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mohannaramphonnaireme
चंद्रिका टीका तीसरा श्लोक अधिक क्या ? जीव एवं परलोयाको न मानने वालों तक ने भी संसारका त्यागकर प्रवज्या धारण करनेका उपदेश दिया है और तदनुसार वे संसारसे प्रवजित होते हुए देखे भी जाते हैं। यदि उन्हे संसार सुख रूप प्रतीत होता या दःखरूप प्रतीत न होता अथवा संसारके परित्याग कर देने पर ही चारतविक सुखशान्तिका लाभ हो सकता है यह बात उन्हें मान्य न होती तो वे क्यों तो स्वयं प्रत्रजित होते और क्यों दुसरीको वैसा उपदेश ही देते।
दुःख तथा सुख जीवको अवस्थाएं हैं। इनका जीवके साथ सम्बन्ध जितना अति सनिकट हैं उतना अन्य किन्हीभी बाह्य पदार्थों के साथ नहीं। दुःख जीवका मात्र होकर भी रिभाव रूप ही है । तथा सुखरूपभाय स्वभाव भी है और विभाव भी है। सातावेदनीय आदि पुण्य को उदगसेस्ट विषयोंगी जो अनुभूति होती है वह विभावरूप सुख है और किसी विवक्षित कर्मके या किन्हीं कमों के अथवा सभी कोके अभावसे निज शुद्ध चैतन्य स्वरूपकी जो अनुभूति होती है उसको स्वभावरूप सुख सममाना चाहिये । इनमें से विभाव रूप दुःख तथा सुख प्रायः सभी संसारी जीवांक अनुभवमें निस्य अाने वाले हैं। शुद्ध स्वभावरूप सुखका अनादि कासे इस जीवको अनुभव अभी तक कभी भी नहीं सुना है । उसका अनुभव वास्तविक धर्मकै प्रकट होने पर ही हुआ करता है । किन्तु इस धर्मकी उभृति भी सांसारिक सुख दुःख
और उसके कारणाम हेयताका प्रत्यय हुए बिना नहीं हो सकती अतएव संमार और उसकी प्रवृत्तिके कारणों में हेयताका प्रत्यय करते हुए युक्ति पूर्वक वास्तविक सुखके कारणभूत धर्मके स्वरूप एवं भेदोंका बोध करा देना इस का रिकाका प्रयोजन है । सुखको प्राप्त करने तथा दुखोंसे छुटकारा पानेकी इच्छा रखते हुए भी स्वरूप और यथार्थ उपाय की अज्ञानताकै कारण अभीष्ट लाभ न होनेसे पाकुलित हुए संसारी जीयाको परोपकारिणी बुद्धिसे प्रेरित आचार्यका प्रयोजन इस कारिकाले निर्माण में वास्तविक सुखके उपाय भूत धर्मसे अस्गत करदेना ही है।
इस तरह युक्ति अनुभव और बागमके आधार पर वास्तविक दुःख और उसके कारणों की तरफ दृष्टि दिलाते हुए उसके प्रतिपक्षभूत वास्तविक सुखके कारणभूत धर्मके विशिष्ट भेदोंका बोध करानेके उदंशसे ही प्राचार्यने इस पधकी रचनाकी है। जो कि सर्वथा उचित एवं आवश्यक भी है। इस पग्रमें प्रयुक्त सम्यग्दर्शनादि पदोंकी व्याख्या स्वयं ग्रन्थकार आगे चल कर करने वाले हैं। फिर भी सर्वसाधारण पाठकोंके हितकी दृष्टिसे यहां प्रयुक्त शब्दोंका सामान्य एवं कुछ विशिष्ट अर्थ लिखनेका प्रयज्ञ किया जाता है ।
शब्दोंका सामान्य-विशेष अर्थसत् शब्दका अर्थ समीचीन अश्या प्रशंसा है। तस्वार्थ सूत्र आदि में सम्यक् शब्द
१-फेवल मोहनीय कर्म या उसके दर्शनमोह भेदके या चार पाहिमा कर्मोके अभावसे अथवा आठों कोंके भय से उत्पन्न मुख।
२-अनन्तचतुष्टय अथवा अनन्त वीर्य तीर्थकरत्व तथा ऋद्धि आदिका सामर्थ्य प्रभूति