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द्रिका टीका इफ्कोसो भाक
१८६ व्याकरणके अनुसार अंग २६ मे तु अप्रय होकर बनता है । इसके अनेक अर्थ है कि किसीका एक भाग, शरीरका कोई मुव्य अक्यत्र, जाड, मित्र, उपाय श्रादि । इसके सिवाय यह एक अव्यय पद भी है जिसका कि अच्छा, महाभाग या सत्यस्वीकार अर्थमें प्रयोग किया जाता है। यहाँपर अवयव अर्थ लेना चाहिये और वह भी उपलक्षणरूप समझना चाहिये जिससे कि अंग और उपांग दोनोंहीका ग्रहण हो सके । जिस तरह किसी अंगसे अथवा नेत्र नासिका आदि उपांगसे हीन व्यक्ति सज्जाति होकर भी जिनलिंग धारण करने-निर्वाणदीचा ग्रहण करने का अधिकारी-पात्र नहीं है; उसीप्रकार सम्यग्दर्शनमी अंग या उपांगसे हीन होतो साधान निर्वाणका उपाय नहीं हो सकता।
अलम् शब्द भी अव्यय है जिसका कि अर्थ- पर्याप्त, पूर्ण, समर्थ, ऐसा होता है । इस का "छत्तुम्' इस कृत्प्रत्ययान्न धातुपदके साथ सम्बन्ध है "अलम्" के योगमें चतुर्थी विभक्ति होती है। किंतु यहॉपर वायपान्तर ४ द्वारा पूर्वार्थका अर्थ स्पष्ट होजा सकता है।
जन्मसंततिसे मतलव भवपरम्परा मापुनःमक बन्धकी योग्यतासे है। क्योंकि जन्म अर्थात भवधारण श्रायुकमक बन्धकी अपेक्षा रखता है । जबतक जीवमें आयुक्रमके बन्धकी योग्यता बनी हुई है तबतक वह सम्पूर्ण कोंके उच्छेदनमा पात्र नहीं है। क्योंकि आयुकर्मका बन्ध सातवे गुणस्थान तक संभव है । और सम्पूर्ण क्रमों के निर्जरणकी वास्तविक पात्रता क्षपकश्रेणी में स्थित साधुमें ही है जोकि पाठवेसे १४वं गुणस्थान तकमें निष्पन्न हुआ करती है।
मन्त्र शब्द का आशय द्वादशांगतरूप वेदके वाक्य अथवा ऐसे किसी वाक्यसे है जिसमें कि किसी विशिष्ट सिद्धिकी माधक शक्ति छिपी हुई है।
___ अक्षरन्यून' शब्द भी उपलक्षमा है अतएव अक्षराधिक अर्थ भी ग्रहण कर लेना चाहिये। इसी प्रकार "निहन्ति" क्रिया और विषवेदना कर्मपदके विषय में भी समझना चाहिये । क्योंकि श्राशय यह है कि न्यूनाधिक अक्षरवाला मन्त्र अपने बास्तविक कार्यको सिद्ध नहीं कर सकता। यह आशय नहीं है कि उसमें कुछ होता ही नहीं है क्योंकि श्रीधरसेनाचार्य ने भूतवलि पुष्पदन्तकी परीक्षार्थ न्यूनाधिक अक्षरवाली जो विद्या सिद्ध करनेकेलिये उन्हें दी थी उसके सिद्ध करनेपर देवता तो उनके सामने उपस्थित हुई ही थी परन्तु वह अपने वास्तविक रूपमें न पाकर
१-भ्वादि परस्मैपदी। २.स्वदेशकुलजात्पङ्ग वाहाणे क्षत्रियो विशि | निष्कलके क्षमे स्थाप्या जिनमुद्रार्चिता सताम् ॥ अन६-८८) देशश्च कुलं च जातिश्चार्गच देशकुल जात्यंगानि । शोभनानि देशकुलजालंगानि यस्य स एवम् ।। ३-गहीना-सातीचार, उपांगहीन:-अतिकम व्यतिक्रमदोष सहित अथवा सम्यक्त्वप्रकृति के उदयवश पाये जानेवाले चल मलिन अगाढ़ दोष, यद्वा अमर्शनपरीषइ सरीखे दोष । ४-अंगहीनं सम्यक्त्वं भवसन्ततेश्छेदनाय न अलम् । । ५--स. सि. सत्यनेन नरकांविभवमित्यायुः । -४ । नरकादिषु भवसम्बन्धेनायूषो व्यपदेशः । ८-१०