का आशय दोनोंही तरफ है । अर्थात् स्व और पर दोनों में ही अज्ञानको दूर करने
और जिन शासन के महत्व को स्थापित करने का नाम प्रभावना है ऐसा इसका आशय है। किंतु स्वयं जिसके भीतर सम्यग्दर्शन प्रकट होगया है यह जैसी कुछ परमें प्रभावमा कर सकता है वैसी अन्य नहीं । जो स्वयं ही अज्ञान से व्याप्त है तथा जिन शासन के माहात्म्पके वास्तविक प्रकाश से रहित है, वह दूसरेको उम अज्ञानान्धकारसे रहित और उक्त प्रालीक से प्रकाशित किस तरह कर सकता है ? नहीं कर सकना । इस बात पर विचार करनेसे मालुम होता है कि वास्तव में सम्यग्दृष्टि जीव ही परमें प्रभावना करने का अधिकारी है।
दूसरी बात यह भी विचारणीय है कि यदि दूसरों में धर्मके प्रभावको उत्पम करनेकी रीति नीति या कृतिको कभी भी किसीभी तरह यदि मुख्य न माना जायगा तो श्रेयोमार्गकी परम्परा किस तरह चालू रह सकती है। वह तो अवश्यही एक न एक दिन समाप्त हो जायगी।
अरि यह ठीक है कि सर्वज्ञ भगवानके कथनानुसार मोक्षमार्गका संसारमै निरन्धय विनाश कभी नहीं हो सकता । वह अनाद्यनन्त है । अनादिकालसे है। और अनन्त कालतक रहेगा। किंतु यह तो द्रव्याधिक नयसे उसके एक अन्वयी स्वरूपका निदर्शन मात्र है। यह वैयक्तिक मिदि के कार्य कारणभाव को नहीं बताता । सर्वज्ञके ज्ञान और वैयक्तिक सिद्धि प्रादि में शानशेय सम्बन्ध तो कहा जा सकता है परन्तु कार्यकारण सम्बन्ध नहीं माना या कहा जा सकता। और प्रत्येक कार्य की सिद्धि अन्तरंग बहिरंग कारणापेक्ष है । किसीभी कार्य की निष्पति उसकी अन्तरंग योग्यता और बाह्य निमिसके कारणोंपर निर्भर है। अतएव प्रत्येक सम्यग्दृष्टिका यह भी मुख्य कर्तव्य हो जाता है कि वह मोक्षमार्गक असाधारण अंग सम्यग्दर्शन की संतति के प्रवाह को अव्युछिन मनाये रखने के लिए दूसरी आत्माओंमें से अज्ञानान्धकारको दूर कर जिनशासन-रलत्रय रूप गुणों को प्रकाशित करे और करता रहे । यद्यपि इस विषय में सम्यग्दृष्टि की प्रवृत्ति स्वतः ही हुआ करती है। फिर भी कर्तव्यो आशय को व्यक्त करना इस कारिकाका प्रयोजन है।
शब्दोंका सामान्य-विशेष अर्थ
अज्ञान शब्दसे ज्ञानका सर्वथा अभाव या अपूर्ण अर्थ न लेकर असमीचीन या मिथ्याज्ञान अथ ग्रहण करना चाहिये । यही कारण है कि उसको तिमिर का रूप देकर बताया गया है। दूसरी बात यह है कि ज्ञानका सर्वथा अभाव होता नहीं । यदि ऐसा हो तो सभी गुणों और द्रव्यों का प्रभाव का प्रसंग आ सकता है। तथा जश्तक केवलज्ञान नहीं होता तबतक प्रत्येक व्यक्तिका ज्ञान छद्मस्थ होने के कारण अपूर्व ही रहा करता है। अतपय जो ज्ञान मोहपरिणाम में प्राच्छन्न है अथवा प्रतिभासमान विषय के स्वरूप से वास्तवमें व्यभिचरित है वही मान 'सान शब्दसे कहा जाता है । मतलब यह कि यहांपर प्रज्ञान से अभिप्राय मिध्याज्ञान का ही लेना चाहिये। जिसतरह अन्धकार के सर्वत्र व्याप्त हो जानेपर पास का भी पदार्थ दृष्टिगोचर नहीं होता उसीतरह जबतक अज्ञान मिध्याज्ञान जीवोंके अन्तरंग में व्याप्त है सनतक उनको
-स्वावभासनाशक्तस्य परावभासकरवायोगात ।
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१४.०
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पासका अपना भी स्वरूप दिखाई नहीं पडता । वास्तवमें अपने विषय में या तो अव्यवसित या शंकित अथवा विपर्यस्त रहा करता है । साराही जगत् निबिड अन्धकार के समान इन तीनों ही अज्ञानोंसे व्याप्त हैं, जिनके कि कारण अपना स्वरूप या हित दिखाई नहीं पडता ! अपाकृत्य--गह एक क्रियापद है । व्याकरण के अनुसार वाक्यमें यह मुख्य क्रियापद नहीं हैं । मुख्य क्रियाके पूर्व होनेवाली या की जानेवाली अथवा पाई जानेवाली क्रियाका यह पोष कराता है। मुख्य क्रिया तो जिनशासन के माहात्म्यको प्रकाशित करना है। किंतु प्रकृत कृदन्त क्रियापद का मुख्यतया आशय यह है कि जबतक जीवोंक अन्तरंग में अज्ञान तिमिर व्याप्त है तवतक उनके भीतर जिनशासन के माहात्म्य का प्रकाश उद्भूत नही हो सकता । जिस तरह मलिन वस्त्रपर कोई भी रंग मच्छीतरह नहीं चढ सकता । अथवा काले रंगपर दूसरा रंग असर नहीं करता, उसी प्रकार जनतक आत्मा मिथ्याज्ञानरूपी तिमिर से मलिन या काली हो रही
तक उसपर सदुपदेशका कोई भी परिणाम नहीं हुआ करता, तीन प्रकारकी मानी गई परिणतियोंमें क्रम भी यही है कि पाप पर किया गुम परिणति और पुण्य परिवति के छूटे बिना वीतराग - शुद्ध परिणति नहीं हुआ करती । थतः जिसतरह रात्रीके अभावपूर्वकही प्रातःकाल हुआ करता है उसीप्रकार अज्ञानके विनष्ट होनेपरही जिनशासन के माहात्म्यका प्रकाश हुआ करता है ।
यथायथम् — इस शब्दका आशय इतना ही है कि जिस उपाय से भी शक्य हो उसी उपाय से । किंतु इस उपाय से यह बल ग्रहण नहीं करना चाहिये कि प्रभावना के लिये अनुचित उपायका भी आश्रय लिया जा सकता है । अथवा यहांपर आचार्य यद्वा तद्वा- उचित अनुचित किसी भी तरह से प्रभावना करनेका उपदेश देरहे हैं । किंतु यहां आशय उचित उपाय काही आश्रय लेनेका हैं। हां, प्रभावना के लिये जो उचितरूप अनेक उपाय संभव है उनमेंखे प्रसंगानुसार जो भी उपाय आवश्यक हो उसका आश्रय लेना चाहिये यही ग्रंथकारका आशय है।
यहां पर यह बात भी ध्यान में रहनी चाहिये कि उचित प्रवृचिके विरोध में होनेवाले कार्य आक्रमण - खंडन आदिके विरुद्ध प्रवृत्तिको अनुचित नहीं माना या कहा जा सकता । क्यों कि जिस तरह निषेध का निषेध विधि होता है उसीप्रकार अनुचित आक्रमण या विरोधकी निवृति अथवा परिहार के लिये जो भी उपाय काम में लिया जाता है वह भी उचित ही माना जा सकता है।
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प्रभावना अंग में प्रसिद्ध हुए जिन महान् व्यक्तियोंका नामोल्लेख किया जाता है उनके इतिवन का अध्ययन करनेपर मालुम होता है कि उन्होंने किसी के ऊपर अन्यायपूर्ण आक्रमण .. करके धर्म की प्रभावना नहीं की। जिन्होंने भी प्रभावना की है उन्होंने प्राय: करके अपने सिद्धान्त १- हितमेष न वेति कश्चन, भजतेऽन्यः खलु तत्र संशयम् । विपरीतरुचिः परो जगत् - त्रिभिरशानतमोमिरासम् ॥ ० ० २--बधा अनविक्रम्य इति यथायमम् ।
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चादका टीका अठारह श्लोक या मान्य धर्म की महत्ता, निबांधसत्यता, और वास्तविक कल्याणकारिताका बोध कराकर विचार परिवर्तन के द्वारा ही प्रभावना की है। हां ! सदाचित आवश्यकता पड़ने पर दूसरों के द्वारा होने पाले आक्रमण के निवारण में जिन्होने अपनी शक्ति लगाकर धर्मको प्रभावना की है वह वास्तव में देखाजाय तो आक्रममा नहीं, बल्कि अाक्रमण से अपनी रक्षाका प्रकार मात्र कहा जा
आचार्य बनायथं शद को देहलोदीपक न्याय से अज्ञान के अपाकरणऔर जिनशासन की महत्ता के प्रकाशन के मध्यमें रखकर इस बात को स्पष्ट करदिया है कि इन दोनों ही कार्यों के लिये कबर किनर उपायों का अवलम्बन लिया जाय इसलिये किन्ही खास उपायों का ही नाम अथवा उनकी संख्या आदि निश्चित नहीं की जा सकती । इसका निश्चय तो प्रसङ्ग के अनुसार किया जा सकता है । फिर भी ग्रन्थान्तरों में प्राचार्योंने उन उपायोंका नामोल्लेख कर दिग्दर्शन भी करादिया है । यथा-अशियित दान तप जिनपूजा और विद्या आदि । यद्यपि सामान्यतया गृहस्थों और मुनियों में प्रभावना के लिये पाये जा सकने वाले प्रायः सभी उपायोंका इन चार उपायोंमें समावेश हो जाता है फिर भी विशेष दृष्टि से विचार करनेपर इसके सिवाय और भी कुछ ऐसी प्रवृत्तियां हैं जो कि जैन धमकी प्रभावना का साक्षात् अथवा परम्परा कारण हो जाती हैं हो सकती हैं, अथवा कही जा सकती हैं।
उदाहरणार्थ---न्याय्यवृत्ति, अहिंसकता, दयालुता, परोपकारता, सत्यनिष्ठा, पवित्रता सदाचार, विवेक, कृतज्ञता और आर्यव्यवहार आदि। जैन धर्मके अनुयायी व्यक्ति यदि अधिक से अधिक प्रमाण में और अधिक से अधिक संख्या में इन गुणों का पालन करनेवाले हों तो निःसंदेह वह अजन समाज पर जैनधर्मके प्रभावका कारण बन जा सकता है । हिंसा चोरी बलात्कार राजद्रोह विवागधात जैसे भयंकर पाप करनेवाले व्यक्तियोंकी संख्या आज जैनधर्मके अनुयापियोंमें नहीं है अथवा नहीं के बराबर है यह अवश्यही जैनसमाज के लिये गौरवकी वस्तु है। इसी तरह जैन धर्मके अनुयायियों के विधिरूप कार्योंमें भी यदि अन्यधर्मी लोगोंकी अपेक्षा पदि. अता सत्यता हितपिता आदि अधिक एवं असाधारणरूपसे पाई जाती है तो कहा जा सकता है कि वह जैन धर्मके संस्कारों की प्रभावनाका ही परिणाम या फल है।
जिनशासनमाहात्म्यप्रकाशः।-यात्महितके वास्तविक साधनका उपदेश ही जिनशासन है उसकी असाधारण उत्कृष्ट पवित्र हितसाथनताका रहस्य सर्वोपरि महान् है । इसीका नाम तीर्थ है। प्रासीमात्रका वास्तविक हित यदि हो सकता है तो इसके अनुसार चलनेपर ही हो सकता है। संसारी प्राणी किसी गति योनि या अवस्थामें क्यों न हो और क्यों न रहे वह तबतक दुःखी ही है वह दुःखोंसे उन्मुक्त नहीं हो सकता जबतक कि वह जिनशासनसे यहित बना हुआ है।
१-आत्मा प्रभावनीयो रत्नत्रयतेजसा सततमव । दान तपो जिनपूजा विद्यातिशयैश्च जिनधर्मः ।। पु. मिल । चैत्याचैत्यालयनिस्तपोभिर्विविधात्मकः । पूजामहायजायैश्च न्मार्गप्रभावमम् ।। परा०
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चर
जिन्होंने अज्ञान मोह और दौर्बल्यको निर्मूल नष्ट कर अपने पूर्ण ज्ञान सुख शान्ति तथा अनन्त बलको प्राप्त करके जो निश्चित निर्वाध निराकुल स्वाधीन परिवर्त्य अनन्त सुखका स्वरूप एव उसकी सिद्धिका मार्ग बताया है, वे और उनका वह निर्दिष्ट मार्ग ही सर्वथा सत्य है और उपादेव है । उसीसे संसार और तापत्रय सदा के लिये छूट सकते हैं। इस तरहकी ज्ञानमें प्रतीति की ताका श्रा जाना ही जिसको कि आस्तिक्य आदि शब्दोंसे भी कहा जाता है, जिनशासन के माहात्म्यका प्रकाश होना है। जिसके कि होनेपर उस मार्ग और उसके वक्त के प्रति उसके हृदयमें भक्ति तुष्टि प्रमोद रुचि आदि का भाव जागृत होता और प्रथम संवेग अनुकम्पा आदि गुरु प्रकट होजाया करते हैं।
क्योंकि आत्महितके सच्चे विरोधी या बाधक अपने ही भीतर चिर कालसे--अनादिसं साम्राज्य जमाकर बैठे हुए और उस आत्माको गुलाम- दास बनाकर उसपर शासन करनेवालों में मोह राजा अज्ञान मन्त्री क्षोभ सेनापति और दौर्बल्य गृहमन्त्रीका कामकरनेवाले ही मुख्य है। इनको निर्मूल नष्ट करके उनपर विजय प्राप्त करनेवालेकी ही "जिन" यह अन्वर्थ संज्ञा हैं । किसी व्यक्तिविशेषका यह वैसा नाम नहीं हैं जैसा कि लोक में केवल निक्षेपरूप से व्यवहार चलान के लिये निर्धक रतिया जाता है। यही कारण है कि जैनधर्म किसी एक व्यक्तिके नामसे सम्बद्ध तथा उसीके उपदेशपर निर्भर नहीं है ।
जिस मार्गपर चलकर उन्होंने त्रैलोक्यविजयी जिन व्यवस्था प्राप्त की हैं उनके द्वारा बताये हुए उसी उपायका नाम जिनशासन हैं। उसका माहात्म्य लोकोत्तर असाधारण है। लौकिक किसी भी कार्यकी सिद्धि पर पदार्थों की अपेक्षा प्रधान हुआ करती हैं, क्योंकि वे स्वाधीन नहीं हैं तथा प्रयत्न करनेपर भी उनकी सिद्धि निश्चित नहीं है और वे शुद्ध नहीं रहा करते उनका परिपाक भी अभीष्ट ही नहीं हुआ करता । फिर वे अस्थायी तो रहा ही करते हैं। किंतु यह जिनेन्द्र भगवान्का शासन इनसे सर्वथा विपरीत ही फलको उत्पन्न करता है। इसका फल नियत है, स्थायी है, शुद्ध है, अभीष्ट है, निरपेक्ष है, और स्वतंत्र हैं। सबसे बड़ी विशेषता इसमें यह हैं कि किसी भी जीवको एक वारमी और कमसे कम समय केलिये भी - अन्त हूर्तकेलिये भी यदि वह हस्तगत - प्राप्त होजाय तो फिर वीन लोकमें और कोई भी शक्ति ऐसी नहीं है जो उस वास्तव में अभीष्ट विजय से रोक सके। यही कारण है कि इस उपायको प्राप्त करनेवाले आत्मा महान् हुआ करते हैं और उनकी वह असाधारण शक्तिकी योग्यता ही जिनशासनका माहात्म्य है । इस शांत के आविर्भावको ही सम्यक्त्व कहते हैं। विजयसे मतलव कर्मों की शक्तिके पराभूत करनेसे हैं। क्योंकि इस शक्तिके आविर्भूत होजानेपर कर्मोंमें जो जीवको पंचविधिसंसरण कराने की योग्यता है वह उसी समय नष्ट होजाती है। यही उसकी सर्व प्रथम और महान् लाकोचर विजय है ।
प्रकाश - शब्द से व्याप उद्योत या रूपगुखकी पर्याय नहीं लेनी चाहिये जो कि पुलकी
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चंद्रिका टीका अठारहवां लीक पर्याय हैं। यहां तो पहल से सर्वथा भिन्न श्रात्माकी शक्तिकें प्रकट होनेको ही प्रकाशशब्द से मना चाहिये । श्रात्माकी इस शक्तिके प्रकट होनेपर उसके प्रत्येक गुण अपने वास्तविक
में जाते है । यद्यपि आत्माको और उसके उन अनन्तगुणोंको अपने पूर्ण विशुद्धरूपमें आनं केलिये कुछ समयकी अपेक्षा रहती है जिसका कि सामान्यतया प्रमाण अन्तर्मुहूर्त से लेकर अर्थ पुलपरिवर्तनतक बताया है कि भी यह नियक्ति के प्रकट होजाने पर इस अवधि के भीतर जीवात्मा बहिरात्म अवस्थाको छोडकर और यन्तरात्म अवस्थाको शकर परमात्म अवस्थाको प्राप्त अवश्य करलेता है। यह माहात्म्य जिनशासन में ही है, अन्य किसी भी नहीं हैं। यही कारण है कि उसको हमने लोकोत्तर कहा है। जिसका स्वरूप लोकोst और फल लोकोत्तर फिर उसके माहात्म्यको — लोकमें पाये जानेवाले अन्य किसी भी पदार्थसे जो संभव नहीं उस असाधारण अतिशयको लोकोत्तर क्यों न माना जाय । प्रभावना -- यद्यपि यह शब्द व पूर्वक भ्रू धातुसे ही बना २ हैं किंतु वह दो तरह से वन हैं - चुरादिगणको विच् प्रत्यय होकर अथवा प्रयोजक अर्थ में शिच् प्रत्यय होकर ! दोनों में विशेषता है वह प्रयोज्य प्रयोजक की है।
सकता
तात्पर्य यह है कि प्रभावना के विषय स्व और पर दोनों ही हो सकते हैं। क्योंकि जिसतरह सम्यग्दर्शनादि गुणोंको अपनी आत्मा में प्रकाशित किया जाता है या किया जा सकता है उसी तरह परमें भी। जब अपने ही भीतर उद्भूत होनेवाले या किये जानेवाले सम्यग्दर्शन की विवक्षा हो वहां प्रयोज्य की अपेक्षा मुरूष होती हैं। और जब दूसरी आत्मामें उसके प्रका शित करने के लिए किये गये प्रयत्न की विवक्षा हो तो वहां प्रयोजकताकी मुख्यता होगी ।
सम्पदर्शन के निसर्गज और अधिगम में से प्रथम भेदमें देशनाके निमित्त होते हुए भी उस की गणना मानी जाती है। क्योंकि अल्पप्रयन की अवस्था में उस प्रयत्नको मुख्य नहीं माना जाता | परन्तु वही देशना का प्रयत्न यदि बार बार और अधिकता के साथ किया जाय और उससे सम्यग्दर्शन प्रकट हो तो वहां प्रयत्न की मुख्यता मानी जाती है। उसको अधिगमज सम्यदर्शन करते हैं। यह विवक्षा की बात है। क्योंकि सामान्यतया दोनोंही सम्यग्दर्शनोंमें देशना निमित्च हुआ करती है। इसीतरह विषय अथवा अधिकरण के सम्बन्ध में समझना चाहिये । जब अपने ही भीतर स्वयं सम्यग्दर्शन के प्रकाशित करनेकी विवक्षा हो तो वहां प्रयोज्य धर्मकी मुरुपता होगी। और जब दूसरे व्यक्ति की आत्मा में उसके उद्भूत करने के लिए किए गये प्रयत्न की अपेक्षा हो तो वहां प्रयोजक अर्थको मुल्यता होगी। यही कारण कि उपगूहनादिकी तरह
१–“शम-वन्ध-साम्यस्थौल्य संस्थान -मेव--तमका यात पोद्योतवन्तश्च" तः सू०
२---प्र-भु-नि--अन-टाप् ।
३ – निसर्गो वापि तदाम कारद्वयम् । सम्यक्त्वा पुमान् भस्मादपानापायाससः । इत्यादि बरा० ० २९२ ।
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निकरण्ड प्रावकाचार प्रभावना के भी स्व और पर दोनोंही विषय मान गये हैं। अपनेही भीतर रत्नत्रयको प्रकाशित करना स्वपकी प्रभावना और दूसरे की आत्मामें उनके प्रकाशित करने को पर की प्रभावना कहा है । ध्यान रहे सम्यग्दर्शन के इन आठ अंगामें से निषेधरूप पहले चार अंग अपनीही अपेक्षा मुख्यतया रखते हैं । और विधिरूपसे जिनमें कर्तव्यका बोध कराया गया है ऐसे चारोंही उपगूहनादि अंगों में मुक्यता परकी है । यद्यपि उनका पालन स्वयं भी हुआ करता है । इन विधिरूप चार अंगों में से तीन का सम्बन्ध अन्य मधाओंसे और इस प्रभावना का सम्बन्ध मुख्यतया विधाओं से है।
विधर्माओं में पाये जाने वाला अबान तीन तरहका हो सकता हैं—संशय विपर्यय और अनध्यवसाय । इनमें से अन्तिम प्रायः अतीत और पहले दोनो गृहीत हुआ करते हैं यही कारण है कि अगृहीत अथवा अनध्यवसायमा अज्ञानको तिमिर-चोर अन्धकारकी उपमा दी है । जैसा कि अन्य ग्रन्थकारोंने भी किया है। 'केपाञ्चिदन्यतमसःयतेऽगृहीतं ग्रहायतेऽन्येषाम् । मिथ्यात्वमिह गृहीतं शल्यति सांशयिकभपरपाम् ।।
अथया--हितमेव न वेत्ति कश्चन भजतेन्यः खलु तत्र संशयम् ।
शिणीचः गर. जगत् विमिरज्ञानामाभिराहतम् ।। इम अज्ञान अंधकार को दूर करने के लिए अनेक उपाय बताये३ है। उनमेंसे यहां ग्रंथकार ने किसीका नामोल्लेख न करके 'यथायथम्' शब्दका ही उल्लेख करदिया है अतएव कब कहां किस उपायसे उसको दूर किया जाय तो उसका उत्तर यही है कि जब जहां जी भी उचित प्रतीत हो और जिससे वह दर हो सके। जैसा कि पं० आशाधर जीने भी कहा है कि 'यो यथैवानुवल्यः स्थाच तथैवानुवर्तयेत् । श्रज्ञान जब कि अन्धकार के समान है तब उसकं विरोधी जिनशा. सन के माहात्म्यको प्रकाश तुम्ष कहना उचित ही हैं। निबिड अन्धकारमें कहा जाता है कि अपना हाथ भी दिखाई नहीं देता उसी प्रकार अज्ञानका माहात्म्य भी वही समझना चाहिये जहापर कि अपनी आत्माका वास्तविक स्वरूप दिखाई नही पडे । इसीलिए उसको बाहिष्टि कहा जाता है। जिसतरह उन्लू को अन्धकार में बाहरकी सभी चीजें दिखाई पड़ती है परन्तु सूर्यका प्रकाश देखने में और उस प्रकाश में अन्य वस्तुओंको देखने में भी वह असमर्थ है । उसी प्रकार बहिष्टि स्थूल जगत की देख सकता है परन्तु आत्माके प्रकाश को नहीं देख सकता । वह आत्माके सत्य प्रकाशको देखनमें उसी प्रकार असमर्थ हो जाया करता हे जसे कि समवशरण में प्रभव्य पुरुष भव्पकूट के देखने में।
ऊपर सम्यग्दर्शन के निषेयरूप चार गुणोंमें अन्तिम अमृदृष्टि अंग का वर्णन किया जाचुका है यहां विधिरूप चारगुणों में अंतिम प्रभावना का स्वरूप बताया गया है। इन
-सागारधामृत श्र० १ श्लोक । २आचायं घोरनन्दा चन्द्रप्रभ चारन । ३-इसका उल्लेख पहले हो चुका है।५--धर्मामृत । ५-~भव्यकूताख्यया स्तूपा मास्वत्कूटास्ततोपर । यानमव्या च पश्यंति प्रभावान्यातक्षणाः।। हरिवंश ५-१०४।
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चंद्रिका टीका अठारशा शोक दोनों गुणों का पहुन कुछ निकट संबन्ध है । जो स्वयं मूह दृष्टि है वह प्रभावना नहीं करसकता दसरों को जिनशासनके माहात्म्य से प्रकाशित वही व्यक्ति कर सकता है जिसकी कि हि स्वयं अमूह है | अमूहद्दष्टि सम्यग्दृष्टि की जिनशासन के माहाग को प्रकाशित करने में स्वभारतः ही प्रवृत्तियां हया ही करती हैं। इस तरह की प्रवृत्तियां यह बिना किसी शंका कांक्षा या विचिकि
साके तो करना ही है परन्तु वैमा करने में वह अज्ञानान्धकार के किसी भी धांशसे मुक्षित भी नहीं हुआ करता । क्योंकि एसा होने से ही वह जिनशासन के माहात्म्पसे दूसरोंको प्रभावित कर मकता है। यह बात पहले दृष्टानों द्वारा भी स्पष्ट की जा चुकी है।
सम्यग्दर्शन के लक्षणा में जो "अष्टांग" ऐसा क्रिया विशेषण दिया था उसका साष्टीकरण करनेकेलिए आठ अगोंका स्वरूप यहाँ तक बताया गया है । यही एक विशेषण है जो सम्पग्दर्शन के वास्तविक स्वरूप को बताता है । यद्यपि प्राचार्योंने अपने २ प्रकरण पर सम्यग्दर्शन के भिन्न २ अन्य अनेक प्रकार से भी लक्षण बताये हैं परन्तु प्रकन लक्षण में उन सभी का प्रायः अन्न र्भाव होजाता है।
सम्यग्दर्शन के आठ अंग भी दूसरी २ तरहसे अन्यत्र नार्योंने बताये है। किन्त यहा पर बताये गये ये बात अग अपनी एक विशिय असाभारता रखते हैं। क्योंकि इनके द्वारा सम्पग्दर्शन के स्वरूपका विधिप्रतिपेवरूप दोनों ही तरह परिचय प्राप्त होता है। यहाएर प्रथमानुयोग करमानुयोग चरणानुयोग और द्रव्यानुयोग इस तरह चारों ही अनुयोगों में वर्णित सम्यग्दर्शन से सम्बन्धित समस्त तच्चों को दष्टि में रस्सागया है। तथा सम्पग्दर्शन के अस्तित्वात अनुमानद्वारा ज्ञान होनेकेलिये साधनरूप में बतायेगये प्रशम संवेग अनुकम्पा और आस्तिक्यका भी इनके साथ अविनाभाव सिद्ध होता है | और निरनिचार सम्पग्दर्शन से युक्त जीवको अन्तति और बहिः प्रवृनि किस तरह की हुआ करती है इस बातका भी इनसे दोष होजाता है।
पौराणिक एवं ऐतिहासिक जिन महान व्यक्तियोंने उपर्युक्त सम्पग्दर्शन के पीठ श्रीगोंका भादर्श पालन किया उनका नामोल ख स्वयं ग्रन्थकार आगे कर रहे हैं। ध्यान रहे ये नाम एक एक अंगके पालन करनेमें आदर्श व्यक्तियोंके हैं। जिनके कि चरित्रका अध्ययन करने से इस वातकी शिक्षा मिलती है कि किसी भी अंगका पालन श्रादर्श रूपमें किस तरह होना चाहिये
और उन में से उस केवल एक ही अंगका पालन जबकि उनको अनन्त अधिनश्वर निधि पूर्ण सिद्ध अवस्थातकका कारण वनगया तो सम्पूर्ण अंगोंसे युक्त सम्यग्दर्शन के प्राप्त करने वाले व्यक्ति यदि सहज ही परमाप्त अवस्थाको प्राप्त करलें तो इसमें श्राश्चर्य ही क्या है।
सम्यग्दर्शन की उद्भूति अपने विपक्षी मोहनीय कर्मकी पांच अथवा सात प्रकृतियों के उपशम सय अथवा क्षयोपशमसे हुआ करती हैं। अनादि मिध्यादृष्टि जीव के दर्शनमोहनीयकी ए मिथ्यात्व और चारित्रमोहनीय में परिगणित चार अनन्तानुबन्धी कपायों के उपशमसे सर्वप्रथम
५-सवेश्रोणिज्येओ निन्दा गरहा य उवसमो भयो । पच्छम अनुकंपा अगुणा इति सम्मते
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(लकरण्श्रावकाचार औपशमिक सम्यग्दर्शन हुआ करता है । इसके बाद शायोपशमिक एवं क्षायिक हुआ करता है। इसकेलिये जिन २ मावश्यक एवं असाधारण कारणोंकी आवश्यकता है; उनकारणों के द्वारा जो कार्यरूप सम्यग्दर्शन की निष्पत्ति होती है तथा इतः पर जो फल होता है इन तीनों में से मध्यवर्ण सम्यग्दर्शन अवश्य ही अपने कारण और कार्य का बोध करादेता है । क्यों कि कोई भी कार्य जिसतरह अपने कारणका अनुमान कराता है उसीतरह समर्थ कारण भी अपने कार्य का अनुमापक हुमा करता है। क्योंकि जिसतरह सम्यग्दर्शन अपने कारणों से जन्य है उसी प्रकार अपने फलका जनक भी है । अतः इन तीनोंकी परस्परमें व्याप्ति भी अव्यभिचारित है। और इसी लिये यदि कोई कारण को, कोई कार्य को और कोई फल को यथवा कोइ उसके कमाको भी सम्यग्दर्शन नाम से कहता है तो वह कथन मिथ्या नहीं है क्योंकि सम्यग्दर्शन से सम्बन्धित भिम २ विषयों को भी वे सूचित अवश्य करते हैं। कहांपर वह शब्द किस विषयको सूचित करता है यह बात उसके साधनभेद से जानी जा सकती है। यही कारण है कि आचार्यों ने दर्शन ज्ञान चारित्र शब्दों की और उनके इतर व्यावर्तक-मिथ्यादर्शनादिकसे उनकी भिन्नता सूचित करनेवाले विशेषण रूप सम्यक शब्द की कत साधन कम साधन करण साधन और भावसाधन पादिरूप से भिन्न प्रकार की निरुक्ति की है । यद्यपि ये भिन्न २ साधनसिद्ध सम्यग्दर्शनादि शब्द अपने २ भिन्न २ अंशको ही मुख्यतया भूचित करते है फिर भी में विभिन्न अंश या विषय परस्पर विरुद्ध नहीं हैं। क्योंकि उपयुक्त चारों ही साधनों से सिद्ध सम्यग्दर्शन आदिक एक ही आत्मामें और एक ही समय में पाये जाते हैं । किन्तु उनका युगपन् वर्णन अशक्य होने से एक को मुख्य पनाकर और शेष तीन को उनके अन्नभून कर वर्णन किया गया है और किया जाता है। ___यही कारण है कि प्रायः प्रथमानुयोगमें भावसाधन, करणानुयोग में करण साधन, चरणानुयोग में कर्मसाधन सथा द्रव्यानुयोग में कर्तृ साधन सम्यग्दर्शन आदि की शिवक्षा मुख्य रहा करती है । इस तरह यद्यपि सम्यदर्शनादि शब्दों का साधन भेदके अनुसार अर्थ भेद होता है फिर भी वाचक शब्द के रूपमें कोई अन्तर नहीं है। अत एव यद्यपि प्रकृत में प्रयुक्त उन शब्दों का प्रसारण के अनुसार सीमित अर्थ करना युक्तियुक्त होमा. परन्तु अन्यत्र विवादित अथ से प्रकृत अर्थ में विरोध समझना युक्तियुक्त एवं उचित न होगा। मतलब यही है कि अन्य प्रथमानुयोगादि मागम ग्रन्थों में सम्यग्दर्शनादि के जो भिन्न २ लक्षण किये हैं उन सबका विषयभेद तो है परन्तु उन में परस्पर कोई निरोध नहीं है क्योंकि सभी ग्रन्थकर्ताओंन जो कि सभी सर्वज्ञ के भागम की प्रामाय एवं अनेकान्त सच के मर्मज्ञ हदसम्यग्दृष्टि तो थे ही प्रायः महाव्रती ही है, एक विषयको मुख्य बनाकर और शेष विषयों से विरोध न पड़े इस बावको भी दृष्टि में रख कर ही वर्णन किया है यही वात प्रकृत अन्ध में भी पाई जाती है और समझनी चाहिये।
र-दरवा परोक्षामुख अ०३ सूत्र नं. ५४, ६६, ७३ !
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पत्रिका टीका अठारहवा
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प्रराम संवेग अनुकम्पा और आस्तिक्य ये सम्यग्दर्शन के लक्षण-चिन्ह माने गये हैं। ध्यान रहे ये सराग सम्यग्दर्शनके ही लक्षण हैं न कि वीतराग सम्यग्दर्शनके । इसका अर्थ यह नही है कि वीतराग व्यक्तियोंके प्रशमादिक भाग पाये ही नहीं जाते। किंतु उनके हजुर बाध चेष्टा नही पाई जाती केवल आत्म विशुद्धि मात्र ही उनका फल है ।
सराग और वीतराग विशेषण स्वामिभेदके कारण हैं। सराग व्यक्तियोंके सम्यग्दर्शनकी सागर और वीतराग व्यक्तियोंके सम्यग्दर्शनको वीतराग कहते हैं। यों तो सामान्यतया अन्तः परिणामी दृष्टिसे सूक्ष्म साम्पराय गुणस्थान तक सभी जीव सराग हैं फिर भी ब्राह्म चेष्टाओं की अपेक्षा छ गुणस्थान तक व्यक्ति सच सराग और उससे ऊपरके सभी वीतराग माने गये हूँ ! फलतः यह बात समझ में आ जायगी के चौथे पांचवे और छठे गुणस्थानवालोंके सम्यग्दर्शनका उनकी असाधारण चेष्टा आदिसे परिलक्षित लक्षणस्भ प्रशमादिको देखकर अनुमान हो सकता है और उससे यह जाना जा सकता है कि इसके सम्यग्दर्शन है।
यद्यपि सम्यग्दर्शन अमूर्त आत्माका अमूर्त ही गुण हैं । इन्द्रियोंद्वारा उसका ग्रहण नहीं हो सकता फिर भी संसारावस्था में कर्मबद्ध होनेके कारण आत्माको कथंचित मूर्त भी माना है। ऐसा यदि न हो तो संसारके सभी व्यवहार, अधिक क्या मोक्षमार्गका उपदेश और उसका पालन भी व्यर्थ ही सिद्ध हो जायगा । श्रतएव कथंचित मूर्त आत्माके गुणका उसके सहचारी या अविना-भावी गुणधर्म या कार्यकी देखकर अनुमान हो सकता है और जाना जा सकता है कि जब इस तरहकी चेष्टा पाई जाती है तो उसका अविनाभावी सम्यग्दर्शन भी यहां है । उदाहरणार्थ- पुरुपकी पौरुष शक्ति हैं-देखनेमें नहीं आती फिर भी अनारमय, अपत्यीत्पादन aufenant अवलम्बन और कृतनिर्वहण कार्यको समाप्त करके रहना इन चार कार्यों द्वारा वह भी जानी जा सकती हैं। उसी प्रकार अदृश्य भी सम्यग्दर्शन प्रशम संवेग अनुकम्पा और श्रास्तिक्यके द्वारा जाना जा सकता है ।
प्रशम आदिका अर्थ बताया जा चुका है कि रागादिके अनुद्र कको प्रशम, संसार और उस के कारणोंसे भयभीत रहनेको संवेग, दयापरिणामको अनुकम्पा, और तच यहां है इसी प्रकारसे है न अन्य हैं न अन्य प्रकार से हैं इस तरहकी छह प्रतीतिको वास्तिक्य कहते हैं। ऊपर यह बात भी बताई जा चुकी है कि सम्यग्दर्शनके प्रतिपक्षी कर्म मूलमें चार अनन्तानुबन्धी कपाय और एक मिथ्यात्व है । जिनमें मिध्यात्व सर्वोपरि है । आत्माके सभी गुण इससे प्रभावित रहा करते १- तत् द्विविधं सरागवीतरागविषयभेदात । प्रशमं संोगानुकम्पा क्याथभिव्य तलक्षणं प्रथमम् । मात्मविशुद्धिमाश्रमितरत् । सः सि० १-२ ।
२--ज्ञे सराने सरागं स्याच्छ मादिव्यक्तिलक्षणम् । विरागे दर्शनं त्यात्मशुद्धिमात्रं विरागम् ||अम्गार २०५१ | ३- देखो अनगारधर्मामृत श्लोक ४२ ।
४-यथाहि पुरुषस्य पुरुषश तिरियमतीन्द्रियाप्य गनाजनांगसंभोगापत्योत्पादनेन च विपरि धैर्यावलम्बनेन वा प्रारब्धवस्तु निर्वहन वा निश्चेतु ं शक्यते तथा आत्मस्वभावतयाऽतिसूक्ष्मयत्नमपि सम्यक्त्वरत्नं प्रशमसंवेगानुकम्पास्तिक्वेरेव वाक्यैराकलविसुं शक्यम् | यश० आ० ६५० ३२३ /
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सलकरभावकाचार हैं चैतन्य अथवा ज्ञान शक्तिपर इसके प्रभावका परिणाम यह होता है कि आत्मा या वस्तुमात्रके तथाभूत स्वसपके विषय में वह जीव संबंधा नि:शंक नहीं हो पाता। आत्माकं वास्तविक सरूप के विषयमें उसको संशय अथवा विपर्यास यद्रा अनध्यवसाय बना ही रहता है। किंतु मिथ्यान का उदय न रहनेपर उस विषयमें उसकी प्रतीति दृढ हो जाती है। दृष्टिमें सम्यकतालके या जाने पर उसकी प्रतीतिका स्वरूप ठीक वैसा ही हो जाता है जैसा कि कारिका नंबर ११ में बताया गया है । इसको आस्तिक्य कहते हैं फलतः निःशंकित अंगके साथ आस्तिक्यका जो सम्बन्ध है वह स्पष्ट है। ____ अनन्तानुबन्धी चतुष्क दो भागोंमें विभक्त है एक राग और दूसरा द्वेष ! सम्यग्दृष्टिको अनन्तानुबन्धी सगके न रहनेमे मंगारके किसी भी विषयकी आकांक्षा नहीं रहती फलत: नि:कांक्ष अंग स्वयं बन जाता है। जबतक सम्यग्दर्शन नहीं होता अनन्तानुबन्धी रागके उदयके कारण यह जीवात्मा बहिष्टि रहा करता है और संसारके सभी प्रिय लगनेवाले विषयों में कांधावान् ही बना रहता है । उस रागके हट जानेपर वह निःकांश होजाता है फलतः यह स्पष्ट है कि सम्पग्दर्शन के निकांचअंगके साथ प्रशम भावका अजहत सम्बन्ध हैं । अनन्तानुबन्धीका दूसरा भाग है द्वेष । इसका जबतक उदय रहता है मोक्षमाग उसके विषय अथवा पायतनोंमें जीवको अरुचि अथवा ग्लानिर रहा करती है ! उस कषायके नष्ट हो जानेसे वह नहीं होती। वह अपने शुद्ध प्रात्मस्वरूपका रुचिमान हो जानेसे बाह्य शरीरादिकसे प्रीतिको दुःखरूप संसारमें भ्रमणका कारण समझकर उनसे भव मीन रहता है । फनतः उसका सम्पादर्शन निर्विचिकित्म और संवेगभाव से युक्त रहा करता है । तथा उन सधाओंके रागादिसे पीडित शरीरको देखकर परम अनुकम्पासे युक्त रहा करता है। ___ दर्शनमोह और अनन्तानुषन्धीकपायके नष्ट होजानेपर ज्ञान सम्यग्व्यपदेशको प्राप्त होजाता है। प्रमामभूत सम्यग्ज्ञानका फल आचार्योंने तीन प्रकारका बताया है ---हान, उपादान और उपेक्षा
हेय सच्चोंमें उसकी प्रवृति नहीं हुआ करती।
सम्यग्दर्शनके विरोधी कापथ, कापथस्थ , कुतत्व आदिकमें यह मन वचन कायस भी संपर्क नहीं करता जैसाकि कारिका नं. १४ में अमृदृष्टिताका स्वरूप बताया जा चुका है। मोहके उदयसे होनेवाली मूळ या मूढता ही सबसे बड़ा चैतन्यका बात है। फलतः इसके विरुद्ध चैतन्य का अथवा जीपके रष्टिकोणका अमूह चनजाना ही परम करुणाभाव है। जिसके कि होजानेपर वह स्व और परका परम हितरूप अनुग्रह करने में समर्थ हो जाया करता है । वह स्वयं तो भास्महितका पात करनेवाले कापथ आदिमें त्रियोगको प्रवृत्त नहीं ही होनेदेता परन्तु जो उसमें प्रवर्स१--राग उदे भोगभाव लागत सुहाउनेसे, विना राग ऐसे लागे जैसे नाग कारे हैं। इत्यादि -अमजनमनाचामो नग्नत्वं स्थितिभोजिता । मिथ्याहगो वदन्त्येतन्मुनर्दोषचतुष्टयग इत्यादिशमिश पानोपाधामोपेझारच फलम् । परीक्षा मुख।
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पद्रिका टीका अठारहवा लीक मान हैं उन्हें भी उससे यथाशक्य वचाने का प्रयत्न किया करता है । किंतु ध्यान रहे प्रयत्न करने पर भी सफलता नहीं मिलती तो उन तीव्र मोही जीवापर वह द्वेष नहीं करता । यदि कापथादिम राग नहीं है तो उसके निवारणके प्रयत्नमें असफलता मिलनेपर उसे दूरी भी नहीं होता। यह रागद्वपका प्रभाव ही उसकी उपेक्षा है। वह परम करुणाधान् होनेके कारण अपायविचय या उपायविचय नामक थमध्यानका पालन किया करता है। जो कि प्रान्माको विशुद्ध बनानेवाला है । अथवा निमिस' मिलनेपर लोकोतर पुण्य कर्म तीर्थकर प्रकृतिके बन्धका भी कारण होजाया करता है।
दूसरी बात यह है कि दर्शनमोहके उदयका प्रभाव जिस तरह उपयोग पर पड़ता है उसी तरह चारित्र पर भी अवश्य पडता है। क्योंकि दर्शनमोहके उदयका अभाव हुए विना चारित्रमोहक उदयका प्रभाव नहीं हुआ करता । चारित्रका सम्बन्ध चारित्रमोहके योपशमादिसे तो है ही साथ ही वीर्यगुणसे भी हैं । वीर्यगुण पुद्गलविषाकी शरीर नामकर्मके उदयसे प्राप्त मनोवर्गणा वचनवर्गणा तथा आहारवर्गणाओंके निमित्तको पाकर जो प्रवृत्ति करता है उसीको अगममें योग नामसे कहा है । निमित्तभेद के अनुसार उसीके मनोयोग वचनयोग और काययोग इस तरह तीन भेद हैं। इस तरह विचार करनेपर मालुम होगा कि दर्शनमोहके उपशममादिका वीर्यगुणकं परियमनरूप योगोंपर भी प्रभाव अवश्य पड़ता है। फलतः सम्यग्दृष्टि के मन वचन कायकी प्रवृत्ति कापथ और कापस्थांके विषयमें नहीं हुआ करती । यही कारण है कि सम्यग्दर्शनके नौ अमन दृष्टिके स्वरूपका वर्णन करते हुए आचार्याने कापथ और कापथस्थोंके विषयमें असम्मति अनुत्कीति एवं असंपृक्तिका निर्देश किया है । जिसका आशय यही है कि सम्यकदृष्टि जीव मिथ्यावादिको न अच्छा समझता है न उसकी प्रशंसा करता है और न उनका सेवन हो करता है। किंतु इसका यह अर्थ भी नहीं है कि वह मिथ्याष्टियोंसे द्वष करता है जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है । वह तो परम करुणाका धारक हुआ करता है और इसीलिये वह तो उनके भी हितके लिये ही प्रवृत्ति किया करता है। प्रभावना अंगका प्रयोजन उनको इस लोक तथा परलोकमें वास्तविक हितरूप मार्गमें प्रवृत्त करना ही है।
तीसरी बात यह है कि गुणस्थानोंकी उत्पत्ति के कारण मोह और योग हैं। जैसा कि ऊपर के कथन से स्पष्ट हो जाता है । मोह-दर्शन मोहनीय और चारित्रमोहनीय के उदय उपचन लय क्षयोपशम और तज्जन्य परिणाम तथा उनसे प्रभावित वीर्य के परिणामरूप योगों के द्वारा गुसस्थानों का उद्भव हुआ करता है । वीर्यगुण की प्रकृत में दो अवस्थाए विवचित हैं ।पायोपशमिक और क्षायिक । बारहवे गुणस्थान तक चायोपशमिक और उससे ऊपर क्षायिक अवस्था है जैसे २ मोह के उदयादिजनित भावों में अन्तर पडता जाता है वैसे २ विशुद्धिके बढ़ते जानेसे योगरूपमें काम करनेवाले वीर्यगुणके बायोपशमिक भावोंमें मी विशुद्धताका अन्तर अवश्यही १-तित्थयरबंधपारभया जस कंवलिदुर्गत गोम० सा० । अथवा आदिपुराण तीर्थकस्वभावना । याअनगारधर्मामृत अयोमार्गानभिज्ञानित्यादि ।
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रत्नकरएडभावकाचार पडता जाता है और उसकी विशुद्धि भी उच्चरोत्तर बढती ही जाती है। अतएव उसके तीनों ही योगोंको प्रवृत्ति ऐसे किसी भी विषय में न तो होती है और न हो सकती है,जो कि मिध्यान्व अथवा उसके सहचारी भावों के अनुकूल हो।
ध्यान रहे सम्यक्त्व के हो जानेपर जीवका चौथा गुणस्थान तो होता ही है अतएव यह कहने की आवश्यकता नहीं रहती कि चतुर्थादि गुणस्थानोंके होनेपर ज्यों २ मोह में अंतर पडता जाता है-जितने २ अंशोंमें उसके उदय का अभाव होता जाता है त्यों २ उतने २ ही अंशमें योग में भी अन्तर का पड़ना-मलिनता छूटकर विशुद्धि का बढते जाना भी स्वाभाविक है। यही कारण है कि चतुर्थ गुणस्थानके होनेपर उस जीवके ४१ प्रकृतियोंका बन्ध नहीं हुआ करता। मतलव यह कि उसका मन बचन काय एसे किसी भी कार्य में प्रवृत्त नहीं हो सकता, न होता ही है जो कि विवचित ४१ कर्म प्रकृतियोंमें से किसी के भी चन्यका कारण हो । फलतः वह अवर्णवाद नहीं करता, क्योंकि उसके मिथ्यात्वका बन्ध नही होता; वह वेश्यासेवन परस्त्रीगमन आदि व्यभिचार का सेवन नहीं करता क्यों कि उसके नपुंसक या स्त्री वेद का बन्ध नहीं होता यह दूसरेकी निंदा व अपनी प्रशंसा परशा गुणावादन दोगलापन आदि नहीं किया करता क्योंकि उसके नीच गोत्र का बन्ध नहीं होता, वह मय मांस मधुका सेवन नहीं करता, नसीम भारम्भ या परिग्रहके लिए अन्यायरूप प्रवृत्ति ही करता है क्योंकि उसके नरक और तिर्यम् श्रायुका बन्ध नहीं होता । अस्तु इसी तरह समस्त ५१ कर्मप्रकृतियोंके विषयमें समझलेना चाहिये।
मतलब यह कि चतुर्थगुणस्थानवर्ती सम्यग्दृष्टि असंयत होता है उसके न तो बस स्थावर जीवोंकी हिंसाका ही त्याग होता है और न वह इन्द्रियों के विषय से ही विरत रहा करतार है। अतएव कदाचित कोई यह समझे कि उसकी प्रवृत्ति अनर्गल रहा करती है। सब कुछ करते हुए भी-मद्यमांसादि का भक्षण, वेश्या व्यसनादिका सेवन, हिंसा चोरी आदि अन्यायोंको करते हुए भी वह सम्यग्दृष्टि ही बना रहता है तो यह ठीक नहीं है। प्रथया कोई यह समझे कि सम्यग्दृष्टि तो अबन्ध हुआ करता है-उसके कर्मका बन्ध होताही नहीं३ तो इसतरहका समझना सर्वथा मिथ्या है और सिद्धांतके विरुद्ध है। ___ असंयत कहनेका आशय इतना ही है कि उसके पांचवे गुणस्थान के समान निरतिचार मनु ब्रतादिक नहीं हुआ करते । और अबन्ध कहनेका श्राशय इतनाही है कि संसारकी कारणभूत
५-देखो गोमट्टमार में वन्ध व्युच्छिति प्रकरण तथा तत्स्वार्थसार राजवार्तिक माविमें तत् कर्मों के बन्धमें कारण बताई गई क्रियाओंका उल्लेख और तत्वाय सूत्रके केवलीश्रुतसंघधर्मदेवाववादो दर्शन मोहस्य । परात्मनिदाप्रशंसे सदसद गुणाच्छादनोभावने च नीचंर्गोत्रस्य "की म्पादया भादि । २-यो इन्धियेसु विरदो जो जीने थावरे तसे वापी । जो साहदि जिणुत्त सम्माइट्ठी अविरको सो । मो० जोक। ३-जैसा कि शुद्ध निश्चयकान्तावलम्बी कहा करते हैं। तथा इसके लिये देखो समयसार गान०१६ की बीमाएं बादि।
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मंद्रिका टीका अठारहयो श्लोक मिथ्यात्वादि ४१ कर्म प्रकृतियोंका बन्य नहीं हुआ करता | तथा बन्धनेवाली पाप प्रकृतियों में स्थिति एवं अनुभाग का बन्ध मिध्यादृष्टि के समान तीब्र नहीं हुआ करता । वह स्वभावसे ही इतना विरत रहा करता है कि जिससे उसके मन वचन कायकी इसतरह की प्रकृति ही नहीं हमा करती जिससे कि उक्त ४१ प्रकृतियोंका तथा उनके सिराय भी अन्य पाप कर्मकि स्थिति अनुभागका मिथ्यात्वके उदयसे युक्त जीवके समान पन्ध हुआ करे । प्राशय यह है कि सम्यम्हष्टि के भी पाप कर्म बन्धते हैं परन्तु मिथ्पादृष्टि के समान नहीं । इसी आशय को दृष्टिमें रखकर उसको असंयत एवं प्रबन्ध कहा गया है। न कि इस अभिप्राय से कि वह मिध्यादृष्टिके समान मर्वथा असंयत और सिद्धोंके समान एकान्ततः प्रवन्ध है। ____ऊपर जैसा कि बताया गया है असंया सम्यग्दृष्टि ४१ कर्म प्रकृतियों का जिनसे बन्ध हो ऐसी क्रियाओं में प्रकृति नहीं किया करता । शेष अपने पद के अनुरूप संसार के अथवा गृहस्थाश्रम के सभी कार्य वह किया करता है और उनके अनुसार उसके बन्ध गी हुआ करता है। फिर भी उसकी दृष्टि में अनन्त अविनश्वर अनुपम परमानन्दरूप अपना शुद्ध चैतन्य आजाने के कारण वह मुख्यतया उथरको ही लक्ष्यबद्ध हो जाया करता है। यही कारण है कि उसको संसार शरीर और भोगामें वस्तुतः रुचि नहीं हुआ करती। इस अरुचि के ही कारण वध्यमान कर्मों में स्थिति और अनुभाग का चन्ध भी घट जाया करता है । वह मोक्षमार्ग रूप गुणोंका श्राराधक होने के कारण स्व या पर सघर्माओके दोषों का निर्हरण करके उपगूहन और गुणों का संवर्धन करके उअबृहण, सया गुणों की अस्थिती की अवस्था में उनका संरक्षण, एवं संस्थित श्रास्था में उचित सम्मानादि प्रदान, नत् अनुद्भन गुणों को विधर्माओंमें भी प्रकट करने का प्रयत्न करके वास्तविक हित या कम्याणका प्रकाशक हुआ करता है।
इस तरह यहांपर सम्बग्दर्शन के निःशङ्कित आदि आठ अंगों का स्वरूप बताया गया है। भागममें इनके सिवाय अन्य प्रकारसे भी पाठ अंगों का उल्लेख किया है । यथा--- संवेभो णिवीणिदा गरुहा य उवसमो भची। बच्छावं अणुकंशा गुखा हु सम्मनजुत्तस्म ॥
अथवा--- देवादिध्वनुरागिता भयवपुगिषु नीरागता, दुर्य तेऽनुशयः स्वदुष्कृतकथा सूरैः क्रुधाद्यस्थितिः । पूजाहत्प्रभृतेः सथविपदुच्छेदः चुधाद्यर्दिते, म्वनिष्वाद मनस्कताष्ट चिनुयुः संवेगपूर्वा राम् ।।
अर्थात्-सम्यक्त्वसहित जीवके ये अाठ गुण हैं संवेग, निर्वेद, निन्दा, गर्दा, उपशम, भक्ति, वात्सल्य और अनुकम्पा ।
मतलब यह है कि सच्चे देव शास्त्र संघ धर्म और उसके फलमें बिना किसी ख्याति लाभ १---पापकर्माकी संख्या १०० या २२ हैं । इनमेंसे अस्थिर उपघात प्रावि साप फर्मों का बन्ध सम्यक्ष
के भी होता है। २-जैसा "संसारशरीरभोगनिर्विएणः ।
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হোসাগকাথাও पूजा की अपेक्षाके अनुरागके होनेको संवेग, संसार शरीर और भोगों में वैराग्यको निर्वेद, अपने द्वारा हुए किसी भी दुर्वृत्तके विषय में पश्चात्ताप करने को निन्दा, अपने घटित दुर्व्यवहारका प्राचार्य के सम्मुख कथन करनेको गर्दा, अपने पदके विरोधी अनन्तानुबन्धी आदि कपायोंका उद्रेक न होनदेनकी उपशम, अरिहंत सिद्ध श्रादि पूज्यवर्ग की द्रव्य भावरूप पूजा करनेको भक्ति, अपने सधर्माऑपर आई आपत्तियों के दूर करनको वात्सल्य, संक्निष्ट भूख प्यास प्रादि से पीडित जीवों के विषय में मनके दयाद् होनको अनुकम्या कहते हैं।
ये भी सम्यग्दृष्टि के आठ गुण है। परन्तु इनका ऊपरके निःशंकितादिक आठ गुणों में यथायोग्य अन्तर्भाव होजाता है। ये संवेगादिक इस बात को सूचित करते हैं कि सम्यग्दर्शन के होजाने पर जीवकी सांसारिक विषयों में से सराग भावना नष्ट होकर मोक्षमाग विषयक बन जाया पारती है। क्योंकि कपाय ४ हैं। इनमें से सम्यग्दर्शन के होने पर सर्वप्रथम अनन्तानुबन्धी कपाय छूट जाता है। जिसके फल स्वरूप उस कषायका विषय अनन्त न रहकर सावधिक विषयमात्र रह जाया करता है | अनन्त नाम संसारका है। संसार और उसके कारणों में उसकी रुचि न रहकर उसके विपरीत मोक्ष और उसके कारणों में रुचि हो जाया करती है । संसार एवं उसके कारणों में अरुचि तथा हेय बुद्धि होजाने पर भी जिसके कारण अभी उनका त्याग करने में असमर्थ है वह अप्रत्याख्यानावरण कपाय है।
यहां प्रश्न हो सकता है कि जब सम्यग्दृष्टि जीव संसार और उसके कारणो का प्रत्यास्यान करने में अंशमात्र भी समर्थ नहीं है तब उसकी अरुचिका फल क्या है ?
उत्तर-यह ऊपर बताया जा चुका है कि सम्यग्दृष्टि के ४१ कर्म प्रकृतियोंका बन्ध नहीं हुश्रा करता। इससे समझ लेना चाहिये कि उसकी ऐसे किसी भी विषय में-मिथ्यात्व अन्याय या अभक्ष्यभक्षणादि में प्रकृति नहीं छुपा करनी जिमसे कि उन कर्मोमें से किसीका भी बन्ध सम्भव हो। इस अप्रवृत्तिका अन्तरंग कारण, अनन्ताबन्धी कषाय के उदयमें न रहने से स्वभावतः ही उन विषयों में अरुचिका होजाना है । इसका अर्थ यह नहीं है कि शेष विषयों में उसको रुचि है। प्राशय यह है कि अभी उनको छोड़ने की सामथ्र्य नहीं है। इसका भी अभिप्राय यद् है कि रुचि शब्द श्रद्राका भी वाचक है और अपने योग्य रचित विषय को प्राप्त करने की इच्छाका भी वाचक है। अनन्तानुबन्धी के न रहने से संसार पर्याय और उसके कारणों में रुचि---श्रद्धा नहीं रहती। यह अरुति उसको अपने शुद्ध प्रात्मस्वरूप के विपरीत सभी भावों में है। किन्तु अप्रत्यास्यानायरण कषाय के नष्ट होनेपर-उदय योग्य नरहजानंपर जीव में वह सामर्थ्य प्रकट हो जाया करती है जिससे कि यह अंशतः संसार शरीर और भोगों को छोडकर एक देशरूप उस चारित्र को धारण किया करता है जिसका कि इस ग्रन्थमें वर्णन कियागया है ।
प्रत्याख्यानावरण का उदय न रहनपर उनका पूर्ण परित्याग करने में जब समर्थ होजाता है तब उस पूर्ण चारित्रको धारण किया करता है जिसका कि इसी ग्रन्थ में आनायका ध्यान एखकर अवकाचारका वर्णन करनेसे पूर्व कारिका नं० ४७ से ५० में निर्देश कियागया है और
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चंद्रिका टीका अठारहवां भोक जिसका कि विस्तृत स्वरूप मूलाचारादि ग्रन्थों में कियागया है । यहांतक सामर्थ्य प्राप्त होजाने पर फिर वह यथाख्यात चारित्ररूप अवस्थाको सिद्ध करने का प्रयन किया करता है जो कि संज्वलन कपाय के अभावसे सिद्ध होता है और जिसके कि साधनका संक्षिप्त संकत इसी ग्रन्थ के श्लोक नं. १० के उत्तरार्ध में किया गया है और विस्तृत उपदेश समयसार भादि शुद्ध आत्मा के स्वरूप का वर्णन करने वाले ग्रन्थों में किया गया है।
इस तरह विचार करने से मालम होगा कि सम्यग्दृष्टि जीन अपनी शुद्ध अवस्था के रिमें माने पर परम उत्साही होजाया करता है । जिस तरह मोहसप्तकके प्रभावसे दूर होते ही उसका ज्ञान निश्चित रूपसे सम्यक-विवेक पूर्ण होजाया करता है और दर्शन प्रायः शुद्धस्वात्मानुभूति के पूर्वरूपको धारण किया करता है, उसी तरह उसका वीयगुण समस्त प्रतिपक्षियोंको निवंश करके अपने शुद्ध साम्राज्यमें स्थिर होनेका दृढ संकल्प करलिया करता है उसकी अवस्था सीक परमसाम्राज्यको मिद्ध करनेकेलिये उद्यत हुए उस विजिगीषु चत्रपुत्र के समान हुआ करती है जो कि अपने लक्ष्यको सिद्ध किये विना उपरत नहीं हुआ करता ! हो सकता है कि प्रतिपक्षियों के प्राचन्यवश उसे कदाचित कुछ समय के लिय निधिनत भी होना पडे परन्तु यंतमें वह विजयधीको प्राप्त करके ही शान्त हुआ करता है। उसी तरह सम्यग्दृष्टि भी प्रतिपक्षियोंसे भाक्रान्त अनन्तगुणरोसे भरी प्रान्मा-बसुधराको निश्कष्टक बनाकर-सिद्ध करके ही विराम लेता है. फिर चाहे उसे अपने इस लक्ष्य के पूर्ण करने में प्रतिपक्षियोंके उदय के प्राबल्य वश कदाचित् अर्धपद्रल परिवर्तनतकर लिये भी रुकना ही क्यों न पडे | वा शत्र घोंपर विजय प्राप्त करनेवाले चक्रवर्ती के सेनापति के समान उसका अन्तः शत्र प्रोको ध्वस्त करने के लिये उद्यत हुया उत्साह अप्रतिहत एवं अनिर्वाय ही हुआ करता है।
किन्तु इसका यह श्रानय भी नहीं है कि वह अपनी अवस्थाके विपय में मानी और असा. बधान हुआ करता है । फलतः अवस्थाके अनुसार यह अपने उन सभी कर्तव्यों का पालन करने में प्रमादी नहीं हुआ करना जो कि उसे अपने लक्ष्यतक पहुंचने में किसी भी मंशमें सहायक हो। यद्यपि इस तरहके कतव्य अनेक हैं फिर भी यहां उन में से कुछ का उल्लेख करते हैं
उदाहरणार्थ- भक्ति, पूजा, अवसंवादका निराकरण, प्रासादनामी का परिहार और अवसावर्जन | ये पांच कार्य हैं जो कि सम्यग्दर्शन में विशुद्धि के वर्धक अथवा साधक हैं। उसमें योग्यतानुसार- तग्नम रूपमें ये सभी बात पाई जाती हैं।
धर्म और अरिहंतादि पंचपरमेष्ठी, उनकी प्रतिमा और जिनालय तथा द्रव्यभावरूप श्रत यादिमे विशुद्ध अनुराग का होना भक्ति है । श्रद्धापूर्वक अपनी भिन्न अथवा अभिन्न योग्य व उचित द्रदय को अरिहनादिकी सेवामें विधि सहित अर्पण करने का नाम पूजा है । यह दो प्रकार की है---एक द्रव्यपूजा दूसरी भाव पूजा । जिसमें अपनेसे भिन्न वस्तुओं का समर्पण किया जाय वह द्रव्यपूजा है। भगवान का विधिपूर्वक जल घी दुध दही माथि आदिके द्वारा अभिषेक करना और
१-भगदर्शन।
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रत्नकरण्ड श्रावकाचार
उनको जल मंत्र अक्षत पुष्य नैवेद्य दीप धूप फल एवं अर्घ समर्पण करना, श्रारती करना अथवा देवसेवा के लिए भूमि खेत गांव और अभिषेक के लिए गोदान आदि करना, मन्दिर में वेदी *वजापताका आदि देना, मंगलद्रव्य प्रातिहार्य यादिका निर्माण करना कराना या अर्पण करना आदि सब द्रव्यपूजा है । शरीर से खड़े होकर विनय करना, प्रदक्षिणा देना, प्रणाम या कायोत्सम्र्गादि करना वचनसे जप या स्तवन करना मनमें गुणोंका चितवन करना आदि भावपूजा है । केवली श्रुत संघ धर्म और उसके फलके विषय में मिध्यादृष्टियों द्वारा किये जानेवाले सभूत दोषोंके उद्भावन को सम्यग्दृष्टि सहन न करके उनका निराकरण किया करता है । देवादिके समक्ष या परोक्ष ऐसी कोई भी चेष्टा वह नहीं किया करता जो कि उनके प्रति विनयको सूचित करनेवाली हो। इसीका नाम अवझावर्जन अथवा आसादनाओं का परिहार कहते हैं ।
इनके सिवाय और भी सम्यग्दृष्टि के अनेक कार्य होते हैं जो कि सम्यक्त्वके कार्य होनेके कारण सम्यक्त्व के ही गुण अथवा स्वभाव कहे जा सकते हैं। क्योंकि जिस तरह सूर्यके उदयका प्रभाव प्रकृति प्रत्येक अंशपर पड़ता है उसीतरह सम्यक्त्व के सूर्य प्रकट होतेही जtant श्रद्धा रुचि प्रतीति और वाचिक कायिक व्यवहार में इसतरह का अपूर्व परिवर्तन हो जाया करता है जो कि उसको मोक्षमार्ग में बढ़ने के लिए उस्कठा एवं उत्साह के लिए प्रेरणा प्रदान किया करता है। अथवा शरीर के प्रत्येक अंशमें व्याप्त विषजनित मूल्य के दूर होतेही जिस तरह सर्वाश अपूर्ण स्फूर्ति आ जाती है उसीप्रकार मोह या मिथ्यात्वका आत्माके प्रत्येक अंशपर पडनेवाले प्रभावका अभाव होतेही जीवके सभी अंशों में मोक्षमार्गके अनुकूल परिवर्तन हो जाया करता है। राजा के सावधान होनेपर राज्यके सभी अंग अनुकूल कार्य करते हैं। निरोगता प्राप्त होनेपर शरीर ही अंग सबल हो जाते हैं उसीप्रकार सम्यक्त्वक उत्पन्न हो जानेपर सभी अंग सावधान और सबल होकर प्रतिपक्षां कर्मोंको दूर करनेके लिए प्रयत्नशील और आत्मशक्तियोंके पूर्ण विशुद्ध करने में समर्थ हो जाया करते हैं ।
सम्यग्दर्शनके आठ अंग हैं। इनमेंसे प्रत्येक अंगमें एक एक व्यक्तिका नाम आगममे ष्टान्तरूप से बताया गया | उन्हीं इतिहास प्रसिद्ध व्यक्तिका नाम यहांपर ग्रन्मकर्ता माचार्य बताते हैं । --- तावदंजनचौरोंगे ततोऽनन्तमतिः स्मृता । उद्दायनस्तृतीयेऽपि तुरीये रेवती मता ॥ १६ ॥ ततो जिनेन्द्रभक्काऽन्यो वारिषेणस्ततः परः १ । विष्णुश्व वज्रनामा व शेषयोर्लक्ष्यतां गताः २ ॥२०॥
अर्थ- आठ अ मोमेंसे सबसे पहले गये जन चोर और उसके बाद क्रमानुसार एस !---परं इत्यपि पाठः । २ष्ट्रांतस्थम् । ३--- प्रायः मुद्रित प्रतियों में "गती" ऐसा पाठ पाया जाता है परन्तु 'गताः' पाठ ही है।
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anmanner-
annim
चंद्रिका दीका उन्नाव बीसारलोक मंगमें अनन्तमति, तीसरे अंगमें उद्दायन? राजा और चौथे अंगमें रेवती रानी दृष्टांतरूप मानी गई है। इसीप्रकार शेष चार अंगोंमें भी चार व्यक्ति प्रसिद्ध हैं । यथा--पांच में जिनेन्द्रमक्त, तत्पश्चात् छठे अंगमें वारिषेण और शेष सातये व आठवे अंगों में क्रमसे विष्णुकुमार और वनकुमार निदर्शनरूप मान गये हैं।
प्रयोजन-किसी भी एक सैद्धांतिक विषय का यदि दृष्टांतद्वारा स्पष्टीकरण कर दिया जाय तो वह अच्छीमरह समझमें आजाता है । इसीलिये कहा गया है कि "दृष्टान्तेहि स्फुटा मतिः २ यहांपर दृष्टान्त के ही अर्थमें आचार्यने लक्ष्य शब्दका प्रयोग किया है। दोनों का आशय एक ही है जैसा कि इन शब्दोंके अर्थयेही जाना जा सकता है। वादविवादकै अवसापर यदि शंत का प्रयोग न किया जाय तो हानि नहीं है, ऐसा होते हुए भी विषयके निदर्शनार्थ न्यायशास्त्र में भी अन्वय दृष्टांत और व्यतिरेक दृष्टान माने है । फिर जहां साधारण श्रद्धा बुद्धि रखनेवाले बुभुत्सु भव्यको हिनोपदेश के रहस्य का भलेप्रकार परिझान कराना है वहां तो दृष्टांत देना उचित और आवश्यक हो जाता है । यही कारण है कि सूक्ष्म अवतव्य सम्यग्दर्शनका और उसके अंगोंका पालन किमतरह करना चाहिप इसका परिज्ञान तना घटनाओं का वर्णन करके ही समझाया जा सकता है। और इसीलिए प्रत्येक अंगके पालन करने की शिक्षा देनेवाले माठाही अंगों में प्रसिद्ध आठ व्यक्तियों का नाम यहां बताया गया है । इन व्यक्तियोंकी कथा पडकर उन उन घटनाओंपर ध्यान देनेसे श्रोताओं को मालुम हो सकेगा कि उन उन अंगोंका पालन कब और किसतरह करना चाहिये । और यश अवसर उनका पालन करनेसे किमतरहका फल प्राप्त हुआ करता है।
शब्दोंका सामान्य विशेष अर्थ
नावत्--यह अव्यय है जो कि क्रम और प्रथम अर्थ बताता है । कभी कभी वाक्यालंकारमें भी इसका प्रयोग हुआ करता है। यद्यपि कोशमें इसके और भी अर्थ बताये हैं। परन्तु यहांपर नीनों अर्थ विवक्षित हैं। जिससे अभिप्राय यह निकलता है कि प्रकृत उपयुक्त पाठ अंगोमेसे क्रमानुसार पहले गर्ने जनचोर लक्ष्यका दृष्टांतभूत माना गया है ।
अंग-शब्दके भी शरीर, कारण आदि अनेक अर्थ होते हैं परन्तु यहांपर अवयव अथवा विमाग या अश अर्थ करना चाहिये।
___ ततः-शन्द दोनों कारिकाओं में मिलकर तीन जगह पाया है। अर्थ एक ही है।-पूर्व निर्दिष्ट के चाद | अर्थात अजनचोरके अनन्तर क्रमसे दूसरे में अनन्तमति, तीसरेमें उद्दावन, -जैन जगट ११-११-१४ अंक तीन में प्रकाशित एक लेखमें बताया है कि इतिहासकार ईस्वीसन से पूर्व (४५० से ४१३ ) उदयनका पटनामें राज्य स्वीकार करते हैं। परन्तु हमारी समझ से दोनो एक नहीं है और दृष्टांतभूत खदायन अधिक प्राचीन होना चाहिये । जैसाकि आगे दी हुई कथासे मालुम होना है कि वह भी वर्धमान भगवान के समवशरणमें जाकर दीक्षित होकर निर्वाणको गया है। -पत्र घामणी । ३-परितामुख अ०३ सू०४६ सै४४ ॥
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समकारएहसावकाचार चौथेमें रखती। इसीतरह निषेवरूप चार अंगोंके दृष्टांतों के बाद अन्य भिन्न प्रकारका अर्थान् विषिरूप चार अंगों में प्रथम जिनेन्द्रभक्त, उसके बाद छठे अंगमें वारिपेण लक्ष्य है। तथा मातवे आठवे अगामें विष्णुकुमार एवं वनकुमार लक्ष्य है। __लत्प—जिसका लक्षण निर्देश किया जाय उसको लक्ष्य कहते हैं । निरुक्ति के अनुसारलक्षयितु योग्याः लक्ष्याः, तेषां भावः लक्ष्यता ताम अर्थात जिनको दिखाकर विवक्षित अंगके लक्षण का अर्थ भलेप्रकार समझाया जा सके, ऐसा लक्ष्य शब्दका अर्थ होता है । यह शब्द प्रत्येक बागके साथ जोडना चाहिये । यथा सबसे पहले अंगमें अंजन चोर लक्ष्य है । इसके बाद दूसरं अंगमें अनन्तमति लक्ष्य है । इत्यादि । । गताः-यहांपर प्रयुक्त बहुवचन प्रत्येक अंगमें दृष्टांतभूत व्यक्तियों की बहु संख्या को मूचित करता है।
शेषयोः-उपयुक्त छह अंगोमेंसे बाकी बचे वात्सल्य और प्रमारना इन दोनों अमोमें विष्णुकुमार और वज्र कुमार लक्ष्य हैं। ____ अजनचोर--थई वास्तविक नाम नहीं किंतु अन्वधं नाम है उसका वास्तविक नाम नो ललित था । कितु अदृश्य बनानेवाला भजन उसको सिद्ध था और चोरीमें वह उसका उपयोग किया करता था इसलिए उसको अंजनचोर कहते थे । यही कारण है कि अंजन और नामसे अनेक व्यक्ति प्रसिद्ध है किंतु ग्रहांपर जो विवक्षित है उसकी कथा आगे दी गई है। बाकी नाम यहां म्यक्तियोंके संज्ञानाचा है। पाठोंही अंगोमें प्रसिद्ध व्यक्तियोंकी संक्षिप्त कथाएं।
अंजनचोर जम्बूद्वीप में जनपद नामका देश उसमें भूमितिलक नामका नगर था। वहां के राजा का नाम नरपाल और रानी का नाम गुणमाला था । इमी राजाका मुनन्द नामक एक से था। जिसकी धर्मपत्नीका नाम सुनन्दा था । इसके सात पुत्र थे। सबसे छोटेका नाम था मन्वन्तरी । इसी राजा का सोमशर्मा नामका पुरोहित था । और उसकी भार्या का नाम था अग्निना । इन दोनोंके भी सात पुत्र हए । उनमें सबसे छोटे का नाम था विश्वानुलोम । धन्वन्तरि और विश्वानुलोम लंगोटिया मित्र और साथ ही सस्त व्यसनोंमें रत थे। इनकी अनार्य कार्योंमे प्रवृत्ति के कारण ही राजाने इन दोनों को देशस निकाल दिया। यहाँसे निकलकर वे दोनों कुरुर्जगल देशक हस्तिनाग पुरमें जाकर रहने लगे। जहां का राजा वीर रानी नीरवती और उनका यम दएर नाम कोतवाल था।
१-हमारे पासके प्राचीन हस्तलिखित गुटका में गतो की जगह गताः ऐमा सुधारा हुआ पाठ पाया जाता है। जो कि आचार्य प्रभाचन्द्र की दीकाके अनुसार भी ठीक पाठ है। २--शेषयोः शब्दमे शेषके दोनोंमेंसे क्रमसे एक एक में एक एक प्रसिद्ध है गेमा अर्थ न करके शेषके योनी ही श्रगामें दोनोंही प्रसिद्ध हुए है ऐसा अर्थ करना अधिक उचित प्रतीत होता है । अन्यथा शेषयो।' इधर विषयम का खास प्रयोग करनेकी भाबश्यकता नहीं मालक होती।
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पद्रिका टीका उमीसको बीसवो गक एक दिन ये दोनों रात्रि समय नित्यमण्डित नामक चैत्यालय में पहुंचे जब कि वर धर्मा.. चार्यका उपदेश हो रहा था । यह देखकर विश्वानुलोम योला—“धन्वन्तरे ! यदि मद्यपानादिके द्वारा संसारका मुख भोगना है मो इन दिगम्बरोंकी वाण नही सुनना" यह कहकर वह तो कान बन्दकर चला गया और एक जगह जाकर सांगया। किंतु धन्वन्तरि ने उसके कहनेपर ध्या र नहीं दिया और उपदेश सुनता रहा। प्रसंगवश धर्माचार्य ने कहा कि "यदि दृढता के साथ एकभी वचन का पालन किया जाय तो परिपाकम बही स्वर्गमीक्षका निमित्त बन जाता है"। यह सुनधन्वन्तरि बोला "ह भगवन् ! यदि यही रात है तो मुभ.पर भी कोई व्रत देकर अनुग्रह करना चाहिये। फलतः उसने तीन अन घारगा किये १-यात्रि भोजन न करना २-अज्ञात फल भता न करना ३---विना मिनार सहसा कोई काम न करना। तीनोंहीं व्रतों का फल अन भवमें भाग्पर संमार से विरक्त होकर घरधर्माचार्य के पास जाकर उसने जिनदीक्षा धारण करती। एक दिन जब चन्वन्तरि निराज आतापन योग में स्थित थे तब उक्त विश्वानलीम मित्र आया और आकर अत्यन्त प्रेमके साथ उनसे बात करने लगा किंतु बे मौनस्थ रहने के कारण कुछ भी नहीं बोले --उत्तर नहीं दिया। फलतः वह उनसे रुष्ट होकर चला गया और सहसजट नाम जटाधारी तापसी का शतजट नामक शिष्य होगया । धन्वन्तरिने योग पूरा हो जानेपर पुन: जाकर उसकी बहुत कुछ समझाकर साथ चलन को कहा परन्तु वह नहीं पाया । श्रायुके अन्तमें समाधिद्वारा धन्वन्तरि अच्युतस्वर्ग में अमिताभ नामका देव हुआ और विश्वानुलोम व्यन्तरॉक गवसेना अधिपति विजयदेव का विद्युत्प्रभ नामका बाहन हुआ।
एक समय नन्दी नरद्वीपमें श्राशान्हिक पर्वके समय कृत्रिम चैत्य चैत्यालयोंकी पन्दना बाद अमितप्रभने विद्युअभसे पूछा "जन्मान्तरकी बात याद है ?" इसरमें उसने कहा-'अच्छी तरह याद है 1 अतिप्रम-तुमने ब्रह्मचर्यपूर्णक कायक्लंशका यह फल पाया है। किंतु मैंने सकल चारित्रका पालन किया था इसलिये यह कर्मका विपाक हुआ है । विद्युत्प्रभ चौला परन्तु हमारे सिद्धान्ता नुसार जमदग्नि मतङ्ग पिङ्गल कपिजल आदि जितनं महर्षि है वे अपने नुपाविशेष प्रभावसे तुमसे भी अधिक अभ्युदयको प्राप्त करेंगे इसलिये इसने गर्व और
आश्चर्य में मत पडी।" ___ अमितप्रम---विद्युत्प्रभ ! अभी भी दुराग्रह नहीं छोडना चाहते | अच्छा चलो, लोगोंक चिचकी परीक्षा करले।
दोनोंने मर्त्यलोकमें आकर सबसे प्रथम जमदग्निकी परीक्षा की। दोनों देव पश्चिमिथुनका सप रखकर जमदग्निकी दाढीमें बैठकर इसतरह बातें करने लगे--
पक्षी—प्रिये ! तेस प्रसवकाल निकट है किंतु मुझे पचिराज वैनतेयकी लड़कीके विवाइमें आना भी अत्यन्त आवश्यक है । अतः मैं शीघ्र ही आजाऊंगा। चिंता मत करना । किंतु पक्षिणीने स्वीकार नहीं किया। पीने इसपर मांकी नापकी कसम मी साई और भी तरह विश्वास दिलानेपर भी
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रत्नकरण्ड श्रावकाचार
अब वह नहीं मानी तो पहीने कहा- "अच्छा! यदि मैं समयपर न भाऊ तो इस पापकर्मा तपस्वी के समान मुझे भी दुर्गति प्राप्त हो" । यह सुनकर जमदग्निने उन्हें मसल डालना चाहा । परन्तु दोनों पक्षी उडकर पास के पेडपर बैठ गये। तब उन्हें देव पार्वती समझ प्रणाम करके विनयसे पूछा- मैं पापकर्मा क्यों और किस तरहसे हैं ? उत्तर में दबन कहा— तपस्विन्! शास्त्रमें लिखा है कि
अपुत्रस्य गतिर्नास्ति स्वर्गो नैव च नैव च । तस्मात् पुत्रमुखं दृष्ट्वा पश्चाद् भवति भिचुकः ।। तथा अभी विधिवद्वेदान् पुत्रांश्चोत्पाद्य युक्तितः । इट्टा यज्ञ यथाकालं ततः प्रब्रजितो भवेत् ॥
जमदग्निने पूछा ! अब क्या करना ?
देव- पहले जाकर विवाहकर पुत्र उत्पन्न करो फिर तप करो। फलतः जमदग्निने अपने मामा की लडकी रेणुकाके साथ विवाह करके परशुरामको उत्पन्न क्रिया ।
दोनों देव जमदग्निको विवाह के लिये प्रवृत्त करके स्मशान में कृष्ण चतुर्दशी की रात्रि में ध्यानरत जिनदस नामक श्रावकको परीक्षा में प्रवृत्त हुए। रातभर घोर उपसर्ग करके भी उसको विचलित न कर सकने पर प्रातःकाल होनेपर दोनोंने जिनद तकी श्लाघा की, दिव्य उपकरण देकर पूजा की, और आकाशगामिनी विद्या दी। और कहा कि तुमको यह विद्या स्वयं सिद्धि रहेंगी। किंतु दूसरोंको विश्विपूर्वक सिद्धि हो सकेंगी। साधन विधि बताकर जिनद ससे भी निम्न कोटिके अभ्यासी किंतु सम्यग्दृष्टि राजा पद्मरथकी भी परीक्षा करके और अन्त में उसकी भी पूजा करके दोनों यथास्थान चले गये ।
इस तरह देवों से प्राप्त आकाशगामिनी विद्याके द्वारा जिनदत्त सेठ जब अकृत्रिम चैत्यालयों की बन्दना के लिये जाने लगा तो एक दिन घरसेन नामके पुष्पवाड - मालीके लडको इसका रहस्य जानने की इच्छा हुई और जिनदत्तके द्वारा भेद मालूम पडने पर विद्या सिद्ध करने की उत्सुकता हुई। जिनदत्त द्वारा साधनविधि मालुम पडने पर वरसेन कृष्णा चतुर्दशीको स्मशान में जाकर चटवृक्ष के नीचे तदनुकूल मंडल माडकर कन्या द्वारा काते हुए सूतके १०८ लडीका का वृक्षमें बांधकर नीचे ऊर्ध्वमुख तीक्ष्ण शस्त्र गाढकर और सकली करणसे आत्मरक्षा पूजन विधि करके विद्यासिद्ध करने के लिये तयारीमें था परन्तु ऊपर चढ़ने की हिम्मत नहीं होरहीं थी । वह यह सोचकर डर रहा था कि कहीं ऐसा न हो कि विद्या सिद्ध न हो और मैं ऊपर से गिरकर और शस्त्रांसे कटकर मृत्युको प्राप्त होजाऊ । इसी अवसर पर एक दूसरी ही घटना उपस्थित होगई । -
विजयपुर के महाराज अरिमंथन और उसकी महारानी सुन्दरीका ललित नामका पुत्र जिस को कि समस्त व्यसनोंमें आसक्त रहनेके कारण दायादोंके कहने से राज्य से निकाल दिया गया था और जो कि ऊपर लिखे अनुसार अदृश्याञ्जन के कारण अंजन चोरके नाम से प्रसिद्ध था अपनी प्रेयसी अजनसुन्दरी वेश्या के पास रात्रिका गया परन्तु उससे वैश्याने कहा कि कुशाग्रपुर के महाराजकी पङ्करानीका सौभाग्यरत्नाकर नामका हार मुझे लाकर यदि दो तो मैं तुमसे प्रेम
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पत्रिका टीका उन्नीस बीस
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करूगी अन्यथा नहीं । ललित अजन चोर "पा बडी " कहकर एक और को लेकर भारहा था कि बहारके प्रकाश से सन्देश्वश पुलिसने उसका पीछा किया । ललित द्वार को फैककर स्मशानकी तरफ भागा और जहां धरसेन विद्या सिद्ध कर रहा था वहां पहुँचा । धरसेनसे सब बात जानकर उसने कहा तू भीरु है और अपना यज्ञोपवीत दिखाकर कहा कि तु इसके साधनमें समर्थ नहीं हो सकता । तू मुझे सब विधि बता । और सव विधि मालुम करके उसने सोचा कि "जिनदत्त स्वप्न में भी किसीके अहित की बात नहीं सोच सकता । वह देशजती है महानसे भी महान् हैं। फिर पुत्रकी तरह चिरकालसे पोषित इस घरसेनका अहित क्यों करना चाहेगा " यह सब सोचकर निःशंक होकर पूर्ण उत्साहसे छीकेपर चढ़ाया और पंचनमस्कार मन्त्र पढ़कर एक ही बारमें उसने केकी सत्र १०८ लड़ीं काट डाली। उसी समय सिद्ध हुई विद्याक द्वारा सुमेरु पर जाकर जिनदसके दर्शन किये और वहां गुरुसे धर्मोपदेश सुनकर दीक्षा धारण की, समस्त श्रुतका ज्ञान प्राप्त किया । और अन्तमें हिमवान् पर्वतपर केवलज्ञान तथा कैलाशके saraनसे निर्वाण प्राप्त किया ।
इस का सम्बन्ध में निम्न तीन श्लोक स्मरणीय हैं । —
एकापि समय जिनभक्तिदुर्गतिं निवारवितुम् । पुष्यानि च पूरयितुं दातु मुक्तिश्रियं कृतिनः ॥ उररीकृतनिर्वाहसाइसोचितचेतसाम् । उभौ कामदुधौ लोकी कीर्तिश्लाघ्यं जगत्त्रयम् ॥ तत्र पुत्रोऽवनिक्षिप्तः शिचितादृश्यकज्जलः । अन्तरिक्षगति आप निःशंकोंजन तस्करः ||
I
अनन्तमति
अङ्ग देशमें म्पापुरी नगरी का राजा सुवर्धन और उसकी पट्टरानीका नाम लक्ष्मीमति था। वहीं पर एक प्रियदत नामका सेट रहता था । उसकी धर्मपत्नी का नाम मात्र था इन दोनों की एक पुत्री थी जिस का नाम अनन्तमति था । यह अनन्तमती अत्यन्त सुन्दरी थी । इसकी एक सूखी थी जिसका नाम अनङ्गपति था। एक समय अष्टन्हिक पर्व के अवसर पर सेठ सहस्रकूट
त्यालय के दर्शन पूजनको निकला परन्तु घरमें पुत्री को न पाकर उसने उसकी सखी से जिसका कि हाल ही में विवाह हुआ था, पूछा- अनन्तमति कहां है ? व बोली अपनी सहेलियों के साथ खेल रही है। स्वयं की गुडिया को वर और दूसरी सहेलीकी गुडिग को वधू बनाकर विवाह कर रही है। पींजरोंके तोती मेना मंगलगीत गा रहे हैं। सेठ बोला - उसको यहां बुला । ओ आज्ञा कहकर वह गई और उसको बुला लाई । पुत्री के धानेपर वृद्धावस्थापन सेठने उपहासमें कहा - गुड्डा गुड्डीका खेल खेलनेवाली बेटी ! क्या अभी से तुझे विवाह करनेकी इच्छा हुई है, अच्छा चल श्रीर्मकीर्ति प्राचार्य महाराज के समक्ष धर्मका उपदेश सुनें । सबने जाकर उपदेश सुना और अंत में सेठ सेठानीने अष्टान्हिकपर्व के लिये ब्रह्मचर्य व्रत लिया तथा पुत्री से कहा कि तू भी यह समस्त व्रतोंका शिरोमणि ब्रह्मचर्य व्रत ले | अनन्ततिने भी प्राचार्य महाराजके समय वह व्रत लिया
१- सेठ और सेठनीने श्रष्टान्दिके लिये ही ब्रह्मचर्य व्रत लिया था। उसी समय हंसी में उससे भी
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रलकर एडभावकाचार
................. और कहा कि इसमें केवल भगवान् ही नहीं अपितु हे पिताजी ! पाप और मा भी साक्षी हैं। धीरे२ यौवनको पाकर अनन्तमतिका सौन्दर्य अपूर्व होगया । एक दिन वह सहेलियों के साथ चैत्रमें झूला झूल रही थी कि इसी समय उधर से विजयाधकी दक्षिण श्रेणीक किमरगीत नगरका स्वामी कुण्डलमण्डित नामका विद्यावर अपनी धर्मपत्नी सुकेशी के साथ निकला । वह भनन्तमतिको देखकर उसपर आसक्त हो गया। उसका अपहरण करनेके अभिप्रायसे 'मुकेशी बाधक न बने । इसलिये उसको घर वापिस छोड़कर आया और अनन्तमतिका अपहरण कर
आकाश मार्गसे जा रहा था कि सुकेशी भी सन्देहवश लोट आई और बीच में ही सामने से पाती हुई दिखाई दी । सुकेशीको देखकर उसने लघुपर्णी विद्याके द्वारा उस अनन्तमति को शापुरके निकट भीम नाम के बनमें छोडदिया। यहांपर शिकारकेलिये आये हुए भीम नामक भिल्लों के राजाने उसको देखा और अपनी पल्ली में लेजाकर उसको फुसलाने की चेष्यामें असफल होने पर उसके साथ बलात्कार करनेका प्रयत्न किया । परन्तु उसके व्रतकी दृढताको देखकर वनदेवताने उसकी सहायता की जिससे हरकर भीमने "हे मातः! मेरे इस एक अपराधको धमाकर" यह कहकर उसकी शंखपुरके निकटवर्ती पर्वत के पास छोड़ दिया। वहां से पुष्पक नाम के एक बणिकपुत्रने उसका अपहरण किया। किन्तु उसने भी अपनी वासना पूरी करने में असमर्थता पाकर उसे अयोध्या में व्यालिका नामकी वेश्याको देदिया । च्यालिका भी जब नाना प्रकार के प्रयत्न करनेपर भी उसे अनुकूल न बना सकी तो उसने वहां के राजा सिंहको अर्पण करदी। राजा सिंह भी हर तरहसे मय प्रलोभन चाटुकार आदि के द्वारा अनन्तमति को डिगा न सका | नगर देवराने यहां उसकी सहायता की। देवताके उपद्रयों से डरकर सिंहने अनन्तमतिको घर से बाहर निकाल दिया ।
अनन्तमति विरतित्यालयमें पहुंची और वहा दुसरी प्रतिकाओंके साथ भनेक बत उपवास यम नियम करती हुई रहने लगी । विरतिचैत्यालयके पड़ोस में ही जिनेन्द्रदच सेठ का पर था। जिनेन्द्रदस अनन्तमतिका फूफा लगता था । परन्तु कोई किसी को पहचानता न था। प्रियदत्त सेठ मनन्तमति के वियोगसे खेदखिन्न था सो मन बहलानेके लिये जिनेन्द्रदत्त के यहां भाया। चिरकाल में मिलने के कारण परस्परमें जब रात्रि को बातें हो रही थीं तब प्रियदचने अपनी पुत्री के अपहरण की बात भी जिनेन्द्रदससे कही । प्रातः काल रंगवली रचना प्रादि कार्यों में अत्यन्त प्रवीण अनन्तमति को काम में मदद देनेलिये उसकी बूभाने उसे बुलाया । उसका मथ काम करके अनन्तमति अपने स्थान पर चली गई । प्रियदत्त सेठ नगरके चैत्यालयोंकी बन्दना करके जब वापिस लौटा तो रङ्गवली की रचना देखकर उसे अनन्तमति का स्मरण हो पाया भौर जिनेन्द्रदनसे कहा कि इस रचना करनेवालीको मुझे दिखाओ फलतः अनन्तमति को बुलाया गया पिताने पुत्री को देखकर अत्यन्त शोक किया, हरतरहसे घर, चलनेको समझाया और यही पर प्रत लेने को कहा और पाठ दिनकी बात खोली नहीं । अत एव अनन्तमतिने पावचीवन प्राचार्यका संकल्प किया था।
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चंद्रिका टीका उन्नामवा बीमो श्लोक इसी जिनेन्द्रदत्त सेठ के पुत्र अहहन के साथ विवाह करने को भी कहा, यह भी कहा कि वह प्रत तो उपहास दिलाया था मो भी केवल आठ दिन के लिये ही। परन्तु अनन्तमति तयार नहीं हुई। यह यह कहकर कि "धर्म में उपहास कैसा ? मैंने थोडे ही समयमें संसारका सब स्वरूप समझ लिया है, मैं अब उसमें पड़ना नहीं चाहती।" कमलश्री आर्यिकाके पास जाकर दीक्षित होगई।
कैथल ईसीमें लिये हुग चतुर्थ बनका अत्यन्त दृढताके साथ पालन करके अनन्तमति सपके प्रभाव से बारहवें स्वर्गमें जाकर देव हुई । अत एव कहागया है किहासापितश्चतर्थेऽस्मिन् व्रतेऽनन्तमतिः स्थिता । कृत्वा तपश्च निष्काङमा फल्पं द्वादशमाविशत् ।।
उद्दायन। एकदिन तीन ज्ञानका धारक एक ही भवः धारण करके मोक्षको जानेवाला सौधर्मेन्द्र अपनी सभामें सम्पूर्ण देवोंके सामने सम्यग्दर्शनके गुणोंका वर्णन करते हुए बोला कि इन्द्रकच्छ नामक देशमें माया नामकी एक नगरी है जिसका किमरा नाम रोरकपुर है । वहाँ उद्दायन नामका राजा राज्य करता है । जिसकी कि पटरानीका नाम प्रभावती है। उस उदायन के समान इस समय मर्त्यलोकमें निर्विचिकित्सा अंगमें और कोई नहीं है । इन्द्रके दास इतनी अधिक प्रशंसाको सहन न करके वासचनामका देव मनुष्यचेत्रमें आया ओर अत्यन्त विनावनां शरीर बनाकर मुनिक रूपमें हारके समय उद्दायनके घर पहुँचा । राजा घरकी तरफ मुनिको आता देखकर प्रतिग्रहकेलिये आगे बढ़ा। उसने देखा कि मुनि अत्यन्त वृद्ध, महसे दुर्गन्ध आरही है शरीर दाद खाज खरजवा फोडा फुन्सिगेंसे भरा पडा है शरीर रूग्ण है, लार नाक बह रहे हैं लाखोंसे दीड निकल रहे हैं, मातकपर मक्खियां भिनभिना रही हैं और उनसे चला जाता नहीं है। राजा यह सोच करके कि संभवतः अभी गिर पडेंगे, रंचमात्र भी ग्लानि मनमें और व्यवहारमें न लाकर केशर आदिसे सुगन्धित अपने भुजबरद्वारा मुनिको भोजनालपमें लाया। उच्वासनपर विराजमानकर अपने हाथसे पादप्रक्षालन श्रादि क्रियाकी और विधि पूर्वक योग्य आहार दिया। मुनिवेशी देवने यह सोचकर कि अभी परीक्षा अधूरी है 'भीजनके अंत' में जोरका शब्द करते हुए जितना भोजन किया था सबका सब इस तरहसे रमन करदिया कि राजा के ऊपर भी प्रहा। फिर भी खूब जोर२ से शब्द करते हुए वार२ वमन करने लगा विक्रियाजनित मक्खियोंका समूह भी चारों तरफ और राजाके ऊपर भी उड़ने लगा । सब परिकरके लोग यहां से चले गये ! किंतु राजाने कहा- हाय । मैं बडा मन्दभाग्य हूँ । मेरसे ठीक सेवा न हो सकी, मेरे दिये विरुद्ध आहारके कारण मुनिराजको कितना कष्ट हुआ है, आदि अपनी निन्दा करते हुए पवित्र जलसे. मुनिका शरीर अपने हासेि धोया और स्वच्छ वहमन्य वससे पोछकर साफ किया ।
सनिवेशी बांसवदेवके हृदय में अब यह विचार हुआ कि सचमुचमें परगुणग्रहणाग्रही इन्द्रने
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रत्नकर एडभावकाचार
जो कुछ कहा था- सर्वथा सत्य है। उसने अपना रूप प्रकट किया, पठनमात्र से सिद्ध होनेवाली विद्याके fears दिव्य वस्त्रालंकार प्रदान किये । तथा पर्याप्त प्रशंसा करके और सब वृतान्त 1 कहकर अपने स्थानको चला गया। उद्दायन भी श्री वर्धमान भगवान् के पादमूलमें दीक्षा लेकर घोर सपश्चरण करके निर्वाणको प्राप्त हुआ। प्रभावती रानी आर्थिका होकर उपके प्रभाव से पांच स्वर्ग में देव हुई ।
उद्दायन विषयमें यह श्लोक प्रसिद्ध है---
बालवृद्गदरलानाम् सुनीनौद्दायनः स्वयम् । भजन्निर्विचिकित्सात्मा स्तुतिं प्रापत् पुरन्दरात् ॥ रेवती रानी ।
पाराच्यदेश के दक्षिणमधुरा' नामक नगर में एक श्रीमुनिगुप्त नामके आचार्य रहते थे। जो अवधिज्ञानी श्रष्टाङ्गमानिमित्त शास्त्रके ज्ञाता और आश्चर्योत्पादक तपश्चरण करनेवाले थे । विजयार्ध पर्वतकी दक्षिणश्रेणीके मेघकूट नामक नगरका स्वामी चन्द्रप्रभ जिसकी कि रानीका नाम सुमति था; अपने पुत्र चन्द्रशेख को राज्य देकर उक्त आचार्य महारा तके चरणोंमें चुनक हो गया। फिर भी उसने आकाश में गमन करनेमें सहायक कुछ विद्यार्थीका परिग्रह रक्खा था । एक दिन उसने उत्तर मथुराको बन्दनाकेलिये जानेके अभिप्रायस श्राचार्य महाराजसे आज्ञा लेकर पूछा कि वह किसीसे कुछ कहना है क्या ? आचार्य ने कहा— सुत्रतमुनिराजको हमारी बन्दना और वरुण महाराजकी महारानी रेवतीस आशीर्वाद कहदेना । खुनकके और भी किसी कामके लिये पुनः २ पूछनेवर आचार्य महाराज अन्य सन्देश न देकर केवल इतना ही कहकर कि "अधिक विकल्प क्यों करते हो ? वहां जानेपर सब स्पष्ट होजायगा ।" चुप होनए ।
بری
लक्को विकल्प था कि वहांके सुप्रसिद्ध ग्यारश्अंगके पाठी मव्यसेन मुनिके लिये कुछ भी सन्देश क्यों नहीं ? अस्तु चुल्लक ने उत्तर मथुरामें आकर मुक्त मुनिराजका विशिष्ट वात्सल्य देखा और वन्दना सन्देश देकर सोचा कि अब भव्यसेनकी परीक्षा करनी चाहिये । और विद्यार्थी 1 का वेश रखकर भव्यसेनके पास पहुंचा। भव्यसेनने बडे स्नेहसे पूछा । —बढो ! कहांसे भाए हो ? क्षु० --- पटना | भव्य ० – किसलिए १ चु० – अध्ययनार्थ । भध्य क्या पढना चाहते हो ? [० --- व्याकरणं । भन्यसेन- अच्छा, मेरे पास रहना चाहते हो ? सु० जी हां १
मध्यसेनने यह सुनकर उसको अपने पास रख लिया । और थोडी देर बाद कहा ! बटो 1 शोच का समय होगया है, इम मैदानमें जा रहे हैं। चलो, कमण्डलु लेलो । घुल्ल कने जिधर वे गये उधर ही हरित अंकुरोंसे भूमिको व्याप्त कर दिया। यह देखकर भव्यसेन रुका । मुलकने पूछा- भगवन् ! यकायक आप रुक क्यों गये । भच्यसेन- आगममें ये स्थावर नामके जीव बताए है । छुक- महाराज रलोंकी किरयोंके समान ये भी पृथ्वीके विकार है। ये जीव नहीं हैं। भव्यसेन यह कहकर कि ठीक है, उसी परसे चलागया और शौचके बाद थोड़ी दूर वर्तमान नाम मदुरा ।
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चंद्रिका टोका उन्नीसवां बीरनगर खडे हुए छात्र की तरफ हाथ से इसारा करने लगा । छुल्लक बोला--भगवन् ! इसारा समझमें नही श्राना, आप क्या कहना चाहते हैं ? बोलते क्यों नहीं १ भव्यमेन बोला---मटो भागम में लिखा है कि
अभिमानस्य रक्षार्थ प्रतीक्षार्थ श्रुतस्य च । धनन्ति मुनयो मौनमदनादिषु कर्मसु ॥
अत एव निर्जन्तु शुष्क गोमय भस्म अथवा पकी इंटका रेत लेना । छुटक-महाराज! मट्टी क्यों नहीं लेते । भव्यसेन-आगमनेत्रसे देखने योग्य सूक्ष्मजीव उसमें रहते हैं । धुवक-भगवन् । जीवका लघण ज्ञानदर्शन उपयोग है । वह इसमें कहां ? भव्यसेन,-अच्छा ठीक है, लेमा । इसी समय शुध कने विद्याके द्वारा कमंडलुका जल अदृश्य करदिया । भम्यसेन-अरे कमएडा में तो जलही नहीं है। चन्चक-यह तालाव कितना अच्छा भरा हे । मव्यसेन-प्रमासुक अखलेगा योग्य नहीं है। बुल्लक-आकाशके समान स्वच्छ इस जलमें भी जीव कहां हैं? यह सुनकर भव्यसेनने उसीस शुद्धि करली । यह सब देख परखकर खलक ने सोचा-ठीक है, इसीलिये इसका नाम मवसेन है, इसका भवसमूह बाकी है। और इसीलिये श्रीमुनिगुप्त भगवान्ने इस को बन्दना नहीं कही थी । अच्छा, रेवती रानीकी भी परीक्षा करनी चाहिये । यही सोचकर नगरके पूर्वभागमें वक्षाका रूप रखकर बैठगया । बडे बडे तपम्वी पतंग भृगु भर्ग भरत गौतम गर्ग पिंगल पुला पुलोम पुलस्ति पराशर मरीचि विरोचन श्रादि उसके चारों मुखसे निकलनेवाली चेदवाणी को सुन रहे हैं। विलामिनी सुन्दरियां चमर दोर रही है। नारद पहरा दे रहे हैं। सारा नगर दर्शन को प्रारहा है। परन्तु राजा मंत्री पुरोहितके कहने पर भी रेवती नहीं आई। उसने कहाप्रमाका अर्थ आत्मा माद ज्ञान चारित्र और वृषभदेव भगवान होता है। इनके सिवाय और कोई नया नहीं है।
इसके बाद दक्षिण दिशा में विष्णु का रूप बनाकर वह बैठा । वहां भी मन आये, परन्तु रेवती न आई और उसने कहा, आगम में नव ही अर्धचक्री नारायण बताये हैं। वे सब होचुके । यह तो कोई इन्द्रजालिया है।
इसी तरह पिश्चम दिशा में महादेवका पूरा रूप रखकर समस्त नगरको चुल्लकने धुन्ध करदिया फिर भी रेवती न आई । उसने कहा-रुद्र ग्यारह ही कहे हैं वे अब नहीं है। मत एव यह कोई और ही कपटवेशी है। ____ अन्त में क्षुल्लकने उत्तरदिशामें तीर्थकर का रूप रबखा, समवसरणकी पूरी रचना दिखाई। सब लोग आये। भवसेन भी आया । परन्तु रेवती न आई । उसने कहा-तीर्थकर चौबीस ही. होते हैं। ये सब हो चुके । यह वो अवश्य ही कोई उनका रूप रखनेवाला मायाचारी है।
इस तरह कोई भी प्रकारसे रेवतीको विचलित न कर सकने पर वह झुनिका पेश रखकर उसके घर पर आहारकेलिये गया। रेवती ने यथाविधि आहार दिया । इस समय भी उसने भनेक तरह से उग उत्तम करनेडी चेष्टा की फिर भी वह निश्चल रही । तब स्ने निगुप्त
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त्निकरण्डश्रावकाचार
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भगयानका आशीर्वाद संदेश कहा और प्रशंसा की। रेवतीने गधाविधि उसी दिशाकी तरफ सात पैड चल कर भक्तिपूर्वक नमस्कार करके आशीरि ग्रहण किया । वरुण राजा शिवकीर्ति पुत्र को राज्य देकर दीक्षा लेकर तपके प्रभावस माहेन्द्र स्वगो और रेवती रानी तपश्चरण कर ब्रह्म स्वर्गमें देव हुए । यतीके विषयमें यह श्लोक प्रसिद्ध है। भागतेष्वप्यभून पा रेवती मूढतावती ॥ कादम्प-तार्थ---गो-सिंहपीठाधिपतिषु स्वयम् ।
जिनेन्द्रभक्त साराष्ट्रदेशके पाटलिपुत्र नामक नगरका राजा यशीध्वज, रानी सुसीमा । उनका सुवीर नामका एक पुत्र था जो कि विद्यावृद्ध पुरुषों की संपति-शिवासे रहित होनेके कारख अस्यन्त व्यसनी बनगया था। परस्त्री और पर धनके लम्पटरी उस सुत्रीरने एक दिन अपनी गोष्ठी में कहा कि पूर्वदेशके गौडप्रान्तकी ताम्रलिप्त नगरीक जिनेन्द्रभक्त सेठ के सतखने महलके ऊपर पाश्वनाथका बस्यालय है। अनेक रक्षकों से सुरक्षित उस पल्यालयों भगवान के ऊपर लगे हुए छत्र में अमूल्य बैडर्य मणि लगी हुई है। आपमेसे जो कोई उस मणि को चुरा लाकर देगा उसको यथेष्ट पुरस्कार दिया जायगा । यह सुनकर एक सूर्यनामका चोरों का अग्रणी अपनी शक्तिकी स्वयं प्रशंसा करते हुए बोला "यह क्या पड़ी बात है ?" और यहांसे चलकर गोडदेशमें पहुंचा। उक्त चैत्यालयतक पहुंचनेका अन्य कोई भी उपाय न देखकर खुलक बनगया | अनेकविध व्रत उपवास श्रादि के द्वारा गांव २ में नगर २ में ख्याति प्राप्त करता हुआ जिनेन्द्रभक्तके यहां पहुंचा । एकान्ततः भक्तिमें अनुरक्त सेठरे अपने वैत्यालयमें उसको रक्खा । एक दिन सेठने कहा-देशस्तीश ! मैं देशान्तर जाना चाहता हूँ। मैं जब तक यायिम न पाऊ तब तक आप यहीं रहें । धुल्लकवेशी सूर्यचोरने कहा--नहीं २ सेठ ! यह ठीक नहीं है। स्त्रियों से और सम्पसियों से युक्त हसस्थानमें विरत पुरुषोंका रहना उचित नहीं है । परन्तु सैठके आग्रहपर उसने रहना स्वीकार कर लिया ! सेठ शुभ मुहूर्तमें यात्रा करके नगरके बाहर आकर ठहरगया। इसी दिन अर्ध रात्री को मौका देखकर उक्त रनको लेकर वह चलता बना । किन्तु रनकी प्रभासे उसे चोर जानकर रखकलोगों ने उसका पीछा किया। भागने में असमर्थ वह मायावी, सेठके निवास स्थान में ही घुनगया । होहल्लासे जागकर सेठने उसको चोर समझ कर भी यह सोचकर कि दूसरे सच्चे धर्मात्माओंका तथा धर्मका अज्ञानीजनोंके द्वारा अपवाद न हो, लोंगोंसे कहा कि अरे रे ! इसको क्यों अभद्रशब्द कहते और तंग करते हो। मेरे कहनेसे ही ये तो इस रत को लाये हैं। तुम इनको चौर कहते हो यह ठीक नहीं है । सब लोग सेठ की बात प्रमाण मानकर चलेगये. पीछे सेठ ने उसको रात्रि को ही निकालकर भगादिया । इसी प्राशयले कहा है किमायासंयमनोत्सूर्ये सूर्ये स्नापहारिणि । दोष निषूदयामास जिनेन्द्रो भक्तवाकारः ।।
वारिषेण मगध देशमें राजगृह नामका नगर जिसको पंचशैलपुर भी कहते हैं। वहां के राजा श्रेणिक
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चंद्रिका टीका उन्नीस बीसवां श्लोक और उनकी महारानी चेलिनीका पुत्र दारिषेण था जो कि उत्तम श्रावक था । एक समय वारिषेण कृष्ण चतुर्दशी को उपवास करके रात्रिको रमशान में जाकर कानोल्सर्ग धारणकर खड़ा था। उसी दिन शहर की मग सुन्दरी नामक वेश्याने राजश्रेष्टी घनदत्तकी श्रीकीर्तिमती नामकी सेठानीका अपूर्व हार देखकर मन में कहा-इस हारके विना तो जीवन ही व्यर्थ है । फलतः रात्रि को जन्म उसक. पाल मुरवेज वीर, विनियोगको नामसे भी प्रख्यात था, या तो वेश्याने उक्त हारके विना प्रणय करनेका निषेध कर दिया । कामान्ध मृगवेग हार चुराकर लेकर चला तो रक्षकोंने उसका पीछा किया। भागते२ स्मशान में वारिपणके आगे हार पटक कर विद्युतचोर वाजमें छिपगया । रक्षकोंने वारिपेण को चोर सममा और उसी समय उसकी श्रेणिकको खबर की । तत्काल श्रावेशमें आकर श्रेणिकने उसका शिरश्छेद करने की माझा देदी । आशानुसार रखकाने भी जाकर उसपर जितने भी अस्त्र शस्त्र चलाये सभी व्यर्थ होगये। उन्टे बेसन वारिषेण के ध्यान से प्रमुदित नगरदेवनाके प्रसादसे फूल माल होगये । इस बातकी भी खबर जब ऋषिक पर पहुंची तब वह वहां स्वयं आया । और उसने वारिपेण से क्षमा मांगी। इसी समय मृगवेग प्रकट हुआ और उसने अभयदान मांगकर सब वृत्तांत कहा । तदनन्तर श्रेणिक द्वारा घर चलने केलिये पुन: प्राथना करने पर भी वारिपेण धर को न जाकर सूरदेव प्राचार्य के पास दीक्षित होकर तप करने लगे। कुछ दिन बाद वारिपण राजगृहके निकटवती पलास कूट ग्राममें आहार करके शाण्डिल्यायन के घरकं सामने से निकल जो कि श्रेणिक महाराजका अमात्य था । इसकी धर्मपत्नी का नाम पुष्पवती और पुत्रका नाम पुष्पदन्त था । पुष्पदन्त वारिषणका लंगोटिया मित्र था । उसका अभी विवाह हुआ था । कारिपेणको सामने से जाते देखकर पुष्पदन्तने जिसके कि हाथ में अभी विवाहका कंकण बंधा हुआ था, नमस्कार किया । वारिपेण उसका हाथ पकड़े हुए आगे चलने लगे पुष्पदन्त अनेक तरह के संकाच पड़गया। वापिस जाने कैलिये मुझे ये बाझा देदें और हाथ छोड़ दें तो अच्छा हो इसके लिये उसने कई तरहके संकेत भी किये परन्तु वारिपेण ने उसको न छोड़ा । बात करते२ गुरुदेवके पास पहुंचकर वारिपेणने कहा-~~भदन्त ! यह मेरा मित्र है और स्वभात्रसेही भयभीरु एवं विरक्तचित्त है, दीक्षायें आपके पादमूल में पाया है। यह कहकर केशलु'चन आदि करादिया। पुपए ने भी यह गोचकर कि "कभी अवसर पाकर चला जाऊगां अभी तो इनकी बात रखदो।" वारिसका उपरोध स्वीकार करलिया । भोर सायमें मुनि होकर रहनेलगा।
ऊपर के कपन से यह तो स्पष्ट ही है कि पुष्पदन्त वास्तव में या भाषपूर्वक मुनि नही हुआ था। फिर भी वह सरलवुद्धि था और वारिषेण के प्रभावमें रहनेसे संगमें रहकर बाहरके मुनिक समान ही सब क्रियाएं किया करता था । अतएव वह प्रतिक्षण अपनी नवपरिणीता पत्नीका ही जिसका कि नाम मुदती था स्मरण किया करता था । अथिक क्या, सामायिक के समय भी वह उसीका ध्यान किया करता था।
इसीतरह अब बारह वर्ष निकल गये एक दिन प्राचार्य परदेष ने राजगृह नगरमें मानेपर
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इलाकरगडाधकाचार अपना और वारिषेणका उपवास रहने के कारण केवल पुष्पदन्त को ही अाहारार्थ नगर में जानेकी माना दी। पुष्पदन्नने मोचा---ग्राज इतने दिन बाद बडे भाग्यसे पिंजड़े का दरवाजा खुला है। और इसीलिए उसने जगदी २ जाने की तयारी की कितु उसीसमय वारिपेणने उसकी चेष्टासे यह समझकरके कि अभी भी यह दीक्षा छोडकर पर भाग जानेको उत्सुक है, कहा -पुष्पदन्त ! ठहरो, मैं भी चलता है। और वे भी माथ हो लिए। दोनों वेलिनी के घर पहुंचे; चेलिनीने भित्रके साथ पुत्रको आता देखकर कुछ संदेहवरा परीक्षा के लिए दो श्रासन उपस्थित किये, एक सराग और इसरा वीतराग । बारिषेण दूसरे पर और पुष्पदन्त पहलेपर बैठे। बारिषेणने कहा- मा! अपनी मर बहुओंको तो बुलाओ। भाज्ञानुसार समां बहुए. उपस्थित हुई। पुष्पदन्त ने भी देखा समी एकसे एक अधिक सुन्दर और स्या, देशांगना मी जिनके सामने फीकी मालूम पड़ती हैं, जिनमें नवयौवन का क्सन खिल रहा है, सुगंधित रमजारत वरवालंकारसे सुसज्जित है । अब बारिश ने कहा- मा! अब हमारी भाभी सुदती को बुलाओ। थोडीही देर में वह भी उपस्थित हुई। पुष्पदन्तन उसको भी देखा । मानो हिमसे दग्ध कमलिनी है। सब प्रांगोपांग कृश और रूखे । हिरमिधिकी रंगी भोती मानो साचात् संध्या ही है, अत्यन्त दीन पोधर मानो शरन के मेघ ही हो, केशपाश की जगह देखनेसे मालूम होता मानो तपोलदमी ही है। केवल इङडियों का पंजर मानो कंकाल ही है। ऐसा मालूम हुआ मानो सामने मूर्तिमान होकर वैराग्य ही उपस्थित हुआ है। .
धारिषेण पुष्पदन्त से बोला, "मित्र ! आपसी यही वह प्रणयिनी है जिसके कारण अभी सकभी आपका मन मुनि नहीं हो रहा है। और यह अापकी सव भोजाई है। और यह सारा वैभव धन सम्मसि कुटुम्ब सेवक एवं महाभाएडालक पदका यौवराज्य है और में भी भापके सामने उपस्थित हूं जो इन सबको स्वयं छोडकर दीक्षित हुआ हूँ" पुष्पदन्त लज्जित हया और विषय सुखोंमें ग्लानियुक्त होकर बोला-मित्र ! सना करें, भार तो यहां बैठना भी अच्छा नहीं लगता । मैं इदय से विरत होकर अत्र भायमुनि बनता हूं। दोनों ही चेलिनी का अभिनन्दन करके गुरुपाद में जाकर निचल्य हो तप करन लगे। अतएव कहा है किसुदतिसंगमासक्तं पुष्पदन्ततपस्विनम् । वारिषेणः कृतप्राणः स्थापयामास संयमे ।
विष्णुकुमार अबन्ती देश में विशाला नामकी नगरी का जयबर्मा नामका राजा था । जिसकीकि पटरानी कानाम प्रभावती था। उसके चार मंत्री थे-शुक्र पहस्पति प्रल्हाद और पलि । एक दिन राजावा मंत्रियों के साथ महल के ऊपर बैठा हुमा नगरी की स्थिति देख रहा था कि उसे समस्त शास्त्राम प्रवीण महान ऋद्धिधारी सातसों मुनियों के संव सहित इसी नगर के बाहर सर्वचनानन्दन नाम के उद्यान में आकर ठहरे हुए परम तपस्वी अकम्पनाचार्य के चरणों की अर्चा करने के लिए खा सामग्री लेकर जाता हुआ होत्फुख लोकसमूह दिखाई पडा । जयवर्माने पूछा-यह अस.
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बौद्रिका टीका उन्नीसवा बोमना नाक मय में उधानकी तरफ लोग क्यों जा रहे हैं ? इसी समय वनपालने आकर सूचना दी कि हे देवा नगरके उपवन में प्रकम्पन नामके प्राचार्य संघसहित आये हैं। जिनके प्रसादसे सभी ऋतु के पच फल फुलसे युक्त हो गये हैं और उन सब ऋतुभोंके फल फूल सामने रखते हुए बोलाहे नाथ ! सम्पूर्ण नगर उनके दर्शन के लिए उत्साहित हो रहा है । यह वनदेवता भापके दर्शन के लिए मी उत्सुक है। राजाने यह सूचना पाकर जानेका विचार करके बली से पूछा। परन्तु बलि आदि चारोंही मंत्रियोंने इसका विरोध किया । बलिद्वारा की गई अपने पांडित्य की प्रशंसा सुनकर राजाने सोचा-यदि यही बात है तो शूर और कायर की परीक्षा रखमें हो जायगी और मना के लिए बनेकी हमादी की । सथाम्थान पहुंचकर पर विजयशेखर हाथीसे उतरा और आर्य वेशमें अपने प्राप्त और परिवार के साथ क्रमसे अम्मनाचार्य के पास पहुंचकर उनका यथायोग्य उसने अभिनन्दन किया। सथा उचित स्थान और आसनपर बैठकर विनयपूर्वक वर्ग मोष सम्बन्धी चर्चा की और उनका उपदेश सुना । ___ प्राचार्य महाराज के उपदेशमें स्वर्ग मोक्षका प्रसंग मासेही वतिने पूछा- स्वामिन् ! स्वर्गमोत के अस्तित्व के सम्बन्ध में आपके पास कोई प्रमाण भी है ? या केवल आग्रह ही है। जब यह स्पष्ट है कि नवीन क्य सुन्दर स्त्रियां और भोगोपभोगके योग्य सामग्री ही स्वर्ग है, सब इस प्रत्यक्ष सिद्ध विषयको न मानकर प्रमाणसे प्रसिद्ध स्वर्गादिककी केवल कल्पनाकर उसको मानना दुराग्रह ही कहा जा सकता है।
बलिको उद्धत देखकर मी अकम्पन श्री अकम्पनाचायने पूछा- प्रमाण क्या केवल प्रत्यक्ष ही है ? उत्तरमें बलिके यह कहनेपर कि "इसमें क्या संदेह है ? प्रत्यक्ष ही एक प्रमाण है जिससे सम्पूर्ण विषयों की सिद्धि हो सकती है और मानी जा सकती है।" प्राचार्य महाराज बोले
अच्छा, ऐसाही है तो आपके माता पिताके विवाह के अस्तित्वमें क्या प्रमाण है ? और अपने वंशके पूर्व पुरुषोंके अवस्थानको क्योंकर मानते हैं ? क्योंकि ये अमेय विषय आपके प्रत्यक्ष इन्द्रियगोचर तो नही हैं। आप यदि अन्य प्रामाणिक पुरुषोंके कथन का आश्रय लेंगे तो आपका पच खंडित हो जायगा और परमतकी स्वीकृति सिद्ध होगी।
इसपर बलि निरुत्तर होगया। उस समय उसकी अवस्था ठीक "उभयतः पाशरज्जुः" की कहावतके अनुसार इसतरह की हो गई कि 'एक तरफ नदीका भर्यकर पूर और दूसरी तरफ भदोन्मत हस्ती ।" सभाके हृदयका आकर्षक एवं संतोषजनक उत्सर न पाकर बलिने निरगल असभ्यशब्दर्भित बोलना शुरू किया।
इसी समय राजाने मनुतुओं के समक्ष अशिक्षित जैसे वचन बोलनेवाले बलिसे, हृदयमें याथात्म्यको समझलेने पर भी सर्वसाधारण के सामने मन्त्री की प्रतिष्ठाका भंग न हो इसीलिये कुछ भी न कहकर प्राचार्य महाराज से कहा___ भगवन् ! जिनको पर्याप्त ववज्ञान नहीं है, जिनकी चिपचि महान मोह से अन्धी है, जो
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समीचीन धर्मका धंस करनेवाले हैं वे स्वभावसे ही मेरुके समान स्थिर गुणगुरुओंपर दुरपवाद का प्रहार करने के सिवाय और करभी क्या सकते हैं ? यह कहकर और अन्य कथा करके विनयपूर्वक आज्ञा लेकर कहासे अपने घर आगया। किंतु इसके बाद अन्य अपराध को निमित्त लेकर अलिको अवज्ञापूर्वक अपने राज्य से निकाल दिया।
चारों ही मन्त्री यहां से निकलकर कुरुलंगल देशक हस्तिनागपुरमें पहुंचे। इन दिनों वहाँ के राजा महाभद्र अपने बड़े पुत्र पक्ष को राज्य देकर छोटे पुत्र विष्णुकुमार के साथ दीक्षा थारण कर तपोवनको चले गये थे । अतएव पम ही राज्य चला रहा था। चलि सादिक चारों ही उसके मन्त्री बनगये। एक समय बलि, कुम्भपुरके राजा सिंहकीतिको जिसको कि वश करने के लिए पम चिंतित रहा करता था, छलपूर्वक बांध लाया और उसे उसने पत्र के सामने उपस्थित किया। पद्मने प्रसन्न होकर पलिसे यथेच्छ वर मांगने को कहा परन्तु पालने कहा-'देव ! मुझे जब
आवश्यकता हो तव मैं यथेच्छ वर मांग सकू, कृपया यह स्वीकार करें । पम ने यह स्वीकार कर लिया कुछ दिन बाद अकम्पनाचार्य संघसहित हस्तिनापुर पहुंचे । बलि आदिको जब यह बात मालुम हुई तब उन्होंने यह सोचा कि अब यहां भी हम लोगोंका अपमान न हो, इसके लिये उचित उपाय करना चाहिये । फलतः पलिने उक्त वरके बदलेमें राजा पबसे कुछ दिनके लिये राज्यका सर्वाधिकार प्राप्त कर लिया और जहां संघ ठहरा था वहां और उसके चारोंतरफ मुनियों
-यह कथासार हमने यशस्तिलक के छठे अाश्वास में अणित कथाक श्राधारपर दिया है। किंतु रत्ना करएड की प्रभाचन्द्रीय टीकामें जो कथा है उसमें इस प्रकरण का उल्लंख दूसरी तरह से दिया है। उसमें बताया है कि "राजा मन्त्री श्रादिक भानसे पहले ही अकम्पनाचार्य संघको आदेश लिया था कि राजा आदिके आनेपर किसीसे भीभाषण नहीं करना। तदनुसार राजा मन्त्री श्रादिका आशीर्वाद नही दिया । फलतः सब वापिस लौट गये। मार्ग में राजास मन्त्री बलि कहता जा रहा था कि ये सब मूर्ख हैं इसी लिये इम्भसे मौन धारण कर बैठे हैं । इसीसमय सामनेसे श्रुतसागर नामके मुनिको आसा हुआ देखा जो कि नगर से आहार करके आरहे थे और जिन्होंने कि आचार्य महाराजकी आमा सुनी नहीं थी। संघ आज्ञा प्रसारित होनेसे पहले ही वे चर्याक लिये नगरको चले गये थे । उनको देखकर बाल बौना वेखो यह भी एक कुर्तिभरी बैल सामनेसे रहा है। यहीपर दोनों का--श्रुगसागर और वालका शास्त्रार्थ हुआ जिसमें किं स्याद्वाद के बलपर श्रुतसागर की विजय हुई और बाल पराजित हुआ। यह सब राजाके सामने ही हुआ। श्रुतसागरने आकर जब आचार्य महाराजसे सब वृत्तांत कहा तो सम्पूर्ण सघ पर भापति न आ सके इसके लिये काचायने श्रुतसागरको आज्ञा दीक जहां शास्त्रार्थ किया था वहा जा कर गत भर भ्यानस्थ होकर खडे रहो। श्रुतारने यहाँ किया। उधर अतिजित होने कोष मान से अन्धे हुए चारोही मन्त्री हाथ में खबग लकर संघका वध करने को रात्री में आरह थे कि मीच में ही श्रुतसागर उन्हे खडे दिखाई दिये। उन्होंने सोचा कि हमारे अपमानका मूल निमित्तभूत यही सबसे पहले प्रकला यहाँ मिल गया, अच्छा ही हुश्रा। यह सोचकर चारोनेही एक साथ भुतसागर पर स्वा का प्रहार किया । किंतु उसी समय नगर देवठाने उनको कील दिशामातःकाल दर्शनाथ आनवालाने तथा अन्य लोगोंने यह दृश्य देखा राजापर समाचार गया। उसन इनको गंधपर चढ़ाकर राज्यस निकाल दिया। वहां स चलकर इस्तिनागपुर के राजा पलके ये चारोही मन्त्री बन गये। " इसतरह प्रभायन्द्रीय टीका म शास्त्राधेका ओर उसमें पराजय जनित अपमानका वडला लेने की प्रवृति का सीधा सम्बन्ध भकरपनाचार्ग से न बताकर श्रुतसागर से पताया गया है। तथा यरास्तिलक में वध करने के लिये मन्त्रीयों के जानेका शातका भी उझेख नहीं है।
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चंद्रिका टीका उन्नीसवां धीमा श्लोक पर घोर उपसर्ग करनेके अभिप्रायसे बनुन र यच समाविर" । और लाहें अनेक तरह कष्ट देने लगा। किंतु मुनिजन उपसर्ग निवृत्त होने तक के लिये ध्यानसमाधिमें स्थित हो गये।।
उधर मिथिलामें जिष्णु सूरीके शिष्य प्राजिष्णुने रात्रिके समय प्राकाराकी तरफ देखा कि श्रवण नक्षत्र कंप रहा है । इसपरसे एकाएक उनके एहसे निकला कि "हा, कहीं मुनिसंघपर महान् आपत्ति आ रही हैं" । संवपतिने यह सुनकर अवधिज्ञानस हस्तिनापुरमें होरहे उपसर्गको जानकर आकाशमार्गसे जाने में समर्थ पुष्पकदेव झुलाकको पुलस्कर कहा कि अभी विष्णुकुमारमुनि के पास जाकर कहो कि वे इस उपसर्गका निवारण करें। उनको विक्रिया ऋद्धि सिद्ध होगई है। उसके द्वारा वे विधाका यथेष्ट शीघ्र निवारण कर सकते हैं । आज्ञानुसार कुलकने उसी समय विष्णुकुमारसे जाकर पव प्रतान्त कहा । महामुनि विष्णुकुमारने पहले अपनी विक्रिया शुद्धिकी परीक्षा की। फिर हस्तिनापुर पहुँचकर राजा पयसे इस उपसर्ग निवारणकलिम कहा । किंतु उसकी असमर्थना और यह जानकर कि इस समय बलि ही राजा है वामनरूप धारण कर मधुर स्वरमें वेदका उच्चारण करते हुए बलिके यज्ञस्थानपर पहुँचे ।
बलिने वेदध्वनि आदिसे प्रसन्न होकर यथेच्छ वर मांगनेकलिये कहा। उन्होंने तीन पैर जमीन मांगी। लिने शुक्रके द्वारा मनाई करनेपर भी तीन पैंड जमीनका संकल्प कर दिया । विष्णु कुमारने शरीर बहाकर ऐक पैर समुद्रकी वेदिकापर और दूसरा पैर चक्रचाल पर्वतपर रक्खा। तीसरेमें बलिको बांध लिया । अन्तमें पुनियोंका उपसर्ग दूर कर विष्णुकुमार पुनः अपने संयमाचारमें पूर्ववत् प्रवृत्त होगये । अतएव कहाजाता है किमहापमसुनो विष्णु नीनां हस्तिने पुरे । बलि द्विजकृतं विद्म शमयामास बत्सलः॥
बजकुमार। पांचालदेशमें अहिच्छत्र नामक नगरका राजा द्विषनप जिसकी रानीका नाम चन्द्रानना था। इस राजाका सोमदत्त नामका पुरोहित था और उसकी स्वीका नाम यबदत्ता था। यबदचाको एक समय दोहला हुआ जिसके कि कारण वह चिन्तित म्लानमुख एवं कृश रहने लगी। पतिके आग्रहपूर्वक पूछनपर उसने कहा कि मेरी इच्छा आम खानेकी है। सोमदत्तने सोचा कि यह आम की ऋतु नही है। फिर इसका मनोरथ किसप्रकार सफल किया जाय ? जंगल में जाकर देखना चाहिये, संभव है कहीं मिल जाय । ऐसा विचार करके एक विद्यार्थीको साथ लेकर वह प्राम हुनेको निकला । भाग्यकी बात है कि पासमें ही जलवाहिनी नदी किनारं कालिदास नामक बनमें भामके वृक्षक नीचे सुमित्र नामक एक महामुनिराज आकर विराजमान थे जिनके कि अतिशयके कारण वह आमका वृक्ष असमय में ही फलोंसे शोभायमान होरहा था। पुरोहितने उसपर से फल तोडकर विद्यार्थीके हाथ अपनी स्त्री के पास भेज दिये और स्वयं मुनिराजसे धर्मोपदेश सुनने लगा। और उसने मवान्सरका वर्णन आदि सुनकर संसारसे विरक्त हो उसी समय दंगम्बरी दीचा पारण करती । सिद्धान्तशालके रहस्वसे प्रभुद्ध हुए वे सोमदत्त महानि मगथदेशमें नामगिस्पर
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र मापकाचार आतापन योग धारण करके खड़े थे कि इसी समय यादया अपने सद्योजात पुनको लेकर भाई और बोली कि या तो दीक्षाको छोड़कर घर चल, नही तो अपने इस पुत्रको भी संभाल । उपसमैके कारमा मौनस्थ मनिराजसे कुछ भी उत्तर न पाकर वह पत्रको उसी उष्ण शिलापर उनके सामने ही पटककर क्रोबसे बडबडाती हुई यथास्थान चली गई। इसी समय विजयार्थपर्वतकी उत्तरश्रेणीके श्रमरावती नगरका स्वामी भास्करदेवनामका विद्याधर जिसके कि राज्यको छोटे माई पुरंदरदेवने हलुप लिया था, अपनी मसिमाला नामकी पटरानीके साथ उपर्युक्त मुनिराजकी वन्दना के लिये वहां प्राया । उसने पाश्चर्य के साथ देखा कि रालक उष्णशिलापर सानन्द खेल रहा है उसका शरीर कमलसे भी अधिक कोमल होकर भी मानी बजटिन है। तत्काल उसको उठाया और मशिमालासे गोला--प्रिये बहुत दिनसे तुम पुत्रको इच्छा कर रही थी अाज सौभाग्पी बात है कि भगवानके पाद प्रसादसे यह सर्वलक्षणसंपन पुत्र प्राप्त हुआ है। यही मेरे वंशकी लता को सफल करनेवाला है । इस अपूर्व युष्पको जिसका नाम बजकुमार है, लो और मंभालो । यह कहकर पुत्र उमको दिया । मुनिराजका उपमर्ग दूर हुआ ! दोननि उनकी बन्दना की और उन्हींसे बजकुमारका भी सब धृत्तान्त जानकर यथास्थान प्रयाण किया।
राजकुमार यौवनको पाकर न केवल शरीर ही से मुन्दर बना किंतु माइपक्ष और पितृपक्ष की अनेक विद्याओं का स्वामी बननेक सिवाय अपने मामा सुवाक्यमूर्तिकी कन्या इन्दुमतीका मी परिणयन कर स्वामी बना । एक समय वह वनकुमार अनेक विद्याधर पुत्रों के साथ हिमवानपर्वत पर क्रीडा करनेकेलिये गया। वापर गरुडवेग विद्याधर की पुत्री पवनबंगा बहुरूपिणी विद्या सिद्ध कररही थी । विधान विप्न उपस्थित करनेकेलिये अजगर का रूप रखकर उसको निगला कि उसी समय अकस्मात् आ उपस्थित हुए बजकुमारने केवल परोपकार बुद्धिस गारुडविद्याके द्वारा उसका यह उपसर्ग दूर करदिया जिससे उसकी वह विद्या उसी समय सिद्ध होगई। पवनवेगाने अपने मन में इस परोपकारी बज्रकुमारको ही जीवनका साथी बनाने का निश्चय करके प्रज्ञप्ति नामकी विद्यादी
और यह कह करके कि आपको विद्या इसी हिमवान्न पर्वतकी तलहटीमें नदीके किनारे माता.. पन योग धारण करके सड़े दूए घोर तपस्वी संयी भगवान् के तपःप्रभावसे उनके चरणकमलके निकट बैठकर केवल पाठ करनेसे ही सिद्ध होजायगी, अपचे नगरको चली गई । राजकुमारने भी उसी प्रकार फेनमालिनी नदीके किनारे उक्त भगवान्के समक्ष उस विद्याको सिद्ध करके अपने चाचा पुरंबर देवसे राज्य वापिस लेकर पिता भास्करदेवको उसपर प्रतिष्ठित किया और उन्हें अनेक विद्याधरीद्वारा सेव्य बनाया । तदनन्तर स्वयंवर में उक्त पवनवेगा भादि अनेक विद्याधर कन्याओंका रण किया ।
एक समय कुछ दृष्टवुद्धि व्यक्तियों के व्यवहारसे बजकुमारको मालुम हुआ कि वास्तवमें में भास्करदेवका पुत्र नहीं हैं। उसने सत्य घटना जबतक मालुम न हो तबतककेलिये आहारादिका परित्याग कर दिया। फलतः मातापिताके साय उक्त सोमदच भगवानके पास मथुरामें जाकर
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चंद्रिका टाका उमासवां सोमवा श्लाक. . मर बातका निश्चय होनेपर उन्हीं तोमदत्ताचार्य के पास जनरपरी दीचा धारण करली !
