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चंद्रिका टीका प्रथम लोक
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श्रयमार्ग के वक्ता नहीं है कि चे इस तरहकी विभूतिकी धारण करते हैं । किन्तु वे इसलिये सत्य हितरूप पूर्वपराविरुद्ध त्रिकालाबाधित शासनके विवाता हैं कि वे वीतराग एवं निर्दोष होने के सिवाय पूर्ण सर्वज्ञ भी हैं ।
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वचनकी प्रामाणिकता के लिये इन दो गुणका बताना आवश्यक भी था । फिर भी यहां कुछ बातें विचारणीय हैं । वीतरागता या निर्दोषताका रब करने के बाद सर्वज्ञता का निदर्शन तो उचित ही है क्योंकि दोनों में कार्य कारणभाव है। वीतरागता के विना सर्वज्ञता प्राप्त नहीं होती ऋत एव पहले कारण का और पीछे कार्यका उल्लेख क्रमानुसार वर्णन के लिये उचित तथा संगत ही है | फिर भी यह समझ लेना चाहिये कि सर्वज्ञता के लिये सामान्य वीतरागता नहीं अपि तु विशिष्ट एवं पूर्ण वीतरागता ही कारण है । क्योंकि सामान्य वीतरागता तो चतुर्थगुण स्थानवर्ती असंयत सम्यग्दृष्टि के भी पाई जाती है परन्तु चतुर्थगुण स्थानसे सर्वज्ञता सिद्ध नहीं होती । और वास्तव में किसी भी कार्य की सिद्धि के लिये समर्थ कारण नही माना या कहा जा सकता है जिसके कि प्रयत्न के श्रव्यवहित उत्तर में ही कार्य की निष्पत्ति होजायर | फलतः सर्वज्ञस्य के लिये सामान्य वीतरागता समर्थ कारण नहीं हैं यह स्पष्ट है ।
इसी तरह वीतरागता प्रतिपत्ती मेह कर्मके उदयका ग्यारहवे गुणस्थान में सर्वथा अभाव है परन्तु वहांसे भी सर्वज्ञता निष्पन्न नहीं हुआ करती । क्योंकि यद्यपि प्रतिपक्षी मोहकर्म की प्रकृतियां यहाँ पर उपशांन होगई हैं- प्रयत्न विशेष के कारण वे फल देने में कुछ कालके लिये असमर्थ हो गई हैं परन्तु वे न तो निर्मूल ही हुई हैं और न उनकी सामर्थ्य ही सदा के लिये नष्ट हुई है । वास्तव में उनका अभीतक वही नष्ट नहीं हुआ है ।
तत्र कहा जासकता है कि इस स्थान की वीतरागता निरापद नहीं हैं, और इसीलिये सर्वज्ञताकेलिये जिस वीतरागता को कारण कहा जा सकता हूँ वह बारहवें गुणस्थानके अंतिम भागकी वह विशुद्धि विशेष ही है जहां पर कि एकत्व वितर्क अवीचार नामका शुलध्यान अपना काम किया करता है; उसीमें यह सामर्थ्य है कि उसक होते ही ज्ञानावरणादि तीनों ही कर्मों का एक साथ निर्मूलन होजाया करता है । अतएव सर्वज्ञता के लिये सामान्य वीतरागता नहीं अपितु पूर्ण एवं विशिष्ट वीतरागदा ही कारण है ऐसा समझना चाहिये | इसी बात को स्पष्ट करने के लिये "निक खिलात्मा" कहा गया है । निरृत से मतलब निर्मूलन - उच्छेदन से है जोकि अन्यत्र नहीं पाया जाता। और जिसके कि होन पर उक्त पापक्रमों का आत्माक साथ किसी भी प्रकार का और अंशमात्र मां सम्बन्ध नहीं रहा करता ।
१ – निश्चयन्याश्रयण तु यदुनन्तरभोजोत्पादस्तदेव मुख्वं मोक्षस्य कारणम गगकंबलिच रमसमयक्ष सिं रत्नत्रयांमति निरवद्यमेतत्तस्त्रविदामा भासते । तता मोहयोपेतः पुमानुद्धत केवलः । विशिष्टकारण साक्षादशरीरत्वहेतुना ॥६॥ रत्नत्रियम् पंणा योग केवल तिमे । दक्षण वर्षात तदबाध्यं निधिअन्न्यात् ॥१४॥ व्यवाहास्नमाश्रित्यात्वेनप्रागेव कारणम् । मोक्षस्येति विवादेन पर्याप्तं तत्त्ववेदिनाम् ॥६५ कार्तिक पृष्ठ ७१