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________________ rinावकार.................................... रूप ही भंगमात्र संभव है। किन्तु इस तरहका भी सम्यग्दर्शन निर्माणका साधक नहीं हो सकता सर्वथा निःकांक्ष सम्यग्दर्शन ही मोक्ष का साधक बन सकता है। यह इसी से स्पष्ट है कि निदान आध्यान भी पांचवे गुणस्थान तक ही पाया जाता या हो सकता है, इसके उपर नहीं । और मोक्ष के साक्षात साधक तो संयतस्थान ही माने गये हैं। अब क्राणुमार सम्यक तीसरे अंगका वणन अवसरप्राप्त है । अत एव उसीका कथन करते हैं। स्वभावतोऽशुचौ काये रत्नत्रयपवित्रिते। निर्जुगुप्सा गुणग्रोतिर्मता निर्विचिकित्सिता ॥१३॥ अर्थ--स्वभावसे अशुचि किन्तु रलत्रय से पवित्रित शरीरमें जुगुप्मा-ग्लानि न कर गुखों में श्रीतिकरना सम्यग्दर्शनका निर्विचिकित्सिता नामका गुण है। प्रयोजन-दो श्रङ्गोका वर्णन कर चुकनेपर तीसरे अंगका वर्णन क्रमप्राप्त तो है ही जैसा कि उत्थानिकामें भी बताया जा चुका है । इसके सिवाय कारण यह भी है कि सम्पनय के विषय श्रद्धान रूप क्रिया के कर्म मुख्यतया तीन अथवा चार हैं ! सीन का नाम तो कराठोक्त है-आप्त आगम और तपोभृत् । एक विषय अर्थादापन है-धर्म अथवा तत्त्वार्थ । ऊपर यह बात भी कही जा चुकी है कि यद्यपि सम्यग्दर्शन के मामान्यतया सभी विषय है किन्तु यहांपर जब उसके अगोंका वर्णन करना है तब श्रादिके चार अंगोंमें से प्रत्येकमें क्रमसे एकर विषय मुख्य बन जाता है तदनुसार पहले अंगमें प्राप्त और दूसरे अंगमें आगम किस तरह मुख्य ठहरता है यह बात भी ऊपर कही जा चुकी है। अब यह बताना आवश्यक है कि तपोभृक्के निमित्त या विषयको लेकर सभ्यग्दर्शनका यह तीसरा एक अंग किस तरह बनता है । इसलिये भी इस कारिकाका निर्माण यहां आवश्यक है तीसरी बात यह है कि धर्म मुख्यतया रनत्रयात्मक ही है सम्यग्दर्शनादिक तीनोंमेंसे कोई भी एक अथवा दो यद्वा निरपेक्ष तीनों भी धर्म नहीं हैं। तीनों गुणोंके आश्य भी सीन हैं। प्राप्त आगम तपोभृत् । तपोभृत् शब्द स्वयं ही चारित्रमें तपश्चरणकी मुख्यताको पचित करता है । क्योंकि वास्तवमें तपश्चरणके बिना केवल प्रतादिके द्वारा को की यथेष्ट निर्जरा संम्भव नहीं है । मोक्षका मुख्य साधन संवरपूर्वक निर्जरा ही है। जो इस तरह का तपस्वी है वह अवश्य ही रजत्रयधमसे युक्त रहता है किन्तु यह कहनेकी आवश्यकता भी नहीं है कि ऐसी पवित्र आत्माका सम्बन्ध शरीरसे भी है । शरीर प्रकृतिसे ही अपवित्र है। ऐसी हालत में शरीरकी अपवित्रताके कारण यदि कोई व्यक्ति उस सर्वोत्कृष्टगुण-सत्रयधमकी अवहेलना करता है उसमें भक्ति न कर ग्लानि करता है तो अवश्य ही या तो वह बाहिष्टि है या अविवेकी है अथवा तच ज्ञानसे दर और पर्तिव्यस न्युत है । उसको अन्तरराष्ट्र भेदज्ञानयुक्त तत्वरुचि और कर्तव्यनिष्ठ किस तरह कहा या माना जा सकता है। ५-सा कि इसी प्रन्थको कारिका मं० २१ "नांगहानसब तुम" भाविसे मालुम हो सकता है।
SR No.090398
Book TitleRatnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchand Shastri
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages431
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size15 MB
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