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________________ AmAna MAhroneamre --- - चम्किा का रीमा तोक में नहीं किन्तु उनकी समीचीनता में ही बताया गया है। और वह भी मम्गा व्यपदेश मात्रकी अपेक्षासे ही कहा गया है। जैसे कि पुरुषार्थ सिद्ध थुपाय में यह जो वाक्य है कि "सम्यक्स्प के होनेपर ही ज्ञान और चारित होता है," उसका अर्थ यह नहीं है कि जहाँतक सम्यक्त्व नहीं होता वहांतक ज्ञान और चारित्रका अभाव रहता है। तात्पर्य यह है कि तबतक वे असम्यक रहते हैं । दर्शन के सम्यक् बानजाने पर ये भी सम्यक हो जाते हैं। यह सर कथन मोक्षमार्ग में दर्शनके कन्वको; समीचीनताके सम्पादनमें स्वातंत्र्य को और इसीलिये प्राधान्यको प्रकट करता है। प्राचागने यहां कारिकाके पूर्वाधमें जो यह प्रतिज्ञावाक्य दिया है कि "दर्शनं ज्ञानचारित्रात् माधिमानमुपाश्नुते।" वह इस संक्षिा कथनके सारको परिस्फुट करनेवाला वीजवाक्य है। जिसका अर्थ या आशय यह होता है कि दर्शन यद्यपि ज्ञान चारित्रका सहचारी है फिर भी वह ज्ञान चारित्रकी अपेक्षा साधुना-समीचीनता को व्याप्त करता है। अर्थात् माधन-दर्शनको साधुता साभ्यभूत ज्ञानचारित्रकी साधुताको व्याप्त करती है। इस कथनसे प्रकृत प्रतिभावास्यमें पाये जाने वाले साध्य साधनभाव, व्याय व्यापकभाव, सहचरभाव और कार्यकारणभावके साथ साथ अविनाभावका भी बोथ हो जाता है। क्योंकि इस वाक्यमें जो 'ज्ञानचारित्राव साधिमानम् और उपाश्नुते' पद दिये है वे इन सब भावोंको व्यक कर देते हैं क्योंकि 'उपारनुते' इस क्रिया पदमें प्रयुक्त उप-उपसर्गसे समीपता अधिकता और आरम्भ अर्थ स्फुट होता है और प्रश्नुते क्रिया पदरी ब्याप्य व्यापकभाव मूषित हो जाता है । इस तरहसे प्रकृतकारिकाका यह पूर्वार्ध प्रतिभावाक्य है जिसमें कि 'दर्शन' यह पक्ष और 'झानचारित्रात् साधिमानमुपाश्नुते' यह साध्यपद है. साथ ही यह बीजपद है। जिसमें कि सफर बाया पथके भमान महान अर्थ निहित है । इसी प्रतिक्षाको सिद्ध करने के लिये उत्तरार्धमें हेवर्षका परिशान कराया गया है। जिसके द्वारा कहा गया है कि यह प्रतिज्ञात कथन इसलिये सर्वधा सरल और युक्तियुक्त है कि भगवान श्रीवर्धमान सर्व देवने इस दर्शनको मोचमार्गमें कर्पधार' नेहरू करनेवाला, बताया है। क्योंकि कर्पधार यह उपमानपद होनेसे अपने समान नेवत्व भई को बताता है। नेताका अर्थ अपने साथ साथ अन्य अपने नेय भ्यक्तियोंको भी लक्ष्य सिद्धितक खेजाने पाला-मार्गप्रदर्शन करने शला-प्रेरणा प्रदान करने वाला भोर अभीए स्थान तक पहुंचाने पाला होता है। जिस प्रकार नाव और उसमें बैठे हुए पथिकों की एक किनारेसे स्टाकर दूसरे किनारे तक पहुंचानेमें लेजाने में--हवा और पाल आदि भी कारण होते हैं परन्तु उनका नेतृत्व करनेवाज्ञा नाविक यदि न हो तो वे उस नावको कहींसे कहीं लिये २ फिरते रह सकते हैं । इसी प्रकार संसार सहमें इस जीवको एक किनारसे झुटाकर दूसरे किनारे तक लेजानेमें शान और चारित्र भी काम करते हैं फिरभी यदि उनमा नेतृत्त्व करने वाला साधुताको-प्राप्त दर्शन यदि १वनावी अन्यकत्व समपाश्रमणीयमविक्षयत्नेन । तस्मिन् सत्येव यतो भवति नाम परिमं च ।। २१ ॥ पुलिस
SR No.090398
Book TitleRatnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchand Shastri
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages431
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size15 MB
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