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________________ रत्नकरण्ड श्रावकाचा आगममें चार तरह की विशेषताएं बताई गई हैं। आत्मा, वाणी, भाग्य और शरीर । इन चारके असाधारण अतिशय से वे युक्त रहा करते हैं। इस कारिका में जो बाट विशेषण दिये हैं उनका इन चार अतिशयों से सम्बन्ध है ऐसा समझकर यथायोग्य घटित कर लेना चाहिये । परंज्योति यह विशेपण शारीरिक अतिशयको प्रकट करता है। क्योंकि उनके शरीरकी प्रभा कोटिसूर्यके समान हुआ करती है। परमेष्ट्रि विशेषण भाग्य के अतिशयको प्रकट करता है। क्यों कि तीर्थकर प्रकृती जो कि पुण्य कर्मोंमें सबसे महान है उसके उदयमें आनेपर अथवा तत्सम अन्य असाधारण पुण्य कर्मों के उदयसे रहित यह पद नहीं हुआ करता । सर्वज्ञता के प्राप्त होतेही उन पुण्य प्रकृति में का उदय हुआ करता है। और इसलिये वह पद तीन लोक के अवीश्वर शत - इन्द्रो द्वारा भी वन्दनीय होजाना करता है। सार्वः यह विशेषण शास्ताके वाणी सम्बधी अतिशय को प्रकट करता है। भगवान की वाणी यदि इसतरहके असाधारण अतिशय से युक्त न होती तो तीन जगत के जीवोका हि असंभव ही था। भगवान को उस सर्वाधिक अतिशय चली वाणीका ही यह प्रभाव है कि आजतक सब जीव सुरक्षित है और सदा रहेंगे। क्योंकि वास्तविक यहिंसा तवकी आज जगत में जो मान्यता है— उसका जो प्रसार है, जिसके कि कारण प्रायः सभी जीव निर्भय पाये जाते हैं वह सब उनकी वाणी-देशनाके प्रभावका ही फल है । शेष पांच विशेषण उनके आत्मातिशयको प्रकट करते हैं। इन पांच में भी एक " विमल " विशेषण द्रव्य कमों के अभाव से उत्पन्न आत्मविशुद्धि और के चार विशेषण चार घाति कमों के क्षयसे प्रकट हुए अनन्त चतुष्टय की प्रकट करते हैं। क्योंकि विराग से मतलब केवल रागसे रहित बनेका ही नहीं है। इसका आशय गत कारिका में बताये गये मोह सम्बन्धी तीन दोप- राम द्वेष और मोह के अभाव से एवं तज्जनित सम्यक्त्वादि गुणोंसे ग्रहण करना चाहिये। रामको उपलक्षण मानकर रागादि तीनों रहित ऐसा यर्थ करना अधिक सुन्दर उचित एवं संगत प्रतीत होता है । इस तरह करने पर यह विशेषण सम्पूर्ण मोहके प्रभाव जनित सम्यक्त्व प्रशम अनन्त सुख रूपताको सूचित कर देता है । कृती शब्दका कृतार्थ अर्थ कलितार्थ है ऐसा मानकर विचार करने से प्रतीत होगा कि यह शब्द अन्तरायके अभावको सूचित करता है। क्योंकि मोहका अभाव हो जाने पर भी जब तक ज्ञानावरण दर्शनावरण के साथ २ अन्तरायका भी अभाव नहीं होजाता तब तक उस जीवको कृतकृत्य नहीं कहा जा सकता। यह ठीक हैं कि अन्तरायके अभावसे अनन्तवीर्य गुणका श्राविर्भाव माना है । परन्तु विचारशील महानुभावोंकी दृष्टिमें यह बात भी १- आदिपुराण | २- भवणालय चालीसा तिरदेषाण होंति बत्तीसा । कम्पामरथ उवीसा चंदो सूरो परो तिर । ३ - स्वर्गीय लोकमान्य तिलक आदि प्रसिद्ध विद्वान भो स्वीकार करते हैं कि अन्य मतों में जो चहिंसा दिलाई देता है वह जैन भ्रम की देन है ।
SR No.090398
Book TitleRatnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchand Shastri
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages431
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size15 MB
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