SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 30
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ नंदिता टोला प्रथम लोक है जोकि कर्म नोकर्म से सम्बन्ध रखते हैं वे न तो शुद्ध बस्तु के ही परिणाम हैं और न उनके घटपटादि के समान प्रयत्नसाध्य कार्य ही हैं। किन्तु उनका जो वैभव है उसके मूल कारण दो हैं - एक घातिक कर्मी का क्षय और दूसरा पुण्य कर्मों का उदय । जो पुण्य प्रकृतियां घातिकर्मो के उदय के कारण अपना कार्य करने या फल देने में असमर्थ रक्षा करती है वे घातिक कर्मों का आय हो जानस विना निराश के अपना कार्य करने लगती हैं बल्कि विशुद्ध परिणामों के सहयोग को पाकर प्रकप रूप में फल देनमेही समर्थ नहीं होजाती किन्तु अन्य योग्य अशुभ प्रकृत्तियों का भी अपने शुभ रूपमें संक्रमण कर लोकान्तर एवं आश्चर्यकारी फल देने तथा कार्य करनेमें समर्थ होजाया करती हैं। इसतरह नमम्य भगवान के जिस असाधारण सत्य और स्वाभाविक वैभव को श्रीशद के द्वारा ग्रंथकार ने यहां बताया है उसका आशय विवक्षित धर्मके उपक वक्तृत्वकी तरफ दृष्टि दिलाने का है। क्योंकि तीर्थकर ही धर्मरूप तीर्थ के अादि प्रवर्तक हुश्रा करते हैं । और उनका यह कार्य तीर्थकर नामकर्म के फलस्वरूप हुआ करता है, तीर्थ प्रवर्तन के लिये जिस जिस पास निमित्त की आवश्यकता हुआ करती है, वह सबभी उनको प्राप्त मुमा करनी है ग्रन्थकार ने देवागमनमोयानादि को आसमीमांसा नमस्यता के लिये व्यभिचारी हेतु बताया है। किन्तु यहां पर यह बात नहीं है । उस बाह्य विमतिको यहां पर गिधरित बताने का आशय नहीं है यहां पर तो सभी तीर्थकरों में पाई जाने वाली उस श्रीवर्धमानता को बताने से प्रयोजन है जोकि विवक्षित धर्म के नायकत्व अथवा भागमेशित्व गहा मोक्षमार्ग के नसरत्र को सचित करती है। मतलब यह है कि यहां पर जिस धर्म का निर्देश तथा अंशतः वर्णन किया जायगा उसके नायक-मूलवक्ता श्रीवर्धमान भगवान है। क्योंकि वे ही पागम के ईश है और वे ही मोचमार्ग के नेता हैं यह बात निम्नलिखित दो वातों पर से अधिक स्पष्ट होजासकती है --- __ प्रथम तो ग्रन्थकार ने नमस्य प्रामके कारिका नं. ५ में तीन विशेषण दिये हैं -उच्छिप्रदोषण, सर्वज्ञन, और आगमेशिना । पहां पर निधूतकलिलात्मने' कहकर जिस गुण का उल्लेख किया वही श्रागे चलकर उक्त कारिका नं०५ म उच्छिन्नदोषण कहकर बताया है और इस कारिका के उत्तरार्ध में जिसका वर्णन किया है उसी गुण को वहां सर्वज्ञान कहकर पता दिया है। इसी तरह कारिका नं०५ में भागोशिना कहकर जिस योग्यता का निर्देश किया है उसीको यहां नमस्कार करते समय श्रीवर्धनान कहकर सूचित किया है । इस तरह पूर्वापर मम्बन्ध पर विचार करने से मालुम होता कि ग्रन्धकार का श्रीवर्धनानाय करने से प्रयोजन या लक्ष्य उस तीर्थप्रवर्तन-आगमेशित्व-या मोक्षमार्गक नेभुत्वसे ही है जोकि ममी तीबरोंमें पाया जाता है और जोकि सभी कृतनोंके लिये प्रन्य के प्रारम्भ में अवश्य स्मरणीय है। १-गधर भास्थानमामे भावि।
SR No.090398
Book TitleRatnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchand Shastri
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages431
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy