SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 163
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ रत्नकरण्डयावकाचार वात्सल्य प्रकट करना उचित एवं श्रावश्यक हो जाता है। ऐसे अवसर पर अथवा ऐसे विषय में श्रावकके उन गुणों के प्रति भी मुख्यतया वात्सल्य प्रकट करना उचित है । रखत्रयरूप गुण मोक्षके राधकतम हैं अत एव उन गुणों को देखकर उन गुणवानोंके प्रति वासस्थपूर्ण ब्यवहार तो होना ही चाहिय परन्तु उन गुणों की उत्पत्ति वृद्धि रक्षाके साक्षात् एवं परम्परासे जो साधन है उनका संरक्षण संवर्धन व्यवस्था आदि भी आवश्यक है क्योकि कारण के यिना कार्य नहीं हो सकता | अतः साक्षात् धर्म के भी जो कारणभूत गुण धर्म है उन के प्रति भी वात्सल्यका होना उचित एवं आवश्यक है । फलतः जितने भी आर्योचित गुण हैं उन के प्रति भी सम्यग्दृष्टि को वत्सलभावसे युक्त होना चाहिये । इस प्रवृतिरूप गुण में निषेधरूप निर्विचिकित्सा अंग किस तरह से अन्तरक कारण बनता है यह बात ऊपर स्पष्ट की गई है। अत एवं यह बात भी ध्यान में रहनी चाहिये कि देव शास्त्र गुरु प्राप्त झागत और तगो तथा रत्नत्रयरूप साक्षात धर्म और उसके बाह्यसाधनरूप व्यवहार धर्म के प्रति जो अनुरागी है रुचिमान् है बद कर्पोदयजनित जड़ भावों या पौद्रलिक विषयों-शरीरादिकी विकृतियों के कारण उनके सौन्दर्यासोन्दर्यको देखकर वास्तविक हिनरूप आत्मधर्म से भूपित व्यक्तियों के सम्मानादि से उपेक्षित नहीं हो सकता । इसी प्रकार ऐश्वर्य सम्पत्ति आदिको भी वह प्रधानता नहीं दे सकता । इस तरह विचार करनेपर मालुम होगा कि निर्विचिकित्सा अंग का वात्सल्प गुपके साथ एक विशिष्ट एवं घनिष्ट सम्बन्ध है। इसका अर्थ यह नहीं है कि सम्यम्रष्टि जीव सम्पत्ति आदिक अर्जन रक्षण और विनियोग आदिकी तरफ अपने उपयोग को लगाता ही नहीं है । यह सब काम भी वह करता है तथा इस कार्य में जो सहायक होते हैं उनका भी वह पथायोग्य सत्कार करता है परन्तु अन्तरंगमें वह सधर्मा प्रों की सेवाको उभय लोकके लिये हित कर होनेके कारण अधिक एवं वास्तविक मूल्यवान समझता है मतलब यह कि इस तरह की रुधिपूर्ण दृष्टि को रखकर ही वह अपने समस्त लौकिक उचित और आवश्यक कार्यों को किया करता है। वह अपने हृदय में इस यातकी सदा आशा रखता है कि मुझे सदा सधर्माओंका सहवास प्रास होता रहे फलतः उनके प्रति यथायोग्य भक्तिसम्पादनकी भावना रखता है, प्राप्त अथर्मामोंके प्रति उचित सत्कार करता है, अपने सहाध्यायी, गुरुजन, चतुर्विध संघ, संयमी, बहुश्रुत आदि सद्गुणियोंके प्रति आदर एवं विनयपूर्ण व्यवहार किया करता है। जो अपने मधर्मा किसी माधि-मानसिक चिन्तास व्यथित हैं उनकी उस चिन्ताको निस्वद्य एवं समुचित प्रक्रिया से निवृत्त करता है। और जो किसी प्रकार की ब्याधि-शारीरिक बीमारीसे पीडित हैं उनके रोगका भी उचित एवं निर्दोष चिकित्सोपचार द्वारा परिहार किया करता है । जिनेन्द्र भगवान्, जैनागम, आचार्य, उपाध्याय, साघुओंमें सहावयुक्त अनुनाग के द्वारा विशुद्ध भक्ति को धारण किया करता है । इस तरह बह गुणों और गुणवानों में श्रादर-विनय, वैयावृत्य तथा भक्तिभावको धारण करने वाला सम्पग्दृष्टि वात्सल्य गुरु से युक्त माना जाना है। जिसकी प्रति इसप्रकारकी नहीं है-जा रत्नत्रयरूप गुणों की मूर्ति-मुनि
SR No.090398
Book TitleRatnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchand Shastri
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages431
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy