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________________ चंद्रिका टीका तेईसवा श्लोक सभीक तरफ दृष्टि दिलाने के लिए इस कारिकाका निर्माण प्रयोजनाभूत है। शब्दों का सामान्य विशेष अर्थ - 'बरोपलिप्सा - इसका सामान्य अर्थ इतना ही है कि चर प्राप्त करने की अभिलाषा से । यों तो कर शब्द के अनेक अर्थ है । परन्तु प्रकृत में 'मिलपित या इष्ट विषय' अर्थ ग्रहण करना चाहिये । उयलिप्साका अर्थ है प्राप्त करने की इच्छा। दोनों शब्दों का पष्ठी तत्पुरुष समास होकर करण अर्थ में तृतीया विभक्ति हुई है। आशावान् -- श्र समन्तात् प्रश्नुते इति आशा । सा विद्यते यस्य स श्राशात्रान् | यह इस शब्दकी निरुक्ति है। मतलब यह है कि किसी विषय में लम्बी दूरतक लालसा - तृष्णा - श्राकांक्षा रखनेवाले को कहते हैं आशावान् | यह उपासना रूप क्रियाका कद पद है । रागद्वेषमलीमसा:-~~-~- यह उपासीत क्रियाके कर्मरूप देवता पद का विशेषण है । अर्थ स्पष्ट है कि जो राग द्वेष से मलिन हैं । देवता -- देव शब्द से स्वार्थ में ना प्रत्यय होकर यह शब्द बना है । उपासीत - यह क्रियापद हैं। उप उपसर्गपूर्वक अदादिगणकी आस धातुका यह विधिर्लिङ का प्रयोग है। इसका अर्थ होता है पास में बैठकर सेवा पूजा या आराधना करना | ❤ २०५ तात्पर्य यह है कि अपने किसी भी लौकिक प्रयोजनको सिद्ध करने की लालसा रखने वाला व्यक्ति यदि किसी भी रागद्वेप से मलिन देवता की उससे वर प्राप्त करनेकी अभिलाषा रखकर उपासना करता है तो यह सम्यग्दर्शन का देवमूठा नामका दोष है ऐसा आचार्योंने कहा है। इस विषय में कुछ लोगों को ऐकान्तिक अथवा भ्रान्त धारणाएं हो सकती हैं यद्वा पाई जाती हैं । श्रतएव हम अपनी समझ के अनुसार प्रसंगवश प्रकृत कारिका का और ग्रन्थकर्ताका जो आशय है उसको यहां पर संक्षपमें स्पष्ट कर देना उचित और आवश्यक समझते हैं। " अम अथवा विधिनिपेत्रसम्बन्धी ऐकान्तिक धारणा का मूल कारण शासन देवोंकी पूजाका जैनागम विधानका पाया जाना है । दि० जैनाचार्यान पूजा विधान सम्बन्धी प्रायः सभी ग्रन्थों में१ शासनदेवोंकी भी पूजाका उठ् ख किया है। तथा प्रथमानुयोग आदि के ग्रन्थों में भी इसतरह के अनेक प्रकरणका उल्लेख २ पाया जाता है जिससे दि० जैनागममें शासनदेवोंकी पूजा की मान्यता सिद्ध होती है। अबतक किसी आचार्यने इसका विरोध नहीं किया हैं । प्रत्युत श्रवतक जो श्राम्नायर चली आ रही है, और पुरातत्व सम्पन्थी प्राचीन से प्राचीन जो सामग्री ४ उपलब्ध है ये उसके अनुकूल प्रमाण हैं | वास्तु शास्त्र - मूर्तिनिर्माण आदिकी जो विश्व पाई जाती हैं १- देखो सिद्धान्त शास्त्री १० पन्नालाल जी मांनी द्वारा सम्पादित -चक्रवर्ती ऋादि के द्वारा यथावसर कियेगये पूजन-आराधनासम्बंधी पाठसंग्रह | " प्रासंगिक वर्णन | - सभी प्राचीन मंदिर क्षेत्र आदिमें उनकी मूर्तियां पाई जाती हैं। और सभी प्रांतों में अब तक निर्विरोध उनकी पूजा प्रचलित है । ४- शासन देव सहित अर्हत मूर्तियों आदि की उपलब्धि ५ -- देखो संहिता मंथ तथा प्रतिष्ठाशास और अकत्रिम चैत्यों का स्वरूप ।
SR No.090398
Book TitleRatnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchand Shastri
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages431
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size15 MB
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