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________________ रत्नकरएखभाषकाचार पहासे लेकर “सन्धमेवासि निदोषी युक्तिशास्त्राविरोधिवाक" यहां तक की ६ कारिकाओं के द्वारा उन्होंने जो कदाप्तताका निगकरण कर श्रीवर्धमान भगशेन में ही सदास को सिद्ध किया है उसमें प्रयुक्त अकाट्य युक्तियां निष्पक्ष निकट संसारी भव्यों के हृदय पर विद्यानन्द स्वामी के समान सहज में ही असर कर जाती हैं और मत्यनच का श्रद्धान कराकर उन्हें मक्तिकै निकट परचा देती हैं। तीर्थकरों की जो महचा है वह असाधारण है सत्य है और स्वाभाविक है अन्य ग्रन्थकारों ने भी अपने २ ग्रन्थों में अपने २ मत प्रवर्तकों की महत्ता बताते हुए अनेक वानों का उल्लेख अवश्य किया है परन्तु विचारशील विद्वानोंकी दृष्टि में वह इस बात को अवश्य स्पष्ट कर देता है कि उस वर्णन में अन्य किसी भी महान व्यक्ति के सत्यभूत माहात्म्य का किसी भी तरह यहां सम्बन्ध जोड़ कर बतानेका तथा इसके लिये अनुकरण करने का प्रयत्न किया गया है या नहीं। ऊपर भगवान की महत्ता के सम्बन्ध में हमने तीन बातें कही है__ असाधारण है, सत्य है, और स्वाभाविक है। अमाधारण कहने से प्रयोजन यह है कि जिस तरह के और जो जो गुणधर्म तथा वैभव तीर्थकरों में रहते या रह सकते हैं उस तरह के और वे सब गुणवर्न नथा वैभव किसी भी अतीर्थकर व्यक्ति में न तो रहते ही हैं और न उत्पन्न हो सकते, न रह सकते न पाये जाते या न पाये ही जा सकते हैं। क्योंकि उस तरह के गुणवर्म सथा वैभवका कारण तो उनका तीर्थकर नाम का कर्म विशेष है जोकि नामम्मका जीवविपाकी एवं सर्वोत्कृष्ट पुण्य कर्म का भेद है । यह अन्यत्र जहां नहीं पाया जाता वहां उसके उदय के अनुसार होने वाले कार्य भी किस तरह पाये जा सकते हैं । अतएव तीर्थकरों का वह अन्तरंग वहिरंग वैभव असाधारण ही है। 'सत्य है' यह कहने का आशय यह है कि वह बनावटी या कल्पित नहीं है । अपने महत्त्व को बताने की इच्छा से उस तरह के कार्य जानबूझ कर तैयार किये गये हों ऐसा नहीं है। इनके मूल में किसी भी प्रकार की माया बचना प्रतारणा अथवा अपने महत्व को प्रकट करने की भावना आदि कोई भी प्रवृत्ति काम नहीं करती। ___ स्वाभाविक कहने से प्रयोजन यह है कि पूर्व जन्म के बन्धे हुए कर्म के उदय आदि के मनुसार ये स्वयं ही प्राप्त हुआ करते हैं --तीर्थकर प्रकृति और उसके साथ बन्धे हुए अन्य पुण्य कर्मों के उदय तथा उनके प्रतिपक्षी पापकों का क्षय होजाने से योग्य नोकर्म के अनुसार समवसरणस्व भगवान् की सभी क्रियाऐ स्वयं-नियति वश ही हुआ करती हैं। उनकी विहार स्थिति निषा और देशना रूप प्रवृत्ति अबस्य जीवों के समान इच्छा पूर्वक अथवा प्रयलपूर्वक नहीं हुआ करती। यही उनकी समस्तपरिणतियों के सम्बन्ध में समझना चाहिये । उनके ऐसे जो परिणमन पाये जाते लिखा है । तथा आगे फारिका की टीकाके इस वाक्यसे भो कि "पूरणादिष्वसंभवी", मस्करी मकरिपूरण ही मुख्यतया लिया मालूम होता है।। १. ठाणपिसेन्जाविहाग धम्मुषदेमो य णियदयो सेमि । अरहंतागं काले मायामागे म हत्तीणं । प्रक मा० १-४।।
SR No.090398
Book TitleRatnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchand Shastri
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages431
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size15 MB
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