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________________ -r a -r n .- --- -- - - - -- -- -. ... -- - . ... -. चंद्रिका टीका चौथा श्लोक नहीं होती, वहां तक सम्पग्दर्शनादिको मराग-बीतराग या निश्चय--व्यवहार रूप जितनी भी अवस्थाऐं इवे सब सावन रूप होती हुई भी अनमें उसी पूर्ण गोक्षमार्गको मिद्ध किया करती है। इन सब साधन अषस्थानों में से कोई भी विवक्षित अवस्था अपनी पूर्ण अवस्थाका साध्य और उतर अयस्थाका साधन है। अन्त में स्नातक अवस्था प्राप्त होनार तीनकि समुदायमें यह सामर्थ प्राप्त होजाती है उससे संसारका अन्न एवं परम निर्वाणका उद्भव हुमा करता है। इस तरहसे आत्माको संसारसे छुटाकर मोक्षरूपमें उपस्थित करनेवाला धर्म वही है और यह एक रूपही है वहां नानाविधता नहीं है किंतु उसके पहले एनमें अनेक प्रकार पाये जाते हैं ! म अभिप्रायको स्पष्ट करनेकेलिये "धर्म" यह एक वचनका और "सदृष्टिज्ञानवृत्तानि" यह बहु व वनका प्रयोग कियागया है। इसके विपरीत मिथ्यादर्शनादिके भी अनेक प्रकार है। किंतु वे सब संसरणके ही कारण हैं। उनमें जन्म मरणकी संततिका उच्छदन करनेकी सामर्थ्य नहीं है । अतएव मुमुक्षुलिये ये हेय ही हैं। सम्यग्दर्शन प्रकट हाजानेपर जीवको संसारके पांच प्रमाहोले छोटो होटे पहन लादको भी पूर्ण न कराकर-उतने काल तक भी संसारमें न रखकर उससे सर्वथा रहित बना देता है । अतएव संविग्न भन्योकेलिये वही उपा.. देय है; और यही सत् है । तथा वही मुख्य मोक्षमार्गरूप धर्म है । क्योंकि वह ज्ञान तथा चारित्रको भी अपने उत्पन होत ही सम्पक बनादेता है। इसलिये प्राचार्य मी यहाँ अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार एवं प्राणियों के वास्तविक हितकेनिये उसी धर्मके भेदाभेदरूपको दृष्टिमें रखकर उसका निर्देश कर रहे हैं। एक अखएड. अभेदरूप धमके तीन भेद करके जो उनके नामोंका यहोमलेस मिया अब उनमें से सबसे पहिले और उक्त प्रवानभून सम्यग्दर्शनका स्वरूप बाते हैं । श्रद्धानं परमार्थानामाप्तागमतपोभृताम् । त्रिमूढापाटमष्टांगं सम्यग्दर्शनमस्मयम् ॥४॥ सामान्यर्थ—परमार्थरूप पात-आगम और तपोभृत् (तपस्वी साधु-गुरु) का तीन मुहवामी से अपगत, आठ मदोंसे रहित तथा आठ अंगोंसे युक्त जो श्रद्धान उसकी सम्यग्दर्शन प्रयोजन--- अन्य अनेक वस्तुओं में मिली हुई किसी भी विवक्षित वस्तुको पृथक करके ठीक रूपमें यदि जानना या समझना हो तो वह उसके लक्षण द्वारा ही जानी जा सकती है । चिन्द लक्ष्म लक्षण ये पर्याय वाचक शब्द है। जिसके द्वारा विभिन वस्तुओंमें मिली हुई किसी वस्तुको पृथक माना जा सके उनी को उसका लवण समझना चाहिये। लक्षण दो प्रकारका करते हैं १-द्रव्य. सत्र, काल, भव, भाव । २–पुद्गल राज्यपरिवर्तन । ३-परस्परस्यक्तिकरे सति येनाम्यवसायले घल्लक्षण
SR No.090398
Book TitleRatnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchand Shastri
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages431
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size15 MB
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