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चंद्रिका टीका तीसरा लोक
भी अर्थ करके बताया है । दर्शन शब्द के लिए जो बात है वही ज्ञान और चारित्रके लिए भी aarit चाहिये । यद्यपि इनके साधनभाव की विवक्षामें कहीं २ गौण मुख्यता भी मालुम होती है |
" सद्दष्टिज्ञानवृत्तानि” और 'धर्म' में जब विशेष्य विशेषण भाव हैं तब सामानाधिकरण की स्पष्ट करने तथा व्याकरण के नियम को ध्यान में रखते हुए समान लिंग और विभक्ति का होना जरूरी है, ऐसी शंका हो सकती है। परन्तु इसका उत्तर या समाधान सर्वार्थसिद्धि यादिमें ओ दिया गया है वही यहां पर भी समझ लेना चाहिये | क्योंकि 'सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः' और 'सहष्टिज्ञानवृत्तानि धर्म, ' इनमें केवल शब्द मादश्य ही नहीं, अपितु अर्थ में भी एकता ही है इसके सिवाय एक बात और है - यह हक सम्यदर्शन सम्बन् ज्ञान और सम्यक् चारित्र ये तीन गुण आत्मा के भिन्न भिन्न कहे जाते हैं । फिर भी ये तीन भेद जिस धर्मके बताये गये हैं वह वास्तव में तीनों का खण्ड समुदायरूप एक ही है । वही मोचका एक मात्र समर्थ तथा असाधारण कारण है जिसके होते ही श्रव्यवहित उत्तर क्षण में ही मोक्षरूप कार्यकी निष्पत्ति हो जाया करती हैं । अतएव संसारनिवृत्ति या निर्वाण प्राप्ति के उपाय भूत धर्म निश्चय व्यवहार प्रकारों, समर्थ असमर्थ भेदों, अभिन्न भिन्न रूपों को प्रकट करने के लिए 'धर्म' यह एक वचन और 'सम्पक्टष्टिज्ञानवृत्तानि' यह बहुवचन उचित एवं संगत ही प्रतीत होता है ।
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'धर्मेश्वरा:' इस पदसे अर्थतः श्रेयोमार्गरूप धर्मक उपश वक्ता श्रीवर्धमान भगवान ही मुख्यया अभीष्ट हैं जैसा कि ऊपर कहा गया है । फिरभी उनकी देशनाका अवधारण कर ग्रंथरूप में उसे रचनेवाले वारह सभाओं को धारण करने में समर्थ, तथा सम्पूर्ण ऋद्धियोंसे युक्त श्री गोतम आदि गणधर देव एवं उनके उपदेशकी परम्पराको प्रवाहित करने वाले तथा असद्भाव स्थापना करनेवाले इतर प्राचार्योंका भी ग्रहण किया जा सकता है जिनके कि रचित या ग्रथित आगम ग्रन्थोंका अध्ययन प्रकृत रचना में आधारभूत हैं। क्योंकि धर्मके स्वरूपका वर्णन करने में जिनको ऐश्वर्य प्राप्त है वे सभी धर्मेश्वर शब्दसे कहे जा सकते हैं। तीर्थकर भगवान तो सर्वोत्कृष्ट धर्मेश्वर हैं ही परन्तु गौतम आदि भी अपनी २ योग्यतानुसार धर्मेश्वर ही हैं। साथही यहबात भी ध्यान में रखनी चाहिये कि यह धर्मका ऐश्वर्य केवल उसके वर्णन करने के ही अपेक्षा नहीं अपितु उसके भावरूप में अर्थतः परिणमन की भी अपेक्षा से है। जो रलत्रयरूपमें स्वयं परिणत हो चुके हैं उनका ही वर्णन वास्तव में तथा स्वतः प्रमाण माना जा सकता है और उनका वह रत्नत्रय जितना अधिक एवं विशुद्ध है उनके वचन भी उतनेही अधिक प्रमाण माने जा सकते हैं। तीर्थकर भगवानको परमावमाद, सम्यग्दर्शन केवलज्ञान और पूर्ण यथाळ्यात चरित्र प्राप्त से १४ तक । २-राजयार्तिक । शानसेनयोः ४ । ३: उपात्तलिंगसंख्यापति कमो न भवति
१- देखो तत्त्वार्थसारके अन्तिम उपसंहारकी कारिका नं० करणसाधनत्यं कर्मसाधनश्चारित्रशब्दः अ० १ सू० १ या० अति तस्य मार्गापनार्थः इति ।