एक समय की बात है कि चारणऋद्धि थारी दो मुनि जिनमें बडे का नाम अमिनन्दन और छोटे का नाम सुनन्दन था मथुरामें गोचरीकेलिये आये थे। वे मार्ग से जा रहे थे कि दो सीन वर्षकी बाजारमें घूमती हुई एक अनाथ मलिन लड़की को देखकर मुनन्दनने कहा, "हा ! प्राणियांक लिये कर्मका विपाक कितना दर्दर्श है, इस लड़की को इस अवस्थामें ही कितना क्लेश उठाना पडरहा है," यह सुनकर अभिनन्दन भगवान् बोले "हे मुन ! यद्यपि गममें आते ही राजश्रेष्ठ पिताके, तथा प्रसूतिके बाद ही माताके और पालन पोषण करने वाले बन्धुओं के भी असमयमै ही दशमी दशा को प्राप्त होजाने के कारण यह ऋन्या इस समय कष्ट अनुभव कर रही है किन्तु यही यौवन में प्रान्नेपर यहां के राजाकी पड़ रानी होनेवाली है" यह पचन नगर भिक्षाक लिये पाये हुए एक बौद्ध साधुने सुना और यह विचार करके कि "इन मुनियोंका वचन मिथ्या नहीं हो सकता" अपना प्रयोजन सिद्ध करने केलिये उस कन्याको अपने विहारमें लेजाकर रक्खा
और उसका अच्छी तरह पालन पोषण किया। लोग उसको बुद्धदामी कहने लगे और यही उसका नाम पड़गया । यौवनको पाकर बुद्धदासीका सौन्दर्य निसरगया और आकर्षक एवं मनोहर बनगरा। ऐसे ही समय में एक दिन नगरके पूतिक नामक राजा की निगाह उसपर पडी। उसने ना प्रतिनिधि हार सशामरामा कि वह कन्या है या विवाहित कन्या होतो माधुओं से किसी भी तरह उसे प्राप्त करने के लिये प्रयत्न करने का भी प्रादेश दिया। प्रतिनिधि ने उसे मुख्य पट्टरानी बनाने की शर्तपर साधुनास प्राप्त किया और राजाके अधीन करदिया । राजा पूटिककी प्रथम मुख्य परानी उविलाकी तरफसे हमेशा ही आष्टान्हिक्के दिनों में श्री जिनेन्द्र भगवान् का जो महान् उत्सबके साथ रथ निकला करता था उस को रोक कर उसके बदले बद्ध देवका रथ निकालने की बुरदासी की इच्छा हुई, इसलिये उसने उत्सब के सब उपकरण राजासे स्वयं पहलेही प्राप्त करलिये | उर्मिलाको यह धार्मिक विरोध और अपमान सह्य न हुआ । वह उसी समय भीमदत्त भगवान्के निकट गई और पोली-भगवान सदाकी भांति श्री जिनेन्द्र भगवान्का मेरा रथ निकलेगा तो ही अब मैं अन्न ग्रहण करगी अन्यथा नहीं। यह सुनकर सोमदभने बजकुमार की तरफ देखा तो बजकुमार उसी समय रानीसं बोले उहरी २, तुम्हारे जैसी सम्यग्दृष्टि महिलाको अभीसे हनना आवेगमें आनेका श्रावश्यकता नहीं है। आप हमारी धर्ममाता हैं विश्वास रक्खो-मेरे जैसे पुत्रके रहते हुए श्रीअरिहंत भगवान की पूजामें विध उपस्थित नहीं हो सकेगा। अतएव स्वस्थ रहो ओर सदाकी तरह काम करो।
इस तरह पारवासन देकर वजकुमारने महारानी उर्विलाको विदा किया और स्वयं श्राकाशमार्गसे विजयार्थको प्रयास किया। वहां जाकर भास्कर व आदि विद्याधरोंको सब परिस्थिति समझाकर यह कार्य अच्छी तरह सम्पन्न करनेकेलिये तयार किया। फलतः सभी विद्याधर अपनीर सेना बन्धु पान्थय, परिवार, पूजा सामिग्री, रथयात्राके योग्य सभी तरहके उप
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रत्नकरण्ड श्रावकाचार
करण, प्रातिहार्य, मंगलद्रव्य, गायन वादन नर्तन करनेवाले ध्वजा पताका मानस्तम्भ स्तूप तीर चंदोबा अनेक तरहके हाथी घोडे आदिसे चलनेवाले रथ, जयवाद करनेवाले घंटा भेदी भंभापटह मृदंग काहला तुर्रा शंख त्रिवली आदि बाजे इत्यादि सभी साधनों के साथ, जबकि अनेकों सुन्दरियां नृत्य कर रही हैं वन्दिजन गान कर रहे हैं, दूसरे नियोगी जन भी अपने २ कार्य में उत्साह से संलग्न हैं कोई गारहा है, कोई विनोद कर रहा है कोई नाना रूप धारण कर कौतुक पैदा कर रहा है, इसतरह परन उत्साह के साथ आकाश मार्ग से चले और मथुरा आये ।
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ऊपर माकाशसे आते हुए इस दृश्यको देखकर मथुरा के लोगोने समझा कि मुद्दासीके द्वारा होनेवाले बुद्ध रथविहारका यह प्रभाव है कि उसको देखने और उसमें सम्मिलित होन केलिये स्वर्ग देवगण आरहे हैं । किंतु जब सभी विद्याधरोंका समूह उचिला रथमें सम्मिलित हुआ और उसका रथ सबसे प्रथम महान् विभूतिके साथ निकला तो लोग आश्यक होगये और वृद्धदासी पर भी दासीसरीखी उदासी गई तथा वह भग्नमनोरथ होगई । रथयात्रा के अन्त में अस्प्रतिविम्याङ्कित एक महान स्तूप स्थापित किया गया जिसके कि कारण अभी भी मधुराकी देवनगरी कहा जाता है ।
इस तरह
विलाया महादेव्याः पूर्तिकस्य महाभुजः । स्यन्दनं भ्रामयामास मुनिर्वज्रकुमारकः ॥ तात्पर्य - यह कि इन दो कारिकाओं में सम्यग्दर्शनके आठ अंग प्रत्येक अंग प्रसिद्ध हुए एक २ व्यक्तिका उदाहरण देकर श्राचार्यने तचत् अंगका रूप और प्रयोजन स्पष्ट कर दिया है । यद्यपि प्रत्येक अंगका स्वरूप या लक्षण भिन्न २ कारिका के द्वारा बताया जा चुका है फिर भी उसका पालन किस तरह किया जाता है और उस तरह पालन करनेका फल किस तरहका प्राप्त हुआ करता है यह बात उदाहरणीय व्यक्तियोंकी कथाओं के पढनेसे स्पष्ट होजाता है ।
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प्रत्येक अंग विषय दोनों ही विषयोंको स्पष्ट करनेलिये आचार्यने उदाहरणरूप में जिन पात्रोंका चुना है उनकी विशेषता ध्यान देने योग्य है। प्राठ उदाहरणोंमें दो स्त्री पात्र हैं और शेष छः पुरुष हैं। यह कहनेकी आवश्यकता नहीं है कि पुरुषों की अपेक्षा स्त्रियोंमें कांचा और मूढताका भाव अधिक प्रमाणमें पाया जाता है। किंतु आचार्यने निःकांक्षित अंगमें अनन्तमति को चुना है । अनन्तमतिकी विशेषता उसकी कथासे स्पष्ट हैं । क्रीडाप्रियजीवनके होते हुए उपहासमात्रमें गुरुसा दीसे एकवार लिये हुए ब्रह्मव्रतका यौवन और धनसम्पति आदिके यथेष्ट रहने पर भी विवाहको अस्वीकार कर भोगोंके प्रति निःकक्षिता प्रकट करके पालन करती हैं, और अपने उस दृढव्रतमें एकान्त स्थल तथा सब तरहके प्रार्थयिताओंके मिलनेपर १ मी अतिचार लगाने की तो बात ही क्या अतिक्रमय भी नहीं होने दिया अन्तमें भी पिताद्वारा दिवाहकी कीगई १- रहो नास्ति क्षणं नास्ति नास्ति प्रार्थयिता नरः तेन नारद! नारीणां सतीत्वमुपजायतं ॥ इतिलोकोक्ति । २- अत्तिको मानसशुद्धिहानितिक्रमो यो विषयाभिलाषः । तचाभिचारः करमालसत्यम्, भंगोशनाचार विभवानाम् ।।
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चंद्रिका टीका उन्नीस बीसवां क
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तयारीको विनयके साथ ठुकराकर श्रर्थिका होकर सहस्रारस्वर्ग में देव होती है। उसके देव होने से मालुम होता है कि उसने स्त्रीलिंगका उच्छेद किया है और कुछ ही में उसकी भवसंतति का भी उच्छेद होजायगा ।
इसीतरह रेवती रानीके विषय में भी समझना चाहिये । भोलेपन में स्त्रियों का स्वभाव प्रसिद्ध हैं किंतु रेवती ज्ञान और विज्ञानकी महता श्रादर्श रही है। सारी प्रजा और राजाके भी कल्पित चमत्कार के मकर में श्राजानेपर तथा राजामन्त्री आदि के समझानेपर भी ज्ञात सम्यक्तस्वकी प्रती तिसे वह रंचमात्र भी विचलित नहीं होती ।
उसके विज्ञान की आदर्श महत्ता इसी से स्पष्ट है कि जब वहीं चुल्लक आहारार्थ रेवती यहां परीचणके लिये आता है तो वह अपने इस गुणमें आदर्श संतों द्वारा प्रशंसनीय उत्तीर्णता प्राप्त कर लेती हैं।
पुरुष पात्रों में सबसे पहला अंजन चोर है । यह प्रसिद्ध है कि चोर स्वभावसे ही शंकाशील हुआ करता है फिर भी निःशंका आदर्श रही है। वह सोचता है कि जिनदत्त सेठ सम्यग्दृष्टि व्रती हैं, वह अन्यथा नहीं बोल सकता | उसका वह निःशंक श्रद्धान और क्षत्रपुत्रोचित साहस उसे सिद्धि प्राप्त करादेता हैं। इस कथा में माली के लड़केको कायरता और ललित की वीरता सज्जातीय गुणका विश्लेषण करदेती हैं ! जो कि परमनिःश्रेयसपदकी सिद्धि का एक बाह्य किन्तु श्रावश्यक साधन हैं ।
उद्दायन, राजा होकर भी ग्लान मुनि की अपने हाथसे परिचर्या करके और अपने ऊपर वमन करदेने पर भी अज्ञान भाव से संभावित अपने दोषदर्शन द्वारा गुरूपास्तिका उदाहरण बन जाता है जो इस बात की शिक्षादेता है कि सम्यग्दृष्टि जीव रasarees परमतपत्रियोंकी उपासना आदि में किस तरह निर्विचिकित्स रहा करता है। श्रुत और अवधिनेत्र के द्वारा सम्पूर्ण जगत् के व्यवहार को जानन और देखनेवाला धमरेश्वर जिसके rest air at और फिर देवों द्वारा की गई परीक्षामें उसी प्रकार जो सोचका सिद्ध हो उसको विवक्षित गुण में आदर्श और उदाहरणीय क्यों न माना जाय ?
बनिया बुद्धिका कोई भी व्यक्ति अपनी असाधारण एवं सर्वाधिक प्रिय विभूति की देखरेख का काम किसी भी नवीन आये हुए अपरीक्षित व्यक्तिपर सहसा विश्वास करके नहीं छोड़ सकता । किन्तु जिमन्द्रभक्त व्यापारी वैश्य होकर भी वैसा करता है । केवल इसलिये किं उस ब्रह्मवेशी क्षुल्लक विषय दृढ विश्वास है कि यह देशयति हैं, इनपर शंकाका कोई कारण नहीं हैं। विश्वासघात होसकनेकी कल्पना भी उसे नहीं होती । और जब मालुम होता है कि में धीमें श्रागया तो सामान्यतया उसवेशपर अविश्वास न करके चुलकांशी चोरका वैयक्तिक अपराध समझकर उसे इसतरहसे युक्तिपूर्वक भगादेता हैं जिससे कि सर्वसाधारणको
१- समीचीन धर्म के और उसके भारकोंके प्रति उसकी निःशक आस्तिकताका इससे पता लगता हूं। २- प्रतीति साथ २ कार्य करनेकी असाधारण रडता ।
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रत्नकरण्डीवकाचार
धर्म सामान्यरूपमें किसी तरहका अविश्वास या उपहास करनेका भाव जागृत न हो सके। जिनेन्द्र भक्त व्यवहारसे इस बातकी शिक्षा मिलती है कि सम्यग्दृष्टिको किस तरहसे धर्म की रक्षाके लिये प्रसङ्ग पडनेपर दूरदर्शिता एवं विवेक से काम लेना चाहिये ।
वारका और अपने मित्रके वास्तविक उद्धारकै लिये किया गया सतत सत्प्रयत्न आदर्श है।
विष्णुकुमार ऋद्विवारी महान मुनि होकर भी सर्माओं और सद्र्धा के रक्षण के लिये वात्सम्यवश पंचम गुणस्थान में आकर श्रृद्धिका सदुपयोग करते हैं। यह त सम्यग्दृष्टियोंके इस कर्तव्यपर प्रकाश डालता है कि वे धर्मानुरागसे आवश्यकता पड़ने पर किसतरह अपने सर्वस्वका भी परित्याग कर दिया करते हैं ।
वज्रकुमारने जैनधर्म की महिमाको कम न होनेदेकेर अपने विद्यातिशयके द्वारा उसके प्रभावको उद्दीप्त कर दिया। यह दृष्टांत इस बातका बोध कराता है कि सम्यग्दृष्टि जीव दूसरे के काबिलेमें जैनधर्म की महत्ताको किस तरह प्रकाशित करनेमें प्रयत्नशील हुआ करता है और इसके लिये दान तप जिनपूजा विद्यातिशय अदिका उपयोग किया करता है।
इस तरह सम्यग्दर्शन के आठ अंगोंके ये आठ उदाहरण हैं । किन्तु इसीतरहके और २ भी उदाहरण आगमके अनुसार विद्वानों को समझलेने चाहिये। क्योंकि बहुलताको सूचित करने के लिये ही ग्रन्थकारने "गता १: " ऐसा बहुवचनका प्रयोग किया । जैसा कि श्री प्रभाचन्द्राचार्यका र अभिमत है ।
आठ अंगोंके विरुद्ध शंका श्रादिक पाठ दोष हैं। उनका भी स्वरूप आगम के अनुसार उदाहरणों द्वारा समझमें शासकता हैं । यथा धरसेन नामका वह मालीका पुत्र जो कि शंकित मनोवृत्तिके कारण अंजन चोर की तरह विद्यासिद्धिसे वंचित रहा। कहा भी है कि-कल्याणाद् वंचितो जातः शंकाशीलः स मालिकः । मंत्र पंचनमस्कारं साधितुं न शशाक यः ॥ २कांचा मस्करीका नाम लिया जा सकता है जो कि गणधर पद प्राप्त करने की इच्छासे भगवान् महावीर के समवसरण में गया किन्तु गौतमके गणथर बन जाने पर विरोधी होकर " श्रज्ञान" का प्रवर्तक हुआ । अथवा श्रीवृषभदेव भगवान् के पहले के भवोंमें हुए जयवर्माका नाम भी लिया जा सकता है जिसनेकि विद्याधरकी विभूतिको देखकर उसको प्राप्त करने केलिये सनिदान तपश्चरण करके महाबलकी पर्याय प्राप्त की थी । अथवा सभी सनिदान तपश्चरण करने वालों को इस में अन्तभूत किया जा सकता है। इसी प्रकार ४ विचिकित्सा करनेवालों में
१-पद्यपि मुद्रित और प्रसिद्ध पाठ रात" । किन्तु हमारे पासके प्राचीन हस्तलिखित गुटका में "गी की जगह गताः ऐसा सुधारात्या हूँ। तथा प्रभाचन्द्रीय टीका से भी ऐसा ही शुद्ध पाठ मालुम होता है।
२-- "गता" इति बहुवचननिर्देशो दृष्टान्तभूतोत्तात्मक बहुत्वापेक्षया ।
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३- जैसे कि सभी अर्धचक्री जो कि सनिदान तपके प्रभावसे ही उसपदको प्राप्त किया करते हैं । ४ - इसकी कंथा सुगन्यदशमी व्रतकी कथा (श्री जैन व्रतकथा समह - देखक, स्व० दीपचन्द्रजी वर्गों, शक, मूलचन्द किसनदासकापडिया सूरत) में देखना चाहिये ।
प्रका
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चंद्रिका टीका उन्नीमा बीमा लोक मनोरमा रानी आदिका, मूहदृष्टिमें अमृतमतिर प्रादिका, तथा-अनुपगहन अथवा अनुपण आदिमें भी यथायोग्य व्यक्तियों का नाम लिया जा सकता है ।
इस प्रकरण में एक बात और भी ध्यान देने योग्य है । वह यह कि इस ग्रन्थके कार्या भगधान समन्तभद्र महान तार्किक होनेके सिवाय कविवेधार या आदिकविभी मानेजाते ।
उनकी रचना जिसतरह साधारण-युक्तिहीन नहीं मानी जा सकती उसी प्रकार नीरम अथवा 'लंकार भी नहीं समझी जा सकती । यहांपर हम थोडा सा इस बात का भी दिग्दर्मा का देना चाहते हैं।
ग्रन्थकारने सम्पूर्णग्रन्थमें शान्तरसको३ ही मुख्य रक्खा है । किंतु मालुम होता है कि प्रकल आठ उदाहरणभूत व्यक्तियों का नामोल्लेख करकं शेष आठ रसोंके स्वरूपको भी गौणतया परिल. क्षित कर दिया है जो कि नीचे लिखे अनुसार उन कथाओंसे जाने जा सकते हैं१--ग्रंजनचोरकी कथामें वीररस४ | २-अनन्तमतिकी कथामें शृङ्गार । ३-उद्दायनकी कथामें बीभत्स | ४-रेवती की कथामें अद्भुत । ५-जिनेन्द्रभक्तकी कथामें करुण । ६-वारिपेणकी कथामें हास्य । ७-विष्णुकुमारकी कथाम रोद्र। ---वनकुमारकी कथामें भयानक ।
इस विषयमें विस्तारभयसे यहां विशेष नहीं लिखा जा सकता। विद्वान् पाठकों को स्वा घटित करलेना चाहिये । केवल इतना ध्यान रखना चाहिये कि कोई रस प्रकृत नायकके अनुकल है तो कोई प्रतिशलजैसे चीररस अंजन चीरके अनुकूल है। यद्यपि पहले उसका उसने दरुपयोग किया है और पीछे सदुपयोग। किंतु शृङ्गार म अनन्तमनिक प्रतिकूल ही है। क्योंकि शृङ्गारकी सभी साधन सामिनियों और परिस्थिविषोंका उसकै उत्सर कोई प्रभाव नहीं पडसा इस
१- यशोधर महाराज की माता देखो यशस्तिलक जसहरचरिय आदि । २-नमः समन्तभद्राय महते कविवधसे । यहचावमातेन निर्मिन्नाः कुमताद्रयः । आदि पर यहांपर श्लोकके उत्तरार्ध तथा विवधा शब्दपर क्रमसे दृष्टि दना चाहिये। ३-४ शान्तरस आदि सभी रसांका लक्षण क्रमस निम्नलिखित है
मस्यामानसमस्थानः शान्तो निःस्पृहनायकः | रागद्वेषपरित्यागात्सम्यग्नानस्य चोदभवः ।।६।। खत्साहात्मा भवद्वारांखवा धाजिदानतः ।।२१।३ जायापत्योमिथो रत्या चिः श्रृंगार उच्यते ।। अनन पूर्वानुराग एकतरपक्षीयोऽधिगन्तव्यः। तथा धृष्टनायफलक्षण-प्रियं वक्त्यप्रियं तस्याः कुर्वन् यो विकृतः शठः। धृष्टो ज्ञातापराधो पिन विललो अवमानितः ॥१०॥ बीभत्स: स्याज्जुगुप्सात्तः मोद्यावशक्षणान् ॥३१॥ विस्मयात्मानो शेयः स चासंभाव्यवस्तुनः । दर्शनाच्छ्यणाद्वापि प्राणिनामुपजायते ॥४॥शोकोत्थः कमणी शेयत्तत्र भूपातरोदने । वैवस्वोमोहनिदप्रलापाश्रण कीर्तयेत् ॥२मा हासमूलः समाख्यासो हास्पनामा रसा बुधैः । चेष्टांगवेषवैकल्यावाच्यो हास्यस्य चोद्भवः ।।३।। क्रोधात्मको भवेद्रौद्रः क्रोधश्चारिपराभवास् । भीष्मवृतिवेदुनः सामर्षस्तत्र नायकः ||२६भयानको भवेद भौतिप्रकतिपोरवस्खुन । स च प्रायेण वनितानीचबालेषु शस्यते ।।२७il
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का कारण यह भी हो सकता हैं कि वीररस तो शान्तरसका भी साहचर्य करता है परन्तु शृङ्गार वैसा नहीं करता | और प्रन्थ में मुख्यतया शान्तरसकी प्रधानता रखना आवश्यक भी है।
सम्यग्दर्शन के जिन आठ अंगों का वर्णन ऊपर किया गया है और उनके जो उदाहरण दिये गये हैं उसपर से लोगोंको शंका हो सकती है कि संसारोच्छेदन या निर्वाणलाभ के लिये सम्यग्दर्शन तो आवश्यक हैं परन्तु उसके सभी अंग आवश्यक नहीं हैं। आठ अंगों में से एक या कुछ अंग भी यदि हों या रहते हैं तो भी भवविच्छेद हो सकता है। क्योंकि अशरूपमें ही क्यों न हो वह भी तो सम्यग्दर्शन ही है । और मोक्षका मार्ग सम्यग्दर्शनको कहा है, न कि अष्टांग सम्यग्दर्शनको | इस शंका को दूर करने के लिये; और मोक्ष मार्गरूपमें जिसका उल्लेख किया गया हैं, वह वास्तव में अष्टांग सम्यग्दर्शन ही है, न कि विकलांग, इस बातको स्पष्ट करने के लिए आचार्य कहते हैं----
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नांगहीनमलं छेत्तु दर्शनं जन्मसंततिम् ।
न हि मन्त्रोऽक्षरन्यूनो निहन्ति विषवेदनाम् ||२१||
अर्थ — अंगहीन सम्यग्दर्शन जन्मपरम्पराका उच्छेदन नहीं कर सकता । जैसे कि कम अक्षरवाला मन्त्र faraी वेदना को दूर नहीं कर सकता ।
प्रयोजन - यहां पर इस कारिकाके उपस्थित होनेका कारण क्या है ? इसका उत्तर अथवा प्रयोजन का परिज्ञान ऊपरकी उत्थानिकासे हो जाता है। फिर भी यहांपर विषयको कुछ अधिक स्पष्ट करना उचित और आवश्यक प्रतीत होता है।
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प्रायः प्रत्येक क्रिया के दो फल हुआ करते हैं- एक मुख्य और दूसरा गौण | खेती का मुरुग फल अन्न और गौख फल भूसा पैदा होना हैं । औषधोपचार का मुख्य फल प्रकृतिको साम्यावस्था में लाना और गाँव फल पीडा दूर करना हैं | राज्यशासनका मुख्य फल त्रिवर्ग का अवरोधेन सेवन करने की समुचित व्यवस्था द्वारा प्रजाका अनुरंजन और गौय फल माझा ऐश्वर्य मान सन्मानादि हैं। इसीप्रकार धर्म के विषय में भी समझना चाहिये । धर्मका मुख्य फल क्या है, यह बात धर्म का वर्णन करनेकी प्रतिज्ञा करते समय कारिका नं० २ के "कर्मनिव" पद द्वारा आचार्य बता चुके हैं। प्रकरणवश उसीकी यहां भी श्राचार्य प्रकारान्तरसे दृष्टांत द्वारा दुहरा देना चाहते हैं।
प्रश्न- कहे हुए विषय को ही दुहराना तो निरर्थक है 1
उचर - यद्यपि धर्मोपदेशमें द्विरुक्ति- एकही बातको पुनः २ कहना दोष नहीं है फिर भी यहां वह निरर्थक नहीं है। जिसतरह अनुमान के प्रयोग में प्रतिज्ञावाक्यका निगमनमें उपसंहार होता हैं, उसीप्रकार यहां भी समझना चाहिये। दूसरी बात यह हैं कि वहां वर्म सामान्य के विषय में कहा गया है। और यहां उसके एक भेद सम्यग्दर्शनके विषयमें कह रहे हैं। धर्म के तीन भेद हैं- सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र । तीनोंमें सबसे प्रथम और मुख्य सम्यक्
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संहिका दीना नशीशदान
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दर्शन है । जिसका लक्षण कथन करते हुए श्रद्धानरूप क्रियाके तीन विशेषण दिये गये थे। त्रिमूढापोह, अष्टांग और अस्मय । यह बात बताई जा चुकी है कि क्रमानुसार पहले 'त्रिमूढापीठ' का वर्णन करना चाहिये था सो न करके पहिले 'अष्टांग' का यहां वर्णन क्यों कर रहे हैं ? शरीर के आठ अंगों की तरह सम्यग्दर्शन के भी बार अंग है और वे ही मूल तथा मुख्य हैं । फलतः पाठों ही अंगों का वर्णन करने के बाद उस विशेषण का फल निर्देश करना भी उचित ही नहीं आवश्यक भी है। किसी भी विशेषण का प्रयोग अन्य किसी भी विषय में व्यावृत्ति बताने के लिये ही हुआ करता हैं । यही बात अष्टांग विशेषण के विषय में भी समझनी चाहिये । धर्मका फल कर्मनिवईण है अतएव उसके एक भाग सम्यग्दर्शनका फल भी काम निवईन ही होना चाहिये। जन्मसंतति का उच्छेद और कर्मनिकरणमें कार्यकालका अन्तर है। कर्मनिवर्हण होनेपर जन्म संततिका उच्छेद हो जाता है। किंतु जन्मसंतति का सर्वधा उच्छेद तबतक नहीं हो सकता जबतक कि सम्बादर्शन आयी श्रमों में परिपूर्व नहीं हो जाता । यदि सम्यादर्शन वैसा नहीं है, जहांतक वह विकलांग है, तो भी वह अपने स्वभाव के अनुसार यद्यपि कर्मनिवर्हण को ही करता है , फिर भी जिसतरह या जबतक वह स्वयं प्रण अस्थिर
और समल ही है उसी प्रकार और तबतक उसका कर्मनिवहस्य कार्य भी अपूर्ण अस्थिर और समल ही होता है। ___दूसरी बात यह है कि इस धर्म के साइचर्य के कारण शुभ परिणामविशेष के द्वारा पुण्य कर्म विशेष का बन्ध होकर उनके उदय से जो सांसारिक अभ्युदय विशेष प्राप्त होते हैं वे उसके कथंचित् गौण फल है। वे सम्यग्दर्शन के फल किसीभी अपेक्षासे नहीं है यह कहना नितांत अयुक्त होगा। स्वयं अन्धकार आगे चलकर इस अध्याय के अन्त में सम्यग्दर्शन के प्राभ्युदयिक फलोंका वर्णन करनेवाले हैं। हां, यह सैद्धांतिक सत्य है कि उन आभ्युदयोंकी लन्धि में सीधा एवं मुख्य कारण सम्यग्दर्शन ही नहीं है। उसका मुख्य कार्य तो कर्मोंका विरोध करना ही है । संवर निर्जरा करके भवसंतति का सर्वथा उच्छेद करना ही उसका मुख्य और अभीष्ट फल है ।
प्रश्न हो सकता है कि यदि यही बात है तो सम्यग्दर्शन के प्रकट होते ही कर्मोका सम्पूर्ण निर्जरा होकर उसी समय निर्वाण-जन्म संतति का सर्वथा विच्छेद हो जाना चाहिये। इसका उसर ऊपर के कथन से ही हो जाता है । निर्मल पूर्ण स्थिर सम्यग्दर्शनका फल निर्वाण है। इसके विपरीत. सम्यग्दर्शनमें जबतक किसी भी अंशमें मल दोष पाये जाते हैं, त्रुटि बनी हुई है अथवा पूर्णतया स्थय नही है तबतक उसके होते हुए भी निर्वाण नहीं हो सकता । ____ ध्यान रहे सम्यग्दर्शनमें मतीन विशेषणोंकी पूर्णता तीन कारणोंपर निर्भर है। पूर्ण शायिक वीतरागता, सर्वज्ञता और अनन्तवीर्य । इन तीनों के साहचर्य से ही उसमें वस्तुतः करणत्व प्राप्त होता है। जबतक यह बात नहीं है और वह सराग है तबतक उसके निमिच में उसके साहार्य से सराग भाषोंके द्वारा तसत प्रश्पकोका पंच भी होता और तदनुसार
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श्रभ्युदय भी प्राप्त होते ही हैं । यह समझना सर्वथा मिथ्या एवं आगमके विरुद्ध होगा कि विवक्षित अभ्युदयों की प्राप्ति में सम्यग्दर्शन किसी भी प्रकारसे निमित्त भी नहीं है। क्योंकि विवक्षित अभ्युदय - सुरेन्द्रता परमसाम्राज्य तीर्थकरन्द श्रादि जिन सरागभावोंसे सम्बन्ध रखते हैं वे विना सम्यग्दर्शन के साहचर्यके नहीं हुआ करते | इससे श्रन्वयव्यतिरेकगम्य कार्य कारण भात्रका भी निश्चय हो ही जाता है । अत एव सम्यग्दर्शन के गौण फल का निषेध करना ठीक ऐसा ही माना जा सकता है जैसे कि यह कहना कि खेती से तो नही होता है, अर्थात् भूसा होता ही नहीं । चिकित्साका फल साम्यावस्था होना ही मानना, कष्टनिवृत्ति आदि न मानना । इत्यादि ।
गौण तथा मुख्य फलमें से किसी भी एकका निषेध करना मिथ्यैकान्त है । गौणता और पाव पर निर्भर है। और वह संग एवं परिस्थितिपर श्राश्रित है । जैसे कित्येकान्तवादी के सम्मुख आनंपर वस्तुकी पर्यायात्मकताका जो समर्थन विवक्षित होकर मुख्य बन कर सामने आता है वही अनित्यैकान्तबादी के सामने था जानेपर श्रविवक्षित - गौ चनकर पीछे हट जाता हैं और ध्रुवनाका समर्थन विवक्षित होकर मुख्य योद्धा या प्रतिवादी के रूपमें सामने उपस्थित होजाता है । इसनीति का अर्थ किसी भी एक पक्षको सर्वया हेय मानना जिसतरह प्रयुक्त है उसी प्रकार सम्यग्दर्शनादि के कार्यकारण सम्बन्ध में किसी मी एक ही पक्षको मानना दूसरेको नहीं ही मानना श्रयुक्त हैं। इसी तरह यदि कोई गौणफल को मुख्यफल अथवा मुख्यफलको गो फल मानता या समझता है तो वह भी अयुक्त ह हैं। कदाचित् सम्यग्दर्शनमें अवस्थाभेद यदि कोई स्वीकार नहीं करता तो वह भी अयुक्त ही हैं। इसतरह विचार करनेपर मालुम होता है कि ग्रन्थकारको फल तो दोनों ही अभीष्ट हैं परन्तु एक मुख्य और एक गौणरूप में अभीष्ट है । जैसा कि अन्य आचार्योंनभी यथास्थाना स्पष्ट किया है। श्रीसमन्तभद्र के वचन ऐकान्तिक पक्षके समर्थक नहीं हो सकते । यही कारण कि वे इस कारिकाके द्वारा सम्यग्दर्शन के मुख्य और गोरा दोनों ही फलोंको यह कहकर के बताना चाहते हैं कि सम्यग्दर्शन रूप धर्मका सर्वथा कर्मनिवईण या भवविच्छतिरूप जो मुख्य फल है वह तो तबतक नहीं हो सकता जबतक वह आठो ही अंगोंमें पूर्ण नहीं हो जाता । फलतः अर्थापत्तिले यह सिद्ध हैं कि जबतक ऐसा नहीं है तबतक उसका सांसारिक अभ्युदयरूप फल भी गौणतया मान्य है । क्योंकि विवक्षित श्रभ्युद्गविशेषोंका जिनके साथ कार्य कारण सम्बन्ध सुनिश्चित हैं उनके साथ सम्यग्दर्शन के साहचर्य का अविनाभाव भी प्रसिद्ध ही है | इसरह सम्यग्दर्शन के दोनों ही मुख्यफल और गौणफल दृष्टि में लादेना इस कारिकाका प्रयोजन है।
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शब्दका सामान्य विशेष अर्थ -
१- यद्भावाभावादयश्वोत्पत्यनुत्पती तत्तत्कारणकम् ।
२ - मादयः पुखा निःश्र असफलाश्रयः । वदन्ति विदितानामास्तं धर्मं धर्मसूरयः ।। यक्षस्तिकक
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द्रिका टीका इफ्कोसो भाक
१८६ व्याकरणके अनुसार अंग २६ मे तु अप्रय होकर बनता है । इसके अनेक अर्थ है कि किसीका एक भाग, शरीरका कोई मुव्य अक्यत्र, जाड, मित्र, उपाय श्रादि । इसके सिवाय यह एक अव्यय पद भी है जिसका कि अच्छा, महाभाग या सत्यस्वीकार अर्थमें प्रयोग किया जाता है। यहाँपर अवयव अर्थ लेना चाहिये और वह भी उपलक्षणरूप समझना चाहिये जिससे कि अंग और उपांग दोनोंहीका ग्रहण हो सके । जिस तरह किसी अंगसे अथवा नेत्र नासिका आदि उपांगसे हीन व्यक्ति सज्जाति होकर भी जिनलिंग धारण करने-निर्वाणदीचा ग्रहण करने का अधिकारी-पात्र नहीं है; उसीप्रकार सम्यग्दर्शनमी अंग या उपांगसे हीन होतो साधान निर्वाणका उपाय नहीं हो सकता।
अलम् शब्द भी अव्यय है जिसका कि अर्थ- पर्याप्त, पूर्ण, समर्थ, ऐसा होता है । इस का "छत्तुम्' इस कृत्प्रत्ययान्न धातुपदके साथ सम्बन्ध है "अलम्" के योगमें चतुर्थी विभक्ति होती है। किंतु यहॉपर वायपान्तर ४ द्वारा पूर्वार्थका अर्थ स्पष्ट होजा सकता है।
जन्मसंततिसे मतलव भवपरम्परा मापुनःमक बन्धकी योग्यतासे है। क्योंकि जन्म अर्थात भवधारण श्रायुकमक बन्धकी अपेक्षा रखता है । जबतक जीवमें आयुक्रमके बन्धकी योग्यता बनी हुई है तबतक वह सम्पूर्ण कोंके उच्छेदनमा पात्र नहीं है। क्योंकि आयुकर्मका बन्ध सातवे गुणस्थान तक संभव है । और सम्पूर्ण क्रमों के निर्जरणकी वास्तविक पात्रता क्षपकश्रेणी में स्थित साधुमें ही है जोकि पाठवेसे १४वं गुणस्थान तकमें निष्पन्न हुआ करती है।
मन्त्र शब्द का आशय द्वादशांगतरूप वेदके वाक्य अथवा ऐसे किसी वाक्यसे है जिसमें कि किसी विशिष्ट सिद्धिकी माधक शक्ति छिपी हुई है।
___ अक्षरन्यून' शब्द भी उपलक्षमा है अतएव अक्षराधिक अर्थ भी ग्रहण कर लेना चाहिये। इसी प्रकार "निहन्ति" क्रिया और विषवेदना कर्मपदके विषय में भी समझना चाहिये । क्योंकि श्राशय यह है कि न्यूनाधिक अक्षरवाला मन्त्र अपने बास्तविक कार्यको सिद्ध नहीं कर सकता। यह आशय नहीं है कि उसमें कुछ होता ही नहीं है क्योंकि श्रीधरसेनाचार्य ने भूतवलि पुष्पदन्तकी परीक्षार्थ न्यूनाधिक अक्षरवाली जो विद्या सिद्ध करनेकेलिये उन्हें दी थी उसके सिद्ध करनेपर देवता तो उनके सामने उपस्थित हुई ही थी परन्तु वह अपने वास्तविक रूपमें न पाकर
१-भ्वादि परस्मैपदी। २.स्वदेशकुलजात्पङ्ग वाहाणे क्षत्रियो विशि | निष्कलके क्षमे स्थाप्या जिनमुद्रार्चिता सताम् ॥ अन६-८८) देशश्च कुलं च जातिश्चार्गच देशकुल जात्यंगानि । शोभनानि देशकुलजालंगानि यस्य स एवम् ।। ३-गहीना-सातीचार, उपांगहीन:-अतिकम व्यतिक्रमदोष सहित अथवा सम्यक्त्वप्रकृति के उदयवश पाये जानेवाले चल मलिन अगाढ़ दोष, यद्वा अमर्शनपरीषइ सरीखे दोष । ४-अंगहीनं सम्यक्त्वं भवसन्ततेश्छेदनाय न अलम् । । ५--स. सि. सत्यनेन नरकांविभवमित्यायुः । -४ । नरकादिषु भवसम्बन्धेनायूषो व्यपदेशः । ८-१०
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विकृतरूपमें? आई थी |
तात्पर्य - - यह कि सम्यग्दर्शन का मुख्य फल जो भवपर्याय का विनाश है वह तबतक उससे सिद्ध नहीं हो सकता जबतक कि उसके सभी अंग पूर्ण न हों ।
यद्यपि यह बात दृष्टान्तपूर्वक ऊपर समझा दी गई है फिर भी प्रश्न होसकता है कि ऐसा क्यों क्योंकि विना किसी प्रबल युक्तिके केवल दशन्त से ही साध्य सिद्ध नहीं होसकता । जो रुचिमान् श्रद्धालु हैं वे विना युक्ति भी कथनपर विश्वास करते हैं परन्तु जो तार्किक विद्वान् है वे तो बिना किसी ऐसी युक्ति जो अनुभव में आसके अथवा fear किसी प्रबल बाधक कारणके मालुम हुए इस तरहके कथनपर सहसा विश्वास नहीं करसकते | उन्हें केवल दृष्टान्त से ही सन्तोष नहीं हो सकता। क्योंकि दृष्टान्त तो संसार में सतरहके मिलते हैं । प्रकृतमें दिये गये दृष्टान्तके विपरीत भी दृष्टान्त तो मिल सकता है देखा जाता है विभांग भी योद्धा युद्ध में शत्रुओं का हनन करता है। अत एव यह मालुम होना आवश्यक है कि अंगहीन सम्यग्दर्शन से भी अभीष्ट सिद्ध क्यों नहीं होसकता ? अंग से अभिप्राय क्या है ? क्या अंगहीन सम्यग्दर्शन कारण ही नहीं है ?
उत्तर - अन्तिम दोनों प्रश्नोंका उतर तो ऊपरके कथन से ही हो जाता है। क्योंकि अंगशब्दका अर्थ कहा जा चुका है और यह भी बताया जाचुका है कि अंगहीन सम्यग्दर्शन विवचित कार्यका कारण तो है परन्तु करण नहीं है । वह अपने योग्य कार्यका साधन अवश्य है परन्तु उसमें मुख्यरूपसे साध्य कार्य के सिद्ध करनेकी पूर्ण सामर्थ्य नहीं है। अब केवल एक ही प्रश्न शेष रह जाता है सो उसका भी विद्वान् लोग स्वयं समाधान करसकते हैं । फिर भी जिज्ञासुओंके लिये उसका उत्तर संक्षेप में यहां यथामति लिखदेना उचित प्रतीत होता है ।
कोई भी वास्तविक कार्य तब कत सिद्ध नहीं हो सकता जबतक उसके कारण अपूर्ण हैं, समल हैं अथवा दुर्बल हैं। यह बात ऊपर कही जा चुकी है। इसी बात को यहां कुछ अधिक स्पष्ट करदेनेसे संभव है कि जिज्ञासुका संतोषजनक समाधान हो सकेगा ।
क्रियाकी सिद्धिमें जो साधक होते हैं उनको कारक कहते हैं । यद्यपि कारक हर माने गये हैं फिर भी उनमें तीन मुख्य हैं। कर्त्ता कर्म और करण। इस तरह एक क्रिया और तीन उसके कारण कुल मिलकर चार विषय मुख्य हो जाते हैं। विचारशील व्यक्ति समझ सकते हैं कि इनमें से कोई भी विषय ऐसा नहीं है जिसके कि विना कार्य हो सके। कसके बिना
१ - तदो ताणं तेन दो विज्जाश्रो दिएओ । तत्थ य्या महियक्सरा अवरा विहीणक्वरा । एदाओ बट्टोवजासेण साईन्ति । तदा ते सिद्धविज्जा बिज्जाओ पेति एका 'उदन्तुरिया' अवरेश का गया | ऐसो देवदाएं सहावो ए होदिति चितऊण मंतव्वायरणसत्य कुसलेहिं हीणाहिग्रसक्खराएं राहुणाक्षणायणविद्दान' फाऊण पर्वतेष वो विशेवाओ सहावरूपट्टियाओ दिहाओ । मं० प० पू०७०। भी है।
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चंद्रिका टीका इक्झौसर्वा श्लोक क्रिया कौन करेगा ? कर्म के विना पदि क्रिया की भी जाय तो वह व्यर्थ होगी । करणके विना भी यदि कर्चा कार्यको सिद्ध करले सकता है तो पहले ही क्यों नहीं करनेता ? इसी तरह यदि कर्ता कूटस्थ हो–क्रिया ही न करे अथवा न करसके तो भी किस तरह प्रयोजन की सिद्धि हो सकती है ?
प्रकृतमें आत्मद्रव्य का, उसकी शुद्ध अवस्था कर्म, और उसीकी असाधारण साधन रूप शक्तियां करमा है। सम्यग्दर्शन या श्रद्धान यह क्रिया है जिसका कि श्राशय अपने शुद्ध भन्तः स्वरूपकी तरफ उन्मुख होनेसे है । इनमें से एक भी ऐसा नहीं है जिसके कि बिना अभीष्ट साध्य सिद्ध हो सके ।
आत्मद्थ्य जो कि कर्ता है वह यदि न हो, उसको न माना जाय, अथवा जो उसके अस्तित्वको स्वीकार नहीं करता, उसपर जिस का श्रद्धान नहीं है वह निःशंक हो कर क्यों तो निर्याणके लिये प्रयस करेगा और क्यों उसके उपायको भी जानने आदि की पेष्टा करेगा क्योंकि आत्मद्रव्य के अस्तित्वको मान लेनेपर ही श्रेयोमागंके जानने की इच्छा हो सकती है। इसी तरह जो व्यक्ति प्रात्मद्रष्यको तो मानता है परन्तु उसकी संसारातीत शुद्ध अवस्था का होना या होसकना स्वीकार नहीं करता यह भी उसके लिये प्रयल क्यों करेगा ? उसकी दृष्टि में जब यह है ही नहीं सब यह उसको प्रप्ता करनेकी चेष्टा या इच्छा भी क्यों करेगा ? इसी प्रकार यदि कोई व्यक्ति प्रात्मद्रव्यका अस्तित्व स्वीकार करता और उसका अशुद्ध अवस्थासे शुद्ध अवस्था में परिणत हो सकना भी मान्य करता है, इन दोनों ही अंशोंपर उसका श्रद्धान है परन्तु उसके वास्तविक साधनोंपर विश्वास नहीं है। वह यथार्थ साधन-मार्ग....उपायसे तो उपेक्षा या ग्लानि करता हे और अयथार्थ उपायोंसे प्रीति करता है तो वह भी वास्तविक प्रयोजनको किसतरह प्राप्त कर सकेगा ? इसी तरह यदि कोई व्यक्ति इन तीनों विषयों को मानकर भी प्रयन नहीं करता तो वह भी फल को किस तरह प्राप्त कर सकता है। इस तरह विचार करनेपर मालुम हो सकता है कि इन चार भागों से किन्ही भी तीन भागांके माननेपर भी शेष एक भागके न माननंपर जीव अभीष्ट कार्य को सिद्ध नहीं कर सकता ।
आत्माकी द्रव्यता-कालिक सभा एवं उत्पादव्ययध्रौव्यात्मकता तथा गुणपर्ययवत्ता न माननेवाला अपने ही विषयमें सदा शंकाशील रहनेवाला है । फलतः ऐसा नास्तिक और स्वरूप विपर्यस्त व्यक्ति निःशंक न रहने के कारण श्रेयोमार्गका कर्ता नहीं बन सकता तथा फलको भी प्राप्त नहीं कर सकता। इसी तरह जो संसार पर्यायके छूटनपर अपनी सिद्ध अवस्था होनेका श्रद्धान नहीं रखता, जो यह नही मानता कि हमारी यह वर्तमान संसार पर्याय है, वह दुःखरूप है वह छूटकर हमारी ही अनन्त सुखरूप शाश्वतिक अवस्था हो सकती है, वह संसारकी अवस्थाओंका ही निरंतर कांक्षावान रह सकता है। उन सबसे निकांक्ष होकर वह परम निःश्रेयसपदके १-योमार्गप्रतिपित्मात्मव्यासिका।
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रस्नकरण्डश्रावकाचार
लिये वस्तुतः प्रयत्नशील नहीं हो सकता । यदि कोई व्यक्ति आत्मद्रव्यको मानता है और उसके संसार तथा मुक्त इसतरह दो अवस्थाओके साथ इस चातको मानता है कि संसारपर्याय छूटकर सिद्ध अवस्था हो सकती है। किंतु उसके उपायके विषय में विपर्यस्त हैं। वह वास्तविक उपायों से तो विचिकित्सा या ग्लानि अथवा उपेक्षा रखता है और अपास्तविक या विपरीत उपाळेमें यत्नशील है तो वह भी श्रेयोमार्गको सिद्ध नही कर सकता और न उसके फलको ही प्राप्त हो सकता है । इसीतरह चौथी बाद क्रियाप्रवृत्तिके विषयमें समझना चाहिये । जो या तो आत्माको ही अक्रिय मानता है, अथवा वास्तविक क्रियाविधिसे अपरिचित-अज्ञात है या विपरीत क्रियाओं मे सिद्ध होना स्वीकार करता है, तो एसा मिथ्यादृष्टि यद्वा कोई प्रमादी है- यथार्थ बत तपश्चरणादि क्रिया करने में कायर है तो वह भी यथार्थ श्रद्धान--सम्यग्दर्शन होजानेपर भी सिद्धिको प्राप्त नही हो सकता। क्योंकि संसारके या बन्धक कथित चार या पांच जो कारण बताए हैं उन सभीके लूटे मिना जीनामा पूर्ण माही बनता । मिथ्यात्वके छूट जानेपर सम्यक्त्व के होजानेपर भी विरतिपूर्वक अप्रमस होकर आत्माको तुन्ध करनेवाले अथवा मलिन करनेवाले यता अपने ही स्वरूपमें सर्वश्रा स्थिर न रहनेदेनेवाले कारणों से रहिन करनेकेलिये प्रयत्न करना यावश्यक रूपमें शेष रह जाता है। जो इस बातपर वस्तुतः पूर्ण विश्वास नहीं रखता अथवा कायर प्रमादी है वह भी तबतक सिद्धि प्राप्त नहीं कर सकता जबतक कि अपने सम्यग्दर्शनको सवांशमें पूर्ण नही वनालेता।
इस तरह विचार करनेपर मालुम हो सकता है कि जबतक यह जीव सामान्य वस्तुस्वरूपके विषयमें और मुख्यतया जीवतत्त्वके विषय में पूर्णतया समीचीन दृढश्रद्धावान नहीं है किसी भी अंशमें अपूर्ण है मलिन है या अस्थिर है तबतक वह सम्यक्त्वक वास्तविक फलको प्राप्त नहीं कर सकता । स्वरूप विपयांसके कारण सशंक, शुद्धावस्थाकी अश्रद्धा कारण सांसारिक विषयों में साकांच, अनन्तसुखमय शुद्ध सिद्धावस्थाकी सिद्धि के वास्तविक उपायोंमें ग्लानियुक्त एवं प्रलस प्रमच क्रियाहीन मूढ पुरुष सम्यग्दर्शनके फलको प्रास नही हो सकते । क्योंकि इसतरहके व्यक्तियोंका सम्यग्दर्शन एक २ अगसे हीन है।
जिस तरह निःशंकितादि चार अगोंक विषयमें यहां बताया गया है उसी तरह उपगृहन या उहणादिके विषयमें भी समझना चाहिये 1 अन्तर इतना ही है कि पहले चार अंग निषेधरूप हैं अतएव सम्यग्दर्शनके विषयभूत तत्वस्वरूपके विषयमें मान्यताकी अवास्तविकताको दृष्टिमें रखकर घटित करने चाहिये । परन्तु प्रान्तम चार अंग विधिरूप है इसलिये सद्र पताको लक्ष्पमें रखकर षटित करने चाहिये।
उपगृहन मादि सम्यग्दर्शनके कार्य हैं । प्रसंग आदिके न रहनेसे वे भले ही दृष्टिगोचर नहीं फिर भी भावरूपमें रहते अवश्य हैं।
१-मिध्यादर्शन भविरचि प्रमाद कषाय और योग इसतरह पांच भौर में ही प्रमादके सिवाय शेष बार।
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पद्रिका टीका इक्कीसवां सीक किसी वृक्षकी कोटरमें अग्नि जलरही हो और उसके पत्रों पुष्पों फलोंपर उसका कोई भी प्रभाष न पडे यह जिस तरह संभव नही उसी प्रकार सम्पग्दर्शन के अन्तरंगमें प्रकाशित होतेहुए सधर्मा और विधर्माओं के प्रति अथवा स्त्र और परके कर्तव्यमें श्रीचित्यका संचार न हो यह मी संभव नहीं है। निःशंकतादिके साथ उपगृहनादिका जैसा कुछ सम्बन्ध है वह पहिले वताया जा धुका है । अतएन उसको यहाँ दुबरानेकी आवश्यकता नहीं है । उपदणमें संत्रदान, स्थिति-- करणमें अपादान और वात्सल्यमें अधिकरण कारक दिखाई पड़ता है। किंतु प्रभावनामें धम की सन्तति चालू रखने के लिये नवीन वीज वानेका कार्य हुआ करता है। ___ फलके बिना कोई भी काय करना बुद्धिमत्ता नहीं है । उसी तरह फल निष्पचि किस तरहसे हो सकती है यह देखना भी आवश्यक है । सम्पग्दर्शनका फल उपगृहन आदिके द्वारा ही हो सकता है। ऊपर यह बताया जा चुका है कि उपगृहनादिके विषय क्षेत्र स्व और पर दोनों ही हैं। शंका आदि अतीचारोंसे सम्यग्दर्शनके रहित होजानेपर भी यदि स्त्र और परके डोषोंका निहरण तथा गुणोंका संवर्थन नहीं होता तो उस निर्दोष सम्यग्दृष्टिको भी ठीक ऐसी कन्या सती सुन्दरीके समान ही समझना चाहि५ जिससे कि पुत्रास न होमले पतिको निराफलता तथा कुलमें धार्मिकताका' संरक्षण प्राप्त नहीं होता। यदि विपरीत या मिथ्यावातावरणादिके मिलनेपर जो अपनेको भी स्थिर नहीं रख सकता वह दूसरोंको क्या बचा सकेगा। नपुंसकके हाथमें पाये हुए उत्तम खनके समान कायर या चलचित्त व्यक्तिका सम्यग्दर्शन व्यर्थ है । क्रोधी व्यक्ति जिस तरह अपना कार्य सिद्ध नहीं कर सकता । उसी तरह वात्सल्यहीन सम्बग्दर्शन भी सफल नही हो सकता। जिस सम्यग्दर्शनका कार्य प्रभावना नहीं है वह तो प्रभुत्वहीन राजाके समान दूसरों से प्रभावित होकर अपना अस्तित्व भी खो दे सकता है। यही कारण है कि इन कार्यरूप अंगोंके विना सम्यग्दर्शनका अस्तित्व स्वीकार करनेमें भी भाचार्योंको संकोच होता है। वे कहते हैं कि
दोष गृहति नो जातं यस्तु धर्म न हयेत् । दुष्करं तत्र सम्यक्त्वं जिनागमवहि:स्थितेः॥ तपसः प्रत्ययस्यन्तं यो न रक्षसि संयतम् । नूनं स दर्शनाद्वाबः समयस्थितिलानात् ॥ चातुर्वर्णस्य संघस्थ पथायोग्य प्रमोदवान् । वात्सल्य यस्तु नो कुर्यात् स भवेत् समयी कथम् ।। झाने तपसि पूजायां यतीनां यस्त्वमूयते । स्वर्गापवर्गभूलक्ष्मी न तस्याप्यस्यते ॥२ १-जसमें पली बाई धर्मरूप धानावि किमाए', अथवा आर्यषटक-देवपूजादिफ नित्यके पटकन निरवान घलते रहें इसीलिये कन्याका दान और आदान हुआ करता है यह फल यदि नहीं है, विवाहका फल इन्द्रियसूप्तिम्मन्न होनेसे वह प्रशस्त और पार्योचित नह माना जा सकता । इसीलिये महापंचित माशाधरजीने सागारधर्माभूतमें कहा है किभाधनादिक्रियामम्प्रत्रताधमधेदवाया। प्रदेयानि सधभ्यः कन्यादीनि यथोचितम् । धर्मसंसनिमामिष्टा रतिं वृत्तकुलोम्नति । देवादिसति बेच्छन् सत्कन्यां यत्नवो बहेत ॥ १-परास्तिकक जारवास २ ।
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सभ्यदर्शनका लक्षमा क्यान करते हुए प्राचार्य ने श्रद्धानरूप कृक्रिया के जो तीन विशेषस्य दिये थे उनमेंसे दूसरे "अष्टांग" विशेषण का वर्णन समाप्त करके अब प्राचार्य पहले 'त्रिमूढापोद' विशेपणका कथन करते हैं । मूढता प्रायः तीन प्रकारकी है-देवमूढता आगममूढता और पाखण्डीमूहता। इनमें से सबसे पहले यहां आगममूढता का स्वरूप बताते है
आपगासागरस्नानमुच्चयः सिक्ताश्मनाम्॥
गिरिपातोऽमिपातश्च लोकमूढं निगवते ॥ २२ ॥ अथ-मदी और समुद्र में स्नान करना, बालू पत्थरोंका ढेर लगाना, पर्वतसे गिरना और अनिमें पडना, लोकमूहसा है ऐसा आचार्योंने कहा है।
प्रयोजन--परमार्थभृत माम आगम और तपोभृत् के अष्टांग श्रद्धान को सम्यग्दर्शन कहा गया है। इससे यद्यपि यह वात स्पष्ट हो जाती है कि यदि परमार्थ विशेषण से रहित प्राप्त
आदिका श्रद्धान किया जाय तो वह सम्यग्दर्शन नहीं माना जा सकता। परन्तु यह विषय तषतक अच्छी तरह समझमें नहीं आ सकता जबतक कि सम्यग्दर्शन के स्वरूपको भलेनकार समझाने के लिए उसके विषयभूत यथार्थ प्राप्तादिका जिसतरह वणन किया है उसीप्रकार अपरमार्थ प्राप्तादिका स्वरूप भी न बता दिया जाय । दोनोंही के स्वरूपको देख समझकर ही उनमेंसे एक को हेय और दसरेको उपादेय मालुम होनेपर छोडा और ग्रहण किया जा सकता है अतएव सम्यग्दर्शन को अपने विषय में हड करने के लिए ऐसे विरोधी-अश्रद्धेय विषयोंका स्वरूप बताना भी उचित एवं आवश्यक है जिनमें कि मुमुक्षुओं को अपनी श्रद्धा मोहित नहीं होने देनी चाहिये । इन विरोधी तत्वोंका स्वरूप हुंडावसर्पिणी कालमें बताना और भी आवश्यक हो जाता है जब कि परिणामकद मिथ्या विषयोंका प्रचार बढ़ रहा हो । ___यद्यपि पे विरोधी विषय प्रकृतमें तीन मूडताएं ही हैं जिनका कि ऊपर नामोल्लेख कियागया है। फिर भी इनमें आगममहता सबसे बलवती और प्रधान है। क्योंकि वह शेप दोनोंही मदतानों की मूल है । उसके द्वारा ही देवमूढता एवं पाखण्डि मूहता का प्रचार होता और पाखण्डियों की संख्या बहती हैं।
लोगसे सुनकर या उनकी क्रिया को देखकर जो मान्यताएं वनती हैं ये सब बागमनामस कही जा सकती हैं। सामान्यतया इन मान्यताओंको दो भागोंमें विभक्त किया जा सकता है। एक समीचीन दुसरी मिध्या । जो युक्ति अनुभव तथा समीचीन ताविक विचार से पूर्ण है, जिन का फल दुःखोच्छेद तथा परिपाक कल्याणरूप है यह समीचीन और इसके विपरीत जो युक्ति. हीन, अनुभवके विपरीत तथा अतान्त्रिक विपय पर आश्रित है। जिनका ऐहिक फल दूःख तथा पारलौकिक फल प्रवद्य एवं अहितरूप हैं वे सभी मान्यताएं मिथ्या हैं।
इसतरहको निध्या मान्यताओ उच्चावच रूप और स्थान हो सकते हैं फिर भी उन्हें तीन {-प्रायःकहनेका आशय यह है कि पुरुषार्थसिद्धथु पायमें मूढताओंके चार भेदीका उल्लेख पायाजाता है।
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चंद्रिका टीका बाईसवां श्लोक भागोंमें निपल किया जासकता है उत्तम मध्यम और जघन्य । जीवादि सचोंक यिषपमें स्कप विपर्यासादिक रहते हुए भी प्रवृत्ति में इन्द्रियषिजय दा कायवलेशादि पाया जाय यह जघन्य
और जहां प्रवृत्तिमें अनर्गलता हो वह मध्यम तथा जहां जीयादितत्वों के विषयमें भी भूलमें प्रमान्यता हो तो वह उत्तम दर्जे की मिथ्या मान्यता है।
आत्माके ऐहिक एवं पारलौकिक किसी भी तरह के हिताहितकी तरफ दृष्टि न देकर केवल "भेडिया पसान " या 'गतानुगनिकता' से चाहे जैसे कार्यमें प्रकृत्ति करना भी इस उत्कृष्ट मिथ्यामान्यतामें ही अन्तर्भूत है । इसीको आगममूहता गा लोकमूहता भी कहते हैं । जबतक कोई भी बीव इस तरह की प्रवृत्तियों में विश्वास रखता है कि इनसे श्रात्माका हित हो सकता है त - तक उसके सम्यग्दर्शन नहीं माना जा सकता। क्यों कि सम्यग्दृष्टि जीव यत्पन्त विषेकपूर्ण हया करता है। अतएव इस कारिकाके द्वारा यह बता देना आवश्यक है और यही इसका प्रपोजन है कि जिसके भद्धान में से इस तरह की मूर्खनापूर्ण मान्यताएं निकल गई है, वास्तव में उस विवेकशीलके सम्यग्दर्शनका अस्तित्व माना जा सकता है। ____ आगे मानके प्रकरण में कहा जायगा कि अध्याप्ति अतिव्यामि और असंभव इन दोपों स रहित साल के द्वारा जो वस्तु का वेदन होता है उसको ज्ञान-सम्यग्ज्ञान कहते है । यही बाप्त प्रकत में भी समझनी चाहिये । मालुम होता है कि अन्धकार ने जो सम्यग्दर्शनका लपवं चताया है उसमें भौधे यह स्पष्ट कर देना चाहते हैं कि प्रख्याप्ति अतिव्याप्ति और असंभव हन तीन दोषों से रहित श्रद्धान को सम्यग्दर्शन कहते हैं। इनमें से अध्याति दोषका वारण करने के लिए दिये गये अष्टांग विशेषण का स्पष्टीकरण ऊपर किया जा चुका है। असंभव दोष निवारणार्थ दिये गये अस्मय विशेषणका वर्णन आगे किया जायगा । यहाँपर अतिम्पासि दोषका वर्मनकरनेके लिए दिये गये विशेषम 'त्रिमूढापोह का वर्णन करनाभी उचित एवं आवश्यक है।
वस्तुका स्वरूप विधिप्रतिषेधात्मक है । अतएव किसी भी विषय का एकान्ततः विधिरूप से अथवा प्रतिषेषरूपसे ही यदि वमान किया जाय तो उससे यथावत् स्वरूपका बोध नहीं हो सकता । यही कारण है कि यहां पर यह बताना अन्यन्न आवश्यक है कि जो श्रेयोनार्ग से सम्बन्धित विषय अयथार्थ है उक्त समीचीन प्रामादिके स्वरूपसे रहिन या विपरीत है में सभी श्रदान-धर्मडप सम्यग्दर्शन के अन्तरूप हैं। यदि उनका भी श्रद्धान समीचीन-पथार्थ विषयों
१-ये शेनों हो लोक प्रसिद्ध कहावते हैं। दोनों में अन्तर अनभ्यवसाय और अविवेक का है। विना से ही जो महों सरीखो प्रवृत्ति इसको भेड़िया धमान कहते हैं एफभेड़ यदि कूएमें गिरती तो पीछको सभी भेडे गिरती बली जाती हैं। किसो अच्छे व्यक्ति के द्वारा समयानुसार किये गये विचार पूर्ण कार्य का रहस्थ न समझकर सदा हो अनुकरण करमा "गतानुगसिफना" है । जैसा फि हितोपदेशकी इस लोक से सम्बन्धित कथासे जाना जासकता है कि गतानुगतिको लोको न लोकः पारमार्थिकः । मृत्तिकापुजमावागतं मे सात्रभाजनम् । २- अन्यूनमनतिरिक्तं याभातध्यं जिना च विपरीतात् । निःसन्देहं वेद यदाहुस्तद् मानमामिनः ।
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रत्नकरण्डावकाचार के समान ही किया जायगा तो उसको सम्यग्दर्शन नहीं कहा जा सकता। इन तीनों मृढताओं के सेवन से अलगमा अवनि कोजानिये. कारण सायदान नहीं रह सकता । यह अन्धकार को पताना है । अतएव यह वर्णन अत्यन्त प्रयोजनीभूत है।
मतलब यह कि यदि शंकादिक अतिचार लगते हैं नो अंशमंग होनेसे सम्यग्दर्शनमें - न्याप्ति दोष है । इसीप्रकार प्रमादादिवश यदि उपगृहनादि या उपहणादि नहीं करता है तो गुणोंमें या गुणाश्रयों में रुचिकी कमी पाये जाने के कारण सम्यग्दर्शनमें अल्पता पाई जाती है। यह भी उसका अव्याप्ति दोष है । यदि सच्चे और मिथ्या दोनों ही में समान प्रकृति करता है सो अलक्ष्य में प्रवृत्ति रहने के कारण सम्यग्दर्शन अतिश्याप्ति दोषसे युक्त माना जायगा । ऐसी अवस्था में भी शुद्ध सम्यग्दर्शन नहीं माना जा सकता। इसीप्रकार यदि कोई सम्यग्दृष्टि गर्विष्ट होकर-अनन्तानुवन्धी मान कषाय के जो कि द्वेषरूप है, उदयके वश होकर सच्चे प्राप्त प्रामम उपोभूत आदिसे द्वेष करता है तो वहां सम्यग्दर्शनका असंभव दोष हैं । उस अवस्थामें सम्यदर्शन का रहना ही संभव नहीं है।
इस अभिप्रायको दृष्टि में रखकर ही मालुम होता है श्री भगवान समन्तभद्र ने सम्यग्दर्शन का हरण कहते समयर उत्तरार्थमें तीन विशेषण-'त्रिमूढापोट' 'अष्टांग' और 'अस्मप' दिये है । जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है। इनमें से 'अष्टांग' विशेपण द्वारा श्रव्याप्ति दोषका 'त्रिमूदा. पोड से अविव्याप्ति दोषका और 'अस्मय' विशेषण से असंभव दोषका वारस हो जाता है। फलतः अध्याप्ति दोष युक्त लक्षणकेही द्वारा बताया गया सम्यग्दर्शन का स्वरूप पर्याप्त-ठीक नहीं है इस बात को बताने के लिए और सम्यग्दर्शन की निरतिचारिता तथा निरतिचार सम्य. पच सहित जीवकी प्रवृत्ति किसतरह की हुथा करती है इस बातको अष्टांग विशेषणका वर्णन करके मताने के बाद अतिव्याप्ति के विषयभूत कुश्रागमादि का कथन करना क्रमानुसार अवसर प्राप्त है।
यद्यपि अतिव्याप्ति की विषयभूत मूढताएं तीन वताई गई हैं परन्तु मालुम होता है कि सामान्यतया एक ही मूढना के ये उत्तम मध्यम जघन्य इसतरह तीन प्रकार हैं। जिसमें जीव तव की अमान्यता का कथन भी अन्तर्भूत हो जाय और तदनुसार प्रवृत्ति पाई जाय उसे उत्तम दर्जे की मूढता समझनी चाहिये। जीव तच्च को मानकर उसके स्वरूपका विपर्यास यदि अद्धान सवा आचरण में पाया जाय तो मध्यम दर्जेकी मूढता माननी चाहिये। यदि माचरण मिथ्या या असमीचीन है तो जपन्य दर्जेकी मूढता समझनी चाहिये । तीनोंसे उतम दर्जेकी मूहसाका परिज्ञान जिससे हो सके और उसके परित्यागसे अतिथ्याप्ति दोष रहित सम्बन्दर्शन सिद्ध हो सके इसके लिए प्रधानभूत आगममूहता का स्वरूप प्रथम बताना ही प्रऊरा कारिका का
१-"प्रतीचा शभंजनम्" । अथवा-" तथातिवारम् करणालसत्वम् " "शंका कक्षा निर्विचिकित्सान्यरष्टिप्रशंसासंस्तवाः सम्यग्रष्टेरतीचाराः।
-कारिका नं०४।
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शन्दोंका सामान्य विशेष अर्थ--
भापगा नाम नदी का है । क्योंकि श्राप शब्दका अर्थ होता है जल का समूह अर्थात् समुद्र । उसमें जाकर जो मिलती हैं उनको कहते हैं आपगा ! सागर२ नाम समुद्र का है । सगरेण निर्धतः सागरः । म्नान शब्दका अर्थ प्रसिद्ध है। उच्चय शब्द का अर्थ ऊपरको उठा हुमा-ढेर होता है । सिकता अर्थात् बालू और अश्मन अर्थात पत्थर गिरिपातः से मतलब पर्वतसे गिरना और अग्निपात से मतलब अनिमें गिरना । लोकमृदस मतलब लोकमूढता का है। अर्थात् लोक शब्दका अभिप्राय है अविचारी जन ! और उनकी चाहे जैसी क्रियाओं-व्यवहारों को देखकर उनपर मोहित होना--उनके ही अनुसार स्वयं भी विना विचार करना-चलना उनको सर्वथा सत्य मानना मुहता है इसी को कहते हैं लोग मूहता ।
ये सम शब्द योगरूक होनेपर भी उपलन्त्रण रूप है । फलतः इनसे चार तरह के पदार्थों का माशय समझना चाहिये । १-बहने वाले और एक जगह संगृहीत जलाशय, २-धूल मट्टी चूना जैसे पृथ्वी के मंग्रह और पत्थर कंकड टोल शिला आदि बडे बडे पार्थिव समुच्चय, ३-पर्वतसे गिरना, पृक्षपरसे गिरना या अन्य किसीभी उस्मारकापरसे भिरकर अपरेको वायुद्वारा विलीन करना आदि । ४-पीपल आदिमें बैठकर आग लगा लेना अथवा मृत पति के साथ उसकी चितामें जलकर मरना आदि अग्नि द्वारा अपघात करना । इसतरह भूत चतुष्टयमेंसे किसीके भी द्वारा धर्म मानना लोकमूडता है। __ तात्पर्य यह कि भूतचतुष्टय-पृथ्वी जल अग्नि और वायु में अर्थात् इनसे धर्म होता है ऐसा मानना लोकमूढता है ।
ऊपर यह बताया जा चुका है कि प्रकत कारिकामें प्रयुक्त मृद शब्द मृढ़ता के अर्थ में है। विचार या विवेककी हीनता रहितता को अथवा तत्पूर्वक होनेवाली प्रवृत्ति को मूढता कहते हैं। तथा चार तरह की मूढता उपलक्षण होनेसे इसीतरहकी ओर २ भी प्रचलित प्रतियां "काशी करवट" "पृथ्वी के भीतर बैठकर समाधिस्थ होना" "किसी वृसमें चिंदी बांधना" "पीपलको पदोपवीत पहराना" आदि सब मी लो मूढताएं ही हैं।
प्रश्न-प्राचार्योने सम्यग्दर्शन के विषय तीन बताये हैं—प्राप्त आगम और सपोमत । मतएव उसके विपरीत मिथ्यादर्शन के भी तीन ही विषय हो सकते है-कुदेव उपागम और गुरु। इनकी मान्यताको ही तीन मूढताएं कहा जा सकता है। जैसा कि उपर कहा जा चुका १--'अथवा जल समूह का अर्थ समुद्न करके सामान्य अर्थ ही करने पर इस तरह से भी निक हो सकती है कि श्रापेन जलसमूहन गच्छनि इति प्रापगा । जो जल समूहके द्वारा गमन करे । अर्थात् नदी। २-यहां सागर से प्रयोजन उस उपसमुद्र का है जो कि हुंडाबमर्पिणी के कारण तीसरे काल के अंतमें हुई वर्षा का जल इकट्ठा होकर समुद्र समान बन गया । कोषकारोंने सगर राजा के नाम पर सागर शब्दका भर्थ किया है सो मालूम होता है कि श्री अजितनाथ भगवानके समकालीन द्वितीय चक्रवर्ती सगरके नाम से प्रसिद्ध है उनको लक्ष्य कर किया है।
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११८ है। स्वयं ग्रन्थक ने भागे चलकर कारिका नं० ३० में शुद्ध सम्यग्दृष्टि के लिए इन तीनोंको ही प्रणाम और विनय करने का निषेध किया है परन्तु महापण्डित पाशाथरजी ने अनगार धर्मामृत में आगममूढतासे लोकमहता को मिल ही बताया है । श्रागममूहताको उन्होंने देवमूढता और पाखण्डिमूहता में अन्नभूत किया है । सो सत्य क्या है ? वास्तवमें आशाधरजीने मूहताओं के चार प्रकार बताये हैं । यदि उनके कथनानुसार चार भेद माने जाय तो मूहताके तीन भेद जो प्रसिद्ध है और यहांपर भी जैसा कि बताया गया है उसमें विरोध होता है । यदि उनका कथन अयुक्त माना जाय तो स्वामी अमृनचन्द्रने पुरुषार्थ सिद्धयुपाय ३ भी चार महताओंका हो । नामोल्लेख किया है, उसको भी अपुक्त कहना होगा।
उत्तर-ठीक है । परन्तु इन कथनोंमें परस्पर कोई विरोध नहीं है । सम्यक्त्व के विरोधी मल दोप २५ हैं। उनमें से ६ अनायतनका यहां निर्देश नहीं है। शंकादिक ८ मद और ३ महता इस तरह १६ का ही उल्लेख है । अत एव कदागमका देवमूढता और पाखण्डि मूडसा में अन्त
र्भाव करके लोक मूढता का वर्णन किया समझना चाहिये जिससे कि अनापतन सेवाका भी समावेश होसके, अमृतचन्द्राचायने लोक, शास्त्राभास, समयाभास और देवताभास इस तरह चारका उल्लेख किया है जिसमें तीन मूढता और एक अनायतन सेवाका संग्रह होजाता है।
अथवा कदागमकं दो प्रकार समझने चाहिये एक शास्त्रीय, दूसरा गतानुगतिकताके द्वारा प्रवर्तमान व्यवहार । पहलेका शेष दो मूढता ओं में अन्तर्भाव करना चहिये और दूसरे का लोकमूहता में।
यद्यपि कुछ ऐसी भी लोकमूढताएं हैं जिनका कि कदागम समर्थन करते हैं। परन्तु वास्तव में वे सब लोकमूदताएं ही हैं जिनकी कि प्रकृति अधानमूलक है। -रावल त्रिपुण्डाधिपति होनेके सिवाय अत्यन्त सुन्दर नरंश धा नकि राक्षस, हनूमान् कामदेव अत्यन्तसुन्दर महापुरुष थे नकि बन्दर, पवनंजग महान् विद्याधर राजा थे नकि वास्तविक वाघु, अञ्जना भी वानरी-पशु नहीं थी अत्यन्त सती साध्यी सुन्दरी महिला थी । इनका वास्तविक स्वरूप वंश चिन्ह श्रादि श्री रविषेणाचार्य कृत पद्म पुराणादि से जाना जा सकता है। परन्तु लोगोंने इन की क्रमसे साक्षात राघस, बन्दर, वायु, वानरी आदि ही मान रखा है। उसी तरह उनके चित्र मूर्ति प्रादि भी बनाते हैं । दशहराके दिन रावणका रात्रसरूप बनाकर जलाते हैं, सो अन्नानमूलक महा पाप क्रिया है | ध्यान रहे राक्षस भी व्यन्तर देव है, वे अत्यन्त सुन्दर मनुष्य जैसे आकारके वैक्रियिक शरीरक तथा अषिमा महिमा आदि ऋद्धियोंके धारक,
१–जनु न कथमेतम् यावता लोकदेवतापापण्डिभेदास्त्रिय मूढमनुश्र यते । तथा च स्वामिसूकानिआफ्गासागरेत्यादि । नैष दोषः कुरेष कुलिङ्गिन वा फदागमस्यान्तर्भावान् । अन्धः२-१-३ीका २-यो देवलिंगिसमयेपु तमोमयेधु, लोकेंगतानुगतिकप्ययथैकपात्थे। न ष्टि रज्यति न च प्रवरद्विचारः सोऽमूटिरह राजति रेवतीवत् ।। अध०अ०२-१०३ ३-लोके शास्त्राभासे समयाभासे च देवताभासे । नित्यमपि तावधिना कर्वव्यम् भूवष्टित्वम ॥२६
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चौद्रिका टीका बाईसा श्लोक मानस अमृतका पवित्र श्राहार करनेवाले हैं नकि मद्यपान और मांसाहार करनेवाले परन्तु रावण को मद्यमांसादिका सेवन करनेवाला कहते हैं सो सब अज्ञान है उनका अववाद है, महापाप है और लोकमाता है।
रावणके समान ही अन्य भी उक्तामुक्त महान् व्यक्तियोंके विषयमें समझना चाहिये । पार्वतीको हिमवान् पर्वतपर राज्य करने वाले राजाकी पुत्री न मानकर साक्षात् पर्वत-पहाड से उत्पन्न हुई मानमा, पार्वती के पुत्र गणेशजी की शरीरके मलसे उत्पत्ति मानना, सीताके पुत्र कुशको कुश नामक बाससे उत्पम हुआ मानना, ईश्वरका मत्स्य कच्छप शकर योनिमें अवतार मानना और वैसा ही विकृत रूप बनाना, मलके कोट का भक्षण प्रादि निकृष्ट क्रियाएं मानना श्रादि सब लोकमूहता के ही प्रकार है। भारतवर्षमें आजकल हुंडावसर्पिणी कालके कारण इस तरह की हजारों मिथ्या मान्यताएं प्रचलित होगई है। जो कि यथार्थतासे परे है और इसीलिये अविवेकमूलक है। इसतरही मान्यताओं को ही लोक मृढता कहते हैं । वास्तविक रहस्यको न जानकर अथवा न मानकर जिन लोगोंने इन बातोंका समर्थन करनेवाले साहित्यका निर्माण किया है उनकी ये वृतियां-ग्रन्थ शास्त्रामास हैं । इसतरहकी प्रवृत्तियों और उनके प्रत्यक ग्रन्थों में केवल वान्य वाचकका अन्तर है। अत एव समन्तभद्र भाचार्य एक ही भेदमें अन्तर्भूत करके मूडताके तीन प्रकार बसारहे हैं।
तस्वों-द्रव्योंके स्वरूप संख्या आदि में जो विपर्यास है उसको यदि भिन्न प्रकारकी महता माना जाय और इसको शास्त्राभास नामसे कहाजाय तो एक ही मूढताके दो भेद होजाते हैं एक लोकमूदता और दूसरी शास्त्रामाम मुहता। __ मूढताके चार भेद होजानेसे संख्याधुद्धिकी शंका करना भी ठीक नहीं है। क्योंकि विवद्यावश एक ही विषयको दो भेदों के द्वारा भी बताया जा सकता है। दूसरी बात यह कि आशाथरजीने जिस ढंगसे सम्यग्दर्शन के गुणों का वर्णन किया है उसमें मिनर आषायों के प्रायः सभी पर्खनों की संगतिपूर्वक संग्रह करनेकी भावना दिखाई देती है। यही कारण है कि उन्होंने उमास्वामी भगवान्, शिवकोटी, स्यामी अमृतचन्द्र, स्वामी समन्तभद्र, सोमदेव सूसी आदि के पाक्योंको उधृत किया है और उनके प्राशय को भी स्पष्ट किया है। उन्हों ने प्राराधनाशास्त्र के अनुसार पांच प्रतीचार इस प्रकार बताये है कि-शंका था विधि किन्सा अन्यदृष्टिप्रशंसा और अनायतनसेवा | स्पष्ट ही इनमें तत्वार्थस्त्रोक्त अन्यदृष्टिसंस्तव नामके प्रतीचार को अन्यदृष्टि प्रशंसामें ही अन्तर्भूत करलियागया है और अनायतनसेवा नामका पांचवां प्रतीचार मिन ही बताया है जिसको कि आशाधर जी स्मृतिप्रसिद्ध अतीचार कहते हैं।
समन्तभद्र भगवान्ने यहाँपर सम्गदर्शन के २५ मलदोषों में से १६ का ही नामोल्लेख ५-भगवसी भाराधना-सम्मलादीचारा संका पंखा तहेव विदिगंछा। परविहीणपसंसा, मलायम सेपणा देव।।
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रस्मकरएशश्रावकाचार
२०० किया है । ६ अनायतनों का स्पष्ट उल्लेख नहीं किया है । इसका अर्थ यह नहीं समझना चाहिये कि उनको सम्यग्दर्शन के दोषों की २५ संख्या अभीष्ट नहीं है अथवा उन्हे अनायवन मान्य नहीं है। वास्तविक बात यह है कि वे इन अनायतनोंको प्रकारान्तरसे पषित कर रहे हैं। उन्होने कारिका नं. ३ पूर्वाधमें जब कि धर्म के विविधस्वरूपका निर्देश किया है, वहीं उत्तराधमें उनके तीन प्रत्यनीक भावों अथात् मिथ्यादर्शन मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्रका निर्देश कर दिया है । इस तरह तीन मुख्य अनायतनोंका वहीं पर उल्लेख होजाता है। अमष्टि अंगका वर्णन करते हुए कारिका नं. १४ में इन्ही को कापच शब्द से बतादिया है। इस के साथ ही उसी कारिकामें कापथस्थोंका भी उल्लेख किया है। मिथ्यात्वादिक मुख्य तीन अनायतनोंके जो आधार हैं बेही कुदेव कुशास्त्र और कुगुरु कापथस्थ नाम से कहे गये तीन अनायतन हैं । इन्ही तीन अनायतनों का कारिकानं. ४ में परिहार या वारण करने केलिये श्राप्तादिकका "परमार्थ" यह विशेषण दियागया है । इस तरह तीन मुख्य भावरूप या अधर्मरूप अनायतन, और तीन गौण या उपचरित तद्वान् अर्थात् आप्ताभास शास्त्राभास और गुर्वाभास अनायतना को मिलाकर छह अनायतन हो जाते हैं।
जिस तरह तत्त्वार्थस्वयमें विनयके चार भेद बताये गये हैं-सम्यग्दर्शन शान चारित्र और उपचार। वहां उपचारसे मतलब सम्पष्टि सम्बज्ञानी और सम्यकचारित्रवान् से है। ये ही छह अनायतन हैं। जिनमें से सम्यग्दर्शनादि तीनोंका स्वयं धारण पालनादि करना मुख्य विनय है और तीन तद्वान् व्यक्तियों का योग्य आदर सत्कार आदि करना उपचरित अथवा गौण बिनय माना है। इसीतरह प्रकृतमें भी समझना चाहिये। ____ आगमके दूसरी तरहसे भी दो भेद होते हैं। एक श्रुति दुगरा स्मृति । द्वादशांग श्रुत
और उसका शान पहले भेदमें और जितने साथनभूत धर्म के प्रतिपादक संहिता आदि शास्त्र हैं वे सत्र दूसरे भेदमें गिने जाते है। स्वयं प्राप्तप्रतिपादित होनेसे श्रुति अथवा प्रांग पौर्य ग्रन्थ तथा तदनुकूल एवं तदविरुद्धताके कारण सभी स्मृतिग्रन्थ प्रमाण हैं। और जो इनके प्रतिकूल हैं ऐसे हिंसाविधायक वेद श्रादि तथा मोह अज्ञान असदाचार-पापाचार मादिके प्रवर्तक भारत रामायण आदि हैं वे सब क्रमसे कुश्रुत एंव कुस्मृति समझने चाहिये जो कि प्रायः अनायतनके भेदोंमें ही अन्तर्भूत होते हैं।
.: श्रुतिविभिन्मा स्मृतयो विभिन्ना को मुनिर्यस्य वचः प्रमाणम् ।
थर्मस्य तत्त्वं निहितं गुहायां महाजनी येन गतः स पन्था ॥ इस तरहक अज्ञानमूलक मोहप्रायल्यको सूचित करनेवाले भी जो वाक्य लोक में पाये जाते हैं वे भी सब आगमाभास अथवा शास्त्रामासमें ही गर्भित समझने चाहिये । लोकमूढता के विषय प्रायः ऐसे कार्य समझने चाहिये जिनका कि वास्तविक रहस्प न समझकर अथवा विपरीत समझकर जो धर्म रूप नहीं हैं उनमें भी धर्म की कल्पना करना ।
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चंद्रिका टीका बाईसा श्लोक प्रश्न-हमको तो अनायतन श्रीर मूढताओंमें कोई अन्तर नहीं मालुम होता । क्योंकि दोनोंहीमें मिथ्यादर्शनादिकका सम्बन्ध पाया जाता है। कहिये इनके पृयक २ वर्णन करने का क्या कारण है ! ____ उसर—दोनों में से एक में भावकी और दूसरेमें द्रव्य की प्रधानता है। जो द्रव्यरूप में मिथ्यादृष्टि नहीं कहा जा सकता परन्तु वही यदि नवतः अथवा अन्तरंग में मिथ्याभावोंने युक्त है तो उसे अनायतन कहा जा सकता है । जैसा कि महापंचित आशाधारजीके निमवाक्योंसे स्पष्ट होता है। अपरैरपि मिथ्यादृष्टिभिः सह संवर्ग प्रतिषेय यति
मुद्रा सांव्यवहारिकी विजगतीबन्द्यामपोद्याईतीम्,
वामां केचिदईयको व्यवहरन्त्यन्ये बहिस्तां श्रिताः। लोकं भृत्वदाविशन्त्यवशिनस्तच्छायया चापरे,
म्लेच्छन्तीह तमशिनधापरिचय देशमोहया 2.-६६ : इस पद्यकी टीकामें स्वयं ग्रन्थकारने, जैसा और जो कुछ लिखा है उससे स्पष्ट होजाता है कि वे धमकाम लोगोंमें भतकी तरह प्रवेश करनेवाले अजितेन्द्रिय द्रव्य जिनलिङ्ग पारियों एवं लोकशास्त्रविरुद्ध आचरण करनेवाले जिनरूपधारक मठपतियोंको अनायतन समझते हैं। और वापसादि द्रव्यमिथ्याशियों की तरह उनके साथ भी मन वरन कायसे परिचय न करने का सम्पष्टियोंको उपदेश देते है। इस पद्यमें प्रयुक्त 'पु'देहमोह" शब्दका आशय रनकररतश्रावकाचारकी अमरष्टि अंमत वर्णन करनेवाली "कापथं पथि दुखानाम्" आदि कारिका नं. १४ से ही है। इससे द्रवरूप में जिनलिङ्गिगोंका भी अनायानत्य सिद्ध है। किन्तु लोकमहतामें अन्तरंगभावारूप मिथ्यात्व के साथ २ बाम द्रव्य प्रवृत्ति भी अज्ञान एवं अविवेक मूलक हुआ करती है । फिर चाहे वह प्रवृत्ति कुश्रुत और कुस्मृतियों के आधार पर हो अथवा निराधार ।
प्रश्न- अनायतन यह है, तीन मिथ्यात्व आदिक भाव और तीन मिथ्यादृष्टि प्रादिक तद्भाववान् व्यक्ति । प्राचार्योंने इन अनायतनोंको सम्यग्दर्शन के २५ मलदोपामें गिनाया है। इसका आशय हमारी समझसे सो यह है कि इन मलदोषोंके रहते हुए भी सम्पग्दर्शन निर्मूल- भम नहीं होता । वह मलिन अथवा सदोष-दूषित अवश्य होजाता है। किन्तु यह
मागममें पार्थस्थादिक पांच प्रकारके भ्रष्टमुनि मानेगये हैं। वे द्रव्यरूपमें जिनलिंगके धारक होते हुए भी चारित्रसे च्युत हुआ करते हैं। उनको संयमियों केलिये अन्य कहा गया है। आशाथरजीका बभि. प्राव ऐसे भ्रष्ट मुनियो से ही है। सामान्यतः द्रव्यलिगी मात्रसे नहीं। मामान्यतः द्रल्यलिंगी, मुनि तो पांच प्रकारके (माहरमें छठे सातवे गुणस्थानके अनुरूप अखण्उ संयमसेयुक्त परन्तु अन्तरंगमें प्रथम पांच गुणवान में से किसीसे युक्त) हुत्रा करते हैं। और वे सभी वन्दनीय तथा पूज्य हैं जो बारिखने और पारसे श्री अट उन्हींका यहां अभिप्राय है।
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रत्मकरहईश्रावकाचार
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समझमें नहीं आता कि साताद मिथ्यात्व नामक अनायतनका सेवन करने पर भी सम्यग्दर्शन स्थिर किस तरह रह सकता है । ऐसी अवस्थामें अनायतनसेवाको अतीचार न कह कर अनाचार ही कहना चाहिये
उचर-ठीक है। परन्तु अतीचार शब्दका निरुक्त्यर्थ ऐसा है कि किसी भी धर्म या व्रतके भलस्वरूपका अतिक्रमण जिसमें पाया जाय या जिससे होताहो ऐसी कोई भी प्रवृत्ति | तदनुसार इस तरहकी प्रवृति दोनों ही तरहकी हो सकती है प्रथम तो वह जिससे अंशतः अतिक्रमण हो और दूसरा वह जिससे मूलतः अतिक्रमण अर्थात् भंग होता हो । फलतः इस निरुक्ति के अनुसार अनायतन सेवा का अर्थ ऐसा भी हो सकता है कि जिससे सम्यग्दर्शन का समूल भंग हो जाय । एसी अवस्था में उसको अतीचार न कहकर अनाचार ही कहा जा सकता है। यही कारण है कि मूलाराधनाकी विजयोदया टीका के कर्ता अपराजित मूरिने मिथ्यात्व नामक अनायतन के सेवन करनेवाले को अतिचारवान् न कहकर मिथ्यादृष्टि ही माना है।
प्रश्न-यदि ऐसा है तो मिथ्यात्व नामके अनायतन का सेवन अतीचार या मलदोष रूपमें किसतरह माना जा सकता है ? क्योंकि यदि उसकी अतीचारता संभव ही नहीं हो सकती तो अनायतन के पांच ही भेद मानने पड़ेंगे।
उचर-ठीक है। यदि कोई जीव अंतरंग में श्रद्धान तो ठीक ठीक ही रखता है-सम्यग्दृष्टि है। परन्तु किसी कारणाश वह बाहर-द्रव्यरूपमें यदि किसी ऐसे द्रष्यादिका सेवन कर लेता है जिससे कि सम्यक्त्व का निर्मूल भंग हो जाना संभव है तो उस अवस्था में उस मिथ्यात्व के सेवन को अविचार भी कहा जा सकता या माना जा सकता है। क्योंकि वहांपर द्रव्यरूपसे भंग भौर भावरूपसे अभंग पाया जाता है ।
इसीप्रकार अन्य अनायतनों के सेवन के विषय में भी यथायोग्य पटित कर लेना चाहिये।
प्रश्न-आचार्योंने नदी नद समुद्र आदिमें, स्नान करने को लोकमूढता कहा है। परन्तु दि.जैनाचार्यों के अन्थोंमें और उनके कथित विधि विधानों में भी इस तरहके स्नान को उचित बताया है। गंगा सिंधु आदि नदियों के जलसे भगवान का अभिषेक करने का विधान किया १२ बीर समंद्र के जलसे समी तीर्थकरों के जन्म समय अभिषेक की वात तो सर्व प्रसिद्ध है ।
१-मिथ्यात्वस्य सेवा तत्परिणामयोग्यतव्याशु पयोगः, तां च कुषन् मम्यक्त्वं निमलयिष्यतीति सम्मतो मिथ्याराष्ट्ररेवासी, इति कथं न सम्यक्त्वातचारवान् । अतात्य धरण पतिचार: माहात्म्यापकों शता विनाशो वा प्राविजयाचायेस्तु मध्यात्वसवामतिचारं नेच्छान्त-तथाचमन्यो "मिध्यात्वमश्रद्धानं तत्सेवायो मिध्याष्ट्रिरेषासाविति नातिचारिता" इति मूलाराधना पृ.१४५ । २-पातातगाविससष्ट भूरितोये जलाशये। अवगाहाचरेत्स्नानमतोन्यद् गालितं मजेत् । यश० ज. १०३७२। ३- जसा कि पूजापाठोंमें सर्वत्र प्रसिद्ध है।
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चंद्रिका टीका बाईमा श्लोक किंतु राज्याभिषेक के समय तो मभी प्रसिद्ध तीर्थरूप नदि गोंके जलसे स्वयंभू रमण समुद्रतकर के जलसे भगवान का अभिषेक किया गया था । चक्रवर्तियों के राज्याभिषेक आदि अवसर पर भी इन नदी समुद्र आदिके जलका ही उपयोग किया जाता है। तो क्या यह भी लोकमूहता ही है ? यदि नहीं है तो इसका क्या कारण है ?
उत्तर—दि. जैनाचार्योने इन जलों को पवित्र माना है ! और व्यवहार धर्ममें उसके उपयोग को उचित तथा महत्त्वपूर्ण भी बताया है । इन जलोंसे अभिषेक करना पुण्यवन्धका कारण है, यह बात भी ठीक है। सम्यग्दृष्टि जीव भी अपने व्यवहार धर्म जिनाभिषेक पूजनादिमें इनको लेकर सातिशय पुण्यका बन्य करते हैं। यह सब भी ठीक है परन्तु यहाँ पर जो निषेध किया है उसका आशय यह है कि नदी नद समुद्रादिमें स्नानादि करना मोचका कारणभूत धर्म नहीं है। जो यह कहते भीर मानते हैं कि गंगादिकमें स्नान करनेसे कम कट जाते और जीवकी मोष हो जाती है सो यह बात मिथ्या है । इस तरह के स्नानसे बाह्य पवित्रता और शौचादि व्यव हार धर्म की सिद्धि होती है। तथा भगवानका अनिषकादि करनेस महान पुण्यके कारणभून ग्यवहार धर्मका भी निःसंदेह साधन होता है फिर भी वह जीव के मोक्षका असाधारण कारण नहीं है । कर्मनिवहरण का कारण असाधारण परिणाम तो जीवका सम्बग्दर्शनरूप अथवा रसअयरूप धर्म ही है। यही वास्तव में मोक्ष का कारण है और बन सकता है। जो बन्धक कारण को मोक्षका कारण मानता है, जो पर धर्मको प्रात्मधर्म समझता है, जो द्रब्यों के स्वतःसिद्ध स्वरूपको परन:सिद्ध समझ रहा है, वह अवश्य ही अज्ञानी है, मिथ्यारधि है। सम्यग्दर्शन वो निश्चयसे आत्माका स्वभाव होनेके कारण मोक्षका अवश्यही असाधारण कारण है। और यह युक्तियुक्त है। गंगास्नानादिक तो प्रत्यक्षही भिन्न पदार्थ हैं वे आत्माकी मोक्षके साथक नहीमाने आ सकते। फिर मोहयुक्त एकान्तबुद्धिके द्वारा माने गये विषयमें पानेवाले दोपका स्यावादद्वारा प्रमेय भनेकान्त सिद्धांत में रंचमात्र भी प्रवेश नहीं हो सकता । जैनागममें इस नदी नद समुद्र आदिके जल को जो व्यवहार धर्म में ग्रहण किया है उसका कारण यह नहीं है कि उससे कर्म धुस जायेंगे और जीव सांसारिक दुःखोंसे छूटकर उत्तम सुखरूप मुक्तावस्था में परिणत हो जायगा; किंतु उसका कारण यह है कि उनके जल सर्वसाधारण जनसे अस्पृष्ट है अत्यन्त महान हैं और पवित्र है। ऐसी वस्तुओंके द्वाराही त्रैलोक्याधिपति जिनेन्द्र भगवानका अभिषेकादि करना उचित है। जो भव्य इनको प्राप्त कर सकते है वे उनके द्वाराही अभिषेकादि करते हैं किंतु जो असमर्थ हैं वे यथा प्राप्त शुद्ध प्रासुक जलमें ही इनका मंत्रपूर्वकर संकल्प करके अभिषेकादि
१-खो मा पराण पर्व श्लोक से२१५ तक २-राज्याभिषे चने भतु विधि पशनः । स सर्वोभाप तोथाम्बुसभारादिः कृतो नृपः ।। आदि पर्व ३७ श्लोक ४ । तथा-गंगा सिंधू सरित्र्यो साक्षतस्तीर्थधारिभिः । इत्यादि । मा० ३-101
-इसके लिए देखो प्राचीन आपायों के आरचित अभिषेक पाठों का सिद्धान्त शास्त्री पं० पन्नालाल जी सोनी द्वारा सम्पादित एवं संगृहीत "अभिषेक पाठ संग्रह" !
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रत्नकरराआषकाचार
................ रत्नकरण्डावकाचार किया करते हैं। इसतरह लोकमूढताका वर्णन करके क्रमानापार मदनाका स्वरूप मताते हैं ।
वरोपलिप्सयाशावान , रोगद्वेषमलीमसाः ।
देवता यदुपासीत, देवतामूढमुच्यते ॥ २३ ॥ मर्य—बर प्राप्त करने की इच्छासे प्राशावान होकर राग द्वेष से मलिन देवताओंकी जो उपासना की जाय तो उसको देवमूहता कहते हैं।
प्रयोजन सभ्यग्दर्शन के विषय तीन हैं। प्राप्त आगम और तपोभृत् | उसके विरोधी मूडभावके भी उसीतरह तीन विषय हो सकते हैं। जो कि यथार्थ न होकर अाभामरूप या मिथ्या हो। उन्हीं को प्राप्ताभास भागमाभास और कुगुरु (पाखण्डी) कहते हैं। वास्तविक सच्चे प्राप्त भागम और गुरुका लक्षण बताया जा चुका है। जो उनसे विरुद्ध गुण धर्म या स्वभावके धारक
भया प्रति करनेवाले हैं ये ही आप्ताभासादिक कहे जा सकते हैं। फलतः जो या जहां पर आप्तवाश्यनिषन्धन अर्थज्ञान अथवा उसकी अविरुद्धता नहीं है उसको या वहींपर भागमाभास कहा जा सकता है। अतए। अज्ञानी मोही साधारण जीवोंके कथन को प्रमाण मानकर अथवा उनकी प्रचियों की देखादेखी चाहे जैसी प्रवृत्ति करना जिसतरह आगमाभासमूलक लोक मुहता है जिसका कि स्वरूप ऊपर की कारिका में बताया जा चुका है । उसीप्रकार प्राप्ताभास या देवतामास के सम्बन्ध को लेकर देवमूहता हुआ करती है ।
मृढताके सामान्यतया तीन ही प्रकार सर्वत्र बताये हैं यदि कहीं इससे अधिक भेदों का उमेख मिलता है तो विवक्षा मेद से एकही विषय के दो भेद करके वह नर्णन किया गया समभना चाहिये । इन तीनों भेदों मेंसे एक लोकमूढता का वर्णन कर चुके । पहले उसके कहने का कारण यह हो सकता है कि वह लोगों में सबसे अधिक संख्या में और प्रवृत्ति में पायी जाती है। अतएव पारिशध्यात् यहां देवमूढता का वर्णन करना संगत है।
दूसरी बात यह भी है कि लोकमूहना और पाखण्ड मूढता के मध्यमें देवमूढताका उख किया है। यह देहली दीपक न्यायसे दोनों तरफ सम्बन्ध की चूचित करता है। क्योंकि विचार करनेपर मालूम होता है कि देवमूढता ही शेष दोनों मूढताओं का मूल है । जिसतरह मोक्षमार्गका मन समीचीन प्राप्त परमेष्ठी है उसीप्रकार संसारमे प्रचलित मूढताओं या पाखण्डों का मूल जाप्ताभास अथवा मिथ्या देवों की मान्यता है। अतएव लोक में प्रचलित मूढताको बताकर उसके अनन्तर उसके मूल कारण को भी बताना उचित आवश्यक और अवसर प्राप्त है।
अनायतनों और मृडवानी में क्या अन्तर है यह पहले बताया जा चुका है। इस तरह मृहना के विषयभूत देव केवल प्राप्ताभास ही नहीं अन्य भी अनेक प्रकार के हो सकते है उन
लोके शास्त्राभासे समयाभासे च देवताभासे । आदि०। पु० सि० देखो पूर्व कारिका की पाया और टिप्पणी।
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चंद्रिका टीका तेईसवा श्लोक
सभीक तरफ दृष्टि दिलाने के लिए इस कारिकाका निर्माण प्रयोजनाभूत है।
शब्दों का सामान्य विशेष अर्थ -
'बरोपलिप्सा - इसका सामान्य अर्थ इतना ही है कि चर प्राप्त करने की अभिलाषा से । यों तो कर शब्द के अनेक अर्थ है । परन्तु प्रकृत में 'मिलपित या इष्ट विषय' अर्थ ग्रहण करना चाहिये । उयलिप्साका अर्थ है प्राप्त करने की इच्छा। दोनों शब्दों का पष्ठी तत्पुरुष समास होकर करण अर्थ में तृतीया विभक्ति हुई है।
आशावान् -- श्र समन्तात् प्रश्नुते इति आशा । सा विद्यते यस्य स श्राशात्रान् | यह इस शब्दकी निरुक्ति है। मतलब यह है कि किसी विषय में लम्बी दूरतक लालसा - तृष्णा - श्राकांक्षा रखनेवाले को कहते हैं आशावान् | यह उपासना रूप क्रियाका कद पद है ।
रागद्वेषमलीमसा:-~~-~- यह उपासीत क्रियाके कर्मरूप देवता पद का विशेषण है । अर्थ स्पष्ट है कि जो राग द्वेष से मलिन हैं ।
देवता -- देव शब्द से स्वार्थ में ना प्रत्यय होकर यह शब्द बना है ।
उपासीत - यह क्रियापद हैं। उप उपसर्गपूर्वक अदादिगणकी आस धातुका यह विधिर्लिङ का प्रयोग है। इसका अर्थ होता है पास में बैठकर सेवा पूजा या आराधना करना |
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तात्पर्य यह है कि अपने किसी भी लौकिक प्रयोजनको सिद्ध करने की लालसा रखने वाला व्यक्ति यदि किसी भी रागद्वेप से मलिन देवता की उससे वर प्राप्त करनेकी अभिलाषा रखकर उपासना करता है तो यह सम्यग्दर्शन का देवमूठा नामका दोष है ऐसा आचार्योंने कहा है। इस विषय में कुछ लोगों को ऐकान्तिक अथवा भ्रान्त धारणाएं हो सकती हैं यद्वा पाई जाती हैं । श्रतएव हम अपनी समझ के अनुसार प्रसंगवश प्रकृत कारिका का और ग्रन्थकर्ताका जो आशय है उसको यहां पर संक्षपमें स्पष्ट कर देना उचित और आवश्यक समझते हैं।
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अम अथवा विधिनिपेत्रसम्बन्धी ऐकान्तिक धारणा का मूल कारण शासन देवोंकी पूजाका जैनागम विधानका पाया जाना है । दि० जैनाचार्यान पूजा विधान सम्बन्धी प्रायः सभी ग्रन्थों में१ शासनदेवोंकी भी पूजाका उठ् ख किया है। तथा प्रथमानुयोग आदि के ग्रन्थों में भी इसतरह के अनेक प्रकरणका उल्लेख २ पाया जाता है जिससे दि० जैनागममें शासनदेवोंकी पूजा की मान्यता सिद्ध होती है। अबतक किसी आचार्यने इसका विरोध नहीं किया हैं । प्रत्युत श्रवतक जो श्राम्नायर चली आ रही है, और पुरातत्व सम्पन्थी प्राचीन से प्राचीन जो सामग्री ४ उपलब्ध है ये उसके अनुकूल प्रमाण हैं | वास्तु शास्त्र - मूर्तिनिर्माण आदिकी जो विश्व पाई जाती हैं १- देखो सिद्धान्त शास्त्री १० पन्नालाल जी मांनी द्वारा सम्पादित -चक्रवर्ती ऋादि के द्वारा यथावसर कियेगये पूजन-आराधनासम्बंधी
पाठसंग्रह | " प्रासंगिक वर्णन |
- सभी प्राचीन मंदिर क्षेत्र आदिमें उनकी मूर्तियां पाई जाती हैं। और सभी प्रांतों में अब तक निर्विरोध उनकी पूजा प्रचलित है । ४- शासन देव सहित अर्हत मूर्तियों आदि की उपलब्धि ५ -- देखो संहिता मंथ तथा प्रतिष्ठाशास और अकत्रिम चैत्यों का स्वरूप ।
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रत्नकरसहश्रावकाचार उससे भी यह विषय भलेप्रकार सुसिद्ध है । अतएव इस विषय के विरोधमें यद्यपि कोई भागम प्रमाण या वलवत्तर युक्ति तो उपस्थित नहीं है फिर भी उक्त कारणवश इस विषय में कुछ विचार करना उचित प्रतीत होता है।
सबसे प्रथम विचारशील विद्वानों को इस कारिकामें मुख्यतया निर्दिष्ट चार पदोंकी तरफ दृष्टि देनी चाहिये । यथा "आशावान् " यह कन पद "रागद्वषमलीमसा:देवताः" यह कर्मपद "वरोपलिप्सया" यह करण पद और "उपासीत" यह क्रियापद । इस तरह ये चार पद है जिनकोकि देवमूहनाका अभिमाय व्यक्त करने के लिए भगवान समन्तभद्र स्वामीने प्रयुक्त किया है। __यह कहना सर्ववा सत्य है कि इन चार में से यदि एक भी विषय पाया जाता है तो अवश्य ही वह सम्यग्दर्शन को मलिन करनेवाला होगा । उससे सम्यक्त्वकी विशुद्धि अवश्य ही कम होगी । उस विशुद्धिकी कमीको मिथ्यात्वका ही अंश या प्रकार कहा जा सकता है। उदाहरणार्थ-दानके विषयमें विधि द्रव्य दाता और पात्रकी विशेषतासे फलमें अन्तर हुआ करता है । दाता जो कि दानका कर्ता है वह यदि यथायोग्य नहीं है तो शेष तीन विषयके योग्ग होते हुए भी यथेष्ट फल नहीं हो सकता । इसी प्रकार पात्र जो कि सम्प्रदान कारक है तथा द्रव्य जो कि कर्म कारक है, और विधि जो कि करण कारक है, उनमेंसे किसीभी एकके ठीक न रहनेपर दान क्रिया का फल भी यथोचित नहीं हो सकता ! इसी तरह पूजाके विषय में भी समझना चाहिये । पूजाके विषय में भी पूजक पूज्य पूजाकी सामग्री और पूजाकी विधि में अन्तर पड़ने पर उसके फलमें अन्तर पड़ना स्वाभाविक है।
श्री प्राचार्यप्रवर सोमदेवने अपने उपासकाध्ययनमें बताया है कि पूजनके समय शासन देवों को यज्ञांश तो देना चाहिये परन्तु अरिहंत भगवान्की समानकोटी में उन्हें रखना अपने को गिरालेना है । वे कहते हैं
देवं जगत्त्रयीनेत्रं व्यन्तराधाश्च देवताः। समं पूजाविधानेषु पश्यन दूरं अजेदधः ।। ताः शासनाथिरक्षार्थ कल्पिताः परमागमे।
प्रतो यज्ञांशदानेन माननीयाः सुदृष्टिभिः ।। १ मतलब यह कि वे शासनके रक्षणकार्य में नियोगी है अत एव उनको पूजनमें उचित अंश देना चाहिये । सम्यग्दृष्टियों को चाहिये कि वे पूजनके समय वैसा करके उनका सम्मान करें । किन्तु उनको अरिहंत भगवानके समान समझना-समान सम्मान प्रदान करना अपने को दूरतक नीचे गिरालेना है । क्योंकि कहां तो तीन जगत् को मार्ग प्रदर्शन करने केचिये नेत्रके समान-अपने उपदेश के द्वारा सम्यग्दर्शन उत्पन्न कराकर प्रणियों को मोषमार्ग में लगानेवाले तीन लोकके प्रभु देवाधिदेव श्री १००८ भगवान अरिहंत देव और कहां ये
पशस्तिलक आ पू० ३६७ ॥
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चंद्रिका टीका तेईसवा श्लोक व्यन्तरादिक देव जो कि उन्ही के शासनमें रक्षणस्थानोंपर अपना २ कार्य करनेकालये नियुक्त हैं इससे स्पष्ट है कि शासन देवों को उनके योग्य स्थानपर स्थापित करके उनके योग्य ही सामग्री देकर उनका उचित सम्मान करना चाहिये किन्तु जैसा न करके जो अरिहंतके समान या उससे भी अधिक सम्मान देते हैं वे अवश्य ही सम्यग्दर्शन की विशुद्धिमें अतिक्रमण करते हैं। यदि यही समान या अधिक सम्मान-प्रदानका कर्म किसी आशा-अपने जय पराजय हानिलाम जीवन मरण आदि लौकिक प्रयोजन के वश होकर किया जाता है तो वह और भी अधिक विशिष्ट अतिक्रमण माना जायगा। तथा यही कार्य यदि वरोपलिप्सा से किया जाता है तो अवश्य ही वह सम्यग्दर्शनका अतीचार समझना चाहिये । क्योंकि सम्यग्रष्टि होकर शासन देवोंको देवाधिदेवके बराबरका या उससे भी अधिक स्थान मान प्रदान करता है तो यह जिनेन्द्र भगवान् और उनके भागमका अज्ञान अथवा विपर्यस्त बुद्धिद्वारा होनेवाली अवहेलना है। फिर वह भी अपने लौकिक प्रयोजन वश होकर वैसा करता है । प्रत एष अवश्य ही वह अतिचार है । ध्यान रहे वर प्रार्थना में अपने को नीचा पीर जिससे प्रार्थना की जाती है उसकी उंचा मानने का भाव स्वभावतः आजाता है साथही जिससे वर प्राप्त करना है उसको प्रसन्न करने के लिये तयोग्य विधि-विशेषसे उसका सत्कार पूजन भी करना भावश्यक होता है। ग्रंथ कान भी बरोपलिप्सा को देवमूढता का कारण ही बताया हे । यदि यही उपासना शासन देवों के बदले मिंध्यादृष्टी देवों की कोजाती है तो बहुत बड़ा दोष प्रबल अतिचार अथवा कदाचित् सम्यग्दर्शन का भंग अनाचार भी संभव हो सकता है।
सम्यग्दर्शन भी एक व्रत है। श्रावक के कथित १२ प्रतों का यह मूलबत है । जिस तरह सल्लेखना व्रत उन १२ व्रतों का फल रूप प्रत है उसी प्रकार सम्यग दर्शन मूल रूप व्रत है। क्योंकि इसके विना कोई भी बत मोक्षमार्म रूप नहीं माना गया है और न संभव ही है अतएव जिसतरह अन्य व्रतों के अतिक्रम व्यतिक्रम अतीचार अनाचार बताये गये है उसीतरह देवमूढता के सम्बन्ध को लेकर सम्यग्दर्शन के भी ये अतिक्रमादि दोष समझने चाहिये । यद्यपि ये दोष तरतम रूप हैं। फिर भी परिहाये ही हैं। इनके रहते हुए वास्तव में व्रत भी सफल नहीं हो सकते जिसतरह सदोष बीजसे निदोष उसम अभीष्टफल नहीं मिल सकता उसीप्रकार सदोष सम्यग्दर्शनसे निर्दोष उत्तम यथेष्ट मोक्षमार्ग सिद्ध नहीं होसकता। यह तो निश्चित ही है कि प्राय: मलदोषों का संभव सम्यक्त्व प्रकृतिके उदयपर निर्भर है भार वह शायोपशमिक सम्यक्त्र अथवा वेदक सम्यक्त्व मेंही संमव है जहाँ पर कि सम्यक्त्व प्रकृतिका उदय पाया जाता है । श्रीपशमिक अथवा क्षायिकों से किसी में भी यह नहीं पाया जाता । क्योंकि श्रीपशमिक और नायक दोनों ही सभ्यस्त्व दोपों १-अतिक्रमो मानसशुद्धिहानियतिक्रमो यो विषयाभिलाषः ।
तथातिचार करणालसरवं भंगो जनाधार इह असामाम् ॥
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इस श्रावका
२०० से रहित एवं निर्मल रहा करते हैं।
प्रश्न--रावण ने श्रीशांतिनाथ भगवान के चैत्यालय में बैठ कर बहरूपिणी विद्या सिद्ध की थी । इससे क्या उसके सम्यग्दर्शनका भंग नही हुआ ?
उसर-नहीं | उसके केवल अतीचार ही मानना चाहिये ।
प्रश्न-यदि उसके सम्यग्दर्शन बना रहा तो फिर वह तीसरे नर्क में किस तरह गया! सम्यक्त्वसहित जीव तो प्रथम नरक से आगे नहीं जा सकता।
उत्तर--ठीक है । उसका सम्यग्दर्शन गुण नष्ट जरूर होगया था परन्तु वह बहुरूपिणी विद्या सिद्ध करने के कारण नहीं; अपितु सीताके प्रति अंतरंग में होने वाले कामतीवाभिनिवेश के कारण एवं उस अन्यायको सिद्ध करने के लिये उद्यक्त करानेवाली तीन मान पायक उदयके कारण दुनाथा । अतएव शासन देव के पूजन सत्कार से सम्यग्दर्शन का भंग मानना युक्त नहीं है यह इमारा कहने का अभिप्राय है।
प्रश्न-यापने तो ऊपर शासन देवों के सिवाय अन्य मिथ्यादृष्टि देवों के पूजन करने पर भी सम्यग्दर्शन का सर्वथा भंग होना नहीं माना है। सो क्या यह युक्त है?
उसर-- ऊपर हमने जो कुछ कहा है वह आचाके अभिप्राय परसे ही कहा है, अपनी तरफ से नहीं । हमने यह कहा है कि "यदि यही उपासना शासन देवोंके बदले मिथ्यादृष्टि देवोंकी की जाती है तो बहुत बड़ा दोष प्रबल प्रतीचार अथवा कदाचित् सम्यग्दर्शन का भंग अनाचार भी संभव है।" हमने अपने इस कथन में मिथ्यादृष्टि देवों की पूजा को गुण नहीं माना है। और न सम्यग्दर्शन का भंग न होना ही बताया है। हमारे कहनेका आशय यह है कि कदाचित ऐसा भी हो सकता है कि कोई जीव मिथ्यारष्टि है-~-कुनयों का पूजन करता है । वही सम्यग्दृष्टि होकर अरिहंतादिकों का पूजन करता है किन्तु पी पूर्व संबन्ध अथवा सरकार के बने रहने के कारण पहले के कुदेवादिका भी पूजन करता है । इस तरह के व्यक्ति के यदि कुदेव पूजन के कारण मिथ्यात्व कहा जा सकता है तो अरिहंत भगवान का पूजन करने के कारण सम्यक्त्व क्यों नहि कहा जा सकता ? वास्तविक बात यह है कि प्राचाों ने ऐसे व्यक्ति के प्रथम अथवा चतुर्थ गुण स्थान न बता कर मिश्रगुणस्थान बताया है । तुतीय गुणस्थान को प्रथम अथवा चतुर्थ गुण स्थान नहीं कह सकते । यदि इनमें से किसी भी एक में उसका अंतर्भाव करते हैं तो तृतीय गुण
१-तत्य स्वयसम्माइट्ठी ण कयाइवि मिच्छत्तं गच्छइ, ण कुणा संदहंपि, मिच्छत्तभवं दिट्र ण णो विम्हये जादि । परिमो चैव उत्रसमसम्माटुंा। किन्तु परिणामपचएण मिच्छत्तं गच्छइ, सासणगुण पि पनिव ज्जद, सम्मामिच्छत्तगुण पि दुका पदासम्मतं वि समिखंयई ।। धवला संतसुः पृ०७। २-"न चैतकाल्पनिक पूर्वस्वीकृतवतापरित्यागेनाहन्नपि देव इत्यभिप्रायवतः पुरुषस्योपलम्भात्"। धवला संतसुत पृ० १६७ । तथा-तथापि यदि मूढत्वं न जोकोपि सर्वथा। मिश्रत्वेनानमान्योऽसौ सर्वनाशो न सुन्दरः ।। न स्वता जन्तवः प्रेयः दुरीहा स्युर्जिनागमे । स्वत एष प्रवृत्तानां तयोग्यानुहो मतः॥ यश आ०पू०६-२८२ । तथा गोम्मटसार जीवकाइके गाने ०२२ की मन्वप्रबोधनी टीका।
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चद्रिका टीका तेईसवा श्लोक स्थान के प्रभावका प्रसंग आता है । अतएव इस तरहके व्यक्ति अथवा उसके भावों के लिये एक जात्यन्तर गुरुस्थान मानना ही उचित और आवश्यक है। इस तरह के दोष को प्रबल दोष कहा जा सकता है सर्वथा भंग नहीं कहा जा सकता । भंग उस अवस्था में ही कहा या माना जा सकता है जबकि वह अरिहंतादि का मानना-पूजना छोडदे और अनर्गल होकर कुदेवों काही पूजन करे।
प्रश्न--ऊपर आपन जो कुछ कहा है उससे तो यह अभिप्राय निकलता है कि श्राशा, देवोंका रागद्वेषमलीमसत्व, परोपलिप्सा और उनका विधिपूर्वक पूजन, क्रमसे अतिक्रम व्यतिकम प्रतीचार और अनाचारके कारण हैं। और यदि ये बातें नहीं है तो फिर शासन देवों के पूजनमें कोई दोष नहीं है । सो क्या यह ठीक है?
उत्तर--हां, यह ठीक बात है । जिसतरह न्यूनता अतिरेक संशय और विपर्यासको छोडकर जो अर्थद्वान होता है वह यथार्थ ही होता है। अथवा मिथ्या उभय और अनुभंय परिणति को छोड़ कर जो श्रद्धान होता है वह समीचीन ही होता है । उसी प्रकार अतिक्रमादिक उपयुक चारदोपोंसे रहित जो शासन देवोंका पूजन है वह भी उचित ही है।
प्रश्न- हम तो यह समझ रहे है कि अरिहंत देवके सिवाय अन्य किसी भी देवका न करना मिथ्यात्व ही है।
उचर---निश्चयनयसे अपनी आत्माही मोक्षाय है-उसीका श्राराधन करना चाहिये । सो क्या अपने से पर अरिहंताविकका पूजन करना मिध्याव माना जायगा १ नहीं। क्योंकि जो बात जिस अपेक्षा से कही है उसको उसी अपेक्षा से मानना दोष नही अपितु गुण है। ऐसा होनेसे ही इस लोक और परलोकके समस्त व्यवहार अविरोधेन सिद्ध हो सकते हैं; अन्यथा नहीं। शासनदेवोका जो पूजन बताया है उसका वास्तषिक श्राशय नियोगदानमात्र है। जो जिस विषयका नियोगी है उसका प्रसङ्ग पड़ने पर उचित सम्मान यदि न हो तो वह उचित नहीं माना जा सकता । यही बात शासन देवों के विषयमें भी समझना चाहिये। आदर विनय सल्कार पूजन श्रादि शब्दों से उस नियोगदान को ही सूचित किया गया है जैसा कि श्री सोमदेव परीके पूर्वो लिखित वाक्योंसे१ स्पष्ट होता है। अत एव नियोगदान मिथ्यात्वका कारण नहीं है। बडे २ राजा महाराजा चक्रवर्ती भी अपने नियोगियों का यथावसर सिरोपाह आदि देकर सन्मान करते हैं। उसीप्रकार त्रिलोकीपति जिन भगवान्के शासनमें अधिरपक पद पर नियुक्त इन देवोंको भी भगवान के अभिषेक पूजनके पूर्व भालानादिकर योग्य दिशाभोंमें बैठनेकेलिये सत्कारसहित कहना है और दान करना है तो वह अनुचित किस तरह कहा जा सकता है । बल्कि यह तो भगवान के प्रभावको व्यक्त करना है। १-१० २०६ में ताः शासनाधिरकार्थ कल्पिताः परमागमे । अतो यज्ञांशदानेन माननीयाः सुदृष्टिभिः या--३६७।
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रस्नकरण्डश्रावकाचार
प्रश्न-महा पंडित आशापुरजीने तो श्रावककेलिये इन शासन देवोंके पूजन करनेका निषेध किया है। फिर आप इसका समर्थन किसतरह करते हैं ? वे तो कहते हैं कि
श्रावणापि पितरी गुरू राजाप्यसंयताः।
कुलिङ्गिानः कुदेवाश्च न बन्धास्तेऽपि संपतैः ॥ अर्थात्-मुनि ही नहीं, श्रापकको भी असंयमी माता पिता शिक्षा गुरु दीक्षा गुरु राजा मंत्री भादिक तथा कुलिङ्गी-तापसी या पार्श्वस्थादिक और कुदेव-रुद्रादिक एवं शासनदेवों की पन्दना नहीं करना चाहिये । और मुनियोंको श्रावककी मी वन्दना नहीं करनी चाहिये । फिर पाप तो शासन देवोंके पूजन करने में हानि नहीं बताते । सो सापका कथन ज्या भागमविरुद्ध नहीं है।
उचर--हमारा कथन आगम एवं पं० प्राशाधरजीके कथनके विरुद्ध नहीं है। हमने सोमदेव धरीका वाक्य ऊपर उधृत किया है जिसमें उन्होंने कहा है कि सम्यग्दृष्टियोंको उन शासन देवोंका यहांश देकर सम्मान करना चाहिये । इसके सिवाय उन्होंने तीसरी प्रतिमा का कर्तव्य बताते समय पूजन के अन्तर्गत शासन देवों को अर्घ देने का विधान किया है यथा
योगेऽस्मिन् नाकनाथ ज्वलन पितृयते ! नैगमेय प्रस्नेतो.
पायो रदेश शेपोडुप सपरिजना यूयमेत्य ग्रहापाः । मंत्रः स्वः स्वधायैरधिगतवलयः स्वासु दिपविष्टाः
क्षेपीयः क्षेमदक्षाः कुरुत जिनसवोत्साहिना विनातिम् ।। इसमें पूर्वादिक दश दिशाओं में इन्द्रादिक दशों दिकपालों ( इन्द्र, अग्नि, यम, नैऋत, वरुण, वायु, कुवेर, ईशान, धरणीन्द्र, और चन्द्र ) को क्रमसे संपनी २ दिशामें सपरिवार ( स्वायुषवाहन--युवति-जनसमेत) आकर बैठने के लिये कहा गया है और मंत्रपूर्वक बलि ( यज्ञांश) का प्रदान किया गया है तथा उनसे पूजनमें विन शांति की प्रार्थना की गई है। इसके सिवाय देवसेन नाचार्यने अपने प्राकृत भावसंग्रहमें भी यही बात कही है। वे कहते हैं
श्रावाहिऊण देवे सुरवइ-सिहि-काल-- ऐरिए- वरुयो। . पवखे-जखे -सबली सपिय सवासणे ससत्थे य ॥ ४३६ ॥
दाऊण पुज दब्बं बलि चरुयं तहय जएणभायं च।
मबसि मंतेहि य वीयक्सर सामजुत्तेहि।। ४४० ॥ भाशय स्पष्ट है कि इन्द्र--अनि--यम-नंत-वरुण-पवन -यच और ईशान इन माउ दिकपालों को अपने २ आयुथ वाहन युवतिजन सहित वीजाक्षर नाम सहित मंत्रों के द्वारा माहान करके पूजा दुरुप वलि यरु तथा यज्ञमाग प्रदान करे।
१-अनगार धर्मामृत अवलोक५२। २-पूलिखित यशस्तिलक मा० पू० ३६५
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चंद्रिका टीका तेईसवां लोक श्रीपूज्यपादाचार्य ने भी अपने "महाभिषेक" पाठमें कहा है कि-- पूर्वाशादेश -हव्यासन--महिषगते-नैऋते -पाशपाणे,
बायो--यवेन्द्र--चन्द्राभरण फरिणपते-रोहिणीजीवितेश। सर्वेऽप्यायात यानायुधयुवनिजनः गार्धमाभूर्भ : स्थः -
__स्वाहा गृहीत चाय चरुममृतमिदं स्वास्तिकं यन्नमार्ग ॥ ११ ॥ इसका भी अभिप्राय वही है जो कि सोमदेव सूरीका है। इसमें भी यान मायव युवति माहित इन्द्रादिक दश दिकपालोंका मंत्र पूर्वक आह्वान कियागया है और उनमें प्रार्य यह अमृत स्वास्तिक एवं यज्ञभागको ग्रहण करनेकेलिये कहागया है।
इसी तरह और भी अनेकों प्राचार्योंके प्रमाण-अवतरण हैं जिनमें किश्वासनदेवोंका अमिषेक-पूजनके पूर्व यथाविधि पादि देकर सम्मान करनेकेलिये कहागया है। जिनका कि विस्तारमयसे यहाँ उल्लेख करना उचित प्रतीत नहीं होता। ___ अत एव यहा कहना तो उचित एवं मंगत नहीं है कि यह विषय प्राममके विरुद्ध है। भागमसे सुसिद्ध विनयको भागम विरुद्ध नहीं कहा जा सकता को दी गई सकता है जिसको कि दर्शन मोहके पन्ध का भय नहीं है।
रही पं० श्राशावरजी के उपर्युक्त वाक्य के विरोधकी बात, सो षह भी ठीक नहीं है। उक्त वाक्यपर उसके प्रकरण आदिको दृष्टि में रखकर विचारकरनेसे मालुम होसकता है कि उस वाक्यपर से यह अर्थ निकालना कि आसाधर जी शासन देवों को श्रावकके द्वारा अादि प्रदान करना अनुचित समझते हैं अथवा आगमविरुद्ध मानते हैं सो ठीक नहीं है।
प्रकरणपर दृष्टि देनेसे मालुम होगा कि वह पद्य अनगारधर्मामृतका और उम के भी उस अष्टम अध्यायका है जिसमें कि मुनियोंके सामायिक, चतुर्विशतिस्तव, बंदना, अतिक्रमण, प्रत्याख्यान और कायोत्सर्ग नामके छह आवश्यक मूलगुणोंका वर्णन कियागया है। इनमेंसे तीसरे भावश्यक बन्दनाके वर्णन के अन्तर्गत यह पध भाया है। इसके पहले वे बन्दनाका पर्व उसके भेद बता चुके हैं। वन्दना नाम विनयकर्मका है । अहंदादि में से जिस किसी भी पूज्य व्यक्तिका भावशुद्धिर्षक नमस्कार-स्तवन-आशीर्वाद-जयवादादिस्वरूप विनय करने को बन्दना कहते हैं । अथवा हितकी प्राप्ति और अहित का परिहार होने के जो साधन है उनके माहात्म्प-शक्ति विशेषके प्रकट करने में निर्व्याजरूपसे सदा अपत करनेको विनय जर्म कहते हैं ।
सामान्यतया विनयकर्मके पांच भेद है-लोकाश्रय, कामाश्रय, अर्थाश्रय, भयाश्रय और मोपायर । इन पांच भेदों में से प्रकृत बिनय कर्मका सम्बन्ध मोचाधय विनयसे है। जैसा कि उन्हीके पच नं. ४८ के "पिनयः पञ्चधावश्यकार्योऽन्त्यो निर्जरार्थिमिः।" इस वाक्यसे
५-२-भनगारधर्मामृत २०८ पण नं. ५६, १०.४६ ।
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रकरएहसावकाधार स्पष्ट होता है कि निर्जराक अभिलापियोंको इन पांच प्रकार के विनयों से अन्तिम-मोधाश्रय विनय अवश्य करना चाहिये। अर्थात् बन्दना श्रावश्यक से प्रयोजा मोक्षाश्रय विनयसे है। यह मोक्षाश्रय विनय किनको किस २ का करना चाहिये यह वात प नं ५० और ५१ में बताने के बाद पधनं ५२में बतायागया है कि किन २ को किस २ का यह मोधाश्रय विनय नहीं करना चाहिये। ध्यान रहे इस अवन्दनीयताका कारण भी असंयतत्व है। जैसा कि पधगत 'संयताः संयतः' इन शब्दों के द्वारा स्थष्ट होजाता है। मतलब यह कि श्रावक और मुनि दोनों ही संयमी है अत एव उनको किसी भी असंयमीका मोशाश्रय विनय नहीं करना चाहिये फिर थाह यह अपनी माता हो, पिता हो, शिसागुरु ही, दीक्षागुरु हो, राजा मंत्री पुरोहित आदि हो, कुलिङ्गी-मिथ्यादृष्टि तापसादिक हो या जिनमुद्राके धारक होते हुए भी भ्रष्ट-पावस्थादिक मुनि हो, अथवा कुदेव-रुद्रादिक हों या शासन देव हों। ___ यह बात भी ध्यान देने योग्य है कि इसी पधमें 'सोऽपि संयतैः' पदके द्वारा मुनिके लिये धावक भी अवन्दनीय ही बतायागया है। जिससे तात्पर्य यह निकलता है कि पाई कोई मुनि हो अपना भावक, दिखी यो सी भारत के नीचे पवालेका मोक्षाश्रय विनय अर्थात बन्दना कर्म नहीं करना चाहिये।
यद्यपि श्रावक अन्दसे अभिप्राय पंचमगुण स्थान के भेदरूप ग्यारह प्रतिमाओंके व्रतों मेसे किसी भी प्रतिमाके व्रत धारण करने वाले से होता है फिर भी प्रकृत में उन दशवीं और ग्यारहनी प्रतिमाके व्रत धारण करने वाले वानप्रस्थाश्रमियोंसे ही मुख्यतया प्रपोजन है जो कि प्राय: घरमें रहना छोडकर साधुसंधके साथ रहा करते हैं और उन्ही के साथ इन भावश्यक क्रियाओं को भी किया करते हैं। इस के सिवाय यह बात भी ठीक है कि साधारण जघन्य श्रावकको भी किसी भी असंयमीका मोक्षाश्रय विनय नही करना चाहिये। किन्तु इसका अर्थ यह निकालना या समझना गलत होगा कि श्रावक-अर्थात् क्ती गृहस्थ किसी भी मसंयमी का मोक्षाश्रय विनयके सिवाय अन्य किसी भी प्रकारका भी विनय कर्म नहीं करसकता। गृहस्थाश्रममें रहते हुए वह अपने माता पिता शिक्षादीक्षागुरू और राजा मंत्री आदि को नमस्कारादि न करे यह अशक्य है और प्रयुक्त है।
इसके सिवाय पं० माशावरजीने ही अपने इसी धर्मामृत ग्रंथ के उत्तरार्थ-सागार माग अध्याय ६ के "पाश्रुत्य स्नपन" भादि पद्य नं० २२ में प्रयुन "इष्टदिक' शब्दका अपना ही टीका क्या अर्थ लिखा है सोमी ध्यान देने योग्य है-वे कहते हैं-- ___ “इष्टदिक दृष्टा पक्षांश प्रापिता जिनयज्ञमभिवर्धयंतो वाऽनुमोदिता दिशस्तस्था दिक्पाला दशेन्द्रादयो यत्र नीराजनकर्मणि तदिष्टदिक । अर्थात् अभिषेक पूजन के समय नीराजन कर्म में इन्द्रादिक दश दिक्षार्लो को यज्ञांश देना चाहिये और उनसे जिनयश का. अभिवर्षन करना
१--विनयः पश्चमो यस्तु तस्यैषा स्यात प्ररूपणा!" मन० अ-४८ को टोकामें उपत पद्य ।
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पद्रिका टीका तेईसयां श्लोक चाहिये तथा इसके लिय उनका अनुमोदन करना चाहिये । १ ___ यह तो उनका एक संक्षिप्त वाक्य है। परन्तु उन्होंन जो नित्य महोद्योत" नामका अभिषेक संबन्धी स्नान शास्त्र लिखा है जिसकी कि स्वयं ही उन्होने टीकाभी की है उसमें तो खुद विस्तार पूर्वक इस विषयका वर्णन किया गया है। अत एव अनगार धामृत के 'श्रावकेणापि" आदि श्लोक परसे यह 'मर्थ निकालना कि पं० आशाधरजी दशदिकपालपूजा के विरोधी हैं अथवा शासन देयों की पूजा या नियोगदान को वे आगम विरुद्ध समझते हैं यह ठीक नहीं है। और इसीलिये हमने जो कुछ इस विषयमें ऊपर लिखा है उसको भी आशाधरजी के विरुद्ध कहना पुतियुक्त एवं संगत नहीं है । इसके सिवाय "पातिकस्तु भजत्यपि " आदि उनके पाक्य तो विषय को और भी अधिक स्पष्ट करते हैं।
इसतरह ऊपरके संक्षिप्त कथनसे यह बात अच्छी तरह समझमें आ सकेगी कि श्रावक जो कि नित्य एवं आवश्यक कर्तव्य देवपूजा का पूर्ण अधिकारी है, और पुजाका वास्तविक तथा पूर्ण फल उसके यथाविधि किये बिना नहीं हो सकता ऐसी अवस्थामें विधिके अंतर्गत आगमवर्णित शासन देनोंका पूजन-नियोग दान करने पर वह किसीभी प्रकार दोषभाक नहीं हो सकता। क्योंकि दोपका कारण तो आशयका भेद हो सकता है। जबतक उसके माशयमें किसी प्रकारका विकार--विभाव अथवा विपर्यास नहीं है और केवल भागमोक्त विधि का आदर करके उसको मानकर और सत्भावनापूचक वैसा करता है तो उसको दोषमाक पद्धा उसके सम्यग्दर्शन को समल किसतरह कहा जासकता है ? वहीं कहा जासकता । दोषका कारणभूत श्राशय भेद जिन प्रकारों से संभव हैं वे चार प्रकार ही इस कारिका में ग्रंथकर्ता श्रीभगवान समन्तभद्र स्वामीने आशा, रागद्वेषमलीमसत्व (अनन्तानुबन्धि कमायोदय युक्तत्यअथवा मिथ्याष्टित्व ) बरोपलिप्सा और उपासना शब्दोंके द्वारा व्यक्त कर दिये हैं।
ब्रतों की तरह सम्यग्दर्शन के भी चार दोष-अतिक्रम व्यतिक्रम अतीचार और अनाचार होते है । ये दोष श्राशा आदि के साथ किस तरह घटित होते हैं यह बात ऊपर लिखी जा 'चुकी है। जिसका मतलब यह है कि जबतक सम्यग्दर्शन इन दोषों से रहित नहीं हो जाता तब तक वह मोक्षमार्गक सम्पादन में वस्तुतः असमर्थ है । इसका अभिप्राय यह निकालना प्रयुक्त होगा कि-इन अतिक्रमादि देशों के लगर्नपर सम्यग्दर्शन समूल नष्ट होजाता है। अन्यथा प्रायः सभी विद्याधर जो कि मानुपक्षकी एवं पितृपक्ष की नाना प्रकारकी विद्याओंको सिद्ध किया करते हैंतच विद्याओंके अधिपति देव देवियोंकी आशा-एवं परोपलिप्सासे प्रेरित हो कर ही उपासना किया करते हैं उन सबको तथा उन्हीके समान अन्य महान व्यक्तियों को भी मिध्यादृष्टि ही कहना पडेगा। किन्तु वास्तबमें ऐसा नहीं है। हां, यह ठीक है कि इसतरही प्रवृत्ति करनेवालों
१--इस कथनमें वृत कारित अनुमोदना के तीन भाव व्यक्त होते हैं। २-यह ग्रंथ श्रीयुत सिद्धान्त शास्त्री पं० पन्नालालजी सोनी द्वारा सम्पादित “ अभिषेक पाठ संग्रह " में श्री बेनजीलाल ठोल्या दि० जैनमंथ माला समिती द्वारा कई घर्ष पूर्व प्रकाशित हो चुका है।
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का सम्यग्दर्शन समल एवं निम्नकोटिका माना जा सकता है। साथ ही यह बात भी ध्यान देने योग्य है कि यद्यपि अधिकतर दोष सम्यक्त्व प्रकृतिके उदयसे ही सम्बन्ध रखते हैं फिर भी कदाचित् यह भी संभव हो सकता है कि कपाय और अज्ञानकी निम्न कोटिकी अवस्था अथवा कारणभी सम्यग्दर्शन में समलता पाई जा सके । अस्तु, यहांपर सारांश यही लेना चाहिये कि मुमुक्षु भव्यात्माको मात्मसिद्धि प्राप्त करनेकेलिये उसके मूल कारण सम्यग्दर्शन की विशुद्धि सिद्ध करनी चाहिये और उसकेलिये उसके अन्य दोषोंकी तरह देवमृहता नामक दोष भी छोड़ना चाहिये तथा यह दोष जिन कारणोंसे आसकता है उन सब कारणोंका भी परित्याग करना चाहिये ।
अब क्रमानुसार प्राचार्य यहां पापएिडमूढताका स्वरूप बताते हैं
सग्रंथारम्भहिंसानां, संसारावर्तवर्तिनाम् ।
पाषण्डिनां पुरस्कारा, ज्ञेयं पाषण्डिमोहनम् १ ॥२४॥
अर्थ---जो परिग्रह, आरम्भ और हिंसाकमोंसे युक्त हैं तथा जो स्वयं संसार चक्र में पड़े हुए हैं अथवा दूसरों को डालनेवाले हैं ऐसे पाषण्डियों के पुरस्कार को पाषहिडमूढता समझना चाहिये |
प्रयोजन - निर्दिष्ट मूढता के तीन भेदों में से दो भेदोंका स्वरूप निरूपण करने के बाद शेष पापड मूढता का स्वरूप बताना स्वयं ही अवसर प्राप्त हो जाता है।
दूसरी बात यह है कि किसी भी धर्म का सर्व साधारण में प्रचार उसका स्वयं पालन करके भादर्श नेता बननेवाले व्यक्तियों के द्वारा ही हुआ करता है सर्व साधारण जन तत्त्व के मर्मज्ञ नहीं हुआ करते, वे या तो गतानुगतिक हुआ करते है अथवा मोह लोभ भय आशा स्नेह आदि के वशवत रहने के कारण जिधर उनका प्रयोजन सिद्ध होता हुआ दीखता है उधर को ही शुरू जाते हैं स्वयं ज्ञानहीन रहने के कारण अथवा मोहित बुद्धि रहने के कारख नेता बनकर सामने आनेवालोंकी उक्ति युक्ति और वृद्धि की वास्तविकता की परीक्षा करनेमें वे असमर्थ रहा करते हैं। लोगों की इस दशा से जानबूककर अथवा बिना जाने अनुचित लाभ उठाने वालों की कमी नहीं है । संसारके कारणों से पृथक् रहना साधारण बात नहीं है। विषय वासनाओंको और उनके साधनों को सर्वथा छोड़ कर आत्म सिद्धि के लिये तपस्वी जीवन चिताना अत्यन्त कठिन है फिर आजकल के समय में तो उतना ही कठिन है जितना कि चोर बजारमें किसी या किन्ही व्यक्तियों का वास्तविक सद् व्यवहार पर - न्याय पूर्ण सत्य एवं अचौर्य वृद्धि पर टिके रहना ।
संसारी प्राणी मात्र के वास्तविक हितैषी महात्माओं का कर्तव्य है कि वे ऐसे विषयों को उनके सामने उपस्थित करदें जिनको कि जानकर और देखकर अपने कम्यायकारी मार्गका
१-पाउंड, पाखंड उभावपि रूपी शुद्धी, इति पं० गौरीशाल सिःशास्त्रिणां टिप्परचाम् ।
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चंद्रिका टीका चोधीसदा श्लोक निश्चय करनेकेलिये वे सत्य एवं असत्य तथा हितकर और अहितकर विषय को स्वयं ही सरलतया एवं स्पष्ट रूपमें समझ सकें । यह सभी के समझ में आसकने वाली बात है कि जो व्यक्ति स्वयं ही अहितकर एवं अहित रूप दोषों से युक्त है वह दूसरोंको उन दोषोंसे मुक्त नहीं कर सकता । ऐसे ऽयक्तिको भादर्श मानकर उसका अनुसरण करके उसके नेतृत्वमें चलकर कोई भी व्यक्ति वास्तवमें अपना कन्याण नहीं कर सकता। क्योंकि जो स्वयं ही डूबे हुए हैं या इबनेवाले हैं वे दूसरोंको किस तरह तार सकते हैं। जो पत्थरकी नाव स्वयंही पार नहीं जासकती उस पर बैठनेवाला तो पार होही किस तरह सकता है ? नहीं हो सकता । अत एव ग्रन्थकर्ता आचार्य हितबुद्धिसे जो संसारको दुःखरूप समझनेवाले हैं और इसीलिये उस की दुःकरूपताके कारणों को जानकर उससे परिनित होने के इच्छु: मुमुक्षु हैं उनको इस कारिका द्वारा यह बतादेनाचाइते है कि मोक्षमार्गमें पलनेके लिये तुमको अपना नेता किसतरहका चुनना चाहिये ।
आत्मा और उसका हित पचपि युक्तिसिद्ध अनुभवसिद्ध और आगम प्रसिद्ध है किन्तु इन्द्रियगोचर नहीं है । तुम अल्पज्ञ हो युक्ति अनुभव और आगमज्ञान तीनों ही में अत्यन्त अन्न हो, निनकोटिमें अनस्थित हो । सर्वज्ञ तो इस समय उपस्थित ही नहीं है । इन विषयों में पूर्णतया समाधान करके निःशंक बनासकने वाले विशिष्ट ज्ञानी पुरुष भी प्रायः दुर्लभ हैं। ऐसी परिस्थिति में जो आत्मा और उसकी संसार मुक्त दो अवस्था तथा इन दोनों ही परस्पर ३६ के अंककी तरह विरोधी अवस्थाओंके परस्पर विरुद्ध कारणोंपर विश्वास करता है और इनमें से संसार भवस्था को दुःखरूप समझकर उमो सर्वथा निवृच होकर निर्वाणको सिद्ध करना चाहता है तो उसका कर्तव्य है कि अपने प्रादर्श के अनुकूल ही पुरश्चारी नेताका निर्वाचन करे । यदि वह ऐसा न करके सर्वसाधारण संसारी मनुष्य के समान व्यवहार करनेवालेको अपना नेता मान कर चलेगा और उसीको आदर्श समझकर प्रवृत्ति करेगा तो वह निर्वाणको सिद्ध नही कर सकता-संसारको ही सिद्ध कर सकेगा 1 अत एव सम्पदृष्टि मुमुक्षु को सावधान करदेने केलिये यह बता देना ही इस कारिकाका प्रयोजन है कि मोक्षमार्ग साधनमें यदि तुम इस तरहके व्यक्तिको अपना अगुमा बनाकर चलोगे तो कभी भी श्रात्मकल्याण को प्राप्त न कर सकोगे जिसका कि व्यवहार तुमसे भी गया चीता है।
शन्दोंका सामान्य विशेष अर्थ
ग्रन्थ-यह शन्द कौटिल्य-दम्भ-शाय अर्थवाली भ्वादिगणकी प्रथि धातु अथवा संदर्भार्थक चुरादिगणकी अन्य धातु इनमेंसे किसी से भी निष्पन्न हो सकता है। इस के अर्थ भी कोषकारोंने धन शास्त्र भदि अनेक किये है किन्तु प्रकृतमें इसका प्राशय परिग्रहसे है। परिग्रहकामी सात्पर्य जो कोई वस्तु अच्छी तरह प्रहण कर रक्खी है उससे अथवा जिन अन्तरंग परिणामोंके द्वारा जगदमें किसी भी वस्तुका ग्रहण किया जाता है उन जीवपरिणामें से हैं। अत एष परिग्रह के मागममें दो भेद पताये गये हैं । एक अन्तरंग दूसरा बाप । अन्तरंग परिग्रह के १४ और नाम
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रस्तफराविकाधार परिग्रहक १० भेद है । हिरण्य सुपर्थ धन वान्यादि २० प्रकारकी गृह्य वस्तुओंके भेद से बास परिग्रहके १० भेद होते हैं । इन वस्तुओंके ग्रहण करने में प्रमत योग और मूाभाव पाया जाता है इसीलिये इनको पाय परिग्रह शब्दसे कहागया है। स्वयं प्रमत्तयोग अथवा मूर्धाभाव अन्तरंग परिग्रह है। यह मूर्छाभाव तथा योगोंमें प्रमचता मोहनीय कर्मके उदय की अपेक्षा रखती है अत एव मोहनीय कर्मके उदयस जितने भी जीवके विभाव परिणाम होते हैं वे सब अन्तरंग परिग्रह हैं। उन विभाव परिणामोंको १४ भागोंमें विभक्त किया गया है । अन्तरंग दृष्टि से एवं शुद्ध तत्वके विचारकी दृष्टिसे यही संसार है, यही संसारका बीज है और सम्पूर्ण कर्मोका राजा माने गये मोइनीयकर्मका यही परिकर तथा साम्राज्य है। जिन जीवोंने इस बीजको अन्तरंग में से निकालकर फेंक दिया है और उसके बदले मोक्षमार्गके वीज भूत सम्यग्दर्शनको प्राप्त करलिया है वे संसार चक्र से मुक्त हैं और मोहके साम्राज्यसे भी पृथक हैं । इसके विपरीत जो ऐसा नहीं कर सके है वे संसारी हैं, संसारपटियंत्र के पहिये हैं, मोहके परिजन है अथवा सम्पूर्ण भोगोपभोग या विषयों में अनुरक्त रखनेवाली मोहकी किंकरी-श्राशाके किंकर हैं और इसी लिये समस्त संसारके दास हैं।
पांचाही इन्द्रियों के विषयों तथा तदनुकूल सभी भोगीपभोग के साधनों का सम्बन्ध उनके प्रति अन्तरंग भासक्ति मूच्र्छा और मोह भावको उसी प्रकार प्रकट करता है जिस तरहसे कि पुत्रको उत्ससि माता पिताके सम्बन्ध को सूचित कर देती है। अतएव जो व्यक्ति परिग्रहों में मासक्त रहकर भी अपने को उनसे अलिप्त मतानेका प्रयत्न करते हैं वे अवश्य ही पाखण्डी हैं अपनी असली अंतरंग निम्न कोटिकी पित वृत्तिको छिपाकर अयथार्थ उच्चकोटिक सदभावों को व्यक्त करने की चेष्टा का नाम पाखण्ड है। फलतः संसारमं जो आसक्त हैं परन्तु अपनेको अनासक्त दिखाते हैं या बतात हैं अथवा जी वैमा अपने को दिखाते या बतात तो नहीं है परन्तु बास्तवमें है भासक्त ही, वे सब पाखण्टी हैं । इन्हीको यहाँपर सग्रन्थ शब्दसे बताया गया है।
भारम्भ-अंथ शब्दकी तरह यहभी मोगरूढ शब्द है आज पूर्वक भ्वादिगणकी ३राभस्यायक रम थातुसे धपत्यय औरसुम्का मागम होकर यह अन्द बनता ई निरुक्ति के अनुसार यद्यपि किसी भी कार्यका उपक्रम शुरू करना इसका अर्थ होता है किन्तु प्रकृत में भोग अथवा उपभोग रूप विषयों के अर्थ तथा पक्षण के लिये जो प्रयल किया जाता है उसको ही आरम्भ कहते है।
मागम में मनुष्यों के दो भेद बताये हैं। मार्य और मलेच्छ भार्यों के चातुर्वर्य धर्म की व्यवस्थाको दृष्टि में रखकर उनके योग्य प्रार्जीविका के लिये किये जाने वाले प्रयनोंको सामान्यतया १-मिथ्यात्व-वेद रागास्तव हास्यादयश्च षड् दोशः । चत्वारश्च कषायाश्चतुर्दशाभ्यन्तरा पन्थाः ॥११६|| पु०सि०। इस तरह ५४ मध्यन्त तथा क्षेत्र वास्तु हिरसय सुवर्ण धन धान्य दासी दास कृप्य और भांड। ये दश वाह्य परिग्रह है। २--आशाया ये कासास्ते दासाः सर्वलोकस्य । श्राशा येषां दासी सेपो दासोऽखिलो लोकः । ३-"राभस्थमुपक्रमः" सि० को नवबोधिनी!
