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________________ संहिका दीना नशीशदान १८४ दर्शन है । जिसका लक्षण कथन करते हुए श्रद्धानरूप क्रियाके तीन विशेषण दिये गये थे। त्रिमूढापोह, अष्टांग और अस्मय । यह बात बताई जा चुकी है कि क्रमानुसार पहले 'त्रिमूढापीठ' का वर्णन करना चाहिये था सो न करके पहिले 'अष्टांग' का यहां वर्णन क्यों कर रहे हैं ? शरीर के आठ अंगों की तरह सम्यग्दर्शन के भी बार अंग है और वे ही मूल तथा मुख्य हैं । फलतः पाठों ही अंगों का वर्णन करने के बाद उस विशेषण का फल निर्देश करना भी उचित ही नहीं आवश्यक भी है। किसी भी विशेषण का प्रयोग अन्य किसी भी विषय में व्यावृत्ति बताने के लिये ही हुआ करता हैं । यही बात अष्टांग विशेषण के विषय में भी समझनी चाहिये । धर्मका फल कर्मनिवईण है अतएव उसके एक भाग सम्यग्दर्शनका फल भी काम निवईन ही होना चाहिये। जन्मसंतति का उच्छेद और कर्मनिकरणमें कार्यकालका अन्तर है। कर्मनिवर्हण होनेपर जन्म संततिका उच्छेद हो जाता है। किंतु जन्मसंतति का सर्वधा उच्छेद तबतक नहीं हो सकता जबतक कि सम्बादर्शन आयी श्रमों में परिपूर्व नहीं हो जाता । यदि सम्यादर्शन वैसा नहीं है, जहांतक वह विकलांग है, तो भी वह अपने स्वभाव के अनुसार यद्यपि कर्मनिवर्हण को ही करता है , फिर भी जिसतरह या जबतक वह स्वयं प्रण अस्थिर और समल ही है उसी प्रकार और तबतक उसका कर्मनिवहस्य कार्य भी अपूर्ण अस्थिर और समल ही होता है। ___दूसरी बात यह है कि इस धर्म के साइचर्य के कारण शुभ परिणामविशेष के द्वारा पुण्य कर्म विशेष का बन्ध होकर उनके उदय से जो सांसारिक अभ्युदय विशेष प्राप्त होते हैं वे उसके कथंचित् गौण फल है। वे सम्यग्दर्शन के फल किसीभी अपेक्षासे नहीं है यह कहना नितांत अयुक्त होगा। स्वयं अन्धकार आगे चलकर इस अध्याय के अन्त में सम्यग्दर्शन के प्राभ्युदयिक फलोंका वर्णन करनेवाले हैं। हां, यह सैद्धांतिक सत्य है कि उन आभ्युदयोंकी लन्धि में सीधा एवं मुख्य कारण सम्यग्दर्शन ही नहीं है। उसका मुख्य कार्य तो कर्मोंका विरोध करना ही है । संवर निर्जरा करके भवसंतति का सर्वथा उच्छेद करना ही उसका मुख्य और अभीष्ट फल है । प्रश्न हो सकता है कि यदि यही बात है तो सम्यग्दर्शन के प्रकट होते ही कर्मोका सम्पूर्ण निर्जरा होकर उसी समय निर्वाण-जन्म संतति का सर्वथा विच्छेद हो जाना चाहिये। इसका उसर ऊपर के कथन से ही हो जाता है । निर्मल पूर्ण स्थिर सम्यग्दर्शनका फल निर्वाण है। इसके विपरीत. सम्यग्दर्शनमें जबतक किसी भी अंशमें मल दोष पाये जाते हैं, त्रुटि बनी हुई है अथवा पूर्णतया स्थय नही है तबतक उसके होते हुए भी निर्वाण नहीं हो सकता । ____ ध्यान रहे सम्यग्दर्शनमें मतीन विशेषणोंकी पूर्णता तीन कारणोंपर निर्भर है। पूर्ण शायिक वीतरागता, सर्वज्ञता और अनन्तवीर्य । इन तीनों के साहचर्य से ही उसमें वस्तुतः करणत्व प्राप्त होता है। जबतक यह बात नहीं है और वह सराग है तबतक उसके निमिच में उसके साहार्य से सराग भाषोंके द्वारा तसत प्रश्पकोका पंच भी होता और तदनुसार
SR No.090398
Book TitleRatnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchand Shastri
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages431
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size15 MB
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