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________________ २०६ रत्नकरसहश्रावकाचार उससे भी यह विषय भलेप्रकार सुसिद्ध है । अतएव इस विषय के विरोधमें यद्यपि कोई भागम प्रमाण या वलवत्तर युक्ति तो उपस्थित नहीं है फिर भी उक्त कारणवश इस विषय में कुछ विचार करना उचित प्रतीत होता है। सबसे प्रथम विचारशील विद्वानों को इस कारिकामें मुख्यतया निर्दिष्ट चार पदोंकी तरफ दृष्टि देनी चाहिये । यथा "आशावान् " यह कन पद "रागद्वषमलीमसा:देवताः" यह कर्मपद "वरोपलिप्सया" यह करण पद और "उपासीत" यह क्रियापद । इस तरह ये चार पद है जिनकोकि देवमूहनाका अभिमाय व्यक्त करने के लिए भगवान समन्तभद्र स्वामीने प्रयुक्त किया है। __यह कहना सर्ववा सत्य है कि इन चार में से यदि एक भी विषय पाया जाता है तो अवश्य ही वह सम्यग्दर्शन को मलिन करनेवाला होगा । उससे सम्यक्त्वकी विशुद्धि अवश्य ही कम होगी । उस विशुद्धिकी कमीको मिथ्यात्वका ही अंश या प्रकार कहा जा सकता है। उदाहरणार्थ-दानके विषयमें विधि द्रव्य दाता और पात्रकी विशेषतासे फलमें अन्तर हुआ करता है । दाता जो कि दानका कर्ता है वह यदि यथायोग्य नहीं है तो शेष तीन विषयके योग्ग होते हुए भी यथेष्ट फल नहीं हो सकता । इसी प्रकार पात्र जो कि सम्प्रदान कारक है तथा द्रव्य जो कि कर्म कारक है, और विधि जो कि करण कारक है, उनमेंसे किसीभी एकके ठीक न रहनेपर दान क्रिया का फल भी यथोचित नहीं हो सकता ! इसी तरह पूजाके विषय में भी समझना चाहिये । पूजाके विषय में भी पूजक पूज्य पूजाकी सामग्री और पूजाकी विधि में अन्तर पड़ने पर उसके फलमें अन्तर पड़ना स्वाभाविक है। श्री प्राचार्यप्रवर सोमदेवने अपने उपासकाध्ययनमें बताया है कि पूजनके समय शासन देवों को यज्ञांश तो देना चाहिये परन्तु अरिहंत भगवान्की समानकोटी में उन्हें रखना अपने को गिरालेना है । वे कहते हैं देवं जगत्त्रयीनेत्रं व्यन्तराधाश्च देवताः। समं पूजाविधानेषु पश्यन दूरं अजेदधः ।। ताः शासनाथिरक्षार्थ कल्पिताः परमागमे। प्रतो यज्ञांशदानेन माननीयाः सुदृष्टिभिः ।। १ मतलब यह कि वे शासनके रक्षणकार्य में नियोगी है अत एव उनको पूजनमें उचित अंश देना चाहिये । सम्यग्दृष्टियों को चाहिये कि वे पूजनके समय वैसा करके उनका सम्मान करें । किन्तु उनको अरिहंत भगवानके समान समझना-समान सम्मान प्रदान करना अपने को दूरतक नीचे गिरालेना है । क्योंकि कहां तो तीन जगत् को मार्ग प्रदर्शन करने केचिये नेत्रके समान-अपने उपदेश के द्वारा सम्यग्दर्शन उत्पन्न कराकर प्रणियों को मोषमार्ग में लगानेवाले तीन लोकके प्रभु देवाधिदेव श्री १००८ भगवान अरिहंत देव और कहां ये पशस्तिलक आ पू० ३६७ ॥ -
SR No.090398
Book TitleRatnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchand Shastri
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages431
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size15 MB
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