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रत्नकरण्डश्रावकाचार विशेष-~~ इस कारिकाके सम्बन्धमें भी तीन विषयों को लेकर विचार करना है। प्रयोजन, शब्दोंका सामान्य निशेष अर्थ, तथा तात्पर्य ।
प्रयोजन-मंगलरूप प्रथमकारिकामें धर्मरूप जिस तीर्थक अनुष्ठाता एवं वक्ताको नमस्कार किया था उसी तीथरूप धर्मके व्याख्यानकी गत कारिकामें प्रतिज्ञा की गई है । उसमें प्रतिज्ञा करते हुए धर्मका स्वरूप एवं फलका सामान्यतया निर्देशमात्र किया गया है। सर्वसाधारणको इतने परसे ही नहीं मालग हो भरना किर्स शब्दसे किस चीजको ग्रहण किया जाय और वह भी किस युक्तिसे जिससे कि वह सहज ही समझमें पा सके। इन दोनों बातोंको ध्यानमें रखकर विचार करनेने गत कारिकाके बाद इस पद्य द्वारा प्रतिज्ञात विषयके विशेष निर्देश तथा उसके समभानेकी सरल युक्तिको आवश्यकता दृष्टिमें आ सकती है। धर्मके वर्णनकी प्रतिज्ञा करते हुए केवल इतना कह देनेमात्रसे कि "जो समीचीन है, कर्मोंका उच्छेद करने वाला है, और सम्पूर्ण संसार के दुःखोंसे छुटाकर उत्तम सुखको प्राप्त करा देता है वह धर्म है ।" नहीं समझ पाता कि वह क्या वस्तु है। साथ ही यह भी विचारणीय है कि वह धर्म यदि इस तरहका परोक्ष है कि सर्वसाधारण संमारी जीवोंकी दृष्टिक प्रायः मराचर है तो वह किस युक्ति से समझमें भा सकता है । अतएव इन बातोको ध्यान रखकर वर्गकै विशिष्ट स्वरूपका निर्बाध सरल युक्ति के द्वारा बोध कराना ही इत्त कारिकाका प्रयोजन है। __ कारिकाकै पूर्वार्धमें धर्मके असाधारण स्वरूपका निर्देश है, और उत्तरार्धमें वह किस तरहसे सहज ही समझमें आ सकता है इसके लिये युक्तिका उल्लेख किया गया है। अर्थात् सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्रका नाम ही धर्म है। और वह उत्तम सुखका वास्तविक साधन है यह बात उनके ही प्रत्यनीक भावों के द्वारा समभामे आसके इस तरह से सुगमतासे समझाया गया है।
यह सभी समझते हैं या समझ सकते हैं कि किसी भी कार्यकी उत्पत्ति जिस कारणसे हुआ करती है उस कारणके अभाव में उस कार्यकी उत्पत्ति नहीं हो सकती । सृष्टि अथवा संसारका स्वरूप और उसके कारम्स अनुभव सिद्ध एवं प्रायः दृष्टिगोचर हैं । भव शब्द संसार या सृष्टिका ही पर्यायवाचक है । उसके मुलभूत तथा असाधारण कारण मिथ्यादर्शन मिथ्या झान और मिथ्याचारित्र हैं। जिनका कि अनादि कालसे यह जीव अनुभव कर रहा है ! फिर भी वह जन्म मरण आदिकै दुःखासे अथवा तापत्रयसे संचमात्र भी उन्मुक्त नहीं हो सका है। अरुएव स्पष्ट है कि सभी सरहके दःखोंसे छुटकारेका वास्तविक उपाय इनसे विपरीत ही होना चाहिये। उन्हींका नाम सम्यग्दर्शन सभ्यम्मान और सम्पक चारित्र है तथा इन्हीका नाम धर्म है।
और ये हीसंसार एवं संसारके दुःखोंस सटाकर उत्तम सुख रूप अवस्थामें जीरको प्रादेने परिवर्तित कर देने की सामर्थ्य रखते हैं।
संसार और उसके कारण दुःख रूप हैं यह पात प्रायः सभी मतवालोंने स्वीकार की है।