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________________ - - - -- --- - - चौद्रका टीका सातयां श्लोक और ४-निंद्य । इनका विस्तार बहुत अधिक है। अतएव यहां उनका लिखाजाना ग्रंथविस्तार मयसे अशक्य है । संक्षेपमें इतनाही समझ लेना चाहिये कि जितने अपसिद्धांतों का कथन करने वाले तथा स्व और परका इस लोक या परलोक अहित करनेवाले शब्द अथवा वाक्य है उन समीका इन चार भागोंमें समावेश हो जाता है। ___ इन बाह्य और अंतरंग सभी दोषोंसे भगवान पशा उन्मुक्त हैं । लाग्थावस्थामभी तीर्थकर भगवान के जो जन्मजात दश अतिशयर गिनाए हैं उनमें एक वचनका अतिशय भी है । उसके अनुसार उस समय में भी उनके वचन प्रिय हित मधुर ही प्रकट हुआ करते हैं । फिर महंत अवस्थाकी प्राप्ति होजाने पर तो कहना ही क्या है जब कि वे अष्टादश दोष रहिन सर्वज्ञ वीतराग होकर समस्त विद्या मोंके ऐश्वय३ को भी प्राप्त कर चुके हैं। और उनके वचन अष्टादश महाभापाओं व सात सौ तुल्लक भाषामि४ परिणत होनेकी क्षमता प्राप्त कर चुके है । तीथकृत भावना के बल पर जिस समय तीर्थकृत प्रकृतिका बन्ध होता है उस समय अपाय विचय नामक धर्मध्यानविशेषके निमिचसे जो संस्कार उत्पन्न होता है वह उसके उदयकालमें उनकी देशनाको सर्व हितकर बनाकर रहता है। भगवान को सार्च कहनेका आशय यही है कि उनकी अन्तरंग बहिरंग समस्त योग्यताएं ही इस तरह की हैं कि उनके वचन प्राणिमात्रके लिए हितकर ही हुआ करते हैं । यह उनकी पुण्य कर्म सापेक्षा अवस्थाजन्य स्वाभाविक योग्यता है जो कि अन्यत्र दुर्लभ ही नहीं असंभव है। इस तरह साप्त के लक्षणमें जो तीन विशेषण दिये हैं उनमेंसे सर्वज्ञता और हितोपदेशकता विशेषणका आशय स्पष्ट करने के लिए यह कारिका कही गई है। इसमें यह बता दिया गया है कि प्राप्त अवस्थाको प्राप्त आत्माकी स्थिति किस तरह हुआ करती है। ___ यह कहनेकी आवश्यकता नहीं है कि अनादिकालसे यह जीवात्मा पुद्गल जड कमसे आबद्ध हैं। पुराने कर्म अपने स्थिती के अनुसार फल देकर झड़ते हैं---आत्मासे सम्बन्ध यो कर्मत्वको छोड देते हैं और नवीन कर्मवन्धको प्राप्त होते हैं। यह परम्परा अनादिकाल से चली आरही है। अब योग्य निमित्त को पाकर और अपने रत्नत्रयके बलपर यह मारमा उन कर्मोके बन्धन से निकलनेका प्रयल करता है तब यही जीवात्मा क्रमसे परमात्मा बन जाता है। यही कारण है कि संसारी जीव की तीन दशाएं बताई गई हैं । बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा । जब तक इसकी दृष्टि कर्मवन्धसे सर्वथा मुक्त होनेकी नहीं होती तबतक इसको बहिरात्मा या मिथ्याष्टि कहा जाता है। किंतु जब उसकी दृष्टि में यह बात आ जाती हैं कि संसार में भ्रमणका व उसके १-नाकास्ति नृणां मृतिरिति सलातिषेधनं शिवेन कृतं । दमारोत्यातदुद्भावनमुहा वाजीति विपरीतम् ।। सविद्याप्रियगर्हितभेदास्त्रिविषं च निन्यमित्यनृतं । दोषोरगवल्मीकं त्यजेच्चतुर्धापि तत् वा ॥३६॥ मन०१० ४॥ २-अतिशयरूप सुगन्ध तनु नाहि पसेव निहार । प्रिहित बचन अतुल्य बल रुधर रवंत आकार ! लक्षण सङ्स र माढ युत समचतुष्क संस्थान । यजवृषभनाराचयुत ये जनमत दश जान ॥ ३-देखो देवकुत १४ अतिशय ) ४-राजपर्तिक श्रादि ५-आदिपुराण । विनगारधमाभूत स०१ श्लोक २ ।
SR No.090398
Book TitleRatnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchand Shastri
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages431
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size15 MB
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