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________________ रत्नकरण्ड श्रावकाचार आत्मा पर पुद्गल -- शरीर आदिको पवित्र रखता है किंतु पुद्गल सम्वन्ध विशेष के द्वारा अपने को भी शुद्ध कर लेता हैं और आत्माको भी शुद्ध पवित्र स्वरूप से च्युत कर देता है। फलतः विचार करने पर मालुम होता है कि आत्मा पुण्य हैं और पुल पाप हैं। आत्माके साथ लगे हुए कमौके प्रदेश जो कि पोहलिक है सब पाप हैं। ये पायबीज हैं। जबतक संसारी जीवोंके इनका सम्बन्ध यत्किचित भी विछिन्न नहीं हो जाता तबतक संसार की संतति भी बनी हुई है। और Gaon इनका सर्वात्मना विच्छेद नहीं हो जाता तब तक जीवात्मा परमात्मा नहीं बन सकता और अपने शुद्ध स्वरूप भाव में सदा के लिए स्थिर नहीं हो सकता । अतः आत्माकी वास्तविक स्वरूपस्थिति में बाधक ये कर्म प्रदेश ही हैं। येही उसकी पराधीनता -- चातुर्गतिक जन्म मरण - और प्रतिक्षण लगी हुई आकुलता रूप दुःख एवं परिताप का मूल हैं—सब पापोंका बीज है इसलिये आत्माके साथ पुगल कर्मका जो विशिष्ट सम्बन्ध हैं और जो कि आज का क्षित समय से लगा हुआ नहीं अपितु अनादिकालीन हैं वही संसार का मूल है। इसतरहसे यह - किसी विवविशेषण कर्मों के प्रदेश बन्धकी रूष्टि दिवाता है। F मतलब यह कि सम्यग्दृष्टि के लिए जो ऐहिक सुख अनास्थेग हैं उसका कारण ---सम्बन्ध कमाते है और कर्मों की बन्धकी अपेक्षा चार दशाए हैं- प्रकृति स्थिति अनुभाग और प्रदेश | इनही चार दशाओंको दृष्टि में रखकर मालुम होता है कि संसारी जीवकी दुःखरूपताको व्यक्त करने के लिये आचार्यने सांसारिक सुखके चार विशेषण दिये है। जैसा कि ऊपरके कथन से स्पष्ट हो सकता है। सीन लोक के समस्त वैभव जो कि कर्मों के ही फल हैं उन सबका मूल्य एक सम्यक्त्व रत्न के समक्ष नगण्य है---तुच्छ हैं। अतएव जो व्यक्ति सम्यक्त्व के बदलेमें किसीभी सांसारिक आयुदयिक फल की आकांक्षा रखता है तो वह अवश्य ही अविवेकी है अज्ञानी हैं मिध्यादृष्टि है उसका सम्यग्दर्शन निर्मल एवं सांगोपांग नहीं माना जा सकता । पूर्ण सम्यग्दृष्टि हैं और कर्म एवं कर्म फलकी आकांक्षा रखता है यह कहना तो ऐसा समझना चाहिये जैसे किसी स्त्रीके विषयमें यह कहना कि यह पूर्ण सती हैं और पर पुरुष या पुरुषों में साकांच हैं। जिसतरह अपने विवाहित के सिवाय अन्य किसी भी पुरुष के साथ मनसा वचसा कर्मणा किसी भी तरह से रमणकी अभिलाषा न होनेपर ही पूर्ण सती मानी जाती है, उसी तरह अपनेही शुद्धस्वरूपक सिवाय किसीमी परभावमें किसी भी तरह से अभिरुचि न होने पर ही पूर्ण सम्यग्दृष्टि माना जा सकता है। जनतक यह बात नहीं होती उस सम्यग्दर्शन में यह योग्यता नही भाजाती तबतक वह सम्यग्दर्शन निःकांच गुण से युक्त नहीं कहा जा सकता। निर्वाण फल की सिद्धिके लिए सम्धदर्शन गुणको इस अंग से पूर्ण होना ही चाहिये । यद्यपि सम्यग्दशन के मुख्यतया श्रद्धय विषय तीन हैं। आप्त आगम और तपोभूत् । किंतु इसके सिवाय एक विषय धर्म अथवा तवार्थ भी है। यहांपर सम्पदर्शनके आठ अंगों का "मोत्सहायो" में कहा गया धर्म शब्द और "तत्वार्थद्धानं सम्यदर्शन" में कहा गया
SR No.090398
Book TitleRatnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchand Shastri
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages431
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size15 MB
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