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________________ 你 रत्नकरण्डाकार प्रश्न हो सकता है कि ज्ञान तो आत्माका स्वभाव हैं, आप उसको अनात्मीय किaare और क्यों कहते हैं ? किन्तु इसका उथर ऊपरके कथन से ही है। तो पारी जीव ही कथंचित् रूपीर मूर्त हैं। दूसरी बात यह कि यहांपर ज्ञानादिक जो आठ भाव लिये हैं वे सभी कर्मापेक्ष हैं। या तो पुण्यकर्म के उदद्यनिमित्तक हैं अथवा घातिकर्मके क्षयोपशम जन्य हैं । ज्ञान बल और तप क्षायोपशमिक हैं और शेष पांच- पूजा कुल जाति ऋद्धि और शरीर औदथिक हैं। इन में भी शरीर पुद्गलविपाकी और बाकी चार यथायोग्य जीवविपाकी कर्मकि उदयसे हुआ करते हैं। तथा खानावरण के क्षयोपशमस होनेवाला ज्ञान, वीर्यान्तरायके क्षयोपशमसे होनेवाला बल तथा चारित्रमोहके क्षयोपशमसे जन्य तप ही प्रकृतमें विवक्षित है। आत्मा के शुद्धस्वभावरूप क्षायिक ज्ञान और वीर्य विवक्षित नहीं हैं। इस तरहके क्षायोपशमिक तथा श्रदयिक भाव ततः विचार करनेपर आत्मीय नहीं माने जा सकते२ | शंका - आगममें बलके तीन भेद बतायें हैं— मनोबल वचनबल और कायवल | इनकी उत्पत्ति क्रमसे मनोवर्मणा वचनवर्गणा और कायवर्गगाके द्वारा हुआ करती है। जो कि नोकर्मवर्गणा भेद हैं और शरीर नामकर्मके उदय के अनुसार प्राप्त हुआ करती हैं। अत एव आप बलको बायोपशमिक कहते हैं सो ठीक नहीं है। औदयिक कहना चाहिये । समाधान — मनोवर्गणा आदिक पुद्गल विपाकी शरीर नामकर्मके उदयसे प्राप्त होती हैं, और वे बल में निमित्त या अवलम्बन होती हैं, ये दोनों ही बाते ठीक हैं। परन्तु बल मौदयिक नहीं हैं क्षायोपशमिक ही हैं यहांपर वीर्यन्तराय कर्म के क्षयोपशम से उद्भूत वीर्यशक्तिकाही नाम बलर है । अवलम्वनरूप वर्गणाओं के भेद से इस के तीन भेद होजाते हैं। क्योंकि अन्यस्थानों में जहां बलके लिये शक्ति शब्दका प्रयोग किया हैं वहां उसका अर्थ पराक्रम ही किया है जिसका कि सम्बन्ध आत्मा से ही युक्त हो सकता है। अन्यथा उनमें क्रमवर्तित्व नहीं बन सकेगा | तीनों ही वर्गथाएं अपना २ कार्य एक समय में ही कर सकती हैं यह बात भी मानी जासकेगी जो कि भागम के विरुद्ध हैं । १--संसारत्या रूत्रा फम्मविमु । २ - अनादिनित्यसम्बन्धात्सह कर्मभिरात्मनः । अमूर्तस्यामि सत्यैक्ये मूर्तस्वमवसोयते ||१७|| बन्धं प्रति भवत्यैक्यमन्योन्यानुप्रवेशतः । युगपङ्कावितः स्वर्णरौप्यवज्जीवकर्मणोः ॥ १८ ॥ तथा च मूर्तिमानात्मा सुराभिभवदर्शनात् । न अमूर्तस्य नभसो मदिरा मदकारिणी ||१६| ॐ००० ५ ॥ ३ देखी राजदार्तिक- योगश्च वीर्यलादिग्रहणेन गृहीतः ५-५-८नु च योगप्रवृत्तिरात्मप्रदेशपरिस्पन्वकिया सा वीर्य विरिति दायोपशमिको व्याख्याता-२०६-६, योगाश्च चाायोपशमिकाः ६-१३ इत्यादि । ४-१०२००० की टीका शक्तिः पराक्रमः । डोधिएकाले एक य होथि नियमेण । गो० जी० २४१ ॥
SR No.090398
Book TitleRatnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchand Shastri
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages431
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size15 MB
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