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चंद्रिका टीका चोवीसवां श्लोक
२१७ छह भागोंमें विभक्त किया गया है-असि मसि कृषि वाणिज्य विधा और शिल्प१ । ये सभी कर्य सामान्यतया सावध हैं। इनके करने में किसी न किसी रूपमें थोड़ा या बहुत पापका संचय अवश्य शेखाई। जो एक समान का साधन जहां किया जाता है ऐसे संन्यस्त पाश्रममेंर रहने के लिये अब तक असमर्थ हैं और दार परिग्रह करके गृहस्थाश्रममें रहते हैं उनको अपने परिग्रह की सिद्धि के लिए उचित आरम्भ करना भी आवश्यक हो जाता है, अतएव उनके लिये आरम्भ कथंचित् विहित है-उचित है शेष तीन आश्रमों में वह श्रावश्यक नहीं रहता । वानप्रस्थ और संन्यस्ताश्रममें सो सवथा अविहित है। अतएव जो व्यक्ति गृहस्थाश्रम को छोड़कर वानप्रस्थ अथवा संन्यस्ताश्रममें अपनेको उपस्थित करके गृहस्थाश्रमियों के योग्य प्रारम्भ कर्म करता है वो उसेमी पाखण्डी ही कहा जा सकता है क्योंकि वह आगम की आशा का भंग करता है और लोगोंको धोखा देता है। ऐसे पाखण्डियों के नेतृत्वमें जीवोंका आन्मकल्याण मिदीनो गकता वह या तो संशपमें पड़ जा सकता है अथवा वंचित या बाधित हो जा सकता है।
हिंसा-पात-बध आदि अर्थोमें प्रयुक्त होनेवाली रुधादि गणकी३ हिसि धातुसे भाव अर्थमें व्युत्पत्र होकर यह शब्द बनता है । आगमके अनुसार इसका अर्थ प्रमच योग द्वारा होनेवाला प्राय ग्यपरोपज होता है। लोकमें सर्व साधारण व्यक्ति अहिंसा और दयाका एक ही अर्थ समझते हैं परन्तु ऐसा नहीं है । दया परोपकारपरक सराग भाव है और अहिंसा सभी प्रकारकी राग द्वेषरूप कषाय की निवृचिरूप है। रागद्वेषके द्वारा अपने प्राणोंका निश्चित रूपसे बध होता है अतएव उसे हिंसा कहते हैं । करायके निमित्तसे प्रमस बने हुये अपने योगके द्वारा मन वचन काय की प्रवृत्तिसे जब दूसरेके भी प्राणोंका वियोजन होता है तो उसको भी हिंसा कहते हैं पहली भाव हिंसा और दूसरी द्रव्य हिंमा कही जाती है क्योंकि उसमें अपनेही भावोंका पात होता है और इसमें अपने से भिन जीवके भी प्राणोंका वध हुआ करता है।
पांचाही इन्द्रियोंके विषयोंका सेवन यदि संयत नहीं है हिंसाके पापसे बचाकर रखनेवाले श्रास्पक तरूप नियमोंसे युक्त नहीं है तो बहमी हिंसाके पापसे अस्पृष्ट नहीं माना जासकता और नहीं रहही सकता है। इन्द्रियों में दो इन्द्रियों की प्रकृति प्रबल एवं सर्वाधिक है। म्पर्शन और ग्लना५ दोनोंही इन्द्रियोंकी प्रतियां यदि अयुक्त हो तो सर्वसाधारणमें भी निन्द्य मानी जाती है । फिर यदि कोई व्यक्ति संसार का परित्याग कर आत्मकल्याणके आदर्शभूत पद को प्राप्त करके भी लिसिविः कृषिविद्या वाणिज्यं शिल्पमेव च । कर्माणोमानि पोढा स्युः प्रजाजी नहेतवे । परन्तु पशु पालब भी वैश्यों का कर्तव्य बताया है। यथा-" वैस्या व ऋषिवाणिभपशुपाल्पोपजीविमः " ॥१wधामादि पुराण। २-जिस तरह ब्रामण-पत्रिय-वैश्य और राव ये चार वर्ष हैं उसी तरह चार आश्रम हैं यथा-प्रमचर्य गृहस्थम वानप्रस्थं भिक्षुकः । चत्वार श्राश्रमा एते सप्तमांगाद्विनिर्गताः ८४|| आदि पुराण ३-एही धातु घुपदि गण में भी पठित है। ४-प्रमच योगात्माणव्यपरोपएं हिसा । न० सू० ॥१३ -सा रसणि कम्माण मोहणी सह पयाग बम्हें । प गुतीण य मणगुत्ती पउरो दुक्खेण सिझति ।
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रत्नकरण्डश्रावकाचार दोनोंही इन्द्रियोंके विषयमें असंयत है-सर्वसाधारणमें भी गममझी जानेवाली प्रवृत्ति करता है तो वह पाखण्डी क्यों न माना जायगा | अवश्य माना जायगा ।
देखा जाता है कि गृहस्थों के लिये आदर्श साधु पद को धारण करके भी इन पाखण्डियों की इन्द्रियों की प्रवृत्ति प्रायः अनर्गल रहा करती है। दिन रातका कोई विवेक नहीं रखते। रात्री में भी भोजन करते हैं जब कि हिंसाका सम्बन्ध बचाया नहीं जा सकता । दिनमें भी मिक्षाशुद्धिका कोई नियम नहीं रखतेरे भक्ष्य वस्तु ओंमें भी सावध-मांसादि तकका भी ३मक्षण करते हैं। अत्यन्त सरस काम वर्धक पदार्थों को यथेच्छ ग्रहण करते हैं। इस तरह की रसना इन्द्रियके विषयमें लम्पटताको देखकर कौन कह सकता है कि ये इन्द्रियविजयी४ है ? और मोषमार्गके भाई - साधुपगर प्रकारेवर है : सथा भुमुजुओका नेतृत्व करने के योग्य हैं। ___ स्पर्शन इन्द्रियके विषयमें भी जो कुत्सित लीलाएं होती हैं-और धर्मके नामपर होती है उनको देख सुनकर तो संभव है लजाको भी लजा आजायगी | यह प्रवृत्ति भी न केवल सावध ही है अपितु हिंसामय भी है। अत एव हिंसा शब्द से यद्यपि यहां पर सभी सावध व्यापार ग्रहण किये गये हैं फिर भी मुख्यतया पांचों इन्द्रियोंके भोगीपमोगरूप सभी विषय समझने पाहिये जहांतक कि उनके ग्रहण करने में नव कोटीम से किसी भी कोटीसे हिंसाका सम्बन्ध पाया जाता है। __ संसार-सम् पूर्वक सु थातुसे यह शब्द बनता है । इसका प्रकृत अर्ध परिभ्रमण है। अर्थात चारों गतिवा, ८४ लाख योनियों एवं एक कोडाकोडी ६७ लाख ५० हजार कुलों में जो जीव इअरसे उधर घूममा गिरता है उसको मेसार कहते हैं । यह फलरूप वाह्य संसार है। अन्तरंग कारणरूप संमार मोहप्रमुख कम है जिनके कि उदयसे ग्रस्त प्राणी विवक्षित परिभ्रमणसे मुक्त नहीं हो पाता। इनके उदयसे यह जीव उपयुक्त विषय सेवन प्रारम्भ और परिग्रहमें प्रवृत्ति करके उन्ही कर्मोका पुनः संचय करना है और इसतरहसे संसारके ही चक्रमें पड़ा रहता है। १ अर्कोलोकेन विना भुजानः परिहरेत्कर्ष हिसाम । अाप बाधितः प्रदीपो भोज्यजुषां सूक्ष्मजीवानाम १३३ पु० सि०२-चाहे जिसके हाथ की चाहे जैसी वजार आदि वस्तु विवक तथा शुद्धि के बिना ही ग्रहण करलिया करते हैं।
३-शाक्त तथा वाममागियों के विषय में तो यह बात सा विश्रुत है। परन्तु अपने को जैन नामसे कहने वाजे श्वेताम्बर मम्प्रदायके ग्रन्थों में भी इसतरहके उल्लख पाये जाते हैं। इसके लिये देखो पं. अजित कुमारजी द्वारा लिखित श्वेताम्बरमत समीक्षा (१३.३०) में उदधृन प्रकरपा पृ० ६२ में भगवती सूत्र पृ० १५६ १५७ १५८ में आचारांग सूत्र के वाक्य जिनमें कि साधुको मांसभक्षणकी खुली आशा है।
विश्वामित्र पराशरप्रभृतयो वाताम्बुपर्णाशनाः । तेऽपि स्त्रीमुखपंकजं सुललितं दृष्ट्व मोहं गताः। शाल्यन्नं सघृतं पयोदधियु ये मुञ्जते मानवाः।
तेषामिन्द्रियनिग्रहो यदि भवेद् विन्ध्यस्तरेत्सागरम् ।। भई हरि ५-पापसहित । हिंस्यन्ते तिलनाल्या तसायसि विनिहिते तिला यद्न् । बहवो जीवा योनी हिंस्यन्ते मेधुने सत् ।।१०८॥ पुसिका इसका विशेष जानने के लिये देखो गो. जीव० मा०६ तथा ११२ मे ११६
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चांद्रका टोका चोवीसवां स्लोक भागममें इस परिभ्रमणरूप संसार के विषयसम्बन्थ की अपेचा पांच भेद बताये हैंद्रव्य क्षेत्र काल भव और भाव । इसका विस्तृत स्वरूप सर्वार्थसिद्धि गोम्मटसार जीवकाण्ड आदि मागम मन्थों में देखना चाहिये। राक्षः सगी सम्प्रदायोंमें संमार को हेय अथवा अनिष्ट बताया है । हेयताके ४ कारणों को स्वयं ग्रन्थकार पद्य नं. १२ में सम्यग्दर्शन के दूसरे निस्काचित अंगका वर्णन करते हुए बताचुके हैं। इनके सिवाय जन्ममरणकी प्रचुरता भी ससारकी हेयता अनिष्टता और दुःखरूपताका एक बड़ा और मुख्य कारण है। संसारमें पड़ा हुमा यह जीव एक अन्तमुहत में ६६३३६ चार जन्म और मरण किया करता है जब कि उस निगोदपर्याप में यह जीव इस पाखण्डके कारण पंहुचता है । क्योंकि पाखण्ड मायाचार रूप है भौर मायाचार तिर्यग्गति का कारण है तथा निगोद प्रायः तिर्यग्गति रूप है। यही कारण है कि परमकारू सिक भाचार्य भगवान् सम्पदृष्टियोंकी पाखण्ड एवं पाखण्डियों से पचे रहने के लिये उपदेश
मावर्त-शब्दका अर्थ भंवर होता है । जिसतरह समुद्र नद नदी मादि विशाल एवं गंभीर जलाशयों में भंवर पड़ते हैं उसी-तरह संसारमें भी उपर्युक्त निगोदादि बडे २ मवर है जिन के कि भीसर पड़जानेपर इस जीवका संसार चक्रसे निकल जाना अत्यन्त कठिन है।
वर्ती-भ्वादि गण की कृत् धातुसे कर्ता हेतुकर्ता अथवा शील अर्थ में गिन् प्रत्यय होकर यह शब्द बनता है। और अदगन्त तथा एयन्त दोनोंही तरहसे५ निष्पन होता है। जिसका भाशय यह होता है कि संसारके आवर्त में जो स्वयं पड़े हुए है साथ ही दूसरोंको भी बालनेवाले हैं।
पाखण्डी-इसकी निरुक्ति इस प्रकार होती है कि
पान्ति रचन्ति पापात्-संसारात् इति पाः आगमवाक्यानि वानि खण्डयति इति पाखण्डी अर्थात् जो मोधमार्ग या भात्मकल्याणके उपदेशका खण्डन करनेवाले अथवा उसके बिना पलनेवाले हों उनको कहते हैं पाखण्डी।
पुरस्कार-पुरस् पूर्वक धातु से पत्र प्रत्यय होकर यह शब्द बनता है। पारितोषिक मादि इसके भनेक अर्थ हैं। प्रकृतमें इसका आशय अग्रतः करपसे है। अर्थात् इसतरह के पाखविडयोंको सन्मान प्रशंसा स्तुति आदि के द्वारा बढ़ावा देना-समाजमें उनको मागे लाना उनको नेतृत्व देना भादि उनका पुरस्कार है।
पाखरिडमोहन-इसका स्पष्ट अर्थ है कि पाखण्डि विषयक मूहता। तात्पर्य यह कोई भी सम्यग्दृष्टि जीव यदि पाखण्डियोंका पुरस्कार करता है तो १-२-सर्विसिद्धि पर सू०१०। तथा जोबकाएर भव्यमार्गणकी टीका। २-"माया तैर्यग्योनस्य ।" त० सू०६-१६।४-वेखो बोधिदुर्लभानुप्रेक्षाका वर्षन । ५--संसाराषतें पतितु वर्तयितु वाशी येषां वे संसारावर्तवर्तिनः ।
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रत्नकरएकश्रावकाचार अपने सम्यग्दर्शन को मूढता की तरफ लेजाता है। पाखण्डिका अर्थ ऊपर बताया जा चुका है जिससे स्पष्ट होजायगा कि नीची क्रिया ऊंचा वेश, मिथ्या प्राचार, मोक्षमार्गके नाम पर स्वेच्छा. चार सावध प्रशुत्तियां, खान पानका अविवेक और स्वैराचार का जो सेवन है वह सब पाखण्ड है । क्योंकि प्रागपकी आज्ञाके वह विरुद्ध है और अन्य भोलेजन सारे चित होला उगे जाने हैं। अपने सावध कर्मोंके द्वारा वे अपने को तो संसार समुद्र में हुवाते ही है साथ ही अपने अनुयापियोंको भी डुबोते हैं। अत एव सम्याष्टिको चाहिये कि इनका पुरस्कार करके अपने सम्पग्दर्शन को मूढता से भभिभूत न होने दे।
सम्बग्दर्शन के विषय तीन बताये हैं-देव शास्त्र और गुरु।तीनों का सम्बन्ध रनत्रयसे है। फिर भी देवका सम्यग्दर्शन से शास्त्रका सम्यवान से और गुरुका सम्पक चारित्र से गुरूप सम्बन्ध है । सम्यग्दर्शनका प्रत्यनीक भाव मिथ्यादर्शन है उसके भी विषय तीन-कुदेव अशास्त्र और कुगुरु । इनमें भी मुख्यतया कुदेव-देवमूढतासे मिथ्यान्वका, कुशास्त्र-लोक मूढता से मिथ्याज्ञानका और कुगुरु-पाखण्डिमृहतासे मिथ्याचारित्रका सम्बन्ध है। तीनोंही भाव परस्पर में अधिनाभावी हैं। फिर चाहें भले ही उनमें मौण मुख्यता या तर तमवा पाई जाती हो या दिखाई पड़ती हो। अत एव एक अंशके मलिन विकत या मन्द पड़ने पर इसरे अंशोंपर भी उसका प्रभाव पड़ना स्वाभाविक है। यही कारण है कि आचाोंने तीनों ही मुहताओंका परित्याग कराके सम्यग्दर्शन को अथवा उसके साथ पाये जानेवाले यथायोग्य रजत्रयको मोहित-यूट प्रशस्त न होने देने का उपदेश दिया है।
प्रकृत कारिका में पाखंडियों अर्थात् गुरुओं से बचकर चलनेका उपदेश है। साथ ही यहां यह भी बता दिया गया है कि पाखण्डि या कुगुरु किस को समझना चाहिये । - सम्यग्दर्शन के विषयभूत सम्यग्गुरुका स्वरूप यथावसर विषयाशावातीतः आदि कारिका में बता चुके हैं। उससे बताये गये तथा जिसमें घटित न हों वही गुरु है यह अर्थादापन हो जानेसे पुनः यहां पर कुगुरु के लक्षण बताने की आवश्यकता नहीं है। ऐसी कदाचित् किसीको शंका हो तो वह ठीक नहीं है। क्योंकि प्रथम ती धर्मोपदेश में विरुति या अनेक तरह से किसीभी एक विषयको यदि समझानेका ग्रन्थकर्ता प्रयह करता है तो वह दोर नहीं है । दूसरी बात यह है कि अापत्ति भी ऐसा प्रमाख है जिसमें किमन्यवानुपपति की आवश्यकता है। अर्थापत्ति का उदाहरण प्रसिद्ध है कि "पीनो देवदत्तो दिवा न के" भत. एव रात्री कल्प्यते । अर्थात् जैसे किसीने कहा कि देवदच खूब मोटा बाजी है, परन्तु यह दिनमें भोजन नहीं करता । ऐसी जगहपर अर्यापति से रात्रीके भोजन की कल्पना सी है क्योंकि पीनत्व भोजन के विना मा नहीं सकता और वह दिनमें भोजन करता नहीं है इसलिये राशीमें भोजन करता है यह बात अर्थापतिसे मान ली जाती है। किंतु ऐसा यहां नहीं है मुगुरु के विषयमें जो विशेषण दिये गये हैं जिसमें घटित न हों उसको गुरु मान लिया जाय यह डीक
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चंद्रिका टीका चोखीसको श्लोक
१२१ नहीं है क्योकि गुरु के स्वरूप का यह कथन अनिच्याप्त है । यतुर्यगुणस्थानवी असंयत सम्यग्दृष्टि मनुष्य में भी सुगुरु के उन विशेषणों का प्रभाव पाया जाता है परन्तु यह गुरु पाखण्डि नहीं है क्यों कि वह न तो विषयाशावशातीत है न निरारम्भ है और न अपरिग्रह ही है। फिर भी वह कुगुरु नहीं है। अतएव कुगुरु अर्थात् पाखरिख का स्वरूप स्पष्टतया पक्षाने के लिये इस कारिकाका निर्माण अत्यन्त इजिन और पावश्यक था।
इसके सिवाय इस कारिका में प्रयुक्त पाखण्डि के विशेषणों का कारिका नं० १० में दिये गये सुगुरु के विशेषशोंके साथ मिलान करने और उस पर विचार करनेसे मारम होगा कि सुशुरु के मावोंसे पाखण्डिके भावोंमें बिलकुल प्रत्यनीकता तो दिखाई गई सापही उन मावों के निर्देशका क्रम भी बिलकुल विपरीत है । सुगुरु के स्वरूप को बताते हुए सबसे पहले पपेन्द्रिों . विषयोंसे रहित होना, उसके बाद प्रारम्भरहित होना, और उसके भी बाद अपरिग्रही होगा बताया गया है । जब कि यहांपर पाखण्डिका स्वरूप बताते हुए इन तीनों ही उण्टे दान मागोंको एकही वाक्य द्वारा किंतु विपरीत कमसे दिखाया गया है । जैसे कि पहले अन्य फिर भारम्भ इसके बाद हिंसा अर्थात् इन्द्रियों से सावध विषयों का सेवन एक 'समन्थारंभहिसाना' इस पदके द्वारा बताया गया है। कारण यह कि जहांतक इन्द्रियोंके विषयोंकी वासना नहीं कटी है, उनके सेवन करने की अंतरंगमें सकपाय भावना यादीनता बनी हुई है वहांतक उनका किसी न किसी रूपमें भोगोपभोग भी बना ही रहता है। तथा उसकी सिद्धि के लिए परिवा मी रखना ही पड़ता है, तथा प्रारम्भ भी करने पड़ते है । तथा इन कार्योक राते हुए हिंसा व सावधताका सम्बन्ध भी किसी न किसी रूपसे बना ही रहता है। इसके विरुद्ध इन्द्रियों के विषयोका परित्याग कर देने पर न तो प्रारंभ एवं परिग्रह की आवश्यकता ही रह जाती है और न उनका परित्याग फिर दुष्कर ही होता है।
"संसारापर्सवर्तिना" पद भी "धानध्यानतपोरक्तः" इस पद में उलिखित समीचीन मात्मसाधना के भावोंके प्रत्वनीक-मिथ्योपदेश पंचामि तप जटाधारक पशहोमादि कर्म पशुपालन घेताचेली या संतानोत्पादन रक्षण एवं विवाहादि करना अधिक स्या महाशाखा शारख-उनका उपयोग तथा खेती प्रादि उन कामों को प्रगट करता है जो कि सापद्य और हिंसासे संबन्धित हैं। इन कार्योंको करते हुए भी जो अपने को साधु सन्यासी प्रगट करता है यह मनस्यही पाखंडी है। ऐसे पाखंडियों के पुरस्कार से अपना सम्यग्दर्शन मलिन होता है और सामान्य मोचमार्गका भादर्श भी भ्रष्ट होता है । भतएव समषु शिवकी सम्यग्दृष्टि का कर्तव्य है कि उनका पुरस्कार न करे क्यों कि वे वास्तवमें गुरु नहीं है जैसा कि कहा भी है किसर्वामिलापियः सर्वभोजिनः सपरिग्रहाः२ । अनमचारिणो मिष्योपदेशा गुरषो न तु॥
अन्तर विषय बासना वर्ते, गाहिर खोक लाज भय भारी । तातें परम दिगम्बर मुद्रा परि नदि सकहिं दीन अंसारी॥ २-०.२-१ की टीकामत ।
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रामकररहश्रावकाचार किंतु सच्चे तपस्वियों का ही सेवन करे जैसा कि भगवान जिनसेन स्वामीने बताया है किदृष्टव्या गुरवो नित्यं पृष्टव्याश्च हिताहितम् । महेज्पया च यष्टव्याः शिष्टानामिष्टमीदृशम् ।।
सम्यग्दर्शनका लक्षण वर्णन करते समय श्रद्धान रूप क्रियाके जो तीन विशेषण दिये थे उन मेंसे दो का विवरन पूर्ण काउच तीसरे विशेषण-'अस्मयं का व्याख्यान शेष है अतएव अवसर प्राप्त होने से आचार्य उसकी व्याख्या करते हैं उसमें सबसे पहले प्रकृत स्मय का स्वरूप और उसके भेद बताते हैं
ज्ञानं पूजां कुलं जाति, वलमृद्धि तपो वपुः ।
अष्टावाश्रित्य मानित्वं स्मयमाहुर्गतस्मयाः ॥ २५ ॥ अर्थ-ज्ञान पूजा कुल जाति बल ऋद्धि तप और शरीर इन आठोंके श्राश्रय से जो भमि___ मान किया जाता है उसको निर्मद आचार्य म्मय कहते हैं।
प्रयोजन-सम्यग्दर्शन जोकि धर्म अथवा मोक्षमार्ग में सबसे प्रथम एवं प्रधान पदपर अबस्थित है उसकी पूर्णता तथा विशुद्धता तबतक संभव नहीं है और नहीं वह अपना वास्तविक कार्य करने में ही समर्थ हो सकता है जबतक कि अंतरंग में स्मयका भाव बना हुआ है । मत एव सम्यग्दर्शन का लक्षण कथन करतेहुए जिन २ विषयोंका उल्लेख ग्रंथकारने किया है उन सभी का स्पष्टीकरण करके प्रकृत विषय के व्याख्यान को समाप्त करने के पूर्व उल्लिखित विषयर्मिसे इस अन्तिम विषय का भी स्पष्टीकरण करना उचित सथा आवश्यक है । यही कारण है कि सम्यगदर्शन की अस्मयताको बताने के लिए आचार्य मयका स्वरूप विषय और प्रकार यहाँपर बता रहे हैं । यदि इस विषयको छोड दिया जाय दूसरे शब्दोंमें यदि सम्यग्दर्शनका अस्मय विशेषण न दिया जाय तो स्पष्ट है कि स्मयके सद् भावमें भी सम्यग्दर्शन, पूर्ण शुद्ध और अपना कार्य करने में समर्थ माना जा सकेगा जबकि यह वात प्रयुक्त है-विपरीत है-और प्राणि पोंको धोखा देने बाली है। अतएव इसका विवेचन करना अत्यन्त उचित है और आवश्यक है। इसका कारण यह भी है कि प्रायः संसारी जीव बहिष्टि हैं, उनका स्वभाव नेत्रके समान है। जिस तरह नेत्र अपनेसे भिन्न अन्य पदार्थको देखता है परन्तु वह स्वयं को नहीं देखता, न देखही सस्ता है है इसीतरह संसारी जीव अपनेको न देखकर पर पदार्थ को ही देखता है। इसके सिवाय उसका बह देखनाभी मोहोदयके कारण अन्यथा ही होता है । संसार के जिन विषयों में उसने इष्ट या अनिष्ट की कल्पना कर रक्खी है उनमें से देवकी अनुकूलता वश यदिष्ट विषयोंका हाम होजाता है तोवर्यमें उत्कर्षकी भावना करता है-समझता है कि यह मैंने अपनी योग्यता-बुद्धि पातुर्य और पौरुष के बल पर प्राप्त कर लिया है। यदि अनिष्ट की प्राप्ति होजाती है तो दूसरेके प्रति दर्भावना १-यादिपुराण | -नेत्रं हि दूरे तु निरीक्ष्यमाणमात्मावलोके त्यसमर्थमेव ॥ यश
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चंद्रिका टीका पचवां लोक
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करता है कहता है कि अमुकने मेरा काम विगडवा दिया अथवा मुककी अयोग्यता के कारल मेरे ऊपर यह अनिष्ट प्रसंग भाकर उपस्थित होगया है । जबकि वास्तव में इष्ट अनिष्ट विषयों के लाभमें अथवा वैसी परिस्थितिके उपस्थित होनेमें पैौरुष की अपेक्षा देवकी अनुकूलता या प्रतिकूलता अंतरंग एवं बलवत्तर १ कारण है । मोहोदय के ही कारण यह जीव आत्मकल्याण मोक्षमार्ग बाधक अथवा विपरीत विषयोंमें राग रुचि धारण किया करता और साधक तथा अनुकूल विषयों में द्वेष या अरुचि धारण किया करता है जबकि वास्तविक आत्मकल्याणके लिये दोनों हो भाव विरोधी हैं। यही कारण है कि वीतरागद्वेष भगवानकी देशनाको प्रसारित करनेवाले तथाभूत परमकृपालु श्राचार्य तु भव्यको दृष्टिकोण बदलने का उपदेश देते हैं। वे कहते हैं कि यदि तुम्हे आत्मकल्याण करना हैं तो सबसे पहले उसके विरुद्ध साधनों या अनायतनों से तो राग व रुचिको और अनुकूल साधनों एवं सेवा किट देना चाहिये । प्रत्यनीक भाक मिथ्यादर्शनादि तीन और उनके आधार - मूढता के विषयभूत तीन ये वह अनायतन हैं ।
इनसे राग-रुचिको छोड़नेपर और छह श्रापतनों-रत्नत्रय रूप तीन धर्म और तीनोंके धारक तीन प्रकार के धर्मात्माओं से द्वेष और अरुचिको छोड़ देनेपर ही वास्तविक आत्मकल्याण प्राप्त हो सकता है। जब रुंरी इस तरहकी दृष्टि बन जायगी तभी तू सम्यग्दृष्टी कहा जा सकता है और तेरी यह दृष्टि सम्यग्दर्शन कही जा सकती है। अतएव तीन मूढताओंका वर्णन करनेके बाद सबके साथ किस तरह व्यवहार करना चाहिये यह बताने के लिये अस्मय विशेषण का व्याख्यान करना सर्वथा उचित और आवश्यक हो जाता है। यही कारण है कि इस कारिकाके द्वारा सबसे पहले स्मयका स्वरूप उसके विषय और मेदों का उल्लेख श्राचार्यने किया है जोकि भयंत प्रयोजनीभूत है। क्यों कि प्रत्येक कार्यकी सिद्धिके लिये जिस तरह अंतरंग बहिरंग साधक कारणों की उपस्थिति आवश्यक है उसी तरह वाह्याभ्यन्तर बाधक कारणोंकी अनुपस्थिति उनसे बचकर चलने या रहनेकी भी आवश्यकता है।
सम्यग्दर्शनको अतिचारोंसे बचाकर ४ और निरतिचार सम्यग्दर्शनकी स्व तथा परमें समुचित प्रवृत्तिके द्वारा ४ इसतरह कुल माठ अंगकेद्वारा जिसतरह उसका शरीर पूर्ण होता है उसीतरह तीन
तामसे बचकर चलने वाले के सम्यग्दर्शनका स्वास्थ्य दूषित वातावरण से बचा रहकर सुरचित रह सकता और थर्माओं के साथ अस्मय प्रवृत्तिके द्वारा वही सम्यग्दर्शन सुपुष्ट सुदृढ और सतेज बन सकता है । तथा ऐसा होने परही वह कार्यचम बन सकता है। जिस तरह शरीरको योग्य तथा कार्यक्षम बनाने के लिये उसके आठोंही अंगोंकी आवश्यकता है उसी प्रकार महाभारी आदिके सम्पर्क से उसे बचाकर रखने और अपथ्य सेवन - मिथ्या आहार विहारसे भी बचाने की आवश्यकता है। उसी तरह प्रकृतमें भी समझना चाहिये । अष्टांग सम्यग्दर्शन को तीन मूढताओं
१- प्रतिकूलतामुपगते हि विधी विफलत्वमेति बहु साधनता । अवलम्बनाय दिनभर्तुरभूम पतिष्यतः करसहस्रमपि ।। लोकोक्ति, अथवा नेता यस्य बृहस्पतिः प्रहरणं वज्र सुराः सैनिकाः स्वर्गे दुर्गमनु महः क्रिक हरेरैरावणो वारणः। इत्याश्चर्य व लान्वितोऽपि बलभिद - भन्नः परैः संगरे, तद्वक्त' ननु देवमेव शरण धिग्निग् वा पौरुषम् । आत्मा ||३२||
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रत्नकरण्डश्रावकाचार से पृषक रखना मानो महामारीके क्षत्रम शरीरको बचाकर रखना है और सथर्मामों में अस्मय प्रवृत्ति मानों अपथ्यसे बचकर पोषक तन्त्रका सेवन करना है । अतएव अष्टांग निर्माण के बाद रोगोंसे मुक्त रहने के लिये मूवृत्तिके परित्यागका उपदेश देकर अब अपथ्यसेवन न करनेके समान सम्यग्दृष्टिको अस्मय व्यवहार करनाही हितावह है । यही लक्ष्य रखकर आचार्य इस प्रकरणका इस कारिका द्वारा प्रारम्भ करते हैं।
शब्दोंका सामान्य विशेष अर्थ
सान शब्दकी निरुक्ति परिभाषा वाच्यार्थ उसके मेद फल आदिका न्याय शास्त्रोंमें यथेष्ट वर्णन पाया जाता है तथा निर्देशादि या सदादि अनुयोगोंके द्वारा आगम ग्रथोंमें उसका विशेष व्याख्यान भी कियागया है । इसके सिवाय स्वयं ग्रंथकाने अपने न्याय एवं भागमग्रंथों के अत्यन्त विशाल अध्ययनका सार लेकर इसी ग्रंथके दूसरे अध्यायमें जो कि रसत्रयरूप धर्मक दूसरे भागका वर्णन करता है केवल ५ कारिकाओंके द्वारा बतादिया है अतएव इस विषयमें यहां कुछ भी लिखना अनावश्यकही है। फिर भी यहां पर संक्षेपमें कुछ आवश्यक परिचय देदेना उचित प्रतीत होता है।
शब्दोंकी निरुक्ति विवक्षाधीन हुआ करती है । अतएव दर्शन झान आदि शब्दों तथा उनके विशेषकरूपमें प्रयुक्त सम्यक् आदि शब्दांकी भी निरुक्ति मिलर साधनोंके द्वारा शब्दकी सिद्धि बताते हुए मिष २ अनेक प्रकारसे की है। फिरभी उनमेंसे सम्यक-दर्शन-ज्ञान शब्दोंकी चारर तरहकी निरुक्ति मुख्य है। क साधन, कम साधन, करणसाधन और भावसाचन | इनके द्वारा क्रमसे कर्चा कर्म करण और क्रियाकी तरफ मुख्य दृष्टि रक्खी गई है। इनमें भी वक्ताको अप वहां जो विश्वधिन हो वही मुख्य हो सकती हैं । शान शब्दके विषय में भी यही बात है। "जानाति इति शानम्" इस कर्व साधनमें जानने रूप क्रिपाका कतो आत्मा मुख्य है । "शायते इति ज्ञानम्" इसमें कर्मरूप जानन क्रियाका विषय मुख्य है। "शायते अनेन इति ज्ञानम् यहांपर जानन क्रिया की सापकतम-करण रूप वह शक्ति-साकारोपयोग रूप परिणत होनेवाली चेतना विवधित है जिस के द्वारा जाना जाता है । 'अप्ति नम्' यहाँ केवल 'जानना' यह क्रिया मात्र--साकारोपयोगरूप परिणमन विवक्षित है। ___ आत्माका लक्षण उपयोग है जिसके कि झान दर्शन इस तरह दो भेद हैं। शान प्रारमाका अभिम अनादि निधन असाधारण अजहत् स्वभावरूप गुण है। वह सामान्यतया एक रूप है। उसमें स्वतः कोई भेद नहीं है । फिर भी निमित्तमेदोंके अनुसार उसके भनेक तरहसे अनेक भेद होजाते हैं। जो कि आगममें प्राचार्योके द्वारा बताये गये हैं। सम्पग्दर्शनके विरोधी काँके उदय अनुदयके सम्बन्ध से शानके भी मिथ्या और सम्यक भेदरूप दो व्यवदेश होजाते हैं। लोकव्यवस्था व्यवहार और तस्वज्ञान के लिये तथा विचार विमर्श के लिये मावश्यक उपयोगी प्रमारयामामाश्य व्यवस्था की रष्टि से इसी ज्ञानके सत् असत् इस सरह हो मेद होजाते है।
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त्रिका टीका. पच्चीसवा साफ
RE अपने घातक कर्म के उदयमें जाति भेद अथवा तारतम्यके कारण प्रत्यक्ष परोच भेद होते है। अथवा अपने उपयोग स्वरूप प्रकृतिम बाह्याभ्यन्तर निमिसों के अबलम्बनानवलम्बन भेद की अपेक्षा से भी प्रत्यक्ष परोक्ष भेद यद्वा मनि श्रुत आदि पांच भेद होजाते हैं । इसी तरह और भी प्रकार हो सकते हैं।
प्रकृतमें मदके साथ जिस ज्ञानका प्रयोग किया जाता है वह सराग एवं बायोपशमिक ही संभव है। जहांतक ज्ञान अल्प है तथा कषायके तीत्र उदयसे आक्रान्त है वहीं तक ज्ञान * विषयका मद होना शक्य है । अत एव सराग सायोपशमिक ज्ञान ही यहां पर ग्रहण करना चाहिये।
प्रश्न-शान. मदके होने की संभावना दो कारणों की उपस्थिति में मापने यहां बताई है.. एक शानकी अन्पता और दूसरी कषायोदयकी तीव्रता | सो पहला कारण तो ठीक है, क्योंकि ज्ञानावर कमेका उदय रहते हुए ही प्रजापरीषहरे पागम में बताई है । परन्तु इसरा कारण ठीक नहीं मालुम होता; क्योंकि संज्वलन ऋषायके मन्दोदय और सर्वथा अभावमें छमस्थ वीतराग भ्यक्तियोंके भी प्रक्षापरीषहका उल्लेख किया गया है। ___ उतर- ठीक है। परन्तु मोक्षशास्त्र में जहाँ परीपहोंका वर्णन किया गया है वहांपर मुख्यतया प्रतिपक्षी कर्मके सद्भावकी अपेक्षा है । न कि प्रतिरूप कार्यकी अपेक्षा । कारण के समापसे तथा भूतपूर्व प्रज्ञापनश्यकी अपेक्षा उपचार से वहां पर परीषहोंको बताया है। प्रत्यक्ष कार्य रूपमें वहां परीषह होती है यह आशय नहीं है। अत एव प्रज्ञापरीपहमें ज्ञानावरण कर्म का उदयरूप द्रव्यकासद्भावही वहां पर परीषहरूपसे विवक्षित है । हमारा यहां प्रयोजन प्रत्यक्ष व्यवहार में भानेवाली प्रवृतिसे है। सो यह बात बायोपशामिक ज्ञानके साथ कपाय के तीय उदयके सदूभावमें ही संभव है। कपायका जहां मन्द उदय है वहांपर भी संभव नहीं है ! क्योंकि यहां मदका प्रकरण है और सम्यग्दर्शन के दोषों का सम्बन्ध है जो कि ऊपर अशक्य हैं। मानमदमें शान सो विषय है उसके मदका जहां विचार है वहां कषायको भी किसी न किसी प्रकार से तीव्र ही मानना आवश्यक है। जहां उसका मूलमें ही अस्तित्व नहीं है वहां भूतप्रज्ञापन नय से
और जहाँ मन्द उदय है वहाँ केवल कारण के सद्भावमात्र की अपेक्षा से उसको कहा जा सकता है किन्तु जहाँ स्ल व्यवहार योग्य मद की विवक्षा है वहां तो कपायके तीन उदय अथवा उदीया को ही मानना उचित है।
१-ज्ञायोपमिकी प्रक्षा अन्यस्मिन मानावरणे सति मदं जनयति । न सकलावरणक्षये। स०सि० १.१३ २--"मानायरणे प्रशाहाने" त० सू० १-१३ ।। ३-सूक्ष्मसापरायछमस्थवीतरागयोश्चतुर्दश || त० सू० -१० ।। "हुत्पिपासाशीतोष्णदंशमशकचर्याशयमानधालामरोगसणस्पर्शमलप्रशासानानि" स० मि। ४-जैसे कि सूक्ष्मसाम्परायमें।
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रत्नकररावकाचार
झानक सिवाय पूजा कुल जाति चल अद्धि तप और शरीर इन शब्दों का अर्थ स्पष्ट है । क्योंकि पूजाका अर्थ आदर सत्कार पुरुस्कार सम्मान गौरव महत्त्व आदि होता है और इसमें सद्यादि पुण्यकर्मका उदय कारण है। गोत्रकर्म के उदयके अनुसार रित पक्ष में चले आये सम्मान्य वंशानुगत आचरण को अथवा संतति क्रमसे चले आये वीयसम्बन्ध को कुल और उसी प्रहार मात्र पक्ष में चले आये प्रशस्त आचरणको जाति, वीर्यान्तराय कर्म के क्षयोपशमसे बल, सातावेदनीयादि पुण्य कर्म के उदयसे और लाभान्तरायादि कर्म के चोपरामसं प्राप्त धन धान्यादि विभूतिको ऋद्धि, चारित्रमोहनीय कर्म के मन्दोदय, क्षयोपशम, उपशम, क्षय से होने पाने इच्छा निरोध अथवा मनशानादिको ता और भारीर नामकर्म के उदयसे प्राप्त इन्द्रियों के अधिष्ठान यद्वा कर्म नोकर्म के पिण्डविशेषको शरीर कहते हैं।
भारपूर्वक धि थातुसे पाश्रित्य बनता है यह उत्प्रत्ययान्त अपूर्व क्रियापद है। उपयुक्त ज्ञानादिक पाठों ही इसके विषय हैं । मानः अस्ति यस्य म मानी तस्य भावः मानित्वम् । अर्थात अभिमान से की जानेवाली चेष्टाएं । स्मयशब्दका अर्थ मद-श्रीद्धत्य-घमण्ड होता है। गतः स्मयो येषां ते गतस्मयाः । जिनके अन्तरंगों से आभिमानिक विभाव परिणाम निकलगया है वे सब प्राप्तपरमेष्ठी या गणधरादिक गतस्मय हैं । आहुः यह क्रियापद है। धूल धातुको माह प्रादेश होकर वर्तमान अर्थ में वह प्रयुक्त हुआ है। जिसका अर्थ है-स्पष्ट कहते हैं।
तात्पर्य-ऊपरके कथन से यह तो भलेप्रकार स्पष्ट ही है कि ज्ञानादिक स्वयं स्मय अर्थात् मदरूप नहीं है। किन्तु मदके विषय है। तथा इसका मुख्य सम्बन्ध भी सधर्माओंसे है जैसाकि भागेकी कारिकासे मालुम होता है । अत एव मतलब यह होता है कि कोई भी सम्यग्दृष्टि यदि अपने अन्य सधर्माओंके साथ इस कारिकामें बतायेगये माठ विषयों में से किसी का भी आश्रय लेकर तिरस्कारका भाव रखता है तो वह उसके सम्यग्दर्शनका.स्मय नामका दोष है । इससे उसकी विशुद्धि नष्ट होती है भोर कदाचित् वह अपने स्वरूपसे च्युत भी हो जासकता है। क्यों कि इस तरहके परिणामों से नीचगोत्र कर्मका बंध हार करता है। और सम्यक्त्वसहित जीवके नीच गोत्र कर्मका बंध हुआ नहीं करता । क्योंकि उसकी बंधव्युच्छित्ति सासादन गुणस्थान में बताई है। अत एव उसका बन्म वहीं तक संभव है, आगे नहीं। यही कारण है कि समदर्शन की
१–यहाँपर जिन शब्दोका प्रयोग कियागया है ग्रन्थान्तरोमे उनकी जगह दूसरे २ पर्यायवाचक शब्दोंका भी प्रयोग पाया जाता है। उससे तात्पर्य समझने में सुभीता रहता है। यथा पूजा के लिये शील, शरीर के. लिये श्राभिरुप्य, ऋद्धि के लिये विभूति संपत् आदि । संभाषयम् जाति-कुलाभिरूविभूतिधीशक्तितपोर्चनामित अन०२-६७ । जातिपूजाकुलझानरूपसंपत्तपोवले ।। यश। प्रकीर्णक ।
२-"परात्मनिदाप्रशंसे सद् असद्गुणछादनोद्भावने च नीचैगोत्रस्य । त० सू। अथवा 'जातिरूपक नैश्वर्यशील ज्ञानसपोचले। कुर्वाणोऽहंकृति नीचं गोत्रं बध्नाति मानवः । अन ०२-५८ टीकोक।
३-सासादनगुणस्थान में २५ प्रकृतिकी बंक्च्युक्छिन्ति बताई है उसमें नीचगोत्र भी परिगणित है।
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चांद्रका टीका पचोमवा मोक विशुद्धिको ययावत् रखनलिये साधर्मियों के माध श्रामिमानिक व्यवहार करने में सर्वथा पृथक रहना चाहिये।
ध्यान रहे कि ज्ञानादिक जो कि अभिमानक विषय हैं वे हेय नहीं, उनका मद हेग है। शानादिक ती प्रयोजनीभूस एवं उपादेय है। सम्यग्दृष्टि जीव जो कि मुमुनु होने के कारण जिस जिनदीक्षाके लिये उत्सुक रहा करता है, उस दीक्षा के धारण करने में ये आठो ही विषय किसी न किसी रूपमें आवश्यक है ! अत एव ये उस समय सबसे पहले देखे जाने है। दीना देनेवाले आचार्य उस दीक्षा ग्रहण करने के लिये प्रवृत्त हुए शिक्षक दिस्यों दीक्षादेनके पूर्व देखते हैं कि इसकी ज्ञानशक्ति किसतरह की है । यह मूड विपर्यस्त जड़यन धूर्त अज्ञानी है अथवा सुमेधा है। क्योंकि जो समीचीन विचारशील, ग्राहकवद्धि, धारणाशक्तियुक्त, तथा शात मरलचित्त है वही दीक्षाके योग्य मानागया है । दीक्षा धारण करनेवालों में जिस योग्य. ताकी आवश्यकता बताई गई है उनमें सुमेधा --अच्छी बुद्धिका रहना विशेषरूप से परिगणित है।
ज्ञानके ही समान पूज्यता आदिका भी विचार किया गया है। निंद्य व्यक्तिको दीक्षाका भपात्र ही माना है। इसीतरह उत्तम कुल और उत्तम जाति के व्यक्ति ही दीक्षा के अधिकारी माने गये हैं। दुर्वल कोमल शरीर अतिबाल अतिवृद्ध व्यक्ति भी दीक्षा के लिये निषद्ध ही हैं । अनशनादिकी शक्ति का रहना तो आवश्यक है । राज्यविरुद्ध अपराधी भादि को भी दीक्षा नहीं दी जाती। जिमका अंगभंग है, विकलांग है विररूप वे डोल सुन्दर है यह भी दीक्षा के लिये अयोग्य ही माना गया है। इससे स्पष्ट है कि ये ऐसे श्रावश्यक गुण हैं जिनके विना मुमुद्ध निर्वाणका मार्ग तय नहीं कर सकता । अतएव स्पष्ट है कि इन गुणों को पाकर जो व्यक्ति गर्नु करता है पाने में उत्कर्ष की भावनाके साथ दूसरे में जो कि सथर्मा होकर इन देवाधीन अना. त्मविषयों में अल्प है तिरस्कारका भाव धारण करता है वह सम्यग्दर्शनका स्मग नामका दोष है।
मतलब यह कि अनात्मभावों के निमित्तसे उनको प्रधानता देकर आत्मीय माकी अवहेलनी करनेपर सम्यग्दर्शनका महप्स म्लान होजाता है। यह उसकी प्रासादना है। और ऐमा करने पर अवश्य ही सम्यग्दर्शन अपने पदसे नीचे गिरजाता है। स्त्रीको उसका पति यदि स्वयं कुछ भी मलापुरा कहे, कदाचित् मारपीट भी दे तो मी उसको उनना पुरा नहीं लगता जितना कि सपनीका अनुचित पश्च लेकर, उसके संकेतसे वैसा करनेपर लगता है । इसी तरह अनात्मीय भावनाका पक्ष रखकर कियागया तिरस्कार भी आत्मभावनाको सब नहीं होता। इस तरहके व्यवहार से उसकी प्रसन्नता नष्ट होजाती है।
१-विशुद्धकुलगोत्रस्य सद्वृत्तस्य यपुष्मतः । दीक्षायोग्यत्वमानातं सुमुखस्य सुमेधसः ।। भादिपु ३६. १४॥ या देखो अन० १० अध्याय । श्लोक और उसको काम निन्धबालकादिषु' पतितादेन सा देश
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你
रत्नकरण्डाकार
प्रश्न हो सकता है कि ज्ञान तो आत्माका स्वभाव हैं, आप उसको अनात्मीय किaare
और क्यों कहते हैं ?
किन्तु इसका उथर ऊपरके कथन से ही
है।
तो पारी जीव ही कथंचित् रूपीर मूर्त हैं। दूसरी बात यह कि यहांपर ज्ञानादिक जो आठ भाव लिये हैं वे सभी कर्मापेक्ष हैं। या तो पुण्यकर्म के उदद्यनिमित्तक हैं अथवा घातिकर्मके क्षयोपशम जन्य हैं । ज्ञान बल और तप क्षायोपशमिक हैं और शेष पांच- पूजा कुल जाति ऋद्धि और शरीर औदथिक हैं। इन में भी शरीर पुद्गलविपाकी और बाकी चार यथायोग्य जीवविपाकी कर्मकि उदयसे हुआ करते हैं। तथा खानावरण के क्षयोपशमस होनेवाला ज्ञान, वीर्यान्तरायके क्षयोपशमसे होनेवाला बल तथा चारित्रमोहके क्षयोपशमसे जन्य तप ही प्रकृतमें विवक्षित है। आत्मा के शुद्धस्वभावरूप क्षायिक ज्ञान और वीर्य विवक्षित नहीं हैं। इस तरहके क्षायोपशमिक तथा श्रदयिक भाव ततः विचार करनेपर आत्मीय नहीं माने जा सकते२ |
शंका - आगममें बलके तीन भेद बतायें हैं— मनोबल वचनबल और कायवल | इनकी उत्पत्ति क्रमसे मनोवर्मणा वचनवर्गणा और कायवर्गगाके द्वारा हुआ करती है। जो कि नोकर्मवर्गणा भेद हैं और शरीर नामकर्मके उदय के अनुसार प्राप्त हुआ करती हैं। अत एव आप बलको बायोपशमिक कहते हैं सो ठीक नहीं है। औदयिक कहना चाहिये ।
समाधान — मनोवर्गणा आदिक पुद्गल विपाकी शरीर नामकर्मके उदयसे प्राप्त होती हैं, और वे बल में निमित्त या अवलम्बन होती हैं, ये दोनों ही बाते ठीक हैं। परन्तु बल मौदयिक नहीं हैं क्षायोपशमिक ही हैं यहांपर वीर्यन्तराय कर्म के क्षयोपशम से उद्भूत वीर्यशक्तिकाही नाम बलर है । अवलम्वनरूप वर्गणाओं के भेद से इस के तीन भेद होजाते हैं। क्योंकि अन्यस्थानों में जहां बलके लिये शक्ति शब्दका प्रयोग किया हैं वहां उसका अर्थ पराक्रम ही किया है जिसका कि सम्बन्ध आत्मा से ही युक्त हो सकता है। अन्यथा उनमें क्रमवर्तित्व नहीं बन सकेगा | तीनों ही वर्गथाएं अपना २ कार्य एक समय में ही कर सकती हैं यह बात भी मानी जासकेगी जो कि भागम के विरुद्ध हैं ।
१--संसारत्या रूत्रा फम्मविमु । २ - अनादिनित्यसम्बन्धात्सह कर्मभिरात्मनः । अमूर्तस्यामि सत्यैक्ये मूर्तस्वमवसोयते ||१७|| बन्धं प्रति भवत्यैक्यमन्योन्यानुप्रवेशतः । युगपङ्कावितः स्वर्णरौप्यवज्जीवकर्मणोः ॥ १८ ॥ तथा च मूर्तिमानात्मा सुराभिभवदर्शनात् । न अमूर्तस्य नभसो मदिरा मदकारिणी ||१६|
ॐ००० ५ ॥
३ देखी राजदार्तिक- योगश्च वीर्यलादिग्रहणेन गृहीतः ५-५-८नु च योगप्रवृत्तिरात्मप्रदेशपरिस्पन्वकिया सा वीर्य विरिति दायोपशमिको व्याख्याता-२०६-६, योगाश्च चाायोपशमिकाः ६-१३ इत्यादि । ४-१०२००० की टीका शक्तिः पराक्रमः ।
डोधिएकाले एक य होथि नियमेण । गो० जी० २४१ ॥
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चंद्रिका टीका पच्चीसवा लोक
२२६ ऋद्धि शब्दमे ग्राम सुवमा धन धान्य दासीदास कुप्य भांड रूप बाह्य विभूतिसे यहां प्रयोजन है जिसकी कि प्राप्तिमें लाभान्तराय कर्मका क्षयोपशम भी एक अन्तरंग बलवसर कारण है। प्रत एवं उसको चायोपशमिक भाव ज्ञानादि के साथ गिनाना चाहिये था परन्तु हमने वैसा न करके मोदयिक विषयों में गिनाया है । क्योंकि इसकी प्राप्ति में साता आदि पुण्यकर्मके उदयकी प्रथानता है । लाभान्तरायके क्षयोपशमका काम इतना ही है कि पुराणोदयसे जो प्राप्ति होरही हो उसमें विन्न उपस्थित न हो । अतः वह गौण है । देखा भी जाता है कि इस विभूतिकी प्राप्तिमें जिसको कि लोकमें उन्नति ममझा और कहा जाता है उसके साधनभूत माने गये उद्यम साहस धर्य चल मौर पराक्रम जो कि अन्तरङ्गमें वीर्यान्तरायके क्षयोपशमसे सम्बन्धित हैं उनके यथेष्ट रहतेहए भी यदि पुण्योदय न हो तो इच्छित विभूति प्राप्त नहीं होती और नहीं हो सकती है। प्रागम के वाक्यों से भी यही भाव व्यक्त होता है । भरतेश्वरने जो प्रयत्न किया था वह भी देवको १प्रमाख मानकर ही किया था।
ज्ञानादिकके सम्बंधको लेकर धर्मात्माओं के साथ किसतरहसे श्राभिमानिक भावोंकी प्रवृत्ति हुआ करनी है इसका वर्णन ग्रन्थान्तरों में किया गया है वहांसे देखलेना चाहिये । हम यहाँपर दो बातों को स्पष्ट करदेना चाहते हैं । प्रथम तो यह कि सम्यग्दर्शनक मलोत्पादनमें अन्य कपायोंको भी कारण रूपमें रहते हुए मान कपायको ही प्राधान्य देनेका क्या कारण है ? झरी बात यह कि इस तरहकी अम्मयवृत्तिके द्वारा सम्यग्दर्शनको निर्मल और सफल बना सकनेवाले मुख्यतया उसके स्वामी कौन हैं ?
यद्यपि यह ठीक है कि--सम्यग्दर्शन सामान्यतया चारोंही गतियों में पाया जाता है अतएव उसके मल दोपों की प्रवृत्ति भी चारों ही गतियोंमें सम्भवहै । किन्तु जब हम सिद्धांतानुसार चारोंगतियोंकी स्थितिके विपयमें दृष्टि देकर विचार करते है तो एक विशेषता पाते हैं । यह यह कि चारों ही गतियोंके सभी जीव जहांतक कपायका सम्बंध है, नभी कषायों-क्रोध मान माया लोमरूप कपायके चारों ही भेदासे युक्त रहते हुए भी मुख्यतया एक २ कपायसे आविष्ट माने गये है। नरकर्मे क्रोध तिर्यग्गतिमें माया, मनुष्यगतिमें मान, और देवगतिमें लोभकी प्रधानता बताई गई है यद्यपि यह सर्वश नियम नहीं है, फिर भी प्रायः करके उन २ गतियोंमें निर्दिष्ट कपायकी ही बहु
१–सस्मिन् पौरुषसाध्याप कृत्ये देवं प्रमाणयन् । लवणाधिजयोगुना सोभ्यैच्छद विकी क्रियाम् ॥ आदिपु० २८.५३ ।।
अनगार धर्मामृत अ०२ श्लोक ८६ से १४ तक भूल संस्कृत अधवा हमारा हिन्दी अनुवाद जो कि सोलापुरसे कई वर्ष पूर्व प्रकाशित हो चुका है। इसी तरह और भी प्रथ । ३-वयपि यह बात उत्पन्न होनेके प्रथम क्षणकी दृष्टिसे ही आगममें कही गई है जैसाकि जोव काकी गाथा नं०२८६ णारयतिरिक्खणरसुर आदिसे मालुम होता है किन्तु पूरी पर्याय उन्ही कपायोंकी गलत रहा करती है। जैसाकि उनकी परस्थितिसे विदित हो सकता है।
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२३०
(मकर श्रावकाचार
लतासे प्रति पाई जाती है। यह कहने की आवश्यकता नहीं है कि यह कथन पर्यायाश्रित भावको ही दृष्टि में रखकर किया गया है । किन्तु इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि मनुष्य गतिमें जो प्रवृत्तियां हुआ करती हैं उनमें आभिमानिक भावकी ही प्रचुरता रहा करती है । आप्त भगवानने जो मोल मार्गका वर्णन किया है वह भी उसके मुख्य पात्र मनुष्य- आर्य मनुष्यको दृष्टिमें रखकर ही किया है । कारण यह है कि परसा पूर्वरूप पालन की सामर्थ्य और योग्यता अन्यत्र नहीं पाई जाती । जब सम्पूर्ण मोक्षमार्गका ही वर्णन मनुष्य और उसकी योग्यता तथा पात्रता की लक्ष्य में रखकर किया गया है तब उस समस्त वर्णनरूप मंदिरकी नीवके समान सम्यग्दर्शन एवं उसके अंग और मल दोषों का वर्णन भी उसीकी पेक्षा से मुख्यतया समझना चाहिये । फलतः मदं सम्बंधी दोप भी इसी दृष्टिसे हैं। और यहीं पर पाये जानेवाले विषयोंके कारण उसके आठ भेद, भी बताये गये हैं ।
"
दूसरी बात स्वामिन् के विषय में हैं। इस तरह की अस्मय प्रकृति किन मनुष्यों में पाईं जाती हैं इस बातका विचार करनेपर मालुम होता है कि उसके मुख्यतया स्वामी तपोभूत् हैं क्योंकि मुख्यतया उन्होंकि वह शक्य तथा संभव भी हैं। जैसा कि दीक्षा धारण करके तपश्चरण के लिये प्रवृत्त साधुओं के लिये बताये गये २७ पदों के स्वरूप को दृष्टिमें लेनेपर मालुम हो जा सकता है।
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पारित्राज्य से सम्बंधित २७ पदों के नाम आगम में इस प्रकार बताये हैंजातिर्मूर्तिश्च तत्रत्यं लक्षणं सुन्दरांगता प्रभामण्डलचक्राणि तथाभिषवनाथते ॥ १६३॥ सिंहासनोपधाने च छत्रचामरघोषणाः । अशोक वृक्षनिधयो गृहशोभावगाहने ॥ १६४॥ क्षेत्रज्ञाज्ञासभाः कीर्तिर्द्वन्द्यता वाहनानि च । भाषाहारसुखानीति जात्यादिः सप्तविंशतिः ॥ १६२ ॥
अर्थात् जाति २ मूर्ति ३ उसमें पाये जानेवाले लक्षण ४ शरीर की सुन्दरता ५ प्रभा ६ मण्डल ७ चक्र ८ अभिषेक ६ स्वामित्व १० सिंहासन ११ उपधान १२ छत्र १३. पमर १४ घोषण १५ अशोक वृक्ष १६ निधि १७ गृहशोभा १८ श्रवगाहन १६ क्षेत्र २० श्राज्ञा २१ सभा १२ कीर्ति २३ वन्द्यता २४ वाहन २५ भाषा २६ आहार २७ सुख ।
मदके जो आठ विषय बताये हैं वे प्रायः सभी इन २७ पदोंमें अन्तर्भूत हो जाते हैं। माचाखने जात्यादिका मद छोडकर तप करनेका और वैसा करनेपर जो फल प्राप्त होता है उसका
न किया है उदाहरणार्थ जातिके विषय में लिखा है किजातिमानप्यनुत्सिक्तः संभजेदर्हतां क्रमौ । यतो जात्यन्तरे जात्यां याति जातिचतुष्टयीम् ॥ १६७॥
१-- विपुराण पर्व ३६ । विशेष जिल्लासुओं को यह प्रकरण वहीं देखना चाहिये और उसके सम्बन् में क्षण गम्भीर विद्वानोंको अच्छीतरह विचार करना चाहिये।
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विका अफा अश्यासा सार अर्थात् उत्तम जातिवाला होकर भी जो उसका उन्सेक-गर्व छोडकर मरिहंत भगवान के चरणयुगल की सेवा करता-तपश्चरण करता है यह जन्मान्तर धारण करने पर ऐन्द्री विषमा परमा और स्वा इन चार जातियों को प्राप्त किया करता है।
इसीतरह मूर्ति लक्षण सुन्दरांगता आदिके विषय में भी अभिमान छोडकर तपरपरन करने और वैसा करने पर जो फल होता है उसका अत्यन्त महत्वपूर्ण वर्णन किया है।
इस कथनसे भस्मय श्रद्धाके साथ २ कीगई तदनुकूल प्रवृत्तिका स्वामित्व और उसके ही अनुसार प्राप्त होनेवाले असाधारण फलका अधिकार मुनियोंको है, यह स्पष्ट होजाता है।
इसका अर्थ यह नहीं है कि देशसंयमी या असंयतसम्यग्दृष्टिको निरभिमान श्रद्धानका कोई भी असाधारण फल प्राप्त नहीं हुआ करता उनको भी अपनी २ योग्यतानुसार फल अवश्य प्रास होता है किन्तु हमने जो स्वामिन्यका उल्लेख किया है वह उस्कृष्टताकी अपेचासे है। सम्यग्दर्शनकी अम्मयताजन्य महत्ताको गतस्मय महात्माओंने ही समझा है, उन्होंने कहा है, और नो श्रद्धालु उसपर श्रद्धा रखकर उसी प्रकारकी प्रकृति करता है वहभी उसी तरहके महान् कसको प्राप्त करता है। किन्तु इसके विपरीत जो व्यक्ति इन पाठों विषयों में मदसहित होकर पेश करता है उसको क्या हानि उठानी पड़ती है यह बात स्वयं ग्रन्थकार भागेकी कारिकामें बनाते हैं
स्मयेन योऽन्यानत्येति धर्मस्थान गर्विताशयः ।
सोऽत्येति धर्ममात्मीयं न धर्मो धार्मिकैविना ।। २६ ॥ अर्थ----गर्वयुक्त आशयको रखनेवाला जो व्यक्ति उक्त झानादि विषयक मद के द्वारा दूसरे सधर्माओंका अतिक्रमण करता है वह अपने ही धर्मकी अवहेलना करता है। क्योंकि धर्म धर्मामाओंके बिना नहीं रहा करता ।
प्रयोजन-सम्यग्दर्शनका लक्षण बताते समय श्रद्धानरूप क्रियाके तीन विशेपण दिये थे और सीनही उसके विषय बताये थे विचार कानेपर मालुम होता है कि यद्यपि दोनों ही क्रियाविशेषणोंका सामान्य सम्बध तीनोंडी विषयों-प्राप्त प्रामस और तपोभनके साथ पाया जाता है। किन्तु इनमें से एक २ विषयके साथ एक २ किया विशेषणका परस्पर कुछ विशिष्ट सम्बंध भी है। अब का आप्त के साथ, त्रिमूमापोढ़ता का आगमके साथ भीर अस्मयताका तपोमत के साथ विशेष सी है, ऐसा मालुम होता है, क्योंकि मोक्षमार्गके मूलभूत नेता भाप्त परमेष्ठी हैं जिनका कि सपन या स्वरूप ऊपर बसाया जा चुका है। उनके परोक्ष रहते हुए भी उनकी सथाभूखवा पान न केवल निःशंक रहना ही आवश्यक और शुरूप किंतु निरतियार रहना भी उतना ही पावश्यक है। धीवराग भगवानसे किसी भी अपने विषयमें प्राकारा रखना वाचिक चाल और श्रद्धानका दूर उपयोग है। इसीवरह उनके स्वरूपके विषय में विचिकित्सा और स्वाहा रहना भी श्रेयोमार्ग से उन्मार्गकी वरफ आना ही। १- जन्तादरः" २-"ना-बालादिको बिना।
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रस्सैकरसहश्रावकाचार सर्वत्र वीतराग भगवानके उपदिष्ट आगम जिसका कि लक्षण ऊपर बताया जाचका है; और सदनुसार जोकि प्राप्तोपा है उसके बदले लौकिक अज्ञानी जीवोंके यद्वा तद्वा कथोपकथनका अन्यानुसरण करना प्रबल मूढ़ता है। अतएव यह कहने की आवश्यकता नहीं रहती कि आगमकी श्रद्धाका त्रिविध मूढताओंके राहित्यस अत्यंत निकट सम्बंध है।
इसी तरह अस्मय क्रियाविशेषणका मुख्य मम्बंध तपोभनके साथ है। जैसाकि ऊपर बताया जाचुका है । मदके पाठों ही विपयोंसे युक्त रहते हुए भी उनमें अनुत्सेकताको धारणकर तपश्चरमा करनेवाले साधु अस्मय श्रद्धाके आदर्श हैं। इस तरहके महान् मोदमागी के साथ जो व्यक्ति अपने उन ऐहिक एवं दैविक उक्त प्राप्त विषयोंके कारणसे मदभरा व्यवहार करता है उसके सम्यग्दर्शनमें कौन २ सा दोष उपस्थित होता है और उससे वह किस तरह एवं कहांतक मोक्षमार्गसे च्युत होजा सकता है यह बताना अत्यंत उचित आवश्यक तथा क्रमानुसार प्रासंगिक है। इससे इस कारिका का प्रयोजन स्पष्ट हो जाता है।
. दूसरी बात यह है कि अस्मय विशेषणका क्रमानुसार दिया करारा जवरचयः था ही। तदनुसार इस विषयके वर्णनके प्रारम्भमें ऊपरकी कारिकामें केवल स्मयको स्वरूप और विषयमात्र ही बताया गया है। यह नहीं बताया गया कि इस स्मयके द्वारा किस २ तरहसे और कोनसा दोष उपस्थित हुआ करता है । सम्यग्दर्शनमें किस २ तरहकी मलिनता आकर हानि हुआ करती है। अतएव यह बताना इस कारिकाके निर्माणका प्रयोजन है। ____ महान् यौक्तिक एवं ताकि ग्रन्थकर्ता युक्ति और तकक द्वारा भी सिद्ध करके इस कारिका के द्वारा बता देना चाहते हैं कि आभिमानिक चेष्टाके द्वारा यह व्यक्ति किस तरहसे मूलभूत धर्मसम्यग्दर्शनसे रहित होजा सकता है।
शब्दों का सामान्य विशेष अर्थ
स्मय–म्यादिगणकी स्मि थातुसे अच् प्रत्यय होकर यह शब्द बनता है। इसका अर्थ अनादर करना होता है। प्रकृत में ज्ञानादि पाठ विषयों के आश्रयसे अपने सधर्माका तिरस्कार करना भवज्ञा या अवहेलना करना ऐसा अर्थ समझना चाहिये जैसा कि गत कारिकामें बतायागया है। स्मय शाब्द मे यहॉपर करण अर्थ में तृतीया विभक्ति हुई है।
अन्य-शन्द सर्वनाम है और कारिकागत धर्मथ शब्दका विशेषण है। कर्म पदका विशेषण होनेसे यह पुद्धिा है और उसमें द्वितीयाके बहुवचनका प्रयोग किया गया है।
अत्येति—यह क्रियापद है। अति उपसर्गपूर्वक गत्यर्थक इण पादुका वर्तमानकालकै अन्य पुलके एक वचनमें इसका प्रयोग हुआ है। जिसका अर्थ अतिक्रमण या उबंधन करके पलना होता है । मतलब यह कि जहाँपर जिसतरहकी मर्यादा रखकर चलना या चेष्टा अथवा व्यवहार करना चाहिये वहां उस तरहकी मर्यादा न रखना । मर्यादा एवं भौचित्यका भंग करके परीर अथवा वचनका प्रयोग करना।
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पन्द्रिका टीका छन्बोमा रलोक धर्मस्थ---धर्म-खत्रयात्मकं श्रात्मस्वभावे तिष्ठति इति धर्मस्थः । यह इसकी निरुक्ति है। यह अत्येति क्रियाका कर्मपद है । अत एव इसमें द्वितीयाके पहुवचनका प्रयोग कियागया है।
गर्विताशयः–नार्वेण युक्तः गर्वितः भाशयः अभिप्रायो यस्य सः । जिसका अभिप्राय भईकारसे युक्त हो। यह क पद हैं।
धर्म-इसकी निरुक्ति और अर्थ कारिका नं. २ में बताया जा चुका है।
आत्मीय-आत्मनः अयम् आत्मीयः । आत्मन् शब्दसे छ-ईय प्रत्यय होकर यह शब्द इनता है । मतलब यह कि जो कोई भी वस्तु अपनी हो-शपनेसे सम्बन्ध रखनेवाली हो उसको कहते हैं आत्मीय ।
धार्मिक-धर्म शब्दो शील अर्थ में टाकत पत्गम हो कर गा बनता है। अर्थात-धर्म ही शील-स्वभाव है जिसका उसको कहते हैं पार्मिक । 'बिना' भव्ययपदका योग रहनेसे इसमें हतीया विभक्ति कीगई है।
इस कारिकामें हेतु अथवा अनुमानर अलंकार है। कारिकाका पूर्वार्ध पक्ष, तीसरा परण साध्य और चौथा चरगा हेतु के अर्थको सूचित करता है।
यद्यपि दोनों अलंकारोंके स्वरूप में परस्पर अन्तर है। किन्तु यहाँपर दोनों ही अलंकारोंका सांकर्य होगया है। हेतु अलकारमें किसी भी कार्यके करनेवालेकी योग्यता के कारण को व्यक्त किया जाता है । अनुमानमें अन्यथानुपपन्न साधनका उल्लेख किसी भी तरह करके साध्यविषयका बोध कराया जाता है । मर्यादाका अतिक्रमण करके साधर्माका अपमान करनेवाले मत्सरोकी योग्यता के कारणभूत झानादिक पाठ विषयों के स्मयको यहां प्रकाशित किया गया है इसलिये हेतु अलंकार है। और धर्म धर्मी को छोड़कर नहीं रहसकता इसलिये दोनोंमें पाई जानेवाली अन्यथानुपपनि अथवा अविनाभाषसम्बन्ध को दृष्टि में रखकर प्रयुक्त साधनवाश्यक द्वारा यहां पर साध्य धर्म के अभावका बोध कराया गया है इसलिये अनुसान अलंकार कहा जा सकता है।
तात्पर्य इतना ही है कि धर्म जिसमें रहे उसको ही धर्मी कह सकते हैं। अमुक व्यक्ति धर्मा है या नहीं यह बात उस धर्म के अनुकूल व्यवहार अथवा प्रवृत्तियोंको देखकर ही जानी जा सकती है। धर्मके विरुद्ध प्रवृत्ति होने पर उसको देखकर मालुम होसकता है कि इसके अन्तरङ्गमें यह धर्म नहीं है; अत एच यह धर्मी भी नहीं है । फिर कदाचित् बास प्रवृत्ति न होने की अवस्थामें अथवा किसी की दृष्टि में यह न भी पाये तो भी अन्तरंगमें विरुद्ध भावके होनेपर धर्मरहमी किस तरह सकता है। निश्चित है कि धर्म की बाधक या विरोधी कायके उदय भाकर काम करने की अवस्थामें धर्म रह ही नहीं सकता । जो व्यक्ति ज्ञानादिलके अभिमान है १-पत्रोत्पादयतः किंचिदर्थ कर्तुः प्रकाश्यते । तद्योम्यतायुक्तिरसी हेतुलको दुधमा ।। १०५॥ गमा २-प्रत्यताजिंगलो मन्त्र कालनिसयवर्तिनः । किंगिनो भवति हानमनुमा खुच्यते ॥ १५ ॥ वागमका
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रत्नाकरवडश्रावकाचार
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धर्ममें स्थित व्यक्ति का अपमान करता है वह उसको वस्तुतः कोई हानि न पहुंचाकर अपने धर्मकी हानि अवश्य कर लेता है । यह सब समझते हैं और जानते हैं कि हाथमें अंगार लेकर दूसरेको जलाने के लिये उसपर फेंकनेकी चेष्टा करनेवाला व्यक्ति सबसे पहले अपना हाथ अवश्य जलालेना है । दूसरेका जलना न जलना निश्चित नहीं। क्यों कि वह तो उसके भाग्यपर निर्भर है। इसी तरह अपमानकी भावना हृदयमें उत्पन होते ही अपना धर्म तो नष्ट हो ही जाता है। जब तक धर्मस्थ व्यक्तियों के प्रति थम के अनुकूल यथायोग्य सत्कार पुरस्कार विनय वात्सम्यादिरूप चेष्टा करनेका स्वभाव बना हुआ है तभीतक वह धर्मी है और उसमें वह धर्म भी बना दुभा है, ऐसा माना जा सकता है।
स्मयका प्रकृतमें अभिप्राय क्या है यह ऊपरकी कारिकामें पता चुके हैं । इस कारिकाके द्वारा स्पावाद-न्याय-विद्यावाचस्पति भगवान् समन्तभद्र बतलाना चाहते हैं कि कब कहां किसतरहसे तो यह स्मयभार सम्यग्दर्शनका मलदोष माना जा सकता है और कब कहां किसतरहसे नहीं | यह बात उनके द्वारा प्रयुक्त कर्तृ पद कर्म पद करणपद और क्रियापदके द्वारा भले प्रकार जानी जासकती है।
धर्म तथा धर्मस्थका अर्थ क्रमसे रत्नत्रय और उसके धारण करनेवाला है यह ऊपर बताया जाचुका है। यह बात भी कही जाचुकी है कि यहाँपर धर्मस्थ शब्दसे मुख्यतया प्रयोजन उन वरीमतोंसे है जो कि रसत्रयकी मूर्ति हैं और सम्यग्दर्शनके तीन विषयों में से अन्तिम श्रद्धाके असाधारख विषय हैं।
प्राचार्यों या विद्वानों ने बताया है कि तपस्वियों या गुरुजनों के प्रति अपनी वाचिक कायिक बेष्टाए किसतरह विनयपूर्ण-अनुत्सेक या निरभिमानताको प्रकट करनेवाली ही नहीं अपितु उनके हृदयमें किसी भी तरहसे कष्मलता पैदा करनेवाली जो न हों एसी ही करनी चाहिये । फिर उनके हृदयमें कम्मलता उत्पन्न हो या न हो। अपना हित चाहनेवालेका कर्तव्य है कि वह उनके प्रति मर्यादाका उबंधन करनेवाली कोई भी चेष्टा; पैर फैलाना लेटना, अंगडाई लेना, लापरवाहीसे बैठना उठना, खडे होना, हंसी मजाक करना, तिरस्कारयुक्त वचन बोलना आदि नहीं करनी चाहिये । जिस तरह राजा महाराजाभोंके समक्ष स्वाभाविक विनयका भग नहीं किया जाता उसी तरह गुरुजनोंके प्रति भी अपनी प्राकृतिक विनयशीलताका अतिरेक नहीं करना चाहिये और नहीं होंने देना चाहिये । जो इस बातको न समझकर या जानकर भी ध्यान न देकर अथवा लापरवाहीसे
१--उपास्या गुरको नित्यमप्रमः शिवार्षिभिः । तत्पङ्गतार्यपक्षान्तश्परा विभोरगोचराः ।। ४५ ॥ निमाजमा मनोवृत्या सानुकृत्या गुरोर्मनः । प्रविश्य राणघरछविनयेनानुरंजयेत् ।। ४६॥ पायें गुरूणां नपबलात्यभिषिका कियाः ।अनिष्टाश्च स्यजेत्सर्वाः मनो जातु न दूषयेत् ||४१ सा० भ००२ सहिप्पण्यांप-निष्ठीवनमवष्टम्भं जम्भणं गावभंजनम् । असत्यभाषणं नर्म हास्य पादप्रसारणम् ॥मन्याअपानं करस्फोट करेण करताडनम् । विकारमंगसंस्कार वर्जयेतिसन्निधौ ॥
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AAAAMKARANAM
.......चन्द्रिका टीका छब्बीसवां श्लोक वैसा करता है तो अवश्य ही उसके श्रद्धा भक्तिके योग्य उचित व्यवहारकी यह कमी है जिससे कि सम्यग्दर्शनकी मलिनता एवं अतिक्रमणु व्यक्त होता है।
कोई भी ऐसा व्यवहार जो उद्धतता या असभ्यताको प्रकट करता है, सर्व साधारण समाजमें भी जनुचित ही नहीं अपितु गहां भी माना जाना है | कमी २ तो इस तरहका व्यवहार जिस व्यक्ति के साथ किया गया हो उसकी पद--मर्यादा-योग्यताके अनुसार साधारण या असाधारण अपराध भी माना जाता है । तब निजीक पूज्य मुद्राके धारक वीतराग साधुक प्रति किया गपा प्रौद्भत्यपूर्ण व्यवहार अपराध क्यों नहीं माना जा सकता ? अवश्य माना जा सकता है । उसका दंड और कोई दे या न दे प्रकृति स्वयं देती है। कारागारके ऊपर रूपगर्षिता वेश्याने पानकी पीक डालदी इसका प्रकृतिने उसे क्या दंड दिया यह हमको नहीं मालुम परन्तु श्रेयोसके जीवने पूर्व भव में धनश्रीकी पर्यायमें श्रीसमाथि गुप्त मुनिक ऊपर मृत कुत्तेका कलेवर फेंककर अज्ञानपूर्वक अपमान किया था उसका उसको जो फल भोगना पडा वह परमागममें वर्णित है।
इस परसे यह समझमें आसकता है कि सामान्यतया प्रौद्धत्यपूर्ण व्यवहार किसीको भी कमी भी किसी के भी साथ करना श्रेयस्कर और उचित नहीं है तब सम्पष्टि जीव मर्माओं के प्रति वैसा करता है तो स्वभावतः उसका सम्यग्दर्शन मलिन हुए विना नहीं रह सकता । धर्मास्मामों रखत्रयमूर्तियों के साथ वैसा करने पर बहुत बड़े पापका भी संग्रह होता है। किन्तु इससे भी अधिक सम्यग्दर्शनकी मलिनता और पाप कर्मका बंध उस समय हो सकता है जबकि उक्त पाठ विषयों के स्मपके कारण वैसा किया जाय । यदि उसका प्राशयही गर्षित होजाय अथवा वैसा ही हो तब तो कहना ही क्या ! कर्ता द्रव्य आत्मा सम्यग्दर्शनविरोधी असत् विभाव परिणामसे युक्त हो और अनात्मीय ऐहिक णिक पराधीन वस्तओंकी पचपातपूर्ण भावना, अवहेलना करने में कारख अंतरंग असाधारण कारणका काम कर रही हो तथा अपमानके लक्ष्य सर्वतंत्र स्वतंत्र, देशकालापन्छिन आत्मपरिणतिके धारक, परम प्रशांत, वीतराग, सर्वथा निर्विरोथ महान् तपस्वी हों, फिर उनका यदि अकारण अपमान-तिरस्कार आदि किया जाय तो उसका परिपाक कितना महान् महितकर हो सकता है, यह, ऐसे ही योगी के गले में मृत सर्पको डालकर अपमानित करने के फलस्वरूप सप्तम नरककी आयुका बन्ध करनेवाले श्रेखिकक दृष्टान्तसे सम मध्य मलेप्रकार समझ सकते हैं। यहां पर लोकोक्ति ही चरितार्थ होती है कि" ऐककमप्यनर्थाय किस पत्र चतुष्टयम् ।" ___ऊपर जैसा कि निरूपण कियागया है उस विषय में यह बात भी ध्यानमें लेना पावरपक है कि सम्पग्दर्शन के स्मय नामक दोषके लिये इस कारिकामें जिन चार बातोंका उबेख किया है उनमें से किसी भी एक अथवा अनेक यहा सबके रहते हुए भी कदाचित यह भी संभव है कि सम्पदर्शन स्मय नामक मल उपस्थित न भी हो क्योंकि फलका होना उस क्रिया करने १-फलिष्यति विपाके ते दुरन्तं कटुकं फलम् । दहत्यधिकमान्यस्मिन्माननीयविमानना ||भारि ६-१३८ । -सकी कथा श्रादिपुराप पर्व ६ में है।
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बालेके उह श्य पर अधिक निर्भर है। यह बात कुछ उदाहरणोंके द्वारा अच्छी तरह स्पष्ट हो
आचार्य श्रीर्मयके भीतर सभी रहनेवालों पर शासन करते हैं। ऐसी अवस्था में उनकी प्रसङ्गानुसार शिष्यों को दण्ड प्रायश्चित्त भी देना पड़ता है, कदाचित् कटु शब्द भी बोलने पड़ते हैं, संपो बहिष्कन भी करना पड़ता है। एक रनत्रयमूर्तिक प्रति इस तरहका व्यवहार करने पर भी प्राचार्य रंचमात्र भी मम्यग्दर्शनके दोष के भागी नहीं हुआ करते । क्यों कि उनका उद्देश्य उसका अपमान करनेका नहीं है उसका और सम्पूर्ण संघके हित का सम्पादन करनेका उनका वाभिया है !ी हवामासादिले. द्वारा किसी का हित सम्पादन करते समय के उसकी ब्राति कुल बल बुद्धि मादि को भी देखते हैं, अयोग्य मालुम होनेपर दीवा नहीं देखें। इस परसे कोई यह समझे या कहे कि उन्होंने उसका अपमान किया और इसी लिये अपने सम्य. ग्दर्शन को भी स्मय दोषसे मलिन बनालिया तो यह कथन या समझ भी ठीक नहीं है। क्योंकि दीक्षा न देनेका कारण अपमान करने का अभिप्राय नहीं किन्तु जिनशासन की पाबाका भंग न करनामात्र है।
राजा दीक्षित होकर अपने साथी साधुओं के प्रति किसी तरहका अपमानरूप व्यवहार न करके भी केवल अपने मन में ही अपने प्रति उत्कर्ष और उनके प्रति अपकर्षकी यह भावना रखता है कि मैं सबका स्वामी और ये सब मेरे नौकर थे और इसीलिये यदि उनके प्रति अवहेलनाका भावमात्र रखता है तो चाहे वह प्रत्यक्ष तिरस्कारादि न भी करता हो तो भी उसका सम्यग्दर्शन स्मय से दक्षित ही माना जायगा।
श्रेणिक महामण्डलेश्वर, इन्द्रद्वारा वर्णित उसके सम्यान्चके माहात्म्यकी परीक्षा केलिपे आये हए अत एव एक गर्भवती श्रापिकावेशी और दूसरे उसके लिये मछली पकड़नेवाले मुनिवेशी दोनो देवोंको नमस्कार कर घर ले जाकर बोला कि यदि इस वेशको धारण कर यह काम करोगे तो आपको दण्ड दिया जायगा । क्या इस तरह वेशी मुनि आर्यिका को ठिकाने लाने लिये डांटनेवाले श्रेणिकके दायिक सम्परत्व में सस्मयता मानी जायगी १ नहीं।
विष्णुकुमारने ऋद्धिसम्पम महामुनि होते हुए भी संघ और धर्मकी रचाके लिये थोड़ी देरको निमस्तरपर उतरकर पलिको न्यककृत करके क्या अपना सम्यक्त्व समल पनाया ? नहीं। चारिक वारसम्यमुपसे विभूषित ही कीया।
उबिला रानीकी न्यायोचित अधिकारप्राप्त रथयात्रामें अपमान करनेके ही भमिप्रायसे विम उपस्थित करनेवाली बुद्धदासी भऔर उसको अविवेकपूर्ण माज्ञा देने वाले महाराज पृतिक को तिरस्कृत और भयातुर बनाकर उर्षिलाके रथका भ्रमण करानेवाले बजकुमार का सम्यक्त्व मलिन न होकर प्रमावनाका पादर्श वनगया ।
इन उदाहरणोंसे मालुम हो सकता है कि कदाचित् किसी के प्रति कोई किया यदि अपमान
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चन्द्रिका टीका ति पलोक जनक प्रतीत भी होती हो तो भी गदि कर्ताका हेतु पैसा नहीं है-अभिप्राय समीचीन है तो वह क्रिया दोषाथायक नहीं हैं । इसी तरह जो अभिमानकै विषय बसाये गये हैं उनका यदि दुरुपयोग न करके सदुपयोग किया जाता है तो उससे भी सम्यक्त्व की विशुद्धिमें बाधा नहीं पाती। इसके विरुद्ध यदि अभिप्राय मलिन है और क्रिया अपमान करनेवाली न भी हो तोभी सम्यक्त्व में मलिनता पाये विना नहीं रह सकती और न पाप कर्मोका बन्ध ही हुए विना रह सकता है।
ऐसा भी देखा जाता है कि एक ही क्रिया भिन्न २ व्याक्तियों के लिये भिम २ प्रकारका ही फल प्रदान किया करती है। कल्पना कीजिये कि एक विद्वानकी असाधारण रचनाको पढ़ कर अथवा शास्त्रार्थ में विजय की बात सुनकर या गंभीर तास्तिक तलस्पर्शी विवेचनाको सुनकर जब अनेकानेक व्यक्ति उसकी प्रशंसा करते हुए पाये जाते हैं तब दो व्यक्ति ऐसे भी हैं जो मौन धारण करलेते हैं, न निन्दा ही करते हैं और न प्रशंसा ही। इन दोमें से एक तो है उसका हितैषी गुरु और दूसरा है स्वभावतः ईर्ष्यालु मत्सरी अकारण द्वेषी दुर्जन । मौन धारण करने में दोनोंके ही अभिप्राय भिन्न २ हैं । गुरु इसलिये प्रशंसा नहीं करता कि मेरे द्वारा की गई प्रशंसा को पाकर यह कहीं उत्सेकमें पाकर अपनी उमति करनेसे वंचित न रहजाय । दुर्जन इसलिये प्रशंसा नहीं करता कि उसको दूसरे के गुणोंका उत्कर्ष और यश सच नहीं है। ऐसी अवस्था में मौन धारण करनेकी क्रिया दोनों की समान होते हुए भी फल समान नही हुआ करता, न होही सकता है । गुरु शुभाशंसी होने से पुण्य फल का मोक्ता होता है और दुर्जन अशुभाशंसी होने के कारण पापयन्व और अनिष्ट फलका ही मोक्ता हो सकता है।
लोगोंके हृदयमें अनादिकालसे व्याप्त अथवा गृहीत प्रज्ञानान्धकारको दूर करके सर्मका प्रकाश करनेकी बलवती भावनासे प्रेरित अनेक प्राचार्य अथवा विद्वान भी कदाचित् प्रसङ्गा नुसार स्वयं अपने ही मुखसे अपने ही ज्ञान विज्ञान आदि की इस तरहसे प्रशंसा करते हुए सुने देखे या पाये जाते हैं जिससे कि दूसरे में नगएपता का भाव अभिव्यक्त हुए विना नहीं रहता। जैसा कि विश्रुत सूक्तियों के अनुसार श्री भट्टाकलंक देवने साहसतुगंकी सभामें जाकर कहा था । किन्तु इस सरह के कथनका यह आशय कभी नहीं हो सकता और न है ही कि उन्होंने इसतरह आत्मप्रशंसा करके या ज्ञानके गर्वको प्रकट करके अपना सम्यग्दर्शन मलिन करलिया
गतेऽपि चिचे प्रसभं सुभाषितर्न साधुकारं वयसि प्रयच्छति । कृशिष्यमुत्सेकभियावजानती गुरोः पर्वधापति दुर्जनः सः ॥
२-राजम् माहसतुग सन्त बहवः श्वेतातपत्रा नृपाः, किन्तु त्यस्सशोरणेविजयिनस्यागोजता दुर्लभाः तत्सन्ति युधान सन्ति कवयो वागीश्वरा वाग्मिनो, नानाशास्त्रविचारचातुरधियः काले कलौ मद्विधाः ।। पमम् साग्विविदलनपटुस्त्वं यथात्र प्रमिद्धस्तद्वतापासोऽहमस्या भुमि निखिलमदोत्पाटने परिश्तानाम्। भो पेदेषोऽहमेले तक सदसि सदा सन्ति सन्तो महतो, पातुम् यस्यास्ति शक्तिः स पतु विदितारोपशास्तो मादित्वात् ॥
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कVर
था जब कि वास्तविक सत्य यह है कि उन्होंने वैसा करके न केवल पुण्यबंध और पापचय ही किया था प्रत्युत इससे मोक्षमागमें गमन करते हुए उन्होंने सम्यग्दर्शन को प्रभावना से पूर्ण और उद्योतित करके अपने को मोक्ष के अधिक निकट पहुंचा दिया था ? |
इसतरह विचार करनेपर मालूम होगा कि सम्यग्दर्शन का जो समय नामका दोष बताया गया है वह केवल क्रियाको देखकर ही नहीं माना जा सकता। वह सावन सामग्री प्रसङ्ग परिस्थिति के सिवाय उद्देश्य पर कहीं अधिक निर्भर है। क्योंकि देखा जाता है कि कभी तो क्रिया होते हुए भी दोप नहीं लगता, कभी क्रिया न होने पर भी दोष लगजाता है, कदाचिद दो व्यक्तियोंकी क्रिया समान होनेपर भी एकको दोष लगता है दूसरेको नहीं लगता । कभी ऐसा भी हो सकता है कि उससे एक को तो अत्यन्त प्रश्प दोष लगे और दूसरे को अत्यन्त अधिक। यह भी हो सकता है कि उसी क्रियासे दोप लगयेके बदले गुण में उल्टे वृद्धि होजाय । अत एव वस्तुतः दोषका निश्चय एवं निर्णय करने में अनेकान्त रूप वस्तुतश्च स्याद्वादसिद्धान्त और उसके प्रयोक्ता गुरुजन ही सरबर हो सकते हैं। क्योंकि अपेक्षाको छोडकर कोई भी वाक्य समीचीन अर्थका प्रतिपादक नहीं माना जा सकता | स्यात् पदके द्वारा अभिव्यक्त की जाने वाली अपेक्षा बाके उद्देश्य में छिपी रहती है। "निरपेचा नया मिध्या, सापेक्षा वस्तु से कृत्" के कहनेवाले ग्रन्थकर्ताका यह वाक्य भी सापेचही घटित करना चाहिये ।
यह भी ध्यानमे रखना उचित होगा कि प्रकृत कारिका में कर्तृ पदके स्थानपर भाया हुआ गर्विताशय शब्द उद्देश्य या अभिप्राय को नहीं बताता । तो मुख्यतया कर्ताकी विशेषताको सूचित करता है । क्योंकि कर्ता जीवात्माका प्राशय - चित्परिणाम यदि अनन्तानुवन्धी मानरूप है तो वहां पर सम्यग्दर्शनमें मल उत्पन्न होने की बात या विचारका अवकाश ही कहां रहता है। बाह तो सम्यक्त्व सद्भावमें ही उपस्थित हो सकती हैं। जो मिध्यादृष्टि है वह तो किसी भी अवस्था में क्यों न हो और कैसी भी क्रिया क्यों न करे भले ही प्रशान्त व्यवहार के साथ घोर तपश्चरथ ही क्यों न करता हो उसको समल सम्यग्दृष्टि नहीं कहा जा सकता। वह तो वस्तुतः मिध्यादृष्टि है।
यहां तो प्रन्थकार जिस आत्मधर्मको दृष्टिमें रखकर विचार कर रहे हैं उसके सद्भावमें ही उसकी मलिनता आदिका विश्वार युक्तियुक्त अथवा संगत माना जा सकता है । अत एव सम्प
१- व्यकलदेव के समान उनसे पहले और पीछे और भी अनेक महान आचार्य एवं विद्वान हुए हैं । जिन्होंने धर्म के प्रचार और प्रभावनाके लिये ऐसा ही किया है जैसे कि भगवान् कुन्दकुन्द विद्यानन्द, नेमि देव (सोमदेव के गुरु भट्टारक कुसुर चन्द, इस्तिमन, धनंजय आदि स्वयं प्रन्थकर्ता भ० समन्तभद्र की मी ए विषयमें बहुत बढी प्रख्याति है! २ – परमागमस्य बीजं निषिद्धजात्यन्धसिन्धुरविधानम् । सकलनबविल feerat विरोधnet नमाम्यनेकान्तम् ॥ २ ॥ पुरु० । इति विविधमंगमहने सुदुस्तरे मार्गमूड एण्टीनां । गुरुयो भवन्ति शरणम् प्रबुद्धयचकसंभाराः ||१८|| पुरुषा । "स्याद्वाद केवलज्ञाने वस्तुतत्त्वप्रकाशने "
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न्द्रका टीका सताईस श्लोक दृष्टि होनेके कारण जो अनन्तानुबन्धी मानके उदय से रहित है उसके ही समय नामका दोष माना जा सकता है वह यदि संभव हो सकता है तो शेष तीन प्रकारके मानमें से किसीके भी उदयकी अवस्था में ही संभव हो सकता है । अत एव उस दोषको तीन भागों में विभक्त किया जा सकता है- उसम मध्यम जघन्य । जिसके कि स्वामी क्रमसे असंयत सम्यग्दृष्टि, देशवती और सकल संयमी हो सकते वा माने जा सकते हैं। जिनका अपमान किया जाता है वे भी धर्मस्थ होनेके कारण इन्हीं नीम दोंते युश हो सकते है । तथा समय के विषय माठ है। इसलिये forest अपेक्षा सामान्यतया स्मय आठ प्रकारका होसकता है। फलतः तीनों का ही परस्परमें गुणा करनेपर समय नामके दोष के मूलमें ७२ भेद संभव हैं।
"
इन भेदोंको ध्यान में लेनेसे दोष की उचावचता तथा उसके फलकी तरतमता या विशेषता जानी जा सकती है और यथास्थान अपने २ सम्यग्दर्शन की विशुद्धिको स्थिर रखने की आवश्य कता भी समझमें आसकती है।
इसतरह स्मय नामका सम्यग्दर्शन का मल किसर के तथा कितने प्रकारसे संभव है यह बात इस कारिकाके द्वारा बताकर अब आपालंकारके द्वारा समय के विषय और धर्ममें अन्तर दिखाकर यह स्पष्ट कर देना चाहते हैं कि इस तरहसे धर्मकी की गई अवहेलना हेय अथवा दोषका निदान क्यों है ?--
यदि पापनिरोधोऽन्यसम्पदा किं प्रयोजनम् ।
थथ पापा वोऽस्त्यन्य सम्पदा किं प्रयोजनम् ॥२७॥
अर्थ - याद पापका निरोध हो चुका हैं तो अन्यसम्पत्तिसे क्या प्रयोजन है। और यदि पापका आम हो रहा है तो अन्य सम्पत्तिसे क्या प्रयोजन है ?
प्रयोजन - ऊपर जो कथन किया गया है वह आगमसे सिद्ध विषय है। फिर भी यदि उसकी सिद्धिके लिये उसी आगमके आधार पर उपपत्ति भी उपस्थित करदी जाय तो उपयुक यह कथन और भी अधिक सुदृढ हो जा सकता है। यही कारण है कि इस कारिकाके द्वारा पूर्वोक्त कथन अन्यन्त दृढ होजाता है। अन्यथा इसतरह का प्रश्न खडा रहसकता है कि "ऐसा क्यों ? " अर्थात् यद्यपि यह कथन सत्य है कि ज्ञान पूजा कुल जाति आदि विषयक मदके द्वारा afeमाकी अवहेलना किये जानेपर अपना ही धर्म नष्ट या मलिन होजाता है परन्तु इसको कोई ऐसी उपपति नहीं है कि जिसके द्वारा इस कथन को अत्यन्त दृढता के साथ स्वीकार किया जा सके। इस संभावनाको दृष्टि में रखकर पूर्वोक्त कथनका दृढीकरण ही इस कारिकाका प्रयोजन है। शब्दोंका सामान्य विशेषार्थ
यदि — यह पञ्चान्तरको उपस्थित करनेवाला अव्ययपद हैं। किसी भी विषय के स्पष्टीकरण के समय अनुकूल प्रतिकूल दो पच उपस्थित करके दोनों के ही गुण दोष आदि का जब उल्लेख करना हो तो इस शब्दका प्रयोग हुआ करता है। जैसे कि कृष्ण महाराज यदि हमारे (पादपों
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रत्नकरसवश्रावकाचार के पक्षमें हैं तो हमको उनकी ममम्त सैनामाधन सामग्री की आवश्यकता नहीं है । और यदि वे हमारे पक्ष में नहीं हैं तो उनकी उमसम्पूर्ण सेना आदि के मिलजानेपर भी कोई लाभ नहीं है। इसतरह विभिन्न पक्षोंकी उपस्थितिके समय इस अध्ययपदका प्रयोग हुआ करता है।
पापनिरोधः-जो आत्माको सुरक्षित रखता है, उसे अपने कल्याणकी तरफ नहीं जाने देता उसको कहते हैं पाप । अर्थात् ममस्त मात्रद्य क्रियाएं और उनके द्वारा संचित होनेवाले असद्वेध अशुभायु अशुभनाम अशुभगोत्र और सम्पूर्ण घाति कर्म चतुष्टयरूप पुद्गल द्रव्य तथा मिथ्यात्व मादि के उदयसे युक्त जीव, ये सब पाप है। निरोधका अर्थ रोकना है। मतलब यह कि जिससे पाप रुके अथवा उसका रुकना, या जिसके वह रुकगया है वे सभी पापनिरोध शब्दसे लिये जा सकते हैं। जैनागममें इसके लिये संवर शब्दका प्रयोग हुआ करता है।
अन्यसम्पदा किं प्रयोजनम् ? यह काकु वाक्य है। जिससे आशय यह निकलता है कि अन्य सम्पत्तिसे कोई प्रयोजन नहीं ।
अथ--पद्यपि इस शब्दके अनेक अर्थ होते हैं-यथा मंगल प्रश्न प्रारम्भ विकल्प इत्यादि। किंतु यहाँपर इस शब्दका प्रयोग 'यदि' के स्थानपर अर्थात् पचान्तर अर्थको सूचित करनेके लिये
पापाश्रवः-पापका अर्थ कार बताया जा चुद : आपला भार्या बाग स्वादिगणकी गत्यर्थक व धातुसे यह शब्द निष्पन्न हुआ है। मतलब यह है कि पाप कर्मोका आना या जिनके द्वारा पाप कर्म पाते हैं वे सभी भाव पापासव शब्दसे कहे जाते हैं ।
ऊपर "पापनिरोध" शब्दका प्रयोग जिस अर्थ में किया गया है। यह शब्द उससे ठीक विपरीत अर्थका बोध करानेके लिये प्रयुक्त हुआ है। क्योंकि ग्रन्थकर्ताकी दृष्टि में एक महान सिद्धांत है जिसको कि वे प्रकृत विषयमें उपपत्तिको बताते हुए व्यक्त कर देना चाहते हैं।
सात्विक दृष्टि से अथवा जैनागमके अनुसार समस्त वस्तु स्थिति सप्रतिपक्ष व्यवस्थापर निर्भर है। तदनुसार दो तस हैं एक जीव दूसरा अजीब,२ ये दोनोंमें अत्यन्त विरोध रहते हुए भी बहुत बड़ा सम्बन्ध भी है। वे एक दूसरेके परिणमनमें निमित्त हुआ करते हैं। अतएव दोनों ही की शुद्ध और अशुद्ध अवस्थाएं भी पाई जाती हैं | जीव द्रव्य जितने हैं वे सभी अनादि कालसे अजीव पुद्गलके विशिष्ट संयोगकै कारण अशुद्ध हैं । जब उनमें से जो जीव अपने ही प्रयासे उस अशुद्धिसे और उसके कारणों से सर्वथा मुक्त होजाते हैं तब वे ही शुद्ध सिद्ध परमात्मा को जाते हैं । अजीव तत्त्व पांच है। जिनमें धर्म अधर्म और आकाश तो जीव पुद्गलकी क्रमसे गति १-प्रायः सर्वत्र आसव शब्दही देखनेमें खाता है। किंतु प्रभाचन्द्रीय टीका आश्व शब्द भी कहीं कहीं आया है। स्व. पं. गौरीलालजीने अपनी निरुक्तिमें भी आश्रव ही लिखा है। २-अजीव दृष्य पांच हैं; पुष्गल धर्म अधर्म आकाश और काल किंतु प्रकृतमें पुद्गल विशेषसे ही अभिप्राय है।
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का टीका सत्ताईसवां श्लोक
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स्थिति और स्थानदान में अवलम्बन है, काल द्रव्य क्रमवर्तिताका कारण है। ये चारों ही अमूर्त हैं और अपने २ कार्यमें वाह्य उदासीन निमित मात्र हैं । पुद्गल द्रव्य मूर्त है वह स्वयं भी परस्पर के संयोगसे अशुद्ध होता है और अनादि कालसे संसारी जीवको भी अपने संयोग द्वारा अशुद्ध बनाता आरहा है और बनाता रहता है असर इन दोनोंके निमित्त से पांच तत्व और बनते हैं । व बंध संवर निर्जरा और मोक्ष | जब तक जीवको पुद्गलसे भिम अपने वास्तविक स्वरूप शक्ति और वैभवका परिचय या मान आदि नहीं होता वहांतक पुद्मल कार्यकी प्रधानता रहा करती हैं और वह जीवको श्रस्व एवं बंधके प्रपंचमें ही फसाकर रखता है। किंतु जब जीवको अपनी उन चीजोंके साथ २ अधिक वीर्यताका भी अनुभव होजाता है तभी उसका अपने कर्ततव्य या साध्यके विषयमें दृष्टिकोण पलट जाता है और अपने उस साभ्यको सिद्ध करनेके लिये मार्ग भी पराधीनतासे छूटकर स्वाधीनताकी तरफ परिणत होजाता है यहींसे संवर निर्जरा और मोच तच्च बनते हैं। फलतः जहांतक पुद्गलकी प्रधानता है वहतिक उसीके संयोगकी मुख्यता है और जब उसकी तरफसे दृष्टिके हटजानेपर जीवकी अपनी तरफ दृष्टि रूप होजाती है सभीसे संवर निर्जरा और मोक्षके रूपमें पुद्गल के वियोगकी प्रधानता होजाती है फलतः आस्रव और कंध संसार के स्वरूप हैं तथा र्सवर निर्जरा और प्रोतस्त्र सिद्धावस्थाके हेतु प्रतीक एवं पूर्वरूप हैं। अतएव दोनोंका स्वरूप स्वामित्व साधन और फल भी परस्पर में विरुद्ध तथा मित्र २ ही हैं ।
सम्यग्दर्शनादि जिनका कि धर्म रूपसे ग्रन्थकारने यहां वर्णन किया है उनका जीवात्मासे सम्बन्ध हैं ने तो जीवोंके गुण धर्म या स्वभाव हैं । और संवर आदिके हेतुमद्भाव है और जो समय के विषय के रूप में आठ वस्तुएं बनाई गई हैं जहांतक स्मयके विषय हैं वहां तक उनका पुनल से संबन्ध है। वे बंध और आस्रव तत्वके हेतुमद्भाव है । अतएव दोनोंसे विरोध है । यह विरोध लक्ष्मी और सरस्वती सापत्त्यभावके समान हैं। साथ ही जब लक्ष्मी सरस्वतीकी महत्ता की प्राप्त नहीं कर सकती । पह जातीय-स्वाभाविक गुणकत अन्तर रहते हुए भी लक्ष्मी यदि सरस्वतीका अपमान करे तो वह सिहिनी पुत्रों के समक्ष पुगालपुत्रकी गर्वोक्तिकं सक्षम ही कही जा सकती है।
अस्ति क्रियापदका अर्थ प्रसिद्ध है। और "अन्यसम्पदा किं प्रयोजनम्" का सामान्यार्थ ऊपरके ही समान है।
१---सम्धार्थ सूत्रके अभ्याय १- में आसव, पमें बंध में मंजर - निर्भरा और १० में मोक्षका पर्यान किया गया है ।
-सकी कथा हितोपदेशमें आई है। जिसमें सिंहिनीने अपने रक्षित शृगाल पुत्र एकान्तमें कहा है किसुरोऽसि कृतविद्यति दर्शनीयोऽसि पुत्रक। यस्मिन् कुले त्वमुत्पन्नो गजस्तत्र प्रम्यते /
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रत्नकरण्ड श्रावकाचार
यहां पर ग्रन्थकारने लाटानुप्रास नामक शब्दालंकार और आक्षेप नामक अर्थालंकारको काममें लिया है । अतएव दो पद समान हैं-दूसरे तथा चौथे चरण की पद या शब्द रचना एक सरीखी है किन्तु अर्थ प्रतिषेधका है । और वह भी काकूक्तिके द्वारा अधिक स्पष्ट कर दिया गया है
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तात्पर्य यह कि जहां पर समान अक्षरों या पदों की पुनरावृति पाई जाय वहां अनुप्रास नामका शब्दालङ्कार माना जाता हैं। इसके दो भेद हैं- एक छेकानुप्रास, दूसरा लाटानुप्रास । जहां अक्षरोंकी सदृशता हो उसको चेकानुप्रास और जहां सदृश पद की पुनरावृद्धि हो वहां लाटानुप्रास होता है | यहां पर "अन्यसम्पदा किं प्रयोजनम्" इस पदको दूसरे और चौथे वर में पाई जाती है इसलिये लाटानुप्रास है।
"च्याक्षेप" यह अर्थालंकारका एक भेद है। जहां पर उक्ति या प्रतीति प्रतिदेव को बताती हो वह यह अलंकार माना जाता है। यहां पर पूर्वार्ध और उत्तरार्ध दोनों ही वाक्योंके द्वारा प्रतिषेध अर्थ व्यक्त होता है अत एव आक्षेप अलंकार हैं।
यद्यपि श्राद्यकविका यह वाक्य ऊपर लिखे अनुसार शब्दालंकार और अर्थालङ्कार दोनों से ही अलंकृत है परन्तु इसके द्वारा जिस गंभीर अथका यहां प्रतिपादन किया गया है वह अत्यन्त महान् हैं। कहना यह है कि सम्पत्ति दो प्रकारकी है - एक आध्यात्मिक दूसरी भौतिक दोनों में से जो भी अपने गुणों और परिणामों के द्वारा अपनी महत्ताको प्रकाशित कर देता है उसके सामने दूसरी की तुच्छता हेयता या अनुपादेयता स्वयं ही सिद्ध होजाती है।
atre और Horroमक सम्पत्तियों में चार चातका स्पष्ट स्वाधीनता - साविकता और निरवधिकता, ३- श्रशुद्धता और श्रेयोवीजता ।
अन्तर है । १ - पराधीनता और शुद्धता, ४- पापवीजता और
भौतिक सम्पत्ति इनमें से पहले २ विशेषणोंसे और आध्यात्मिक सम्पत्ति अन्तिम चारों विशेपणास युक्त है। धर्म यह आध्यात्मिक सम्पत्ति है अतएव वह अपने उदयके साथ ही इन चारों ही विशेषताओं और इनके सिवाय अन्य भी अनेक ऐसी विशेषताओंको जन्म देती हैं जिनके कि मामने घडी से बड़ी भी भौतिक सम्पति अप्रयोजनीभूत सिद्ध हो जाती है। इसी अभिप्रायको व्यक्त करने के लिये आचार्यने दोनों ही के लिये एक २ विशेषण दे दिया है। आध्यात्मिक संपत्ति की विशेषता बतानेके लिये "पापनिरोध" और भौतिक सम्पत्ति की तुच्छता बतानेके लिये "पापाaa" शब्दका प्रयोग कर दिया है।
१ तुल्यश्रुत्यक्षरावृत्तिरनुप्रासः स्फुरद्गुणः । अतस्पदः स्याककानां लाटानां तत्पदश्च सः ॥ वाग्भट, ४-१७।। अनुप्रासः स बाद्धव्यो द्विधा लाटादिभेदतः । लाटानां तपः प्रोक्तकानां सोप्यतद्वदः ॥ अलं-३-५॥
२-३-कानुप्रासा यथा-फलाबनम्रात्रविलम्बिजम्बू जम्बीर नारंगलवंगपूगम् । सर्वत्र यत्र प्रतिपच पान्याः पाथेयभ्यारं पथि नोहन्ति || सायानुप्रासो यथा त्वं प्रिया वेचकोराशि स्वर्गलोकसुखेन किम् स्वं मिश्रा पि न स्वान्मे स्वर्गलोकसुसेन किम् ॥
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यन्द्रिका टोका सत्ताईस श्लोक
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रमत्रयरूप सम्यग्दर्शनादिक तीनों ही जीवात्मा के धर्म होने के कारण स्वाधीन हैं कालानवच्छ हैं, पवित्र निर्मल और स्वयं कन्याणरूप हैं तथा दूसरे असाधारण कल्याणों के लिये बीजरूप हैं। जबकि स्मय विषयरूपसे परिगणित आठों ही विषय चारों ही प्रकारों में पुलनिमिचक पपीलिक होने के कारण विरूद्धस्वभाव हैं । यथाक्रम कर्मों की प्रकृति स्थिति अनुभाग और प्रदेशों के प्राश्रित हैं। पहले तीन विषयों में जो महान् अन्तर है वह तो स्पष्ट ही हैं । अन्तिम विषयक अन्तरको यहां थोडा स्पष्ट कर देना उचित और आवश्यक मालुम होता है
ant for आठों ही सामग्री सम्यग्दृष्टी और मिध्यादृष्टि - श्रात्मधर्म से युक्त और रहित अर्थात् जिसके पापका निरोष होरहा है और जिसके पापका आस्रव हो रहा है दोनों ही प्रकारके जीवोंको सामान्यतया अपने २ पापकर्मीके क्षयोपशम या पुण्यकर्मो के उदयके अनुसार प्राप्त हुआ करती है। फिर भी दोनों के उस वैभवमें जो महत्वपूर्ण असाधारण अन्तर है वह ध्यान देने योग्य है।
ज्ञान- इसके पांच भेदोंमें से देशावसेि ऊपर के परमावधि सर्वावधि मन:पर्यय और कालज्ञान तो मिध्यादृष्टि को प्राप्त होते ही नहीं, श्रुतज्ञानमें भी अभित्र दशपूर्तित्व से ऊपरके चतुर्दश पूर्वस्व और केवल प्राप्त नहीं होते । मतिज्ञान के मेदोंमें भी बहुत से बुद्धि ऋद्धिके भेद ऐसे हैं जो सम्यग्दृष्टि को ही प्राप्त होते हैं। इसके सिवाय शुद्ध निज आत्मस्वभावकी अनुभूति भी समयग्दर्शनसे ही fearnव रखती है। तथा किसी भी ज्ञानकी विषयाव्यभिचारिता जो और जैसी सम्यग्दृष्टि के होती है वैसी अन्यकी नहीं |
पूजा -- सम्यक्त्वसहित जीव मरणकरके जिस किसी भी गविमें जाता है उसीमें उत्कट अवस्था को ही प्राप्त किया करता है। यह नियम मिध्यादृष्टि के लिये नहीं हैं।
कुल आदि के विषयमें भी यही बात है। जैसा कि आगे चलकर स्वयं ग्रन्थकार कहेंगे कि सम्यग्दृष्टि जीव दुष्कुल में जन्म धारण नहीं किया करता उसी प्रकार वह लोकग मातृपक्ष में भी उत्पन्न नहीं हुआ करता । चकाकी केवल दो भुजाओं में पट्खण्ड में रहनेवाले सम्पूर्ण मनुष्योंकि संयुक्त बलसे अधिक बल रहा करता है। शक्रमें समस्त जम्बूद्वीपको भी पलट देनेकी शक्ति रहा करती है। तीर्थंकरोंका गृहस्थ एवं द्मस्थ अवस्थामें भी जो चल रहा करता है उसका प्रभाषा तो किसीकी तुलना करके या उपमा देकर नहीं बताया जा सकता; अतएव उसको अतुल्य ही कहा हैं। वह भी मिध्यादृष्टिको फिर चाहे वह कितना भी घोर तपश्चरण करके पुण्यार्जन क्यों न करे घास नहीं हुआ करता । बल ऋद्धिकी तो बात ही क्या है १ ६४ ऋद्धियोंके लिये भी यही बात है तथा सम्यक्त्व के विना जब वास्तवमे - अनुपचारित धर्मध्यान भी नहीं हो सकता तब शुक्ल ध्यान रूप तरश्चरण तो होही किसतरह सकता है। कामदेवोंका शरीर भीं सम्यक्त्व सहचारी पुपके द्वारा हीं प्राप्त हुआ करती है। देवोंके शरीरमें भी यह एक विशेषता पाई जाती है कि अन्तिम समय में अन्यदेवोके समान वह म्लान नहीं हुआ करता ।
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रत्नकरावकाचार इसके विरुद्ध मिथ्यारष्टिको यदि कदाचित् निरतिशय पुण्यके बलपर यही विभूनियां प्राप्त होती भी है तो वे किननी हीन होती हैं यह पात ऊपरके कथनसे ही' मालुम हो जा सकती है। क्योंकि ऊपर चार प्रकारका जो कर्म निमित्तक अन्तर बताया है उससे उसकी हेयता स्वयं ही प्रकट होजाती है फिर ये सब वैभव भी तत्वतः लौकिक ही तो हैं अतएव चाहे सम्यग्दृष्टिको प्राप्तहों चाहे मिथ्याष्टिको, कर्माधीन होने के कारण कर्म प्रकृति के अनुरूप ही प्राप्त हो सकते हैं। न कि आत्मस्वभावके अनुसार । तथा कोशी स्थिति तक ही इनका अस्तित्त्र सीमित है आगे नहीं । उसी प्रकार इनकी हरता या दुर्बलता कर्मों के अनुभाग पर निर्भर है न कि जीवक स्वत:क बल पर | फिर सबसे बड़ी वात यह है कि इन कॉंके प्रदेशोंके अस्तित्वकी संतान तबतक समाप्त नहीं होती. जब तक कि सबकोंक मूलभूत पाप कम मिथ्यात्वका निरोध नहीं हो जाता । एकचार मी यदि मिथ्यात्वका निरोव होजाय तो फिर उस जीवका संसार सावधिक होजानेसे एक अन्तर्मुहर्तसे लेकर अर्थ पुद्गल परिवर्तन कालके भीतर समाप्त होकर ही रहता है। ___ सम्यग्दर्शन प्रकट होने के पूर्व भव्य अभव्य दोनों के ही पाई जानेवाली चार लब्धियों से पहली बयोपशम और दूसरी विशुद्ध लब्धिके परिणामस्वरूप जो पाप कर्मीका हास और पुण्य कर्नामें उस्कर्ष हुआ करता है वह वैभव भी जब इतना असामान्य है कि साधारण निरतिशय मिथ्यारियों को प्राप्त नहीं होसकता तब सम्यक्त्व के हीजानेपर-पापशिरोमणि मिथ्यात्वका सर्वथा निरोध होते ही जो ४१ पाप कर्मों के विच्छेद-संवरके साथ २ प्रथम निर्जरा स्थानका लाभ होता है उस सम्पति की ती मांसारिक किम विभूनिसे तुलना की जासकती है ? किसी से भी नहीं अतएव जो व्यक्ति अपन ऋथित सांसारिक बाध वैभवके अभिमानवश इस महान सम्पनिकी तरफ दुर्लक्ष्यकर धर्मात्माओंके रूप में धर्मकी अहलना करता है वह अपनी ही हानि करता है-अपनेको ही नीचे गिरा लेता है।
मिथ्यात्वका निरोध हाजानेपर संसारका ऐसा कोई भी पद या मव नहीं है जो उसको प्राश नवीसकता हो । और जबतक उसका उदय होरहा है तबतक कोई ऐसा दुःखरूप स्थान नहीं है जो उसको प्राप्त न हासकता हो । यह दुःखमपी संसार जो कि पंच परिवतेनरूप है उसका स्वामी पापामवसे युक्त सिध्याइष्टि ही है। इसका निरोध होजाने पर सम्याडष्टि जीवकी पांचों परिव धों में से सबसे पहले एवं सबसे छोटे एक पुदगल परिवर्तनका भी अर्थ भागसे अधिक नहीं भोगना पडता। जबकि मिथ्यात्वका निरीष न होने पर-पापास्त्रवसे युक्त जीव व्यवहार राशिमें मी ही हमार सागरसे अधिक रह नहीं सकता, इसके बाद उसको नियमसे निगोद राशिमें जाना जी पड़ता है।
भव्याभव्यक सामान्यरूपसे पाई जानेवाली प्रायोग्यलब्धिक प्रकरणमें जो ३४ बन्यापसरण बताये गये हैं उनमें मनुष्यक पाई जानेवाली बंधयोग्य ११७ कर्म प्रकृतियों में में कंबल ७१ हीका बंध होता है, शेष ४६ प्रकृतियों की व्युनिति-बंधापसरव हो जाता
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चद्रिका टीका अट्ठाईसवाँ भोक है। किन्तु मिथ्यात्वकी म्युछित्ति नहीं होती । यही कारण है कि इतना होजाने पर भी यह संसार---पंच परिवर्तनके अधिकारसे मुक्त नहीं हुआ करता।
इस सब कथनसे यह बात ध्यानमें आ सकती है कि यदि पाप-मिथ्यात्यका निरोष होजाता है संभ ती संसारका बसे बडा महान्से महान् और उत्तमसे उत्तम ऐसा कोई वैभव नहीं है जो प्राप्त न हो सकता हो। उसकी तो वे सब स्वयं ही बिना किसी इच्छा या प्रयत्न केही प्राप्त हो जाया करने हैं। क्योंकि सम्यग्दृष्टि जीप नि:
काध होने के कारण सांसारिक मक्की इच्छासे पुण्यापार्जन करने के लिये तपश्चरणादिमें प्रयत्न नहीं किया करता वह तो भासिद्धिकर कारण संपर मार्गाच्यवन और निर्जराको सिद्ध करने के लिये तपमें प्रवत्त हुशा करता है। हां, उसको परिणामोंको विशुद्धिविशेषताकै कारण स्वयं ही पुण्य विशेषका अर्जन होता है और उसके असाधारण फलका लाभ भी हुआ करता है। जबकि पापाव वाले मिथ्याष्टि जीपको वह विशुद्धि न रहने के कारण वह पुण्य और उसका वह फल भी प्राप्त नहीं हुआ करतार अतएव स्पष्ट है कि पापनिरोधी जीव जहां अपनी अन्तरंग विभूति से स्वयं महान है और स्वयं प्राप्त होनेवाली बाध विभूतियों की निःकांक्ष होनेके कारन उसे आवश्यकता नहीं है वहां पापासथी जीव अन्तरंगमें दरिद्र है और कदाचित् पापोदयकी मन्दना का पुण्योदयके कारण उसको उक्त बाघ वैभव जिसके लिये यह लालायित है प्राप्त हो भी गया १ सो भी या नगण्य है----उक्त चार कारणोंसे उसके उस वैभवका कोई मून्य नहीं है। सम्यग्दृष्टिको चाहिये वह इस सिद्धान्तको दृष्टिम ले और आठ विषयोंके श्राश्रयसे होनेवाले म्मयों द्वारा अपने सम्यग्दर्शनको मलिन न होने दे।
इसतरह स्मयका लक्षण, और यह कब कहां किस प्रकार सम्यग्दर्शन का दोषाधायक निमित बनजाता है इसके समझने एवं निर्णय करनेकी पद्धति, तथा उसके विषय में सैद्धान्तिक महत्वपूर्ण रहस्यको बताकर आचार्य महाराज कुछ ऐतिहासिक घटनाओंको दृष्टि में रखकर दृष्टान्तभिंत सालंकार माषामें सम्यग्दर्शनकी महत्ता एवं संरक्षणीयताका समर्थन करते हुए उपर्युक्त कारिका कथित विषयका ही स्पष्टीकरण करते हैं। ---
सम्यग्दर्शनसम्पन्नमपि मातगदेहजम् ।
देवा देवं विदुर्भस्मगूढांगारान्तरोजसम् ॥२८॥ अथं—मातंग-चाण्डालक शरीरसे उत्पन्न व्यक्तिको भी यदि वह सम्पदर्शनस सम्पन है तो देव-अरिहंत देव या गणधर देव जिसका अभ्यन्तर भोज भस्मसे लिगा हुमा है ऐसे अंगारके समाम देव मानते हैं।
१ -इस विषयमें अधिक जानने के लिये देखो लब्धिप्तारके प्रारम्भकी गाथा २०११ से १६ तक भौर उसकी टीका ! २--"मार्गाच्यवननिर्जरा परियोदव्याः परीषहाः ।" त० सू०५-६।३-पुरणांक को कमी संसारोग ईहिदो होदि । दूरे तस्स विसोही विसोहिमूलाणि पुरणाणि ।
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AMAN
रलकररावकाचार प्रयोजन-क्रमकै अनुसार श्रद्धान क्रियाके तीसरे विशेषण अस्मयका ध्याख्यान करना आवश्य. क है। अस्मयका स्पष्ट सीधा अर्थ स्मयका निषेध है। अतएव स्मयके सम्बन्धमें प्रत्येक दृष्टिसे उसके पाथाल्यपर प्रकाश डालना आचार्यको अभिप्रेत है । इस विषयमें चारों ही अनयोगोंके हृदयको सामने रखकर भगवान् समन्तभद्र पाठकों के समक्ष स्मय की व्याख्या कर रहे हैं। मालुम होता है कि यह ग्रन्थ चरणानुयोगका है अत एव स्मयका जो सबसे पहले लवण किया गया है वह उसी राष्टिसे है। क्योंकि चारित्र व्यवहार प्रधान है। और स्मय-मानकषाय-बाईकारिक माव जिन आठ विषयों के निमित या आश्रयसे प्रवृत्त होता है उन सबके विषय सम्बन्ध को लेकर ही स्मयका लक्षण किया गया है । इसके बाद यह कब कहां किस सरहसे दोष माना जा सकता है या नहीं माना जा सकता, इस बातको स्पष्ट करनलिये दूसरी कारिका द्रव्या. नुरोग अथवा स्याद्वादगमित भनेकान्त सिद्धान्तके आधारपर का पद आदि चार पदोंका उल्लेख करके बताया है कि कौन किनका किस तरहसे किस तरहका व्यवहार करे तो वह मम्पग्दर्शन का स्मय दोष माना जा सकता है। इसके अमनर सिद्वान्त-करणानुयोग-आगमक आधार पर समयसे दूपित और निर्दोप सम्यग्दर्शनका फल बता कर पुण्योदयसे ग्राम सम्पचिकी हेयता सथा आध्यात्मिक गुण सम्पचिकी महत्ताको स्पट करदिया है। प्रद क्रमानुसार स्मयके करने न करनेका फल प्रथमानुयोग के आधार पर शान्त उपस्थित करके बता देना भी आवश्यक है। जिस तरह कोई भी तार्किक विद्वान् प्रतिभावाक्य के द्वारा पक्ष और साध्यका उल्लेख करके हेतु का प्रयोग करता है और अन्वयख्याति अथवा व्यतिरेक व्याप्तिके अनुसार अन्वय दृष्टान्त अथवा व्यतिरेक दृष्टान्त उपस्थित करके साध्यसिद्धिका समर्थन करता है उसी प्रकार प्रकृतमें समझना चाहिये।
ऊपर तीनों ही मैद्धान्तिक एवं व्यावहारिक विषयों के आधारपर जो कुछ कहागया है उसी के विषयमें सत्यभृत ऐतिहासिक घटनाका स्मरण दिलाकर इस कारिकाके द्वारा यह बता देना भी आवश्यक समझा है कि धर्मात्माको ऐहिक सम्पत्तिके आश्रय से अवगणना करनेका प्रत्यक्ष फल क्या होता है एवं तत्वतः उस धर्मात्माकी महथा कितनी उच्च कोटिकी एवं आदरणीय है। क्योंकि किसी भी घटनाको देखकर तात्विक एवं सैद्धान्तिक सत्यताको प्रतीति सरलवा और सुन्दरताके साथ हो सकती है। अतएव इस कारिकाका निर्माण प्रयोजनीभूत है। ___ यद्यपि प्रथमानुयोगके विषय-दृष्टान्तका सम्बन्ध इस कारिकामें ही नहीं भागेकी कारिकामें भी पाया जाता है। फिर भी दोनों में बहुत बड़ा अन्तर है। यहाँ तो अन्तरंग सम्पति की महिमाको प्रधानन्या रताया गया है। और आगेकी कारिकामें इष्टानिष्ट या अनुकूल प्रतिकूल पविर्म प्राषिक फलमें ओ अन्तर है वह स्टान्त द्वारा दिखाया गया है। ___यह बात भी यहां ध्यानमें रहनी पाहिये कि भाचार्योंकी इस दृष्टान्तभित उत्तिका प्रयो· अन स्मरके विषयभ्व पूज्यता समातिल लीनता मादिका वैयध्ये दिखाना अथवा उनकी
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चन्द्रिका टीका अठाईसवां श्लोक
२४०
साताका, जिसका कि पहले उल्लेख किया जा चुका है, निराकरण करना नहीं है प्रकृत कारिकाका प्रयोजन प्रधानभूत अन्तरंग सम्यग्दर्शन गुण की महत्ताका रूमापन करनामात्र है। साथ ही यह भी बताना है कि आत्मसिद्धिके लिये अरिहत देवने मुमुक्षुओंकी इस आध्या त्मिक निज अंतरंग सम्पत्तिको प्रधान माना है। जो कि सर्वथा उचित संगत और सैद्धान्तिक है। तथा युक्तियुक्त अनुभव सिद्ध और आगमप्रसिद्ध हैं !
शब्दका सामान्य विशेषार्थ
सम्यग्दर्शनसम्पन—- सम्यग्दर्शन शब्दका अर्थ और लक्षण यथावसर लिखा जा चुका है। सम्पत्र शब्द सम्पूर्वक पद धातु के प्रत्यय होकर निध्पण हुआ है। मतलब यह है कि जो अच्छी तरह पूर्ण हो चुका है, यहां यह पद मातंग देहजमका विशेषण हैं। यद्यपि सम्यग्दर्शनके सम्बम- परिपूर्ण होनेमें पांच अवस्थाएं क्रमसे हुआ करती हैं। उद्योत, उद्यन, निर्वाह, सिद्धि और निस्तरण । फिर भी यहां पर केवल सामान्यतया मल दोषरहित दृढ श्रद्धा को प्रयोजन है। मतलब इतना ही है कि जो सम्यग्दर्शन रूप सम्पत्तिको सिद्ध कर चुका है और उसका भंग न होनेदेन के लिये रह है ।
यदि यह अव्ययपद है। इसका सम्बन्ध भी मातंगदेहजम् के साथ हीं है । मातंगदेहजम्मात शरीरसे जो उत्पन्न हुआ हो । यहां पर ध्यान देना चाहिये कि जो मानके शरीर से उत्पन्न हुया हो वह भी मातंग ही हैं। वह भी इसी शब्दसे कहा जाता है । अव "देव"ar साथमें और न कहकर यदि केवल " मातंग " इतना ही कह दिया जाता तब भी काम चल गया था। ऐसा होते हुए भी आचार्यने जो यह शब्द रक्खा वह बिना जाने अथवा अनावश्यक नहीं रक्खा है। किन्तु उनको चतुर्थ चरण में दिये गये व्यक्ति के या काकी या प्रतीति करानेकलिये ऐसा लिखना उचित और आवश्यक था। जिससे शरीराश्रित व्यवहार और आत्माश्रित धर्म सम्पत्तिकी प्रतीति भार रूपमें हो सके। यह मालुम हो सके कि यद्यपि व्यवहार शरीराश्रित है अतएव वह मातग शरीरसे उत्पन्न होने के कारण लोक में जत्थाहीन माना जाता है किन्तु उसका आत्मा सम्यग्दर्शन के अन्तस्तेजसे प्रकाशमान होने के कारण देव है।
देवा देवम्-- देवशद करते है। देवगति और देवयुका जिनके उदय पाया जाय ऐसे सुर असुर, पूज्य पुरुष तदेव या गवाधर देव प्रकाश स्वरूप भास्मा, इन्द्रिय, परमात्मा आदि । यहाँपर पहले देव शब्दका जी कि क पद है अर्थ अरिहंत परमात्मा या गावर देव हैं। और दूसरे कर्मस्थानपर प्रयुक्त देव शब्दका अर्थ प्रकाशमान त्मा या
१-अन० ६० १-६९ ।
२---मासंग शब्दका धर्म जो चारडाल किया जाता है वह हमारी समझसे ठीक नहीं है। मातंग और चारखालमा बात हैं।
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रस्नकरण्डश्रावकाचार
AhimnAAJAL
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अन्तरात्मा है । सदृश शब्दकी पुनरुक्ति के कारण लाटानुप्रास नामका शब्दालंकार यहांपर है। · विदः-क्रियापदका अर्थ होता हैं जानते है-मानते हैं।
भस्मगूढाकारान्तरौजसम्---इसका समास इसतरह करना चाहिये । भस्मना गृहः माच्छाविसः सचासी अरश्न । अन्तः जासम् मान्तरं, भस्मगूढांगारवत् प्रान्तरं श्रोषः यस्य | अर्थात् भस्मसे ढके हुए अंगारके समान है अंतरंगमें ओज जिसके। . प्रकृत पद्य में लाटानुप्रास नामके शब्दालंकारका उल्लेख ऊपर किया गया है । अर्थालंकारों में यहां अनेक अलंकारोंका सांकर्ष पाया जाता है-रूपक; व्यतिरेक, समुच्चा और प्रस्तुत
प्रशंसा।
दो पदार्थों में साधयके कारण जहां अभेद दिखाया जाय वहां रूपक अलंकार, समानता रखनेवाले दो पदार्थों में से जहां किसी धर्म की अपेना एकको अधिक बता दिया जाय वहां पतिरेक, एक ही जगहपर जहां उत्कृष्ट और अपकृष्ट पदार्थों का संग्रह पाया जाय वहां समुच्चय और जहां भप्रकृत पदार्थकी भी प्रशंसा की जाय वहां अग्रस्तुत प्रशंसा नामका अलंकार मानाजाता है। ये चारों ही लवण यहां घटित होते हैं। अतएव यहां संकर अलंकार- अलंकारोंका सांक हो गया है। "
नात्सर्य-जीवका व्यवहार दो तरहसे हुआ करता है । एक आध्यात्मिक दूसरा आधिभौतिक । मामाकी गुणों की तरफ जब दृष्टि रखकर विचार और व्यवहार किया जाता है सर माध्यात्मिक व्यवहार कहा जाता है । और जब जीवसे सम्बद्ध या असम्बद्ध अन्य पदार्थ-पुद्गल द्रव्य की तरफ मुख्य दृष्टि रखकर विचार किया जाता है या व्यवहार होता है तब उसको आधिभौतिक व्यवहार करते हैं । यहॉपर १ शुद्ध निश्चयनय१ २ अशुद्ध निश्चयनय२ ३ अनुपचरित सद्भुत व्यवहार नय अनुपचरित सद्भुत व्यवहार नय: ५ उपचरित मभृत व्यवहार नय ६ उपचारित असद्भुत व्यवहार नय६ इन छह-नयों के अनुसार होनेवाले व्यवहारको भी मागम के अनुसार घाटत कर लेना चाहिये । क्योंकि आचार्य शरीराश्रित व्यवहार की अपेक्षा आत्माश्रित शुद्ध सम्यग्दर्शन गुणकी ही यहां मुख्यतया महत्ता बता रहे है। किंतु अन्य नयाश्रित व्यवहारका निपेष नहीं कर रहे है। किंतु गौणतया उसकी भी प्रयाजनाभूतताको प्रकारांतरसे
१-रूपकं यत्र साधादर्थयोभदा भवेत् । ४-६६ । केनचिद् यत्र धर्मेण हयाः संसिल साम्ययोः। भवत्येकतराधिक्यं व्यतिरेकः स उच्यते ॥ ४-८४ ॥ एकत्र यंत्र वस्तुनामनेकेषां निबन्धनम् । अत्युत्कृष्टापमाना ते बदन्ति समुषयम् ।।४-३प्रशंसा फियते यत्राप्रस्तुतस्यापि वस्तुनः । अप्रस्तुतप्रशंसातामा कुतधियो यथा ॥४-१३४ ॥ वाग्भटा. 1-६ इन छहों के उदाहरण स्व०प० द्यानतराय जीके "धर्मविलास" के दराबोलपचीसिकार पय नं० २२ से समझलेना चाहिये । यथा-असतकथन उपचार जीवका जनधन जानो, असत बिना उपचार कम्य भासम को मानो । साँच कथन उपचार हंसको राग विगारो, साम बिना उपचार भान तनो पारोनिहरे जात नर मेदने राग स्वरूपी भावमा, आदेष शुख निहचै समझि, मानरूप परमात्मा ARER
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चन्द्रिका टीका अठाईसबा श्लोक ध्यक्त कर रहे हैं। क्योंकि माधनरूपमें शीशविन व्यवहार भी मान्य तथा अभीष्ट ही है । फिर भी अन्त में वह हेय होने के कारण गोग्ग तथा उपेक्षणीय है। और आत्माश्रित विषय साध्य उपादेय एवं अपेक्षणीय होने के कारण प्रधान और महान् है । अतएव उसीकी महचाका यहाँ निदर्शन करना है। यही कारण है कि सम्यग्दर्शनके आन्तर ओजसे युक्त कहकर जहाँ उसकी प्रशंसा कर रहे और महत्ता बता रहे हैं वहीं उसे मातंगके शरीरसे जन्य भी कहकर और उसको भस्म से छिपे हुए अंगारके सदृश बताकर शरीराश्रित व्यवहारकी अपेक्षा उसकी अमहताको भी व्यक्त कर रहे हैं।
ऊपर जिन चार अर्थालंकारीकी यहां संभवता बताई हैं उनका लग साहित्य ग्रन्थों में लिखा है। अतएव जो विधान है वे तो स्वयं ही उनको यहां पटिन कर सकेंगे परन्तु अन्य साधारण श्रोताओंके लिये संक्षेपमें घटित करदेना उचित प्रतीत होता है।
रूपक-दो पदार्थों में साधम्र्य के कारण अभेद की प्रतीति कराता है । यहां पर देव अरिहंत देव या गणवर देवके देवत्व और मभ्यग्दर्शनसे सम्पन्न मातंगके देवल्पमें अभेदका प्रत्यक्ष कराया गया है। कहा गया है कि सम्यग्दर्शन से सम्पन्न मातंगको भी अरिहंत देव या गावर देव देव मानते है। मतलब यह कि सम्यग्दशन गुणकी समानताके कारण वे उसको अपनी ही जातिका अथवा अपने अभिन्न मानते हैं । सो ठीक ही है। क्योंकि सम्यग्दृष्टित्वेन दोनोंमें साथम्यं पाया जाना है और इसीलिये दोनों में यदि अभेदका बोध कराया जाता है तो वह मी प्रयुक्त
दोनों ही देव शब्दोंकी दिव्य शरीर और देवायु देवगति प्रादिके कारण स्वर्गीय आत्माका वाचक भी माना जा सकता है इस अवस्थामें तात्पर्य यह लेना चाहिये कि अरिहंत आदि की तरह स्वर्गीय आत्मा भी उसको अपने समान देव ही मानते हैं। क्यों कि अबद्धायुष्क सम्पक दृष्टि मनुष्य या पशु नियमसे देवायुका ही वन्ध किया करता है । दोनोंकी देव पर्याय में यदि कोई अन्तर है तो कवल इतना ही है कि एक की तो वतमान में देवपर्याय है और दूसरे की होनेवाली है । जो मावी है उसको भी नैगमनय से वर्तमानयत् कहा जा सकता है। अतएवं दोनोंकी देवपर्याय में सावार्य एवं अभेदका प्रतिपादनं भी असमत नहीं है। इतना ही नहीं प्रत्युत तात्विक विचार की दृधिस सर्वथा मुसंगन हैं।
व्यतिरेक-सलंकार समाचना रखनेवाले दो पदार्थों में से एक की किसी धर्म विशेष की अपेक्षासे अधिकता बताई जाती हैं । रूपक अलंकार के अनुसार सम्यग्दर्शनसम्पन्न मावंग की अरिहंत देव गणधर देव या स्वर्गीय देवोंके माथ समानता रहते हुए भी इस अलंकारके अनुसार मातंगदेहजन्यता और इष्टतिरूप अंगारकी भस्माच्छमताको दिखाकर दोनोंके अन्तर के साथ साथ एक की अधिकताका भी प्रदर्शन किया गया है। जिससे इस बातका बोध हो जाता है कि यषि सम्यग्दृष्टित्वेन दोनों में समानता पाई जाती है फिर भी कर्म नोकर्मक आश्रित पर्तमान
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२४.०
निकर कार्यार
पर्यायकी अपेक्षा दोनोंमें “अन्तरम् महदन्तरम्" । है क्योंकि सांसारिक ही नहीं पारमार्थिक भी srier अधिकतर पर्यायाश्रित ही हुआ करता है । श्रतएव श्रात्मासे अभिन्न सम्यग्दर्शन गुणकी अपेक्षा वर्णन करते समय परार्थित पर्यायकी पर्यायी पाई जानेवाली कथंचित् श्रभि मताका परित्याग नहीं किया जा सकता । तथा अनन्तधर्मात्मक और अनेकान्तरूप वस्तुके याथात्म्यका बोध कराने की सद्भावना से प्रवृत्त हुये कविधा भी ऐसे शब्दों का प्रयोग नहीं कर सकते जिनसे कि तत्त्वस्वरूप में संशय विपर्यय अनध्यवसाय बना रहे अथवा उत्पन्न हो या अभ्यास अतिव्याप्त रूप परिज्ञान हो । फलतः दोनों में पर्यायाश्रित जो महान् अन्तर है उसको स्पष्टकरनेके लिये ही नहीं अपितु मातंग पर्यायकी अपेक्षा जो देव पर्यायकी अधिकता एवं उत्क ष्टता है उसको भी व्यक्त करनेकेलिये आवश्यक इस अलंकारका आचार्यने इस अवसर पर प्रयोग क्रिया है । इससे शरीर सम्बन्ध के कारण संसारी जीवोंमें जो न्यूनाधिकता पाई जाती है उसकी यथार्थता भी दृष्टिमें आ जाती हैं। देव शब्दसे अरिहंत देव गणधरदेव और स्वर्गीयदेव इसतरह तीन का ग्रहण किया गया है, अतएव तीनों ही की अधिकताका मी बोध हो सकता है। साथ ही देव शब्द उपलक्षण है इसलिये मातंगके समान ही श्रदारिक शरीरके धारकों में भी जो अन्तर है या परस्पर में एक से दूसरे में अधिकता पाई जाती है वह भी समझी जा सकती हैं। इस तरह व्यतिरेकालंकार के द्वारा दो पदार्थोंमें से एक की अपेक्षा दूसरेकी अधिकता मालुम हो जाती है।
समुच्चयमें उत्कृष्ट अपकृष्ट या मध्यम अनेक विषयों का संग्रह हुआ करता है । यहां पर मानकपुत्रमें तीन उत्कृष्ट विषयोंका संग्रह किया गया है, सम्यग्दर्शनसंपन्नता, अन्तर श्रीज और देवत्व | area यह अलंकार स्पष्ट है ।
अप्रस्तुत प्रशंसा में प्रकृत विषयकी प्रशंसाकी जाती है। तदनुसार यहां पर भी समझना चाहिये। क्योंकि यद्यपि मानवपुत्रका वन यहां प्रकृत विषय नहीं है । वास्तवमें तो सम्यग्दर्शन प्रकृत विषय है । परन्तु उसके सम्बन्धको लेकर विषयको दृढ करनेके लिये मातङ्गके देवस्वका यापन किया गया है। अत एवं अप्रस्तुत प्रशंसा अलंकार भी यहां कहा जा सकता है।
कारिकाके चतुर्थ चरण में उपमा अलंकार भी पाया जाता है। क्योंकि उपमा अलंकारमें किसी एक वस्तुके किसी एक विवक्षित धर्मकी सदृशता अन्य वस्तुमें बताई जाती है। जिसके धर्मकी सशता बताई जाय उसको उपमान और जिसमें वह सदृशता दिखाई जाय उसको उपमेय कहते हैं। यहां पर "सस्मगुहाङ्गार" उपमान है और सम्यग्दर्शनके आन्तर भोजसे युक मातङ्गपुत्र उपमेय है । जिस तरह विवचित अंगार ऊपर से तो भस्मसे श्राच्छन्न है किन्तु भीतर से
१- वाजिवारण लोहानां कापाषाणवाससा । नारीपुरुषतीयानामधरं महदन्तरम् ॥
२- प्रशंसा क्रियते यत्रा प्रस्तुतस्यापि वस्तुनः । अप्रस्तुतप्रशंसां तामाहुः कृतधियो यथा ॥ १३४ ॥ ३ उपमा अथवा प्रतिवस्तूपमा ।
उपमानेन सादृश्यमुपमेयस्य यत्र सा । प्रत्यषान्पयतुल्यार्थसमासैरुपमा मता ||२०|| अनुपात्ताविवानां वस्तुनः प्रतिवस्तुना । यत्र प्रतीयते साम्यम् प्रतिवस्तूपमा तु सा ॥ ७१ ॥
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पत्रिका टीका अठाईसवां
२५.१
दहक रहा है उसी तरह दिवचित मातंगपुत्र भी ऊपर से शरीर की अपेक्षा तो दीन हैं परम्तु अन्तरंग में सम्यग्दर्शन के ओजसे युक्त है । यही उपमानकी सदृशता उसमें पाई जाती है। यह कहनेकी आवश्यकता नहीं है कि जो बात जिस अपेक्षासे कही गई है उसको उसी अपेक्षा देखना चाहिये और इसी तरहसे उसको ग्रहण करना चाहिये तथा तदनुसारही areer भी करना चाहिये । इसके विरुद्ध देखना मिथ्यात्व हैं, जानना अज्ञान है और व्यवहार असच्चारित्र है।
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आचार्य भगवान्ने सम्यग्दर्शनरूप आत्मधर्मकी महिमा बतानेकेलिये मातंगशरीरस्थ मात्माकी प्रशंसा की है न कि उसके शरीरकी । प्रत्युत शरीरको भस्मके स्थानापत्र महाकर उसकी निकृष्टता ही व्यक्त की है। अतएव यदि कोई व्यक्ति आत्मधर्मके सम्बन्धमें बताये गये forest शरीरमें देखना चाहता है तो वह मिथ्यादृष्टि है । और यदि आस्माकी पवित्रताका सम्बन्ध शरीरमें जोडकर शरीराश्रित व्यवहार भी तैयाड़ी करना चाहता है जैसाकि उच्चारीरके विषयमें विहित है तो अवश्य ही वह भी अतत्त्वज्ञ है विपर्यस्त है और पथभ्रष्ट है। साथ ही साधनरूपधर्मको यथार्थता और पवित्रताको नष्ट करनेवाला है।
इसी तरह शरीराश्रित हीनताका सम्बन्ध यदि कोई श्रात्मा में भी जोड़कर देखता है और शरीरके हीन होनेसे आत्माको भी डीन समझता है, सम्यग्दर्शन जैसे गुणसे विभूषित भी आत्मा को हीन मानता है, तथा उस गुणका उचित सम्मान न कर उसी तरह हीन व्यवहार करता है जैसा कि हीन शरीर के साथ किया जाता है तो अवश्य ही वह भी मिध्यादृष्टि है अज्ञानी है अथवा जातिगर्विष्ठ और अपने उचित कर्तव्य के पथसे दूर है।
मार्गका मुख्य सम्बन्व आत्मासे ही है क्योंकि रस्मत्रयमात्मा के ही स्वभाव एव धर्म हैं। किन्तु उसका साधन व्यवहार मुख्यतया शरीरसे सम्बन्धित है । दोनों ही विषय परस्पर विरोधी नहीं हैं। जो जिसका साधन है वह उसका विरोधी हो भी नहीं सकता । जो विरोधी हैं वह उसका साधन नहीं हो सकता? | अतएव दोनों नयोंके विषयमें भविरुद्ध प्रवृति ही भोषका उपाय हो सकती है।
अग्निके तीन कार्य प्रसिद्ध हैं-दाह पाक और प्रकाश | परन्तु सभी अग्नि तीनों कार्य कर सकती है यह बात नहीं है। किसीमें एक किसीमें दो और किसीमें तीनों ही कार्य करने की सामर्थ्य रहा करती हैं। इसी तरह अग्नि स्थानापण आत्माकं सम्यग्दर्शन गुणमें भी तीन सामर्थ्य हैं- दाइ पाक और प्रकाश विरोधी कर्मेनका वह दाह करता है, संसारस्थितिको पकाता है और अपने भाईयोंके समान ज्ञानादिगुणोंको प्रकाशित करता है मथना उन गुबोंगे
१- रयणतयं ण वह अच्या सुयदु श्ररणदवियम्मि । तम्हा सशियम ओ होदि मोक्लम्स कारणं अश व्यसंग्रह ॥ ४० ॥ २ - धर्मः सुखस्य हेतुहेतुर्न विराधकः स्वकार्यस्व । तस्मात्सुलभंगमिया मा अर्धस्य विमुखसम्म ||२०|| आत्मानः |
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२५९
रत्नकरण्ड श्रावकाचार
वस्तु याथात्म्यको ही प्रकाशित करनेकी योग्यता उत्पन्न करता है । किन्तु सभी सम्यग्दृष्टि जीवोंमें यह योग्यता समानरूप में नहीं पाई जाती क्योंकि तीनों ही प्रकारकी योग्यताकी पूर्णता उसकी कर्म नोकर्म सम्बन्धी पर्यायाश्रित योग्यता पर निर्भर है यही कारण है कि वह सम्यग्दर्शन उत्पन्न होनेके वादही अपने स्वामी आत्माको नियमितरूपसे उसी भवमें कर्मनीकर्म के सम्बन्धसे सर्वथा परिमुक्त नहीं बना दिया करता । उसको इस कार्यकी सिद्धिमें कमसे कम अन्त मुहूर्त और अधिक से अधिक परिर्वतन प्रमाण कालकी अपेक्षा रहा करती है श्राचार्य भगवान्नं सम्यग्दर्शन गुणकी उपादेय महत्ताको प्रकट करने के लिये जिस रूपमें जो दृष्टान्त उपस्थित किया हैं उससे यह बातमी स्पष्ट होजाती है कि उक्त मात्रमें उसके सम्यग्दर्शन से सम्पन्न रहते हुए भी पर्यायाश्रित कर्मनाकर्मसम्बन्धी वह योग्यता नहीं पाई जाती जिससे कि वह अथवा उसका सम्यग्दर्शन अपने उपर्युक्त तीनों ही दाह पाक और प्रकाशरूप कार्योंको उसी पर्याय पूर्ण एवं परिनिष्ठित कर सके ।
इस दृष्टान्त द्वारा जाति कुल आदि गर्विष्ठ सम्यग्दृष्टियों को इस बातकी शिक्षा दीगई है कि कर्मनिमित्तक सम्पत्तियों की अपेक्षा सम्यग्दर्शनसम्पत्ति अत्यन्त महान हैं, आदरणीय है, और उपादेय है । वह यदि किसी ऐसे व्यक्तिमें भी पाई जाती है जोकि जाति कुल आदिको अपेक्षा हीन है तथा वह यदि कमसे कम प्रमाणमें भी पाई जाती है तो भी वह आदरणीय ही है । जाति कुल आदिके द्वारा उसकी अवगणना करना किसी भी तरह उचित नहीं है। गुणवान् वही है जो दूसरेके रंचमात्र गुणसे भी प्रसन्न होता और उसका ख्यापन करता हैं । तथा किसी भी एक गुणकी अन्य कारणोंसे अवहेलना करना किसी तरह उचित संगत एव विद्वन्मान्य भी नहीं है ।
प्रश्न हो सकता है कि जिस सम्यग्दर्शनरूप धर्मकी आप इतनी महिमा बता रहे हैं उसका वास्तविक फल क्या है ? सभी पुण्यफलोंके सामने वही महान है, और उसके सामने जितनी भी सांसारिक सम्पचियां हैं वे सब तुच्छ और देय हैं। अतएव इन विभूतियोंके कारणभूव पुण्यसे परे सम्यग्दर्शन का फल बताना आवश्यक हैं जिससे मालुम हो सके कि यह फल सम्यग्दर्शन के विना अन्य किसी भी पुराय विशेषसे प्राप्त नहीं हो सकता क्योंकि संसारमें जितने भी अभ्युदय तथा सुखसाधन दृष्टिगोचर होते हैं वे तो सब पुण्यकर्मके उदयसे प्राप्त होनेवाले हैं। फिर सम्यग्दर्शनका फल क्या रहजाता है? यदि पुण्यकर्म में अतिशय अथवा विशेषता पैदा करदेना ही इसका फल है तब तो वह भी प्रकारान्तरसे संसारका ही साधन ठहरता है। किन्तु सम्यग्दर्शन तो धर्म है और धर्मकी व्याख्या करते समय कहा यह गया है के धर्म वह है जो कि संसारके दुःखोंसे छुड़ाकर उत्तम सुख -मोचमें उपस्थित करदे | जब संसार और मोक्ष दोनों
१- इसकी कथाको कथाकोषादि प्रन्यतरसे देखना चाहिये। २ परगुणपरमाणुन पर्वशोकृस्य नित्यं निजहृदि विकसन्तः सन्ति सन्तः कियन्तः । ३ - आत्मस्थितेर्वस्तु विचारणीयम् न जातु जात्यन्तरमंशदेण । दुर्बनिर्वविधौ सुधानां सुवर्णवर्णस्य मुधानुबन्धः ॥ यश०|
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चन्द्रिका टीका उनतीसवां श्लोक .. ही विरोधी सस्त्र हैं, तब उसके साधन भी परस्पर विरुद्ध ही होसकते हैं। जो संसारका साधन है वह मोक्षका साधन नहीं हो सकता और जो मोतका साधन है वह संसारका साथन नहीं बन सकता । फलतः सम्यग्दर्शनका कार्य पुण्यकर्म में अतिशय पैदा करदेना भी नहीं बन सकता। किन्तु पुण्यकर्मों में अतिशय पैदा करदेना भी सम्यग्दर्शन का कार्य देखा जाता है इतना ही नहीं बल्कि अनेक पुण्यकर्म तो ऐसे हैं जिनका कि बंध ही सम्यग्गर्शनके बिना नहीं हुआ करता । अत एव सम्यग्दर्शनका वास्तविक फल क्या है ? इसका उत्तर इस दंग से मालुम होना चाहिये कि जिससे किसी प्रकारका विरोध उपस्थित न हो। इसी बातको ध्यानमें रखकर आचार्य स्टान्तपूर्वक प्रकारान्तरमे सम्यग्दर्शनका विशिष्ट फल और उसके भेद बतानेकेलिये यहां कारिका उपस्थित करते हैं...
श्वापि देवोऽपि देवः श्या, जायते धर्मकिल्बिषात् ।
कापि नाम भवेदन्या सम्पद्धर्माच्छरीरिणाम ॥२६॥ अर्थ-~-धर्म-पुण्यके प्रसादस कुत्ता भी देव होजाता है, और पापके निमित्तसेदेव भी कुत्ता होजाता है। किन्तु वह सम्पत्ति तो कोई और ही है जो कि संसारी प्राणियोंको धर्म अर्थात् सम्यग्दर्शनसे प्राप्त हुआ करती है।
प्रयोजन-~-यद्यपि इस कारिकाके निर्माणका प्रयोजन क्या है यह बात ऊपरके कथन से ही मालुम होजाती है। फिर भी ऊपर जो प्रश्न उपस्थित किया गया है उसका उत्तर इस कारिकाके द्वारा होना आवश्यक है । लोगोंको मालुम होना चाहिये कि पुण्य से अतिरिक्त सम्यग्दर्शनका फल क्या है और वह किंरूप किमाकार है। यह बनाना ही इस कारिकाका मुख्य प्रयोजन है । ___ कारण यह कि प्रथम तो "धर्म" यह सामान्य शब्द है, लोकमें जो अहितकर कार्य है वे मी धर्म नामसे कहे जाते हैं जैसा कि पहले बताया जा चुका है। इसके सिवाय कोई ऐसे भी हैं जो कि लोको इष्ट समझे जानेवाले विषयोंके साधनोंको ही धर्म समझते हैं। जैसे कि पुरय कर्म
और उसके साधन-परोपकार भक्ति विनय श्रादि । तीसरे वे हैं जो कि वास्तविक मात्मा हित एवं साधनोंको ही धर्म मानते हैं। इनमेंसे पहले प्रकारके व्यक्तियों की मान्यतापर तो ध्यान देने की ही आवश्यकता नहीं है। क्योंकि याङ्गिक हिंसा आदि में धर्मकी भावना को तो थोडीसीभी विचारशीलता. रखनेवाला व्यक्ति भी स्वीकार नहीं कर सकता । यह तो उसे नरकादि दुर्गतियों का कारण हिंसक पशुओं जैसा कार्य ही समझेगा। दूसरे प्रकारकी मान्यता वस्ततः मास्मदिरा से यदि सम्बन्धित नहीं है तो तुच्छ है नगण्य है क्योंकि ऐसा कोई भी साधन जो कि माला को सदाकेलिये सर्वप्रकारके दुःखों से मुक्त नहीं कर देता तो उसका कोई महत्व नहीं है | व १-जैसे कि तीर्थकर आहारकटिक नवप्र पेमकसे ऊपर के स्वर्गाके योन्य आयुस्थिति, तथा पार्टी
मादिके योग्य गोत्रकर्ममादि। २-तम्बानं यत्र नासानं तत्सुखं यत्र नासुखम् । स धनों का नाधर्मः सा गतिर्यत्र नागतिः ।
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MVAANA
रलकर श्रावकाचार एच तीसरे प्रकारकी मान्यता ही उपयुक्त है। किन्तु इसमें भी एक बात विचारणीय है। यह है प्रकृत विषय-सम्यग्दर्शनके फलकी गौणमुख्यता । क्योंकि किसी भी कारणके गौण और पुरुष इस तरह दोनों ही प्रकार के कार्य या फल संभव हो सकते हैं । सम्यग्दर्शन केलिये भाया हुमा धर्मशब्द भी जो यहां हेतुरूपमें प्रयुक्त हुया है उसके भी गौण तथा मुख्य दोनों ही फल या कार्य संभव हैं और बागममें माने गये हैं-बताये भी गये हैं। किन्तु इस कारिकाके निर्माणमें भाचार्य महाराजका मुख्य प्रयोजन उसके शुद्ध स्वरूप और असाधारण फलको ही बतानेका है। क्योंकि सम्यग्दर्शन के जितने भी फल बतायेगये हैं । यहां पर भी आगे बताये जायगे वे सम्यम्दर्शनकी अविकल सफलताको व्यक्त नहीं करते । यद्यपि इसका अर्थ यह नहीं है कि ये सम्पदर्शनके किसी भी अपेक्षासे किसीरूपम या किसी भी प्रशतक फल ही नहीं है अथवा इनको उसका फल कहना ही अयुक्त है। फिर भी यह कथन मिथ्या नहीं है.सर्वथा युक्तहै कि इसतरहके फल निर्देशोंसे सम्यग्दर्शनका न तो शुद्ध अविकल परानपेक्ष कार्य ही व्यक्त होता है और न उसका अव्यभिचरित विशुद्ध सबसे पृथक स्वरूप ही प्रतिभासित होता है। जो कि ग्रन्थ कर्माको यहां इस कारिकाके द्वारा बताना अभीष्ट है । अत एव ये दोनों बातें बताना इस कारिकाका प्रयोजन है
शब्दोंका सामान्य-विशेष अर्थ
वापि-रखा (श्वन्) शब्दका अर्थ-कुचा होता है। अपि अव्यय है जिसका अर्थ "मी" ऐसा होता है । देव शब्दका अर्थ सुर असुरपर्यायके धारण करनेवाला जीव । यह लिखा जा चुका है। जायते यह क्रिया पद है। जिसका अर्थ उत्पन्न होना है या "होजाता है। ऐसा करना चाहिये मतलब यह है कि मयं लोकमें "कुता" निकृष्ट माना जाता है और देव उत्कृष्ट । अत एव दोनोंके साथ "अपि" शन्दका प्रयोग करके धर्म और पाप दोनोंसे प्राप्त होनेवाले फलमें क्या अन्तर है यह बतायागया है। अर्थात् अन्यकी तो बात ही क्या कुत्ता सरीखा निकृष्ट प्राखी मी धर्म के प्रसादसे देवसरीखी उत्कृष्ट अवस्था को धारण करलेता है। इसी तरह देवपर्यायको प्राप्त संसारमें उत्तम गिना जानेवाला भी प्राणी जब पापके निमित्तसे कुत्ता जैसी निकृष्ट पर्याय को प्राप्त होता है तब मनुष्यका तो कहना ही क्या ? प्रतएव कर्मनिमिचक पर्यायसम्बन्धी विषयों के पाश्रयसे गर्य करना ठीक नहीं है। ___ यहां पर 'श्वा' और 'देव' दोनों ही शब्द उपलक्षण हैं। इसलिये श्वा शब्द से तुच्छ गिने जाने वाले संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च मात्र का ग्रहण कर लेना चाहिये । इसीतरह उचम गिने जानेवाले राजा महाराजा सरीखे मनुष्य का मी देव शब्दसे ग्रहण किया जा सकता है।
धर्मकिम्यिपाद-यहां पर धर्म और किन्विष शन्दोंमें समाहार इन्द्र समास है । परक किलिपश्च मनयोः समाहारः धर्मकिल्बिषम् तस्मात् । समाहार द्वन्बमें नपुन्सक लिंग और
-राथपि "ये मिथ्यादृष्ट्यो जीवाः सझिनोऽसशिनोऽयका । व्यन्तरारले प्रजायन्ते तथा भवनवासिनः ।। तस्वार्थसार की इस उक्ति के अनुसार असंही जीव भी व्यन्तरदेव हुधा करते हैं परन्तु असा को वहाँ उसकी विवक्षा प्रधान नहीं मालुम होती। क्योंकिता-सनी काही क्षण किया है।
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चंद्रिका टीका उन्तीस श्लोक
२५५
एक वचन हुआ करता है। यहां पर हेत्वर्थ में पंचमीका प्रयोग किया गया हैं। कुरु का देव होना अर देव का कुत्ता होना ये दो परस्पर विरुद्ध कार्य हैं। धर्म और किल्विष ये दोनों हेतु हैं। श्रतएव यथासंख्य१ नामक अर्थालंकार के अनुसार दोनों कार्योंके साथ दोनों हेतुओका क्रमसे सम्बन्ध जोड लेना चाहिये । अर्थात् धर्मके निमित्तसे कुत्ता देव हो जाता है और पापके निमिचसे देव कृता हो जाता हैं ।
इस पदमें समाहार द्वन्द्व समास होनेके कारण धर्म और किल्विष दोनों विशेषण हैं, और समाहार दोनोंका साहित्य प्रधानर है- विशेष्य है । अतएव इतरेतर द्वन्द्व में जिसतरह समासगत पद प्रधान होकर निरपेक्ष रूपसे किसी भी द्रव्य गुण पर्याय या क्रिया के साथ अन्ति हुआ करते हैं वैसा समाहारमें न होकर समासगत पद सापेक्ष होकर समाहाररूप किसी भी
गुण पर्याय या क्रियाके साथ अन्वित हुआ करते हैं। इसलिये भ्रम अर्थात पुण्य और
नाम पाप दोनों ही परस्पर सापेक्ष हैं और समाहार रूप मिध्यात्व भावके साथ अन्वित होते हैं । यही समाहाररूप मिध्यात्वभाव कुलेसे देव और फिर देवसे कुरूप परियमनका मुख्य हेतु हैं ।
BEST
क्योंकि जब तक अंतरंग में मिध्यात्वका उदय रूप प्रधान एवं बलवत्तर कारण बना हुआ है तक इस तरह की सांसारिक पर्याय परिवर्जन को हुआ ही करते हैं और होते ही रहते हैं। मिथ्यात्व के अभाव होने और आत्माके स्वाभाविक गुण सम्यग्दर्शन के उद्भूत होनेपर ही वास्तव में शुभ और अशुभ गिनी जानेवाली सांसारिक पर्यायोंकी परावृषिकी निवृत्ति हो सक्ती हैं । अन्यथा नहीं । श्रतएव संसाररूप एक सामान्य पर्यायके अन्तरगत जो अनेक तथा अनेकविध परिमन होते रहते हैं उनका मूल कारण मिध्यात्व ही हैं । उसीको “धर्मकिन्विशत्" में समासका वाच्य और धर्म- पुण्य तथा किल्बिष - पापका हेतु समझना चाहिये ।
फा--- यह एक सर्वनाम शब्द है जोकि धर्म – सम्यक्त्वसे प्राप्त होनेवाली संपत्का विशेथा है और 'अप' warय से सम्बधित होकर उसकी अनिर्वचनीय विशेषताको सूचित करता है ।
नाम -- यह एक अव्ययपद है। इसका प्रयोग अनेक अर्थोंमें हुआ करता है। पर संभाष्य अभ्युपगम या विकल्प अर्थ समझना चाहिये। क्योंकि सम्यग्दर्शन अन्य सम्पचिकी अनिर्वचनीयताको कांपि शब्दके द्वारा सूचित किया गया है वह संभव है- युक्तिसिद्ध हैं, अभ्युपगत है-मागम सम्मत है और विकन्यरूप अर्थात् संसारकी संपत्तियों से भेदरूप एवं अनुभवसिद्ध है।
१---पथोकानां पदार्थानामर्थाः सम्बन्धिनः पुनः । क्रमेण तेन बध्यन्ते तद्यथासंख्यमुच्यते ||१३५|| बा० २ --- इतरेतरयोगे साहित्यं विशेष द्रव्यन्तु विशेष्यं समाहारे तु साहित्यम् प्रधानम् द्रव्यम् विशेषणम् सि० कौ० त० बो० पृष्ठ १३५ । ३ यद्यपि इस वाक्य के धर्म-किल्बिष शब्दोंको क्रमसे सम्यक्त्व-मिध्यात्व ऐसा अर्थ कोई कोई करते हैं। परन्तु हमारी समझसे इनका अर्थ पुण्य पाप है। और सभाद्वार-समासका अर्थ मिथ्या है।
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北条
रत्न श्रावकाचार
JAJ
भवेत् — यह क्रियापद हैं जो कि स्वादिगणकी सृ धातुका विधिलिङ, धन्यपुरुष एकवचन का प्रयोग है। भू का अर्थ होता है होना और यह प्रयोग कर्तृभूत सम्पत्ति विधिपूर्वक तरूप होने की शक्यताको व्यक्त करता है ।
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अन्या - यह शब्द भी सर्वनाम और सम्पत्तका विशेषण है। जिससे विवक्षित सम्पत्तिकी भिमता अपूर्वता और अद्वितीयता बताई गई है। क्योंकि अबतक जितनी भी सम्पत्तियां प्राप्त हुई हैं उन सबसे यह सम्पत्ति सर्वथा भिन्न जातिकी है। अनादि कालसे अब तक सम्यग्दर्शन उत्पन्न होनेके समय से पहले कभी भी प्राप्त नहीं हुई। और दूसरी ऐसी कोई सम्पति नहीं है जो कि इसकी समकक्षता - बराबरीमें उपस्थित हो सके अथवा उपमा या तुलना में जिसको रक्खा जा सके
सम्पत्-शब्दका अर्थ विभृति प्रसिद्ध है किन्तु यहां पर प्रयोजन आत्माकी स्वाभाविक गुरु सम्पति है । निरुक्ति के अनुसार इसका अर्थ होता है कि जो सम्यक प्रकारसे विधिपूर्वक और सर्वथा अभीष्टरूपमें प्राप्त की जाय ।
श्रर्मात् - इस धर्म शब्द का अर्थ स्वयं ग्रन्थकार इसी ग्रन्थ के प्रारम्भ कारिका नं० २,३ के द्वारा बता चुके हैं। किंतु यहां हेतु रूपमें उसका प्रयोग करके किस तरहकी संपत्ति के साथ उसका वास्तव में हेतुहेतुमद्भाव हैं यह बताया गया है।
शरीरिणाम् — इस शब्दका सामान्य अर्थ शरीर धारण करनेवाला होता है। किंतु यहां प्रयोजन तो उस सम्पत्तिके स्वामित्व को बताने का है? । अत एव सभी शरीरधारी उसके स्वामी हैं या हो सकते हैं यह बात नहीं है किंतु विशिष्ट सशरीर व्यक्ति ही उसके स्वामी हो सकते हैं । ग्रन्थकार इस शब्दका प्रयोग करके यह भी बताना चाहते हैं कि कदाचित् कोई यह समझे कि धर्म-सम्यग्दर्शन से प्राप्त होनेवाली सम्पत्तिके स्वामी केवल अशरीर परममुक्त सिद्ध परमात्मा ही हैं। सो यह बात नहीं हैं किंतु उसका स्वामित्व सशरीर व्यक्तियों को भी प्राप्त है।
ऊपर यथासंख्य नामके अर्थालंकारका इस कारिकामें उल्लेख किया गया है। किंतु हेतु और परिवृत्ति नामके श्रर्थालंकार भी यहां घटित होते हैं। क्योंकि जहां पर किसी भी कार्यके उत्पन्न करनेवाले कर्ताकी तद्विषयक योग्यता बताई जाती है वहां पर हेतु अलंकार माना जाता है। अकृत कारिका पूर्वार्ध में 'धर्मन्विषात्' इस हेतु पदका और 'श्वापि देवोऽपि देवः श्वा' इस वाक्यसे उसके कार्य तथा तद्विषयक योग्यताका निदर्शन किया गया है। इसी प्रकार उत्तरामें 'धर्मात्' इस हेतु वाक्यका और 'कापि नाम भवेदन्या' आदि पदके द्वारा उसके कार्य तथा सद्विषयक योग्यताका प्रदर्शन किया गया है। अतएव यहांपर 'हेतु' अलंकारका सद्भाव राष्ट होता है।
सश अथवा विसर पदार्थके द्वारा जहां किसीके भी परिवर्तन- पलटने पर बदलनेको कहा जाय वहां परिषश्चिरे नामका अलंकार माना गया है।
१ - चतुरादि भोली पज्जसो सुभगो य सागारो। जागारां सरसो सलद्धिगां सम्ममुत्रगमई । ६५.जी. २-योत्पादयतः किंचिदर्थं कर्तुः प्रकाश्यते । तद्योग्यतायुक्तिर सौ हेतुरुक्तो दुधैर्यथा ॥ १०५॥ १-परिवर्तनमर्थेन सहशा सोनवा । जायतेऽर्थस्य यत्रासी परिवृत्तिर्मता यथा ॥ ९९२॥ वाग्भड |
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घान्द्रका टीका उनतासवा श्लाक प्रकृत कारिकामें पुण्यसे पाप और पापसे पुणपके परिर्वतनको सथा पुण्य पाप दोनोंसे भिन्न अलौकिक सुख सम्पत्तिके रूप में परिवर्तनको दिखाया गया है अतएव परिवत्ति नामका अलंकार माना जा सकता है।
इसके सिवाय जाति नामका अलंकार भी यहाँ घटित हो सकता है। क्योंकि जहां पर सक्रिय अथवा निष्किम पदार्थके स्वभाव मात्रका वर्णन किया जाय-उपमा आदि प्रलं. कारोंका प्रयोग किये विनाही जिस पदार्थका जैसा स्वभाव उसका वैसाही केवल उल्लेख किया जाय वहां जाति नामका अर्थालंकार माना जाता है । यहाँपर धमाधर्मका और स्वभावतः उनसे उपलब्ध होनवाले कार्यों का उलेष जाति अलंकारको व्यक्त करता है।
इसतरह अनेक अलंकारोंका संगम हो जाने से यहांपर भी संकर-अलंकारोंका सांकर्य माना जा सकता है। ___ तात्पर्य----प्रकृन कारिकामें धर्म शब्दका प्रयोग दो बार किया गया है । कुछ लोग दोनों का अर्थ सम्यग्दर्शन किया करते हैं । परन्तु हमारी समझसे पहले धर्म शब्दका अर्थ पुण्य अथवा शुमोपभोग करना चाहिये और दूसरे धर्म शब्दका अर्थ सम्यग्दर्शन | कारण यह कि कुतेका देव होना वास्तवमें सम्यग्दर्शनका कार्य नहीं है। उसका कार्य तो वह अनिर्वचनीय सम्पति ही है जिसका कि उत्तरार्धमे उल्लंख किया गया है। यद्यपि कुछ सीर्थकर प्रादि पुण्यप्रकृतियोंका बन्ध सम्यक्त्वसहित जीवके ही हुआ करता है, यह ठीक है। किंतु उसका अर्थ यह नहीं है कि उनके पंधका कारण सम्यक्त्व है । वास्तवमें सम्यक्त्वसहित जीवके कषायमें जो एक प्रकारका विशिष्ट जातिका शुभभाव पाया जाता है, वहीं उनके बन्धका कारण हुआ करता है न कि सम्यक्त्व। सम्यग्दर्शन तो मोधका ही कारण है । अतएव उसके द्वारा बन्ध न होकर संवर निर्जरा ही होसकती है। और इसीलिये कुत्ता या उसी तरहका अन्य कोई भी जीव यदि देवायु देवगति अथवा तस्सदृश अन्य पुण्य कर्मोका बन्ध करता है तो वहां पर सम्यक्त्वको वास्तव में अनुपचारित कारण न समझ कर किसी भी योग्य विषयका और किसी भी तरहका पैसाही शुभराग ही कारण समझना चाहिये।
इसी तरह किल्बिष शब्दका अर्थ भी मिथ्यात्व न करके "पाप" करना चाहिये। हां, यह ठीक है कि समाहार द्वन्द्व समास होने के कारण जेसा कि ऊपर बताया जा चुका है धर्म और किन्विष विशेषण होकर मिथ्यात्वके साथ अन्वित होते हैं। फलतः अभिप्राय यह निष्पन होता है कि जबतक मिथ्यात्व भाव बना हुआ है तबतक पुण्यपापकी भूखला भी बनी हुई है। यह इसरी बात है कि कभी पुण्यका तो कभी पापका प्राधान्य होजाय । जब कभी पुण्यका निमित्त मिल जाता है जीव देवादि अभीष्ट माने जानेवाली अवस्थाशों और विषयोको
१ पेनांशेन सुरष्टिस्तेनाशेनास्य बन्धनं नास्ति । येनाशेन तुं रागस्तेनशिनास्य मन्धन भवति२१पुरु० तथा देखो परमागमोक्त तीर्थकत्वभावनाका प्राशय व्यक्त करनेवाला भनगार धर्मामृतका का पचनं २
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बलकरडश्रावकाचार
प्राप्त कर लेता है और जब पापका निमिस मिल जाता है तब नियंगादि अनिष्ट मतियों-योनियों एवं विषयों को प्राप्त कर लेता है, किंतु संसारकी श्रृंखला का भंग नहीं होना । वह तो मिथ्यात्वके छूटने पर ही हो सकता है। अतएव जब तक मिथ्यात्व का प्रभाव नहीं होता तबतक विविध निमित्तों द्वारा संचित पुरुष भी अपना वास्तवमें कोई महत्व नहीं रखता। उसको तो केवल चार दिनकी चांदनी मात्र कह सकते हैं । अथवा यह भी नहीं कह सकते। क्योंकि पएपके फल स्वरूप प्राप्त होनवाले विषयोंसे जन्य सुखमें और आत्माके स्वाभाविक सुखमें अत्यन्त विरुद्ध जात्यन्तरता पाई जाती है । जैसा कि बासित १२ और यहीं पर इसी कारिकाके उत्तरार्धक कथनसे जाना जा सकता है इस तरहसे पुण्य और पाप सजातीय है तथा सहचर हैं। और इनसे प्राप्त होनेवाले विपथ भी प्रायः एक जातीय है। किंतु सम्यग्दर्शन और उसके फलका इनके साथ सर्वथा विरोष है। क्योंकि जीवोंकी परणति सामान्यतया तीन भागोंमें विभक्त है-पापरूप, पुस यरूप और वीतराग । इनमें से पहली दोनों बन्ध या संसारकी कारण अथवा संसाररूप हैं और अंतिम मोक्षको कारण अथवा मोक्षस्वरूप है जिसका कि बीज सम्यग्दर्शन है।
कारिकाके उत्तरार्णमें सम्पग्दर्शनसे उत्पन्न होनेवाली सम्पधिको "अन्य" और भनिपचनीय३ कहा है। अतएव यहां पर यह जान लेना भी उचित और आवश्यक है कि किससे अन्य ? तथा अनिर्वचनीय कहनेसे क्या अभिप्राय है ?
"अनन्तरस्य विधिर्वा भवति प्रतिषेधो वा" इस न्यायकै अनुसार इसी कारिकाके पूर्वार्धमें जो कुछ कहा गया है उससे ही सम्यग्दर्शनजन्य सम्पत्तिको अन्य अर्थात् भिन्न समझना चाहिये यह बात स्पष्ट है। क्योंकि पूर्वार्ध में जिस पुण्यसम्पत्रिका निर्देश किया गया है उसका सम्बन्ध पुद्गलकर्मसे है और सम्यग्दर्शन उससे विरुद्धस्वभाव श्रात्माका गुण है । अतएव अन्य कहकर अन्थकार बतादेना चाहते हैं कि इन दोनोंका स्वरूप स्वभाव और फल परस्पर विरुद्ध है। पुण्य. फलका स्वरूप किम तरहका है यह कारिका नं० १२ में बतायाजा चुका है। अतएव सम्यग्दर्शनका फल उससे मिमस्वरूप है यह बिना कहे ही समझमें पा सकता है। फिर भी सम्यग्दर्शनजन्य सम्पत्तिकी असाधारण विशेषताओंका थोडासा संक्षेपमें यहां परिचय करा देना उचित प्रतीत होता है। पुण्योदयजन्य संपत्तियों के विरुद्ध सम्यश्व सम्पत्ति स्वाथीन है, अनन्त है, शुद्ध है, पवित्र है, मुखरूप है, सुखबीज है, अप्रमाण है, अपूर्व है, अनुपम है, प्रधान है, और अनिर्वचनीय है। १-परणति सब जीवनकी तीन भाति वरणी ।। एक राग, एक द्वेष, ऐक राग हरणी । तामें शुभ अशुभ भन्ध दोय करें कर्म बन्ध, वीतराग परिणति है भवसमुद्रतरणो ।। (भागचन्दजी) २-तीन भुवनमें सार वीतराग विज्ञानता। शिवस्वरूप शिवकार नमहु भियोग सम्मारिके॥ 1-"कापि।
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धन्द्रिका टीका उनसीम श्लोक __ स्वाधीनतासे मतलब यह है कि जिस तरह सांसारिक सम्पत्तियां पुण्योदयके अधीन हैं उस तरह यह किसी अन्यद्रव्य के वश या अधीन नहीं है, स्व-अपने ही अधीन है प्रथया अपनी भात्माके ही अथीन है। स्वाधीनतासे मतलब उसके कतव्य१ या नेतृत्वका भी । संसारके विरुद्ध मीचमार्गके संचालनमें सभी गुणोंको योग्य बना देना इसीका कार्य है । श्रेयोमार्ग में काम करनेवाले सभी गुणों को इसकी अपेक्षा है। इसके बिना कोई भी गुण श्रात्माको संसारपर विजय प्राप्त करानेमें समर्थ नहीं है किन्तु इसके प्रकाशमें सभी गुण अपना २ यथोचित एवं यथेष्ट कार्य करनेमें समर्थ हो सकते हैं और होजाया करते हैं । अतएव यह कहना अत्युक्त न होगा कि प्रात्माको सर्वथा स्वाधीन बनाकर मिद्धि पदपर प्रतिष्ठिर करानेमें मुख्यतया कर्तृत्व वास्ता इस सम्मादर्शको की भात है । इसी तमा नेतृत्वकै विषयमें समझना चाहिये । क्योंकि यही एक ऐसा गुख हैं जोकि प्रात्माके अन्य गुणों को अपने साध्यस्वरूपका प्रत्यय कराता उसमें रुचि उत्पन्न कराता, उघरको अभिमुख बनाता, और योग्य दिशा बताकर प्रेरणा प्रदान करता है । अनन्तसे मतलब यह है कि कालकी अपेक्षा इसकी कोई अवधि नहीं है जिसतरह पुरुष सम्पत्तियों का काल प्रमाण निश्चितर है उस तरह सम्यक्त्वकी स्थितिका प्रमाण नियत नहीं है यह अनन्त काल तक स्थित रहनेवाला है । यद्यपि पर्यायाधिक नयसे जिसका कि अंतरंग कारण विपक्षी पुद्गल कर्मोंके सम्बन्धका अस्तित्व है उसके भेदोंका काल अन्तमुहर्तसे लेकर बयासठ सागर तक आगममें बताया है फिरभी द्रव्यार्थिक नयसे सामान्यतया यह निरवधि ही है स्पोंकि मंसारपर्यापसे उमका सम्बन्ध छूट जानेके बाद यह अनन्त कालतक अपने पूर्वी शुद्ध स्वरूप में ही अवस्थित रहा करता है।
शुद्धिसे मतलब यह है कि वह अन्य किसीभी द्रव्यसे संयुक्त नहीं हैं और इसीलिये तज्जन्म विकारोंसे भी अपरामृष्ट है । वह तो अपनेही पूर्ण शुद्ध स्वरूपमें अवस्थित है। इसीतरह वह पवित्र है । अर्थात् शुद्ध होकर भी मंगलरूप है, सब तरहके दोषोंसे रहित है, उसके निमिषसे अन्य मी समस्त गुख विकारों या दोषोंसे रहित होकर पवित्र-समीचीन बन जाते हैं । प्यान रहे शुद्धि और पवित्रतामें अन्तर है। इतनाही नहीं यह सम्यग्दर्शन स्वयं कन्पायकी मूर्ति एवं पिएर है और भन्यगुखों या प्रहतियोंमेंसे अकन्यासकारिताका मूलोच्छेदन कर अनन्त निर्वाध कल्याणोंको उत्पन्न करनेकी योग्यतारूप बीजका वपन करने वाला है। इसके प्रविमाम प्रतिच्छेद अंश मी प्रमाण अनन्त हैं। यद्यपि आगममें ज्ञानके अविभागप्रतिच्छेद सर्वाधिक बताये गये है फिर भी यह कहना अत्युक्त न होगा कि ज्ञान के प्रत्येक अंशमै जो समीचीनता है वह इसीका परिणाम है और वरदान है। फलतः झानका वह प्रत्येक विभाग प्रतिच्छेद अपनी समीचीनसाके लिये सम्यदर्शनका ऋणी है एवं कृता है । अपूर्व कहनेका आशय यह है कि इसकी शुद्धावस्था
१ स्वतन्त्रः कती । २-ऐसा कोई पुण्यकर्म नहीं है जिसको स्थिति २० कोडाकोड़ी सागरसे अधिक हो ३-बायोपशामिक सम्यक्त्व की उत्कृष्ट स्थितिका यह प्रमाण है। ४- अचल अनुपम पंचमतिको प्राप्त सिद्धोंके पाठ गुणोंमें सभ्यवर्शन प्रथम एवं मुख्य है।
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नकर श्रावकाचार
अनादिकालीन नहीं है। उसकी विवक्षित सम्यक्त्यपर्यायका श्रनादिकाल से प्रभाव ही था । परन्तु अपने उस अनादि अभावका अभाव करके शुद्ध स्वरूपमें उद्भूत हुआ है। इस तरह प्रागभावका अभाव करके पूर्ण शुद्ध रूप प्राप्त कर लेनेवाले इस सम्यग्दर्शनका कभी भी प्रध्वंस नहीं होगा यही उसकी अनन्तता है । सांसारिक पौगलिक पुण्यकर्मजन्य विभूतियोंसे यह अत्यन्त मिन है यही उसकी शुद्धता है जो कि अत्यन्ताभावरूप हैं । इसका अपने सहचारी अनन्त आत्मिक गुणों से सर्वथा भिनत्व - अन्योन्याभाव रहते हुए भी उनपर सभीचीनता आदि के सम्पादनका परम उपकार है, जिसके लिये कि वे सभी गुण इससे उपकृत हैं, यही इसका प्राधान्य है इसकी महत्व पूर्ण विशेषताओंका जिससे ठीक २ बोध कराया जासके ऐसा जगत् में कोई उपमान नहीं है । यदि इसकी स्वाधीनताकेलिये इन्द्र नरेन्द्र धरणीन्द्र यादिकी, अनन्तता के लिये सदा स्थिर रहनेवाले सुवर्णरत्नमय पूज्य सुदर्शनमेरु आदिकी, शुद्धिके लिये सदा निर्लग निर्विकार आकाशादिकी, पवित्रताकेलिये मंगलरूप अनादिसिद्ध क्षेत्र सम्मेाचल या कृत्रिमा कृत्रिम चैत्यालयोंकी सुखरूपता के लिये नवनिधि चौदह रत्न अष्ट प्रातिहार्य अष्ट मंगलद्रव्य आदि पुण्यनिमित्तक समस्त संसारके अभीष्ट विषयोंकी, सुख वीजताके लिये कामधेनु चिन्तामणि चित्रावेल कल्पवृच आदिकी अथवा अनन्त पुण्यके कारण देवपूजा तीर्थयात्रा पात्रदान श्रादिकी, अप्रमाता के लिये असाधरण गम्भीरता रखनेवाले स्वर्गसूरमण समुद्र आदि की अपूर्वता के लिये अनादिनित्य निगोद पर्यायका परित्यागकर मानव पर्याय पात्रदानके प्रसाद दशविध कल्प वृचोंका सुखोपभोग कर नवम प्रवेयक तकके पदको प्राप्त करनेवाले अभव्य जीवकी, प्रधानता के लिये जिसके कारण तीन लोकके सभी अधीश्वर आकर नमस्कार करते हैं उस सर्वोत्कृष्ट तीर्थकर पुण्य कर्म की अथवा तज्जन्य जगदुद्धारक चौतीस अतिशयों से विभूषित तीर्थकर पदकी भी उपमा दीजाय तो वह भी उचित और ठीक नहीं होती । इस सम्यग्दर्शनकं अनुपम समीचीन सुख स्वरूपकी महत्ता और अगाथता आदिको दृष्टिमें रखकर ही प्रतिशक्ति अनुभव रखनेवाले महर्षियोंने परमागम में कहा हैं कि यदि तीन लोक और तीन कालके सभी भोगभूमिया विद्यावर चक्रवर्ती आदि समस्त मनुष्यों और चारों ही निकायके देवोंके सम्पूर्ण सुखोंको एकत्र किया जाय तो भी वह सिद्धभगवान के एक क्षणवर्ती सुखकी भी बराबरी नहीं कर सकता
अनिर्वचनीयसे मतलब यह समझा जाता है कि जो वचनके द्वारा न कहा जा सके | इसका कारण और कुछ नहीं शब्दकी ही अयोग्यता है । क्योंकि मूलमें शब्द संख्यातर ही हैं। एक
१ – मद्दिव्यं यच मानुष्यं सुखं त्रैकाल्यगाचरम् । तत् पिखितं नार्थः सिद्धक्षणसुखस्य च । आदि ११-२१२ -- नरकपशू दोनों दुखरूप, बहुनर दुखी सुखो नरभूप । ताते सुखी जुगलिये जान, ता सुखी फनेश बखान ||२८|| ताले सुखी सुरंगको ईश, अहमिंदर मुख घतिनिस दीस। सबतिकाल अनन्त फलाय, सो सुख ऐक समै सिवराय ||२६|| (धर्म विलास-यानतराय)
२- क्योंकि आगममें मूल वर्ण ६४ और उनसे बननेवाले अपुनरुक्त शब्दोंकी कुल संख्या एक कम एकट्ठी प्रमाण ही बताई है इसके लिये देखो गो० जीव कारड गाथा नं ३५२, ३४३
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Announnar
बद्रिका टीका उनतीसवा शोक शब्दके द्वारा एकही अर्थका प्रतिपादन हो सकता है यह मानलेनेपर शब्द संख्यासे अधिक अर्थोंका वे प्रज्ञापन नहीं कर सकते । शब्दोको अनेक अथों का वाचक मानलेनपर भी उनमें यह सामथ्र्य नहीं है कि वे सम्पूर्ण पदार्थों का निरूपण कर सके। यही कारण है कि पदार्थों को प्रज्ञापनीय
और अप्रज्ञापनीय इस तरह दो भागोंमें विभक्त कर दिया गया है ।अनन्तानन्त पदार्थों में से सर्वाधिक भाग अप्रज्ञापनीय पदार्थीका? ही है जिनका कि स्वरूप वास्तव में शब्दके द्वारा नहीं पतापा जा सकता एसे ही पदार्थोंमें यह सम्यग्दर्शन भी है ।
सम्यग्दर्शनजन्य सम्पत्तियों के रूपमें जिन कार्योंका ऊपर उल्लेख किया गया है उन सबका और उनके सिवाय भी जो उसकी अनेक विशेषताएं पाई जाती और भागममें बताई गई है उन सबका किसी भी एक शब्द के द्वारा प्रतिपादन नहीं हो सकता । अतएव सम्पूर्ण विशेषताओं और कार्योको दृष्टि में रखकर यदि उसके स्वरूपका निरूपण करनेका प्रयल किया जाय तो तस्वतः उसको अनिर्वचनीय कहनेके सिवाय और कोई मार्ग नहीं है। इसके कारणों में से एक कारख यह भी है कि सम्यग्दर्शनका मुख्यतया विषय द्रग है न कि पर्याय । इसके साथ ही दूसरी चात यह कि जब कभी भी कहीं पर भी किसी भी शब्दका प्रयोग किया जाता है तब वहां जिस अर्थमें उसका प्रयोग किया गया है मूलमें पदार्थ उतना ही नहीं है। वह शब्द तो उस पदार्थक अनन्तवे अंशका ही पसाता है। यदि वही शब्द सकलादेशकी अवस्थामें सम्पूर्ण पदार्थका प्रतिपादन करता है तो पहलेका अर्थ मुख्य न रहकर गोण होजाता है। ___ इस तरह सम्यन्दर्शनके विषयकी व्यापक स्थिर स्वाभाविक अपूर्व महत्ताको लक्ष्य में लेकर ही प्राचार्यने "कापि' कहकर उसकी अनिर्वचनीयता व्यक्त की है जिससे पुण्यकर्मजन्य सम्पतियोंके गर्वसे उसकी अवहेलनामें प्रवर्तमान व्यक्ति यह समझ सके कि सुदर्शन मेरु के समक्ष पुण्य रूपी पंचपाद पशुकी ऊंचाईका अभिमान ठीक नहीं है । अथवा भुगालके द्वारा सिंहकी अवहेलना किया जाना योग्य नहीं है। यद्वा चीरसमुद्रको अपने कूएसे छोटा समझनेवाले मेढककी समझ तुच्छ है। पीली किन्तु पालिशदार होनेके कारण ही पीतल यदि सुवर्णकी अबगणना करे तो क्या योग्य होगा? नहीं। अधिक क्या जिस तरह काचरा अमृतका स्थान नहीं पासकता, धतूरा कन्पक्षकी समानता नहीं कर सकता, आकका दूध माता या गौके दूध की तुलना नहीं कर सकना, वेश्या सतीक महत्त्वको नहीं पा सकती, कौया कोयल नहीं हो सकता, बगला हंस नहीं बन सकता, गंथा घोड़ा नहीं माना जा सकता, नपुसक पुरुषका काम नहीं कर सकता, म्लेच्छ भार्य नहीं हो सकता, और जुगुनू जगत्को आलोकित नहीं कर सकता । तथा १-पगणणिजा मावा अणंतभागो दु अणभिलप्पाणं। परणबणिज्जाणं पुण अण्तभागों सुणिवशी गी०जी० ॥३३॥ २-जैसाकि भागेके वर्णनसे मालुम हो सकेगा।
--पंचपार नाम ऊँटका है। यह लोकमें एक कहावत प्रसिद्ध है कि-ऊंट जब पहाडके नीचे पचता है सब उसे अपनी उचाईके अभिमानकी निःसारता मालुम होती है।
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रतकरण्यभावकाधार
जिस तरह रक्तमें यह सामर्थ्य नहीं है कि जलके समान वस्त्रको शुद्ध कर सके, इसी प्रकार पुण्य सम्पत्तियोंमें यह योग्यता नहीं है कि परम संवर निर्जरा और निर्वाणकी सिद्धिमें वह सम्यग्दर्शनका कार्य कर सके। अतएव पूर्वोक्त बाठों ही कारणोंका गर्व करना और उससे सम्यग्दर्शन भूषित धर्मात्माओंकी अवहेलना करना अनुचित ही नहीं स्वयंको धर्मसे च्युत कर लेना है। क्योंकि जो जिस गुणको प्राप्त करना चाहता है वह उसकी और उस गुणवालेकी अवज्ञा करके प्राप्त नहीं कर सकता । उसका विनय करके ही वह उसको प्राप्त कर सकता, स्थिर रख सकता, तथा वृद्धिको प्राप्त कर सकता है।
इस तरह यहांतक सम्यग्दर्शन के विधिनिषेधात्मक पाठ अंगोंका वर्णन करके स्व और परमें उसकी निरतीचारता तथा अविनाभावी अन्तरंग बाथ प्रवृत्तिका स्वरूप बताया, उसके बाद तीन महतारोंका निषेध करके अनायतनोंकी सेवासे संभव दोषों-मलिनताओं-अटियोंसे उसकी रक्षाकरनेका उपदेश दिया, तदनन्तर यह बात भी स्पष्ट करदी गई और वैसा करके सावधान किया गया कि यदि पुण्यकर्मके उदय अथवा पापकर्मकी मन्दताकै कारण प्राप्त वैभवके पथमें पदकर उसके व्यामोहवश तुमने धर्म और धर्मात्माओंकी अवहेलना की तो निश्चय ही तुम स्वयं ही अपने धर्म और उसके फलसे-अनन्त कल्याणके कारण और उसके फलसे वंचित रहजागोगे।
किन्तु अब प्रश्न यह होता है कि कार सामग्दनको रत्ना ए हलताकेलिये जो कुछ बताया गया है उतना ही पर्याप्त है अथवा उसके लिये और भी कुछ मावश्यक कर्तव्य शेष है। इसके उत्तरमें आगेकी कारिका द्वारा आचार्य बताते हैं कि सम्पग्दर्शनकी विशुद्धि पूर्णता तमा वास्तविक सफलताकेलिये यह भी आवश्यक है कि
भयाशास्नेहलोभाच्च कुदेवागमलिंगिनाम् ।
प्रणामं विनयं चव न कुयुः शुद्धदृष्टयः ॥३०॥ अर्थ-सम्यग्दृष्टियों को चाहिये कि भय भाशा लेह और लोमसे कुदेव कदागम और कलिङ्गियोंको प्रथाम तथा विनय न करें।
प्रयोजन-शुद्ध सम्यग्दर्शनका वर्णन करते हुए प्राचार्यश्रीने सबसे प्रथम उसके पाठ अंगोका वर्मान किया है जिसमें निःशक्तिादि चार निषेवरूप अङ्गोंके द्वारा उसकी निरसीचारताका होना पावश्यक बताया है। इसके सिवाय चार विधिरूप अंगोका वर्शनकरके इस पातको स्पट करदिया है कि सम्पादष्टि की अंतरंग तथा बाह्य प्रवृत्ति किस तरहकी हुमा करती है अथवा किसतरहकी होनी चाहिये । इसी कथनसे यह भी व्यक्त कर दिया गया है कि स्व और परके साथ होनेवाला या किया जानेवाला वह कौनसा व्यवहार है जिसको कि देखकर उसके अविनामावी सम्यग्दर्शन के मस्तित्वका अनुमान किया जा सकता है। जिस प्रकार रोगनिहरण और स्वस्थतासम्पादन को उषयमें रखकर प्ररूपित भायुर्वेद शास्त्र पाठ अंगोंमें पूर्ण होता है। उसीप्रकार यह सम
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चन्द्रिका टीका तीमर्वा श्लोक ग्दर्शन भी रोगरूप अनीचारोंसे रहित होकर पथ्यरूप प्रवृत्तियों-उचित आहार विहार अर्थात अन्याय और अमदय भक्षणसे रहिन आचरणोंके द्वारा अपने पाठोही अवयवोंमें पूर्ण हो जाता है । इसके बाद तीन मूढनाओंका निषेध करके प्राचार्य ने यह भी स्पष्ट कर दिया है कि सम्यग्दर्शनकी शुद्धताको स्थिर रखने के लिये यह भी आवश्यक है कि उसे अनायतनोंकी रुचि एवं श्रद्धासे भी दूर रक्खा जाय । ध्यान रहे तीन महताओंके कथनसे छहों अनायतनों का सम्बन्ध आजाता है। ____ अन्तमें आठ मदोंके परित्यागका वर्णन करके यह बात भी स्पष्ट करदी है कि पापकर्म की मन्दता या पुण्य कर्मके उदयसे लब्ध वैभव के व्यामोहवश धम-सम्यग्दर्शनादिकी अथवा तद्वान् व्यक्तियों की अवहेलना करना अपने ही धर्मका विनाश करना अथवा उसको मलिन बनाना है। क्योंकि आठ प्रकारके मदोंमें कुछ तो ऐसे हैं जो कि प्रतिपक्षी पापकम-ज्ञानावरख अन्तराय आदिके वयोपशमके रूपमें मन्दोदयकी अपेता रखते हैं और कुछ पूज्यता मल जाति आदि ऐसे हैं जो पुण्य कमके उदयविशेपकी अपेक्षा रखते हैं ।
सम्यग्दर्शनके २५ मलदीप प्रसिद्ध हैं उन सबकी परिहार्यताका परित्रान इस विविध वर्णनसे हो हो जाता है फिर ऐसा कोई विषय शेष नहीं रहना जिसके कि परित्याग लिये पुनः वर्णन की आवश्यकता हो । प्रा एक बहकारीका अपना क्या विशिष्ट प्रयोजन रखनी है ? अथवा पूर्व वर्णनका ही यह उपसंहारमात्र है किसी नवीन भिम विषयके वानका प्रयोजन नहीं रखती इस तरहका प्रश्न अथवा जिज्ञासाका भाव उपस्थित होना सहजसंभव है। मालुम होता है कि इसीलिये प्राचार्य भगवान उपस्थित हो सकनेवाले इस प्रश्न अथवा जिज्ञासाके भाव का उचित एवं संगत समाधान करदेना चाहते हैं। वे इस कारिकाके द्वारा गत विषयोंका उपपंहार करते हुए उसमें और भी जो कुछ विशेष उल्लेख करना आवश्यक है उसको भी स्पष्ट करदेना चाहते और साथ ही कुछ नवीन परिहार्य विषय का भी निर्देश करदेना चाहते हैं। इस तरह दोनों ही विषयों पर प्रकाश डालना इस कारिकाका प्रयोजन है । जैसा कि आगेके वर्मनसे मालुम हो सकेगा।
शब्दोंका सामान्य विशेष अर्ध
भयाशास्नेहलोभात्--इस पदमें आये हुए शब्दोंका सामान्यतया अर्थ प्रसिद्ध भौर स्पष्ट है। भयका अर्थ "डर" यह लोक बिदित है किन्तु शंका अर्थ में भी इस शब्दका प्रयोग होता है । इसलोकभय परलोकभय आदि विषय भेदकी अपेक्षा इसके सात मेदोंका उमेश किया गया है। यह मुख्यतया दो अन्नरङ्ग कारणोंपर निर्भर है।--भयनामक नोकषायकी उदारवा तथा वीर्यान्तराय कर्मकी उदीरणा अथवा तीब्रोदय ।।
भागेकेलिये किसी विषयको प्राप्त करनेकी इच्छा रखना आक्षा करना माल है। स्नेहका सम्बन्ध राग कषायसे है। प्रेम, अनुराग, प्रीति आदि स्नेहके ही भेद अथवा पर्याय हैं। बर्तमानमें किसी रस्तु के प्राप्त करने की उस्कट भावनाको लोम शम्दते वहां बताया ।
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रत्नकरण्ड श्रावकाचार
चारों ही शब्दों का यहां पर समाहार द्वन्द्व समास करके हेत्वर्थ में पंचमीका प्रयोग किया गया हैं । समाहार द्वन्द्व समासके विषय में यह कहा जा चुका है कि समासगत द्रव्य गुण क्रिया विशेषण और साहित्य प्रधान या विशेष्य माना जाता हैं। जिस तरह ग्राम पीपल नीम वट जामुन आदि अनेक तरहके वृक्षोंके विशिष्ट समूहको वन कहते हैं, एक दो वृक्षोंको वन नहीं कहते । यद्यपि कदाचित् एक जाति के वृक्षों का भी बडा समूह हो जाने पर वन कहा जा सकता है। किन्तु इसकेलिये भी उस जातिके वृक्षोंका यथेष्ट प्रमाण में एकत्र होना आवश्यक है फिर भी जिस तरह एकको समूह नहीं कह सकते और समूहको एक नहीं कह सकते उसी तरह प्रकृतमें भी भयादिकर्मे किसी एकको समाहार नहीं कहा जासकता और समाहारको भयादिकमेंसे किसी एक रूप नहीं कहा जासकता । इसका तात्पर्य यह होता है कि जहां तक इन चारोंकेही तीव्र उदय अथवा उदीरणाकी योग्यता — ऐसी योग्यता कि जिसके निमित्तसे इनमेंस किसी भी विभाव परिणामके द्वारा सम्यग्दर्शनको मलिन करनेवाली प्रवृत्ति हो सकती हैं, बनी हुई है वहां तक वह समाहार भी माना जायगा जो कि वास्तव में सम्यग्दर्शन की मलिनता का अन्तरंग कारण है जिसका कि दर्शनमोहनीय कर्मकी सम्यक्त्व प्रकृति के नामसे बोध कराया जा सकता अथवा जो अनन्तानुबन्धी कपाय चतुष्टयके रूपमें कहा या माना जा सकता है । मतलब यह कि उक्त मल दोषों और इस कारिकाके द्वारा जिसका परिहार बताया गया है वह दोष भी क्षायोपशमिक सम्यक्त्वकी अवस्थामें ही संभव है, न कि औपशमिक एवं क्षायिक सम्यक्त्वकी अवस्था में | जैसाकिर धवला - गोमट्टसार आदिसे जाना जासकता है।
"च" शब्द पूर्वोक्त मलदोषोंके हेतुओंका भी सम्बन्ध बताता है । क्योंकि यहाँपर "च" शब्द अपि — भी अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। जिससे अभिप्राय यह निकलता है कि उक्त कारणों से तथा भयादिकसे भी कुदेवादिकोंको प्रणाम आदि न करे । अतएव यह "च" शब्द इस कारिकामें बताये गये भयादिक हेतुओं का पूर्वोक्त हेतुओं के साथ संग्रह — सकलन - समुच्चयको स्वष्ट करदेता है ।
कुदेवागमलिङ्गिनाम्— सम्यग्दर्शन के विषयभूत प्राप्त आगम और तपोभूतका स्वरूप पहले बताया जा चुका है । उनका लक्षण या वह स्वरूप जिनमें नहीं पाया जाता अथवा जिनमें तद्विरुद्ध लक्षण या स्वरूप पाया जाता है व ही कुदेव कदागम और कुलिङ्गी हैं। star इनके साथ प्रयुक्त होनेवाला "कु" शब्द दर्शन मोहनीयके उदयरूप मिथ्यात्व परि खामके अन्तरंग भावके सम्बन्धको सूचित करता है। जो इस मिथ्याभावस दूषित हैं उनको कुदेश कदागम और कुलिङ्गी समझना चाहिये ऐसा अर्थ करने पर जो आप्ताभास हैं, श्रागमाभास हैं, तथा पाखण्डी में वे सभी प्रथा एवं विनयके विषय होजाते हैं ।
१- भयश्च भाशा च स्नेहस्थ तेपां समाहारः भयाशास्त्र हलीयम्, तस्मात् । २-तत्थ खइयसम्म इट्टी पण कमीइषि मिल गई, कुण संदेहं मिभवं दशा बम्हजायदे। एसो चेव उवसमसम्माइट्ठी | सन् प्ररूपणा पृ. १७१ । वयहिं विहिं व इदभय आणि हिंरूवहिं । बीभजुगु वाहिँ ये तेलोच णवि - बालेजो ।।६४७।। गो.जी. तथा - "रुमकरेाक्तिसूचिभिः । जातु क्षायिकसम्यक्त्वो न लुभ्यति गिनिश्चलः ।।
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चन्द्रिका टाका तीसवा श्लोक इस वाक्यमें इतरेतयोग? द्वन्द समास है । अतएव यहां पर साहित्य प्रधान नहीं है, द्रव्य प्रधान है । इसलिये कुदेवादिकमें से कोई भी क्यों न हो; एक दोहों अथवा तीनों ही हो उनको प्रणाम या विनय करनेपर सम्यग्दर्शन मलिन माना ही जायगा यह बाक्य प्रणाम या विनयरूप क्रियाका कर्म है। किन्तु जहां सम्बन्धमात्रकी विवक्षा होती है वो वहां कर्ममें२ षष्पी भी होजाया
प्रणाम विनयं चैव-दूसरेको अपनेसे बड़ा या महान् मानकर उसकी महत्ताको प्रकट करते हुए अपना शिर झुकाकर स्वयंकी नम्रताको प्रकट करना प्रणाम माना जाता है । और हाथ जोसकर अथवा वचन द्वारा प्रशंसा करके यद्वा उच्चासन देकर एवं अनुगमनादिके द्वारा आदर सरकारका भाव प्रकट करना विनय कहा जाता है।
शुद्धदृष्टयः-जिनका सम्यग्दर्शन पूर्वोक्त दोषों-शंका आदि पाठ दोष तीन मूहता और पाठ मदसे रहित है वे शुद्धष्टि हैं ऐसा समझना चाहिये।
__ तात्पर्य यह कि आगममें विनयके पांच भेद बताये हैं जिनका कि नामनिर्देश पहले किया जा चुका है। उन पनि भेदों को सामान्यतया लौकिक और पारलौकिक इस तरह दो भागोंमें विभिक्त किया जा सकता है । लोकाश्रय अथोश्रय कामाश्रय और भयाश्रय इन चार भेदोंको विनयके लौकिक भेदमें परिगणित किया जा सकता है। क्योंकि ये भेद ऐहिक-सांसारिक विषयोंसे सम्बन्धित हैं। इन चारोंके सिबाय एक मोक्षाश्रय विनयका भेद ही ऐसा है जिसका कि विषय वास्तवमें पारलौकिक-मोक्षमार्गसे सम्बन्धित है।
सम्यग्दर्शन मोक्षमार्गरूप होनसे वस्तुतः पारलौकिक है। अतएष उसकी शुद्धि केलिये अिन मल दोषोंका परित्याग करनेका आचार्योने उपदेश दिया है उसमें भी उनका लक्ष्य मुख्यतया पारलौकिक विनयकी तरफ ही रहा है यह भलेप्रकार समझ में आसकता है । फलनः यहां पर भी ऊपर जिन मूढ़ताओं श्रादिके छोड़नेका भगवान् समन्तभद्रस्वामीने जो सदुपदेश दिया है वह भी मुख्यतया मोबाश्रय विनयकी दृष्टि से ही दिया है यह कहनेकी आवश्यकता नहीं रह जाती । ऐसी अवस्थामें चार ऐहिक विनयभेदों के विषय सम्बन्धको दृष्टिमें रखकर शंका हो सकती है कि सम्यग्दृष्टिको ये चार प्रकारके विनय कर्म भी करने चाहिये या नहीं ? अथवा इन विनयों के करनेपर भी सम्यक्त्व निर्दोप रहता या रहसकता है या नहीं ? इस शंकाका परिहार करनेकेलिये ही भाचायं प्रकृत कारिकाके द्वारा बताना चाहते हैं कि प्रणाम और विनय क्रियाका विषय सम्बन्ध कुदेवादिकके साथ है । अत एव यदि कुदेवादिकको प्रणाम आदि किया जाय तो सम्पग्दर्शन शुद्ध नहीं रहसकता । ऐहिक विनय कोंके साथ कुदेवादिकका वस्तुतः कोई नियत सम्बन्ध नहीं है। उनको प्रणाम आदिका करना दो तरहसे ही संभव हो सकता है। एक तो धार्मिकपारलीकिककल्याणकी कामनासे मक्तिवश उनको नमस्कार आदि करना, झरा अन्तरंगमें
-देवश्च आगमश्च लिंगो च, देवागमलिनिनः । कुत्सिता देवागमलिगिनः कुदेवायमलिोगनः, संपाम् । २-"कर्मादीनामपि संवन्धमाविषदायां षष्ट्यव" । सि० कौ० १० १४६ /
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भक्ति न रहते हुए भी किसी के अनुरोधसे अथवा बिना किसी प्रेरणा के स्वयं ही अपने ऐहिक सम्बन्वोंको अच्छे एवं अक्षुण्य या निर्वाध बनाने रखनेके हेतुसे विवश होकर वैसा करना । इनमें से पहला प्रकार तो मिध्यात्वको ही सूचित करता है । दूसरा प्रकार सम्यग्दर्शनकी कमजोरी या मलिनताका कारण भी हैं और कार्य भी है। क्योंकि जिसका सम्यग्दर्शन दुर्बल हैं यदा समल है वही इस तरहसे कुदेवादिककी वन्दना आदि में प्रवृत्ति कर सकता है। तथा इस तरह की प्रवृति करनेवालेके सम्यग्दर्शनमें मल उत्पन्न होता और उससे उसकी शक्ति भी क्षीण होजाया करती है।
सम्यग्दर्शनको समल बनानेवाली यह प्रवृत्ति प्रायः करके चार बाह्य हेतुओं पर निर्भर है जिनका कि प्रकृत कारिकाके प्रथम चरण में उल्लेख किया गया है । अर्थात् मय आशा स्नेह और लोभ | मतलब यह कि राजा आदिके भगये, भविष्य में प्राप्त होने वाले अर्थ- धन ऐश्वर्य आदि की इच्छासे, मित्रादिके अनुराग से, एवं वर्तमान में उपस्थित सम्पत्ति की गृद्धिवश यदि कोई सम्यग्दृष्टि कुदेवादिकको प्रणाम आदि करता है तो उसका सम्यग्दर्शन शुद्ध नहीं रह सकता । अवश्य ही वह मलिन होजाता हैं ।
राजा बन्दना करता है, हम यदि इनकी वन्दना नहीं करेंगे तो राजा रुष्ट होकर हमारा अनर्थ कर सकता है। हो सकता है कि हमको अधिकार से वंचित करदे अथवा हमको आपति में पटक दे या दण्डित करे इस तरहके किसी भी भयसे कुदेवादिककी वन्दना करना ।
आगे जो हमारा काम बननेवाला है वह यदि इनकी बन्दना आदि नहीं करेंगे तो नहीं बनेगा, इनके उपासकों आदि के द्वारा हमारा वह काम विगाडा जा सकता है, अथवा हमारे अभीष्ट योजनकी सफलता में बाधा पडसकती है. यह विचार करके देवादिकको प्रणाम आदिक करना | ये जितने हमारे सम्बन्धी हैं--जातीय बन्धु हैं, अथवा हमारे सहचर या परिकरके लोग हैं, वे सभी इनकी पूजा भक्ति उपासना करते हैं, इनके साथ रहकर में भी यदि इनकी बन्दना आदि नहीं करूंगा तो अच्छा नहीं लगेगा, ऐसा विचारकर अथवा बन्धु बान्धवोंके स्नेहसे या संकोच में पड़कर उनकी वन्दना आदि करना । अथवा जैसी प्रवृत्तिका प्रचारकरना कराना !
इस समय हमारे पास जो सम्पति है वह हमारी कमाई हुई नहीं है, हमारे पूर्वजों की कमाई या दी हुई भी नहीं है हमको जो यह मिली हैं या इसका अधिकार मिला है वह ऐसे ही लोगों की है जो कि इनके उपासक थे या है, अब हम यदि उनके विरुद्ध चलते हैं या उनके नियमका पालन नहीं करते हैं तो यह सम्पत्ति हमारे पास नहीं रह सकती, यद्वा नियमानुसार हम इसके उचराधिकार से वंचित हो जा सकते हैं, इस तरह प्राप्त सम्पत्तिकी गृद्धिवश कुदेवादिककी भक्ति आदि करना ।
इस तरह ये चार प्रकार हैं जो कि मुख्यतया तीव्र कषायके परिणाम हैं। इनमेंसे किसी भी प्रकारसे कुदेशदिको प्रणामादि करनेपर सम्बम्दर्शन मलिन होता है। क्योंकि कुदेवादिक न तो
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पत्रिका टीका नीसवां भोक राज्यके ही अधिकारी हैं न उनके साथ कोई जातीय सम्बन्ध है न अर्थपुरुषार्भक ही वे सम्मन्धी या साधक हैं। और न उनसे अन्य किसी प्रकारके अनर्थ अपयश या अपाय होनेकी शंकाका ही कोई कारण है । फिर भी यदि उनको बन्दना ग्रादि कोई सम्परराष्टि करता है जैसाकि उपर बताया गया है तो अपनी ही पायक तीव परिणालि अया तब सार होनेवाली दुर्गलता ही उसका अन्तरंग मुख्य हेतु माना जा सकता है। यदि कोई गृहस्थ है तो वह अपने धर्म अर्थ काम या यशसे सम्बन्धित व्यक्तियोंका यदि वे कदाचित् मिथ्याष्टि भी हों तो भी उनका कदाचित ऐहिक विनय एवं यथोचित सम्मान स्वयं सम्यग्दृष्टि होकर भी कर सकता है । जो कि पूर्वोक्त चार प्रकारों में बताये गये हैं। परन्तु जिनके साथ इस तरह का कोई भी सम्बन्ध नहीं है ऐसे कुदेव गुरु या पाखण्डियोंका विनय करनेमें अपनी अन्तरंग कमजोरीके सिवाय दूसरा कोई भी अन्य उचित कारण नहीं है। और ये कमजोरी सामान्यतया चार प्रकारको ही संभव है जो कि यहां बताई गई हैं--भय आशा स्नेह और लोभ ।
सम्यग्दर्शनका लक्षण-वर्णन करते समय श्रद्धानरूप क्रियाके तीन विशेषन दिये हैंत्रिमहापोह अष्टांग और अस्मय । इनमेंसे अष्टांग विशेषणका आशय भयादिके कपनसे आजाता है क्योंकि भय आशा स्नेह और लोभ क्रमसे शंका कांक्षा विचिकित्सा और मुहरष्टिके ही रूपान्तर या प्रतीकरूप है। अतएव इस एक विशेषणका अभिप्राय कारिकाकै प्रथम वायसे ही स्पष्ट होजाता है। फलतः "शुद्धदृष्टयः" के अर्थ में शेष दो विशेषणोंका लक्ष्य रखना ही उचित प्रतीत होता है और इसीलिये इस शब्दकी जो इस प्रकारसे निरुक्ति की गई है कि "मत्रयमदाटकम्यो मलेभ्यः शुद्धा-मृष्टा दृष्टिर्येषाम् ते शुद्धदृष्टयः" सर्वथा संगत और विचारपूर्ण है। ____ ऊपर जिस चार तरहके लौकिक विनयका उमेख किया गया है उसके साथ कारिकोक्त भयादिक चार पदोंका सम्बन्ध स्पष्ट है। क्योंकि भयशब्दसे भयाश्रय विनयका, पाशाशम्दसे लोकाश्रय विनयका, स्नेह शब्दसे कामाश्रय विनयका और लोम शब्दसे प्रश्रिय विनयका अभिप्राय व्यक्त हो जाता है।
प्रकृत कारिकामें तीन पद मुख्य हैं-हेतुपद (भयाशास्नेहलोभात् ) कर्मपद (देवागमलिगिनाम्) क्रियापद (प्रणाम विनयं)। तीनों ही पदोंपर एक दृष्टि रखकर रिचार करनेसे मालूम होसकता है कि इन तीनोंही विषयों के मिलनेपर सम्यग्दर्शनकी अशुद्धता ससे अधिक संभा है किन्तु इनकी विकलतामें भी सम्यग्दर्शन-मलिन ही होसकता है । यह दूसरी बात है कि कारत. वैकम्पके अनुसार दोषरूप कार्यमें भी न्यूनाधिकता पाई जाय।
हम जैसा कि कारिका नं० २३ की व्याख्यामें लिख चुके हैं उसी प्रकार यहाँपर भी विचार किया जासकता है । तथा विचार करनेपर मालूम हो सकता है कि इन तीनों की पाता और विकलताको अवस्था में सम्यग्दर्शनकी अशुद्धि भी समानरूपमें न होकर न्यूनाधिक भी हो सकती
१-कारिका न०!
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रत्नकरण्ड श्रावकाचार
है । किन्तु यह बात हेतुरूप अन्तरंग श्राशय या परिणामों की जात्यन्तरत पर जिस तरह निर्भर हैं उसी प्रकार कर्मरूप कुदेवादिकका विशेषता पर भी आश्रित है। उस विशेषता के श्राधारपर ही Areas सम्यग्दर्शनकी होनेवाली अशुद्धि में अतिक्रम व्यतिक्रम अतीचार या अनाचारका निश्चय किया जा सकता है अतएव परिस्थितिके अनुसार ही यथायोग्य दोषका निर्णय करना चाहिये | क्योंकि सम्यग्दर्शनके उत्पन्न होने या न होनेमें जिस तरह अन्तरंग वाह्य दोनों ही कारख अपेक्षित एवं आवश्यक हैं उसी प्रकार सम्यग्दर्शनके उत्पन्न होजानेके बाद उसमें किसी भी प्रकारकी मलिनाके न होने देने में भी और रंग दोनों ही तरह की प्रवृतिमें संभाल रखना आवश्यक है। यहांपर जो हेतु वाक्प दिया है वह अन्तरंग परिणामोंकी संभालके लिये है और कर्मer तथा क्रियापदोंका जो प्रयोग किया है वह वाह्य बाधक साधनों से बचानेका संकेत करनेके लिये हैं । फिर भी सम्यग्दर्शन के विरोधी बाह्य विषयका परित्याग करना ही संसारसे अपनेको हटाकर विशुद्ध सिद्ध एवं कर्मनोर्मसे मुक्त अवस्थामें परिणत करदेनेकी न केवल इच्छामात्र रखने वाले किंतु उसके लिये मनसा वाचा कर्मणा अपना अनवरत प्रयत्न करने वाले प्रत्येक भयात्मा मोक्षार्थीका प्रथम कर्तव्य हैं । इसीलिये वह मुख्यतया आवश्यक हैं। इसका कारण यह भी है कि आजकल यहां हुंडावसयिणी काल प्रवर्तमान हैं जिसकेकि निमिवसे द्रव्य fararaat उत्पत्ति होगई है और दिनपर दिन वह बढ़ती ही जा रही हैं। ऐसी अवस्थामें दुर्बल हृदय भोंके सम्यग्दर्शन एवं उसकी विशुद्धिका बना रहना अत्यन्त कठिन होगया है और होता जारहा है । श्रतएव प्राणिमात्र के निःस्वार्थ सच्चे हितैषी दूरदर्शी आचार्य सम्यग्दर्शन की विशुद्धिको स्थिर रखने के लिये उपदेश देते हैं कि तीन महता और आठ मर्दों से बचाकर अपने अष्टांग सम्पदर्शनको शुद्ध रखनेवाले भव्योंको चाहिये कि कुदेवागमलिङ्गियोंको प्रणामशिरोनमनादि न करें और न उनका विनय – अभ्युत्थानादिके कारा सत्कार ही करें। प्रसंग पडनेवर भयादिकी अन्तरंग दुर्बलताओं को भी स्थान न दें। अपने भीतर जागृत ही न होने दें कदाचित् होने लगें तो उनका सर्वथा निग्रह करनेका प्रयत्न करें ।
इस हुण्डावसयिश्री काल में कुदेवों मेंसे महादेवकी अश्लील मूर्तिकी पूजाका जो प्रचार हुआ है वह भगवश हुआ है। श्री कृष्ण की सराग मूर्तिकी पूजाका प्रचार स्नेह एवं लोभवश हुआ है। वेद जैसे हिंसाविधायक कदागमका जो प्रचार हुआ है वह श्राशावशर हुआ है । इसी तरह अनेक प्रकारके पाखंडों का प्रचार एवं पाखण्डियों की जो वृद्धि हुई है उसके अन्तरंग वास्तविक कारण भय आशा ४ स्नेह और लोभ ही हैं । अतएव ग्रन्थकर्त्ता स्वयं उदाहर समा बनकर कहते हैं कि कैसा भी भयंकर प्रसंग आ जानेपर भी कुदेवादिको प्रणामादि करनेके लिये अपनेको भयादिकसे अभिभूत नहीं होने देना चाहिये !
१,२ -- इन सबकी कथाएं कथाकोष हरिवंश पुराणादि जानी जासकती है ।
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इंद्रिका टीका इकली सवा शोक ___ एक बात और है, आगममें मनुष्योंको दो भागोंमें विभक्त किया है; एक मार्य दुसरं म्लेच्छ । जिनमें सम्यग्दर्शनादि गुणों के उत्पन्न--प्रकट होने की योग्यता है अथवा जो उन गुपोंसे विभूषित हैं वे सब श्रायर हैं। जिनमें यह योग्यता नहीं पाई जाती वे सब म्लेच्छर हैं। मार्यो के पांच भेद हैं-क्षेत्रार्य जात्यार्य कार्य चारित्रार्य और दर्शनार्य । जो सम्यग्दर्शन से युक्त है वह दर्शनार्य है। ऐसा व्यक्ति अपनेसे नीचेके चार विषयोंके सम्बन्धको लेकर कदाचित् अपने सम्पग्दर्शनको अशुद्ध बना सकता है। पौकि गाको नेत्रही मामा भाने देख प्रान्त आदिके लोगोंके भयसे अथवा इसके अधिपति राजा श्रादिकं भयस सम्यग्दर्शनके विरोधी कुदेवादिकी उपासनामें कदाचित् प्रवृत्त होसकता है । अथवा जातीय सम्बन्धोंके निमित्तसे स्नेहवश वैसा कर सकता है । क्योंकि एक ही जातिमें दो भिन्न २ धर्मों के उपानक होने पर उनका विवाह आदि सम्बन्ध होजानेके बाद ऐसे अवसर सहज ही आसकते हैं कि जिनमें सम्मिलित होनेसे अथवा उनका संस्कार पडजानेपर सम्यग्दर्शनकी यथेष्ट विशुद्धि प्राय नहीं रह सकती । अथवा कर्म-माजीविका के सम्बन्धसे लोभके वश ऐसे भी काम किये जासकते हैं या कदाचित् कोई कर सकता है कि जिसके कारण सम्यग्दर्शन निर्मल नहीं रह सकता है । चौथी बात चारित्रकी है जिससे कि परलोकमें यथेष्ट विषय, अभ्युदय, कल्याण आदिकी प्राशासे यह जीव सम्यग्दर्शनको मलिन करने वाले चरित्रको धारण करके वैसा कर सकता है। अतएव प्राचार्यने बताया है कि सम्यग्दृष्टि
आये पुरुषको अपना सम्यग्दशन निर्मल शुद्ध बनाये रखनेकेलिये इस बात पर अवश्य ही ध्यान रखना चाहिये कि इन चारों ही सम्बन्धों में रहते हुये भी भयादिके द्वारा स्वयं कुदेवादिकोंको प्रशाम विनय आदिकी प्रवृत्ति न करे प्रत्युत विवेकपूर्वक अपने थर्मको सुरक्षित रखकर सफल बनानेका ही उसे यत्न करना चाहिये ।
इसप्रकार सम्यग्दर्शनके स्वरूपका वर्णन यहां तक समाप्त होजाता है । अब प्रश्न यह उपस्थित होता है कि संसारकै दुःखोंसे निकालकर जीवको उचम सुखकी अवस्थामें रखनेवाले जिस धर्मका व्याख्यान करनेकी ग्रन्थकी आदिमें प्रतिक्षा कीगई थी वह रत्नत्रयात्मक है, केवल सम्यग्दशेनरूप ही नहीं है । फिर क्या कारण है कि सम्यग्दर्शनका ही सबसे प्रथम पर्सन किया गया ? वीनोंका युगपत् वर्णन हो नहीं सकता, क्रमसे ही जब वर्णन हो सकता है तो तीनों में से चाहे जिसका ग्रन्थकर्ता अपनी इच्छा या रुचिके अनुसार पणन करे । तदनुसार पहसे सम्यग्दर्शनका वर्णन कर दिया गया है। ऐसा है क्या? या और कोई बात है। इस प्रश्नका उत्तर स्वयं प्राचार्य ही आगे की कारिकामें देते हैं
दर्शनज्ञानचारित्रात् साधिमानमुपाश्नुते ।
दर्शनं कर्णधारं तन्मोक्षमार्गे प्रचक्षते ॥३१॥ १-आर्या म्लेच्छाश्च । त० सू० २-गुणैः (सम्यग्दर्शनादिभिः) गुणवद्भिर्वा अर्यन्त इति आर्याः । स.सि । ३ -माना मिलेरछाण मिच्छतं । ति०प० । अथवा "धर्मकर्मवहिभूताः स इमे मोजाका मतामा
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रत्नकरएडभावकाचार
___अर्थ-बान और चारित्रकी अपेक्षा दर्शन--सम्यग्दर्शन माधुता समीचीनता एवं उत्कृष्टनाको अधिक व्याप्त करता है। क्योंकि भगवान उस दर्शनको मोक्षमागमें कर्णधार बताते हैं।
प्रयोजन–सम्यग्दर्शनके स्वरूपका बणन पूर्ण होजानेके बाद उस वर्णित विषयकी गौमता मुख्यता या समानताका प्रश्न अत्यन्त आवश्यक होजाता है। और इन तीनमें से किसी भी एक के मालुम होजानेयर उसके हेतुकी जिज्ञासा हुआ करती है। जिनके हृदयमें "कथमेतत्" का प्रश्न या तो उठता नहीं या उठ नहीं सकता उनके लिये हेतुरहित भी कथन पर्याप्त हो सकता है। जो हेतुपूर्वक समझना चाहते हैं उनके लिये ऐये हेतुकी आवश्यकता रहती है कि जो उनके अनुभवमें भी आमके । जो आगमपर श्रद्धा रखने के कारण सम्यग्दृष्टि तो हैं फिर भी यदि वे विशेष जिज्ञासु होनेके कारण यणित विषयका अनुभवपूर्ण समर्थन सुनना या जानना चाहते हैं तो समर्थ वक्ताका भावश्यक कतव्य हो जाता है कि वह श्रोताके सम्मुख पागम के अनुकूल या उससे अविरुद्ध अनुभवमें श्रासकनेवाली युक्तियों को उपस्थित करने का प्रयत्न करे जिससे श्रोताका ज्ञान सशंक न रहकर वह निर्दिष्ट हितमार्ग में भले प्रकार चलने में समर्थ हो सके और उसमें वह रद रह सके।
इस तरह युक्ति अनुभव और आगम तीनोंके द्वारा उपस्थित प्रश्नका उत्सर इस कारिका मारा प्राचार्य देना चाहते हैं और बनादेना चाहते हैं कि यद्यपि धर्म रत्नत्रयात्मक ही है जैसा शिप्रारम्भमें बताया गया है तथा मोक्ष यो संसार निवृश्चिकी हेतुभूतताकी अपेचा तीनोंमें समानता भी है, और अपनार कार्य करने में साधक होनेकेकारण तीनों ही असाधारण विशिष्टता रखते हुए भी समान हैं, इसके सिवाय परम निर्वाण की सिद्धि में एक या दोमें नहीं किन्तु तीनों में परस्पर नान्तरीयकस्य भी है क्योंकि तीनोंमेंसे किसी भी एकके न रहने पर वह सिद्ध नहीं हो सकती। फिर भी इनमेंसे सबसे प्रथम सम्यग्दर्शनके ही वर्णन करनेका कारण यह नहीं है कि किसी भी एकका तो वर्णन प्रथम होना ही चाहिये । अथवा यह बताना भी नहीं है कि मोच की मिलिमें ये क्रमसे उत्तम मध्यम जघन्य कारण है तदनुसार क्रमसे पहले उत्तम कारण रूप सम्यम्दशनका वर्णन यहां कर दिया गया है और अब आगे मध्यम कारण शानका वर्णन करके अन्वमें जघन्य कारण चारित्र का वर्णन किया जायगा । क्योंकि तीनोंमें ही अपने२ अंश कार्यसाच. कताकी अपेक्षा समानता और परस्परमें नान्तरीयकता है यह पान ऊपर कही जा सुकी है। फिर सम्यग्दर्शनके ही प्रथम वर्णन करनेका कारण क्या है ?
इसके उपरमें आचार्य हेतु हेतुमद्भावको बतानेवाले दो वाक्योंके द्वारा उसकी सापेच साधिमानताका उन्नख करते हैं। जिससे वे स्पष्ट करते हैं कि यद्यपि मोक्षमार्ग में तीनों ही साधन
और इस दृष्टि से तीनों में समानता भी है; फिर भी इनमें जो सबसे बडी एक विशेषता है वह यह है कि ज्ञान और चारित्र इन दोनों की अपेचा सम्यग्दर्शन की साधुवा अधिक प्रशस्त है और उलष्ट है । इष्टान्तगर्भित युक्ति या हेतुके द्वारा वे बताना चाहते हैं कि सम्यग्दर्शन और शान
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चन्द्रिका टीका इकतीसा श्लोक चारित्रकी साधुतामें उपजीव्योपजीवक संबंध है सम्यग्दर्शनकी साधुता उपजीव्य है-झानचारित्रकी साधुता केलिये आश्रय है । शान और चारित्र इन दोनोंकी साधुता दर्शनकी साधुनाके भाश्रयसे जीवित रहती है । ज्ञान और चारित्रकी साधुता उपजीवक-उपजीविकाकेलिये किसीके आश्रयमें रहनेवाले नौकरनौकरानी के समान है | अतएव जो स्वामीकी तरह प्रधान है उसका प्रथम वर्णन करना उचित और न्यायसंगत है।
ऊपरके प्रश्नका इस कारिकाके द्वारा दिया गया यह उत्तर न केवल युक्तिपूर्ण ही है अनुभवमें भानेवाला और भागमानुसारी भी है । सभी श्रागमोंमें उनके प्रणेताओंने रत्नत्रयका वर्णन करते हुए सम्यग्दर्शनकी उत्कटना गपमानता स्वीकार की है और बताई है। अतएव प्राचार्य की प्रतिझाके विरुद्ध कह कर इस कथनका विरोध करनेका अवकाश ही नहीं है। क्योंकि आचार्यने "देवयामि" कहकर जो प्रतिक्षा की थी कि जो भगवान्ने या गणरादिकने कहा है उसीको मैं यहां कहूँगा उससे सम्यग्दर्शनकी प्रथम वर्णनीयता विरुद्ध नहीं, अनुकूल ही है। कारण सभी प्राचीन अर्वाचीन प्राचार्योंने सम्यग्दर्शनकी प्रधानता स्वीकारकी है । साथ ही दृष्टान्तगर्मित हेतु या सामान्यतो दृष्टानुमानके द्वारा ज्ञान चारित्रकी अपेक्षा अधिक साधुताके समर्थनमें जो युक्ति उपस्थित की है वह भी अनुभवमें आनेवाली है। इस समर्थन में तीन हेतु अन्तर्निहित हैं जिनको कि दृष्टि में रखकर स्वयं ग्रन्थकार आगे क्रमसे तीन कारिकाओंके द्वारा स्पष्ट करेंगे। ___ यदि इस कारिकाके द्वारा यह न बताया गया होता कि शान चारित्र की साधुताकी अपेक्षा सम्यग्दर्शन की साधुता विशिष्ट और उत्कृष्ट है तो सम्यक्त्वनिरपेक्ष ज्ञान चारित्र में भी मोक्ष मार्गव माना जा सकता था, जब कि ऐसा नहीं है। सम्यक्त्वरहित झान चारित्र वास्तव में
और मुख्यतया मोक्षके कारण नहीं है । तथा सम्यक्त्वके विना ज्ञान चारित्र नहीं रहा करते। क्योंकि वे ज्ञान और चारित्र सम्यक-यथार्थ नहीं रहा करते । परन्तु ज्ञान चारित्रके बिना भी सम्यक्त्व पाया जाता है। क्योंकि केवल ज्ञान तथा श्रुतकेवलके न रहनेपर एवं यथाख्यात अथवा क्षपक श्रेणिगत चारित्र की अनुपस्थितिमें यद्वा मुनि श्रावकके प्रत चारित्रके न रहते हुए भी सम्यक्त्व ही नहीं क्षायिक सम्क्त्व भी पाया जाता है। इस तरहसे सम्यग्दर्शनकी प्रथम वर्षनीयताके विषय में किये गये प्रश्न उत्तर रूप में कही गई इस कारिकाकी असाधारण प्रयोजनवत्ता स्पष्ट होजाती है।
शब्दोंका सामान्य-विशेषार्थ
दर्शन—यह शब्द कारिकामें दो बार आया है। दोनों ही जगह इसका अर्थ सम्यक्त्व है। इसका निरूक्त्यर्थ पहले बताया जा चुका है। यद्यपि कारिकामें दोवार प्रयुक्त इस शब्दका अर्थ एक ही है । किन्तु दोनों के पद भिन्न २ हैं। पहला दर्शन शब्द क कारकपद की जगह प्रयुक्त हुआ है और दूसरा कर्म कारकपदके स्थानपर । कर्ता और कर्म कारकका अर्थ सर्वविदित है। "स्वतन्त्रः का? अथवा यः करोति स करि "और" यत् क्रियते३ तत्कर्म" अर्थात् जो क्रिया
१-सिक कौ० । २-३-कातन्त्र सू० १४, १२ १०२-४।
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रस्नकरण्श्रावकाचार का करनेवाला है और उस क्रिया करने में स्वतन्त्र है उसको कर्चा कहते हैं और कर्चा के द्वारा जो किया जाय अथवा कर्ताक द्वारा जिसमें क्रिया की जाय, यद्वा क्रियाका फल जिसमें रहे उसको कहते हैं कर्म । श्लोकमें पूर्वार्ध और उत्तरार्थके दो भिन्न २ पद है । दोनोंकी क्रियाएं भिन्न २ हैं। पूर्वार्धका दर्शनशब्दउपाश्नुते क्रियाका क पद है । जिसका कर्म है "साथिमानम्" मतलब यह कि दर्शन–सम्यग्दर्शन साधिमाको निकट रहकर भी सबसे प्रथम और विशेषरूपसे व्यास करता है।
ज्ञानचारित्रात्--यहांपर ज्ञान और चारित्र शब्दका समाहार द्वन्द्व समास हुया है। शान च चारित्रं च तयोः समाहारः तस्मात् । मतलब यह कि ज्ञान और चारित्र दोनोंसे, अथवा दोनोंकी।
साथिमानम्-~-साधु शब्दसे भाव अर्थमें इमम् प्रत्यय होकर यह शब्द बना है। और कर्म कारक होनेके कारण द्वितीया विभक्तीका इसमें प्रयोग हुआ है। साधयति इति साधुः, तस्य भावः साथिमा, तम् । अर्थात् साधुता | यह निरुक्त्यर्थ है । कोषके अनुसार इस शब्दके अनेक अर्थ होते हैं । कुलीन, सुन्दर, मनोहर, उचित, मुनि, जिनदेव, वीतराग, व्यापारी आदि । यहांपर इस शब्दसे समीचीनता-सुन्दरता, उत्कृष्टता और उपादेयता अर्थ ग्रहण करना चाहिये । मतलब यह कि सम्यग्दर्शन इन समीचीनता आदिको ज्ञान चारित्रकी अपेक्षा पहले और प्रधानतया प्राप्त या व्याप्त करता है।
उपाश्नुते--- उप उपसर्गपूर्वक स्वादिगणकी व्याप्त्यर्थक अश धातु के वर्तमान काल अन्य पुरुष एक वचनका यह प्रयोग है । जिसका अर्थ होता है कि समीप पहुंचकर व्यास करता है। क्योंकि सम्यग्दर्शन सबसे प्रथम समीचीनताके पास पहुँचता है और वह उसको व्याप्त करता है। ज्ञान चारित्रमें जो समीचीनता पाई जाती है वह तो दर्शनकी समीचीनताको अनयायिनी अनुसरण करनेवाली है साथही वह व्याप्य है । दर्शनकी समीचीनता व्यापक है । और वह झानचारित्रकी समीचीनताका अनुसरण नहीं करती, उसपर वह जीवित नहीं रहती. वह स्वतन्त्र है। यह बात भी यहां ध्यानमें रहनी चाहिये कि दर्शनकी समीचीनता जो ज्ञान चारित्रकी समीचीनताको व्याप्त करती है उसमें तीन विषय सम्बन्धित हैं.-उत्पत्ति प्रधानता और उपादेयता । इन्ही तीनों विषयोंको दृष्टिमें रखकर स्वयं ग्रन्थकार इस पद्यक अनन्तर ही क्रमसे तीन कारिकाओं के द्वारा स्पष्ट करेंगे अतएव यहां अधिक लिखनेकी आवश्यकता नहीं है।
दर्शन- उत्तरार्थके प्रारम्भमें आये हुये इस शब्दके विषयमें ऊपर कहा जा चुका है कि यह कर्म कारकके रूपमें प्रयुक्त हुआ है। यह भी कहा जा चुका है कि दोनों दर्शन शन्दोंका अर्थ एक ही है। फिर भी इसका प्रयोग किस अभिप्रायसे किया है यह समझने के लिये दूसरे सम्बन्धित शब्द तत् और कर्णधार तथा कारिका में प्रयुक्त न होने के कारण आक्षिप्यमान कर्तृपद "गणधरादय प्राचार्या:" को साथमें रखकर प्रकरण और क्रिया काचक शब्दों मोघमार्गे और प्रपातेको मी साथ रखना चाहिये।
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चन्द्रिका टीका इकतीसो रलोक कर्णधार-जिसके द्वारा नाय चलाई जाती हैं उस लकडीको कई कहते हैं । उस खाडीको हाथमें लेकर चलानेवाले-नाव खेनेवाले मल्हाको कहते हैं कश्धार । यहाँपर इस शब्दका प्रयोग दर्शनकी विशिष्टता बताने के लिये—अंवक्तव्य दरीनां बिसी हुई विशेषताको किसी प्रकार अभिव्यक्त करनेके लिये उपमा या दृष्टान्त रूपमें किया सभा है। इस शब्दसे दत्तकी योग्यता भी प्रकट होती है । फलतः प्राचार्य महाराज इस के प्रपोगसे यताना चाहते हैं कि मोक्षमार्गमें दर्शन-सम्यग्दर्शन ज्ञानचारित्रका नेता है। ___ सत्-शब्द सर्वनाम है इसका प्रयोग पहले उल्लिखित या अधिन मंत्र के बदलेमें हुआ परता है। अतएव पूर्वपरामशी भी है। यहापर पूवार्धकी आदिमें कल पदरुपाय हुय दर्शनके बदले में यह प्रयुक्त हुआ है । तत् भार यत्का नित्य सम्बन्ध है। इसीलिये इनमेस किसी भी एक शम्दका प्रयोग होनेपर दूसरे शब्दका भी प्रयोग समझ लेना चाहिये। और यथारपान उसका सम्बन्ध जोडकर अर्थ करना चाहिये ।
मोक्षमार्ग—इसका अर्थ आस्मा से समस्त पर पदार्थ-द्रव्यकर्म भाला और नोकर्मकी पूर्णत गा विनिवृधि होजानेका असाधारण आय होता है । जो कि सर्गा मामय बताया गया है और तरतमरूप भवस्थाओंके अनुसार अनेक प्रकारका है । किन्तु मर जो सामान्य वर्ष यताया गया है वह यथायोग्य सभी अवस्थाओंमें घटित होता है। ..
अवश्यते--अदादिगण की व्यक्त वचनार्थक चच् धातुका अपूर्वक वर्तमान कालके अन्य पुरुषके बहुवचनका यह क्रियापद है। जिसका अर्थ यह होता है कि "अच्छी तरहसे स्पष्टतया कहते हैं ।" इसके कई पदका पचमें प्रयोग नहीं किया गया है । अतएप आचाची गणथरदेवाः, जिनेश्वराः, सरीखा कोई भी कई पद स्वयं ही यहां जोडलेना चाहिये असामि र पहागया है।
इन समी शयोंके अर्थपर दृष्टि रखकर कारिकाका अन्वयपूर्वक अर्थ साहसे करना और समझलेना चाहिये
यत् दर्शन (क) बानचारित्रात् साधिमानम् उपारनुने, गणधर नासात दर्शने (कर्म) मोधमार्गे कर्णवारं प्रचक्षते ॥ अर्थात्-जो दर्शन शानचारित्रको अपना सालको प्रथम प्राप्त परता और व्याप्त करता है गणवरदेव उमको “यह मोक्षमार्गमें कर्णधार है"एशा स्पष्ट कहते हैं।
यहां यह बात भी जान लेनेकी है कि "प्रचक्षत" क्रियापद द्विकर्मा है। इसलिये दर्शन और कर्णधारं ये दोनों ही पद उसके कर्म हैं। जहां पर दो कर्म हुआ करते है वहां प्रायः दोसे एक गौण और एक मुख्य हुआ करता है। परन्तु दोनों से कौन गीण और कौन मुख्य माना जाप यह वात विवषा-वक्ताकी इच्छा या उसके अभिप्राय पर निर्भर है। उदाहरनाथ "अना ग्राम नपत्ति" यहाँपर कदाचित् अजा-बकरी भी शुख्य कर्म बन सकता है तो कमी प्राम भी मुरूप कर्मो सकता है। गांवको जाता हुआ देवदह अपने साथ किसको देजा रहा है। इस प्रश्नके
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उधरम करा मुरुप कम होगी । और चकरी को लेकर जानेवाला यज्ञदर खेत पर पसार पर या कहां जा रहा है। इसके उपर गांव मुख्य कर्म हो जायेगा। इसके सिवाय कदाचित् प्रकार कारकको कर्म कारक बनाये जाने पर बह गौण कर्म और दूसरा मुल्य कर्म माना जाता है। यहां पर दर्शन गौण कर्म है और कर्णधार मुल्य कम है। क्योंकि जिस तरह पूर्वार्धमें दर्शनको कर्ता बनाकर माधुवाकी प्रामि एवं व्याप्तिकी दृष्टि से उसकी स्वतन्त्रता एवं मुख्यता दिखाई गई है उसी प्रकार उत्तरार्थमें प्राचार्य उसी पूर्णिमें कासे प्रयुक्त दर्शनको कर्म बनाकर उसीमें उसीकी छिपी हुई असाधारण योग्यताको कर्याधार कहकर कर्णधारताका वियान करना चाहते हैं। इस तरहसे उद्देश्य होनेसे दर्शन मौण, धेिय नेके कारण कर्णधार-कधिारता मुख्य कर्म होजाता है। क्योंकि दर्शनमें पाई जानेवाली कर्णधारताको ही यहाँपर अच्छी तरहसे मुख्यतया अभिव्यक्त करके बताना अभीष्ट है । जिससे यह मालुम हो सके कि शाननारित्रकी साताका नेतृत्व करने कर्णाधार बनने की योग्यता दर्शनमें ही है। ज्ञान चारित्रकी साधुवा दर्शनको साधुताका मनहरणमा किया का है, इसका महत्व करनेमें सथा असमर्थ है।
तात्पर्य यह है कि पापर सम्पग्दर्शनकी प्रथम वर्णनीयताके सम्मन्धमें जो प्रश्न उपस्थित हुआ था उसके उखरमें आचागने इस कारिका द्वारा युक्तिपूर्णक यह स्पष्ट करके बता दिया। कि मोक्षमार्गमें सम्यग्दर्शनकी प्रथनता क्यों है ? संक्षेपमें हम कारिकाका आशय यह है किमात्माका दर्शन नामका एक ऐसा गुण धर्म या स्वभाव है जो कि सामान्यतया सम्पूर्ण शिण्डरूप मात्मद्रव्यको और उसके सभी गुणों और परिणमनों को व्याप्त करता है इसलिये ज्ञान और चारित्र भी उसकी व्याप्तिसे रहित नहीं है । फिरभी यहां इन दोनांका ही नाम जो लिगा गया है उसका कारण यह है कि माक्षमार्गमें ये दोनों ही उसके लिये सहपती होकर भी अन्य गुगाथोकी सापेवा सबसे धिक उपयोगी है। इस तरहसे मोक्षमार्गकी सिद्धि में तीनोंका साहचर्य। फिर भी तीन सम्यग्दर्शन ही प्रधान है। जिस तरह किसी राज्यके साधनमें यधपि राजा मंत्री और सेनापति तानो ही सहचारी हैं-मिलकर उसका संचालन करते हैं फिर भी स्वतन्त्र और नेतृत्वकै कारण उनम रामाको ही मुख्य माना जाता है। मंत्री बुद्धिमलसे उचित अनुचितको प्रकाहित करके धार सेनापति शत्र मोका विध्वंस करके राजाकी प्राज्ञाका पालन करानमें सहायक हना करते हैं, उसी प्रकार दर्शन और ज्ञान चारित्रक विषय समझना चाहिये । दर्शन राजा, प्रान मंत्री और चारित्र मनापति है। मंत्री और सेनापति जिस तरह राजाकी माझाका पालन करन मोर उसके अनुकूल ग्था अनुमार ही प्रवृत्ति किया करते हैं। वे राजाको आज्ञापित नहीं किया करने मौरन राजा ही उनका अनुकरण.या अनुसरण किया करता है। इसीप्रकार शान और चारित्र दशनको आज्ञानुसार चलते हैं और उनीका अनुकरण तथा अनुसरण करते है। परन्तु दर्शन न तो ज्ञान और चारित्रकी पाझामें ही चलता है और न उनका अनुकरण पा अनुसरण हो करता है। स्वतन्त्र है।खी बावको मधिक स्पष्ट करनेलिय प्राचायन साकि
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जमिनका टीका इकौना स्लोक मान शब्दका प्रयोग करके अपेक्षा या अपने रष्टिकोणको भी अमिष्यक्त कर दिया है। जिससे यह मालुन हो सके कि यह पात किस अपेचासे कहीगई है। गेकि स्यावाद सिद्धान्त के अनसार कोई भी वाक्य निरपेक्ष होनेपर अभीष्ट का प्रतिपादन करनमें असमर्थ रहनक कारण भ्यर्ष अथवा अप्रमाण ही माना जाता है। ___ यदि साधिमान शम्दका प्रयोग न किया जाय, केवल "ज्ञानधारिधान उपाश्नुते' इतना ही वाक्य बोलाजाय तो नहीं मालुम हो सकता कि दर्शनमें शान चारित्रसे किस विशेषवाका सिद्ध किया जारहा है अथवा कहा जा सकता है कि स्वतन्त्रताका प्रतिपादन दर्शन में ही की हमी गुण स्वतन्त्र हैं। जिसतरह कोई भी द्रव्य अन्य द्रष्यकी अपेक्षा न रखकर स्वनन्म अपना अस्तित्व रखती है। उमीतरह उसके जितने यनन्त गुण हैं वे भी सप अपने २ स्वरूप स्पनन्न हैं । फिर केवल दर्शनको ही स्वतन्त्र क्यों कहा बाय १.इसतरहके वाक्य कोई भमाधारक प्रयो अन सिद्ध नहीं होता। यही कारण है कि साध्याशको वमानक लिये साधिमान शब्दमा प्रयोग भत्यम्त आवरयक है । क्योंकि बस्तु स्वभावसे केवल नित्य-कूटस्थ अथवा प्रनया अनित्यपरिणामी ही नहीं है। नित्यानिस्थामक है अथवा न साया सामान्य या एकान्तत: विशेषकर ही है। किन्तु सामान्यविशंपानकर है। मतएच पद्यपि सामान्यतया समी गुण स्वतन्त्र हैं फिर भी विशेगापेशास ऐसा नहीं है । विशेषताका प्रतिपादन भेद या परिणामापंच है और इसीलिये यह परापेच हुआ करता है ! दसरेकी अपेक्षाके बिना विशेषता सिद्ध नहीं हो सकती। अतएव किमी विशेषताको जर जहां बताना हो तब वहां उस विशेषता का नाम और वह त्रिसकी अपेचासे विवक्षित हो उस परपदार्थका नामोल्लेख करना भी माश्यक हाजाता है।
साधिमान शब्द अभिप्रायको स्पष्ट कर देता है और शा को निरस करता है। क्योंकि इस शबके प्रयोगसे मालूम होजाना है कि यद्यपि सामान्यतया दर्शन ज्ञान चारित्र समान है फिर भी इनकी साधुवामें बहुत बड़ा अन्तर है सबसे पहली बात तो यह कि अनन्त गुणों से वे तीन ही भास्माके ऐसे गुख है जो कि मिलकर अपने स्वामी प्रास्माको समय संसाराव. स्वासे छुडाकर उचमसुख र अवस्थामें परिवर्तित कर दे सकते हैं। परन्तु इसके लिये सबसे वाले इनको स्वर्ष अपनी २ अनादिकालीन परिणति-चिरपरिचितप्रमान रूप प्रियाका प्रेम बोडकर साधुरा धारण करना आवश्यक है। ऐसा नहीं हो सकता कि ये भीसाधु-मनमचारी पाकर अपने स्वामी प्रसका उद्धार कर सके। यदि ये साधु होजाते हैं वो सभा अनन्त गुणा साधु होजाते हैं और प्रास्मा भी सम्पूर्णतया साधु बन जाता है। फलतः इन तीन गुणाका साधु बनना प्रात्माका साधु बनना है।
भब पिचार यह होता है कि इन तीनोंके साधु बननेका क्या प्रक्रम है । ये तीनों स्वयं पिना किसी की अपेपालिये ही साधु बन जाते हैं या इनको आपने से मिष अन्य किसी की ५-पादपयोपयुकस सू०.in -सामान्यावराषामा वदयो विष: 1400
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रलकरण्डभावकाचार साधु बनने में प्रयाहा करती है । यदि अपेक्षा है तो किमको किसकी अपेण है ? इसीका म्पकरण प्राचार्य ने प्रकृत करिमान गुर्वाध में किया है। तीनों गुणगी साशनसामर्थ्य या योग्यता को देखकर वे उन्हें दो भागों में विभक्त करदेते हैं। वे एक तरफ दर्शनको और दूसरी सुरफ ज्ञान चारित्र को रखते हैं। वे देखते हैं कि ज्ञान और चारित्र अपने स्वामीको उपसुखरूप में परिक्षत करने की भावना और उत्साहसे प्रेरित होकर भले ही प्रथम अवस्थामें काम करते हों और दर्शनको अपने में सहायता या सहकारिताकी आवश्यकताका अनुभवकर उसको भी प्रोत्साहित करते हो या प्रेरणा प्रदान करते हों फिर भी उनमें यह सामर्थ्य श योग्यता नहीं है कि दर्शनकी साधुताकी अपेक्षाको छोडकर वे स्वयं साधु बन जाय ।। वे दर्शनकी साधुना के मुसापेजी है। फात स्मादादविद्यापति महान् ताकि प्राचार्यप्रवर भगवान् समन्तभद्र स्वामी ने आगमतीर्थ रुप वीर समुद्रका मथन कर अविनाभावरूर तरनको हाथमें लेकर लोगोंको पताया कि इन दानो की साधुता में परस्पर क्या अन्तर है । इस कारिकाके पूवार्थ में उसी अन्नापतिया प्रदर्शन किया गया है । विवेकी पाठक इसे देखकर स्वयं समझ सकते हैं कि यह किलप कार है। संक्षेप में उनका स्वरूप यह है कि यदि दर्शन साधु जनजाता है तो ज्ञान चारित भी साधु अवश्य बनजाने है। यदि दर्शन साधुताको धारण नहीं करता तो ज्ञान चारित्र श्रीवास्तवमें साधुतासे परे ही रहते हैं । अतएव इन दोनों की साधुवामें अन्ना
और पतिरेक देलो ही पाये जाते हैं । दर्शनकी साधुता कारणरूप साधन है और मान चारित्र की साधुता कार्परुप साध्य है। साथ ही इनमें सहभाव-साहचर्य और व्याप्यध्यापक भाव मी पापा जावा है और प्रभाव-कार्यकारण भाव भी पाया जाता है। किन्तु यह बात भी ध्यानमें रखनी चाहिये कि शरसाव और क्रमभावमें कोई विरोध नहीं है। साहचर्य और व्याप्यध्यापक भाव तथा कार्यकार भाव परस्पर विरुद्ध नहीं है। कोई यह समझे कि जहा कार्यकारख मार होता है वहाँ ऋभनास ही रह सकता है सहभाव नहीं रह सकता। क्योंकि कारखपूर्वक ही कार्य हुप्रा करता है । सौ वर बात नहीं है । सहभावी पदार्थों में भी कार्यकारणभाव पाया जाता है। जैसे कि दीप और प्रकाशमें । इस बातको अमृत चन्द्र मादि प्राचार्योने अपने पुरुषार्थ सिदधुर आदि ग्रन्थों में मने प्रकार स्पष्ट कर दियार है । इस सब कथनको ध्यान में लेने पर धान चारित्रको साधुलासे दर्शन की साधुवाकी मुख्यता अच्छी तरह समझने आ सकती है। साथ ही यह पास भी ध्यानमें रहनी चाहिये कि जहां कहीं इनमें कार्यकारणभाव बताया गया है वहां उन गुरु
कार्यकारण भाग ३ विपरमें जानना चाइये कि यदावाभावाभ्यां यस्पोत्पत्यनुत्पत्ती तसत्कारणम् । नथा इम विषयको गीतरह समझने के लिये देखो परीक्षामुख भ० ३ सूम नं० १४तथा४२,४३,11
--पृथगारापति पर्शनमहभाविनोऽपि बोपस्य। लक्षणभेन यसोनानात्वं संभवत्यनयो : सभ्यज्ञान कार्य साबळ कारणं वदन्ति जिनाः । सानाराधनमिट सम्पत्यानन्तरं तस्मात् ।।३३।। कारक कार्यविधानमा भयानकोरपि हि । दीपप्रकाशयोरिष सम्यक्त्वज्ञानयोः परम् ॥३४॥ कि.
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चम्किा का रीमा तोक में नहीं किन्तु उनकी समीचीनता में ही बताया गया है। और वह भी मम्गा व्यपदेश मात्रकी अपेक्षासे ही कहा गया है। जैसे कि पुरुषार्थ सिद्ध थुपाय में यह जो वाक्य है कि "सम्यक्स्प के होनेपर ही ज्ञान और चारित होता है," उसका अर्थ यह नहीं है कि जहाँतक सम्यक्त्व नहीं होता वहांतक ज्ञान और चारित्रका अभाव रहता है। तात्पर्य यह है कि तबतक वे असम्यक रहते हैं । दर्शन के सम्यक् बानजाने पर ये भी सम्यक हो जाते हैं। यह सर कथन मोक्षमार्ग में दर्शनके कन्वको; समीचीनताके सम्पादनमें स्वातंत्र्य को
और इसीलिये प्राधान्यको प्रकट करता है। प्राचागने यहां कारिकाके पूर्वाधमें जो यह प्रतिज्ञावाक्य दिया है कि "दर्शनं ज्ञानचारित्रात् माधिमानमुपाश्नुते।" वह इस संक्षिा कथनके सारको परिस्फुट करनेवाला वीजवाक्य है। जिसका अर्थ या आशय यह होता है कि दर्शन यद्यपि ज्ञान चारित्रका सहचारी है फिर भी वह ज्ञान चारित्रकी अपेक्षा साधुना-समीचीनता को व्याप्त करता है। अर्थात् माधन-दर्शनको साधुता साभ्यभूत ज्ञानचारित्रकी साधुताको व्याप्त करती है। इस कथनसे प्रकृत प्रतिभावास्यमें पाये जाने वाले साध्य साधनभाव, व्याय व्यापकभाव, सहचरभाव और कार्यकारणभावके साथ साथ अविनाभावका भी बोथ हो जाता है। क्योंकि इस वाक्यमें जो 'ज्ञानचारित्राव साधिमानम् और उपाश्नुते' पद दिये है वे इन सब भावोंको व्यक कर देते हैं क्योंकि 'उपारनुते' इस क्रिया पदमें प्रयुक्त उप-उपसर्गसे समीपता अधिकता और आरम्भ अर्थ स्फुट होता है और प्रश्नुते क्रिया पदरी ब्याप्य व्यापकभाव मूषित हो जाता है । इस तरहसे प्रकृतकारिकाका यह पूर्वार्ध प्रतिभावाक्य है जिसमें कि 'दर्शन' यह पक्ष और 'झानचारित्रात् साधिमानमुपाश्नुते' यह साध्यपद है. साथ ही यह बीजपद है। जिसमें कि सफर बाया पथके भमान महान अर्थ निहित है । इसी प्रतिक्षाको सिद्ध करने के लिये उत्तरार्धमें हेवर्षका परिशान कराया गया है। जिसके द्वारा कहा गया है कि यह प्रतिज्ञात कथन इसलिये सर्वधा सरल
और युक्तियुक्त है कि भगवान श्रीवर्धमान सर्व देवने इस दर्शनको मोचमार्गमें कर्पधार' नेहरू करनेवाला, बताया है। क्योंकि कर्पधार यह उपमानपद होनेसे अपने समान नेवत्व भई को बताता है।
नेताका अर्थ अपने साथ साथ अन्य अपने नेय भ्यक्तियोंको भी लक्ष्य सिद्धितक खेजाने पाला-मार्गप्रदर्शन करने शला-प्रेरणा प्रदान करने वाला भोर अभीए स्थान तक पहुंचाने पाला होता है। जिस प्रकार नाव और उसमें बैठे हुए पथिकों की एक किनारेसे स्टाकर दूसरे किनारे तक पहुंचानेमें लेजाने में--हवा और पाल आदि भी कारण होते हैं परन्तु उनका नेतृत्व करनेवाज्ञा नाविक यदि न हो तो वे उस नावको कहींसे कहीं लिये २ फिरते रह सकते हैं । इसी प्रकार संसार सहमें इस जीवको एक किनारसे झुटाकर दूसरे किनारे तक लेजानेमें शान और चारित्र भी काम करते हैं फिरभी यदि उनमा नेतृत्त्व करने वाला साधुताको-प्राप्त दर्शन यदि १वनावी अन्यकत्व समपाश्रमणीयमविक्षयत्नेन । तस्मिन् सत्येव यतो भवति नाम परिमं च ।। २१ ॥ पुलिस
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रलकरपरावकाचार उनके साथ न हो तो ये दोनों इस जीव को संसार समुद्र में कहीं के कहीं भी लिये सिये फिरते रह सकते हैं। दर्शनमें ही यह योग्यता है कि वह ठीक ठीक लक्ष्य की सरफ ही स्वयं भी उन्मुख रहता है और उन ज्ञान चारित्र को भी अवस्य की तरफसे हटाकर अपने लक्ष्य की तरफ ही उन्मुख बनाये रखने में प्रेरणा प्रदान करता है और इस तरहसे वह उनमें वास्तविकता साधुना-समीधीनता- लक्ष्योन्मुखनाको उत्पन्न करता, उन पर उचित नियन्त्रण को अपने अधिकारमें स्खकर अपनी व्यापकताको स्थिर रखता और सत्यता-मभीष्ट पदतक ठीक तरह से पहुंचाकर अपने नेइत्वको सफल बनाकर रहता है और अन्त में अपने सामान्य स्वरूप में ही स्थिर रहकर अनन्त कालसफ केलिये विश्रान्ति ले लेता है।
कारण यह है कि स्वभावतः दर्शन सामान्योन्मुख परिधाम है। यह निर्विकम्प शुद अखण्ड कालिक विद्राव्य को ही विषय करता है जबकि ज्ञान का विषय सषिकरप है तथा शुद्ध प्रक्षुख सखण्ड अखण्ड कादाचिरफ त्रैज्ञालिक प्रचित् चित् द्रव्य गुण पर्याय सभी उसके विषय है। पारित्रका विषय स्वोन्मुख या परोन्मुख प्राचि मात्र है। यही कारण है कि ध्रुव एवं परानरपेष अपने सच्चिदानन्दरूप लस्पतक ब्रानचारित्रको भी पहुँचानेमें अथवा निज शुद्ध स्थिर भालसभाव रूप होकर सदा रहने के प्रति लक्ष्यनद बनानेमें दर्शन ही समर्थ हो सकता है।
मात्माकी तरह पानी भी हो ही प्रास्या विवक्षित हैं। मिथ्या और सम्पन्। यति दर्शनकी प्रशुद्ध पद्ध उमय अनुमय रूप चार अवस्थाएं भी मानी है किन्तु वेदो भागों में ही गर्मित हो जाती हैं। अनादिकालसे दर्शन मिथ्या रूपमें ही परिणत है किन्तु अब पर सम्यक
में परिणत होजाम है तभी उसमें वह सामर्थ्य भाती है जो कि ऊपर बवाई मई है। या कारण है कि कत् पदमें सम्पक विशेषण रहित दर्शन पदके रहनेपर भी साधुता-समीचीनताप्रशस्तता धारण करनेके बाद ही उसकी प्रधानता व्यापकता और नेदत्वकी बात विवक्षित है और वहीं यहापर कहीगई है। ऐसा समझलेना चाहिये।
इस तरह इस कारिकाके द्वारा सम्पग्दर्शनकी सहेतुक किंतु स्वाभाविक योग्यताको बताकर इस बासको स्पष्ट करदियागया है कि यद्यपि सम्यग्दर्शन सम्परहान और सम्यकपारित्र तीनों ही धर्म हैं, और तीनों ही मोधके माग हैं-असाधारण उपाय है फिर भी इनमें प्रथम पदपर उपस्थित होनेके योग्य सम्यग्दर्शा ही है। यही कारण है कि यहां सबसे पहले उसीका पर्वन किया गया है।
ऊपर जो कुछ कहा गया है उसके सिवाय पाठक महानुभावोंको इस पथके साहित्यिक रचना सम्बन्धी वैशिट्य पर मा ध्यान देना चाहिय विधार करने पर मालुम हो सकता है कि यह एक चित्र काम्य है। क्यों के प्रथम वतीय परणको मादिमें 'द' और द्वितीय चतुर्व पर भंवमें वे अपर पाता है। फलतः इस श्लोकको आकृति में लिखनेपर भर्षाच, चन्द्र वा सिथिला
KIR माना है।
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पत्रिका तीसवा लोक इसके सिपाय औदार्य समता कान्ति अय व्यक्ति और प्रसन्नता नामके गुण भी इसमें दिखाई पडते है और कालंकार तथा दृष्टान्त और देनु ना अनाना भी मारे जाते ई : व्यतिरेकासंकार मी कहा जा उकता है क्योंकि शानचारित्रकी अपेक्षा दर्शनकी अधिकताका या उत्कृष्टता पादिका यहां प्रतिपादन किया गया है।
ऊपर सम्यग्दर्शनके विषयमें जो कुछ वर्णन कियागया है उससे उसके सम्बन्ध में बीजरूपसे चीन बातें निकलती है १ वह बानचारित्रकी भी समीचीनता प्रादिका जनक है ।२-जीवको मोष तक पहुंचाने के मायनों में मुख्य है, यही जीवको मोक्षमार्गमें स्थित करने वाला है। -मुख्यतया अन्तिम साध्य मोजका असाधारम अन्तरंग फारसा होनेपर भी वह लक्ष्य तक पहुंचनेसे पूर्व अपने विविध सहचारी विभागोंके अपराधवश अनेक असाधारण ऐहिक माम्बुदयिक पदोंका भी निमिव बनता है। इन तीनों ही विषयों को स्पष्ट करनेका अभिप्राय दृप्टिमें रखकर क्रमानुसार सबसे प्रथम प्राचार्य दृष्टान्तपूर्वक पहले विषयका वर्णन एवं समर्थन करते हैं।
विद्यावृत्तस्य संभूतिस्थितिवृद्धिफलोदयाः ।
न सन्त्यसति सम्यक्त्वे वीजाभावे तरोरिव ॥३२॥ अर्थ-जिसतरह बीजके अमावमें पृषकी उत्पचि स्थिति वृद्धि और फलोदय नहीं हो सकते और नहीं होते उसी प्रकार सम्यक्त्वके न रहनेपर विधा-झान और च-चारित्रकी मी उत्पचि स्पिति पति और फलोदय नहीं हुआ करते, और न हो ही सकते हैं। __ प्रयोजन-धर्म अथका मोचमार्ग खत्रयात्मक है, केवल सम्यग्दर्शन म ही नहीं है । किन्तु ऊपर जो कथन किया गया है उससे मोक्षमार्गमें सभ्यग्दर्शन की ही मुल्यता सिद्ध होती है, क्योंकि जान चारित्र की समीचीनता मी उसीकी समीचीनसापर निर्भर है और मोधमार्गमें नेशन्ब मी उसीका है। फलतः शंका हो सकती है कि दर्शनके सम्यक हो जानेपर फिर या दो शानधारित्रका कोई मुख्य स्ववन्त्र कार्यही नहीं रहा अथवा उनके समीचीन होने की भावश्यकता महीं रह जाती है, क्योंकि उनका कोई असाधारण कार्य नहीं है। बोगछ मी मोक्षमार्गमें कत्व है यह यो सम्यग्दर्शन का ही है । इसके सिवाय कदाचित् ऐसा कहा जाय कि दर्शनके साथ साथ पवपना में शानधारित्रभी सम्मिलित हो जाते हैं इसलिये शानचारित्रकी समीचीनता अनावश्यक सिद्ध नहीं होती है तो यहभी ठीक नहीं है, क्योंकि 'ज्ञानाचारित्रात्' इसमें समाहार इन्द्र समासर साया गया है और यामी ठीक है कि हेत्वर्थ में पंचभी रताकर कहा जा सकता है कि दर्शनकी समीचीनता पानचारित्र पर निर्भर है। ज्ञान भास्त्रिरूप हेतुके बिना दर्शनसम्पदर्शन नहीं बन सकता परन्तु भागममें दर्शनके समीचीन हुए बिना शानको प्रधान या ज्ञान ही कहा है इसीलिये चारित्र को प्रचारित्र या कुचारित्र ही गाना है । मलतः
१-नामचारिणादर्शनमिवि पान, साधिमानमुपालते इति मागनदर्शनं साबमा सार सावे इति एवात्सर । २ का मामय बवाया कापा:
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लकारडभाषकाचार
दर्शनके समीचीन हुए बिना ज्ञान चारित्र अप्रयोजनीभूत अथवा मोक्षमागमें भकिंचित्करही सिर होते हैं। सो क्या ऐसाही है ? सत्य है-आगममे ऐसा ही कहा है माना है और यह ठीक है। परन्तु इसका श्राशय या नहीं है जिदान में समीचीनताके उत्पन्न करने में ज्ञान और चारित्र शास्तबमें सम्पक विशेषण से रहित होकर भी कारण रूप हेतु ही नहीं है सर्वथा अप्रयोजनीभूत अकिंचिकर ही हैं। "तनिसर्गादधिगमाद्वा", यहां पर हेत्वर्थ में ही आगममें पंचमीका निर्देश किया है। जिसका अर्थ यह होता है कि सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति अर्थात् दर्शनमें समीचीनताकी उत्पत्तिके निसर्ग और अधिगम ये दो हेतु है। इससे सिद्ध है कि अधिगम दर्शनमें समीचीनताकी पत्पचिका हेतु अवश्य है और अधिगमका अर्थ जान ही है।
प्रश्न-दो हेतुओं में एक निसर्ग भी हेतु है। निसर्गका अर्थ स्वभाव है । इसलिये सग्गग्दर्शनको इस्पत्ति में अधिगम ही हेतु माना जाय यह नियम तो नहीं बनता। स्वभाव से ही अर्थात् विना किसी हेतुके ही अपने भाप भी दर्शन सम्यक बन सकता है। अतएव ऐसा क्यों न माना जाय कि अनादिकालीन मिथ्यारष्टीको सबसे पहले जो सम्यग्दर्शन होता है वह स्वभावसे ही होता है। उसके बाद ज्ञानचारित्र सम्यक बन जाने पर मोक्षमार्ग में उसके सहायक होजाया करते है।
उचर-ऐसा नहीं है। निसर्गका भाशय अधिगमकी गौचना बताना है। अधिगमकी कारसताके निषेध करनेका उसका प्राशय नहीं है । जिस तरह कन्याको अनुदरा कहनेका भभिप्राय सनषा पेटका नहीं रहना बताना नहीं होता केवल गर्मभारको धारणकरने में उसकी असमर्थता
साना ही होता है उसी प्रकार जहां दर्शन को सम्यक् बनानेमें अधिगम मुख्यतया काम नहीं करता-उसकी साधारण निरपेक्ष प्रास्थासे ही वह कार्य होजाता है यहां निसर्गशम्दका प्रयोग होता है।
प्रश्न-यह कथन आप किस आधारसे करते हैं। निसर्गका स्वभाव अर्थ तो जगत् प्रसिद्ध है
उचर-ठीक है। परन्तु किसी भी शब्द या वाक्य का अर्थ प्रागम के अनुसार अथवा जिसमें उससे विरोथ न आवे इस तरहसे ही करना उचित है । प्राचीन प्राचार्योंने निसर्ग और अधिगमका अर्थ अन्य प्रयत्न और अनल्प प्रयत्न ही बताया है। जहां यह विशेष प्रयत्न किये बिना साधारण उपदेशस ही तत्वार्थ श्रद्धान हो जाता है वहां निसर्गज सम्यग्दर्शन माना जाता है।और नहां अनेक तरहसे और बार बार तवार्थका श्रद्धान कराने केलिये उपदेशादिक दिये मानेपर या समझाये जानेपर सम्यग्दर्शन होता है तो यहां अधिगमन सम्यग्दर्शन कहा जाता है। इतना ही दोनों में अन्तर है। इसलिये निसर्गज सम्यग्दर्शनमें वचोपदेश और तज्जन्य
(१) तसार्थसूत्र ।।१।२ निसर्गः स्वभाव इत्यर्थः । अधिगमोऽर्थावबोधः । तपाईतुत्वन निर्देशः । स्पा: १ क्रियायाः । का च किया । उपद्यते इत्यध्याहियते सोपस्कारवान् सूत्राणां । तदेतत् सम्यग्दर्शन निसर्गादपिगमाद वा उत्पपसे इति । स सि० (२) निसर्गोऽधिामो वापि तदाप्ती कारणवयं । सम्यक्रमपारमा यस्मादसानस्सायामः । यतिलकपमा
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बांद्रका टीका बत्तासा-शोक बोध हेतु ही नहीं है, यह समझना ठीक नहीं हैं। श्रीसोमदेव सूरी आदिन यशस्विलकादिमें ऐसा ही बताया है।
बात यह है कि देशनालब्धि कारण है, करण नहीं है। जो समथं कारण होता है उसको करख कहते हैं । जिसके होनेपर नियमसे कार्यकी उत्पत्ति उसी समय हो जाय उसको समर्थ कारण या करण कहते हैं । कारण उसको कहते हैं कि जिसके बिना कार्य न हो । किन्तु इसका अर्थ यह नहीं है कि उसके मिलने पर नियमसे और उसी समय काय ही ही जाय । क्योंकि वह करण-समर्थ कारण नहीं है। कारण है-दूसरे अन्तरंग बहिरंग सहायकोंके साहचर्यके बिना असमर्थ है, मिलनेपर कार्य करता है । सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति में पांच लब्धियों हेतु है ऐसा आगम२ है। इनमें से चार कारण हैं और एक करण हैं। यही कारण है कि उन चार कारण रूप लब्धियोंके मिल जानेपर भी करणके विना सम्यग्दर्शनरूप कार्ग उत्पन्न नहीं होता। किन्तु इसका अर्थ यह नहीं है कि उन चार लब्धियोंके बिना भी कार्य हो जाता है । क्ष्योपश विशुद्धि श्रादि लब्धियां तो न हों और केवल करण लब्धि होकर उसीसे सम्यक्त्वोत्पत्ति हो जाय ऐसा नहीं हो सकता और न ऐसा होता ही है। यदि बिना देशनालब्धिके भी कार्य हो जाता है तो उसको कारण कहना ही व्यर्थ है। क्योंकि कारण कहते ही उसको है कि जिसके होनेपर कार्य हो और न होनेपर न हो । अन्वयव्यतिरेकके द्वारा ही कार्य कारणभाव माना जा सकता है। इसलिये यह निश्चित है कि सम्यक्त्व की उत्पत्तिमें देशना और तन्जन्य बोध भी कारर है। उसके बिना उसकी उत्पत्ति नहीं हो सकती। किन्तु यह ठीक है कि केवल देशना सामान्य कारणके मिलते ही संम्यग्दर्शन हो जाय अथवा उसके मिलनपर नियमसे सम्यग्दर्शन हो ही जाय यह नियम नहीं है।
१-एतदुक्तं भवति–कस्यधिदासमभन्यस्य तनिदानद्रव्यक्षेत्रकालभावभषसंपत्सेव्यस्य विधूतसत्प्रतिबन्धकान्धकारसम्बन्धरयाक्षिप्तशिक्षाकियालापनिपुणकरणानुपन्धस्य नवस्म भाजनस्येवासंजातदुर्वासनागन्धस्य झारति यायस्थितवस्तुरूपसंक्रन्तिहेतुतया स्फाटिकर्माणदर्पणतगन्धस्य पूर्वभवसंभालनेन या वेवनानुभवनेन वा धर्मश्रवणाकरणनेन वाहत्प्रतिनिधिध्यानेन वा महामहोत्सवनिहालानेन वा मइदिप्राप्ताचार्यवाईनन वा नृथु नाकिछु वा तम्माहात्म्यसंभूतविभवसंभावनेन धाऽन्येन वा केनचित्कारणमात्रेण विचारकान्तारेषु मनाविहारास्पदं खेदमनापद्य यदा जीवादिषु पदार्थषु याथात्म्यसमवधानश्रद्धानं भवति तदा प्रयोक्त: सुकरक्रियत्वाल्लूयन्ते शालयः स्वयमेव विनीयन्ते कुशलाशयाः स्वयमेवत्यादिवत् तनिसर्गासंजासमित्यच्यते।यदा वष्यत्पत्तिमंशातिविपर्यस्तिसमधिकबाधस्थाधिमक्तियक्तिसक्तिसम्बन्धसविधस्य प्रमाणनयनिक्षेपानुयोगोपयोगावगाह्य षु परीक्षोपक्षपादांत क्लिनिःशेषदुराशाविनाशांशुमन्मरी चरिधरण तस्वः बधिः संजायते तदा विधातुरायासहेतुत्वान्मया निर्मापिनोऽयं सूत्रानुसारो मयेदं संपादित रत्नरचनाधिकरणामाभरणमित्यादिवत तदधिगमादाविभूतमित्युच्यते । उक्त प
अबुद्धिपूर्वापेक्षायामिष्टानिष्ट स्वदेवतः । युद्धिपूर्वकाक्षायामिधानिष्ट' स्वपौरुषात् ।। २--सपावसमिप विसोही देसणपाओग्ग करणालादी । पचारि पि सामएणं करणं पुग होवि सम्मले ।
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रतकरगडावकाचार प्रश्न—कारणके अनुसार कार्य हुआ करता है, यह निगम है । फिर क्या असमीचीन कारणसे समीचीन कार्य हो सकता है ?
