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________________ लकारडभाषकाचार दर्शनके समीचीन हुए बिना ज्ञान चारित्र अप्रयोजनीभूत अथवा मोक्षमागमें भकिंचित्करही सिर होते हैं। सो क्या ऐसाही है ? सत्य है-आगममे ऐसा ही कहा है माना है और यह ठीक है। परन्तु इसका श्राशय या नहीं है जिदान में समीचीनताके उत्पन्न करने में ज्ञान और चारित्र शास्तबमें सम्पक विशेषण से रहित होकर भी कारण रूप हेतु ही नहीं है सर्वथा अप्रयोजनीभूत अकिंचिकर ही हैं। "तनिसर्गादधिगमाद्वा", यहां पर हेत्वर्थ में ही आगममें पंचमीका निर्देश किया है। जिसका अर्थ यह होता है कि सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति अर्थात् दर्शनमें समीचीनताकी उत्पत्तिके निसर्ग और अधिगम ये दो हेतु है। इससे सिद्ध है कि अधिगम दर्शनमें समीचीनताकी पत्पचिका हेतु अवश्य है और अधिगमका अर्थ जान ही है। प्रश्न-दो हेतुओं में एक निसर्ग भी हेतु है। निसर्गका अर्थ स्वभाव है । इसलिये सग्गग्दर्शनको इस्पत्ति में अधिगम ही हेतु माना जाय यह नियम तो नहीं बनता। स्वभाव से ही अर्थात् विना किसी हेतुके ही अपने भाप भी दर्शन सम्यक बन सकता है। अतएव ऐसा क्यों न माना जाय कि अनादिकालीन मिथ्यारष्टीको सबसे पहले जो सम्यग्दर्शन होता है वह स्वभावसे ही होता है। उसके बाद ज्ञानचारित्र सम्यक बन जाने पर मोक्षमार्ग में उसके सहायक होजाया करते है। उचर-ऐसा नहीं है। निसर्गका भाशय अधिगमकी गौचना बताना है। अधिगमकी कारसताके निषेध करनेका उसका प्राशय नहीं है । जिस तरह कन्याको अनुदरा कहनेका भभिप्राय सनषा पेटका नहीं रहना बताना नहीं होता केवल गर्मभारको धारणकरने में उसकी असमर्थता साना ही होता है उसी प्रकार जहां दर्शन को सम्यक् बनानेमें अधिगम मुख्यतया काम नहीं करता-उसकी साधारण निरपेक्ष प्रास्थासे ही वह कार्य होजाता है यहां निसर्गशम्दका प्रयोग होता है। प्रश्न-यह कथन आप किस आधारसे करते हैं। निसर्गका स्वभाव अर्थ तो जगत् प्रसिद्ध है उचर-ठीक है। परन्तु किसी भी शब्द या वाक्य का अर्थ प्रागम के अनुसार अथवा जिसमें उससे विरोथ न आवे इस तरहसे ही करना उचित है । प्राचीन प्राचार्योंने निसर्ग और अधिगमका अर्थ अन्य प्रयत्न और अनल्प प्रयत्न ही बताया है। जहां यह विशेष प्रयत्न किये बिना साधारण उपदेशस ही तत्वार्थ श्रद्धान हो जाता है वहां निसर्गज सम्यग्दर्शन माना जाता है।और नहां अनेक तरहसे और बार बार तवार्थका श्रद्धान कराने केलिये उपदेशादिक दिये मानेपर या समझाये जानेपर सम्यग्दर्शन होता है तो यहां अधिगमन सम्यग्दर्शन कहा जाता है। इतना ही दोनों में अन्तर है। इसलिये निसर्गज सम्यग्दर्शनमें वचोपदेश और तज्जन्य (१) तसार्थसूत्र ।।१।२ निसर्गः स्वभाव इत्यर्थः । अधिगमोऽर्थावबोधः । तपाईतुत्वन निर्देशः । स्पा: १ क्रियायाः । का च किया । उपद्यते इत्यध्याहियते सोपस्कारवान् सूत्राणां । तदेतत् सम्यग्दर्शन निसर्गादपिगमाद वा उत्पपसे इति । स सि० (२) निसर्गोऽधिामो वापि तदाप्ती कारणवयं । सम्यक्रमपारमा यस्मादसानस्सायामः । यतिलकपमा
SR No.090398
Book TitleRatnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchand Shastri
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages431
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size15 MB
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