SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 59
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ रत्नकरण्टश्रावकाचार परिमा होता रहता है ऐसे भी संसारी जीवमें इस शब्द का अर्थ मुख्यतया घटित होता है। किंतु अरिहंतका बाचक इसलिये है कि वे इस तरहकी-होकर होते रहने की-भून्वाभवित्वरूप पद्धतिको ग्रमाप्त करचुके है । अब उनको केवल वह अवस्था प्राप्त करना है जोकि ध्रुवई है, जिसके बाद फिर दूसरी कोई विसदृश अवस्था प्राप्त नहीं हुया करती, न हो ही सकती है । ऐसी अवस्याएं सिद्धगतिर शादि है जिनकेलिये कहागया है कि “सा गरियंत्र नागतिः३ " । इन अवस्थाओंको अरिहंतही प्राप्त किया करते हैं । अतएव उनका भी नाम भव४ है। यही कारण है कि उनका नाम बहा भव है वरी असुनर्भव भी है । परन्तु यहॉपर चतुर्गति एवं उनके अन्तर्गत ८४लाख योनियों आदिमें जो परिवर्तन अनादिकालसे होरहा है जीवका वह विवर्तकम ही भवपद्धतिशब्इसे आचार्य को अभीष्ट है। उसके मुख्य कारण मिथ्या दर्शनादिक हैं, अतएव इनके प्रत्यनीक सम्यग्दर्शना. दिक भाव जोकि अपुनर्भवताके साधक है वे आत्माके निज भात्र हैं अतएव वे ही उरा भरपद्धतिके नट करने वाले तथा उसकल स्वरूप नानाविध खास पारमुक्त करने वाले हैं। इसलिये वे ही पासव धर्मशब्दके भी वाच्यार्थ हैं और उन्होंको आवायने यहां धर्मशब्दसे बताया है। तात्पर्य पम्यादर्शनादिके समूहका नाम धर्म है । इस धर्मकी पूर्णता पार्हन्त्य अवस्था प्राप्त होनेपर ही हुआ करती है । जबतक ये तीनों ही सर्वांसमें पूर्ण नहीं होते तबतक उनमें मोद रूप कार्यको सिद्ध करनेकी समर्थ कारणता भी नहीं पाती । इस विषयमें पहिले संकेत किया जा चुका है। अतएव मुमुक्षुका यह कर्तव्य होजाता है कि जबतक सम्यग्दर्शनादि प्रकट नहीं हुए हैं तबक उनको प्रकट करनेका पूर्ण करनेका प्रयास करे । और प्रकट होनेपर उनके प्रत्येक अंशको पूर्ण तथा निर्मल मनानेका प्रयत्न करे । इसकेलिये उसे उनके भेद, अंश, अवस्थाएं एवं उनके बाधक साधक कारणों आदिको भी अवश्य जानलेना चाहिये। क्योंकि ऐसा किये बिना वह बाधक कारणों को दूर करने और साधक कारणों को प्राप्त करते जानेलिये जो उसे उसोत्तर पुर-- पार्थ करते जाना चाहिये वह नहीं कर सकता और नहीं वास्तविक सफलता ही प्राप्त कर सकता है। इस विषय में यहां अधिक लिखनेसे ग्रन्थका विस्तार बहुत अधिक बढ़ जायमा अतएव नहीं लिखा जाता | जाननेकी इच्छा रखने वालों को ग्रन्थान्तरोंसे समझलेना चाहिये। किन्तु इतनी यात संक्षेपमें अवश्य समझलेनी चाहिये किं सम्यग्दर्शनादिके निरुक्तिभेदक अनु. सार, द्रव्यक्षेत्रादिकी अपेक्षा भेदके अनुसार, प्रागम-प्रनुयोग भेदके अनुसार, तथा प्रमाण नय निक्षेप अनुयोग आदिके अनुसार जो आगममें भिन्नर लक्षण किये हैं ये सब सापेच हानेके कारण सत्य होते हुए भी आंशिक हैं । वे सब अरिहन अवस्थामें इस तरह अन्तर्भत होजाते है जिस मह से कि मौके प्रकाशमें जुगुनू , दीपक ग्रादिका प्रकारा। अतएव जहां तक वह अवस्था प्राप्त २-धुवमचलमणोवम गई पसे। सः सा. २-सिद्ध गति, अनिन्द्रित्व, अकारात्य, अयोग आदि । ३ पञ्चाध्यायी,यशस्तिलक । ४ जिनसहस्रनाम "भवो भावो भयान्तकः । ५-७ । ५--विश्वभूर पुन भयः ॥ १ कि० स०
SR No.090398
Book TitleRatnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchand Shastri
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages431
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy