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________________ २०५ चद्रिका टीका तेईसवा श्लोक स्थान के प्रभावका प्रसंग आता है । अतएव इस तरहके व्यक्ति अथवा उसके भावों के लिये एक जात्यन्तर गुरुस्थान मानना ही उचित और आवश्यक है। इस तरह के दोष को प्रबल दोष कहा जा सकता है सर्वथा भंग नहीं कहा जा सकता । भंग उस अवस्था में ही कहा या माना जा सकता है जबकि वह अरिहंतादि का मानना-पूजना छोडदे और अनर्गल होकर कुदेवों काही पूजन करे। प्रश्न--ऊपर आपन जो कुछ कहा है उससे तो यह अभिप्राय निकलता है कि श्राशा, देवोंका रागद्वेषमलीमसत्व, परोपलिप्सा और उनका विधिपूर्वक पूजन, क्रमसे अतिक्रम व्यतिकम प्रतीचार और अनाचारके कारण हैं। और यदि ये बातें नहीं है तो फिर शासन देवों के पूजनमें कोई दोष नहीं है । सो क्या यह ठीक है? उत्तर--हां, यह ठीक बात है । जिसतरह न्यूनता अतिरेक संशय और विपर्यासको छोडकर जो अर्थद्वान होता है वह यथार्थ ही होता है। अथवा मिथ्या उभय और अनुभंय परिणति को छोड़ कर जो श्रद्धान होता है वह समीचीन ही होता है । उसी प्रकार अतिक्रमादिक उपयुक चारदोपोंसे रहित जो शासन देवोंका पूजन है वह भी उचित ही है। प्रश्न- हम तो यह समझ रहे है कि अरिहंत देवके सिवाय अन्य किसी भी देवका न करना मिथ्यात्व ही है। उचर---निश्चयनयसे अपनी आत्माही मोक्षाय है-उसीका श्राराधन करना चाहिये । सो क्या अपने से पर अरिहंताविकका पूजन करना मिध्याव माना जायगा १ नहीं। क्योंकि जो बात जिस अपेक्षा से कही है उसको उसी अपेक्षा से मानना दोष नही अपितु गुण है। ऐसा होनेसे ही इस लोक और परलोकके समस्त व्यवहार अविरोधेन सिद्ध हो सकते हैं; अन्यथा नहीं। शासनदेवोका जो पूजन बताया है उसका वास्तषिक श्राशय नियोगदानमात्र है। जो जिस विषयका नियोगी है उसका प्रसङ्ग पड़ने पर उचित सम्मान यदि न हो तो वह उचित नहीं माना जा सकता । यही बात शासन देवों के विषयमें भी समझना चाहिये। आदर विनय सल्कार पूजन श्रादि शब्दों से उस नियोगदान को ही सूचित किया गया है जैसा कि श्री सोमदेव परीके पूर्वो लिखित वाक्योंसे१ स्पष्ट होता है। अत एव नियोगदान मिथ्यात्वका कारण नहीं है। बडे २ राजा महाराजा चक्रवर्ती भी अपने नियोगियों का यथावसर सिरोपाह आदि देकर सन्मान करते हैं। उसीप्रकार त्रिलोकीपति जिन भगवान्के शासनमें अधिरपक पद पर नियुक्त इन देवोंको भी भगवान के अभिषेक पूजनके पूर्व भालानादिकर योग्य दिशाभोंमें बैठनेकेलिये सत्कारसहित कहना है और दान करना है तो वह अनुचित किस तरह कहा जा सकता है । बल्कि यह तो भगवान के प्रभावको व्यक्त करना है। १-१० २०६ में ताः शासनाधिरकार्थ कल्पिताः परमागमे । अतो यज्ञांशदानेन माननीयाः सुदृष्टिभिः या--३६७।
SR No.090398
Book TitleRatnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchand Shastri
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages431
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size15 MB
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