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________________ 邂 का मध्यान्त है। केवल ज्ञानके अंशो का प्रमाण सबसे अधिक है। सम्पूर्ण द्रव्य गुण पर्याय उनके अंश और समस्त अक्षय अनन्त राशियों के सम्मिलित प्रमाणसे भी केवल ज्ञानके अंशोंका प्रमाण अधिक अधिक है। केवल दर्शन सामान्य चैतन्यको विषय करता है अतएव वह निर्विकल्प है और इसीलिए उसको भी अनादिमध्यान्त कहना श्रयुक्त नहीं है। अथवा यह भी कहा जा सकता है कि सर्व शब्द केवलज्ञान के साथ साथ उपलक्षण से केवलदर्शन को भी ग्रहण करना चाहिये और अनादि मध्यांत शब्द दोनोंकही स्वरूपका परिचायक है । अथवा वस्तु विधिनिषेवात्मक है । स्याद्वाद सिद्धान्तके अनुसार किसीभी गुणधर्मकी विधि सप्रतिपक्ष हुआ करती है । अन्य दर्शनकारोंने प्रभाव नामका पदार्थ स्वतन्त्र माना हैं । परन्तु यह एक प्रयुक्त सिद्धांत है इस विषयकी आलोचना न्यायशास्त्रों में पर्याप्त की गई हैं। उसके यहां लिखने की आवश्यकता नही है। जैनदर्शनमें आगमको स्वतंत्र पदार्थ न मानकर वस्तात्मक ही माना है। जैन दर्शनका कहना है कि जिस किसीभी द्रव्यगुण या पर्याय का विधान किया जाता है वह अपने से भिन्न सभी द्रव्यगुण पर्यायों पृथक ही है । अतएव विविक्षित द्रव्य गुणपर्याय अपने मित्र अविवक्षित द्रव्यादिसे मिश्र होनेके कारण अभावात्मक हैं। यही कारण हैं कि प्रत्येक द्रव्य प्रत्येक चख सत् असद, एक अनेक, नित्य अनित्य, और तत् तत् रूप है। स्वभावसेही उत्पाद व्ययौव्यात्मक हैं । इस सिद्धांतको दृष्टिमें रखकर अनन्तज्ञान दर्शन के संबन्ध में जब विचार करते हैं तो सर्वज्ञता केवल ज्ञान और केवलदर्शन दोनों अनादिमध्यान्त ही ठहरते हैं। क्योंकि ज्ञानदर्शन सामान्य अपेक्षा से अनादि अनन्त है, पर्याय विशेषकी अपेक्षा सादिसान्त हैं । कारण यह कि ऐसा न हुआ न हैं न होगा जब कि इनका अभाव कहा जा सके । यद्यपि संसार पर्यायस्थ अवस्था में पाये जानेवाले क्षायोपशमिक ज्ञान दर्शनकी अपेक्षा नायिक ज्ञान और दर्शन पर्याय अवश्यही साधनन्त हैं। परन्तु नाना जीवोंकी अपेक्षा केवलज्ञानदर्शन युक्त जीवोंका न कभी सर्वथा अभाव हुआ है न होगा। क्योंकि केवल ज्ञानियोंका विदेह में तो सदाही सद्भाव रहा करता है । अतः इस दृष्टि से भी सर्वज्ञताको अनादिमध्यांत कहा जा सकता है । स्पद्वाद दृष्टि से देखनेपर यह विषय किसी भी तरह अनुपपन्न नहीं है । वाणी के सम्बन्धमें अनेक तरहके दोषोंका सद्भाव लोकमें पाया जाता है । व्याकरण संवन्धि त्रुटियां, उच्चारण की अयुक्तता उदास अनुदान स्वस्तिका ठीक ठीक प्रयोग न करना तथा यति मंग आदि । एवं स्वरकी रूक्षता कठोरता आदि, ग्राम्य अश्लीलता हीनादिकोस्मा आदि अथवा अन्य भी अनेक दोष सर्वसाधारण में पाये जाते हैं। किंतु यह सब बाह्य दोष हैं। इनके सिवाय अन्तरंग दोष जो संभव हैं अथवा लोकमें पाये जाते हैं जिनका कि संम्बन्ध राग द्वेष मोहसे है। वे सबसे अधिक हीन एवं देय तथा सबसे विचारणीय प्रथम माने गये हैं। इस तरहके दोष चार भागों में विभक्त किये जा सकते हैं । १ - सत्प्रतिषेध २ - असदुद्भावन, ३ - विपरीत -वैशेषिक दर्शनमें साथ तस्त्र माने हैं यथा द्रव्य गुण कर्म सामान्य विशेष समवाद और अभाव
SR No.090398
Book TitleRatnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchand Shastri
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages431
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size15 MB
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