________________
___ चंद्रिका टाका सत्रहवा श्लोक व्यक्तियोंका यथा योग्य आदर सत्कार आदि करना पडता है।
रखत्रयरूप धर्मकी मूर्ति, दिगम्बर जिन मुद्राके धारक, साधुओं तथा अंशतः उस मार्गर चलनेवाले श्रावकोंके प्रति तो उसका वात्सल्य भाव होता ही है अव्रती गुणानोंका भी यह यथायोग्य सत्कार सन्मान आदि किया करता है । समयिक साधक समवद्यावक नैष्टिक गणाधिप आदि जितने भी सधर्मा है उन सबका भी वह अपनी शक्ति और उनकी योग्यतानुसार मान सम्मान दान आदिन हसा आदर सम्मान किया करता है और भक्ति प्रकट किया करता है। लोकव्यवहार में आयुर्वेद ज्योतिषु मन्त्रानुष्ठान विधानादिकी आवश्यकताके समय उन विषयों के जानकार मर्याओं में उसकी प्रीति हो और उनको वह अग्रपद दे यह स्वाभाविक है। आयुर्वेद आदिके विषयमें भी प्रवीणताके सिवाय सधार्मिकता निमित्तसे प्रीतिविशेषका होना सम्यग्दर्शनका ही कार्य अथवा चिन्ह है। यह जिनमें पाया जाय वहां वात्सल्यगुण समझना चाहिये । इस गुणके कारण प्रात्माकी जो विशुद्धि होती है वह उसे मोक्षमार्गमें ता अग्रसर करती ही है । किंतु इसके कारण के व्यक्ति भी अपने पीछे सघर्गाओंके बलका अनुभव कर धर्माराधनम मोन्साह तथा अधिक दृढ होजाया करते हैं । और उनकी लौकिक प्रधृत्तियां स्वाभिमान-सात्मगौरवसे युक्त प्रभावशाली एवं महत्वपूर्ण हुआ करती है।
सधर्माओं से मतलब मुनि और श्रावक दोनोंस है । फिरभी उनम मुनिया की प्रधानता है। क्योंकि धम की मात्रा मुनियों में अधिक प्रमाणम पाइ जाता है । अत एव उनक गुणा म निष्कपट प्रीति रखकर उनका सत्कार-पुरस्कार र मुख्यतया तथा प्रधानतया करना उचिच ह । मुनिक वाद श्रावकका स्थान पाता है। उदाहरणार्थ-जहां कहां भी मुनियाका आवास है वहां उन अतिथियोंकी भिक्षा चर्या होजानेके पीछ ही श्रावकों का आहाशाद करना कराना उचित है । अथश वहां किसी धार्मिक उत्सव में उनको अग्रपद देना तथा मुख्य स्थान देना उचत है। यदि अनका मुनियों का आवास हो तो उन समां को अनुकूलता सम्पादन करन म बहुत बड़े विवेक से काम लेना चाहिय' क्योंकि मुनिजन भी सब समान योग्यता आदिक ही नहीं हुआ करते परन्तु उनका पद श्रावकों की अपेक्षा अधिक सम्मान्य ही हुआ करता है । अत एव उन सबका हा योग्यतानुसार आदर सत्कार आदि करना उचित है।
आवकक प्रति वात्सल्य प्रकट करनेका स्थान पद्यपि मुनियों के अनन्तर ही पाता है फिर भी अनेक विषय और अवसर एसे भी संभव है जब कि मुनियों सभी अधिक श्रावकके गुणों के प्रति
५-समासक साधक समय द्योतकनीष्ठकगणाधिपानधनुयात् । दाना देना यथासर गुणरागात सद्गृही नित्यम् । सागार २०५१ | समयिका गृही यांतवां जिनसमयाश्रत:। साधको ज्यातिपमन्त्र बादाद लोकापकारक शारत्रमाः। समयथोतको वारदत्वादिना मार्गप्रभावकः । नाटकः मूलोत्तरगुणाताध्यतपानुष्ठाननिष्ठः । गणाधिपः धर्माचार्यस्ताररगृहस्थाचार्यों था। २–पथावसाव्यप्रतः करम् ।