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________________ २०७ - - चंद्रिका टीका तेईसवा श्लोक व्यन्तरादिक देव जो कि उन्ही के शासनमें रक्षणस्थानोंपर अपना २ कार्य करनेकालये नियुक्त हैं इससे स्पष्ट है कि शासन देवों को उनके योग्य स्थानपर स्थापित करके उनके योग्य ही सामग्री देकर उनका उचित सम्मान करना चाहिये किन्तु जैसा न करके जो अरिहंतके समान या उससे भी अधिक सम्मान देते हैं वे अवश्य ही सम्यग्दर्शन की विशुद्धिमें अतिक्रमण करते हैं। यदि यही समान या अधिक सम्मान-प्रदानका कर्म किसी आशा-अपने जय पराजय हानिलाम जीवन मरण आदि लौकिक प्रयोजन के वश होकर किया जाता है तो वह और भी अधिक विशिष्ट अतिक्रमण माना जायगा। तथा यही कार्य यदि वरोपलिप्सा से किया जाता है तो अवश्य ही वह सम्यग्दर्शनका अतीचार समझना चाहिये । क्योंकि सम्यग्रष्टि होकर शासन देवोंको देवाधिदेवके बराबरका या उससे भी अधिक स्थान मान प्रदान करता है तो यह जिनेन्द्र भगवान् और उनके भागमका अज्ञान अथवा विपर्यस्त बुद्धिद्वारा होनेवाली अवहेलना है। फिर वह भी अपने लौकिक प्रयोजन वश होकर वैसा करता है । प्रत एष अवश्य ही वह अतिचार है । ध्यान रहे वर प्रार्थना में अपने को नीचा पीर जिससे प्रार्थना की जाती है उसकी उंचा मानने का भाव स्वभावतः आजाता है साथही जिससे वर प्राप्त करना है उसको प्रसन्न करने के लिये तयोग्य विधि-विशेषसे उसका सत्कार पूजन भी करना भावश्यक होता है। ग्रंथ कान भी बरोपलिप्सा को देवमूढता का कारण ही बताया हे । यदि यही उपासना शासन देवों के बदले मिंध्यादृष्टी देवों की कोजाती है तो बहुत बड़ा दोष प्रबल अतिचार अथवा कदाचित् सम्यग्दर्शन का भंग अनाचार भी संभव हो सकता है। सम्यग्दर्शन भी एक व्रत है। श्रावक के कथित १२ प्रतों का यह मूलबत है । जिस तरह सल्लेखना व्रत उन १२ व्रतों का फल रूप प्रत है उसी प्रकार सम्यग दर्शन मूल रूप व्रत है। क्योंकि इसके विना कोई भी बत मोक्षमार्म रूप नहीं माना गया है और न संभव ही है अतएव जिसतरह अन्य व्रतों के अतिक्रम व्यतिक्रम अतीचार अनाचार बताये गये है उसीतरह देवमूढता के सम्बन्ध को लेकर सम्यग्दर्शन के भी ये अतिक्रमादि दोष समझने चाहिये । यद्यपि ये दोष तरतम रूप हैं। फिर भी परिहाये ही हैं। इनके रहते हुए वास्तव में व्रत भी सफल नहीं हो सकते जिसतरह सदोष बीजसे निदोष उसम अभीष्टफल नहीं मिल सकता उसीप्रकार सदोष सम्यग्दर्शनसे निर्दोष उत्तम यथेष्ट मोक्षमार्ग सिद्ध नहीं होसकता। यह तो निश्चित ही है कि प्राय: मलदोषों का संभव सम्यक्त्व प्रकृतिके उदयपर निर्भर है भार वह शायोपशमिक सम्यक्त्र अथवा वेदक सम्यक्त्व मेंही संमव है जहाँ पर कि सम्यक्त्व प्रकृतिका उदय पाया जाता है । श्रीपशमिक अथवा क्षायिकों से किसी में भी यह नहीं पाया जाता । क्योंकि श्रीपशमिक और नायक दोनों ही सभ्यस्त्व दोपों १-अतिक्रमो मानसशुद्धिहानियतिक्रमो यो विषयाभिलाषः । तथातिचार करणालसरवं भंगो जनाधार इह असामाम् ॥
SR No.090398
Book TitleRatnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchand Shastri
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages431
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size15 MB
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