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________________ का टीका माता श्रीक Re इस तरह आप्तकं तीन विशेषण जो दिये थे उनमें से पहले विशेषण 'उत्सन्नदोषेण' का सम्बन्धं लेकर यह बात इस कारिकामें श्राचार्यने स्पष्ट कर दी कि किन २ दीपों से रहित श्राप्त को होना चाहिये। जिनका कि अभाव हुए विना न तो उसमें सर्वज्ञदा ही बन सकती है और न आगमेशित्व ही । श्राप्तत्व या मोक्ष मार्ग का नेतृत्व भी सिद्ध नहीं हो सकता और न मानाही जा सकता है। अब आप्तके दूसरे और तीसरे विशेषण का आशय स्पष्ट करने के लिए दो कारिकाओं का उल्लेख करते हैं— परमेष्ठी परंज्योतिर्विरागो विमलः कृती । सर्वज्ञो ऽनादिमध्यान्तः सर्वः शास्तोपलाख्यते ॥ ७ ॥ अर्थ ---- परमेष्ठी, परंज्योति, विराग, विमल, कृती, श्रनादिमध्यान्त और सार्व इतने विशेक्योंसे युक्त सर्वज्ञ को गणधर देव या श्राचार्य श्रथवा भगवान धर्मका यद्वा मोक्षमार्गका शास्त्रा बता दें | शब्दों का सामान्य विशेष अर्थ -- इन्द्रों के द्वारा भी जी चंदनीय है ऐसे परम उत्कृष्ट पदमें जो स्थित है-ऐसे पदको जिसने प्राप्त कर लिया है उसको कहते हैं परमेष्ठी । अन्तरंग और वा ज्योति-तेज जिसका सर्वोत्कृष्ट हैं उसको कहते हैं परंज्योति | विराम शब्द में राग यह उपलक्षण है । श्रतएव जो राग द्वेष और मोहरूा विभावपरिणामोंसे रहित है उसको कहते हैं विराग । जो त्रेसट प्रकृतियोंद्रव्यकर्मों से रहित और शेष कर्म भी जिनके नष्टप्राय हैं उनको कहते हैं विमल । कृती शब्द के अनेक अर्थ होते हैं— कुशल विवेकी काम करनेवाला या कर चुकनेवाला पंडित पुण्यवान साधु कृतार्थ आदि | यहां पर इसका अर्थ योग्य कुशल अथवा कृतकृत्य या समर्थ ऐसा करना चाहिये जो तीन लोक और तीन कालवर्ती समस्त द्रव्यों और उनके सम्पूर्ण गुण्णवर्म तथा पर्यायोंको युगपत् प्रत्यक्षरूपमें ग्रहण करता है--- जिसकी विशुद्ध चेननामें सभी द्रव्यगुण पर्याय एकसाथ प्रतिभासित होते हैं उसको कहते हैं सर्वज्ञ । जिसका न आदि है न अन्त है और न मध्य है उसको कहते हैं अनादिमध्यांत । जो सबके लिए हितू है--संसार के प्राणीमात्रमंसे किमीकाभी जो विरोधी नहीं है- उसकी शारीरिक वाचनिक आदि प्रवृखि सभी के लिए हितरूप ही होती है उसको कहते हैं सार्व | शास्ताका अर्थ शासन करनेवाला और उपलालयका अर्थ है प्रेमकरना या पसंद करना। - विशेषार्थ - विद्वान निस्पृह विवेकी यौक्तिक व्यक्ति मोचमार्गके शासक - उपज्ञ बका या नेता के रूपमें जिसको पसंद करते हैं जिसकी भक्ति धाराधना उपासना या स्तुति आदि करते हैं ऐसा आप्य इन आठ विशेषणों विशेषताओंसे युक्त होना चाहिये । महानुभावोंसे यह प्रविदित न होगा कि महंत अवस्थाको प्राप्त तीर्थंकर भगवानकी
SR No.090398
Book TitleRatnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchand Shastri
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages431
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size15 MB
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