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________________ १८६ रत्नकरण्ड श्रावकाचार का कारण यह भी हो सकता हैं कि वीररस तो शान्तरसका भी साहचर्य करता है परन्तु शृङ्गार वैसा नहीं करता | और प्रन्थ में मुख्यतया शान्तरसकी प्रधानता रखना आवश्यक भी है। सम्यग्दर्शन के जिन आठ अंगों का वर्णन ऊपर किया गया है और उनके जो उदाहरण दिये गये हैं उसपर से लोगोंको शंका हो सकती है कि संसारोच्छेदन या निर्वाणलाभ के लिये सम्यग्दर्शन तो आवश्यक हैं परन्तु उसके सभी अंग आवश्यक नहीं हैं। आठ अंगों में से एक या कुछ अंग भी यदि हों या रहते हैं तो भी भवविच्छेद हो सकता है। क्योंकि अशरूपमें ही क्यों न हो वह भी तो सम्यग्दर्शन ही है । और मोक्षका मार्ग सम्यग्दर्शनको कहा है, न कि अष्टांग सम्यग्दर्शनको | इस शंका को दूर करने के लिये; और मोक्ष मार्गरूपमें जिसका उल्लेख किया गया हैं, वह वास्तव में अष्टांग सम्यग्दर्शन ही है, न कि विकलांग, इस बातको स्पष्ट करने के लिए आचार्य कहते हैं---- I नांगहीनमलं छेत्तु दर्शनं जन्मसंततिम् । न हि मन्त्रोऽक्षरन्यूनो निहन्ति विषवेदनाम् ||२१|| अर्थ — अंगहीन सम्यग्दर्शन जन्मपरम्पराका उच्छेदन नहीं कर सकता । जैसे कि कम अक्षरवाला मन्त्र faraी वेदना को दूर नहीं कर सकता । प्रयोजन - यहां पर इस कारिकाके उपस्थित होनेका कारण क्या है ? इसका उत्तर अथवा प्रयोजन का परिज्ञान ऊपरकी उत्थानिकासे हो जाता है। फिर भी यहांपर विषयको कुछ अधिक स्पष्ट करना उचित और आवश्यक प्रतीत होता है। I प्रायः प्रत्येक क्रिया के दो फल हुआ करते हैं- एक मुख्य और दूसरा गौण | खेती का मुरुग फल अन्न और गौख फल भूसा पैदा होना हैं । औषधोपचार का मुख्य फल प्रकृतिको साम्यावस्था में लाना और गाँव फल पीडा दूर करना हैं | राज्यशासनका मुख्य फल त्रिवर्ग का अवरोधेन सेवन करने की समुचित व्यवस्था द्वारा प्रजाका अनुरंजन और गौय फल माझा ऐश्वर्य मान सन्मानादि हैं। इसीप्रकार धर्म के विषय में भी समझना चाहिये । धर्मका मुख्य फल क्या है, यह बात धर्म का वर्णन करनेकी प्रतिज्ञा करते समय कारिका नं० २ के "कर्मनिव" पद द्वारा आचार्य बता चुके हैं। प्रकरणवश उसीकी यहां भी श्राचार्य प्रकारान्तरसे दृष्टांत द्वारा दुहरा देना चाहते हैं। प्रश्न- कहे हुए विषय को ही दुहराना तो निरर्थक है 1 उचर - यद्यपि धर्मोपदेशमें द्विरुक्ति- एकही बातको पुनः २ कहना दोष नहीं है फिर भी यहां वह निरर्थक नहीं है। जिसतरह अनुमान के प्रयोग में प्रतिज्ञावाक्यका निगमनमें उपसंहार होता हैं, उसीप्रकार यहां भी समझना चाहिये। दूसरी बात यह हैं कि वहां वर्म सामान्य के विषय में कहा गया है। और यहां उसके एक भेद सम्यग्दर्शनके विषयमें कह रहे हैं। धर्म के तीन भेद हैं- सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र । तीनोंमें सबसे प्रथम और मुख्य सम्यक्
SR No.090398
Book TitleRatnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchand Shastri
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages431
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size15 MB
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