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________________ २८५ रतकरगडावकाचार प्रश्न—कारणके अनुसार कार्य हुआ करता है, यह निगम है । फिर क्या असमीचीन कारणसे समीचीन कार्य हो सकता है ? उत्तर--कारणके अनुसार कार्य होता है, यह सो ठीक है, किन्तु सभीचीनसे ही समीचीन और असमीचीनसे असमीचीन ही उत्पन हो, यह नियम ठीक नहीं है। अन्यथा अशुद्ध असमीचीन संसारावस्थासे शुद्ध समीधीन सिद्धायस्थाका उत्पन्न होना ही असिद्ध एवं असम्भय हो जायगा । अतएव यह ठीक है कि योग्य कारणसे उसके योग्य कार्या उत्पन्न होता है। इसलिये किसी भी विपक्षित या अभीष्ट कार्यके लिये तद्योग्य कारण आवश्यक है, दर्शनमें समीचीमता रूप कार्य के लिये भी उसके योग्य ज्ञानचारित्र की आवश्यकता है। यदि ऐसा न माना जायगा तो उसके लिये किसी भी तरह के नियमकी पावश्यकता ही नहीं रह जाता है। चाहे जब चाहे जहाँ चाहे किसीभी अवस्थावाले जीवके सम्पग्दर्शन हो सकता है, ऐमा कहना होगा। किन्तु ऐसा नहीं है हलिये दर्शय में समानता की उत्पचिकालये जिस तरह के ज्ञानचारित्रकी आवश्यकता है उसके लिये यह मानना ही उचित है कि उनके मिलने पर दर्शन सम्यग्दर्शन बन सकता है। प्रश्न--ऐसा ही है तो सम्यग्दर्शन की मुख्यता यताना व्यर्थ है क्योंकि इस कथनसे तो ज्ञानधारित्र की मुख्यता सिद्ध होती है। उत्तर--नहीं। गौणमुख्यता सापेक्ष हुमा करती है जिस कार्य को जो अपेक्षित है वह उस कार्यमें मुख्य माना जाता है । मोक्षमार्गरूप कार्य की सिद्धिर्म सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान सस्यक चारित्र नीनोंकी अपेक्षा है। अतएव उसमें तीनोंकी ही मुल्यता है। दर्शन ज्ञान चारित्र तीनों ही आत्माके स्वतन्त्र गुण हैं। और ये आत्मासे अभिन्न हैं, अनाघनन्त हैं, तथा परिणामी हैं। ऊपर यह बात भी कही जा चुकी है कि यद्यपि सभी द्रव्यों की तरह प्रारमा भी अनन्त गुणोंका अखण्ड पिंड है परन्तु उनमें से इन तीनका ही उल्लेख इसलिये किया गया है कि मोक्षमार्गरूप कार्य की सिद्धिमें ये ही तीन सबसे अधिक उपयोगी--असाधारण साधन है। प्रात्माकी दो ही अवस्थायें हैं—संसार और मुक्त । अनादिकालसे ये तीनों गुण संसार अवस्थाके कारण बने हुये हैं। और जबतक वे उसीके साधन रहेंगे तबतक उसको मिथ्या ही कहा जयगा । किन्तु जब वे ही संसारके विरोधी हो जाते है तब सत्-प्रशस्त समीचीन शब्दसे कहे जाते हैं । इसलिये यह बात स्पष्ट है कि इनके माथ सम्यक विशेषणके लगनेका अथवा इनको सत् शब्दके द्वारा कहे जानेका कारण आत्माको संसार परिषतिपरम्परा की तरफसे मोडकर शुद्ध स्वाधीन ध्रुव भानन्दरूप अवस्था परिणत एवं स्थित करने की योग्यता तीनोंमें ही है। तीनों ही समीचीन होकर समान रूपसे प्रात्मा की सिद्धि में साधन हैं फिर भी इनमें जो पारस्परिक अन्तर है वह भी यहां विस्मरणीय नदी, ध्यान देने योग्य है । और यह यह कि जिस तरइसे दर्शनको सम्यग्दर्शन बनानेवाले ज्ञान चारित्र हैं उसी प्रकार सम्यग्दर्शन का भी यह महान प्रयपकार है कि अपने साथ ही यह मान चारित्रको भी सम्यक बना लेता है।
SR No.090398
Book TitleRatnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchand Shastri
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages431
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size15 MB
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