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________________ २३१ विका अफा अश्यासा सार अर्थात् उत्तम जातिवाला होकर भी जो उसका उन्सेक-गर्व छोडकर मरिहंत भगवान के चरणयुगल की सेवा करता-तपश्चरण करता है यह जन्मान्तर धारण करने पर ऐन्द्री विषमा परमा और स्वा इन चार जातियों को प्राप्त किया करता है। इसीतरह मूर्ति लक्षण सुन्दरांगता आदिके विषय में भी अभिमान छोडकर तपरपरन करने और वैसा करने पर जो फल होता है उसका अत्यन्त महत्वपूर्ण वर्णन किया है। इस कथनसे भस्मय श्रद्धाके साथ २ कीगई तदनुकूल प्रवृत्तिका स्वामित्व और उसके ही अनुसार प्राप्त होनेवाले असाधारण फलका अधिकार मुनियोंको है, यह स्पष्ट होजाता है। इसका अर्थ यह नहीं है कि देशसंयमी या असंयतसम्यग्दृष्टिको निरभिमान श्रद्धानका कोई भी असाधारण फल प्राप्त नहीं हुआ करता उनको भी अपनी २ योग्यतानुसार फल अवश्य प्रास होता है किन्तु हमने जो स्वामिन्यका उल्लेख किया है वह उस्कृष्टताकी अपेचासे है। सम्यग्दर्शनकी अम्मयताजन्य महत्ताको गतस्मय महात्माओंने ही समझा है, उन्होंने कहा है, और नो श्रद्धालु उसपर श्रद्धा रखकर उसी प्रकारकी प्रकृति करता है वहभी उसी तरहके महान् कसको प्राप्त करता है। किन्तु इसके विपरीत जो व्यक्ति इन पाठों विषयों में मदसहित होकर पेश करता है उसको क्या हानि उठानी पड़ती है यह बात स्वयं ग्रन्थकार भागेकी कारिकामें बनाते हैं स्मयेन योऽन्यानत्येति धर्मस्थान गर्विताशयः । सोऽत्येति धर्ममात्मीयं न धर्मो धार्मिकैविना ।। २६ ॥ अर्थ----गर्वयुक्त आशयको रखनेवाला जो व्यक्ति उक्त झानादि विषयक मद के द्वारा दूसरे सधर्माओंका अतिक्रमण करता है वह अपने ही धर्मकी अवहेलना करता है। क्योंकि धर्म धर्मामाओंके बिना नहीं रहा करता । प्रयोजन-सम्यग्दर्शनका लक्षण बताते समय श्रद्धानरूप क्रियाके तीन विशेपण दिये थे और सीनही उसके विषय बताये थे विचार कानेपर मालुम होता है कि यद्यपि दोनों ही क्रियाविशेषणोंका सामान्य सम्बध तीनोंडी विषयों-प्राप्त प्रामस और तपोभनके साथ पाया जाता है। किन्तु इनमें से एक २ विषयके साथ एक २ किया विशेषणका परस्पर कुछ विशिष्ट सम्बंध भी है। अब का आप्त के साथ, त्रिमूमापोढ़ता का आगमके साथ भीर अस्मयताका तपोमत के साथ विशेष सी है, ऐसा मालुम होता है, क्योंकि मोक्षमार्गके मूलभूत नेता भाप्त परमेष्ठी हैं जिनका कि सपन या स्वरूप ऊपर बसाया जा चुका है। उनके परोक्ष रहते हुए भी उनकी सथाभूखवा पान न केवल निःशंक रहना ही आवश्यक और शुरूप किंतु निरतियार रहना भी उतना ही पावश्यक है। धीवराग भगवानसे किसी भी अपने विषयमें प्राकारा रखना वाचिक चाल और श्रद्धानका दूर उपयोग है। इसीवरह उनके स्वरूपके विषय में विचिकित्सा और स्वाहा रहना भी श्रेयोमार्ग से उन्मार्गकी वरफ आना ही। १- जन्तादरः" २-"ना-बालादिको बिना।
SR No.090398
Book TitleRatnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchand Shastri
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages431
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size15 MB
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