SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 315
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ .-- -.- A-HARA रत्नकरण्ड प्रावकाचार पदमें स्थित तीर्थकर भगवान्के त्रिलोकोद्धारक लोकोत्तर विभूतियुक्त सर्वोत्कृष्टेष्ट पदकी मी केवल स्वपद न होने के कारण उपेक्षा की जाती है । यहाँ पर प्राचार्य मोक्षके उपायोंमें प्रतिबन्धकामानविरिट अन्तरंग असाधारण उपादान साधन को मुख्यतया यतानेके लिये प्रवर्तमान हैं। क्योंकि यह तो सर्वधा युक्तियुक्त एवं सुनिश्चित सिद्धांत है कि कोई भी कार्य अपने योग्य आदानके अभाव में प्रथवा उसकी असमर्थताको अवस्था सिद्ध नहीं हो सकता । जिस तरह सय परिणममान द्रव्यके लिये काल द्रव्य सहज निमित्त बन जाता है, अथवा अपवायुष्क जीवके मरणमें शन द्वारा यद्वा स्वयं प्रात्म यातके लिये किया गया शस्त्रप्रहारादि प्रेरक निमिष माना जाता है। उसी तरह निर्वाण रूप कार्यकी सिद्धिक विषयमें समझना चाहिये । यहां आचार्य बतलाना चाहते हैं कि यद्यपि बाह्य संयम तपश्चरण आदि भी उसमें निमित्त हैं परन्तु वे अन्तरंग योग्यताके विना वस्तुतः सफल नहीं हो सकते । निर्वाणकी अन्तरंग असाधारण उपादान रूप समर्थ योग्यता सम्पग्दर्शन अथवा रत्नत्रयपर निर्भर है यही कारण है कि रत्नत्रयरूप परिणत प्रात्मा ही वास्तवमें मोक्षका कारण माना गया है और वही वस्तुतः मोक्षका मार्ग है । स्था धातुका अर्थ ठहरना है। जो आत्मा इस रत्नत्रयरूप मोक्षक मागमे स्थित है उसी को मोदमार्गस्थ कहते हैं। निर्मोहः-मोहसे प्रयोजन मिथ्यात्व अथका दर्शन मोह कर्मका है। जो उसके उदयसे निकल गया---पृथक होगया वह निर्भाह है। यह हेतुरूप विशेषण पद है। और इसके द्वारा विरोधाभास अलंकार का आशय भी स्फुट हो जाता है। अन्यथा यह। यह विरोध प्रतीत हो सकता और शंका हो सकती थी कि जो घरमें स्थित है वही मोक्षमागमें स्थित किस तरह माना या कहा जा सकता है। किन्तु निर्मोह विशेषण इस विरोध और शंकाको परिहार कर देता है । इस वाक्यमें गृहस्थ पक्ष है, मोक्ष मार्गस्थता साध्य है, और निर्मोहता हेतु है। जिससे यह स्पष्ट कर दिया जाता है कि मोचमार्ग स्थितिकी निर्मोहताके साथ व्याप्ति है। जहां निर्मोहता है वहां मोक्षमार्गमें स्थिति अवश्य है। फिर चाहे वह गृहस्थ हो या मुनि हो अथवा किसी भी गतिका जीव हो। यदि निर्मोहता नहीं है तो मोक्षमार्गमें स्थिति भी नहीं है । भले ही वह देश बत क्या महावतोंका ही पालन करनेवाला क्यों न हो । कारण यह कि अतोका धारण पालन तो दोनों ही अवस्थानों में सम्भव है । मोहके उदयमें उसके मन्द मन्दतर मन्दतम उदयकी अवस्था में भी हो सकता है और सर्वथा उदयके प्रभाव भी सम्भव है। किंतु जीवकी मोचमार्गमें १-सपयत्वं तित्यपरं आधगत बुद्धिस्स सुत्तरोइस्म । दूरतरं गिन्वाणं संबमतवसम्पदं तस्स ।। २-द्रव्यसंग्रह-यणचयं ण बट्टा अप्पारणं मुयदु अण्णवियम्मि । सम्हा दत्तियमइयो होदि मोक्यास कारण भादा।। ३-आपात विरुद्धला यत्र वाक्ये न तत्त्वतः । शब्दार्थकतमाभाति स विरोधः स्मतो प्रथा ॥२१॥ वाग्मत।
SR No.090398
Book TitleRatnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchand Shastri
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages431
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy