SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 296
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २ . पत्रिका तीसवा लोक इसके सिपाय औदार्य समता कान्ति अय व्यक्ति और प्रसन्नता नामके गुण भी इसमें दिखाई पडते है और कालंकार तथा दृष्टान्त और देनु ना अनाना भी मारे जाते ई : व्यतिरेकासंकार मी कहा जा उकता है क्योंकि शानचारित्रकी अपेक्षा दर्शनकी अधिकताका या उत्कृष्टता पादिका यहां प्रतिपादन किया गया है। ऊपर सम्यग्दर्शनके विषयमें जो कुछ वर्णन कियागया है उससे उसके सम्बन्ध में बीजरूपसे चीन बातें निकलती है १ वह बानचारित्रकी भी समीचीनता प्रादिका जनक है ।२-जीवको मोष तक पहुंचाने के मायनों में मुख्य है, यही जीवको मोक्षमार्गमें स्थित करने वाला है। -मुख्यतया अन्तिम साध्य मोजका असाधारम अन्तरंग फारसा होनेपर भी वह लक्ष्य तक पहुंचनेसे पूर्व अपने विविध सहचारी विभागोंके अपराधवश अनेक असाधारण ऐहिक माम्बुदयिक पदोंका भी निमिव बनता है। इन तीनों ही विषयों को स्पष्ट करनेका अभिप्राय दृप्टिमें रखकर क्रमानुसार सबसे प्रथम प्राचार्य दृष्टान्तपूर्वक पहले विषयका वर्णन एवं समर्थन करते हैं। विद्यावृत्तस्य संभूतिस्थितिवृद्धिफलोदयाः । न सन्त्यसति सम्यक्त्वे वीजाभावे तरोरिव ॥३२॥ अर्थ-जिसतरह बीजके अमावमें पृषकी उत्पचि स्थिति वृद्धि और फलोदय नहीं हो सकते और नहीं होते उसी प्रकार सम्यक्त्वके न रहनेपर विधा-झान और च-चारित्रकी मी उत्पचि स्पिति पति और फलोदय नहीं हुआ करते, और न हो ही सकते हैं। __ प्रयोजन-धर्म अथका मोचमार्ग खत्रयात्मक है, केवल सम्यग्दर्शन म ही नहीं है । किन्तु ऊपर जो कथन किया गया है उससे मोक्षमार्गमें सभ्यग्दर्शन की ही मुल्यता सिद्ध होती है, क्योंकि जान चारित्र की समीचीनता मी उसीकी समीचीनसापर निर्भर है और मोधमार्गमें नेशन्ब मी उसीका है। फलतः शंका हो सकती है कि दर्शनके सम्यक हो जानेपर फिर या दो शानधारित्रका कोई मुख्य स्ववन्त्र कार्यही नहीं रहा अथवा उनके समीचीन होने की भावश्यकता महीं रह जाती है, क्योंकि उनका कोई असाधारण कार्य नहीं है। बोगछ मी मोक्षमार्गमें कत्व है यह यो सम्यग्दर्शन का ही है । इसके सिवाय कदाचित् ऐसा कहा जाय कि दर्शनके साथ साथ पवपना में शानधारित्रभी सम्मिलित हो जाते हैं इसलिये शानचारित्रकी समीचीनता अनावश्यक सिद्ध नहीं होती है तो यहभी ठीक नहीं है, क्योंकि 'ज्ञानाचारित्रात्' इसमें समाहार इन्द्र समासर साया गया है और यामी ठीक है कि हेत्वर्थ में पंचभी रताकर कहा जा सकता है कि दर्शनकी समीचीनता पानचारित्र पर निर्भर है। ज्ञान भास्त्रिरूप हेतुके बिना दर्शनसम्पदर्शन नहीं बन सकता परन्तु भागममें दर्शनके समीचीन हुए बिना शानको प्रधान या ज्ञान ही कहा है इसीलिये चारित्र को प्रचारित्र या कुचारित्र ही गाना है । मलतः १-नामचारिणादर्शनमिवि पान, साधिमानमुपालते इति मागनदर्शनं साबमा सार सावे इति एवात्सर । २ का मामय बवाया कापा:
SR No.090398
Book TitleRatnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchand Shastri
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages431
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy