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________________ va रलकरपरावकाचार उनके साथ न हो तो ये दोनों इस जीव को संसार समुद्र में कहीं के कहीं भी लिये सिये फिरते रह सकते हैं। दर्शनमें ही यह योग्यता है कि वह ठीक ठीक लक्ष्य की सरफ ही स्वयं भी उन्मुख रहता है और उन ज्ञान चारित्र को भी अवस्य की तरफसे हटाकर अपने लक्ष्य की तरफ ही उन्मुख बनाये रखने में प्रेरणा प्रदान करता है और इस तरहसे वह उनमें वास्तविकता साधुना-समीधीनता- लक्ष्योन्मुखनाको उत्पन्न करता, उन पर उचित नियन्त्रण को अपने अधिकारमें स्खकर अपनी व्यापकताको स्थिर रखता और सत्यता-मभीष्ट पदतक ठीक तरह से पहुंचाकर अपने नेइत्वको सफल बनाकर रहता है और अन्त में अपने सामान्य स्वरूप में ही स्थिर रहकर अनन्त कालसफ केलिये विश्रान्ति ले लेता है। कारण यह है कि स्वभावतः दर्शन सामान्योन्मुख परिधाम है। यह निर्विकम्प शुद अखण्ड कालिक विद्राव्य को ही विषय करता है जबकि ज्ञान का विषय सषिकरप है तथा शुद्ध प्रक्षुख सखण्ड अखण्ड कादाचिरफ त्रैज्ञालिक प्रचित् चित् द्रव्य गुण पर्याय सभी उसके विषय है। पारित्रका विषय स्वोन्मुख या परोन्मुख प्राचि मात्र है। यही कारण है कि ध्रुव एवं परानरपेष अपने सच्चिदानन्दरूप लस्पतक ब्रानचारित्रको भी पहुँचानेमें अथवा निज शुद्ध स्थिर भालसभाव रूप होकर सदा रहने के प्रति लक्ष्यनद बनानेमें दर्शन ही समर्थ हो सकता है। मात्माकी तरह पानी भी हो ही प्रास्या विवक्षित हैं। मिथ्या और सम्पन्। यति दर्शनकी प्रशुद्ध पद्ध उमय अनुमय रूप चार अवस्थाएं भी मानी है किन्तु वेदो भागों में ही गर्मित हो जाती हैं। अनादिकालसे दर्शन मिथ्या रूपमें ही परिणत है किन्तु अब पर सम्यक में परिणत होजाम है तभी उसमें वह सामर्थ्य भाती है जो कि ऊपर बवाई मई है। या कारण है कि कत् पदमें सम्पक विशेषण रहित दर्शन पदके रहनेपर भी साधुता-समीचीनताप्रशस्तता धारण करनेके बाद ही उसकी प्रधानता व्यापकता और नेदत्वकी बात विवक्षित है और वहीं यहापर कहीगई है। ऐसा समझलेना चाहिये। इस तरह इस कारिकाके द्वारा सम्पग्दर्शनकी सहेतुक किंतु स्वाभाविक योग्यताको बताकर इस बासको स्पष्ट करदियागया है कि यद्यपि सम्यग्दर्शन सम्परहान और सम्यकपारित्र तीनों ही धर्म हैं, और तीनों ही मोधके माग हैं-असाधारण उपाय है फिर भी इनमें प्रथम पदपर उपस्थित होनेके योग्य सम्यग्दर्शा ही है। यही कारण है कि यहां सबसे पहले उसीका पर्वन किया गया है। ऊपर जो कुछ कहा गया है उसके सिवाय पाठक महानुभावोंको इस पथके साहित्यिक रचना सम्बन्धी वैशिट्य पर मा ध्यान देना चाहिय विधार करने पर मालुम हो सकता है कि यह एक चित्र काम्य है। क्यों के प्रथम वतीय परणको मादिमें 'द' और द्वितीय चतुर्व पर भंवमें वे अपर पाता है। फलतः इस श्लोकको आकृति में लिखनेपर भर्षाच, चन्द्र वा सिथिला KIR माना है।
SR No.090398
Book TitleRatnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchand Shastri
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages431
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size15 MB
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