उत्तर--कारणके अनुसार कार्य होता है, यह सो ठीक है, किन्तु सभीचीनसे ही समीचीन और असमीचीनसे असमीचीन ही उत्पन हो, यह नियम ठीक नहीं है। अन्यथा अशुद्ध असमीचीन संसारावस्थासे शुद्ध समीधीन सिद्धायस्थाका उत्पन्न होना ही असिद्ध एवं असम्भय हो जायगा । अतएव यह ठीक है कि योग्य कारणसे उसके योग्य कार्या उत्पन्न होता है। इसलिये किसी भी विपक्षित या अभीष्ट कार्यके लिये तद्योग्य कारण आवश्यक है, दर्शनमें समीचीमता रूप कार्य के लिये भी उसके योग्य ज्ञानचारित्र की आवश्यकता है। यदि ऐसा न माना जायगा तो उसके लिये किसी भी तरह के नियमकी पावश्यकता ही नहीं रह जाता है। चाहे जब चाहे जहाँ चाहे किसीभी अवस्थावाले जीवके सम्पग्दर्शन हो सकता है, ऐमा कहना होगा। किन्तु ऐसा नहीं है हलिये दर्शय में समानता की उत्पचिकालये जिस तरह के ज्ञानचारित्रकी आवश्यकता है उसके लिये यह मानना ही उचित है कि उनके मिलने पर दर्शन सम्यग्दर्शन बन सकता है।
प्रश्न--ऐसा ही है तो सम्यग्दर्शन की मुख्यता यताना व्यर्थ है क्योंकि इस कथनसे तो ज्ञानधारित्र की मुख्यता सिद्ध होती है।
उत्तर--नहीं। गौणमुख्यता सापेक्ष हुमा करती है जिस कार्य को जो अपेक्षित है वह उस कार्यमें मुख्य माना जाता है । मोक्षमार्गरूप कार्य की सिद्धिर्म सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान सस्यक चारित्र नीनोंकी अपेक्षा है। अतएव उसमें तीनोंकी ही मुल्यता है।
दर्शन ज्ञान चारित्र तीनों ही आत्माके स्वतन्त्र गुण हैं। और ये आत्मासे अभिन्न हैं, अनाघनन्त हैं, तथा परिणामी हैं। ऊपर यह बात भी कही जा चुकी है कि यद्यपि सभी द्रव्यों की तरह प्रारमा भी अनन्त गुणोंका अखण्ड पिंड है परन्तु उनमें से इन तीनका ही उल्लेख इसलिये किया गया है कि मोक्षमार्गरूप कार्य की सिद्धिमें ये ही तीन सबसे अधिक उपयोगी--असाधारण साधन है। प्रात्माकी दो ही अवस्थायें हैं—संसार और मुक्त । अनादिकालसे ये तीनों गुण संसार अवस्थाके कारण बने हुये हैं। और जबतक वे उसीके साधन रहेंगे तबतक उसको मिथ्या ही कहा जयगा । किन्तु जब वे ही संसारके विरोधी हो जाते है तब सत्-प्रशस्त समीचीन शब्दसे कहे जाते हैं । इसलिये यह बात स्पष्ट है कि इनके माथ सम्यक विशेषणके लगनेका अथवा इनको सत् शब्दके द्वारा कहे जानेका कारण आत्माको संसार परिषतिपरम्परा की तरफसे मोडकर शुद्ध स्वाधीन ध्रुव भानन्दरूप अवस्था परिणत एवं स्थित करने की योग्यता तीनोंमें ही है। तीनों ही समीचीन होकर समान रूपसे प्रात्मा की सिद्धि में साधन हैं फिर भी इनमें जो पारस्परिक अन्तर है वह भी यहां विस्मरणीय नदी, ध्यान देने योग्य है । और यह यह कि जिस तरइसे दर्शनको सम्यग्दर्शन बनानेवाले ज्ञान चारित्र हैं उसी प्रकार सम्यग्दर्शन का भी यह महान प्रयपकार है कि अपने साथ ही यह मान चारित्रको भी सम्यक बना लेता है।
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धन्द्रिा टीमनीसा श्लोक इस महान प्रत्युपकारके कारण ही सम्यग्दर्शनकी महत्ता एवं मुख्यताका ख्यापन किया गया है। इसका अर्थ यह नहीं है कि सम्यक विशेषणसे रहित होकर शानचारित्र दर्शनको सम्यग्दर्शन पनानेमें हेतु नही है। यद्यपि यह ठीक है कि श्री १००८ श्रादिनमा भगवान कृषभेश्वरने जन्म लेकर अपने माता पिताको त्रिलोकपूज्य और नियम् से परम निःश्रेयस पदकी प्राप्ति केलिये सर्वथा योग्य बना दिया । किन्तु यह बात भी नो उतनी ही सर्वथा सत्य है कि वे मरदेवी एवं नाभिराय ही उनके जनक है। विवाह करने पर सन्तान उत्पन होती ही है, यह नियम नहीं है, फिर भी विवाह--पतिपत्नी संयोगके विना सन्तानोत्पत्ति नहीं होती, यह नियम है। जिसके विना कार्य न हो यह कारण का अर्थ ऊपर बताया जा चुका है। दर्शन को सम्यक मनानेमें बान चारित्र कारण हैं और शान चारित्र को सम्यक बनाने में सम्यग्दर्शन करण है। यही दोनों की योग्यतामें विशेषना है और महान अन्तर है।
प्रश्न-ज्ञान चारित्र, दर्शनको समीचीन पनाने असमर्थ कारण हैं, और सम्यग्दर्शन मान चारित्र को समीचीन बनानम समर्थ कारण है। इससे सामोधमाम सम्यग्दर्शनकी ही उपयोगिता सिद्ध होती है। ज्ञान चारिन की कोई भावश्यकता ही नहीं रह जाती। अथवा उनके समीचीन होने की भी क्या श्रावश्यकता है ? यदि दर्शन सम्यग्दर्शन बन जाता है तो ज्ञान चारित्र समीचीन न भी हों तो क्या हानि होगी?
उत्तर-इस प्रश्न का उत्तर देना ही इस कारिकाका मुख्य प्रयोजन है। क्योंकि याचार्य पताना चाहते है कि यदि दर्शन सम्पक भी हो जाय, परन्तु ज्ञान चारित्र यदि सभ्यक न हों को मोक्षमार्ग सिद्ध नहीं हो सकता। आत्मा संसार पर्याय को छोडकर सिद्ध अवस्था को प्राप्त नहीं हो सकता । क्योंकि वास्तवमें सम्यग्दर्शनके पूर्ण हो जानेपर भी ज्ञान चारित्रकी समीचीनता और पूर्णता का होजाना मोक्षमार्गके समर्थ बनने में शेष रह जाता है। जबतक ये दोनों सम्यक होकर भी पूर्ण नहीं हो जाते तबतक यर्म-मोक्ष मार्ग भी अपूर्ण-अधूरा- असमर्थ ही रहा करता है। पदि सम्यग्दर्शन ही मौकेलिये पर्याप्त कारण हो सो न केवल १४ गुणस्थान ही व्यर्थ हो जायंगे, मोक्षमार्गकी प्ररूपणा भी प्रसिद्ध हो जायगी। जिस तरह जीयके दो भेद हैं, एक संसारी और दूसरा मुक्त । उसी तरह उन दोनों अवस्थाओं की सिद्धि केलिये उपाय भी दो ही पर्याप्त माने जा सकगे; एक मिध्यात्व और दसरा सम्यक्त्व । और सदनुसार दो ही गुपस्थान भी उचित , जा सकेंगे, मियादृष्टि और सम्यग्दृष्टि । इसके सिवाय शायिक सम्यग्दर्शन के पूर्ण होते ही तत्काल मोच भी हो जायगी। किन्तु ऐसा नहीं है । सम्यग्दर्शनके पूर्ण हो जानेपर भी सम्यग्ज्ञान और सम्पक चारित्र की आवश्यकता रहती है। यही कारण है कि इन तीनों में से पूर्वक पूर्ण हो जान
१-१६६ पदवीधर जीय नियमसे मोक्ष प्रान किया करते हैं। तीर्थकर २४, पावती १२, नारायण ३, प्रति नारायण , बलभद्र, तीर्थपरों के माता और पिन, कामदेव २४ सर १५, न्द्र ११, नारद - ॥
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रत्नकरण्ड श्रावकाचार पर भी उत्तर की भजनीयता और मोक्षरूप कार्य की सिद्धि में तीनों ही की क्रमसे पूर्णता का होना एवं तीनों की सम्पूर्णतामें ही समर्थ कारणतारे का प्राचार्योंने प्रतिपादन किया है।
अतएव सम्यग्दर्शनकी नरह सम्यग्ज्ञान और सम्यक चारित्रकी भी अत्यावश्यकताको स्पष्ट करना इस कारिकाका मुख्य एवं प्रथम प्रयोजन है। इसके सिवाय ऊपरको कारिकामें दिखाये मये हेतु-हेतुमद्भाव या साध्य साधन भावमें व्याप्ति का निश्चय कराना भी इस कारिका का प्रयोजन है। क्योंकि उक्त कारिकामें जिस साध्य और हेतु-साधनका उल्लेख किया गया है उसके अविनाभावका बोध-निश्चय करानेकेलिये विषक्षमें बाधक बल दिखाना भी आवश्यक है। क्योंकि जबतक यह निश्चित न हो जाय कि साध्यके प्रभाव भी हेतुके रहनेपर अमुक आपत्ति है तबतक व्याप्तिको निश्चिात नहीं माना जा सकता । उदाहरणार्थ-अग्निके साथ धूमकी व्याप्ति है। यहाँपर साध्यभूत अग्निके अभावमें भी यदि धूम हेतु रह सके तो इनकी व्याप्ति ठीक नहीं मानी जा सकती | और वह अपने साध्यका ज्ञान कराने वाला यथार्थ साधन भी नहीं माना जा सकता और न उसके द्वारा साध्यका ज्ञान ही यथार्थ माना जा सकता है। किन्तु ऐसा नहीं है क्योंकि इनकी व्याप्ति के विपक्ष में अग्निके अभावमें भी धूमके रहने पर कार्यकारणभावक भंग का प्रसंग बाधक है। कारण यह है कि धूम और अग्निमें कार्यकारणभाव है । अग्नि कारण है और धूम उसका कार्य है। यह एक सामान्य नियम है कि कारणसे ही कार्य उत्पन्न हुआ करता है। फलतः अग्निरूप कारणके विना भी यदि धूमरूप कार्य पाया जा सकेगा या माना जा सकेगा तो कार्यकारणभावके सामान्य नियमका भंग हो जाता है। यह भी मानना पड़ेगा कि विना कारण के भी कार्य हो सकता है। परन्तु ऐसा होता नहीं, हो भी नहीं सकता। इसीलिये धमकी अग्निके साथ व्याप्ति निश्चित मानी जाती है और कभी भी कहीं भी धूमको देखकर जो अग्नि नशान होता है या कराया जाता है तो वह सत्य-प्रमाणरूप ही माना जाता है। इसी प्रकार प्रकृतमें भी यह बताना आवश्यक है कि साध्यके अभावमें हेतुके रहनेपर क्या आपत्ति है-हेतु रहे और साध्य न हो तो क्या बाधा है ? इस वाथाको स्पष्ट कर देना इस कारिका का प्रयोजन है। क्योंकि दर्शनके सम्यक् हुए विना ज्ञान चारिश भी सम्यक होते नहीं और हो भी नहीं सकते
१-एषां पूर्वस्य लाभे भजनीयमुत्तरम् ॥२८॥ उतरलाभे तु नियतः पूर्वलाभः ||२६॥ राजवा० अध्याय १ आ०२।
२-तषां पूर्वस्य लाभेऽपि भाज्यत्वादुत्तरस्य च । नैकान्तेनैकत्ता युक्ता इषांमर्थादिभेदवत् ॥६॥
तस्वश्रद्धानलाभे हि विशिष्टं अतमाप्यते । नावश्यं नापि तल्लामे यथास्न्यातममोहकम् ॥६॥ लोकवा अ० १ सू०१। इसके सिवाय देखो रखोकवार्तिक ०१०१ वार्तिक ६७ से १२ और उनका भाष्य तथा--
रत्नवितयरूपेमायोगकेवलिनोऽन्तिमे । भणे विवर्तते सतववाष्य निश्चितानयात् ॥४॥
३-विपचे मापाप्रमाणबलात्खलु हेतुसाध्ययोयाप्तिनिश्चयः, ज्याप्तिनिश्चयतः सइभावः क्रमः भाषो का, समभाव नियमोऽधिनाभाव इति वचनात् न्या. दी० । ४ स्वानुमान ५ परार्थानुमान।
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चन्द्रिका टोका बचीसा श्लोक सथा ऐमा हुए विना मोक्षमार्ग प्रवृत्त नहीं हो सकता यह बात ऊपरकी कारिका में यद्यपि सूचित कर दी गई है फिरभी ग्रन्थकाने यह बात अभी तक स्पष्ट नहीं की है कि सम्यग्दर्शनकै हो जानेपर भी या रहते हुए भी यदि ज्ञान चारित्र सम्यक न हो या सम्यग्ज्ञान सम्यक चारित्र न रहे तो आपति क्या है ? बाधाओंका निर्देश करके यह नहीं बताया गया है कि ऐसी अवस्थामें ये बाथायें आती है अतएव इस बातका समाधान करने के लिये तथा इसके साथ ही इस प्रश्नके अन्तर्गन और भी जो जो प्रश्न उपस्थित होते हैं या हो सकते हैं उन सनों का भी समाधान करनेके लिये यह . कारिका अत्यन्त प्रयोजनवनी है जिसमें कि इस अध्यायके अन्त तक आगे कही जाने वाली सम्पूर्ण कारिकाओं के प्रयोजनका उल्लेख भी बीजरूपमें अन्तर्निहित है। क्योंकि विपक्षमें जिन भार विषयोंकी असिद्धि की बाधा यहां बनाई गई है, उन्हीं सम्भूति, स्थिति, वृद्धि और फलोदय का ही तो आगे चलकर कारिका नं. ३५ से ४० तक ६ कारिकाओंमें श्रथवा अध्यायके अन्त सकव्याख्यान किया गया है जैसाकि नागेहे वर्णदरी मालव हो सकेगा ! हा प्रकार यह कारिका डली दीपकन्यायसे दोनों ही तरफ अपनी प्रयोजनवत्ता और महत्वाको एक तरफ पावश्यक समाधानके द्वारा प्रयोजनको और दूसरी तरफ वक्ष्यमाण विषयक प्रोत्थापनके निर्देशको प्रकाशित करती है। अतएव स्पष्ट है कि इस कारिकाका प्रयोजन और महत्त्व असाधारण है।
शब्दों का सामान्य--विशेष अर्थ
विद्यावृत्तस्य-विद्या च वृत्तं च तयोः समाहारः विद्यावृत्तस्य । इस निरुक्तिके अनुसार एकवचन का प्रयोग और समुदाय का प्राधान्प समझा जा सकता है, जैसाकि समाहार इन्द्र समास विषयमें पहले कहा जा चुका है । विद्याका अर्थ ज्ञान और वृस का अर्थ चारित्र प्रसिद्ध है।
सम्भति-स्थिति वृद्धि-फलोदया:-इन चारों ही शब्दों का इतरेतर धन्दू समास होता है। मम पूर्वक भ धातु से भाव क्रिया मात्र अर्थमें कृदन्त की ति (तिन् ) प्रत्यय होकर यह शब्द बनता है। सम् उपसर्ग का अर्थ समीचीन और भू धातु का अथ उत्पम होना है। अतएव मम्मति शब्द का अर्थ भले प्रकार उत्पत्ति होता है । किन्तु इसका अर्थ संभव-शक्य मी होता है जैसे कि इत्यर्थः संभवति' पद का अर्थ 'ऐसा अथ संभव है। यह होता है। यहां पर समीचीन उत्पचि और संभव ये दोनों ही अर्थ ग्रहण करने चाहिये । अर्थात् सम्यक्त्वके बिना सम्यग्दर्शनके अथवा समीचीनताके बिना ज्ञान--चारित्र भले प्रकार अमीष्ट रूपमें उत्पन्न नहीं होते अथवा उत्पम नहीं हो सकते--मोक्षमार्गरूप नहीं बनते इस तरह से दोनों ही प्रकारसे मथ करना उचित एवं संगत है।
स्थिति-स्था धातु का अर्थ गतिनिवृत्ति है। इससे भी किन् प्रत्यय होकर यह शन्द पना है। निरुक्ति के अनुसार इसका अर्थ गमन न करना होता है। किन्तु इसका प्रसिद्ध अर्थ हरना, मर्यादा, परिस्थिति; स्थिरता-त्याम्य मार्ग पर स्थिर रहना आदि भी हमा करवाई।
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२८६.
रत्नकरए श्रावकाचार प्रकरण मोक्षमार्ग का है। अतएव उसको दृष्टिमें रखकर अर्थ करने पर मतलब यह होता है कि सम्यक्त्वके बिना ज्ञान-चारित्रमें ये बातें घटित नहीं हो सस्ती । किन्तु सम्यग्दर्शनके हो जाने पर अथवा समीचीनताके आ जाने पर ज्ञान-चारित्रमें ये सभी अर्थ घटित हो सकते हैं और हो जाते हैं । क्योंकि ज्ञान चारित्रके समीचीन बन जाने पर जीचकी गतिनिवृत्ति हो जाती है उसका संसार मयोदिन हो जाता है उसकी अवस्था और परिस्थिति भी बदल जाती है। वह मोक्षमार्गमें स्थिर हो जाता है ।।
वृद्धि-इस शब्द के समृद्धि, अभ्युदय, सम्पचि और बढवारी आदि प्रसिद्ध अर्थ हैं । उपर्युक्त दोनों शब्दोंकी तरह यह शब्द भी बुध थातुसे४ जिसका कि अर्थ रहना होता है भाव अर्थमें तिन् प्रत्यय होकर बनता है। क्योंकि सम्यक्त्वके हो जाने पर ही सम्यग्दर्शनके होनेपर अथवा ज्ञानके सम्यग्ज्ञान और चारित्रके सम्यकचारित्र हो जाने पर ही रद्द जीव मोक्ष मागमें आगेको बढ़ता है । अन्यथा नहीं तथा उसके सभी गुण और ज्ञान चारित्ररूप अथवा रत्नत्रयरूप तीनों ही मुख्य गुणों को सम्पत्ति भी दिनपर दिन मोक्ष मार्गमें पागेको-परमनिःश्रेयस पदकी लब्धि तक बहती ही५ जाती हैं।
पलोदय-शब्दका अर्थ फलका प्रकट होना या प्राप्त होना है। किसी भी कार्यके अन्तिम परिणामको फल कहते हैं । ज्ञान चारित्रके समीचीन बने बिना मोधके मार्गवर्ती असाधारण ऐहिक पुण्य कर्मोदय जनित अभ्युदयरूप फल तथा अन्तिम रसानुभवके समान परमनिःश्रेयस पदके लाभका फल प्राप्त नहीं हो सकता।
न सन्ति असति सम्यक्त्वे-इन शब्दोंका अर्थ ऊपर किया जाचुका है और स्पष्ट है। फिर भी यह बात ध्यानमें रहनी चाहिये कि इस वाक्यका प्रयोग इसलिये किया गया है कि. जिससे साध्यके अभावस्थान विपक्षका बोध होसके और यह जाना जासके कि विपक्षमें यह बाथा आती है जिसके फलस्वरूप मोक्ष मार्गको सिद्ध करने के लिए ज्ञान चारित्रका अथवा तीनोंकाही समीचीन होना आवश्यक है। क्योंकि प्रशस्तवाको प्राप्त किये बिना इन तीनों गुणों में और मुख्यतया शान चारित्रमें मोक्ष रूप कार्यको निम्पन्न करने की या तद्प परिणत होनकी औपादानिक योग्यता नहीं आसकती।
चीजाभावे तरोरिव-यह दृष्टान्तरूप वाक्य है । इसके द्वारा यह अभिप्राय व्यक्त किया गया है कि जिस तरह अंकुरोल्पचिसे लेकर फल पाने तकको वृधकी चार अवस्थाएं बीजकी
१-देखो कारिका नं० ३५ तथा उमके पोषक समर्थक अन्य ग्रन्थ । २–सावधिं विदधासि (त्या) जयंजवीभावं नियमेन संपादयति चिरकालम् । य. ति० ३-देखो आगेकी कारिका नं० ३३ । ४-बादि आत्मनेपदी तथा तुदादि आत्मनेपदी ।
५-गुण स्थान क्रमसे अध्यात्मिक विशुद्धि बढती जाती है। ६-यह बात सप्त परम स्थानीय लाभको बताने वाली ही भागेकी कालिका नं०३६ से ४१ तकके प्रकरपाक अतिम फल वर्णनसे जानी जा सकती है।
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दन्द्रिका टोका बतासा श्लाक योग्यता पर निर्भर हैं क्योंकि समुचित बीजके बिना वृक्षकी ययादित एवं यथेष्ट अवस्थाएं निष्पन्न नहीं हो सकती । उसी प्रकार शान चारित्रने प्रशस्तता प्राणा हुए बिना वह समुचित बीज रूप योग्यता नहीं आती जिमसेकि अन्तिम फलोदय तककी सभी अवस्थाए प्राप्त हो सकें।
तात्पर्य-सम्यग्दर्शनकी तरह ज्ञान चारित्रको भी सम्यक बनने की आवश्यकता क्यों हैं इसका समाधान दृष्टांत पूर्वक श्राचार्यने इस कारिकामें मल प्रकार किया है। दृष्टांत जो दिया गया है उससे उपादानोपादेयभाव व्यक्त होता है । बीज वृक्षका उपादान है वहीं अंकुररूप होकर वृक्ष बनता है, अपने स्वरूप में स्थित रहते हुए बढत बढते क्रमसे पत्र पुष्प रूप होकर अन्तमें फलरूपको शारा कर लिया करता है। यदि बीन सोय न हो तो उससे आगेकी ये अवस्थाएं भी उत्पन्न नहीं हो सकती। उसी प्रकार मोक्ष. तककी सभी अवस्थाओंका चीज सम्यग्ज्ञान और सम्यक चारित्र है । यदि ज्ञान और चारित्र सम्यक विशेषणसे युक्त न हों तो उनमें मोक्ष तककी अवस्थाओंके रूपमें परिणत होनेकी योग्यता नहीं छाती । फलसः मोक्षरूप कार्य और उसकी पूर्ववती कारणपरम्परा रूप अवस्थाएं भी सिद्ध नहीं हो सकती। .
आगममें सम्यग्दर्शन सम्यग्नान सम्यकचारित्र और सम्यक तप इन चारों ही पाराष. नाओंकी १ क्रमसे होने वाली पांच पांच अवस्थाए' मानी गई है और बताई गई है-उद्योत उद्यवन निर्वाह सिद्धि और निस्तरणरं । मालुम होता है कि इन्हीं पांच अवस्थाओंको यहां पर सम्भृति आदि चार शब्दोंके द्वारा कहा गया है और पांचोंको चार अवस्थाओंमें ही घटित कर लिया गया है । मिथ्यात्व आदि दोषों को दूर करनेमें उद्यत रहना, और सम्यक्त्वमें लगनेवाले शंकादिक प्रतीचारोंको न लगने देना, तथा उपगृहनादि और संवेग निवेद निन्दा गहा उपशम मक्ति वात्सल्य और अनुकम्पा आदिके द्वारा उसे प्रकाशमान बनानेको सम्यग्दर्शनका उद्योवन कहा जाता है। उद्यवनका अर्थ अपने विरोधी भावोंसे आत्माको मिश्रित न होने देकर दृढता पूर्वक अपनी विशुद्धिमय ही आत्माको बनाये रखना होता है । निर्वाहका प्राशय यह है कि उस विशुद्धिके वहन करनेमें धारण करने और आगे बढानेमें किसीभी प्रकारको भाकुलता या क्षुब्धता न हो । सिद्धिका तात्पर्य उसकी स्वस्थाका सम्पूर्ण हो जाना और प्रति समय-नित्यही उसका फिर बैसाही बना रहना होता है। इसका संस्कार भात्मामें इतना अधिक व्याप्त हो जाय कि फिर यह मोक्ष होने तक बनाही रहे उसी भवमें या तो आत्माको मुक्त करदे या भवान्तरमें परन्तु अन्त तक यह बना रहे, इसको निस्तरण कहते हैं।
प्रकृतमें विचार करनेसे मालुम हो सकता है कि उद्योतन और सम्भृतिका अर्थ एक ही है। तथा प्रवत्तक जो कुछ यहां वर्णन किया गया है वह मुख्यतया इसीसे सम्बन्धित है। अब जो कहना चाहते हैं उसका तात्पर्य यह है कि सम्यग्दर्शनके उत्पन्न हो जानेके बाद उघष
१, २-उज्जोयामुज्जपणं णिवहणं पाहणं च णिच्छरणं । दंखपणाणचरित्ततवाणमाराइमा मणिया । अन०प०२-११३ टीका
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लकरएहश्रावकाचार
निर्वाह सिद्धि और निस्तरण अथवा मोक्ष मागकी स्थिति वृद्धि और फलोदय सम्यम्ज्ञान और सम्यक चारित्रपर निर्भर है । क्योंकि उन्हींके द्वारा सम्यग्दर्शन निस्तरण अवस्था तक पहुंच सकता है । ज्ञान और चरित्रके सम्यक हुए विना क्रमसे अन्ततककी सभी अवस्थाएं सिंद नहीं हो सकती । क्योंकि देखा जाता है कि आज्ञा सम्यक्त्वसे लेकर परमात्रगार सम्पक्त्व तक जो सम्यग्दर्शनकी उत्तरोत्तर विकाशरूप दश अवस्थ एं हैं उनमें मुख्य सम्बन्ध सम्यग्ज्ञानका है साथ ही सम्यकचारिश का भी अन्तरंग सम्बन्ध है । बुद्धि ऋद्धि अथवा सम्यम्झानके अनेक भेद ऐसे हैं जो कि सम्यक चारित्रके बिना सिद्ध नहीं होते । यही कारण है कि अभव्य मिथ्या दृष्टि नौ पूर्व से अधिक अध्ययन नहीं कर सकवार । यदि कदाचित् कोई भन्य होकर भी गिध्यादृष्टि है तो वह भी दशपूर्विच्च ऋद्धि सिद्ध नहीं कर सकता । जिस प्रकार श्रुत म्यग्दर्शनको केरल अवगाद, केवलज्ञान परमावगाढ बनाता है उसी प्रकार चीतरामता श्रुत केवल एवं केवल ज्ञान को उत्पन्न करती है । किन्तु ज्ञान और चारित्रकी ये अवस्थाएं तबतक नहीं हो सकती जब तक कि सम्यग्दर्शनके निमित्तसे वे सम्यक नहीं बन जाते | इस कथनसे यह स्पष्ट हो जाता है कि सम्यग्दर्शन के बिना अथवा समीचीनताको प्राप्त किये बिना ज्ञान चारित्रकी भी सम्भूति आदिक वे अवस्थाएं नहीं हो सकतीं जिनके कि बिना मोक्ष मार्ग ही सिद्ध नहीं हो सकता ।
___इस तरह इस कारिकाके द्वारा वियषमें बाधक बल दिखाकर थाचायने बताया है कि पूर्व कारिकामें निहित हेतुका साध्यके साथ जो अविनाभाव सम्बन्ध निश्चित है यह यहाँपर इस कथनसे स्पष्ट हो जाता है। साथही सम्यग्दर्शनकी तरह मोक्षमार्गमें सम्यग्ज्ञान और सम्यक चारित्रकी भी उतनीही आवश्यकता है यह बात भी दृष्टिमें आ जाती है,
पहली कारिकामें जिस प्रकार कर्णधारका दृष्टांत देकर अथवा मोक्षमार्गमें सम्यग्दर्शन का कार्य भी उसे कर्णधारके ही सदृश बनाकर सम्यग्दर्शन के नेतृत्वको व्यक्त किया था उसी प्रकार यहां बीज वृक्षका महत्त्वपूर्ण दृष्टांत देकर स्नत्रय अथा सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र का मोक्ष एवं उसके मार्ग में उपादानोपादेयभाव बड़ी सुन्दरताके साथ स्फुट कर दिया है।
पूर्व कथित कारिकामें कर्णधार नाविकका दृष्टांत देकर रत्नत्रय मोक्षमार्गरूप तीनोंही गुणोंमें सम्यग्दर्शनको मुख्य बताते हुए भी तीनोंमें परस्पर सहभावके साथ निमिचनैमित्तिक सम्बन्ध बताया गया है जिसका प्राशय यह है कि इनमेंसे किसीकेमी उत्तरोचर होने वाले क्रमवती विकासमें शेष दोनोंही गुण निमित्त पड़ते हैं । इस कारिकामें बीजचका दृष्टांत उन गुणों की क्रमसे होने वाली अवस्थाओंमें पाये जाने वाले उपादानोपादेय भावको दिखाता है। इस तरहसे मोक्षम में पाये जाने वाले कार्य कारण भावमें भावश्यक अन्तरंग निमित और उपादान को दोनों कारिक ओंके इरा व्यक्त किया गया है।
यद्यपि इस कारिकाके पूर्वाधसे यह प्रकट होता है कि-झान-चारिन तो उपादान हैं और उनकी सम्भूति भादिक अवस्थाएंउपादेय हैं। किन्तु 'विधाचस्प में समाहारद्वन्द्वके कारण
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चन्द्रिका टीका बत्तीसवा श्लोक यह समझना गलत होगा कि किसी भी श्रागे होनेवाली वियक्षित एक पर्याय के प्रति ये दोनों ही उपादान कारण बताये गये हैं। क्योंकि वस्तुत: ज्ञान और चारित्रके परिणमन भिन्न भिभ ही हैं। ज्ञान अपनी पर्यायों का उपादान कारण है और चारित्र अपनी पर्यायोंका उपादान है। ज्ञान चारित्रकी पर्यायोंका और चारित्र ज्ञानकी पर्यायोंका उपादान नहीं है और न ही हो सकता है। फिर भी एकके प्रति दूसरा परिणमनमें निमित्त अवश्य होता है । वास्तव में दर्शन ज्ञान और चारित्र आत्माके अभिमसचाक गुम होते हुए भी स्वरूप संख्या विषय फल आदिकी अपेक्षा भिन्न भिन्न ही हैं । सम्यग्दर्शनका स्वरूप सामान्य निर्विकल्प वचनके अगोचरर हैं । उसका विषय भी वास्तव में अनन्न गुणोंका पिण्ड अखण्ड शुद्ध प्रात्मद्रव्य है। कोई भी उमका खण्ड अथवा उससे सम्बन्धित पदार्थ व्यवहारसे अथवा उपचारसे ही उसका विषय कहा और माना जाता है । सम्यग्ज्ञानका स्वरूप विशेष एवं सविकल्प है। उसके श्राकार विशेषको वचनके द्वारा व्यक्त किया जा सकता है। आत्माके अनन्त गुणों में यही एक गुण-चेतनाकी ऐसी साकार परिणति है जो कि स्वयं अपने और दसरोंके भी स्वरूपको विशेष रूपसे ग्रहण करनेमें समर्थ३ है। और जिसके कि द्वारा सभी पदार्थों एवं आत्माके भी गुणों एवं पर्यायोंका बोध कराया जा सकता है । सम्यक चारित्रका लक्षण-स्वरूप भी सम्यग्ज्ञानकी तरह आगे बताया जायगा किन्तु इसका मूल सम्बन्ध आत्माके वीर्य गुण से है। मनीवर्गणाओं, वचनवर्गणाओं और कायर्गणामोंक भवलम्बनसे जब इसकी प्रवृत्ति होती तब इसीको योग कहते हैं । और जब इसके साथ अनादि कालसे चला आया मि यान्त्र और कपायके उदयादिका सम्बन्ध हट जाता है तब इसी को सम्यक चारित्र कहते है। योगको इन भिन्न भिन्न अवस्थाओं में उसके कार्य भी भिन्न भिन्न प्रकारके ही हुआ करते हैं । योग शब्द युज धातुसे बना है अतएव निरुक्ति के अनुसार भाशय यह होता है कि इसका यात्रा एवं बन्ध प्रकृति यन्ध और प्रदेशचन्धरूप जो कार्य है वह उसकी संयुक्त अवस्थाके द्वारा ही संभव है। जब तक वीर्यशत्ति में महका सम्बन्ध-संयोग बना हुआ है तभी तक यह अपने इस कार्यको कर सकता है और किया करता है । मोहका सम्बन्ध न रहने पर वर्गणाओंके अवलम्बन मात्रसे भी इसके द्वारा कमौके आगमनका कार्य होता है। किन्तु वह नगण्य है। क्योंकि उसमें स्थिति और अनुभाग नहीं रहता । वीर्य गुणकी कायीपशामिक दशामें मोहके उदयका जो विशिष्ट सम्पर्क है वह योगमें मुख्यतया विवक्षित है । अतएव इसकी सामान्यतया तीन दशाएं होती हैं—मिध्यान्व कवायसहित, मिथ्यावरहित कपायसहित, मिथ्यात
१-सम्यक्त्वं वस्तुतः सूक्ष्म कंवलज्ञानगोचरम् । गाचरं स्वावधिस्वान्तपर्ययज्ञानयोद्वयोः ॥३७॥ म गोधरं भतिक्षानश्रुतज्ञानद्वयोमनाक । न्नपि दशावधस्तत्र विषयोऽनुपलब्धितः ॥३४६।। अस्त्यान्मनो गुणः कश्चित् सम्यक्त्वं निर्विकल्पकम् । तदृड मोहोदयान्मिथ्यावादुरूपमनादितः ।।३५७|सम्यक्त्वं वस्तुतः सुक्ष्मस्ति वाघामगोचरम । तस्माद्वक्त च श्रोतुच नाधिकारी मिधिम्मात् ॥४००। पंचा०
२-श्रुतं पुनः स्वार्थ परार्थं च भवति।
३-शानादिना गुणाः सर्वे प्रोक्ताः सल्लक्षणाहिताः । सामान्यादा विशेषाना सत्यं नाकारमानुकाः ||३६५ सतो वक्तु मशक्यत्वात् निर्विकल्पस्य पन्तुनः । तदुल्ले समालेख्य हानद्वारा निरुप्यते ॥३३॥ पंग
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मकर एहासकार
पाय दानों के संधागसे रहित । किन्तु केवल मनोवर्गणाओं वचनवर्गणाओं और कायवर्गणामों के अवलम्बन युक्तः । ज्ञानकी भी इमीतरह तीन दशाएं होती हैं परन्तु उसमें पह एक विशेषता है कि. मोहका संपर्क हट जानेपर ज्ञानकी क्षायोपशामिक एवं सायिक इस तरह मसे जो दो दशाएं हुया करती हैं उन दोनों दाॉमसे शाबिक अवस्थामें किसीके भी अवलम्बनकी उसे अपेक्षा नहीं रहा करती।
इन तीनों प्रास्थाओगेसे ज्ञान और चारित्र दोनों होकी पहली मिथ्यात्वसहित अवस्था कर्मबन्ध-संसाररूप बन्धका कारण है । और उससे रहित दोनोंही अवस्थाए सिद्धि-मुक्तिकी कारण है। अनादिकालसे चली आई मिथ्यान्वसहित अवस्था छूटकर जब दूसरी अवस्था प्राप्त होती है तब सर्वथा अपूर्व लोपोत्तर स्वयंसिद्ध असिनम्बर स्वाधीन अभीष्ट अवस्थाकी प्राद भूति होने के कारण उनका नया जन्म माना जाता है। यही उनकी संभूति है । इसके बाद इनकी जो स्थिति वृद्धि और फलोदयरूप अवस्थाएं हुधा करती है, वे ग्रन्थान्तरोंसे जानी जा सकती हैं। किन्तु इस विषय में ग्रन्थकार जो यहां कह रहे है उसका सारांश यही है कि ये दोनों ही गुण मोक्षमाग तबतक जन्म धारण नहीं कर सकते और न आगे बढने हुए क्रमसे स्थिति इद्धि फलोदयको ही प्राप्त कर सकते है, जब तक कि सम्यग्दर्शनके निमित्तसे सद्पना-मोचमाग रूप वृषके लिये श्रीपादानिक योग्यता समोचीन बीजरूपताको वे धारण नहीं कर लेते।
ऐसा देखा जाता है कि रंगीन कपास उत्पन्न करने के लिये उसके बीजमें यथायोग्य मजीठ आदि वस्तुओं का संस्कार किया जाता है। यह संस्कार इतना रद होता है कि उस बीजमें परम्परातक सदाही रंगीन कपास उत्पन्न करनेकी योग्यता प्रजाती है। इसी प्रकार ज्ञान और चारित्रमें सम्यग्दर्शन इस तरह का संस्कार उत्पन्न करता है कि- आत्मामें या उसके ज्ञानादिगुणों में पासयोगसे जो विकृत रंग अनन्तकालसे चला रहा है, वह छूटकर स्वाभाविक शुद्ध रंग भनन्तकालके लिय भाजाता है। ये क्रमसे अपने शुद्ध स्वरूपमें सदा के लिए स्थिर होकर रहने लगते हैं। यही कारण है कि चीज वृक्षका दृष्टांत देकर उपादानोपादेयभावको व्यक्त करते हुए कहा गया है कि "विद्यावृत्त"-झान और चारित्र जेब तक सम्यक्त्वको प्राप्त नहीं कर लेतेसम्यग्दर्शनके प्रसादसे मोक्षमागाँपयोगी समीचीनतारूप संस्कारसे युक्त नहीं हो जाते तब तक अनन्त ज्ञान और शुद्धात्मस्वरूपमें स्थितिष्प सिद्धवफलको उत्पन्न करने झाले मोक्षमार्गरूप विवेक भेदज्ञान और सत्पुरुषार्थ-चारित्ररूप वीर्यगुण जैसे वृक्षोंकी संभूति आदि के लिये वे वास्तष में धीजरूप नहीं माने जा सकते | उनसे इस तरहके फलप्रद ऋतकी संभूति प्रादि नहीं हो सकती यही कारण है कि सम्यग्दर्शनको धर्मों में सबसे मुख्य माना गया है।
प्रश्न हो सकता है कि ऐसा भी क्यों ?
१-पस्मादभ्युदयः पुसा निःश्रेयसफलाश्रयः । वदन्ति विदिताम्नायारतं धर्भ धर्मसूरयः ।। यशः । यसले व्यायनिवसनिधिः स धर्मः ॥ ०१.२ बैशेषिकदर्शनम् ! नीतिवाक्यामृत अ० १ २०२।
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पन्द्रिका टीका बत्तीस श्लोक यद्यपि इस प्रश्नका उत्तर ऊपरके वर्णनसे ही हो जाता है फिर भी संक्षेपमें उसको कुछ अधिक स्पष्ट कर देना भी उचित और आवश्यक मालुम होता है।
यह कहा जा चुका है कि श्रात्माक हीना ही गुण स्वतन्त्र है फिर भी उनका स्वरूप साधन विषय फज्ञ भिन्न मिन्न ही हैं । सम्यग्दर्शनका विषय सामान्य है। इसका तात्पर्य यह है कि जिस तरह रोग और मास्थ्यका प्रभाव शरीरके किसी एक भागपर ही न पडकर सम्बन्धित समी भागों पर पड़ता है | उसी तरह प्रकृतभी समझना चाहिए । मिथ्यात्व और सम्यक्त्वका प्रमाव मात्माके किमी एक दो गुणों तक ही सीमित नहीं है किन्तु भात्माके जितने भी अनन्त गुहा उन सभीसे और उनकी जितनीभी पर्याय है तथा सम्पूर्ण गुणों और पर्यायोंका समूह रूस अखएट पिण्ड त्रैमालिक सवरूप प्रात्मद्रव्य है उन सभीसे सम्बन्धित है । मिथ्यात्वका अर्थ यह है कि विवक्षित मात्मा और उसके सभी गुण पाय मूर्षित हैं । सम्यक्त्वका अर्थ यह है कि समस्त श्रात्मा और उसके सभी गुणों पर्यायोंमेंसे यह मू भाव दूर हो गया है। सम्पावके हो भानेपर जब सभी गुण पर्यायोमे से मूर्खाभाव अथवा अस्वास्थ्य दूर कर चैतन्य एवं स्वरूपावस्थानके साथ साथ पूर्णताक शिप जोगती है तशान और चारित्रही उससे किस तरह वंचित रह सकते हैं । ये दोनों वो आत्माके अनन्त गुणों में सबसे अधिक महत रखते हैं। ज्ञान लक्षणरूप है, मार्गका प्रकाशक है, स्व भौर परका विवेचक तथा प्रयाजनीभूत बच एवं कर्तव्यका निश्चायक है सब चारित्रगुण रचाधीन स्थितिको सिद्ध करनेमें परम सहायक समस्त नीति और ध्यूह रचनामें दक्ष मोहराज या सम्पूर्ण कर्मीका विघटन करनेवाले तन्त्रका असाधारण अधिकारी है। फलतः ये भी मोहचाभरूप मूळ या भस्वास्थ्यके मूल कारणभूत विकारके निकल जानेसे प्रारमाफ अनुकूल हितके साधक प्रशस्त बन ही जाते या हो ही जाया करते हैं। क्योंकि सामान्य अंशकै शुद्धहो जाने पर विशेष अंश विकारी किस तरह रह सकता है। कहा भी है कि-"निर्विशेष हि सामान्यं, भवत् खरविषाएवत् । सामान्यरहितत्वाच्च विशेषस्तप्रहरी हि" ।। अस्तु,
इस सब कथनसे वह बात स्पष्ट हो जाती है कि ज्ञान वारित्रकी अपेक्षा सम्यग्दर्शनकी शुद्धिका विषय सामान्य होने से व्यापक है और इसीलिए उसकी प्रधानता है। यह लोक प्रसिद्ध कहावत भी है कि "सर्वे पदा हस्तिपदे निमग्नाः।"
किन्तु विशिष्ट अर्थ क्रियामें विशेष ही साधक बन सकते हैं। यही कारण है कि मोक्ष मार्गमें ज्ञान और चारित्रकी आवश्यकता स्वीकार की गई है । और इसीलिए इस कारिकाभी कहा गया है कि मारम्भमें सामान्यतया समीचीनताके भा जाने पर फिर यदि मोक्षमार्गरूप पावकी संभूति स्थिति वृद्धि और फलोदपके लिये कोई बीजस्थानीय हैं वो मान चारित्र ही । । क्योंकि प्रागमका रहस्य जाननेवालोंसे यह अपिदित न होगा कि उद्योतन उपव आदि निस्तरण
१-आप्तमीमांसा
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करडाका चार
पर्यन्त अपनी सम्पूर्ण सफलताओंके लिये सम्यग्दर्शनको भी सम्यग्ज्ञान एवं सम्यक्चारित्रका सुख देखना पडता हैं | वीज कितना ही उत्तम क्यों न हो मट्टी उर्वरा भूमि और जल के बिना 1 सफल वृक्ष नहीं बन सकता । प्रकृत कारिकामें श्राचार्यश्रीने दृष्टांता गर्भित उपमा अलंकार के द्वारा यह सब अच्छी तरह स्पष्ट कर दिया है विद्वानोंको घटित कर लेना चाहिये ।
किन्तु यह सब होते हुये भी यह ध्यान देने योग्य विषय है कि यह सम्यग्दर्शन का प्रकरण है। यहां सम्यग्दर्शनकी जो असाधारण महत्ता है उसीकी तरफ दृष्टि दिलाई जारही है और उसीका ख्यापन किया जा रहा है फलतः यह जो कहा गया है वह रंचमात्र भी मिथ्या नहीं
सर्व सत्य है कि ज्ञान और चारित्र यद्यपि मोक्षमार्गको सिद्धिमें सर्वथा आवश्यक हैं- उनके बिना मोच और उसके मार्ग - उपायकी सिद्धि नहीं होती और न हो सकती है फिर भी वे सम्यग्दशनके प्रतापसे ही प्रशस्त बन जानेपर - मोक्षमार्ग में नया जन्म धारण कर लेने पर हो इस तरहकी योग्यता सम्पन्न हुआ करते हैं। अन्यथा नहीं । ज्ञान जब तक सम्यक् नहीं होजाता तबतक वह स्वानुभूतिरूपको भी प्राप्त नहीं किया करता । और न तवतक स्वनुभूत्यावरण कर्मका क्षयोपशम होकर वह विशुद्धि ही प्रादुर्भूत हुआ करती है। और इसीलिये तब तक उसके द्वारा निज शुद्ध अखण्ड काज्ञिक सच्चिदानन्दमय अभिन्न आत्माकी अनुभूति - स्वानुभूति भी नहीं हुआ करती । इसी प्रकार चारित्र भी जबतक सम्यक् नहीं होजाता तबतक भले ही वह प्रतिपक्षी कपायोंके मन्द मन्दतर मन्दतम उदयके अन्तरंग निमित्तकी बलवत्चासे पापोंका परित्याग करके गृहप्रवृत श्रावक के अथवा गृहनिवृत्त उत्कृष्ट श्रावक के व्रतोंका यद्वा महान मुनिके योग्य महाव्रतों का पालन करके नवग्रैवेयक तक के योग्य पुख्यायु आदिका बंध करके पर संग्रह एवं उस पर प्रत्यय के प्रसाद से परम शुभ दिव्य किन्तु कादाचित्क — अस्थिर अभ्युदयको भी प्राप्त करते फिर भी वह संवर निर्जराके कारण रूपसे माने गये और बताये गये सामायिक आदि चारित्र रूपकी वारयकर पर निग्रही नहीं बन सकता ६ । फलतः ज्ञान और चारित्रको मोक्षमार्ग के कुलमें
I
२ – कैवल्यमेवमुक्त्यंगं स्वानुभूत्यैव तद्भवेत् । सा च श्रुतकसंस्कारमनसात्तः भुवं भजे ॥३-९॥ अतसंस्कृतं स्वमहसा स्वतस्त्रमाप्नोति मानसं क्रमशः । विहितोषपरिध्वगं शुद्धपति पयसा न कि बचन ॥३-३|| तथा अहो तस्य माहात्म्य यन्मुखं प्रेक्षतेतराम् उद्यतेऽतिशयाधाने फलसंसाधने च छन् । ||४-२०।।
अन० ६० ।
३--- वाग्भटालंक। रे अन् वयख्यापनं यत्र क्रियया स्वत्तदर्थयोः । दृतिं तमिति प्राहुरलंकारं मनीषिणः ॥४२॥ उपमानेन सादृश्यमुपमेयस्य यत्र सा । प्रत्ययाम्ययतुल्यार्थसमासै रुपमा मता ||४-५८॥ अन्न कारिकायाम् इव शब्द प्रयोगात् न प्रतिवस्तूपमा ।
४ – 'छाहसत्तमेसु आसव की उक्तिके अनुसार पुण्य । श्रवके मुल्यतया कारण भूत इन अणुव्रत और महामतों का त० सू० के छठे सातवें अध्यायमें वर्णन किया गया है।
५ --संबर निर्जरा के कारणो में सामायिकादिका वर्णन में अध्याय में किया गया है।
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६ – सम्यक्त्व के बाद ही ज्यों ज्यों चारित्रकी वृद्धि होती जाती है त्यों त्यों असंख्यातगुणी कर्म निरा के स्थान बढ़ते जाते हैं !
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थन्द्रिका टीका तेतीमा श्लोक जन्म धारण कराकर त्रैलोक्याधिपतित्वका भी अतिक्रमण करनेवाले निज शुद्धस्वरूपावस्थानके शासनकी योग्यतास अनन्त कालके लिए युक्त कर देना सम्यत्वका ही माहात्म्य है। यही कारण है कि प्रात्माको दुःखमय संसार परिणतिसे हटाकर अनन्त अच्याराध मुखमय समीचीन श्रवस्थामें परिणत कर देने में पूर्णतया समर्थ तीर्थरूप धर्म-रत्नत्रयमें सम्पग्दर्शनका ही सबसे प्रथम अधिकार, प्राधान्य और नेतृत्व है।
प्रकृत कारिकाके व्याख्यानके प्रारम्भमें उत्थानिकाके समयपर विषयका सारांश माते हुए नीच गतें कही गई थी। शिगोंसे पहले दिन का कि-सम्यग्दर्शन ही शान चारित्र की समीचीनताका जनक है, इस कारिकार्य द्वारा युक्तिपूर्ण सालंकार भाषामें दृष्टांतपूर्वक अच्छी तरह किन्तु संक्षेप में स्पष्टीकरण किया जा चुका है। अब क्रमानुसार दूसरे विषयका कि यह सम्यग्दर्शन ही जीवको मोक्षमार्गमें मुख्यतया लमानवाला और उसमें स्थित रखनेवाला है, आचार्य स्पष्टीकरण करते हैं
गृहस्थो मोक्षमार्गस्थो; निर्मोही नेव मोहवान । ___ अनगारो गृही श्रेयान; निमोंहो मोहिनो मुनेः ॥३३॥
अर्थ-घरमे रहनेवाला यदि मोहरहित है तो वह मोक्षमार्गमें स्थित है। घरको छोड देनेवाला साधु यदि मोह सहित है तो वह मोक्षमार्गमें स्थित नहीं है । इसलिये मोही मनिसे निर्मोह गृहस्थ श्रेष्ठ है।
प्रयोजन-इस कारिकाके सालंकार युक्तिपूर्ण और तुले हुए शब्दोंके द्वारा प्राचार्यका मभिप्राय एक अत्यावश्यक विषयपर नग्न सत्य प्रकाश डालकर सर्वसाधारणके हृदयमें विद्यमान प्रथया संभव बहुत बड़े भ्रम विपर्यास संशय यद्वा प्रज्ञानका निराकरण करना है। सर्व साधारण जीवोंकी समझ है अथवा सामान्यतया लोग ऐसा ही समझ सकते हैं कि हिंसा मादि पाप संसारक कारख है अथवा वे ही स्वयं संसार हैं । अतएव जो जीव इनका संपन करने हैं-त्याग नहीं करते वे मंसारमार्गी ही हैं संसारी ही हैं । और जो इनका परित्याग कर देते हैं। संसार
और उसके मार्गसे पृथक ही हैं मोदमार्गी ही है अर्थात् इन पाप क्रियाओंका त्याग कर देना मात्र ही मोक्षमार्ग है।
हिंसादिक पापोंकी संख्या सामान्यतया पांच पताई है। जैसा कि इसी ग्रन्थकी आगे चलकर कारिका नं. ४६ के द्वारा मालुम हो सकता है । इसमें हिंसा झूठ चोरी मैथुनसेवा और परिग्रह इन पांच भवद्य कर्मोको पाप प्रणालिकाके नामसे बढ़ाया है । किन्तु इनमें भी अन्तिम दो पाप-मैथुनसेवा और परिग्रह प्रधान हैं । जैसाकि उस कारिकाकी व्याख्यासे ध्यान में भा सकेगा । फलतः इन दो प्रधान पापोंका जहां तक त्याग नहीं होता अथवा अंशत:
१-श्री अमृतचन्द्र आचार्यने अपने पुरुषार्थ सिद्धषु पायमें 4 पापोसे हिंसाको ही मुख्य पाप बताया है शेष पापोंको सोमें अन्तत किया है । पथा-आत्मपरिणामसिमरतुत्वात्सर्वमेव हिंसैतत्। मानवकमनाहि केवलमुखाहत शिष्यबोधाय ॥४२॥
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रनाराकागार स्याग होता है यहां तक जीवको गृहस्थ और जिनने इनका तथा इनसे सबन्धित या इनके मुख्य सहायक हिमादि तीन पापोंका भी साथमें सर्वथा त्याग कर दिया है वे अनगार हैं-मोचमार्गी मुनि है । जो इन पांचोंका एक देश परित्याग करते हैं वे देशसंयमी-संयमासंयमी अणुव्रती श्रावक रहे. जाते हैं। इस प्रकरणके प्रारम्भमें भी स्वयं अन्यकर्ताने संसारके दाखोंसे अथवा दुःखमय संसारसे छुड़ाकर उत्तम सुखमें रखने-उत्तम सुखरूप अवस्थामें परिणत कर देनेमें अमाधार कारण-उपायस्वरूप जिस रलत्रय धर्मको व्याख्यान करनेकी प्रतिज्ञा की है उसी रत्नत्रयकी मूर्ति की सपम्बी गुरुक स्वरूपका सम्यग्दर्शन के विषय--श्रद्धं यरूपमें वर्णन करते हुर प्रथम तीन विशेषणांके द्वारा इन्हीं पांच पापोंके राहित्यसे युक्त बताया है। उससे भी यही मालुम हो सकता है कि जो उपक्ति पांचों इन्द्रियों के विषय तथा प्रारम्भ और परिग्रहका मी सर्वथा त्याग कर देता है वही मोचमार्गमे गुरु है, प्रधान है, मुखिया है, नेता है, और मादर्श है।
किन्तु यहां पर इस कारिकाके द्वारा प्राचार्य बताना चाहते हैं कि केवल बाह्य पाप प्रवृत्ति गेंका परित्याग ही मोधमार्ग है यह धारणा अपूर्ण है-ऐकान्तिक है, अतएव सत्य नहीं है। क्योंकि यद्यपि यह सत्य है कि मोचमार्गको सिद्ध करनेके लिये इन पापोंका परित्याग करना अत्यावश्यक है.। बिना इनका सर्वथा त्याग किये मोक्षका मार्ग सिद्ध नहीं हो सकता। फिर भी इन पापोंका परित्याग करने वालोंके लक्ष्य में यह बात मी आनी और रहनी चाहिए कि इतने से ही मोक्षमार्ग सिद्ध नहीं हो सकता जब तक कि इन पापोंके मूलभूत महापापका परित्याय नहीं किया जाता. अथवा यह छूट नहीं जाता । तथा यह भी भालुम होना चाहिये कि इन सभी पापोंका वह मूलभूत पाप क्या है । संसारके सभी पापोंका जो उद्गम स्थान है, जो स्वयं महापाप है, जिसके कि छूटे गिना अन्य समस्त पापोंका परित्याग कर देना भी अन्तमें निरर्थकही सिद्ध होता है, तथा जिसके छूट जानेपर संसारका कोई भी पाप सर्वथा छूटे बिना नहीं रह सकता, जबतक उस पापका परिणाग नहीं होता तब तक उस धर्मकी भी सिद्धि नहीं हो सकती
और न मानी जासकती है जो कि मोक्षका मार्ग–असाधारण कारण या अव्यभिचरितनिश्चित उपाय माना गया है । जिसके कि वर्णन करनेकी यहां प्रतिज्ञा की गई है और जो कि श्रीवर्धमान भगवान्के तीर्थमें वस्तुतः अभीष्ट है। इस पापका ही नाम है मोह । और इसके अभावका ही नाम है सम्यग्दर्शन । जिसके कि बिना अन्य पापप्रवृत्तियोंका पूर्णतया परित्याग भी अपने प्रयोजन-परिनिर्वाणको सिद्धि में सफल नहीं हो सकता। इस तरहसे मोक्षमा अत्यन्त निकटवर्ती साधन सामान्य चारित्र नहीं अपितु सम्पचारित्र हैं। और चारित्र सम्यक्त्वक विना सम्यक चारित्र बनता नहीं अतएव मोक्षमार्गमें सफलता सम्यग्दर्शन पर ही निर्भर है। यह स्पष्ट कर देना ही इस कारिकाका प्रयोजन है।
शब्दोंका सामान्य विशेषार्थ--विषयाशावशातीतः, निरारम्भा, अपरिग्रहः । फारिका नं० १० ।
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चन्द्रिका टीका मनोक
१६.२
गृहस्थ - शीत बात श्रातप यदिकी बाधा बचकर मनुष्य प्राणियों की रहने योग्य ईट चूना मट्टी लकडी यादिके द्वारा बने हुए आवास गृह कहते हैं । यह गृह शब्दक अर्थ लोकप्रसिद्ध है | व्याकरणके अनुसार ग्रह धातुसे अच् प्रत्यय होकर यह शब्द बनता है, जिसका अर्थ होता है कि ग्रहण करना, लेना, पकड़ना । अतएन यह शब्द साधारणतया जीवके सांसारिक विषयों में अन्तरंग की आसक्ति या ममभावको सथित करना है :
किन्तु देखा जाता है कि गृह आदि समय सम्बन्ध सर्वथा न रखने वाले भी ति मोक्षमार्गी महानुरूप उसमें शून्यगृह विमोचितावास मठ वातिका शादि क्वचित् कदाचित् रहते हुए पाये जाते हैं। तथा इसके विरुद्ध उसमें आसक्ति रखने वाले भी अनेक संसारी प्राणी उससे रहित हैं- पर छोडकर किंतु उससे ममता रखकर फिरचालोंकी संख्या भी कम नहीं है । फलतः अन्वयव्यभिचार और व्यतिरेक व्यभिचार के कारण इस शब्दको केवल यौगिक न मानकर रूह श्रथा योग ही मानना उचित हैं ।
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गृहमें रहनेवालोंको कहते हैं गृहस्थ । यागमके अनुसार चार आश्रमोंमे द्वितीय श्रम कर्तव्य कर्मरूप धर्मका नाम है गृह और उसके पालन करने वालोंको कहते हैं गृहस्थ । इस आश्रम के कर्तव्यों में शेष तीन आश्रमवासियोंका मुख्यतया पालन पोषण संवर्धन तथा गीता अनाश्रमवासियों पर भी सदय व्यवहार के साथ साथ आत्महितके लिये किये जाने वाले अनेक कर्तव्यों से प्रवृत्तिरूप दो कार्य मुख्यतया बताये गये हैं--- पूजा और दान | इन दोनों कर्तव्योंके साधन रूपमें कान और दारपरिग्रह भी कर्तव्य बताया गया है जिसके कि ऊपर आयोजित क्रिया का रूप धर्मकी इमारत खडी हुई हैं। इस तरह द्वितीय आश्रमक धर्मका पालन करने वालेको कहते हैं गृहस्थ । गृही सागार आदि भी इसके पर्यायक शब्द हैं।
जहां तक गुणस्थानोंसे सम्बन्ध है गृहस्थ के आदि के पांच ही गुणस्थान हुआ करते हैं। परन्तु यह बात भी ध्यान में रहनी चाहियेकि इनके योग्य बाह्य द्रव्यरूप क्रिया प्रवृत्ति द्रव्यार्थिक एवं नैगमनय तथा द्रव्य निक्षेप और भावनिक्षेपकी पेक्षा भी मानी जा सकती है। श्रात्म धर्मरूप व्रत चारित्र दो ही भेद हैं और महाव्रत । महाव्रतको धारण करने वाले १- ब्रह्मचर्यं गृहस्थश्च वानप्रस्थच भिक्षुकः । चत्वार आश्रमा एते सप्तमांगताः । ३६वा २ - ५३ गर्भान्वय क्रियाएं, ४८ दीक्षान्त्रय क्रियाएं, धौर ७ अन्वय क्रियाएं। इस तरह तीन प्रकार की क्रियाएं आगम में बताई गई हैं। इसके लिए देखो परमागम श्रीभादिपुराण परनाम विषष्टशलामहापुरुष चरित्रके पर्व ३५ से ४० त० । ध्यान रहे इन कियाओं में जरूरी तक गृहस्थाश्रमका परित्याग नहीं किया जाता वहीं नक्की क्रियाओं का सम्बन्ध गृहस्थसे है ।
३ - सर्वतोऽमद्दती । त० सू० ७२ । य प ये व्रत आस्रवतश्वके वर्णन में बनाये गये हैं फिर मी " निःशल्यो अती के द्वारा इनकी आत्म धर्म रुपताकं होने पर ही मोक्षमार्गताकी मान्यता छ करदी गई है। जैसा कि इसी कारिकाके तात्पर्य से मालुम हो सकेगा ।
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अनगार? और भक्तों को धारण करने वाले तीनों ही आश्रमवासी -- ब्रह्मचारी गृहस्थ और वानप्रस्थ अगारीर-सागार कहे जाते हैं। अणुव्रतोंके ग्यारह स्थान हैं जिनकोकि ग्यारह प्रतिमा के नामसे कहा गया है और जिनका कि आगे चलकर इसी ग्रन्थमें निरूपण किया जायगा ! इनमें से आदिके ६ ग्रहस्थ उसके बाद तीन ब्रह्मचारी और अन्त के दो वानप्रस्थाश्रमी भिक्षुक कहे गये हैं । निरुक्त्यर्थ के अनुसार निश्चय नयसे सालंकार४ भाषा में क्वचित् कदाचित् अनगार महामतियों को भी गृहस्थ रूपमें कह दिया गया है फिर भी या तो अवती एवं पाचिक अथवा मुख्यतया छठी प्रतिमातक के व्रतोंको धारण करने वाले ही गृहस्थ माने गये हैं । और वे ही सर्वत्र -- श्रागममें और लोकमें गृहस्थ नाम से प्रसिद्ध है। क्योंकि गृहस्थाश्रम में विवाह दीक्षा विधिपूर्वक दारपरिग्रह य कार्य माना गया है। यद्यपि गृहप्रवृत्त श्रावकोंमें स्त्रीसम्बन्धका परित्याग करके अथवा बिना विवाह किये भी अपने व्रतोंका पालन करता हुआ ६ वीं प्रतिमा तकका श्रावक भी घर में रह सकता है। फिर भी गृहस्थाश्रम में मुख्यता विवाहपूर्वक वातकर्म
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- अपनी अपनी जाति और वंशके योग्य न्यायपूर्वक श्राजीविका करने और नित्य नैमित्तिक धर्म fears विधिपूर्वक पालन करनेकी है । क्योंकि ५ प्रकारके वह्मचारियोंमेंसे केवल नैष्ठिक ब्रह्मचारीको छोडकर शेष चारों ही प्रकारके अह्मचारियोंको विवाहपूर्वक गृहस्थाश्रम में प्रवेश करनेका अधिकार है और गृहस्थहो जानेपर वे नित्य एवं नैमित्तिक कर्तव्योंका पालन किया करते हैं ।
यद्यपि यहां पर ये जितने भी गृहस्थके कर्तव्य बताये गये हैं वे सत्र सत्य हैं, उचित हैं, और आवश्यक है। तथा यह भी ठीक है कि गृहस्थाश्रमीको अपने पदके योग्य इन सभी कर्तव्यों का पालन करना चाहिए फिर भी ग्रन्थकर्त्ता आचार्य इस कारिकाके द्वारा उसकी प्रकरण प्राप्त विशेषताको मोक्षमार्गस्थ और निर्मोह: इन दो विशेषणोंके द्वारा यह स्पष्ट करके बताना चाहते हैं कि चाहे तो कोई गृहमें रहकर अपने इन कर्तव्यों का पालन करनेवाला हो अथवा गृहस्थाश्रमको छोडकर शेष तीन आश्रमोंमेंसे किसी भी आश्रमके योग्य बतानुष्ठान करनेवाला क्यों न हो चाहे ब्रह्मचर्य या वानप्रस्थ आश्रमवाला हो, या महाव्रती मुनि हो, वह तब तक मोक्षमार्ग स्थित नहीं माना जा सकता जबतक कि वह अन्तरंग में निर्मोह नहीं है ।
१-२ त० सू० अ० ७ सूत्र नं० १६ तथा अगुतो गा” २०१
३-- ब्रह्मचारी गृहस्थश्च वानप्रस्थश्च भिक्षुकः । चत्वार आश्रमा एते सप्तमांगाद्विनिर्गताः । तथा यशस्तिलक - पडत्र गृहिणो ज्ञेयाश्रयः स्युम सचारिणः । भिक्षु द्वौ तु निर्दिष्टौ ततः स्यात् सर्वतो यतिः
यशः || ८||
४ - रूपक अलंकार ।
५ --चान्तियोषित यो सतः सम्यग्ज्ञानातिथिप्रियः । स गृहस्थो भवेन्नूनं मनोदैवतसाधकः || यश
भ० मा
६- प्रथमाश्रमिणः प्रोका ये पंचोपनयादयः । तेऽधीत्य शास्त्रं स्वीकुयु दरानन्यत्र नैष्ठिकात् ॥ -नित्मनः। मसिकानुष्ठानस्यो गृहस्थः ||१६|| मह्मदेव पत्रतिथिभूतया नित्यमनुञ्जानम् ॥९०॥
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चन्द्रिका टोका तेतीसवा श्लाक मोक्षमार्गस्थः—इस पूरे शब्दका अर्थ होता है—मोक्षके मार्गमें रहने वाला ! यहां पर इस शब्द का प्रयोग साध्यभूत अभीष्ट किन्तु अप्रसिद्ध अर्थको व्यक्त करनेके लिये किया गया है। जिसको कि सिद्ध करने के लिये "निर्मोह" यह हेतुरूप विशेषण दिया गया है।
___ यों तो मोक्ष शब्दका सामान्य अर्थ छूटना है। फिर भी यहाँ प्रकरणगत अभीष्ट अर्थ आरमाका द्रव्य कर्म भावकम और नौकमसे छूटना है। ध्यान रहे कि इस अर्थ के अनुसार यद्यपि मोशका अर्थ परपदार्थसे आत्माका सम्बन्ध विच्छेदमात्र बताया गया है फिर भी इस सम्बन्ध विच्छेदके साथ ही आत्मा के गुणोंकी अभिव्यक्ति अर्थ भी अभीष्ट है। क्योंकि छुटकारा यद्यपि दो पदार्थों में हुश्रा करता है और इसलिए दोनोंका सम्बन्धविच्छेद हो जानेपर दोनों ही परस्पर में एक दुसरंसे मुक्त हुए माने और कहे जा सकते है। फिर भी यहां आत्माका ही छुटकारा प्रयोजनीमत हैं । अत एवं मोच शब्द का अर्थ उक्त त्रिविथ कमौके सम्बन्धविच्छेदक साथ ही मात्मा के विवक्षित गुणोंका अथवा सम्पूर्ण यात्माका स्वाभाविक
मोनाना विव. तितर है । यही कारण है कि श्री पूज्यपाद श्रादि प्राचार्याने मीतका लक्षण बताते समय कर्मों का प्रभाव और अपने गुणोंकी अभिव्यक्ति दोनों को ही दृष्टि में रक्खा है । तथा शब्दांका निरू. स्त्यर्थ बताते समय भी अनेक साधनों कारकोंक द्वारा ही उनकी निष्पत्ति-सिद्धि बताई है। इस विषयमें आगे चलकर विशेष लिखा जायगा अत एव यहां अधिक लिखने की आवश्यकता नहीं है।
मार्ग शब्द का अर्थ उपाय है । उपाय अनेक तरहके हुआ करते हैं । साधारण असाभारण, अन्तरंग, बाह, उपादान, निमित्त, स्वपररूप समस्त साधक सामग्री और प्रतिबन्धकाभाव, प्रादि । इनमें से उपेयकी सिद्धि में कर कहाँ किसको मूल्य और कब कहां किसको गौण कहा जाय यह प्रकरण और विवक्षापर निर्भर है। क्योंकि देखा जाता है कि एक जगह तो श्री ऋषभेश्वर भगवान् जैसों की, यह जानते हुए भी कि ये स्वयंभू-~-परमात्मा वननेवाले है, दीक्षा के लिये चिन्तातुर परम सम्पग्दृष्टी एक भवाचतारी अत्यन्त विवेकशील इन्द्रकं द्वारा रच गये नीलांजना कपट नृत्य रूप साधारण पाच निमित्त साधन सामग्रीकी प्रशंसा की जाती है और उसको मुख्य बनाते हुए उसका व्याख्यान किया जाता है. जब कि गरी जगह परमाईन्त्य
१-इएमवाधितमप्रसिद्ध साध्यम् । प० मु०
२--सर्वकर्मविप्रमाक्षो मोक्षः । ५-५ । अथवा मिरवशेषनिराकृतकर्ममलकलंकस्याशरीरस्यात्मनो इचिन्त्यस्वाभाविकज्ञानाद्गुणमव्यायाधमुखमायन्तिकमवस्थातरं मान इति ||स० स०॥ बन्धहत्वभाष निर्जराभ्यां करस्नकमविप्रमाक्षो मोक्षः ॥त सू०१०-२ श्रात्यन्तिकः सबकमनिरपो मोक्षः राजवा. शपधा
३-राज्यभोगालचं नाम विरज्येद् भगवानिति । प्रक्षीणायुर्दशं पात्रं सदा प्रायुकदेवरा ॥१०॥ भा..पु.॥
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रत्नकरण्ड प्रावकाचार पदमें स्थित तीर्थकर भगवान्के त्रिलोकोद्धारक लोकोत्तर विभूतियुक्त सर्वोत्कृष्टेष्ट पदकी मी केवल स्वपद न होने के कारण उपेक्षा की जाती है । यहाँ पर प्राचार्य मोक्षके उपायोंमें प्रतिबन्धकामानविरिट अन्तरंग असाधारण उपादान साधन को मुख्यतया यतानेके लिये प्रवर्तमान हैं। क्योंकि यह तो सर्वधा युक्तियुक्त एवं सुनिश्चित सिद्धांत है कि कोई भी कार्य अपने योग्य
आदानके अभाव में प्रथवा उसकी असमर्थताको अवस्था सिद्ध नहीं हो सकता । जिस तरह सय परिणममान द्रव्यके लिये काल द्रव्य सहज निमित्त बन जाता है, अथवा अपवायुष्क जीवके मरणमें शन द्वारा यद्वा स्वयं प्रात्म यातके लिये किया गया शस्त्रप्रहारादि प्रेरक निमिष माना जाता है। उसी तरह निर्वाण रूप कार्यकी सिद्धिक विषयमें समझना चाहिये । यहां आचार्य बतलाना चाहते हैं कि यद्यपि बाह्य संयम तपश्चरण आदि भी उसमें निमित्त हैं परन्तु वे अन्तरंग योग्यताके विना वस्तुतः सफल नहीं हो सकते । निर्वाणकी अन्तरंग असाधारण उपादान रूप समर्थ योग्यता सम्पग्दर्शन अथवा रत्नत्रयपर निर्भर है यही कारण है कि रत्नत्रयरूप परिणत प्रात्मा ही वास्तवमें मोक्षका कारण माना गया है और वही वस्तुतः मोक्षका मार्ग है ।
स्था धातुका अर्थ ठहरना है। जो आत्मा इस रत्नत्रयरूप मोक्षक मागमे स्थित है उसी को मोदमार्गस्थ कहते हैं।
निर्मोहः-मोहसे प्रयोजन मिथ्यात्व अथका दर्शन मोह कर्मका है। जो उसके उदयसे निकल गया---पृथक होगया वह निर्भाह है। यह हेतुरूप विशेषण पद है। और इसके द्वारा विरोधाभास अलंकार का आशय भी स्फुट हो जाता है। अन्यथा यह। यह विरोध प्रतीत हो सकता और शंका हो सकती थी कि जो घरमें स्थित है वही मोक्षमागमें स्थित किस तरह माना या कहा जा सकता है। किन्तु निर्मोह विशेषण इस विरोध और शंकाको परिहार कर देता है । इस वाक्यमें गृहस्थ पक्ष है, मोक्ष मार्गस्थता साध्य है, और निर्मोहता हेतु है। जिससे यह स्पष्ट कर दिया जाता है कि मोचमार्ग स्थितिकी निर्मोहताके साथ व्याप्ति है। जहां निर्मोहता है वहां मोक्षमार्गमें स्थिति अवश्य है। फिर चाहे वह गृहस्थ हो या मुनि हो अथवा किसी भी गतिका जीव हो। यदि निर्मोहता नहीं है तो मोक्षमार्गमें स्थिति भी नहीं है । भले ही वह देश बत क्या महावतोंका ही पालन करनेवाला क्यों न हो । कारण यह कि अतोका धारण पालन तो दोनों ही अवस्थानों में सम्भव है । मोहके उदयमें उसके मन्द मन्दतर मन्दतम उदयकी अवस्था में भी हो सकता है और सर्वथा उदयके प्रभाव भी सम्भव है। किंतु जीवकी मोचमार्गमें
१-सपयत्वं तित्यपरं आधगत बुद्धिस्स सुत्तरोइस्म । दूरतरं गिन्वाणं संबमतवसम्पदं तस्स ।।
२-द्रव्यसंग्रह-यणचयं ण बट्टा अप्पारणं मुयदु अण्णवियम्मि । सम्हा दत्तियमइयो होदि मोक्यास कारण भादा।।
३-आपात विरुद्धला यत्र वाक्ये न तत्त्वतः । शब्दार्थकतमाभाति स विरोधः स्मतो प्रथा ॥२१॥ वाग्मत।
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चन्द्रिका का देतीसको श्लोक
२६४ स्थिति तबतक नहीं मानी जा सकती जबतक कि उस मिथ्यात्वका उदय नियमान है। क्योंकि मिथ्यात्य और मोक्षमार्ग इन दोनोंमें अध्यघातक या सहानवस्थान विरोध है । इसलिये मोष मार्गकी नियत व्याप्ति निर्मोह अवस्थाके साथ ही है।
निरुक्तिके अनुसार मोक्षशब्द मोक्ष धातुसे भाव अर्थमें पत्र प्रत्यय होकर बना है जिसका कि अर्थ असब-शेपण होता है। इसी तरह मार्ग शब्द शुद्धधर्थक सृज धातुसे अथवा अन्वेषणार्थक मृग धातुसे पनार है। मार्ग शब्दकी निष्पत्तिमें करण साधन प्रधान है। स्था धातुका अर्थ गतिनिवृत्ति-रुक जाना, खड़े रहना, ठहरना भादि प्रसिद्ध है । श्रतएव मोक्ष मार्गस्थ शब्दका निर्वचन इस प्रकार होता है कि मोक्ष मोक्षः। मृष्टः शुद्धोऽसाविति मार्गः मार्ग इन मार्गः मोक्षस्य मार्गः मोक्षमागः । अथवा मोती येन मार्यते स मौशमार्गः । मर्याद मोस शब्दका अर्थ है छूटना और जो यथेष्ट स्थान पर पहुंचनेके साधनभूत मार्गके समान हो उसको कहते हैं मार्ग । जिस तरह कंक्ड पत्थर कस्टक गर्न विर्यस्थुलता आदिसे रहित मार्गके द्वारा पथिक जन सुखपूर्वक चलकर अभिप्रेत स्थानको पहुंच सकते हैं उसी प्रकार मनु मव्य भी मिथ्यात्व अज्ञान असयम प्रमाद कषाय आदि दोषोंसे रहित परिणामोंके द्वारा मोक्षको प्राप्त कर सकता है--कर्मवन्यरूप संसारावस्थासे छूट सकता है । और अपने सम्यक्त्वादि गुणोंक मारा अपनी पूर्ण शुद्ध शांत निश्चल ध व अनुपम अवस्था प्राप्त कर सकता है। अतएव जो जीर कर्म पन्धके प्रतिपक्षी सम्यक्त्वादि परिणामों में स्थित है, वही मोक्षमार्गस्थ है और ये परिणाम मोहक प्रभावके बिना प्रकट नहीं होते इसीलिये जीवकी मोक्षमार्गमें स्थितिको सिद्ध करने के लिये अथवा यह बतानेके लिये कि जीव मोक्ष मार्गमें स्थित कब माना जाता है "निर्मोह" यह विरुख कारस्थानुपलब्धिरूप हेतु वाक्य यहां दिया गया है।
नैव मोहवान् अनगारः। न और एव दोनों ही अध्यय हैं । न का अर्थ होता है निवेश और एव का अर्थ होता है अपधारण । किन्तु शब्द शार के सन्धि प्रकरणमें एष के दो तरह अर्थ किये गये हैं---नियोग--निश्चित अवधारण और अनियोग-अनिश्चित भयधारण । यहाँपर नैव इस तरहका प्रयोग करके प्राचार्य ने एपका नियोग अर्थ पूचित किया है। जिससे हरसापूर्णक और जोरफे साथ किया गया निपेयके निश्चयका अभिप्राय प्रकट होता है।
मोह सन्दसे तदस्ति यस्य अर्थमें मतुप प्रत्यय होकर मोहपान् शब्द बना है। या अनगारका विशेषण है। जो कि उसके अन्तरंगमें दर्शन मोहनीय कर्मकी मिध्यान्य प्रकृतिक
१२-मोर असन इत्पतम्य धन भायसाधनों मोक्षण मोतः असन क्षेपणमित्यर्थः ॥ सृजेश कर्मणो मार्ग इवाभ्यन्तरीकरणात् ॥४०॥ अन्यपणक्रियस्ये वा करणत्वोपपतः ।।४।। राजवा १-१
३-"एवे पानियोगे अद्यय इहेष । नियागे तु मष गच्छ, ति । कातन्त्र तथा पाणिक किय-क्वेव भोक्ष्यसे अनधक्लुप्ताषेष शरदः (अनवक्तृप्तापिति-पेव भोश्यसे इत्युक्तं सनसकार्यका दिना मास्ति सम्भवस्तव मोजनस्येति गम्यते. इति तट्रिपत्पा) भनियोगे किं तवैव ।।
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रत्नपाराश्रावकाचार उदयसे होने वाले मोक्षमार्गक सर्वथा विरोधी आत्मद्रव्य विषयक मूर्छा परिणाम विशेषकी स्थिति के अस्तित्वको भूचित करनेके लिये दिया गया है।
अनगार शब्द से यद्यपि अनेक अर्थ लिये जासकते हैं किन्तु गहापर महावत अथवा मुनिके २८ मूलगुण और उसके लिये आवश्यक सभी वाहा क्रियाओंने पाला करनेवाले साधु तपस्वी का अर्थ ग्रहण करना चाहिये। ___ गृही श्रेयान् निर्मोही मोहिनी मुनेः । यहां पर गृही शरद गृहस्थ के अर्थ में ही प्रयुक्त दुमा है। निर्मोह शब्दका अर्थ किया जा चुका है। मोही शब्दका अर्थ स्पष्ट है। मुनि शब्दका अर्थ यद्यपि आगममें कई प्रकार से बताया गया है। किन्तु यहाँपर उपर्युक्त सामान्य अनमारके अर्थ में ही इस शब्दका प्रयोग समझना चाहिये । श्रेयान् शब्दको अर्थ होता है अतिशय से प्रशस्य । क्योंकि अतिशय अर्थ में ही "प्रशस्म" शब्दकी, 'थ' आदेश और ईयस प्रत्यय होकर इस शब्द की निष्पत्ति होती है। यह शब्द गृहीका विशेषग है। जो कि उस की अतिशय प्रशस्यताको सूचित करना है। प्रशंसाके कारण को निर्मोह विशेषण, तथा किसकी अपेक्षा से उसकी प्रशस्यता विवक्षित है इस बात को "मोहिनो मुनेः" पद स्पष्ट करता है ।
प्रकृत कारिकामें तीन वाक्य है; जिनमें दो अनुमान वाक्य और एक उनके निष्कर्षको बताने वाला निगमन बाक्य है। यथा--एप गृहस्थी मोक्षमार्गस्थः निर्मोहत्वात् । अर्थात् यह गृहस्थ मोक्ष मार्ग में स्थित है, क्योंकि यह निर्मोह है। २-अयमनगारो नैव मोक्षमार्गस्थो मोहवश्चात् । यह अनगार मोक्षमागमें स्थित नहीं है। क्योंकि यह मोहवान् है ३-तस्मात् मोदिनी मुनेः निर्मोहः गृही श्रेयान् । अर्थान् जो जो निर्मोह होते हैं वे मोक्षमार्ग में स्थित हैं,
और जो मोहसहित है वे नियमसे मोचमार्गमें स्थित नहीं है । अतएव यह निश्चित है और सिद्ध है कि मोही मुनिसे निर्मोह गृहस्थ श्रेष्ठ है; क्योंकि वह मोक्षमार्गमें स्थित है। ___ तात्पर्य यह कि मोक्षमार्ग में सम्यग्दर्शन ही मुख्य और मूलभूत है, यही बात यहां पताई गई है । यद्यपि गृहस्थाश्रमसे मोक्षपुरुषार्थ की सिद्धि न होकर मुनिपदसे ही हुआ करती है । और गृहीके पदसे मुनिक पदकी यह विशेषता चारित्र पर ही निर्भर है, यह ठीक है, फिर भी देश चारित्र हो या सकलचारित्र, उसकी वास्तविकता सम्यग्दर्शन मूलक ही है । जिस तरह किसी मकानकी स्थिति उसकी नींवकी दृढ़ता पर है; वृक्ष या लता आदि अपने मूलके विना टिक नहीं रहसकते, मानव सृष्टि की परम्परा वीर्यपर निर्भर है; उसी प्रकार चारित्रकी मोक्षके लिये साधनभूत संयम या चारिग्रकी स्थिति भी सम्यग्दर्शन पर ही है । मोक्षका परम्परा कारण देश संयम हो अथवा साक्षात कारण सकल चारित्र हो यदि वह सम्पग्दर्शन पर स्थित है तो ही वह मोक्षका साधन अथवा मोक्षके साधनभूत संघर निर्जराका निमिच कारण माना जा सकता है, अन्यन्या नहीं । इसीलिये ग्रन्थकार यहां बताना चाहते हैं कि पनि
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૨૦.
चन्द्रिका टीका तेसर्वा श्लोक मोक्षका साधन चारित्र के द्वारा - ज्ञानपूर्वक चारित्रके द्वारा हुआ करता है फिर भी इन दोनों की स्थिति सम्यग्दर्शन पर ही हैं। इसके बिना जिस तरह विना नींव का कोई मकान आकाश में खड़ा नहीं रह सकता, अथवा विना जड़के वृक्ष स्थिर नहीं रह सकता, निवर्य मानव संतान जीवित नहीं रह सकती, उसी प्रकार सम्यग्दर्शनसे रहित ज्ञान चारित्र भी मोक्षमार्ग में खड़े नहीं रह सकते और न अनन्त कालकेलिये अपने स्वाभाविक और पूर्ण ज्ञानानन्दस्वरूप में आत्मा की स्थितिको उत्पन्न करने तथा बनाये रखने में समर्थ ही हो सकते हैं। वे केवल रागी अज्ञानी जीवोंको अभीष्ट किसी प्रकारकी लौकिक सामग्रीकी ही किसी एक सीमा तक ही उत्पन्न करने में समर्थ हो सकते हैं।
आगम प्राचीनाचार्योंके द्वारा भी यही बात कही गई है। उमास्वामी भगवान् ने भी श्रतों का वर्णन करने का है कि उस अवस्थामें मोक्षमार्ग - मोचके असाधारण साधन हो सकते हैं जब कि वे निःशल्य हों । शन्य से अभिप्राय भाया मिथ्या निदान रूप मोहके तीन विभाव परिणामोंसे हैं। जो कि मिथ्यात्वादि प्रथम तीन गुणस्थानों में ही सम्भव हैं। अतएव निःशन्यका अर्थ सम्यग्दर्शन हो उचित हैं, फिर चाहे वह सम्यक्त्व प्रकृति के उदयसे संयुक्त ही क्यों न हो । तत्र जो बात अन्य आचार्य कहते आये हैं वही बात यहां भी ग्रन्थकी इस कारिकाके द्वारा कही गई है ।
प्रश्न- तीनों शल्योंका सम्भव प्रथम तीन गुणस्थानोंमें ही कहा, यह किस तरह माना वा सकता है ?
प्रतिप्रश्न क्यों नहीं माना जा सकता ?
उत्तर—- क्योंकि यह कथन श्रागमके विरुद्ध हैं ।
प्रतिप्रश्न - वह कौनसा आगमका वाक्य है. जिससे कि हमारा यह कथन विरुद्ध पड़ता है ?
उत्तर -- श्रमममें आर्तध्यानके चार भेद बतायें हैं। उनमें निदानको छोड़कर बाकी atri at श्रार्तध्यान छठे प्रमत्तसंयत गुणस्थानतक पाये जाते हैं। और निदान नामका जो एक आर्तध्यान है यह पांचवे गुणस्थान तक ही पाया जाता है। इससे निदानका सम्यग्दर्शन के साथ भी अस्तित्व सिद्ध होजाता है ।
समाधान - ठीक है । परन्तु राज्य और श्रार्त ध्यानमें अन्तर हैं। आर्तध्यान मोहसहित और मोहरहित दोनों ही अवस्थाओंमें पाया जाता है और वह यथायोग्य कषाय विशेष के उदय की अपेक्षा रखता है। किन्तु शक्य मोहसहित अवस्था में ही संभव है । मतलब यह है कि था वो जो जीव मिध्यात्वसहित हैं उसी के शल्यरूप परिणाम हुआ करते हैं; अथवा तीन प्रकreat शस्योंमें से किसी भी शल्यरूप परिणामके होने पर सम्यक्त्व से जीव व्युत हो
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रत्नकरएशाषकाचार
जाया करता है । साथ ही यह बात भी ध्यानमें रहनी चाहिये कि सम्यक्त्वकी विरोधिनी सात प्रकृतियां है। इनमें से चार अनन्तानुबन्धी करायोको यद्यपि चारित्र मोहनीय कर्म के भेदों में गिनाया है फिर भी इनमें सम्यक्त्व और चारित्र दोनों के विरुद्ध स्वभाष पाये जाने के कारण इनका दर्शन मोहनीय नामसे भी पागम में उल्लेख किया गया है । फलतः जिस समय वह जीव मिथ्यात्व या सम्पग्मिध्याव अथवा अनन्तानुबन्धी रागदपसे प्रेरित होकर तथा सधोग्य उचित सायनोंमे सम्पन्न होकर भविष्यके विषयमें-किसी भी सांसारिक सामग्रीकी प्राप्तिके विषयमें यदि संझन्प करता है तो वहां निदान शल्य हो जाती है।
प्रश्न-राग द्वेष और मोइ तीनों ही से मापनं निदानका होना बताया सो किस तरह बन सकना है ? क्योंकि आगामी किसी विषय की प्राप्तिके संकल्पको निदान कहते हैं। इस तरहका संकल्प राग अथवा मोहक द्वारा की गम है परन्तु गह बारा किस तरह हो सकता है? । उत्तर-~-जिस तरह रागा निमित्तसे अभीष्ट विषयको प्राप्त करनेका कम्प हुमा करता
उमी तरह ईप निमिचौ अनिष्ट विषयको नष्ट करनेका-अप्रिय विरोधी शत्र प्राविक व करने मादिका भी संकल्प हुआ करता है । इसमें कोई विरोध नहीं है । प्रथमानुयोगमें इस के समर्थक अनेकों दृष्टांत पाये जाते हैं । उदाहरणार्थ-श्री आदिनाथ भगवान्ने जयवर्माकी पूर्व पर्याय विघाथरकी ऋद्धिको देखकर रागपूर्वक उसतरहकी ऋद्धि प्राप्त करनेका निदान करके महाबलकी पर्याय प्राप्त की यी । किन्तु श्रेणिक महाराज के पुत्र कुणिकने सुषेणकी पूर्व पर्याय में द्वप पूर्वक-राजा सुमित्रके प्रति जो कि श्रेखिकका जीव था, कोथ करके निदान किया था जिससे वह व्यंतर होकर श्रेणिककी मृत्युका निमिच पनने वाला चेलना का पुत्र अधिक दुमा। पहले प्रतिनारायण अश्यग्रीव ने विशाखनन्दी की पूर्व पर्यायमें विद्याधरकी वृद्धि ग्राम करनेका रागपूर्वक निदान किश था । जब कि उसके विरोधी प्रथम त्रिपृष्ट नारायणके जीवने अपनी विश्वनन्दीकी पर्यायमें विरोधीका वध करनेकेलिये द्वोपूर्वक निदान किया था। इनकी कथाएं प्रथमानुयोगमें१ प्रसिद्ध हैं । इसी तरह और भी भनेक कथाएं हैं जिनसे यह बात सिद्ध होती है कि निदान नामक शन्य रागपूर्वक ही नहीं अपितु देषपूर्वक भी हुआ करती। मोर साथ ही यह बात भी सिद्ध होती है कि या तो या निदान शन्य मिथ्यादि जीवके ही हुमा करती है । अथवा उसके होने पर जीव सम्यक्त्वसे व्युत हो जाया करता है। फलतः पुक्ति अनुभव और आगमके आधार पर यह बात स्पष्ट हो जाती है कि निदान नामक शल्य अथवा तीन प्रकारकी शव्यों में से किसी भी शज्यके रहते हुए जीव चाहे यह प्रतसहित हो अथवा अनरहित, फिन्तु निर्मोह-निशन्य-सम्यग्दृष्टी नहीं रहा करता और न मुक्ति ही वा सकता है।
-णिक चरित्र, महावार परित्र (महाकवि माग)
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........................दिका टीका तेतीला शोक
श्रीविद्यानन्दी भाचार्यने जो इस विषयमें लिखा है तथा "निशन्यो व्रती" की जिस ढंगसे व्याख्या और परिभाषा की है उससे भी यही अभिप्राय निकलता है कि निःशम्यः का अर्थ असंयत सम्यारष्टि करना ही उचित एवं संगन है। इस तरह विचार करने पर मालुम होता है और पुक्ति तथा अनुमान से भी भले प्रकार स्पष्ट हो जाता है कि कोई भी जीव पाहे किसी भी तरहके अणु वा महान् प्रतोंसे भूषित क्यों न हो अब त अन्तरंगमें निःशन्य-निमोह सम्यग्दृष्टि नहीं है तब तक यह मोक्षमार्गमें परमार्थतः स्थित नहीं है।
ध्यान रहे, कदाचित् कोई यह समझे कि इस कथनसे चारित्रका विरोध होता है, अथवा मोचमार्गमें सम्पग्दर्शन के ही सब कुछ मान लेने पर चारित्रकी आवश्यकता ही नहीं रह जाती है । सो यह बात नहीं है । यह कारिका चारित्रका विरोध नहीं करती प्रत्युत उसको दृद्ध बनाती है-मोचमार्गमें उसको वास्तवमें स्थिर करती है। ऊपर भी इस कारिकामा प्रयोजन मोक्षमार्ग में स्थिति बताया जा चुका है। क्योंकि सम्यक्त्व सहित अथवा सत्पूर्वक चारित्र क्रमबद्ध है और समूल है। इसके विरुद्ध सम्यग्दर्शन के बिना जो व्रत चारित्र होते हैं वे मोक्षमार्ग में निश्चित रूपसे परिगणित नहीं हैं। __ मोह कर्म भी दो भागों में विभक्त है-दर्शन मोहनीय और चारित्र मोहनीय । इनसे दर्शन मोह संसार पर्यायका जनक है अथया संसाररूप है। और चात्रि मोह मोह मार्गका विरोधी है-पाथक है। क्यांकि सम्यक्त्व के रहने पर भी जब तक चारित्र मोहका उदय है सत्र तक मोखमार्गकी सिद्धि नहीं होती। किन्तु दर्शन मोहके हटते ही जिस तरह अनन्त संसार समाप्त होकर सीमित हो जाता है-अधिकसे अधिक अर्थ पुद्गल परावर्तन प्रभाख मात्रही उसका काल रह जाता है । यह बात सुनिश्चित है। उसी तरह दर्शन माहके दूर हुए विना चारित्र मोहके मंद मंदतर मंदसम होने पर प्रचारित्र के होते हुए भी जिसके कि फलम्बरूप नवपतक पहुँचा जा सकता है निश्चित रूपस संसार पयाय सीमित नहीं हुआ करती और न मानी ही गई है। यह बात भी सुनिश्चित है। यही कारण है कि सम्यग्दर्शन के प्रकट होने पर जिस तरह जीवको नोसंसारी या जिन प्रादि शब्दोंसे कहा जाता है उस सरह मिथ्याष्टि व्रती को नहीं कहा जाता और इसी लिये जो दर्शन मोहसे रहित है वह संसार से भी रहित है। यह मागे के लिये चारित्र मोहके भी विरुद्ध प्रयत्नशील होनेके कारण मोषमार्गमें स्थित जिन भी कहा जा सकता है। अतएव यह भी कहा जा सकता है कि जो संसार पर्याय का विनाश है वही मोचमार्गका प्रारम्भ है । फलतः जो दर्शन मोहसे रहित है वह अवश्य ही मोक्षमागे में स्थित है फिर चाहे वह गृही हो अथवा मुनि हो । यदि दर्शन मोह से युक्त है तो निश्चित है कि वह मोबमार्गमे स्थित नहीं है फिर चाहे वह साधु हो या गृहस्थ । यद्यपि पा पास भी निश्चित एवं सुसिद्ध कि सम्यग्दर्शन के हो जाने पर जीवकी मोषमार्ग में परति पीर कदाचित् स्थिति हो सकती है। परन्तु उसके मोषमाण की प्रति पर्व छलोदर
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الفقه فيه منفصله معهميعي
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रलकरत्रावानार नब तक नहीं हो सकते जब तक कि यह व्रत चारित्रसे-बाश व्रतानुष्ठानसे भी युक्त नहीं हो जाता । इसलिये ऊपर कहा गया है कि दर्शन मोह संसाररूप या उसका जनक है तब चारित्र मोह मोक्षमार्गका बाधक है।
प्रश्न-दर्शन मोहके दूर होते ही जब संसारका अभाव होगया-तो फिर चारित्र थारख करने की क्या आवश्यकता रह जाती है ? दूसरी बात यह कि यदि चारित्र की आवश्यकता है भी तो जिस तरह गृहस्थाश्रम--सवस्त्रावस्था में-या चारों ही गतियों में दर्शन मोहका उपशम भोपशम अथवा चय माना गया है उसी तरह चारित्र मोहके भी निरसन पूर्वक उस चारित्र की सिद्धि क्यों नहीं हो सकती?
उत्तर-केवल सम्यक्त्वसे ही काम नहीं चलता यद्यपि उससे संसरण सीमित हो जाता है। फिरभी जिस तरह उर्वरा भूमिमें चीज पर जानेसे ही पुष सफल और सम्पन्न नहीं हो सकता उसी प्रकार केवल सम्यक्त्तके प्रकट होजाने मात्रसे ही सम्पूर्ण कर्मों का संवर और निर्जरा नहीं हो जाती । मोवरूप-सिद्धावस्थाके लिये बंधहेत्वभाव और निर्जरा आवश्यक है। और ये दोनों ही कार्य अपने अपने कारणों के बिना सिद्ध नहीं हो सकते । यही कारण है कि सम्यग्दर्शन और सम्य ज्ञान के बाद चारित्र मोहको दूर करने के लिये शरिरतिके त्यागके साथ ही व्रत संयम तप आदि चारित्रके धारण करनेकी आवश्यकता मानी गई है । आगे चलकर स्वयं ग्रन्थकार भी इस बातका प्रतिपादन करनेवाले है। । तथा इसके पूर्व गुरुके लक्षणका वर्णन करते हुए२ पर्वार्धक तीन विशेषणोंके द्वारा अविरतिके साधनोंकी३ निवृत्ति बताकर संवरके साधन
और उत्तरार्धमें बताई गई तीन प्रवृत्तियोंके द्वारा संवर तथा मुख्यतया निर्जराके साधनोंको स्पष्ट कर दिया है। इस तरह ग्रन्थकारके ही आगे पीछके वर्शनपर दृष्टि देनेसे चारित्रकी आवश्यकता स्फुट हो जाती है।
यह समझना भी ठीक न होगा कि सम्यग्दर्शनकी तरह चारित्र भी चारों गतियोंमें या सभी मनुष्यों में पाया जा सकता है। प्रत्युत सत्यभूत तन्त्र यह है कि जिस तरह सम्यग्दर्शनको उदभृत होनेके लिये योग्य अधिकरण आवश्यक है उसी प्रकार चारित्रको भी अपने योग्य अधिकरणाकी भावश्यकता है। यहां अधिकरमासे प्रयोजन जीवकी उन पर्यायोंसे है जो कि उन उन गुयोंकी सम्भूति स्थिति वृद्धि और फलोदयके लिये संभावित पात्रतासे युक्त हैं। जिस तरह असंही श्रादि जीयोंमें तथा मनुष्यों में भी म्लेच्छ५ यद्वा पार्यो में भी जन्मसे सप्तम सप्ताहक
५-रागद्वेष निवृत्यै चरणं प्रतिपयने साधुः ।।२० २०४७॥ २-२० क० कारिका नं० १०|| ३-१० सू० अ०६ सू० ५ “इन्द्रिय-कषायाप्रतक्रियाः" आदि ।
४-चद्गदिमिच्छो सरणी पुण्णो गम्भज विसुद्ध सागाये। पदभुषसमं स गिराइदि पंचमयर लद्विपरि भम्हि ।।२।। ख० सा०
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MAA
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चन्त्रिका टीका चौतीसवां श्लोक पूर्व भोगभूमिज और आठ वर्षको अायुसे पूर्व कर्मभूमिज मनुष्यों में सम्यग्दर्शन के प्रकट होने की अपात्रता है उसी प्रकार तीन गतिके जीवोंमें एवं मनुष्यों में भी द्रव्यस्त्री नपुंसक शुद्र मस ज्जातीय आठ वर्षसे हीन श्रायुवाले आदि समाज संगकी अपात्रमा लाली गई।
___ ध्यान रहे सकल संयमके लिये शरीर कुल जाति आयु थादिकी योग्यता रहते हुए भी वस्त्रसहित अवस्था भी बाधक या विरोधी ही है। वस्त्र धारण करते हुए भी उसकी ममता-- इच्छा-कपाय आदिसे अपनेको रहित प्रकाशित करनेवाली बातें यदि कोई करता है तो निश्चित ही वे अज्ञानियोंको सानेवाली छलपूर्ण ही मानी जा सकती हैं। वस्त्रोंको धारण करते हुए भी यदि कोई यह कहता है कि हमको इनसे ममत्व नहीं है, इनकी हमको इच्छा नहीं है, षा इनसे हमको कुछ भी कषाय नहीं है तो इस बातको एक पामर कन्या भी मान्य नहीं कर सकती क्योंकि यह ध्रुव सत्य है कि अंतरंगमें तयोग्य कपायके बिना उन चारित्रविरोधी बाह्य परिग्रहों का ग्रहण नहीं हो सकता । अस्तु।
प्राचार्यश्री यहांपर जो मोही मुनिसे निर्मोह गृहस्थको मोक्षमार्गमें स्थित और श्रेष्ठ बता रहे है उसका अभिप्राय स्पष्ट है कि वे अन्तरंग और बहिरंग दोनों ही कारणों को मान्य करते हुए बताना चाहते हैं कि अन्तरंग कारण के विना केवल बाह्य कारणसे मोक्षमार्गमें सफलता प्राप्त नही हो सकती। सो यह कथन युक्ति अनुभव आगम और पाम्नाय समीसे सिद्ध है। कोडरू मुंग जिसमें कि गलनेकी शक्ति ही नहीं है गलानेके लिये बाह्य प्रयत्न करनेपर भी गल नहीं सकती। किन्तु इसका अर्थ यह नहीं है कि जिस मुंगमें गलनेकी शक्ति विद्यमान है वह बाबगलाने के निमितोंके बिना ही कोटमें रक्खी रक्खी ही गलकर दाल बन जायगी। साध्य सिद्धि में माम साधनोंको सर्वथा अमान्य करनेवाला व्यक्ति तत्व स्वरूपसे उतना ही मनमा-अज्ञानी प्रथया एकान्त मिथ्यादृष्टि है जितना कि अन्तरंग साधनको सर्वथा अमान्य करनेवालार
___ इस प्रकार मोक्षमार्गकी संभूतिके साथ-साथ उसकी स्थिति भी सम्यग्दर्शनपर ही निर्भर है यह यहां बताकर उसकी पद्धि एवं कल्याणरूप फलोदय भी उसीयर प्राधित है। इस बात की कागेकी कारिकामें दिखाते हैं :
न सम्यक्त्वसमं किंचित् त्रैकाल्ये त्रिजगत्यपि ।
श्रेयोऽश्रेयश्च मिथ्यात्वसमं नान्यत्तनूभृताम् ॥ ३४ ॥ ५-सागारधर्मामृत अ२ श्ला० ६८॥
२-पर्षभवसे मादे सम्बग्दर्शन साथ आरहा है सो वह यहां विवक्षित नहीं है। यहां तो प्रफट होने से मतलब उत्पन्न होनेसे है।
३-जइ जिणमयं पर्वजः ता मा अपहारणिच्छए मुबह । एकेण विणा छिज्जइ तित्थं अएरोण गुण सच्च ।। चरण करणापहाणा ससमयपरमत्यमुस्कवावारा । चरणकरणं समार गियसुद्ध ण जाति ।। णिछायमालवेता गिम्यता णिच्छय प्रजाता। णासिति परणकरए बाहिरफरणालसा कई॥
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रत्नकरण्डेश्रावकाचार अर्थ-शरीरधारी प्राणियोंको तीन लोक और तीन कालमें सम्यक्त्व सरीखा इसरा कोई भी कल्याण या कन्याणका कारक नहीं और मिथ्यात्व सरीखा कोई दूसरा अहित भगवा उसका साथन नहीं।
प्रयोजन-ऊपर कारिका ने० ३२ की उत्थानिकामें जिन तीन विषयों का उल्लेख किया गया था उनमेंस कारिका ३२ में प्रथम विषयको और ऊपरकी कारिका नं. ३३ में दूसरे विषयको दृष्टिमें रखकर वर्णन किये जानेपर क्रमानुसार तीसरा विषय उपस्थित होता है। फलता इस पातकी जिज्ञासा हो सकती है कि यह सम्यग्दर्शन मोधका ही कारण है। अथवा संसारमें भी किसी या किन्हीं विपयोंका कारण हो सकता है ? क्योंकि आगममें इस सम्बन्ध में दो तरह कं वर्णन मिलते हैं । एक तो यह कि सम्यग्दर्शन अथवा रस्त्रय मोक्षका ही कारण है । दूसरी जगह अनेक सांसारिक पदों आदिके लामका भी उसकी हेतु' बताया गया है। अतएव यह जिज्ञासा हो सकती है कि वास्तविक बात क्या है ? सम्यन्दर्शनका सांसारिक फल भी किसी भी सीमा तक और किसी भी अपेक्षासे होता है या नहीं ? अथवा केवल भोक्षका ही कारण हैं । दोनों पक्षों में से किसी भी एक पक्षक सर्वथा मान लेनेपर दसरा पक्ष प्रयुक्त सिद्ध हो जाता है । बस ! यही कारण है कि इस कारिकाका निर्माण आवश्यक हो गया है। क्योंकि यह कारिका इस अयुक्तता अथवा एकान्तवादका परिहार करती हैं। इसके साथ ही यदि इसी विषयको दूसरे रूपमें कहा जाय तो यह भी कहा जा सकता है कि यह कारिका दोनों ही पक्षोंका अपनाभेदसं समर्थन करती है । जब कि ऐसे कोई भी दो विषय जो कि परस्परमें विरुद्ध मालुम होने हुए भी स्याद्वाद पद्धति और भिन्न-भिन्न अपनी-अपनी अपेक्षाओं के कारण तस्वतः श्रापसमें विरुद्ध न हों तो उसका स्पष्टीकरण करना साधारण श्रोताओंके भ्रम-परिहारार्थ उचित और आवश्यक भी है । फलतः यह कारिका इस बातको स्पष्ट करती है कि सम्यग्दर्शनका फल पारलौकिकसंसार और उसके कारणों की निवृत्तिपूर्वक श्रास्माके निज शुद्ध स्वभावको प्रकट करना अथवा उसका प्रकटित हो जाना तो है ही, किन्तु ऐहिक-अभ्युदय विशेष भी इसके फल है, जो कि मात्माके शुद्ध स्वभावसे भिन्न होते हुए भी उसके साहवर्ग एवं निमित्तकी अपेक्षा रखते हैं। जो पास युक्ति, अनुभव और भागमसे सिद्ध है तथा प्रसिद्ध है उस बातको प्रकट न करना, लोगोंको उस सत्याथके ज्ञानसे वंचित रखना, उनके संशय विपर्यय अनध्यवसायको बनाये रखना, फलतः हितसे या हिसके यथार्थ मार्गसे वंचित रखना, अनुचित ही नहीं, पाप है। साथ ही यदि यह बात अपने अज्ञान-मूलक गृहीत दुराग्रहवश सर्वथा मिथ्या बताई जाय तब तो मिथ्यास्य है-भयंकर पाप है । क्योंकि ऐसा करनेवाला मार्गका विरोध करता है, मुमुक्षुओंको १-रलायमिह हेतुर्निर्माणस्यैव भवति मान्यस्य । श्रास्रवत्ति यत्तु पुण्यं शुभोपयोगोऽयमपराभः
॥२२०।। पु० स० २-१० सू० अ०६ सभा २१,२४॥
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भन्द्रिका टोका चौंतीमत्रा श्लोक यथार्थ मार्गसे पंचित रखता है, इस विषयके प्रतिपादन करनेवाले प्राचार्यो-श्रद्धेय गुरुओं मया उनके वचनों – सम्यग्दर्शनके विषयभूत आगमोंके प्रति अश्रद्धा प्रकट करता है । फलतः यह अपने अज्ञान और मिथ्यात्वका पोषण करता है। यही कारण है कि आचार्य भगवान दोनों ही दृष्टिगोंको सामने रखकर धस्तुभृत सम्यग्दर्शनके फलका निर्देश कर रहे हैं। फलतः इस कारिकाके द्वारा वे बताना चाहते हैं कि उपयुक्त दोनों ही कपन परस्पर विरुद्ध नहीं है । अबतक जो कुछ वर्णन किया गया है वह आत्माके विकास-उममें समीचीनताकी संभूति आदिको लक्ष्य में रखकर और उसमें भी खामकर ज्ञानचारिक ही सम्बन्थको लेकर किया गया है । किन्तु यहाँपर प्राचार्य ऐहिक फलका भी समावेश करके इस कारिकाके द्वारा सम्यग्दर्शनके फलको व्यापक पता रहे हैं।
इस तरहसे यह कारिका गत वर्णनका समारोप करती है और आगत विषयक पर्शन की सूचना देती है। क्योंकि अंधतक जो वर्णन किया गया है वह वस्तुतः सम्यग्दर्शनको स्वरूप योग्यता- उसका लक्षण, विषय, अलोपाक, सहचारी गुणों व परिणामोपर पहनेवाले प्रभाव मादिको दिखाता है, साथ ही अनादिकालसे चले आये संसारकै मूलभूत विपरिणामोंका देश स्पागकी-अपने उपभोग्य क्षेत्र प्रात्माको छोडकर चले जानेके लिये दी मई न केवल प्राका ही, किन्तु दी गई भाज्ञाके पालनका प्रारम्भ होचेका भी उन्लेख करता है। जिस प्रकार कोई विजिगीषु अपने क्षेत्रपर अधिकार सभाकर बैठे हुए शत्रु पर केवल विजय प्राप्त करके ही नहीं, अपितु उसको भगाकर और उसकी जगह अपनी आज्ञाका प्रजामें पालन कराकर ही दम लेता है; उसी प्रकार प्रकुनमें समझना चाहिये।
इम कारिकामे आगे सम्यग्दर्शनके आमुत्रिक और ऐहिक फल एवं अभ्युदयोंके लामका वर्णन किया जायगा। किन्तु उसके स्वरूपका वर्णन यहां समाप्त हो जाता है। अतएव प्राचार्य ने इस संबंध में जो कुछ प्रारम्भमें कहा था उसीको वे प्रकारान्तरसे इस कान्किामें दुहरा रहे हैं। साथ ही सम्यग्दर्शनके स्वरूपका जो असाधारण महत्त्व है उसका सम्पूर्ण निचोड मी दिखा
भामार्यनीने जिस धर्मके वर्णन करनेकी प्रतिज्ञा की थी उसका सामान्य स्वरूप उसके पादकी ही कारिका नं० ३ में बताया था कि सम्बग्दर्शनादिक धर्म है। अर्थात् वे कर्मों के
और उनके फलस्वरूप दुःखरूप भावोंके विधामक तथा निज उपम सुखरूप अयस्थाक साधक हैं। इसके साथही यह भी बताया था कि इसके प्रत्यनीक भाव ही संसारके मार्ग हैं। अब प्राचार्य उसी धर्मके प्रधान अंग सम्यग्दर्शनके स्वर एका घ्याख्यान करके अंतमें इस कारिकाके पूर्वार्धमें उक्त धर्म की असाधारण महिमा दिखाकर उसकी सर्वोपरि उपादेयताको स्पष्ट कर रहे है। और
-देखा कारिका नं०२
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निकराडभावकाचार साथ ही जो बात वहांपर 'यदीयप्रत्यनीकानि भवन्ति भवपद्धतिः।" इस वाक्यके द्वारा कही गई थी उसीको यहाँपर प्रकारान्तरसे "अश्रेयश्च मिथ्यात्वसमं नान्यत् तनुभृताम्" इस बाक्यक द्वारा उपसंहाररूपमें दुहरा रहे हैं।
प्रश्न--धर्म तो सम्यग्दर्शन आदि तीनोंकी साटिको यह कहा था और यहां केवल सम्यग्दर्शनका ही महत्व बताया गया है । अतएव इस कथनका सम्पग्दर्शनक वर्णनका उपसंहार तो कह सकते हैं । परन्तु धर्मका उपसंहार किस तरह कहा जा सकता है ? अथवा जो महाच सम्यग्दर्शनादि तीनोंका हो सकता है वह केवल सम्यक्त्वका ही किम तरहसे कहा या माना जा सकता है ? पदा क्योंकर यह कथन उचित समझा जा सकता है ?
