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________________ रत्नकरण्द्धश्रावकाचार उपेक्षा से वह अस्पृष्ट रहा करता है। यही कारण है कि उसको अपने रुच्य गुण जहांपर भी दृष्टि गोचर हुदा करते हैं चीपर जनमा गह गायोग एवं उचितरूप में श्रादर आदि किया करता है ! जिस प्रकार अन्तरायके अभाव में ही पुण्यकर्मोका उदय यथावत् कार्य करने में समर्थ हुमा करता है उसी प्रकार मिथ्यात्व अथवा अनन्तानुबन्धी कषायके निमिचसे होनेवाली विचिकित्साके अभावमें ही सम्यग्दृष्टि की गुणरुचि वात्सल्यका अंतरंग कारण बनजाया करती है। यही कारण है कि प्रतिपचिका "सद्भावसनाथा" यह विशेषण दिया है। अपेतकैतषा-जो क्रिया कैतवभाव से रहित हो उसको अपेतकैतवा समझना चाहिये। कितव नाम ठग या धूर्तका है और केतव कहते है ठगई अथवा धूर्तता को । मतलब यह है कि धोखा देना वंचना प्रतारणा आदि भाव कता हैं | अतः एवं साधर्मी के साथ जो सद्भाव प्रकट किया जाय उसमें कैतव अर्थात् धूर्तता आदिका भाव नहीं रहना चाहिये । सत्कार मादि करने में जो सद्भाव प्रकट किया जाता है वह यदि धृततापूर्वक है तो यह वास्तव में सदभाव नहीं है। इसी बातको स्पष्ट करने के लिये यह प्रतिपत्तिका विशेषण दिया गया है। प्रतिपत्ति का अर्थ है कि कर्तव्यका ज्ञान और प्रवृचि । अर्थात् सधर्माओं के प्रति जो कर्तव्य पालन किया जाय अथवा प्रवृत्ति की जाय वह वंचकता से रहित सच्चे हृदयसे होनी चाहिये। ___ यथायोग्य--यह शब्द बड़े महत्वका है । कर्तव्यहीनता एवं उसका अतिरेक दोनोंका ही चारण करके वह ठीकर कर्तव्यका बोध कराता है। क्योंकि इसका अर्थ होता है कि "योग्यतामनतिक्रम्य" जिसका आशय यह है कि योग्यता से न कम न ज्यादे । जिस धर्मात्माका विनय आदि करना है वह जिस योग्यताका हो उसके अनुसार हो उसका सतकारादि करना उचित है न कि हीनाधिक । कम करने पर अपना अभिमानादि प्रकट होता है और अधिक करने पर अविवेक । अत एव जिस में ये दोनों ही त्रुटियां न पाई जाय इस तरहसे ही सधर्माप्रति आदर विनय आदि प्रकट करना चाहिये। तात्पर्य यह है कि सम्यक्त्वसहित जीवकी सथाओं में यत्सलता रूप प्रासि स्वाभाविक हमा करती है। वह बनाबटी या दिखावटी नहीं हुआ करती। न तो वह अन्तरंगमें किसी मोह कपाय स्वार्थ आदि कर्मोदयजनित वैभाषिक या श्रीपाधिक भावोंसे ही प्रेरित हुमा करती है और न लोकानुरंजनादिकलिये बनावटी ही हुआ करती है। धर्मसारश्यके कारण ही सचमीमोके प्रति वह प्रीति आदि प्रकट किया करता है। जिस धर्मके कारण वह इस तरहकी प्रवृत्ति किया करता है वह धर्म अनेक प्रकारका है। संसारी प्राणी जबतक संसारमें है तब तक उसको उन सभी धर्मोंका पालन करना पडता है। उसके लिये जितने ऐहिक उचित कर्तव्यरूप धर्म हैं वे भी अपरिहार्य रहा करते हैं। उनके छोडदेनेपर अथवा उनकी तरफ दुर्लक्ष्य करनेपर उसका पारलौकिक परमार्थ भी विगड जा सकता है। भतएव जो परमार्थक विरोधी नहीं है ऐसे ऐहिक कर्तव्य भी जो कि प्रकारान्तरसे धर्मके साधन होने के कारण धर्म ही कहे जाते हैं उन धोका भी उसे पालन करना और उससे समन्धित
SR No.090398
Book TitleRatnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchand Shastri
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages431
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size15 MB
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