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________________ २६० रत्नकरण्ड श्रावकाचार विकृतरूपमें? आई थी | तात्पर्य - - यह कि सम्यग्दर्शन का मुख्य फल जो भवपर्याय का विनाश है वह तबतक उससे सिद्ध नहीं हो सकता जबतक कि उसके सभी अंग पूर्ण न हों । यद्यपि यह बात दृष्टान्तपूर्वक ऊपर समझा दी गई है फिर भी प्रश्न होसकता है कि ऐसा क्यों क्योंकि विना किसी प्रबल युक्तिके केवल दशन्त से ही साध्य सिद्ध नहीं होसकता । जो रुचिमान् श्रद्धालु हैं वे विना युक्ति भी कथनपर विश्वास करते हैं परन्तु जो तार्किक विद्वान् है वे तो बिना किसी ऐसी युक्ति जो अनुभव में आसके अथवा fear किसी प्रबल बाधक कारणके मालुम हुए इस तरहके कथनपर सहसा विश्वास नहीं करसकते | उन्हें केवल दृष्टान्त से ही सन्तोष नहीं हो सकता। क्योंकि दृष्टान्त तो संसार में सतरहके मिलते हैं । प्रकृतमें दिये गये दृष्टान्तके विपरीत भी दृष्टान्त तो मिल सकता है देखा जाता है विभांग भी योद्धा युद्ध में शत्रुओं का हनन करता है। अत एव यह मालुम होना आवश्यक है कि अंगहीन सम्यग्दर्शन से भी अभीष्ट सिद्ध क्यों नहीं होसकता ? अंग से अभिप्राय क्या है ? क्या अंगहीन सम्यग्दर्शन कारण ही नहीं है ? उत्तर - अन्तिम दोनों प्रश्नोंका उतर तो ऊपरके कथन से ही हो जाता है। क्योंकि अंगशब्दका अर्थ कहा जा चुका है और यह भी बताया जाचुका है कि अंगहीन सम्यग्दर्शन विवचित कार्यका कारण तो है परन्तु करण नहीं है । वह अपने योग्य कार्यका साधन अवश्य है परन्तु उसमें मुख्यरूपसे साध्य कार्य के सिद्ध करनेकी पूर्ण सामर्थ्य नहीं है। अब केवल एक ही प्रश्न शेष रह जाता है सो उसका भी विद्वान् लोग स्वयं समाधान करसकते हैं । फिर भी जिज्ञासुओंके लिये उसका उत्तर संक्षेप में यहां यथामति लिखदेना उचित प्रतीत होता है । कोई भी वास्तविक कार्य तब कत सिद्ध नहीं हो सकता जबतक उसके कारण अपूर्ण हैं, समल हैं अथवा दुर्बल हैं। यह बात ऊपर कही जा चुकी है। इसी बात को यहां कुछ अधिक स्पष्ट करदेनेसे संभव है कि जिज्ञासुका संतोषजनक समाधान हो सकेगा । क्रियाकी सिद्धिमें जो साधक होते हैं उनको कारक कहते हैं । यद्यपि कारक हर माने गये हैं फिर भी उनमें तीन मुख्य हैं। कर्त्ता कर्म और करण। इस तरह एक क्रिया और तीन उसके कारण कुल मिलकर चार विषय मुख्य हो जाते हैं। विचारशील व्यक्ति समझ सकते हैं कि इनमें से कोई भी विषय ऐसा नहीं है जिसके कि विना कार्य हो सके। कसके बिना १ - तदो ताणं तेन दो विज्जाश्रो दिएओ । तत्थ य्या महियक्सरा अवरा विहीणक्वरा । एदाओ बट्टोवजासेण साईन्ति । तदा ते सिद्धविज्जा बिज्जाओ पेति एका 'उदन्तुरिया' अवरेश का गया | ऐसो देवदाएं सहावो ए होदिति चितऊण मंतव्वायरणसत्य कुसलेहिं हीणाहिग्रसक्खराएं राहुणाक्षणायणविद्दान' फाऊण पर्वतेष वो विशेवाओ सहावरूपट्टियाओ दिहाओ । मं० प० पू०७०। भी है। को को भी
SR No.090398
Book TitleRatnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchand Shastri
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages431
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size15 MB
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