उत्तर- ऊपर यह बात स्पष्ट की जा चुकी है कि रत्नत्रयरूप मोक्षमार्ग में प्रधानभूत नेतत्व सम्यग्दर्शनका की है। यद्यपि ज्ञानधारित्र भी अपना असाधारणरूप रखले है फिर भी उनमें समीचीनताका आधान करके उनको मोक्षमार्गी बना देनेका-उनको योग्य समुचित उपादेय दृष्टिमोक्षकी दिशामें मोड देनेकी कृतिका श्रेय तो सम्यग्दर्शनका ही है। फिर ऐसा कौन कृतघ्न होगा जो कि इस महान उपकारके प्रति अपनी कृतज्ञताको प्रकट वरना उचित न समझेगा । यही कारण है कि सम्यक्त्वमूर्ति भगवान् समन्तभद्रने मोक्षमार्गकी सम्पूर्ण सफलताओंको सम्यग्दर्शन पर निर्भर मानकर उसीकी यशोगाथाका यहाँपर उल्लेख करके समन्तती भद्र विषयका उपसंहार किया है। उसकी सर्वाङ्गीण कल्याणरूपताको संक्षेपमें-सूत्ररूपसे यहांपर सूचित कर दिया है।
शब्दों का सामान्य विशेष अर्थ
"म" यह निषेधार्थक अव्या है। निपेथ दो तरहका हुआ करता है एक पदास और इसरा प्रसह्य । यहां पर एयुदास अर्थ नहीं लेना चाहिये क्योंकि किमी की सहशता पताना अभीष्ट नहीं है। केवल निफ्धमात्र ही बताना इष्ट है।
सम्यक्त्वसम्र-यहाँपर तृतीया सभास है। सम्यक्त्वेन मर्म-सम्यक्त्वसमम् ! सम्यक्त्वेका अर्थ सम्यग्दर्शन और सम शन्दका अर्थ तुल्य सदृश या समान होता है। ध्यान रहे समानता दो प्रकारकी हुआ करती है १ ---एक ही वस्तुकी कालकमसं होनेवाली अनेक अवस्थामों में पाई जानेवाली सदृशता । १--एक ही समय में विभिन्न वस्तुओंके होने वाले परिणमनोंमें पाई जानेवाली समानता । इन्ही को ऊर्ध्वता सामान्य
श ल्य , भी शकिसा. मान्य या सादृश्य सामान्य शब्दों से श्रागम में कहा गया है। यह शब्द श्रेयः का विशेष है । जिससे समस्त श्रेयोरूप पदार्थों में सम्यक्त्व की विशेषता सूचित होजाती है।
किंचित-यह एक अव्ययपद है। किम् शब्द से चित् प्रत्यय होकर बना है। इस शब्द का प्रयोग ऐसी जगह हुआ करता है जहाँपर विशेष नाम आदि का निर्देश विवक्षित न होकर सामान्य उस अभीष्ट हो । अतएव इसका अर्थ होता है 'कोई भी' आचार्यका अभिप्राय भी इस शब्दसे सम्पूर्ण द्रव्य या मात्मद्रग्य तथा उनकै समस्त गुणों और उनकी
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चन्द्रिका टीका बीसीमा श्लोक
.............. सभी द्रव्य पयर्यायों एवं अर्थ पर्यायसि है। कारण कि किसी भी वस्तुनचका सर्वाङ्गीण विचार करनेमें उसके द्रव्य क्षेत्र काल भाव इन चारों भेदोंपर दृष्टि रखना उचित ही नहीं
आवश्यक भी होना है। इन चार भेदों में से "कान्ये" और "त्रिजगति" ये करडोक्त शब्द क्रमसे काल और क्षेत्रको स्पष्ट कर देते हैं। फलतः द्रव्य और भाव ये दो भेद जो शेष रहते हैं उन्हींका यहां इस किंचिन् शब्दमे ग्रहण समझना चाहिये।
काल्ये-जयश्च से कालाश्च त्रिकाला:, त एव काल्यम् । इस तरह त्रिकालशब्दसे स्वार्थ पण प्रत्यय करने से यह शब्द बनाना है। प्रथया प्रयाणां कालानां समाहारः, औकाल्यं । इस तरह समाहारपूर्वक त्रिकाल शब्दसे व्या प्रत्यय होकर भी यह शब्द बन सकता है । अर्थ एक ही है-नीन कालमें । भूत भविष्यत् वर्तमान ये तीन काल प्रसिद्ध है। कालद्रव्पकी भूत भविष्यत् वर्तमान अनन्त समय रूप पर्यायों की यहां मुख्यता नहीं है। किन्तु क्रमसे एक ही द्रव्यमें होने वाली अनन्त पर्याय विवक्षित है। मतलब यह है कि किसी भी विवक्षित एक द्रव्य-जीव मुख्यमें होनेवाली भूत भविष्यत् वर्तमान सम्बन्धी अनन्तानन्त द्रव्यपर्यायों और अर्थ पर्यायों में से, इस तरहका अर्थ ग्रहण करना चाहिये।
त्रिजगति-त्रयाणां जगतां समाहारः त्रिजगद, तम्मिन् । अर्थात् तीन लोकमें। जिसतरह ऊपरका "त्रकाल्ये" शब्द ऊर्णता सामान्यको दृष्टिमें रखकर कहागया है उसी तरह यह "त्रिजगति" शब्द तिर्यक सामान्यको लक्ष्य में लेकर कहा गया है। क्योंकि एक जीव की तरह नाना जीवोंकी अपेक्षासे भी प्राचार्य बताना चाहते हैं कि किसी भी विवक्षित एक समयमें सम्पूर्ण अनन्तानन्त जीवोंके पाये जानेवाले भावोंमें से--समस्त द्रव्यपायों और अर्थ पर्यायोंमेले, कोई भी ऐसा भाव नहीं है जो कि सम्पक्त्वकी समानता रखता हो।
अपि-यह अध्ययपद है। यों तो इस शब्दकै सम्भावना, निन्दा, प्रश्न, शङ्का, निश्चय मादि अनेक अर्थ होते हैं। पातुओं के साथ उपसगके रूपमें भी यह प्रयुक्त हुआ करता है। यहां पर इसका अर्थ "मी" करना चाहिये । मतलप यह कि किसी एक जीव-विशेषके भावों में ही यह बात नहीं है अपितु सभी जीवोंके पाये जानेवाले--समस्त संभव मावों में से भी कोई भी मात्र ऐसा नहीं है जो कि सम्यक्त्व के समान माना पा कहा जा सके।
श्रेयः--अतिशयेन प्रशस्यं श्रेयः। प्रशस्य शब्दको श्रमादेश और उससे ईगम् प्रत्यय होकर यह शब्द बना है। नपुंसकलिङ्ग प्रथमा एक वचन और सम्यक्त्वसमं का विशेष्यभूत है। इसका अर्थ होता है-अस्य॒स्कृष्ट कल्याण । मंगल अम्पुदय शुभ शिव मद्र पुपय इत्यादि इसके पर्यायवाचक शब्द हैं। यह कहनेकी आवश्यकता नहीं है कि यहापर यद्यपि मुख्य रूपसे सम्पग्दर्शनको ही-जो कि जीवका शुद्ध स्वतन्त्र महान भाव है। अमेद विवधासे मंगल कहा गया है। किन्तु भेद विवचा और व्यवहारसे अन्य भी कन्याखों का उल्लेख इस वर्णन में आन्तमिशित है । जोकि गौस होनेपर भी सर्गथा उपेषणीय नहीं है। जैसा कि भागेके पर्शन
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रलकर श्रावकाचार से स्पष्ट हो जायगा । और मालुम हो सकेगा कि ग्रन्थकाळ श्राचार्य स्वय सम्यग्दर्शनको गुरुयमंगल रूप मानकर भी, अन्य भी पर और अपर मंगलोंको सम्यग्दर्शनके फखरूपमें स्वीकार करते हैं। किन्तु प्रत कथनसे मालुम होता है कि ये सव इसलिये गौश है कि सम्पग्दर्शनमूलक हैं, उससे अन्यथानुपन हैं । यही कारण है कि "सर्वे पदा हस्तिपदे निमग्नाः" की उक्तिके अनुसार यहां सम्यग्दर्शनको ही सर्वोत्कृष्ट श्रेयो रूप बताया गया है।
अश्रेयश्च मिथ्यात्वमम अन्यत। यह नाक्य मम्मदर्शन के विषय में जो कुछ यहां कहागया है उससे सर्वथा प्रत्यनीकताको दिखाता है । जो इस बावको बताता है कि सम्यग्दर्शनका ठीक विरोधी भाव मिथ्यात्व है जो कि स्वयं अकन्यामरूप है और उसके जितने भी पर अपर फल है वे सब भी अभद्ररूप ही हैं।
तनूभृताम्-तनूः विप्रति इति तनूमृनस्तेषाम् । यहाँ स्वस्यामिसम्बन्धमें पष्ठी होनेसे मालुम होता है कि सम्यग्दर्शन और उसके श्रेयोरूप फलके स्वामी सशरीर व्यक्तियोंको बसाना अभीष्ट है । यद्यपि सामान्यतया सम्यग्दर्शन आत्माकी सशरीर और अशरीर दोनों ही अवस्थाओंमें पाया जाता है । परन्तु अशरीर परमात्मा में पाये जानेवाले परम शुद्ध, मखा , एवं हेतुहेतुमद्भाव या साध्य साधनभाव आदि सम्बन्धों से रहित सामान्य सम्यग्दर्शनका वर्लन प्रकृति में प्रयोजनीभूत नहीं है । संसारावस्थामें सशरीर आत्माओंमें पाये जानेवाले सम्यग्दर्शन के सम्बन्ध में ही प्राचार्य कथन करना चाहते हैं, जहांपर कि उसके श्रेयोरूप फलकी संभावना पाई जाती है।
विशेष यह कि रजत्रयरूप धर्मके वर्णनमें सर्वतः मुख्यतया वर्णनीय सम्यग्दर्शनका प्राचार्य ने जिन अनुष्टुप कारिकामों में यहां वर्णन किया है उनमें यह अन्तिम कारिका है। आगे की कारिकाका सम्यग्दर्शनके फलरूप विषयक परिवर्तनके साथ-साथ इत भी बदल दिया गया है। यहाँ तक जो कुछ वर्णन किया गया है वह अनुष्टुप छन्दद्वारा केवल मुम्यग्दर्शनकी स्वरूप योग्यताके सम्बन्धमें ही है। आगे जो इस अध्याय की मम्म कारिकाओं में वर्णन किया जागा, वह केवल उसके प्रसाषारस फलका ही विदेश करनेवाला होगा।
तात्पर्य- सम्यक् शब्दका व्युत्पन और भव्युत्पम दोनों ही पचमें गई प्रशंसा ही। यह विरोषण होनेसे दर्शन शान चारित्रकी ही नहीं, किसी भी अपने विशेष्यकी प्रशंसाको व्यक्त कर सकता है। श्रेयस् शब्दका अर्थ ऊपर निरुक्तिके अनुसार अतिशय प्रशंसनीय कामा चुका है। फलतः यहोपर कथित सम्बकत्व शम्मको केवल विशेषण मान लेनेपर म उपित एवं संगत नहीं बैठता क्योंकि दोनों ही शब्दोंका समाम मर्च होजाने से उसका मर्म शेमाल प्रशंसाको बराबर मविषय प्रशस्य कोई भी नहीं है। अतएल "नामका एकदेश भी पूरे मामका
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पन्द्रिका टीका चौंतीसा श्लोक रोषक होता है," इस उक्तिके अनुसार सम्यक्त्व शब्दसे सम्यग्दर्शन गुण-बह भाव लेना पाहिये कि जिसके यथार्थरूपमें आविर्भूत होते ही आत्माका प्रत्येक अंश अपूर्व समीचीनताके रूप परिमाप्त हो जाया करता है। अब इसका अर्थ यह होगा कि इस सम्यग्दर्शनके समान अन्य कोई मी द्रव्य गुण पर्याय या स्वभाव अत्यन्त प्रशंसनीय नहीं है। जिसका मतलब यह होता है कि यद्यपि सामान्यतया अथवा अन्य अन्य अपेक्षाओंसे प्रशंसनीय अन्य अन्य पुण धर्म स्वभाव भी हैं परन्तु सम्पग्दर्शनकी बराबर प्रशंसनीय कोई भी नहीं है।
प्रश्न यह हो सकता है कि ऐसा क्यों? उत्तर यह है कि इसमें जो दो असाधारण विशेषताएं हैं पे अन्यत्र नहीं पाई जातीं। इस विषयको राष्ट्रान्त द्वारा स्पष्ट कर देना उचित प्रीत होता है।
प्रश्न-मीठी चीज क्या है ? उपर-पुत्रका वचन । पुनः श्न-अच्छा. किंतु और भी अधिक मीठी वस्तु किसको समझना चाहिश १ उत्तर-पुत्रके ही वचनको । पुनरपि पृच्छाठीक है, परन्तु संसारमें सबसे अधिक मधुर किसको कहा जा सकता है ? उत्तर-वही पुरा वचन यदि श्रुनिपरिपक्क हो । अर्थात् विद्याधुद्धिसे युक्त अनुभवी पुत्रके वचन संसार में सबसे अधिक मधुर है।
यह केवल एक लौकिकर मुक्ति के आधारपर कहा गया दृष्टान्त मात्र है । इसपर से इसमा ही अर्थ लेना चाहिये कि जो जितना अधिक निर्विकार है वह उतना ही अधिक प्रिय है। उसमें भी अधिकतर प्रिय वह है जो निर्विकार होकर आत्मीयतामें अधिक से अधिक निकटसर हो । बच्चा स्वभावतः निर्विकार है अतएव सबको प्रिय है। यदि अपना बच्चा हो तब हो सहज ही अधिक प्रिय होता है।।
एक इसी तरहकी युक्ति और भी है। कहा जाता है कि "समस्त कुरुम्बका जो उद्धार करदे ऐसा व्यक्ति तो गोत्र भरमें एक ही हुआ करता है।" इसका तात्पर्य इतना ही है कि समस्य जीवोंका कल्याण करनेवाली वास्तविक योग्यता सुदुर्लभ है।
दोनों ही दृष्टान्तोंसे अभिप्राय यह लेना चाहिये कि जो अधिक से अधिक निर्विकार है वीतराग है, साथ ही जो अधिक से अधिक हान-दिवेक आदिसे सम्पन्न होकर प्रात्मीय है, फिर इसपर भी पदि वह सबका उद्धार-कन्या- करनेवाला है तो वही सबसे अधिक श्रेष्ठ
___ सम्पग्दर्शनमें ये तीनों ही बातें पाई जाती हैं, साथ ही पुत्रके दृष्टान्तकी अपेक्षाशी कहीं भषिक और वास्तव रूपमें पाई जाती हैं। सम्यग्दर्शन भी निर्विकार है, विवेकपूर्ण होकर मात्मीय है, प्रास्माके समस्त द्रव्य मुख पर्यायरूप कुटुम्बका सच्चा उद्धारक है। तीन लोकमें १-किं मिष्टं सुतवचनं मिष्टतरं किं सदेव मुतवचनं । मिष्टानिमष्टतर कि अतिपरिपक्वं तदेव सुतकवनं ।। २-पस्ने गोत्रे मनाति स पुमान् वा कुटुम्ब पि ।
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कारभावकाचार
areanamannmanna
किसी भी जीवका इस ताहका उद्धारक-हित करने वाला आजाक न कोई हुमा, न है, न होगा।
किसी भी विवक्षित समयमें पाई जानेवाली समस्त जीवोंकी शुभ अवस्थाओं अथवा कल्याणके कारणों में सम्यग्दर्शनकी बराबर कोई भी हित रूप अवस्था या उसका कारण नहीं . पाया जा सकता यह बात नाना जीचोंकी अपेक्षासे है। किन्तु एक व्यक्ति की अपेक्षा भी यही बात है। उसकी क्रमसे होनेवाली औकालिक सभी प्रशस्त अवस्थाओं अथवा गुणधर्मों में से कोई मी ऐसा नहीं पाया जा सकता जो कि जीवका कल्याण करनेमें सम्,ग्दर्शनकी तुलना कर सके । अबतक जिन अनन्त जीवोंने संसारके अनन्त दुःखोंसे छुटकारा पाकर अनन्त शास्वत अन्यावाथ उचम सुखको प्राप्त किया है अथवा कर रहे हैं, या मागे उसको प्राप्त करेंगे उसका थेय सम्यग्दर्शनको ही है क्योंकि उसका सबसे प्रधान और मूल कारण सम्यग्दर्शन ही था, है, और रहेगा।
काल्ये और बिजगति शब्दोंसे श्रेयोरूप विषयोंमें ऊर्यता सामान्य सथा नियक सामान्य की दृष्टिसे विचार करना चाहिये । यह बाब ऊपर कही जा चुकी है। क्योंकि ऐसा करन से एक जीवकी शपेश एवं नाना जीवोंकी अपेक्षासे कोई भी कहीं भी कभी भी होनेवाला हित रूप परिण म शेष नहीं रहता। इसके साथ ही दोनों शब्दों में जिस सप्तकी विभक्तिका निर्देश किया गया है नह भयारणार्थक हैं। इससे गौणतया यह बारा भी स्पष्ट हो जाती है कि हितरूप या हितका साधक केवल सम्यग्दर्शन ही नहीं है। अन्य भाव भी है। उदाहरणार्थ-यदि कोई यह कहता है कि "गोत्रों में काली गो अच्छा दूध देती है ।" तो इसका अर्थ यह नहीं होता कि काली गौ के सिवाय अन्य मौए दूध ही नहीं देती। उसकाअाशय तो इतना ही है कि दुध देनेवाली दो अन्य भी गौए हैं। परन्तु उन सबमें काली गी अधिक और अच्छा दूध देनी है। इससे अन्य गौओंका भी दूध दना स्पष्ट हो जाता है । प्रकृतमें भी यही बात समझनी चाहिये। जीवके लिये श्रेयस्कर तो अन्य भी परिणाम या भाव होते हैं, परन्तु उन सबमें सम्यग्दर्शन अद्वितीय असाधारग्गु और मुख्य है, स्वयं सम्यग्दर्शन जिन परिणामों या प्रवृत्तियोंसे अथवा भावोंसे प्रकट होता है, सम्यादर्शन की विरोधिनी फर्म प्रकृतियोंका हास जिन भावोंसे होता है, पा हो सकता है, करण लम्थिरूप अथवा उसके लिये भी जो परिणाम एवं प्रवृत्तियां साक्षाद अथवा परम्परा निमित्त है, जो जो साधक निमित्तरूप हैं अथवा प्रतिबन्धक कारणके विरोधी हैं वे सब भी प्रात्माके हिवरूप ही है फिर चाहे वे जीवक आभन्न परिणाम हों अथवा भिन्न द्रव्य क्षेत्र काल भाव ही क्यों न हो। इसके सिवाय सम्यग्दर्शनक प्रकट होनके बाद भी उसके उद्योतन उबरन निर्वाह सिद्धि और निस्तरणमें अन्तरंग बहिरंग अनेक एवं अनेकसिथ जो जो साधन k-निर्धारणार्थक यथा निर्धारणे ।। ४०७ ।। कातन्त्र । तथा यतश्च निर्धारणम् " ॥ २-३-४१६ पाक सि० को०। गांगो बाया सम्पन्नक्षीरा।।
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धान्नका टीका चौतीसका श्लोक
सा अपेक्षित ह व सब भी अात्माकं हितरूप ही हैं। यों तो पुण्य कर्म आर उनके जितने भी कारण तथा फल है व भी लोकर्म इष्ट-प्रशस्त तथा हितरूप माने जाते हैं परन्तु जहातक उनका सम्यग्दर्शनस सम्बन्ध नहीं है वहांतक तच्चज्ञानियों की दृष्टि में वे परमार्थतः आन्माके हितरूप नहीं हैं। किन्तु सभ्यग्दर्शन तो वस्तुतः आत्माके कल्याणकारी भावों में सर्वोपरि है। उसकी तुलना कोई भी श्रेयोरूप भाव नहीं कर सकता। मोहमार्गका सम्राट् गदि उराको कहा जाय तो अत्युक्ति न होगी : योग्य राजाके रहते हुए उसकी समीचीन दृष्टिक नीचे राज्य सभी अंग जिस तरह ठीक ठीक काम किया करते हैं उसी प्रकार प्रकृतम भी समझना चाहिये।
अन्य द्रव्यों की तरह आत्मद्रव्यके भी मुख्यतया चार भाग हैं। द्रव्य क्षेत्र काल और भाष । सम्भग्दर्शनक होनेपर ये चारों ही विभाग दुःखरूप संसारके विरुद् और उत्तम मुखमय मोक्षावस्थाके अनुकूल ठीक-ठीक कार्य करने लगते हैं । कान्य और त्रिजगति शब्द सामान्यतया काल और हिभागकम तदित कर देते है। इसी प्रकार किंचित शब्द द्रव्य और भावको बोध कराता है।
सम्यग्दर्शनके प्रकट होनेपर अथवा उसके पूर्व इस नन्मृनु-संमारी प्राणीक श्राबद्ध द्रव्य कर्मों या भाव काँकी अवस्था में जो लोकोत्तर निर्माणोन्मुखताको सिद्ध करनेवाला अपूर्व परिवर्तन होता है तथा उसके फल स्वरूप आत्मद्रव्यकी विशुद्धिमें जो सर्वाङ्गीण आधिभाव होता है, इसके साथ ही आत्माकी द्रव्यपर्यायों में प्रदेश या क्षेत्रकृत जो संसारकी अनन्तसंततिको सीमित करनेवाला अद्भत भाव संस्कार प्रादुर्भूत हो जाता है, अधिकतर निकृष्टतम और निकृष्टतर तथा विविध निकृष्ट अर्थ-पर्यायों का अत्यन्ताभाव हो जाता है, संसार लतिका और उसके विपफलो का जो वंश-ध्वंस करनेवाला वीजगत रसक्षय होता है, वह अन्य किसी भी कारणसे संभव नहीं है । तीन लोकमेंसे कहीं भी किसी भी प्रात्मामें और कभी भी सम्यग्दर्शन के विना अन्य किसी भावके द्वारा कर्म और आत्माका यह चतुर्विध अपूर्व अयोरूप विकाश न हा. न है, न होगा । यही कारण है कि प्राचार्य संसार दुःखोंसे हटाकर उत्तम सुख-अनन्त अध्यावाध शुद्ध स्वाधीन नःश्रेयस अवस्थाके असाधारण कारण रखत्रयरूप धर्म में सर्वप्रथम आदरणीय एवं उपादेय सम्यग्दर्शनका इस अध्यायमें वर्णन करके इस कारिकामें उसकी महिमा का सार एक ही वाक्य के द्वारा बताते हुए कहते हैं कि इस जीवका वास्तविक कल्याण करनेवाला सम्यक्त्वकी घरावर हीन लोकों में-सुर असुर और मर' लोक में न कोई ड्या, न है, न होगा। साथ ही इस बातको भी वे स्पष्ट कर देते हैं कि जिस तरह जीयका कल्याण करनेवालोंमें सम्यग्दर्शन सर्वोपरि है, उसी प्रकार जीवके हितों या कल्याणोंका विध्वंस करनेवालोंमें मिथ्यात्यकी परापर और कोई नहीं है, वह भी सर्वोपरि है। यह इसलिये कि संसारके दुःखासे अबडाये हुए भव्य प्राणी अपनी मनादि दुःख परम्परा के मूलभूत वास्तविक अन्तरंग कारणको समझकर उससे सावधान हों और उससे पचे रहनेमें अप्रमत्त बने रहें। साथ ही अनन्त लक्षय कर्म
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NAMAN
रलकरकालावधवार आयकोर पवारणभूत दोषि-समाधिको सिदिमें सम्पादनको प्राप्तकर सम्पूणे सफलता प्राप्त कर सकें। ___ सम्पग्दर्शनके होनेपर जीवात्माको जो-जो फल प्राप्त होते हैं उनको सामान्यतया दो भागा में विभक किया जा सकता है। अन्तरंम और बाझ अथवा नैःश्रेयस और भाभ्युदयिय । इस अवसर पर इन दोनों फलोंका निरूपण करना भी उचित और आवश्यक समझाकर काम सबसे पहिले अन्तरंग अथवा नैःश्रेयस रूप प्रधान फलका वर्णन करते हैं:
सम्यग्दर्शनशुद्धा नारकतिर्यक नपुंसकस्त्रीत्वानि ।
दुष्कुलविकृताल्पायुर्दरिद्रतां च ब्रजन्ति नाप्यतिकाः ॥३५॥ अर्थ-जो शुद्ध सम्पादृष्टि हैं वे प्रतरहित होकर भी नरकगति, तिर्यम्गति, नपुसक लि, स्त्रीलिङ्ग, दुष्कुल, विकृत अवस्था, अन्य भायु और दरिद्रताको प्राप्त नहीं किया करते ।
प्रयोजन---यह कहनेकी आवश्यकता नहीं है और यह कहावत भी सर्वजन-सुप्रसि. कि "या या क्रिया सा सा फलवती" कोई भी क्रिया क्यों न हो उसका कुछ न कुछ फल अवश्य होता है। साथ ही यह भी उक्ति प्रसिद्ध है कि "प्रयोजनमन्तरा मन्दोऽपि न प्रवर्तते।" साधारण शान रखनेवाला भी व्यकि किसी भी काम यिना प्रयोजनके नहीं सुना करता । इन उक्तियों के अनुसार सम्यग्दर्शन-श्रद्धानरूप क्रियाका फल और प्रयोजन बताने के लिये इस कारिकाका निर्माण आवश्यक हो गया है। क्योंकि देखा जाता है कि अज्ञान और अविवेकपूर्वक कुछ लोग ऊटपटांग क्रियाएं भी करते हैं। फल तो उसका भी फिर चाहे वह हानिकारक ही क्यों न हो, होता ही है। इसी तरह तबझानसे शून्य-विपरीत संशयित आदि मिध्या श्रद्धानी मोडी पुरुषोंके द्वारा ऐसे प्रयोजनको टिमें रखकर भी प्रवृत्ति हुआ करती है, जो कि अहितरूप एवं भनिए ही है । अतएव हितरूप अभीष्ट फलको उत्पन्न करनेवाली क्रियायें कौनसी हैं और उनका फल क्या है, यह बताना आवश्यक है । आत्माका बास्तविक हिस-कन्याय करनेवाली सर्वोत्कृष्ट क्रिया सम्यम्दर्शन है, यह ऊपरके कथा से मालुम हो सकता है। किन्तु यह ऋधन उस क्रियाक फल निर्देशके द्वारा समर्थित होना चाहिये । जिस तरह श्राचार्योंने सम्पमझामकी प्रमाणताका वर्णन करते हुए स्वरूप संख्या विषय विप्रतिपत्तियोंका निराकरण करके अन्त में अज्ञाननिवृचि और हानोपादानोपेचारूप फलको बसाकर फल-विपतिपत्रिका भी परिक्षार करके यह स्पष्ट कर दिया है कि सम्याज्ञानकी प्रमाणता-अथवा ज्ञानकी वास्तविक समीचीनता सभी मान्य-आदरणीय-विश्वसनीय हो सकती है जब कि इन कथित चार४ प्रकारके फलों से कोई भी १-दुक्खखभी, कम्ममाओ, बाहिलाहो, समाहिमरणं इत्यादि इष्टप्रार्थनायाम् ॥ २-यस्य कस्य तरामूलं येन केन मोजितम् ।। यस्मै कस्मै प्रशसभ्य यदा तदा मिष्यति ॥ लोकोकि।
-जीवाल, गोमेधावियाह, सतीदाइ, शाम सुरापान मा ॥ ४-मानमिति, सन, पादाम और सेवा महाममिचिदानोपाबानोपेचारच फलम् प० मु०-१॥
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चन्द्रिका टोका पैंतीसादा श्लोक उसका फज्ञ अवश्य हो । अन्यथा पाश्रत्य प्रकट करने या खण्डन करने आदिके अभिप्रायल सम्यस्वका प्रतिष नन करनेवाले आईत शास्त्रोंका अध्ययन करके ज्ञान प्राप्त करनेवाले मिध्यावष्टियों कशानको भी जिपसे कि वास्तवमें अज्ञानकी वृित्ति नहीं हुई है, सम्पग्ज्ञान अथवा प्रमाण पानना पडेगा । अतएव सम्यग्ज्ञान बही है और दही सम्यग्ज्ञान प्रमाण है जिसके कि होनेपर ज्ञानमेंसे प्रताधिक मान्यता अथवा मोहजनित मिथ्या श्रद्धा या रुचि निकल जाती है। और कम से कम इस अमानकी अन्तरंगसे निवृत्ति के हो जाने पर ही वह ज्ञान सम्यक् अथवा प्रमाण माना जा सकता है। इसी प्रकार सम्यग्दर्शनके विषयमें समझना चाहिये । यह अत्यन्त उचिन युक्ति युक्त और यावश्यक है कि कोई भी क्रिया जब हो तब उसका बस भी अवश्य हो। फल दो भागोंमें विभक्त हो सकते हैं । अन्तरंग और वाय, अथवा प्रत्यक्ष और परोक्ष, यद्वास और पर। यहांपर इन्हीं फलों का वर्णन करनेकी दृष्टिसे प्राचार्य सबसे प्रथम अत्यन्त निकटवर्ती भन्तरङ्ग प्रस्पक्ष स्व-पर फलका उल्लेख करके इस कारिका द्वारा बताना चाहते हैं कि जीवमें यदि वह शुद्ध है तो, और नहीं है तो अर्थात् अबद्धायुष्क या बद्धायुष्क दोनों ही अवस्थाओंमें सम्यग्दर्शनभद्धानरूप क्रियाके होते ही स्व-उस जीवमें और पर--उसमे बंधनेवाले क्रमों में इस प्रकारका विवक्षित परिवर्तन हो जाता है। क्योंकि सम्यग्दर्शन प्रकृत में उस प्रतिशात थर्मका प्रधानभूत एख्य और प्रथम भाग है, जो कि संसारके दुःखोंसे हटाकर जीवको उत्तम सुखरूपमें परिणत करनेवालों में से एक है । फलतः यह प्रावश्यक है कि सम्यग्दर्शनरूप धर्मके श्रास्मामें प्रकट होते ही वह जीव यथासंभव दुःखरूप अवस्थाओंसे मुक्त हो और उनके कारणोंसे भी रहित होकर मैःश्रेयस मुखरूप अवस्थाकै मार्गमें अग्रसर हो । अतएव सम्यग्दर्शनके होते ही जीव इन दोनों ही विषयों में कमसे कम कितनी सफलताको निश्चित रूपसे प्राप्त कर लेता है, यह बताना ही इस कारिकाका प्रयोजन है। क्योंकि इस कारिकाके अर्थको हृदयंगम करनेपर श्रद्धावान मास्तिक संविग्न मुमुक्षु निकट भव्यको ऐसा मालुम होने लगता है कि मेरा यह भनादि दुःखपूर्ण संसार अब समाप्तप्राय है-और जो कुछ शक है उसको भी निष्प्राणित कर देना मेरे बायें हारका खेत है। तथा अनन्त अव्यावाध मेरा सुख मेरे हाथमें है। इसी दृढ श्रद्धाके कारण उसका परम पुरुषार्थ, परम पुरुषार्थ के विरोधी कोका क्षय करने के लिये उद्युक्त होता है। और उसके मसम साहसका वह ऊर्ध्वमुखी सतत प्रयोग चालू रहता है, जो कि शुद्ध सिद्धास्माको तनुपावषालयकै अन्तमें शीघ्र ही उपस्थित करने में समर्थ होता है, जिसका कि भगवान् उमास्वामीने प्रपोंगर शब्दके द्वारा हेतुरूपमें उन्लेख किया है।
परकी कारिकामें सम्पपत्र और मिथ्यावकी कपसे अनुपम श्रेयोल्पता और दुसरूपता का उन्क्षेस किया है जिससे उनकी मोक्षरूपता तथा संसारपोजता तो म्पष्ट शेती ही है, साथ ही यह भी स्पष्ट हो जाता है कि सम्यग्दर्शनके प्रादुर्भूत होते ही । पूर्वप्रयागादसमस्या बन्धनमायागांतपरिणामाच । स० सू. १०-६॥
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रत्नकरगड श्रावकाचार
संसार और मोaat साधक अवस्थाओं के अन्तरङ्ग बाहरंग कारणोन अपूर्व एवं महान् परिवर्तन भी अवश्य होजाता है, जो कि होना चाहिये | संसारके कारणभूत कमोंमें और मां के साधनभूत आत्मा शुद्ध भावोंमें वह परिवर्तन कितने प्रमाण में और किस रूपमें हो जाता है यही यात इस कारिका के द्वारा बताई गई हैं।
मिथ्यात्व के साहचर्य में जिन जिन पापक्रमोंका बन्ध अतिशयपूर्ण हुआ करता है, अथवा उसके निमित्तमे ही पापरूप कर्मोका बन्ध हुआ करता है, वे सम्यग्दर्शन के होनेपर की प्राप्त नहीं हुआ करते । फलतः संसार और उसके कारणोंका दास रूप फल स्पष्ट होता हैं। इसके लिये वे कर्म कौन-कौनसे हैं- कितने हैं, तथा उनका क्या-क्या वह कार्य हैं जो कि दुःख रूप संसारके मुख्य स्थान माने गये हैं और जो कि आत्माके गुणका स्थान बढते ही छूट जाते हैं, उनका इस कारिका के द्वारा उल्लेख किया गया है। यद्यपि इसके साथ ही मोच की साधक अवस्थाओंके कारणभूत पुण्य कर्मोंमें सम्यक्त्वके सानिध्य के ही कारण जो विशिष्ट अतिशय आता है उसका उल्लेख करने से सम्यग्दृष्टि जीवकी मोक्षमार्गमें होनेवाली अग्रसरता प्रतिरूप फलका भी स्पष्टीकरण होता है अतएव उसका भी वर्शन करनेकी आवश्यकता है। किन्तु इसका वर्णन आगेकी कारिकाश्रमें क्रमसे किया जायगा । यद्यपि प्रतिपक्षी कर्मोंकी व्यवस्थाओं के परिवर्तनको ज्ञान लेनेसे बढती हुई श्रात्म गुणोंकी विशुद्धिका परिज्ञान भी स्वयं ही हो जाता है या हो सकता है। फिर भी अन्तरंग - बहिरंग उन अनेक आभ्युदयिक अवस्थाका सम्यग्दर्शनके फलरूपमें बताना भी आवश्यक हैं जो कि सातिशय पुण्यकम सम्बन्धित हैं और उधम सुखकी सिद्धि तथा मोक्षमार्गको प्रवृत्ति और प्रतिपक्षी कर्मोकी निवृत्तिमें बलवत्तर बाह्य असाधारण साधन हैं। इनका उल्लेख आगेकी कारिकाओंमें किया जायगा । परन्तु इसके पूर्व संसारनिवतिरूप फका प्रथम उल्लेख करना इस कारिकाका मुख्य प्रयोजन है ।
आत्मा की सिद्धावस्था के उपादान एवं मूलभूत प्रतीक सम्यग्दर्शनके प्रकट होनेपर भी यदि संसारकी उपादानकारणता उसमें बनी रहती है और भत्र भ्रमण के कारणभूत कर्मोंका बंध भी ज्योंका त्यों ही होता रहता है तो दुःखरूप संसारसे सर्वथा विरुद्ध मोक्ष अवस्थाका सभ्यदर्शनको असाधारण कारण मानने या कहनेका तथा अपूर्व उत्तम अनन्त निबंध सुखका उसको हेतु चतानेका कोई अर्थ ही नहीं रहता । और न उसको इस तरहका धर्म हो वस्तुतः स्वीकार किया जा सकता है, जो कि संसारका विरोधी होनेके सिवाय मोक्षका ही साधक हो । किन्तु इस कारिकाके द्वारा मालुम हो जाता है कि किस तरहसे सम्यग्दर्शनक होते ही संसारका ममूल विनाश और मोक्ष- अवस्थाका प्रारम्भ होजाता है ।
शब्दका सामान्य विशेष अर्थ -
सम्यग्दर्शनशुद्धः - हम शब्दका सर्व तीन तरहसे किया जा सकता अथवा हो सकता है।
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+mauni.reaturdarsam
का टीका श्रीमानक पहला "मम्यग्दर्शनं शुद्ध निर्मलं येषां ते " । अर्थात् शुद्ध-निर्गल है सम्यग्दर्शन जिनका । दूसरा "सम्यग्दर्शनन शुद्राः । अर्थात् जो सम्पग्दर्शनसे शुद्ध हैं । इन दोनों अर्थों से पहलेमें सम्प. ग्दर्शनकी शुद्धता-भिस्ती कारवा अथवा२५ मलदोषोंने रहितताका अर्थ व्यक्त होता है । और दूसरे अर्धर सम्पग्दर्शनसे विशिष्ट आत्माको विशुद्धि-द्रव्यकर्म, मावक, नोकर्म विशेपोंके सम्बन्धसे साहित्य तया अात्माके द्रव्यचत्रकालमात्र अंशतः भपूर्व स्वास्थ्य स्वाधीनना प्रकाश
आनन्द और प्रमिपक्षीपर लोकोत्तर विनय लामो जना मुक्ति सुखके अनुभवकी पर-सम्बन्ध रहित महत्ता सूचित होती है । इस तरह दोनों अर्थोस एकमे-पहलेमें धर्मकी और इसमें धर्मीकी विशुद्धि बनाई गई है।
संस्कुस टीकाकार श्रीप्रभाचन्द्रने इस शब्दका अर्थ बताते हुए जा छ लिखा है उससे मालुम होता है कि उनको शुद्ध शब्द से अबदायुष्कता अर्थ अभिनत ई, जो कि सर्वधा उचित संगत और प्रकृत कथनके अनुकूल है। किन्तु उन्होंने जिस तरहका बहिसमासका विग्रह किया है, उससे वह अर्थ स्पष्ट नहीं होता। अतएव हमारी समझमे इसी अर्थको बताने के लिये यदि यह विग्रह किया आय कि "सम्यग्दर्शन य ते सम्यग्दर्शनाः सम्यग्दृष्टया जीवाः तंए राहा:-असद्धायुष्का इति" अर्थात् सम्यग्दर्शनशुद्धाः इस शब्दसे यहांपर मुख्यनया जी सम्पग्दृष्टि होकर अद्धाधुष्क है--- जिनके परभव-सम्बन्धी प्रायुतमका अभीतक बन्ध नहीं हुआ है, इस तरहका तीसरा अर्थ ग्रहण करना चाहिये। ___ यद्यपि जो बद्धायुष्क हैं--जिन जीवोंने मिथ्यात्व अवस्थामें परमत-सम्बन्धी आयुकर्मका बन्ध कर लिया है वे जीव भी भायुकर्मका बंध होने के बाद सम्यग्दर्शमको प्राप्त होजाते हैं, ऐसे जीव बद्ध आयुकर्मके अनुसार सम्यग्दृष्टि होकर भी उस गतिकी-- नरक नियंच गतिको भी प्राप्त किया करते हैं। क्योंकि आयुकर्म बन्धनेके बाद उदयमें आये बिना कूटता नहीं है। किन्तु इस अवस्थामें भी उस जीवका वह सम्यग्दर्शन महान् उपकार किया करता है क्योंकि जिसके नरकावुका बध होकर सम्यक्त्व हुभा है। वह जीष सभ्यवत्त सहित मरण करनेपर प्रथम नरश्ते नीषेके नरकोंमें जन्म धारण नहीं किया करता४ । इसी प्रकार तिर्यगायुका बंध होनेके बाद जिस जीवने सम्यक्त्व ग्रहण किया है वह सम्यक्त्वसहित मृत्यूके अनन्तर भोगभूमिमें पुरुष नियंत्र हुमा करता५ है । यदि कोई तिर्यच अथवा मनुष्य परमत्रकी मनुष्यायुका बंध करके सम्बाद
१-प्रमाचन्द्रटीको । २-निरुक्ति (सि० शा० पं० गौरीलाल जी)।- सम्यग्दर्शनलाभार कुस्कान विहाय अन्येन मात्रजन्ति-न प्राप्नुवन्ति ।
४-यत्सकदकमेव यथोक्तगुपतया मजातमशेषकक्षमपधिषणतया नरकादिषु गभियु, पुष्यदायुभामपि मुष्याणां षट्सु तलपातालेषु भवान सभूतिहेतुः । यति० प्रा०६। तथा "प्रथम नरकबिन पडणू गोसिप, आदि छाडाला।
५-प्रारम्भिककालात्पूर्व सिर्थ मनायुकोऽपि सटभोगभूमितिमतपेयेवोत्यवत्त सि।
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रलकरएसावकाचार पनता है और सम्यक्त्वसहित ही मृत्युको प्राप्त होता है तो यह भी मोगभूमिमें पुरुष ही हुमा करता है। देव और नारकियोंकी आयुके विषय में अन्सर है । क्योंकि उनके मनुष्य और तिर्थ गायुका ही यंथ हुआ करता है । देव मरकर देव या नारकी नहीं हुमा करवा उसी प्रकार नारकी मरकर नारकी या देव नहीं हुआ करता ।
किन्तु यहांपर प्राचार्य सम्पादृष्टिको नरक और तिर्यग्गतिमें जन्म ग्रहण करनेका सर्वथा निषेध कर रहे हैं । अतएव स्पष्ट है कि यह कथन अपद्धायुगक जीवोंकी अपेक्षास ही समझना चाहिये। और इसीलिये “सम्यग्दर्शनशुद्धाः" शन्दका अर्थ अबद्धायुष्क सम्यष्टि ऐसा ती करना उचित संगत है नारक-तिर्यक नए मकस्मीन्यानि-नारक आदि चारों शुदाय इतरेतर समास करके भाव अर्थम स्व प्रत्यय करनेपर नपुसकलिंगके बहुवचनमें यह शब्दर बनता है । इतरेनर और समाहार द्वन्द्वमें जो विशेष्यविशेषणमाक्में अन्तर पड़ता है उसका पनि पहले किया जा चुका है। तदनुसार यहाँपर भी समझना चाहिये । शब्दोंका अर्थ इस प्रकार है. जिस जीवके नरक आय और नरकगति नामकर्मका तथा कदाचित् नरक गस्यानुपूर्वी नाम कर्मका भी उदय पाया जाता है उसको नारक अथवा निरुक्तिभेदके अनुसार नारन भी कहा जाता है । इस पर्यायके थारण करनेवाले जीवोंमें प्रायः सुखकी मात्रा नहीं पाई जाती इसलिये इनको नारक और इनके वहांके द्रव्य व काल भात्र अथवा परस्पर में स्नेहका भाव नहीं रहा करना इसलिये नारत भी कहा जाता है । क्योंकि नरक आयु आदि कर्मोके उदयसे प्राप्त द्रव्य. व्यंजन पर्यायके धारक इन जीनोंको वहांको शरीर एवं इन्द्रियों की विषयभूत द्रव्य सामग्रीमें तथा उत्पनि उठने बैठने घूमन आदिके चत्रमें और अपने जीवनकाल एवं वेदना कपाय श्रादि भावोंमें अनुराग नहीं हुआ करता।
इस तरहसे इसपर्यायकी लन्धि आदिमें नरकायुका उदय मुल्य कारण है इसलिये उसके उदयसे युक्त जीवको नारक कहा जाता है। किन्तु जबतक उसका उदप नहीं हुआ है केवल उस श्रायुका बंधमात्र होजानेसे उसका अस्तित्व ही जिन जीवोंके पाया जाता है, उनको भी उपचारसे नारक कहा जा सकता है क्योंकि वह उस पर्यायको अवश्य ही प्राप्त करनेवाला
अत एव नंगमनयसे बह भी नारक ही है और वह बैसा कहा जा सकता है। फिर भी इस कथनकी यहां मुख्यता नहीं है । क्योंकि इस पयिके कारणभूत उस भायुकर्मका बंध मिथ्यात
१-नारकाणां सुराणां च विरुद्धः सक्रमो मिथः । नारको नहि देवः स्पान्न देवो नारफो भोप ।।१५।।
२-नारकश्च तिर्यक् च नपुसकरय स्त्री ति नारफति नपुसकरित्रयः तेषां भाषाः इति मारकतिर्यक नपुंसकात्रीत्वानि।
३न सुखं यत्र स नरकस्तत्र जाता नारफाः । नरान् कायति इति वा । न रता नरसास्त्र या नारवा परमति जदो णि दम्ब खेचे व कालभारे या भएणोध्योदि य आया तसे गारवा भगिया
बी. तथा पर्ख १ गावा नं. १२८
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चन्द्रिका टीमा पैतीसा श्लोक
१६ अवस्थाम भोर दाब संक्लंशकं अवसरपर ही हुश्रा करता है । तद्वत् नियंगायुकर्मका बंध भी सासादन गुणस्थान तक ही संभव है । किन्तु यहांपर तो आचार्य कहते है कि सम्यग्दर्शनशुद्ध बीच इन अवस्थाको प्राप्त ही नहीं हुआ करता अत एव यह कथन अबद्वायुष्क सम्यग्दृष्टिको ही अपेक्षासे है ऐसा समझना चाहिए जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है।
तिर्यक शब्दका अर्थ मी नारक शब्दके समान ही समझलेना नाहिये । अर्थात तिर्यगायु और निर्यग्गति नामकर्मके उदय से तथा कदाचित् तिर्यग्मत्यानुपूर्वी नामकर्मके भी उदय से जन्य द्रव्यपर्यायके धारण करनेवाले जीवको तिर्यक कहते हैं। किन्तु नैगम नयसे उन जीवों को भी तिर्यच कहा जाता या कहा जा सकता है कि जिनके तिर्यमायुकर्म का बंध तो हो चुका है परन्तु अभीतक उसका उदय नहीं हुआ है, केवल उसका सत्ता पाई जाती है । इस कर्मका बन्ध. सासादन गुणस्थानतक अर्थात् जदतिक शानन्तानुबन्धी कर्मका उदय पाया जाता है-उसकी म्युच्छित्ति नहीं हुई है, हुआ करता है । निरुक्तिक अनुसार त शम्दको अर्थ होता है कि "तिरः अधति इति तिर्यक" । अर्थात् जो कुटिलताको प्राप्त है--मायाचारके द्वारा जिस अवस्थाकी प्राप्ति होती है और वर्तमानमें भी जो कुटिलताको धारण करनेवाले हैं, विपुल संझानोंसे पूर्ण, निकृष्ट अझान तथा पापके बाहुरूपसे युक्त है उनको तिपश्च अनझना चाहिये ।
नपुसक-न स्त्री न पुमान् इति नपुसकः । इस निरुक्तिके अनुसार जो न स्त्री हो, न पुरुष हो-दोनों ही लिङ्गोंसे रहित है उसको नपुसकर कहते हैं। इसके दो भेद है-एक द्रव्यलिङ्ग दूसरा मावलिङ्ग । प्राङ्गोपाङ्ग नाम कर्म विशेषक उदयसे जिसका शरीर स्तन योनी आदि स्त्रीके योग्य चिन्होंसे तथा मेहन स्मश्रु अदि पुरुष चिन्हांसे रहित होता है, उसको द्रव्य नपुसकलिङ्ग कहते हैं । नपुसक वेद नामको नोकषायके उदयसे जिसके परिणाम पुरुपके साथ रमण करनेकी इच्छारूप स्त्रावेद और स्त्रीके साथ रमण करनेकी अभिलापारूप पुरुषवेदसरीखे न होकर दोनोंसे रहित विलक्षण ही थे उसको मार नपुसक समझना चाहिये । वेद और लिङ्ग पर्याय वाचकशब्द हैं। इसके योग्य कर्मका बंथ प्रथम-मिथ्यात्व गुणस्थानमें ही हुआ करता है, आगे नहीं। ____ इसीतरह स्त्रीशन्दका अर्थ समझना चाहिये । निरुक्तिके अनुसार स्तुणाति-स्वं परं या दोपराच्छादयति आपणोति सा स्त्री, जो अपनको और सरेको अनेक दीपांसे भाच्छादित करे उसको स्त्री कहते हैं। यह अर्थ प्रायोयादकी अपेक्षासे है । सिद्धान्तके अनुसार जो स्त्रीवेद
१-तरगति काढलभान सुबिउलपण्णा गिट्ठमण्णाणा | अनंतपारबहुला तमा सरिया मगिया ६१४८। जी० का० पटल०१ गाथा नं. १५६ ॥ २-न स्त्री न पुमान् इति नपुसकः ॥ वित्थी रोष पमं घुसओ उभयलिंगनिरित्तो । इट्ठान नगसमाग
गयणगरुओ लुमचित्तो ।।२७५ । जी० का। षटखं० गाथा नं. १७२ । ०६०५७-सिमुदएपर इटावागरिमारिण दोसु वि भाक खा उप्पज्जा सेमि गउसगवदोचि शरणा | तथापि"भावन सक बदोऽस्तीति भाचार्यस्प तात्पर्य हातम्यम् !! जी०प्र० टी०। .
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३२.
करवकावार
नामक नोकगायक उदयसे एवं तदनुकूल यांगोपांग नामकर्मक उदयसे तथावि चिन्हयुक्त शरीरको धारण करनेवाला हैं उस जीवको स्त्री समझना चाहिये । इस अवस्थाके योग्य कर्मका बन्थ दूसरे सासादन गुणस्थानसे आगे नहीं हुआ करता ।
दुष्कुल विक्रेताल्पायुर्दरिद्रतां - दुष्कुल आदि शब्दोंका द्वन्द्व समास करके भाव अर्थ में ता प्रत्यय करनेपर द्वितीया एकवचनमें यह शब्द बनता है। क्योंकि उपयुक्त नारकादि शब्दको सरह यह भी 'ब्रजन्ति' क्रियाका कर्मपद हैं।
दुध्कुल शब्दका अर्थ होता है - दूषित कुल । यह गोत्रकर्म विशेषके उदयसे प्राप्त हुआ करता है। संतान क्रम चले आये जीवके श्राचरणको गोत्र कहते हैं। इसके दो भेद है-एक उस दूसरा नीच | जो लोकपूजित या लोगों के द्वारा सम्मानित है उसको कहते हैं उच्चकुल और जो लोग है जिसका आचरण उत्तम पुरुषोंके द्वारा सम्मानित न हो उसको कहते हैं नीचकुल | कुल वंश अन्वय ये सप शब्द पर्यायवाचक है। जिस वंश में चलाया आचरण किसी भी तरह दूषित या अप्रग्रस्त हो अथवा हो गया हो उसको दुम्कुल कहते हैं। जिन कुलों में सज्जातित्व के विरुद्ध आचरण प्रवर्तमान हो उन सभी कुलों को दुष्कुल समझना चाहिये । ध्यान में रहना चाहिये कि इसतरहके आचरणसे यहां अभिप्राय किसी व्यक्तिके तात्कालिक एवं कादाचित्क आचरण से नहीं किन्तु कुल क्रमागत श्रावरणसे हैं। साथ ही आचरण से प्रयोजन उसके शरीरकी उत्पत्ति सम्बन्धको लेकर मातृपक्ष तथा पितृपक्षकी शुद्धि है। जो मातृपक्ष अथवा पितृपक्ष असदाचारके कारण परम्परासे दूषित हैं वह दुष्कुल है । यद्यपि यह अर्थ व्यगतिकी अपेक्षा ही घटित होता हैं फिर भी इस शब्द से देवदुर्गतिका भी अर्थ ग्रहण किया मनुजा सकता है। क्योंकि यद्यपि सामान्यतया सभी देव उच्चकुली हैं क्योंकि सभी उच्चगोत्र कर्मका ही उदय पायाजाता है । फिर भी सम्यक्त्व सहित जीव भरनवासी व्यस्तर और ज्योतिषियों में उत्पन्न नहीं हुआ करता । फलतः देवोंके इन तीन निकायों को तभ्यतः देव दुर्गति शब्द कहा जा सकता है। अत एव देवगतिर्म भी जो अप्रशस्त हैं उनका भी दुष्कुल शब्दसे ग्रहण किया जा सकता है। कारण यह कि यहांपर सम्यक्त्वसहित जीव किन-किन अवस्थाओं को प्राप्त नहीं होता यह बात पाचार्य बता रहे हैं। जिससे श्रोताको यह बात मालुम हो सके कि सम्यग्दर्शनके होते ही इस जीवका संचार किस सीमातक समाप्त होजाता है और जबतक बह सम्यक्त्वसहित हैं, संसार में रहते हुए भी किन किन अवस्थाओं को प्राप्त नहीं किया करता और फलतः किन-किन अवस्थाओं को प्राप्त किया करता है।
१ यदि सं दोसेण यदी चाददि परें । वे दोषेण द्वादमसाला जाता सा वष्णिया इत्यां ॥ २७४ ॥ जी० का० ।
सम्यक्त्वं हि "अष्टविधेषु व्यन्तरेषु इशविधेषु भवनवासिषु पचविधेषु तिष्ठेषु" संभूतितः ॥ यश० वा० ६ ० २०१
"न भवति
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चन्द्रिका टीका पैतीसवा श्लाक ____ आगममें आयुकर्म पुण्य पापके भेइसे दो प्रकारका बताया है । एक नरक वायू पापकर्म है
और शेष तीनों ही आयु पुण्य हैं । तद्वत् गतिकर्म में नरक तिर्यक् दो गति पाप है और बाकी देव गति तथा मनुष्यगति दोनों पुण्य हैं । अबद्धायुष्क सम्यग्दृष्टि नरक और तिर्यग्गतिको प्रान नहीं हुआ करता जैसाकि ऊपर कहागया है । किन्तु यदि इसतरहका कोई मनुष्य या निर्यच है तो वह देवायुका ही बन्ध किया करता है । यदि वह देव या नारक है तो वह मनुष्य आयुका ही बन्ध करता श्रीर बहीपर जन्म धारण किया करता है। देवा में उत्पन्न होनेवाला सम्यग्दृष्टि जिसतरह भावनत्रिक देवदुतिम उत्पन्न नहीं हुश्रा करता उसीप्रकार मनुष्यगतिमें उत्पण होनेवाला सायष्टिर या ना लागे? असमातीय एवं अन्य दृषित मनुष्यकुलों में उत्पमा नहीं हुआ करता।
मनुष्यगतिमें उत्पन्न होनेवाल जीव चार भेदोंमें विभक्त है । सामान्य, पर्याप्त, योनिमती और अपर्याप्त । सामान्य मनुष्योंके भी दो भेद है-एक पार्य दूसरे अवार्य । आर्य बन्दका अर्थ होता है-"गुणगुणवांना अर्यन्त इत्यार्याः२" | जिमको सम्यग्दर्शनादि गुण प्राप्त हो सकते हैं उनको आर्य और जिनको वे प्राप्त नहीं हो सकते उनको अनार्य कहते हैं | अनार्योंको म्लेच्छ भी कहते हैं यह 'आर्य म्लेच्छ व्य,स्था अनाद्यव्युच्छिन्नसंतानपरम्परार पर निर्भर है। सम्यक्त्वसहित जीव मनुष्यगतिमें उत्सब होने पर आर्यकुल में ही जन्म धारण किया करता है; अनार्य म्शेच्छकलमें नहीं । योनिमती और अपर्याप्त लब्ध्याप्तिक सम्मर्छन मनुष्योंमें भी सम्यक्त्वसहित जीव उत्पन्न नहीं हुआ करता किन्तु इनका धारण स्त्री नपुसंक भल्यायु शब्दों से होजाता है।
विकृत-यह शब्द "वि" उपसगपूर्वक "कृ" धातुसे "क" प्रत्यय होकर बनता है। कोषके अनुसार इसके बीभत्स निन्दित, मलिन, और रोगी आदि अर्थ हुआ करते हैं । श्रीप्रभाचन्द्रदेवने इसका अर्थ काण कुन आदि किया है । यद्यपि इसका अर्थ करण इन्द्रियों और अन्त:करण-मनसे विकल-रहित भी हो सकता है और इस अथक अनुसार एन्द्रियसे लेकर प्रसंझी पंचेन्द्रियतककी सभी अवस्थाओं का निषेध किया जा सकता हैं। और यह ठीक भी है क्योंकि सम्यक्त्वसहित जीव स्थाबरों विकलेन्द्रियों एवं असंशियोंमें उत्पन्न नहीं हुआ करता। परन्तु इस अर्थ की यहां मुख्यता नहीं है । इसलिये ही इस शब्दको प्रयोग नहीं हुआ है । क्योंकि तिर्यक् शब्दसे ही इन अवस्थाओंका ग्रहण होजाता है । अत एव उत्तमकुलमें उत्पन्न हुए मनुष्य के सम्बथमें ही इसका अर्थ करना उचित और संगत है। फलतः विशिष्ट अंग-उपांगोंसे हीन यद्वा अपूर्ण अगोपांगसे युक्त अर्थ करना ही ठीक है । अर्थात् सम्यक्त्वभहित जीव मनुष्य
--म्लच्छ॥ २-सर्वार्थसिद्धि ३-३६ । ३-सम्प्रदायाव्यचच्छदादायलपस्थितः । गतानन विनिश्चयाताऱ्यावहारिभिः ॥६॥
स्वयं संवेधमाना च गुणदोषनिबन्धना । कथंचिदनुमया च तत्कार्यस्याविनिश्चयान् ।। १० ।। श्लो० था. ०३०३७
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रत्नकाण्डाकाचार गति उत्तमकुलमें उत्पन्न होकर भी काणा अन्या बहरा बूचा गूगा नक्टा टोटा लूला लंगडा आदि नहीं हुआ करता।
अल्पायु-लध्यपर्याप्तक मन यकी माथु सामान्यतया भन्तमुहर्त है। सम्यक्त्वसहित जीव उसको प्राप्त नहीं हुआ करता । इतना ही नहीं, अपितु पर्याप्त होकर भी दो चार अन्तमुहर्त प्रमाण ही जीवित रहे अथवा गमवाव गर्भपात श्रादिके द्वारा यद्वा सनन्य एवं शैराब जैसी छोटी उम्रमें ही मरणको प्राप्त होजाय, ऐसा भी नहीं हुआ करता । सम्यग्दृष्टि जीवके जानेवाली शुभ दोनों आयुओंके स्थितिबंधकी दृष्टिसे यदि विचार किया जाय तो देवगति सम्बन्धी श्रायुमै आभियोग्योंके समान हीन स्थिति नहीं हुआ करती। शुभ आयनों में देव तथा मनुष्य यायुका बंध करनेवाले मिथ्यादृष्टि और सम्यग्दृष्टि मनुष्य एवं देवों में जो सम्यक्त्वमहित है, यह मिथ्यादृष्टि की अपेक्षा आयुकी अधिक स्थितिका ही बंध किया करता हैं । अरव इस शब्दका ऐश भी अर्थ किया जा सकता है कि.-सम्यग्दृष्टि जीव मिथ्यारष्टि की अपेक्षा अल्प आयुको प्राप्त नहीं हुआ करता।
दरिद्रना----इस शब्दका लोकप्रसिद्ध अर्थ अर्थाभाव-पैसे की कमी होता है। किन्तु श्रीप्रभाचंबदेवन इसका अर्थ दारिद्रयोपेत कुल में उत्पत्ति रखाया है। अतएव दरिद्रताका यहांपर व्यक्तिगत निर्धनता अर्थ न लेकर कुल क्रमागत निर्थनता अर्थ लेना ही अधिक उचित एवं संगत है।
चातुरीएव्यवस्था अनुसार आयें पुरुपोंके लिये जो गंशानुक्रमसे पालन करने योग्य वार्तागर्म बताया गया है वह प्रशस्त है। इस तरहसे अपने अंशानुगत एवं प्रशस्त वार्ताकर्म करनेवाला व्यक्ति आर्थिक-साम्पत्तिक स्थितिमें अप्रशस्त कर्म द्वारा अधिक धनवान बन जाने बालोंकी अपेक्षा अल्प अल्पतर या अल्पतम होते हुए भी दरिद्र नहीं है। क्योंकि वह दारिद्रयोघेत कुल में उन्पन्न नहीं हुआ है। इसके विरुद्ध बंशानुगत प्रशस्तकर्मा धनहीन व्यक्तिकी अपेषा जो कोई अन्यानुगत अप्रशस्तव के द्वारा अधिकाधिक धनवान हो गया है तो वह नैसा बन जानेपर भी दरिद्र है। कारण यह कि यहां दरिद्रतासे प्रयोजन केवल धनके न होनेसे ही नहीं है। किन्तु धनसंचयके गंशानुगत एक भागमविहित प्रशस्त साधनोंके विरुद्ध हिंसाकर्न देन्यत्ति-कुलक्रमागत सेवा आदि अप्रशस्त एनिम्न कोटिके सायनाके द्वारा धनसंग्रह करना मुख्यतया गुणों की अपेक्षा दरिद्रताका परिचायक है। नंशपरम्परासे हिंसाकर्म-खटीक चाण्डालादिका बन्धा करनेवाले, मांस चर्म हट्टी मादिका विक्रय करनेवाले, मत्स्पोत्पादन सरीक्षा निऋण मात्रय कर्म करनेवाले, दस्युकर्म-लुटेरै तस्कर प्रादिका काम करनेवाले, वेश्यावृति या भंडकर्म करनेवाले आदि अनेक मनुष्य निरतिशय एवं पापानुगंधी पुण्यके उदयसे बड़े-बड़े श्रीमन्न भी देखे जाते हैं। एतायता यह कर्म प्रशस्त नहीं माना जा सकता। इस तरह करें
५-मा. धा० १-११ में न्यायपासचनः एतदर्थः "स्वामिद्रोड मित्रद्रोह विश्वमितचनचार्या दिगर्थोिपार्जनपरिहारेणार्थोपार्जनोपायभूतः म्वरूपवर्णानुरूपः सदाचारः न्यायः। २-पहापर यह एक सुभाषित स्मरणीय ई-निरक्षरे धीत्य महानिन्यं विद्यानषमा विदुषा न हेया।
रस्तावतंसाः कुलदाः समीक्ष्य किमार्याः कुलदा अन्ति।
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जिन कुलोंमें परम्परासे चले जाते हैं उन्हें दारिद्रयोपेत ही समझना चाहिये । इस तरहके कुल में सम्यक्लसहित जीव उत्पन्न नहीं हुआ करता। धन वही प्रशंसनीय माना जा सकता है, जिसका क अर्जन कम से कम महापापरूप-संकल्पी हिं झूठ चोरी कुशल परिग्रहसे युक्त साधन के द्वारा न होता हो और जो विहित कर्मों के अविरुद्ध हो तथा वर्णसंकरता आदिके द्वारा राष्ट्र face at परिणामोंकी विशुद्धता एवं उदासताका प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूपमें घातक न ही। जो इस लोकमें निंद्य और परलोकमें यथासंभव कल्याणका बाधक न हो । मतलब यह कि - सम्यग्दृष्टि जीवक मानसिक एवं आध्यात्मिक विशुद्धिकी अपूर्णता कारण अन्तरंग वासनाओंका संस्कार भी अपूर्ण ही प्रशस्तताको धारण कर लिया करता है; श्रतएव वह उसके विरुद्ध अप्रशस्त संस्कारों से युक्त सामाजिक कुलों को अपना जन्मक्षेत्र नहीं बनाया करता ।
श्रमतिकाः । - व्रतमस्ति येषां ते अनिनः । न प्रतिनः श्रवर्तिनः । त एव श्रतिकाः अथवा वत्तमस्ति येषु ते प्रतिकाः, न व्रतिका अश्रुतिकाः | यहांपर "छ" प्रत्यय जो की गई है उससे स्वार्थ तथा कुत्सा, अनुकम्पा, श्रम्प, दस्त, अर्थ ग्रहण किये जा सकते हैं। ।
इस निरुक्ति के अनुसार जो व्रतर हित हैं वे सब अत्रतिक हैं। यह "सम्यग्दर्शनशुद्धाः " का विशेषख पद हैं। दोनों पर्दाको मिलाकर चतुर्थ गुण स्थानवर्ती - श्रवतसम्यग्दृष्टि अर्थ होता है । यदि यह विशेषण न देकर केवल सम्यग्दर्शनशुद्धाः इतना ही कह दिया जाता तो उससे केवल चतुर्थ गुणस्थानवर्तीका ही नहीं, देशसंयमी, सकलसंयभी और सिद्धांतकका भी ग्रहण हो सकता था | परन्तु उन सबका यहापर ग्रहण करना अभीष्ट नहीं है । अतएव उनका धारण करने के लिये यह विशेषण दिया गया है। केवल यदि अत्रतिकाः ही कहा जाता तो उससे नीचे के प्रथम मिध्यादृष्टि आदि तीन गुणस्थानवर्तिका भी ग्रहण हो सकता था । अतः उनका वारण करनेके लिये सम्यग्दर्शनशुद्धाः ऐसा कहा गया है। दोनों पदोंका मिलाकर तरति किन्तु निर्मल सम्यग्दर्शनसे गुक्त इस तरहका अथवा किसी भी संयम - देशसंयम तथा सकलसंयमसे रहित अद्वायुष्क सम्यग्दृष्टि ऐसा अर्थ होता है ।
अपि (भी) शब्द प्रकृत अभिमत अर्थको दृढ करता है। जिससे मालुन होता है कि. बिना किसी सम्बन्यके हो केवल सम्यक्त्वकी निर्मलता हो जय इतने संसार और उसके कारणों का उच्छेद करने में समर्थ हैं, तब व्रतसम्बन्यको पाकर तो वह क्या नहीं कर सकती । अर्थात् सम्पूर्ण संसारका सहज ही वह निर्मूल विनाश कर सकती है ।
व्रजन्ति --ब्रज क्रियाका अर्थ प्राप्ति होता है । "न" यह निषेधार्थक है
तात्पर्य - यह कि सम्यग्दर्शन के उत्पन्न हो जानेपर जीवकी दो अवस्थाएं पाई जा सकती हैं। १ मद्वायुष्क, २ भद्वायुष्क । एक आयुकर्म को छोड़कर शेष सातों ही कर्मोल पम्म संसारी जीवके प्रतिक्षण होता रहता है। आयुकर्मका पन्थ विभाग के समय ही हुआ १- वि० ० ० ३००, ३०५
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करता है। इस तरहके विभाग काल भुज्यमान आप स्थितिके भीतर आठ बार आते हैं। यदि इनमें किसी भी त्रिभाग कालमें आयुका बन्ध न हो तो फिर आयु अन्तिम अन्तर्मुहुर्त कालके पहले असंक्षेपाद्वा कालमें उसका बन्द अवश्य हुआ करता है। जिय आयुका बन्ध हो जाता हैं उस गतिमें उस जीवको अवश्य ही जाना पड़ता है। हां, अयुकर्मका बन्ध होजानेपर उसकी स्थिति में जीवके परिवर्तित परिणामोंके अनुसार उत्कर्पण आकर्षण हो सकता है ।
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सम्यग्दर्शन के उत्पन्न होनेके पूर्ण यदि उस जीवके किसी भी श्रायुका बन्ध नहीं हुआ है तो वद्धामुक सम्यग्दृष्टि है। यदि किसी भी श्रायुका बन्ध होगया है तो वह बद्धामुष्क सम्यग्दृष्टि है। ध्यान रहे -- श्रायुकर्मके चार भेद हैं। उनमें परभव योग्य किसी भी एक ही आयुका एक भवबन्ध होता है । इस तरहसे किसी भी संसारी जीवक कमसे कम एक ज्यमन आयुका और अधिक से अधिक परभव के योग्य किसी भी एक आयुक्त बन्ध होजानेपर दो आयुकर्मका अस्तित्व एक समयमें पाया जा सकता हूँ ।
अश्रद्धायुक सम्यग्दृष्टि जीव यदि मनुष्य या तियँच है तो वह देवायुका ही बन्थ क्रिया करता हैं और यदि वह देव या नारक है तो मनुष्य आयुका ही ग्रन्थ किया करता है । प्रकृत कारिका में जो वर्णन है, वह अबद्धायुक सम्यग्दृष्टि की अपेक्षा से है। यह बात ऊपर कही जा चुकी हैं। फिर भी सम्यग्दृष्टि विषयमें यह समझ लेना आवश्यक है कि यदि उसने नरक आयुका बन्ध किया हो तो उसकी स्थिति सम्यक्त्व के प्रभाव से घटकर पहले नरक के योग्य ही रह जाती है और इसीलिये ऐसा सम्यक्त्वसहित जीव श्रेणिककी तरह प्रथम नरक वे आगे उत्खन्न नहीं हुआ करता । तिर्यगायुका या मनुष्य यायुका बन्ध करके सम्यक्त्वको प्राप्त करनेवाला मनुष्य या त्रियंच मरकर भोगभूमिमें तिर्यक्पुरुष अथवा मनुष्य पुरुष ही हुआ करता है। यह भी सम्यक्त्वका ही माहात्म्य है ।
arraat area धका कारण नहीं है। वह तो संसारोच्छेदका ही कारण हैं । सम्यग्दृष्टि जीवके जो बन्न होता हैं, उसके कारण मिथ्यादर्शनसे अवशिष्ट अविरति प्रसाद काय भाव हैं। यह पर भी यह नहीं बताया है कि उसके अमुक अमुक कर्मका बन्ध हुआ करता है। जिन जिनं अवस्थाओं को वह प्राप्त नहीं किया करता उनका ही उल्लेख करके उन अवस्थाओंके योग्य कारणरूप जिन जिन कर्मोंका बन्ध वह नहीं किया करता उसका ही दिग्दर्शन कराया गया है ।
प्रश्न यह हो सकता है कि अनेक कर्मप्रकृतियों के यथा तीर्थकर और आहारक शरीर एवं व्याहारक भाङ्गोपाङ्गके बल्बका कारण तथा अनेकों पापप्रकृतियों की स्थिति अनुभागश किके १-लेस्सारा खलु सा वीसा हुंति तत्थ मज्मिम्म्या । आङगवन्घणजोग्गा अट्ठट्ठवगर सकालभव १८।। जां० का० ।
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पन्द्रिका टोका ऐतीसा श्याक अपकष एवं विवक्षित पुण्यप्रकृतियोंकी स्थिति और अनभागतिके उत्कर्षका कारण भागममें सम्पग्दर्शनको ही बताया है। फिर यह किस सरह कहा जासकता है कि सम्यक्त्व बन्धका कारण नहीं है। किन्तु इसका उत्तर परले दिया जा चुका है कि जापर उसको बन्धका कारण पाया गया है वहां उसका श्राशय सम्परत्वराहकारी उन भानाम है जो कि अशुभ क.पायोंकी मन्दता विशेष तथा शुभकपाय विशेषरूप उदयसे होनेवाले हैं। क्योंकि सम्पदर्शनके होनेपर बन्धक कारणों में मे मिथ्यात्व के बट जानेपर भी जब तक शेष थपिरति आदि पायजन्य भाव अथवा कोई मी सकपाच परिणति वर्ना हुई है तबतक उनका कार्य भी यथायोग्य होता ही रहता है। ज्यों ज्यों जीचके पुरुषार्थ के फलस्वरूप के कारणरूप भार छूटते जाते हैं त्यो त्यों आगे आगे उन कोका बन्ध भी शूटना जाना और संवर तया मसको दिमें भी वृद्धि होती जाती है। किन्तु सिद्धान्त रूपसे यह असम्भव है, कि जो मुक्तिका कारण है वही चत्वका भी कारण हो।
___ यद्यपि यहाँ पर प्राचार्य नारक श्रादि आठ अवस्था मोका ही नाम गिनाया है फिर भी उनके महचारी कौका भी इसी से ग्रहण किया जा सकता है। अतएव सम्यक्त्वके होलापर जिन ४१ कमप्रकृतियोंकी बन्धव्यच्छित्ति भागममें बताई है, उन सभीका यहांपर ग्रहण कर लेना चाहिये और इन्ही पाठ में उन शेप सभीका अन्तर्भाव समझ लेना चाहिये ।
सम्पग्दर्शनके होने पर १६ ओर २५ इस तरह मिलाकर कुल ११ प्रतियोंका बन्ध छूट जाता है | उनमें से मिथ्यात्वक उदय तक ही जिनका बन्ध होता है, उसके आने द्वितीयादि गुण थानोंमें जिनका बन्ध न होकर संवर होता है, घे १६ कर्मप्रकृतिमां ये हैं-१ मिय्पाल, २ हुंडकसस्थान, ३ नमकवेद, ४ असंशप्तामृपाटे, संहनन, ५ एकेन्द्रिय, ६ द्वीन्द्रिय, ७ श्रीन्द्रिय, = चनारन्द्रिय जाति, स्थावर नामकर्म, १० पातर, ११ मन्म, १२ अपर्याप्त, १३ साधारण, १४ नरकगति, १५ नरकगत्यानुपूर्वो, और १६ नरक आय । इसी प्रकार अनन्मानबन्धी कषायक उदयके निमिक्षसे जिनका द्वितीय गुणस्थान-सासादान तक ही बन्ध पाया जाता और उसके ऊपर संवर हो जाया करता है उन २५ प्रकृतियों के नाम इम प्रकार है-अनन्तानुसन्धी, १ क्रोध, २ मन, ३ माया, ४ लोभ, ५ स्त्यानगृद्धि, ६ निद्रानिद्रा, ७ प्रपलाप्रचला, ८ दुर्भग, ६ दुःस्वर, १० अनादेय, ११ न्यग्रोध संस्थान, १२ स्वाति सं०, १३ कातक सं० १४ वामन सं० १५ बज्रनाराच सं०, १६ नाराचसं, १७ अर्धनाराच सं०. १८ कीलक सं०, १६ अगस्त विहायोगति, २० स्त्री वेद, २१ नीचगोत्र, २२ तिर्यग्गदि २३ तिर्याम्गत्यानपूर्वी, २४ तिर्यगायु, २५ उद्योत।
इन सब कि नामों को देखकर मालुम हो जा सकता है कि जो अबदायुष्क सम्पष्टि है वह नरक और तिर्यग्गतिमें तो उत्पन्न नही ही होता कदाचित् मनुष्यगतिमें जन्म धारण करे तो वह नपुंसक, स्त्री, नीच कुली, विकृत-इंडक भादि संस्थानोंसे युक्त, अन्पायु और हरित नहीं हुमा करना | जो बद्धायुष्क है वह भी यथायोग्य इन बन्धव्युज्यिा प्रकृतियों के अनुसार निकट स्थानीको प्राप्त नहीं हुआ करता ।
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व्याकरण के द्वन्द्वसमास प्रकरण में चार प्रकारका चार्थ बनाया गया है यथा-समुच्चय, अन्वाचय, इनरेतर और सभाहार। इनमें से अन्तिम दो अर्थोके अवसरपर तो द्वन्द्व समास होता है किन्तु प्रथन दो प्रनङ्ग में प्रयुक्त अनेक शब्दोंका समास न होकर केवल वाक्य का ही प्रयोग हा करता है। जिस वाक्यमें प्रयुक्त अनेक पद परस्पर में निरपेच रहकर किसी क्रियाके साथ समानरूपसे अन्वित हों वहां समुच्चय और जहाँपर उनमें से किसी एककी मुख्यता और दूसरेकी गौणता विवचित ही बड़ा अन्नाचय चार्थ माना जाता हैं । उदाहरणार्थ "देव मुहं च भजस्व" यहाँपर समुच्चय और "भिक्षामट गा चानय" यहांपर अन्नाचय चार्थ माना गया है ।
मालुम होता है कि ग्रन्थकार ने प्रकृत कारिकामें "च" शब्द का प्रयोग अन्वाचय अर्थमें किया है। क्योंकि विचार करनेसे स्पष्ट हो जाता है कि पूर्वार्ध कथित विषयोंका निषेष मुख्य और उच्चतर्षमें कथित चारों विषयोंका निषेध गौमा है । गौण कहनेका अर्थ यह नहीं है कि वह मम्यग्दृष्टि जिसके कि महत्त्वका यहां वर्णन किया जा रहा है कदाचित् इन दुष्कुल आदि चार अवस्थाओंको प्राप्त कर लिया करता या कर सकता है। किन्तु इसका आशय इतना ही है कि अबद्वायुष्क मम्यग्दृष्टिक जिस तरह उसकी बन्धयुच्छिन्न प्रकृतियोंमें नारक
और तिर्यगागुको गिनाया गया है उस तरह मनुष्य आयुको नहीं। मतएव मागमके अनुसार सिद्ध है कि वह मनुष्य आयुका पन्ध करके मनुष्यगति में उत्पन्न हो सकता है। किन्तु नरकगति और तिर्यग्गति को तो वह सईया प्राप्त नहीं कर सकता ।
यद्यपि आगममें सम्यक्त्वको सम्यग्दृष्टिके परिणामविशेषोंको देव मायुके हो बंधका कारस बताया है। किन्तु यह कथन मनुष्य भीर तियचोंकी अपेवासे ही है। देव और नारक यदि अबदायुष्क सम्पन्दृष्टि हैं तो वे मनुष्य आयुका ही पंथ किया करते हैं । अतएव दुष्कुल आदि वाक्य के द्वारा जो निषेध किया गया है, वह गौग है। मालुम होता है कि ग्रन्थकार इस तरहसे भन्दाचयरूप चार्थके द्वारा निषेयक विषयमें बतलाना चाहते हैं कि-अरद्धायुष्क सम्यग्दृष्टि जिस तरह नरक और तिर्यग गतिको सामान्यरूपमें भी प्राप्त नहीं किया करता; क्योंकि उसकी कारवा. भव कर्मप्रकृतियों का उसके मूल में वन्य नहीं हुआ करता, उस तरहसे मनुष्य गतिक विषयमें नहीं है। यह तयोग्य कोका बन्ध करके मनुष्यगको सो प्राक्ष कर सकता है परन्तु इ। उसमें वह दुष्मन श्रादि कथित निम्न अवस्थामोंको प्राप्त नहीं किया करता। अतएर जिस तरह नरक तियगति सामान्यतया निषिद्ध है उस तरह मनुष्यगति सामान्यतये। निषिद्ध नहीं है। मनुष्यगतिकी तो कुछ भवान्तर विशेष अवस्थाएं निषिद्ध है। तात्पर्य यह कि- मनुष्कमतिकी तो वह कथित दुष्कुल भादि प्रशस्त अवस्थामोंको भास नहीं होता। फिर वह मनुष्यगतिमें किस-किस तरहको अवस्थाओं को धारण किया करता है! तो यह बात आगे की कारिकामें कही जायगी, उससे इस प्रश्नका समाधान हो जायगा।
१-साथ सूत्र अ०६ सूत्र न०२१
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भन्द्रिका टोका पैतीसा श्लोक यहां ती केवल यि अवस्थाओं को री थानार्य बता रहे है, जिससे मालुम ही सके कि सम्यदर्शनके प्रकट होते ही इस जीवका दुःखमय और पापप्रचुर संसार किस तरह समाप्तप्राय हो जाता है और उसके कारण भी किस तरह व कहांतक निमूल हो जाया करते हैं । तथा अनन्सानन्त संसार किस तरह सावधिक रन जाया करता है।
भवतिक शब्दका अर्थ ऊपर लिखा जा चुका है। उससे यह तो स्पष्ट ही है कि इस शब्द का प्रयोग चतुर्थगुणस्थानी असंयत सम्यग्दृष्टि के लिये किया गया है। श्रागमन में कहा गया है कि जो न तो इन्द्रियों के विषयोंसे विरत है और न स स्थावर जीवोंकी हिंसासे विस्त है। परन्तु जो जिनोक्त विषयोंका श्रद्धान करनेवाला है यह अविरत सम्यग्दृष्टि है । इस लक्षा में चतुर्थगुणस्थानवर्ती सम्यग्दृष्टिके लिये जो इन्द्रिय संयम और प्राणायममे विरत न होनेकी बात कही गई है उसपरसे तत्त्वस्वरूप और आगमके रहस्यमे अनभिज्ञ कुछ लोग ऐसा मम बैठते हैं कि इस अर्गयत सम्यग्दृष्टिकी प्रवृत्तियों में और मि यादृष्टियोंकी प्रवृत्तियोंमें कोई अन्तर नहीं है। वह अनर्गल प्रवृत्ति करते हुए भी सम्यक्त्वसे रक्त रहता है, अथवा रह सकता है। परन्तु यह बात नहीं है । वास्तविक बात यह है कि--मिथ्यादृष्टिकी अपेक्षा सम्यग्दृष्टिकी चेष्टाओंमें अद्भत अपूर्णता पाई जाती है । जिस तरह भागमोक्त लक्षण वाक्यमें "अपि' शब्दका प्रयोग किया गया है। उसी तरह यहोर अन्धकाने भी अपि शनका प्रयोग किया है इसलिये इम "अपि" का अर्थ भी ठोसा ही किया जा सकता है अथवा नसाही समझना अनुचित न होगा जैसाकि लक्षणगत "अपि" शब्दका आशय उपके टीकाकागेंन किया है। जीत्रकाण्डकी जीवप्रबोधिनी टीका इस "अपि" शब्द सम्यादाटक संवैमादि गों और अनुकम्पाभावको सूचित किया है । तथा मन्दप्रबोधिनी टीकाके कान लिखा है कि-सभ्य. दृष्टि जीवके अनुकम्पा आदि गुणोंका सद्भाय पाया जाता है इसलिये वह निरपराध हिंसा नहीं किया करता : पंडित टोडरमल जी सा० ने भी लिखा है कि "कोऊ बानेगा कि विपयनिधिय अविरति है ताते विषयानुरागी बहुत होगा सो नहीं है, सवेशादिगुण संयुक्त है। बहुरि हिंसादि विष अविरती है तात निर्दयी होगा सो नहीं है, दयाभाव संयुक्त ।।" ।
तात्पर्य इतना ही है कि--असंयत सम्यग्दृष्टिकी अविरतिका अर्थ पंचमादिगुण स्थानों में सम्भव देशवत अथवा महावतोंका न पाया जाना ही है। उसका यह प्राशय कदापि नहीं है कि उसकी प्रति अनर्गल हुआ करती है । यह पंचेन्द्रियोंके अन्यायपूर्ण विषय पर स्त्री-सेवन, वेश्यागमन, मद्य मांस मधुका भक्षण संकल्पी हिंसा झूठ चोरी आदि दुष्कर्म तथा बहु प्रारम्भ परिग्रहका धारण, अवर्णवाद, देवशास्त्र गुरु तस्वस्वरूप आदिके विषयमें विश्वासपात-बचकता प्रादि करते हुए भी वह सम्यक्त्वसहित रह सकता है, ऐसा यदि कोई समझे तो यह ठीक २- इंदियम विरदाणा जीवे धार नस वापि || ओ.सदहा जित -सम्माश्टी मावरदो पो
॥२६॥श्री
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रला रावकाचार नहीं है । यही बात अपि शब्दके द्वारा यहां सूचित होती है कि-यपि वह देशवन या महाबनसे यक्त नहीं है फिर भी इन आठ अवस्थाोंको प्राप्त नहीं किया करता । मतलब यह कि वह ऐसा कोई काम नहीं करता और न अन्तरंगमें उसके उन कामोंक करनेका भाव ही हुशा करता है जिनके कि करनेसे उपयुक्त १६+२५-३१ बन्धव्यच्छित्तिके योग्य कर्म प्रालयाका प्रास्त्र एवं बंधा होना माना गपा है और जिनका कि इस कारिकोक्त पाठ विषयाम संक्षेप अन्तमाव होजाना है।
प्रागममें किन फिन कामोंके करनेस कोन कोनमें कर्मका आस्रव होता है यह बताया गया है, वहांसे यह जाना जा सकता है कि-इन पाठ विषयोंकि कारणभूत और इनमें जिनका अन्तर्भाव होजाता हे तथा इनसे जिन जिनका सम्बन्ध पाया जाता है उन ४१ कर्माके प्रास्त्रव एवं वक्फी कारण प्रवृत्तिगं कौन कौनसी हैं।
___यद्यपि प्रन्या स्वारके भपसे उन सभी ग्राम्रप एवं बन्धकी कारणभूत प्रवृत्तियोंका यहां वर्णन नहीं किया जा सकता। फिर भी प्रकरणगत विपयोंसे सम्बन्धित काँके प्रास्त्रपकी कारणभूत क्रियाओंका उदाहरणरूपम कुछ उल्लेख करते हुए दिग्दर्शन करादेना उचित और आवश्यक प्रवीत होता है।
रेहत परमष्ठी, तीर्थकर भगवान् ,उनकी दिव्यदेशना, उनके उपदेशका अर्थावधारण करके ऋद्विधःदी मयवर देवके द्वारा शब्दरूप में रांचव द्वादशाङ्गश्रुन, उससे अविरुद्ध अथवा उसी आवारपर अन्य भारतीय आचार्योकं द्वारा निर्मित आगम ग्रन्थ, उनकं उपदिश्मीप मार्गका पालन करनेवाले मुनि प्रापिका श्रावक श्राविकाका चतुर्विध सब, निश्चय तथा व्यवहार मोबागम्य धर्म, और धर्मकं फत्तकै विषयमें असद्भूत दोष लगानसे दर्शनमोहनीय-मिथ्या. स्वकर्मका यात्रा हुमा करता है । तथा उत्पत्र भाषण करने और मागको सदोष बतानसे भी उसका प्रास्त्रबाहुमा करता है। स्पष्ट है कि ये क्रिपाए प्रथम गुणस्थानमें ही सम्भव हैं । क्यों कि उसके ऊपर दर्शनमोहकी बन्धच्छित्ति हो जानसे उसका पासव न होकर संकर ही पाया . जाता है। फलतः जो चगुणस्थानवी सम्यग्दृष्टि है उनमें ये क्रियाएं नहीं पाई जाती हैं तो निश्चय ही वह अन्तरंगमें मिथ्यादृष्टि है। इसी तरह शिलाभेद समान क्रोध आदि जिस वीयकपायके उदयस . सद्धर्भके, समीचीनतश्चके, प्रायतनों के विरोध, अवहेलना, जुगुप्सा आदि करने कराने आदमें प्रवृत्ति हुआ करती है उनास अनन्तानुबन्धी कमेका मानब हुया करता है। इन दोनों मातीस प्रयुक्त प्रचिकि रहते हुए जीव सम्यग्दृष्टि नहीं हैं यह निश्चित समझना चाहिए । जहापर य नहीं है वहींपर सम्यग्दशनका अस्तित्व माना जा सकता है। और जो वास्तरम सम्पन्ष्ट है उनकं ही माहास्यका वरान यहांपर किया गया है कि वे नरकादि अत्रस्थान प्राप्त नहीं किया करते । इससे सिद्ध होता है कि इस कारिकाम कहे गये माहात्म्य की पात्रता अधिवरणभूत वे सम्पाट जीव ही माने जा सकत है जिनका कि सभ्यग्दर्शन उक्त सम्पतविरोधी परिणादेपोंकी अरविवारा प्रमाणित है।
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चन्द्रिका टोका पैंतीसवां श्लोक
इसी तरह नारकत्व आदिके विषय में समझना चाहिये-- उत्कृष्ट - तीव्रमान, शिलामेदसमान शेष, मिध्यात्व, तीत्रलोभ, सतत निर्देवता और जीवघातकता, निरंतर मिथ्या भाषख, परस्वापहरण में नित्य प्रवृत्ति, सदा मैथुन सेवन, कामभोगाभिलाषायां की तीव्र गृद्धिका भाव प्रति समय बने रहना, जिन भगवानकी श्रसादना, साध्वाचारका विनाश, हिंसक पशुपक्षियों आदिमानव निश्शीचता, महान आरंभ और परिग्रह, कृष्णलेश्यारूप परिणत चतुर्विध रौद्रध्यान, युद्धमें मरने और पाप निमित्तक आहार में अभिरुचि, स्थिर बैर, क्रूरकर्मामें प्रसन्नता, धर्म द्वेष और अधर्मसे संतोष, साधुओं की दोष लगाना- उनसे मात्सर्य रखना, तथा निष्कारण रोष करना उनकी हत्या करना, मद्यपान, मांसभक्षण, मधुका सेवन आदि अनेक दुष्कर्मो के करनेवाले. करानेवाले अथवा अनुमोदना करनेवाले हैं उनके नरक आप नरकगति नरकगत्यानुपूर्वी कसका बन्ध हुआ करता है ।
मिथ्यात्वयुक्त अधर्मका उपदेश देना, महान् आरम्भ करना परिग्रह रखना तथा उनके लिये ठगई करना, कूटकम पृथ्वीभेदसमान रोष निःशीलता आदिके विषयमें दूसरेके साथ शाब्दिक अथवा चेष्टा द्वारा वंचकतापूर्ण प्रवृत्ति करना, माया प्रचुरकायोंमें अत्यासक्ति रखना, फूट डालना डलवाना, अनर्थ करना कराना, वर्ण गंध रस स्पर्शमें परिवर्तन करके उनका विक्रय आदि करना कराना, जातिशीलता कुलशीलता एवं सदाचार में दूषण लगाना लगवाना विसंवाद करना, ढोंगी जीवन विताना, दूसरेके सद्गुणोंका उच्छेद और अपने असद्गुणोंका ख्यापन करना कराना, नील और कपातलश्याक परिणामोंसे आर्तध्यान और वैसे परिणामोंसे मरण होना, इत्यादि और भी अनेक ऐसे कार्य करना जिनमें कि तीव्र माया परिणामोंका सम्बन्ध पाया जाता है, तिर्यगुभव के कारण हैं। ऐसे कृत्योंसे तिर्यगाथु तिर्यग्गति और तिर्यग्गत्यानुपूर्वी कमका व हुआ करता है।
प्रचुर क्रोध मान माया लोभ रूप परिणामोंके द्वारा गुह्यं न्द्रियका व्यपरोपण- घात करना, स्त्री या पुरुषका अनङ्गक्रीडासम्बन्धी व्यसन, शील व्रत गुणोंके धारण और दीक्षाग्रहणका विरोध करना, दूसरेकी स्त्रीका अपहरण उसके साथ उस पर आक्रमण, उसके साथ बलात्कार आदि करना और तीव्र अनाचार आदिके कारण नपुंसक वेदकर्मका आव होता है।
प्रकृष्ट क्रोध परिणाम, और अत्यन्त अभिमान में रहना, ईर्ष्यापूर्ण व्यापार करना, झूठ बोलने का स्वभाव, भोगोपभोगमं श्रस्यासक्ति, बहते हुए रागके द्वारा पराङ्कनागमन, प्रेम तथा
१ -- कांत्रमागुरुकर्पूरकुकुमोत्पादनं तथा । तथा मानतुलादीनां कूटादीनां प्रवर्तनम् ॥२६॥ सुवर्णमोतिकादीनां प्रतिरूपकनिर्मितिः । वणगंधरसादीनामन्यथापादनं तथा ॥ ३७ ॥ तक्रतीरघृतादीनामन्क इव्यविभिश्रणम् । वाचान्यदुत्क्या करणमन्यस्य क्रियया तथा ॥ ३८ ॥ सा० ॥ ४ ॥ को बधिया करना करना आदि ।
२- पथा गायके
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লগেথবা रुचिपूर्वक स्त्रियोंके सुन्दर अंगोपांगका अवलोकन करना एवं उनके संवनकी भावना आदि रखनेस स्त्रीवेद कर्मका आस्रव या बन्थ हुआ करता है।
परनिंदा, प्रात्मप्रशंसा, दूसरोंके सद्भुत गुणोंको ढकना-दबाना और अपने असद्भूत गुणोंको प्रकाशित करना, अपने ज्ञान पूज्यता फल जाति भादिके निमिनसे दूसरेका तिरस्कार करने, उपहास करने, निंदा करने, आदिका स्वभाव, धार्मिक पुरुषोंकी निन्दा अवहेलना करना, इसरेके यशका बात करना, अपकीति करना, गुरुमनोंका परिभव करना, उनके प्रशस्त गुणों में मी दोष लगाना, अन्य ठरहसे भी अपमान करना, उनकी भत्र्सना करना, अथवा उनका अंजलि-हाथ न जोड़ना, स्तुति अभिवादन अभ्युत्थानादि न करना, इत्यादि प्रचियोंके द्वारा भीषगोत्रकर्मका भाषेत्र हुआ करता है।
किसीके भी अंगोपांगोंका छिन्न भिन्न करना, विकारी बनाना या दोष लगाने भादिसे विकृत काण कुन्ज आदि भवस्थाके कारणभूत काँका श्राखब हुआ करता है। अथवा द्वादश मियोपपाद की निमित्तभूत क्रियाओंसे भी इस तरह के कर्मोका पासव एवं पन्ध हुमा करता है।
भागममें जीवस्थानोंके अन्तर्गत १४ जीव समास भी गिनाये हैं। और ये कई प्रकारसे बवाये गये हैं। उनमें एक प्रकार यह है १-बादर? २-सूक्ष्म एकेन्द्रिय ३ द्वीन्द्रिय ४ श्रीन्द्रिय ५ चतुरिन्द्रिय ६ असंशि पंचेन्द्रिय और ७ संझी पंचेन्द्रिय ! इनके पर्याप्त और अपर्याप्तके भेदसे १४ जीव समास हुमा करते हैं। सम्यक्त्वसहित जीव इनमें से संझी पंचेन्द्रियके पर्याप्त अपर्याप्त (नित्यपर्याप्त) इन दो भेदोंको ही प्राप्त किया करता है। बाकी १२ स्थानों को यह प्राप्त नहीं करता । उनको मिध्यादृष्टि ही प्राप्त किया करता है। अतएव इन १२ स्थानोंको मिथ्योपचार कहा जाता है। ये स्थान विकल---इन्द्रिय और मनसे रहित हैं अय: घे भी विकृत ही है। इनके कारणभृत कर्मोंका पासव भी सम्यग्दृष्टिके नहीं हुआ करता ।
हिंसा-निर्दयताके परिणामोंसे शुभ आयुकी स्थितिमें अल्पता अथवा अपवयता और पाप-नरक मायुकी स्थितिमें अधिकता उत्पन्न हुआ करती है। ऊपर जैसा कि कथन किया गया हैं ये सम्यग्दृष्टिको प्राप्त नहीं हुआ करतीं।
दरिद्रताका कारण असातावेदनीय अथवा मुरूपतया अन्दराय कर्मका उदय है । अन्तराय कर्मक बन्धके कारण सामान्यतया इस प्रकार है
झानका प्रतिषेध, किसी के सत्कारको न होने देना, तथा दान लाभ भोग उपभोग वीर्यमें विधन करना, स्नान अनुलेपन गन्ध माला वस्त्र भूषण शयनासन भक्ष्य भोज्य लेख पेय आदि भोगोपभोगमें निम्न उपस्थित करना, वैभव सम्पत्ति समृद्धि आदिमें विस्मय तथा द्रव्यमें ममत्व का त्याग न करना, दुसरेको द्रब्यका समर्पण न करना और उसका अदत्ति अथवा अपहरवादि
-बारामहविय वि ति पारिदय असमिसरणीय । पासापासा एवं त पावसा क्षेति ।।
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पद्रिका टीका तोमर्चा मोर का समर्थन करना, कन्या प्रादिमें दूपण लगाना, देवद्रष्य ग्रहण करना, निस्वध प्रकरणोंका स्वाग, परके वीर्य का अपहरण, धर्ममें विच्छेद, कुशल आचार तपस्वी गुरु चैत्यको पूजाम वापात, दीवित अथवा दयनीय दीन अमात्र यहा ससात्रों को प्राश्रय आदिके दानका प्रविषेय, दूसरे व्यक्तियोंको रोककर रखना बांधना पीटना उसके गुसांगका छेदन, नाक कान मोठ भादिका कतरना, प्राणियध करना, इत्यादि प्रमादपूर्वक और दुर्भावनास किये गये सभी विघ्न उपस्थित करनेवाले कार्य अन्तरायके पन्धमें कारण हैं। इसी तरह मसाता वेदनीय * पन्धमें जो कारण हैं उनको भी दरिद्रताका अन्तरंग कारण समझना चाहिय।
यहाँ पर यह ध्यान रखना योग्य है कि यद्यपि उक्त ४१ कोंके सिवाय अन्य फाँका सामान्यतया बन्ध सम्यग्दृष्टि जीवके भी हुआ करता है और उनके पथके योग्य परिणाम नया प्रवृत्तियों भी हुआ ही करती हैं किन्तु उनमें मिथ्याष्टिके समान तीव्रता न रहनेके कारण उसके मिथ्याष्टिके समान तीत्र अनुभाग आदिका बन्थ भी नहीं हुआ करता । कारण यह है कि सम्यग्दृष्टि जीवके संसारकी सीमा प्रायः समाप्त होने पर आ गई है अतएव उसके कर्मबन्धनकी संततिके कारण और स्वरूपमें भी स्वभावतः इस तरहका अपूर्व परिवर्तन हो जाया करता है जिसके कि फलस्वरूप उसके इन कर्मोकी स्थिति एवं अनुभागमें यथायोग्य सातिशय अम्पता मा जाया करती हैं। अस्तु । यहाँपर यह सब वर्णन करनेका तात्पर्य इतना ही है कि यह मालुम हो सके कि सम्यग्दर्शनके प्रकट होते ही संसारके कारण कितने प्रमाणमें निर्मूल से जाया करते हैं और उसका संसार-चातुर्गतिक भ्रमण किसतरह सीमित हो जाया करता है।
प्रकत कारिकामें अतिशयोक्ति अलंकार माना जा सकता है परन्तु ऊपर के कथनसे यह भी मालुम हो सकेगा कि यह कथन केवल प्रालंकारिक ही नहीं है। वह सैद्धान्तिक है। और इसीलिये तस्वव्यवस्थाके प्राथारपर स्थित है । अतएव सर्वथा प्रमाणभूत है।
प्रकृत कारिकाके दोनो वाक्योंमें जिस अन्वाचयका उपर उन्लेख किया गया है उसके माथार पर कुछ और भी विशेषताएं है जो कि विचार करने पर समभाम श्रा सकती है। प्रथम या कि यहां पर जिन-जिन विषयों का निषेध किया गया है उनमें पूर्व-पूर्व सामान्य और उत्तरो. तर विशेष है। सबसे प्रथम निषेध्य नारक भाव है जिसके कि कारणभूत कर्मोंकी बन्धन्मुच्छिति प्रथम गुणस्थानमें हुमा करती है। साथ ही जिस नपुसकताका निषेध किया गया है नारक मावके साथ केवल उसका ही नियत सम्बन्ध है। क्योंकि नरक गतिमें स्त्रीवेद और पुवेदन रहकर केवल पण्ड भाव ही पाया जाता है। नारकस्य के बाद निर्यन्त्वका निषेध किया गया है। जिसके कि योग्य कर्मोंकी बन्दव्युच्छिसि दूसरे सासादन गुणस्थानमें पताई गई है। यहां यह बात भी ध्यानमें रहनी चाहिये कि था गुणस्थान सम्पकत्वलामके अनन्धर ही हुआ करता है।
और प्रथम गुणस्थानमें जिन कर्मों की बन्थम्युच्छिति बताई गई है उसका फल भी वास्तव में मिप्यास्व गुरुस्थाममें न होकर द्वितीयादि गुपस्थानों में ही हुमा करता है। इससे स्पष्ट होण
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रलकरएडभावकाचार है कि तस्यतः इन भावांक न हनिमें सम्यग्दर्शमकी प्रादुर्भूति ही निमित्त है । साथ ही यह बात भी विदित हो जाती है कि इन भावोंके साथ सम्यग्दर्शनका उसी तरह सहानवस्थान विरोष है जैसे कि अन्धकार और प्रकाशका ।
नारक भानके साथ जिम हर एक पाटोदला ही नियत सम्बन्ध है वैसा निर्यग्भावके माथ नहीं, तिर्यक पर्यायमें तीनों ही वेदोंका अस्तित्व माना गया है। अतएव यथाक्रम वर्णन की दृष्टि में रखनेवाले श्राचार्य नारकभाव के अनन्तर तिर्यम्भावका और उसके भी अनन्तर क्रमसे अमरत्व और स्त्रीत्वका उल्लेख करके बताना चाहते हैं कि जिस तरह कदाचित् बदायुष्क सम्यग्दृष्टि नारक भावको पाकर नपुसक हो सकता है। क्योंकि वहापर यही एक वेद नियत है। घसा तिर्यगतिक विषयमें नहीं है। क्योंकि तिर्यग्गतिमें तीनों ही वेद पाये जाते हैं । इसलिये यदि कोई बद्धायुष्क सम्यग्दृष्टि तिर्यम्गतिको प्राप्त करता है तो यहाँ पाये जानेवाले वेदोमसे निम्नकोटिके माने गये नपुसकवेद और नीवेदको वह प्राप्त नहीं हुआ करता। इस तरहसे प्रथम वाक्यमें उत्तरोत्तर विशेषता बताई गई है। साथ ही दोनों घेदोंका पृथक उल्लेख इस बात की भी भूचित करता है कि सम्यग्दृष्टिको वेदप्राप्तिके विषयमें एक सामान्य नियम है कि वह जिस गतिमें भी जाता है वहां पाये जानेवाले वेदोंमेंस निकृष्ट वेद या वेदोंको नहीं, अपितु उत्तमवेदको ही प्राप्त हुशा करता है। यह नियम मनुष्य और देवगनिमें भी घटित होता है। क्योंकि यह सर्वत्र घटित होनेवाला सामान्य नियम है। यही कारण है कि सामान्य कथनको दृष्टिमें रखकर कहा गया प्रथम वाक्य प्रधान है।
ऊपर यह कहा जा चुका है कि अन्वाचय अर्थके कारण उचराधमें आया हुआ धाश्य पौण अर्थको बताता है। नथा गौणतासे प्रयोजन कुछ विशेषविषयक नियमको बतानेका है। फिर भी प्रथम वाक्यकी तरह इस द्वितीय वाक्यमें जिन चार विषयोंका कथन करके सम्यग्टहीको उनकी प्राप्तिका निषेध किया गया है वे भी अपने अपने पूर्वसे उत्तरोत्तर मिशेरवा रखने वाले है । भबद्धायुक सम्पष्टिका नरक तिर्यगमतिकी तरह शेष दो मतियोंमें गमन निषिद नहीं है, यह बात ऊपर कही जा चुकी है। इनमेंस देवायके विषयमें कोई विशेष वर्णनीय नहीं है। फलतः मुख्यतया मनुष्यगतिको दृष्टि में रखकर कारिकाका यह दूसरा वाक्य कहा गया है। घिसके कि द्वारा बताया गया है कि मनुष्यगति में भी ये कौन कौन सी दशाएं हैं जो कि सम्यग्दृष्टि को ग्रहण करने में उत्तरोचर अपोग्य हैं।
बोधि-दुर्लभ भावनाके प्रकरणमें प्राचार्योने मनुष्यभवको दुर्लभ पताया है। तथा मनुष्यभरमें भी उत्तम कुल १ , इन्द्रियादिकी पूर्णता, अनरूप आयुष्य आदिकी प्राप्ति उपरोखर १-इसके लिये देखो सर्वार्थ मिद्धि राजवार्तिक द्वादशानुप्रंक्षा आदि । तथा पशस्तिलक श्रा०शक्यासंसारसागर्गममं भ्रमता नितान्तं, जीवन मानवभवः समवापि देवात । सत्रापि यद्भुवनमान्यफुले प्रसूति: बसंगतिश्च तहिधिकवर्तकोयम् !!१५२। फच्छादनस्पतिमतस्युत एष जीपः, रखर्धेषु कम्मषयरोन पुनः अयाचि । चेयः परस्परविरोधिगप्रसूतावस्थाः पशुप्रतिनिभेषु कुमानुपेषु ।।१४४॥ ईत्यादि ।।
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चन्द्रिका टीका चीसा श्लोक कठिन बताई गई है। प्रकृत कारिकाका यह वाक्य भी बताता है कि सम्यग्दृष्टि जीव मनुष्य गतिको पाकर भी दुष्कुलको प्राप्त नहीं करता, उनम कलमें उत्पन्न होकर मी इन्द्रियों भादि अथवा अंगोपांगसे विफल या विकृत नहीं हुआ करता और निर्विकन होकर मी अल्पायु नहीं होता तथा योग्य प्रायुको पानेपर भी दरिद्रकुलोरपा नहीं हुमा करता । इस तरह वह जीर सम्यक्रवके प्रभावसे मनुष्यभवको पाकर भी उसमें उन अवस्थाओं को नहीं प्राप्त किया करता बो कि उन भिन्न मिम पाप कमकि फलस्वरूप है जिनका किया तो सम्यक्त्व प्राप्तिके भनन्तर उसके बन्ध नहीं हुआ करता यदि उससे पहले बन्धे हुए सचामें हैं तो वे फल देनमें समर्थ नहीं रहते क्योंकि या तो सम्यक्त्व कारण उनको उदयमें आकर फल देनमें निमिचभूत द्रव्य त्रिकालभावरूप मामग्री ही प्राप्त नहीं हुआ करती अथवा पुण्यप्रकृतियोंके रूपमें वे संक्रान्त बोजारा करते हैं।
_इस तरह फल विप्रतिपत्तिके निराकरणके प्रकरणको पाकर सम्यक्त्वके श्रीरंग माहात्म्य का दिग्दर्शन किया गया। इससे मालुम हो सकता है कि सम्यग्दर्शनक उदित होनेपर समय संसारकै अन्तरंग कारणभूत कर्मोंका-उसके द्रव्य क्षेत्र काल भावका-प्रकृति प्रदेश स्थिति
और अनुभागका कितना प्रभाव हाता और उसके फलस्वरूप आत्माकी विशुद्धि-उत्सम सुम्सुके रूप में अपने द्रष्य क्षेत्र काल मायके अनुसार कहां तक प्रकाशित ही जाती है तथा वह जीन मोक्षमार्गमें कितना आगे बढकर निर्वाणके कितने निकट पहुंच जाया करता है।
अब यह जिज्ञासा हो सकती है कि सम्यग्दृष्टि जीव जिन जिन अवस्थामाको नहीं प्राप्त किया करता उनकी तो बताया परन्तु यहां यह भी बताना उचित और मावश्यक है कि पह किन किन अवस्थाओंको प्राप्त किया करता है । इसीका समाधान करने के लिये भाचार्य
श्रोजस्तेजोविद्यावीर्ययशोवृद्धिविजयविभवसनाथा ।
माहाकुला महार्था मानवतिलका भवन्ति दर्शनपूताः ॥३६॥
अर्थ-दर्शन-सम्यग्दर्शनसे जो पूत-पवित्र हैं वे महान् लोकपूज्य-उम्प अलमें उत्पन्न होते हैं, महान अर्थ--धर्म अर्थ काम और मोवरूप पुरुषार्थोंके सापक होने है, और मनुष्योंमें तिलकके समान पूज्य स्थान प्राप्त किया करते हैं। साथ ही चे मोजम्बी तेजस्वी विद्वान पराक्रमी या बलवान यहा उत्साही सथा यशस्वी कुम्मी गुणोत्कर्षक धारक और सम्पत्तिसे युक्त हुआ करते हैं !
प्रयोजन ऊपर निषेधमुखसे वर्णन करते हुए सम्यग्दृष्टी जीव जिन जिन अवस्थाओं को प्राप्त नहीं किया करता उनका दिग्दर्शन कराया गया है वह आंशिक वर्शन है। उसने
अवान्तरमें
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रत्नकरण्ड श्रावकाचार
ही सर्वमाधारक तत्वका पर्याप्त परिज्ञान नहीं हो सकता जबतक कि विधिमुखेन प्राप्य अवस्थाओं का भी वर्णन करके वर्णनीय विषयके दूसरे मामका भी स्पष्टीकरण न कर दिया जाय ।
ऊपरी कारिकामें दो गतियोंका निषेध करके और पारिशेष्यात् प्राप्य दो गतियोंमें भी कुछ निम्न अवस्थाओं की अप्राप्यता दिखाकर यह सूचित कर दिया गया है कि इनके सिवाय सभी विशिष्ट अवस्थाओंको सम्यग्दृष्टि जीव प्राप्त किया करता है। किन्तु फिर भी यह पर जो एक शंका खड़ी रहती है वह यह कि क्या वे सभी शेष भवस्थाएं सम्यग्दष्टी जीवको ही प्राप्त हुआ करती हैं ? मिध्यादृष्टि जीवको प्राप्त नहीं हुआ करतीं १ यदि दोनोंको भी प्राप्त होती है तो फिर उनमें सम्यग्दर्शनके प्रभावका क्या विशेष फल पाया जाता है ? अथवा दोनों को प्राप्त होनेवाली उन अवस्थाओं में कोई विशेषता न रहकर समानता ही रहा करती है ? या कोई नियम ही नहीं हैं ! इन उठनेवाली शंकाओंका आचार्य महाराज इस कारिकाके द्वारा समाधान करना चाहते हैं। यह भी इस कारिकाका प्रयोजन है
सम्ग्रष्टि और मिथ्यादृष्टि दोनों को लक्ष्यमें रखकर उक्त निषिद्ध दशाओंसे भिन्न
कोदो नागरिक किया जा सकता है। एक सामान्य दूसरी विशेष । सामान्यसे प्रयोजन उन अवस्थाओंका है जो कि सम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टि दोनों को ही प्राप्त हुआ करती है । और विशेष से अभिप्राय उन अवस्थाओंका है जो कि सम्यग्दृष्टिको ही प्राप्त हो सकती हैं। इनमेंसे इस कारिकामें जिन प्राप्त होनेवाली अवस्थाओं का उल्लेख किया गया है वे सामान्य हैं। सम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टि दोनोंको ही प्राप्त हो सकती हैं।
प्रश्न ---- यदि यही बात है तो सम्यग्दर्शन के महत और उसीके असाधारण फलको ही जब बताया जा रहा है तब यहां ऐसी दशाओंका उल्लेख करना जो कि सम्यग्दर्शके बिना मी पाई जाती है, पर्थ हैं
I
उत्तर—यह ठीक है कि इस कारिका में जिन अवस्थाओं को बताया गया है वे साधारणतथा सम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टि दोनोंको ही प्राप्य हैं परन्तु आचार्य यहां इनका उल्लेख करके बताना चाहते हैं कि ऐसा होनेपर भी ये ही अवस्थाएं यदि सम्यग्दृष्टिको प्राप्त होती हैं सो जनमें कुछ विशेषता रहा करती है । और यह विशेषता किस तरहसे तथा किन किन विषयोंमें हुआ करती है इसके लिये दृष्टान्तरूप कुछ विषयोंका उन्लेख करते हैं। फलतः इस कथनी प्रकृत बनके साथ संगति स्पष्ट हो जाती है ।
आगममें प्राप्य अवस्थाओंके वर्शन करनेवाले प्रकरणमें तीन तरहकी क्रियाओंका इम्लेख पाया जाता है, गर्भान्वयः दीक्षान्त्रय, और कर्षन्यथ । जैनधर्मका पत्चन जिन लो
१- मादिपुराण पर्व ३८,३६,४०
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चन्द्रिका टीका हत्तीमा श्लोक पला पाता है उनमें उत्पन्न होनेवाले जीवके संस्कारोंसे सम्बन्धित तथा इसके लिये उचित और प्रावश्यक क्रियाओंको गर्भान्चय क्रिया कहते हैं। और जिनमें जैनधर्म नहीं पाया जाता ऐसे कुलमें उत्पन्न दुधा व्यक्ति जब जैन धर्ममें दीक्षित होना चाहता है तो उससे सम्बन्धित एवं उसके लिये उचित और आवश्यकरूपसे की जानेवाली क्रियाओंको दीक्षान्वय क्रिश करते हैं। और जो सन्मार्गका माराधन करनेवालोंको पुण्य कर्मके फलस्वरूप प्राप्त हुया करती हैं हसको न्निय क्रिया कहते हैं । गर्भान्वय क्रियाओंके ५३, दीक्षान्वय क्रियाओंके ४८ भौर इन कन्वय क्रियाभोंके सात भेद हैं,-सज्जाति, सद्गृहित्व, पारिवाज्य, सुरेन्द्रता, परमसाम्राज्य, परमाईन्त्य भौर परमनिर्याय । इन कर्मन्यय क्रियाओं को ही परमस्थान भी कहते । क्योंकि ये परम-उत्कृष्ट-पुण्यविशेषके द्वारा प्राप्त होनेवाले स्थान है । तथा परमस्थान-मोक्षक कारण हैं इसलिए भी इनको परमस्थान कहा गया है।
___ सात परम स्थानों में आदिके तीन स्थान सामान्य हैं । साधारणतया सम्यग्दृष्टि और मियादृष्टि दोनों को ही प्राप्त हुभा करते हैं। किन्तु इन्हीं तीन विषयों में यदि वे सम्यग्दृष्टिको प्राप्त हुए है या होते हैं तो उनमें मिथ्याष्टिको प्राप्त होनेवाले इन्हीं विषयों की अपेक्षा उस्कृष्टता महत्ता असाधारणता पाई जाती हैं या रहा करती है। इस तरहसे सामान्य विषयों में भी सम्पदर्शनके फलकी महिमाका स्पष्टीकरण हो जाता है एवं च पुण्यकर्म उसके उदयसै मिथ्याइष्टि तथा सम्पष्टिको प्राप्त होनेवाले भाभ्युदयिक फलकी विशेषता—उनमें पाये जानेवाले अन्तरको दिखाना मी इस कारिकाका प्रयोजन है । और यह उचित तथा आवश्यक भी है। क्योंकि ऐसा करनेसे निध्यात्वकी अपेक्षा सम्यक्त्व सहचारी भावोंके द्वारा संचित पुण्यकर्मक वैशिष्ठयक विषयमें वस्त्रवान हो जाता है। तथा मोक्षमार्गमें भागे पढनके लिये प्रमादका परिवार और उत्साहकी पदि होती है। जिसके फलस्वरूप ज्यों ज्यों भागे आगे बढ़ता जाता है त्यों त्यों उदितोदित पुण्यका संचय विशेष भी होता जाता और उसके मोक्षके साधनोंमें प्रकर्ष भी पडता जाता है।
सम्यग्दर्शनकी विद्युद्धिके फलस्वरूप विवक्षित फाँके बन्धका निषेध बताकर ऊपरकी कारिकाके द्वारा संबर सलकी सिद्धि बताई गई है। किन्तु इस कारिकामें निर्जरा वसकी सिविल समान सपके साथनोंकी तरफ इष्टि रक्खी गई है। नवीन कर्मोका मानेसे रुकना संघर और पर्क बद कोका पारमाके साथ जो सम्बन है उसका विच्छेद हो जाना अथवा उनमें से कर्मस्वका निकल जाना ही निर्जरातच है। मात्मामें सम्यक्त्यके प्रकाशित होते ही मिथ्यात्व अवस्थामें होनेवाली प्रचिोंका परिवर्तन हो जानेसे जिन-जिन कर्मोका नवीन प्रागमन रूकता उसने अंक्षमें उसके संबर हुमा करता है। किन्तु उन्हीं पूर्वबद्ध काँका जपसक वय नहीं होता सबसक जो उनका सस्व बना हुआ है तथा शेष कर्म भी जो समामें हैं उनके पृथक्करणकी तरफ भी
-प्राषिराम ३८, ६३
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रहाकारखावकाचार
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समचुकी घटिका रहना या रखना अत्यावश्यक है। इस पृथक्करसकी सिद्धि ही निर्जरातस्त्र है। संवरक मुख्य साधन जिस तरह गुप्ति समिति धर्म अनुप्रेक्षा परीपहजय और चारित्र है, उसी प्रकार निर्जराका मुख्य साधन तप है। सम्याखक होने पर दर्शनमोह और अनन्तानुबन्धी कपाय का उदय न रहनसे तदनुकूल प्रतियोंका भी प्रभाव हो जाने के कारण जो त्रियोगमें परिवर्तन होता है उससे उक्त संघरके कारणोंकी यथायोग्य सिद्धि भी स्वभावतः हो जाया करती है। मिथ्यात्वके अनुकूल मन बचन कायकी प्रवृधियोंका समीचीन निग्रह, मोक्षमार्गमें जिमसे पाया नयावे इस नरहसे उसके त्रिशेगकी प्रकुचि, अनन्तानुबन्धी कपायका उदय न रहनेसे तयोम्य उत्तम मना मार्दव अर्जिवादि धर्मों की सिद्धि, मोक्षमार्गके विरुद्ध और संसरणके अनुकूल पर्यय बुद्धिमें नथा संसार शरीर भोगामें हेयताका चिन्तन और इसके विरुद्ध संसरणके प्रतिकूल एवं श्रेयोमार्गके अनुकूल अपने एकत्व-ध्र वत्व प्रादिकी उपादेयताके विषयका अनुप्रंक्षण होने लगता है। वह अपने लक्ष्यके विरुद्ध कदाचित उपस्थित होनेवाली भापत्तियों को भी सहन करनेका उनपर विजय प्राप्त करनेका यथाशक्ति प्रयत्न करता मोर स्वरूपाचरणसे भी युक्त रहा करता है।
ऐसा होनेपर भी उसके अभीतक ४१ उक्त कर्म प्रकृतियोंका ही संवर हो सकता है अधिकका नहीं । हो, उसके मन और इन्द्रियों तथा शारीरिक पहलेकी प्रवृत्तियोंके निरोषलक्षण तपका भी अंश पाया जाता है। और इसीलिये यह निर्जराके स्थानों से सातिशय मिश्यादृष्टिकी अपेक्षा असंख्यातगुणी कर्मों की निर्जराके प्रथम स्थानका भी भोक्ता हुआ करता है। फिरभी यह विशिष्ट संपर और असाधारण निर्जराका स्वामी तबतक नहीं बन पाता जबतक कि उसके योग्य अन्तरंग बहिरंग अवस्थाको आत्मसात् नहीं कर लेता। यह यही अवस्था है जो कि तपोभृतका लक्षण या स्वरूप कथन करते हुए स्वर्ग ग्रन्थकारने कारिका नं० १० में बताई है। किन्तु उस अवस्थाकी प्राप्तिमें जो तीन योग्यताएं अपेक्षित है उन्हींका इस कारिकामे निर्देश किया गया है। क्योंकि मुख्यतया निर्जरा और गौणतया संपरके कारमाभूत उस तपको संभावना जिनलिंगको धारण किए बिना नहीं हो सकती । और उस तरहकी तपस्वि अवस्थाके लिये इन तीनों योग्यताओंकी आवश्यकता है जो कि इस कारिकामें परिगणित हैं और जिनका किऊपर कन्चय क्रियाभोंके भेदोंकी आदिमें सज्जातिस सद्गृहिस और पारिवाज्य नामसे उल्लेख किया जा चुका है।
मानव पर्यायके सामान्यतया दो मेद है। एक आर्य इसरा म्लेच्छ । प्रावि पांच भेद है । क्षेमार्ग, जात्यार्य कार्य, चारित्रार्य और दर्शनार्य । इनमें पूर्व-पूर्व महाविषय-व्यापक ५-गुणैः (सम्यग्दर्शनादिभिः) गुणवद्भिया मर्यन्त प्रत्यायोः । स सि. -मुशकुल नायगे बागणेचनिये विशि। निष्कस थमे स्थाप्या जिनमुदार्षिता सताम् ।।८।
०५०म.
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चन्द्रिका दोका सर्वा] श्लोक
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या. सामान्य हैं और उत्तरोचर अल्पविषय - व्याप्य या विशेषभेदरूप हैं। जो जास्थार्य है पह पेत्रार्य अवश्य है - यह नियम है । परन्तु जो-जो क्षेत्रार्य हैं वे सभी जात्यार्थ हैं, यह नियम नहीं है। यही बात आगे भी समझनी चाहिये । फलतः जो चारित्राय हैं वे क्षेत्र अति और कर्मकी अपेक्षा आर्य अवश्य हैं। जो क्षेत्र जाति और कर्मकी अपेक्षा श्रार्य हैं वे सभी atest अपेक्षा भी आर्य हो यह नियम नहीं है । अस्तु इस क्रमके अनुसार दीक्षा are करनेके लिये सुदेश कुल और जातिका उस व्यक्ति में पाया जाना आवश्यक है। आगमका नियम भी ऐसा ही हैं कि जो कि देश कुल जातिसे शुद्ध हैं और प्रशस्तांग है वही दीक्षा धारण करनेका अधिकारी हैं ।
ऊपर यह कहा जा चुका है कि प्रकृत कारिकामें कथित तीनों ही परम स्थान सम्यग्दृहि और मिथ्यादृष्टि दोनोंको ही प्राप्त हुआ करते हैं फिर भी सम्यग्दृष्टिको प्राप्त इन स्थानोंमें विशेषता रहा करती है। प्रथम तो यह कि जो सम्यग्दृष्टि है वह नियमसे महाबुल में जन्म धारव किया करता है जबकि मिथ्यादृष्टि के लिये नियम नहीं हैं। वह असन्कुलोंमें भी उत्पन्न हो सकता है। दूसरी बात यह है कि सम्यक्त्वसहित जीवके ये तीनों ही परमस्थान मिध्यादृष्टि की अपेक्षा अनिशायी रहा करते हैं। कारण यह कि जिस पुण्य कर्मके उदयसे थे परमस्थान जीवको प्राप्त हुआ करते हैं उनके बन्धकी कारणभूत विशुद्धि जी सम्यग्दर्शनके साहचर्यमं हुआ करती हैं वह अन्यत्र नहीं पाई जाती और न संभव ही है ।
सम्यग्दृष्टिका जच्य परमनिर्वाणको सिद्ध करना है । और वह तबतक सिद्ध नहीं हो सकती जबतक कि प्रतिपक्षी कर्मों की मूल निर्जरा नहीं हो जाती । इस निर्जराका कारण तप और तपका आधार आहेत दीक्षा है जैसा कि ऊपर बताया जा चुका है । यह निर्वाeater सज्जाति एवं सद्गृहीकी ही सफल हो सकती हैं । अन्यकी नहीं। यह भी सुनिश्चित है। यही कारण है कि आचार्य इस कारिकामें सम्यग्दर्शनकी अन्तिम सफलता के लिये प्रथम स्थानीय एवं आवश्यक विषय समझकर इन तीन परम स्थानोंका सम्यग्दर्शन के फलरूप में निर्देश करना प्रयोजनीभूत समझते हैं। जो कि माहाकुला महार्था और मानवतिलका शब्दोंके द्वारा क्रमसे सूचित किये गए हैं
शब्दोंका सामान्य विशेष अर्थ -
ओजस् --- यह शब्द उब्ज (तुदादि) धातुसे अस् प्रत्यय और ग्रका लोप और गुण हो कर बनता है। कोषके अनुसार इसके अनक अर्थ हुआ करते हैं। श्रीप्रभाचन्द्र देवने अपनी
१-तथा-- ब्राह्मणे! तत्रिये वैश्ये सुदेशकुलञ्चातिजे । अर्हतः स्थाप्यते लिंगन निन्द्यबालकादिषु ॥ तिला सा देया जैनी मुद्रा बुधार्चिता । रत्नमाला सतां योग्या भरडले न विधीयते ॥ २- पुण्यं पि जो समीहृदि संसारो तेण ईहियो होदि । दूरे तस्य विसोही बिसोहिमूलाणि पुराणि ॥
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AshurnavanamaA
रलकाकायकापार संस्कृत टीकामें इसका अर्थ उत्साह दिया है। किन्तु प्राणोंका बल अथवा आयुर्वेद के अनुसार बताया गया धातुरसका पोषक तत्व अर्थ भी संगत हो सकता है । जो कि ओजके लिए नोकर्य बंधवा सहकारी निहित है।
तेजस्--यह शब्द भी विज थातुसे असुन् प्रत्यय होकर बना है। इसके भी अम्निा था, वीर्य, सूर्य प्रकाश, प्रभाव, पराक्रम, अपमानको न सह सकनेका भाव आदि अनेक अर्थ होते हैं । किन्तु प्रकृतमें इसका अर्थ प्रताप या कान्ति करना ही उचित है। संस्कृत रीकामें भी ये दो ही अर्थ बताये हैं। कान्तिसे अभिप्राय शारीरिक दोप्ति और प्रनापका माशय कोष एवं दण्डसे उत्पन्न होनेवाला तेज हुआ करता है। यहां दोनों ही अर्थ उचित है । भोर
विद्या--दित् धातुसे क्यप् प्रत्यय होकर यह शब्द बना है । इसका अर्थ बोथ, अवमम, जानना, नस्य साक्षात्कार प्रादि हुमा करता है। किन्तु सहज और आहार्य बुद्धि मर्थ सर्वश उपयुक्त है जैसा कि संस्कृत टीकामें भी किया गया है । यद्यपि लिया और बुद्धि दोनों भिन्नभिन्नर है । शास्त्रों आदिके अध्ययनादि द्वारा प्राप्त विषय-ज्ञानको विद्या और ज्ञानावरस कर्मक श्योपशमक अनुसार लब्ध विशुद्धिको बुद्धि कहा जाता है। जिसके कि निमिवसे ग्रहण धारण विज्ञान ऊहापोह आदि विशेषरूपमें भेद हो सकते हैं। टीकाकारका भी अभिप्राय माहार्य बुद्धि शब्दसे विद्या और सहज बुद्धि शब्दसे क्षायोपशमिक विशुद्धिका ही मालुम होता है। कारिकाक्त पिया शब्दसे दोनों ही अर्शीका ग्रहण किया जा सकता है, अथवा करना चाहिये।
वीर्य-वीर शब्दसे यत् प्रत्यय होकर यह शब्द बनता है। इसका अर्थ विशिष्ट सामर्थ किया गया है। जीव द्रव्य और अजीवद्रव्य दोनोंमें पाई जानेवाली यह एक शक्ति है जो कि जीवमें तो अपने प्रतिपक्षी कर्म-~अन्तरायके क्षयोपशम विशेषके अनुसार अथवा सर्वथा पयते प्रकट हुआ करती है। और अजीव द्रव्यमें उसकी पर्याय तथा योग्य द्रव्यादि चतुष्टय-द्रव्यक्षेत्र काल भावका निमित्त पाकर प्रकट हुआ करती है। किन्तु यहां मुख्यतया जीव-शक्ति अमिप्रेत है।
यरास--इसका अर्थ की प्रसिद्धि ख्याति गीति आदि हुआ करता है ये सप यशके पर्यायवाचक शब्द है । यशके होनेमें अन्तरंग कारण यशस्की नाम कर्मका उदय४ है जिसका
१-प्रतापः कोपदण्ड तेजः ! २--भाग्यानुसारिणी लक्ष्मीः कीर्तिनानुसारिणी। अभ्याससारिणी थिया बुद्धिः कर्मानुसारिणी। ३-देखो गो० सार क० गाथा जीवाजीवदामाद परिमे॥
४-पुण्यगुणझ्यापनकारणं परास्कीसि राम ॥, ११, ३९."ननु यशः कीर्तिरित्यनयो गोत्पषिरुषः इति पुनरुतत्त्रप्रसंगः । नैष दोषः । यशो नाम गुणः (यशस्य कम) कीर्वनं संशयन कोर्विः सशसः तिरित्यरत्यर्थभदः ॥ रा-बा० ।
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चन्द्रिका टीका छत्तीया श्लोक
२ कि प्रतिपनी अयशस्कीर्सि नामकर्म है। जहाँपर कि यनस् और अयशस शब्दोंका अर्थ क्रमसे पास्प-प्रशस्त गुमा एवं कार्य और अयशस्य--अप्रशस्त गुण एवं कार्य हुआ करता है।
और कीर्तिका अर्थ ल्यापन-कीर्तन हुआ करता है। यशस्कीर्तनके विरोधी अयशस्कोतिनाम फर्गक उदयकी इस अननी भी सम्पत्वपूत व्यक्तिकै ब्युच्छित्ति१ मानी गई है जो कि मिथ्यादृष्टिकी अपेक्षा उसकी विशिष्ट यशस्मनाका भूधक।
वृद्धि--बहने अर्थकी पम् थातुसे क्तिन् प्रत्यय होकर यह शब्द बना है। अतएव सामान्यतया इसका अर्थ बढवारी होता है। कोषके अनुसार इसके समृद्धि, अभ्युदय, समधि समूह, ज्याज आदि अनेक अर्थ हुआ करते हैं । परन्तु यहांपर गुणों की अथवा छुटुम्बकी इस तरह दोनोंकी ही बढती अर्थ करना उपयुक्त है । क्योंकि यहां पर मिथ्यादृष्टिकी अपेक्षा सम्पदृष्टिके गुण अथवा कौडम्बिक सुख शान्ति संसोप आदि सभी विषयोंकी विशेषता बताना अभीष्ट है। पुत्र पौत्र आदि संततिकी उत्पतिको भी वृद्धि शब्दसे ही कहा जाता है अत एव यहांपर या सो भोजस्विता, तेजस्विता, विधा--कला गुणों श्रादिकी प्राप्ति या अभिज्ञता, पराक्रमशामिना, सद्गुणोंका प्रख्यापन इन गुणोंकी अथवा इस तरहके गुणोंमें पृद्धि ऐसा अर्थ किया जा सकता है, पद्वा इन गुणों के साथ साथ कौडम्पिक वृद्धि-कलत्र पुत्र पुधी पौत्र दौहित्र आदिका नाम यह अर्थ करना चाहिए । संस्कृत टीकाकारने अन्तिम अर्थ ही ग्रहण किया है। इस पक्षमें 'सनाथ' शब्द के पूर्वमें जिसने शब्दोंका प्रयोग इस वाक्यमें किया है उन सपका इतरेतर द्वन्द्व समास करना चाहिये।
विजय--पह शब्द विपूर्वक "जि" थातुसे बनता है। इसका अर्थ स्पष्ट है । किसी मी कला, गुग, शक्ति, पुण्यपल, या वैभव श्रादिके द्वारा अपनी उत्कृष्टता प्रमाणित कर देना विजय है। किन्तु जहांपर किसी भी साधनके द्वारा दूसरेका अभिमवपूर्वक अपना उत्कर्ष, महत्य, स्वामित्व स्थापित किया जाता है वहींपर प्रायः इस शब्दका प्रयोग हुआ करता है।
विभव-यह शन्द 'वि' उपसगंपूर्वक भू धातुसे अच् प्रत्यय होकर बनता है। यहां पर इसका अर्थ धनधान्य आदि सम्पत्ति है । यद्यपि इसका अर्थ अईसरमेष्ठी, तीर्थकर भगवान, अथवा संसारातीत मोर अवस्था भी होता है ।।
सनाय--नाथ शम्द याचनार्थक नाथ् थातुसे बनता है। जो याचना करने योग्य है, बिससे याचना की जाय उसको नाथ कहते है । मढलब यह कि जो उपजीव्य है, शरण्य है, वही नाथ है। भोज आदि गुणोंके लिये जो अपनी इस योग्यतासे युक्त है वह सनाथ है। अर्थात् दर्शनपर व्यक्तिके भोज प्रादि गुण समाग्दर्शन गुणके कारण अपनेको सनाथ समझसे
१-चतुर्थगुण स्थानमें १७ कोको उदय म्युछिति होती है। अतएव यद्यपि अयशस्कीका अनुदर पाच गुणस्थानसे ही होता है फिर भी सनकी युश्चिशिजिस विशुनपर अवलम्बित सभ्यम्पर्शन पर ही निर्भर है, यही बात यह दिखाई गई है।
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रनकरण्डनायकाचार है। फलतः वे सभी गुण इस तरहके व्यक्तिके शरएम मानकर उसका आश्रय लिया करते हैं। अवका सभी गुण सभ्यग्दर्शनको नाथ शरण्य मानकर जहां वह रहसा है यहाएर ये भी आकर उपस्थित हो जाते हैं।
माहाकुला:--मच्च तन्कुल । तत्र जाताः भवा, तम या अपत्यानि-माहाकुलाः। महान कुलोमें उत्पन्न होनेवाले ।
ऊपर सम्पदृष्टिका दुष्कूलोंमें जन्मग्रहण वर्जित बताया है। अतएव इस प्रश्न या विज्ञासा कि जब वह दुष्कुलमें या दुष्कुनोंमें जन्म धारण नहीं करता तो फिर किस तरहके लोंमें वह उत्पन्न हुआ करता है ? उत्तर में यह कहागया है कि जो सम्यग्दर्शनसे पवित्र महान कुलोंमें ही जन्म धारण किया करते हैं । इस शब्दके द्वारा आचार्यका अभिप्राय, उस म जात्यार्यों में और समातित्व परम स्थानमें ही जन्म ग्रहण करनेके नियमको बतानेका जिसमें कि मातृपक्ष तथा पितृपक्ष दोनों ही वंशामें विशुद्धि पाई जाती है । उस कुलक्रमागत शिद्धिको सूचित करने के लिये ही कुलके विशेषकरूपमें महा शब्द का प्रयोग किया गया है। जिस तरह किसी भी व्यक्तिके विषयमें यदि यह कहा जाय कि यह रूपवान है. यह ज्ञानी तो कोई भी शरीरधारी ऐसा नहीं मिल सकता कि जो रूपवान् न हो क्योंकि सभी शरीर प जससे युक्त ही है। अतएव "रूपवान्" कहनेका अर्थ होता हैं विशिष्ट रूपको धारण करने माला। इसी तरह कोई भी आत्मा ऐसा नहीं हैं जो कि ज्ञानशून्य हो, अतएव "पानवान" काहनेका अर्थ होता है असाधारण ज्ञानका धारक । इसी प्रकार प्रकृतमें भी समझना चाहिए। कोई भी संसारी प्राणी ऐमा नहीं है जो कि किसी न किसी आगम निर्दिष्ट कुलमें जन्म प्रास
करता हो। फिर जब ऊपरकी कारिकामें सम्यग्दृष्टि की दुष्कुल में उत्पधिका निपेश किया महानव पारिशेष्यात् उसका सत्कुलमें जन्म ग्रहगा करना स्वयं सिद्ध हो जाता है। कनीन शब्दका लोकमें अर्थ भी 'उत्तम कुल में उत्पन्न हुआ' ही होता है। अतएव विचार करनेपर
का महा विशेषण अर्थ विशेषका बोधक ही सिद्ध होता है। अतएव भागमके अनुसार में शम्दसे शरीर बन्म और संस्कार जन्म दाना हा.तरहको शुद्धिसे युक्त मातृपक्ष तथा पिप पोका समूहरूप सज्जातिय नामका प्रथम परमस्थान ही अर्थ ग्रहण करना चाहिये।
महार्थाः-महान्तः अर्थाः येषां ते महार्थाः । इस निरुक्तिके अनुसार इसका अर्थ होगा है कि जिनका अर्थ पुरुषार्थ अथवा धर्म अर्थ काम और मोक्षरूप पुरुषार्थ महान् है। ध्यान से पर पर महचाका आशय मुख्यतया विधुलतासे नहीं, अपितु प्रशस्तता, मान्यता-भादरणीपना जयपूर्णता एवं अपापोपडसता तथा प्रदीनवृत्तिसे है । क्योंकि इस शब्दसे आचार्यका अभिप्राय
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चन्द्रिमा टीका कलीगचा ताक दसरे परम स्थान-मद्गुहिल्वका बोध करानका है । अबएव तान बशिलाम अन्वय क्रमसे चले आयें अपने अपने वाकिम के द्वारा न्यायपूर्वक अपार्जन करके जो अर्थत:-- धन सम्पत्तिको अपेक्षा महान् है, उन गृहोशियों को ही वास्तवमें महा कहा जा सकता है |
प्रश्न- क्या जो विपुल सम्पत्तिके धारक है ये महार्थ नहीं हैं ?
उत्तर---यदि उक्त गुमारहिन के ल धनकी ही अपेक्षा ही तो उन्हें भी महार्थ कहा जा सकता है । परन्तु यहां तो मानार्गकी मुख्यतया दृष्टि गुणांकी तरफ है । सम्पत्ति और अर्थोपार्जनके उपाय यदि विवक्षित गुणोंमे रहित हैं तो वे उनकी दृष्टि में यादरणीय नहीं है । यदि वे उक्त गुणोंसे युक्त हैं तो ही प्रशंसनीय है । अतएव विवक्षित गुणोंको सुरक्षित रखकर यदि अधेका संचय विपुल प्रमाण भी होता है तो वह भी अन दरणीय नहीं, प्रशस्त है। वीतराग प्राचार्यको धन या सम्पत्तिमद्वप नहीं है, मुगार अनुराग पर है।
प्रश्न---ऊपर आनुवंशिकतानी बात कही गई है । परन्तु यदि कोई व्यक्तिगतराम न्यायपूर्वक और अपापोपहनयुक्ति द्वारा बिपुल या अविपुल धनका सग्रह करता है तो क्या यह महान् या महाय नहीं है।
उत्तर--न्याय और अपापत्रवृति सदा प्रशंसनीय है। प्रश्न-फिर !
उत्तर--बात यह है कि-आनुवंशिकता भी एक महान गुण है जिसके कि सम्बन्धसे वैयक्तिक गुण भी वास्तवम और अन्तरंमसे अधिक महान बन जाया करते है। यही कारण है कि गुणोंके कारण मानव जानिके किये गये दो भेदोमस आयमि आनुवंशिकताको प्रथम स्थान दिया गया है । जहां वह नहीं है वे म्लेच्छ हैं। वह व्यक्तिगतरूपसे न्यायपूर्वक और अपापप्रवृत्तिरूप जीविकाका साधन करके विपुल या अविपुल अर्थ संग्रह करनेपर आदरणीय होने पर भी आनुवंशिक सद्गृहीको तुलनामें महत्ता प्राप्त नहीं करसकता । सम्यक्त्व विभूपित जीवको भानुवंशिक सद्गृहित्व ही प्राप्त हुआ करता है।
____ मानवतिलकाः-मनुष्यों में जो तिलकने समान है मानवतिलक हैं। मानव भोर सिक्षक दोनों शब्दोंका अर्थ प्रसिद्ध है। जो मनुष्य श्रायु और मनुष्यगति नाम कर्मके उदयसे उत्पन्न हुये हैं, मनुओं कुलकरोंकी संतान हैं, नरक विर्याक् देवमति में न पाये जानेवाले आचार विचारक धारक हैं वे सब भानव मनुष्य हैं। तिलक शब्दकं पो तो अनेक अर्थ होते है परन्तु दो अर्थ प्रसिद्ध और उपयुक्त है । चन्दन आदि द्वारा संस्कार तथा सम्मान प्रादिकं लिये माथेपर की जानेवाली भिन्न भिन्न आकृतियां । नथा प्रधान-मुख्य, जैसे कि यदलतिलक । यहां पर दोनों ही अर्थ उपयुक्त हैं क्योंकि यह शब्द पारित्राज्य नामक नीसरं परमस्थ नका घोतक है। स्था मार्ग मनुष्यांमें चारित्रार्यताको भूचित करनेवाला होने के कारण प्राथान्यको बताता है। देश कुल जाति प्रादिसे विशुद्धि रहनके कारण निर्वाण दीक्षाके योग्य तथा प्रतमंत्रों द्वारा
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रस्नकरण्डनावकाचार किये गये संस्कार और पालन किये जानेवाले आचरणों के निमिवसे वह सबमें पूज्य एवं प्रधान है। अतएव वह मानवतिलक है।
दर्शनपूता:-इसका दो तरहसे अर्थ किया जा सकता है। दर्शन पूर्त येषाम् । अथवा दर्शनेन पूनाः। अर्थात् जिनका सम्यग्दर्शन अतिक्रम व्यतिक्रम प्रतीचार अनाचार दोषोंसे रहित है, अथवा इस तरहके मानस आदि अशुद्धियोंसे रिक्त सम्यक्त्वक सम्बन्थसे जो पवित्र हैं। दोनों अर्थोमें खास विशेषता नहीं है। जो कुछ हो सकती है वह पहले बताई जा चुकी है।
तात्पर्य-ऊपर शब्दोंका जो पर्थ एवं आशय लिखा गया है उससे कारिकाका सास्वयं सब समझमें आ सकता है, अतएव विशेष लिखनेको भावश्यकता नहीं है। फिर भी मंक्षेपमें थोडामा स्पष्ट करना उचित प्रतीत होता है। यहां पर जिन सोन परमस्थानोंकानाम पताया गया है यद्यपि वे तीनों ही परमस्थान मिथ्याष्टिको भी प्राप्त हुमा करते हैं, फिर भी दोनोंक स्थानोंमें असाधारण एवं महत्वपूर्ण जो अन्तर पाया जाता है उसीको दृष्टि में रखकर उसके ओज श्रादि विषयोका उन्लेख करते हुए सम्गग्दर्शनके फल विशेषको यहाँ स्पष्ट कर दिया गया है। यह बात समझमें आने योग्य है कि स्वामीके भेद अथवा सहचारी गुथोक मेद के कारण किन्हीं भी गुणधर्म स्वभावोंके स्वरूप एवं फख में भी स्वभावतः अन्तर पाया जाय । जो शक्ति दर्जनको प्रास है वही यदि सज्जनको भी प्राप्त है तो यह स्वाभाविक है कि एक जगह उसका दुरुपयोग हो और दूसरी जगह उमीका सदुपयोगर हो। यही रात मिथ्यारप्टि और सम्य. दृष्टिके इन स्थानोंके विषयमें समझना चाहिये । दूसरी बात यह भी है कि जिन पुपर कमोड उदय आदिके निमित्तसे ये भोज आदि गुण प्राप्त हुआ करते है वे पदि मिथ्यात्वसहनारी मन्द कषायके निमित्तसे संचित हुए हैं अथवा सम्यक्त्वसहचारी विशिष्ट शुभ भाषों या कपंचित विशद्ध परिणामोंके द्वारा भर्जित हुए है तो समानतः उनके स्थिति अनुभाग भादिमें सामान्य विशेषता तथा जात्यन्तरता पाय बिना नहीं रह सकती । इसके सिवाय एक बात पर मी सम्परहष्टि जिस तरह मुल्यतया द्रष्यष्टि और इसीलिये जिस प्रकार निःशंक एवं निर्भय रक्ष करता है वैसा मिथ्यादृष्टि नहीं। क्योंकि वह पर्यायदृष्टि रहने के कारणा अथवा पर पदार्थ-- मावकर्म द्रव्यकर्म नोकर्म आदिसे मिष दृष्टिवाला न रहनेके कारण सदा सशंक एवं मयार ही रहा करता है । फलतः उसके ग्वेज और उसके साथ ही साहस धैर्य भादि गुख सम्पटिसे निकृष्ट ही रह सकते हैं । प्रथमानुयोगमें सम्पन्दृष्टि मम्प स्त्रिों क्या पुरुषों की अनेक बलिर १-- सम्यक्त्वात्सुतिः प्रोका, जानात्कोतिहदाहृता । वृत्तापूजामवाप्नोति, याच लभते शिवम् ॥
०शि० तथा-एवं विहागजुत्ते मूलगुणे पालिऊण तिविहेन ।
हाऊण जगदिपुज्जो अक्सयसोक्खं लहइ मोनस ।। मूलाधार-10 २--विद्या विवादाय धन भदाय शक्तिः परेषा परिपीनाय | बलस्य, साधीपिंपरीतमेदालाप
दानाप प रणाय ॥ लोकोक्कि!
