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________________ चौद्रका टीका बारहयो नाक वर्णन कर रहे हैं। जिनमें पहले निषेधरूप चार अंगोंमें ये सम्यग्दर्शन के चार विषयही क्रमसे मुख्य तपा लक्ष्य हैं। पहले निःशंकित अंगका मुख्यलक्ष्य आप्त है यह बात लिखी जा चुकी है। तदनुसार इस दूसरे अंगका मुख्य लक्ष्य आगमको समझना चाहिये । क्यों कि पागम में सभी विषयोंका वर्णन पाया जाता है। स्वतत्त्व परतच कर्म उसके कारण भेद फल अधिकरण आदि, कमों के फलों आदि में हेय उपादेष उपेच णीय दृष्टि से विभाग कर तदनुकूल वर्तन श्रादि करने का उपदेश अथवा श्रेयोमार्गका विधान तीनों ही विषयोंका सत्यभूत दृष्टांतो द्वारा स्पष्टीकरण इत्यादि है। किंतु या इसके बान्तर सही विषय एकरूप नहीं है इनमें कोई श्रद्धय कोई झंय धीर कोई पालनीय-हेय उपादेय उपेक्षणीय है। मोह से प्राक्रांत जीव विवेकी नही हुआ करता । वास्तविक विवेक सम्पष्टि जीवर ही पाया जाता है वह मेदज्ञानके द्वारा पर या परनिमित्तक तत्वोंसे निजतत्व-शुद्धको घरिमें ले सक्ता है किन्तु मिथ्याष्टि-मोही जीव मोह और अनन्तानुवन्धी कपाय की विवशता से जिसतरह पर-हेय तस्वों को अपना स्वरूप समझकर अनध्यवसाय या विषयांस के कारण अपना लेता या उनमें रुविमान हो जाता है अतएव विवेक रहित है, उसी तरह सम्पग्दृष्टि जीव भी कदाचित सम्यक्त्व प्रकृति अथका कषायके तीत्रोदयश प्राप्त विवेक को छोड देता और उन पर-इष्ट विषयों को अपनाकर उनमें निदानादिके द्वारा अनुरंजित होकर विवेकभ्रष्ट हो सम्यक्त्वका अंग भंग कर डालता है। ध्यान रहे सम्यक्त्वका सर्वथा अभाव अनन्तानुबन्धी कपाय के उदय में आये विना नहीं हो सकता । जहाँतक प्रत्याख्यानावरणका उदय है वहांतक सम्यक्त्व छूट नहीं सकता। इस तरहका प्रयत सम्यग्दृष्टि जीव निदानवन्ध नहीं कर सकता। यदि निदान में प्रवृत्त होगा तो उसका सम्यग्दर्शन भी छूट जायगा । क्योंकि निदानमें प्रवृत्ति करानेवाली कपाय अनन्तानुबन्धी ही संभव है। प्रश्न हो सकता है कि निदान तो पानवे गुण स्थान तक आगममें बताया है। फिर आप निदान के होने से सम्यक्त्व का ही भंग किस तरह बता रहे हैं ? ___उत्तर-पांचवें गुणस्थानतक जिम निदानका अस्तित्व स्वीकार किया है वह आर्तध्यान का एक भेद है। और तीन शल्यों में जिस निदान का उल्लेख पाया जाता है वह एक मिथ्यात्वका सहचारी भाव है नकि सम्यक्त्व का । मतलब यह कि निदान आर्तध्यान संचलनके सिवाय तीनों ही कषायों से हो सकता है और निदानशल्य अनन्तानुबन्धी के ही उदय में संभव है । फलतः जहाँपर निदानशन्य रूपसे आकांक्षा होगी तब तो सम्यकपका अभाव हुए निना नहीं रह सकता यदि आर्तध्यानरूपसे होगी तो सम्पक्तका सर्वथा अभाव नहीं होकर आंशिक मलिनता या अंश तस्वार्थ शब्य प्रायः एक ही अर्थ को सूचित करते हैं। किंतु धर्म से मतलव दारूप धर्मसे भी है। १-देखो निःशंकित अंगकी टीका । २. स्त्री सासिद्धि असू०३४ की टीका. तथा राजवार्तिक । ३-सफेखिये देखो श्लोकवार्तिक १० स० १८ चा
SR No.090398
Book TitleRatnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchand Shastri
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages431
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size15 MB
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