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________________ षष रत्नकरण्डाकाचार श्रभ्युदय भी प्राप्त होते ही हैं । यह समझना सर्वथा मिथ्या एवं आगमके विरुद्ध होगा कि विवक्षित अभ्युदयों की प्राप्ति में सम्यग्दर्शन किसी भी प्रकारसे निमित्त भी नहीं है। क्योंकि विवक्षित अभ्युदय - सुरेन्द्रता परमसाम्राज्य तीर्थकरन्द श्रादि जिन सरागभावोंसे सम्बन्ध रखते हैं वे विना सम्यग्दर्शन के साहचर्यके नहीं हुआ करते | इससे श्रन्वयव्यतिरेकगम्य कार्य कारण भात्रका भी निश्चय हो ही जाता है । अत एव सम्यग्दर्शन के गौण फल का निषेध करना ठीक ऐसा ही माना जा सकता है जैसे कि यह कहना कि खेती से तो नही होता है, अर्थात् भूसा होता ही नहीं । चिकित्साका फल साम्यावस्था होना ही मानना, कष्टनिवृत्ति आदि न मानना । इत्यादि । गौण तथा मुख्य फलमें से किसी भी एकका निषेध करना मिथ्यैकान्त है । गौणता और पाव पर निर्भर है। और वह संग एवं परिस्थितिपर श्राश्रित है । जैसे कित्येकान्तवादी के सम्मुख आनंपर वस्तुकी पर्यायात्मकताका जो समर्थन विवक्षित होकर मुख्य बन कर सामने आता है वही अनित्यैकान्तबादी के सामने था जानेपर श्रविवक्षित - गौ‍ चनकर पीछे हट जाता हैं और ध्रुवनाका समर्थन विवक्षित होकर मुख्य योद्धा या प्रतिवादी के रूपमें सामने उपस्थित होजाता है । इसनीति का अर्थ किसी भी एक पक्षको सर्वया हेय मानना जिसतरह प्रयुक्त है उसी प्रकार सम्यग्दर्शनादि के कार्यकारण सम्बन्ध में किसी मी एक ही पक्षको मानना दूसरेको नहीं ही मानना श्रयुक्त हैं। इसी तरह यदि कोई गौणफल को मुख्यफल अथवा मुख्यफलको गो फल मानता या समझता है तो वह भी अयुक्त ह हैं। कदाचित् सम्यग्दर्शनमें अवस्थाभेद यदि कोई स्वीकार नहीं करता तो वह भी अयुक्त ही हैं। इसतरह विचार करनेपर मालुम होता है कि ग्रन्थकारको फल तो दोनों ही अभीष्ट हैं परन्तु एक मुख्य और एक गौणरूप में अभीष्ट है । जैसा कि अन्य आचार्योंनभी यथास्थाना स्पष्ट किया है। श्रीसमन्तभद्र के वचन ऐकान्तिक पक्षके समर्थक नहीं हो सकते । यही कारण कि वे इस कारिकाके द्वारा सम्यग्दर्शन के मुख्य और गोरा दोनों ही फलोंको यह कहकर के बताना चाहते हैं कि सम्यग्दर्शन रूप धर्मका सर्वथा कर्मनिवईण या भवविच्छतिरूप जो मुख्य फल है वह तो तबतक नहीं हो सकता जबतक वह आठो ही अंगोंमें पूर्ण नहीं हो जाता । फलतः अर्थापत्तिले यह सिद्ध हैं कि जबतक ऐसा नहीं है तबतक उसका सांसारिक अभ्युदयरूप फल भी गौणतया मान्य है । क्योंकि विवक्षित श्रभ्युद्गविशेषोंका जिनके साथ कार्य कारण सम्बन्ध सुनिश्चित हैं उनके साथ सम्यग्दर्शन के साहचर्य का अविनाभाव भी प्रसिद्ध ही है | इसरह सम्यग्दर्शन के दोनों ही मुख्यफल और गौणफल दृष्टि में लादेना इस कारिकाका प्रयोजन है। I शब्दका सामान्य विशेष अर्थ - १- यद्भावाभावादयश्वोत्पत्यनुत्पती तत्तत्कारणकम् । २ - मादयः पुखा निःश्र असफलाश्रयः । वदन्ति विदितानामास्तं धर्मं धर्मसूरयः ।। यक्षस्तिकक
SR No.090398
Book TitleRatnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchand Shastri
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages431
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size15 MB
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