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पन्द्रिका नौका तीनको मनोन प्रयायें इस विषयका समर्थन कर सकती हैं कि-अनेक अनन्त भयंकर आपतियों परिषहों उपसों भादिक मानेपर भी वे सम्यग्दृष्टि भव्य कायर नहीं हुए और अनेक आज-साधिक मात्मपलके प्रभावसे उन पर विजय पाकर असाधारण सफलता-देवों द्वारा भी पूज्यता बादिको पासके सम्यग्दृष्टिका मोज या प्रारमबल इतना अधिक हुआ करता है कि वह मरणके समय अथवा स्वर्ग विभूतिके छूट पर भी व्यग्र नहीं हुया करता । साक्षात् नरको अथवा नरक जैसी वेदनामों के प्रसङ्गमें भी घबराता नहीं है। चक्रवर्तीके राज्यके बदले में भी तत्वप्रवीतिमें परिवर्तन नहीं किया करता।
यह बात भी यहां पर ध्यान रखनी चाहिये कि इस कारिका में श्रीज आदि जिन आठ विषयोंका नाम निर्देश किया गया है वे उपलनणमात्र है, अतएव इसी प्रकारके अन्य भी गुणों का संग्रह कर लेना चाहिये । अथवा सम्बन्धित अवान्तर भेदरूप विविध भावों का इन आठ भेदोंमें ही अन्तर्भाव कर लेना चाहिये । जैसाकि साहस धैर्य उद्यम ये प्रोजमें ही अन्तर्भूत हो सकते है। शरीरका सौन्दर्य सौभाग्य प्रादेयता आदिके साथ पुण्यबल तथा यह प्रभाव जिसके कि कारण पाहुबलीके समष भरतके दूतकी तरह, चक्रेश्वरीके सामने कालीकी तरह, भट्टाकलंकके सम्मुख तारा देवी और रामचन्द्र के सामने अनेक देव विद्याधर श्रादि राजाप्रोकी तरह सामने. आनेवाले अनेकों भी महान व्यक्ति प्रभावित हो जाया करते हैं, यह सर अन्तरंग बहिरंग महिमा तेजमें अन्तर्भूत हो सकती है। प्रतिभा, ग्रहण, थारण. ऊहापोहरूप तर्कशक्ति, विकशीला, तत्त्व परीक्षकता, भादि बौद्धिक प्रकार एवं पज्ञानिक योग्यता तथा विभिन्न कलाओंकी पारताके भेद विद्याशन्दसे गृहीत किये जा सकते हैं। पराक्रम कृषि आदि वीर्यगणोंके ही परिणाम है । यश शन्द कौतिके कारणभूत दाक्षिण्य, औदार्य; दया, परोपकारपरता, श्री.चत्य, दान, सन्मानपदान, न्यायप्रियता, गुणग्राहकता, कृतज्ञता सौजन्य आदिका बोध करा सकता है। इसी प्रकार पद्धि विजय भोर विभव समाधमें भी समझ लेना चाहिरी । इनके द्वारा भी पुरागविशेषका परिचय मिलता है । यद्यपि यह ठीक है कि सम्माष्ट और मिथ्या दृष्टिक पुण्यमें जो सातिशपता और निरतिशयताका अन्तर पाया जाता है वह सर्व साधारणको दृष्टिका प्रायः विषय नहीं हुआ करता फिर भी यह विशेष परीक्षकोंके सूरमेचिकाको गोचर तो हो सकता है। और वह इस कारिकामें उक्त सज्जातिस्त्र सद्गृहित तथा पारिवाज्य इन तीनों ही परमस्थानों में भी यथा योग्य जाना या समझा जा सकता है।
गुण-धर्म-स्वभाव यों तो अनन्त हैं और उनके प्रकार भी अनेक तरहसे किये जा सकते हैं फिर भी प्रकृतमें उन गुणधर्मस्वभावोंको अन्तरंग-बदिरंगके भेदसे अथवा साविक-आध्यासिक और शारीरिक-भौतिक भेदसे यद्वा सहज-नैसर्गिक और भागन्तुक-शिक्षासंगति प्रादिसे उत्पन्नके मेदसे दो भागोंमें विभक्त किया जा सकता है। और उन सभीको यहां पर यषायोग्य समझ लेना चाहिये और सम्यक्त्व तथा मिथ्यासके निमिचसे उनमें जो विशेषता माती है-परसरमें अन्दर पड़ता है उसकी भी दृष्टिमें ले लेना चाहिये। ऐसा करनेपर इस सारित
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रस्नकरावकाचार का व्यापक एवं महत्वपूर्ण प्राशय लक्ष्यमें आ सकेगा ! किन्हीं भी गणधर्म या पर्यायाधित भावों में निमिच भेदके अनुसार अन्तरका पड़ना स्वाभाविक है। अतस्व सम्यक्त्व या मिथ्यास्वरूप अन्तरङ्ग परिणामोंके साहचर्य भेदके कारण ओज टिमें श्री अन्तर रहता है यह यात सहज ही समझमें आने योग्य है । यह अन्तर चमड़ेकी आंखसि दिखाई पड़नेवाला भले ही. हो परन्तु बुदिगम्प अवश्य है। यह बात आगेकं दृष्टान्तोंसे ही स्पष्ट हो सकेगी।
कर्मों के उपशम भय क्षयोपशमसे प्रकट होनेवाले अात्मा मुणों या भावोंको अन्तरस्ट्र तथा उनके उदय से होनेवाले गुणधौंको बाझ समझना चाहिये। मौदधिक गणधर्म भी दो वरहके हो सकते है-जीपाश्रित तथा शरीराश्रित ।
आत्मासे जिनका संबंध है फिर चाहे वे औपशमिक क्षायिक पायर्यापशमिक हो चाहे जीवविपाकी कर्मो उदयसे होनेवाले हों वे सब साविक हैं। सत्यभाषण, निर्लोभताउदारता या पवित्र आचार, सहनशीलता, दान बुद्धिमत्ता-तत्व ग्रहण शक्ति या विवेकपूर्णन अथवा विचारशीलता, उत्साह, दयाभाव, इन्द्रियविजय, प्रशम-कपायोंगा अनुद्रेक, एवं चिनप प्रभृति सब सात्त्विक गण माने गये हैं। तथा शरीरसे जिनका सम्बंध है ऐसे सौन्दर्स कांति दीत लावण्य प्रियवाक्यता कलाकोशल आदि सव शारीरिकगुण हैं । कोई-कोई गुण सम्य भेदके कारण साचिक एवं शारीरिक दोनों तरहका भी मान लिया जाता है। जैसे कि बल: । अस्थियोंके बंधन विशेप और उनके रहताक सबंधकी अपेक्षा लेनेपर यही बल शारीरिक
और उत्साह घय साहस आदि मानसिक भावाकै सम्बन्धकी अपेक्षा लिये जानेपर सोविक कहा जा सकता है।
जिन गुणोंमें शिक्षा संगति अभ्यास या संस्कारोंके आधानादि राह्य निमित्ताशी मुख्यतया अपेक्षा हुभ्रा करती है उनको आगन्तुक और जिनमें उनकी अपेक्षा नहीं होती वे सब सहज अथवा नेताकि कहे जाते हैं । भोगभूमिजों में जो गुण पाये जाते हैं वे प्रायः नैसर्गिकर ही रहा करते हैं । कर्मभूमिमें भी कहीं कहीर नर्गिक गुण पाये जाते है जस कि तीर्थकहमें जन्मसिद्ध सहज दश तिशय ।
इन सभी गुणों में सम्यक्त्व एवं मध्यात्व के निमिच-साहचर्य भेदके कारण जो एम तथा अपूर्व विशिष्ट अन्तर पाया जाता है वह प्रत्यक्ष अनुमान अथवा आगमके द्वारा जाना जा सकता है। फलतः सम्यग्दृष्टिको और मिथ्यादृष्टि को दोनोंको ही प्राप्त होनेवाले सज्जासिल - -समागतयवास्य वर्गित यलमागिक । सात्त्विक तु चल ना निगदिग्विजयादिभिः ॥२१०॥ आदि. *-महासस्था महाधैर्या महोरस्का महौजसः । महानुभावास्ते सर्वे महीयन्ते महोदयाः ।। बार ३-२५ ॥ म्यभावमुन्दरं रूप स्वभावमधुरं वचः । स्वभावचतुरा चेष्टा तेषां स्वर्गजुधामिव ||३४|| स्वभाव गाईबायोगवक्रतादिगुणैर्युताः । भद्रका दिवं सान्नि तेषां नान्या गतिस्ततः ॥४॥
१-देखो आदि पुराण ४-१५४, तथा ६-४६ तथा १५-२८ ।
पुराण १५
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चनिका टीका छत्तीसवां श्लोक सद्गृहित्व एवं पारिवाज्यस सम्बन्धित ओज तेज विद्या वीर्य आदि प्रकृतमें बताये गये गुणोंमें भी जो विशेषता रहा करती है वह भी दृष्टि में पा सकती और समझी जा सकती है।
इसी प्रकार प्रकत कारिकामें सम्यग्दर्शनके इस आभ्युदयिक फल वर्णनमें तीन परम स्थानोंका जो उल्लेख किया है उनमसे प्रत्येकके साथ ओज आदि गुणोंमें जो अपने अपने योग्य विशेषता पाई जाती है वह भी ध्यानमें लेनी चाहिये । क्योंकि यद्यपि ये गुण एक ही नामके द्वारा बताये गये हैं और एकही है भो, फिर भी इन गुणोंके कार्यकी प्रकटताके लिय क्षेत्रभेद हो बानेपर वे अपने अपने कार्यको यथायोग्य क्षेत्रके अनुसार ही दिखा सकते हैं । अतएव जो ओज या तेज या विद्या आदि गुण कुलीन व्यक्तिमें उस कुलकी परम्परागत सदाचार सम्बन्धी महता अथवा विशेषताको दिखावेगा वही गुण सद्गृहस्थमें आनुवंशिक अर्थाजन संरक्षण विनियोगके विषय में अपनी विशिष्ट योग्यताको और पारिवाज्य परमस्थानको प्राप्त व्यक्तिमें संयम तप आदिक रूपमें अपनी असाधारण चमत्कृति अविचलता अक्षुब्धता आदिको दिखानेवाला होगा। अतएव गुण एक ही रहने पर भी उनका उपयोग या कार्य भिन्न भिन्न रूपमें ही होगा । और वह भी मिथ्या दृष्टिकी अपेक्षा सम्यग्दृष्टि का गुण अपनी असाधारण विशेषतासे ही युक्त रखेगा अथवा पाया जा सकेगा।
इस अवसर पर यह स्पष्ट करदेना भी उचित और आवश्यक मालुम होता है कि आचार्य भगवान्ने-सम्यग्दर्शनके आभ्युदयिक फलोंको बताते हुए सबसे प्रथम जो इस कारिकामें सज्जातिव आदि तीन परम स्थानोंको बताया है वह सधारण बात नहीं है । ये तीनों ही विषय मोक्षमार्गकी सिद्धि में मूलभूत साधन हैं। जिस तरह रत्नत्रय अन्तरंग असाधारण मुख्य साधन है उसी प्रकार ये तीन परमस्थान बाह्य साधनों में सबसे मुख्य और प्रधान साधन हैं। जिस प्रकार रत्नत्रयमेंसे किसी भी एकके बिना निर्वाण प्राप्त नहीं हो सकता उसी प्रकार इन तीन चार साधनों से भी किसी भी एकके न रहने पर भी यह जीव सर्वभा मोचको प्राप्त नहीं करसकता है।
सम्यग्दर्शन मोलके अन्तरंग साधनों में प्रथम स्थानीय है यह बात ऊपर बताई जा चुकी है। स्वयं ग्रन्थकारने भी यह अच्छी तरह स्पष्ट करदिया है। किन्तु यह बात भी सुस्पष्ट है कि क्रिधान साधनोंके विना वह भी अपना वास्तविक प्रयोजन सिद्ध करनेमें सफल नहीं हो सकता अतएव आचार्य भगवान् बताना चाहते हैं कि वह सम्यग्दर्शन अपने सहचारि शुभसराग परिखामोंसे सबसे प्रथम यह लाभ उठाना चाहता है कि अपने लक्ष्यकी सिद्धिमें जो सर्वाधिक साधन हैं उनको वह प्रप्त करले । फलतः वह परात्मनिन्दाप्रशंसा आदि नीचगोत्रक कारबभूव परिणामोंका साहचर्य छोडकर उनके विरोधी-एव नीचे त्यनुत्सक मादि परिणामों के बलवसर
१-गुणोंकी भानुवंशिक विषता के लिये देखा भावि पु० २० १५ श्लोक ११६, १७, १८ ॥
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रत्नकरवश्रावकाचार सहयोग निमिपसे नियमसे सज्जातित्व को प्राप्त करलिया करता है। इसी प्रकार संसारके समस्त ऐश्वर्य वैभव आदि मेंसे अहंभाव अथवा आकांकी भावना तथा परावलम्बनको यादव छूट जाने और उसके विरुद्ध स्वाधीन वास्तविक सदर्थ सुखशान्तिमय आत्मार्थका बोध होजाने
और भास्मायत्तप्रकृतिसे प्रेमपूर्ण परिचयका सरस स्वभाव बन जानके कारण ऐहिक लभ धनका पात्रदान देवपूजा जैसे सत्कार्यों में ही मुख्यतया सदुपयोग करने और उसीसे उसकी सफलता माननेकी श्रद्धा रुषि चर्या के परिणामों के फलस्वरूप आनुवंशिक सद्गृही होनके साथ साथ यह महार्थ ही हुआ करता है । इसी प्रकार यह संसार और उसके कारणों को आत्मघातका-शत्रुका सर्वोत्कृष्ट कारावास समझकर और शरीर तथा भोगोंको कुलटा स्त्रीके हाव भाव विलास विभ्रमके स्थानापम मानकर जो स्वरूपरतिमें ही प्रीति करनेको श्रेयस्कर समझ पुनः पुनः उधर ही नित. सृषिकी अनुवृत्ति बने रहने के कारण जो क्षोभक कारणों में सातिशय मन्दता आजाती है उसके फलस्वरूप साधारणसे निमित्तको पाकर अथवा विना ही निमित्तके उपदेश एवं गुरुका प्रसङ्ग पाते ही अवश्य ही पारिवाज्यको प्राप्त करलिया करता है।
इस तरह विचार करने पर सहजही मालुम हो सकता है कि जो व्यक्ति सम्यग्दर्शनसे पवित्र है वह स्वभावसे ही अपने लक्ष्यभूत निर्वाणके बाझ साधनरूप उन आभ्युदयिक पदोंको सहभावी विशिष्ठ परिणामों के निमिचक बल पर नियमसे ही प्राप्त कर लिया करता है जिनको कि मिथ्यात्वकलङ्कित व्यक्ति कभी भीर प्राप्त नहीं कर सकता । क्योंकि प्रथम तो उसतरहके परिणामोंकी त्रिशुद्धिसे वंचित रहनकै कारण उसके लिये नियम ही नहीं है कि वह उत्तम फुलमें ही जन्म ग्रहण करे मोक्षकी साधनभूत सज्जातीयताका ही भागी हो । कदाचित महाकुलमें भी उत्पन्न होगाय तो भी उसके सहचारी भारो गुणों या धर्मामें वह सातिशयता तथा सम्यक्त्वक निमिससे प्रादुर्भूत हुई अपूर्व महान् संस्कारोंकी संताते नहीं पाई जाती जो कि सम्परम्पक साधहा उत्पन्न होनबाली-भानेवाला एवं सतत निर्माणमार्गको सिद्ध करनेवालिये प्रतिदिनके कार्यक्रमका समुख रखनेवाले सहायक सवक समान प्रेरित करनेवाली है।
सम्यग्दृष्टिको मोधमार्गमें आगे बढनक लिये प्रथम तीनों ही परमस्थानोंके समानरूपसे आवश्यक होने पर भी उनमें सज्जावित्व प्रथम मुख्य और प्रधान है । क्योंकि जो जात्याय है वही सद्गृही हो सकता है और उनमंस ही कोई कोई विरल व्यक्ति पारिवाज्यको प्राप्त कर सकता है।
१-'कभी भी' कहनका आशय यह है कि जिस तरह यह वैकालिक-सदाचन नियम है कि जो सम्यक्त्व हत है यह कभी भी दुष्कुलमें उत्पन्न नहीं होता, सदा महान् फूलों में ही जन्म ग्रहण करता है; वैसा गिप्याराष्टिक लिये कभी भी कोई भी नियम नहीं है।
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चंद्रिका टीका छत्तीला शोक भाचार्योने सज्जातित्वका निश्चय कर सकने में तीन निमित्त बताये हैं। प्रत्यय अनुमान और पागम१ | इनमें से प्रत्यक्ष वह दिव्यज्ञान है जिसके कि द्वारा विवक्षित व्यक्तिके अन्तरंगमें सद्गोत्र आदि तद्योग्य काँके उदयको बिना किसी परावलम्बनके सीधा स्पष्टतया ग्रहण करके जाना जा सकता है कि यह गति बण झी समागीय है। पिनागाली-अन्यथानुपपन्न चिन्ह विशेषोंके द्वारा अनुमानसे भी उस व्यक्तिकी सज्जातीयताका निश्चय किया जा सकता है। तीसरा साधन आगम है। प्रमाणभृत-गावंचक व्यक्तियों के कहनेपर भी व्यक्तिको सज्जातीयताका निश्चय किया जा सकता है जैसा कि प्रायः आजकल पाया जाता है। ___ यद्यपि यह ठीक है कि सज्जातित्व जैसे विषयका सर्वथा निर्णय करनेमें समर्थ नवीन साधनामें से प्रत्यक्षज्ञान तो आजकल यहां पर उपलब्ध नहीं है | अनुमान ज्ञानको पोग्यता भी इस. हीयमान युगमें प्रायः अत्यन्प और विरल होगई है। फलतः जानकार सम्बन्धित या जातीय व्यक्तियों का पारस्परिक व्यवहार ही इसका निर्णय करनेके लिये साधन शेष रह जाता है। पुरातन कालमें जबकि प्रत्यक्ष ज्ञान असम्भव या सर्वथा दुर्लभ न था और भानुमानिक योग्यता भी प्रखररूपमें पाई जाती थी उस सरल पवित्र प्रशस्त युगमें भले ही आगम-जासीय बानकार व्यक्तियोंके व्यवहाररूप साधनकी नगण्यसा रही हो किन्तु हालमें खो प्रापः यही एकमात्र शरण है।
उस युगमें कंवली श्रुतकेवली गणवर चारण आदि ऋद्धिके थारक मनःपर्यवहानी सर्वावधि परमावधि प्रभृति हजारों ऋषियों मुनियों यतियों का जप सर्वत्र विहार पाया जाता था तर उनकी सज्जातीयता विषयक अज्ञानान्धकारको दूर करनेके लिये कहाँसे प्रकाश (सकार नहीं लाना पड़ता था। स्वयं ही उनके मातृपक्ष एवं पितृपक्ष सम्बन्धी कुलसी महत्ता पवित्रता
और पूज्यता जगन्मान्य रहने के कारण प्रसिद्ध रहा करती थी। प्रत्युत उन दिव्यज्ञानियोंके सम्बन्धसे तथा कथनसे अन्य वंशोंकी भी उत्कृष्टताका बोध हो जाया करता था।
गृहस्थोंमें भी इम योग्यताके व्यक्ति पाये जाते थे कि वे कंवल आकृति चेष्टा या अन्य कर्मोको देखकर जान सकते थे कि अमुक व्यक्ति महान् वंशका है अथवा प्रसज्जातीय है।
१-वसुदेव की कृपासे जब कंस जरासंक्की घोषणाके अनुसार युद्धमें विजय लाभ लेकर आया तब जरासंघको यह प्रश्न उठ खड़ा हुआ कि प्रतिज्ञाके अनुमार राजपुत्री जीपंज
१- सम्प्रदायाव्यवच्छेदावरीधाधुना नणाम । सद्गोत्राशुपदेशोऽत्र यदशहादचारसill श्लोक पार्मिक भ० १॥ भाष्यम् कथमधुनातनाना ना सत्संप्रदायाव्यवच्छेदाविरोधः सिद्ध इति पेन सदगोत्राघ पदेशस्य कथ ? विचारादिति चे माक्षमार्गापदशस्यापि तत एव । कः पुनरत विचार: ? सद्गोकायुपदेशे
? प्रत्यक्षानुमानागमः परीक्षणमत्र विचारोऽधीयने । मोमवंश: क्षात्रयोऽयमिति हि कश्चित्प्रत्यक्षता इतीन्द्रियादभ्यवस्थति तदुपौत्रोदयस्य सद्गोत्रव्यवहारनिमित्तस्य साक्षात्करणान् । कश्चित्त कार्यविशेष
र्शनानुमिनोति तथागमादपरः प्रतिपयते ततोऽप्यपरस्तदुपदेशादिनि सम्प्रवायस्यायवच्छेदः सर्वदा नदन्य. घोपदेशाभावात् , सस्याविराधः पुनः प्रत्यक्षादिविरोधस्यासंभवादिति । तदंतमोक्षमागोपजप समाम्।
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रत्नकरण्ड श्रावकाचार
साका विवाह तो यद्यपि कंसके साथ होना ही चाहिये परन्तु उसकी जातिका तो निश्चय हो नहीं है । अस्तु पूछने पर कंसने अपनेको एक कलालीका पुत्र बताया। परन्तु जरासंथको बात जंची नहीं । मनमें सोचा
आकृतिका ती
१ ॥१४॥
जांच शुरू हुई | कलाली बुलाई गई । प्रमाण देखे गये । रहस्य खुला | मालुम हुआ कि यह क्षत्रियपुत्र ही हैं।
सीतापुत्र लवकुशने भी अपनी कुलशीलतापर संदेह रहने के कारण पुत्री देने से मनाई करके वज्रक के साथ अपना भी अपमान करनेवाले महाराज पृथुको रगिय में समस्त सेनाओं से रहित करके भागने से रोककर कहा था कि हमारी कुलीनताका परिचय तो लेते जाओ राजपुत्र वरांगके विषय में भी युद्धके श्रनन्तर सज्जातीयता का संदेह हुआ ही था जो कि फिर दूर होगया ।
पुरोहित पुत्रीने दासी पुत्र के साथ विवाह हो जानेके बाद कुछ चेष्टाओंसे ही तो निश्चय कर लिया था कि अवश्य ही यह कोई असज्जातीय हैं। जो कि अन्तमें सत्य ही सिद्ध हुआ । इस तरहके श्राप्तोपत्र प्रथमानुयोग में अनेकों ही उदाहरण पाये जा सकते हैं जिनसे कि तत्कालीन व्यक्तियोंकी सज्जातीयता का पता व्यवहार और उसका परिचय देनेके ढंग तथा उसके समझ सकने या परीक्षाकी क्षमता योग्यता आदिके द्वारा लग जाता है ।
अधिक लिखने की आवश्यकता नहीं है। जिस प्रकार प्रसंगोपास थोड़ासा सज्जातीयता के विषयमें लिखा गया है उसी प्रकार सद्गृहित्व और पारिव्राज्य के विषय में भी यथायोग्य समझ लेना चाहिये | ग्रन्थ विस्तार भयसे यहां अधिक लिखा नहीं जा सकता |
सम्यग्दर्शन के जो फल यहां बताये जा रहे हैं वे सब याभ्युदयिक हैं। इनकी प्राप्तिमें पुण्य कर्मका उदय अपेक्षित हैं । किन्तु यहां पर ये सम्यक्त्वके फलस्वरूप बताये गये हैं। यद्यपि यह ठीक है कि वास्तव में सम्यक्त्व निर्वाणका ही कारण बताया गया है, न कि श्रभ्युदयों और उनके भी कारणभूत पुण्यकर्मों के बन्धका, जैसा कि पहले बताया जा चुका है। फिर भी अन्यत्र आगम ग्रन्थों में अभ्युदयोंका कारण भी धर्मको बताया गया है। यद्यपि यह सत्य है कि जहां धर्मको अभ्युदयोका कारण बताया गया है वहां धर्मसे प्रयोजन सराग भाव अथवा उपचारमे मुरागसम्यक्त्वकी बताने का है। तथा इस उपचारका भी प्रयोजन व्यवहार मोक्षमार्गकी सिद्धि४
१- हरिवंश पुराण सर्ग ३३
२- पद्मपुराण अ० १९ श्लोक १५४ - १२७
३- यतोऽभ्युदयनिः श्रयसार्थसिद्धिः सुनिश्चिता । स धर्मस्तस्य धर्मस्य विस्तरं शृणु साम्प्रतम् ॥ ६८ ॥ आदिपु०प०५ ।
तथा " यस्मादभ्युदयः पुस निःश्रेयसफलाश्रयः । वदन्ति विदिताम्नायास्वं धर्मं धमसूरथः ॥ यशस्तिः । ४- प्रयोजनं निमिते चोपचारः प्रवर्तत ।
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चन्द्रिका टीम सैंतीसा श्लोक है और यह व्यवहार मोक्षमार्ग निश्चय मोक्षमार्गका साथक एवं पूर्वरूप होनेसे धर्म हो गयी कारण है कि ग्रन्थकारने भी यहां पर उस कथनका भी प्रकारान्तरसे संग्रह पर लिया।
सम्यग्दृष्टि जीवको मोक्षमार्गकी सिद्धि में जिनकी सबसे प्रथम आवश्यकता है उन सम्यग्दर्शन के फलस्वरूप उन तीन परमस्थानोंके होनेवाले लाभका वर्णन करके कर इन्द्रपद का नाम भी सम्यक्त्वके प्रसादसे होता है, यह यनाने है:
अष्टगुणपुष्टितुष्टा दृष्टिविशिष्टाः प्रकृष्टशोभाजुष्टाः।
अमराप्सरसां परिषदि चिरं रमन्ते जिनेन्द्रभक्ताः स्वर्गे॥३७ .. अर्थ-जिनेन्द्र भगवान में हैं भक्ति जिनकी ऐसे सम्यग्दर्शनसे विशिष्ट भव्य जीव चिरकाल तक स्वर्गमें देवोंकी और अप्सराओंकी सभाओंमें रमण किया करते. और आठ गुण तथा पुष्टिसे अथवा आठ गुणों की पुष्टिसे संतुष्ट रहते एवं अन्य देवोंकी अपेक्षा प्रकृष्ट शोभासे भी सेवित
रहा करते है।
प्रयोजन सम्यग्दृष्टिको प्राप्त होनेवाले सप्त परमस्थानों में से भादिके तीन परमस्थानोंका सम्यग्दर्शनके फलस्वरूप में त्रणेन करनेके अनन्तर चौथे सुरेन्द्रता नामक परमस्थानका निरूपन करना क्रमानुसार स्वयं अवसर प्राप्त है। अतएव यह कारिका प्रयोजनबती है। इसके सिवाय बात यह भी है कि उपर्युक्त परमस्थान निमित्त है-माधन है और यह सुरेन्द्रता नामका परमस्थान नैमिचिक---साध्य-कार्य है। क्योंकि परमागममें कन्वय क्रियामोंका वर्णन करते हुए इसको पारिबाज्य नामकी क्रियाका फल ही बताया है। यह काइनेकी भावश्यकता नहीं है कि सुरेन्द्रतासे मतलब केवल इन्द्रका ही नहीं अपितु इन्द्र उपेन्द्र प्रहमिन्द्र लोकपाल नौकान्तिक आदि तथा अन्य भी तत्सम महर्दिक वैमानिक देवोंका है। क्योंकि यह ज्यानमें इनी चाहिये कि यहां आचार्य सम्यग्दर्शनका असाधारण फल बता रहे हैं। ग्रन्थकारका शाशय यह है कि जिस प्रकार उपयुक्त तीन परमस्थान सामान्यतया मिथ्यारष्टि और सम्य. रष्टि दोनोंको ही प्राप्त हो सकते है वेसा यहां नहीं हैं। शेष चार परमस्थान तो सम्यन्द्रष्टिको ही प्राप्त हुआ करते हैं । फलतः इस आभ्युदयिक फलसं तो वैमानिक देवों में भी उन उत्कृष्ट पदोंका ही इस करना चाहिये जो कि सम्पदृष्टिको ही प्राप्त हो सकते हैं। इस तरह सम्पदशनका सातिशय फल एव उसकी नोक्षमार्गमें अग्रेसरता तथा प्रगतिको प्रकट करके रवाना ही इस कारिकाका प्रथम प्रयोजन है। जिसका कि वर्णन यहांपर क्रमानुसार अक्सर पास भी है। सम्पग्दष्टि जीव मिथ्याष्टियांके समान भवनत्रिकमें उत्पन्न न होकर नियमसे वैमानिकही हुमा करता है । यद्यपि मिथ्यादृष्टि भी वैमानिक हुआ करते हैं फिर भी उनकी वहां मुख्यसा नहीं है। जैसा कि कारिकामें प्रयुक्त विशेपणोंके द्वारा भी जाना जा सकता है। इन विशेषणोंसे गुरु वैमानिक सम्यग्दृष्टि ही संभव हो सकता है। -या मुरेन्द्रपदनाप्तिः पायाज्यफलोदयात् । संषा मरेला नाम क्रिया प्रागनुवनिता ॥२०॥
बाद.. ।
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art-.:.....-mirmanceroin
चलण्डश्रावकाचार अगर पारिवाज्यका फल सुरेन्द्रता यताया है। बात यह है कि आगममें निर्वाणदीक्षा धारण कर लनवाले मुमुक्षुकं लिये २७ पदोंका१ ग्राशय समझकर उनके पालन करनेका उपदेश दिया गया है। किम पदके धारण करने से क्या फल प्राप्त होता है यह बात भी वहां यताई गई है। परन्तु निवाशोच्छु मुसुतु साधु उन एहिक फलोंकी रंचमात्र भी पाशांक्षा न करके ही-समस्त संसारके विषयांस तस्वतः उद्विग्न रहकर---पूण निष्काम भाषसे तपश्चरमा करने पर ही योग्यतानुसार उन फलोंको प्राप्त किया करता है। उक्त २७ पदोंमें पहला पद जाति है। इसके अनुसार बताया गया है कि जो सज्जातीय व्यक्ति निर्वाणदीदा धारण करके अपनी जातिका मद न रखकर जिनेन्द्र भगवानकी चरणमेचा भक्ति अथवा तपश्चरण करता है उसको भवान्तरमें ऐन्द्री शिजगा परमा मोर स्व. इन चार जाति से योग्यतानुमार कोई भी जाति प्राप्त हमा करती हैं। पारिवाज्यके फलस्वरूप प्राप्त होनेवाली उस ऐन्द्री जातिका ही इस कारिकामें सूचन किया गया है। विजया और परमा जातिका वर्णन अागेकी दोनों कारिकाओं में क्रमसे किया जायगा। "स्वा" जातिका वर्णन ऊपरकी कारिकामे ' महाकुल" के नामसे किया जा चुका है। क्योंकि "या" का झार्थ यह श्रारमोत्था जाति है जो कि नियमसे मोक्ष प्राप्त करनेवाले इन्द्र 'क्रवर्ती और अरिहंत के सिवाय अन्य सम्यग्दृष्टि भध्यात्माओंको प्राप्त दुभा करती है।
मालुम होता है अन्य कार इस बात को स्पष्ट करना चाहते हैं कि सम्यग्दृष्टि जीप जबतक मोचको प्रप्त नहीं कर लेना तबतक वह नियमसे देवगति और मनुष्यगतिक उत्तमोत्तम पदोंको ही प्राप्त होता रहता है। यदि वह भाद्धायक सम्याट मनुष्य है तो नियमसे देवाय का ही बन्ध करेगा४ । यह बान पहले भी स्पष्ट की जा चुकी है। किन्तु देवगतिमें वह साधारण देच न होकर विशिष्ट देव सुश्रा करता है यह बतानेका यहाँ प्रयोजन है।
. भवनत्रिक—देवों की भवनवासी व्यन्तर ज्योतिषियोंकी तीन निकायोंमें तथा चारों ही निकायोंकी स्त्री पर्यायमें सम्यग्दृष्टि जीव उत्पन्न नहीं हुश्रा करना । इसके सिवाय अन्य भी किन-किन अवस्थाओंको वह प्राप्त नहीं किया करता सो भागमानुसार पहले बताया जा चुका
। किन्तु इस कारिकाके द्वारा आचार्य बताना चाहते हैं कि वह वैमानिकोंमें भी सामान्यसाधारण-माभियोग्य किन्विषिक जैसा देव न होकर असाधारण-अनेकों देवोंका स्वामी ५-प्रसूत्रपदान्याहुर्यागोन्द्राः सप्तविंशति । यैनिीतर्भवत्साक्षात् पारिवाज्यस्य लक्षणं ।। १६२ ।।
आनिमूर्तिश्च तत्रत्यं लक्षणं सुन्दरांगता । प्रभामण्डलचक्राणि नथाभिषषनाथते ॥ १६३ ॥ सिंहासनोपधारे त्रसामरपोषणाः । अशोकवृतनिधयों गृहशोभावगाहने ॥ १६४ | शेषनाs
बासमाः कीति बन्यसा वाहनानि च । भाषाहारसुखानीति जात्यायः सप्तविंशतिः ।। १६५ ।।। २-जातिमानप्यनुत्सिक संभजेदईतां क्रमौ । यो जात्यन्तरं जात्यां याति जातियतुष्टयीम् ।। १६७ ।।
मादि०प०३६ ३-वात्मोत्या खिरिमीयुषाम् ।। १४८ ॥ आदिपु०प०६६ ॥४- सम्यक्त्वं ॥६-१९३० सू०
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चन्द्रिका टीका सैंतीमया श्लोक -देवेन्द्र हुआ करता है । तथा वह असाधारणता किन-किन विपयोंमें हुआ करती है सो दिये गये विशेषणों के द्वारा स्पष्ट कर दिया गया है। जिस तरह वह यदि मनुष्य पर्यायको प्राप्त करे तो या तो वह असाधारण अभ्युदयिक पदो-चक्रवर्ती तीर्थकर सरीखे महान् पदोंको भोगनेवाला होता है अथवा तद्भवमोचगामी-चरमशरीरी यद्वा कुछ भवमें ही निर्वाण प्राप्त करनेपर भी मध्यवर्ती भवों में सम्मानित महान व्यक्ति ही हुआ करता है। जैसाकि आगे पथनसे मालुम हो सकेगा । कोई पदवीधर जैसा न होकर यदि कदाचित् अन्य साधारण मनुष्य होता है तो वह नियमसे सज्जातीय सद्गृहित्व एवं पारिवाज्यको ही प्राप्त किया करता है और उनको प्रास करके भी मिथ्याष्टिकी अपेक्षा ओज तेज आदि गुणोंमें असामान्य विशेषतासे युक्त हुमा करता है जैसाकि ऊपरकी कारिकामें बताया जा चुका है। उसी प्रकार यहां देवतिके विषयमें मी समझना चाहिये । पहावर ली गई किन-किन्न वादोंरे मिथ्यादृष्टि देवकी अपेक्षा विशिष्ट मा करता है यह बात प्रयुक्त विशेषणोंके द्वारा खुलासा कर दी गई है । यद्यपि वैमानिक देवोंमें मिथ्यादृष्टि जीव भी उत्पन्न हुआ करते हैं फिर भी उनकी प्रधानता नहीं है। उनमें जो परस्पर मान्तर रहा करता है वह दिये गये विशेपणोंक अर्थपर विचार करनेसे मालुम हो सकता है।
लब्ध अवस्थात्रोंमें सम्यग्दर्शनके निमित्तसे क्या क्या विशेषता प्राप्त होती है पह दिखाकर उसका विशिष्ट माहात्म्य प्रकट करके दिखाना ही ग्रन्थकारको अभीष्ट है अतएव यही बात वे देवमतियों में भी विशेषणाक द्वारा अभिव्यक्त करके इस कारिकाके द्वारा स्पष्ट कर देना चाहते है। अपने इस प्रयोजनको बतानेमें कारिका पूर्णतया सफल है।
शब्दोंका सामान्य विशेष अर्थअष्टगुपपुष्टितुष्टाः।-इसका विग्रह दो तरहसे हो सकता है। १-अष्टौ च ते गुणाश्च-अष्टगुणाः । तां पुष्टिः तथा तस्यां वा तुष्टाः।
२--अष्टगुणाश्च पुष्टिश्च गुणपुष्टी । ताभ्यां तयोर्वा तुष्टाः ॥ अर्थात् आठ गुणों की पुष्टिसे संतुष्ट, अथवा आठ गुण और पुष्टि के द्वारा संतुष्ट रहनेवाले । यहाँपर प्रथम अर्थमें दि अष्टगणात्मक ही मालुम होती है और दूसरे अर्थ में दोनो-पाठ गुण और पुष्टि मित्र भग विवक्षित हैं । दोनों अर्थोंमें यही भन्तर है।
अष्टगुमा शब्दसे-अधिमा महिमा लविमा गरिमा प्राप्ति प्राकाम्य ईशित्व और बशिस्त्र इस तरह विक्रियाके आठ भेदोंका ग्रहण किया जाता है । कोषमें भी ऋद्धिक ये पाठ मेद गिनाय है। किन्तु ग्रन्थकारने केवल "अष्टगुण" शब्दका उन्लेख किया है। उन पाठोंका रामोल्लेख यहां नहीं किया है । श्रतएव इस शब्दसे विक्रियाके इन पाठ मेदोंका ही ग्रहण
१-प्रभाचन्द्रीय टीकामें गरिमाका उल्लेख न करके उसकी जगह कामरूपित्वको गिनाकर आठ दमवाये हैं।
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राजकररावकाचार
करना चाहिये अथवा दूसरे किन्ही आठ गुणों का ग्रहण करना चाहिये यह बात विचारतीय है। कारण यह कि प्रथम तो श्रागममें' त्रिक्रियाके आठ ही भेद न गिनाकर अनेक भेद बताये हैं । अतएव उसके आठ ही भेद बताना उचित प्रतीत नहीं होता । दूसरी बात यह कि देवोंको पर्यायाश्रित गुणों में एक विक्रिया ही नहीं अन्य भी अनेक गुण प्राप्त हैं। अतएव यदि एक ही विक्रिया गुणके आठ भेदोंको आठगुणोंके स्थानपर गिना जाय तो शेष गुणों का संग्रह नहीं हो पासा | सात गुण छूट जाते हैं । अतएव इस म्याप्ति और श्रतिव्याप्ति दोषका वारण करनेके लिये उचित हैं और आवश्यक है कि इस शब्दसे केवल विक्रियाका ही नहीं अपितु मिश्र भिन्न आठ गुणों का ग्रहण किया जाय अर्थात् अष्टभेदरूप विक्रियाको एक ही गुण मानकर शेष सात गुण और भी लेने चाहिये । और उनको सम्मिलित करके ही आठ गुण गिनना चाहिये । इन सात गुणांक स्थानपर स्थिति प्रभाव सुख द्युति लेश्या विशुद्धि इन्द्रियविषय और श्रवधिविषय इनको सम्मिलित करना चाहिये । अथवा इन सात भेदोंके सिवाय विक्रियाको न गिनकर उसके स्थानपर देवगतिको गिनना चाहिये। इस तरहसे भी भाठ गुण होजाते हैं । और उनमें प्र यः देवगतिसम्बन्धी सभी विशेष गुण संगृहीत होजाते हैं ।
इस तरहसे संगृहीत इन आठ गुखों का अर्थ संक्षेपमें इस प्रकार समझना चाहिए।
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१ – देवगति तद्योग्य आयु और गति नामकर्मके उदयसे होनेवाली जीनकी कर्यजन पर्याय | अथवा विक्रिया - अपने प्राप्त शरीरसे भिन्न अथवा अभिन विचित्र एवं विविध आकार नाने की योग्यता । श्रखिमा - इाना छोटा शरीर बना लेना कि कमल के छिद्रमें भी प्रवेशकर वहीं बैठकर चक्रवर्तीके भी परिवार एवं विभूतिको उत्पन्न कर सकना । महिमा - मेरुसे भी बड़ा शरीर बना लेना । लघि भी इलका शरीर बनालेना। गरिमा-बजूसे भी मारी शरीर बनालेना | प्राप्ति -- पृथ्वीपर बैठे बैठे ही अङ्गलिके अग्रभाग द्वारा मेरुकी शिखर या सूर्य विश्वका भी स्पर्श कर सकना । प्राकाभ्य – जल पर भूमि की तरह चलना और भूमिमें जल की तरह डुबकी लगाना और उचलना आदि। ईशित्व चाहे जिसको वश कर लेना ।
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२ - स्थिति
प्रमाण ३ प्रभाव - शापानुग्रहशक्ति, ४ सुख - साता वेदनीय कर्म के उदय से प्राप्त इष्ट विषयोंका अनुभव, ५ धुति-शरीर वस्त्र भूषणांकी दीशि- कान्ति,
१० राजवार्तिक अ३ सू० ३६ वा० २ का भाग्य-विक्रयगोचरा ऋद्धरनेकवधा अणिमा महिमा लचिमा गरिमा प्राप्तिः प्राकाम्वमीशित्वं वशित्वमप्रतिधातोऽन्तर्धानं कामांपत्यमित्येवमादि। इन सब लक्षण भी भिन्न भिन्न वहां बताये गये ।
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२- देखो त० सू० अ० ४ सूत्र २० ॥
३ - इनके सिवाय विक्रिया के अन्तर्धान- अटश्यरूप होजाना तथा कामरूपित्व - एक समय में अनेक और नाना प्रकार के रूप बनाना आदि और भी है। किन्तु यह बात यहां ध्यान में रहनी चाहिये कि विक्रियाले सुनिको लक्ष्य करके श्रागम में इन भेदों का जो अर्थ बताया है तदनुसार ही हमने यहां लिं है। देवां उनके योग्य जागमानुसार समझना चाहिये ।
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चन्द्रिका टीका मैतीसवा लाल खेरया--कपायोदयसे अनुरंजित मन वचन कायकी प्रवृत्ति, ६.१७ इन्द्रिय और अवधिक विषयका प्रमाण और क्षेत्र ।
इस सरहसे आठ गुणोंके ग्रहण करने पर प्रायः भागमोक्त देवगतिसम्बन्धी सभी गुण . वर्मोका संग्रह होजाता है और इन के द्वारा सम्यग्दर्शनके निमित्तसे प्राप्त होनवाली विशेषता का भी परिज्ञान हो सकता है।
पुष्टि-इस शब्दसे शरीर उसके अवयवोंका उपचय विशेष तथा तयोग्य परमाणुओंका संबर होकर उनके निर्माण बंधन संपातमें विशेष परिणमन अर्थ ग्रहण करना चाहिये जैसा दिमागममें बतायागया है। .
आगममें औदारिक शरीरकी अपेक्षा क्रियिक शरीरके योग्य परमाणु–आहारवर्गणाके स्कन्य अधिक सूक्ष्म हुआ करते हैं और प्रदेशों की संख्याकी अपेक्षा वे असंख्यातगुणे रहा परसेर हैं। उत्तरोतर ये दोनों ही विषय अधिकाधिक है फिर भी उनकी अवगाहना छोटी३ छोटी होती है। यह देवशरीरके परिणमन एवं बंधन संवातकी विशेषता है। जो ऊपर २ के देवों में अधिकाथिक पाई जाती है। मिथ्या दृष्टियोंकी अपेक्षा सम्यग्दृष्टियोंके शरीरमें यह पोपण अधिक प्रशस्त और महान हुमा करता है।
तुष्टा-तोष-संतोषके धारण करनेवालोंको तुष्ट कहा जाता है । प्रीत्यर्थक तुष पारसेक प्रत्यय होकर यह शब्द बनता है। इच्छानुसार विषयके प्राप्त न होनेपर भी अरति --अप्रीति अथवा अकृतार्थताके कारस पाकुलताका न होना तुष्टि यहा संतोष कहा जाता है। इसतरह पयाप्राप्त विषयमें भी प्रसभ रहने या आकुलित न होने को तुष्टि कहते हैं। जो इस तरहके अन्तरङ्गमावसे युक्त हैं वे सब तुष्ट समझे जाते हैं।
दृष्टिविशिष्टा:-दृष्ट्या दर्शन विशिष्टाः युक्ता महान्तो वा इस विग्रहके अनुसार इस शब्दका अर्थ दर्शनसे युक्त अथवा दर्शनको अपेक्षा महान् ऐसा होता है । इसका अथ करते समय अधिकतर लोग "सम्यग्दर्शनसे युक्त-महित" ऐसा कहा करते हैं । क्योंकि उनकी दृष्टिमें "दृष्टि" शब्दका अर्थ सम्यग्दर्शन है। किन्तु हमारी समझसे यहांपर दृष्टिशब्दका अर्थ सम्यदर्शन न करके दर्शनोपयोग करना चाहिये।
प्रकृष्टशोमाजुष्टा:-प्रकृष्ट-सातिशय अथवा उत्तम शोभाक द्वारा जिनका प्रीतिपूर्वक सेवन किया जाता है। यह सामान्य शब्दार्थ है । इसमें जो विशेष अर्थ है उसपर भी ध्यान देना चाहिये । यहांपर प्रकृष्ट शब्द सापेक्ष है। प्रकृष्टता किसी न किसी अन्य व्यक्ति की
१२-त० सू० अ० ३ "परं परं सूक्ष्मम्" ॥३७॥ "प्रदेशोऽगंख्येयगुणं प्राक् तैजसास" ॥२८॥
३-सौधर्म स्वर्गके देवोंकी उत्कृष्ट अवगाहना अलि और अन्तिम मर्थीिसद्धिविमानके देवोंकी अवगाहना १ अरलि प्रमाण ही हुआ करती है।
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अपेक्षा ही कही जा सकती है। जिस तरह कोई कहे कि "यह अधिक सुन्दर है तो यहाँ पर उस व्यक्ति व्यक्तिबोध करादेता है जिसकी या जिनकी कि अपेक्षासे विवक्षित व्यक्तिकी सुन्दरताका प्रतिपादन किया जा रहा है। इसी प्रकार यहां पर भी समझना चाहिये । ग्रन्थकारको इस शब्द के द्वारा भी मिध्यादृष्टि देवोंकी अपेक्षा सम्यग्दृष्टि देवोंके शरीरकी शोभा प्रकृष्ट हुआ करती है यह बताना अभीष्ट है । अथवा सामान्य देवोंकी अपेक्षा उन देवेंन्द्रोंकी, जिनको कि सम्यक्त्वके फलस्वरूपमें सुरेन्द्रताका लाभ होना यहां बताया जा रहा हैं, शोभा सातिय हुआ करती है यह प्रकट करना है। इस वाक्यमें जुष्टा शब्दका जो प्रयोग किया है वह साधारण 'सहित' अर्थको नहीं अपितु प्रीतिपूर्वक सेवन अर्थको बताता है । क्योंकि यह शक जिस जुप धातुसे बनता है उसके प्रीति और संवन दोनों ही अर्थ होते हैं। और यहां पर वे दोनों ही अर्थ करने चाहिये । कारण यह कि यहां पर सम्यग्दृष्टि की विशेषता घताना अभीष्ट हैं। जिस तरह " मारणन्तिकों सल्लेखनां जषिता "२ में जोपियाका अर्थ प्रीतिपूर्वक सेवन करना ही लिया गया हैं उसी प्रकार यहां भी करना चाहिये। मतलब यह है कि सम्पन्टष्टियां निःकाल होते हुए भी उनके शरीरकी वह विवक्षित शोभा मिथ्यादृष्टि देवोंके शरीर की अपेक्षा प्रकर्षता के साथ और अधिक प्रीतिपूर्वक सेवा किया करती है ।
यहांपर प्रकृष्टा चासो शोभा च तया जुष्टाः सेविताः । इस विग्रहके अनुसार तथा प्रयुक 'प्रकृष्ट' शब्द के द्वारासम्यग्दृष्टि देवोंके शरीरकी शोभा में अतिशय सूचित कर दिया गया है कि--- यद्यपि सम्यग्दृष्टि निःकांच हैं वे उसको नहीं चाहते फिर भी यह शोभा अत्यन्त प्रीतिपूर्वक उनके शरीर की और उनकी सेवा किया करती है ।
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अमराप्सरसां - अमराश्च अप्सरसश्च तेषाम् | यहां सम्बन्धमें पष्ठी विभक्ति की गई है अतएव इस इतरंतर योग समासमें आये हुए अमर और अप्सरा शब्दोंका सम्बन्ध परिषदि शब्दकं साथ है। अर्थात् श्रमरों— देवकी सभा में और अप्सराओं की सभा में एक एक इन्द्रके देव और देवियोंका परिवार बहुत बडा है। देव और अमर पर्यायवाचक शब्द हैं। इनका अर्थ ऊपर बताया जा चुका है। राका अर्थ सामान्यतया नृत्यकारिणी किया जाता है यद्यपि जी नृत्यकारिणी हैं उनकी अप्सराएं कहा जा सकता हैं किंतु सभी अप्सराएं नृत्यकारिणी ही हो यह बात नहीं है | इन्द्र- सौधर्मेन्द्र के विस्तृत परिवार में चार लोकपाल भी माने गये हैं। जो
१- स्वर्गच्युतिलिगानि यथान्यथां सुधाशिनाम् । स्पष्टानि न तथेन्द्रागो किन्तु लेशेन फर्नाति || आदि ११- २ ।। २- त० सू० ७ - २२ । ३ - ननु च विस्पष्टार्थं सेवितस्थेन वक्तव्यम् ? अविपापपतेः । न केवलं सेधनसिंह परिगृह्यते । कि तर्हि १ श्रीत्यपि । स० सि० :
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Arrr-innar
चन्द्रिका ढोका नोमन श्लोक कि नियमसे मोर जानेवाले देवों में परिगणित हैं। इन थम श्रादि चारों ही लोकपालोमेसे प्रत्येक की जो ॥ करोड अप्सराएं बताई गई है । ये सब नर्तकी नहीं हैं। साधारण परिवारकी देवियां हैं। इन्द्रके परिवारमें एक अनीक-सेनाके देव देवियोंका भी भेद है। जो सात प्रकार को है । इनमें एक भेद नर्तकियोंका है जिसकी कि गणमहत्तरिका नीलांजना बनाई गई है। इससे मालुम होता है कि सभी अप्सराएं नृत्यकारिणी ही नहीं हुआ करती।
__ परिषद् नाम सभाका है। इसका शब्दार्थ "परितः सीदनि-सीदन्ति वा अस्पाम्" ऐसा होना है। इन्द्रकी तीन तरहको सभाएं हैं । अन्तः परिपन, मध्य परिषत और बाह्य परिषत् । तीनों ही सभाओंके सदस्य देवोंकी संख्या क्रमसे १२ हजार १४ हजार और १६ हजार है । इन्द्रकी
भग्रहिषियो-न्द्रामिधाम से भी प्रत्येकी तीन-तीन परिपत हैं। जिनमें कि क्रमसे : सौ ६ सौ ७ सौ देवियां सदस्य हैं। इन्द्र इन देवोंकी उन परिपत्-सभाओंमें बैठकर कभी कभी पर्चा उपदेश आदि करता है तो वही एक मवतारी परम सम्यग्दृष्टि शतयज्वा कभी-कभी उन सभी देवियों एवं मप्सराओंकी परिपन्में बैठकर पवित्र एवं उचित भोगोंका का भी अनुभव किया करता है।
चिरं, रमन्ते = रम्ने धातुका अर्थ क्रीड़ा करना आनन्द विलास भोग उपभोग करना है। चिरं यह अध्यय है । जो कालकी अधिकताको बताता है। जैसे कि चिरन्त चिरंतन चिरपटी चिरक्रिय चिरजीवी चिरायुम् इत्यादि । प्रकृतमें यह शब्द भायुपर्यन्त यथाप्राप्त भोगोंको बिना किसी विघ्न-बाथाके भोगते रहनेको सूचित करता है। तथा मनुष्योंकी अपेक्षा देतोंकी वथा देवों में भी सम्यग्दृष्टियों एवं इन्द्रोंकी भायुकी दीर्घता, अनपवर्त्यता, तथा पातायुष्कताकी अपेवासे उसमें पाई जानेवाली अधिकता मादि को भी बताता है।
जिनेन्द्रभक्ताः--यह शब्द सम्परदृष्टि अर्थको बताता है। अंशतः अथवा पूर्णतया जो मोहकर्मपर विजय प्राप्त करनेवाले हैं उनको कहते हैं जिन | इनके जो इन्द्र हैं, इनपर जिनकी माशा चलती है उनको कहते हैं जिनेन्द्र । इस तरहके सर्वज्ञ वीतराग हितोपदेशी जिनेन्द्र के जो मंत।सेवक पूजक पारायक हैं उनको कहते हैं जिनेन्द्रमक्त । यद्यपि जिनका मोहकर्ममिथ्यात्व सचामें है फिर भी जिसका उदय अत्यन्त मन्द मन्दतर अथषा मन्दसम हो गया है भी महान भद्रपरिणामी रहने के कारण जिनेन्द्र भगयानकी प्राक्षाको सर्वथा प्रमाण मानते और उनको श्रीज्ञानुसार व्रत संयम एवं तपश्चर्याक मी साधक हुमा करते हैं। फलतः वे भी जिनेन्द्र
१-इन्द्र हुओ न शपीहू हुओ, लोकपाल कबहूँ नहिं हुओ। इत्यादि। २-स्वयंप्रमे विमाने मोमों लोकपालः अर्धतृतीयपल्ोपमायुः । चत्वारि देवीसालागि, अर्धदलीय पन्योपमायू'षि, पतुराणामनि लोकपालान तमोप्रमहिण्यः । अतृतीयपल्योपमायुषः । ....
बतुर्णा सोकपालनामेकैकस्यापचतुर्थकोटो संध्या पसरसः । रा०पा०४- का भाय। -स्वादिभात्मनेपकी वर्तमानकाल अन्यपुरुष बचन ।
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रत्नकर,एईश्रावकाचार
भक्त ही हैं। परन्तु वे सिद्धान्ततः और अन्तरङ्गमें तथा वास्तविकरूपमें-मिथ्यात्वका उदय पाये जाने और इसीलिये सम्यक्त्वसहित नहीं रहने के कारमा मुख्यतया जिनेन्द्रभक्त शन्दसे नहीं कहे जा सकते । प्रकृति में उन अनुपचरित सम्यग्दृष्टि जिनेन्द्रमकोंका हौ ग्रहस किया गया है, ऐसा समझना चाहिये। जो कि नियमसे जिनेन्द्र भगवान भक्त होते हैं तथा अन्य किसी देवके वास्तवमें भक्त न होकर जिनेन्द्र भगदानक ही मक्त हुआ करते हैं।
बगे--सु-सुष्ठु-सुन्दरम् - मुखरूपम् मा। अर्यते--प्राप्यते इति भर-स्थानं । एतद् स्वर -सुखरूपम् स्थानम् इति यो गीयते स स्वर्गः । म निरुक्ति के अनुसार संसारमें यह सबसे अधिक मुखरूप स्थान है, ऐसा जिसके विषय में माना जाता है उसको स्वर्ग कहते हैं। फिर भी देवगवि अथवा वैमानिक देव पर्यायवाले जीवोंके स्थानके लिये यह शब्द रूढ है।
तापर्य---यह कि जगतमें यह बात प्रसिद्ध है कि संसारमें यदि कोई सर्वाधिक सुखका स्थान है तो वह स्वर्ग है । यद्यपि यह ठीक है कि तत्त्वतः दुःख निसको कहते हैं उसकी परिभाषा सं स्वर्ग भी याद नहीं है। सर्गधीरता पुरता संगलेश आदि दुःखरूप भावोंसे वह मी मुक नहीं है। फिर भी कर्मफलको भोगनेवाली चारों गवियोंमें वह इसीलिये प्रधान एवं इष्टरूप माना जाता है कि पुण्यरूप माने गये कौमसे अत्यधिक भेदोका वहाँ उदय पाया जाता है और उनके फल भोगने में बाधक बन सकनेवाले कारणोंका वहां प्रायः सद्भाव नहीं पाया जाता। अतएव पुण्य फल भोगने योग्य स्थानोंमें अधिक होनके कारण ही उसकी वैसी प्रसिद्धि है।
पुण्य प्रकृतियां कुल ६८ हैं उनमें से साता देवनीय उच्च गोत्र देव आयु देवगति पन्चे. न्द्रिय जाति वैक्रियिक शरीर अङ्गोपाङ्ग निर्माण पन्धन संषात समचतुरस्त्र संस्थान स्पर्श रस गन्ध वणं शुभ सुभग सुस्वर प्रादेय यशस्कीति आदि बहुतर प्रकृतियोंका उदय यहां पाया जाता है। खास बात यह है कि इन प्रकृतियोंका उदय वहाँपर सामान्यरूपसे सभी देवोंके पाया जाता है। फलतः सभी देव स्वाभाविकरूपसे अनेक गुणोंसे युक्त मति, अष्टविध विक्रिया समर्थ समा शुभ सुभग कान्तियुक्त योग्य साङ्गोपाङ्गादिसे सुन्दर शरीर, अनपवर्य प्रायु, उच्चगोत्र, यथा प्राप्त इष्ट मोगोंके भोका ही हुआ करते हैं। स्वर्गमें मिथ्यादृष्टि भी उत्पन्न होते हैं। अतएव सम्पत्व सहित और मिथ्यात्वसहित जीवोंको स्वर्गमें उत्पन्न होने मात्रसे ही सामान्यतया कोई अन्तर नहीं पड़ता और न कहा जा सकता है। किन्तु यहां पर वो आचार्य सम्यक्सका असा. धारण फल बता रहे हैं । अतएव जिस स्वर्गको साधारण मिध्यादृष्टि जीव भी प्राप्त कर लेता है उसके प्राप्त करने में सम्यक्रवके फलकी कोई असाधारणता प्रकट नहीं होती। इसलिये भाचार्य ने विशेषता दिखानके लिये जो प्रकृत कारिकामें विशेषण दिये हैं उनके माशयपर भागी अनुसार स्वासतौरसे ध्यान देने की आवश्यकता है। अतएव उन्हीं विशेषताओंको संदेपमें यहां पर उछ सष्ट करदेना उचित प्रतीत होता है।
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चन्द्रिका दोका से तीस श्लोक
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गुणोंसे प्रयोजनविक्रिया सम्बन्धी अणिमा महिमा आदि प्रसिद्ध आठ भेदोंसे और पुष्टिसे उन्ही की पुष्टिका अर्थ यदि लिया जाय तब वो पुष्टिसे सम्यग्दृष्टिकी विशेषता इस प्रकार समझनी चाहिये कि मिध्यादृष्टिकी विक्रियामें उतनी सामर्थ्य नहीं पाई जाती जितनी कि सम्यग्दृष्टिकी विक्रियामें रहा करती हैं। यदि इन आठ गुखों और पुष्टिको भिन्न भिन्न लिया जाय ताठ गुणके विषय में उपयोग की अपेक्षा से अन्तर समझना चाहिये । अर्थात् सम्यग्दृष्टि देव अपने उन गुलोंका दुरुपयोग नहीं किया करता । मिध्यादृष्टि देव कदाचिन् दुरुपयोग भी कर सकता है। तथा पुष्टिके विषय में यह समझना चाहिये कि शरीर के उपायके योग्य वैक्रियिक शरीर के परमाणुस्कन्थोंके महत्वपूर्ण परिणमनमें अन्तर पड़ा करता है। सम्यग्दृष्टिके समान मिध्यादृष्टियोंके शरीर स्कन्धोंका परिणमन सातिशय एवं महान नहीं हुआ करता। इसके शिवाय तुष्टि शब्दके द्वारा भी सम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टिमें जो विशेष अन्तर हैं वह भी प्रतीतिमें भाता अथवा था जा सकता है । क्योंकि इन गुणोंके प्राप्त होने पर सम्यग्दष्टिको तो दृष्टि रहा करती है । परन्तु मिध्यादृष्टि असंतुष्ट ही रहा करता है। सम्यग्दृष्टिके संतोष और मिध्यादृष्टिले असंतोष की स्पष्ट परीक्षा उस समय होजाती है जब कि स्वर्गसे उनके व्युत होनेका अवसर आया करता है। मिथ्यादृष्टि देव मरते समय अपनी विभूति, इष्ट सुख साधन और ऐश्वर्यका वियोग होता हुआ देखकर या जानकर जिसतरह संक्लिष्ट होता रोता और विज्ञाप करता है वैसा सम्यग्दृष्टि नहीं किया करता । क्योंकि वह समझ एवं वस्तुस्वरूपका यथार्थतया श्रद्धावान होने के सिवाय अनन्त रागद्वेषपरिणाम से रहित एवं उतना ही परपदार्थोके संयोग वियोग समभाव रहा करता है ।
अष्टगु शब्दसे विक्रियाके आठभेद न लेकर यदि गति स्थिति प्रभाव सुख धुति आदिको लिया जाय जैसा कि ऊपर कहा गया है तब सम्यग्दृष्टि और मिध्यादृष्टिके इन भाट मदोंमें जो अन्तर या विशेषता पाई जाती है वह आगमके अनुसार स्वयं समझी जा सकती है। उसका यहां विस्तार करनेकी आवश्यकता नहीं है। फिर भी संक्षेपमें उसका थोडासा परिचय देदेना उचित प्रतीत होता है ।
यांत - सम्यग्दृष्टि जीव भवनत्रिक में उत्पन्न नहीं होता, देवी नहीं होता, श्रभियोग्य fafafe सरीखी निकृष्ट अवस्थाओं को प्राप्त नहीं किया करता, और मह नीचे ही स्वर्गीतक उत्पन्न न होकर अन्तिम विमान सर्वार्थसिद्धि तक भाव धारण किया करता है तदनुसार
१- द्रव्य मिध्यादृष्टि सहस्रारसे ऊपर नहीं जाता
"परमहंस नामा परमती सहस्रार ऊपर नहीं गती ॥ चौ० ठा० परन्तु रुपबहारतः सम्बन्दृष्टि पूर्णतया आईत आगमके अनुसार तपस्वी किन्तु अन्तरंग में वर्शन मोहके सूक्ष्मतम के कारण चवमेवंव तक भी आया है इससे ऊपरका भव मिध्यादृष्टि नहीं, सम्धष्ट धारण किया करता है
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रत्नकरभावकाचार
मवनिमित्तक प्राप्त होनेवाली शक्तियों-त्रिक्रिया आदिके विषयमें तथा शारीरिक गुणधर्मों में भी महान अन्तर रहा करता है।
स्थिति-सम्यग्दृष्टिकी पायुका प्रमाण तेतीस सागर एक हुमा करता है। जबकि मिथ्यारष्टि सहस्रार स्वर्ग तक और कोई कोई अन्तिम मवेयक तक ही उत्पन्न हो सकते हैं। इसके सिवाय घातायुष्कताकी अपेक्षासे भी विशेषता पाई जाती है। आगममें देवोंकी भायुका पान करते हुए बारहवें स्वर्गतककं देवोंकी आयुमें निश्चित उत्कृष्ट श्राय:स्थिति से कुछ अधिक का भी पाया जाना बताया है। जैसे कि पहले दूसरे स्वर्गकी उस्कृष्ट श्रायु सामान्यतया दो सागर प्रमाण है । परन्तु आगममें दो सागरसे कुछ अधिक कही गई है। परन्तु यह अधिकता पातायुकवाकी अपेवासे है। क्योंकि यदि कोई मिथ्यादृष्टि ऊपरके स्वर्गकी आयुका बच करने के बाद संक्लेश परिणामों के द्वारा स्थिति का पात करके सौधर्मद्विको उत्पन्न होता है तो उसकी उत्कृष्ट आयु दो सागरसे पन्य के असंख्यातवें भागता अधिक होगी । कदाचिन कोई सम्पक्स सहिस जीव यदि वैसा करता है-ऊआरके स्वर्गकी बद्ध आयुका पात करके सोधर्म ईशानमें से किसी में उत्पन्न होना है तो उसकी उत्कृष्ट प्रायु दो सागरसे भाषा सागर तक अधिक होमो। ऐसा सिद्धान्त शास्त्रका कथन है। इस कथनसे भी सम्यक्त्वक प्रवापसे देवायुकी स्थितिमें पाई जानेवाली विशेषता एवं अधिकताका परिज्ञान हो सकता है।
प्रभाव--- इसका आशय शापानुग्रहशक्तिसे है। यह शक्ति ऊपर ऊपरके देवोंकी अधिक अधिक होती जाती है । तथा मिथ्वादृष्टिकी अपेक्षा सम्यग्दृष्टिकी यह शक्ति विशिष्ट रहाती है फिर भी वह प्रायः संभावना सत्यकी ही विषय रहा करती है।
मुख----यद्यपि साधारणतया मनुष्योंकी अपेक्षा देवोंके वैषयिक सुखको विशिए कहा जा सकता है। क्योंकि कर्मभूमिज मनुष्यों के समान उनके पिय शीघ्र नस्वर तथा सान्तरित नहीं है। परन्तु प्राचार्योंका अभिप्राय यहाँपर वास्तवमें वैषयिक सुखकी तरफ नहीं है। सुखसे प्रयोजन उसी सुखका लेना चाहिये जो कि ऊपर-ऊआरके देवों में अधिकाधिक बताया गया है। इस तरहका सुख बाम विषयों की अपेक्षा नहीं रखता । यही कारण है कि ऊपर-ऊपरके स्वाय गाय भोगोपभोगके साथन एवं विभूतिके कम-कम होते जाने पर भी सुखकी मात्रा अधिकाधिक होती गई है । और यह बात स्पष्ट है कि इस तरह के सुखका संचव जो सम्यग्दृष्टिके हो सकता है वह मिथ्या दृष्टिके नहीं हो सकता। यद्यपि मिथ्या दृष्टिके भी यथायोग्य निराखता
५-सौधर्मेशानयोः सागरोपमंशधकं ॥ तस०
मोकि भोगभूमिजांका मुख मी प्रायः देवोके समान हुआ करता है । भागममें उसको पक्रवर्तक __ सुखसे भी अनन्त गुण बताया गया है, देखो मा पुल तथा तिप० -इसके लिये देवोगा. ० पर्व १६ ।
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चन्द्रिका टीका सेतीमा श्लीफ
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कांदाओंकी श्रल्पतरता पाई जाती है। फिर भी यह सम्यग्दृष्टिकी अनिर्वचनीय निःकांच मनोवृति एवं परिणामों तथा सुखकी तुलना नहीं कर सकती ।
विलेया इन्द्रिय विषय और अवधिक विषयकी भी उत्तरोत्तर अधिकता तथा सभ्यऔर मिध्यादृष्टि के इन गुणोंमें जो विशेषता पाई जाती है वह भी श्रागमके अनुसार सम लेना चाहिये।
इसी प्रकार दूसरे विशेषण के द्वारा सम्यक्त्वसहित जीवको देषपर्याय प्राप्त होनेपर जो मिध्यादृष्टि देवकी अपेक्षा विशेषता रहा करती है वह व्यक्त की गई है। क्योंकि मिध्यादृष्टि और सम्यग्दृष्टि में अन्तर बतानेवाली यह असाधारण सैद्धान्तिक बात है । श्रागमका यह नियम है कि जो कोई भी देव पर्यायको धारण करता है उसके अवधि ज्ञानावरण कर्मका क्षयोपशम भी अवश्य हुआ करता है। फिर भी मिध्यादृष्टि के इस क्षायोपशमिक ज्ञानको विभङ्गुर और सम्यग्दृष्टिके इस तरहके ज्ञानको अवधिज्ञान शब्दसे ही कहा गया है। साथ ही बताया गया है कि जो विमंग है वह दर्शनपूर्वक नहीं होना, अवविज्ञान ही दर्शन – अवधिदर्शन पूर्वक हुआ करता है। अधरण " दृष्टिविशिष्टाः " विशेष के द्वारा समझना चाहिये कि मिध्यादृष्टिकी अपेक्षा सम्यग्दृष्टि देवदृष्टि – दर्शन अर्थात् अवधि दर्शनसे विशिष्ट४ हुआ करते हैं।
आगममें बसाया गया है कि स्वर्गसे च्युत दोनका जब समय आता है तब अनेक प्रकार के जो चिह्न प्रकट होते हैं उनमें मन्दारमालाकाम्लान होना तथा शरीरकी १---भवप्रत्ययो वधिर्देवनारकाणाम् ॥ स० सू० अ० १ सू० २१ २ -- सर्वार्थसिद्धि ० सू० १-२१= "देवनारकाणामित्यविशेषाभिधाने पि सम्यग्दन्तमेव महणम् । कुतः ? अवधिमहणात् । मिध्यादृष्टीनां
विभंग इत्युच्यते ।" तथा १-३१ की स० सि० "यथा चावाधज्ञानेन सम्यग्दृष्टिः रूपिणोर्यातव गच्छति तथा मिध्यादृष्टिर्विभंग ज्ञानेनेति ।
३- यद्यपि षट० सत्त्ररूपणाके सूत्र नं० १३४ की धवला टीक के इस वाक्पसे कि "बिभंगदर्शनं किमि. विपृथग्नक्तमिति चेन, तस्सषधिदर्शनेऽन्तर्भावातू" इस का भ्रम हो सकता है कि अधिदर्शन में विभंगदर्शनके अन्तर्भावको बतानेसे मालुम होता है कि अवधिदर्शन भी बाग़ममें मान्य है। परंतु ऐसा नहीं है क्योंकि संतसुत विवरणमें बताये गये आलापांके देखनेसे स्पष्ट है कि विभंगज्ञान दर्शनपूर्वक नहीं हुआ करता ।
४— इस पद्का प्रभाचन्द्रीय टीका (मुद्रित) में कुछ अर्थ नहीं पाया गया। पं० सि० श० गौरीलालजीने केवल विप्रहमात्र किया है। और प्रायः सभी टीकाकारोंन "सम्पदर्शन से विशिष्ट "ऐसा ही अर्थ किया है । परन्तु हमको यह अर्थ नहीं जंचा। क्योंकि इसी अर्थका वाचक एक शब्द "जिनेन्दभक्ता" यह पड़ा हुआ है। अन्य इस प्रकरणको कारिकाओंमें भी इस अर्थका वाचक एक-एक ही शब्द वाया जाता है । पुनरुति व्यर्थ ही है। अतएव हमने यह अर्थ दिया है कि दृष्टि अर्थात् अवभिदर्शन, बो कि संग भी है।
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भामाशा फीका पड़जाना भी है। परन्तु कहा गया है कि सामान्य देवोंके समानर इन्द्रोंक उतनी अधिक म्लानता नहीं पाया करती । इससे स्पष्ट है कि जो विशिष्ट पुण्यके धारक है उनके शरीरकी शोमाकी माचा भी अधिक ही रहा करती है । अत एव इन्द्रके ही समान सम्यक्वकै कारण सातिशय पुरपके भागी भन्य देवोंके शरीरकी मी शोभा मिथ्यादृष्टियोंकी अपेक्षा महान् ही हुआकरनी है। इसी बातको सूचित करने के लिये मालुम होता है कि शोभा शम्दके साथ प्रकृष्टशब्दका प्रयोग किया गया है जो कि स्वभावतः अन्यापेक्ष होनसे उसकी प्रकर्षताको व्यक्त करता है।
इसके सिवाय प्राप्त होनेवाली इस प्रकृष्ट शोमा सम्बन्धमें सम्यग्दृष्टिकी जो विशेषता है वह ऊपर "जुष्टा" शब्दका अर्थ करते समय बतादी गई है। अत एव उसके यहाँ पुनः दुहरानेकी भावश्यकता नहीं है । उसीसे मालुम हो सकेगा कि सम्यग्दृष्टिकी नि:कांक्षतामा यह माहात्म्य है कि उसको न चाहनेपर भी उदितोदित वैभव-विशिष्ट पुण्य कर्मोंके फल स्वयं प्राप्त हुमा करते हैं। मिथ्याष्टिके समान वह उनकी इच्छा नहीं किया करता।
प्रश्न-ऊपर माठ गुणोंके वणनमें एक युति भी गिनाई है शरीर वस्त्र भूषण आदि की दीप्ति-कान्तिको ही युति कहार जाता है। शोभा भी यही है। अत एव जर उसका निर्देश पहले विशेषण के द्वारा गरे आडमुलाम ही अन्तत हो जाता है संब पुनः उसीका वर्शन करनेकेलिये इस तीसरे विशेषखका कयन करना क्या पुनरुक्ति नहीं है ?
उत्तर-प्रथम तो धर्मका और उसके फलका वर्णन करनेमें पुनरुक्ति दोष माना नहीं जाता क्योंकि उसमें भाचार्योंका हेतु किसी भी तरहसे तत्वावधान और तदनुसार कन्या कारणभूत समीचीन भाचरण में रुचि उत्पन कराना ही रूप रहा करता है। अत एव इसलिये उन्हें किसी विषयको बार बार भी यदि कहना पडे तो वह इष्ट प्रयोजनका साधक होनसे दोष नहीं है। यह दोष तो न्याय व्याकरण दर्शनशास्त्र भादिमें ही देखा जाता है। पर्मके व्याल्पानमें नहीं । और यह समीचीन धर्मशास्त्र ही है, जैसा कि अन्यकर्चा आचार्य भगवान के प्रतिकार पास्पसे स्पष्ट होता है। फिर भी यह बात अच्छीतरह ध्यानमें रखनी चाहिये कि यहापर पास्तबमें पुनरुक्ति नहीं है। क्योंकि दोनों ही गुख भिन्न भिन्न कमोंके उदयकी भाषेचा रखते हैं। शरीरकी युति मादेव नाम कर्मके साथ साथ वर्णनामकर्मके उदयकी अपेक्षा रखती है।
और शोमा, शुभ सुमग संस्थान निर्माण मादि नामकोके उदय की अपेक्षा रखती है । इस तरह दोनों में बहुत पड़ा अन्तर है।
इस प्रकार विशिष्ट सातिशय पुश्यके बलपर सभ्यग्दृष्टि जीव जिस ऐन्द्री जातिको प्राप्त किया करते हैं उसमें अन्य साधारण मिणदृष्टि देवोंकी अपेक्षा म्या क्या अन्तर पायां
-इसके लिये देखो पद्दी पर पूर्वमें उदधृत स्वगप्रच्युतिलिंगा नियवान्वेपी सुधाशिनाम् । स्पष्टानित सदाना कितु तेरोन कनचित् ॥३॥ पापु०१०११।
५-भारीरवसनाभरम्पविदीप्ति विससि०१-रागामि समीचीन धर्म कर्मनिपईगम् ।।
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A
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चन्द्रिका टीका सैतीस श्लोक जाता है वह तीन विशेषणों के द्वारा यहां दिखायागया है । इसके सिवाय देवोंकी सभाके रूपमें उन्हे देवोंका आधिपत्य तथा भौगोपभोग एवं क्लिासके साधनकी शामग्री के रूपमें अपनी देवानामोंके सिवाय नृत्यादि करनेवाली अप्सराओं-अभिनेत्रियोंका भी असाधारण लाभ हमा करता है। और उन्हें यह सुखसामग्री भोगनेका अवसर थोड़ा नहीं चिरकाल-सागरोंतकका प्राप्त हुआ करता है।
चिरकाल तक रममा करते रहते हैं यह कहनेका तात्पर्य भी यह है कि इस भक्के थारण करनेपर उनको वे बाथक कारण प्राप्त नहीं हुआ करते जोकि मनुष्यभवमें सुलभतया उपस्थित रहा करते है । क्योंकि मनुष्य पर्यायमें आथि व्याधि जरा और मरणकं जो साधन प्रायः सभी को प्राप्त मा करते है वे देव पर्यायमें सामान्यतया किसी को भी प्राप्त नहीं हुआ करते। सम्पतिकी रक्षा आश्रितोंकी रक्षा अपनी रक्षा तथा राजा चोर अग्नि आदिका भय, अपयश अपमान एवं अन्य अनेक प्रकारकी ईति और भीतिसे जिस प्रकार मनुष्य चिन्तित और भयातर रहा करता है उसप्रकार देव नहीं रहा करते । जिस तरह मनुष्य वान पिच श्लेष्मा और रक्तकी अस्थिरता न्यूनाधिकता और विषमता के कारण अनेकों रोगास पीडित रहा करता है उस प्रकार धातु उपधातुसे रहित बैंक्रियक शरीरके धारक देव नहीं रहा करत | अर्थमृतक सम बनादेनेवाली-जरा-वृद्धावस्थासे मनुष्य जितना दुःखी होता है- सब तरहसे असमर्थ होकर खिम होजाया करता है वैसा निर्जर पर्यायमें नहीं हुआ करता । इन कथित कारणों से तथा अन्य भी भनेकर भागमोक्त कारणोंस जिस प्रकार मनुष्य असमयमें ही---उदीर्णा एवं अपवर्तनके द्वारा प्रायुको पूर्णतया भोग विनार ही गत्यन्तरको प्राप्त हो जाया करता है वैसा दिव्य शरीवाले अमरोंका नहीं हुआ करता । वे अपनी पूर्ण श्रायुको भोगकर ही वहां से च्युत हा को
कुछ लोगोंकी समझ है कि मनुष्य भी असमयमै मृत्युको प्राप्त नहीं हुआ करता उसकी प्रायस्थितिका भी मध्यमें खण्डन-द्वास-अपवतेन नहीं होता वह भी अपनी उपाच श्रायुकर्मकी स्थितिको पुरा भोगकर ही मरता है। जिनका असमय में मरण कहा जाता है वास्तवमें उनकी भायुस्थिति ही उतनी ही समझनी चाहिये । वियपारस्तम्खमभयमत्थरगाणास' लसहिं । उसासाहाराणं गितहदो छिज्जदे आऊ ।। पो० सा०॥
२-औपपादिकचरमोत्तमदासल्यय युषानपवायुषः ॥५३॥ त० सू० अ०२॥ बाह्यस्योपचास निमित्तस्य विषशस्त्रादेः सति सन्निधाने हवं भवतीत्यपवयम् ।.."न धपामोपपादिकादीनां नामानिमित्त वसादायुरपर्यंते इत्यय नियमः । इतरेपामनियमः ।। स० सि.।
३-देखा "ममयसार-प्रवचन" भाग तीसरा ३३५ श्री कानजी स्वामीके प्रवचनोका संभव प्रकाशक श्री पही० पाटनी का ट्रस्ट मारोठ, मई १६५२) "जब सर्प काटता है और मनुप्य मर जाता है तब लोग यह समझते हैं कि बेचारा घेमीत मर गया किन्तु यह मिथ्या है क्योंकि जब आय पाहोरही हो तो विष घट जाता है और वह मर जाता है। मदि श्रायु शेष होती है. तो विष उतर जाता है और वह जीवित रहता है यादि ।
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ANMaharnama
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लावताचार इसी तरह कुछ लोगोंका कहना है कि “योगशक्ति अथवा प्राणायाम आदिके द्वारा भायुका प्रमाण अधिक भी हो जाया करता है क्योंकि भायुकी स्थिति श्वासोच्छवासपर निर्भर है। अतएव जो व्यक्ति समाधि द्वारा अथवा प्राणायामके द्वारा श्वासोच्छ्वासको अथिक काल तक रोककर रख सकते हैं उनको भयुका प्रमाण भी बढ़ जाता है।
ये दोनों ही मान्यताएं वास्तविक नहीं हैं । दिगम्बर जैन आगमके अनुसार मनुष्य और तिर्योंकी वर्तमानमें उदयको प्राप्त आयुझमकी स्थिति योग्य कारण मिलने पर पूर्ण होनेके पहले भी समाप्त हो जा सकती है। ऐसे व्यक्तिका उदीर्णा अथवा अपवर्तनके द्वारा असमयमें मरण होना भी माना गया है जो कि सर्वथा सत्य है।
हां, यह ठीक है कि बध्यमान-परमवसम्बन्धी जो आयु बन्ध चुकी है, उसकी स्थितिमें उत्कर्षण और अपकर्षण हो सकते हैं। परन्तु उसकी उदीर्णा नहीं हो सकती । किन्तु जो भुज्यमान प्रायु है-जिसका बंध तो पूर्व भवमें किया गया था। और उदय वर्तमान भवमें भारहा है उसकी स्थितिमें उत्कर्षण अपकर्षण नहीं हो सकता, उदीर हो सकती है।
इस तरह विचार करनेपर मालुम हो सकेगा कि मनुष्योंकी अपेक्षा देवोंको अपने प्राप्त भौगोंको भोगने और चिरकाल तक रमण करनेमें उनकी आयुकी अनपवर्यता भी एक बड़ा साधन है। इस अनवत्येताका सम्बन्ध मभी देवोंके साथ है। फिर जो सम्यग्दृष्टि हैं. सम्परत्वके सान्निध्यके कारण सातिशय पुण्य विशेषका संचय करके इन्द्र अथवा असामान्य देवपर्यायको प्राप्त कर चुके हैं उनका तो कहना ही क्या है ?
आचार्यश्रीने अपने इस ग्रन्थमें जहां सम्यग्दर्शनको महत्व दिया है वहां उन्होंने उसके लिये प्रकरणके अनुसार सार्थक एवं कारणगर्मित भिन्न भिन्न शब्दोंका भी प्रयोग किया है। यहां पर भी सम्पदृष्टिके लिये जो जिनेन्द्रभक्त शब्दका प्रयोग किया है, वह भी सहेतुक है। इसके द्वारा वे बताताना चाहते हैं कि सभ्यग्दृष्टि जीवके जो भक्तिका विशिष्ट शुभराग भाव हुआ करता है उसके द्वारा इस तरहके पुण्य विशेषका पन्ध हुआ करता है जिसके कि कारण उसे देवेन्द्रोंके वैभव और ऐश्वर्यसे युक्त अवस्था प्राप्त हुआ करती है । ग्रन्थकर्चासे पूर्ववर्ती महान् आचार्य मङ्गलरूप कुन्दकुन्दने जैसा कि मुनियों की प्रधानतासे प्रवचनसारमें जिनमत्तिके फलका निर्देश किया है। तथा रयणसारमें श्रावकोंके लिये मुख्य धर्मके रूप में जिसका उपदेश
-यह अजैन-वैदिक मान्यता है इसके आधार पर ही उन्होंने कृप परशुराम आदि अपियोंको पिरजायी-सशरीर मुक माना है। २-देखी टिप्पणी न०२
३-देखो गो सार .. ४-जो तं विट्ठा तुट्ठो अम्भुष्टि कवि सका। बंदपणमसणादिहि ततो सो धम्ममादियदि ॥१०॥ तण गरा र तिरिच्छा देवि वा माणुसि गर्दि पप्पा । विहघिस्सरियहि सया रांपुषणमणोरहा दोति ॥१०॥
प्र० स० अ० १ जयसेनाचार्य तात्पर्यवृशि । ये दानों गाथाएं मुद्रित प्रतिमें इस तरह क्षेपक पिम्हके साथ . इससे नम्बर पर दी है। -दाणं पूजा मुक्खा सावधारा धम्मो॥
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चन्द्रिका टीक्र अड़तीस श्लोक
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दिया है। उसी आशयको ग्रन्थकारभी यहां इस शब्द के द्वारा स्पष्ट कर रहे हैं। अर्वाचीन आषायोंने भी इस जिनभक्तिका अपूर्व माहात्म्य बनाते हुए उसको दुर्गति के निवारण पुण्य पर्यायों की प्राप्ति और परमस्थान निर्माणकी सिद्धिमें भी कारण बताया है । अतएव प्राचार्य भगवान् ने सम्यग्दृष्टिको— क्योंकि वह नियमसे जिनभक्त हुआ करता हैं, “जिनंन्द्रभक्त " इस नामसे कहकर उसको उस जिनमक्तिका जो बसाधारण वैभव एवं ऐश्वर्य के साथ देवेन्द्र पद वकका पुण्यफल प्राप्त हुआ करता है उसीका यहां निर्देश करके इस विषय सम्बन्धित भागम की मान्यताका भी स्पष्टीकरण कर दिया है।
इस तरह सम्यग्दर्शनके निमित्तसे प्राप्त होनेवाले अभ्युदयिक फलोंमेंसे सुरेन्द्रता नामक परमस्थानका और उसके साथ ही ऐन्द्री नामकी जातिका वर्णन करके क्रमानुसार परम साम्राज्य नामक पांचवें परमस्थानका तथा उसके साथ ही विजया नामकी जातिका भी साम सम्यक्त्वके ही निमिचसे हुआ करता है, यह बताते हैं-
नवनिधिसप्तद्वयरवाधीशाः सर्वभूभिपतयश्वकम् ।
वर्तयितुं प्रभवन्ति स्पष्टदृशः क्षत्रमौलि शेखर चरणाः ॥ ३८ ॥
अर्थ- स्पष्ट है सम्यग्दर्शन जिनका ऐसे भव्य प्राणी नव निधि, चौदह रतनोंके स्वामी सम्पूर्ण — पट्खण्ड भूमिके पति और चक्र सुदर्शन चक्रको अपनी इच्छानुसार प्रवर्तित करने में समर्थ हुआ करते हैं । तथा उनके चरण मुकुटाद्ध राजाओंके लिये शेखरके स्थानापन्न हुआ करते हैं ।
प्रयोजन — ऊपर के कथनसे ही यह तो स्पष्ट है कि सम्यग्दर्शनके फलका वर्णन करते हुए जब आचार्य सप्त परमस्थानरूप प्राभ्युदयिक फलको बता रहे हैं तब चौथे सुरेन्द्रता परमस्थान के अनन्तर परमसाम्राज्य नामके पांचवे परमस्थानका वर्णन भी स्वमायसे ही कम प्राप्त है।
दूसरी बात यह भी है कि मोक्षमार्ग में – संसारके दुःखोंसे छुटाकर उत्तम सुख मार्ग स्वरूप तीर्थ के प्रवर्तनमें सुरेन्द्रका उतना उपयोग नहीं है जितना कि चक्रवर्तीका है। तीर्थकर भगवान् के उपदेशकी उत्पचि वृद्धि और रक्षा में गणधर देवके बाद यदि कोई बाह्य भयचर निमित्त कहा जा सकता है तो वह परम सम्राट् - चक्रवर्तीका ही पद है। यह सर्वविदित है कि district दिव्यवनिका निर्गम गणधर देवके बिना नहीं हुआ करता । यह एक प्रकार
९ -- एकैव समर्थेयं जिनभकिदु' गति निवारयितु' ! पुण्यानि च पूरयितु ं दातु मुक्तिश्रियं कृतिनाम ||
स्कि ॥
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লিঙ্কান্দা नियम है। यही कारण है कि भगवान महावीर स्वामीकी दिव्यध्वनिका होना ६६ दिन तक रुका रहा था। किन्तु यदि कदाचित् गणधरदेव न हों तो ? उस अवस्थामें इस नियमका अपवादरूप यदि कोई विकल्प है तो वह यही है कि चक्रवतीके उपस्थित होनेपर भी तीर्थप्रकृति
-भगवानकी दिव्य ननिका प्रारम्भ हो सकता है। जैसा कि आदि तीर्थकर श्रीऋषभदेव भमवानी दिव्यध्वनिका प्रकाश प्रथम सम्राट श्रीभरतेश्वर के प्रश्नके कारण ही हुआ था । पीछे उनके छोटे भाई पुरिमतालके राजा धृपभसेनन दीक्षा धारण करके प्रथम गणधरका पद प्राप्त किया था।
यो तो श्रीभगवज्जिनसेनाचार्यके एक वास्यस ऐसा भी मालुम होता है कि यदि कोई मणवरदेवकी उपस्थिति में भी उनसे प्रश्न न करके सीधा तीर्थकर भगवानसे ही प्रश्न करें तो यह भी कोई साधारण वातर नहीं है । फिर जिनके निमित्त तीर्थ की ही प्रवृत्तिका प्रारम्भ हो तो इस तरहका असाधारण दशादिशगमोहन्द्र जिसी सत्राचईओ कि गणधरकी समकक्षनाके पदपर प्रस्थापित कर देता है। इस तरहका महान श्राभ्युदयिक पद सम्यक्त्वक साहचर्यके मिना नहीं प्राप्त हो सकता। अतएव सम्यग्दर्शनके असाधारण ऐहिक महत्त्वपूर्ण फलोंको बताते हुए इस परम साम्राज्य पदका उल्लेख करना भी उचित ही नहीं, आवश्यक भी है । फिर सुरेन्द्रपदके बाद इसका वर्णन इसकी अधिक महत्ताको भी सूचित करता ही है।
तीर्थकर भगवान जब दीक्षाके लिये घरसे निकलते हैं नब सबसे प्रथम उनकी पालकी को भूमिगोचरी४ राजा उनके बाद विद्याधर नरेश और उनके भी अनन्तर अन्त में देवगन वहन किया करते हैं। इससे क्षत्रिय राजाओंके नियोगकी प्रधानता उसी प्रकार व्यक्त होती है जिस प्रकार कि उनकी मन्दराभिषेक क्रियाके अवसर पर प्रथम कलशोद्धार करनेवाले सौधर्मेन्द्रके नियोगकी। जब साधारण राजाओं को इस तरहका नियोग प्राप्त है वष जो मुकुटबद्ध राजाभोंका भी शासक है, अरिहंत भगवानके सम्पूर्ण अधिकृत क्षेत्रमें एवं उनके उपदेशकी प्रषिके संबंध में जो निग्रह अनुग्रह करनेमें समर्थ है, जिसके कि अनुयायी होनेमात्रसे प्रायः अनुकरचप्रिय सम्पूर्ण भूमिपर वीतरागधर्मका सहज ही प्रचार हो सकता है, जो स्वयं न्यायथर्मक स्त्रकके रूपमें वीतराग धर्मका ही प्रतिबिम्ब है, उसके महत्त्वका उल्लेख कहांतक किया जा सकता है ? जिसकी किन्यायपूण बाझ प्रवृत्तियां ही उसके सम्यग्दर्शनको स्पष्ट करनके लिये पर्याप्त मानी जा सकती हैं।
५- देखो आदि पु० ५० २४ श्लोक ८, ७ ! २-देखो श्रादि पु०प०२४ श्लोक १७२। ३—ाणेशमधयोल्लंध्य त्या प्रष्टु के इवाइकम् ! भको न गणयामीदमतिकिच मध्यते ।। १६५॥ आदि
पु० ५० ५। ४-पदानि सप्त तामूद्दुः शित्रिकां प्रथमं नृपाः। ततो विद्याधरा निन्युयोम्नि सा पदान्तरम् ।। ६८ स्कन्धाधिरोपितां कृत्वा ततोऽभूमविलम्बितम । सुरासुराः समुत्पेतुरारुवामयोदयाः ॥EE | भादि०५० {७।
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चन्द्रिका टोका भवतीसवां श्लोक राजा तो देव-धेत्य चैत्यालय आदि तथा देहधारी-समस्त प्राशियों की भी नियम से रक्षा किया करता है। परन्तु देव तो अपनी भी रखा नहीं कर सकते । भवएव राजा परदेववा' है। इस युक्तिके अनुसार जो न केवल राजा अथवा अधिराज ही है किन्तु सम्राट----समस्त पट् खण्ड भूमण्डलका रचक है, उसके परम साम्राज्यका कार्य क्या इन्द्र द्वारा शक्य है। नहीं। जिसके प्रतापसे प्रजामें सभी वर्ण सभा वर्ग सभी अर्थ और सभी आश्रम निर्विघ्नतया प्रवर्तमान रहा करते हैं उसका स्थान कितना उच्च है यह सहज ही लक्ष्य में भा सकता है। जिस प्रकार निःश्रेयस फलके प्रदाता प्राभ्युदयिक धर्मके उपज्ञ वक्ताका साथम स्थान है उसी प्रकार उनके उपदिष्ट धर्मका निरन्तराय और अपनी-अपनी योग्यताके अनुसार सभी पालन कर सकें और उसके इष्ट विशिष्ट फलको भी प्राप्त कर सकें इसके लिये यदि कोई जगत् में समर्थ है तो परम साम्राज्य ही है जिसके कि कारण निष्कारण या सकारण आक्रमण वर विरोध मात्मपन्याय एवं माधिदैविक आधिभौतिक आपत्तियों से प्रजाका हित सुरक्षित रह सकता है। यही कारण है कि ऐन्द्री जाति और सुरेन्द्रता नामक परम स्थानके अनन्तर तथा परमा जाति और भाईन्स्य परम स्थानके पूर्व अर्थात् दोनोंके मध्वमें विजया जाति एवं साम्राज्य नामक उस परमस्थानका आचार्य वर्णन करना उचित समझते हैं जिसका कि सट सम्यादानके फलस्वरूप काम हुमा करता है।
शब्दोंका सामान्य विशेष अर्थ
नवनिषि-सप्तद्वयरमाधीशा:-नव च ते निधयश्च = नवनिधयः । ससानां दुर्य । सप्तद्वयम् , सानि च तानि रत्नानि च सप्यास्नानि । अधिक ईश:-अधीशः नवनिषपश्च सप्तद्वयरत्नानि चमवनिथिसप्तद्वयरत्नानि, तेषामाशा: । अर्थात् नव निषि भौर दो तरहके सास-सात रत्न–चौदह रत्लोंके अधीश-मुख्य स्वामी हुमा करते है।।
काल महाकाल नै:सर्प पाय डुक पा माण पिंगल शंख और सर्व रत्नाइस प्रकार मागममें नर निधियां बताई गई है। इनमस काल नामकी निषिसे लोकिक शब्द भयोत व्याकरण कोश बन्द अलंकार आदि सम्बन्धी तथा अन्य भी व्यावहारिक एवं गायन वादन आदि विषयक शब्द उरसम हुआ करते हैं । महाकालसे असि मांस मादि पदकमका साधनमत दृष्यसम्पत्ति उत्पन्न हुआ करती है। नापंसे शय्या मासन मकान आदि और पाण्डकसन
१-रसस्पेषात्र राबाना देवान् देहभृतो पि ध । वेवास्तु नात्मनोऽप्येष राजा हि परदेवता ||
जन चू० ०१
२-मातुर्वण्य-बामण क्षत्रिय वैश्य शूद्र ॥ चतुर्वर्ग-धर्म अर्थ काम मोक्ष अर्थोऽभिधेयरवता
प्रयोजननिवृत्तिषु ।। इत्यमरः ॥ आश्रम-ब्रह्मचारी गृहस्थ बानप्रस्थ संन्यास । ३-पूर्व द्वितयमुभयं, यमलं युगल युगम् । युग्मं द्वन्द्वं यमं व पादयोः पातु डनयोः ॥२॥ नाममाला। ४- प्रादि समास । ५-कालाख्यश्च महाकालो, नैरसर्पः पाण्डुकाहयः। पद्ममाणवपिंगावी
रलपदाविका ॥३॥10. प. २॥
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बनकर श्रावकाचार
प्रकारके अन्य तथा छह रसोको उत्पत्ति हुआ करती है। पचनिधिसे रेशमी मूती आदि वस्त्र, पिंगलसे दिव्य आभरणोंकी, माणव निधि नीति शास्त्र और शास्त्रोंकी उत्पत्ति हुआ करती है। दक्षिणावर्त शंखनिधि से सुवर्ण, और सर्वरत्न से सर्व प्रकार के रत्नोंका लाभ हुआ करता है ।
मालुम होता है कि निधियोंकी यह संख्या जातिभेद उनके गुण धर्म और योग्यताकी अपेचासे ही हूं । संख्यात्री अपेक्षा नहीं। क्योंकि भगवान्के समवसरण में भी ये नव निधियां पायी जातीं हैं । समत्रसरण के प्रथम कोट - धूलिमालक गोपुरद्वारोंके मध्य में भी ये ही निषिय रहती हैं। परन्तु वहां पर प्रत्येक निथिका संख्याप्रमाण १०८ बताया गया हैं । इसपर से यह श्री संभव है कि चक्रवर्तीके भी इन निधियों में से प्रत्येकका प्रमाण एकसे अधिक हो ।
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रत्न शब्दके अनेक अर्थ होते हैं। यहां पर इसका अर्थ " अपनी-अपनी जातिमें उत्कृष्ट ३ ऐसा करना चाहिये । चक्रवतीं पाये जानेवाले ये रत्न कुल १४ हैं। जिनमें ७ चेतन और • अचेतन हैं । सेनापति (अयोध्या) गृहपति (कामवृष्टि) स्थपति (भद्रमुख) पुरोहित ( बुद्धिसागर ) हाथी (विजयपर्वत) घोड़ा (पवनंजय) स्त्री (सुभद्रा ) ये सात चेतन रत्न हैं। और चक्र (सुदर्शन) छत्र (वयप्रभ) दएड (थंण्डत्रे) खड्ग (नन्दक) कणि (मणि) चर्म (वज्रमय) और काकिणी ( चिन्ताजननी) । ये सात अचेतन रत्न ४ हैं ।
यों तो चक्रवर्ती की विभूति अपार है जिसका कि नामनिर्देश श्रादिपुराण में किया गया है । परन्तु यहां पर मुख्यभूत नवनिधि और चौदह रत्नोंका ही उसकी अधीश बताया गया है। अधीश शब्द अन्य ईशों— स्वामियोंकी अपेक्षा जिसमें अधिकता पाई जाय उसका बोग कराता है । अर्थात् चक्रवर्तीका प्रभुत्व उन सबके ऊपर है। क्योंकि जितने रत्न हैं वे सक एक-एक हजार देवोंसे रचित हैं परन्तु चक्रवर्ती उन सबका स्वामी तो है ही, साथ ही सोलह बजार गणबद्ध देवोंके द्वारा रक्षित है।
नवनिधि और चौदह रत्न, जिनका कि यहां उल्लेख किया गया है वे उपलक्षण मात्र हैं। इस कथन से विभिन्न नरेशों— भूमिगोचरियों और विद्याथर राजाओंके द्वारा तथा अधिकृत
१- इसके लिये देखो भा० पु० प० ३७ श्लोक ७५-८२ ॥ तथा देखो ति० परणसी अ० ४ गा० नं०७४० ॥ २--काल-महाकाल-पांडु- मानव-संखाय पउम बाइसप्पा | पिंगल-गाणारयणो अन्तरयहाणि विहि
पदे ॥ ७३ ॥ ति० प० ॥
३- आती जाती यदुत्कृष्टं उप्तद्रत्नमिहोच्यते ॥ ४- देखो आदि पु० पर्व ३७ ॥
-- यथा "रक्ष्यं वेदसहस्र ेण च दण्डश्च तादृशः । जयगमिदमेवास्य दुवयं शेषः परिच्छदः ॥ ३ ॥ आदि ० २८ तथा ३७-१८२ ।। ६ - षोडशास्य सहस्राणि गणबद्धामराः प्रभोः । ये युक्ता धृतनिस्त्रिंशाः निधिरत्नात्मरक्षणे ॥ १४५ ॥ आदि पु० प० ३७ ॥ गणनद्धदेवोंकी संख्या आदि पुराणमें १६ हजार बीर ति पणतीमें ३२ हजार बताई है " माद्धदेवभामा बत्तीस सहस्स साथ अमिषांमा
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चंद्रिका टीका अडतीमा भोक क्षेत्रके अधिपति व्यन्तरेन्द्रों एवं देवियों के द्वारा भेटमें आये हुये सब रत्नों प्राभूपों वथा प्रचुर दिव्य भोगोपभोगके साधनों आदिका भी संग्रह समझ लेना चाहिये।
सर्वभूमिपतयः-पान्ति रक्षन्ति इति पतयः । सर्वा चासौ भूमिश्च सर्वभूमिः = पसरवसुन्धरा । तस्याः पतयः सर्वभूमिपतयः।
न भूमि वसुन्धरा पृथ्वी आदि शब्द पर्याय वाचक हैं । सर्व शब्दमें उत्तरसे हिमवान और पूर्व दक्षिण पश्चिममें लवए समुद्रकी सीमा के अन्तर्गत जितनी भूमि है उतना प्रमाण समझना पादिये । गंगा सिन्धु और विजयार्थ पर्वतसे इस भूमिकै बह खण्ड हो गये हैं। चक्रवती इस सम्पूर्व भूमिका स्वामी हुआ करता है।
भूमि शन्द भी इस कारिकामें उपलक्षण ही है। जिस तरह मोवशास्त्रके अ०३ सूत्र नं० २७में आये हुए भरत ऐरावत शब्दोंका अर्थ तत्स्थ मनुष्य और उनके अनुभव साधु शरीरोत्सेध आदि किया गया है। उसी प्रकार यहां भी भूमि शब्दका अर्थ केवल पृथ्वी हीन करके शासन सिद्धान्त-अर्थशास्त्र४ अथवा राजनैतिक व्याख्याके अनुसार पर्वाश्रम धर्मका पालन करनेवाली प्रजा करना चाहिये । यद्यपि आकाश प्रदेश पंक्तियों के प्रमाणकी अपेषा वट्सएडभूमिका प्रमाण---चक्रवर्तक उपभोग योग्य क्षेत्रका प्रमाण सुनिश्चित है फिर भी उत्सर्षिणी अवसर्पिणी कालके प्रभावसे इस क्षेत्रमें वृद्धि हास हुमा करता है। किन्तु उसके अधिकृत क्षेत्र में प्रामादिककी संख्या जो निर्धारित की गई है वह नियत ही है ।
___यह शब्द मुख्यतया चक्रवर्ती धर्म पुरुषार्थको व्यक्त करता है। क्योंकि यह सम्पूर्ण प्रजाके हितका सर्वोपरि रक्षक है। अतएव इस शब्द का अथ समस्त प्रजाका पालन पोषण करनेवाला ऐसा करना चाहिये।
चक्रं ववितु प्रभवन्ति-चक्र यह एक दिव्य अस्त्र है। जो कि चक्रव के शस्त्रागारमें उत्पन्न हुशा करता है। इसमें एक हजार अर-फल हुमा करते हैं और एक हजार देवोंके
३॥ १३७५ ।। ति०प०॥ १-भूमिभूः पृथिवी पृथ्वी, गहरी मंदनी महो। " | ५ || . ना २-वि०प० गाथानं १०८, १७८ अ०४६ तथा राजवर्तिक १०३ स१० १०या०३ और उसका भाप्य । ३-- तयोः क्षेत्रयो दिवासी स्तः, असंभवात्। तत्स्थाना मनुष्याणां सद्धि हासी भवतः । किंकृतो घृद्धिद्वासौअनुभवायुःप्रमाणादिकृतौ । स० सि ॥ तातभ्यासा
दसिर्भरतैरावतयोखिहासयोगः। अधिकरणनिर्देशो वा ॥ तास्थानां हि मनुष्यादीनामनुः भवायुःप्रमाणदिकनौ वृद्धिासौ ॥ श्लो० वा० स०३ सू० २८, २९ ॥ ४-मोलिबाबा सू० ४-० तथा अ० १६ सू० ॥
देखो मा० पु०प०३७ । तथा तिलोय प० चतुर्थे महाधिकार । ६-हथियार तीन तरहके हुआ करते हैं। -अस्त्र, शत्र, श्री दिव्यास्त्र
--अर्धचकांके भी होता है। परन्तु प्रतिनारायण का उसके द्वारा बघ भी हुआ करता है। का पका पापोदय है कि अपने ही अस्त्रसे अपना ही घात दो। चक्रवर्ती के ऐसा नहीं होगा।
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रत्नकरराङश्रावकाचार
RAM
manner
द्वारा सुरक्षित रहा करता है । यह अपने योग्य भूमि पर विजय प्राप्त होनेको सूचित करनेवाला है | अतएव जब यह उत्पन्न हुआ करता है तभी चक्रपची उससे अपनी दिग्विजयके योग्य समयको समझ लेता है और उसकी पूजन करके तथा उसीको आगे करके दिग्विजयकी यात्राका प्रारम्भ कर देता है। यात्राकै समय चक्र सबसे प्रागे आगे आकाशमें गमन किया करता है और उसके पीछे पीछे चक्रवर्तीका पडङ्ग बल चला करता है इसके कारण ही यह चक्रवर्ती कहा जाता है। जैसा कि अनुगत अर्थको बतानेशले इस वायके द्वारा स्पष्ट किया गया है। क्योंकि वह चक्रवती के मध्य इच्छा और प्रभुन्धकी सिद्धिक साधनों में असाधारण ही नहीं प्रधान मी है। करण यह कि ययापे चक्रपीक विजयके साधन अनक है फिर भी उसका चक्रवर्तित्व इसी पर निर्भर है । शत्रु पर विजय प्राप्त करने में यह सबसे प्रबल अन्तिम और अमोष अस्त्ररूप साधन है । यह नारायण और पत्नशरीरको छोड़कर अन्य किसी भी शत्रु राजा पर चलाये जाने पर व्यथ नहीं जाता । प्रतिनारायणको भी इसकी प्राप्ति हुमा करती है परन्तु अन्त समयमें पुण्यक्षयका अवसर आने पर अपने विरोधी नारायणके द्वारा अपने ही इस सुदर्शन चक्र के द्वारा वह मृत्युको प्राप्त हो जाया करता है। किन्तु यह बात चक्रवर्गाके नहीं हुआ करती । उसका पुरुष विशिष्ट सातिशय हुश्रा करता है।
वर्तयितुम्-खिजन्व इत् थातुसे कदन्तकी तुम् प्रत्यय होने पर यह शब्द बनता है। अपूर्वक भू थातुस धर्तमान अन्न पुरुष बहुवचनमें प्रभवन्ति क्रिया पद बनता है। दोनों पदोंका मिजकर अर्थ होता है कि चकाची उम्र पकको यनिय स्वयं समर्थ छुआ करतारे है।
स्पष्टदशः-स्पष्टा दृक् येषां ते स्पष्टदशः । अर्थात् जिनका सम्पग्दर्शन स्पष्ट है। स्पष्टतासे मतलब विशदता-निर्मलता अथवा जो सवै साथारणको समझमें पा सके, ऐसा लेना चाहिये। सम्यग्दर्शनकी स्पष्टता प्रथम संपेग अनुकम्पा और आस्विक्यके द्वारा दुश्रा करती है। किन्तु ये भी अन्तरंग भाव हैं । असंपत सम्पग्दृष्टिसे लेकर प्रमवतंयत तक सम्यम्वका ये ही तीन गुणस्शनवाले प्रशमादिके द्वारा अनुमानसे ज्ञान करसकते हैं। क्योंकि सम्यक्त्वके साहचर्य से प्रशमादि भावों में और प्रशमादिक साहचर्यके कारण मन वचन कायकी प्रतिमें पूर्व विशिष्टता माये बिना नहीं रहा करती। फिरभी यह सूक्ष्म विशिष्टता असंयतादि तीन गुणस्थानवालोंक ही बुद्धिगोचर हो सकती है । अतएव यह शब्द सम्यक्त्वके सहचारी उस तपरचरण विशेषका बोध कराता है जिसके कि निमिवसे चक्रवर्तित्वके योग्य प्रसापारण उच्चैर्गोत्र आदि पुस्य प्रतियांका बन्ध हुपा करता और सम्यक्त्वका स्पष्टीकरण होता है।
१-हाथी घोगा स्थ पदाात देव विद्याधर । २-चक्र वर्तते सम्राट् रयत इति स तत वर्तयते तथा वर्तयितुम् ।
३-३: स्वसावदितः सूचमनोभान्ताःस्वाँ रशं विदुः । प्रमत्तान्तान्या तज्जवाचेष्टानुमितेः पुनः ॥४॥ भन० ०२॥
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mann-Innapuleenrnnn
গৰি পৰা অকাৰী ধী इन्द्र पदके लिये योग्य पुरयायु आदिका बन्ध जिस प्रकार प्रत संग्रम तप आदिसे युक्त जिनेन्द्रभक्ति के निमित्तसे हुआ करता है उसी प्रकार विनयपूर्ण वैयारम तथा प्रायश्चित
आदिसे युक्त प्रत संयम तपके निमिससे जिनका सम्यग्दर्शन स्पष्ट है उन्हीं जीवोंको चक्रवसित्व के योग्य पुण्य कर्म विरोपोंका- असाधारण उच्चोत्र आदि कर्मोका बन्ध हुआ करता है। इसी आशयको "स्पष्टदृशः" शब्द स्पष्ट करता है |
क्षत्रमौलिशेखरचरणाः । चतान् ब्रायन्ते इति क्षत्राः१ –राजानः । तेपां मौलयः इति क्षत्रमौलयः । शेखर इव परणे इति शेखरचरण । क्षत्रमालिपु शेखरचरणो येपाम् ।।
क्षण यातुका अर्थ बथ करना या मारना होता है। चत शब्दका अर्थ जो किसीके द्वारा मारा गया है अथवा मारा जा रहा है ऐसा होता है। ऐसे व्यक्तिका जो वाण-रक्षण करनेवाला है उसको कहते हैं क्षत्र । यह वा शन्दका यौगिक-निरुक्त्यर्थ है । किन्तु रूदिवश इसका अर्थ घत्रियवर्शका व्यक्ति अथवा प्रजाका पालक राजा हुआ करता है मौलि शब्दका अर्थ मुकुट और शेखर शब्दका अर्थ मुकुटके कारका फूल होता है । मतलब यह कि उस चक्रवर्तीके चरण उन क्षत्रिय राजाओंके मुकुट के ऊार फलका काम किया करते हैं। मौलिसकट शब्द साथमं रहनेसे क्षत्रिय राजाओं में भी मुकुटबद्ध राजा अर्थ समझना चाहिये । क्योंकि ३२ इजार मुकुटबद्ध राजा उसकी सेवा किया करते हैं। उन राजाओंके मुकुटके ऊपरके फूल चक्रवर्धाके चरणोंमें रहा करते हैं, ऐसा भी इस वाक्यका अर्थ हो सकता है।
तात्पर्य यह कि जिसतरह तीर्थकर कुलकर नारायण प्रतिनारायण बलभद्र कामदेव अथवा गणथर इन्द्र आदि आभ्युदयिक पदोंका लाभ भिन्न भिन्न कारणोंसे हुआ करता उसी प्रकार चक्रवात पदके विषय में भी समझना चाहिये। जिसका सम्यग्दर्शन विविध तप.
चरणोंके द्वारा स्पष्ट----विशद तथा कृतिद्वारा बद्धिगम्य बन जाता है उसीको उन तपश्चरणों के निमित्तसे अनेक अतिशयोंसे युक्त ओर सवोत्कृष्ट भोगोपभोग आदिके साधनोंसे पूर्ण यह पद प्राप्त हुश्रा करता है।
बह खण्डवी समस्त देवों और मनुष्योंमें जितना बल है उतना बल इस चक्रवर्तीकी दोनों भुजाओं में रहा करता है । उसकी दृष्टि---चक्षुरिद्रिय सूर्यविमानमें स्थित जिनबि
१-नतास्किल त्रायत इत्युद्रमः क्षत्रस्य शब्दो भुवनेषु रुदः॥ रघुवंश । "क्षद्भ्यो दोभ्यस्त्रायन्ते रचम्ति इति क्षत्राः राजानः इति पं० गोरीलाल जी कृता निरुक्ति
" -क्षत्राणां मौलय इति क्षगमालयः तेषां शेखराणि इति क्षत्रमौलिशेखराणि । तानि परणेषु येश ते इतिनिरुक्त्या राजानस्तषां मौलयो मुकुटाः तेषु आपाठाः शेखरा तानि धरणेषु येषामिति प्रभाचन्द्राचार्याः
३-मुकुटबद्ध राजाका लदाण देखो ति० पगा० नं०४२ / तथा धवला १-३६!
४-आदि १८३७-३० । यदते चक्रोशतिना भूसुधाशिनाम् । ततोऽधिकगुणं तस्य बभूव भुजयोबलम् ॥२१॥ मा० ५० १५
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रलकाण्डनावकाचार का दर्शन करने में समर्थ रहा करती है जिसका कि विषयक्षेत्र सबसे अधिक-सेंतालीस हजार दोसौ सठ योजन से कुछ अधिक बताया गया है । उसका शरीर एक कम छयान। हजार दूसरे वैक्रियिक शरीरोंका निर्माण करनेमें समर्थ रहा करता है जिनके कि द्वारा यह एक साथ सम्पूर्ण छयानवे हजार रानियों के साथ रमण कर सकता है। बजवषमनाराच संहनन, समचतुरस्र संस्थान आदि पुण्य प्रकृतियों के उदयसे अभेद्य अच्छेब सुन्दर शरीरसे विभूषित रहा करता है । सोलह हजार गणबद्ध देव जिसकी रचा किया करते हैं। कवय क्रिया
ओंमें से जो पांचवें परमसाम्राज्यका भोक्ता है । सम्यग्दृष्टियोंको प्राप्त होनेवाली चार जातियोगसे जो विजया जातिसे युक्त रहा करता है। इत्यादि अनेकों अतिशयका लाम चिना उनके कारणभूत विशिष्ट तपश्चरणोंके तथा उनसे उधोग्य पुण्यकर्मोकी प्राप्ति हुए बिना नहीं हो सकता । विशिष्ट बलकैलिये वीर्यान्नाय और भोगोपभोगकेलिये भोगान्तराय उपभोगान्तराय, असाथारण सम्पचि आदिके लाम केलिये लामान्तराय, तथा कल्पद्रुमर पूरन और पटा मजाको अभयदानालय दामान्तराय जैसे पापकर्मोंका तीन क्षयोपशम भावश्यक है। साथ ही उसतरह असाधारण शक्तियुक्त सातादनीय उच्चगोत्र एवं नामकर्मकी परय प्रकृतियोंके उदयके विना भी उन विषयोंका लाभ नहीं हो सकता। और न उन पापकोका चोपशम तथा उन पुण्यप्रकृतियोंका बन्ध विना सम्पावसहचारी प्रायश्चित्त विनय
यापत्य आदि अन्तरङ्ग और अनशन भवमौदर्य रसपरित्यागादि बाह्य तपश्चरणके हो सकता है। इस कार्य परंपरा के द्वारा उसके सम्यग्दर्शनका माहात्म्य स्पष्ट होजाता है। यपि यह ठाक है कि स्वयं सम्यग्दर्शन बन्दका कारण न होकर भोपका ही कारण है । फिर भी शहधात भी उतनी ही सत्य है भीर स्पष्ट है कि उसके साहचर्यले विना तयोग्य पुण्यकर्मों बन्धमें कारणभून शुभ सरागभावाम उस तरहकी असाधारण विशिष्टता नहीं पा सकती। यही कारण है कि चक्रवर्तीका वह सातिशय पुण्य उसके सम्यग्दर्शनको स्पष्ट कर देता है।
इस अवसर पर यह प्रश्न हो सकता है कि चक्रवर्तीके असाधारण पुण्य फलको बताते हुए नव निधि और १४ रत्वोंका उल्लंख किया है। किन्तु उसके मन्त्रियोंका कोई नामोनख नहीं है. इसका क्या कारण है ? साधारण राजाका स्वरूप भी अठारह प्रकारकी प्रकृतिका प्राधिपत्य३ बताया है। जिसमें कि मन्त्री प्रमागकी भी गणना४ कीगई है ! फिर जो राजाधिराज
१-गोम्मटमार जीव गा० नं १६५।
५-किच्छियोन दान जगदाशाः प्रपूर्य सः । पक्रिभिः क्रियते मोऽहयक्षः कल्पद मो मतः ॥२८॥ सागार अ०२।
३- पचला, गा० १-३६ ॥ ५-देखो तिक प. गा०४३, ४४ । तथा धवला १-३७, ३८, ३६ ।
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चन्द्रिको टीका महनीमा श्लोक -सम्राट है क्या वह १८ प्रकारकी प्रकृतिमा लामित्व नहीं रहता प्रिया उसके लिये अठारह प्रकारकी प्रकृतिमें मंत्री और अमात्य परिगणित नहीं किये गये हैं।
उचर-मंत्री और अमात्य चक्रवर्तक भी रहा करते हैं। परन्तु उनको रत्नों में नहीं गिना है। केवल चक्रवर्तीके विचारमें सहायक होते हैं। किये जानेवाले कार्यके विषय में वे योग्य अयोग्यका परामर्श करने में केवल अपने बुद्धिबलमे सहायता करनेवाले हैं। वे किसी मी कृतिकर्म को स्वयं करनेवाले नहीं हैं। किन्तु जो रन-चेबनरल हैं चे चक्रवर्तीकी आज्ञानुसार काम करनेवाले हैं। इस प्रकार दोनों में बहुत बड़ा अन्तर है । एक ती केवल सम्मति या परामर्शमाअको देने वाले हैं और जो रन हैं वे सब उस सम्मत कार्ययो निष्पन्न करनेवाले हैं। दूसरी बात यह भी है कि जिस तरह ये रख आज्ञाका पालन करते हैं उसतरह मंत्रीगण प्राज्ञा का पालन नहीं करते। क्योंकि उनका वर्तव्य केल राजाके हिताहितके साथ ही बन्धा हुआ नहीं है, प्रजाके हिताहित के साथ भी सम्बन्धित है। मतलब यह कि मंत्रीगण राजा और राज्यके साथ साथ प्रजाके भी हिताहितका प्रतिनिधित्व करते हैं । इस तरह विचार करनेपर रनोंकी अपेक्षा मन्त्रियों का कार्य अधिक महान् कठिन और गुरुकर भा१ है । रनोंका उद्धोख वो उसके पुण्य फलका प्रतिशय बताना है। जिससे मालुम होता है कि उसके भोगोपभोग इनके निमित्तसे उसकी इच्छाके अनुकूल और सहज ही सिद्ध हो जाया करते हैं । अतएव ये मोगोपभोगक अथवा धर्म अर्थ और काम पुरुषार्यक असाधारण साधन हैं।
ऊपर कहा गया है कि भूमि शम्द उपलक्षण है । अपव उसका अर्थ वर्षा स्मधर्मवती प्रजा करना चाहिये । सो क्या जहाँकी प्रजा वर्णाश्रम धर्मका पालन करनेवाली नहीं है यहाँ कोई राज्य व्यवस्था नहीं है ? यदि नहीं है तो आगममें धर्मकर्मसे रहित म्लेच्छोंकर भी राज्यों का जो उल्लेख पापा जाता है क्या वह मिथ्या है ? अन्यथा केवल वर्णाश्रमवर्मके पालन करने वाली प्रजाके पालनको ही राज्य कदना फयुक्त आगमाविरुद्ध अथवा मिथ्या क्यों नहीं कहना चाहिये।
उचर--ध्यान रहे यह प्रकत विषय परममाम्राज्य नामक परमाथानसे सम्नन्धित है। जिस तरह कोई भी मनुष्य क्यों न हो जहांतक "मनुष्यगति मनुप्य आयुका उदय जिनके पाया जाय उनको मनुष्य कहना चाहियं" इस लक्षर पर दृष्टि रखकर विनार किया जाय तो वह मनुष्य ही है। परन्तु विचारशील व्य क्तयोंने उस प यकी वास्तविक सफलता पर और हित पर दृष्टि रखकर धर्महीन मनुष्यको पशुतुल्य३ कहा है। इसी तरह जहाँ पर्णाश्रम धर्मकी रक्षाका लक्ष्य
१-प्रजाविलोपो नपतीच्या चेन् प्रजेच्छया चाचरिते स्वनाशः ॥ इत्यादि । यशस्तिलक २-चर्मकर्म यहिता त इमे माच्छका भताः ॥ शेषैरन्यैः समाचाररार्यावर्तन हे ममा मादि प०
३१-१४२। ३-धर्मेण हीनाः पशुभिः समानतः । कोफनीति
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ranniranatmannaadARAamaAmAAAIIM
३७२.
रत्नकरण्डाकाचार नहीं है उस राज्यको प्रजाके प्राणादिके संरक्षणकी व्यवस्था का एक प्रकारमात्र अवश्य कहा जा सकता है। परन्तु वह धर्मराज्य नहीं है-वह परम स्थान नहीं है। ऐसे राज्योंकी अपरमस्थानताको व्यक्त करनेके लिये ही प्रास्तिक आचार्योंने कहा है कि "अन्यथा पुनर्नरकाय राज्यम् ? " | परम साम्राज्य परमस्थानका प्रयोजन चातुर्वर्ण्य और चातुराश्रमिक व्ययस्थाका संरक्षण करना है। जो कि मोन पुरुषार्थकी सिद्धिका एक बलवान असाधारण साधन है। गृहस्थावस्था में धर्म अर्थ काम इन तीनों पुरुषार्थीकार अथवा धर्म अर्थ और यशः इन तीनों पुरुषार्थोंका अविरोधेन सेवन करना भी धर्म माना गया है। परन्तु वास्तबमें यह धर्म तभी माना जा सकता है जबकि वह मोक्ष पुरुषार्थके अविरुद्ध हो जिसका कि प्रत्यक्ष साधन वर्णाश्रमव्यवस्था है । अतएव जिस राज्यके द्वारा इस व्यवस्थाका संरक्षण होता ई वास्तवमें यही परम साम्राज्य है । जी वैसा न करके मानव प्रकृतिको म्लेच्छाचारसे अभिभूत होने और माचार विचारमें पशुतुल्य होते जानेसे रोकने में असमर्थ है तो वह किंराज्य है। और यदि वह उसमें प्रेरक होता है तो यह सद्धर्म राज्य नहीं--पशुराज्य है। क्योंकि गुण रचणीय हैं और जो गण जितना अधिक महान असाधारण अद्भुत एवं स्वपरके लिये हिवरूप है वह उतना ही सर्वप्रथम आदरणीय तथा सर्वात्मना रक्षणीय है। जो राज्य उसकी होता कामा गइ ) ही जनपदकी उपेक्षा करता है।
चक्रवतीक श्राभ्युदयिक पदकी महत्ता सर्वाधिक है। सीर्थकर और अरिहंतके सिवाय संसार में और कोई भी प्राभ्युदपिक पद इसकी महत्ताका अतिक्रमण नहीं कर सकते । जितने भी मटबद्ध राजा है ये सभी इसकी सेवा किया करते हैं। चक्रवर्तीको वे अपनी-अपनी कन्या माहि सार वस्तुएं भेंटमें देकर सम्बन्ध स्थापित करके भी उसकी भामा शिर पर धारण करते और उसका पालन किया करते हैं।
समयका उनके लिये यही आदेश और उपदेश हुआ करता है कि राजाओंका कर्तम्भ कि १ कुल पालन २ महिपालन ३ आत्मपालन ४ प्रजापालन और ५ समंजस्वर इन पांच करच्योका अवश्य पालन करें । कुलोको भ्रष्ट न होने दें, सज्जातित्वका नाश न होने दें। पतिविवेकशक्तिको नष्ट न होने दें-म्लेच्छादिकों की शिक्षा दीक्षा संगति आदिके द्वारा प्रजाको
१-नीतियाक्यामृत समुद्देश ६ सूश ४४ । २--धर्मार्थकामफलाय गन्याय नमः ॥ नीति वा० मंगल ।
३-धर्म यशः शर्य स सेवमानाः कंप्येकशी जषिदुः कृतार्थम् । १-१४ सा०प०। ४-जनस्य वर्णाश्रमलक्षणस्यद्रव्योत्पत्तेर्वा पदं स्थानमित्ति जनपदः ॥ १८- नी० वा०। ५-प्राज्ञापन प्राप्त होने पर प्रथम शिर पर धारण करके फिर खोलकर पहनेकी पद्धति है। ६-अपक्षपातिनी वृत्ति।
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न्द्रित टीका उनतालीखां श्लोक
२७३ आर्यत्वहीन एवं जवादी न बनने दें, स्व एवं पर शरणागत आदि सबकी अपायसे रक्षा करें, योगक्षेमके ? द्वारा प्रजाका पालन करें, और प्रजा में मात्स्यर न्याय प्रवृत्त न हो इसके लिये fare अनुग्रह करने में समर्थ योग्य न्याय और दण्डका ठीक ठीक उपयोग करें । यही क्षत्रियोंका कर्तव्य हैं और धर्म है। तथा यही उनका प्रजाके चतका त्राण है। अपने इस कर्तव्यमें यदि वे राजा लोग असावधानी रखते हैं तो चक्रव बैंक द्वारा वे उचित दण्ड एवं निग्रहके पात्र हुआ करते हैं। चक्रवर्ती इसी तरहकी आज्ञा पालन करने वाले ३२ हजार आर्यदेशोंके पित मुकुटबद्ध राजाओंकी संख्या भी ३२ हजार है ।
तीर्थकर भगवान् श्रधे अर्थात् ३२ चमर जिसपर ढोले जाते हैं ऐसे इस चक्रवर्तीका ऐश्वर्य अत्यन्त महान् है । जी कि उसके स्पष्ट सम्यग्दर्शन सहचारी तपाविशेयोंके निनिच से संचित सातिशय एकमेकिं उत्यने इस लब्ध अभ्युदय की असाधारण महिमाको प्रकट करता है। साथ ही उसकी प्रभुवाशक्ति मी अपूर्व हो है। यद्यपि उसका चक्र स्वयं ही प्र मान होता है फिर भी उसका प्रेरक तक कभी वह प्रवाशक्ति दी है जिसको कि चक्रवर्तीन्द्रका निरुक्त्यर्थ बनाते हुए आच वने किया पदके द्वारा व्यक्त कर दिया है। विचार करने पर मालू होता है कि आचार्यने य पर इस बात को अभिव्यक्त किया है कि सम्यग्दर्शन के प्रतापस यह जीव इस तरहक परम साम्राज्य पदक प्राप्त किया करता है जिसके कि फलस्वरूप न काल वह थ हा असाचार वन अथ काम का अविशेवेन सेवन करके अपनेको मोचमार्गमें अग्रसर बना लवः है, मानक निकट पहुंचा देता है । त प्रजा में भी न्याय के रूपमें वीतराग धर्मका प्रवर्तन संरक्षण एवं संवधन करक न केवल ऐहिक रक्षा दी किया करता है किन्तु उसे उत्तम मुखके-परमस्थान मुक्ति प्राप्त कर सकने में भी सहायक हुआ करता है ।
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सम्यग्दर्शन के फलस्वरूप ही परम साम्राज्य की तरह किन्तु उससे भी उत्कृष्ट भाafe पद पर यह भी प्राप्त हुआ करता है, यह बात आचार्य बताते हैं । मरासुरनरपतिभिर्यमधरपतिमिश्च नूतपादाम्भोजाः ।
दृष्टया सुनिश्चितार्थी वृषवकधरा भवन्ति लोकशरण्याः ॥३६॥ अर्थ-दृष्टि-दर्शन विशुद्धिके द्वारा अर्थका भले प्रकार निश्चय करलेनेवाले सम्यदृष्टि जीव धर्म के धारक और लोकके लिये शरण्यभूत हुआ करते हैं। तथा उनके चर
१--बी अपने राज्य में नहीं है इसके संग्रहको योग और जो है उसकी सुरक्षा तथा वृद्धिको क्षेम कहते हैं। २ – वलवान दुर्बलं ते इति मात्स्यन्यायः ।
३-ति० प० गाथा नं० १२६२, १३६३ ।
४- पं० भूधरदासजीने पुरुषार्थसिद्धयुपायकी टीका में प्रथम तीन कल्याणक ही अभ्युदय शब्द
खेमाने है ।
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कवकाचार
-गयधर
कमलों की शुर असुर और न पतियोंके द्वारा ही नहीं अपितु संयमी साधुओंके स्वामी --- देवोंक द्वारा भी स्तुति की जाती है ।
प्रयोजन सम्यग्दर्शनके निमिचने गप्त होनेवाले सभी तरह फलोंकी जब माचार्थ संचेपमें बता रहे हैं तत्र यहां पर परमस्थानों के लाभकं प्रकरणमें संसार में सर्वाधिक महान मानेगये
म्युदयिक पदके लाभके विषयमें उल्लेख न करने पर प्रकृत वर्णन अवश्य ही अत्यधिक अन्यात दोपसे दूषित माना जा सकेगा । आए। यह अत्यन्त उचित और आवश्यक है कि सम्यक्त्वकं साहचर्य से मिलनेवाले उस आभ्युदरिक पदका निर्देश आवश्य ही किया जाय जो कि न केवल सम्यक्त्वका महान् पक्ष ही है प्रत्युत स्व-पर दोनों को ही परमनिर्वाण के लाभ में असाधारण कारणभूत सम्यग्दर्शन की प्रादुर्भूतिके लिये अथवा रत्नत्रयकी सिद्धिकं लिये बीज एवं जनक भी है।
यह एक लोकोकि है कि ' अपुत्रः १ पितृणामृणभाजनम्" । इाका प्राय यह है कि यदि कोई मनुष्य पुत्रको उत्पन्न किये बिना ही अथवा कुटुम्ब व्यादिकी भविष्य के लिये समुचित व्यवस्था किये बिना ही दीक्षित अथवा लोकान्तरित हो जाता है तो वह अपने पूर्वजोंका ऋणी है। क्योंकि वह उनके द्वारा अन्वयदचिके? रूपमें प्राप्त अधिकार एवं कर्तव्यके प्रति दुर्लल्य करके उनके प्रति तथा धर्मपरम्परा के प्रति आवश्यक उत्तरदायित्वको नहीं निभाता ।
१- श्री सोमदेव सूरीकं नीति वाक्यामृतका यह ० ५ का १३ नंबरका (मुद्रित प्रति) सूत्र है। यह प्रम्ध सामान्यतया सभी सद्गृहस्थों के लिये व्यवहार योग्य नी तका मुग्न्यतया राजाओंके लिये राज्यसे सम्बन्धित राजनीतिका वर्णन करनेवाला है । लोकमें यह जो कहा जाता है कि "अपुत्रस्य गतिर्नास्ति स्वर्गे नैव च नैव च" । सो यह तो एकान्तवादरूप अयुक्त अप्राय एवं अप्रमाण बद्धान्त है। परन्तु प्रकृत सूत्रका ऐसा आशय नहीं है । यह तो उचित और श्रावश्यक व्यवस्था की दृष्टिले कहा गया है । प्रथमानुयोगमें अनेक कम के द्वारा इसके आशय और दृष्टिकोणको समर्थन प्राम है। वजन चक्रवर्ती ने पुत्र पौत्रोंको राज्य भाग करनेके लिये कहा, परन्तु उन्होने नेता न करके सहदीक्षित ही होना चाहा; तथ एक स्तनन्धयपौत्र को राज्याधिकार देकर ही उन्होंने दोक्षा धारण की थी । 'आदि पु० १०८) तथैव मत्रियोंके समझाने पर उतराधिकारीको नियुक्त करके ही पूर्वकालीन राजाओं ने किस तरह राज्यका परित्याग किया इसके लिये दृष्टान्तरूप कथाओंसे देखो बुरन्दर - कीर्तिघर — सुकौशलकी कथाएं । प० पु० प० २९, २२ । इत्यादि ।
२ - आगम में बताई गई ४ प्रकारको दर्शियों में (सागा० १- १८ ) से यह एक है। इसके सार अपने सभी धर्म कर्म पालन पोषण विषयक अधिकार तथा कर्तव्य विधिपूर्वक पंचोंके समक्ष पोम्पुत्र या लक्ष्य व्यक्तिके ऊपर छोड़ दिये जाते हैं। तत्पश्चात उसका भी वही कर्तव्य होता है। यहाँ पर श्लोक भी स्मरणीय है कि - बिना सुपुत्र कुत्र एवं म्यस्य भारं निराकुलः । गृही सुशिष्य गणित प्रोत्सहेत परे पषे ॥३१ सागर० म०३ ।
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चन्द्रिका टोका उनतालीसवां श्लोक
यही बात प्रकृतमें भी समझनी चाहिए। अन्य सम्यग्दृष्टियोंको जो सम्यक्तके प्रसादसे फल प्राप्त होते हैं अथवा ऊपर कहे अनुसार श्राभ्युदयिक पदोंकी प्राप्ति होती हैं उनका पुरुष प्रयोजन स्वोपकार तक ही सीमित है । परोपकाररूप उनका फल यदि है भी तो वह गौण ही नहीं, अनियत भी है। परन्तु यही एक सम्यग्दर्शनका ऐसा श्राभ्युदयिक पदरूप छल है जिसके कि ऊपर सामान्यतया कुछ मनुष्यों का सीमित हित साधन कर देना मात्र नहीं अपितु सीन लोकके सभी प्राणियोंका कन्यामा करना और नियम रूपसे करना तथा अनन्त अयात्राथ कल्याणको भी संरक्षण प्रदान करना नियमित रूपसे निर्भर है। इस उत्तरदायित्वक कारण प्रकृत अभ्युदयिक फलका मूल्य सर्वाधिक होजाता है। जिस प्रकार अनेक पुत्रोंके रहने पर भी जा कुलको विश्रुत बना देता है वही गणनीय हुआ करता है । अथवा जो राज्य और प्रजा दोनोंके हितको सिद्ध करके सबका अनुरंजन करनेकी सामर्थ्य रखता है वही राज्य का अभिकारी हुआ करता है । अनेकानेक शिष्योंके रहते हुए भी जो संघका समुचितरूपसे संचालन करने की योग्यता रखता है उसीको श्राचार्य पद पर प्रतिष्ठित किया जाता है । उसी प्रकार प्रकृतमें समझना चाहिये। जिसका सम्यग्दर्शन कुछ विशिष्ट योग्यताओंसे युक्त होता है वही व्यक्ति इस तरहके आभ्युदयिक फलको प्राप्त किया करता है जिसके कि कारण विचित कन्या रूप धर्म की संतति विच्छिन्न नहीं हो पाती क्योंकि सम्यग्दर्शनका यह फल अन्य फलों के समान नहीं अपितु नीर्थकर पद स्वरूप है जिसके कि निमित्तसे निश्चित ही तीर्थ की प्रवृत्तिसम्यग्दर्शनादि बोधरूप धर्मकी पुनः संदति प्रचलित हुआ करती है। इस प्रकार मोक्षमार्गक कुलाबलम्बी पुत्र के समय इस श्रभ्युदय का लाभ भी सम्यग्दर्शनके प्रतापसे ही हुआ करता है, यह बताना ही इस कारिकाका प्रयोजन है।
सम्यग्दर्शनका वास्तविक अंतिम फल निर्वाध – संसार के दुःखोंसे छुटाकर उत्तम सुख --- पर मनिःश्रेयसपदका लाभ ही है किन्तु जब तक वह प्राप्त नहीं होता तब तक मध्य प्राप्त होनेवाले संसार के सम्मान्य सुख स्वरूप पहोंने यह अंतिम एवं सर्वोत्कृष्ट पद है जैसा कि उसके आगमोक्त प्रभुत्वके? द्वारा जाना जा सकता है। फिर भी भाश्चय है कि सम्यग् जीव इस पदको भी अपना साध्य — अन्तिम लक्ष्य पद अर्थात् शुद्ध स्वगद नहीं मानता है । restraint विषय तो वहीं पद है जिसका कि इसके बाद वर्णन किया जायगा । और जिसक कि अनन्तर और कोई पद नहीं है ।
समान्य कुटुम्बं विभर्ति ॥ तथा परमेकः कुलालम्बी या विषये
3.ok
एक
पिता ॥ इत्यादि ।
२- तित्भयराण पहुतं हो बलदेवकेमवा च । दुरख च मत्रिशो 'तरिय वै परमाग परसाई तेजी दिली माणं इझूटी सोक्ख तत्र ईनग्यांसह जस्स सो अरि ॥ ३- नित्ययरं सपयत्थं अधिगतमुद्धिस्स सुफाभिस्त । दूस्वरदा राजभर पर foll
पंचारिका ।
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mmRAMAmrhannr
रत्नकरण्डश्रावकाचार संगारमें जितने आभ्युदयिक पद हैं वे सब सीमित हैं । राजास लेकर चक्रवतिकके पदोंका, बल सीमित अधिकारक्षेत्र सीमित, श्राशा ऐश्वर्य सीमित कार्य सीमित और फल भी सीमित ही है । मानवेन्द्रोंके सिवाय यदि सुरासुरेन्द्रों के विषय में विचार किया जाय तो उनका भी बल अधिकार कार्य और फल, द्रब्य क्षेत्र काल भावकी अपेक्षा सीमित ही है। यदि सराग व्यक्तियोंको भी छोडकर वीतराग यतीन्द्रोंकी दृष्टिसं देखा जाय तो उनका भी बल शक्ति अधिकार कार्य और फल प्रायः सीमित ही हैं। यधपि गणीन्द्रोंका कार्य और फल कदाचित् निःसीम अथवा अनन्त कहा जा सकता है फिर भी यह तो निश्चित है कि वे उपजीव्य नहीं उपजीवकती हैं, उनकी शक्तियां और योग्यताएं जो कार्य करती हैं उनके विषयमें वे एकान्ततः स्वतन्त्र नहीं हैं। उनकी शक्तियें एवं योग्यताओंका कार्य-जीवन दूसरोंसे-तीर्थकर भगवान्स प्राप्त अर्थपर ही निर्भर है। यद्यपि संसारके सभी आभ्युदयिक पद कथंचित् स्व और पर दोनोंकी दृष्टि से हितरूप भी कहे और माने जाते हैं, तथा है भी। किन्तु यह भी सुनिश्चित है कि वास्तव में इस कारिकामें वर्णित म्युदायिक पद ही एक ऐसा पद है जो कि अपनी सभी योग्यताओंके विपयमें न केवल अतुलता और अनन्तताको ही रखता है प्रत्युत अपने कृस्पक विषयमें सर्वथा स्वतन्त्र अनुपम अपूर्व और द्रव्य क्षेत्र काल भाव चारों ही दृष्टियो अनन्त भी है।
इस अवसरपर यह बात भी पान में रखने योग्य है कि इस पदका यहां वर्णन करनेस कई आवश्यक प्रन भी हल होजाते हैं। संसारमै जिने भी सैद्धान्तिक दार्शनिक अथवा धार्मिक ग्रन्थ पाये जाते हैं उन के मून उपज बक्ताओं को दो भागों से यदि किसीभी एक भागमें रख लिया जाता है तो उनकी प्रामाणिकता-स्वतः प्रामाएपके विषयमें उपस्थित होनेवाले प्रश्नका कोई भी सतोषजनक उच: नहीं मिलता । यदि उनका बक्ता भस्मदादिके समान सराग एवं अल्पज्ञ है तो सष्ट है कि प्रकृत लोगों के वचन के ही सदृश होनसे उसके ये वचन भी स्वत: प्रमाण नहीं मान जा सकत । इसके विरूद्र उनका पेसा वक्ता यदि कोई अशरीर पीवराग सर्वज्ञ ईश्वर है एसा माना जाप तो यह मान्यता मी असंभव होनेसे प्रमाण नहीं मानी जा सकती । क्योंकि वचन मूते जड़ है और ईश्वर अमृते चेतन है। अमूर्तसे मर्व और चेतनसे जडरूप कार्यकी उत्पत्ति नहीं हो सकती । फलतः मूलवस्ताकी सिद्धि युक्तियुक्त मरहने के कारख के सैद्धान्तिक अथवा धार्मिक वर्णन भी स्वतः प्रमाण नहीं माने जा सकते। ऐसी अवस्था में प्रकृत अन्धकी अप्रामाणिकताका परिहार और उसके स्वतः प्रामाण्यकी प्रसिद्धि लिये यह अत्यन्त आवश्यक है कि उमफे मूल-उपज्ञ वक्ताका ऐसा स्वरूप बताया जाय बोकि इन दोनों दोषोंसे रहित होने के सिवाय वास्तवमै वचनकी स्वतःप्रमाणताके लिये उचित
१- व रमा अमन पराग और नरपड अथवा मशरीर सडवीतरागा.
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चन्द्रिका टीका उनतालीमवा श्लोक एवं प्रावश्यक योग्यता से भी युक्त हो । यही कारण है कि प्राचार्यने प्रकृत कारिकाके द्वारा उस तरह के वक्ताका तथा प्रकृत ग्रन्थके भी अर्थतः उपज्ञ वक्ताका सहेतुक स्वरूप बता दिया। उपदेशकी स्वतः प्रमाणतालिये उसके वक्ताका जीरन्गुक्त-सर्वज्ञ वीतराग होकर भी सशरीर होना, न केवल उचित समाधान. ही है, साथ ही निप्पक्ष व्यक्तियों के लिये संतोषजनक एवं श्रद्धय भी है।
यह बात हेषिद्ध है, यह तो प्रकर कारिकासे स्पष्ट हो ही जाता है साथ ही उस पद की आनधनन्तता भी म्फुट होती है। क्योंकि यहां पर विवक्षित धर्म के उपदेश और उस धर्म के वक्ताकी परम्परा वीजवृत्तके समान अनादि होकर, फल परम्पराकी अपेक्षा अनन्त भी है यह बात यहांके कथनसे व्यक्त हो जाती है।
__ इस कारिकामें जो सम्यग्दर्शनका फल बताया गया है उससे सम्यग्दृष्टियोंको पास होनेवाली१ चार जातियों में से तीर्थकरोंको प्राप्त होनेवाली परमा जातिका और साथही परमाईन्त्य नामके छटे परमस्थानका भी बांध होता है, यह बात उपरके कथनसे विदित हो सकती है किन्तु यहां पर प्रोजन सामान्य आहन्त्यसे नहीं अपितु तीर्थकरत्यविशिष्ट आईन्त्यसे है ऐसा समझना चाहिये । प्रकृत ग्रन्थमं जिस धर्मका व्याख्यान किया जा रहा है उसके भी अर्थतः भूलवक्ता वे तीर्थकर भगवान ही है जिनका कि पद यहां पर सम्यग्दर्शनके फल स्वरूपमें बताया गया है। अपनेसे पूर्ववर्ची तीर्थकर भगवानके द्वारा उपदिष्ट थर्म तीर्थके निमित्त से नवीन तीर्थप्रवर्तकका प्रादुर्भाव होता है । और यही क्रम नियमितरूपसे चालू रहनके कारण धर्म और उसके बक्ताका क्रम भनाबनन्त सिद्ध होजाता है।
ग्रन्यकर्त्ताने ग्रन्थकी आदिमें जिनको नमस्कार किया है तथा वर्शनीय विषयको प्रतिज्ञाके समय देशयामि क्रियापदके द्वारा जिस प्रयोज्यकर्ता-वरी विषयक अर्थतः उपज्ञ वक्ताका निर्देश किया है उसका ही यहां पर उपदिष्ट धर्म तीर्थके प्रवर्मकरूपमें तथा उस रत्नत्रय धर्ममे भी मुख्यभूत सम्यग्दर्शनके उपान्त्य फल रूपमें बताकर इस कारिकाके द्वारा अनेक प्रयोजन सिद्ध किये हैं। धर्म-सम्यग्दर्शनका अन्तिम फल संसार की निवृत्ति है। किन्तु इसके सिद्ध होनेसे पूर्ण जो प्राभ्युदायिक पद प्राप्त होते हैं उनमें यह अन्तिम और सर्वोकृष्ट पद ई; इसी पदसे पुनः आगेकेलिये उस धर्मतीर्थकी प्रकृषि हुमा करती है, यह पद सर्वथा निर्दोष रहनेक कारण पूतिया प्रमाण है । उसीका उपदेश भी सर्वात्मना प्रमाण अनुष्य दुःखविघातक और उसम सुखका जनक माना जा सकता है । इसके सिवाय इस पदसे प्रवृत्त होने वाला शासन सभी के लिये किस तरह हितरूप है, और यह पद प्राप्त होने में सम्यग्दर्शन ही किसरूपसे मुख्य
१-आतिरेंद्रीभरिया चक्रिण विजयाश्रिता । परमा जातिराईन्त्ये स्वात्मोत्था सिसिमीयुषाम् ॥१६८।। माप,३॥
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ईजद
रत्नकरण्ड श्रावकाचार
कारण बन जाता है, ये सब बातें भी इस कारिका के सम्बन्ध में अच्छी तरह विचार करने पर मालुम हो सकती हैं। श्रतएव यह कारिका अत्यन्त महत्वपूर्ण प्रयोजनवती है। शब्दों का सामान्य विशेष अर्थ -
J
अमरासुरनरपतिभिः - इस पड़में आये हुए शब्दोंका अर्थ प्रसिद्ध है । यद्यपि अमर शब्दका अर्थ निरुक्ति के अनुसार 'न मरने वाला' होता है । परन्तु संसार में ऐसा कोई भी प्राणी नहीं है जो कि अपनी अपनी आयुःस्थिति समाप्त होने पर न मरता हो । आयुःस्थितिको पूर्णता ही मरण है । और आयुःस्थिति सभी संसारी जीवोंकी पूर्ण होती हैं और वे अवश्य मरते हैं । फिर भी इन विषयमें दो बातें ज्ञातव्य हैं। प्रथम तो यह कि कुछ जीव तो ऐसे हैं जो कि आयुः स्थिति पूर्ण हुए बिना नही मरते - नियमसे पूर्ण होने पर ही मरते हैं । और कुछ जीव ऐसे हैं जो इनके विपरीत योग्यता रखने वाले हैं। वे निमित्तविशेषके मिलने पर आयुःस्थितिले पूर्व भी मरणको प्राप्त हो सकते हैं। इनमेंसे पहले प्रकार के जीव अनपर्यायुष्क और दूसरे प्रकार के जीव पर्यायु कहे जाते हैं । दूसरी बात यह कि संसारी जीव दो तरहके हैं - एक चरमशरीरी - उसा भवसे मोक्षको जाने वाले, दूसरे घचरमशरीरी -- भवान्तरको धारण करनेवाले । ऊपर जो दो भेद कहे हैं वे अचरमशरीरियां की अपेक्षा से ही हैं। चरमशरीरियोंमें दो भेद नहीं हैं, वे सब नियमसे अनपत्ययुष्क ही हुआ करते हैं । फिर भी उनको वर्तमान आयुःस्थिति अवश्य ही पूर्ण हुआ करती है। अनएव वे भी अवश्य मरते हैं। सर्वथा अमर कोई भी संसारी सशरीर जीव नहीं है । हां, श्रनवययुष्क जीवोंको निरुक्त्यथके अनुसार कदाचित् अमर शब्द से कहा जा सकता है । परन्तु यहां पर यह भी विवक्षा नहीं है। यहां पर तो यह योगरूढ शब्द हैं । श्रतएव इसका प्रयोग रूढ अर्थात् देशोंकी चार निकायों में से ऊर्ध्वलोक में रहने वाले वैमानिक देवोंके लिये ही किया गया है। यद्यपि जिस तरह वैज्ञानिक देवों में यह अर्थ घटित होता है उसी प्रकार बाकी के सब देवोंमें भी घटित होता हैं परन्तु सब देवभेदोंमें उनके भी होनेके कारण वे वैमानिक देव भी सब पवयष्क ही हैं ।
सुर-वैमानिक देवोंसे भिन्न तीन निकायके देवों -- भवनदशमी व्यन्तर ज्योतिष्कोंको असुर कहा जाता है । लोकमें देवासुर संग्रामकी कथा प्रसिद्ध है अतएव लोगों में मान्यता है कि ये सुरोंके साथ युद्ध करते हैं उन पर शस्त्र आदिका प्रहार किया करते हैं। सो यह बात सर्वथा मिथ्या है | यह कथन देवोंका अद मात्र है। दर्शनमोहके बन्धका कारण है ।
१० सू० अ० २ ० ५३ में " चरमोत्तम देहाः " पाठ गया जाता है। किन्तु पूज्यपाद स्वामी सर्वार्थसिद्धमें कहते हैं कि ' चरमदेहा इति वा पाठ: " । तथा श्री अकलक देव राजवार्तिकमें कहते हैं कि "श्वरमदेहा इति केषांश्चित् पाठः"। तद्नुसार सभी चरमशरीरी तथैव अन्तकृत् केवली भी अनपवर्त्यायुष्क हो सिंद्ध होते हैं। इसी दृष्टि से यह लिखा गया है।
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बेलो त० सू० अ० ४ सूत्र नं० १० का राजवार्तिक नं० २ से ६ ॥
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चन्द्रिका टोका उनतालीसत्रां श्लोक हां, यह बात सत्य है कि सम्यक्त्व सहित जीव इन तीन निकायों में उत्पन्न नहीं हुआ करता। वहां उत्पन्न होनके बाद सम्यग्दर्शन प्राप्त कर सकता है, जब कि सम्यग्दृष्टि जीन नियमसे वैमानिक देवो में ही उत्पन हुआ करता है । इस तरह उत्पत्तिके अन्तरंग कारणरूप परिणाम भेदकी अपेक्षा दोनों में विरोध अवश्य है। किन्तु इसके सिवाय उनमें परस्पर विरोधी आक्रमण युद्ध आदिका कोई भी कारण नहीं है। अस्तु । इनमें जो भवनवासी हैं वे अधोलोकमें और जो म्यन्तर तथा ज्योतिष्य देकर शोक में निवास किया का है।
नर शब्दका अर्थ यद्याप विष्णु परमान्मा आदि भी हुआ करता है किन्तु यहां पर सुप्रसिद्ध अर्थ मनुष्य सामान्य ही अभीष्ट है । पनि शब्द का अर्थ "पाविरपति इति पति" इस निरुक्तिके अनुसार स्वामी या रक्षक करना चाहिये।
अमराश्च असुराश्च नराश्च इनि छामरासुरनराः तेषां पतयः, तैः । इस विग्रहके अनुसार इस कई पदके द्वारा प्रकृत कारिकामें निर्विष्ट तीर्थकर भगवान्को तीनों ही लोकोंके द्वारा स्तुत्य एवं सेव्य सूचित किया गया है। क्योंकि यह शब्द कृदन्त क्रियापद "त"के कई कारकके स्थान पर प्रयुक्त हुश्रा है । कर्ममें प्रत्त्य होनेके कारण कके अनुक्त होनेसे इसमें तृतीया विभक्ति और उनके बहुसंख्यायुक्त होनेसे उसमें बहुवचनका प्रयोग किया गया है।
इस पदके द्वारा जहां भगवानका फोलोक्याधिपतित्व व्यक्त होता है वहीं गर्मादिक चार कल्याणकोंमें पाई जानबाली त्रिलोकीपतियों द्वारा की जानेवाली उनके विशिष्ट सेवा के नियोगकी भी अभिव्यक्ति हो जाती है ।
___ यमधरपतिभि:-ऊपरके ही अनुसार यह भी "त" क्रियाका कई पद है। यम थात का अर्थ उपरम---उपरति या निचि होता है। अतएव विषयाशा आरम्म परिग्रह तथा प्रज्ञान मोहयोभयुक्त मनोवृचिसे टपरत होना ही यम अर्थात् संयम१ कहा जावा है इसके जो धारण करने वाले हैं उनको कहते हैं यमधर और जो इनके स्वामी हैं, रक्षक है उन गलधरादिकोंको कहते हैं "यमपरपति"। यह पद सम्यग्दर्शनके फलस्वरूप प्राप्त हुए तीर्थका पदके विषयों न केवल सरायव्यक्तियों के सिवाय वीतराग व्यक्ति के द्वारा भी संपता एवम् स्तपनीयता को ही बताता है । किन्तु साथ ही उनके चतुर्थ कल्याणकी असाधारण महिमाको मी प्रकट करता है।
__ "च" शब्द समुच्चय अर्थ में अथवा अनुक्त समुच्चयके अर्थमें समझना चाहिये । क्योंकि प्रथम प्रयुक्त कद पदकं द्वारा भगवान् की जो सेव्यता बताई गई है उसके अनुसार स्तवन करने वाले इन्द्रोंकी संख्याका प्रमाण २६ ही होता है। एक तिर्यगिन्द्रका उल्लेख शेष रह जाता
१-बदसमिदिकसाया दंडारण तहिंदियाण पंचएह । धारण-पालणणिगरपागजनो संजमो भगिटी v६५ जी• का।
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रत्नकरण्ड श्रावकाचार
है । परन्तु तीर्थकर भगवान्को १०० इन्द्रों के द्वारा सेव्य माना गया हैं । श्रतएव "च" शब्दके द्वारा शेष तिर्यगिन्द्रका भी अनुक्त संग्रह कर लेना चाहिये । प्रश्न -- प्रथम वाक्य ही तिर्यक् शब्दका भी उल्लेख करके पूरे सी इन्द्रोंका ग्रन्थकर्णाने निर्देश क्यों नहीं किया ?
