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________________ चंद्रिका टीका बारहवां लोक ११२ विशेष इसी पर निर्भर रहने के कारण गौण हैं। क्योंकि अनादि हैं परन्तु पर्यायसादि सान्त भी हैं। ऐहिक सुखकी कर्माधीनता बताने में द्रव्यदृष्टि प्रधान है। क्योंकि यहाँ पर यह बताना भी अत्यन्त आवश्यक है कि जीव अनादि कालसे ही कर्मों से श्राबद्ध है। किसी विवक्षित समयसे बन्धन नहीं पड़ा है । साथही यह भी बताना आवश्यक है कि कर्म बन्धन सन्तान क्रमकी अपेक्षा अनादि होते हुए भी कोई भी कर्म ऐसा नही हैं जो कि किसी विवति समय में न चन्धा हो और अपनी नियत स्थिति के पूर्ण होते ही जीवसे सम्बन्ध न छोड देता हो। इसी बात को "सान्त" यह विशेषण स्पष्ट करता है । जिससे यह बात समझमें भाजाती है कि पुरुयकर्म भी स्थिर नहीं है--न सदासे है न सदाही रहने वाला है । इसीलिए उसके उदयसे प्राप्त इष्ट विषय एवं तनिमित्त सुखभी शाश्वतिक अथवा सदा स्थिर रहनेवाला नही हैं। जगत् में ऐसा कोई उपाय ही नहीं है जिससे कि उस सुखको सदा के लिए स्थिर रक्खा जा सके। आयु कर्मको छोडकर शेष सातोंही कर्मोका बन्ध प्रतिक्षण होता रहता है केवल युकर्मका बन्ध विभाग के समय योग्यतानुसार होता है । परन्तु होता अवश्य है । यदि वह जीव धर्मशरीरी तद्भव मोक्षगामी नहीं है तो उसको परभवकै आयुका बन्ध अवश्यम्भावी है । आठो ही क्रम के बन्धकी यह सामान्य व्यवस्था है। किंतु उदय तो प्रतिक्षण आठही कमका रहता है। यह दूसरी वाद है कि उपलब्ध पर्याय के अनुसार आठों ही कमकी कुछ कुछ अवान्तर परिगणित प्रकृतियों का ही उदय हो सके । परन्तु उदय रहता तो सामान्यतया प्रतिक्षण आठोंही कर्मों का है। इसमें ऐसा विभाग नही है कि अमुक २ कर्मों काही उदय हो और कुछ कर्मों का मूलमें ही उदय न हो। फलतः यह निश्चित हैं कि पुण्योदय जनित संसार का सुख दुःखों से अनन्तरित नहीं रह सकता मालुम होता है कि यहां आचार्यों की दृष्टि कर्मोकी अनुभाग शक्तिकी तरफ हैं। क्योंकि कमों के फलोपभोग में उनकी अनुभाग शक्ति मुख्य कारण है। साथ ही यह बताना है कि पुण्यफल को यह जीव इसीजिए यथावत रूपमें नहीं भोग सकता कि वह शेष सहोदयी पापकर्मीले मिश्रित एवं विनित है। या तो भोगनेकी सामर्थ्य प्राप्त नहीं या उसके अन्य सहायक साधन प्राप्त नहीं श्रथवा वह पुण्य ही हीनवीर्य एवं अल्पस्थितिक है। कदाचित् पापरूप में संक्रांत होकर भी उदय में आ सकता है । यद्वा परिस्थिति अनकूल न होनेपर बिनाफल दिये भी निर्जीर्थ हो जाता है। पुण्य का अर्थ होता है- पुनाति इति पुण्यम् । अर्थात् जो पवित्र बनादे । पापका अर्थ होता है - पाति- रक्षति इति पाथम् । जो आत्माको हितसे बचाकर रक्खे। वस्तुस्वभाव ऐसा हैं कि १- सतान कमसे अनादि और स्थिति बन्ध की अपेक्षा प्रत्येक कर्म साविसान्त है । २- आहारकाम और तीर्थ करत्वके सिवाय | ३- नवं वयश्चारुपयास्तरुय्यो रम्याणि हम्याणि शिवाः श्रियश्च । एतानि संसारतरो : फलानि स्वर्गः परोऽस्तीति सुवार्ता | दोषस्त्वभीषां पुनरेक एक, स्थैर्याय यनास्ति जगत्युपायः । सत्संभवे तर विवां परं स्यात्वेवाय देवस्य तपः प्रयासः । श० ।
SR No.090398
Book TitleRatnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchand Shastri
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages431
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size15 MB
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