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रत्नकरण्डभावकाधार
का प्रयोग जिस अर्थ में किया गया है उसी अर्थ में यहां सत् शब्दका प्रयोग किया है। यह शब्द दृष्टि आदि aai aा विशेषण है जिससे मतलब यह हो जाता है कि वे ही दृष्टि-दर्शन आदिक वस्तुतः धर्म की परिभाषा के अंतरगत लिये जा सकते हैं और वेही उसके कार्य और फल को उत्पन्न करनेमें समर्थ हो सकते हैं जो कि यथार्थ हैं एवं निर्दोष हैं क्योंकि जो दर्शन श्रादिक अपने विषमरूप अर्थ से व्यभिचरित अथवा सदोष हैं वे अपने वास्तविक कार्य को सम्पन्न नही कर सकते ।
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दृष्टि शब्दका अर्थ नेत्र अथवा सामान्य अवलोकन देखना आदि न करके स्वानुभूति या श्रद्धान आदि करना चाहिये । क्यों कि यही अर्थ प्रकृतमें उपयोगी एवं संगत सिद्ध हो सकता है। ज्ञान शब्दका जानना अर्थ प्रसिद्ध हैं । वृत्त शब्दसे प्रवृति आचरण तथा चारित्र अर्थ लेना चाहिये | धर्म शब्दका अर्थ स्वयं ग्रन्थकार पहले की कारिका में कर चुके हैं। धर्मेश्वर शब्दका मुख्य अर्थ वही लेना चाहिये जो कि पहली कारिका में श्रीवर्धमान शब्दका किया गया है । क्यों कि श्री वर्धमान भगवान ही इस युग में अंतिम तीर्थंकर होनेके कारण धर्मके साक्षात् पूर्ण अधिनायक और अर्थतः उपज्ञ वक्ता तथा शास्त्रा होने के कारण ऐश्वर्य धार्मिक शासन करने की सम्पूर्ण सामर्थ्य रखनेवाले हैं। विदुः इस क्रियापद का अर्थ 'जानते है' या ' मानते हैं' ऐसा करना चाहिये 'यदीयप्रत्यनीकानि' का अर्थ 'जिनसे उल्टे' ऐसा होता है। भवन्ति क्रियापद का 'होते हैं' और 'भवपद्धतिः' का 'संसारके मार्ग' यह अर्थ स्पष्ट है ।
नहीं
इस तरह शब्दों का जो सामान्य अर्थ है उन सब विषयों में कुछ भी लिखने की आवश्यक्ता मालूम होती फिर भी कतिपय शब्दों के आशय के सम्बन्ध में साष्टीकरणार्थ लिखना थोडासा उत्रित एवं श्रावश्यक प्रतीत होता है ।
आगम में दर्शन आदि शब्दों का अनेक तरह से निरुक्ति पूर्वक तथा भिन्न २ पेक्षाओंको दृष्टि में रखकर नाना प्रकार से अर्थ किया गया है । सर्वार्थसिद्धि तथा तच्चार्थं वार्तिक में मुख्यतया चार तरह से निरुक्ति की गई है । कर्तृ साधन, कर्म साधन, करण साधन, और भावसाधन । किंतु इसका यह अर्थ नहीं कि अन्य साधन उनको अभीष्ट या मान्य नहीं हैं कारकों की प्रवृत्ति विविक्षाधीन हुआ करती हैं अतएव अन्य साधनरूपमें मी निरुक्ति यदि की जाय तो वह उनके कथन के विरुद्ध नहीं मानी जा सकती । यही कारण है कि तचार्थसार में अमृतचन्द्र आचार्य ने कर्ता कर्म करण सम्प्रदान अपादान सम्बन्ध और अधिकरण की अपेक्षा से भी साघनरूपमें निरुक्ति की हैं। और द्रव्य गुण पर्याय एवं उत्पाद व्यय प्रौव्यको दृष्टिमें रखकर भिन्नर तरह से
१- सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्राणि मोक्षमार्गः ॥१-१ || सम्यगिति प्रशंसार्थो निपातः किबन्सोवा || राज १-२-१
२-समेचति सम्यक् अस्यार्थः प्रशंसा | स. सि. ३ विषय सात तत्र, देवशास्त्रगुरु, शुद्धात्मस्वरूप भारि अर्थसे- निश्चीयते इति मर्थः ४ शंका कक्षा आदि वच्यमाण सम्यक्त्वके दोष, संशयादिक ज्ञानके दोष, और माया मिध्यानिदान शल्यादि चारित्र सम्बन्धी दोष हैं । ५--संसार और उसकी कारणो से परम मांक / से मेन तत् दर्शनम् दर्शनम् ।
६- पश्यति इति दर्शनम् दश्य सद् दर्शनम् पश्यति अरुमा