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________________ चांद्रका टीका पचोमवा मोक विशुद्धिको ययावत् रखनलिये साधर्मियों के माध श्रामिमानिक व्यवहार करने में सर्वथा पृथक रहना चाहिये। ध्यान रहे कि ज्ञानादिक जो कि अभिमानक विषय हैं वे हेय नहीं, उनका मद हेग है। शानादिक ती प्रयोजनीभूस एवं उपादेय है। सम्यग्दृष्टि जीव जो कि मुमुनु होने के कारण जिस जिनदीक्षाके लिये उत्सुक रहा करता है, उस दीक्षा के धारण करने में ये आठो ही विषय किसी न किसी रूपमें आवश्यक है ! अत एव ये उस समय सबसे पहले देखे जाने है। दीना देनेवाले आचार्य उस दीक्षा ग्रहण करने के लिये प्रवृत्त हुए शिक्षक दिस्यों दीक्षादेनके पूर्व देखते हैं कि इसकी ज्ञानशक्ति किसतरह की है । यह मूड विपर्यस्त जड़यन धूर्त अज्ञानी है अथवा सुमेधा है। क्योंकि जो समीचीन विचारशील, ग्राहकवद्धि, धारणाशक्तियुक्त, तथा शात मरलचित्त है वही दीक्षाके योग्य मानागया है । दीक्षा धारण करनेवालों में जिस योग्य. ताकी आवश्यकता बताई गई है उनमें सुमेधा --अच्छी बुद्धिका रहना विशेषरूप से परिगणित है। ज्ञानके ही समान पूज्यता आदिका भी विचार किया गया है। निंद्य व्यक्तिको दीक्षाका भपात्र ही माना है। इसीतरह उत्तम कुल और उत्तम जाति के व्यक्ति ही दीक्षा के अधिकारी माने गये हैं। दुर्वल कोमल शरीर अतिबाल अतिवृद्ध व्यक्ति भी दीक्षा के लिये निषद्ध ही हैं । अनशनादिकी शक्ति का रहना तो आवश्यक है । राज्यविरुद्ध अपराधी भादि को भी दीक्षा नहीं दी जाती। जिमका अंगभंग है, विकलांग है विररूप वे डोल सुन्दर है यह भी दीक्षा के लिये अयोग्य ही माना गया है। इससे स्पष्ट है कि ये ऐसे श्रावश्यक गुण हैं जिनके विना मुमुद्ध निर्वाणका मार्ग तय नहीं कर सकता । अतएव स्पष्ट है कि इन गुणों को पाकर जो व्यक्ति गर्नु करता है पाने में उत्कर्ष की भावनाके साथ दूसरे में जो कि सथर्मा होकर इन देवाधीन अना. त्मविषयों में अल्प है तिरस्कारका भाव धारण करता है वह सम्यग्दर्शनका स्मग नामका दोष है। मतलब यह कि अनात्मभावों के निमित्तसे उनको प्रधानता देकर आत्मीय माकी अवहेलनी करनेपर सम्यग्दर्शनका महप्स म्लान होजाता है। यह उसकी प्रासादना है। और ऐमा करने पर अवश्य ही सम्यग्दर्शन अपने पदसे नीचे गिरजाता है। स्त्रीको उसका पति यदि स्वयं कुछ भी मलापुरा कहे, कदाचित् मारपीट भी दे तो मी उसको उनना पुरा नहीं लगता जितना कि सपनीका अनुचित पश्च लेकर, उसके संकेतसे वैसा करनेपर लगता है । इसी तरह अनात्मीय भावनाका पक्ष रखकर कियागया तिरस्कार भी आत्मभावनाको सब नहीं होता। इस तरहके व्यवहार से उसकी प्रसन्नता नष्ट होजाती है। १-विशुद्धकुलगोत्रस्य सद्वृत्तस्य यपुष्मतः । दीक्षायोग्यत्वमानातं सुमुखस्य सुमेधसः ।। भादिपु ३६. १४॥ या देखो अन० १० अध्याय । श्लोक और उसको काम निन्धबालकादिषु' पतितादेन सा देश
SR No.090398
Book TitleRatnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchand Shastri
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages431
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size15 MB
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