उत्तर -- ६६ इन्द्रांको ग्रन्थकर्त्तानि स्तवनका कर्ता बताया है। यह बात निगिन्द्रों के द्वारा संभव नहीं है। ज्ञानकी अल्पता और अक्षरात्मक भाषाका अभाव इनके लिये प्रतिबन्धक है । वे इन असमर्थताओं के कारण अन्य इन्द्रोंके समान स्तुति नहीं कर सकते । किन्तु भक्तिवंश वे भी वन्दना सेवा यादि किया करते हैं । फलतः त्रिलोकीपतिकी संवासे पृथक् न रहने के कारण १०० इन्द्रों की संख्या में तिर्यगिन्द्रोंकी भी परिगणित किया गया है। अतएव आचार्यने पर उनका गोग्गरूप से "च" शब्द के द्वारा संग्रह कर लिया है। ऐसा समझना चाहिये । नूतपादाम्बोजाः --- पार्यो एव अम्भोजे इति पादाम्भोजे । नूतं स्तुले पादाम्भोजे येषां ते नूतपादाम्योत्राः । अर्थ स्पष्ट है कि उनके चरण कमलोंकी उक्त देवेन्द्रो तथा नरेन्द्रों और यतीन्द्रों द्वारा स्तुति की जाती है। यहां पर नूत शब्द उपलक्षणमात्र है । अतएव न केवल स्तुति अर्थ ही ग्रहण करना चाहिये किन्तु सेवा उपासना अर्चा आराधना आदि सभी भक्तिपूर्वक किये जाने वाले भावों में समझना चाहिये।
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दृष्टया - दृष्टि शब्दसं करण अर्थ में यहां पर तृतीया विभक्तिका एकवचन किया गया हैं। मतलब यह कि अर्थ-माक्ष-पुरुषार्थका भले प्रकार निश्चय करनेमें जिन ओोंको यह दृष्टिदर्शन- सम्यग्दर्शन असाधारण कारण पड़ता है वे जीव इस महान् तीर्थंकर के व्यभ्युदयिक पदको प्राप्त हुआ करते है। तीर्थकर प्रकृतिकं बन्धको कारणभूत श्रागममें दर्शनविशुद्धि आदिक सोलह भावनाएं बताई गई हैं। इनमें मुख्य दर्शनविशुद्धि ही है। क्योंकि उसके बिना शेष १५ भावनाएं स्वतंत्रता अपने कार्यमें समर्थ नहीं है । श्रीर इज पन्द्रहके बिना भी केवल दर्शनविशुद्धिकं रहने पर तीर्थकर प्रकृतिका बन्ध हो सकता है। वह इसके लिये स्वतन्त्र ही समर्थ हैं । इसलिये यहां पर दृष्टि शब्द से सामान्यतया सम्यग्दर्शनर नहीं अपितु विशिष्ट दर्शनविशुद्धि भावना अर्थ ग्रहण करना अधिक उचित एवं संगत है।
१३ दमद्यानिवाहिद विसद् मधुरचक्खाण । अन्तासीद् गुणारा णनो जिणारां विदभवार्य ॥ तथा-भवणालय चालीसा वितरदेवाण हाति बत्तीसा । कप्पामर चउवासा चंदो सूरो गरी तार ॥ २- यद्यपि तीर्थकर कर्मकं बन्धमें दर्शनविशुद्धिके साथ शेष १५ में से कोई एक भावना मी स्वश्व रहा करता है ।
३ - प्रायः सर्वत्र इस शब्द का अर्थ सम्यग्दर्शन मात्र ही किया गया है, न कि दर्शनविशुद्धि । किन्तु इस कारिका तीर्थकर शब्दका वर्णन है। अतएव उनकी करणरूप दर्शन विशुद्धि अर्थ उचित है जो "सुनिश्चितार्थाः " पदके अर्थ से भी मेल खाती है।
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पद्रिका टीका उनतालीसा श्लोक
st सुनिश्चितार्थाः-सुनिश्वितः अथों यैस्ते । इसका मतलब यह है कि सु= मुटु = सम्पक विधिपूर्वक = केरलद्विगोरन्यतरसमीपे . निश्चितः = अथारित:= तीर्थस्त्रभावनानुसारेण र कर्तव्यतया दृढीकृतः अर्थोऽभिधेयरूपेण प्रयोजनीभूतत्वेन च श्रेयोमार्गरूपस्तीर्थों येस्ते । जिन्होंने सम्यक्त्वके साहचर्य से विधिपूर्वक-कंवलो अथवा श्रुतकेवली पादमूल में दीर्थकृत्त्व भावना द्वारा अथवा अपाय-विचयर नामक धर्मध्यानके द्वारा "मैं वास्तविक श्रेयोमार्गका बोध कराकर उद्धार करके ही रहूंगा" इस तरहकी तीर्थप्रणयनकी सरागभावनासं४ तीर्थकर नामकर्मका बन्ध कर लिया है। वे ही इस सर्वोत्कृष्ट ग्राम्युदायिक पदको प्राप्त किया करते हैं।
खूपचक्रधरा:--पचक्र--धर्मचक्रं धरन्ति इति सूपचक्रधराः । तीर्थकर भगवान्के निकट चारों दिशाओं में चार धर्मचक्र नामक विशिष्ट सातिशय उपकरण रहा करते हैं जो उनके धर्माधिपतित्वक सूचक है । इसीकी अपेक्षासे कहा गया है कि वे धर्मचक्रके धारक हुमा करते हैं। यह पद उस योगीन्द्रको ही प्राप्त हुआ करता है जो कि सब तरहके अस्त्र-शस्त्र भोर दिव्यास्त्रोंका परित्याग करके प्रशान्त परिणामोंसे जिनेन्द्र भगवान्का आराधन किया करता है। धर्मचक्र शब्दका दसरा अर्थ धर्मसमूह भी हो सकता है । तदनुसार इसका अर्थ होगा कि वे धर्मसमुह--धर्मके जितने भेद अथवा प्रकार हैं उन सभीके धारक हुमा करते हैं। क्योंकि वे धर्ममय हैं, सभी धर्म उस अवस्थामें निष्पन्न एवं पर्यवसन्न हो जाया करते हैं।
भवन्ति—यह क्रियापद है। जो इस पातको बताता है कि इस तरहके समर्थ कारणके मिलने पर इस पदकी प्राप्ति होती ही रहती है । ढाई द्वीपमें जितनी कर्मभूमिगां हैं उन सभीमें सीथंकरोंकी उत्पति नियत है । और वह अनादिसे है तथा अनन्त काल तक होती ही रहेगी।
लोकशरण्या:-लोकानां शरणे साधवः । सभी शरणागत जीवोंके हितका साधन करने वाले हैं। इसका श्राशय यह नहीं है कि जो उनके निकट पहुँचकर उनकी सेवा करे वही उनसे हित अथवा उसके साधनको प्राप्त कर सके; अन्य नहीं | मतलब यह है कि जो उनके उपदिष्ट मार्गको स्वीकार करता है यह अवश्य ही उनके समान अनन्त कल्याणको प्राप्त किया करता है। यद्यपि उनके निमिनसे अपनी-अपनी योग्यतानुसार अन्य भी सभी प्रासो हितको
५-तित्थयरबन्धपारम्भया णरा केवलिदुगन्वे ! ६३ ॥ क० का। २-आदिपुराण पर्व ३८ गान्वय क्रियाओंमेंसे क्रिया नम्बर २६ । ३-देखो अनगारधर्मामृत अ० १ श्लोक नम्बर २ और उसकी टीका।
४-कपाय सहित होने पर ही वन्धका कारण हुमा करता है। शुद्ध गीतराग सम्यक्त्व बन्धका नहीं संबर निर्जरा एवम् मोराका ही कारण है।
५- तशान मुदा चक्री धर्मचकचतुष्टयम । यतेंद्रबिधृतं मूर्जा नविम्बानुकारि यत् ॥ ११०॥
६-स्यत्क्वालाव्याशस्त्राणि प्राक्तनानि प्रशांतिभाक् । जिनमाराप्य योनीद्रो धर्भपक्राधिपो भनेर १७५।। भा०पू०प० २६॥
आदि० ५०३ ॥
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रत्नकरावकाचार प्राप्त किया करते हैं फिर भी प्रकतमें जो अभीष्ट एवं विवक्षित है उस अनन्त कल्याणका लाभ उन जीवोंको तो अवश्य ही प्राप्त होता है जो कि उनके उपदिष्ट धर्मको साचात् समवसरणम उपस्थित होकर शरण ग्रहण करके अपनेको धर्ममय बना लेते हैं। कालिपरणत धम्म सरणं पन्धज्जामि।
तात्पर्य-यह कि सम्यग्दर्शनके निमित्तसे पास होनेवाले प्राभ्युदपिक पदोंमें यह मन्तिम और सर्वोत्कृष्ट पुण्यफल' है जिसकोकि तीर्थकरका पद कहते हैं। इस कारिकाके द्वारा इस पद की प्राप्तिमें सम्यग्दर्शन सिवाय भी जो विशिष्ट कारण है-उसका भी निर्देश करते हुए पदकी असाधारण महिमा तथा उस पदके द्वारा पुनः प्रवृन होने वाली महामहिम परम्पराका भी सष्टीकरण करके बतलाया गया है कि सम्भग्दर्शनके निमिचसे यह जीव निर्वाण प्राप्तिसे पूर्व किन किन असाधारण सातिशय पुण्यफलोंको प्राप्त किया करता है और वे किस तरह और कतिक स्वयं उस जीवके तथा अन्य जीवों के भी उद्धारमें समर्थ हुआ करते है।
यों तो पुण्य कर्म प्रकृतियां ६८ है परन्तु उनमें तीन ही प्रकृतियां ऐसी है जिनका कि बन्ध सम्गकन्वकै साहचर्यके विना नहीं हुआ करता । इनमें पाहारक और आहारक आहोपाल नाम कर्मोंका पन्थ सातवे गुणस्थान में हुआ करता है। इनके उदयसे स्वयं उस जीवको जैसा कि आगममें बताया गया है कदाचित् लाभ मिल सकता है। किन्तु एक तीथकर नाम कर्म ही ऐसा है जिससे कि स्वयं उस जीवको तथा अन्य सभी प्राणियोंको नियमसे सुख शांति तमा ऐहिक अभ्युदयों एवं प्रामुत्रिक हितका लाभ शीघसे शीघ्र तथा अधिकसे अधिक प्रमाणमें होकर ही रहा करता है। इस कर्मका बन्ध चतुर्थ गुणस्थानसे लेकर अपूर्वकरणके छठे भागतक और उदय तेरहवेर गुणस्थानमें हुआ करता है।
तीर्थकर कर्मका वन्य "दृष्टया सुनिश्चितार्थाः" इस कथनके अनुसार दर्शनविशुद्धि मादि भावनामों के द्वारा हुआ करता है। तीनों ही प्रकारके सम्यग्दर्शनों में से किसी भी सम्यग्दर्शनसे युक्त कर्मभूनिका कोई भी उधम पुरुष यदि चतुर्थादि अष्टम गुणस्थानवी है और उसको केलिदिकका सानिध्य प्राप्त है तो आवश्यक परिणामों के होने पर इस कर्मके पंचको प्राप्त हो सकता है। उस समय जो अपायविचय नामक धर्मध्यानके रूपमें तीर्थकत्व भावनाके मराग परिणाम विशेष हुमा करते हैं वे ही इसके बन्धमें निदान
१-पुण्यकर्मों में तीर्थकर नाम कर्म ही सर्वोत्कृष्ट है।
२–कों की कुल १४८ प्रकृति से पांतिकमों की ४७ और अघातियोंकी ५३ घटाने सभा पांदिक २० को पुख्यमें भी सम्मिलित करनेसे पुरम कम ६८ हो जाते हैं।
३-सम्मेव सिस्थधो, आहारदुग पमादरहितेसु ॥ १२॥क० का० ४-याहारन्तु पम, - २६१ ।। क० का० | तथा जी० का गा० नम्बर २३५ से २३८ । ५-फर्म को० मा नम्बर २६१।
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चन्द्रिका टीका उनतालीस श्लोक हैं किन्तु ये परिणाम सम्यक्त्वसहित जीवके ही हुआ करते हैं अत एव तीर्थरत्वका कारण सम्यग्दर्शन माना गया है । बन्धके समय जो जीवका तीर्थकृत्व--- श्रेयोमार्ग प्रणेतृत्व के लिये ड निश्चय हुआ करता है वही निश्वयका संस्कार अपने लिये योग्य आर्हन्त्य के निमित्त को पाकर तीर्थकर नामकर्मके उदयमें निमित्त बन जाता है जिससे कि जगदुद्वार में समर्थ दिव्यध्वनिका निर्गम हुआ करता है । इस कारण कलाप और कार्यकारणभाव की परम्परामें मोचमार्गोपदेश की रंगभूमि पर मुख्यतया अभिनय करनेवाली सूत्रधार सम्यग्दृष्टिकी सहचारिणी दर्शनविशुद्धि भावना ही है।
ध्यान रहे कि जिसतरह सम्यग्दर्शन बन्धका कारण न होकर भी सरागभावका सहचारी होने के अपराघमात्र से तीर्थंकर प्रकृतिकै बन्धर्मे कारण मानागया हैं जो कि सर्वथा मिथ्या नहीं किन्तु सर्वथा सत्य है उसी प्रकार माहंत्य - अनन्त चतुष्टय भी वस्तुतः तीर्थंकर कर्मक उदयका कारण न होकर साहचयके कारण ही निमित्त माना गया है। “इस प्रकृतिके बन्ध और उदय के समय की दोनों अवस्थाओं में निमिचसंबंधी यह एक अपूर्व आश्चर्यजनक विशेषता पाई जाती हैं कि बन्धके विषयमें जहां सर्वोकृष्ट अभयदानकी भावना तथा असहदयासं पूर्ण सराग भाव निमित्त हैं, तब उदयके लिये अनन्त अभयदानकी क्षमता एवं निर्दयता १ से युक्त वीतराग भाव निर्मित है। इसका भी क्या कारण है ? तो इस सम्बन्ध में सूक्ष्म दृष्टि से विचार करने पर मालुम होता है कि सम्यग्दृष्टिका लक्ष्य ही आत्मनिर्भर हुआ करता हूँ । मु मिध्यादृष्टि जीव जहां पर सापेक्ष एवं अनात्मनिर्भर लक्ष्यसे ही युक्त रहा करता है वह उससे सर्वथा विरुद्ध तु सम्पदृष्टि जीव परनिरपेक्ष एवं आत्म निर्भर लक्ष्यसे ही युक्त रहा करता है। अतएव अपने पुरुषार्थके बल पर गुणस्थान क्रमसे ज्यों-ज्यों उसका विकास बढ़ता जाता है त्योंस्यों उसकी आत्मनिर्भरता भी बढ़ती जाती है। और अन्तमें आइन्त्य अवस्थाको पाकर वह पूर्णतया श्रात्मनिर्भर हो जाता है। उस अवस्थाको निमित पाकर तीर्थकर प्रकृति उदयमें भाकर अपना काम किया करती हैं ।
तीर्थंकर भगवानके अतिशय चार भागों में विभक्त किये जा सकते हैं। शरीर बाबी भाग्य और आत्मा । कारिकाके पूर्वार्थ द्वारा मुख्यतया भाग्यका अतिशय, वषचक्रधराः कहकर श्रास्माका अतिशय तथा लोकोंका शरराय बताकर वाणी एवं शरीरका अतिशय प्रकट किया गया है ।
तीथकर तीन तरहके हुआ करते हैं। दो कन्याणकवाले, तीन कम्याचकवाल और पांच कन्याणकवाले | जिन चरमशरीरीं अनगारोंको तीर्थकर प्रकृतिका बंध हो जाता है वे दो
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१- निष्क्रान्तो दयायाः निर्दयः । दयायाः सरग्गरूपत्वम् ।
१--० ५० १० ३५ ।
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AAPAR
रत्नकरण्डश्रावकाचार कल्याणकवाले हुआ करते हैं। क्योंकि उनके शेष दो-ज्ञान और निर्वाण कल्याणक ही हुआ करते हैं। यदि उन चरम परीरियोंको सागार अवस्था-चतुर्थ या पंचम गुणस्थानों में सीकर प्रकविका वध प्रप्त हुपा करता है तो वे शेयके तीन कल्याणकोंक भोक्ता हुआ करते हैं । यदि अचरम शरीरियोंको उसका बंध होता है तो वे पंच कल्याण वाले दुश्रा करते हैं। ऐसा मालुम होता है कि प्रकन कारिकामें सम्यग्दर्शनके फलस्वरूप पांचकल्याणक वाले ही तीर्थकरोंको लक्ष्यमें रखकर कहा गया है। किन्तु यह कथन दो या तीन कल्याणकवालोंमें भी घटित हो सकता है।
यद्यपि तीर्थकर प्रकृतिका उदय तेरहवें गुणस्थानमें ही हुआ करता है जैसा कि ऊपर बताया गया है फिरभी अनेक पुण्यकर्मों और अतिशयविशेषोंसे युक्त यह कर्म उदयसे पूर्व भी योग्य कालके भीतर अनेक अद्भुत महत्वाऑको प्रकट किया करता है । यह उनके भाग्य सम्बन्धी अतिशयों में ही परिगणित किया जा सकता है कि गर्भ में अवतीर्ण होनसे छहमाहपूर्व यदि वे स्वगमें होते हैं वो उनकी मन्दारमाला आदि म्लान नहीं हुआ करती और यदि नरक में रहते हैं तो देवोंके द्वारा उनके उपसर्गोका निवारण होजाया करता है । तथा रववृष्टि, मातापिताकी इन्द्रादिके द्वारा पूजा, ५६ कुमारिकाओके द्वारा माताकी विशिष्ट सेवा और गर्भ शोधन आदि कार्य भी इसी तरहके हैं। जन्मके समय चतुर्णिकाय देवोंके यहां अनाहत ध्वनि आदि होना तथा मन्दराभिषेक श्रादि क्रियाओंका होना, प्रतिदिन देव इन्द्र श्रादिके द्वारा उनकी सेवा, तथा दीक्षा कल्याणकके समय अभिपेक, शिविकावहन आदि कार्य भी इसी कोटिमें सम्मिलित किये जा सकते हैं । ज्ञानकल्याखके होने पर उनका समवसरणमें चतुर्णिकाय के देवों देवियों मनुष्यों मानुलियों और तिर्थचोंके द्वारा ही नहीं, पतियों यतिपतियों-गणथरों एवं केवलियोंसे भी वेष्टित रहना भी त्रैलोक्याधिपतित्वके लिये निमित्त उस लोकोतर पुण्यकर्म वीर्थकर नामकर्मके उदयरूप भाग्यका ही अतिशय कहा जा सकता है। इस तरह पूर्वार्धक द्वारा चार कल्याणकोंमें पाया जानेवाला भाग्यमा अतिशय क्रमसे मुख्यतया भमरपतियों असुरपतियों नरपतियों एवं यतिपतियोंका निर्देश करके स्पष्ट कर दिया गया है।
तीर्थकर भगवान्का धर्मचक्र उनके विहारके समय प्रागे भागे चलता है यह तो उनका अतिशय सुप्रसिद्ध ही है। किन्तु उनकी पारमा स्वर्य धर्मचक्र-धर्मों के समूहरूप ही है । क्योंकि धर्मके जितने भी प्रकार बताये गये हैं वे उन सभीसे पूर्ण है। उनकी आत्माका स्वभावर प्रकट हो चुका है, रसत्रयरूप धर्म उनमें पूर्णतया प्रकाशमान है, उत्तमममा श्रादि थर्मोसे युक्त हैं, दयाकी सीमा पार करके पीनराग बन चुके हैं। भगवान् गुखमद्रस्वामीके द्वारा
१-तित्थयरसचकम्मे उपसमाणिवारयां कृति सुर! । माससेसणिरए मम्मे अमलाणमालाओ । २-म्मा वसुलझायो, इत्यादि।
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चन्द्रिका टीका नवालीसवां श्लोक
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for as surat प्रकारोंसे १ भी न्यस्त --- निक्षिप्त हैं। कुन्दकुन्द भगवान् के द्वारा व्याख्यात स्वयम्भू पदसम्वन्धी स्वाश्रित पट्कारकधर्मसेर विभूषित हैं । सिद्धान्त शास्त्रोक्त नवधायिक लब्धियोंको मी प्राप्त हैं, मोक्षमार्गकी भूमिकाको पारकर शुद्ध समयसाररूप अन्तिम अखण्ड धर्म के तट पर विराजमान हैं। यह उनकी द्रव्यगुणपर्याय तम्बन्धी अन्तरंग विशुद्धि श्रात्माश्रित अतिशय है। यही कारण है कि उनकी धर्मात्मा धर्ममूर्ति धर्मध्वज धर्माराम आदि शब्दोंके द्वारा स्तुति की गई है।
उनके सहजात शारीरिक असाधारण गुण ४ शारीरिक महिमाको प्रकट करते हैं। उनकी दिव्यष्टिका माहात्म्य भी अनुपम हैं। जिस शरीरके देखनेमात्र से चारणवियों तक का ज्ञान निवृत्त हो जाता है उसकी असदृश कन्याखरूपताका वर्णन कौन कर सकता है।
वाथी सम्बन्धी लोकोत्तर अतिशय तो प्रसिद्ध है ही । जो अनचरी होकर मी सर्व भाषात्मिका है, सबके लिये हितरूप हैं, अन्तरंग में काक्षा यादि दोषोंसे रहित है और बाहर में श्वासादिके कारण जिसका क्रम अवरुद्ध नहीं हुआ करता, जो अन्य अनेक भाषासम्बन्धी दोषोंसे भी मलिन नहीं है, और समस्त शान्तपरिणामी संज्ञी पंचेन्द्रिय जिसका श्रवण कर सकते हैं । उस पूर्व तत्र एवं तीर्थका प्ररूपण करनवाली सर्वज्ञकी वाणीके माहात्म्य का कौन वन कर सकता है जिसके कि कारण ही आज योमार्ग प्रवर्तमान है, जीवमात्र सुरक्षित हैं, और
१ -- धर्मः सर्व सुखाको हितकरो धर्मे चुधाश्चिन्वते धर्मेणैव समाप्यते शिवसु धर्माय तस्मै नमः । धमोन्नास्त्यपरः सुहृद् भवभृतां धर्मस्य मूलं दया, धर्मे चितमहं दूध प्रतिदिन ६ धर्म मां पालय । श्रात्मानुशासन ।
२-- देखो प्रवचनसार १-१६ की प्रदीपिका (अमृतचन्द्र) तथा तात्पर्यऋशि (जयसेनाचार्य ) । ३- २० सू० अ० २ सूत्र नं० ४ "ज्ञानदर्शनदानलाभ भोगोपभोगवीर्याणि च । च शब्देन सम्यस्व चारि । तथा केवलगाणदिवाय रकिरणकलाबप्पणासियाणायो । णत्रकंचललद्ध गामसुजणियपरमपदलो ||६३ || जी० [फा० |
४ - जन्मसम्बन्धी दश अतिशय - शरीरकी १ अत्यन्त सुन्दरता, २ अतिशयितसुगन्ध, ३ निःस्वेदत्व, ४ निर्नीहारता, ५ प्रियहितवचन, ६ अतुल्यबल, ७ श्वेतवर्ण दुग्धरक्त, ८ एक हजार आठ लक्षण, ३. समचतुरस्र संस्थान, १० ववृषभनाराच संहनन ।
५- नीलांजनाकी मृत्युके होने पर रसभंग न होनेके लिये किसीको भी मालुम न हो इतनी शीघ्रता से विक्रियासे दूसरी नृत्यकारिणां इन्द्र द्वारा सभामें उपस्थित होने पर किसी को भेद न दीखने पर भी धूपमेश्वरको वह दोखगया ||
६- वीर भगवानका शरीर दीख जाने मासे चारणमुनिराज की शंका निवृत हो जानेके कारण ही उन्होंने भगवाम्का नाम सम्मति रक्खा था ।
७ यत्सर्वात्महितं न वर्यासहितं न स्पन्दितौष्ठद्वयम् नो वाद्वाकलितं न दोषमलिनं न श्वासकর कर्म । शान्तामर्वधिषैः समं पशुगणैराकर्मि कर्मिभिः, तन्नः सर्षविरः प्रणष्टविपदः पायादपूर्वं वचः ।।
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मन्य जीव अज्ञानान्धकारसे निकलकर अद्भुत आत्मप्रकाशको प्राप्तकर अनन्तकालर्क लिये अव्यावायस्वरूपको सिद्ध कर सके हैं और कर सकते हैं।
इस तरह अपने अद्भुत गुणोंके कारण जिम पदकी जीवन्मुक्त अवस्था वीन लोकके समी प्राणियों के लिये शरण्यभूत है वह सम्यग्दर्शनका महान् फल अन्य प्रकारसे कभी भी संभव नहीं है। यह उसका ऐसा लोसीसर प्राभ्युदयिक फल है जो कि स्वये सर्वोत्कृष्ट पुश्यफल होनेके सिवाय अन्य प्राणियोंके लिये भी समस्तकल्याण का कारण है। जिसकी आराधना इस लोकके इष्ट फलोंकी ही प्रदात्री नहीं अपितु संसारातीत अनन्त शिवरूप अवस्थाकी मी प्रकाशिका और प्रदात्री है।
इस तरह सम्यग्दर्शन के फल स्वरूप प्राप्त होने वाले अनिष्टविधात और इष्टावाप्तिम्प दोनों ही वरहके फलोंमेंसे ऐहिक अभ्युदयोंका वर्णन करते हुए अन्तिम महान् पुण्यफल-चीर्थकर पदका इस कारिका द्वारा वर्णन किया गया । इसमें तीर्थकर पदकी प्राप्तिका कारण सरूप
और फल बतादिया गया है । पांचों ही कल्याणकोंकी महिमाके माथ साथ परमाहेन्त्य परमस्थान और परमा नामकी जातिका भी वर्णन इसीके साथ होजाता है। अम सम्यग्दर्शनके निमित्तसे प्राप्त होनेवाले अलौकिक फलका वर्णन करते हैंशिवमजरमरुजमक्षयमव्याबाधं विशोकभयशङ्कम् ।
काष्ठागतसुखविद्याविभवं विमल भजन्ति दर्शनशरणाः॥४॥ अर्थ-दर्शन ही है शरण जिनको ऐसे जीव उस शिव-परमनिःश्रेयस पदको प्राप्त किया करते हैं जोकि मनरहित है, जरा-वृद्धावस्था, रुजा-रोग, क्षय-हानि अथवा मरण चारों तरफकी विशिष्ट बाधामों में तथा शोक मय शकासे रहित है । एवं जिस के होनेपर जीवके सुख विद्या भौर विभव गुण सलिष्ट अपनी पूर्ण शुद्ध अवस्थापर पहुंच जाया करते हैं।
प्रयोजन-सम्यग्दर्शनके फल दो प्रकारके हो सकते हैं और वे दोनोंही प्रकारके फल यहां इस अध्यायमें बताये गये हैं। एक तो कर्मसे सम्बन्धित अथवा सांसारिक और दूसरा कर्मरहित भयवा संसारानीत । कर्म और संसारका सम्बन्ध नियत है । जबतक कर्म हैं तबतक संसार है, और जयतक संसार है सबतक कर्म हैं । कर्मके मूलमें दो भेद ई-पुण्य और पाप । अथवा तीन भेद है-द्रव्यकर्म भावकम और नो कर्म । इनमेंसे पापकर्म और उनके फलोपमोमक लिये भविष्ठानरूप नोकर्म अनिष्ट है । ये सब निश्चयसे मी अनिष्ट हैं और व्यवहारसे भी अनिष्ट है। इसके सिवाय जितने पुस्पकर्म हैं और उनके योग्य विपाकाश परूप नोकर्म है ये सब इष्ट है। यद्यपि परमार्थत:-संसाररूप और उसके कारण होनेसे वे भी समस्केलिये अन्ततो गत्ला
परूप न होनेसे अनिष्ट ही हैं। क्योंकि वे भी पास्तवमें अपनी मात्माको निज शुद्धावस्था
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marwarmarwari
चन्द्रिका टीका चालीसा श्लोक रूप न होने के कारण तत्वतः उपादेय नहीं है। फिर भी वे पुण्यरूप अवस्थाएं अन्तिम लक्ष्ष तथा उपादेय अवस्थाकी सिद्धिमें साथन होनेसे अवश्य ही कथंचित् उपादेय भी हैं । अत एव वे इष्ट हैं। मतलब यह कि जो पापरूप अवस्थाएं हैं ये तो सर्वथा अनिष्ट ही हैं किन्तु जो पुण्यरूप अवस्थाएं हैं वे कथंचित इष्ट हैं भौर कथंचित् अनिष्ट हैं। ये पुण्यरूप अवस्थाएं लोकव्यवहारकी दृरिसे तो इष्ट हैं ही परन्तु कथंचित् परमार्थकी साधन हानसे ताविकरष्टिये मी इष्ट ही हैं । क्योंकि साधनके विना साध्य सिद्ध नहीं हुमा करता अतएव साधनके रूप के मुखकैलिये भी इष्ट ही हैं । क्योंकि यद्यपि सम्यग्दृष्टि अथवा मुमुक्षुके वास्तविक लक्ष्य निर्माणका साक्षात् साधन शुद्धोपयोग ही है, शुभोपयोग साचात् साथन नहीं है । इस दृष्टिसे यह अप्रयोजनीभूत एवं अनिष्ट ही है फिर भी शुभोपयोगके बिना शुद्धोपयोग होता नहीं है। प्रतएव पूर्व अवस्था में शुद्धोपयोगकी अन्यथानुपपत्तिके कारण हठात् भादरणीय एवं अभीष्ट माना गया है।
ध्यान रहे कि साधन दो प्रकारके हुआ करते हैं एक समर्थ इसरे असमर्थ । जिनके व्यापारके अननर अभ्यवहित उचर क्षणमें ही कार्य की निष्पति हो जाती है, वे सब समर्थ कारण हैं। और जिनके सहयोग के विना कार्य नहीं हुआ करता उनको असमर्थ कारण कहा करते हैं। पुण्यरूप अवस्थाएं इसी तरहकी असमर्थ कारण हैं।
ऊपर जो कुछ वर्णन किया गया है उससे मालुम हो सकता है कि भाचार्यने कारिका नं०३५ के द्वारा सम्यग्दर्शनका अनिष्टविधातरूप फल बताकर कारिका ने०३६ से इटावाप्तिरूप फलका वर्णन किया है । कार्यको सिद्धिकेलिये प्रतिबन्धक कारणका प्रभाव और साधकरूप कारणोंका मद्भाव उचित ही नहीं, आवश्यक भी है।
सम्यग्दर्शनका वास्तविक फल निर्वाण ही है जैसाकि ऊपर अनेक वार कहाजा चुका है। किन्तु यह बात भी सुनिश्चत ही है और कही जा चुकी है कि कोई भी कार्य अपने कारखोंके विना निष्पन्न नहीं हो सकता । यह पात भी यहां ध्यानमें रहनी चाहिये कि यदि कोई व्यक्ति साधन या कारणका अर्थ कार्य के समय उपस्थितिमात्र ही करता है तो यह ठीक नहीं है। वह अकिंचित्कर कारण, उदासीन कारण साधक कारण और समर्थकारण तथा कारण और करण का स्वरूप एवं उनके अन्तरको न समझनके कारण अपनी सच और तीर्थ दोनोंके विषय में अनमिझता ही प्रकट करता है। .
प्राचार्य श्रीने सम्यग्दर्शनके तान्त्रिक फल निर्वाणकी सिद्धिमें साधकरूप जिन प्राभ्युदयिक पदोंका वर्णन किया है वे छह परमस्थान और चार जातिके रूपमें हैं। इनमेंसे अन्तिम
.-न्यवहरणनयः स्थापयपि प्राक् पदव्यामिह निहितपदानां हन्त हस्तावलम्बः। तदपि परममयं पिर मस्कारमात्र परविरहितमन्ना पश्यतां नैष किश्चित् ॥५॥ परमात०॥
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बत्न करण्डाभाषकांचार
परमाईन्त्य स्थान और परमा जाति जिसका कि ऊपरकी कारिकामें वर्णन किया गया है ऐसे पद हैं जो कि उसी भव मे निर्वाणके साथ हैं। शेष स्थान और जातियों के लिये उसीभात्रसे ilaria होनेका नियम नहीं हैं फिर भी साधना करके नसे मालुम हो सकता है। कर्मसम्बन्धित इन साधनभूत पदोंके निमित्तसे सम्यग्दर्शन का जो अन्दिम कर्मरहित संसारातीत परम निःश्रेयसरूप फल प्राप्त होता है अब यहां उसका वर्णन भी उचित और क्रमप्राप्त है। इसके साथ ही यह नियम है कि सम्यग्दर्शनका यह परमनिर्वाखरूप फल परमार्हन्त्य पूर्वक ही हुआ करता है तथा इस जीवन्मुक्त श्राईन्त्य अवस्था प्राप्त करनेवालेको उसी से परनिर्वाण भी प्राप्त होता ही है । इस प्रसङ्गपर यह बात भी ध्यान में रखने योग्य है कि दोनों ही मान्यताएं मिथ्या हैं कि परमनिग्रन्थ अवस्था दिगम्बर जिन मुद्रा धारण किये विना तथा तपःपूर्वक अर्धनारीश्वर बने बिना सग्रन्थ अवस्था से भी निर्वाण पद प्राप्त हो सकता हैं । अथवा परमनिर्वाणको प्राप्त न करके अनन्तकालतक जीवन्मुक्त अवस्थामें ही जीव बना रहता है । इस दृष्टि से भी परमाईन्त्यके अनन्तर अवश्य प्राप्त होनेवाली सप्तम परमस्थानरूप निःश्रेयस अवस्थाका वर्णन करनेवाली यह कारिका अवश्य ही प्रयोजनवती हैं।
इसके सिवाय संसारातीत अवस्थाके विषयमें जो अनेक प्रकार की विपरीत मान्यताएं हैं, उन सबका निराकरण करके वास्तविक स्वरूपका बताना भी उचित और भावश्यक है। क्योंकि धर्म वर्णनकी प्रतिज्ञाके समय उसका जो कर्म निवईणरूप उद्यम सुख फल बताया गया है उसी धर्म मुरूप एवं प्रथम स्थानभूत सम्यग्दर्शनके वर्खेन करते हुये उसके फल निर्देश के अवसर पर अन्तमें उसी कर्म निवईणरूप उत्तम सुखका स्वरूप बताकर विपरीत मान्यताओंके चिपयमें जो अतत्त्वश्रद्धान होता है अथवा हो सकता है उसका परिहार करके उसके तस्वभूत स्वरूपके विषय में सम्यक् श्रद्धान कराना आवश्यक भी है। क्योंकि सम्यग्दर्शनक विषयभूत सात में मोचस्व प्रधान है अतएव उसका ही वर्णन करने वाली यह कारिका उस भाबश्यक प्रयोजनको पूर्ण कर देती हैं। उपर्युक्त आर्हन्त्य पदके पूर्ण निर्दोष रहने पर भी उससे भी सधा विशुद्ध इस परम निर्वाण पदमें कितनी और किंभूत किमाकार विशेषता हूँ यह बात भी इस कारिकाके कार्य पर ध्यान देनेसे मालुम हो सकती हैं।
इस तरह विचार करने पर इस कारिका के अनेक प्रयोजन दृष्टिमें आ सकते हैं। शब्दका सामान्य विशेष श्रथं
शिवम् — भजन्ति क्रियाका अनुक्त कर्मपद रहनेके कारण शिव पदसे द्वितीयाका एक वचन हुआ है। शिव कल्याण श्रेयस मादि शब्द पर्यायवाचक हैं। यहां इसका अभिप्राय वर्गविष पुद्गल के सभी सम्बन्पोंसे रहित आत्माकी शास्वतिक सर्गविशुद्ध अवस्थासे है । इस अवस्थामें संसार की सभी पर्यायोंसे और खासकर माईन्स्य अवस्थासे भी क्या-क्या अधिक
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पन्द्रिका टीका चालीमयां श्लोक प्रयोजनीभूत उपादेय महसाएं पाई जाती हैं सो सब इस पदके विशेषणोंके द्वारा स्पष्ट कर दिया गया है । सम्यग्दृष्टिको यही अपनी अन्तिम शुद्ध अवस्था प्राप्य है इस बातको कर्म पद सूचित करता है। उसका एक वचन इस वातको प्रकट करता है कि संसार परिभ्रमणके समय जीवमें पुदगलोंके सम्बन्धमे जो विभिन्न प्रकारसे विविधता पाई जाती है वह यह पर सर्वथा एवं मर्बदाके लिये निर्मूल हो जाया करती है। मतलब यह कि यह अवस्था परनिमित्तक भावों से सर्णया विमुक्त रहने के कारण ममस्त विविधताभोंसे शून्य अतएव एकरूप है ।
प्रजरम्-यह तथा आगेके "अरुजम्" आदि सभी पद "शिवम्" के विशेषण हैं । अतएव समीमें द्वितीयाका ५ वचन पाया जाता है। जरा शब्द ज थातुसे बनता है जिसका कि अर्थ पयोहानि होता है। शरीर में शिथिलताका आ जाना इन्द्रियोंकी शक्ति का कम होजाना बाल पक जाना, दांत गिर जाना, औदर्य अग्निका मन्द पर आना, शरीरमें बलि-झुर्रियों का आ जाना, और दृढ़तापूर्नक काम करनेकी स्फूर्ति-सोत्साह पृचिका न रहना, ये सब जरा हद्धावस्थाके सूचक हैं। इनके द्वारा वयोहानिका परिज्ञान हो जाता है। मालुम हो जाता है कि अन वय-श्रायु हानि-धीयताकी तरफ उन्मुख है। कितने ही लोग युवावस्थामें भी इन चिन्होंसे युक्त देखे जाते हैं और बहुतसे लोग आयुकी अपेक्षासे घृद्ध होने पर मी इन चिन्होंसे अधिकतर अनभिभूत पाये जाते हैं। इसका कारण आयुकर्मके नो कर्मरूप शरीरमेंक्रमसे शिथिलता भाजाना भोर घडताका बना रहना है। अतएव जिनके शरीर और अंगोपांगोंके बन्धन-संपातमें अन्तरंग बहिरंग कारखोंके निमिचसे जब भी शिथिलता आ जाती है तभी ये चिन्ह प्रकट हो जाया करते हैं। जो इनसे सर्वथा रहित हैं वे ही अजर हैं। जहाँ तक जीव, शरीर और उसके कारणमूत कोसे तथा नो कर्मसे सर्वथा मुक्त नहीं हुआ है वहांतक उसको वखतः एवं सर्वथा अजर नहीं माना या कहा जा सकता है। अतएव इस विशेषणके द्वारा बताया गया है कि यह संसारातीत शिवरूप अवस्था ही वास्तव में अजर है। और उसके निमित्तसे हॉनवासी आकुलताओंसे भी पूर्णतया परिमुक्त है। क्योंकि यही एक पद हैं जो कि जराके निमित्तपूत सभी द्रव्यकोंमुख्यतया नामकर्मकी सम्बन्धित सभी प्रवृत्तिया तथा उनके उदयसे होनवाले अशुद्ध भावोंभावकों एवं तद्योग्य नोकमसि भी सनथा रहित है। __अरुजम् न विद्यते रुक-रुजा = व्याथिर्यस्य यत्र वा, अथवा न रूजति स अरुजस्तम् । का रोगों = शारीरिक व्याधियोसे रहित है उसको कहते हैं अरुज । शरीरमें व्याथियोंके न होने अथवा हानेका क्रमसे मुख्य कारण नामकर्मका भेद स्थिर अथवा अस्थिर नामकर्मका
१- शुद्धानन्तशक्तिमानविपरिणमनस्वभावेन प्राप्यत्वात् फर्मरबं फलयन् । प्र० सा० मा० १-१६ बलप्रदीपिका । तमा-नित्यानन्दैकस्वभावेन स्वयम् प्राप्नात्वात् धर्मकारकम् भवति ।। ता० १० ॥
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उदय है । क्योंकि शरीर की धातु। उपधातुश्योंकी साम्यावस्थाका ही नाम स्वास्थ्य हैं और उन की विकृति अथवा विषमताको हो व्याधि रोग कहते हैं। स्थिर नामकर्मके उदयसे वे स्थिर रहा करती हैं। और अस्थिर नामकर्म के उदयसे वे विकृत अथवा अस्थिर हुआ करती हैं। लोक व्यवहारमें जातक उत्पन्न हुई व्याथिका मूलकारण सर्वथा निःशेष नहीं हो जाता तबतक वास्तव में नीरोगता नहीं मानी जाती । उसी प्रकार सैद्धान्तिक दृष्टि से तत्वतः विचार करने पर जबतक व्यात्रियोंकी उत्पथिके मूलकारण द्रव्यकर्म और भावकर्म तथा उनके आधारभूत शरीर एवं नोकर्मी संतति सुगंधा निर्मूल नहीं हो जाती तबतक उस जीवको पूर्णरूपेण और अनन्तकाल के लिये नीरोग नहीं कहा जा सकता । शरीरके नीरोग रहते हुए भी रोगोंके अंतरंग कारभूत कमका जबतक स्तित्व है तबतक वह संमारी जीव एकान्ततः नारोग नहीं है। यही बात इस विशेषण के द्वारा दिखाई गई है कि रोगों सम्बन्धी दुःखों एवं श्राकुलताओंसे यह कर्मत्रयशून्य अवस्था सर्वपापरियुक्त है और इसीलिये पूर्णतः शिवरूप हैं।
तरकार
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भक्षयम् - क्षय शब्द "क्षि"२ धातुसे बनता हैं जिसका कि अर्थ विनाश होता है । जिसका क्षय न हो-जो चयसे रहित हैं, अविनश्वर है उसको कहते हैं- श्रम । यद्यपि इस शब्द के विशेषणरूप होनेके कारण अपने विशेष्य खुवार विभिन्नरूप की वर्ष हो सकते हैं। परन्तु यहाँ पर आत्माकी शिवपर्यायका विशेषण हानेसे उसकी अविनश्वरतारूप विशेषताको यह शब्द बताता है ।
यह तो सर्वसम्मत सिद्धान्त है कि एकान्ततः किसी भी द्रव्यका सर्वथा दय -- 1 - निरन्यय विनाश नहीं हुआ करता। क्योंकि द्रव्योंमेंसे किसीका भी निरन्वय विनाश अथवा किसी भी द्रव्यका असदुत्पाद मानने पर कोई त व्यवस्था ही नहीं बन सकती । अतएव उत्पाद और srest निरूपण द्रव्यकी दृष्टिसे नहीं अपितु उसकी अवस्थाओं की अपेक्षासे ही किया गया है। यहां पर भी यही बात है। न तो क्षय शब्दका अर्थ सर्णया अभाव निरन्वय विनाश है और न अपशब्दका अर्थ कूटस्थता ही है। एक अवस्थाकी अपेक्षा क्षय शब्दका प्रयोग है और दूसरी अवस्थाको अपेक्षा अदय शब्दका प्रयोग किया गया है। क्योंकि जीवद्रव्यकी सामान्यतथा दो अवस्थाएं हे एक संकारी और दूसरी मुक्तरं । इनमें से संसारावस्थाकी अपेक्षा य
१- रस रकमांस मेद अस्थि और शुक्र ये सात धातु हैं। और बात पित श्लेष्मा सिरा स्नायु बर्म और जठराग्नि ये सात उपधातु हैं। यथा-रसाद्रक' ततो मांसम् मांसान्मेदः प्रवर्तते। दोस्तो म मज्जाच्छुक्र ं ततः प्रजाः ॥ वातः पितं तथा श्लेष्मा शिरा स्नायुश्च धर्म च । जठराग्निरित प्राशैः प्रोक्ताः सप्तोपधातवः ।
२- भ्वादिगण परस्मैपद अकर्मक मनिट् । ३- सारियो मुकाश्च । ० सू० २०१० ।।
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चन्द्रिका नेका चालीपा श्लोक शब्दका और मुक्त अवस्थाको अपेक्षा अध्यशन्दका प्रयोग किया गया है । यहाँ पर यह विशेपख संसारावस्थामें पाई जानेवाली चयपरम्पराका शिवपर्यायमें सथा अभाव बताता है।
___ संसारावस्थामें चयका अर्थ तत्वत्पर्यायसम्बन्धी आयुका पूर्ण होना है। कर्मों के राजा मोहनीय कर्मका जबतक इस प्राणीको परिवर्तनशील सृष्टिके अपर शासम विमान है तब तक उसके जन्मभरणविभागका अधिकारी आयुर्म भी उसके अनुकूल ईशानदार संबककी तरह काम करता ही रहता है। अन्यमान-वर्तमान श्रायुके स्थानपरित्यागके पूर्व ही आगेके लिये नवीन आयु नियुक्त हो जाती है। उस नवीन आयुकं योग्य जीवकी पर्यायका होना ही जन्म,
और उससे पूर्व की वर्तमान भायुके योग्य अवस्थाकी समाप्ति ही मरस अथण क्षय कहा जाता है। जब तक मोहका साम्राज्य है सतक यह जन्ममरणकी परम्परा भी अक्षुण्ण भनी रहती है। किन्तु इसके विरुद्ध जब यह जीव योग्य कारणोंके मिलने पर अपनी स्वाधीन और पराधीन स्थितिको समझकर स्वायत्तशासनके लिये लक्ष्यबद्ध होजाता है--सम्बग्दष्टि बन जाता है उसी समयसे उसकी यह जन्ममरण परम्परा भी सौमित हो जाती है । और उस अवधिके अन. न्तर वह उस शिवरूप अवस्थाको अवश्य हो प्राप्त होजाया करता है जो कि जन्ममरण सम्बन्धी
आकुलताओं और दुःखों आदिसे सर्वथा रहित है। अतएव आयुकर्म और उसके कार्य तथा तज्जनित पराधीनता आदि दुःखोंके अभावसे प्राप्त होनेवाली परमशान्त स्वाधीनताको प्रकट करने के लिये ही शिवरूप पर्यायका यह अक्षय विशेषण दिया गया है।
जन्ममरण की परम्पराकै अभावको कंवल क्षय-मराका ही प्रभाव कहकर वशानेका माशय मरण सम्बन्धी दुःखोंको विशेषता प्रकट करता है। क्योंकि यह अनुभव सिद्ध है कि जीवों को जन्मकी अपेक्षा भरणका ही भय और दुःख अधिक हुआ करता है । सात प्रकारक मयोंमें भी जन्मका नाम न लेकर मरणकार ही नाम लिपा गया है। फिर भी इस क्षय भन्दसे केवल मरणका ही नहीं अपितु जन्म और उसके कारण भूत श्रायुकर्मका भी ग्रहण कर लेना चाहिये। मतलब यह कि इस अवस्थाके सिद्ध होजाने पर यह जीव पुनः कभी भी आयुकर्मका बंध नहीं करता, जन्ममरणके चक्करमें नहीं पड़ता, कर्मनिमित्तक अनुवीचिमरण और तद्भव मरणसे सर्वथा मुक्त होकर सदा-शिवरूपमें ही रहा करता है।
आगममें आयुकर्मका कार्य अपने योग्य शरीरमें जीवको रोककर रखना बताया है। किन्तु इसका आश्रय भव और नोकर्म मोहार है । क्योंकि आयुका अर्थ होता है एति
१-प्रभचन्द्रीय टीकामें अक्षय शब्दका अर्थ इस प्रकार शिखा है कि अक्षयं न वियते सपानम्चतुष्टयक्षयो यत्र॥
२-इहलोकभय १, परलोकभय २, वेदनामय ३, अत्राणभय ४, अगुप्तिभय ५, मृत्युभय क,भाक स्मिकमम ॥ इनफा विशेष स्वरूप जाननेके लिये देखो पंचाध्यायी अ०२ श्लो०५०४ से २४६।
-मामि भविषाई।का । ४-कर्मकांड 51
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सनफरसमावकाचार
. परभवम् इनि भायुः । जिसके उदयस इस जीवको अवश्य ही भवान्तर धारण करना पड़े उसको कहते हैं प्रायु । कर्मों के चार भेदोंमें आयकर्म भवविपाकी है। गतिकमक उदयसे जो जीवनी अवस्था-द्रव्यपर्याय हुआ करती है वही भा है और नहीं पायुका विपाकाधार है । किन्तु मयका नोकर्म तस क्षेत्र अथवा शरीर२ है। गागम में शरीरके निमित्तसे इम जीयक ६४ भव. गाहना स्थान पताये गये हैं। जिनमें कि यह संसारी प्राणी निरंतर परिभ्रमण करता हुआ अनेक दुःखका आयतन बना हुआ है। इन अन्तरंग कारसमि मुखिया मायुक्क छूटनेसे सम्बन्धित सभी कर्माकी तथा तज्जनिन परिकृतिको परम्परा भी समाप्त होजाती है और इसीलिये यह जीव चयरहित होकर अनन्त कालके लिये अक्षय शिवरूप होजाया करता है।
अन्यानाथम्---न विद्यते चि-विशेषेण विविधतया वा आ-समन्तात् बाधा:-दुःखकरसानिया | प्रास्ताके प्रत्येक भागमें विशिष्टरूपसे तथा नाना प्रकारस जहाँ रखों के करण भागाधारण कारण नहीं पाये जाते उसको कहते है भन्यावाच ।
शिवपर्याय का यह विशेषण वेदनीयकर्मके उदयसे संसारावस्थामें पाई जाने वाली धुषा मादि व्यापाषाओंके भमायको ही नहीं अपितु उनके एक असाधारण अन्तरंग कारख वेदनीय कमको निःशेषताकै निमित्त से प्रकट हुई निराकुलताको भी व्यक्त करना है।
बेदनीय कर्म मोहोदयके चलपर ही अपना फल देने में समर्थ है, अन्यथा नहीं, यह पान पहले भी कही जा चुकी है जो कि भागमस मी सिद्ध है। अतएव जहाँ तक वेदनीयकी उतिर्णा यह सहचारी निमिच विद्यमान है वहीं तवं बाधाएं भी पाई जाती है, इसके आम नहीं। यही कारण है कि जो मोहरहित हैं उनके ये बाधाएं नही पाई जातीं। वीण पाय गुणस्थानवी शुद्वोपयोगी छमस्थ श्रमण भी जय इन भाधामोंसे रहित है तब माईन्त्य अवस्था में तो कहना ही क्या है जबकि सभी घातिकोका निमूल धय हो चुका है। फिर भी भागममें जो वेदनीय निमसक ग्यारह परीपहोंच्यावाधामोंका अहंदवस्था में उन्लेख किया गया है उसका आशय कार्यरूप पाधाओंके बतानेका नहीं किन्तु उनके कारणभूत वेदनीपक
t-देखो राजधानिक प०२ के सूत्र के वार्तिक ०१-१२सानका भाग्य । २-कमकाएर ग०५८। ३-जीवकायलमा १५ से १.३।
४-पाति व योयं मोहस्स बखेण पावदे जीवं । इति षादीयं मग्झे मोहसादिम्हि परिरंतु ॥१५॥ क. का।
५-खो प्रवचनसार (कुद कुंथ) गाथा नं० १४ और उसकी टीका यथा-सुविहितपरत्वमुचो संजमत रमजुवो विगतरागो। समणो समसुदुक्खो भगिदी सुद्धोवओगोसि ||१४|| सफलमोहनीयविषाक विवेकमा नासौष्ठवस्फुटीकननिर्विकारात्मस्वरूपत्वारिष्ट्रगतरानः । परमकलाबलोकनाननुभवमानसातामातोबनीयनिसितमुखदुःखअनितामरम्मान समसुखदुःला अमनः शुद्धोपयोग इत्यभिधीयता प्र०॥
-काय सिने -११॥
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पन्द्रिका टीका चालीसयां श्लाक अस्तिस्वकी तरफ दृष्टि रखने और दिलानेका है। क्योंकि जहांतक कारणका अस्तित्व है वहां तक उपचारसे कार्यका भी सद्भाव स्वीकार किया जा सकता है। परन्तु वह वास्तविक नहीं माना जा सकता | आदरस्थाको पार करके जो जीव पूणे शिवरूपको प्राप्त होता है वह उस बेदनीय कर्मके अस्तित्वसे भी शून्य है। यही कारण है कि व्यााष विशेषणके द्वारा उसकी सर्वथा निराकुल सुखरूपताको आचार्य ने यहां पर यताया है। अहंद्भगवानकं अनन्त चतुष्टयमें जो अनन्त सुख बताया गया है वह इसीलिये अव्याचाथ विशेषण विशिष्ट नहीं माना गया है कि वहां पर बाधाओं के कारणभूत वेदनीय कर्मका अस्तित्व पाया जाता है । यह विशेषण अधाति कर्मोंका भी क्षय होनेके अनन्तर सिद्धावस्थामें ही पाया जाता है। यही कारण है कि भगवान समन्तभद्रने सम्यग्दर्शन के अन्तिम फलरूपमें बताये गये इस परम निर्वाणरूप ससम परमस्थानके साथ ही इस विशेषणका प्रयोग करके उस शिवरूप अवस्थाकी समन्तभद्रता स्पष्ट की है।
विशोकभयशंकम्-शोकश्च भयश्च शंका चेति शोकभशंकाः। विगताः शोकमयर्शका यत्र, स तम् विशोकभयशंकम् ।
मसलब यह कि वह विवक्षित इष्ट शिवपर्याय शोक भय और शंका इन दुर्भानोंसे भी सर्वथा रहित है।
शोक नामक नोकपाय वेदनीयके उदयका निमित्त पाकर और इष्ट माने हुए पदार्थका वियोग होने पर जो परिताप होता है उसको शोक कहते हैं। भयनामक नोकषायके उदयके निमित्तसे दुर्वलताके कारण प्रवन अनिष्ट प्राप्त प्रसंगसे बचनेकी जो आकुलता हुआ करती है उसको भय कहते हैं। चलिताचलित--उभयकोटिस्पर्शी अनिश्चयरूप भाचोंको जो कि अमुक विषयमें क्या होगा, क्या नहीं होगा, कैसा होगा, आदि भविष्यको चिन्तारूपमें हुआ करते हैं उनको शंका कहते हैं । यद्यपि भय और शंका दोनों शब्द एकार्थकर भी हैं। परन्तु यहां पर दोनों ही शब्दोंका पाठ पाया जाता है अतएव उनका एक अर्थ न करके भिन्न-भिन्न अर्थ करना ही उचित है।
____ इस विपरमें जहांतक निमित्तभूत कर्मोंके उदयको अपेक्षाको मुख्यतया दृष्टिमें रखकर विचार किया जाता है वहां तक शोक भय शंकामेसे शोकका कारण शोकनामक नोकपायवेदनीय भयका कारण वीर्यान्तरायके उदयके साथ-साथ भयनामक नोकषाय, तथा शंकाका कारण मोह और प्रानावरण कमे है जैसा कि ऊररके कथनसे मालुम हो सकता है। परन्तु जब इनके विषय की तरफ मुख्यतया दृष्टि रखकर विचार किया जाता है अर्थात् शोक भय शंकाका भाव विध विषयोंके सम्बन्धको लेकर प्रवृत्त होता है उनकी तरफ मुख्यतया दृष्टि रखकर यदि विकार
शमी साम भीतिः ।। ।
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रहनकरावकाचार किया जाए तो इनके शल्य अंतरंग कारण अपातिकम ही हैं, ५ स्पष्ट हो जाता है क्योंकि बीवभावोंके होने में मुख्य कारण मोहप्रमुख घातिकमाँका उदयादिक, और इनके विषयों--- विपाकाशयरूप शरीर तथा उससे सम्बन्धित अन्य सभी इटानिष्ट विषयों के लामालाभमें मुख्य अंतरंग कारण अपातिककर्मीका उदय ही है।
यों तो सामान्यतया सभी कर्मों तथा विशेषता अधातिककाँक फलोपभोग के लिये मुख्यतया अधिष्ठान शरीरती है जो कि नामकर्मके उदयानमार प्राप्त हुया करता है। फिर भी प्रकृत विषयको सामने रखकर यदि चारों अधाति ककि कार्गक विषयमें पृथक-पृथक विचार किया जाय तो मालुम होगा कि जिस तरह जरा और रुजा नामकर्म अनुसार; क्षय-मरखअनुचि-परख अथवा तयारण प्रायुक के अनुसार, पाराधा-क्षपदासा यादि संबंधी पाषाएं वेदनायकर्मक अनुसार प्राप्त हुया करती हैं जो कि सब शरीरसे ही संबंधित है उसी प्रकार भानुवंशिक पूज्यता प्रपूज्य ।। कीति अपकीरि प्रशस्तता अप्रशस्तता तथा गोन्यता अयोग्यताआत्मकल्याणमापनकी चमवा अदमता यादि भी गोत्रकर्मके अनुसार शरीर में ही प्रास कुमा१ करते हैं।
गोत्र फर्मके लक्षण कर्म आश्रय नोकर्म रयान्त पर ध्यान देनेसे गालुम हो सकता है कि प्रधापे गोधर्म जीवविपाकी है फिर भी उमा विपाकाशय शरीर ही है । तथा उसके दो भेदोंमें-उच्च नीच विकल्पोंमें इटानिष्टभाव भी, जब तक मोह साहचर्य बना हुआ है, भाये बिना रहता नहीं है। इसी प्रकार इष्टका वियोग होजान पर शोक, वर्तमानमें अनिष्टप्रसनकाय, तथा भविष्पमें कुलीनना नष्ट हुनकी शंका भी बनी ही रहती है। किन्तु मोह के निम्याण डोजाने पर जिस तरह मोदक ही सम्पन्य ने सुनाया फल देने में समर्थ अपातिकाँस नामका का कार्य-जरा और रोग, श्रायुकर्म का कार्य जन्ममरणकी परम्पराका मूल. भूत साधीन मायुकर्म का पन्ध, येहनीय कर्मका कार्य-चुधा आदि कार्यरूप बाधाएं नहीं गया करती; उसी प्रकार गोत्रकर्मका काय शरीर में कुलक्रम गत उच्चता सादिका विकल्प तथा उसके माश्रयसे ही होनेवाले शोक भय शंकाके भाव भी समाप्त होजाया करते हैं। फिर भी जब तक इन अपातिकमोंका उदय एवं विद्यमान है तब तक कारणके निमित होनेवाला कार्यका भी उपपरित बहार सर्वथा ममास नहीं माना जा सकता। और क्योंकि यह उदय एवं सम्म
-यह बात कही जा चुकी है.कि सजाति-प्रशस्त कुल-पिसृ पक्ष और जाति-मातृ पक्ष में सत्पन्न सुखा व्यक्ति की वीक्षा धारण करन का अधिकारी है। और इस तरह से वीक्षित विगम्बर जैन मुनि को निर्वाग प्राप्त कर सकता है।
...-०० का० "संताणकमेणागयजीवापरणत गोदमिदिमणा । उरचं गोचं घरणं पं णीचे दबे योरं ॥१॥ भवमस्सिय गीपि गोई णामपुरुवं तु ||१६|सालका रष्टान्त गा० न०२१||गूपते पादपये
मोगर।।
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चन्द्रिका टीका बालीमा लोक संसार पर्यायके अन्तिम सातक भी पना ही रहता है अतएव परमनिःश्रेगस शिवरूप माया में दी उनका पूर्ण अभाव होने के कारण उन दुभावों का भी प्रभाव बताया गया है। यही कारण है कि "शिव" का विशोकमयशङ्कम् विशेषण देकर उस पापको मात्रनिमिचक शोक मय शाखा श्रादि पाकुलताके भावोंसे भी सर्वथा रहित बताया गया है। और उस जोवपाश्री गोत्रकर्म का निःशेष ज्ञय पताकर गुरुता लघुता विषयक का पानिक कारण होनेवाले संक्लेशस पर्वथा दूर---असंस्पृष्ट शिवरूप पयाय ही सर्वथा पूर्ण निराकुल सुखस्वरूप है यह मभिप्राय सष्ट करदिया गया है। ___काप्ठागतभुखविद्याविभवम् ।-काष्ठा परमप्रकपं गताः प्राप्ता इति काष्ठागताः । सुखं च विद्या विभवश्चेति सुखद्याविभशः काष्ठागताः सुखविध विभवा यत्र । अथवा काप्ठामतः सुखविधयोविभवा यत्र तं काष्ठागत सुखविद्याविभवं प्रथात् उ. शिवपर्या में सुख विधा मौर विभव अथवा सुख और विधाका विभव परम प्रचषको प्राप्त होगया है, अथवा होजाना ।।
इस जगह काष्ठागत या परम प्रर्पको प्राप्त करनेस मतला जिनके सम्पूर्ण त्रिमाग प्रतिच्छेद शुद्ध साभाविक अवस्था में परिणत होकर प्रकाशमान होगय है उन अनन्त वतुष्ट रूप गुणाका बतानका है। माइ.मक अभारस सुख सम्यक्त्म और ज्ञानावरकमका पय हा आनेस विधा-अनन्तनान ग्रहण करना चाहिये । शानका उपलक्षण मानकर उसके सहयारी दर्शनको मात करनवाले दर्शनावरण कम निमल होजानसे प्रकट हुए भनन्तदर्शनका भी विद्या शब्दसे ही ग्रहण कर लेना चाहिये।
सिमा शब्दका भार्थ पृष्पकन वलाकर सुख और ज्ञानकी विभूति ऐसा बताया गया है। किन्तु इस इसे अनन्नवीर्य अथ भी लिभ जा सकता है। क्योंकि भवः-ससारका वि-विरुद्ध भाव ऐसा अर्थ ग्रहण करने पर और इस वातको दृष्टिमें लेने पर भव-संसर में भात्मबीर्थक्री मल्पता, उसका विच्छेद करने में आरमवीयंका कारण इस शब्दले वोर्गगुम का आशय लिया जा सकता है । क्योंकि चारित्रों द्वारा र्याचारके निमिषसे ही अविपक्षी काँका तय करके अनन्त चतुष्टयरूप यात्मगुणोंको प्रकट किया बाता है।
इस तरह इस पदके द्वारा अपला अनन्नज्ञान अनन्तदर्शन अनन्त सुख शीर अनन्त वीर्गरूप निजगुणों की पूर्णतया उद्भूति शिवपर्या में ही हुआ करती है, यह भाशय प्रकट किया गया है। । यद्यपि सुख शब्दके जो चार१ अर्थ प्रसिद्ध हैं उनमें से मोखमम्मी सुख जो कि बास्तवमें आकुलताओं के अभावरूप है, चतुर्थ गुणस्थानवी संयतसम्यग्हप्टिसे लेकर प्रत्या केवली अरिहंत भगवान् नक सामान्यतया पाया जाता है और वह पूर्ण कारिका पाक्षित जीबमुक भवस्थामें अनन्त विशेषणसे युक्त भी है। फिर भी यहां पर धड़ सुख भव्या महा
-विषये वेदनाभावे विपा मोल एव च । लोके चतुर्विहार्थेषु सुखशनः प्रयुब्यवे॥॥१० मार २-क्योंकि सभी बेनीवका मस्तित्व है।
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रत्नकररहश्रावकाचार है। वेदनीय प्रभृति अघाति कमौका निःशेष कथ होने पर इस शिवपर्यायमें ही वह अव्यायाध हुमा करता है। अतएव इस शब्दके द्वारा यहीं पर अनुभवमें आनेवाली पूर्ण निराकुल निर्षिकार स्वाधीन परम शान्तिका परिज्ञान कराया गया है।
प्रश्न- प्रवचनसारके प्रथम ज्ञानाविकारकी गाथा नं. ५३ की उत्थानिकामें श्री अमृत चन्द्राचार्गके इस वाक्यसे कि “अथ ज्ञानादभिन्नस्य सोख्यस्य स्वरूपं प्रपंचयन् ज्ञानसांख्ययोः हेयोपादेयत्वं चिन्तयति" मालुम होता है कि ज्ञान और सुख भिन्न नहीं है। अनुभवसे भी ऐसा ही मालुम होता है कि ज्ञानसे सुख और छज्ञानसे आकुलता रूप दुःख हुया करता है। अतएव दोनाको एक ही मानना चाहिये । फलतः यहां पर मुख और विद्यः दानाक ग्रहणकी क्या आवश्यकता है?
उत्तर—आनाक दोनों ही गुण स्वतन्त्र । ३ ५ नहीं है। मोहनीय कर्मक अभाव से सुख और ज्ञानावरण कर्म के क्षय से अथवा क्षयोपशमस झान हुआ करता है । दोनोंका कार्य भी भिन्न २ ही है। दोनों को अभिन्न जो कहा जाता है उसका कारण इतना ही है कि वे एक ही द्रव्य के गुण है और कभी भी चे परस्पर में एक दूसरको छोड़कर नहीं रहा करत । तथा परस्परमें एक दूसरेका पूरक हे और ज्ञान सुखका मुख्य एवं अन्तरंग साधक भी है।
प्रश्न-उपर ज्ञान में दर्शनका भी अन्तभाव कर लनफे लिये कहा है उसी प्रकार सुख में वीर्यगुण का भी अन्तर्भाव कर लेने पर अनन्तवार्यको बतानक लिये पृथक विभव शब्दको अहस करनेकी क्या आवश्यकता है ? सुखमें ही विभव-वीर्यगुणका अन्तभाव क्या नहीं किया ?
उत्तर---अनन्त मुख अनन्त ज्ञान और अनन्त दर्शन तीनों ही की उद्भातम बीय गुण प्रधान निमिच है । पुरुषार्थ के रूपमें वीर्य मुणको काममे लिये विना श्रात्माका कोई भी गुण प्रकाशमान नहीं हो सकता । इस अभिप्राय को प्रकट करने के लिये उसका पृथक उन्लेख भावश्यक है।
"सुखविद्याविभवाः" शब्दके जो दो समास किये गये हैं उसके अनुसार पाये जाने बाले विशिष्ट अर्थ का भी यहां ग्रहण करलेना चाहिये । व्याकरण के नियमानुसार तत्पुरुष समान उत्तरपदार्थ प्रधान हुआ करता है और इन्द्व समास सर्व पदार्थ प्रधान हुआ करता है। तस्युन समास के पक्ष में विभव-वीर्यगुण इसीलिये प्रधान कहा या माना जा सकता है कि अन्यगुखाँकी तरहथवा उनसे भी कहीं अधिक सुख और विद्याकी समुद्भति में वह बलवत्तर निमिच है। द्वन्द्व समास करनेका कारण यह है कि वर्तमान शिवपर्याय में जब कि पुरुषार्थ का कार्य समाप्त हो चुका है आत्मा के सभी गुण समानरूप में अवस्थित हैं । फलतः तस्वरुष समास के करने से
-उत्तरपदार्थप्रधानस्तत्पुरुषः, अन्यपदार्थप्रधानो बहुप्रीहिः, सर्वपदार्थप्रधानो धन्दा, पूर्वाम्यपणार्थ अनोऽवयीभावः । (कास)
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यह बात सूचित हो जाती हैं कि विना पुरुषार्थ के अनन्त सुख और अनन्त ज्ञान ही नहीं किन्तु फर्माटक वह शिवपर्यायभी अभिव्यक्त नहीं हो सकती जो कि विविध श्राकुलताओं के कारणभूत के सर्वथा विनष्ट होने पर ही सर्ववित्र निराकुलताओंसे विशिष्ट हुआ करती है। क्योंकि जबतक साध्य सिद्ध नहीं हो जाता तबतक साधन अवस्था मुख्य रहा करती है कारण यह कि साधनके बिना साध्यका सिद्ध होना कठिन ही नहीं असंभव है । अतएव जबतक शास्मद्ररूप और उसके प्रत्येक गुणकी पूर्णतया शुद्धि नहीं हो जाती वहां तक आत्माको पुरुषार्थ आवश्यक रूपसे करना. ही पडता है । और इसके लिये उसको प्रारम्भ में बाह्य द्रव्यों का भी अवलम्बन लेना ही पड़ता है तथा अपनी शक्तियों का भी उपयोग करना पड़ता है । ज्यों २ श्रात्मा साध्यरूप अपनी अवस्था की तरफ अग्रसर होता जाता है त्यों २ सभी बाह्य साधन अनावश्यक होते जाते हैं और वे अनायास ही छूट जाते हैं।
सर्व प्रथम दर्शनमोडके विनाशका, फिर चरित्र मोहके क्षयका, उसके बाद धात्रिय के घात का प्रयत्न हुआ करता है और उसमें अवस्थानुसार बाह्य पदार्थों का माश्रय लेना पड़ता है यद्वा वे निमित्तरूप बना करते हैं। इतना हो जानेपर भी उस सफल परमात्माको अघाति कर्मों को भी निःशेष करने के लिये उनके पीछे भी पड़ना ही पड़ता है। सूक्ष्म क्रिया प्रतिपाति और क्रिया निवर्तन से व्युपरतिके लिये भी बीर्य गुरुणको श्रम करना ही पड़ता है। तब कहीं शिव स्वरूप की सिद्धि होने पर यह जीव विभवरे हुआ करता है। इस प्रकार तत्पुरुष समासके द्वारा मोक्षमार्ग और साध्यरूप शिवपर्यायी प्रयत्नसाध्यता स्पष्ट हो जाती है। इसके जनन्तर भी वह वीर्य आना काम करके "दीपनिर्वाणकल्पमात्मनिर्वाणम्" के सिद्धान्तानुसार सर्वथा समाप्त नहीं हो जाता, वह भी अन्यगुणों के समान उनके बराबर में ही स्थित रहता है और कृतकृत्य होकर तथा अपन शुद्रस्वरूपमें अनन्तकाल के लिये विश्रान्ति लेते हुए भी जन्य अनेक वायिक रे भावा को प्रश्रय दिशा करता है। इस तरह सम्यग्दर्शन के कारण प्राप्त होने वाले अन्तिम फलसंसार और उसके दुःखोंसे सर्वथा विनिवृत्ति तथा समन्वती भद्र उत्तमसुखस्त्ररूप शिक-र्याय की निध्यसिंमें दोर्य गुण का जो महत्वपूर्ण उपयोग हैं वह व्यक्त होता है।
विमलम् --- विगतो भलो यस्मात् अथवा यत्र तम् विमलम् । जहां पर किसी भी प्रकारका मल-दोष कलंक, अशुद्धि, पवित्रता, अथवा उसके कारणभूत पर पदार्थ का सम्पर्क नहीं रहा
१- तांरंमन्समुच्छिन्नां यानिवातीन ध्याने कंचलनः सम्पूर्णयथास्य । तचारित्रज्ञानदर्शनं सर्वससार दुःखजालपरिष्वंगोच्छे जननं साक्षान्मः चाकारणमुपजायत । स पुनरयोगिकेवली भगवांस्तदा ध्यानानसनियेसर्व मलकलबन्धो निरस्त किट्टधातुपाषाणजात्यकनकवलकारमा परिनेवति ॥ त० ५० ६-४२॥
२ - विगतो भयो यस्य नष्टसंसारः ।
३ -- यदि क्षायिकदानादिभावकृतमभयदानानि सिद्ध ष्वपि तत्प्रसंगः। नैष दोषः । शरीरनाम तीर्थंकर कर्मोदयाद्यपेक्षत्वात् तेषां तदभाव तदप्रसगः । कथं तर्हि तेषां सिद्धेषु वृत्तिः १ परमानन्तयोर्षाव्वादाच सुखरूपवतेषां तत्रवृतिः । केवलज्ञानरूपेणानन्तवोचित्या
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रलकरगडावकाचार है । शिवपर्यायका यह समस्त दांपाक अभावको वतानवाला अन्तिम विशेपर है। जो इस घातको बताता है कि शिवपर्यायमें परिणत होने पर जीव के साथ न तो द्रव्यकर्म भावक्रम नो कर्मरूप पुद्गलका किसी भी प्रकारका सम्पर्क रहा करता है और न तजनित कार्योकं सद्भाव के विषय में किसो भी प्रकारकी शंका ही शेष रह जाती है। भविष्यमें फिर कभी भी इस तरह की प्रशुद्धि प्राप्त नहीं होगी पह भाशय इससे सूचित हो जाता है । क्योंकि यदि किसी भी पदार्थ के एक बार शुद्ध हो जाने पर भी पुनः अशुद्ध होनेकी संभावना बनी हुई है, आत्माके सुखी हो जाने पर भी फिरसे उसके दःखी होने की सम्भावना पाई जाती है तो उस वास्तष और सर्वका एवं पूर्णरूप: शुद्ध तथा सुखी नहीं माना या कहा जा सकता । यथार्थमें सुरू वही है जो कि फिर अपने स्वरूपसे च्युत नहीं होता और न हो सकता अथवा जिसमें किसी भी प्रकारकी असुखताका भाव अथवा मिश्रण नहीं पाया जाता।
शंका हो सकती है कि कर्म नोकर्मके हट जाने पर भी तमिमित्त कार्य यदि बना रहे तो क्या हानि है ? सिद्धावस्थास पूर्व जर्मनीने धिमिरा रिपार जी का होता है वही मुक्त होने पर भी बना रहता है। इसी प्रकार अन्य कर्मकृत काकि विषय में भी यदि माना जाय तो क्या श्रापत्ति होगी ! इसका उत्तर "विमलं' विशेपणस हो जाता है क्योंकि यह पर्याय सभी तरहके और समस्त विकारोंसे रहित है, यही इसका भाशय है । मुकावस्थामें जो प्राकार रहता है वह अन्तिम शरीराकारसे किंचिद् ऊन होता है और यह श्रात्माके स्वभावक विरुद्ध कोई विकार नहीं है और न फिर उसमें कोई अन्तर ही पड़ता है। ऐसा यदि न माना जायमा तो संसार और मोक्षमें किसी भी प्रकार अन्तर ही स्थापित नहीं किया जा सकता। फलतः इस विशेषणसे मुक्त जीवके सम्यक्त्वकी पूर्ण निर्विकल्प समीचीनता, उसकी अनन्तकालीन तदवस्थिति, पगुणपर्यायकी सम्पूर्ण विशुद्धि, आदि विषयोकी सिद्धि और साथ ही अवतार वादका खण्डन भी हो जाता है।
___ मजन्ति-क्रियापदका अर्थ संपन्तै प्राप्नुवन्ति अथवा अनुभवन्ति होता है । जिसकी मतलब यह होता है कि सम्यग्दर्शनकी शरणग्रहण करनेवाले अन्त में उस समस्त विशेषखोस सर्वात्मना शिवरूप पर्यायको अवश्य ही प्राप्त किया करते है । तथा पदार्थमात्र उत्पादध्यमधौव्यात्मक एवं परिणमनशील होने के कारमा उस अवस्थामें भी पुनः पुनः परिगमन करते रहने पर भी उसी शुद्ध सुखरूप अवस्थाका ही सेवन करते रहते हैं, प्रतिषण नये-नये रूपमें भी उसीको प्राप्त करते रहते हैं और सदा उसीका एकरूपमें दी अनुभव करते रहते हैं।
दर्शनशरणा:-इस पदका दर्शनं–सम्पग्दर्शनं शरी-प्रवरा येषाम् । इस तरह बहुव्रीहि समासकै रूपमें अथवा दर्शनस्य शरणाः इस तरह पछी तत्पुरुष समासके रूपमें, दो वरासे विग्रह हो सकता है । मर्यात् दर्शन ही है शरण जिनके, अथवा जो दर्शनकी धरसमें --
५-परनिरपेक्षाः बागलघुविकाराः । बनसोचवले ।
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सम्यग्दर्शनने जिनको अपनी शरण में ले रखा है वे जीव इस तरहकी शिवको अन्त अवश्य प्राप्त किया करते हैं।
दो तरह समास जिनका कि यहां निर्देश किया गया हैं, उनके अर्थ में जो धन्तर पड़ता है उसका स्पष्टीकरण "सुखविद्याविभर्व" का अर्थ करते समय किया जा चुका है। उसी प्रकार यहां भी तत्पुरुषमें उत्तर पदार्थको प्रधान मानकर और बहुव्रीहि समास में अन्य पदार्थको प्रधान मानकर भिन्न भिन्न दो तरहसे अर्थ कर लेना चाहिये ।
सोत्पर्य यह कि सम्यग्दर्शनका जो अन्तिम और वास्तविक फल बताया है वह शिवपर्यायी निष्पति है जिसका कि स्वरूप इस कारिकाके द्वारा बताते हुए उसके संबंध में प्रायः सभी ज्ञातव्य विषयों का स्पष्टीकरण कर दिया गया है।
आत्माकी यह वह अवस्था है जो कि अनादिकाल से चली आई उसकी दुःखरूप संसार अवस्था और उसके समस्त भेदोंसे परे तथा उस संसार एवं उसके सभी विकल्पों के कारखांसे भी सर्वथा असंस्पृष्ट है। यह दुःखरूप संसार से सधा पृथक और सभी अंशोंमें कल्याणरूप है । यही कारण है कि इसको शिव नामसे कहा गया है। इस नामसे उसका सदभिधान करके, न केवल पूर्ण मुक्तावस्था के न मानने वालोंका खण्डन ही कर दिया है, बल्कि शिव नामसे कहकर उसको केवल निदु:ख - निराकुल- मज्ञानादिदोषोंसे रहित कहकर केवल निषेधरूप में अथवा याकार परिच्छेद परांगम्मुख चैतन्यरूपमें कहने वालोंका भी परिहार कर दिया है। सम्यग्दर्शन के फलरूप में दिखाकर उसकी कारणन्यता बताते हुये ईश्वरकी अनादिमुक्तता के विषय में हो सकने वाले श्रद्धानसे भी भव्य जीवोंको बचा लिया है। साथ ही यह भी स्पष्ट कर दिया है कि जो भी भव्य जीव इस समर्थ कारणको अपने प्रयत्न से -- निसर्ग अथवा अधिगम द्वारा प्राप्त करलेगा बड़ी इस पर्यायको प्राप्त कर सकता है। अतएव इस विषय अहं तवादकी मान्यता किसी भी तरह युक्त नहीं है । इसी तरह शिवके अजर यदि सात विशेषणोंके द्वारा मी विभिन्न विपरीत मान्यताओंका निषेध करके उनकी श्रश्रद्धेयता व्यक्त कर दी गई है। तथा प्रकृत ग्रन्थकी आदि जिस धर्म के वर्णनकी प्रतिज्ञा की गई है और प्रतिज्ञाके समय उसकी जो समीचीनता तथा कर्म निवईणता श्रादि विशेषताका उल्लेख किया गया है उसकी तरफ भी यहां अध्याय की समाप्तिसे पूर्व उपसंहार करते हुये दृष्टि दिला दी गई है।
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सिद्धावस्था में अभिव्यक्त होने वाले आत्माके आठ गुण प्रसिद्ध हैं। जो कि दो भागों में विभक्त हैं-वार अनुजीवी और चार प्रतिजीवी । कारिका के पूर्वाधमें चार प्रतिजीवी मस्व, अवगाहन, अध्याबाध और अगुरुलघुत्वको तथा तीसरे चरण के द्वारा अनन्तचतुष्टय रूप में चार भनुजीबो-- अनन्त सुख अनन्त ज्ञान अनन्तदर्शन और अनन्तवीर्य गुणों को बताया है। तथा विमल कहकर उसकी सभी शेष विकृतियोंसे भी शून्यता परमशुचिता तथा औपचारिक दोनोंसे भी रहित पवित्र स्नातकता बता दी गई है।
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गल्करावकाचार सप्त परमस्थानोंके रूप में सम्यादर्शनके ग्राम्युदयिक फलोंका वर्णन हो जाने पर प्रश्न यह खड़ा हो सकता है कि क्या सभी सम्यष्टियोंको ये सभी आभ्युदायिक फन प्राप्त होते ही है ? अथवा ये फल एक जीवकी अपेक्षामे कहे गये हैं अथवा नानाजवों की अपेक्षासे । इसी प्रकार इन अम्पुदयों को प्राप्त किये बिना भो कोई जीव सम्यग्दर्शन के बल पर ही संसारके दुःखों से सर्वथा परिमुक्त हो सकता है या नहीं ? इत्यादि । इन सब प्रश्नोंका संक्षेपमें उचर इस प्रकार है कि सम्यग्दृष्टि जीवमात्रको ये सभी आशुदयिक फल प्राप्त हों ही ऐसा नियम नहीं है। यह फल वर्णन एक जीवकी अपेक्षासे नहीं नाना जीवोंकी अपेक्षासे किया गया है तथा केवल सम्यग्दर्शनके ही बलपर कोई भी जीव निर्माणको प्राा नहीं कर सकता।
सम्यग्दर्शनको उत्पत्तिके पूर्व जीव दो प्रकार के हो सकते हैं-एक बद्धायुष्क और दसरे अबद्धायष्क । जिन जीवों को चार आयुकमिसे किसी भी परभव सम्बन्धी श्रायुकर्मका बन्ध हो चुका है वे सब बद्धायुष्क हैं। इस तरहके जीवमिसे जिन्होंने जिस आयुका बन्थ किया है वे उस आयुकर्मक बंधक अनन्तर सम्पग्दर्शनके उत्पन्न हो जाने पर भी उस रद्ध भायुक अनुसार ही गतिका पात किया करते हैं। परन्तु जो अपद्वायुष्क हैं, सम्यग्दर्शन प्रकट होनस पूर्व जिन्होंने किसी भी आयुका बब नहीं किया है ऐसे जीव सम्पग्दर्शनके विद्यमान रहत हुये देवायुके सिवाय अन्य किसी भी प्रारबंध नहीं किया करते। फिर चाहे वे मनुप्य हों अथवा तियंच। यदि कोई मनुष्य तद्भव मोक्षगामी हो तो यह किसी भी वायुका वध न करके उसी भवसे भवरहित इस शिवपर्यायको प्राप्त किया करता है। ऐसा जीव ऐन्द्री श्रादि जातियों तथा सुरेन्द्रता श्रादि परमस्थानोको प्राप्त नहीं किया करता । परन्तु यह बात-तद्भव मोच उसी मनुन्यमें संभव हो सकती है जिसको कि सज्जातित्वादि तीन प्रथम परमस्थान पहलेसे प्राप्त हैं। जिसको कि वे प्राप्त नहीं हैं वह जीव ऐसी देवपर्यापको भी प्राप्त नहीं कर सकता जो कि निर्ग्रन्थलिंगसे ही संभव है, तब वह निर्वाणको तो प्राप्त ही किस तरह कर सकता है । निर्वाय अवस्था मिना चारित्रके केवल सम्यग्दर्शनसे नहीं हुआ करती। तथा चारित्रके विषय में नियम है कि जो अबद्धायुष्क है, अथवा जिसने देवायुका बंध कर लिया है वही उसको धारण कर सकता है। ऐसा जीव जिसने देवायुको छोड़कर अन्य तीन आयुओंमेंसे किसीका भी बंधकर लिया है यह न देशव्रत-संयमासंयमको प्राप्त कर सकता है और न सकलसंयम महाव्रत ही थारखकर सकता है। किन्तु यह निधन है कि निर्वाण अवस्था सम्यक्त्वसहित चारित्रके बिना सिद्ध नहीं हो सकती प्रत्युत वह साधारण चारित्रसे भी नहीं हो सकती । सर्वोत्कृष्ट चारित्र-जिनलिंगके द्वारा जो जो अनन्यवरण हाकर अपने सम्यक्त्वका आराधन करते हैं वे ही इस सर्वाशमें कल्याणरूप अवस्थाका प्राप्त हो सकते हा ग्रन्थकारका यही तात्पर्य है।
१-अणुववमहब्बदाईण लहइ देवाउन मा तु॥ २-जैसा कि अन्य प्रारम्भिक परों और यहां दिये गये "दर्शनशरणा पर से जाना जा सकता।
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पान्द्रका टीका थालीसा श्लोक दर्शनशरणाः पदसै यपि सम्यग्दर्शन ही मुख्यतया ग्रहण करनेमें माता है स्थापि इसमें दर्शन शब्दसे सम्यग्दर्शन और शरण शब्दसे सम्यग्ज्ञान और सम्यक चारित्र दोनोंका अथवा केवल सम्पक चारित्रका भी प्राण अवश्य कर लेना चाहिये । क्योंकि केवल सम्यग्दर्शन, विना ज्ञान और चारित्र को भी सहायता अथवा कथंचित् केवल चारित्रकी भी सहायताके न सो अपना ही पूर्ण विकास कर सकता है—निस्तरण अवस्थाको प्राप्त हो सकता है और न सम्भूर का ही निशेष पथ कर सकता है। कारण यह कि एक मनादि मिध्यादृष्टि जीवको अपनी परिपूर्ण शुद्ध अवस्था में परिणत हानक पूर्व अपने गुणोंके स्थानों में जो शुदिका क्रमसे विकास करना पड़ता है उसमें मोहका प्रभाव ही केवल कारण नहीं है, योन भी बहुत बड़ा निमित्त है । मोहके अभाव अथवा सम्यग्दर्शनके होनसे भूमि शुद्ध होती है और बीज अंकुरक उत्सादनका योग्यता प्रकट होता है | किन्तु इतने मात्रसे ही तो पच उत्सम होकर फल हाथमें नहीं प्राजाता। उसके लिये अन्य भी अनेक प्रयत्न करने पड़ते हैं। यह प्रयत्नस्थानीय ही यांग अथवा चारित्र है । विवचित गुणस्थानाम चारित्रका क्षेत्र थोड़ा नहीं है। सम्यक्त्वोत्परिक वाद चौथे गुणस्थानिस ऊपर दस गुणस्थानामें चारित्रका ही प्रभुत्व है। सम्पूर्ण कोका निर्जरा होन में भी तपश्चरणक रूपमं चारित्रवा हा प्रवल साझय्य काम किया करता है। हां, यह ठोक है कि इस सब कामको सिद्धि के मूलम सम्यग्दर्शन हो अपना कार्य किया करता है। किन्तु इसके पहले जो उसकी उत्पत्ति के लिए जावका प्रथम हुमा करता है हमी उपेक्षणीय नहीं है। वह पुत्र जो अपने पिता जनककी अवगणना या निन्दय करनेवाला कितना ही योग्य क्यों न हो, प्रशस्त नहीं माना जा सकता । यह मालुम होने पर कि पिना सम्पन्दशेनके संसारके दुःखामे एकान्ततः मुक्ति नहीं हो सकती, जी भजीव कौकी पराधीनता से सर्वथा छुटकारा पानेक लिये अनन्य शरण होकर उसीकी उत्पचि वृद्धि एवं सम्पूर्ण सफलता के लिये अपनी समस्त शक्तिको लगा देता है वह अवश्य ही एक दिन उपयुक्त शिवपर्याय को प्राप्त कर लिया करता है और कुतकाय हुआ माना जाता है, उसीका पुरुषार्थ सफल समझा जाता है । उसको जबतक वह अपनी शुद्ध सुखमय अवस्था प्राप्त नहीं हो जाती तब तक चैन नहीं पड़ती, और उसके पूर्व कर्मों के द्वारा उपस्थित किये गये बड़े बड़े प्राभ्युदयिक पदों के प्रलोभन भी उसको लक्ष्य भ्रष्ट करने में समर्थ नहीं हुमा करते। यह टोक है कि प्रबल पुरुषार्थी भव्यजीवके प्रयत्नसे उत्पन्न हुए पुत्र स्थानीय सम्पनत्वके अतुलित प्रभाव एवं माहात्म्यको मानों दृष्टिमें लेकर ही भयातुर और अपने साम्राज्यके लिये चिंतित होकर कर्मशत्रुओंकी सेना सक पुण्यफलोंको देकर उससे संधि कर लेना चाहती है परन्तु अपनी शक्तिया पर पूर्ण मरोसा रखने वाला यह अनन्तवीर्य मन्य उन टुकड़ों के बदलेमें अपने उस अनुपम प्रैलोक्याधिपतिस्मक स्वाधीन अधिकारको बोबना रंचमात्र मी पसन्द नहीं करता।
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रलकरावकाचार सम्यग्दर्शनन जिसको अपनी शरणमें लिया है और जिसके अनेक गुणोंके भण्डार का अस्त्रागारमें सुदर्शन चक्के समान सम्यग्दर्शनरूप अमोघ अस्त्र प्रकट होकर साथमें मागया है वह तो किसी भी प्रतिपक्षीस संधि न करके अपने ही पुरुषार्थ के बल पर स्वाधीन अनन्त अव्याबाधमुख साम्राज्य पर अपना पूर्ण अधिकार प्राप्त करके ही विश्राम लिया करता है। जिसके कि बाद फिर उसे अनन्त काल तक भी ८४ लाख योनियों में से किसी में भी भाना नहीं पड़ता, माताके गर्भाशयमें अवतार धारण करके उसका उच्छिष्ट ग्रहण नहीं करना पड़ता। --पहियानके अनन्तर उसका स्तनधान नहीं करना पड़ता। शकर आदिको पर्याय प्रासकर मलमचषका काम नहीं करना पड़ता,१ सहज शारीर मानस आगन्तुक पाथाओंसे पीडित नहीं होना पड़ता, अपने स्वाभाविक परमसूक्ष्मरूपको छोड़कर विकृत स्थूलरूप धारण नहीं करना पड़ना, उच्च नीच छोटा पड़ा दरिद्र श्रीमन्त प्रादिके रूप धारण करके बहुरूपिया नहीं बनना पड़ता। वह तो अपने उस शास्तविक सम्यक् सत् चिन् आनन्द स्वरूपमें ही, जो कि स्वयंके ही इन स्वाभाविक गुणोंके सिवाय अन्प भी अनन्त और परस्परमें अभिमरूपमें ही रहनेवाले गुणोंका अखसह पिण्ड है, सदा निमग्न रहा करता है।
इस प्रकार सम्यक्त्वक प्रतापले सम्यक बने हुए पुरुषार्थक निमित्तसे सबसे प्रथम प्रपल वम-~-मोह और तदनन्तर प्रमलतर पातित्रपका विधान करके अनन्तचतुष्टयको हस्तगत करने वाला भव्य परमात्मा सांसारिक किसी भी तरह की उपाधिस भी युक्त न रहने की भावनास ही मानों भवातिचतुष्टयको भी निश्चिन्ह मनाने के लिये प्रयत्नशील होता है और उसमें भी सफलआ प्राप्त करके अपने विशुद्ध भावरूप लक्षण अव्याराव सूचमत्व भवगाइन और अगुरुलधुन्व से भी विभूषित होकर मनन्त कालके लिय विश्रान्त होजाया करता है। वही अशरीर परमात्मा पुनर्जन्मसे रहित होनेके कारण अज है, समस्त देवों के द्वारा प्राराध्य अभिवन्द अभिगम्य वादि होनेके कारण दवाधिदेव महादव है, अपने चिरवरूपमें सम्पूर्ण कालिक सृष्टि-द्रव्य गुंख पर्यायोंकी समष्टिक परिच्छिन्न रहन तथा चीरसमुद्रको भी सर्वथा श्वगणित करनेवाले अपने ही सुखसागरमें निमग्न रहनवाला अनन्तशायी विष्णु है । और वही सम्पूर्ण कर्मशत्र ओं पर विजय प्राप्त करके अपनी अविकल गुण लक्ष्मीको सिद्ध करनेवाला प्रसिद्ध सिद्ध जिन भगकान है।
इस तरहकी समन्त भद्र शिवपर्याय यद्यपि चारित्रके पिना केवल सम्यग्दर्शनसे ही सिर नहीं हुआ करती जैसा कि ऊपर बताया गया है तथा ग्रन्थकी भादिमें स्वयं अन्यकर्ताने भी खायको ही संपारके उच्छेद भार परमनिःश्रेयसपदकी सिद्धिका साधन बताया है। फिर भी जैसा कि इस अध्यायमें निरूपण किया गया है खत्रयमें मुख्य सम्यग्दर्शन ही है। क्योंकि उसके
१-कुछ लोगोंने ईश्वरका शकरावतार भी माना है जिसने कि प्रथाजीकी सष्टिको उसके बायें हरण दैत्य द्वारा रपे गये विष्टाफ कोटका सक्षम करके रक्षा को थी।
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घान्द्रका टीका चालीसवा श्लोक बिना प्रात्माका कोई भी ज्ञान चारित्र आदि गुण मोक्षमार्गमें सफल नहीं हो सकता। और विवक्षित मोचपुरुषार्थकी दृष्टि से ऐसा कोई भी पुण्यजनित आभ्युदपिक पद प्रशंसनीय एवं उपादेय नहीं माना जा सकता तथा न मुमुचु संतोंको अभीय ही है जो कि इस जीवात्माको निर्वाण की तरफ अग्रसर नहीं बनाता । फिर भी आगममें पुण्यरूप तथा पुण्यानुबन्धी क्रियाएं भीदान पूजा शास्त्रस्वाध्याय संयम तप गुरूपास्ति आदि आर्याचार एवं व्रत नियम आदि प्रात्म परिणाम भी धर्म तथा सम्यग्दर्शन-व्यवहार सम्यग्दर्शन माने गये हैं और नाये गये हैं क्योंकि वे सम्यक्त्वकी उत्पनिमें निमित्त हैं तथा अन्तरंग सद्भा सम्यग्दर्शनके ज्ञापक साधन है।
सम्यग्दर्शनकी प्रधानताका कारण पहले वत:या जा चुका है । परन्तु सम्यक्त्व और चारित्रमेंसे एकको मुख्य दूसरेको गौण विवचाविशेषके कारण मान लेने पर भी सबसे बड़ी बात यह है कि प्राचार्योने चारित्रसे रहित सम्यग्दर्शनको नहीं किन्तु सम्यक्त्वरहित चारित्रको ही मोबमार्गमें अकिंचिरकर बताया है । यही कारण है कि प्राचायन यहां पर "दर्शनशरणाः" इस कत पदके द्वारा उन सम्यग्दृष्टियों को ही शिवपर्याय साधनमें स्वातन्त्र्य दिया है जिन्होंने किया तो पूर्ण प्रयत्न करके किसी भी प्रकार--मर पचकर भी एक बार दर्शनमोहके उदयको उपशान्त कर दिया है । अथवा जी सम्यक्त्व मौर चारित्र दोनोंसे युक्त होते हुए भी कदाचित् दुर्दैवके आक्रमणवश चारित्रमे च्युन होजाने पर सो सम्पलसे रिक्त नहीं हो सके हैं , जिनके सम्यक्त्वने अपने उस आराधकका हाथ नहीं छोडा है। ऐसे जीव यदि तवमोचमामी है वो उनके लिये तो इन भवान्तरमें प्राप्त होने वाले आभ्युदयिक पदोंक विषयमें कोई प्रश्न ही नहीं उठना परन्तु जी भवान्तरसे मोक्षको प्राप्त करनेवाले हैं उनकी दृष्टिसे और नाना जीवोंकी अपेक्षा से ही बताया गया है कि उनको मोष जानेसे पूर्व इस तरहके पद प्राप्त हुआ करते हैफिर भी यह ध्यान देने योग्य बात है कि इन कथित सम्यग्दर्शन के फलस्वरूप सप्त परमस्थानों से पादिके तीन और बहा परमाईन्त्य पद शिवपर्यायकी उपलब्धिमें ऐसे असाधारण कारण है कि जिनके बिना वह सिद्ध नहीं हो सकता । हां, यह ठीक है कि प्रथम तीन पद असमर्भ और छट्ठा पद समर्थ कारण है । सुरेन्द्रता और परमसाम्राज्य ये दोनों ही पररथान है, सभ्यमस्वके निमित्त और विशिष्ट सरागभावकै कारण सम्यग्दृष्टि जीवको प्राप्त होनेवाले ये संसारक प्राम्युदयिक स्थान तो अवश्य हैं; और यह बात भी सत्य है कि इन पदोंको प्राप्त करनेवाले बीब नियमसे निर्वाण प्राप्त किया करते हैं फिर भी निर्वाण परमस्थानकी सिद्धिमें इनको कारखवा प्राप्त नहीं है। क्योंकि कारण वे ही हुआ करते और माने गये है कि जिनके बिना कार्य उत्पम ही न होसके२ । ये दोनों ही पद ऐसे नहीं है कि इनके पिनर शिवपर्याय प्राप्त ही न हो। परन्तु
१--दंषणभट्टा भट्टा सणभट्टीण णस्थि णिवाणं सिन्मति परियभट्टा समभट्टा ग सिझति ।। -मावामावास्या यस्योत्पत्यजुरपत्री संवत्कारकम् ॥
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रत्नकररहमाचकाचार परमाईन्त्य पद ऐसा है कि तत्पूर्वक ही परमनिर्वाणकी प्राप्ति हुआ करती है । मीर भार्हन्स्य पद परम दिगम्बर जिनमुद्रा धारण करनेवाले तपस्त्री ही यथोक्त माधनोंके अबलम्पनसे प्राप्त कर सकते हैं। तथा इस दिगम्बर दीक्षाको वे ही धारण कर सकते और उसमें सवतः सफल हो सकते हैं जो कि सज्जातीय एवं सद्गृहस्थ हैं । इस तरह कारण परम्पराको अपेक्षा ये तीन परमस्थान निर्वाणस्थानकी सिद्धिमें बाह्य साधन हैं। साक्षात्कारण दोनों शुक्लष्यानों में समर्थ माईन्त्य पद ही है । इस तरह सुरेन्द्रता और परमपाम्राज्यके विषयमें यह नियम नहीं है कि जितने सम्यग्दृष्टि हैं वे सब इन आभ्युदयिक पदोंको प्राप्त हो ही, कोई इनमें से किसी भी एक पदको, तो कोई दोनों पदोंको प्राप्त करके भी संसारसे मुक्त हो सकते हैं। तथा कोई कोई तीनों पदों-सुरेन्द्रता चक्रपतित्व एवं तीर्थकरत्वको पाकर–उनको भोगकर फिर शिवरमणीके रमण बरते हैं। इसी बातको स्वयं ग्रन्थकार इस प्रथम अध्यायको पर्य करते हुए आगेकी अन्तिम कारिकाके द्वारा स्पष्ट करते हैंदेवेन्द्रचक्रमहिमानममेयमानम् ,१ राजेन्द्रनक्रमवनीन्द्रशिरोर्चनीयम् । धर्मेन्द्रचक्रमधरीकृतसर्वलोकम् लब्ध्वा शिवं च जिनभक्ति रुगति भव्यः ॥४१॥
अर्थ-जिन भगान में है भक्ति जिसकी ऐसा सम्यग्दृष्टि भव्य पुरुष अप्रमाण सन्मानसे मुक देवेन्द्रोंके समूहकी महिमाको, पृथ्वीपतियों के द्वारा शिरसा पूजित राजेन्द्र-सम्राट-चक्रवर्ती के पदको अथवा यह पद जिसके द्वारा सिद्ध होता है ऐसे चक्र-सुदर्शन चक्रासको, और सम्पूर्ण लोकको अपने नीचे करने वाले धर्मेन्द्रोंके समूह अथवा धर्मचक्रको पाकर अन्तमें शिवपर्यायको आत हुआ करता है।
__ प्रयोजन-यद्यपि इस कारिकामें उन्ही चार आभ्युदयिक पदोंका वर्णन किया गया है जिनका कि इसके पहले की चार कारिकाओंमें कथन हो चुका है। अतएव उन्हींका यहां उपसंहार रूपमें पुनः कथन कर दिया गया है ऐसा कहा जा सकता है। यह भी सत्य है कि धर्मोपदेशमें पुनरुक्तिका कोई दोष नहीं माना गया है। फिर भी ग्रन्थ और उसके काकी असाधारण माता की तरफ दृष्टि देते हुये विचार करने पर यह कथन संतोषकर नही मालूम होता | सम्पूर्ण उपासकाम्ययनका सारसंग्रह जिसमें किया गया है, उसमें अनावश्यक एक शब्द भी न मासके, जिससेकि उस शब्दकी जगह पर उपासकाध्ययनके अन्य किसीभी महत्त्वपूर्ण भावश्यक विषयको प्रकट करने के लिये शब्दान्तरको रखनमें बाधा उपस्थित होजाय, इस वातको अच्छी तरह ध्यानमें रखनेवाले शिवषिजयी जिनमक्त भगवान समन्तभद्र पूरे एक पथकी रचना कथित विषयका ही पुनः कपन करनेके लिये करके चर्वितचर्वण करनेमें चतुराईका परिचय दे पा उचित नहीं रखा।
१-बसन्ततिलका अन्य "या बसन्ततिलकासशब -यक नामसः ।
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चन्द्रिका टोका इकनालीसा श्लोक इस दृष्टिसे विचार करने पर अवश्य ही यह कारिको व्यर्थ सिद्ध होजाती है। किन्तु कोई भी व्यक्ति भगवत्कम्प समन्तभद्रके वचनामृत रत्नाकरका गंभीर तलस्पर्शी श्रद्धालु विद्वान् इस वैयर्थ्यको स्वीकार कर सकेगा यह कथंचित् भी विश्वसनीय नहीं है अतएव सिद्ध है कि यह कारिका अवश्य ही कुछ अर्थान्तरका ज्ञापन करती है। जोकि निम्न प्रकार है:
प्रथम तो यह कि यदि यह कारिका नहीं रहती है तो उपर्युक्त शंकाओं का परिहार ग्रन्थ द्वारा होना कठिन है । सरेन्द्रता परमसाम्राज्य और तीर्थ रत्व सभी सम्यग्दृष्टियोंको प्राप्त होते ही है क्या ? अथवा सभी सबको प्राप्त होते हैं या किसी २ को कोई २४ाप्त होना है। इन प्रश्नों का उत्तर इस कारिकाके रहने से ही होता है। यह कारिका एक ही व्यक्तिको प्राप्त होनेवाले अम्यु. क्ष्यों को बताती है, इससे स्पष्ट होजाता है कि इसके पहले जो कथन किया गया है वह अवश्य ही नाना जीवों की अपेक्षासे है । फलतः मालुम होजाता है कि सभी सम्यग्दृष्टियोंके सभी परमस्थान प्राप्त ही हों यह निधन नहीं है। नियमपूर्व के कोन २ से परमस्थान और वे किस २ अवस्थायें उनको प्राप्त होते हैं यह बात आगमके द्वारा जानी जा सकती है।
दूसरी बात यह कि इन परमस्थानों से सिन २ में पूर्वापरीभाव क्रमबद्धता या कार्य कारणभाव पाया जाता है और किन २ में नहीं ? इस विषयमें आगमका जो विधान दे, उसकी तरफ भी यह कारिका संकेत करती है।
तीसरा बात यह कि-सम्बइष्टि जीवको जो ये परमस्थान प्राप्त होते हैं सो इनमें कर २ कोन २ मुख्य हैं, प्रधान हैं ? और आवश्यक है १ तथा कौन २ गौण ६१ यह कारिका इन प्रश्नोंका भी समाधान करती है।
चौथी बात यह कि यद्यापे शिवपर्यायको प्राप्त करने वालोंमें अपने निज शुद्ध स्वभाव गुणधर्मोंके विकास आदिमें परसर कोई अन्तर नहीं पाया जाता-सभी समान हैं फिर भी भवपक्ष प्रज्ञापन नयकी अपेक्षा उनमें भी अन्तर माना गया है जो कि आगममें बताया गया है उसको भी यह कारिका सूचित कर देती है।
फलतः कारिकाको व्यर्थता से निकलनेवाले इसी तरहके अनेक ज्ञापनसिद्ध अर्थ यहां संगृहीत होजाते हैं या होसकते हैं जोकि आगमके कथनके अनुकूल है । इस तरह विचार करनसे इस कारिककी असाधारण प्रयोजनबत्ता सिद्ध एवं स्पष्ट होजाती है।
अब्दों का सामान्य विशेष अर्थ--
देवेन्द्रपक्रमहिमानम्-देव इन्द्र चक्र और महिमा, इसतरह चार शब्दोंका पद एक पद है। निरुक्तिपूर्वक इस पदका अर्थ इस प्रकार करना चाहिथे । देवनाम् इन्द्राः देवेन्द्राः, तेषां चक्रम् -समूहः संघावः, तस्य महिमा-माहात्म्यम् ।।
१-क्षेत्रकालगतिलिंगठीर्षचारित्रप्रत्येकबुद्धपोधितशानावगाहनान्तरसंख्याल्पयहत्वतः साभ्याः । ब०.००१०॥
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रत्नकररहनावकाचार देवगति और देव श्रायु नामकर्मके उदयसे प्राप्त पर्यायके थारण करन वाले उन संसारी जीवोंको जोकि वैक्रियिक शरीर तथा भवप्रत्यय अवधि या विभङ्गज्ञान आदिसे युक्त हैं उनको देवर कहते हैं । इन्दन्ति२ इति इन्द्राः, परमेश्वर्यवन्तः, माज्ञाप्रवर्तकाः । जो परम ऐश्वर्य के धारक हैं साथ ही जिनकी अपने क्षेत्रवी सभी देवों पर श्राक्षा प्रवृत्त होती है उनको इन्द्र कहते हैं। क्रियते येन यत्र वा तव चक्र३ । जिसके द्वारा, जिनपर अथवा जहाँसे जिस स्थान आदि पर बैठकर अपने२ पदके अनुरूप प्राज्ञा झपदेश आदि कार्यका प्रवर्तन होता है उसको कहते हैं चक्र । ग्यपि इस शब्दका अर्थ समूड, गाढीका पहिया, जलावर्त, यन्त्रविशेष, बर्तन बचानका कुम्हारका साधन आदि, तथा "नामका एकदेशभी पूरे नामके अर्थका बोर्थक हुआ करता ६,"--. इस उक्तिके अनुसार सुदर्शन चक्र धर्मचक्र प्रादि भी होता है, फिर भी यहां पर सामान्यतया इस तरहसे निरुक्त्यर्थ करना अधिक उचित प्रतीत होता है जिससे कि इस कारिकामें तीनोंही स्थानों पर आये हुए इस शब्दकी ठीक २ अर्थकी संगति हो सके । महिमा अन्दका अर्थ ' 'माहात्म्य' प्रसिद्ध है।
अमेयमानम्-मातु योग्यम् मेमम् न मेयम् छ मेयम् । श्रमेयमानं यस्य स तम् । जिसके मान सम्मान भादिको किसी तरह नापा नहीं जा सकता। मान शब्द मीमांसार्थक अथवा पूजा भादि अर्थवाली मा धातु से बनता है इसके विचार परीक्षा प्रमाण नापनेका साधन सम्मान आदि अनेक अर्थ होते है।
राजेन्द्रचक्रम्-ऊपर जैसा "देवेन्द्र चक्र" पदका अर्थ किया गया है वैसाही इस पदका मी करलेना चाहिये।
"अवर्नान्द्रशिरोर्चनीयम्" इसका अर्थ स्पष्ट है कि जिसका भूमिपति नरेश शिर झुकाकर पूजा सम्मान अथवा आदर सत्कार विनय आदि किया करते हैं।
धर्मेन्द्रचक्रम्-ऊपरके दोनों पदों-"देवेन्द्रचक्रम्" और "राजेन्द्रचक्रम्" की तरह ही इस पदकी मी निति तथा अर्थ कर लेना चाहिये । धर्म शब्दका निरूक्तिसहित अर्थ अन्धको
आदिर्भ ही पवा दिया गया है। जिस परमश्वयंस भूपित पदके द्वारा गणधर भादिको तथा द्वादश गणके रूसमें तीन लोकको जहा था जिसके द्वारा राच और तीर्थका उपदेश-शासन किया जाता है उसको कहते हैं धर्मेन्द्रचक्र । अतएव इस पदक द्वारा धर्मचक्रसे चिन्दित वह प्रास्थान
५-दिव्यन्ति अदो गिश्च गुणहिं देहि दिव्यभावहि। भासंतदिव्याया तहा वरिंगया देवा ॥११॥ जीवकारड।
२--इदि परमैश्वर्ये । (भ्वादि पर०)। ३-फरणाधिकरणसाधनयोः कृ धातोः घबर्षे क-विधानात् । * जपत्यजय्यमाहात्म्य विशासियशासनम् । शासन जैनमुद्भासि मुधियारकसानमावि
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चन्द्रिका टीका इकतालीसा श्लोक समझना चाहिए जिसका कि समवसरण नामसे कहा जाता है । अतएव यह पर उस तीर्थकर पदका बोध कराता है जिनके किसाथ उक्त धर्मशाशन के कत्त्वका सम्बन्ध नियत है । सम्यग्दर्शन के निमित्त प्राप्त होनेवाले इस लोकोत्तर आभ्युदयिक पदकी असाधारण महिमाको प्रकट करनेके लिये ही यह विशेषण पद दिया गया है कि "अधरीरासर्वलोकम्" । अर्थात् अधरः निम्ना, न प्रबरः अनधरः, अनधरम् अधरम् अकरोत् इति अधरीकृतः, अधरीकृतः सर्वो लोको येन स तम् । अर्थात् जिसन सम्पूण लोकको अपने नीचे कर दिया है । जो तीनों लोकोंके ऊपर शासन करने वाला है।
सम्वा और शिव शब्द का अर्थ स्पष्ट है।
"a" यह अध्यय है, जो कि अनेक अर्थों में प्रयुक्त हुम्मा करता है । छन्दो रचनामें पादपूर्तिक लिये इसका प्रयोग हुआ करता है । किन्तु यह बात प्रायः साधारण कवियोंकी कृतिमें ही पाई जाती और मानी जाती है। किन्तु जो महान् कवि हैं । कक्यिोंक भी जो आदर्श हैं उनकी रचनामें यह बात नहीं हुआ करती रन भानी हो जाती है। ग्रन्थके कर्मा भगवान् समन्तभद्र स्वाभी साधारण कवि नहीं, महान आकति माने गये हैं। उनकी कृतिमें इस "च" का प्रयोग निरर्थक मोरज पार्विक लिये हो मानना अयुक्त है। अतएव इसका विशिष्ट प्रयोजन है।
श्री समन्तभद्र स्वामी महान् वैयाकरण भी है। व्याकरण शास्त्र में "च" के चार मर्थ माने गये है--समुच्चय अन्वाय इतरेतर और समाहार । जैसा कि पहले लिखा जा चुका है। अनेक शब्दोंका जहां द्वन्द्व समास किया जाता है वहां पर इनमें से अन्तिम दो अर्थ हुआ करते हैं। और जहां समास न करके वाक्यमें हो "च', का प्रयोग हाता है तो वहां प्रथम दो अथाभसे कोई भा एक अर्थ माना जाता है। कदाचित्-प्रकरण विशेषके अनुसार दोनों अर्थ भी माने जा सकते हैं। यहां पर भी सपास न रहनेके कारण, केवल वाक्यमे ही "" का प्रयोग हानस इतरतर या समाहार अर्थ न करके उसका समुच्चय अथवा अन्वाचय अर्थ करना ही उचित है। प्ररूपणीय विषयोमस जहां पर कोई गोण और कोई मुख्य बताया जाय यहाँ पर "" का अन्याय और उनमेंसे जहां सभी विषय परस्परमें निरपेक्ष रहते हुए भी एक ही क्रियासे सम्बन्धित हो वहां उसका समुच्चय अर्थ हुआ करता है।
प्रकृतमें इस “च" का अन्याय अर्थ मुख्यतया करना उचित है क्योंकि ऐसा करनेसे प्रथम वीन चरणों में प्ररूपित तीनों ही आभ्युदयिक पदोंकी आनुषङ्गिकता प्रकट होजाती है। सम्पष्टिका मुख्य लक्ष्य निर्माणको सिद्ध करना ही है सम्यग्दर्शनका बास्तविक फल भी वही है। यदि बीचमें कोई पद फिर चाहे वह कितना ही महान क्यों न हो प्राप्त होता है तो वह भन्नके लिये कीगई खेतीके फल भूसाके समान नगपर ही है।
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रानकवकाचार
शिवभक्तिः– जयन्ति कर्मा, भक्तिर्यस्य स अर्थात् सम्यग्दष्टिः । द्यपि यह शब्द सामान्यतया सम्यग्दर्शनको ही सूचित करता है फिर भी जहांतक चारों ही पदके साथ सम्यग्दर्शनके कार्यकारणभावका विशेष रूपसे विचार एवं सम्बन्ध है नचत् कार्यके कार की अपेक्षा इस शब्दके चार प्रकारके अर्थं करना ही उचित एवं संगत प्रतीत होता है। जैसा कि पहले बताया गया है। सुरेन्द्रता के लिये अभिषेक पूजा आदि, चक्रवर्तित्व के लिये वैपावृत्य प्रभृति तपश्चरण, तीर्थंकरनेके लिये अपायवित्रय धनध्यान अथवा तीर्थकुल माना और निर्वाण के लिये शुद्ध आत्मस्वरूपमें लीनता अर्थ करना अधिक संगत होता है ।
उपैति क्रियापदका अर्थ स्पष्ट है। भव्य अर्थ होता है मचितु योग्यः । यह एक पाश्रित स्वभावका चोक सापेन शब्द है। आगे होने वाली सिद्ध पर्यायकी योग्यता मात्र को यह शब्द प्रकट करतार हैं। जिनमें यह योग्यता पाई जाती है उन्ही को कहते हैं भव्य । यद्यपि इस योग्यताका बोधक पूथ शब्द "व्यसिद्विक" ही आग में पाया जाता है । फिर भी यहां उसके एक देश भव्य शब्द द्वारा वही अर्थ सूचित किया गया हूँ । अनादि कालस जिन जीवो यह योग्यता पाइ जाती हैं वे सभी भव्य हैं फिर भी जिनके भव्य भावका विपाक हो जाता है उनके अन्य निभित मिलने पर सम्यग्दर्शन भी प्रकाशमान होजाया करता है। और उसी जीवको अपने पुरुषार्थ के बलपर अन्य निमित्तोंके सापेक्ष जब अपने हा शुद्ध रूपाय पूणरामा लानता- हर प्राप्त दाता है तब वह का भी अति कर लिया करता है। उस अवस्थाम मंत्रयत्व द्धिप्रत करने की योग्यता काकाई प्रश्न दा नहीं रहता | यहां कारण है कि निशा उनका अभाव बताया गया है । यहाँ पर भव्य शब्दका उल्लेख करक श्रमव्यांका निराकरण करते हुए बताया गया है कि संसारी जी जो मध्य हैं वही जिनेन्द्र भगवान्मं अथवा जिन पर्यापम यहा जेनन्द्री मुद्रा में वास्तविक भक्ति रखनेवाले-तम्यग्दृष्टि होकर शिपयको प्राप्त हुआ करत हैं ।
वात्पय-यह कि ऊपर सम्मान के निमिव। प्राप्त होनेवाली जिस संसारातीत शिवपर्याय का वर्णन किया गया है वह संसार सम्बन्धा समा विकन्या और उनके कारणभूत द्रव्य क्षेत्र काल नावसे शून्य हैं। अतएव अमंद अर्थात् परसम्पर्क सर्वथा रहित रहने के कारण एक रूप है। अपने शुद्ध ज्ञानादि गुणों के अखण्ड पिराडकर में विद्यमान रहते हुए भी यह परसम्बन्वनिमिच नात जाने या कहे जानेवाले सभा भेदोस एकान्ततः विमुक्त है | परन्तु ऐसा होते हुए भी आगममें भूतपूत्र प्रज्ञापन नयको अपदान उसमें भी अनक प्रकारसे पायें जानेवाले मंद व्यवहारका उल्लेख पाया जाता है । उसी प्रकार यहां इस कारिकाके आशय के
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--द्वषयस्थान । २प्रवितु योग्यां मन्यः । -- सत् प्ररुणा सू० नं० १४१ से १४६ । ४--मव्यभावावपाकाद्वा आवः सम्यक्त्वभरनुत || --सीसि सपत्ता
।। गा० जा० ॥६--मिकाभित्वानां च ।
र भावो जीवो
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चन्द्रिका टोका इकतालीसा श्लोक विचारके अवसरपर भी समझना चाहिए कि यों तो अपने शुद्ध गुणधर्मोंकी अपेक्षा संसारसे मुक्त होजानेवालों में कोई अन्तर नहीं है—सामान्यतया सब एक रूप ही हैं। फिरमी उनमें पूर्वपर्यायके भाश्रयसे भेद भी पाया जाता है मतलब यह कि सम्यग्दर्शनके निमिसले जो संसार में रहते हुए छह परमानशा लाभ हुअा करता है उनकी गणेना मातवें परमस्थान में भी भेद माना या कहा जा सकता है। क्योंकि सम्पग्दर्शन निमित्तसे शिवपर्यापको जो जीव प्राप्त किया करता है उसमें पहले तीन पद----सज्जातित्व सद्गृहस्थता और पारिवाज्य तो आवश्यक निमित है; किन्तु अन्तिम तीन पद-सुरेन्द्रना परमसाम्राज्य--चक्रवर्तित्व और आर्हन्त्य अर्थात् तीर्थकरत्व ये आवश्यक निमित्त नहीं हैं। इनके बिना भी कोई भी सम्जाति सद्गृहस्थ सभ्यग्दृष्टि जीव दीक्षा धारण करके शिव पर्यायको प्राप्त करसकता है। अतएच कहा जा सकता है कि कोई तो सुरेन्द्रताको न पाकर और कोई उसको प्राप्त करके सिद्ध हुए हैं, इसी प्रकार कोई चक्रवर्तीका पद पाकर तो कोई उसके बिना भी मक्त हुए हैं. तथा काई वीर्थकर पदसे और कोई अतीर्थकर पदस ही निर्माणको गये हैं । अतः इन तीनों पदाँके अथवा इनमें से किसी भी पदके बिना भी शवपर्याय प्राप्त हो सकती हैं। इसीलिय अन्धा चय अर्थमें पाया हा"" तीनों पदोंकी गौण वाकी प्रकट करता है । यद्यपि सामान्य रूपसे तो सभी सांसारिक अभ्युदय मोधकी अचा आनुङ्गिक ही हैं फिर भी कारिकामें उल्लिखित सुरेन्द्रवादि सीन पदोंकी तरह प्रथम तीन परमस्थान अनावश्यक नहीं है, कारिका नं. ३६ में बताये गये मजातिवादिता मोक्षकी प्राप्तिमें शायन होनेके कारण सर्वथा आवश्यक है सुरेन्द्रता आदिक विषयमें यह बात नहीं है इसीलिये भालुम होता है कि अन्वाचय अर्थकी प्रधानताके कारण "" के द्वारा कारिकोक्त सुरेन्द्रता आदि तीन पदोंकी ही वास्तव में गौणता बताई गई है।
यह तीन पदोंकी गोगना भी मोनकी ही अपेक्षासे हैं, न कि परस्परको अथवा उनके कार्यविशेषोंकी अपेक्षासे । यह ठीक है कि सामान्यतया तीनों ही पद कर्माधीन होनेसे परतंत्र मश्वर तथा अनेक प्रकार के दुम्कोले भी आकान रहनेवाले हैं और इसीलिये शिवपर्यायकी अपेक्षा सर्वथा हेग हैं। तथापि सम्यग्दर्शन नहचारी पुण्य विशेषके फल होनेके कारण सातिशय एवं संसारमें सर्वाधिक सम्मान्य है। यह कहनेकी आवश्यकता नहीं है कि गौणरूपमें कहेगये भी ये तीनों पद जो कि सुरेन्द्र राजेन्द्र और धर्मेन्द्र इस तरह जिस एक इन्द्र शब्दके ही द्वारा कहे गये बहान्द्र शब्द परमैश्वर्षका मानक होनेसे शासनके अधिकारकी योग्यताको मुख्यतया प्रकट करता है। क्योकि ऐश्वर्यमें आज्ञाकी ही प्रधानता रहा करती है, न कि वैभव की। पचपि इतका भय भी अधिक रहा करता है फिर भी ऐश्वर्यमें उसकी अपेक्षा नहीं है । किसी व्यक्ति का वैभव कम हो या ज्यादा परन्तु जिसकी याज्ञा प्रवृत्त हुआ करती है, वास्तवमें शासक इन्द्र
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रलकरएक्श्रावकाचार वही पुमा करता है एवं कहा जाता हैं। इस तरहके पद तीन ही हैं और वे नियमसे सम्बग्हष्टि को ही प्राप्त हुआ करते हैं, फलतः वे नियमसे शिवपर्यायको भी प्राप्त होते हैं।
प्रकृत कारिकामें प्रयुक्त "च" का मुख्यतया अर्थ अन्वाचयरूपमें ही करना उचित है, काडीक है, जैसा कि ऊपर किया गया है । परन्तु मोचपर्यायको अपेक्षाको गौण करके परस्पर तीनों पदोंकी रष्टिसे यदि विचार किया जाय तो उसका समुच्चय अर्थ भी हो सकता है। क्योंकि ये तीनों ही पद अपने अपने विषयमे अपनी-अपनी स्वतंत्र ही महधा रखते हैं। तीनों ही पदोंकी असाधारण महत्वा उनके विशेषणों द्वारा स्पष्ट हो जाती है, यहा कर दी गई है। ये तीनों ही पद अपने-अपने क्षेत्र में और अपने-अपने समयमें संख्याकी अपेक्षासे एक-एक ही रहा करते हैं। नीतिशास्त्र भी एकके ही शासनका समर्थन करता है। एक ही इन्द्र अपने जिस अधिकृत स्वर्ग पर-उसमें रहने वाले सभी देवों पर ही नहीं देवेन्द्रों पर भी शासन किया करता है उस स्वर्ग का और उन देवोंका प्रमाण अमेयर है । जिस सभाके द्वारा उसका शासन प्रवृत्त हुभा करता, अथवा जहां बैठकर वह शासन-आज्ञा प्रदान, विचार विनिमय, सूचना, उपदेश आदि किया करता है उसकी महिमा भी अमेय है। ये सभाए सौधर्मेन्द्रादिकी सुधर्मा३ आदि नामोसे प्रसिद्ध हैं। तथा उनकी जो अभ्यन्तरपरिषत् और बाझ परिषत् हैं उनकी भी महिमा अमेय ही है। केवल इसीलिये नहीं कि उनका वैभव अतुल्य एवं अपरिमित है किन्तु इसलिये भी कि जिन पर यह शासन करवा है वे अप्रमाण-असंख्येय हैं।
पक्रवर्ती के लिये भी यही बात है । परखण्ड भूमिके शासनमें उसका कोई प्रतिद्वन्दी नहीं रहा करता । वह अकेला ही राजेन्द्रोंके द्वारा समस्त प्रजाका एकछत्र पालन किया और कराया करता है। उसकी सभाका महत्त्व भी अपरिमित ही है । जिसका कि नाम दिक्स्वस्तिका है। जो कि १६ हार गणवद्ध देवों, सेनापति, मंत्री आदि हजारों सेवकों तथा ३२ हजार मुटबद्ध भायं नरेन्द्रों, १८ हजार कर्मभूमिज म्लेच्छ राजाओं, एवं विद्याधर नरेशों आदिसे व्याप्त रहा करती है। जहां पर बैठ कर वह प्रजाका न्यायपूर्वक पालन करनेके लिये राजाओंको उपदेश और माझा प्रदान किया करता तथा न्यायका भङ्ग करनेवालोंको दण्ड विधान एवं उत्तम कार्य करने वालोंपर विविध प्रकारसे अनुग्रह प्रदर्शित किया करता है, जिसके कि निगाह अनाहका प्रभाव समस्त पसरह भारतकी प्रजाके थर्म अर्थ काम यश मोक्ष पर पड़ा करता है, उसकी इस समामें दौवारिक द्वारा उसकी स्वीकृति प्राप्त किये बिना कोई भी अच्छेसे अच्छे भरेष मी प्रदेश नहीं पा सकते और उन्हें मुककर नमस्कार करना पड़ता है।
१-बिनपति बहुपति पतितपति पत्नीपति पति बाल, नरपुर की तो बात क्या मुरपुर होय उजार। २-खो पटसरगम वन्य प्रमाणानुगम सूत्र ६५ मादि । ३-इनके नाम बागममें देखने चाहिये।
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पत्रिका की इकतालीसा श्लोक तीर्थकर भगवान की उस स्थान सभा-समवसरणकी महिमाका ती वर्णन भी कौन कर सकता हैजिसको कि देखकर इन्द्र तथा चक्रवर्ती भी चकित हो जाया करते हैं। धार्मिक शासनमें वे अद्वितीय हैं; अनुपम है, सर्वोत्कृष्ट हैं। उनके शासनका ही यह महत्वपूर्ण प्रभाव है कि जीव मोहनिद्राको छोड़कर आत्म कल्याणके पथमें चलनकी क्षमता प्राप्त कर लिया करते, मोक्ष मार्गमें विहार किया करते और अनन्त दुःखरूप अवस्थासे छूटकर सर्वथा सुखरूप समन्ततो. भद्र शिवपर्यायको प्राप्त हो जाया करते हैं। इतना ही नहीं, संसारका प्राणीमात्र प्रापके ही दयापूर्ण वीतराग शासनके कारण आजतक जीवित है और सुरक्षित है। आपकी द्वादशगखपत सभामें पल्यके अखंख्यातवें भाग भव्य श्रोता, यद्यपि सभाके क्षेत्रफलसे उनका क्षेत्रफल भसंल्पात गुणा है फिर भी बिना किसी संघप अथवा वाधाके बन्दना पूजामें प्रवृत्त तथा उपस्थित रहा करते हैं। जहां पर आतंक रोग मरण उत्पत्ति बैर कामबाधा भूख प्यासका कोई कष्ट नहीं हुभा करता । जिसके भीतर मिथ्याइष्टि अभव्य, असंज्ञी, संशय विपर्यय अनध्यवसायसे युक्त बीच प्रविष्ट ही नहीं हो सकते । यहीं पर उनकी चतुर्थ गुणस्थानसे लेकर १३ घ गुणस्थानतकके सभी थर्मेन्द्रोंकी उपस्थिनिमें तीन लोल के लिये अभयप्रदान करनेवाली निरक्षर वीतराग युगपत् अनन्त पदार्थों का वर्णन करनेवाली दिव्यध्धनिका दिन भरमें ४ बार छह-छह घटी तक निर्गम हुआ करता है। इस सर्व हितकारी देशना, तथा अष्ट महा प्रातिहार्य, नवनिधियों सम्पापोंक लोकोत्तर वैभवसे पूर्ण, समवसरणका माहात्म्य; तीन लोकके अधिपतियों द्वारा पूज्य लोक्याविपति तीर्थकर भगवानक उस पुरानातिशयके अनुरूप ही है जिसने कि समी पुण्यकर्मोकी पादाक्रान्त कर दिया है। यही कारण है कि उस कर्मके उदयसे युक्त इस तीर्थकर पदको यहां पर अधरीकृतसवलोक कहा गया है।
इस तरह ये तीनों ही आभ्युदयिक पद परस्परमें अपना-अपना असाधारण महत रखते हैं। फिर भी निर्वाणकी अपेक्षा नगण्य तथा हेय ही हैं। यही कारण है कि यहां इनकी गौषता प्रकट की गई है।
यह भी यहां ध्यानमें रहना चाहिये कि सम्यक्त्वके निमित्तसे प्राप्त होने वाले तीन पद उपलक्षणमात्र हैं। इनके सिवाय और भी अनेक पद है जो कि नियमसे सम्परहरिको ही प्राप्त हुमा करते हैं। क्योंकि सम्यग्दृष्टि जीवको देन और मनुष्य इस तरह दो ही पुण्यरूप गति प्राप्त हुमा करती हैं । अतएव उनसे संबंधित सभी उत्कृष्ट पद तो उसको प्राप्त होते ही है परंत कदाचिन अनुत्कृष्ट पद भी उसे प्राप्त हुआ करते है। इसीलिये इन्द्र पद चक्रपती पद और सीकर पद इन तीनों ही पर्दोको उपलक्षण मानकर इन्द्र पदसे देवगति सम्बन्धी लोकपाल लौकान्तिक तथा अनुदिश अनुचर विमानोपन आदि देवोंका ग्रहब कर लेना चाहिये। चक्रवर्ती पदसे कुलकर, कामदेव, बलभद्र भादि समझ लेने चाहिये । वीर्षकर पदसे दो अन्याय
१-उषमातीतं ताणं को सका वण्णिदु सरल रूप ।...-11०११॥ नि०प० ।।
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रत्नकरण्ड श्रावकाचार
तथा सीन कल्याणक वाले सभी तीर्थकरों का अन्तर किया जा सकता है । परन्तु यक्ष बात सुनिश्चित है कि सम्यग्दृष्टि जीच इस तरह के किसी भी पदकी वास्तव में आकांक्षा नहीं रखता उसका अन्तिम लक्ष्य-साध्य पद तो अपना शुद्ध शिवस्वरूप ही है। इर्श, यह ठीक है कि जब तक उसकी शिवस्वरूप प्राप्त नहीं होता तबतक उसको संसार में इस तरह के पद प्राप्त हुआ करते हैं। फिर भी यह नियम नहीं है कि इन पड़ोको प्राप्त करें ही अथवा तीनों ही पदोंको प्राप्त करे। इन पदों को बिना कि भी केवल सज्जातित्व सद्गृहस्थता और परित्राज्यको ही प्राप्त करके निर्वाणको सिद्ध कर सकता है। इन पदोंमेंसे किसी भी एक पदको पाकर भी मोक्षको जा सकता है। तथा तीनों पदोंकी यद्वा तीनों पदोंसे अतिरिक्त किसी और भी पदक साथ धारण करके उनको भोगकर अन्त में जिसमें कि ये पद अत्युत्तम एवं महान् माने जाते हैं उस संसारका ही अनन्त कालके लिये परित्याग कर ध्रुव अचल अनुपम शास्वत शिव स्वरूप सिद्धावस्थाको सिद्ध कर सकता है। जैसे कि सोलहवें सत्रहवें और अठारहवें तीथकर श्री १००८ भगवान शांतिनाथ कुन्थुनाथ अरनाथन किया ।
इस अध्याय अन्तमें हम उन्हीं तीनों परमात्मायोंका मङ्गलरूप स्मरण करते हैं जिन्होंने कि इन्द्र-अहमिन्द्र पदको और उसके बाद एक साथ धर्म अर्थ काम पुरुषार्थ के प्रतीकरूप तीर्थकर चक्रवर्ती और कामदेव के पदों को भोग कर एकसाथ ही सबका परित्याग करने में अपने परमोत्कृष्ट पुरुषार्थ - भोचपुरुषार्थको सिद्ध करके शिवस्वरूप प्राप्त किया और जोकि संसार में रत्नत्रय१ के नाम से प्रसिद्ध हैं ।
शान्तिः शान्तिकरः प्रशान्तवदनः सम्भ्रान्तिहारी जिलो,
यः संतापनिहृदने शशिसभो ध्यान्वापनोदी महान् । लब्ध्वा पुरुष कलत्रयमनुप शुक्ला यथेष्ट्रं च ताम्,
ऐश्वये परमे निसर्गजनितं तस्थौ निजे चिन्मये ||१| षट्खण्डां वसुधां प्रसाध्य सहमा सङ्गत्नसारामलम्,
चक्रेणाथ सुदर्शनेन कृतवानाज्ञाभृतो भूभृतः । रामाः पण्यचताः सहस्रगुणिताः सौगुण्यमूर्ती सतीः, योऽनङ्गोऽ रमयनिरन्तर रतिः सद्विक्रियो भोगवान् ||२|| सेषः पोडशभो जिनेन्द्र उदितो जीयाज्जगत्पावनः,
इच्पाकुप्रथितान्वयेन्दुर मलज्योतिः सदोद्योतवान् । साराम्बुविपारगो भुवि नृणामुत्तारकः पोतचत्,
श्रेयो मार्गनिरूपणामृतनिपेकीज्जीवितप्राणभृत ॥३॥
१-- तीनों तीर्थकरों की संयुक्त मूर्तियों को रत्नत्रयमूर्ति के नाम से कहने की प्रथा है, जैसे सोलपुर में रत्नभयका मन्दिर प्रसिद्ध है ।
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चट्रिका टीका इकतालीसवां माय अहो प्रसिद्ध नव तीर्थकच साम्राज्यलक्ष्मीः किमु वर्णनीया।
अनलक्ष्मीर्यदि वा यतो हि सर्वे पदा इस्तिपदं निमग्नाः || शम्भो ! महादेव ! चतुर्मुखाख्य ! स्वामिन् हषीकेश ! गणेशसंव्य ।
न ज्ञायते तेतष्टितस्य किंवा रहस्य, कविमिःतथाहि-||५|| जीवैरनन्तरुपभुज्यमानामेको शिवां कामयसे कथं त्वम् !
त्यक्त्वा सहस्रपमिताः सतीरतास्तुल्या पनाप्रियया समस्ताः॥६॥ रस्नानि दिव्यानि चतुर्दशापि चेतोधिसतर्षिफलप्रदानि ।
समत्वाऽस्त्ररत्नत्रितयं गृहीतं त्वया हि संसारविनाशहेतु ॥७॥ इन्द्रोपकम्प्यानि परिच्छदानि हाणि संतर्पणसाचनानि ।
सरियपोह्याशु बने प्रविष्टो जातो यथाजातसुगात्रमात्रःell माझो वहन्तः शिरसा महलाः भूपा महान्तोऽपि तके रिसृष्टाः ।
निष्किञ्चनः सेषितपादपयो जातः कथं गन्धकुटीनिवासी ||६|| मा भाष्ठजिलादिमकम्पमालाम्य दिव्यमनिरजगी है।
वेदार्थसाथैःसह वक्तितत्वं सिद्धौ नृणामभ्युदये स हेतुः ॥१०॥ तेनैव तज्ज्ञाः प्रणमन्ति भक्त्या भव्या भजन्ते च भवन्तमेव ।
विधुव्यभावोऽहमपि प्रशान्त्यै बन्दे यो स्वामि नमस्करोमि ॥११॥ ज्युस्तोत्रम्पसण्डजामप्रतिमा विभृति, भोगोषभोगांश्च मुरोपनीतान् ।
सक्त्वैकदा कंचिदवाप्प हेतुम् , प्रेरस्यमध्यास्त य इत्यमेषु ॥१॥ हा, कष्टमेषः खलु मूढ आत्मा, भोगवततो विषयी वराकः ।
पाञ्छन् सुखं तम्य च साधनानि, नित्यं भ्रमत्येव मवे भवेऽपि ॥२॥ संसार इत्युच्यत अज्ञयों, निःसार एपास्ति स इस्य राकम् ।
तवं न जानन् विपरीतबुद्धिस्तत्र व मोहाद्रमते यथेष्टम् ।।३।। बनाने बन्धुजनेष्ट सिद्धथै, कलत्रपुत्रादिहिताभिषार्थ ।
दवाविहीनोऽनृतभाषणादि करोति किं किं नहि कर्म जीवः ॥४॥ सेनर चाहर्गतिकंऽत्र लोके, दुःखापुले भीभृति पापबीजे ।
उत्पादमृत्य्वन्वयभृच्छरीरी, कर्मादितः पर्यटते सदैव ॥५॥ प्रपर्वतां मोहविवर्ती पथातथा प्राकृत एप लोकः।। ____परन्तु तस्वजनोऽपि तद्वदहो प्रवत्तेत विचित्रसेयम् ॥६॥ मालाको सविमोचतव, नापापि निर्माणपधि प्रयो।
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________________ रलकरमापकाचार __ विक मामिति प्रोण विसृज्य राज्य मत्वा तमायाप जिनमज्याम्॥७॥ पराडेन दंडेन वशं तु निन्ये, प्राचण्डदोर्दण्डपलानरातीन् / सोऽन्तर्गवा कर्मचमू, विजेतु जातोधमीदण्डमदरस्पत् स्वम् // // पथा तमिसान्तरितं तमीवम् , निधारयामास पुरा सरसः / तथैव रतत्रयतेजसान्तःस्थित तमो मन्यनृणां बहार // 6 // स हुन्धुनाथो जगदेकनाथो मो मन्मयो मारजयी जिनेन्द्र। नृपेन्द्रशास्तापि निरस्त्रवस्त्र उपक्षवाक् पातु निरक्षरोषिः // 10 // पर-बिनस्तवनम् भय श्रीमान् महेन्द्रायः स्वयंभूयोगवानरः / प्रथाल्यातासस्वातन्त्र्यः पवित्रयतु मां प्रा ||1|| पभोऽजितसामर्थ्यः शंमषो नोऽमिनन्दनः / पद्मादयः सुमति पातु कोटिचन्द्रपुतिः स मे ॥सा पुष्पदन्तप्रसन्नास्यम् सदाचं सुखशीतलम् / दृष्कर्महतये निस्यं भजन्ते यं सुरासुराः॥२॥ पेनाम्यपायि सद्धर्मः सुपार्वस्थगोशिने / सर्वश्रेयोऽर्थ संसाधुः पासुपूज्यगुणात्मकः // 4 // तस्मै बिमलपोधाय नमोऽनन्तगुणान्मने / पस्मात् प्रादुरभूदेवी शारदा अगदम्बिका // 5 // भव्येभ्यो रोचते यस्य पवित्र नाम पावनम् / अच्छन्ति तत्पदं यत्र नितीनाः योगिना पपात् / / 3 / / छन्पुवच्छान्तिकर्ता च पदत्रपरिभूषितः / देवदेवो महादेवोऽपायात् पायात् स नः सदा / / 7 // गुणरवाकर मलहर गभीर, परमौदारिकशुभतमपरीर / भरनाथ मारपूज्य देव, जय जप जिनवर भगवावरेप | इस प्रकार भी भगवस्समन्तभद्राचार्यविरचित रखकरयाधापकाधारकी पद्रिय नामकी विधापारिषि स्यानावाचस्पति जैनसिद्धान्तमर्मन बेरनी, एटा, उधरमदेव निवासी ईदोर (मन्य मारत) प्रवासी पंडितप्रवर खूपचन्द्र (पदमावती पुरवासाविसहबार) रिपित हिन्दी टीका सम्पम्दर्शनका वर्णन करनेवाला प्रथम अध्याय पूर्ण हुमा // 1 // इति शुभ भई च भूयात् जीयासमन्नमद्रोऽसापमा निन्दनः / सम्बदरीनमहात्मा पन्द्रोपोवकरः शिवः //