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________________ २३० (मकर श्रावकाचार लतासे प्रति पाई जाती है। यह कहने की आवश्यकता नहीं है कि यह कथन पर्यायाश्रित भावको ही दृष्टि में रखकर किया गया है । किन्तु इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि मनुष्य गतिमें जो प्रवृत्तियां हुआ करती हैं उनमें आभिमानिक भावकी ही प्रचुरता रहा करती है । आप्त भगवानने जो मोल मार्गका वर्णन किया है वह भी उसके मुख्य पात्र मनुष्य- आर्य मनुष्यको दृष्टिमें रखकर ही किया है । कारण यह है कि परसा पूर्वरूप पालन की सामर्थ्य और योग्यता अन्यत्र नहीं पाई जाती । जब सम्पूर्ण मोक्षमार्गका ही वर्णन मनुष्य और उसकी योग्यता तथा पात्रता की लक्ष्य में रखकर किया गया है तब उस समस्त वर्णनरूप मंदिरकी नीवके समान सम्यग्दर्शन एवं उसके अंग और मल दोषों का वर्णन भी उसीकी पेक्षा से मुख्यतया समझना चाहिये । फलतः मदं सम्बंधी दोप भी इसी दृष्टिसे हैं। और यहीं पर पाये जानेवाले विषयोंके कारण उसके आठ भेद, भी बताये गये हैं । " दूसरी बात स्वामिन् के विषय में हैं। इस तरह की अस्मय प्रकृति किन मनुष्यों में पाईं जाती हैं इस बातका विचार करनेपर मालुम होता है कि उसके मुख्यतया स्वामी तपोभूत् हैं क्योंकि मुख्यतया उन्होंकि वह शक्य तथा संभव भी हैं। जैसा कि दीक्षा धारण करके तपश्चरण के लिये प्रवृत्त साधुओं के लिये बताये गये २७ पदों के स्वरूप को दृष्टिमें लेनेपर मालुम हो जा सकता है। 1 पारित्राज्य से सम्बंधित २७ पदों के नाम आगम में इस प्रकार बताये हैंजातिर्मूर्तिश्च तत्रत्यं लक्षणं सुन्दरांगता प्रभामण्डलचक्राणि तथाभिषवनाथते ॥ १६३॥ सिंहासनोपधाने च छत्रचामरघोषणाः । अशोक वृक्षनिधयो गृहशोभावगाहने ॥ १६४॥ क्षेत्रज्ञाज्ञासभाः कीर्तिर्द्वन्द्यता वाहनानि च । भाषाहारसुखानीति जात्यादिः सप्तविंशतिः ॥ १६२ ॥ अर्थात् जाति २ मूर्ति ३ उसमें पाये जानेवाले लक्षण ४ शरीर की सुन्दरता ५ प्रभा ६ मण्डल ७ चक्र ८ अभिषेक ६ स्वामित्व १० सिंहासन ११ उपधान १२ छत्र १३. पमर १४ घोषण १५ अशोक वृक्ष १६ निधि १७ गृहशोभा १८ श्रवगाहन १६ क्षेत्र २० श्राज्ञा २१ सभा १२ कीर्ति २३ वन्द्यता २४ वाहन २५ भाषा २६ आहार २७ सुख । मदके जो आठ विषय बताये हैं वे प्रायः सभी इन २७ पदोंमें अन्तर्भूत हो जाते हैं। माचाखने जात्यादिका मद छोडकर तप करनेका और वैसा करनेपर जो फल प्राप्त होता है उसका न किया है उदाहरणार्थ जातिके विषय में लिखा है किजातिमानप्यनुत्सिक्तः संभजेदर्हतां क्रमौ । यतो जात्यन्तरे जात्यां याति जातिचतुष्टयीम् ॥ १६७॥ १-- विपुराण पर्व ३६ । विशेष जिल्लासुओं को यह प्रकरण वहीं देखना चाहिये और उसके सम्बन् में क्षण गम्भीर विद्वानोंको अच्छीतरह विचार करना चाहिये।
SR No.090398
Book TitleRatnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchand Shastri
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages431
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size15 MB
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