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चंद्रिका टीका पच्चीसवा लोक
२२६ ऋद्धि शब्दमे ग्राम सुवमा धन धान्य दासीदास कुप्य भांड रूप बाह्य विभूतिसे यहां प्रयोजन है जिसकी कि प्राप्तिमें लाभान्तराय कर्मका क्षयोपशम भी एक अन्तरंग बलवसर कारण है। प्रत एवं उसको चायोपशमिक भाव ज्ञानादि के साथ गिनाना चाहिये था परन्तु हमने वैसा न करके मोदयिक विषयों में गिनाया है । क्योंकि इसकी प्राप्ति में साता आदि पुण्यकर्मके उदयकी प्रथानता है । लाभान्तरायके क्षयोपशमका काम इतना ही है कि पुराणोदयसे जो प्राप्ति होरही हो उसमें विन्न उपस्थित न हो । अतः वह गौण है । देखा भी जाता है कि इस विभूतिकी प्राप्तिमें जिसको कि लोकमें उन्नति ममझा और कहा जाता है उसके साधनभूत माने गये उद्यम साहस धर्य चल मौर पराक्रम जो कि अन्तरङ्गमें वीर्यान्तरायके क्षयोपशमसे सम्बन्धित हैं उनके यथेष्ट रहतेहए भी यदि पुण्योदय न हो तो इच्छित विभूति प्राप्त नहीं होती और नहीं हो सकती है। प्रागम के वाक्यों से भी यही भाव व्यक्त होता है । भरतेश्वरने जो प्रयत्न किया था वह भी देवको १प्रमाख मानकर ही किया था।
ज्ञानादिकके सम्बंधको लेकर धर्मात्माओं के साथ किसतरहसे श्राभिमानिक भावोंकी प्रवृत्ति हुआ करनी है इसका वर्णन ग्रन्थान्तरों में किया गया है वहांसे देखलेना चाहिये । हम यहाँपर दो बातों को स्पष्ट करदेना चाहते हैं । प्रथम तो यह कि सम्यग्दर्शनक मलोत्पादनमें अन्य कपायोंको भी कारण रूपमें रहते हुए मान कपायको ही प्राधान्य देनेका क्या कारण है ? झरी बात यह कि इस तरहकी अम्मयवृत्तिके द्वारा सम्यग्दर्शनको निर्मल और सफल बना सकनेवाले मुख्यतया उसके स्वामी कौन हैं ?
यद्यपि यह ठीक है कि--सम्यग्दर्शन सामान्यतया चारोंही गतियों में पाया जाता है अतएव उसके मल दोपों की प्रवृत्ति भी चारों ही गतियोंमें सम्भवहै । किन्तु जब हम सिद्धांतानुसार चारोंगतियोंकी स्थितिके विपयमें दृष्टि देकर विचार करते है तो एक विशेषता पाते हैं । यह यह कि चारों ही गतियोंके सभी जीव जहांतक कपायका सम्बंध है, नभी कषायों-क्रोध मान माया लोमरूप कपायके चारों ही भेदासे युक्त रहते हुए भी मुख्यतया एक २ कपायसे आविष्ट माने गये है। नरकर्मे क्रोध तिर्यग्गतिमें माया, मनुष्यगतिमें मान, और देवगतिमें लोभकी प्रधानता बताई गई है यद्यपि यह सर्वश नियम नहीं है, फिर भी प्रायः करके उन २ गतियोंमें निर्दिष्ट कपायकी ही बहु
१–सस्मिन् पौरुषसाध्याप कृत्ये देवं प्रमाणयन् । लवणाधिजयोगुना सोभ्यैच्छद विकी क्रियाम् ॥ आदिपु० २८.५३ ।।
अनगार धर्मामृत अ०२ श्लोक ८६ से १४ तक भूल संस्कृत अधवा हमारा हिन्दी अनुवाद जो कि सोलापुरसे कई वर्ष पूर्व प्रकाशित हो चुका है। इसी तरह और भी प्रथ । ३-वयपि यह बात उत्पन्न होनेके प्रथम क्षणकी दृष्टिसे ही आगममें कही गई है जैसाकि जोव काकी गाथा नं०२८६ णारयतिरिक्खणरसुर आदिसे मालुम होता है किन्तु पूरी पर्याय उन्ही कपायोंकी गलत रहा करती है। जैसाकि उनकी परस्थितिसे विदित हो सकता है।