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________________ २३६ न्द्रका टीका सताईस श्लोक दृष्टि होनेके कारण जो अनन्तानुबन्धी मानके उदय से रहित है उसके ही समय नामका दोष माना जा सकता है वह यदि संभव हो सकता है तो शेष तीन प्रकारके मानमें से किसीके भी उदयकी अवस्था में ही संभव हो सकता है । अत एव उस दोषको तीन भागों में विभक्त किया जा सकता है- उसम मध्यम जघन्य । जिसके कि स्वामी क्रमसे असंयत सम्यग्दृष्टि, देशवती और सकल संयमी हो सकते वा माने जा सकते हैं। जिनका अपमान किया जाता है वे भी धर्मस्थ होनेके कारण इन्हीं नीम दोंते युश हो सकते है । तथा समय के विषय माठ है। इसलिये forest अपेक्षा सामान्यतया स्मय आठ प्रकारका होसकता है। फलतः तीनों का ही परस्परमें गुणा करनेपर समय नामके दोष के मूलमें ७२ भेद संभव हैं। " इन भेदोंको ध्यान में लेनेसे दोष की उचावचता तथा उसके फलकी तरतमता या विशेषता जानी जा सकती है और यथास्थान अपने २ सम्यग्दर्शन की विशुद्धिको स्थिर रखने की आवश्य कता भी समझमें आसकती है। इसतरह स्मय नामका सम्यग्दर्शन का मल किसर के तथा कितने प्रकारसे संभव है यह बात इस कारिकाके द्वारा बताकर अब आपालंकारके द्वारा समय के विषय और धर्ममें अन्तर दिखाकर यह स्पष्ट कर देना चाहते हैं कि इस तरहसे धर्मकी की गई अवहेलना हेय अथवा दोषका निदान क्यों है ?-- यदि पापनिरोधोऽन्यसम्पदा किं प्रयोजनम् । थथ पापा वोऽस्त्यन्य सम्पदा किं प्रयोजनम् ॥२७॥ अर्थ - याद पापका निरोध हो चुका हैं तो अन्यसम्पत्तिसे क्या प्रयोजन है। और यदि पापका आम हो रहा है तो अन्य सम्पत्तिसे क्या प्रयोजन है ? प्रयोजन - ऊपर जो कथन किया गया है वह आगमसे सिद्ध विषय है। फिर भी यदि उसकी सिद्धिके लिये उसी आगमके आधार पर उपपत्ति भी उपस्थित करदी जाय तो उपयुक यह कथन और भी अधिक सुदृढ हो जा सकता है। यही कारण है कि इस कारिकाके द्वारा पूर्वोक्त कथन अन्यन्त दृढ होजाता है। अन्यथा इसतरह का प्रश्न खडा रहसकता है कि "ऐसा क्यों ? " अर्थात् यद्यपि यह कथन सत्य है कि ज्ञान पूजा कुल जाति आदि विषयक मदके द्वारा afeमाकी अवहेलना किये जानेपर अपना ही धर्म नष्ट या मलिन होजाता है परन्तु इसको कोई ऐसी उपपति नहीं है कि जिसके द्वारा इस कथन को अत्यन्त दृढता के साथ स्वीकार किया जा सके। इस संभावनाको दृष्टि में रखकर पूर्वोक्त कथनका दृढीकरण ही इस कारिकाका प्रयोजन है। शब्दोंका सामान्य विशेषार्थ यदि — यह पञ्चान्तरको उपस्थित करनेवाला अव्ययपद हैं। किसी भी विषय के स्पष्टीकरण के समय अनुकूल प्रतिकूल दो पच उपस्थित करके दोनों के ही गुण दोष आदि का जब उल्लेख करना हो तो इस शब्दका प्रयोग हुआ करता है। जैसे कि कृष्ण महाराज यदि हमारे (पादपों
SR No.090398
Book TitleRatnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchand Shastri
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages431
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size15 MB
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