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________________ बांद्रका टीका बत्तासा-शोक बोध हेतु ही नहीं है, यह समझना ठीक नहीं हैं। श्रीसोमदेव सूरी आदिन यशस्विलकादिमें ऐसा ही बताया है। बात यह है कि देशनालब्धि कारण है, करण नहीं है। जो समथं कारण होता है उसको करख कहते हैं । जिसके होनेपर नियमसे कार्यकी उत्पत्ति उसी समय हो जाय उसको समर्थ कारण या करण कहते हैं । कारण उसको कहते हैं कि जिसके बिना कार्य न हो । किन्तु इसका अर्थ यह नहीं है कि उसके मिलने पर नियमसे और उसी समय काय ही ही जाय । क्योंकि वह करण-समर्थ कारण नहीं है। कारण है-दूसरे अन्तरंग बहिरंग सहायकोंके साहचर्यके बिना असमर्थ है, मिलनेपर कार्य करता है । सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति में पांच लब्धियों हेतु है ऐसा आगम२ है। इनमें से चार कारण हैं और एक करण हैं। यही कारण है कि उन चार कारण रूप लब्धियोंके मिल जानेपर भी करणके विना सम्यग्दर्शनरूप कार्ग उत्पन्न नहीं होता। किन्तु इसका अर्थ यह नहीं है कि उन चार लब्धियोंके बिना भी कार्य हो जाता है । क्ष्योपश विशुद्धि श्रादि लब्धियां तो न हों और केवल करण लब्धि होकर उसीसे सम्यक्त्वोत्पत्ति हो जाय ऐसा नहीं हो सकता और न ऐसा होता ही है। यदि बिना देशनालब्धिके भी कार्य हो जाता है तो उसको कारण कहना ही व्यर्थ है। क्योंकि कारण कहते ही उसको है कि जिसके होनेपर कार्य हो और न होनेपर न हो । अन्वयव्यतिरेकके द्वारा ही कार्य कारणभाव माना जा सकता है। इसलिये यह निश्चित है कि सम्यक्त्व की उत्पत्तिमें देशना और तन्जन्य बोध भी कारर है। उसके बिना उसकी उत्पत्ति नहीं हो सकती। किन्तु यह ठीक है कि केवल देशना सामान्य कारणके मिलते ही संम्यग्दर्शन हो जाय अथवा उसके मिलनपर नियमसे सम्यग्दर्शन हो ही जाय यह नियम नहीं है। १-एतदुक्तं भवति–कस्यधिदासमभन्यस्य तनिदानद्रव्यक्षेत्रकालभावभषसंपत्सेव्यस्य विधूतसत्प्रतिबन्धकान्धकारसम्बन्धरयाक्षिप्तशिक्षाकियालापनिपुणकरणानुपन्धस्य नवस्म भाजनस्येवासंजातदुर्वासनागन्धस्य झारति यायस्थितवस्तुरूपसंक्रन्तिहेतुतया स्फाटिकर्माणदर्पणतगन्धस्य पूर्वभवसंभालनेन या वेवनानुभवनेन वा धर्मश्रवणाकरणनेन वाहत्प्रतिनिधिध्यानेन वा महामहोत्सवनिहालानेन वा मइदिप्राप्ताचार्यवाईनन वा नृथु नाकिछु वा तम्माहात्म्यसंभूतविभवसंभावनेन धाऽन्येन वा केनचित्कारणमात्रेण विचारकान्तारेषु मनाविहारास्पदं खेदमनापद्य यदा जीवादिषु पदार्थषु याथात्म्यसमवधानश्रद्धानं भवति तदा प्रयोक्त: सुकरक्रियत्वाल्लूयन्ते शालयः स्वयमेव विनीयन्ते कुशलाशयाः स्वयमेवत्यादिवत् तनिसर्गासंजासमित्यच्यते।यदा वष्यत्पत्तिमंशातिविपर्यस्तिसमधिकबाधस्थाधिमक्तियक्तिसक्तिसम्बन्धसविधस्य प्रमाणनयनिक्षेपानुयोगोपयोगावगाह्य षु परीक्षोपक्षपादांत क्लिनिःशेषदुराशाविनाशांशुमन्मरी चरिधरण तस्वः बधिः संजायते तदा विधातुरायासहेतुत्वान्मया निर्मापिनोऽयं सूत्रानुसारो मयेदं संपादित रत्नरचनाधिकरणामाभरणमित्यादिवत तदधिगमादाविभूतमित्युच्यते । उक्त प अबुद्धिपूर्वापेक्षायामिष्टानिष्ट स्वदेवतः । युद्धिपूर्वकाक्षायामिधानिष्ट' स्वपौरुषात् ।। २--सपावसमिप विसोही देसणपाओग्ग करणालादी । पचारि पि सामएणं करणं पुग होवि सम्मले ।
SR No.090398
Book TitleRatnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchand Shastri
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages431
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size15 MB
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