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________________ २०४ रत्नकरराआषकाचार ................ रत्नकरण्डावकाचार किया करते हैं। इसतरह लोकमूढताका वर्णन करके क्रमानापार मदनाका स्वरूप मताते हैं । वरोपलिप्सयाशावान , रोगद्वेषमलीमसाः । देवता यदुपासीत, देवतामूढमुच्यते ॥ २३ ॥ मर्य—बर प्राप्त करने की इच्छासे प्राशावान होकर राग द्वेष से मलिन देवताओंकी जो उपासना की जाय तो उसको देवमूहता कहते हैं। प्रयोजन सभ्यग्दर्शन के विषय तीन हैं। प्राप्त आगम और तपोभृत् | उसके विरोधी मूडभावके भी उसीतरह तीन विषय हो सकते हैं। जो कि यथार्थ न होकर अाभामरूप या मिथ्या हो। उन्हीं को प्राप्ताभास भागमाभास और कुगुरु (पाखण्डी) कहते हैं। वास्तविक सच्चे प्राप्त भागम और गुरुका लक्षण बताया जा चुका है। जो उनसे विरुद्ध गुण धर्म या स्वभावके धारक भया प्रति करनेवाले हैं ये ही आप्ताभासादिक कहे जा सकते हैं। फलतः जो या जहां पर आप्तवाश्यनिषन्धन अर्थज्ञान अथवा उसकी अविरुद्धता नहीं है उसको या वहींपर भागमाभास कहा जा सकता है। अतए। अज्ञानी मोही साधारण जीवोंके कथन को प्रमाण मानकर अथवा उनकी प्रचियों की देखादेखी चाहे जैसी प्रवृत्ति करना जिसतरह आगमाभासमूलक लोक मुहता है जिसका कि स्वरूप ऊपर की कारिका में बताया जा चुका है । उसीप्रकार प्राप्ताभास या देवतामास के सम्बन्ध को लेकर देवमूहता हुआ करती है । मृढताके सामान्यतया तीन ही प्रकार सर्वत्र बताये हैं यदि कहीं इससे अधिक भेदों का उमेख मिलता है तो विवक्षा मेद से एकही विषय के दो भेद करके वह नर्णन किया गया समभना चाहिये । इन तीनों भेदों मेंसे एक लोकमूढता का वर्णन कर चुके । पहले उसके कहने का कारण यह हो सकता है कि वह लोगों में सबसे अधिक संख्या में और प्रवृत्ति में पायी जाती है। अतएव पारिशध्यात् यहां देवमूढता का वर्णन करना संगत है। दूसरी बात यह भी है कि लोकमूहना और पाखण्ड मूढता के मध्यमें देवमूढताका उख किया है। यह देहली दीपक न्यायसे दोनों तरफ सम्बन्ध की चूचित करता है। क्योंकि विचार करनेपर मालूम होता है कि देवमूढता ही शेष दोनों मूढताओं का मूल है । जिसतरह मोक्षमार्गका मन समीचीन प्राप्त परमेष्ठी है उसीप्रकार संसारमे प्रचलित मूढताओं या पाखण्डों का मूल जाप्ताभास अथवा मिथ्या देवों की मान्यता है। अतएव लोक में प्रचलित मूढताको बताकर उसके अनन्तर उसके मूल कारण को भी बताना उचित आवश्यक और अवसर प्राप्त है। अनायतनों और मृडवानी में क्या अन्तर है यह पहले बताया जा चुका है। इस तरह मृहना के विषयभूत देव केवल प्राप्ताभास ही नहीं अन्य भी अनेक प्रकार के हो सकते है उन लोके शास्त्राभासे समयाभासे च देवताभासे । आदि०। पु० सि० देखो पूर्व कारिका की पाया और टिप्पणी।
SR No.090398
Book TitleRatnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchand Shastri
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages431
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size15 MB
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