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________________ इस श्रावका २०० से रहित एवं निर्मल रहा करते हैं। प्रश्न--रावण ने श्रीशांतिनाथ भगवान के चैत्यालय में बैठ कर बहरूपिणी विद्या सिद्ध की थी । इससे क्या उसके सम्यग्दर्शनका भंग नही हुआ ? उसर-नहीं | उसके केवल अतीचार ही मानना चाहिये । प्रश्न-यदि उसके सम्यग्दर्शन बना रहा तो फिर वह तीसरे नर्क में किस तरह गया! सम्यक्त्वसहित जीव तो प्रथम नरक से आगे नहीं जा सकता। उत्तर--ठीक है । उसका सम्यग्दर्शन गुण नष्ट जरूर होगया था परन्तु वह बहुरूपिणी विद्या सिद्ध करने के कारण नहीं; अपितु सीताके प्रति अंतरंग में होने वाले कामतीवाभिनिवेश के कारण एवं उस अन्यायको सिद्ध करने के लिये उद्यक्त करानेवाली तीन मान पायक उदयके कारण दुनाथा । अतएव शासन देव के पूजन सत्कार से सम्यग्दर्शन का भंग मानना युक्त नहीं है यह इमारा कहने का अभिप्राय है। प्रश्न-यापने तो ऊपर शासन देवों के सिवाय अन्य मिथ्यादृष्टि देवों के पूजन करने पर भी सम्यग्दर्शन का सर्वथा भंग होना नहीं माना है। सो क्या यह युक्त है? उसर-- ऊपर हमने जो कुछ कहा है वह आचाके अभिप्राय परसे ही कहा है, अपनी तरफ से नहीं । हमने यह कहा है कि "यदि यही उपासना शासन देवोंके बदले मिथ्यादृष्टि देवोंकी की जाती है तो बहुत बड़ा दोष प्रबल प्रतीचार अथवा कदाचित् सम्यग्दर्शन का भंग अनाचार भी संभव है।" हमने अपने इस कथन में मिथ्यादृष्टि देवों की पूजा को गुण नहीं माना है। और न सम्यग्दर्शन का भंग न होना ही बताया है। हमारे कहनेका आशय यह है कि कदाचित ऐसा भी हो सकता है कि कोई जीव मिथ्यारष्टि है-~-कुनयों का पूजन करता है । वही सम्यग्दृष्टि होकर अरिहंतादिकों का पूजन करता है किन्तु पी पूर्व संबन्ध अथवा सरकार के बने रहने के कारण पहले के कुदेवादिका भी पूजन करता है । इस तरह के व्यक्ति के यदि कुदेव पूजन के कारण मिथ्यात्व कहा जा सकता है तो अरिहंत भगवान का पूजन करने के कारण सम्यक्त्व क्यों नहि कहा जा सकता ? वास्तविक बात यह है कि प्राचाों ने ऐसे व्यक्ति के प्रथम अथवा चतुर्थ गुण स्थान न बता कर मिश्रगुणस्थान बताया है । तुतीय गुणस्थान को प्रथम अथवा चतुर्थ गुण स्थान नहीं कह सकते । यदि इनमें से किसी भी एक में उसका अंतर्भाव करते हैं तो तृतीय गुण १-तत्य स्वयसम्माइट्ठी ण कयाइवि मिच्छत्तं गच्छइ, ण कुणा संदहंपि, मिच्छत्तभवं दिट्र ण णो विम्हये जादि । परिमो चैव उत्रसमसम्माटुंा। किन्तु परिणामपचएण मिच्छत्तं गच्छइ, सासणगुण पि पनिव ज्जद, सम्मामिच्छत्तगुण पि दुका पदासम्मतं वि समिखंयई ।। धवला संतसुः पृ०७। २-"न चैतकाल्पनिक पूर्वस्वीकृतवतापरित्यागेनाहन्नपि देव इत्यभिप्रायवतः पुरुषस्योपलम्भात्"। धवला संतसुत पृ० १६७ । तथा-तथापि यदि मूढत्वं न जोकोपि सर्वथा। मिश्रत्वेनानमान्योऽसौ सर्वनाशो न सुन्दरः ।। न स्वता जन्तवः प्रेयः दुरीहा स्युर्जिनागमे । स्वत एष प्रवृत्तानां तयोग्यानुहो मतः॥ यश आ०पू०६-२८२ । तथा गोम्मटसार जीवकाइके गाने ०२२ की मन्वप्रबोधनी टीका।
SR No.090398
Book TitleRatnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchand Shastri
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages431
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size15 MB
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