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AshurnavanamaA
रलकाकायकापार संस्कृत टीकामें इसका अर्थ उत्साह दिया है। किन्तु प्राणोंका बल अथवा आयुर्वेद के अनुसार बताया गया धातुरसका पोषक तत्व अर्थ भी संगत हो सकता है । जो कि ओजके लिए नोकर्य बंधवा सहकारी निहित है।
तेजस्--यह शब्द भी विज थातुसे असुन् प्रत्यय होकर बना है। इसके भी अम्निा था, वीर्य, सूर्य प्रकाश, प्रभाव, पराक्रम, अपमानको न सह सकनेका भाव आदि अनेक अर्थ होते हैं । किन्तु प्रकृतमें इसका अर्थ प्रताप या कान्ति करना ही उचित है। संस्कृत रीकामें भी ये दो ही अर्थ बताये हैं। कान्तिसे अभिप्राय शारीरिक दोप्ति और प्रनापका माशय कोष एवं दण्डसे उत्पन्न होनेवाला तेज हुआ करता है। यहां दोनों ही अर्थ उचित है । भोर
विद्या--दित् धातुसे क्यप् प्रत्यय होकर यह शब्द बना है । इसका अर्थ बोथ, अवमम, जानना, नस्य साक्षात्कार प्रादि हुमा करता है। किन्तु सहज और आहार्य बुद्धि मर्थ सर्वश उपयुक्त है जैसा कि संस्कृत टीकामें भी किया गया है । यद्यपि लिया और बुद्धि दोनों भिन्नभिन्नर है । शास्त्रों आदिके अध्ययनादि द्वारा प्राप्त विषय-ज्ञानको विद्या और ज्ञानावरस कर्मक श्योपशमक अनुसार लब्ध विशुद्धिको बुद्धि कहा जाता है। जिसके कि निमिवसे ग्रहण धारण विज्ञान ऊहापोह आदि विशेषरूपमें भेद हो सकते हैं। टीकाकारका भी अभिप्राय माहार्य बुद्धि शब्दसे विद्या और सहज बुद्धि शब्दसे क्षायोपशमिक विशुद्धिका ही मालुम होता है। कारिकाक्त पिया शब्दसे दोनों ही अर्शीका ग्रहण किया जा सकता है, अथवा करना चाहिये।
वीर्य-वीर शब्दसे यत् प्रत्यय होकर यह शब्द बनता है। इसका अर्थ विशिष्ट सामर्थ किया गया है। जीव द्रव्य और अजीवद्रव्य दोनोंमें पाई जानेवाली यह एक शक्ति है जो कि जीवमें तो अपने प्रतिपक्षी कर्म-~अन्तरायके क्षयोपशम विशेषके अनुसार अथवा सर्वथा पयते प्रकट हुआ करती है। और अजीव द्रव्यमें उसकी पर्याय तथा योग्य द्रव्यादि चतुष्टय-द्रव्यक्षेत्र काल भावका निमित्त पाकर प्रकट हुआ करती है। किन्तु यहां मुख्यतया जीव-शक्ति अमिप्रेत है।
यरास--इसका अर्थ की प्रसिद्धि ख्याति गीति आदि हुआ करता है ये सप यशके पर्यायवाचक शब्द है । यशके होनेमें अन्तरंग कारण यशस्की नाम कर्मका उदय४ है जिसका
१-प्रतापः कोपदण्ड तेजः ! २--भाग्यानुसारिणी लक्ष्मीः कीर्तिनानुसारिणी। अभ्याससारिणी थिया बुद्धिः कर्मानुसारिणी। ३-देखो गो० सार क० गाथा जीवाजीवदामाद परिमे॥
४-पुण्यगुणझ्यापनकारणं परास्कीसि राम ॥, ११, ३९."ननु यशः कीर्तिरित्यनयो गोत्पषिरुषः इति पुनरुतत्त्रप्रसंगः । नैष दोषः । यशो नाम गुणः (यशस्य कम) कीर्वनं संशयन कोर्विः सशसः तिरित्यरत्यर्थभदः ॥ रा-बा० ।
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