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________________ AAAAA-LAJ.......... ... चंद्रिका टीका सातवां लोक आये बिना न रहेगी कि कृतार्थताका मूल या प्रतीक भी यह अनन्तवीर्य गुण ही है । अनन्तवीर्य नामका ऐसा महान् गुण है जो कि केवल ज्ञान केवल दर्शन और अनन्त सुख के रूपमें ही नहीं कृतकृत्यता के रूपमें भी स्पष्ट प्रतीतिमें आता है | पाठक सोचें कि जब तक विघ्नका कारण बना हुआ है या उसकी सम्भावना भी बनी हुई है तथं तक संसारक समो का विषय उसको वास्तव, कृती-कृनाथ कृतकृत्य किस तरह कहा जा सकता हैं। विनका कारण जहां तक दूर नहीं हो जाता-विनकी सम्भावना ही जस्तक निर्मल नहीं हो जाती तबतक सर्वथा निष्काम और पूर्ण ज्ञान हो जाने पर भी कृतार्थ किस तरह कहा जा सकता है। किसी भी कायका ज्ञान और उसके सिद्ध करनेका सामर्थ्य रहते हुए यदि यह कहा जाय कि इम व्यक्तिको विवक्षित कार्यके करनेकी इच्छा नहीं है अतएव यह निष्काम है तो वह कथन जिस तरह या जैसा कुछ सर्वथा प्रमाणभूत माना जा सकता है वमा ज्ञान और सामथ्यके अभावमें नहीं। अतएच ग्रन्थकारका आशय कृती शब्दसे अन्तराय कमके अभावसे प्रकट होने वाले अनन्त सामथ्य एवं कृतकृत्यता को सूचित करने का है ऐसा समझना चाहिये । ___ सर्वत्र शब्द स्पष्ट ही ज्ञानावरण के निःशेष क्षयको सूचित करता है। अनादिमध्यान्त शब्द दर्शनावरणके अभावका सूचक है। कारण यह कि दर्शन अनन्त है तथा वह निर्विकल्प भी है और अनाद्यनन्त चतन्य सामान्यको विषय करने वाला है। अतएव उसमें आदि अन्त और मध्यकी कल्पना ही नहीं हो सकती। अनादिमध्यान्त शब्दका अर्थ इतना ही है कि जिसका न आदि हैं, न अन्त है और न मध्य है। आदि अन्तका अभाव मध्यके अभावको स्वयं सूचित कर देता है । अनादिमध्यान्तता चार सरहसे सम्भव है । द्रव्यकी अपेक्षा, क्षेत्रको अपेक्षा, कालकी अपेक्षा और भाबकी अपेक्षा । द्रव्यकी अपेक्षासे पुद्गलपरमाण अनादिमध्यान्त है क्योंकि वह अप्रदेशी है । उसमें द्वितीयादि प्रदेशोंकी कल्पना न है न हो सकती है। यदि उसमें आदि अन्त या मन्यकी कल्पना की जाय तो वह अविभागी एवं अप्रदेशी नहीं कहा जा सकता। क्षेत्रको अपेक्षा प्राकाश द्रव्य अनाद्यनन्त है। दशो दिशाओं में कहीं से भी उसको सादि या मान्त 'नहीं कहा जा सकता। जर आदि और अन्त नहीं तब उसका मध्य भी नहीं कहा जा सकता। प्रश्न हो सकता है कि यदि भाकाशमें आदि मध्य और अन्तकी कल्पना नहीं है अथवा नहीं हो सकती तो लोकको भाकाशका ठीक मध्यवर्ती जो कहा है सो कैसे ? या वह किस तरह घटित होता है ? उत्तर स्पष्ट है कि जब माझाश दशों दिशाओं में अनन्त है तब उसके किसी भी भागमें रहने वाली वस्तुको उसके मध्यवर्ती कहा जा सकता है। मतलब यह कि जहां लोक है वहां से प्रत्येक दिशामें समान रूपमें अनन्त आकाश विद्यमान है । अतएव लोकको आकाशका मध्यवर्ती कहने में और इसी कारणसे भाकाश की अनादिमध्यान्ततामें कोई बाधा नहीं भाती । कालकी अपेक्षा उसकी समय पर्यायोंका समूह अनादिमध्यान्त है। इसी तरह अभव्य जीवकी संसार पर्यायोंका समूह भी अनादिमभ्यान्व कहा जा सकना है। भावकी अपेक्षा केवलज्ञानके अंशों-अविभाग प्रतिच्छेदोका प्रमाण मनाहि
SR No.090398
Book TitleRatnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchand Shastri
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages431
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size15 MB
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