SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 31
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ रत्नकरण्डश्नावकाचार दूसरी बात यह है कि अन्य प्राचीन अर्वाचीन ऋतियों पर दृष्टि देकर मिलान करने से भी यही बात सष्ट होती है ! उमास्वामी भगान् ने मोक्षशास्त्र अपर नाम तत्त्वार्थ भूत्रके मारम्भ में मंगलाचरण करने हुए लिखा है कि मोक्षमार्गम्य नेतार भत्तारं कर्मभृताम् ।। ज्ञातारं विश्वतत्यानां बन्दे तद्गुण नब्धये ॥ पाठक महानुभारों को यह बतान की आवश्यकता नहीं है कि मित्तारं कर्मभूभृताम्' और "निधूतकजिलान्मने"का तथा' 'ज्ञातारं विश्वसना" और "मालोकानां त्रिलोकानां गांवद्या दर्पणायते' एक ही बाई है। इसी जान भी मानाय" और "भोक्षमार्गम्य नेतारं" का मा एक ही प्राशय है। यधपि यह ठीक है कि "श्रीवर्धमानाय" इस वाक्य में अन्तिम तीर्थकर का जिनका कि इस समय शासन प्रवर्त्तमान है, नाम भी अामाता है । इस मितानसे भी श्रीवर्धमानाग कहने से मुख्य प्रयोजन धर्म के या तीर्थ के उपज्ञ वक्ता के उल्लेखका ही व्यक्त होता है | अनक ग्रन्धकारों ने मान का अर्थ २४ तीर्थकर किया है जैसाकि पहिले लिखा भी जा चुका है। इससे भी यही सूक्ति होता है कि सभी नीथंकरों का जो सामान्य कार्य तीर्थप्रवर्तन है उसी को इस शब्द के द्वारा बताया है। और सबसे प्रथम उसका ही उन्लेख करने की इसलिये भी आवश्यकता मानी जासकती है कि प्रकृत ग्रन्थ के विषयके अर्थ: मूलवर्णनका सम्बन्ध इमी गुण से है । परन्तु वर्तमान में अन्तिम तीर्थकर भगवान के शासन से इस विषयका सम्बन्ध है अतश्व उनके नामका उच्चारण करते हुए मोक्षमार्गनतत्व गुणको इस शब्दक द्वारा मूचि । किपा है ऐमा समझना चाहिये ॥ ___ 'श्री' शब्द से अत्र चमर सिंहासन देवागम बास्थान भूमि आदि बाह्य विभूति भी लीजानी है, अत एव कदाचित कोई समझ सकता है कि इन विभूति के कारण ही तीर्थकरों या महावीर भगवान की महत्ता है सो यह बात नहीं है। इस बातकी ग्रन्थकारने अन्यत्र स्पट कर दिया है । इसका दिग्दन पहले किया जा चुका है । कहा जा सकता हैं कि संभवतः इसीलिये यहां पर श्रीमधमानाय के साथ २ दूसरे दो विशेषण और भी दिये गये हैं जिनसे नमस्य भगवान की अन्तरंग महन्ता का परिझान हो जाता है कि वे इसलिये ही नमस्य या प्रमाणभूत ६- आजका कुछ लोग इस मंगलाचरण को उमास्वामी का न मानकर "सर्वामिद्धि" टीका के कर्ता श्री पूज्यपाव स्वामी का मानते हैं । परन्तु वह ठीक नहीं हैं। टीका ग्रन्थों का श्राशय और अनेक प्राचारों के उल्लेख से यह बात मालूम होसकती है इसके मिया जैसे ग्रन्थ स्तोत्र श्रादिके प्रारम्भिक शब्दोंके नामसे भक्तामर कल्याणदिर एकीभाव आदि नाम प्रचलित है उसी प्रकार मान शास्त्र नाम भी 'मोक्षमार्गस्य नेता की भादिमें 'माक्ष'शब्द होने से ही प्रचलित है। २-प्रवचनसार के मंगलाचरण की जयसेनायाय कृत टीका में लिखा हैं-"अब समन्तात् ऋद्धं वृद्ध मानं प्रमाणं झानं यस्य स भवति वर्धमानः" । इत्यादि । ३–“भातमीमांसामें।
SR No.090398
Book TitleRatnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchand Shastri
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages431
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy