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________________ ॐ नTार Į निमित्तसे होनेवाले जन्म जरा मरण आदि दुःखोंका मूलकारण यह कर्मबन्धन ही है अतएव सर्वथा य है । मैं कर्मोसे सर्वथा भिन्न ज्ञानदर्शन सुखरूप हूँ । कर्मोंसे सम्बन्ध छूट जानेपर मैं शुद्ध स्वरूप को प्राप्त कर सकता हूँ। और इसीलिये जो कर्मों के बन्धन से मुक्त होने के प्रयत्न में भी लग जाता है तब उसको अन्तरात्मा कहा जाता है। तथा प्रयम के द्वारा जब कर्मों' में मुख्य घातिया चार कर्मों से एवं कुछ अन्य १ भी कम मुक्त हो जाता हैं तब उसको परमात्मा कहा जाता है। परमात्मा दो तरह के हुआ करते हैं । एक सकल – सशरीर और दूसरे विकल---- शरीर । ऋशरीर को परम मुक्त कहते हैं जो कि सभी कर्मों और शरीर के सम्बन्ध से भी सर्वथा रहित हो जाता है सशरीर परमात्मा को जीवन्मुक्त कहते हैं । जीवन्मुक्त परमात्माको ही आप्त शब्द से यहां बताया हूँ । चार घाति कर्मों का सम्बन्ध सर्वथा छूट जानेसे और शेष प्रघाति कमों में से भी कुछ प्रकृतियों के सर्वथा निर्जीर्ण होजाने एवं बाकी की प्रकृ तियोंमें से पाप प्रकृतियों के सर्वथा असमर्थ हो जाने यादिकेर कारण आर्हन्त्य अवस्थापन नीर्थकर भगवानकी जो कुछ अवस्था या जैसा कुछ श्राध्यात्मिक और आधिभौतिक शारीरिक स्वरूप निष्पन्न होता है वही यहां पर शास्ता के आठ विशेषणों द्वारा स्पष्ट किया गया है। यह ऐसी अवस्था है जिसमें कि बनावटीपन नही चल सकता । क्यों कि वह कमों के उदय या चय आदि से सम्बन्धित होने के कारण स्वाभाविक तथा सत्य है यद्यपि सांसारिक होनेसे कुछ कमरे के उदय तथा सत्ता में रहने के कारण वह श्रवस्था भी हेय है। और जैसा कि पहले कहा गया है कि उन कर्मा की स्थिति पूर्ण होते ही वह भी उसी पर्याय सर्वथा समाप्त होकरही रहती है। ऊपर के कथनसे और विद्वानों को स्वयं विचार करने से यह यात मालुम हो जायगी कि परमेष्ठी आदि शब्दों के अर्थ में किन किन कर्मों की एवं कैंसी २ अवस्था कारण पडा करती है। प्रश्न - ऊपर परंज्योतिः शब्दका अर्थ करते हुए आपने लिखा है कि उनके शरीरकी प्रभा कोटिसूर्यके समान हुआ करती है। सो इसका क्या कारण है ? किस कर्मके उदयसे ऐसा हुआ करता है ? आतप उद्योत प्रकृतियंकि उदय की तो उनके संभावनाही नहीं है । फिर यह किस कर्मका कार्य है ? 1 उत्तर- -यह वर्ण नामक पृलविपाकी नाम कर्मके उदय का कार्य है। तात्पर्य - यह कि संसारमे रहते हुए भी ओ मुक्त हैं ऐसे जीवन्मुक्त परमात्मा ही भाप्त माने गये हैं । यह पद सर्वोत्कृष्ट होनेके कारण परमपद कहलाता है । इस पदको vairee साधारणता दो विशेषणोंसे व्यक्त की जाती हैं। एक तो अन्दादशदोषरहित और दसरा १- नामकर्म की १३ और आयुखिक । १, १ - इसके लिये देखो गोम्मटसारका बन्धोदयसत्त्व न्युच्छित्ति प्रकरण । ३– देखा आप्तमीमांसा की "मायाविध्यपि दृश्यन्ते" की अष्टसहस्त्री ! ४न्द्रिय मनुष्यांके इनका उदय नहीं हातां देखी गोम्मटसार कर्मकाण्ड ५-दलो घषता ।
SR No.090398
Book TitleRatnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchand Shastri
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages431
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size15 MB
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